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छक्खंडागम नामकर्मकी जघन्य भाववेदना होती है। सर्व पर्याप्तियोंसे पर्याप्त, साकारोपयोगसे उपयुक्त, जागृत, सर्वविशुद्ध एवं हतसमुत्पत्तिककर्मवाले जिस किसी बादर तैजस्कायिक या वायुकायिक जीवने उच्च गोत्रकी उद्वेलना करके नीचगोत्रका जघन्य अनुभाग बन्ध किया है, उसके और जिसके उसकी सत्ता पाई जा रही है, ऐसे जीवके गोत्रकर्मकी जघन्य भाववेदना होती है। उपर्युक्त जघन्य भाववेदनाओंसे भिन्न वेदनाओंको अजघन्य भाववेदनाएं जाननी चाहिए ।
इसके अतिरिक्त इसी वेदना अनुयोगद्वारके अन्तमें अनुक्त विशेष अर्थके व्याख्यान करनेके लिए तीन चूलिकाएं भी दी गई हैं। प्रथम चूलिकामें गुणश्रेणीनिर्जराके ११ स्थानोंका तथा उनमें लगनेवाले कालका भी अल्पबहुत्वक्रमसे वर्णन किया गया है । द्वितीय चूलिकामें बारह अनुयोगद्वारोंसे अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है। तृतीय चूलिकामें आठ अनुयोगद्वारोंसे उक्त अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानोंमें रहनेवाले जीवोंके प्रमाण आदिका विस्तारसे - वणन किया गया है, जिसका परिज्ञान पाठक मूल ग्रन्थका स्वाध्याय करके ही प्राप्त कर सकेंगे।
५ वर्गणाखण्ड यद्यपि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके २४ अनुयोगद्वारोंमें स्पर्श, कर्म और प्रकृति ये तीन अनुयोगद्वार स्वतंत्र हैं, और भूतबलि आचार्यने भी इनका स्वतंत्ररूपसे ही वर्णन किया है, तथापि छठे बन्धन-अनुयोगद्वारके अन्तर्गत बन्धनीयका आलम्बन लेकर पुद्गल-वर्गणाओंका विस्तारसे वर्णन किया गया है और आगेके अनुयोगद्वारोंका वर्णन आ० भूतबलिने नहीं किया है, इस लिए स्पर्श-अनुयोगद्वारसे लेकर बन्धन अनुयोगद्वार तकका वर्णित अंश ‘वर्गणाखण्ड ' इस नामसे प्रसिद्ध हुआ है।
स्पर्श-अनुयोगद्वारका संक्षिप्त परिचय पहले दे आये हैं। यह स्पर्श तेरह प्रकारका है१ नामस्पर्श, २ स्थापनास्पर्श, ३ द्रव्यस्पर्श, ४ एकक्षेत्रस्पर्श, ५ अनन्तरक्षेत्रस्पर्श, ६ देशस्पर्श, ७ त्वक्स्पर्श, ८ सर्वस्पर्श, ९ स्पर्शस्पर्श, १० कर्मस्पर्श, ११ बन्धस्पर्श, १२ भव्यस्पर्श और १३ भावस्पर्श । इनका स्वरूप इस अनुयोगद्वारमें यथास्थान वर्णन किया गया है। प्रकृतमें कर्मस्पर्श ही विवक्षित है; क्योंकि यहां कर्मोंके बन्धका प्रकरण है।
कर्म-अनुयोगद्वारका भी संक्षिप्त परिचय पहले दिया जा चुका है। कर्म दश प्रकारका है- १ नामकर्म, २ स्थापनाकर्म, ३ द्रव्यकर्म, ४ प्रयोगकर्म, ५ समवदानकर्म, ६ अधःकर्म, ७ ईर्यापथकर्म, ८ तपःकर्म, ९ क्रियाकर्म और १० भावकर्म । इन सबका स्वरूप इस अनुयोगद्वारमें वणन करके बतलाया गया है कि प्रकृतमें समवदानकर्म विवक्षित है। मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगके निमित्तसे कर्मोके ग्रहण करनेको समवदानकर्म कहते हैं ।
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