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२५] ॥ीलोकप्रकाशे हतोयः सर्गः ।। (सा० १४९) [३५३] ना उपर जेनावडे श्रद्धा करे ते सम्यक्त्व क्षायिकादि प्रणा मेदवाळ (घणा भेदमांथी एक वा घणा मेदनुं सम्यक्त्र) होय ॥६९८॥ मिश्रमोहनीयथी जिनोक-धमपर एक अन्तर्मुसुधी रागने द्वेष नथी होतो, जेम नालीकर बीपना मनुष्यने अनाज उपर रागद्वेष नथी होतो तेम. तथा जिनोक्त धर्मथी जे विपरीत ते मिथ्यात्व कहेपाय॥६९९|| पुनः गुणस्थानक्रमारोहा तो ए प्रमाणे कधु छ के- 'जेम घोडी अने गधेहाना संगयो एक वर्णशंकर जाति (खच्चर) उत्पन्न थाय है, अथवा जेम गोळ अने दहिना संयोगथी कोइक बीजी जातनो रस उत्पन्न थाप छे नेम जीवने समद्धि होवाथी धर्म अने अधर्म बचे धर्ममा विलक्षण श्रद्धा उत्तन थाय छ तेथी जात्पनर रूप ( वर्णसंकर रूप) आ मिश्रसम्यक्त्व भाव उत्पन याय छे. ॥१-२॥ मिश्रष्टिजीवो सर्वथी अल्प छे, तेथी सम्यम्दृष्टिजीवी अनंतगुण अधिक छे, अने तेथी पण मिथ्याह० जीवो अनंतगुण अधिक है ( पर्याप्त पञ्चन्द्रिय जीवोमांज केटलाकने मिश्रष्टि होय छे, वळी ते कालथी अन्तमहर्नकाल मात्र ज रहे छे, माटे ने दृष्टिवाळा जोबो सर्वथी अल्प एटले असंख्याताज होय हे. अने सम्यन्टष्टिमीवोमां सिद्धभगवन्तो अनन्त होय छे. बळी दायिकनी अपेक्षाए सादिअनन्तकाल के. विगैरे हेतुओथी सम्यग्दृष्टिजीवो अनन्तगुणाधिक छे. एक निगोदा जेटला जीवो छे तेना अनन्तमे भागे सिद्ध जीवो . एटले के सिद्ध भगवन्तो फरतां एक निगोदना जीवो पण अनन्त गुण छे, तेवी असंख्य निगोदोनो एक गोळो, अने तेवा असंख्य गोळाओ लोकमां छे. ते सर्व तथा बीजा पृथ्वीकायादिनो मिथ्यात्वमां अन्तर्भाव छे. वळी मिथ्यात्वनो काळ पण केदलाकनी अपेक्षाए अनादि अनन्त छ, विगैरे कारणोथी मिथ्याष्टिमीवो अनन्तगुणाधिक छे. इत्याचयः)॥७००॥ इति दृष्टिद्वारम् ॥
२ पञ्चसंग्रहादि प्रयोमा झिनोका नवपर रागांपना अभावरूप कर्मप्रन्योका मिथसम्यक्त्पनु स्वरूप अङ्गीकार कर्यु छे. कारणके वर्शन अने कुदर्शन पन्ने पर राग होय तो अनाभिन मिथ्या० मा स्वरूपसरखु थायछे, छतां विलक्षणगुणनी प्राप्ति होवाथी गुणस्थानकमारोहनो उपरना आशय होय तम संभने छे.