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प्रस्तावना
प्रकृतिअनुयोगद्वारमें कर्मोकी मूल और उत्तर प्रकृतियोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है। प्रकरण वश पांचो ज्ञानोंका भी विस्तृत विवेचन किया गया है, जो परवर्ती ग्रन्थकारोंके लिए आधारभूत सिद्ध हुआ है।
___ महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके छठे अनुयोगद्वारका नाम 'बन्धन' है । बन्धनके चार भेद हैं१ बन्ध, २ बन्धक, ३ बन्धनीय और ४ बन्धविधान । इनमेंसे बन्धकका वर्णन खुद्दाबन्ध नामक दूसरे खण्डमें और बन्धविधानका वर्णन महाबन्ध नामके छठे खण्डमें किया गया है। शेष रहे दो भेदोंका- बन्ध और बन्धनीयका विवेचन इस अनुयोगद्वारमें किया गया है। उसमें भी यतः बन्धनीयके प्रसंगसे वर्गणाओंका विशेष ऊहापोह किया गया है, अतः स्पर्श-अनुयोगद्वारसे लेकर यहां तकका पूरा प्रकरण ' वर्गणाखण्ड ' कहा जाता है ।
१ बन्ध
बन्धन अनुयोगद्वारके चार भेदोंमें पहला भेद बन्ध है। निक्षेपकी दृष्टिसे इसके चार भेद हैं- नामबन्ध, स्थापनाबन्ध, द्रव्यबन्ध और भावबन्ध । जीव, अजीव आदि जिस किसी भी पदार्थका 'बन्ध' ऐसा नाम रखना नामबन्ध है। तदाकार और अतदाकार पदार्थों में 'यह बन्ध है' ऐसी स्थापना करना स्थापनाबन्ध है। द्रव्यबन्धके दो भेद हैं- आगमद्रव्यबन्ध और नोआगमद्रव्यबन्ध । बन्धविषयक स्थित, जित आदि नौ प्रकारके आगममें वाचना आदिरूप जो अनुपयुक्त भाव होता है, उसे आगमद्रव्यबन्ध कहते हैं। नो आगमद्रव्यबन्ध दो प्रकारका है-- प्रयोगबन्ध
और विस्रसाबन्ध । विस्रसाबन्धके दो भेद हैं- सादिविस्रसाबन्ध और अनादिविस्रसाबन्ध । धर्मास्तिकाय आदि तीन द्रव्योंका अपने अपने देशों और प्रदेशोंके साथ जो अनादिकालीन बन्ध है, वह अनादि विस्रसाबन्ध कहलाता है । स्निग्ध और रूक्षगुणयुक्त पुद्गलोंका जो बन्ध होता है, वह सादिविस्रसाबन्ध कहलाता है। सादिविस्रसाबन्धकी विशेष जानकारीके लिए मूल ग्रन्थका विशेषरूपसे स्वाध्याय करना अपेक्षित है। नाना प्रकारके स्कन्ध इसी सादिविस्रसाबन्धके कारण बनते हैं। प्रयोगबन्ध दो प्रकारका है- कर्मबन्ध और नोकर्मबन्ध । नोकर्मबन्धके पांच भेद हैंआलापनबन्ध, अल्लीपनबन्ध, संश्लेषबन्ध, शरीरबन्ध और शरीरिबन्ध । काष्ठ आदि पृथग्भूत द्रव्योंको रस्सी आदिसे बांधना आलापनबन्ध है । लेपविशेषके कारण विविध द्रव्योंके पारस्परिक बन्धको अल्लीपनबन्ध कहते हैं । लाख, गोंद आदिसे दो पदार्थोंका परस्पर चिपकना संश्लेषबन्ध है। पांच शरीरोंका यथायोग्य बन्धको प्राप्त होना शरीर बन्ध है। शरीरि बन्धके दो भेद हैं- सादिशरीरि बन्ध और अनादि शरीरिबन्ध । जीवका औदारिक आदि शरीरोंके साथ जो बन्ध है, वह सादिशरीरि बन्ध है । जीवके आठ मध्यप्रदेशोंका परस्पर जो बन्ध है, वह अनादि शरीरिबन्ध है । इसी प्रकार शरीरधारी प्राणीका अनादिकालसे जो कर्म और नोकर्मके साथ बन्ध हो रहा है, उसे भी अनादि शरीरिबन्ध समझना चाहिए।
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