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९सो ॥ लोकभकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (मा० ७८) (१८) परावर्स (-अनसकाळ) प्रमाण छ ॥ २२ ॥ संधा औदा शरीरनु जयन्य अतर १ समय, अने औदारिकथी वीजा वै० अने आहा. शरीरनु अघन्यअन्तर . अन्तमूहर्त , अने तैजसकामण मो सर्व जीपने सदाकाळ होगायो ए पन्नेर्नु अन्तर संभवतुं नथी. ॥२०३ ।। इति शरीरमारस्वरूपं नवमम् ।।
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. १ "औवारिकसरीरिणोऽस्तरं जघन्यत एक सम्पः स च हिमामपिक्यामधाम्सरालगती भाषनीयः तत्र प्रयमे ममये कामणशरीरोपेतत्वात्" इति श्री जीवाभिगमवृत्तौ अर्यात कोर औदारिकशरीरवाळो मनुष्यादि मरण पामे सेने बे समयनी षियगतिमां प्रथम समये कामणशरीरयुक्त पणु होघाथी ते एक प्रथमनी समय जघन्यथो अन्तर विचार. अथवा उपर कहेल उत्कृट अन्तरनी युक्तिनी जेम कोर वैक्रियल विधाळो मनुष्य क्रियशरीरमो प्रारंभ की बी. जेश समये मरण पामी अधिग्रहगतिय मनुष्यादि पणे तत्पन्न काम मोपण एक समयनु अघन्य अन्तरघटी शके हे विगेरे बहुश्रुतगीतार्थ पासेधी समजवू.
२ बळी . अश्या आहा शरीर प्रथम ग्च्यु. होय ते विलय पाम्या गाव कमीमा कमी अन्तर्मु. काळ धीम्या बाद ज बोजु घे० था बाहा. रची शकाय माटे जघन्य अन्तर अन्तरर्मुहूर्त कार्य छ, पळो व शरीर,माटेतो ते विलय पाम्या बाद अन्तर्मुसे मरण पानी देवादिगणे उपजे मो पण अन्तर्मु अस्तर होय. जो के अहीं 4 क्रियशरीरना सम्बन्धमा पूर्व बनावल औदारिकामा उत्कृष्ट अन्तरनी युक्तिनी जेग अभिय शरीर बनाषी बे समयनी विमागतिए इत्पन्न थाय अगर ये छोटी औशमा १ समय रही अविमाहे उत्पन्न याय तो पक समयनु पण जय अगार संभवी शके रछे पण ते उत्तर वै० अने मूल के पम मेनी अपेक्षाये थयु, पण जीवाभिगमाहिमा अन्तर्मु. पता. व्यं छ तेषी तेषी रोते उपअनार क्वचितज होय अथवा ते' बम्मे मूल . नो अपेक्षाये होय तेम संभये छ, कारण नारकीर्नु ता देवनानु जघन्य अन्तर अन्तमु बताठ्यु छ ते मूल वैनी अपेक्षा अने उत्तर व अपेक्षा उपर बतायो रीत प्रभाणे, अगर पीजी रोते पण यथा संभव घटाड आही धकेष्टि भगवान जाणे,