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________________ ३० ] ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः (सा. २३८) (२५७) अन्य गुणस्थानमा जइ फरी मिथ्यात्व गुणस्थान जघन्यथी अन्तर्मुहूते प्राप्त करे माटे मिथ्यात्वगुणस्थाननु जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त जाणवृ. अने उत्कृष्ट अन्तर कार्मग्रन्धिकोना अभिप्राय प्रमाणे-१३२ सागरोपमकाल प्रमाण जाणवू. कारण मिध्यादृष्टिनीय सम्यक्त्व प्राप्त करो उत्कपेयी सम्यक्त्वा ६६ सागरोपमकाल रहे, त्यारबाद एक अन्तर्मुहत सम्पग्मिथ्यात्व (मिश्रगुणस्थान)नो अनुभव फरी (कारण कर्मग्रन्थकारो सम्यक्त्वथी मिश्रा आवg माने छे.) फरी पण ६६ सागरोपम सुधी सम्यक्त्वनो अनुमान पछी बार गुणमा मोइ. साता जीव मुक्ति माप्त करे अने कोइक अधन्य जीव मिथ्यात्व प्राप्त करे नो तेवा जीवनी अपेक्षाये मिथ्यात्व त्याग कर्यांना कालथी आरम्भी फरीथी मिध्यात्व माप्त करनारर्नु उत्कृष्ट अन्तर बे छासठ (१३२) सागरोपमकाल जाणवू. वचमां आवतो मिश्रदृष्टिभावना अन्तर्मुहर्तकाल अल्प होवाथी विवश्यो नयी. आज कारणथी कर्मप्रकृतिपूर्णिमा " उक्कोसेणं अन्तोमुहूत्तम्भडियाओ दोछावट्ठोओ सागरोक्माणं मिच्छत्तस्स अन्तरकालो हवइ इति " तेमज बोजा ग्रन्थोमां पण अन्तमुहूर्ताधिक काल को छे, सैद्धान्तिक अभिप्राय प्रमाणे-सम्यक्त्वयी मिश्रमां गमन थतुं नयी, आ प्रमाणे एफजीवापेक्षया जघन्य अने उत्कृष्ट अन्तर बताव्यु अने नानाजीवापेक्षया चारे गतिमा मिथ्यात्वगुणस्थाने वर्तता मोवो सदेव विद्यमान होवाथी मिथ्यात्वगुणस्थाननु अन्तर परतुं नथी. (२) श्रीजु सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थाननु एक जीवापेक्षया जघन्य अन्तर पल्पोपमनी असंख्यातमो भाग जाणवो अर्थात् सास्वादनभाव भोगवीने फरीपण जो सास्वादनभाव पामे तो जघन्यथी पण पल्योफ्मनो अस यातमोभाग गये छते ज पामे छे ते पहेला पामी शकाय नहि, आ जघन्य पल्योपमना असत्येयभागरूप अन्तरकाल चारे गतिमा वर्तता घणा जीवोनी अपेक्षाये जाणवो अने एकवार उपशमश्रेणि प्राप्त करी उपशमश्रेणियी पढेलो जीव सास्वादनपणु अनुभवी जो फरी पाछो अन्तमुहर्ते उपशमश्रेणि पामीने त्यांथी पडयो छतो सास्वादनभाव पामे तो जघन्यथी अल्प अन्तर अन्तर्मुहर्तकाल पण पमाय छे. परन्तु ते अन्तर मात्र मनुष्यगतिमा ज यतुं होवाथी विवक्षा करी नयी, सास्वादनथी मिथ्यात्वे गयेलाने ते वखते तो अवश्य सम्यक्त्व अने मिश्र ए वेउ पुओं सत्तामां होय छे, ज्यां सुधी ते वे पुलो सत्तामा होय त्यांमुधी फरी औपमिकसम्यस्त्वनी प्राप्ति थती नथी, अने औपशमिकसम्यक्त्व बमतां
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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