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________________ , ३१ मुं) || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३४) (६१५) ॥ २७ ॥ अने नवमे गुणस्थाने प्रत्याख्यानावरण ४ अने अपत्याख्यानावरण ४ ए आठ प्रकृतिनो क्षय करे अने ते आठ अक्षय थतां वचमांज १६ प्रकृतियो खपावे ।। १६ प्रकृतियों आ प्रमाणे- तिर्यचगति १ तिचानुपूर्वी २- नरकगति ३- नरकानुपूर्वी ४-स्थावर ५ - सूक्ष्मद - ( प निच- नरक ने स्थावरन युगल कहेवाय ) उद्योत - तेमज निश्चय आतप ८ - स्त्यानर्द्धित्रिक ११ (निद्रानिद्रा - प्रचला चला ने थोडि ) - साधारण १२ - विकलेन्द्रिय-बिक (डीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियजाति) १२ - ने एकेन्द्रिय जाति- १६ ॥२८-२९।। " अहिं निचयुगल ते तिर्यंचगति अने निर्यचानुपूर्वी रूप, नरकयुगल ते नरकगति अने नरकानुपृवरूप, अने अणभव धाय २, असख्यातवर्षायुत्राळा नियँच अगर मनुष्यनुं आयुष्य बांध्या पछी क्षायिका तिस्थापक थी भवे आयु बांधे होवाथी युगलिक थाय, अने युगलिको निश्चये देवगतिमांज जाय माटे श्रीजी भव देवगतिमो अने त्यांची व्यथी चरमशरीरी मनुष्यपणे उत्पन्न यह मोक्षे आय, पटले चार भय धाय कशुं छे के "इथे तं मिय भम्म सिम्झति इस खीणे। जं देवनिरयसंखाउ चरिमदेतेसु ते सि ॥ १ ॥ " शंका- क्षायिकसम्यग्दृष्टि कृष्णनुं पांचमा भवमां मोक्षगमन संभळाय थे. तेथी पांचभषो का ओइये. ते पांचभवो आ प्रमाणे - कृष्णवासुदेवरूप मनुष्यभश्रमां क्षायिक सम्यक्त्व पाम्या ते प्रथमभव १. नरकायु बांधलु होवाथी नरकोपत्ति छ यो भत्र २ नरकभवमांथी व्यश्री मनुष्यमां उत्पन्न यशे ए बीजो भष ३. मनुष्यमाँ आराधना करी पांचमा देवलोके उपजशे ए चोथो भव ४. त्यांची रुषी अमम नामना घारमा तीर्थकर थशे ए पांचमो भव ५ आज प्रमाणे आगमणां वर्णवेल दुःप्रसह आचार्य विगेरे जीवोने क्षायिकसम्यक्त्व पण आ रोसेज [ चारभवनो नियम न राख्थे छते ज] घटी शकेछे. उत्तर-चार भष सुधीनो नियम वर्णव्योछे ते बहुलताये समजत्रो, माटेज कृष्ण कु.प्रसह सरि विगेरेना छान्तमां दोषापति नथी, ये अवद्धायु छतो जो क्षपकश्रेणिनो प्रारंभ करे तो सप्मक लय यये छते निश्चये चालता बिशुद्ध परिणामथो महि विराम पाम्यो छतो ज संपूर्ण क्षपकश्रेणि पूर्णकरनार होवाथी चारित्र मोहनीय खपावत्रा प्रयत्न करे में, चारित्र मोहनीयनी क्षपणा करवा प्रयत्न करनार जोन पूर्वे ताम्य स्वरूपाचा यथाप्रवृत्तकरण १. अपूर्वकरण २, अने अनिवृत्तिकरण ३ ए त्रणे करणी करेले, मात्र विशेष ए के के अहीं यथाप्रवृत्तकरण अप्रमत्र ( ७ मे ) गुणस्थानके, अपूर्वकरण अपूर्वकरण ( ८ मे ) गुणस्थानके, अने अनिवृतिकरण अभिवृत्ति. करण चादर संपराय [ ९ मे । गुणस्थानके आपणसुं, हर्ष प्रथम अपूर्वकरणमां अपश्याख्यानावरणीय अने प्रस्याख्यानावरणीय प कपायाष्टकरूप आठ चारि
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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