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________________ २६९) ॥श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः (सा. २११) (४३९) अजुनत्र द्रव्यार्थिक होवाथी वस्तुनी स्थिरता पण माने के मारे शुद्ध ऋजुसूत्र नय लीयो छे जे प्रतिक्षण वस्तुनी भिन्नता मानेछे,) केवळज्ञान अने केवलदर्शनोपयोग पक रूपज के ते विचारना प्रतिपादन करनार पूज्य श्रीसिद्धसेनदिवाकरजी महाराजे प्रधानतया भेदने उच्छेद करवामा सन्मुख रहेल संग्रहनयनो स्वीकार कर्यों छे, तेथी आ त्रण पण पूज्य आचार्योना विचारो विषम नथी एटले परस्पर विरोध दर्शवनारा नथी, (जो एकज नयना अवलम्बनथी त्रणे विचारो हात तो विरोध शात पण लेग बी ए आहे. तृतीयश्लोकार्थ- केवलनामना विशेषस्वरूपमा पुरुष (जीव) पदने भजनाएं 'चित्' एटले चैतन्य ए सामान्य धर्म एकाकार के एटले के केवलज्ञान उत्पन्न यया पूर्व अने पछी चैतन्य ए सामान्य धर्म एक सरखो के छत्तां पण कैवल्य स्वरूपे सादि अनन्तभागे जे स्पष्ट रीते कईलु छ भने विशेषावगाहित्वधर्मावच्छिमकेवलज्ञानरूप अने सामान्यावगाहित्वधर्मावच्छिन्न केवलदर्शनरूप सूक्ष्म अंशोए करीने प्रथम ममये केवलज्ञान बीजे समये कंवलदर्शन ए प्रमाणे अनुक्रमवाकहवामां आये तोपण दुष्ट नथी. एज प्रमाणे वस्तु अनन्तधर्मात्मक होवाथी जेम कोइ कोड धर्मनी मुख्य व्यवस्था अने कोइ कोइ धर्मनी गौण व्यवस्था करवामां आवंछे तेज प्रमाणे प्रणेय आचार्य भगवन्तोने आ मुख्यगौणव्यवस्था सम्मत छे तेथी कमवत् केवलज्ञान अने केवलदर्शन उपयोग, युगपद् केवलज्ञान केवलदर्शनोपयोग अने केवलज्ञान केवलदर्शन एकरूपज छे ए त्रणे विचारोमां दोपापत्ति नधी, हुये आगळना प्रशस्ति श्लोको पण अपूर्व विचारदर्शक अने तच्चगवेषकोने आनन्ददायक होवाथी आ नीचे मूल माघ आपीये छीयेतमोऽपगमचिज्जनुःक्षणभिदा निदानोद्भवाः, श्रुता बहुनराः श्रते नयविचादपक्षा यया । तथा क इत्र विस्मयो भवतु मुरिपक्षत्रये, प्रधानपदवी धियां क्व नु दवीयसी दृश्यते ॥ ४ ॥ प्रसङ्घा सदसत्त्वयोनहि विरोधनिर्णायक, विशेषणविशेष्ययोरपि नियामकै यत्र न । गुणागुणविभेदतो मतिरपेक्षया स्यात्पदा, किमत्र भजनोजिते स्वसमये न साच्छते ॥ ५॥
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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