Book Title: Shatkhandagama Parishilan
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षटखण्डाराम परिशीलन पं. बालचन्द्र शास्त्री (For Private Per Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खण्डागम-परिशीलन 'षट्खण्डागम' जैन दर्शन और सिद्धान्त का सर्वाधिक प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसकी टीकाओं का इतना विपुल विश्लेषणात्मक साहित्य है कि आचार्यों के ज्ञान की विशदता और शब्दार्थ-साधना की तन्मयता को देखकर बुद्धि हतप्रभ हो जाती है। परम्परा से आचार्य-कुलों में, साधु-श्रावकों में पीढ़ियों के बाद पीढ़ियाँ इनके अध्ययन की निपुणता को ज्ञान की गरिमा का निकष मानती रही हैं। आधुनिक युग में विश्वविद्यालय स्तर पर इनका अध्ययन-परिशीलन होता आ रहा है। इसी दिशा में प्रस्तुत कृति 'षट्खण्डागम-परिशीलन' एक ऐसे विद्वान् के दशाब्दियों के चिन्तन-मनन का सुफल है जिसने मूल ग्रन्थ और उसकी टीकाओं का आलोडन किया है और आधुनिक शैली में सम्पादन की भूमि गोड़ी है। 'षट्खण्डागम-परिशीलन' का प्रकाशन एक प्रकार से ऐतिहासिक घटना है. क्योंकि लगभग बारह हजार पृष्ठों में संग्रथित एवं प्रकाशित सामग्री के सार-संचय को विद्वान् लेखक ने सुबोध बनाकर प्रस्तुत किया है। शास्त्रीय भाषा में जिसे 'हस्तामलकवत्' कहते हैं उसका एक प्रकार से. यह निदर्शन है, नमूना है। 'षट्खण्डागम' का अध्ययन उच्चतम एवं विशद स्तर पर जिन-जिन पहलुओं से किया जाना चाहिए वह सब प्रस्तुत परिशीलन में समाविष्ट है; यथा-आगम साहित्य की पृष्ठभूमि, ग्रन्थकारों और टीकाकारों की विवेचनापद्धति, मूलग्रन्थ का विषय-परिचय, अन्य ग्रन्थों से तुलनात्मक अध्ययन, प्रमुख टीकाकार और टीकाएँ, इन सबका व्यापक परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन और इतिहास आदि। अनेक उपयोगी टीकाओं तथा सोलह जिल्दों में प्रकाशित षट्खण्डागम और उसकी टीकाओं में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों की वर्णक्रम से विस्तृत सूची भी ग्रन्थ में नियोजित की गयी है। जैन दर्शन एवं सिद्धान्त के अध्येताओं और शोधकर्ताओं के लिए यह अद्वितीय सामग्री अनेक दृष्टिकोणों से उपादेय और लाभदायक सिद्ध होगी। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खण्डागम-परिशीलन Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खण्डागम-परिशीलन [SHATKHANDAGAMA-PARISHEELANA] पं. बालचन्द्र शास्त्री 6पमान भारतीय ज्ञानपीठ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला : हिन्दी ग्रन्थांक २१ प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ १८, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड नयी दिल्ली-११००३२ मुद्रक : नागरी प्रिंटर्स दिल्ली-११००३२ आवरण-चित्र: आगम-परिशीलन में संलग्न आचार्य-द्वय (खजुराहो, ग्यारहवीं शती) द्वितीय संस्करण : १६६६ मूल्य : २००.०० रुपये © भारतीय ज्ञानपीठ SHATKHANDAGAMA-PARISHEELANA Pt. Balchandra Shastri Published by Bharatiya Jnanpith 18, Institutional Area, Lodi Road New Delhi-110003 Second Edition : 1999 Price: Rs. 200.00 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जो गम्भीर अध्येता, संशोधक, साहित्यसाधना में अविश्रान्त निरत, अपभ्रंश भाषा के उद्धारकों में प्रमुख और कुशल सम्पादक रहे हैं तथा जो जसहरचरिउ, करकंडचरिउ, णायकुमारचरिउ, सावयधम्मदोहा व पाहुडदोहा जैसे अपभ्रंश भाषा से सम्बन्धित ग्रन्थों को आधुनिक पद्धति से सम्पादित कर उस (अपभ्रश) भाषा को प्रकाश में लाये हैं; जिन्होंने अपनी योग्यता व व्यवस्थाकुशलता से दान में प्राप्त स्वल्पद्रव्य के बल पर षट्खण्डागम परमागम के सम्पादन-प्रकाशन के स्तुत्य कार्य को सम्पन्न कराया है, और लम्बे समय तक सम्पर्क में रहते हुए जिनका मुझे सौहार्दपूर्ण स्नेह मिला है व सीखा भी जिनसे मैंने बहुत कुछ है उन स्व० डॉ० हीरालाल जैन एम० ए०, डी० लिट० के लिए मैं उनकी उस सदिच्छा की, जिसे वे बीच में ही कालकवलित हो जाने से पूर्ण नहीं कर सके, आंशिक पूर्तिस्वरूप इस कृति को उन्हीं की कृति मान कर सादर समर्पित करता हूँ। -बालचन्द्र शास्त्री Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान सम्पादकीय आचार्य पुष्पदन्त और भूतबली कृत षट्खण्डागम सूत्र और उसकी आचार्य वीरसेन कृत धवला टीका की ताड़पत्रीय प्रतियाँ एक मात्र स्थान मूडबिद्री के जैन भण्डार में सुरक्षित थीं, और वे प्रतियाँ अध्ययन की नहीं, किन्तु दर्शन-पूजन की वस्तु बन गयी थीं। इसकी प्रतिलिपियाँ किस प्रकार उक्त भण्डार से बाहर निकलीं यह भी एक रोचक घटना है । जब सन् १९३८ में विदिशा निवासी श्रीमन्त सेठ सिताबराय लक्ष्मीचन्दजी के दान के निमित्त से इस परमागम के अध्ययन व संशोधन कार्य में हाथ लगाया गया तब समाज में इसकी भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएँ हुईं। नयी पीढ़ी के समझदार विद्वानों ने इसका हार्दिक स्वागत किया और कुछ पुराने पण्डितों और शास्त्रियों ने, जैसे स्व० पं० देवकीनन्दन जी शास्त्री, पं० हीरालाल जी शास्त्री, पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री और पं० बालचन्द्र जी शास्त्री का क्रियात्मक सहयोग प्राप्त हुआ । किन्तु विद्वानों के एक वर्ग ने इसका बड़ा विरोध किया । कुछ का अभिमत था कि षट्खण्डागम जैसे परमागम का मुद्रण कराना श्रुत की अविनय है । यह मत भी व्यक्त किया गया कि ऐसे सिद्धान्त ग्रन्थों को पढ़ने का भी अधिकार गृहस्थों को नहीं है । यह केवल त्यागी - मुनियों के ही अधिकार की बात है । किन्तु जब इस विरोध के होते हुए भी हमारे सहयोगी विद्वान ग्रन्थ के संशोधन में दृढ़ता से प्रवृत्त हो गये और एक वर्ष के भीतर ही उसका प्रथम भाग सत्प्ररूपणा प्रकाशित हो गया तब सभी को आश्चर्य हुआ। कुछ काल पश्चात् जैन शास्त्रार्थ संघ मथुरा की ओर से 'कषायप्राभृत' का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ तथा भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से 'महाबन्ध' का प्रकाशन होने लगा। इस प्रकार जो धवल, जयधवल और महाधवल नाम से प्रसिद्ध ग्रन्थ पूजा की वस्तु बने हुए थे वे समस्त जिज्ञासुओं के स्वाध्याय हेतु सुलभ हो गये । श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द जी द्वारा स्थापित जैन साहित्योद्धारक फण्ड से समस्त षट्खण्डागम और उसकी टीका का अनुवाद आदि सहित संशोधन - प्रकाशन १६ भागों में १६३६ से १९५६ ई० तक बीस वर्षों में पूर्ण हो गया । समूचा ग्रन्थ प्रकाशित होने से पूर्व ही एक और विवाद उठ खड़ा हुआ । प्रथम भाग के सूत्र ६३ में जो पाठ हमें उपलब्ध था, उसमें अर्थ - संगति की दृष्टि से 'संजदासंजद' के आगे 'संजद' पद जोड़ने की आवश्यकता प्रतीत हुई। किन्तु इससे फलित होने वाली सैद्धान्तिक व्यवस्थाओं से कुछ विद्वानों के मन आलोडित हुए और वे 'संजद' पद को वहाँ जोड़ना एक अनधिकार चेष्टा कहने लगे । इस पर बहुत बार मौखिक शास्त्रार्थ भी हुए और उत्तर- प्रत्युत्तर रूप लेखों की श्रृंखलाएँ भी चल पड़ीं जिनका संग्रह कुछ स्वतन्त्र ग्रन्थों में प्रकाशित भी हुआ है । इसके 'मौखिक समाधान हेतु जब सम्पादकों ने ताड़पत्रीय प्रतियों के पाठ की सूक्ष्मता से जांच करायी Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब पता चला कि वहाँ की दोनों भिन्न प्रतियों में हमारा सुझाया गया संजद पद विद्यमान है। इसस दो बातें स्पष्ट हुईं । एक तो यह कि सम्पादकों ने जो पाठ-संशोधन किया है वह गम्भीर चिन्तन और समझदारी पर आधारित है । और दूसरी यह कि मूल प्रतियों में पाठ मिलान की आवश्यकता अब भी बनी हुई है; क्योंकि जो पाठान्तर मूडबिद्री से प्राप्त हुए थे और तृतीय भाग के अन्त में समाविष्ट किये गये थे उनमें यह संशोधन नहीं मिला। __ जीवस्थान षट्खण्डागम का प्रथम खण्ड है। उसका प्रथम अनुयोगद्वार सत्प्ररूपणा है । उसमें टीकाकार ने सत्कर्म-प्राभृत और कषाय-प्राभूत के नामोल्लेख तथा उनके विविध अधिकारों के उल्लेख एवं अवतरण आदि दिये हैं । इनके अतिरिक्त सिद्धसेन दिवाकर कृत 'सन्मतितर्क' का 'सम्मईसुत्त' नाम से उल्लेख किया है तथा उसकी सात गाथाओं को उद्धृत किया है और एक स्थल पर उनके कथन से विरोध बताकर उसका समाधान किया है। उन्होंने अकलंकदेव कृत तत्त्वार्थ राजवार्तिक का तत्त्वार्थभाष्य नाम से उल्लेख किया है और उसके अनेक अवतरण कहीं शब्दश: और कहीं कुछ परिवर्तन के साथ दिये हैं। इसके सिवाय उन्होंने जो २१६ संस्कृत व प्राकृत पद्य बहुधा 'उक्तं च' कहकर और कहीं-कहीं बिना ऐसी सूचना के उद्धृत किये हैं। उनमें से हमें कुछेक आचार्य कन्दकन्द कृत 'प्रवचनसार', 'पंचास्तिकाय' व उसकी जयसेन कृत टीका में, 'तिलोयपण्णत्ती' में, बटुकेर कृत मलाचार में, अकलंकदेव कृत लघीयस्त्रय में. मलाराधना में. वसनन्दि-श्रावकाचार में, प्रभाचन्द्र कृत शाकटायनन्यास में, देवसेन कृत नयचक्र में तथा आचार्य विद्यानन्द की आप्तपरीक्षा में मिले हैं । गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड की जीवप्रबोधिनी टीका में इसकी ११० गाथाएँ भी पायी जाती हैं जो स्पष्टतः वहां पर यहीं से ली गयी हैं। कई जगह तिलोयपण्णत्ती की गाथाओं के विषय का उन्हीं शब्दों में संस्कृत पद्य अथवा गद्य द्वारा वर्णन किया गया है। पं० बालचन्द्र शास्त्री ने अपनी इस पुस्तक में इन सभी बातों की विस्तार एवं विशद रूप से समीक्षा की है । ___षट्खण्डागम के छह खण्डों में प्रथम खण्ड का नाम जीवट्ठाण है। उसके अन्तर्गत सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व-ये आठ अनुयोगद्वार तथा प्रकृतिसमुत्कीर्तन, स्थान-समुत्कीर्तन, तीन महादण्डक, जघन्य स्थिति, उत्कृष्ठ-स्थिति, सम्यक्त्वोत्पत्ति और गति-आगति ये नौ चूलिकाएँ हैं । इस खण्ड का परिमाण धवलाकार में अठारह हजार पद कहा है। पूर्वोक्त आठ अनुयोगद्वार और नौ चूलिकाओं में गुणस्थान और मार्गणाओं का आश्रय लेकर विस्तार से वर्णन किया गया है । इसमें जो शंका-समाधान हैं उन्हें हम यहाँ उद्धृत कर देना उपयुक्त समझते हैं--- शंका-पुण्य के फल क्या हैं ? समाधान-तीर्थकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं। शंका-पाप के फल क्या हैं ? समाधान-नरक, तिथंच और कुमानुष की योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र्य आदि की उत्पत्ति पाप के फल हैं । शंका-अयोगी गुणस्थान में कर्मप्रकृतियों का बन्ध नहीं होता इसलिए उनकी द्रव्य. प्रमाणानुगम में द्रव्य-संख्या कैसे कही जायेगी? 6 / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान--यह कोई दोष नहीं, क्योंकि भूतपूर्व न्याय का आश्रय लेकर अयोगी गुणस्थान की द्रव्य-संख्या का कथन सम्भव है । अर्थात् जो जीव पहले मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में प्रकृतिस्थानों के बन्धक थे वे ही अयोगी हैं। इस प्रकार अयोगी गुणस्थान की द्रव्यसंख्या का प्रतिपादन किया जा सकता है। शंका-मार्गणा किसे कहते हैं ? समाधान-सत् संख्या आदि अनुयोगद्वारों से युक्त चौदह जीवसमास जिसमें या जिसके द्वारा खोजे जाते हैं उसे मार्गणा कहते हैं । शंका-मार्गणाएं कितनी हैं ? समाधान-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार-ये चौदह मार्गणाएँ हैं। इनमें जीव खोजे जाते हैं। शंका-जीवसमास किसे कहते हैं ? समाधान—जिस में जीव भली प्रकार से रहते हैं। शंका-जीव कहाँ रहते हैं ? समाधान-जीव गुणों में रहते हैं। शंका-वे गुण कौन-से हैं ? समाधान-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक-ये पांच प्रकार के गुण अर्थात भाव हैं। इनका खुलासा इस प्रकार है-जो कर्मों के उदय से उत्पन्न होता है उसे औदायिक भाव कहते हैं । जो कर्मों के उपशम से होता है उसे औपशमिक भाव कहते हैं । जो कर्मों के क्षय से उत्पन्न होता है उसे क्षायिक भाव कहते हैं । जो वर्तमान समय में सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावी क्षय से और अनागत काल में उदय में आने वाले सर्वघाती के स्पर्धकों के सदवस्था रूप उपशम से उत्पन्न होता है उसे क्षायोपशमिक भाव कहते हैं । जो कर्मों के ऐसे उपशम, क्षय और क्षयोपशम की अपेक्षा के बिना जीव के स्वभावमात्र से उत्पन्न होता है उसे पारिणामिक भाव कहते हैं। इन गुणों के साहचर्य से आत्मा भी गुण संज्ञा को प्राप्त होता है। -सासादन गुणस्थान वाला जीव मिथ्यात्व कर्म का उदय नहीं होने से मिथ्यादृष्टि नहीं है। समीचीन रुचि का अभाव होने से सम्यदृष्टि भी नहीं है। तथा इन दोनों को विषय करने वाली सम्यग्मिथ्यात्व रूप रुचि का अभाव होने से सम्यग्मिथ्यादष्टि भी नहीं है। इनके अतिरिक्त और कोई चौथी दृष्टि नहीं है। अर्थात् सासादन नाम का कोई स्वतन्त्र गुणस्थान नहीं मानना चाहिए। समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि सासादन गुणस्थान में विपरीत अभिप्राय रहता है इसलिए उसे असद्-दृष्टि ही जानना। शंका-यदि ऐसा है तो उसे मिथ्यादृष्टि ही कहना चाहिए ? समाधान-नहीं, क्योंकि सम्यग्दर्शन और स्वरूपाचरणचरित्र का प्रतिबन्ध करने वाले अनन्तानुबन्धि-कषाय के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीत अभिनिवेश दूसरे गुणस्थान में पाया जाता है। किन्तु मिथ्यात्वकर्म के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीत अभि प्रधान सम्पादकीय | Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेश वहाँ नहीं है इसलिए उसे मिध्यादृष्टि नहीं कहते, अपितु सासादन सम्यही कहते हैं । शंका- एक जीव में एक साथ सम्यक् और मिथ्यादृष्टि सम्भव नहीं हैं इसलिए सम्यग्मिथ्यादृष्टि नाम का तीसरा गुणस्थान नहीं बनता ? समाधान - युगपत् समीचीन और असमीचीन श्रद्धावाला जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि है, ऐसा मानते हैं और ऐसा मारने में विरोध नहीं आता । शंका- पाँच प्रकार के भावों में से तीसरे गुणस्थान में कौन-सा भाव ? समाधान — तीसरे गुणस्थान में क्षायोपशमिक भाव है । शंका- मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से सम्यड्. मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने वाले जीव के क्षायोपशमिक भाव कैसे सम्भव है ? समाधान – वह इस प्रकार है कि वर्तमान समय में मिथ्यात्व - कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय होने से सत्ता में रहने वाले उसी मिथ्यात्व कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभाव लक्षण उपशम होने से और सम्यड्. मिथ्यात्व कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों का उदय होने से सम्यड्. मिथ्यात्व गुणस्थान पैदा होता है, इसलिए वह क्षायोपशमिक है । शंका- औदयिक आदि पांच भावों में से किस भाव के आश्रय से संयमासंयम भाव पैदा होता है ? समाधान -- संयमासंयम भाव क्षायोपशमिक है, क्योंकि अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय के वर्तमानकालीन सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावी क्षय होने से और आगामी काल में उदय में आने योग्य उन्हीं के सदवस्था रूप उपशम होने से तथा प्रत्याख्यानावरणीय कषाय के उदय से संयमासंयम रूप अप्रत्याख्यान चारित्र उत्पन्न होता है । शंका-संयमासंयम रूप देशचारित्र के आधार से सम्बन्ध रखने वाले कितने सम्यग्दर्शन होते हैं । समाधान - क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक । इनमें से कोई एक- सम्यग्दर्शन-विकल्प से होता है क्योंकि उनमें से किसी एक के बिना अप्रत्याख्यान चारित्र का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता । शंका- सम्यग्दर्शन के बिना भी देशसंयमी देखने में आते हैं । समाधान- नहीं । जो जीव मोक्ष की आकांक्षा से रहित है और जिसकी विषय-पिपासा दूर नहीं हुई है उसके अप्रत्याख्यान-संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती । शंका- यदि छठे गुणस्थानवर्ती जीव प्रमत्त हैं तो वे संयत नहीं हो सकते । समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँच पापों से विरतिभाव को संयम कहते हैं जो कि तीन गुप्ति और पाँच समितियों से रक्षित है । शंका- पाँच प्रकार के भावों में से किस भाव से क्षीणकषाय गुणस्थान की उत्पत्ति होती है ? - मोहनीय कर्म के दो भेद हैं- द्रव्यमोहनीय ओर भावमोहनीय । इस गुणस्थान के समाधान - १० / षट्खण्डागम - परिशीलन Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले दोनों प्रकार के मोहनीय कर्म का सर्वथा नाश हो जाता है। अतएव इस गुणस्थान की उत्पत्ति क्षायिक गुण से है। शंका-उपशम किसे कहते हैं ? समाधान-उदय, उदीरणा, उत्कर्षण-अपकर्षण, परप्रकृति-संक्रमण, स्थितिकाण्डक-घात और अनुभाग-काण्डक-घात के बिना ही कर्मों के सत्ता में रहने को उपशम कहते हैं। शंका---क्षपक का अलग गुणस्थान और उपशम का अलग गुणस्थान क्यों नहीं कहा गया ? समाधान -तहीं, क्योंकि उपशमक और क्षपक इन दोनों में अनिवृत्तिरूप परिणामों की अपेक्षा समानता है। शंका-क्षय किसे कहते हैं ? समाधान-जिनके मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृतियों के भेद से प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध अनेक प्रकार के हो जाते हैं ऐसे आठ कर्मों का जीव से जो अत्यन्त विनाश हो जाता है उसे क्षय कहते हैं। अनन्तानुबन्धी क्रोध-मानमाया-लोभ तथा मिथ्यात्व, सम्यड्.मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति इन सात प्रकृतियों का असंयतसम्यग्दष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत अथवा अप्रमत्तसंयत जीव नाश करता है। शंका-इन सात प्रकृतियों का युगपत् नाश करता है या क्रम से ? समाधान-तीन करण करके अनिवृत्तिकरण के चरम समय के पहले अनन्तानुबन्धि चार का एक साथ क्षय करता है। पश्चात्, फिर से तीनों ही करण करके, उनमें से अधःकरण और अपूर्वकरण इन दोनों को उल्लंघन करके, अनिवत्तिकरण के संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर मिथ्यात्व का क्षय करता है। इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त व्यतीत कर सम्यङ मिथ्यात्व का क्षय करता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त व्यतीत कर सम्यक् प्रकृति का क्षय करता है। शंका - हुण्डावसर्पिणी काल के दोष से स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि जीव क्यों नहीं उत्पन्न होता। समाधान-उपर्युक्त दोष के ही कारण उनमें सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते हैं। शंका-यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? समाधान--इसी आर्षवचन से। शंका-तो इसी आर्षवचन से द्रव्य-स्त्रियों का मुक्ति जाना भी सिद्ध होगा? समाधान नहीं । क्योंकि वस्त्र सहित होने से उनके संयमासंयम गुणस्थान होता है, अतएव उनके संयम की उत्पत्ति नहीं होती। शंका-वस्त्ररहित होते हुए भी उन द्रव्य-स्त्रियों के भावसंयम होने में कोई विरोध नहीं है ? समाधान-उनके भावसंयम नहीं हैं। अन्यथा, अर्थात् भावसंयम के होने पर उनके भाव असंयम के अविनाभावी वस्त्रादि का ग्रहण नहीं बन सकता। शंका--तो फिर स्त्रियों के चौदह गुणस्थान होते हैं यह कथन कैसे बन सकेगा? समाधान-भावस्त्री अर्थात् स्त्रीवेद युक्त मनुष्यगति में चौदह गुणस्थानों का सदभाव मान लेने पर कोई विरोध नहीं आता। प्रधान सम्पादकीय/११ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका-बादरक पाय गुणस्थान के ऊपर भाववेद पाया जाता है इसलिए भाववेद में चौदह गुणस्थानों का सद्भाव नहीं होता ? समाधान नहीं , क्योंकि यहाँ पर अर्थात् गतिमार्गणा में वेद की प्रधानता नहीं है किन्तु गति प्रधान है और वह पहले नष्ट नहीं होती। शंका यद्यपि मनुष्य गति में चौदह गुणस्थान सम्भव हैं फिर भी उसे वेद विशेषण से युक्त कर देने पर उसमें चौदह गुणस्थान सम्भव नहीं ? -नहीं, क्योंकि विशेषण के नष्ट हो जाने पर भी उपचार से विशेषणयुक्त संज्ञा को धारण करने वाली मनुष्य गति में चौदह गुणस्थानों का सदभाव होने में विरोध नहीं। शंका-यह बात किस प्रमाण से जानी जाये कि नौवें गुणस्थान तक तीनों वेद होते हैं ? समाधान-असंज्ञी पंचेन्द्रिय से लेकर संयमासंयम गुणस्थान तक तिर्यंच तीनों वेद वाले होते हैं और मिथ्यदृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक मनुष्य तीनों वेद से युक्त होते हैं -इस आगम-वचन से यह बात मानी जाती है। इस प्रकार प्रथम खण्ड जीवट्ठाण में गुणस्थान और मार्गणाओं का आश्रय लेक र विस्तार से वर्णन किया गया है। दूसरा खण्ड खुद्दाबन्ध है। इसके ग्यारह अधिकार हैं-(१) स्वामित्व, (२) काल, (३) अन्तर, (४) भंगविचय, (५) द्रव्यप्रमाणानुगम, (६) क्षेत्रानुगम, (७) सार्शानुगम, (८) नानाजीव काल, (६) नानाजीव अन्तर, (१०) भागाभागानुगम और (११) अल्पबहुत्वानुगम । इस खण्ड में इन ग्यारह प्ररूपणाओं द्वारा कर्मबन्ध करने वाले जीव का कर्मबन्ध के भेदों सहित वर्णन किया गया है। तीसरे खण्ड का नाम बन्धस्वामित्व-विचय है। कितनी प्रकृतियों का किस जीव के कहाँ तक बन्ध होता है, किसके नहीं होता है, कितनी प्रकृतियों की किस गुणस्थान में व्युच्छित्ति होती है. स्वोदयबन्ध रूप प्रकृतियाँ कितनी हैं और परोदयबन्ध रूप कितनी हैं इत्यादि कर्मबन्ध सम्बन्धी विषयों का बन्धक जीव की अपेक्षा से इस खण्ड में वर्णन है। ___ चौथे, वेदना खण्ड में कृति और वेदना अनुयोगद्वार हैं । कृति में औदारिक आदि पांच शरीरों की संघातन और परिशातन रूप कृति का तथा भव के प्रथम और अप्रथम समय में स्थित जीवों के कृति, नो-कृति और अवक्तव्य रूप संख्याओं का वर्णन है । वेदना में सोलह अधिकारों द्वारा वेदना का वर्णन है। पांचवें खण्ड का नाम वर्गणा है। इसी खण्ड में बन्धनीय के अन्तर्गत वर्गणाअधिकार के अतिरिक्त स्पर्श, कर्मप्रकृति और बन्धन का पहला भेद बन्ध-~-इन अनुयोगद्वारों का भी अन्तर्भाव कर लिया गया है । इसमें गुणस्थानों का अन्तरकाल कहा गया है। शंका--ओघ से मिथ्यादृष्टि जीवों का अन्तरकाल कितना है ? समाधान-नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक मिथ्यादृष्टि जीव सम्यङ मिथ्यात्व, अविरत-सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम से बहुत बार परिवर्तित होता हुआ परिणामों के निमित्त से सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ और वहाँ पर सर्वलघु अन्तर्महूर्त काल तक सम्यक्त्व के १२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ रहकर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ । इस प्रकार से सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण मिथ्यात्व गुणस्थान का अन्तर प्राप्त हो गया । शंका- सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यङ मिध्यादृष्टि जीवों का अन्तर कितने काल होता है ? समाधान - नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय होता है । उक्त दोनों गुणस्थानों का अन्तरकाल पल्योपम के असंख्यातवें भाग है । शंका- पल्योपम के असंख्यातवें भाग काल में अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर सासादन गुणस्थान क्यों नहीं प्राप्त हो जाता ? समाधान- नहीं, क्योंकि उपशमसम्यक्त्व के बिना सासादन गुणस्थान के ग्रहण करने का अभाव है । शंका- वही जीव उपशमसम्यक्त्व को भी अन्तर्मुहूर्त काल के पश्चात् क्यों नहीं प्राप्त होता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि उपशमसम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व को प्राप्त होकर सम्यक्त्व - प्रकृति और सम्यs. मिथ्यात्व की उद्वेलना करता हुआ उनकी अन्त: कोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति का घात करके सागरोपम से अथवा सागरोपम पृथक्त्व से जब तक नीचे नहीं करता है तब तक उपशमसम्यक्त्व ग्रहण करना ही सम्भव नहीं है । शंका- असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवाले जीवों का अन्तर कितने काल होता है ? समाधान - नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है । क्योंकि सर्वकाल ही उक्त गुणस्थानवर्ती जीव पाये जाते हैं । शंका-उपशमश्रेणी के चारों उपशमकों का अन्तर कितना है ? समाधान - नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय अन्तर है । शंका- चारों क्षपक और अयोगकेवली का अन्तरकाल कितना है ? समाधान - नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय होता है । शंका-सयोगकेवलियों का अन्तर काल कितना है ? समाधान – नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं होता, निरन्तर है । शंका- चारों उपशमकों का अन्तरकाल कितना है ? समाधान - नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय अन्तर है । चारों उपशमकों का उत्कृष्ट वर्ष पृथक्त्व अन्तर है । शंका- चारों क्षपक और अयोगकेवलियों का अन्तर कितना है ? समाधान - नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय है । षट्खण्डागम: पुस्तक- ६ शंका--आप्त, आगम और पदार्थों में सन्देह किस कर्म के उदय से होता है ? - सम्यग्दर्शन का घात नहीं करनेवाला सन्देह सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से उत्पन्न होता है किन्तु सर्वसन्देह अर्थात् सम्यग्दर्शन का पूर्णरूप से घात करनेवाला सन्देह और मूढ़ता मिथ्यात्वकर्म के उदय से उत्पन्न होता है । शंका- दर्शनमोहनीय कर्म सत्त्व की अपेक्षा तीन प्रकार का है, यह कैसे जाना जाता है ? प्रधान सम्पादकीय / १३ समाधान Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान -- आगम और अनुमान से जाना जाता है कि दर्शनमोहनीय कर्म सत्त्व को अपेक्षा तीन प्रकार का है । विपरीत अभिनिवेश मूढ़ता और सन्देह ये मिथ्यात्व के चिह्न हैं | आगम और अनागमों में समभाव होना सम्यङ मिथ्यात्व का चिह्न है । आप्त, आगम और पदार्थों की श्रद्धा में शिथिलता और श्रद्धा की हीनता होना सम्यक्त्व प्रकृति का चिह्न है । शंका -- अनन्तानुबन्धी कृषायों की शक्ति दो प्रकार की है, इस विषय में क्या युक्ति है ? समाधान - सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों का घात करनेवाले अनन्तानुबन्धी क्रोधादिक दर्शन मोहनीय स्वरूप नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि सम्यक्त्व प्रकृति मिथ्यात्व और सम्य. मिथ्यात्व के द्वारा ही आवरण किये जानेवाले सम्यग्दर्शन के आवरण करने में फल का अभाव है । शंका- पूर्व शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को नहीं ग्रहण करके स्थित जीव का इच्छित गति में गमन किस कर्म से होता है ? समाधान - आनुपूर्वी नाम कर्म से इच्छित गति में गमन होता है । शंका -- विहायोगति नाम कर्म से इच्छित गति में गमन क्यों नहीं होता ? समाधान नहीं, क्योंकि विहायोगति नाम कर्म का औदारिक आदि तीनों शरीरों के उदय के बिना उदय नहीं होता है । शंका-आकार विशेष को बनाये रखने में व्यापार करनेवाली आनुपूर्वी इच्छित गति में गमन का कारण कैसे होती है ? - क्योंकि आनुपूर्वी का दोनों ही कार्यों के व्यापार में विरोध का अभाव है अर्थात् विग्रहगति में आकार विशेष को बनाये रखने में और इच्छितगति में गमन कराना ये दोनों ही नामकर्म के कार्य हैं। शंका-अगुरुलघुत्व तो जीव का स्वाभाविक गुण है उसे यह कर्मप्रकृतियों में क्यों गिनाया ? समाधान-क्योंकि संसार अवस्था में कर्मपरतन्त्र जीव में उस स्वाभाविक अगुरुलघुत्व गुण का अभाव है । शंका--अगुरुलघुत्व नाम का गुण सब जीवों के पारिणामिक है, क्योंकि सब कर्मों से रहित सिद्धों में भी उसका सद्भाव पाया जाता है। इसलिए अगुरुलघुत्व नामकर्म का कोई फल न होने से उसका अभाव मानना चाहिए । समाधान समाधान- उपर्युक्त दोप प्राप्त होता यदि अगुरुलघुत्व नामकर्म जीवविपाकी होता । किन्तु यह कर्म पुद्गलविपाकी है। क्योंकि गुरुस्पर्शवाली अनन्तानन्त पुद्गल वर्गणाओं के द्वारा आरब्ध शरीर के अगुरुलघुत्व की उत्पत्ति होती है । यदि ऐसा न माना जाये तो गुरुभारवाले शरीर से संयुक्त यह जीव उठने के लिए भी नहीं समर्थ होता, जबकि ऐसा नहीं है । शंका-संक्लेश नाम किसका है ? समाधान - अमाता के बन्धयोग्य परिणाम को संक्लेश कहते हैं । शंका- विशुद्धि नाम किसका है ? समाधान -- साता के बन्धयोग्य परिणाम को विशुद्धि कहते हैं । १४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका --- परिणामों की करण संज्ञा कैसे हुई ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है । साधकतम भाव की विवक्षा से, परिणामों में करणपना पाया जाता है । शंका- मिथ्यादृष्टि आदि जीवों के परिणामों की अधःप्रवृत्त संज्ञा क्यों नहीं की ? समाधान - क्योंकि यह बात इष्ट है अर्थात् मिथ्यादृष्टि आदि के अधस्तन और उपरितन समयवर्ती परिणामों की पायी जानेवाली समानता में अधःप्रवृत्तकरण का व्यवहार स्वीकार किया जाता है । शंका- यह कैसे जाना जाता ? समाधान — क्योंकि अधः प्रवृत्त नाम अन्तदीपक है इसलिए प्रथमोपशमसम्यक्त्व होने के पूर्व तक मिथ्यादृष्टि आदि के पूर्वोत्तरसमयवर्ती परिणामों में जो समानता पायी जाती है। वह उसकी अधःप्रवृत्त संज्ञा का सूचक है । शंज्ञा - प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुख जीव किसका अन्तर करता है ? समाधान- मिथ्यात्व कर्म का अन्तर करता है, क्योंकि यहाँ पर अनादि मिथ्यादृष्टि जीव का अधिकार हैं । अन्यथा पुनः जो तीन भेदरूप दर्शनमोहनीय कर्म है उस सबका अन्तर करता है । शंका- वहाँ पर किस करण के काल में अन्तर करता है ? समाधान - अनिवृत्तिकरण के काल में संख्यात भाग जाकर अन्तर करता है । षट्खण्डागम: पुस्तक- १० शंका-बन्ध के कारण कौन-से हैं ? समाधान - मिथ्यात्व असंयम, कषाय और योग - ये चार बन्ध के कारण हैं और सम्यग्दर्शन, संयम, अकषाय और अयोग मोक्ष के कारण हैं । शंका - जीव ही उत्कृष्ट द्रव्य का स्वामी होता है यह कैसे जाना जाता है ? समाधान -- क्योंकि मिध्यात्व, असंयम, कषाय और योगरूप कर्मों के आस्रव अन्यत्र नहीं पाये जाते; इसीलिए जो जीव-इस प्रकार जीव को विशेष रूप किया है और आगे कहे जानेवाले सब इसके विशेषण हैं । शंका- नारकी मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीव नरक से निकलकर किन-किन गतियों में जाते हैं ? समाधान - तिर्यंच गति में भी और मनुष्य गति में भी । शंका - सम्यग्दृष्टि नारकी नरक से निकलकर किन-किन गतियों में जाते हैं ? समाधान - एक मात्र मनुष्य गति में ही जाते हैं । शंका- नीचे सातवीं पृथ्वी के नारकी जीव किन गतियों में जाते हैं ? समाधान - केवल एक, तियंच गति में ही जाते हैं । उनके शेष तीन आयुओं के बन्ध का अभाव है । शंका- संख्यात वर्ष की आयुवाले मनुष्य व मनुष्यपर्याप्तकों में सम्यक्त्व सहित प्रवेश करनेवाले देव और नारकी जीवों का वहाँ से सासादन- सम्यक्त्व के साथ कैसे निकलना होता है ? प्रधान सम्पादकीय / १५ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान–देव और नारकी सम्यग्दृष्टि जीवों का मनुष्यों में उत्पन्न होकर उपशम श्रेणी पर आरोहण करके और फिर नीचे उतरकर सासादन गुणस्थान में जाकर मरने पर सासादन गुणस्थान सहित निकलना होता है। पं० बालचन्द्र शास्त्री के षट्खण्डागम-परिशीलन में हमें जो कमी प्रतीत हुई उसे हमने पूर्ण करने का प्रयत्न किया है। इसे पढ़कर पाठक बहुत कुछ जान सकेंगे। पं० बालचन्द्र जी शास्त्री का यह कृतित्व महत्त्वपूर्ण है । उन्होंने इसमें अपने अनुभव का पूरा उपयोग किया है, और इस प्रकार यह एक विद्वत्तापूर्ण रचना बन गयी है । - कैलाशचन्द्र शास्त्री १६/ पखण्डागम-परिशीलन Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ General Editorial Jainism, being one of the oldest, very comprehensive and culturally rich religious systems of civilized humanity, is emphatically a positive religion which seeks to bring true happiness to its votaries by elevating them morally and enabling them to attain the highest spiritual perfection they are capable of. The ultimate aim is the attainment of liberation (moksha or nirvana) from the unceasing cycle of birth and death, which characterises the soul's mundane existence and is full of misery, pain and suffering. The main cause of this samsari state or mundane existence is the karmic boadage in which the soul is being held. Hence, the doctrine of karma, a unique feature and peculiarity of the Jaina system of thought, is the keystone of its metaphysics, ontology, epistemology, ethics and philosophy. The entire sacred literature of the Jains is imbued with the interplay of the karma which is of two kinds, subjective and objective. The former represents the aberrations and perversions in the qualities natural of the pure soul, perversions such as delusion, attachment, aversion, hatred, anger, conceit, deceit, greed, lust, etc. The objective karma is a form of extremely subtle matter which is attracted by or flows into the soul and holds it in bondage when that soul happens to be afflicted by the said aberrations perversions. Every such bondage has its own duration with a certain intensity. On fruition the karma drops out. These material karmas are divided into eight principal kinds and one hundred and fortyeight subkinds. The restless mundane soul goes on indulging incessantly in mental, vocal and bodily activities that are actuated by one or more of those spiritual aberrations and perversions, and consequently it goes on binding itself with fresh karma every moment. The process goes on ad infinitum. It is only when a soul wakes up, becomes conscious of the divinity inherent in itself, and makes effort to free itself from the enthraldom of the karma that it launches upon the path of spiritual regeneration. Gradually by taking steps to stop the influx of fresh karmas and to annihilate the already bound ones, it finally becomes free of bondage and attains liberation or moksha, the state of purest and highest spiritual or Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ perfection and unmixed eternal bliss, whence there is no return to samsara or the mundane existence. In the current cycle of time, this truth was realised, practised and preached, one after the other, by twenty-four Jinas or Shramana Nirgrantha Tirthankaras, from Adinatha Rishabhadeva of the hoary antiquity down to Vardhamana Mahavira (599-527 B.C.), the last of them. Born in B.C. 599, he renounced worldly life at the age of 30, and practised the most austere ascetic discipline to purify his spiritual self for the next 12 years, consequently attaining kevala-jnana (enlightenment in B.C. 557, when he started delivering His sermons for the good of all the living beings. His chief disciple or Ganadhara, Indrabhuti Gautama, listened to and grasped the import of His divine sermons, which he compiled and codified in substance, in the form of the Dradashanga-shruta (twelvelimbed canon). The twelfth Anga, Drishti-pravada, and more especially its Purvagata section comprising fourteen Purvas, dealt in detail with the doctrinal aspects of the Jina's Teachings, including the Doctrine of karma. After Mahavira's Nirvana, in B.C. 527, this orişinal canonical knowledge started flowing, by word of mouth, through a succession of authoritative and competent gurus. But, it could remain intact only upto B.C. 365, when with the demise of the last Shruta-kevalin, Bhadrabahu I, it began to dwindle gradually in volume as well as substance. Notwithstanding a continuous and alarming decline in the canonical knowledge, Jaina gurus being possessionless forest recluses, conservative in their attitude and averse to writing, continued to resist, for the next three centuries or so, all attempts at redaction of the surviving shrutagama. About B.C. 150, Kharavela, the celebrated Jaina monarch of Kalinga (Orissa), convened at the Kumari Parvat a big religious conference which was attended by Jaina monks from all over India. The question of canonical redaction was naturally posed at this holy gathering. Although, this attempt bore no immediate fruit, the monks from Mathura, on their return from Kalinga, started the Sarasvati Movement in order to prepare the ground for the redaction, and, by the latter half of the first century B.C., the Jaina saints of the Dakshinapatha (southern India) came forward to take up the challenge. Bhadrabahu II (B.C. 37-14), Lohacharya (B.C.14-A.D.38), Kundakunda (B.C.8-A.D.44), Vattakera and several others did not wait for the redaction proper and started writing treatises on more relevant topics, based on the extant surviving portions of the shruta-agama. In this genial atmosphere Gunadhara, Dharasena, probably Vattakera also, agreed readily to redactor get redacted the more important portions of the original canon, of which they happened to be the authentic repositories at the time. 18 / Satkhandagama-parisheelan Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dharasenacharya (circa 40—75 A.D.), who practised austerities residing in the Chandra-guha (Moon-cave) of Girinagar (Mt. Urjayant) in Saurashtra, had inherited frangmentary knowledge of the Angas and Purvas, including the full text of the Maha-kamma-payadi-pahuda (Mahakarmaprakriti-prabhrata) contained mainly in the fourth Prabhrata of the fifth Vastu of the Agrayini Purva of the Drishtipravada Anga, supplemented by relevant portions of other Purvas and Angas. He sent word to Arhadbali, the presiding Acharya of the congregation being held at the time at Mabimanagari on the banks of the river Venya, to send to him two capable scholarly saints. Consequently, Pushpadanta and Bhutabali presented themselves to Dharasenacharya who imported to them in full the canonical text mentioned above and bade them to redact it in the form of Sutras. The result was the redacted text of the aforesaid MKP, known as the Shata-khandagama since it was divided into six khandas or parts. The very high place, value and importance of this text in the sacred literature of the Jains cannot be exaggerated, simply because it is directly related to and derived or extracted from the original Jaina canon, the Dvadashanga-shruta, as compiled by Gautama the Ganadhara in the life-time and presence of the Tirthankara Mahavira Himself and incorporated the latter's own teachings. The main theme of this Agama is, apart from many other connected topics, the very detailed and complete exposition of Mahavira's doctrine of karma, the first three parts dealing mainly with the soul which is the subject and agent of karmic bondage, and the last three with the objective or material karma, its nature, kinds and classes and its operation, interaction or interplay with respect to a particular or individual soul. About half a dozen commentaries of this text were written by different authors at different times. Of these the latest, most exhaustive and the only available one is the Dhavala, written in mixed Prakrit and Sanskrit, running into 72000 Shloka-size, and completed, in Vikrama Samvat 838 (A.D. 780), at Vatagrama (near Nasik in Maharashtra), during the reign of the Rashtrakuta monarch Dhruva Dharavarsha Nirupama 'Vallabharaya' (779-793 A.D.), by Swami Virasena of the Panchastupa-nikaya, who was one of the most learned saints and greatest authors of Jaina literary history. The only extant manuscripts of this voluminous commentary were on palm-leaves and transcribed in the Kannada script, which were preserved in the Siddhanta Basadi at Moodbidre in South Canara (Karnataka). No light has yet been shed on the number, date, place, donor, scribe, etc., of these Mss. There is reason to believe that there are more than one set complete or incomplete, and that the earliest of them is the one prepared, about 1400 A.D., at the instance of Devamati, a princess probably of the Alupa family of the Tuluva region General Editora! / 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ in which Moodbidre lay, as also that the Guru-basadi, in which this set was installed, thereafter came to be known as the Siddhanta-basadi. The story how a complete paper-copy of the Dhavala, transcribed in the Nagari script, was, in the twenties of the present century, secretly smuggled out of the Siddhanta Basadi of Moodbidre and reached northern India, is quite interesting. From this copy, several other copies were soon made. It was with the help of these copies that the late Prof. Hiralal Jain of Amraoti prepared a standard edition of the Shatakhanda-agama alongwith its Dhavala commentray, with critical notes, Hindi translation, learned introductions, useful appendices, etc., which was published in sixteen volumes, between 1938 and 1959 A.D., by the Jain Sahityoddharaka Fund endowed by Seth Lakshmi Chand of Vidisha (M.P.). This momentous publication aroused keen interest in many a Jaina and non-Jaina scholar who, as soon as the volumes began to apear one after the other, started delving into this ocean of Agamic knowledge. In fact, for a proper understanding of the Jaina doctrines prevailing prior to the schism of 79 A.D. which divided Mahavira's Order into the Digambara and Shvetambara sections, study of the Shatakhandagama is indispensable. It is equally valuable for a study of the early forms of the Prakrit language. Moreover, whereas the Shvetambara section claims to have preserved surviving portions and versions of the first eleven Angas as redacted by Devarddhi Gani in 466 A.D. and declares that the Twelfth Anga had already been entirely lost long before that time, the Digambaras disown the Shvetambara version of the Eleven Angas and claim to have scrupulously preserved specific portions of the Twelfth Anga, the Shatakhandagama being one of such portions that had been saved from oblivion. Thus, in a way, the two traditions would seem to complement each other. This fact also accounts for the agreement between the two sections on docrinal fundamentals and for the presence, in their respective canonical literatures, of many common gathas, which had been prevailing as common heritage before the schismatic division. In the foregoing several decades much useful light has been thrown on various aspects of this Agama and its Dhavala commentary, in the learned introductions to the published editions and in the critical discussions of reputed scholars like Pt. Nathuram Premi, Pt. Jugal Kishore Mukhtar, Prof. Hiralal Jain, Dr. A. N. Upadhye, Prof. S.M. Katre, Pt. Kailash Chandra Shastri, Pt. Phool Chandra Shastri, Pt. S.C. Divakar, Dr. J. P. Jain, and several others. Yet, the need of a more comprehensive and exhaustive study in one volume was being felt, which has happily been fulfilled by Pandit Balchandraji Shastri. Shastriji, having been closely associated with Dr. Hiralal Jain in the stupendous task of editing, translating and publishing this voluminous 20 Satkhandagam-parisheelan Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ work, naturally got an opportunity to study deeply the Shatakhandagama Sutras and their Dhavala commentary. Even after the last volume had been published, his interest, study and researches in the subject continued and ultimately fructified in the form of the present 'Shatakhandagama Parishilana'. It is, no doubt, a detailed and critical study, touching the different aspects of this esteemed canonical work. The discussion is divided into eleven chapters, of which the first two deal with the name of the work, its author, source, authenticity, language, style, method of exposition, classification of topics and certain other allied things; Ch. III describes in detail the subject matter of each of the six parts (or Khandas); Ch. IV provides a comparative study of Shatkhandagama with more than a dozen other works on the same subject; Ch. V deals with the known exegetical literature relating to this text is general, and its Dhavala commentary in particular; Ch. VI gives information about Santa-kammapanjiya (Satkarma-panjika), a short commentary of unknown authorship, on a portion of the text; Chs. VII to IX discuss works and authors quoted or alluded to, directly or indirectly in the Dhavala; Ch. X discusses the style and method of exposition employed in Virasena's Dhawala; and Ch. XI contains an index of the numerous quotations which Virasena had gleaned from different earlier works and used in the Dhavala. The study also contains useful appendices at the end, and the author's elaborate introduction as well as Pt. Kailash Chandra Shastri's General Editorial in Hindi at the beginning, all of which go to enhance the usefulness of this publication. It would not be out of place to point out that on certain points, such as the date and place of the completion of the Dhavala and the tentative dates, etc., of early authors including the redactors of this canonical text, the undersigned begs to differ, on good grounds, from the views of Pt. Balchandraji as well as Dr. Hiralalji whom the former seems to have naturally followed in such cases. There is, however, no doubt that Pt. Balchandraji has devoted much time and energy in writing out this comprehensive critical study of one of the surviving original Jaina Agamas, for which the authorities of the Bharatiya Jnanpith and myself, are grateful to him. Shri Sahu Shriyans Prasadji, President and Sahu Ashoka Kumarji Managing Trustee, and staff of the Bharatiya Jnanpith deserve thanks for bringing out Shastriji's this learned and specialised canonical study. It is hoped that its publication will inspire readers to study for themselves the original work, and that this 'Parishilana' will also be found useful to serious students and research workers in the field of Jaina metaphysics and ontology, particularly the Jaina Doctrine of karma. Jyoti Nikunj, Charbagh, Lucknow - 19 15th Oct., 1986 -Jyoti Prasad Jain Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना आगम का महत्त्व मनुष्य पर्याय की प्राप्ति का प्रमुख प्रयोजन संयम को प्राप्त कर कर्मबन्धन से मुक्ति पाना होना चाहिए। इसके लिए जीवादि पदार्थों के विषय में यथार्थ श्रद्धापूर्वक उनका ज्ञान और तदनुरूप आचरण आवश्यक है । पदार्थ विषयक वह ज्ञान आगमाभ्यास के बिना सम्भव नहीं है । यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने आगमविषयक अध्ययन पर विशेष जोर दिया है। वे कहते हैं कि आगमपरिशीलन के बिना पदार्थों के विषय में निश्चय नहीं होता है और जब तक निश्चय नहीं होता तब तक श्रमण एकाग्रचित्त नहीं हो सकता है । एकाग्रचित्त वह तब ही हो सकता है जब उसे आत्म-पर का विवेक हो जाय । कारण यह कि भेदविज्ञान के बिना कर्मों का क्षय करना शक्य नहीं है । इस प्रकार यह सब उस आगमज्ञान पर ही निर्भर है। इसीलिए साधु को आगमचक्षु कहा गया है, जो सर्वथा उचित है। कारण यह है कि चर्मचक्षु से तो प्राणी सीमित स्थूल पदार्थों को ही देख सकता है, सूक्ष्म व देश-कालान्तरित असीमित पदार्थों के देखने में वह असमर्थ ही रहता है। किन्तु आगम के द्वारा परोक्ष रूप में उन सभी पदार्थों का ज्ञान सम्भव है जिन्हें केवलज्ञानी प्रत्यक्ष रूप में जानते देखते हैं । इसलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जिसकी दृष्टि आगमपूर्व नहीं है-आगमज्ञान से सुसंस्कृत नहीं होती है - उसके संयम नहीं होता है, यह सत्रवचन है । और जो संयम से रहित होता है वह श्रमण नहीं हो सकता। अभिप्राय यह कि आगमज्ञान के बिना तत्त्व-श्रद्धापूर्वक ज्ञान, उसके बिना संयम और उस संयम के बिना निर्वाण का प्राप्त करना सम्भव नहीं है।' आगम की यथार्थता यह अवश्य विचारणीय है कि आगम रूप से प्रसिद्ध विविध ग्रन्थों में वह यथार्थ आगम क्या हो सकता है, जिसके आश्रय से मुमुक्षु भव्य जीव उक्त आत्मप्रयोजन को सिद्ध कर सके । आचार्य कुन्दकुन्द के वचनानुमार यथार्थ आगम उसे समझना चाहिए जो वीतराग सर्वज्ञ के द्वारा कहा गया हो तथा पूर्वापरविरोधादि दोषों से रहित हो । इसी अभिप्राय को परीक्षाप्रधानी आचार्य समन्तभद्र ने भी अभिव्यक्त किया है कि जो १. प्रवचनसार ३,३२-३७ २. नियमसार ७-८ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप्त-सर्वज्ञ व वीतराग–के द्वारा प्रणीत हो तथा जो प्रत्यक्ष व अनुमानादि प्रमाण से अविरुद्ध होने के कारण वस्तुस्वरूप का यथार्थ प्ररूपक हो उसे ही यथार्थ आगम जानना चाहिए। ऐसा आगम ही प्राणियों को कुमार्ग से बचाकर उन सबका हित कर सकता है।' षटखण्डागम की यथार्थता ऐसे यथार्थ माने जाने वाले आगमों में प्रस्तुत षट्खण्डागम अन्यतम है। कारण यह कि उसका महावीर-वाणी से सीधा सम्बन्ध रहा है। उसे दिखलाते हुए धवलाकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इस प्रकार से यह षट्खण्डागम केवलज्ञान के प्रभाव से प्रमाणीभूत आचार्यपरम्परा से अविश्रान्त चला आया है और इसीलिए वह प्रत्यक्ष एवं अनुमानादि प्रमाणं से अविरुद्ध होने के कारण प्रमाणीभूत है। इस कारण मोक्षाभिलाषी भव्य जनों को उसका अभ्यास करना चाहिए।' सिद्धों के पूर्व अरहन्तों को नमस्कार क्यों ? धवला में पंचपरमेष्ठिनमस्कारात्मक मंगलगाथा की व्याख्या के प्रसंग में यह एक शंका उठायी गई है कि समस्त कर्मलेप से रहित सिद्धों के रहने पर सलेप-चार अघातिया कर्मों के लेप से सहित-अरहन्तों को प्रथमत: नमस्कार क्यों किया जाता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि सिद्ध , जो गुणों से अधिक हैं, उनकी उस गुणाधिकता विषयक श्रद्धा के कारण वे अरहन्त ही तो हैं, इसीलिए उन्हें सिद्धों के पूर्व नमस्कार किया जा रहा है। अथवा यदि अरहन्त न होते तो हम जैसे छद्मस्थ जनों को आप्त, आगम और पदार्थों का बोध ही नहीं हो सकता था। यह महान् उपकार उन अरहन्तों का ही तो है। इसीलिए उन्हें आदि में नमस्कार किया जाता है। इससे निश्चित है कि अरहन्त (आप्त) व उनके द्वारा प्ररूपित आगम ही एक ऐसा साधन है जिससे प्राप्त तत्त्वज्ञान के बल पर जीव सिद्धि को प्राप्त कर सकता है। आगम को महत्त्व देते हुए आ० गुणभद्र ने भी 'आत्मानुशासन' में यही अभिप्राय प्रकट किया है कि सभी प्राणी जिस समीचीन सुख को चाहते हैं, वह यथार्थ सुख कर्मों के क्षय से प्रादुर्भूत होता है । यह कर्मक्षय व्रत-संयम से सम्भव है जो सम्यग्ज्ञान पर निर्भर है। उस सम्यग्ज्ञान का कारण वह आगम है जो वीतराग सर्वज्ञ के द्वारा कहा गया हो। इस प्रकार यथार्थ (निर्बाध) सुख का साधन वह आप्त और उसके द्वारा प्रणीत आगम ही है। अत: युक्ति से विचार कर मुमुक्षु भव्य को उसी का आश्रय लेना चाहिए। ___ इसी 'आत्मानुशासन' में आगे मन को उपद्रवी चपल बन्दर के समान बतलाते हुए यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि जिस प्रकार बन्दर फल पुष्पादि से व्याप्त किसी हरे-भरे वृक्ष १. रत्नकरण्डक ६ २. धवला पु० ६, पृ० १३३-३४ ३. धवला पु० १, पृ० ५३-५४ ४. आत्मानुशासन ६ (विपरीत क्रम से इसी अभिप्राय का प्ररूपक एक पद्य 'तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक' में भी उद्धृत किया गया है।) २४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को पाकर उपद्रव छोड़ देता है और उस पर रम जाता है उसी प्रकार स्वच्छन्दता से इन्द्रिय-विषयों की ओर दौड़ने वाले चंचल मन को अनेकान्तात्मक पदार्थों के प्ररूपक, अनेक नयरूप शाखाओं से सुशोभित श्रुतस्कन्धरूप वृक्ष पर रमाना चाहिए— उसके अभ्यास में संलग्न करना चाहिए, जिसके आश्रय से वह कल्याण के मार्ग में प्रवृत्त हो सके ।' अधिक क्या कहा जाय, त्रिलोकपूज्य उस तीर्थंकर पद की प्राप्ति का कारण भी अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता' या अभीक्ष्णज्ञानोपयोग ही है । षट्खण्डागम की महत्ता जैसा कि ऊपर के विवेचन से स्पष्ट हो चुका है, प्रस्तुत षट्खण्डागम एक प्रमाणभूत परमागमग्रन्थ है | आचार्य अकलंकदेव के द्वारा स्थान स्थान पर जिस ढंग से उसके महत्त्व को प्रतिष्ठापित किया गया है उससे भी उसकी परमागमरूपता व उपादेयता सिद्ध होती है । उन्होंने अपने तत्त्वार्थवार्तिक में यथाप्रसंग उसके अन्तर्गत खण्ड व अनुयोगद्वार आदि का उल्लेख इस प्रकार किया है— (१) कुत: ? आगमे प्रसिद्धे । आगमे हि जीवस्थानादिसदादिष्वनुयोगद्वारेणाऽऽदेशवचने... | - त०वा० १,२१,६ तथा ष०ख० सूत्र १,१, २४ व २५, २८ आदि । (२) एवं ह्या उक्तं सासादन सम्यग्दृष्टिरिति को भावः ? पारिणामिको भाव इति । - त०वा० २,७,११ व ष० ख० सूत्र १,७, ३ (३) एवं हि समयोऽवस्थितः सत्प्ररूपणायां कायानुवादे त्रसानां द्वीन्द्रियादारभ्य आ अयोगिकेवलिन इति । - त० वा० २,१२,५ और ष०ख० सूत्र १,१, ४४ (४) आह चोदक: -- जीवस्थाने योगभंगे ? न विरोधः, अभिप्रायकत्वाज्जीवस्थाने सर्वदेव-नारकाणां । त०वा० २,४६, ८ व ष० ख० सूत्र १,१, ५७ (५) एवं ह्य ुक्तमार्षे वर्गणायां बन्धविधाने नोआगमद्रव्यबन्धविकल्पे सादिससिकबन्धनिर्देशः प्रोक्तः । - त०वा० ५,३६,४ और प०ख० सूत्र ५, ६, ३३-३४ आचार्य पूज्यपाद ने 'तत्त्वार्थसूत्र' के अन्तर्गत सूत्र १-८ की व्याख्या में षट्खण्डागम परमागम के अन्तर्गत सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों के प्रायः सभी सूत्रों को छायानुवाद के रूप में आत्मसात् किया है । आ० पूज्यपाद भट्टाकलंकदेव के पूर्ववर्ती हैं। उनके तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि) गत वाक्यों को अकलंकदेव ने अपने 'तत्त्वार्थवार्तिक' में समाविष्ट कर उन्हें विशद किया है । आ० पूज्यपाद ने षट्खण्डागम जैसे परमागम को प्रमाण मानकर यह भी कहा है "स्वनिमित्तस्तावदनन्तानाम गुरुलघुगुणानामागमप्रामाण्यादभ्युपगम्यमानानां षट्स्थानपतितया वृद्ध्या हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेतेषामुत्पादो व्ययश्च । " - स०सि० ५-७ इस प्रकार आचार्य पूज्यपाद और भट्टाकलंकदेव ने प्रकृत षट्खण्डागम को विशेष महत्त्व १. आत्मानुशासन १७० २. ष० ख० सूत्र ४१ (१०८) ३. तत्त्वार्थसूत्र ६-२४ ४. षट्खण्डागम के इस सूत्र (१,१, ४४ ) का संकेत सर्वार्थसिद्धि (२-१२) में भी 'आगम' के नाम से ही किया गया है । प्रस्तावना / २५ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देकर उसकी उपादेयता और अभ्यसनीयता को प्रकट किया है। ___ धवलाकार आ० वीरसेन ने प्रसंगप्राप्त सत्कर्मप्राभूत (षट्खण्डागम) औरक यप्राभूत की असूत्र रूपता का निराकरण करते हुए उन्हें सूत्र सिद्ध किया है व द्वादशांगश्रुत जैसा महत्त्व दिया है (पु० १, पृ० २१७-२२)। सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र जैसा कि ऊपर 'आगम का महत्त्व' शीर्षक में स्पष्ट किया जा चुका है, परमागमरूपता को प्राप्त प्रस्तुत षट्खण्डागम मुमुक्षु भव्य जनों को मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त कराने का एक अपूर्व साधन है। कारण यह कि मोक्षमार्ग रत्नत्रय के रूप में प्रसिद्ध सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनों का समुदयात्मक है। इनमें सम्यग्दर्शन को सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त है। वह सम्यग्दर्शन अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को कब और किस प्रकार से प्राप्त होता है, इसे स्पष्ट करने के लिए षट्खण्डागम के प्रथम खण्डस्वरूप जीवस्थान में सर्वप्रथम मोक्ष-महल के सोपानभूत चौदह गुणस्थानों का विचार किया गया है। उन गुणस्थानों में वर्तमान जीव उत्तरोत्तर उत्कर्ष को प्राप्त होते हुए किस प्रकार से उस रत्नत्रय को वृद्धिंगत करते हैं, यह दिखलाया गया है। आगे वहीं गत्यादि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से विभिन्न जीवों की विशेषता को भी प्रकट किया गया है। इस जीवस्थान खण्ड से सम्बद्ध जो नौ चूलिकाएं हैं उनमें आठवीं 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' चलिका है। उसमें प्रथमत: छठी और सातवीं इन पूर्व की दो चूलिकाओं की संगति को स्पष्ट करते हए यह कहा गया है कि इन दो चूलिकाओं में यथाक्रम से निर्दिष्ट कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति के रहते हुए जीव उक्त सम्यग्दर्शन को नहीं प्राप्त करता है । किन्तु जब वह उन कर्मों की अन्त:कोड़ाकोड़ि प्रमाण स्थिति को बांधता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करने योग्य होता है । यहाँ यह स्मरणीय है कि अनादि मिथ्यादृष्टि जीव सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी क्रोधादि चार और मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय को उपशमाकर उस प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। इसलिए यहाँ प्रथमतः दर्शनमोहनीय की उपशामन विधि का विवेचन किया गया है । इस प्रसंग में वहां कौन जीव उसके उपशमाने के योग्य होता है तथा वह किन अवस्थाओं में उसे उपशमाता है, इत्यादि का जी मूल ग्रन्थ में सूत्र रूप से विचार किया गया है इसका स्पष्टीकरण धवलाकार ने विशेष रूप से कर दिया है। यह उपशमसम्यक्त्व चिरस्थायी नहीं है, अन्तर्मुहर्त में वह विनष्ट होने वाला है।' ___आगे वहाँ मुक्ति के साक्षात् साधनभूत क्षायिक सम्यक्त्व का विचार करते हुए उसके रोधक दर्शनमोहनीय का क्षय कहाँ, कब और किसके पादमूल में किया जाता है, का विचार किया गया है। धवलाकार ने इसका विशदीकरण भी विशेष रूप से किया है ।२ इस प्रकार सम्यक्त्व की प्ररूपणा करके, तत्पश्चात् इसी 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' चूलिका में जीव सम्यक्त्वपूर्वक चारित्र और सम्पूर्ण चारित्र को किस प्रकार से प्राप्त करता है, इसका मूल ग्रन्थकार द्वारा संक्षेप में दिशावबोध कराया गया है । उसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने १. सूत्र १,६-८,१-१० (पु० ६, पृ० २०३-४३) २. सूत्र १,६-८,११-१३ (पु० ६, पृ० २४३-६६) २६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस प्रसंग में संयमासंयम तथा औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक प्रकलचारित्र के इन तीन भेदों के निर्देशपूर्वक उनमें से प्रत्येक की प्राप्ति के विधान की पृथक्-पृथक् विस्तार से प्ररूपणा की है ।' इसी प्रसंग में उन्होंने जीव किस क्रम से उपशमश्रेणि और क्षपकश्रेणि पर आरूढ होता है तथा वहाँ किस क्रम से वह विविध कर्मप्रकृतियों को उपशमाता व क्षय करता है, इसका विचार भी बहुत विस्तार से किया है । इसी सिलसिले में वहाँ उपशमश्रेणि पर आरूढ हुआ संयत कालक्षय अथवा भवक्षय से उस उपशमश्रेणि से पतित होकर किस क्रम से नीचे आता है, इसका भी विस्तार से विवेचन किया गया है। वही संयत मुक्ति की अनन्य साधनभूत दूसरी क्षपकश्रेणि पर आरूढ होकर जीव के सम्यग्दर्शनादि गुणों के विघातक कर्मों का किस क्रम से क्षय करता हुआ क्षीणकषाय गुणस्थान को प्राप्त होता है और फिर सयोगकेवली होकर वहाँ जीवन्मुक्त अवस्था में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण रहता हुआ अयोगकेवली हो जाता है और अन्त में शेष अघातिया कर्मों को भी निर्मूल करके मुक्ति को प्राप्त कर लेता है -- इस सबका विशद विवेचन धवलाकार ने किया है । " यह जो सम्यक्त्व व चारित्र की प्ररूपणा प्रथमतः षट्खण्डागम के जीवस्थान खण्डगत सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में तथा विशेषकर इस चूलिका में की गयी है वह आत्महितैषी जनों के लिए मननीय है । उनके विषय में जिस प्रकार का स्पष्टीकरण यहाँ किया गया है वह अन्यत्र द्रव्यानुयोगप्रधान ग्रन्थों में प्रायः दुर्लभ रहेगा । सम्यग्ज्ञान इस प्रकार सम्यक्त्व व चारित्र की प्ररूपणा कर देने पर पूर्वोल्लिखित रत्नत्रय में सम्यग् - ज्ञान शेष रह जाता है, जिसकी प्ररूपणा भी यथाप्रसंग प्रकृत षट्खण्डागम में विस्तार से की गयी है । यह ध्यातव्य है कि सम्यग्दर्शन के प्रादुर्भूत हो जाने पर उसका ज्ञान, पूर्व में जो मिथ्या था, उसी समय सम्यग्रूपता को प्राप्त कर लेता है । वह यदि अल्प मात्रा में भी हो तो भी वह केवलज्ञानपूर्वक प्राप्त होनेवाली मुक्ति की प्राप्ति में बाधक नहीं होता — जैसे तुषमास के घोषक शिवभूति का ज्ञान । इसके विपरीत भव्यसेन मुनि बारह अंग और चौदह पूर्वस्वरूप समस्त श्रुत का पारंगत होकर भी भावश्रमणरूपता को प्राप्त नहीं हुआ - मोक्षमार्ग से बहिर्भूत द्रव्यलिंगी मुनि ही रहा । ८, १३-१४ (५०६, पृ० २६६-३४२) १. सूत्र १, २. सूत्र १, ८, १५-१६ ( पु० ६, पृ० ३४२-४१८) ३. धवला पु० १, पृ० २१०-१४ ( उपशामनविधि ) तथा पृ० २१५-२५ ( क्षपण विधि ) ४. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ३२-३४ ५. तुस - मासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य । णामेण य विभूईकेवलणाणी फुडं जाओ । - भावप्राभृत ५३ ६. अंगाई दस य दुणि य चउदसपुव्वाई सयलसुदणाणं । पढिओ अ भव्वसेणो ण भावसमणत्तणं पत्तो ॥ - भावप्राभृत ५२ प्रस्तावना / २७ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृत सम्यग्ज्ञान की प्ररूपणा प्रथमतः जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत 'सत्प्ररूपणा' अनुयोगद्वार में ज्ञानमार्गणा के प्रसंग में की जा चुकी है (सूत्र १,१,११५-२२; पु० १५० ३५३-६८) । तत्पश्चात 'वर्गणा' खण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में नोआगमकर्मद्रव्यप्रकृति के प्रसंग में उसकी विस्तार से प्ररूपणा की गयी है। इस प्रकृतिअनुयोगद्वार में ज्ञानावरणीय आदि कर्मप्रकृतियों के भेद-प्रभेदों को प्रकट किया गया है । सर्वप्रथम वहाँ ज्ञानावरणीय के पाँच भेदों का निर्देश करते हुए उनमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय के ४,२४,२८,३२,४८,१४४,१६८, १९२,२८८,३३६ और ३८४ भेदों का निर्देश किया गया है (सूत्र ५,५,१५-३५) । ___ इस प्रसंग में धवलाकार ने ज्ञानावरणीय प्रकृतियों के द्वारा आवत किये जानेवाले आभिनिबोधिकज्ञान के सभी भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा की है। तत्पश्चात् वहाँ इसी पद्धति से श्रतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान इन ज्ञानभेदों की भी प्ररूपणा को गई है।' अन्त में क्रमप्राप्त केवलज्ञान व उसके विषय के सम्बन्ध में विशदतापूर्वक विचार किया गया है। ___इसके पूर्व 'वेदना' खण्ड के अन्तर्गत 'कृति' अनुयोगद्वार को प्रारम्भ करते हुए जो वहाँ विस्तृत मंगल किया गया है (सूत्र १-४४). उसमें अनेक विशिष्ट ऋद्धिधरों को नमस्कार किया है। उस प्रसंग में धवलाकार द्वारा अवधिज्ञान, परमावधि, सर्वावधि, ऋजुमतिमनःपर्यय और विपुलमतिमनःपर्यय की प्ररूपणा की गयी है। इस प्रकार मोक्ष के मार्गभूत उक्त सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के विषय में विशद प्रकाश डालनेवाले प्रस्तुत षट्खण्डागम को मोक्षशास्त्र ही समझना चाहिए। अन्य प्रासंगिक विषय १. मोक्ष का अर्थ कर्म के बन्धन से छूटना है। इसके लिए कर्म की बन्धव्यवस्था को भी समझ लेना आवश्यक हो जाता है। इसे हृदयंगम करते हुए इसके तीसरे खण्डस्वरूप बन्धस्वामित्वविचय में ज्ञानावरणीय आदि कर्मप्रकृतियों में कौन प्रकृति किस गुणस्थान से लेकर आगे किस गुणस्थान तक बंधती है, इसका मूल ग्रन्थ में ही विशद विचार किया गया है, जिसका स्पष्टीकरण धवला में भी यथावसर विशेष रूप से किया गया है (पु०८)। इसके पूर्व दूसरे क्षुद्रकबन्ध खण्ड के प्रारम्भ में बन्धक सत्प्ररूपणा में भी मूल ग्रन्थकार द्वारा बन्धक-अबन्धक जीवों का विवेचन किया गया है (पु० ७)। इसी खण्ड के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों में जो प्रथम 'एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व' अनुयोगद्वार है उसमें गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से जीवों को नर-नारक आदि १. धवला पु० १३, पृ० २१६-४४ आभिनिबोधिकज्ञान; पृ० २४५-८६ श्रुतज्ञान; पृ० २८६. ३२८ अवधिज्ञान; पृ० ३२८-४४ मनःपर्ययज्ञान । २. सूत्र ७६-८२; धवला पु० १३, पृ० ३४५-५३ ३. यथा--अवधिज्ञान पु० ६, पृ० १२-४१, परमावधि पृ० ४१-४७, सर्वावधि पृ० ४७-५१ ____ व ऋजु-विपुलमतिमनःपर्यय पृ० ६२-६६ ४. धवलाकार ने मंगल, निमित्त व हेतु आदि छह की प्ररूपणा करते हुए प्रस्तुत ग्रन्थ की ___ रचना का हेतु मोक्ष ही निर्दिष्ट किया है-हेतुर्मोक्षः ।-धवला पु० १, पृ० ६० २८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्स्थाएँ किस कर्म के उदय, उपशम, क्षय व क्षयोपशम से प्राप्त होती हैं। इसका विशव विवेचन किया गया है (पु०७)। पूर्वोक्त तीसरे खण्ड में प्रसंग पाकर धवलाकार ने कर्म के बन्धक मिथ्यात्व, असंयम (अविरति), कषाय और योग इन चार मूल प्रत्ययों व उनके सत्तावन (५+१२+२५+१५) उत्तरभेदों की प्ररूपणा विस्तार से की है (पु० ८, पृ० १३-३०)। मूल ग्रन्थकर्ता ने भी कर्मबन्धक प्रत्ययों का विचार दूसरे 'वेदना' खण्ड के अन्तर्गत आठवें वेयणपच्चविहाण अनुयोद्वार में नयविवक्षा के अनुसार कुछ विशेषता से किया है (पु. १२) । २. 'वर्गणा' खण्ड के अन्तर्गत जो 'कर्म' अनुयोगद्वार है उसमें दस प्रकार के कर्म का निरूपण किया गया है। उनमें छठा अध:कर्म है। अधःकर्म का अर्थ है जीव को अधोगति स्वरूप नरकादि दुर्गति में ले जाने वाला घृणित आचरण । जैसे-प्राणियों के अंगों का छेदन करना, उनके प्राणों का वियोग करना, विविध उपद्रव द्वारा उन्हें सन्तप्त करना एवं असत्यभाषण आदि । इस प्रकार आत्मघातक अध:कर्म का निर्देश करके ठीक उसके आगे ईर्यापथ, तपःकर्म और क्रियाकर्म-रत्नत्रय के संवर्धक इन प्रशस्त कर्मों (क्रियाओं) को भी प्रकट किया गया है। इनमें ईर्यापथ कर्म के स्वरूप को धवलाकार ने प्राचीन तीन गाथाओं को उद्धृत कर उनके आश्रय से अनेक विशेषताओं के साथ स्पष्ट किया है । इसी प्रकार तपःकर्म के प्रसंग में छह प्रकार के बाह्य और छह प्रकार के अभ्यन्तर तप के स्वरूप आदि को स्पष्ट किया गया है। यहीं पर इस अभ्यन्तर तप के अन्तर्गत ध्यान का विवेचन ध्याता, ध्यान, ध्येय और ध्यानफल इन चार अधिकारों में विस्तार से किया गया है । यहाँ धर्म और शुक्ल इन दो प्रशस्त ध्यानों को ही प्रमुखता दी गयी है। इनमें अन्तिम दो शुक्लध्यानों का फल योगनिरोधकपूर्वक शेष रहे चार अघातिया कर्मों को भी निमल करके शाश्वतिक निर्बाध सुख को प्राप्प रहा है। इस प्रकार ध्यान मुक्ति का साक्षात् साधनभूत है । यह सब मुमुक्षुजनों के लिए मननीय है (पु० १३)। ३. दूसरे 'वेदना खण्ड के अन्तर्गत वेदना नामक दूसरे अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणीय आदि वेदनाओं की प्ररूपणा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व स्वामित्व आदि अनेक अवान्तर अनुयोगद्वारों में की गयी है । यह सब संवेग और निर्वेद का कारण है (पु० १०-१२) । ४. पूर्वनिर्दिष्ट 'वर्गणा' खण्ड में जो 'बन्धन' नाम का अनुयोगद्वार है उसमें बन्ध, बन्धक, नीय और बन्धविधान इन चार अधिकारों का निर्देश करके बन्ध-बन्धक आदि का विवेचन पूर्व खण्डों में कर दिये जाने के कारण उनकी पुनः प्ररूपणा नहीं की गयी है। वहाँ प्रमुखता से बन्धनीय-बन्ध के योग्य तेईस प्रकार की पुद्गलवर्गणाओं-का विचार किया गया है। उनमें शरीर-रचना की कारणभूत आहारवर्गणा, तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा, कर्मरूपता को प्राप्त होनेवाली कार्मणवर्गणा एवं बादर-सूक्ष्मनिगोदवर्गणा आदि का स्वरूप जानने योग्य है (पु० १४)। ५. कौन जीव किस गति से किस गति में आते-जाते हैं और वहाँ वे ज्ञान एवं सम्यक्त्व आदि किन गुणों को प्राप्त कर सकते हैं व किन को नहीं प्राप्त कर सकते हैं, इसका विशद विवेचन जीवस्थान खण्ड से सम्बन्धित नौ चूलिकाओं में से अन्तिम 'गति-आगति' चूलिका में किया गया है (पु० ६)। ये सब विषय ऐसे हैं जिनके मनन-चिन्तन से तत्त्वज्ञान तो वृद्धिंगत होता ही है, साथ ही प्रस्तावना | २९ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुस्थिति का बोध होने से संवेग और निवेद भी उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त चित्त की एकाग्रता से अशुभ उपयोग से बचकर जीव की शुभ उपयोग में प्रवृत्ति होती है जो शुद्धोपयोग की भी साधक हो सकती है। इस प्रकार प्रस्तुत षट्खण्डागम में चर्चित इन कुछ अध्यात्ममार्ग में प्रवृत करानेवाले विषयों का यहाँ परिचय कराया गया है। उनका और उनसे सम्बन्धित अन्य अनेक विषयों का कुछ परिचय प्रकृत 'षट्खण्डागम-परिशीलन' से भी प्राप्त किया जा सकता है। सर्वाधिक जानकारी तो ग्रन्थ के अध्ययन से ही प्राप्त होनेवाली है। उपयोग की स्थिरता जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है, उपर्युक्त विषयों के अध्ययन व मनन-चिन्तन से तत्त्वज्ञान की वद्धि के साथ संवेग और निर्वेद भी उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त उनमें उपयुक्त रहने से उपयोग की स्थिरता से मन भी एकाग्रता को प्राप्त होता है। वह उपयोग शद्ध, शभ और अशुभ के भेद से तीन प्रकार का है । उनमें सब प्रकार के आस्रव से रहित होने के कारण मोक्ष-सुख का अनन्य साधनभूत शुद्ध उपयोग हो सर्वथा उपादेय है। अरहन्त आदि तथा प्रवचन में अभियुक्त अन्य ऋषि-महर्षि आदि के विषय में जो गुणानुरागात्मक भक्ति होती है व उन्हें देखकर खड़े होते हुए जो उनकी वन्दना एवं नमस्कार आदि किया जाता है; यह सब शुभ उपयोग का लक्षण है, जिसे सरागवर्या या सरागचारित्र कहा जाता है। इसकी भी श्रमगधर्म में निन्दा नहीं की गयी है-वह शुद्धोपयोग के अभाव में गृहस्थ की तो बात क्या. मनियों को भी ग्राह्य है। ऐसे शुभ उपयोग से युक्त मुनिजन दर्शन-ज्ञान के उपदेश के साथ शिष्यों का ग्रहण एवं संयम आदि से उनका पोषण भी कर सकते हैं। यहां तक कि वे जिनेन्द्रपूजा आदि का उपदेश भी कर सकते हैं। उसके कारण उनका सरागचारित्ररूप श्रमणधर्म कलषित नहीं होता । कारण यह कि मुनियों के शुद्ध और शुभ दोनों उपयोग कहे गये हैं। ऐसे मुनिजन अन्य ग्लान, गुरु, बाल व वृद्ध श्रमणों की वैयावृत्ति के लिए लोकिक जनों के साथ सम्भाषण करके उन्हें प्रेरित भी कर सकते हैं । इस प्रकार की प्रवृत्ति मुनियों और गहस्थों दोनों के लिए प्रशस्त व उत्तम कही गयी है (५४)। उससे सुख की प्राप्ति भी होती है। जो षट्काय जीवों की विराधना से रहित चातुर्वर्ण्य श्रमणसंघ का उपकार करता है वह भी सरागचारित्र से युक्त साध है-उसे भी शुभ उपयोग से युक्त श्रमण ही समझना चाहिए (४६) । यह अध्यात्मप्रधानी आचार्य कुन्दकुन्द के कथन का अभिप्राय है, जिसे उन्होंने अपने 'प्रवचनसार' में अभिव्यक्त किया है।' इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आत्महितैषी जीव को, यदि वह शुद्ध उपयोग से परिणित नहीं हो सकता है तो उसे, हजारों दुःखों से व्याप्त कुमानुष, तिर्यंच और नारक आदि दुर्गति के कारणभूत अशुभ उपयोग से दूर रहकर स्वर्गसुख के कारणभूत शुभ उपयोग में तत्पर रहना उचित है। आचार्य पूज्यपाद ने इस अभिप्राय को इन शब्दों में व्यक्त किया गया है १. प्रवचनसार ३,४५-६० २. प्रवचनसार १,११-१२ ३० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरं व्रतः पदं देवं नावतर्वत नारकम् । छायाऽऽतपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान् ।। - इष्टोपदेश आचार्य गुणभद्र ने भी इसी अभिप्राय को प्रकारान्तर से इस प्रकार व्यक्त किया है--- शुभाशुभे पुण्य-पापे सुखदुःखे च षट्त्रयम् । हितमाधमनुष्ठेयं शेषत्रयमथाहितम् ।। तत्राप्याद्य परित्याज्यं शेषौ न स्त: स्वतः स्वयम् । शुभं च शुद्ध त्यक्त्वान्ते प्राप्नोति परमं पदम् ।। -आत्मानुशासन ३३६-४० सिद्धान्त के मर्मज्ञ पं० टोडरमल ने भी शुद्धोपयोग को उपादेय तथा शुभोपयोग और अशुभोपयोग दोनों को हेय बतलाते हुए भी यह अभिप्राय प्रकट किया है कि जहाँ शुद्धोपयोग नहीं हो सकता है वहाँ अशुभपयोग को छोड़ कर शुभोपयोग में प्रवृत्त होना हितकर है । कारण यह कि शुभोपयोग में जहाँ बाह्य व्रत-संयम आदि में प्रवृत्ति होती है वहाँ अशुभोपयोग के रहने पर हिंसादिरूप बाह्य असंयम में प्रवृत्ति होती है जो जीव को मोक्षमार्ग से बहुत दूर ले जानेवाला है। पहले अशुभोपयोग छूटकर शुभोपयोग हो और फिर शुभोपयोग छूटकर शुद्धोपयोग, हो, यही क्रमपरिपाटी है।' इस के पूर्व एक शंका का समाधान करते हुए उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि जो व्रतसंयमादि को संसार का कारण मानकर उन्हें छोड़ना चाहता है वह निश्चित ही हिंसादि पापाचरण में प्रवृत्त होने वाला है, जो नारकादि वर्गति का कारण है । इसलिए इसे अविवेक ही कहा जायेगा। इसके अतिरिक्त यदि व्रतादि रूप परिणति से हटकर वीतराग उदासीन भावरूप शुद्धोपयोग होता है तो यह उत्कृष्ट ही रहेगा, किन्तु वह नीचे की दशा में सम्भव नहीं है, इसलिए व्रतादि को छोड़कर स्वेच्छाचारी होना योग्य नहीं है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जो उपर्युक्त वस्तुस्थिति को न समझकर या बुद्धिपुरःसर उसकी उपेक्षा कर यह कहते हैं कि आत्मोत्कर्ष के साधनभूत जो समयसार आदि अध्यात्म ग्रन्थ हैं वे ही पठनीय हैं; इनके अतिरिक्त अन्य कर्मग्रन्थ आदि के अध्ययन से कुछ आत्महित होनेवाला नहीं है, उनका यह कथन आत्महितैषी जनों को दिग्भ्रान्त करनेवाला है। कारण यह कि ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट हो चुका है कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रस्वरूप जो मोक्षमार्ग है उसमें क्रमिक उत्कर्ष प्रायः इन्हीं ग्रन्थों के अध्ययन और मनन-चिन्तन से सम्भव है। जीव का स्वरूप कैसा है, वह कर्म से सम्बद्ध किस प्रकार से हो रहा है, तथा वह कर्मबन्धन से छटकारा कैसे पा सकता है। इसका परिचय ऐसे ही ग्रन्थों से प्राप्त होनेवाला है । इस प्रकार क्रमिक विकास को प्राप्त होकर आत्महितेच्छुक भव्य जीव प्रयोजनीभूत तत्त्वज्ञान को प्राप्त करके जब आत्म-पर-विवेक से विभूषित हो जाता है तब यदि वह उक्त समयसार आदि अध्यात्म ग्रन्थों का अध्ययन व मनन-चिन्तन करता है तो यह उसके लिए सर्वोत्कृष्ट प्रमाणित होने वाला है। विधेय मार्ग तो यही है, इसे कोई भी विवेकी अस्वीकार नहीं कर १. मोक्षमार्गप्रकाशक (दि० जैन स्वाध्यायमन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़) पृ० २५५-५६ २. मोक्षमार्गप्रकाशक (दि० जैन स्वाध्यायमन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़) पृ० २५३-५४ प्रस्तावना | ३१ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता है । यह स्मरणीय है कि आत्मोत्कर्ष वाकपटुता पर निर्भर नहीं है, वह तो अन्त:करण की प्रेरणा पर निर्भर है । जितने अंश में उसके अन्तःकरण से राग-द्वेष हटते जायेंगे उतने अंश में वह आत्मोत्कर्ष में अग्रसर होता जायेगा। यही शुद्धोपयोग के उन्मुख होने का मार्ग है । व्रतसंयमादिरूप शुभोपयोग तो तब निश्चित ही छूटेगा, वह कभी साक्षात् मुक्ति का साधन नहीं हो सकता है। इस प्रकार से यह निश्चित होता है कि शुद्धोपयोग जहाँ सर्वथा उपादेय और अशुभोपयोग सर्वथा हेय है वहाँ शुभोपयोग कथंचित् उपादेय और कथंचित् हेय है। अमृतचन्द्र सूरि आ० कुन्दकुन्द के समयसार आदि आध्यात्मिक ग्रन्थों के रहस्य के उद्घाटक हैं । उनकी एक मौलिक कृति 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' है, जिसे अपूर्वश्रावकाचार ग्रन्थ कहना चाहिए । इसमें उन्होंने सल्लेखना के साथ श्रावक के बारह व्रतों का वर्णन करते हुए उस प्रसंग में यह स्पष्ट कर दिया है कि जो व्रत-संरक्षण के लिए निरन्तर इन समस्त शीलों का पालन करता है उसका मुक्ति-लक्ष्मी पतिवरा के समान उत्सुक होकर स्वयं वरण करती है-उसे मुक्ति प्राप्त होती है।' इसका अभिप्राय यही है कि शुभोपयोगस्वरूप व्रत-संयमादि संसार के ही कारण नहीं हैं, परम्परया वे मोक्ष के भी प्रापक हैं । समन्वयात्मक दृष्टिकोण की आवश्यकता यह सुविदित है कि जैन सिद्धान्त में अनेकान्त को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । यदि उसका अनुसरण किया जाये तो विरोध के लिए कोई स्थान नहीं रहता। जिन अमृतचन्द्र सूरि और उनके पुरुषार्थसिद्धयुपाय का ऊपर उल्लेख किया गया है उन्होंने इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ को प्रारम्भ करते हुए मंगलस्वरूप केवलज्ञानरूप परंज्योति के जयकारपूर्वक उस अनेकान्त को नमस्कार किया है जो परमागम का बीज होकर समस्त द्रव्याथिक-पर्यायाथिक नयों के विलास रूप नित्यअनित्य व शुद्ध-अशुद्ध आदि परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले धर्मों के विरोध को इस प्रकार से दूर करता है जिस प्रकार कि कोई निर्दोष आखोंवाला सूझता पुरुष हाथी के कान, सूंढ व पांव आदि किसी एक-एक अंग को टटोलकर उसे ही पूरा हाथी माननेवाले किन्हीं जन्मान्धों के पारस्परिक विवाद को दूर कर देता है । यह भी ध्यातव्य है कि अमृतचन्द्र सूरि ने परमागम को तीनों लोकों का अद्वितीय नेत्र घोषित किया है। ___ इन्हीं अमृतचन्द्र सूरि का जो दूसरा 'तत्त्वार्थसार' ग्रन्थ है उसमें उन्होंने जीवाजीवादि सात तत्त्वों का विवेचन किया है। अन्त में उन्होंने वहाँ उस सब का उपसंहार करते हुए मुमुक्षु भव्यजनों को प्रेरणा दी है कि इस प्रकार से प्रमाण, नय, निक्षेप, निर्देश-स्वामित्व आदि और सत्संख्या आदि के आश्रय से सात तत्त्वों को जानकर उन्हें उस मोक्षमार्ग का आश्रय लेना चाहिए जो निश्चय और व्यवहार की अपेक्षा दो प्रकार से स्थित है। उनमें निश्चय मोक्षमार्ग साध्य और व्यवहार मोक्षमार्ग उसका साधन है। शुद्ध आत्मा का जो श्रद्धान, ज्ञान और उपेक्षा-राग-द्वेष के परित्यागपूर्वक मध्यस्थता-है; यह सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्ररूप १. इति यो व्रतरक्षार्थ सततं पालयति सकलशीलानि । ___वरयति पतिवरेव स्वयमेव समुत्सुका शिवपद-श्रीः ॥१८॥ २. पु० सि० १-३ ३२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय मोक्षमार्ग है। तथा परस्वरूप से जो श्रद्धान, ज्ञान और उपेक्षा है वह उक्त रत्नत्रयस्वरूप व्यवहार मोक्षमार्ग है, इत्यादि । इस प्रकार से उन्होंने एक मात्र निश्चय का मालम्बन लेकर न तो व्यवहार मोक्षमार्ग को अस्वीकार किया है और न उसे हेय ही कहा है, बल्कि उन्होंने उसे निश्चय मोक्षमार्ग का साधक ही निर्दिष्ट किया है। इससे निश्चित है कि वस्तुस्वरूप का यथार्थ विचार व निर्णय राग-द्वेष को छोड़ मध्यस्थ रहते हुए अनेकान्तात्मक दृष्टिकोण से ही किया जा सकता है, जो स्व-पर के लिए हितकर होगा । जो आत्महितैषी व्यवहार और निश्चय को यथार्थ रूप से जानकर दुराग्रह से रहित होता हुआ मध्यस्थ रहता है वही देशना के परिपूर्ण फल को प्राप्त करता है। -(पु० सि० ८) अमृतचन्द्र सूरि ने अपने 'समयसार-कलश' में यह भी स्पष्ट किया है कि जिनागम द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक अथवा शुद्धनय और अशुद्ध नय इन दोनों के विरोध को नष्ट करनेवाला है, वह विवक्षाभेद से वस्तुस्वरूप का निरूपण करता है । वहाँ उसका द्योतक चिह्न (हेतु) 'स्यात्' पद है, उसे स्याद्वाद' या कथंचिद् वाद कहा जाता है । उदाहरणस्वरूप उसे शुभोपयोग की उपादेयता और इयत्ता के रूप में पीछे स्पष्ट भी किया जा चुका है। जो भव्य दर्शनमोहस्वरूप मिथ्यादर्शन से रहित होकर उस जिनागम में रमते हैं-सुरुचिपूर्वक उसका अभ्यास करते हैं .-वे ही यथार्थ में नयपक्ष से रहित होते हुए परंज्योतिस्वरूप निर्बाध समयसार को देखते हैं, अर्थात् उसके रहस्य को समझते हैं । आगे व्यवहारनय की कहां कितनी उपयोगिता है, इसे भी स्पष्ट करते हुए वहाँ यह कहा गया है कि जो विशेष तत्त्वावबोध से रहित नीचे की अवस्था में स्थित हैं उनके लिए व्यवहारनय हाथ का सहारा देता है-वस्तस्वरूप के समझने में सहायक होता है। किन्तु जो पर के सम्पर्क से रहित शुद्ध ज्ञान-दर्शनस्वरूप चेतन आत्मा का अभ्यन्तर में अवलोकन करने लगे हैं उनके लिए वह व्यवहार नय निरर्थक हो जाता है। -(स० कलश ४-५) इस प्रकार अध्यात्म के मर्मज्ञ होते हुए अमृतचन्द्र सूरि ने जो अनेकान्त को महत्त्व दिया है और तदनुसार ही प्रसंगप्राप्त तत्त्व का विवेचन किया है-उसमें कहीं किसी प्रकार का कदाग्रह नहीं है-उनका वह आदर्श मुमुक्षुओं के लिए ग्राह्य होना चाहिए। आत्मा का हित वीतरागपूर्ण दृष्टि मे है, किसी प्रकार की प्रतिष्ठा व प्रलोभन में वह सम्भव नहीं है । कुन्दकुन्द को व्यवहार का प्रतिषेधक नहीं कहा जा सकता ____ ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट हो चुका है कि आ० कुन्दकुन्द अध्यात्म प्रधान होकर भी व्यवहार के विरोधी नहीं रहे हैं । यह उनके समयसार के साथ अन्य ग्रन्थों-जैसे पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार, दर्शनप्राभृत, चारित्रप्राभूत, द्वादशानुप्रेक्षा आदि के अध्ययन १. स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द ने स्याद्वाद के महत्त्व को इस प्रकार से प्रतिष्ठापित किया है सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं । दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि ।। -पंचास्तिकाय, १४ अस्थि ति य णत्थि त्ति य हवदि अवत्तव्वमिदि दव्वं।। पज्जएण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा ।। -प्र०सा०२-२३ प्रस्तावना/३३ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से सुस्पष्ट है । वे जिन व जिनागम के भक्त रहते हुए पुण्यवर्धक क्रियाओं के विरोधी नहीं रहे हैं । यदि वे पुण्यवर्धक क्रियाओं के विरोधी होते तो प्राय: अपने सभी ग्रन्थों के आदि व अन्त गुणानुराग से प्रेरित होकर अरहन्त, सिद्ध और नामनिर्देशपूर्वक, विविध तीर्थंकरों को नमस्कार आदि क्यों करते ? पर उन्होंने उनकी भक्तिपूर्वक वन्दना व नमस्कार आदि किया है । प्रवचनसार को प्रारम्भ करते हुए तो उन्होंने वर्धमान, शेष (२३) तीर्थंकर, अरहंत, सिद्ध, गणधर अध्यापकवर्ग ( उपाध्याय) और सर्वसाधुओं को नमस्कार किया है । यह उनकी गुणानुरागपूर्ण भक्ति पुण्यवर्धक ही तो है, जो स्वर्गसुख का कारण मानी जाती है । ' उन्होंने राग-द्वेष एवं कर्म-फल से अनिर्लिप्त शुद्ध आत्मा के स्वरूप के अतिरिक्त अन्य पुद्गल आदि द्रव्यों की भी प्ररूपणा की है। उनका पंचास्तिकाय ग्रन्थ तो पूर्णतया द्रव्यों और पदार्थों का ही प्ररूपक है । इसमें उन्होंने उन द्रव्यों और पदार्थों का निरूपण करके अन्त में उस सबका उपसंहार करते हुए यह हार्दिक भावना व्यक्त की है कि मैंने प्रवचन - भक्ति से प्रेरित होकर मार्गप्रभावना के लिए प्रवचन के सारभूत-द्वादशांगस्वरूप परमागम के रहस्य के प्ररूपक - इस पंचास्तिकायसूत्र को कहा है। 3 यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आचार्य कुन्दकुन्द के समक्ष कौन-सा प्रवचन रहा है, जिसका गम्भीर अध्ययन करके उन्होंने मार्गप्रभावना के लिए उसके सारभूत प्रकृत पंचास्तिकाय ग्रन्थ को रचा है । षट्खण्डागम में निर्दिष्ट श्रुतज्ञान के ४१ पर्यायनामों में एक प्रवचन भी है ( सूत्र ५, ५, ५० ) । धवलाकार ने इस 'प्रवचन' शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए पूर्वापर विरोधादि दोषों से रहित निरवद्य अर्थ के प्रतिपादक प्रकृष्ट शब्द-कलाप को प्रवचन कहा है । आगे उन्होंने यहीं पर वर्णं-पंक्तिस्वरूप द्वादशांग श्रुत को व प्रकारान्तर से द्वादशांग भावश्रुत को भी प्रवचन कहा है । इसके पूर्व प्रसंगप्राप्त उसी का अर्थ उन्होंने द्वादशांग और उसमें होनेवाले देशव्रती, महाव्रती और सम्यग्दृष्टि भी किया है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि उनके समक्ष द्रव्य-पदार्थों का प्ररूपक कोई महत्त्वपूर्ण आगम ग्रन्थ रहा है, जिसके आधार से उन्होंने भव्य जीवों के हितार्थ पंचास्तिकाय परमागम को रचा है । यह भी सम्भव है कि आचार्यपरम्परा से प्राप्त उक्त द्रव्य पदार्थ विषयक व्याख्यान के आश्रय से ही उन्होंने उसकी रचना की हो। इससे यह तो स्पष्ट है कि वे आगम-ग्रन्थों के अध्ययन-अध्यापन के विरोधी नहीं रहे हैं । आचार्य कुन्दकुन्द लोकहितैषी श्रमण रहे हैं । उनकी संसारपरिभ्रमण से पीड़ित प्राणियों को उस दुख से मुक्त कराने की आन्तरिक भावना प्रबल रही है । इसी से उन्होंने अपने समयसार आदि ग्रन्थों में परिग्रह-पाप का प्रबल विरोध किया है । परिग्रह यद्यपि मूर्च्छा या ममत्व भाव को माना गया है, फिर भी जब तक बाह्य परिग्रह का परित्याग नहीं किया जाता है तब तक 'मम इदं' इस प्रकार की ममत्व बुद्धि का छूटना सम्भव नहीं है । सम्भवतः १. अरहंत - सिद्ध- चेदिय-पवयणभत्तो परेण नियमेण । जो कुणदि तवोकम्मं सो सुरलोगं समादियदि || - पंचास्तिकाय १७१ २. जैसे प्रवचनसार २, ३५-५२, नियमसार २० ३७ इत्यादि । ३. पंचास्तिकाय १७३ ( इसके पूर्व की गाथा १०३ भी देखी जा सकती है) । ४. धवला पु० १३, पृ० २५० व २८३ तथा पु०८, पृ० ० ५. प्रवचनसार ३, १६-२० ३४ / षट्खण्डागम- परिशीलन Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्व प्रभु के निर्वाण के पश्चात् श्रमणों में भी परिग्रह के प्रति मोह दिखने लगा था। इससे आ० कुन्दकन्द ने वस्त्रादि बाह्य परिग्रह के परित्याग पर अत्यधिक जोर दिया है। ऐसा उन्होंने किसी प्रकार के राग-द्वेष के वशीभूत होकर अथवा किसो पक्ष या व्यामोह में पढ़कर नहीं किया, बल्कि उस बाह्य परिग्रह को मोक्षमार्ग में बाधक जानकर ही उन्होंने उसका प्रबल विरोध किया है। ____'दर्शनप्राभूत' में उन्होंने यह स्पष्ट कहा है कि सम्यक्त्व से ज्ञान (सम्यग्ज्ञान), ज्ञान से पदार्थों की उपलब्धि और उससे सेव्य-असेव्य का परिज्ञान होता है तथा जो सेव्य-असेव्य को जानता है वह दुःशीलता-- असेव्य के सेवनरूप दुराचरण को-छोड़कर व्रत-सयमादि के संरक्षणरूप शील से विभूषित हो जाता है, जिस के फल से उसे अभ्युदय-+परलोक में स्वर्गा सुख-और तत्पश्चात् निर्वाण (शाश्वतिक मोक्षसुख) प्राप्त हो जाता है।' आगे उन्होंने यहीं पर यह भी स्पष्ट किया है कि जो छह द्रव्यों, नौ पदार्थों, पांच अस्तिकायों और सात तत्त्वों के स्वरूप का श्रद्धान करता है उसे सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। जिनेन्द्रदेव ने जीवादि के श्रद्धान को व्यवहार सम्यक्त्व और आत्मश्रद्धान को निश्चय सम्यक्त्व कहा है। इस प्रकार जिनोपदिष्ट सम्यग्दर्शनरूप रत्नत्रय को जो भाव से धारण करता है वह मोक्ष के सोपानस्वरूप उस रत्नत्रय में सारभूत सम्यक्त्वरूप प्रथम सोपान पर आरूढ़ हो जाता है। जो शक्य है उसका आचरण करना चाहिए, पर जो शक्य नहीं है उसका श्रद्धान करना चाहिए। इस प्रकार से श्रद्धान करने वाले जीव के केवली जिनदेव ने सम्यक्त्व कहा है। चरित्रप्राभूत में उन्होंने सागार अथवा गृहस्थ के दर्शनिक, प्रतिक आदि ग्यारह स्थानों (प्रतिमाओं) का निर्देश करते हुए बारह भेदस्वरूप संयमाचरण का-श्रावक के व्रतों का निरूपण किया है। द्वादशानुप्रेक्षा में भी उन्होंने धर्मानुप्रेक्षा के प्रसंग में सागारधर्म और अनगारधर्म दोनों का प्रतिपादन किया है। इस सारी स्थिति को देखते हुए क्या यह कल्पना की जा सकती है कि आ. कुन्दकुन्द व्यवहार मार्ग के विरोधी रहे हैं ? कदापि नहीं। उन्होंने समयसार में जो व्यवहार मार्ग का विरोध किया है वहाँ परिग्रह में उत्तरोत्तर बढ़ती हुई प्राणियों की आसक्ति को देखकर ही वैसा विवेचन किया है, अन्यथा वे अपने अन्य ग्रन्थों में व्यवहार सम्यक्त्व-चारित्र आदि की चर्चा नहीं कर सकते थे। वे अरहन्त आदि के स्वयं भी कितने भक्त रहे हैं, यह भी उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है। उपसंहार उपर्युक्त विवेचन वस्तुस्थिति का परिचायक है। उसे समझकर जो महानुभाव यथार्थ में १. दर्शनप्राभूत १५-१६. २. दर्शनप्राभृत १६-२२ ३. चारित्रप्राभृत २१-३७ ४. द्वादशानुप्रेक्षा ६८-८२ प्रस्तावना | ३५ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व-पर कल्याण के इच्छुक हैं उन्हें किसी प्रकार की प्रतिष्ठा या प्रलोभन में न पड़कर एक मात्र समयसार के अध्ययन से आत्मकल्याण होने वाला है, इस कदाग्रह को छोड़ कर आ० कन्दकन्द के पंचास्तिकाय व प्रवचनसार आदि अन्य ग्रन्थों के भी अध्ययन की प्रेरणा करना चाहिए । इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र, मूलाचार, इष्टोपदेश, समाधिशतक और पुरुषार्थसिद्धयुपाय आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय करना भी हितकर होगा। समयसार उच्चकोटि का अध्यात्म ग्रन्थ है, इसका कोई भी बुद्धिमान् विषेध नहीं कर सकता है। पर उसमें किस दृष्टि से तत्त्व का विवेचन किया गया है, इसे समझ लेना आवश्यक है, अन्यथा दिग्भ्रम हो सकता है । इसके लिए यथायोग्य अन्य ग्रन्थों का स्वाध्याय भी अपेक्षित है । जीव का अन्तिम लक्ष्य कर्म बन्धन से मुक्ति पाना ही होना चाहिए। बाह्य व्रत-संयमादि का विधान उसी की पूर्ति के लिए किया गया है। __अन्तिम निवेदन जिस षट्खण्डागम से सम्बद्ध यह परिशीलन लिखा गया है उसका सम्पादन-प्रकाशन कार्य स्व. डॉ० हीरालाल जी के तत्त्वावधान में सन् १९३८ में प्रारम्भ होकर १९५८ तक लगभग बीस वर्ष चला। उसके अन्तिम अर्थात छठे खण्ड महाबन्ध को छोड़ पूर्व के पाँच खण्ड धवला टीका और हिन्दी अनुवाद के साथ 'सेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द जैन साहित्योद्धारक फण्ड कार्यालय' से प्रकाशित हुए हैं। उनमें प्रारम्भ के तीन भाग पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री और पं० हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री के सहयोग से सम्पादित होकर प्रकाशित हुए हैं। आगे के चौथा और पांचवाँ ये दो भाग पं० हीरालाल जी शास्त्री के सहयोग से सम्पादित हए हैं । छठा भाग चल ही रहा था कि पं० हीरालाल जी का सहयोग नहीं रहा । तब डॉ० हीरालाल जी ने उसके आगे के कार्य को चालू रखने के लिए मुझसे अनुरोध किया। उस समय की परिस्थिति को देखकर मैंने उसके सम्बन्ध में अपेक्षित कुछ विशेष ऊहापोह न करते हए उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया। यह स्मरणीय है कि उस समय मैं अमरावती में रहता हुआ धवला कार्यालय में बैठकर डॉ. हीरालाल जी के तत्त्वावधान में जैन संस्कृतिसंरक्षक संघ, सोलापुर की ओर से तिलोयपण्णत्ती का कार्य कर रहा था। इस प्रकार डॉ० सा० के अनुरोध को स्वीकार कर मैं षट्खण्डागम के आगे के कार्य को सम्पन्न कराने में लग गया । तदनुसार मेरा सम्बन्ध षटखण्डागम के अधूरे छठे भाग से जुड़कर उसके अन्तिम सोलहवें भाग तक बना रहा। बीच में यथासम्भव पं० फूलचन्द जी सिद्धान्तशास्त्री का भी सहयोग उपलब्ध होता रहा है। ___ अन्तिम भाग प्रकाशित करते हुए डॉ० हीरालाल जी की तब यह इच्छा रही आयी कि वर्तमान ग्रन्थ की ताडपत्रीय प्रतियों के जो फोटो उपलभ्य हैं उनसे सम्पूर्ण ग्रन्थ का मिलान कर पाठभेदों को अंकित कर दिया जाय । पूर्व के प्रत्येक भाग की प्रस्तावना में जो कुछ विचार किया गया है तथा परिशिष्टों में जो सामग्री दी गई है उस सबको अपेक्षित संशोधन के साथ संकलित कर इस भाग में दे दिया जाय । दिगम्बर, श्वेताम्बर एवं अन्य बौद्धादि सम्प्रदायगत कर्म से सम्बद्ध साहित्य के साथ तुलनात्मक दृष्टि से विचार कर उसे भी इस भाग में समाविष्ट कर दिया जाय । पर उनका स्वास्थ्य उस समय गिर रहा था व इस प्रकार के कठोर परिश्रम योग्य वह नहीं था। इससे उन्होंने उस अन्तिम भाग को अधिक समय तक रोक रखना उचित ३६ / षटखण्डागम-परिशीलन Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न समझ उसे प्रकाशित करा दिया। फिर भी उनकी वह सदच्छिा बनी रही। तब उन्होंने यह भी विचार किया कि उपर्युक्त अपेक्षित सारी सामग्री को यथावकाश तैयार कर उसे एक स्वतन्त्र जिल्द में समाविष्ट करके प्रकाशित करा दिया जाय । अपनी इस मनोगत भावना को उन्होंने अन्तिम भाग के 'सम्पादकीय' में व्यक्त भी किया है। किन्तु उनके स्वास्थ्य में यथेष्ठ सुधार नहीं हुआ। इसके अतिरिक्त जिन अन्य कार्यों का उत्तरदायित्व उनके ऊपर रहा उन्हें भी पूरा करना आवश्यक था। ऐसी परिस्थिति में वे अपनी उस मनोगत भावना को चरितार्थ नहीं कर सके। अन्ततः सन् १९७३ में उनका दुखद स्वर्गवास हो गया। इधर मैं भी हस्तगत कुछ अन्य कार्यों में, विशेषकर 'जैन लक्षणावली' के कार्य में, व्यस्त था। इच्छा रखते हुए भी तब मैं उस कार्य को हाथ में नहीं ले सका । पश्चात् 'जन लक्षणावली के कार्य से अवकाश मिलने पर, मैंने सोचा कि अपनी योग्यता के अनुसार यदि मैं स्व० डॉ० सा० की उस सदिच्छा को कुछ अंश में पूर्ण कर सकता हूँ तो क्यों न उसके लिए कुछ प्रयत्न किया जाय । तदनुसार मैंने उसके लिए एक योजना बनाई व स्वास्थ्य की जितनी कुछ अनुकूलता रही, उस कार्य को प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार यथासम्भव उस कार्य को करते हुए उसे इस रूप में सम्पन्न किया है। स्व० डॉ० सा० की जो एक यह इच्छा रही है कि ग्रन्थ की ताड़पत्रीय प्रतियों से मिलान कर पाठभेदों को अंकित कर दिया जाय, उस सम्बन्ध में यह स्पष्ट कर देना चाहता है कि 'जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर' में रहते हुए मैंने उपलब्ध एक प्रति के फोटो पर से, स्व० चन्द्रराजय्या शास्त्री के साथ, मिलान करके लगभग प्रकाशित दस भागों के पाठ-भेदों को संकलित कर लिया था, जिनका उपयोग अलभ्य भागों को द्वितीय आवृत्ति में हो रहा है। चन्द्रराजय्या शास्त्री पुरानी कानडी लिपि से अच्छे परिचित थे । उनको ग्रन्थ के वाचन में कछ भी कठिनाई नहीं हुई। ___ख्यातिप्राप्त विद्वान् स्व० डॉ० हीरालाल जी पाश्चात्य प्रणाली आदि से अधिक परिचित रहे हैं। इससे वे उसे जिस रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे उस रूप में उसे प्रस्तुत करना मेरे लिए शक्य नहीं रहा । कारण स्पष्ट है कि मेरी उस प्रकार की योग्यता नहीं रही है। फिर भी उस ओर मेरी रुचि और लगन रही है तथा ग्रन्थ से भी कुछ परिचित था। इससे मेरा उसके लिए कुछ प्रयत्न रहा है। इस प्रकार डॉ० सा० के द्वारा निर्धारित विषयों में से जिन्हें में प्रस्तुत कर सकता था उन्हें इसमें समाविष्ट किया है। इस दुष्कर कार्य में मैं कहाँ तक सफल हो सका हूँ तथा वह कुछ उपयोगी भी हो सका है या नहीं, इसका निर्णय तो विज्ञ पाठक ही कर सकेंगे। मेरी तो ग्रन्थ से कुछ संलग्नता रहने तथा स्व० डॉ० सा० की उपर्युक्त सद्भावना की ओर ध्यान बना रहने से मैंने यथासम्भव उसे सम्पन्न करने का प्रयत्न किया है। मेरा तो सहृदय पाठकों से यही अनुरोध है कि अपने उत्तरोत्तर गिरते हुए स्वास्थ्य और स्मृतिभ्रंश की स्थिति में मुझसे इसमें अनेक भूलें हो सकती हैं तथा उसके लिए अपेक्षित कितने ही ग्रन्थ मुझे यहां सुलभ नहीं हुए हैं, इससे विद्वान् पाठक उन्हें सुधार लेने का अनुग्रह करें। आभार प्रस्तुत 'षट्खण्डागम-परिशीलन' को प्रारम्भ करते हुए मैंने जो उसकी योजना बनायी प्रस्तावना / ३७ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी उसे सम्मत्यर्थ सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री के पास भेजी थी। पण्डित जी ने उसे उत्तम बताकर कुछ सुझावों के साथ अपनी सम्मति देते हुए इस कार्य के लिए मुझे प्रोत्साहित किया है। इस ग्रन्थ के लिए उनके प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हैं। विद्यावारिधि डॉ० ज्योतिप्रसाद जी से मैंने इसके विषय में अंग्रेजी में अपना वक्तव्य लिख देने का अनुरोध किया था, जिसे स्वीकार कर उन्होंने उसे 'प्रधान सम्पादकीय' के रूप में दे दिया है। इस अनुग्रह के लिए मैं उनका विशेष आभार मानता हूँ। पं० गोपीलाल जी 'अमर' ने ग्रन्थ के सम्पादन प्रकाशन से सम्बन्धित कुछ सुझाव दिये थे। इसके लिए मैं उन्हें साधुवाद देता हूँ । मेरी कनिष्ठ पुत्रवधू सौ० अंजना एम०ए० ग्रन्थ की पाण्डुलिपि आदि के करने में सहायता करती रही है इसके लिए मैं उसके भावी उज्ज्वल उत्कर्ष की ही अपेक्षा करता है। भारतीय ज्ञानपीठ के अध्यक्ष श्रीमान् साहू श्रेयांसप्रसाद जी और मैंनेजिंग ट्रस्टी श्रीमान् साहू अशोककुमार जी ने बहुव्ययसाध्य प्रस्तुत ग्रन्थ को ज्ञानपीठ के अन्तर्गत 'मतिदेवी जैन ग्रन्थमाला' के प्रकाशन कार्यक्रम में स्वीकार कर उसे प्रकाशित करा दिया है। इस अनुग्रह के लिए मैं उनका अतिशय कृतज्ञ हूँ। इसमें पूरा सहकार ज्ञानपीठ के भूतपूर्व निदेशक व वर्तमान में सलाहकार बाबू लक्ष्मीचन्द्र जी जैन तथा वर्तमान निदेशक श्री बिशन टंडन जी का रहा है । इसके लिए मैं आप दोनों महानुभावों का हृदय से आभार मानता हूँ। स्व० साहू शान्ति प्रसाद जी और उनकी सुयोग्य पत्नी धर्मवत्सला स्व. रमारानी द्वारा देश-विदेश में प्रतिष्ठाप्राप्त 'भारतीय ज्ञानपीठ' जैसी जिस लोकोपकारक संस्था को स्थापित किया गया है उसके द्वारा चालू अपूर्व कार्य, विशेषकर साहित्यिक, चिरस्मरणीय रहने वाला है । उत्तम साहित्यस्रजेताओं को तो उससे पर्याप्त प्रोत्साहन मिला है। ___डॉ० गुलाबचन्द्र जी ने प्रस्तुत प्रकाशन को सुरुचिपूर्ण एवं सुन्दर बनाने के लिए जो तन्मय होकर उसके मुद्रण आदि का कार्य कराया है वह सराहनीय है। मैं इसके लिए उन्हें अतिशय धन्यवाद देता हूँ। ___ इस प्रकार उपर्युक्त सभी महानुभावों की सद्भावना और सहयोग से ही यह गुरुतर कार्य सम्पन्न हुआ है, जिसे सम्पन्न होता हुआ देख मैं अतिशय प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ। हैदराबाद दीपावली-वीरनिर्वाण सं० २५१३ २ नवम्बर १६८६ -बालचन्द्र शास्त्री १८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका विषय पृष्ठांक षट्खण्डागम-पीठिका ग्रन्थनाम और खण्डव्यवस्था ग्रन्थकार श्रतपंचमी की प्रसिद्धि अर्थकर्ता ग्रन्थकर्ता उत्तरोत्तर-तन्त्रकर्ता सिद्धान्त का अध्ययन इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार की विशेषता अन्यत्र माघनन्दी का उल्लेख प्राकृत पट्टावली प्राकृत पट्टावली की विशेषाएँ अर्हदबली का शिष्यत्व धरसेनाचार्य व योनिप्राभूत ग्रन्थ की भाषा विवेचन-पद्धति प्रश्नोत्तर शैली अनुयोगद्वारों का विभाग ओघ-आदेश चूलिका निक्षेप व नय सूत्ररचना चूर्णिसूत्र विभाषा कुछ निश्चित शब्दों का प्रयोग अनेक शब्दों का उपयोग शब्दों की पुनरावृत्ति 9Uw ० ० Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलग्रन्थगत विषय का परिचय प्रथम खण्ड : जीवस्थान १. सत्प्ररूपणा २. द्रव्यप्रमाणानुगम ३. क्षेत्रानुगम ४. स्पर्शनानुगम ५. कालानुगम ६. अन्तरानुगम ७. भावानुगम ८. अल्पबहुत्वानुगम जीवस्थान-चूलिका १. प्रकृतिसमुत्कीर्तन २. स्थानसमुत्कीर्तन ३. प्रथम दण्डक ४. द्वितीय दण्डक ५. तृतीय दण्डक ६. उत्कृष्ट स्थिति ७. जघन्य स्थिति ८. सम्यक्त्वोत्पत्ति है. गति-आगति द्वितीय खण्ड : क्षुद्रकबन्ध बन्धकसत्त्व १. एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व २. एक जीव की अपेक्षा कालानुगम ३. एक जीव की अपेक्षा अन्तरानुगम ४. नाना जीवों को अपेक्षा भंगविचय ५. द्रव्यप्रमाणानुम ६. क्षेत्रानुगम ७. स्पर्शनानुगम ८. नाना जीवों की अपेक्षा कालानुगम ६. नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय १०. भागाभागानुगम ११. अल्पबहुत्वानुगम महादण्डक (चूलिका) तृतीय खण्ड : बन्धस्वामित्वविचय ओघ प्ररूपणा ४० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदेशप्ररूपणा ७२-१०३ 999 . MGN. चतुर्थ खण्ड : वेदना १. कृति अनुयोगद्वार २. वेदना अनुयोगद्वार १. वेदना-निक्षेप २. वेदना-नयविभाषणता ३. वेदनानामविधान ४. वेदनाद्र व्यविधान चूलिका ५. वेदनाक्षेत्रविधान ६. वेदनाकालविधान चूलिका १ चूलिका २ ७. वेदनाभावविधान चुलिका १ चूलिका २ चलिका ३ ८. वेदनाप्रत्ययविधान ६. वेदनास्वामित्वविधान १०. वेदनावेदनाविधान ११. वेदनागतिविधान १२. वेदना-अनन्तरविधान १३. वेदनासंनिकर्षविधान १४. वेदनापरिमाणविधान १५. वेदनाभागविधान १६. वेदनाअल्पबहुत्व 4 MIMG- १०३-३५ १०३ १०७ १०६ पंचम खण्ड : वर्गणा १. स्पर्श (३) २. कर्म (४) ३. प्रकृति (५) ४. बन्धन (६) १. बन्ध २. बन्धक ३. बन्धनीय (वर्गणा आदि १-८ अनुयोगद्वार) वर्गणा अनुयोगद्वार में वर्गणानिक्षेप आदि १६ अनु० ११७ १२१ १२१ १२१ विषयानुक्रमणिका / ४१ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ वर्गणा के भेद-प्रभेद १२१ (१) वर्गणानिक्षेप (२) वर्गणानयविभाषणता ११२ वर्गणादि ८ अनुयोगद्वारगत दूसरे वर्गणाद्रव्यसमुदाहार में वर्गणाप्ररूपणा व वर्गणानिरूपणादि १४ अनुयोगद्वार १२२ वर्गणाप्ररूपणा में एकप्रदेशिक परमाणुपुद्गल वर्गणादि २३ वर्गणाओं का निर्देश १२२ दूसरे वर्गणानिरूपणा में भेद व भेदसंघात आदि से उत्पन्न होने का विचार १२३ वर्गणाध्र वाध्र वानुगम आदि शेष १२ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा ___न किये जाने विषयक शंका-समाधान १२३ बाह्य वर्गणा में शरीरिशरीरप्ररूपणा आदि ४ अनुयोगद्वार १२४ (१) शरीरिशरीरप्ररूपणा (२) शरीरप्ररूपणा (३) शरीरविस्रसोपचयप्ररूपणा १३१ (४) विस्रसोपचयप्ररूपणा १३२ में निगोद जीवों की उत्पति व मरण आदि का विचार له سه سا १३३ १३५-४२ षष्ठ खण्ड: महाबन्ध १. प्रकृतिबन्ध २. स्थितिबन्ध ३. अनुभागबन्ध ४. प्रदेशबन्ध १३८ १३६ १४० षटखण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना १४३ १४४ १४८ १५० १. षट्खण्डागम व कषायप्राभत दोनों ग्रन्थों में समानता दोनों ग्रन्थ में विशेषता २. षट्खण्डागम व मूलाचार दोनों ग्रन्थगत समानता उपसंहार मूलाचार का कर्तृत्व ३. षट्खण्डागम और दोनों में विषयविवेचन की समानता उपसंहार ४. षट्खण्डागम और कर्मप्रकृति १५१ १५६ १६० १६२ १८१ ४२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ २२३ २२७ विषयप्ररूपणा में शब्दार्थगत समानता १८३ दोनों ग्रन्थगत विशेषता १६४ ५. षट्खण्डागम और सर्वार्थसिद्धि १६७ स०सि० में की गयी 'सत्संख्या' आदि सूत्र (१-८) की व्याख्या षट्खण्डागम पर आधारित १६८ अन्य कुछ उदाहरण उपसंहार ६. षट्खण्डागम और तत्त्वार्थवातिक २०८ धवलाकार द्वारा तवा० का 'तत्त्वार्थभाष्य' के नाम से उल्लेख २०६ त वा० के कर्ता द्वारा ष०ख० के अन्तर्गत खण्ड व अनुयोगद्वार __आदि का उल्लेख दोनों ग्रन्थगत समानता के कुछ उदाहरण ७. षटखण्डागम और आचारांग २२० प्रास्ताविक दोनों ग्रन्थगत मन:पर्यय और केवलज्ञान विषयक सन्दर्भो की समानता २२१ ८. षट्खण्डागम और जीवसमास २२२ प्रास्ताविक दोनों ग्रन्थगत समानता व विशेषता उपसंहार ६. षट्खण्डागम और पण्णवणा (प्रज्ञापना) २२८ पण्णवणा का संक्षिप्त परिचय दोनों ग्रन्थगत समानता दोनों ग्रन्थगत महादण्डक विषयक समानता और विशेषता दोनों ग्रन्थगत विशेषता दोनों ग्रन्यगत प्रश्नोत्तरशैली में विशेषता २४६ षट्खण्डागम और प्रज्ञापना में प्राचीन कौन २४८ उपसंहार १०. षट्खण्डागम और अनुयोगद्वारसूत्र अनुयोगद्वार के रचियता व रचनाकाल अनुयोगद्वार में चचित विषय का दिग्दर्शन और उसकी ष०ख० से समानता दोनों ग्रन्थों की विशेषता १०ख० मूल में जिसका स्पष्टीकरण नहीं है अनुयोगद्वार में उसका स्पष्टीकरण किया गया है २६६ ष०ख० की टीका धवला व अनुयोगद्वार २७० धवला में प्ररूपित विषयों की अनुयोगद्वार के साथ समानता उपसंहार २७५ विषयानुक्रमणिका | ४३ : Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " .00 ११. षट्खण्डागम और नन्दिसूत्र नन्दिसूत्र में मंगलपूर्वक स्थविरावली का क्रमनिर्देश दोनों ग्रन्थों में प्ररूपित ज्ञानावरणीय और ज्ञानविषयक समानता अन्य ज्ञातव्य २८३ १२. षट्खण्डागम (धवला) और दि० पंचसंग्रह २८४ पं०सं० का प्रथम प्रकरण जीवसमास व ष०ख० का जीवस्थान खण्ड २८५ धवला में उद्धत गाथाएं प्रचुर संख्या में पंचसंग्रह में उपलब्ध क्या प्रस्तुत पचसंग्रह धवलाकार के समक्ष रहा है ? पंचसंग्रह के अन्य प्रकरणों में भी धवला की समानता विशेषता २६५ विशेष प्ररूपणा २६६ १३. षट्खण्डागम और गोम्मटसार ३०० (१) जीवकाण्ड मूलाचार तत्त्वार्थवातिक ग्रन्थान्तर ३१८ बीस प्ररूपणाओं का अन्तर्भाव ३१६ अन्यत्र से ग्रन्थ में आत्मसात् की गयो गाथाओं की अनुक्रमणिका ३२० (२) कर्मकाण्ड ३२४ उपसंहार rrrr m m ~ ~ ३४० षट्खण्डागम पर टीकाएँ १. पद्मनन्दो विरचित परिकर्म २. शामकुण्डकृत पद्धति ३. तुम्बुलूराचार्य कृत चूडामणि ४. समन्तभद्र विरचित टीका ५. वप्पदेव विरचित व्याख्या ६. आ० वीरसेन विरचित धवला टीका विचारणीय समस्या आचार्य वीरसेन और उनकी धवला टीका गुरु आदि का उल्लेख तथा रचनाकाल वीरसेन का व्यक्तित्व सिद्धान्तपारिगामिता ज्योतिर्वित्त्व गणिज्ञता ३४१ ३४२ ३४४ ३४५ ३४८-६३ ३४८ ३५० ३५१ ३५२ ४४ / षटखण्डागम-परिशीलन Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणपटुता न्यायनिपुणता काव्यप्रतिभा धवलागत विषय का परिचय प्रथम खण्ड : जीवस्थान सत्प्ररूपणा मंगल आदि छह अधिकार मंगल, मंगलकर्ता आदि अन्य छह अधिकार भी निर्देश निमित्त का प्रकारान्तर कर्ता — अर्थकर्ता व ग्रन्थकर्ता षट्खण्डागम की रचना कैसे हुई ? जीवस्थान का अवतार ( आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता व अर्थाधिकार ) निक्षेप, नय व अनुगम भावप्रमाण के ५ भेदों में श्रुतभेद जीवस्थानगत चूलिकाओं का उद्गम दर्शनविषयक विचार उपशामन - क्षपण विधि आलाप (बीस प्ररूपणाएँ) द्रव्यप्रमाणानुगम (द्रव्यप्रमाण के साथ लोक आदि की प्रासंगिक चर्चा ) क्षेत्रानुगम में लोकस्थिति का विचार स्पर्शनानुगम (आ० वीरसेन द्वारा स्वयम्भूरमण समुद्र के आगे भी राजु के अर्धच्छेदों के अस्तित्व की सिद्धि) कालानुगम ( दिन व रात्रि के १५-१५ मुहूर्तों का उल्लेख ) अन्तरानुगम भावानुगम अल्पबहुत्वानुगम जीवस्थान - चूलिका ( प्रकृतिसमुत्कीर्तन आदि नौ चूलिकाएँ) (१) प्रकृतिसमुत्कीर्तन (२) स्थानसमुत्कीर्तन (३-५) तीन दण्डक (६) उत्कृष्ट स्थिति ( ७ ) जघन्य स्थिति (८) सम्यक्त्वोत्पत्ति (६) गति - आगति ३५४ ३५८ ३६३ ३६४ ३६५ ३६७ ३६७ " ३६८ ३६६ ३७० ३७२ ३७४ ३७६ ३८१ ३८५ ३८८ ४०१ ४०५ ४१२ ४१६ ४२१ ४२७ ४२८ ४२६ ४३० "" ४३१ ४३२ ४३३ ४४७ विषयानुक्रमणिका / ४५ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४७ ४५२ द्वितीयखण्ड : क्षुद्रकबन्ध 'बन्ध कसत्व' व अन्तिम 'महादण्डक' के साथ 'एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व' आदि ११ अनुयोगद्वारों का स्पष्टीकरण चूलिका-महादण्डक तृतीय खण्ड : बन्धस्वामित्वविचय बन्धस्वामित्व का उदगम व उसका स्पष्टीकरण स्वोदय-परोदयबन्ध आदि विषयक २३ प्रश्न तीर्थकर प्रकृति के बन्धक-अबन्धक तीर्थकर प्रकृति के बन्धक कारण ४५३ ४५५ ४५६ ४५८ ४५६ xxur Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ४६० ४६३ ४६५ ४६६ ५०१ (५) वेदनाक्षेत्रविधान पदमीमांसादि तीन अनुयोगद्वार क्षेत्र की अपेक्षा ज्ञानावरण की उत्कृष्ट-अनुकष्ट वेदना वेदनीय की अनुत्कृष्ट एवं ज्ञानावरणीय की जघन्य क्षेत्रवेदना ४८८ (६) वेदनाकालविधान ज्ञानावरण की उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट कालवेदना वेदनाकालविधान से सम्बद्ध चूलिका-१ स्थितिबन्धस्थान प्ररूपणादि वेदनाकालविधान से सम्बद्ध चूलिका-२ (७) वेदनाभावविधान ४६२ " , चूलिका-१ ,, , चूलिका-२ (८) वेदनाप्रत्ययविधान (६) वेदनास्वामित्व विधान (१०) वेदनावेदनाविधान (११) वेदनागतिविधान ४६७ (१२) वेदनाअन्तरविधान ४६४ (१३) वेदनासंनिकर्षविधान (१४) वेदनापरिमाणविधान (१५) वेदनाभागाभागविधान (१६) वेदनाअल्पबहुत्वविधान ५०५ पंचम खण्ड : वर्गणा १. स्पर्शअनुयोगद्वार (१३ प्रकार के स्पर्श का विवेचन) ५०५ २. कर्मअनुयोगद्वार (१० प्रकार के कर्म का विचार) ५०८ तपःकर्म के प्रसंग में दस प्रकार का प्रायश्चित्त ५०६ तपःकर्म के प्रसंग में चार अधिकारों में ध्यानविषयक विचार ५११ क्रियाकर्म (कृतिकर्म या वन्दना) ५१६ कर्मअनुयोगद्वार में प्रसंगप्राप्त एक शंका का समाधान ५२१ ३. प्रकृतिअनुयोगद्वार मूल-उत्तर प्रकृतियों के प्रसंग में पांच ज्ञान आदि का विवेचन ५२२ ४. बन्धन अनुयोगद्वार तेईस वर्गणाओं में प्रत्येकशरीर-द्रव्यवर्गणा पर विशेष प्रकाश ५२४ बादरनिगोदवर्गणा ५२६ सूक्ष्मनिगोदवर्गणा ५२७ बाह्यवर्गणा के प्रसंग में चार अनुयोगद्वार-(१) शरीरिशरीर प्ररूपणा, (२) शरीरप्ररूपणा, (३) शरीरविस्रसोपचय प्ररूपणा और (४) विस्रसोपचयप्ररूपणा ५२६ विषयानुक्रमणिका /४७ ५०४ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० ५३२ ५३५ ५३८ ५४१ ५४४ ५४६ ५४६ ५४६ ५५१ आहारक व तेजस शरीर मूल ग्रन्थकार द्वारा अप्ररूपित शेष १८ अनुयोगद्वार ७. निबन्धन अनुयोगद्वार ८. प्रक्रम अनुयोगद्वार (प्रसंगप्राप्त चर्चा के साथ प्रक्रमभेद) ६. उपक्रम अनुयोगद्वार उपशामनोपक्रम के प्रसंग में उपशामना के भेद-प्रभेद १०. उदयअनुयोगद्वार ११. मोक्ष अनुयोगद्वार १२. संक्रम अनुयोगद्वार १३. लेश्पाअनुयोगद्वार १४. लेश्याकर्म अनुयोगद्वार १५. लेश्यापरिणाम अनुयोगद्वार १६. सात-असात अनुयोगद्वार १७. दीर्घ-ह्रस्व अनुयोगद्वार १८. भवधारणीय अनुयोगद्वार २०. निधत्त-अनिधत्त अनुयोगद्वार २१. निकाचित-अनिकाचित अनुयोगद्वार २२. कर्मस्थिति अनुयोगद्वार २३. पश्चिमस्कन्ध अनुयोगद्वार २४. अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार संतकम्मपंजिया (सत्कर्मपंजिका) परिचय उत्थानिका अर्थविवरण पद्धति संतकम्मपाहुड सैद्धान्तिक ज्ञान ५५२ ५५३ ५५५ ५६३ ग्रन्थोल्लेख ५७२ ५७३ १. आचारांग २. उच्चारणा ३. कर्मप्रवाद ४. करणाणिओगसुत्त ५. कसावपाहुड उपसंहार मूलकषायप्राभूत ५७४ ५८२ ५५३ ४८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xx KE स ४० ६०३ ६. छेदसुत्त ७. जीवसमास ८. जोणिपाहुड ६. णिरयाउबन्धसुत्त १०. तत्त्वार्थसूत्र ५८६ ११. तत्त्वार्थभाष्य ५८७ १२. तिलोयपण्णत्तिसुत्त १३. परियम्म ५८६ १४. पंचत्थिपाहुड १५. पिडिया ५६६ १६. पेज्जदोसपाहुड १७. महाकम्मपडिपाहुड १८. मूलतन्त्र १६. वियाहपण्णत्तिसुत्त २०. सम्मइसुत्त २१. संतकम्मपयडिपाहुड २२. संतकम्मपाहुड ६०५ २३. सारसंग्रह २४. सिद्धिविनिश्चय २५. सुत्तपोस्थय षट्खण्डागम के अन्तर्गत खण्ड व अनुयोगद्वार आदि अनिर्दिष्टनाम ग्रन्थ १. अनुयोगद्वार २. आचारांगनियुक्ति ३. आप्तमीमांसा ६१२ ४. आवश्यकनियुक्ति ६१३ ५. उत्तराध्ययन ६. कसायपाहुड ७. गोम्मटसार ८. चारित्रप्राभूत ६. जंबूदीवपण्णत्तिसंगहो १०. जीवसमास ११. तत्त्वार्थवार्तिक १२. तत्त्वार्थसूत्र १३. तिलोयपण्णस १४. दशवैकालिकी ६२६ १५. धनंजयनाममाला ६२६ विषयानुक्रमणिका / ४६ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : : : : ६३५ १६. ध्यानशतक १७. नन्दिसूत्र १८. पंचास्तिकाय १६. प्रज्ञापना २०. प्रमाणवातिक २१. प्रवचनसार २२. भगवतीआराधना २३. भावप्राभूत २४. मूलाचार २५. युक्त्यनुशासन २६. लघीयस्त्रय २७. लोकविभाग २८. विशेषावश्यकभाष्य २६. सन्मतिसूत्र ३०. सर्वार्थसिद्धि ३१. सौन्दरानन्दमहाकाव्य ३२. स्थानांग ३३. स्वयम्भूस्तोत्र ३४. हरिवंशपुराण ६३६ ६४२ ६४३ ६४६ ६४७ ६५५ ६५६ ६६८ ६७४ ग्रन्थकारोल्लेख १. आर्यनन्दी २. आर्यमंक्षु और नागहस्ती ३. उच्चारणाचार्य ४. एलाचार्य ५. गिद्धपिच्छाइरिय (गृद्धपिच्छाचार्य) ६. गुणधरभट्टारक ७. गौतमस्वामी ८. धरसेनाचार्य ६. नागहस्ती क्षमाश्रमण १०. निक्षेपाचार्य ११. पुष्पदन्त १२. पूज्यपाद १३. प्रभाचन्द्र १४. भूतबलि १५. महावचक क्षमाश्रमण १६. यतिवृषभ ६७६ ६८१ ६५५ ५० षट्खण्डागम-परिशीलन Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. व्याख्यानाचार्यं १८. आचार्य समन्तभद्र १६. सूत्राचार्यं २०. सेचीय व्याख्यानाचार्य वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति वीरसेनाचार्य की प्रामाणिकता सूत्र - प्रतिष्ठा (पुनरुक्ति दोष का निराकरण ) सूत्र - सूचित विषय की अप्ररूपणा सूत्र - विरुद्ध व्याख्यान का निषेध ६६८ ७०० ७०३ ७०७ ७०६ परस्पर विरुद्ध सूत्रों के सद्भाव में धदलाकार का दृष्टिकोण सूत्र के अभाव में आचार्य - परम्परागत उपदेश व गुरु के उपदेश को महत्त्व ७१७ आचार्य-परम्परागत उपदेश और गुरूपदेश (तालिका) ७२२ ७२३ सूत्राभाव दक्षिण-उत्तर प्रतिपत्ति व पवाइज्जंत अपवाइज्जंत उपदेश स्वतन्त्र अभिप्राय देशामर्शक सूत्र आदि सूत्र असूत्र-विचार उपदेश के अभाव में प्रसंगप्राप्त विषय की अप्ररूपणा उपदेश प्राप्त कर जान लेने की प्रेरणा अवतरण वाक्य अनुक्रमणिका परिशिष्ट (४) कौन जीव किस गति से किस गति में जाता-आता है। (५) ज्ञानादिगुणोत्पादन तालिका (६) बन्धोदय तालिका (७) कर्मबन्धकप्रत्यय तालिका परिशिष्ट - २ मूल षट्खण्डागम के अन्तर्गत गाथासूत्र ६८७ ६८८ ६६६ ६६७ परिशिष्ट १ ( विषयपरिचायक तालिका) (१) कर्मप्रकृतियाँ और उनकी उत्कृष्ट जघन्य स्थिति आदि ७७१ (२) नरकादि गतियों में सम्यक्त्वोत्पत्ति के बाह्य कारण ७७६ (३) चारों गतियों में गुणस्थान विशेष से सम्बन्धित प्रवेश और निर्गमन ७७७ ७७८ ७२४ ७२७ ७३४ ७३७ ७४० ७४१ ७४३-७७० ७८० ७८ १ ७८४ ७८५ विषयानुक्रमणिका / ५१ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८८ ८३६ ८४० परिशिष्ट-३ षट्खण्डागम मूलगत पारिभाषिक शब्दानुक्रमणिका परिशिष्ट-४ ज्ञानावरणादि के बन्धक प्रत्यय परिशिष्ट-५ धवलान्तर्गत ऐतिहासिक नाम परिशिष्ट-६ भौगोलिक शब्द परिशिष्ट-७ षट्खण्डागम सूत्र व धवला टीका के सोलहों भागों की सम्मिलित पारिभाषिक शब्द-सूची षट्खण्डागम-परिशीलन में प्रयुक्त ग्रन्थों की सूची शुद्धि-पत्र ८४५ ८४७ १०६ ५२ / पटलण्डागम-परिशीलन Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खण्डागम : पीठिका ग्रन्थ-नाम और खण्ड-व्यवस्था ___ आचार्य पुष्पदन्त व भूतबलि विरचित प्रस्तुत पसगम का क्या नाम रहा है, इसका संकेत कहीं मूलसूत्रों में दृष्टिगोचर नहीं होता। आचार्य वीरसेन ने अपनी महत्त्वपूर्ण धवला टीका में उसे खण्ड-सिद्धान्त कहकर उसके छह खण्डों में प्रथम खण्ड का उल्लेख 'जीवट्ठाण' (जीवस्थान) के नाम से किया है। पर वे छह खण्ड कौन-से हैं, इसकी सूचना वहां उन्होंने कहीं नहीं की है।' यहीं पर आगे चलकर पुनः यह कहा गया है कि आचार्य भूतबलि ने धरसेनाचार्य भट्टारक के द्वारा समस्त महाकर्मप्रकृतिप्राभूत का उपसंहार कर श्रुत-नदी प्रवाह के विच्छेद के भय से उसके छह खण्ड किये। वे छह खण्ड कौन हैं, इसका कुछ संकेत उन्होंने यहां भी नहीं किया है। ‘खण्डसिद्धान्त' कहने का अभिप्राय उनका यह दिखता है कि जीवस्थानादि छह खण्डों में विभक्त प्रस्तुत ग्रन्थ पूर्ण ग्रन्थ तो नहीं है, वह 'महाकर्मप्रकृतिप्राभृत' के उपसंहार स्वरूप उसका कुछ ही अंश है । इस परिस्थिति में उसे खण्डसिद्धान्त ही कहा जा सकता है। इस 'खण्डसिद्धान्त' का उल्लेख उन्होंने तीन स्थानों पर किया है—प्रथम 'जीवस्थान' के प्रसंग में, दूसरा शंका के रूप में 'वेदना'खण्ड में, और तीसरा 'वर्गणा'खण्ड में ।। __ यहां यह भी स्मरणीय है कि प्रस्तुत षटखण्डागम में उक्त महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के २४ अनुयोगद्वारों में केवल कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बन्धन इन प्रारम्भ के छह अनु १. णामं जीवट्ठाणमिदि ।-धवला, पु० १, पृ० ६० । इदं पुण 'जीवट्ठाणं' खंडसिद्धतं पडु च पुव्वाणुपुवीए द्विदं छण्हं खंडाणं पढमखंडं जीव ट्ठाणमिदि।-धवला पु० १, पृ० ७४ २. .."तेण वि गिरिणयर-चंदगुहाए भूतबलि-पुप्फदंताणं महाकम्मपयडिपाहुई सयलं समप्पिदं । तदो भूतबलिभडारएण सुद-णईपवाह-वोच्छेदभीएण भवियलोगाणुग्गहट्ट महाकम्मपयडिपाहुडमुवसंहरिऊण छखंडाणि कयाणि । -धवला पु० ६, पृ० १३३ ३. धवला पु० १, पृ० ६० एवं ७४ ४. कदि-पास-कम्म-पयाडिअणियोगद्दाराणि वि एत्थ परूविदाणि, तेसिं खंडग्गंथसण्णमका ऊण तिण्णि चेव खंडाणि त्ति किमहं उच्चदे ? ण, तेसिं पहाणाभावादो।-धवला पु० ६, पृ० १०५-६ ५. एदं खंडगंथमज्झप्पविसयं पडुच्च कम्मफासेण पयदमिदि भणिदं । महाकम्मपयडिपाहडे पुण दव्वफासेण सव्वफासेण कम्मफासेण पयदमिदि । -धवला पु० १३, पृ० ३६ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगद्वारों की ही प्ररूपणा की गई है। शेष अठारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा धवला में स्वयं वीरसेनाचार्य ने की है। उन छह अंनुयोगद्वारों में भी कृति और वेदना इन दो अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा वेदना'खण्ड में, तथा स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बन्धन इन चार अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा 'वर्गणा' खण्ड में की गयी है।' - विशेष इतना है कि उक्त छह अनुयोगद्वारों में छठा 'बन्धन' अनुयोगद्वार बन्ध, बन्धनीय, बन्धक और बन्धविधान के भेद से चार प्रकार का है। उनमें बन्ध और बन्धनीय (वर्गणा) इन दो की प्ररूपणा पूर्वोक्त स्पर्शादि के साथ वर्गणा खण्ड (पु० १३ व १४) में की गयी है, तथा बन्धक की प्ररूपणा दूसरे खण्ड 'क्षुद्रकबन्ध' (खुद्दाबंध) में की गयी है। अब जो शेष बन्धविधान रह जाता है उसके विषय में धवलाकार ने 'वर्गणाखण्ड के अन्त में यह संकेत कर दिया है कि धावधान प्रकृात, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध के भेद से चार प्रकार का है। उन चारों की प्ररूपणा भूतबलि भट्टारक ने 'महाबन्ध' (छठा खण्ड) में विस्तार से की है इसलिए उसे हम यहां नहीं लिखते हैं। इससे समस्त महाबन्ध की यहाँ प्ररूपणा करने पर बन्धविधान समाप्त होता है। वेदनाखण्ड के प्रारम्भ में (पू०है) णमोजिणाणं आदि ४४ सत्रों के द्वारा जो विस्तत मंगल किया गया है, उसके विषय में धवला में यह शंका उठाई गयी है कि आगे कहे जाने वाले तीन खण्डों में यह किस खण्ड का मंगल है ? इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि वह उन तीनों खण्डों का मंगल है। इसका कारण यह है कि आगे वर्गणा और महाबन्ध खण्डों के प्रारम्भ में कोई मंगल नहीं किया गया और मंगल के बिना भूतबलि भट्टारक ग्रन्थ को प्रारम्भ करते नहीं हैं, क्योंकि वैसा करने से उनके अनाचार्यत्व का प्रसंग प्राप्त होता है।' धवलाकार के इस शंका-समाधान से महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के, जिसका दूसरा नाम घेदनाकृत्स्नप्राभूत भी है, उपसंहार स्वरूप प्रस्तुत परमागम के अन्तर्गत वेदना, वर्गणा और महाबन्ध इन तीन खण्डों की सूचना मिलती है। फिर भी क्षद्रकबन्ध और बन्धस्वामित्वविचय इन दो खण्डों का नाम ज्ञातव्य ही रह जाता है । जीवस्थान का नाम सत्प्ररूपणा में पहले ही निर्दिष्ट किया जा चुका है-जीवाणंट्ठाणवण्णणादो जीवट्ठाणमिदि गोणपदं (पु० १, पृ० ७६)। १. धवला पु० ६ (कृति), पु० १०-१२ (वेदना), पु० १३ (स्पर्शादि ३) व पु० १४ (बन्ध, बन्धक, बन्धनीय) २. जं तं बंधविहाणं तं चउव्विहं--पयडिबंधो, टिदिबंधो, अणुभागबंधो, पदेसबंधो चेदि (सूत्र ७९७) । एदेसि चदुण्हं बंधाणं विहाणं भूदबलिभडारएण महाबंधे सप्पवंचेण लिहिद ति अम्हेहि एत्थ ण लिहिदं । तदो सयले महाबंधे एत्थ परूविदे बंधविहाणं समप्पदि । धवला पु० १४, पृ० ५६४ ३. उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु कस्सेदं मंगलं ? तिण्णं खण्डाणं । कुदो ? वग्गणा महाबंधाणमादीए मंगलाकरणादो । ण च मंगलेण विणा भूदबलिभडारओ गंथस्स पारंभदि, तस्स अणा इरियत्तप्प संगादो।-धवला पु० ६, पृ १०५ ४. वेयणकसिणपाहुडे त्ति वि तस्स विदियं णाममत्थि । वेयणा कम्माणमुदयो, त कसिणं __णिरवसेसं वष्णेदि, अदो वेयण कसिणपाहुडमिदि एदमवि गुणणाममेव । धवला पु० १, पृ० १२४-२५; पीछे पृ० ७४ भी द्रष्टव्य है। २ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसा कि आप आगे 'ग्रन्थोल्लेख' के प्रसंग में देखेंगे, यद्यपि उक्त क्षुद्रकबन्ध और बन्धस्वामित्वविचय का उल्लेख धवला में अनेक बार किया गया है, पर वह कहीं भी खण्ड के रूप में नहीं किया गया है। ___ इस प्रकार यद्यपि मूलग्रन्थ और उसको धवला टीका में स्पष्ट रूप से पूरे छह खण्डों के नामों का उल्लेख नहीं देखा जाता है, फिर भी उसके अन्तर्गत उन छह खण्डों के नाम इन्द्रनन्दिश्रुतावतार में इस प्रकार उपलब्ध होते हैं—प्रथम जीवस्थान, दूसरा क्षुल्लकबन्ध, तीसरा बन्धस्वामित्व, चौथा वेदना, पाँचवाँ वर्गणाखण्ड' और छठा महाबन्ध ।' इस सबको दृष्टि में रखते हुए 'सेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द जैन साहित्योद्धारक फण्ड कार्यालय' से प्रस्तुत परमागम के 'महाबन्ध' खण्ड को छोड़कर शेष पाँच खण्डों को १६ भागों में धवला टीका के साथ 'षटखण्डागम' के नाम से प्रकाशित किया गया है। छठा खण्ड महाबन्ध ७ भागों में 'भारतीय ज्ञानपीठ' द्वारा प्रकाशित हुआ है। इसके अतिरिक्त मुल ग्रन्थ भी हिन्दी अनवाद के साथ 'आ० शा० जि० जीर्णोद्धार संस्था' फलटण से प्रकाशित हो चुका है। इस प्रकार उन छह खण्डों में विभक्त प्रस्तुत ग्रन्थ सामान्य से दो भागों में विभक्त रहा दिखता है। कारण इसका यह है कि जिस प्रकार वर्गणा (५) और महाबन्ध (६) इन दो खण्डों के प्रारम्भ में किसी प्रकार का मंगल नहीं किया गया है, उसी प्रकार क्षुल्लकबन्ध (२) और बन्धस्वामित्वविचय (३) के प्रारम्भ में भी मूलग्रन्थकार के द्वारा कोई मंगल नहीं किया गया है। और जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, आचार्य भूतबलि बिना मंगल के ग्रन्थ को प्रारम्भ नहीं करते हैं, इससे यही प्रतीत होता है कि जीवस्थान के प्रारम्भ में भगवान् पुष्पदन्त द्वारा किया गया पंचनमस्कारात्मक मंगल ही क्षुल्लकबन्ध और बन्धस्वामित्वविचय का भी मंगल रहा है। इस प्रकार षट्खण्डागम के अन्तर्गत उन छह भागों में जीवस्थान, क्षुल्लकबन्ध और बन्धस्वामित्वविचय इन तीन खण्डस्वरूप उसका पूर्वभाग तथा वेदना, वर्गणा और महाबन्ध इन तीन खण्डस्वरूप उसका उत्तर भाग रहा है । ग्रन्थकार प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि हैं । कर्ता अर्थकर्ता, ग्रन्थकर्ता और उत्तरोत्तर-तन्त्रकर्ता के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। इनमें प्रथमतः अर्थकर्ता के प्रसंग में विचार करते हुए धवला में कहा गया है कि महावीर निर्वाण के पश्चात् इन्द्रभूति (गौतम), १. त्रिंशत्सहस्रसूत्रग्रन्थं विरचयदसौ महात्मा । तेषां पञ्चानामपि खण्डानां श्रणुत नामानि ।। आद्य जीवस्थानं क्षुल्लकबन्धाह्वयं द्वितीयमतः। बन्धस्वामित्वं भाववेदना-वर्गणाखण्डे ।। ---इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार १४० -४१ २. सूत्राणि षट्सहस्रग्रन्थान्यथ पूर्वसूत्रसहितानि । प्रविरच्य महाबन्धाह्वयं ततः षष्ठक खण्डम् ।। -इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार १३६ ३. देखिए पु० ७ और पु० ८ षट्झण्डागम : पीठिका / ३ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोहार्य (सुधर्म) और जम्बूस्वामी ये तीन केवली हुए । पश्चात् विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच अविच्छिन्न परम्परा से चौदह पूर्वो के धारक (श्रुतकेवली) हुए । तदनन्तर उसी अविच्छिन्न परम्परा से विशाखाचार्य आदि ग्यारह आचार्य ग्यारह अंगों और उत्पादपूर्व आदि दस पूर्वो के धारक हुए। शेष चार पूर्वो के वे एकदेश के धारक थे। अनन्तर नक्षत्राचार्य आदि पाँच आचार्य ग्यारह अंगों के परिपूर्ण और चौदह पूर्वो के एकदेश के धारक हुए । तत्पश्चात् सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चार आचार्य उसी अविच्छिन्न परम्परा से आचारांग के पूर्ण ज्ञाता तथा शेष अंग-पूर्वो के वे एक देश के धारक हुए । इस प्रकार श्रुत के उत्तरोत्तर क्षीण होने पर सब अंग-पूर्वो का एकदेश उसी अविच्छिन्न आचार्य परम्परा से आता हुआ धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ।' सौराष्ट्र देश के अन्तर्गत गिरिनगर पटन की चन्द्रगुफा में स्थित वे आचार्य धरसेन अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता थे । उन्होंने उक्त क्रम से उत्तरोत्तर.क्षीण होते श्रुत के प्रवाह को देखकर जाना कि इस समय उन्हें जो अंग-पूर्वो का एकदेश प्राप्त है वह भी कालान्तर में अस्तंगत हो जानेवाला है। इस भय से उन्होंने प्रवचनवत्सलता के वश महिमा नामक नगरी में (अथवा किसी महत्त्वपूर्ण महोत्सव में) सम्मिलित हुए दक्षिणापथ के आचार्यों के पास एक लेख भेजा । लेख में स्थित धरसेनाचार्य के वचन का अभिप्राय जानकर उन आचार्यों ने भी आन्ध्र देश में अवस्थित वेण्णा नदी के तट से ऐसे दो साधुओं को भेज दिया जो ग्रहण-धारण में समर्थ, विनीत, शीलमाला के धारक, गुरुजनों के द्वारा भेजे जाने से संतुष्ट, देश-कुल-जाति से शुद्ध और समस्त कलाओं में पारंगत थे। तब धरसेनाचार्य के पास जाते समय उन दोनों ने तीन बार उन आचार्यों से पूछकर वहाँ से प्रस्थान किया। जिस दिन वे वहाँ पहुँचनेवाले थे उस दिन आचार्य धरसेन ने रात्रि के पिछले भाग में स्वप्न में तीन प्रदक्षिणा देकर अपने पांवों में गिरते हुए उत्तम लक्षणों से संयुक्त दो धवलवर्ण बैलों को देखा । इस प्रकार के स्वप्न को देखकर सन्तोष को प्राप्त हुए धरसेनाचार्य के मुख से सहसा 'जयउ सुयदेवदा' यह वाक्य निकला। उसी दिन वे दोनों धरसेनाचार्य के पास जा पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने धरसेन भगवान् की वन्दना आदि करके दो दिन विताये। तत्पश्चात् तीसरे दिन विनयपूर्वक धरसेनाचार्य के पास जाकर उन्होंने निवेदन किया-भगवन् ! अमुक कार्य से हम दोनों आपके पादमूल को प्राप्त हुए हैं। तब धरसेन भट्टारक ने 'बहुत अच्छा, कल्याण हो' यह कहकर उन्हें आश्वस्त किया। तत्पश्चात् धरसेन ने यथेच्छ प्रवृत्ति करनेवालों को विद्या का दान संसार के भय को बढ़ाने वाला होता है। यह सोचकर स्वप्न के देखने से उनके विषय में विश्वस्त होते हुए भी उनकी परीक्षा करना उचित समझा। इसके लिए उन्होंने उनके लिए दो १. धवला पु० १, पृ० ६०-६७; यही प्ररूपणा आगे वेदना खण्ड (पु० ६ पृ० १०७-३३) में पुनः कुछ विस्तृत रूप में की गयो है, वहाँ केवली व श्रुतकेवलियों आदि के समय का भी निर्देश किया गया है। २. विस्समिदो तद्दिवसं मीमंसित्ता णिवेदयदि गणिणो। विणएणागमकज्ज विदिए तदिए व दिवसम्मि ।। मूलाचार ४-४४ (आगे-पीछे की भी कुछ गाथाएँ द्रष्टव्य हैं) ३. .'इदिवयणादो जहा छंदाईणं विज्जादाणं संसारभयवद्धणं ।-धवला पु० १, पृ० ७० ४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्याएँ, जिनमें एक अधिक अक्षर वाली और दूसरी हीन अक्षर वाली थी, दीं और कहा कि इन्हें षष्ठोपवास के साथ सिद्ध करो । तदनुसार विद्याओं के सिद्ध करने पर उन्होंने पृथक्-पृथक् दो विद्यादेवताओं को देखा जिनमें एक बड़े दांतों वाली और दूसरी कानी थी 1 इस पर दोनों ने विचार किया कि देवताओं का स्वरूप ऐसा तो नहीं होता। यह विचार करते हुए मंत्र व व्याकरण शास्त्र में कुशल उन दोनों ने हीन अक्षर वाली विद्या में छूटे हुए अक्षर को जोड़कर तथा अधिक अक्षर वाली विद्या में से अधिक अक्षर को निकालकर उन्हें पुनः जपा | तब उन्होंने अपने स्वाभाविक रूप में उपस्थित विद्याओं को देखा। अन्त में उन्होंने विनयपूर्वक धरसेन भट्टारक के पास जाकर इस घटना के विषय में निवेदन किया । इस पर अतिशय संतोष को प्राप्त हुए धरसेनाचार्य ने सौम्य तिथि, नक्षत्र, और वार में ग्रन्थ को पढ़ाना आरम्भ कर दिया । इस प्रकार क्रमशः व्याख्यान करने से आषाढ़ शुक्ला एकादशी के दिन पूर्वाह्न में ग्रन्थ समाप्त हो गया । विनयपूर्वक ग्रन्थ के समाप्त करने से संतुष्ट हुए भूतों ने उनमें से एक की पुष्प - बलि आदि से महती पूजा की। यह देखकर भट्टारक धरसेन ने उसका नाम भूतबलि रखखा । दूसरे की पूजा करते हुए उसके अस्त-व्यस्त दाँतों की पंक्ति को हटाकर समान कर दिया। तब भट्टारक ने उसका नाम पुष्पदन्त किया ।' ग्रन्थ के समाप्त हो जाने पर धरसेनाचार्य ने उन्हें उसी दिन वापिस भेज दिया। तब उन दोनों ने गुरु का वचन अनुल्लंघनीय होता है, यह जानकर वहाँ से आते हुए अंकुलेश्वर में वर्षा - काल किया । पश्चात् योग को समाप्त कर पुष्पदन्ताचार्य जिनपालित को देखकर वनवास देश को गये और भूतबलि भट्टारक द्रमिल देश को चले गये । धरसेनाचार्य ने ग्रन्थ समाप्त होते ही उन्हें वहाँ से क्यों भेज दिया, इस विषय में धवला में कुछ स्पष्ट नहीं किया गया है । पर इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार में कहा गया है कि धरसेनाचार्य अपनी मृत्यु को निकट जान उससे उन दोनों को क्लेश न हो, इस विचार से उन्हें हितकर वचनों के द्वारा आश्वस्त करते हुए ग्रन्थ- समाप्ति के दूसरे दिन ही वहाँ से भेज दिया । यहीं पर आगे उक्त श्रुतावतार में जिनपालित को आचार्य पुष्पदन्त का भानजा निर्दिष्ट किया गया है । वनवास देश में जाकर आ० पुष्पदन्त ने जिनपालित को दीक्षा देकर बीस सूत्रों (बीस प्ररूपणाओं से सम्बद्ध सत्प्ररूपणा के १७७ सूत्रों ) की रचना की, तथा उन्हें जिनालित को पढ़ाकर उन सूत्रों के साथ भगवान् भूतबलि के पास भेजा । भूतबलि भगवान् ने उन सूत्रों को देखकर व निपालित से उन्हें अल्पायु जानकर 'महाकर्म प्रकृतिप्राभृत का व्युच्छेद हो जाने वाला है' इस विचार से 'द्रव्यप्रमाणानुगम' को आदि करके आगे के ग्रन्थ की रचना की । इस प्रकार इस खण्ड-सिद्धान्त की अपेक्षा उसके कर्ता भूतबलि और पुष्पदन्त कहे जाते हैं । 3 धवलाकार के इस विवरण से यह स्पष्ट है कि आचार्य पुष्पदन्त ने सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों में केवल सत्प्ररूपणा नामक प्रथम अनुयोगद्वार की ही रचना की है । यद्यपि धवला में 'वीसदि सुत्ताणि करिय' इतना ही संक्षेप में कहा गया है, पर उससे उनका अभिप्राय १. धवला पु० १, पृ० ६७-७१ २. इन्द्रनन्दि - श्रुतावतार १२६-३४ ३. धवला पु० १, पृ० ७१ षट्खण्डागम: पीठिका / ५ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान व जीवसमास आदि बीस प्ररूपणाओं का रहा है।' आगे द्रव्य प्रमाणानुगम से प्रारम्भ करके समस्त जीवस्थान, क्षुल्लकबन्ध, बन्धस्वामित्व विचय, वेदना, वर्गणा और महाबन्ध इस सम्पूर्ण ग्रन्थ के रचयिता भगवान् भूतबलि हैं । " श्रुतपंचमी की प्रसिद्धि इन्द्रनन्दि- श्रुतावतार के अनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना के समाप्त होने पर उसे असद्भावस्थापना से पुस्तकों में आरोपित करके ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन चातुर्वर्ण्य संघ के साथ उन पुस्तक रूप उपकरणों के आश्रय से विधिपूर्वक पूजा की गयी । तबसे यह तिथि श्रुतपंचमी के रूप में प्रसिद्ध हुई, जो आज भी प्रचार में आ रही है । उस दिन प्रबुद्ध जैन जनता उक्त षट्खण्डागमादि ग्रन्थों को स्थापित कर भक्तिभाव से सरस्वती पूजा आदि करती है । आगे उक्त श्रुतावतार में यह भी कहा गया है कि तत्पश्चात् आ० भूतबलि ने पुस्तक के रूप में उन छह खण्डों को जिनपालित के साथ पुष्पदन्त गुरु के पास भेजा । उस समय पुष्पदन्त गुरु ने भी जिनपालित के हाथ में स्थित षट्खण्डागम पुस्तक को देखकर सहर्ष विचार किया कि जिस कार्य को मैंने सोचा था वह पूरा हो गया है। इस प्रकार श्रुतानुराग के वश पुष्पदन्ताचार्य ने भी विधिपूर्वक चातुर्वर्ण्य संघ के साथ श्रुतपंचमी के दिन गन्धाक्षतादि के द्वारा पूर्ववत् सिद्धान्त-पुस्तक की महती पूजा की । * श्रुतावतार के इस उल्लेख से यह निश्चित होता है कि प्रस्तुत षट्खण्डागम की रचना के समाप्त होने तक आचार्य पुष्पदन्त जीवित थे । आ० पुष्पदन्त विरचित सत्प्ररूपणासूत्रों के साथ निपाति के भूतबलि भट्टारक के पास पहुँचने पर उन्हें पुष्पदन्त के अल्पायु होने का बोध ( १ ) इन्द्रनन्दि- श्रुतावतार में इसे स्पष्ट भी किया गया है : वाच्छन् गुणजीवादिक-विंशतिविधसूत्र-सत्प्ररूपणया । युक्तं जीवस्थानाद्यधिकारं व्यरचयत् सम्यक् ।। १३५।। २. (क) संपदि चोद्दसण्हं जीवसमाणमत्थित्तमवगदाणं सिस्साणं तेसिं चेव परिमाणपडिबीeng भूतबलिया इरियो सुत्तमाह । - द्रव्यप्रमाणानुगम पु० ३, पृ० १ (ख) उवरि उच्चमाणेसु तिसु विखंडेसु कस्सेदं मंगलं ? तिण्णं खण्डाणं । कुदो ? वग्गणा-महाबंधाणमादीए मंगलाकरणादो । ण च मंगलेण विणा भूतबलि - भारओ गंथस्स पारभदि । पु० ६, पृ० १०५ (ग) तदो भूतबलिभडारएण सुद-णईपवाहवोच्छेदभीएण भविलोगाणुग्गहट्ठ महाकम्पsिपाहुडमुवसंहरिऊण छखंडाणि कयाणि । पु० ६, पृ० १३३ (घ) धवला पु० १४, पृ० ५६४ । ३. ज्येष्ठा - सितपक्ष पञ्चम्या चातुर्वर्ण्य संघसमवेतः । तत्पुस्तकोपकरणैर्व्यधात् क्रियापूर्वकं पूजाम् ।। १४३ ।। श्रुतपंचमीति तेन प्रख्याति तिथिरियं परामाप । अद्यापि येन तस्यां श्रुतपूजां कुर्वते जैनाः ।। १४४ ।। ४. इन्द्रनन्दि - श्रुतावतार १४५-१४८ ६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ था। अर्थकर्ता धवलाकार ने श्रुतधरों की परम्परा का उल्लेख जिस प्रकार सत्प्ररूपणा में किया है, लगभग उसी प्रकार से उन्होंने आगे चलकर वेदनाखण्ड के अन्तर्गत कृति अनुयोगद्वार में भी उक्त श्रुतपम्परा की प्ररूपणा पुनः कुछ विस्तार से की है। इसमें अनेक विशेषताएँ भी देखी जाती हैं । यथा सत्प्ररूपणा के समान यहाँ भी कर्ता के दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-अर्थकर्ता और ग्रन्थकर्ता । इनमें अर्थकर्ता महावीर की यहाँ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से प्ररूपणा की गयी है। उनमें द्रव्य की अपेक्षा से भगवान महावीर के शरीर की विशेषता अनेक महत्त्वपूर्ण विशेषताओं के आश्रय से प्रकट की गयी है व उनमें प्रत्येक की सार्थकता को प्रकट करते हुए उसे ग्रन्थ की प्रमाणता में उपयोगी कहा गया है। जैसे 'निरायुध' यह विशेषण भगवान् वीर जिनेन्द्र के क्रोध, मान, माया, लोभ, जन्म, जरा, मरण, भय और हिंसा का अभाव का सूचक है, जो ग्रन्थ की प्रमाणता का कारण है। क्षेत्र की अपेक्षा प्ररूपणा करते हुए कहा गया है, कि पंचशैलपुर (राजगृह) की नैऋत्य दिशा में स्थित विपुलाचल पर्वत पर विराजमान समवसरण-मण्डल में अवस्थित गन्धकुटी रूप प्रासाद में स्थित सिंहासन पर आरूढ वर्धमान भट्टारक ने तीर्थ को उत्पन्न किया। इस क्षेत्रप्ररूपणा को यहाँ वर्धमान भगवान की सर्वज्ञता का हेतु कहा गया है। यहाँ शंका उठाई गयी है कि जिन जीवों ने जिनेन्द्र के शरीर की महिमा को देखा है उन्हीं के लिए वह जिन की सर्वज्ञता का हेतु हो सकती है, न कि शेष सबके लिए? इस शंका के समाधान स्वरूप जिन-रूपता के ज्ञापनार्थ यहाँ आगे भाव-प्ररूपणा की गयी है। इस भावप्ररूपणा में सर्वप्रथम दार्शनिक पद्धति से जीव की जड़स्वभावता का निराकरण करते हुए उसे सचेतन व ज्ञान-दर्शनादि स्वभाव वाला सिद्ध किया गया है। तत्पश्चात् कर्मों की नित्यता व निष्कारणता का निराकरण करते हुए उनके मिथ्यात्व, असंयम व कषाय इन कारणों को सिद्ध किया गया है तथा उन मिथ्यात्वादि के प्रतिपक्षभूत सम्यक्त्व, संयम और कषायों के अभाव को उन कर्मों के क्षय का कारण कहा गया है। इस प्रकार से जीव को केवलज्ञानावरण के क्षय से केवलज्ञानी, केवलदर्शनावरण के क्षय से केवलदर्शनी, मोहनीय के क्षय से वीतराग और अन्तराय के क्षय से विघ्नविजित अनन्त बलवाला सिद्ध किया है। आगे पूर्व प्ररूपित द्रव्य, क्षेत्र और भाव प्ररूपणा के संस्कारार्थ कालप्ररूपणा की आवश्यकता १. भूदबलिभयपदा जिणवालिद पासे दिट्ट वीसदिसुत्तेण अप्पाउओ त्ति अवगयजिण___वालिदेण -धवला पु० १, पृ०७१ २. धवला पु० ६, पृ० १०७-१०६ ३. वही, पृ० १०६-११३ ४. वही, पु०६, पृ० ११३-११७ ५. वही पृ० ११७-११८ षट्खण्डागम : पीठिका ७ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को प्रकट करते हुए कहा गया है कि इस भरत क्षेत्र में अवसर्पिणी काल के चौथे दुःषम-सुषम काल में जब तेतीस वर्ष, छह मास और नौ दिन शेष रहे थे तब तीर्थ की उत्पत्ति हुई। इसका अभिप्राय यह है कि बहत्तर वर्ष की आयु वाले भगवान् महावीर जब आषाढ़ कृष्णा षष्ठी के दिन गर्भ में अवतीर्ण हुए उस समय चौथे काल में पचहत्तर वर्ष और साढ़े आठ मास शेष थे । कारण यह कि ७२ वर्ष की उनकी आयु थी तथा उस चौथे काल में साढ़े तीन वर्ष शेष रह जाने पर उन्होंने मुक्ति प्राप्त कर ली थी। पूर्व में जो यहाँ तीर्थोत्पत्ति के समय ३३ वर्ष ६ मास और 6 दिन चौथे काल में अवशिष्ट बताये गये हैं, उसका अभिप्राय यह है कि ७२ वर्ष की आयु वाले भगवान् महावीर का केवलिकाल ३० वर्ष रहा है । केवलज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर भी गणधर के अभाव में ६६ दिन उनकी दिव्यध्वनि नहीं निकली । इससे उक्त ३० वर्ष में ६६ दिन कम कर देने पर २६ वर्ष, ९ मास, २४ दिन शेष रहते हैं । जब वे मुक्त हुए तब उस चौथे काल में ३ वर्ष, ८ मास और १५ दिन शेष थे। इन्हें उक्त २६ वर्ष, ९ मास और २४ दिन में जोड़ देने पर ३३ वर्ष, ६ मास और ६ दिन हो जाते हैं।' अन्य किन्हीं आचार्यों के मतानुसार भगवान् महावीर की आयु ७२ वर्ष में ५ दिन और ८ मास कम (७१ वर्ष, ३ मास, २५ दिन) थी। इस मत के अनुसार उनके गर्भस्थकालादि को भी प्ररूपणा धवला में की गयी है, जो संक्षेप में इस प्रकार है--- वर्ष मास दिन गर्भस्थकाल कुमारकाल ७ १२ छद्मस्थकाल १२ केवलिकाल २६ ५ २० समस्त आयु ३ २५ उनके मुक्त होने पर चौथे काल में जो ३ वर्ष, ८ मास और १५ दिन शेष रहे थे उन्हें उस आयु-प्रमाण में जोड़ देने पर उनके गर्भ में अवतीर्ण होने के समय उस चौथे काल में ७५ वर्ष १० मास शेष रहते हैं।' प्रन्थकर्ता इस प्रकार अर्थकर्ता की प्ररूपणा के पश्चात् ग्रन्थकर्ता की प्ररूपणाको प्रारम्भ करते हुए अर्थकर्ता से ग्रन्थकर्ता को भिन्न स्वीकार न करने वाले की शंका के समाधान में धवलाकार कहते हैं कि अठारह भाषा और सात सौ कूभाषा रूप द्वादशांगात्मक बीजपदो को जो प्ररूपणा करता है उसका नाम अर्थकर्ता है तथा जो उन बीजपदों में विलीन अर्थ के प्ररूपक बारह की रचना करते हैं उन गणधर भट्टारकों को ग्रन्थकर्ता माना जाता है। अभिप्राय यह है कि बजिपदों के व्याख्याता को ग्रन्थकर्ता समझना चाहिए । यह अर्थकर्ता और ग्रन्थकर्ता में भेद है। यहाँ बजिपदों के स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा गया है कि जो शब्दरचना में संक्षिप्त होकर १. धवला पु० ६, पृ० ११६-१२१ २. वही, पृ० १२१-१२६ ८ / षट्लण्डागम-परिशीलन Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्त अर्थ के अवगम के कारणभूत अनेक लिंगों से सहित होता है उनका नाम बीजपद है। इस प्रकार यहाँ गणधर देव को ग्रन्थकर्ता बतलाते हुए उसकी अनेक विशेषताओं को प्रकट किया गया है । यह सामान्य से अर्थकर्ता और ग्रन्थकर्ता की प्ररूपणा की गई है।' ___आगे वर्धमान जिन के तीर्थ में विशेष रूप से ग्रन्थकर्ता की प्ररूपणा करते हुए यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि सौधर्म इन्द्र जब पांच-पांच सौ अन्तेवासियों से वेष्टित ऐसे तीन भाइयों से संयुक्त गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति ब्राह्मण के पास पहुंचा तब उसने उसके सामने जैन पारिभाषिक शन्दों से निर्मित पंचेव अस्थिकाया छज्जीवनिकाया महव्वया पंच । अट्ठ य पवयणमादा सहेउओ बंध-मोक्खो य ।। - इस गाथा को उपस्थित करते हुए उसके आशय के विषय में प्रश्न किया। इसपर सन्देह में पड़कर जब वह उसका उत्तर न दे सका तब उससे उसने अपने गुरु के पास चलने को कहा। यही तो सौधर्म इन्द्र को अभीष्ट था। इस प्रकार जब वह वर्धमान जिनेन्द्र के समवसरण में पहुंचा तब वहाँ स्थित मानस्तम्भ के देखते ही उसका समस्त अभिमान गलित हो गया व उसकी विशुद्धि उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। तब उसने भगवान् जिनेन्द्र की तीन प्रदक्षिणा देकर उनकी वन्दना की व जिनेन्द्र का ध्यान करते हुए संयम को ग्रहण कर लिया। उसी समय विशुद्धि के बल से उसके अन्तर्मुहर्त में हो समस्त गणधर के लक्षण प्रकट हो गये। इस प्रकार प्रमुख गणधर के पद पर प्रतिष्ठित होकर उस इन्द्रभूति ब्राह्मण ने आचारादि बारह अंगों और सामायिक-चतुविंशतिस्तव आदि चौदह अंगबाह्य स्वरूप प्रकीर्णकों की रचना कर दी। उस दिन श्रावण मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा थी, जिसे युग का आदि दिवस माना जाता है । इस प्रकार वर्धमान जिनेन्द्र के तीर्थ में इन्द्रभूति भट्टारक ग्रन्थकर्ता हुए। उत्तरोत्तर-तन्त्रकर्ता इस प्रकार यहाँ अर्थकर्ता और ग्रन्थकर्ता की प्ररूपणा के पश्चात् उत्तरोत्तरतन्त्रकर्ता की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के पिछले भाग में महावीर जिन के मुक्त हो जाने पर, केवलज्ञान की सन्तान के धारक गौतम स्वामी हुए। बारह वर्ष केवलिविहार से विहार करके उनके मुक्त हो जाने पर लोहार्य उस केवलज्ञान का सन्तान के धारक हुए । बारह वर्ष केवलिविहार से विहार करके लोहार्य भट्टारक के मुक्त हो १. धवला पु० ६, पृ० १२६-१२८ २. धवला पु० ६, पृ० १२६-१३० ३. 'लोहार्य' यह सुधर्म का दूसरा नाम रहा है। इस नाम का उल्लेख स्वयं धवलाकार ने भी जयधवला (. .) में किया है । हरिवंशपुराण (३-४२) में पाँचवें गणधर का उल्लेख सुधर्म नाम से किया गया है। जंबूदीवपण्णत्ती में स्पष्ट रूप से लोहार्य का दूसरा नाम सुधर्म कहा गया है-- तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जेण य सुधम्मणामेण । गणधरसुधम्मणा खलु जंबूणामस्स णिद्दिठं ।। -जं० दी० प० १-१० षट्खण्डागम : पीठिका / & Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाने पर जम्बू भट्टारक उस केवलज्ञान सन्तान के धारक हुए । अड़तीस वर्ष केवलिविहार से विहार करके जम्बू भट्टारक के मुक्त हो जाने पर भरतक्षेत्र में केवलज्ञान सन्तान का विच्छेद हो गया। इस प्रकार महावीर निर्वाण के पश्चात् बासठ वर्षों में केवलज्ञानरूप सूर्य भरतक्षेत्र में अस्तंगत हो गया। ___ इसके पूर्व जैसा कि सत्प्ररूपणा में कहा जा चुका है, तदनुसार वेदनाखण्ड के प्रारम्भ (कृति अनुयोगद्वार) में भी आगे पाँच श्रुतकेवलियों, ग्यारह एकादश-अंगों व दस पूर्वी के धारकों, पाँच एकादशांगधरों और चार आचारांगधरों का उल्लेख किया गया है । विशेषता वहाँ यह रही है कि उक्त पाँच श्रुतकेवलियों आदि के समय का भी साथ में उल्लेख किया गया है। वह इस प्रकार हैवर्ष केवली आदि ३ केवली १०० ५ श्रुतकेवली १८३ ११ ग्यारह अंगों व विद्यानुवादपर्यन्त दृष्टिवाद के धारक २२० ५ ग्यारह अंगों व दष्टिवाद के एकदेश के धारक ११८ ४ आचारांग के साथं शेष अंग-पूर्वो के एकदेश के धारक ६८३ समस्त काल का प्रमाण अन्तिम आचारांगधर लोहार्य के स्वर्गस्थ हो जाने पर आचारांग लुप्त हो गया । इस प्रकार भरतक्षेत्र में आचारांग आदि बारह अंगों के अस्तंगत हो जाने पर शेष आचार्य सब अंग-पूर्वो के एकदेशभूत पेज्ज-दोस और महाकम्मपडिपाहुड आदि के धारक रह गये। इस प्रकार प्रमाणीभूत महर्षियों की परम्परा से आकर महाकम्मपयडिपाहुड धरसेन भट्टारक को प्राप्त हुआ। उन्होंने भी उस समस्त महाकम्मपयडिपाहुड को गिरिनगर की चन्द्रगुफा में भूतबलि और पुष्पदन्त को समर्पित कर दिया । तत्पश्चात् भूतबलि भट्टारक ने श्रुत-नदी के प्रवाह के विच्छेद से भयभीत होकर भव्यजन के अनुग्रहार्थ उस महाकम्मपयडिपाहुड का उपसंहार कर छह खण्ड किये। इसलिए अनन्त केवलज्ञान के प्रभाव से प्रमाणीभूत आचार्यपरम्परा से चले आने के कारण प्रत्यक्ष और अन मान के विरोध से रहित यह ग्रन्थ प्रमाण है । इसलिए मुमुक्ष भव्य जीवों को उसका अभ्यास करना चाहिए।' सिद्धान्त का अध्ययन __ यहाँ यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि आचार्य वीरसेन ने सामान्यतः सभी मुमुक्षु भव्य जीवों से प्रस्तुत षट्खण्डागम के अध्ययन की प्रेरणा की है, उन्होंने उसके अभ्यास के लिए विशेषरूप से केवल संयतजनों को ही प्रेरित नहीं किया। १. धवला पु० १, पृ० ६४-६७ २. धवला पु० ६, पृ० १३०-१३४ ३. तदो भूदबलिभडारएण सुद-णईपवाहवोच्छेदभीएण भवियलोगाणुग्गहट्ठ महाकम्म पयडिपाहुडमुवसंहरिऊण छखंडाणि कयाणि । तदो तिकालगोयरासेसपयत्थविसयपच्चक्खाणंतकेवलणाणप्पभावादो पमाणीभूदआइरिय-पणालेणागदत्तारो पमाणमेसो गंथो। तम्हा मोक्खकविणा भवियलोएण अडभसेयव्यो ।-पु० ६, पृ० १३३-१३५४ १० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इससे कुछ अर्वाचीन ग्रन्थगत उल्लेखों के आधार से कुछ महानुभावों की जो यह धारणा बन गयी है कि गृहस्थों को सिद्धान्त-ग्रन्थों के रहस्य के अध्ययन का अधिकार नहीं है, वह निर्मूल सिद्ध होती है। श्रावकों के छह आवश्यकों में स्वाध्याय को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। स्वयं षट्खण्डागमकार ने तीर्थकर-नाम-गोत्र के बन्धक सोलह कारणों में 'अभीक्ष्ण-अभीक्ष्णज्ञानोपयोग युक्तता' को स्थान दिया है। उसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार कहते हैं कि 'अभीक्ष्ण-अभीक्ष्ण' नाम बहुत वार का है, 'ज्ञानोपयोग' से भावश्रुत और द्रव्यश्रुत अपेक्षित है, उसके विषय में निरन्तर उद्य क्त रहने से तीर्थकर नामकर्म बंधता है। ____ मूलाचार के रचयिता वट्टकेराचार्य विपाकविचय धर्मध्यान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ध्याता विपाकविचय धर्मध्यान में जीवों के द्वारा एक व अनेक भवों में उपाजित पुण्य-पाप कर्मों के फल का तथा उदय, उदीरणा, संक्रम, बन्ध और मोक्ष इन सबका विचार किया करता है । सिद्धान्त-ग्रन्थों में इन्हीं उदय, उदीरणा और संक्रम का विचार किया गया है। ऊपर धवलाकार ने मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों के लिए जो प्रस्तुत षट्खण्डागम के अभ्यास के लिए प्रेरित किया है वह कितना महत्त्वपूर्ण है, यह विचार करने की बात है । षट्खण्डागम और कषायप्राभूत जैसे महत्त्वपूर्ण कर्मग्रन्थों के अभ्यास के बिना क्या मुमुक्षु भव्य जीव द्वारा कर्मबन्ध क्या व कितने प्रकार का है, आत्मा के साथ उन पुण्य-पाप कर्मों का सम्बन्ध किन कारणों से हुआ, वे कौन-से कारण हैं कि जिनके आश्रय से उन कर्मों का क्षय किया जा सकता है, तथा जीव का स्वभाव क्या है, इत्यादि प्रकार से संसार व मोक्ष के कारणों को जाना जा ‘सकता है ? नहीं जाना जा सकता है। इसके अतिरिक्त संसार व मोक्ष के कारणों को जब तक नहीं समझा जायेगा तब तक मोक्ष की प्राप्ति भी सम्भव नहीं है । इसीलिए धवलाकार ने सभी मुमुक्षु जनों से सिद्धान्त-ग्रन्थों के अभ्यास की प्रेरणा की है। आगे जाकर धवलाकार ने वाचनाशुद्धि के प्रसंग में वक्ता और श्रोता दोनों के लिए द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि और भावशुद्धि का विस्तार से विचार किया है। वहाँ भी १. (क) दिणपडिम-वीरचरिया-तियालजोगेसु णत्थि अहियाए। सिद्धत रहस्साण वि अज्झयणे देसविरदाणं ।।-वसु० श्राव० ३१२ (ख) श्रावकोवीरचर्याहःप्रतिमातापनादिषु । स्यान्नाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि च ।।—सागारध० ७/५० (ग) आर्यिकाणां गृहस्थानां शिष्याणामल्पमेधसाम् । न वाचनीयं पुरत: सिद्धान्ताचारपुस्तकम् ।।-नीतिसार ३२ २. बन्धस्वामित्व विचय, सूत्र ३६-४२, पु० ८ । ३. अभिक्खणमभिक्खणं णाम बहुवारमिदि भणिदं होदि। णाणोवजोगो त्ति भावसुदं दव्वसुदं वावेक्खदे । तेसु मुहम्मुहुजुत्तदाए तित्थयरणामकम्म बज्झइ ।-धवला पु० ८, पृ० ६१ ४. एयाणेयभवगयं जीवाणं पुण्ण-पावकम्मफलं । उदओदीरण-संकम-बंधं मोक्खं च विचिणादि ।।—मूला० ५-२०४ षट्सण्डागम : पीठिका | ११ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने उक्त प्रकार से सिद्धान्त के अध्ययन का प्रतिषेध नहीं किया।' संसार व मोक्ष के उन कारणों का ध्यानशतक में संस्थानविचय धर्मध्यान के प्रसंग में विस्तार से किया गया है। इस प्रसंग से सम्बद्ध उसकी कितनी ही गाथाओं को वीरसेनाचार्य ने अपनी उस धवला टीका में उदधृत भी किया है।' आचार्य गुणभद्र ने शास्त्रस्वाध्याय को महत्त्व देते हुए चंचल मन को मर्कट मानकर उसे प्रतिदिन श्रुतस्कन्ध के ऊपर रमाने की प्रेरणा की है तथा इस प्रकार से श्रुत के अभ्यास में मन के लगाने वाले को विवेकी कहा है। . ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन आर्ष-ग्रन्थों में परमागम के अभ्यास के विषय में संयत-असंयतों का कहीं कुछ भेद नहीं किया गया है। इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार की विशेषता जिस आचार्य परम्परा का उल्लेख धवलाकार ने जीवस्थान-सत्प्ररूपणा में व वेदनाखण्डगत कृति अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में किया है उसका उल्लेख अन्यत्र तिलोयपण्णत्ती, हरिवंशपुराण, जंबूदीवपण्णत्ती एवं इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार आदि में भी किया गया है। इनमें से इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार में जो विशेषता दृष्टिगोचर होती है उसे यहाँ प्रकट किया जाता है- यहाँ 'लोहार्य' के स्थान में उनका 'सुधर्म' (श्लोक ७३) नामान्तर पाया जाता है। सम्मिलित सबका काल-प्रमाण ६८३ वर्ष ही है । यहाँ आचार्यों के नामों में जो कुछ थोड़ा-सा भेद देखा जाता है उसका कुछ विशेष महत्व नहीं है । प्राकृत शब्दों का संस्कृत में रूपान्तर करने में तथा १. धवला पु० ६, पृ० २५१-५६ २. ध्यानशतक ५४-६० ३. ध्यानशतक की प्रस्तावना पृ० ५६-६२ में 'ध्यानशतक और धवला का ध्यानप्रकरण' शीर्षक अनेकान्तात्मार्थप्रसव-फलभारातिविनते वचःपर्णाकीर्णे विपुलनय-शाखाशतयुत्ते । समुत्त ङ्गे सम्यक् प्रततमति-मूले प्रतिदिनं श्रुतस्कन्धे धीमान् रमयतु मनोमर्कटममुम् ।। -आत्मानुशासन १७० ५. ति० प० ४,१४०४-६२ ६. ह० पु० ६६, २२-२५; यहाँ श्लोक २५ में जिन नामों का उल्लेख किया गया है वे इ० श्रुतावतार से कुछ मिलते-जुलते इस प्रकार हैंमहातपोभृद् विनयंधरश्रुतामृषिश्रुति (?) गुप्तपदादिकां दधत् । मुनीश्वरोऽन्यः शिवगुप्तसंज्ञको गुणैः स्वमर्हबलिरप्यधात् पदम् ।।२।। ७. जं० दी०प० १, ८-१७ ८. इ० श्रुतावतार ६६-८५; धवला से विशेष विनयधरः श्रीदत्तः शिवदत्तोऽन्योऽर्हद्दत्तनामते । आरातीया यतयस्ततोऽभवन्नङ्ग-पूर्वदेशधराः । ८४।। सर्वांग-पूर्वदेशैकदेशवित् पूर्वदेशमध्यगते। श्रीपुण्ड्रवर्धनपुरे मुनिरजनि ततोहबल्याख्यः ।।८।। १२ / षट्क्षण्डागम-परिशीलन Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की कुछ असावधानी से ऐसा शब्दभेद होना सम्भव है। __ यहाँ एक विशेषता यह देखी जाती है कि लोहार्य के पश्चात् विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त, अर्द्धदत्त इन चार आरातीय अन्य आचार्यों के नामों का भी निर्देश एक साथ किया गया है। धवला में इनका कुछ भी उल्लेख नहीं किया गया है। वहाँ इतना मात्र कहा गया है कि लोहार्य के स्वर्गस्थ हो जाने पर शेष आचार्य सब अंग-पूर्वो के एकदेशभूत पेज्जदोस और महाकम्मपयडिपाहुड आदि के धारक रह गये, इस प्रकार महर्षियों की परम्परा से आकर वह महाकम्मपयडिपाहुड धरसेन भट्टारक को प्राप्त हुआ । वहाँ यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि कितने महर्षियों की परम्परा से आकर वह महाकम्मपयडिपाहुड धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ। ऐसी स्थिति में आ० इन्द्रनन्दी के द्वारा श्रुतावतार में जो उपर्युक्त विनयधर आदि अन्य चार आरातीय आचार्यों का उल्लेख किया गया है वह अपना अलग महत्त्व रखता है। किन्तु वह महाकम्मपयडिपाहुड धरसेनाचार्य को साक्षात् किस महर्षि से प्राप्त हुआ, इसका उल्लेख न धवलाकार ने कहीं किया है और न इन्द्रनन्दी ने ही। इससे धरसेनाचार्य के गरु कौन थे, यह जानना कठिन है । इन्द्रनन्दी ने तो गुणधर भट्टारक और धरसेनाचार्य में पूर्वोत्तरकालवर्ती कौन है, इस विषय में भी अपनी अजानकारी प्रकट की है।' इन्द्रनन्दी ने विनयधर आदि उन चार आचार्यों के उल्लेख के पश्चात् अर्हदबलि का उल्लेख करते हुए कहा है कि पूर्वदेश के मध्यवर्ती पुण्ड्रवर्धन नगर में अर्हद्बलि नामक मुनि द्वारा जो सब अंग-पूर्वो के देशकदेश के ज्ञाता थे। संघ के अनुग्रह व निग्रह में समर्थ वे अष्टांगनिमित्त के ज्ञाता होकर पांच वर्षों के अन्त में सौ योजन के मध्यवर्ती मुनिजन समाज के साथ यगप्रतिक्रमण करते हुए स्थित थे। किसी समय युग के अन्त में प्रतिक्रमण करते हुए उन्होंने समागत मुनिजन समूह से पूछा कि क्या सब यतिजन आ गये हैं। उत्तर में उन सब ने कहा कि भगवन् ! हम सब अपने-अपने संघ के साथ आ गये हैं। इस उत्तर को सुनकर उन्होंने विचार किया कि इस कलिकाल में यहाँ से लेकर आगे अब यह जैन-धर्म गण-पक्षपात के भेदों के साथ रहेगा, उदासीनभाव से नहीं रहेगा। ऐसा सोचकर गणी (संघप्रवर्तक) उन अर्हदबलि ने जो मुनिजन गुफा से आये थे उनमें किन्हीं का 'नन्दी' और किन्हीं का. 'वीर' नाम किया। जो अशोकवाट से आये थे उनमें किन्हीं को 'अपराजित' और किन्हीं को 'देव' नाम दिया । जो पंचस्तप्यनिवास से आये थे उनमें किन्हीं का 'सेन' और किन्हीं का 'भद्र' नाम किया। जो शाल्मली वृक्ष के मूल से आये थे उनमें किन्हीं का 'गुणधर' और किन्हीं का 'गुप्त' नाम किया। जो खण्डकेसर वृक्ष के मूल से आये थे उनमें किन्हीं का 'सिंह' और किन्हीं का 'चन्द्र' नाम किया। इसकी पुष्टि आगे इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार में 'उक्तं च' के निर्देशपूर्वक एक अन्य पद्य के १. गुणधर-धरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्याभिः । न ज्ञायते तदन्वयकथकागम-मुनिजनाभावात् ।।-इ० श्रुतावतार १५१ २. इ० श्रुतावतार ८५-६५ षट्खण्डागम : पीठिका | १३ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा की गयी है।' आगे वहाँ 'अन्य कहते हैं ऐसी सूचना करते हुए उपर्युक्त संघनामों के विषय में कुछ मतभेद भी प्रकट किया गया है। ठीक इसके अनन्तर उस श्रुतावतार में कहा गया है कि तत्पश्चात् मुनियों में श्रेष्ठ माघनन्दी नामक मुनि हुए, जो अंगपूर्वो के एकदेश को प्रकाशित कर समाधिपूर्वक स्वर्गस्थहुए । . माघनन्दी मुनि के विषय में जो एक कथानक प्रसिद्ध है तदनुसार वे किसी समय जब चर्या के लिए निकले तब उनका प्रेम एक कुम्हार की लड़की से हो गया। इससे वे संघ में वापस न जाकर वहीं रह गये। तत्पश्चात् किसी समय संघ में किसी सूक्ष्म तत्त्व के विषय में मतभेद उपस्थित हुआ । तब संघाधिपति ने उसका निर्णय करने के लिए साधुओं को माघनन्दी के पास भेजा । उनके पास पहुँचकर जब साधुओं ने विवादग्रस्त उस तत्त्व के विषय में माघनन्दी से निर्णय माँगा तब उन्होंने उनसे पूछा कि संघ क्या मुझे अब भी यह सन्मान देता है। इस पर मुनियों के यह कहने पर कि 'श्रुतज्ञान का सन्मान सदा होने वाला है' वे पुनः विरक्त होकर वहां रखे हुए पीछी-कमण्डलु को लेकर संघ में जा पहुँचे व पुनर्दीक्षित हो गये। उनके विषय में इसी प्रकार का एक भजन भी प्रसिद्ध है । अन्यत्र माघनन्दी का उल्लेख एक माघनन्दी का उल्लेख मुंनि पद्मनन्दी विरचित 'जंबूदीवपण्णत्तिसंगहो' में भी किया गया है । वहाँ उन माघनन्दी गुरु को राग-द्वेष-मोह से रहित श्रुतसागर के पारगामी और तप-संयम से सम्पन्न कहा गया है। उनके शिष्य सिद्धान्त रूप महासमुद्र में कलुष को धौनेवाले सकलचन्द्र गुरु और उनके भी शिष्य सम्यग्दर्शन से शुद्ध विख्यात श्रीनन्दी रहे हैं, जिनके नमित्त जम्बूद्वीप की प्रज्ञप्ति लिखी गयी । उक्त श्रुतावतार में उन माघनन्दी के पश्चात् सुराष्ट्र देश में गिरिनगरपुर के समीपवर्ती कर्जयन्त पर्वत के ऊपर चन्द्र गुफा में निवास करनेवाले महा तपस्वी मुनियों में प्रमुख उन रिसेनाचार्य का उल्लेख किया गया है जो अग्रायणीय पूर्व के अन्तर्गत पाँचवें 'वस्तु' अधिकार के स प्राभृतों में चौथे प्राभूत के ज्ञाता थे।६ । धवला के अनुसार धरसेन भट्टारक ने आचार्य-सम्मेलन के लिए जो लेख भेजा था, १. आयतौ नन्दि-वीरौ प्रकटगिरिगुहावासतोऽशोकवाटाद् देवश्चान्योऽपराजित इति यतियौ सेन-भद्राह्व यौ च । पञ्चस्तूप्यात् सगुप्तौ गुणधरवृषभः शाल्मली वृक्षमूला निर्यातौ सिंह-चन्द्रौ प्रथिगुण-गणौ केसरात् खण्डपूर्वात् ॥—इ० श्रुता० ६६ २. इ० श्रुतावतार ६७-१०१ ३. वही, १०२ ४. जैन सिद्धान्त-भास्कर, सन् १९१३, अंक ४, पृ० ११५ (धवला पु० १ की प्रस्तावना पृ० १६-१७) ५. जं० दी० प० १३, १५४-५६ ६. इ० श्रुतावतार १०३-४ :/ षट्खण्डागम-परिशीलन . Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसमें उन्होंने क्या लिखा था यह वहाँ स्पष्ट नहीं है। किन्तु इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार में यह कहा गया है कि उस समय ब्रह्मचारी के हाथ से उस लेख-पत्र को लेकर व बन्धन को छोड़कर उन महात्मा आचार्यों ने उसे इस प्रकार पड़ा-स्वस्ति श्रीमान् ! ऊजर्यन्त तट के निकटवर्ती चन्द्रगुफावास से धरसेन गणी वेणाक तट पर समुदित यतियों की वन्दना करके इस कार्य को कहता है कि हमारी आयु बहुत थोड़ी शेष रह गयी है, इससे हमारे द्वारा सुने गये (अधीत) शास्त्र की व्युच्छित्ति जिस प्रकार से न हो उस प्रकार से ग्रहण-धारण में समर्थ तीक्ष्णबुद्धि दो यतीश्चरों को आप भेज दें।' प्राकृत पट्टावली यह पट्टावली 'जैन सिद्धान्त भास्कर' भाग १, कि० ४, सन् १९१३ में छपी है जो अब उपलब्ध नहीं है । इसके प्रारम्भ में ३ संस्कृत श्लोक हैं, जो स्वयं पट्टावली के कर्ता द्वारा न लिखे जाकर किसी अन्य के द्वारा उसमें योजित किये गये दिखते हैं। इनमें ३ केवलियां, ५ श्रुतकेवलियों, ११ दशपूर्वधरों, ५ एकादशांगधरों तथा ४ दश-नव-आठ अंगधरों के नामों का निर्देश करते हुए उनमें से प्रत्येक के समय का भी उल्लेख पृथक्-पृथक् किया गया है। साथ ही सम्मिलित रूप उनके समुदित काल का भी वहाँ निर्देश किया गया है । यहाँ दशपूर्वधरों व दशनव-आठ पूर्वधरों के काल का निर्देश करते हुए दोनों में कहीं २-२ वर्ष की भूल हुई है, अन्यथा समुदित रूप में जो उनका काल निर्दिष्ट है वह संगत नहीं रहता। उक्त पट्टावली के अनुसार वह वीरनिर्वाणकाल से पश्चात् की कालगणना इस प्रकार है-- १. गौतम केवली १२ वर्ष २. सुधर्म १२॥ ३. जम्बूस्वामी ३८, ६२ वर्ष श्रुतकेवली १४ वर्ष ४. विष्णु ५. नन्दिमित्र ६. अपराजित ७. गोवर्धन ८. भद्रबाहु २२॥ २६॥ १०० वर्ष दशपूर्वधर १० वर्ष ६. विशाखाचार्य १०. प्रोष्ठिल ११. क्षत्रिय १२. जयसेन १६॥ १७ , २१॥ १. इ० श्रु तावतार १०८-१० २. विशेष के लिए देखिये १० ख० पु० १ की प्रस्तावना, पु० २४-२६ षट्खण्डागम : पीठिका | १५ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशपूर्वधर १८ वर्ष १३. नागसेन १४. सिद्धार्थ १५. धृतिषेण १६. विजय १७. ब्रहिलंग १८. देव १६. धर्मसेन १४[१६] १८११८३] वर्ष एकादशांगधर १८ वर्ष २०. नक्षत्र २१. जयपालक २२. पाण्डव २३. ध्र वसेन २४. कंस - - १२३ वर्ष ६ वर्ष दश-नव-आठ-अंगधर १८॥ २५. सुभद्र २६. यशोभद्र २७. भद्रबाहु २८. लोहाचार्य २३ , ५२[५०] ६६ [१७] वर्ष एकअंगधर २८ वर्ष २१, २६. अहंबली ३०. माधनन्दी ३१. धरसेन ३२. पुष्पदन्त ३३. भूतबलि Mr wr W० ० ११८ वर्ष विचारणीय १. पट्टावली के अन्तर्गत गाथा ६ में जो एकादशांगधरों का पृथक्-पृथक् काल निर्दिष्ट किया गया है उसका जोड़ १८१ आता है । किन्तु इसके पूर्व गाथा ७ में वहाँ वीरनिर्वाण से १६२ वर्ष वीतने पर १८३ वर्षों के भीतर ११ दशपूर्वधरों के उत्पन्न होने का स्पष्ट उल्लेख है। इससे निश्चत है कि उस गाथा ६ में दशपूर्वधरों के काल का जो पृथक्-पृथक् निर्देश किया गया है उसमें किसी एक के काल के निर्देश में २ वर्ष कम हो गये दिखते हैं। आगे गाथा १० में १६ / षट्खण्डागम-परिशीलन . Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी यह स्पष्ट कहा गया है कि अन्तिम जिन के मुक्त होने पर ३४५ वर्षों के बीतने पर ग्यारह । अंगों के धारक मुनिवर हुए। इस प्रकार उपर्युक्त २ वर्ष की भूल रहे बिना यह ३४५ वर्ष भी घटित नहीं होते ६२+१००+१८१ =३४३ । इस प्रकार कुल ३४५ के स्थान पर ३४३ ही रहते हैं। २. इसी प्रकार दश-नव-अष्टांगधरों में प्रत्येक के अलग-अलग निर्दिष्ट किये गये कालप्रमाण में कहीं पर दो वर्ष अधिक हो गये हैं। कारण यह कि इसी पट्टावली की गाथा १२ के उत्तरार्ध में उन चारों का सम्मिलित काल ६७ वर्ष कहा गया है, जो जोड़ में उक्त क्रम से ६६ होता है अर्थात् ६ +१८+२३+५२ =६६ । अतः यहाँ भी २ वर्ष की भूल हो जाना निश्चित है । इसके अतिरिक्त आगे १५वीं गाथा में जो यह कहा गया है कि अन्तिम जिन के मुक्त होने के बाद ५६५ वर्षों के बीतने पर ५ आचार्य एक अंग के धारक हुए, यह भी तदनुसार असंगत हो जाता है, क्योंकि उक्त क्रम से उसका जोड़ ५६७ आता है अर्थात् ६२+१००-१८३+ १२३+६६ =५६७; जबकि वह होना चाहिए ५६५ वर्ष । इस पट्टावली के अनुसार धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि-ये तीनों आचार्य वीरनिर्वाण के पश्चात् ६८३ वर्ष के ही भीतर आ जाते हैं यानी ६२ -१००+१८३ +१२३ । ६७+२८+२१+१६+३०+२०-६८३ । इस ६८३ वर्ष प्रमाण सम्मिलित काल का भी उल्लेख उस पट्टावली की १७वीं गाथा में अर्हदबली आदि उन ५ एक अंग के धारको क समुदित काल को लेकर किया गया है। इसके अतिरिक्त उक्त पट्टावली के अनुसार आचाय धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि एक अंग के धारक सिद्ध होते हैं । इस पट्टावली की विशेषताएँ १. तिलोयपण्णत्ती, धवला, हरिवंशपुराण आदि ग्रन्थों में इस श्रुतधरपरम्परा का उल्लेख करते हुए प्रत्येक आचार्य के काल का पृथक-पृथक निर्देश नहीं किया गया है, जबकि इस पट्टावली में उनके काल का पृथक्-पृथक उल्लेख है तथा समुदित रूप में भी उसका उल्लेख किया गया है। २. अन्यत्र जहाँ नक्षत्राचार्य आदि ५ एकादशांगधरों का काल-प्रमाण २२० वर्ष कहा गया है वहाँ इस पड़ावली में उनका वह काल-प्रमाण १२३ वर्ष कहा गया है। उक्त ५ आचार्यों का काल २२० वर्ष अपेक्षाकृत अधिक व असम्भव-सा दिखता है। ३. अन्यत्र जहाँ इस आचार्य परम्परा को लोहार्य तक सीमित रखा गया है व समुदित समय वीरनिर्वाण के पश्चात ६८३ वर्ष कहा गया है वहाँ इस पड़ावली में उसे लोहाचय्य (लोहाचार्य) के आगे अर्हबली आदि अन्य भी पाँच आचार्यों का उल्लेख करने के पश्चात् समाप्त किया गया है तथा लोहार्य तक का काल ५६५ वर्ष बतलाकर व उसमें अन्यत्र अनिर्दिष्ट इन पाँच अर्ह बली आदि एक अंग के धारकों के ११८ वर्ष काल को सम्मिलित कर समस्त काल का प्रमाण वही ६८३ (५६५+११८) वर्ष दिखलाया गया है। ४. सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाह और लोहार्य को अन्यत्र जहाँ एक आचारांग व शेष अंगपूर्वो के एक देश के धारक कहा गया है। वहाँ इस पदावली में उन्हें दस, नौ और आठ अंगों के धारक कहा गया है। इस प्रकार इस पट्टावली के अनुसार सूत्रकृतांग आदि १० अंगों का एक साथ लोप नहीं हुआ है, किन्तु तदनुसार उक्त सभद्राचार्य आदि चार आचार्य दस, नौ षट्खण्डागम : पीठिका / १७ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और आठ अंगों के धारक हुए हैं। पर उन चार आचार्यों में दस, नौ और आठ अंगों के धारक कौन रहे हैं, यह पट्टावली में स्पष्ट नहीं है। इस पट्टावली में इन चारों आचार्यों का समुदित काल ६७ वर्ष कहा गया है, जबकि अन्यत्र उनका वह काल ११८ वर्ष कहा गया है। ५. जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, अन्यत्र यह आचार्य परम्परा लोहार्य पर समाप्त हो गयी है । परन्तु इस पट्टावली में उन लोहाचार्य के आगे अर्हबली, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि इन पाँच अन्य आचार्यों का भी उल्लेख किया गया है तथा उनका काल प्रमाण पृथक्-पृथक् क्रम से २८,२१,१६,३० और २० वर्ष व समुदित रूप में ११८ (२८+२१+१६+३०+२०) वर्ष कहा गया है। महावीर निर्वाण के पश्चात् इस आचार्यपरम्परा का समस्त काल ६८३ वर्ष जैसे धवला आदि में उपलब्ध होता है वैसे ही वह इस पट्टावली में भी पाया जाता है । विशेषता यह है कि अन्यत्र धवला आदि में जहाँ ५ ग्यारह-अंगों के धारकों का काल २२० वर्ष निर्दिष्ट किया गया है वहाँ इस पट्टावली में उनका वह काल १२३ वर्ष कहा गया है। इस प्रकार यहाँ उसमें ६७ (२२०-१२३) वर्ष कम हो गये हैं तथा अन्यत्र जहाँ सुभद्राचार्य आदि चार आचार्यों का समस्त काल ११८ वर्ष बतलाया गया है वहाँ इस पट्टावली में उनका वह काल ६७ वर्ष ही कहा गया है। इस प्रकार २१ (११८-६७) वर्ष यहाँ भी कम हो गये हैं। दोनों का जोड़ ११८ (६७ +२१) वर्ष होता है । यही काल इस पट्टावली में उन अर्हद्बली आदि पाँच आचार्यों का है, जिनका उल्लेख अन्यत्र धवला आदि में नहीं किया गया है। इस प्रकार ६८३ वर्षों की गणना उभयत्र समान हो जाती है । अर्हबली का शिष्यत्व ___ श्रवणबेलगोल के एक शिलालेख में आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि को आचार्य अर्हबली का शिष्य कहा गया है। वह इस प्रकार है यः पुष्पदन्तेन च भूतबल्याख्येनापि शिष्यद्वितयेन रेजे । फलप्रदानाय जगज्जनानां प्राप्तोऽकुराभ्यामिव कल्पभूजः ॥ अर्हद्बलिस्संघचतुर्विधं स श्रीकोण्डकुन्दान्वयमूलसंघम् । कालस्वभावादिह जायमानद्वषेतराल्पीकरणाय चक्रे ॥ -शिलालेख क्र० १०५, पद्य २५-२६ यह शिलालेख शक संवत् १३२० का है। लेखक ने पुष्पदन्त और भूतबलि को किस आधार पर अर्हबली का शिष्य कहा है, यह ज्ञात नहीं है। यदि यह सम्भव हो सकता है तो समझना चाहिए कि अर्ह बली उन दोनों के दीक्षागुरु और धरसेन विद्यागुरु रहे है । वैसी परिस्थिति में यह भी सम्भव है कि धरसेनाचार्य ने महिमा में सम्मिलित जिन दक्षिणापथ के आचार्यों को लेखपत्र भेजा था उनका वह सम्मेलन सम्भवत: इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार' के अनुसार संघ-प्रवर्तक इन्हीं अर्हद्बली के द्वारा पंचवर्षीय युग-प्रतिक्रमण के समय बुलाया गया हो तथा इसी सम्मेलन में से उन अर्हबली ने पुष्पदन्त और भूतबलि इन दो अपने सुयोग्य शिष्यों १. इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार, ८५-६५ १८ / षटखण्डागम-परिशील Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को आन्ध्र देश की वेण्या नदी के तट से धरसेनाचार्य के पास भेजा हो । उपर्युक्त शिलालेख के आधार पर यह सम्भावना ही की जा सकती है, वस्तु-स्थिति वैसी रही या नहीं रही, यह अन्वेषणीय है । उपर्युक्त पट्टावली में अर्हद्बली, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त और भूलबलि को एक अंग के धारक कहा गया है ।' इस प्रकार पट्टावली के अनुसार अर्हद्बली को एक अंग के ज्ञाता होने पर भी तिलोयपण्णत्ती आदि ग्रन्थान्तरों में प्ररूपित उस आचार्य परम्परा में जो स्थान नहीं मिला है उसका कारण सम्भवतः उनके द्वारा प्रवर्तित वह संघभेद ही हो सकता है । मुनिजनों के विविध संघों में विभक्त हो जाने पर जो जिस संघ का था वह अपने ही संघ के मुनिजनों को महत्त्व देकर अन्यों की उपेक्षा कर सकता है । जैसे - हरिवंशपुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन ने ग्रन्थ को प्रारम्भ करते हुए समन्तभद्र, सिद्धसेन, देवनन्दी (पूज्यपाद), रविषेण, वीरसेन गुरु और पार्श्वभ्युदय के कर्ता जिनसेनाचार्य आदि कितने ही आचार्यों का स्मरण किया है, किन्तु उन्होंने कुन्दकुन्द जैसे लब्धप्रतिष्ठ आचार्य का वहाँ स्मरण नहीं किया । इसी प्रकार महापुराण के कर्ता जिनसेनाचार्य ने भी उसके प्रारम्भ में सिद्धसेन, समन्तभद्र, श्रीदत्त, प्रभाचन्द्र, शिवकोटि, जटाचार्य, देवनन्दी और भट्टाकलंक आदि का स्मरण करके भी उन कुन्दकुन्दाचार्य का स्मरण नहीं किया । आचार्य वीरसेन स्वामी ने अपनी धवला टीका में ग्रन्थान्तरों से सूत्र व गाथा आदि को उद्धृत करते हुए कहीं-कहीं गुणधर भट्टारक' गृद्धपिच्छाचार्य' समन्तभद्र स्वामी, यतिवृषभ, पूज्य - पाद" और प्रभाचन्द्र भट्टारक आदि का उल्लेख किया है, किन्तु कुन्दकुन्दाचार्य विरचित पंचास्तिकाय और प्रवचनसार की कुछ गाथाओं को धवला में उद्धृत करते हुए भी आ० कुन्दकुन्द का कहीं उल्लेख नहीं किया । इसका कारण संघभेद या विचारभेद ही हो सकता है । धरसेनाचार्य व योनिप्राभृत षट्खण्डागम के अन्तर्गत प्रकृति अनुयोगद्वार में केवलज्ञानावरणीय के प्रसंग में कहा गया है कि स्वयं उत्पन्न ज्ञान-दर्शी भगवान् केवली देव, असुर व मानुष लोक की आगति एवं गति आदि, सब जीवों और सब भावों को जानते हैं । " १. अहिबल्ली माघणंदि य धरसेणं पुफ्फयंत भूहबली । asarसी इगवीसं उगणीसं तीस वीस वास पुणो ।। १६ ।। इगसय अठारवासे इयंगधारी य मुणिवरा जादा । १७ पू० २. ह० पु० १, २६-४० ३. म० पु० १, ४. धवला पु० १२, पृ० २३२ ५. वही, पु० ४, पृ० ३१६ ६. वही, पु० ६, पृ० १६७ ७. वही, पु० १. पृ० ३०२ व पु० १२, पृ० १३२ ८. वही, पु० ६, पृ० १६५-१६७ ६. वही, पु० ६, पृ० १६६ १०. सूत्र ५.५, ८२ ( पु० १३ पृ० ३४६ ) षट्खण्डागम: पीठिका / १६ --- Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस सूत्र की व्याख्या करते हुए वीरसेन स्वामी ने धवला में प्रसंग-प्राप्त अनुभाग को जीवानुभाग व पुद्गलानुभाग आदि के भेद से छह प्रकार का निर्दिष्ट किया है। उनमें पुद्गलानुभाग के स्वरूप को दिखलाते हुए उन्होंने कहा है कि ज्वर, कोढ़ और क्षय आदि का विनाश करना व उन्हें उत्पन्न करना; इसका नाम पुद्गलानुभाग है। इसके निष्कर्षस्वरूप उन्होंने आगे यह कहा है कि योनिप्राभूत में निर्दिष्ट मंत्र-तंत्र शक्तियों को पुद्गलानुभाग ग्रहण करना चाहिए। ___ स्व० पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने इस ग्रन्थ का परिचय कराते हुए लिखा है कि ८०० श्लोक-प्रमाण यह ग्रन्थ प्राकृत गाथाबद्ध है। विषय उसका मंत्र-तंत्रवाद है। वि० संवत् १५५६ में लिखी गयी बहट्टिप्पणिका नाम की ग्रन्थसूची के अनुसार, वह वीरनिर्वाण से ६०० वर्ष के पश्चात् धरसेन के द्वारा रचा गया है । इस ग्रन्थ की एक प्रति भाण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना में है, जिसे देखकर पं० बेचरदासजी ने जो नोट्स लिये थे उन्हीं के आधार से मुख्तार सा० द्वारा वह परिचय कराया गया है । इस प्रति में ग्रन्थ का नाम तो योनिप्राभत ही है, पर कता का नाम पण्हसवण मुनि देखा जाता है। उक्त पण्हसवण मनि ने उसे कष्माण्डिनी महादेवी से प्राप्त किया था और अपने शिष्य पष्पदन्त व भतबलि के लिए लिखा था। इन दो नामों के निर्देश से उसके धरसेनाचार्य के द्वारा रचे जाने की सम्भावना अधिक है। प्रति में जो कर्ता का नाम पण्हसवण दिखलाया गया है वह वस्तुतः नाम नहीं है। 'पण्हसवण'' (प्रज्ञाश्रवण) उन मुनियों को कहा जाता है जो औत्पत्तिकी आदि चार प्रकार की प्रज्ञा के धारक होते हैं । अत: 'पण्हसवण' यह धरसेनाचार्य का बोधक हो सकता है। पीछे ग्रन्थकर्ता के प्रसंग में यह कहा ही जा चुका है कि जब पुष्पदन्त और भूतबलि धरसेन भट्टारक के पास पहुँचे थे तब उन्होंने परीक्षणार्थ उन दोनों के लिए हीन-अधिक अक्षरों वाली दो विद्याएँ दी थीं व उन्हें विधिपूर्वक सिद्ध करने के लिए कहा था। तदनुसार उन विद्याओं के सिद्ध करने पर जब उनके सामने विकृत रूप में दो देवियाँ उपस्थित हुईं तब उन दोनों ने अपने-अपने अशुद्ध मंत्र को शुद्ध करके पुनः जपा था। ___ इस घटना से यह स्पष्ट है कि धरसेन भट्टारक तथा पुष्पदन्त और भूलबलि तीनों ही मंत्र-तंत्र के पारंगत थे। और जैसा कि धवला में कहा गया है, वह योनिप्राभृत ग्रंथ मंत्र-तंत्र का ही प्ररूपक रहा है । इसके अतिरिक्त जैसा कि ऊपर सूचित किया गया है, यह ग्रंथ पण्हसवण मुनिको कुष्माण्डिनी देवी से प्राप्त हुआ था और उन्होंने उसे अपने शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि के लिए लिखा था, ये दोनों धरसेनाचार्य के शिष्य रहे हैं, यह स्पष्ट ही है । अतः पण्हसवण मुनि धरसेनाचार्य ही हो सकते हैं और सम्भवतः उन्हीं के द्वारा वह लिखा गया है। पूर्वोल्लिखित नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली के अनुसार, आ० धरसेन का काल वीरनिर्वाण से ६२+१००+१८३+१२३+७+२८+२१ =६१४ वर्ष के पश्चात् पड़ता १. धवला पु० १३, पृ० ३४६ २. देखिए अनेकान्त वर्ष २, कि०६ (१-७-१९३६), पृ० ४८५-६० पर 'प्रकाशित योनिप्राभत और जगत्सुन्दरी योगमाला' शीर्षक लेख ३. 'पण्हसवण' (प्रज्ञाश्रवण) के स्वरूप के लिए देखिए धवला पु० ६, पृ० ८१-८४ । २० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। उधर बृहट्टिप्पणिका में वीर निर्वाण से ६०० वर्ष के पश्चात् उस योनिप्राभूत के रचे जाने की सूचना की गई है। इस प्रकार वह धरसेनाचार्य के द्वारा पट्टकाल से १४ वर्ष पूर्व लिखा जा सकता है । इस प्रकार प्रा० पट्टावली और उस बृहट्टिप्पणिका में कुछ विरोध भी नहीं रहता। इससे इन दोनों की प्रामाणिकता ही सिद्ध होती है । प्रन्थ की भाषा प्रस्तुत षट्खण्डागम की भाषा शौरसेनी है । प्राचीन समय में मथुरा के आस-पास के प्रदेश को शूरसेन कहा जाता था। इस प्रदेश की भाषा होने के कारण उसे शौरसेनी कहा गया है। व्याकरण में उसके जिन लक्षणों का निर्देश किया गया है वे सब प्रस्तुत षट्खण्डागम और प्रवचनसार आदि अन्य दि० ग्रन्थों की भाषा में नहीं पाये जाते, इसी से उसे जैन शौरसेनी कहा गया है। प्रवचनसार व तिलोयपण्णत्ती आदि प्राचीन दि० ग्रन्थों की प्रायः यही भाषा रही है। उसका शुद्ध रूप संस्कृत नाटकों में पात्र विशेष के द्वारा बोली जाने वाली प्राकृत में कहीं-कहीं देखा जाता है। षट्खण्डागम के मूल सूत्रों की भाषा में जो शौरसेनी के विशेष लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं उन्हें कुछ सीमा तक यहाँ उदाहरणपूर्वक स्पष्ट किया जाता है १. शौरसेनी में सर्वत्र श, ष और स इन तीनों के स्थान में एक स का ही उपयोग हुआ है। षट्खण्डागम में भी सर्वत्र उन तीनों वर्गों के स्थान में एक मात्र स ही पाया जाता है, श और ष वहाँ कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होते । २. शौरसेनी में प्रथमा विभक्ति के एक वचन के अन्त में 'ओ' होता है, जो षट्खण्डागम में प्रायः सर्वत्र देखा जाता है । जैसे-- जो सो बंधसामित्तविचओ णाम तस्स इमो णिदेसो (सूत्र ३-१)' । यहाँ जो सो आदि सभी पद प्रथमान्त व एकवचन में उपयुक्त हैं और उनके अन्त में 'ओ' का उपयोग हुआ है। ३. शौरसेनी में शब्द के मध्यगत त के स्थान में द, थ के स्थान में ध (प्रा० शब्दानुशासन ३।२।१) और क्वचित् भ के स्थान में ह होता है । ष० ख० में इनके उदाहरणत=द-वीतराग =वीदराग (१,४,१७३)। __ संयतासंयत =संजदासंजद (१,१,१३)। थ=ध-पृथक्त्वेन-पुधत्तेण (२,२,१५)। ग्रन्थकृति =गंधकदी (४,१,४६) । भ=ह-वेदनाभिभूत = वेयणाहिभूद (१,६-६,१२) । आभिनिबोधिक = आहिणिबोहिय (१,६-६,२१६) १. यहाँ जो अंक दिये जा रहे हैं उनमें प्रथम अंक खण्ड का, दूसरा अंक अनुयोगद्वार का और तीसरा अंक सूत्र का सूचक है। जहाँ चार अंक हैं वहां प्रथम अंक खण्ड का, दूसरा अंक अनुयोगद्वार का, तीसरा अंक अवान्तर अनुयोगद्वार का और चौथा अंक सूत्र का सूचक है । ६-१ व ६-२ आदि अंक प्रथम खण्ड की नौ चूलिकाओं में प्रथम-द्वितीयादि चूलिका के सूचक हैं। षट्खण्डागम : पीठिका / २१ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राभृतः पाहुडो (४,१,४५ व ६३ तथा ५,५,४६) । विभंग विहंग (५,६,१६)। विभाषा=विहासा (१,६-१,२)। ४. शौरसेनी में पूर्वकालिक क्रिया में क्त्वा के स्थान में ता और दृण होता है। (प्रा. श० ३।२।१०)। ष० ख० में इनके उदाहरण हैंत्ता-समुत्पादयित्वाः - समुप्पाद इत्ता (४,२,४,१०६)। उपशामयित्वा-उपसाम इत्ता (४,२,४,१०२)। अनुपालयित्वा- अणुपाल इत्ता (४,२,४,७१ व १०२ तथा ५,६,४६७)। विहृत्य ---विहरित्ता (४,२,४,१०७) । दूण-कृत्वा-कादूण (४,२,४,७० व १०१ तथा ४,२,५,११)। भूत्वा होदूण (१,६-६,२१६, २२०, २२६, २३३, २४० व २४३ आदि)। संसृत्य =संसरिदूण (४,२,४,७१ व १०२) । ५. शौरसेनी में क्वचित् र के स्थान में ल भी देखा जाता है । उसके उदाहरणर=ल-उदार ओराल (५,६,२३७) । औदारिक= ओरालिय (५,६,२३७)। हारिद्र-हालिद्द (१,६-१,३७)। रूक्ष= लुक्ख (१,६-१,४० व ५,५,३२-३६) । ६. जैन शौरसेनी कही जाने वाली शौरसेनी के कुछ ऐसे लक्षण हैं जो प्रस्तुत षट्खण्डागम में पाये जाते हैं । जैसे--- ऋ=अ-मृदुमउव (१,६-१,४०) (प्रा० श० १,२,७३) । अन्तकृत= अंतयड (१,६-६,२१६ व २२०, २२६, २३३, २४३) । कृत=कद (५,५,६८) दृष्ट्वा = दळूण (१,६-६,२२,४०)। ऋ= इ-ऋद्वि = इड्ढि (५,५,६८)। प्रा० १।२।७५ ऋद्धिप्राप्त -- इड्ढिपत्त (१,१,५६)। मिथ्यादृष्टि-मिच्छाइट्ठी (१,१,६ व ११) । सम्यग्दृष्टि= सम्माइट्ठी (१,१,१० व १२) । मृग =मिय (५,५,१५७)। ऋ=उ—पृथिवी-पुढवी (१,१,३६ व ४०) । प्रा० १।२।८० ऋजुमति = उजुमदि (५,५,७७-७८)। ऋजुक = उज्जुग (५,५,८६)। वृद्धिः= वुड्ढी (५,५,६६) । अतिवृष्टि-अनावृष्टि=अइबुट्टि-अणावुट्ठि (५,५,७६ व ८८)। ऋ=ओ-मृषा= मोस (१,१,४६-५३ व ५५) । ११२।८५ ऋ=रि-ऋषेः---रिसिस्स (४,१,४४) । १-२.८६ ऋण रिण (४,१,६६ धवला)। ७. त्रिविक्रम प्रा० शा० सूत्र १,३,८ के अनुसार क, ग, च, ज, त, द, प, य और व २२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षर यदि असंयुक्त हों और आदि में नहीं हों तो विकल्प से उनका लोप होता है। ष० ख० में उनके कुछ उदाहरणक-लोप--सर्वलोके सव्वलोए (१,३,७)। प्रासुक - पासुअ (३-४१)। एकः= एओ (४,१,६६)। लोके = लोए (१,१,१ तथा ४,१,४३)। एकेन्द्रिया:---एइंदिया (१,१,३३)। ग-लोप-प्रयोगकर्म-पओअकम्म (५,४,४ व १५,१६) । त्रिभागे तिभाए, तिभागे (५,६,६,४४) । प्रयोगबन्धः--पओअबंधो (५,६,२७ व ३८)। च-लोप-अप्रचुरा:- अपउरा (५,६,१२७) । ज-लोप--मनुजलोके -मणुअलोए (५,५,६४)। . त-लोप-गति --- गइ (१,१,२ व २,१,२)। चतुःस्थानेषु - चउट्ठाणेसु (१,१,२५) । चतुर्विधम् . चउव्विहं (१,६-१,४१ व ५,५,१३१) । तिर्यग्गतौ :-तिरिक्खगईए १,२,२४) । मनुष्यगतौ-मणुसगईए (१,२,४०) । वनस्पति = वणप्फइ (१,१,३६ व ४१)। द-लोप-मृदुकनाम-- मउअणाम (१,६-१,४० व ५,५,१३०) । प-लोप--विपुल- विउल (४,१,११ तथा ५,५,७७; ८६ व ६४)। य-लोप-कषायी-- कसाई (१,१,१११-१३)। क्षायिक-- खइय (१,१,१४४-४५) । वायु-वाउ (१,१,३६-४०)। सामायिक -- सामाइय (१,१,१२३ व १२५) । आयुः आउअं (१,६-१,६)। आयुषः । आउगस्स (१,६-१, २५)। आयुषः.... आउअस्स (५,५,११४ व ११५) । प्रयोगबन्धः पओअबंधो (५,६,२७ व ३८) । अनुयोगद्वाराणि - अणिओगद्दा राणि (४,२,५,१ व ५,६,७०) । समये-समए (४,१,६७)। ८. ऊपर जिन क, ग आदि वर्गों का विकल्प से लोप दिखाया गया है उनका लोप होने पर जो अ-वर्ण शेष रह जाता है वह त्रि० प्रा० शा० सूत्र १,३,१० के अनुसार क्वचित् य श्रुति से युक्त देखा जाता है । ष० ख० में उदाहरणक-लोप में-तीर्थकर -- तित्थयर (१,६-१,२८; १,६-६,२१६ व ३-३७,३६,४०,४१)। साम्परायिक -सांपराइय (१,१,१७ व १८ तथा १,२,१५१) । पृथिवीकायिक - पुढविकाइय (१,१,३६ व ४०)। सामायिक सामाइय (१,१.१२५ तथा १,२,७६)। षटखण्डागम : पीठिका/ २३ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकविधा =अणेयविहा (४,१,७१)। ग-लोप में-नगर == णयर (५,५,७६ व ८७)। भगवान् = भयवं (५,५,६८)। वीतरागाणां-वीयरायाणं (५,४,२४) । च-लोप में प्रचलाप्रचला=पयलापयला (१,६-१, १६ तथा ५,५,१०१)। प्रवचन --पवयण (३-४१ व ५,५,५१)। वाचना=वायणा (४,१,५५ व ५,५.१३ तथा ५,६,१२ व २५) । आचारधरः- आयारधर (५,६,१६)। ज-लोप में-भाजन- भायण (५,५,१८) । त-लोप में-वीतराग - वीयराग (१,१,१६ व २०)। द-लोप में-वेदना वेयणा (१,६-६,१२ तथा ४,२,१ व ३, व ७-८ आदि)। व-लोप में परिवर्तना=परियट्टणा (४,१,५५,५,५१३;५,५,१५६,५,६,१२ व २५)। लोप के अभाव में क-भावकलंक=भावकलंक (५,६,१२७) । एक: एक्को (१,२,६ व ११) । ग—सयोग=सजोग (१,१,२१)। अयोग= अजोग (१,१,२२)। योगस्थान =जोगट्ठाण (४,२,४,१२ व १६)। योगेन जोगेण (४,२,४,१७ व २२)। योगे-जोगे (४,२,४,३६)। च-विचयः-विचओ (३-१)। विचयस्य- विचयस्स (३-२)। वचनयोगी-वचिजोगी (१,१,४७ व ५२-५.५)। वचनबलिभ्यः --वचिबलींणं (४,१,३६)। वचनप्रयोगकर्म= वचिपओअकम्म (५,४,१६) । जलचरेषु = जलचरेसु (४,२,४,३६ व ३६) । ज-परिजित -- परिजित (४,१,५४, ५,५,१५६ व ५,६,२५) । विजय-वैजयन्त--विजय-वइजयंत (१,१,१००)। त–अवितथ -- अवितथ (५,५,५१)। लोकोत्तरीय = लोगुत्तरीय (५,५,५१) । द-वेदक - वेदग (१,१,१४४ व १४६)। अदत्तादान- अदत्तादाण (४,२,८,४) । उदयेन-उदएण (२,१,८१)। औदयिकेन= ओदइएण (२,१,८५ व ८६)। सूत्रोदकादीनाम् -- सुत्तोदयादीणं (४,१,७१) । प-द्रव्यप्रमाणेन --- दन्वपमाणेण (१,२,२, व ७-६ आदि)। २४ / षट्खण्डागम-परिशीलन . Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प - विनयसम्पन्नता - विणयसंपण्णदा ( ३- ४१) । संवेगसम्पन्नता == संवेगसंपण्णदा ( ३- ४१) । उपसंपत्सांनिध्ये उवसंपदसण्णिज्झे ( ४, १,७१) । भवप्रत्ययिक - भवपच्चइय ( ५, ५, ५४ व ५७ ) । य—– आयामः - - आयामो (१,२,२२ ) । नयविधिः णयविधी ( ५, ५, ५१ ) । ही मानकं हीयमाणयं ( ५,५,५७ ) । वनयवादः - णय वादो (५,५,५१) । प्रवरवादः = पवरवादो (५,५, ५१ ) । दिवसान्तः - दिवसंतो (५,५,६३) । व — बंधाध्यवसान – बंध झवसाण (४,२, ७, २७६ आदि) । भवग्रहणे – भवग्गहणे ( ४, २, ४, २१) । जैन शौरसेनी के अनुसार षट्खण्डागम की भाषागत कुछ अन्य विशेषताएँ क - ग — लोकाः लोगा ( १,२,४) । खुज्ज ( १, ६ १,३४ व ५, ५, १२४) । कीलित खीलिय (१,६-१, ३६ व ५, ५, १२६) । क- ख - कुब्ज ख घ - ह - सुख = सुह ( ५, ५,७६) 1 - ह् — जघन्या = मेघानाम् मे हाणं (५,६,३७) । थ - ह – ईर्यापथ : ईरियावह ( ५,४,४ व २३-२४)। - यथा जहा (१,१,३) । रथानाम् ध - ह – साधुभ्यः जणा ( ४, २, ४,२ व ३ ) । रहाणं ( ५, ६,४१) । साहूणं ( १, १, १ व ३-४१) । समाहि (३-४१) । समाधि अनेकविधा - अणेय विहा ( ५, ५, १७ ) । भ ह— शुभनाम सुहणाम (१,६ - १,२८) । शुभाशुभ सुहासुह ( ५, ५, ११७) । प्राभृतः पाहुडो (४,१,४५) । ठढ-पिठरः पिढर (५, ५, १८) | ट - ड घट -- घड (५.५.१८ ) । तड - प्रतीच्छना प्रतिपत्ति: पडिवत्ति ( ५, ५, ४९ ) । प्रतिपाती = पडिवादी (५,५, ७५) । प्रतिसेवित पडिसेविद (५,५,६८ ) । ह- - भरते भरहे ( ५, ५, ६४) । पच्छिणा ( ४, १, ५५,५, ५, १३ व १५६ तथा ५, ६, १२ व २५ ) । त दर – पञ्चदशः पण्णा रस ( १, ६ - ६, ७ व ८ ) । औदारिक ओरालिय (१,१,५६ ) । = षट्खण्डागम: पीठिका / २५ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थ= ढ-पृथिवीकायिका---पुढविकाइया (१,१,३६-४०)। थ:-हनाथधर्मः- णाहधम्म (५,६,१६) । न = ण--मानकषायी--माणकसाई (१,१,१११ व ११२) । कनकानाम्-कणयाणं (५,६,३७)। न=ण-नमः= णमो (१,१,१ व ४,१,१-४४) । (शब्द के आदि में) ज्ञानी= णाणी (१,१,११५) । नाम--- णाम (१,६-१,१०)। नाम्नः= णामस्स (१,६-१, २७ व ५,५,११६)। निर्देशः- णिद्देसो (१,१,८ व १,२,१)। नयः- णओ (४,१,४७ व ४,२,१)। प-व-उपशमाः -- उवसमा (१,१,१६ व १८)। क्षपकाः-- खवा (१,१,१६ व १८)। उपपादेन --- उववादेण (२,६,१ व ६,८,१३ आदि)। अपगतवेदाः = अवगदवेदा (१,१,१०१ व १०४) । य-ज-संयताः- संजदा (१,१,१२३ व १२४ आदि)। संयोगावरणार्थम् संजोगावरणट्ठ (५,५,४६) । यशःकीति- जसकित्ति (१,६.१, २८ व ५,५,११७) । रःल-हरिद्रा हालिद्द (१,६-१,३७ व ५,५,१२७) । श:- स-शलाका शिविकानाम् : सिवियाणं (५,६,४१) । ष - स–कषायी कसाई (१,१,१११-१४) । संश्लेष - संसिलेस (५,६,४०)। विपः विस (५,३,३०)। ष--छ-षषष्ठी -- छावट्टि (१,६,४) । षण्माषा: -- छम्मासं (१,६.१७) । षट्स्थान - छट्ठाण (४,२,७,१६८)। अधस् - हे?-अधःस्थान - हेट्ठट्टाण (४,२,७,१६८) । प्रा० शब्दानुशासन १।३।६८ अर्थः अट्ठ-अर्थाधिकाराः- अट्टहियारा (४,१,५४) । (१।४।१५) बहिस् = बाहिर-बाह्य बाहिरं (५,४,२६) । प्रा० श० १।३।१०१ । स्तोक - थोव--स्तोकाः - थोवा (१,८,२ व १५,२१,२५ आदि)। प्र० श० ११३।१०५ कर्कश ::- कक्खड-कर्कशनाम् : कक्खडणामं (१,६-१, ४० व ५,५,१३०)। कर्कशस्पर्शः कक्खडफासो (५,३,२४) । स्त्यान -- थीण-स्त्यानगृद्धिः = थीण गिद्धी (१,६-१,१६ व ५,५,१०१)। १।४।१३ क्ष- ख-क्षायिकः-- खइओ (१,७,५)। क्षायोपशमिक: =खओवसमिओ (१,७,४-५) । २६ / षटखण्डागम-परिशीलन Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्ष = ख — क्षण = खण ( ५, ५,६० ) । क्षीण- खीण (१,१,२० व ५,६,१८ ) । ष्ट = ठ - दृष्टिः = इट्ठी ( १, १, ६ १२ व १,२,२) । १।४।१४ अष्ट = अट्ठ (१,४,४ व ६ तथा १, ६- ६, २७) । त्य= च—अमात्य - अमच्च ( १, १, १ उद्० गा० ३८ ) । १।४।१७ सत्य = सच्च (१,१,४६-५५) । प्रत्यय पच्चय ( ४, २, ८, १-६) । परित्याग परिचाग ( ३- ४१) । त्स = छ— मत्स्यः = मच्छो ( ४,२,५, ८) । १।४।२३ ध्य – झ – उपाध्यायेभ्य: उवज्झायाणं ( १,१,१) । ध्यान - झाण (१,१, १७ ध० उ० गा० १२० ) । १।४।२६ संध्या = संझा (५,६,३७) । = द्य – ज – उद्योत – उज्जोव (१,६- १, २८ व ५, ५,१-१७) । १।४।२४ विद्यतां विज्जणं (५,६, ३७) । यं = ज – पर्याप्ताः :- पज्जत्ता ( १, १, ३४ व ३५ ) । १।४।२४ पर्याप्तयः = पज्जत्तीओ (१,१,७० व ७२,७४) । मन:पर्ययमणपज्जव (१,१,११५ ) । र्त – ट —— उद्वर्तित = उव्वट्टिद (१,६-६, ७६ तथा ८७,६३ आदि ) | १ | ४ | ३० = त्त - ट - पत्तण = पट्टण ( ५, ५, ७६ व ८८ ) । १।४।३१ र्ध == ढ–अर्धतृतीयेषु = अड्ढा इज्जेसु (१,६-८, ११) । १।४।३४ द्ध = ढ – ऋद्धि – इड्ढि ( ५, ५, ६८ ) । ११४१३४ ऋद्धिप्राप्तानां = इड्ढिपत्ताणं ( १, १, ५) । परिवृद्ध्या ञ्च – ण – पञ्चदश ज्ञ - ण – ज्ञानं संज्ञा स्तथ — स्तव परिवड्ढीए (४,२, ७, २०४-१४) । १।४।३५ पण्णा रस ( १, ६-६, ७-८ ) । १।४।३६ गाणं (१,६ - ६, २०५ व २०८,२१२ व २१६ आदि ) | १|४|३७ संज्ञी - सण्णी (१,१,१७२ व १७३) । - सण्णा (५,५, ४१ व ७६,८८ ) । थय ( ४, १, ५५ तथा ५, ५, १३ व ५, ५, १५६) । १।४।३८ स्तुति - थुदि ( ४, १, ५५ तथा ५, ५, १३ व ५, ५,१५६) । १।४।४० ग्मम – युग्म – जुम्म (४,२,७,१६८ व २०३) । १।४।४७ -- ह्व भ - जिह्व ेन्द्रिय जिब्भिदिय ( ५, ५, २६ व २८,३०,३२,३४ आदि) । १।४।५१ ( एक में) कक्क—एको एक्को (१, २, ६ व ११) । २।१।२० = 'भव' के अर्थ में नाम के आगे 'इल्ल' होता है । ष० ख० में उदाहरणअधस्तनीनां = हेट्ठिल्लीणं (४,२, ४, ११ व १८ तथा ५,६,१०१) । २।१।१७ उपरितनीनां = उवरिल्लीणं (४,२, ४, ११ व १८ तथा ५, ६, ६६ व १०१) । बाह्य = बाहिरिल्लए ( ४, ३, ५ व ८ ) । मध्यमे -- मज्झिल्ले (५,६,६४४) । षट्खण्डागम : पीठिका / २७ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वा --ऊण-श्रुत्वा =सोऊण (१,६-६८ व २२,३०,३७ व ३६ आदि) । २।१।२६ कृत्वा =कादूण (४,२,५,११) । कृत्वा = काऊण (४,२,१४,४५) । संसृत्य-संसरिदूण (४,२,४,१४ व २१)। 'दक्षिण' शब्द में अ वर्ण दीर्घ और 'क्ष' के स्थान में ह होता है । ष० खं० में प्रदक्षिणं = पदाहीणं (५,४,२८) । १।२।६ 'आचार्य' शब्द में चकारवर्ती आकार ह्रस्व व इकार भी होता है । ष० खं० में आचार्येभ्यः -- आइरियाणं (१,१,१) । ११२।३५ 'वृष्टि' आदि शब्दों में ऋ के स्थान में इ, उ होते हैं। जैसे ष० खं० में वृष्टिः = वुट्टि (५,५,७६ व ८८)। ११२१८३ 'मृषा' शब्द में ऋ के स्थान में उ, ओ और ई होता है । ष० ख० में ओ का उदाहरण मृषा ==मोस (१,१,४६-५२) । ११२१८५ कुछ अन्य संयुक्त व्यंजनों मेंक्त-त्त---तिक्त--तित्त (१,६-१,३६)। युक्तं == युत्तं (५,५,६८)। क्रक्क-शशाना:-- सक्कीसाणा (५,५.७०)। चक्र चक्क (४,१,७१)। क्ल - कक ---शुक्ल-सुक्क (१,१,१३६) । ग्र ग -ग्रन्थ ... गंध (४,५,४६; गंथ ४,१,५४ व ६७)। ग्र ---ग्ग-विग्रह विग्गह (१,१,६० व ४,२,५११) । त्त्व - च्च-तत्त्वं तच्च (५,५,५१)। त्य च-त्यक्त ... चत्त (४,३,६३)। त्व-त-त्वक् ..-तय (५,३,४ व २०)। त्र-त्त--क्षेत्रे -खेते (१,३,२,व ५,७,६)। त्र= त्थ-तत्र = तत्य (१,१,२ तथा ४,२,१,१ व ४,२,४,१) । थ्य-च्छ-मिथ्यात्वं मिच्छत्त (१,६-१,२१ व ५,५,१०६)। द्य=उज-उद्योत-उज्जोव (१,६-१,२१ व ५,५.११७)। द्ध- ज्झ-विशुद्धता=विसुज्झदा (३-४१) । द्वि-दु-द्विपद-दुवय (५,५,१५७) । ध्ययन= झेण--उपासकाध्ययन उवासयज्झेण (५,६,१६)। ध्य= झ-सिद्ध्यन्ति बुध्यन्ते सिझंति बुज्झंति (१,६-६,२१६ व २२०,२२६,२३३) = क्क-तक=तक्क (५,५,६८)। क-क्ख-कर्कश= कक्खड (-6-१, ४० व ५,५,१३०)। =ग्ग--वग्ग (१,२,५५ व ५६,६३,६८) । घंह-दीर्घः=दीहे (४,५,४५)।। र्चच्च-अर्चनीयाः अच्चणिज्जा (३-४२) । २८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जज्ज -वर्जयित्वा बज्ज (१,६-२,१४ व २३,२६,२६,३२,३५ आदि)। f=ण्ण-वर्ण-वण्ण (१,६-१,२८ व ३७ तथा ५,५,११७ व १२७) । चूर्ण =चुण्ण (२,१,६५) । प्रा० श० १।२।४० स्वर ह्रस्व उदीर्णा= उदिण्णा (४,२,१०,४ व ६,११ आदि)। तं-ट्ट-परिवर्त परियट्ट (१,५,४) । परिवर्तना=परियट्टणा (४,५,५५ तथा ५,५,१३)। त-त्त-परिवर्तमानपरियमाण (४,२,७,३२) । धं-ड्ढ--वर्धमान-वड्ढमाण (४,१,४४)। पप्प-तर्पणादीनां तप्पणादीणं (५,५,१८) । र्भ-भ-गर्भोपक्रान्तिकेषु-गब्भोवक्कंतिए सु (१,६-६,१७ तथा १८ व २५ आदि) दर्भण- दन्भेण (५,६,४१)। दुर्भिक्षं दुब्भिक्खं (५,५,७६ व ८८)। मम्म -कर्म-कम्म (१,६-१,१ व २०-२४) । धर्म-धम्म (४.१,५५ तथा ५,५,१३ व १५६) । र्य=ज्ज-पर्याप्ताः -पज्जत्ता (१,१,३४ व ३५) । लल्ल -निर्लेपन =णिल्लेवण (५,६,६५२-५३) । वं-व्व-पूर्व-पर्व = पुव्व-पव्व (५,५,६०)। र्ष-स्स-वर्ष-वस्स (२,२,२)। व्य--व्व-कर्तव्यः ---कादव्वो (१,६-४,१ व १,४-५,१ तथा ५,६,६४३ कायव्वा ) ज्ञातव्यानि --णायादव्वाणि (५,६,६६)। श्न--- एण-प्रश्नव्याकरण = पण्णवागरण (५,६,१६)। ष्ट --दृष्टयः दिट्ठी (१,१,६-१२)। ष्ण-ह-कृष्ण =किण्ह (१,१,१३६ व १३७ तथा १,२,१६२ व १,३,७२) । स्क-ख-स्कन्ध-- खंध (५,६,६७ व १०४) । स्त-..थ-स्तव-स्तुति ..थय-थुदि (४,१,५५ व ५,५,१३)। स्थ-ठ-स्थान-ठाण (१,६-२,१,५,७,६ आदि)। स्थापनाकृतिः--ठवणकदी (४,१,४६ व ५२) । स्न- ण-स्निग्धःणिद्ध (१,६-१,४० व ५,६,३२-३६) । स्प-प-स्पर्श पास (१,६-१,४०) । स्प ..फ-स्पर्श =- फास (५,३,१-५ व ६-३३)। 'स्प.. फो-स्पर्शनानुगमेन - फोसणाणुगमेण (१,४,१) । स्पृष्टं -फोसिदं (१,४,२ व ३,५,७,९ आदि) । स्मृ:- स--- स्मृतिः - सदी (५,५,४१) । ह्म म्ह-ब्रह्म ==बम्ह (५,५,७०)। ह्वः= भ-जिह्वन्द्रिय -- जिभिदिय (५,५,२६ व २७,३०,३२ एवं ३४) । १. कर्ता कारक (प्रथमा) के एकवचन के अन्त में क्वचित् 'ए' देखा गया है । जैसे-- 'इंदिए, काए जोगे' इत्यादि (१,१,१ व २,१,२)। षटखण्डागम : पीठिका/ २६ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'वेयणाए पस्से कम्मे' इत्यादि ( ४, १,४५) । २. कर्मकारक में कहीं बहुवचन के अन्त में 'ए' तथा स्त्रीलिंग में 'ओ' देखा गया है जैसेअत्थे (अर्थान्) जाणदि (५,५,७ व ८८ ) । को णओ के बंधे (कान् बन्धान् ) इच्छदि (५,६,३) । णेगम-ववहार-संगहा सव्वे बंधे (सर्वान् बन्धान् ) (५,६,४) । स्त्रीलिंग में — को णओ काओ कदीओ (काः कृती:) इच्छदि (४,१, ४७) । णेगम-ववहार-संगहा सव्वाओ (सर्वाः ) ( ४, १,४८) । ३. तृतीया विभक्ति के बहुवचन में 'भिस्' के स्थान में 'हि' देखा जाता है । जैसेमिथ्यादृष्टिभिः = मिच्छादिट्ठीहि (१,४, २ तथा ११ व २ ) । संयतासंयतः = संजदासंजदेहि (१,४,७) । कतिभिः कारणैः = कदिहि कारणेहि (१,६ - ६, ६ व १० आदि) । त्रिभिः कारणैः = तीहि कारणेहि (१,६ - ६, ७) । द्विवचन में बहुवचन का ही उपयोग हुआ है जैसेसमुद्घातोपपादाभ्यां = समुग्घाद उववादेहि (२,७,१० ) । ४. पंचमी विभक्ति में एक वचन के अन्त में 'आ' और 'दो' देखा जाता है । जैसे— नियमात् णियमा ( १, १, ८३ तथा ८५ व ८८ एवं १, ६-६, ४३) । नरकात् = णिरयादो (१,६ - ६, २०३ व २०६,२०९ ) । == द्रव्यतः = : दव्वदो ( ४, २, ४,२ व ६ ) | क्षेत्रतः = खेत्तदो (४,२, ५, ३ व १२, १५, १६ आदि) । ५. षष्ठी बहुवचन के अन्त में कहीं पर ( सर्वनाम पदो में ) 'सिं' देखा जाता है । जैसेएषाम् = इमेसि (१,१,२) । एतेषाम् = एदेसि ( १, १, ५, १, ६ - ८, ५ तथा २,१,१) । तेषाम् = तेसिं (५,६,६५) । परेषां = परेसि ( ५, ५,८८) । एतासाम् = एदासि ( १, ६ १, ५ व ६, १२, १५, १८ आदि) । अन्यत्र 'णं' या 'हं' भी देखा जाता है । जैसे— जीवसमासानां जीवसमासाणं ( १, १, ५ व ३-४) । प्रकृतीनां = पथडीणं ( १, ६-२,६४ व ६६, ६८ आदि) । कर्मणां=कम्माणं (१,६-८, ५) । द्वयोः = दोण्हं (१,६-२,१८ ) । चतुर्णां चदुण्हं (१,५,१२ व १६) । पञ्चानां = पंचहं (१,६, २-५) । षण्णां = छण्हं (१,६ - २,७ व ११) । नवानां - नवहं (१,६-२,७) । एक वचन में 'स्य' के स्थान में 'स्स' देखा जाता है । जैसे— लोकस्य = लोगस्स (१,३,३-५) । ३० / षट्खण्डागम- परिशीलन Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयतासंयतस्य-संयतस्य -संजदासंजदस्स-संजदस्स (१,९-२,३ तथा ६,१३ व १९ आदि)। बन्धमानस्य बंधमाण स्स (१,६-२,५ व ६,१२ आदि)। कर्मण:-कम्मरस (१,६-२,४ व ७,१७,२० आदि)। नाम्नः= नामस्स (१,६-२,४ व ७,२०,५० आदि)। सर्वनाम स्त्रीलिंग में 'स्याः' के स्थान में से' देखा जाता हैएकस्याः - एक्किस्से (१,६-२,१०८) । एतस्याः - एदिस्से (१,६-२,१०८) । अन्यत्र भिन्नरूपताप्रथमायाः पृथिव्याः : पढमाए पुढवीए (१.६-६,४८) । द्वितीयायाः -- विदियाए (१,६-६,४६) । ६. सप्तमी में एक वचन के अन्त में कहीं 'मि' और कहीं 'म्हि' देखा जाता है। जैसेएकस्मिन् एक्कम्मि (१,१,३६ तथा ४३,१२६ व १४८-४६)। एकस्मिन् - एक्कम्हि (१,१,६३ व १,६-२,५ एवं हव १२) । कस्मिन् - कम्हि (१,६-८,११)। कस्मिन्, यस्मिन्, तस्मिन् - कम्हि, जम्हि, तम्हि (१,६-८,११) । ७. स्वरों में 'ऐ' के स्थान में 'ए' और कहीं 'अइ' भी देखा जाता है । जैसे - चैव- चेव (१,१,५)। नैव- णेव (२,१,३६-बन्धक-अबन्धक; २,१,८६-स्वामित्व)। नैगम =णेगम (४,१,५६ तथा ४,२,२,१ व ४,२,३,१)। नैगम - ण इगम (४,१,४८) । ८. 'औ' के स्थान में 'ओ' और क्वचित् 'उ' भीऔदयिक:- ओदइओ (१,७,२)। औपमिकः ओवसमिओ (१,७,८ व १३,१७,२५ आदि)। आमषौ षधि आमोसहि (४,१,३०) । औपशमिकः:: उवसमिओ (१,७,५ व ८४)। औपशमिकं -- उवसमियं (१,७,८३ व ८५) । 8. 'अव' के स्थान में 'ओ' देखा जाता है-- अवग्रहः-ओग्गहे (५,५,३७) । अवधि - ओहि (१,१,११५ व ११६ तथा ५,५,५२-५४) । देशावधिः -देसोही (५,५,५७) । १०. क्रियापदों का उपयोग षट्खण्डागम में कम ही हुआ है। जहाँ उनका उपयोग कुछ हुआ भी है वहाँ प्रायः परस्मैपद देखा जाता है । उनके उदाहरण 'अस्ति' के स्थान में 'अत्थि' आदेश होता है। उसका प्रयोग एक व वहुवचन दोनों में समान रूप से हुआ है । जैसे पज्जत्ताणं अस्थि [विभंगणाणं] । १,१,११८ (एक वचन में) सन्ति मिथ्यादृष्टयः= अस्थि मिच्छाइट्ठी (१,१,६) । प्रा० श० ११४।१० षट्खण्डागम : पीठिका / ३१ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नास्ति = णत्थि । इसका भी प्रयोग एक और बहुवचन दोनों में हुआ है । जैसे— एक वचन में - णत्थि अंतरं (१,६, २ व ६, १६, २८, ३५, ३६ आदि) । तित्थयरं णत्थि ( ३- ८७) । बहुवचन में अबंधा णत्थि (३-४४ व ५६, ७४,१०१,१४१, १४६ आदि) । कुछ अन्य क्रियापदों के उदाहरण-भवति: भवदि (१, ६-४, १, १, ६-५, १ तथा २, १, ४ व ६, ८, १०, १२, १४, १६, व भवति - हवदि ( धवला पु० ३, पृ० २४) । भवति - होदि (२,२,१०८ तथा २, ६, ११ व १५, १८, २१, २४, २७, ३०, ३३,३६,३६ व ४२ तथा ५,६,१२३) । भवति = हवेदि (५,६, ३६ ) भवेत् -- भवे (४,२,७,१७४ गा० ७ तथा ५, ६, १२५ ) । बंदि, लब्भदि, लंभदि, करेदि (१,६- १,१ ) ; कस्सामो १, २, १ ) ; वण्णइस्सामो १, ६२,१ व १,६-६,२); कितइस्सामो (१,६- ३, १ ) ; लहृदि (१,६ - ८, १ ); लब्भदि (१, ६-८, २ व ३); उवेदि, उप्पादेदि (१,६-८, ५); ओहट्टे दि (१,६ - ८, ६); करेदि १, ६-८, ७); करेंति (१, ६-८,१३० व १३७); उवसामेदि (१, ६-८, ८); आरभते, आढवेदि (१,६ - ८, ११); णिवेदि १,६ - ८,१२ ) ; निर्यान्ति नीति ( १, ६-६, ४४-४७ व ४६-५६, ६१-७५); गच्छदि (४,२, ४, १२ व १६,२६,५४); गच्छंति (१,६ - ६,१०१-१६ आदि); आगच्छंति ( १, ६-६,७६-८० आदि); उद्वर्तन्ते--उब्वट्टिति (१,६-६,८६ व १००, १८४) चयंति ( १, ६-६, १८४ व १८७ ) ; सिज्यं - ति, बुज्झंति, मुच्चंति, परिणिव्वाणयंति, परिविजाणंति (१,६ - ६, २१६ व २२०, २२६,२३३ २४०,२४३) ; इच्छदि (४,१,४७ व ४,२, २, १ ) ; इच्छंति ( ४, १, ५० ); बंधंति (४,२,६,१७५ - ८०); जाणदि (५,५, ७६ व ८०,८६,८८, १८); पटुप्पादेदि (५, ५, ६१ ) ; पस्सदि (५, ५, ६८ ) ; विहरदि (५, ५, ६८ ); संभवदि (५,६, ४३); बज्झति ( ५, ६, ३४ ) ; मुंचति ( ५,६,१२७ ); वक्कमंति (५,६,५,८१-८४), वुच्चदि (५,६,६४४) । ० खं० में वर्णविकार के कुछ अन्य उदाहरणअनुयोग - अणियोग (१,१, ५) । अप् आउ (१,१,३६) । तेजस् = तेउ (१,१,३६) । औदारिक = ओरालिय (१,१,५६ ) । वैक्तिक - वेउध्विय ( १, १, ५६ ) । कापोत : त काउ (१,१,१३६ ) । वज्र == वइर ( १, ९-१,३६) । कियन्तः = केवडिया (१,३,२) । पल्योपम पलिदोपम (१, २, ६ ) । स्तोक = थोव (१,८,२) । आरभन् = आढवेंतो (१,६-८, ११) । ३२ / षट्खण्डागम-परिशीलन १८ आदि) । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पन्नाः = उववण्णलया (१,६-६,२०५) । जातिस्मरणात् -- जाइस्सरा (१,६-६,८)। आमों षधिः-- आमोसहि (४,१,३०)। संनिकर्ष -- सण्णियास (४,२,१,१)। जागत- जागार (४.२.६.८)। स्यात् - सिया (४,२,६,२-३ आदि)। स्त्री= इत्थी (१,१,१०१)। पुरुष-पुरिस (१,१,१०१) । द्रोणमुख= दोणामुह (५,५,७६)। पुद्गल -पोग्गल (२,२,१२)। मैथुन -- मेहुण (४,२,८,५) । पञ्चाशत् - पण्णासाए (४,२,६,१०८) । षट्खण्डागम में उपर्युक्त भाषा के अन्तर्गत जो बहुत-से शन्दों में वर्ण विकार देखा जाता है उसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं अनुयोगः अणियोग (१,१,५) । नारक- णेरइय (१,१,२५) । अप् == आउ (१,१,३६) । तेजस्- तेउ (१,१,३६) । मृषा-मोस (१,१,४६) । औदारिक --ओरालिय वैक्रियिक-- वेउव्विय (१,१,५६) । अर्धतृतीय ---- अड्ढाइज्ज (१,१,१६३)। कापोत --काउ (१,१,१३६) । पल्योपम-पलिदोवम (१,२,६) । कियन्तः --- केवडिया (१,२,२) । कियत्- केवडियं (१,४,२)। स्तोक -- थोव (१,८,२)। वज = वइर (१,६-१,३६)। भारभन्-आढवेतो (१,६.८,११)। जातिस्मरणात् =जाइस्सरा (१,६-६,८)। उत्पन्नाः - उववण्णल्लया (१,६-६,२०५)। कर्कश -- कक्खड (१,६-१,४०)। मामशौं षधि= आमोसहि (४,१,३०) । संनिकर्ष- सण्णियासः- (४,२,१,१)। जागत-जागार (४,२,६,८) । स्यात् --सिया (४,२,६,२) । षट्खण्डागम : पीठिका / ३३ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेचन-पद्धति प्रश्नोत्तर शैली प्रस्तुत षट्खण्डागम में प्रति गद्य विषय का विवेचन प्राय: प्रश्नोत्तर के रूप में किया गया है । कहीं पर यदि एक सूत्र में विवक्षित विषय से सम्बद्ध प्रश्न को उठाकर उसका उत्तर दे दिया गया है तो कहीं पर एक सूत्र में प्रश्न को उठाकर आवश्यकतानुसार उसका उत्तर एक व अनेक सूत्रों में भी दिया गया है । जैसे १. जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम में एक ही सूत्र (६) के द्वारा प्रश्नोत्तर के रूप में सासादन-सम्यग्दृष्टि आदि संयतासंयत पर्यन्त चार गुणस्थानवी जीवों के द्रव्यप्रमाण का उल्लेख कर दिया गया है। इसी प्रकार यहीं पर प्रश्नोत्तर के रूप में ही सूत्र ७ में प्रमत्तसंयतों और सूत्र ८ में अप्रमत्तसंयतों के द्रव्यप्रमाण को प्रकट किया गया है। २. इसके पूर्व इसी द्रव्यप्रमाणानुगम में सूत्र २ में मिथ्यादष्टि जीवों के द्रव्यप्रमाण विषयक प्रश्न को उठाते हुए उसी सूत्र में उत्तर भी दे दिया गया है कि वे अनन्त हैं । आगे सूत्र ३ के द्वारा उनके प्रमाण को काल की अपेक्षा और सूत्र ४ के द्वारा क्षेत्र की अपेक्षा कहा गया है । अब रहा भाव की अपेक्षा उनका द्रव्यप्रमाण, सो उसके विषय में आगे के सूत्र ५ में यह कह दिया गया है कि द्रव्य, क्षेत्र और काल इन तीनों का जान लेना हो भाव प्रमाण है। __इसी प्रकार यह प्रश्नोत्तर शैली जीवस्थान के क्षेत्रानुगम आदि आगे के अनुयोगद्वारों में भी चालू रही है। विशेष इतना है कि प्रसंग के अनुरूप उसके प्रथम सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में और अन्तिम अल्पबहुत्वानुगम में उपर्युक्त प्रश्नोत्तर शैली को चालू नहीं रखा जा सका है। आगे इस जीवस्थान खण्ड से सम्बद्ध नौ चलिकाओं में से प्रथम आठ चूलिकाओं में भी यह प्रश्नोत्तर शैली अनावश्यक रही है। किन्तु अन्तिम गति-आगति चूलिका में गति-आगति आदि विषयक चर्चा उसी प्रश्नोत्तर शैली में की गई है। द्वितीय खण्ड क्षुद्रकबन्ध में सर्व प्रथम सामान्य से बन्धक-अबन्धक जीवों का विचार करके उसके अन्तर्गत स्वामित्व आदि ११ अनुयोगद्वारों में चौथे 'नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय' और अन्तिम अल्पबहुत्वानुगम को छोड़कर शेष ६ अनुयोगद्वारों में विवक्षित विषय का विवेचन उसी प्रश्नोत्तर शैली में किया गया है । इसी प्रकार 'बन्धस्वामित्वविचय' आदि आगे के खण्डों में कुछ अपवादों को छोड़कर तत्त्व का निरूपण उसी प्रश्नोत्तर शैली से किया गया है। वेदना खण्ड के अन्तर्गत 'वेदनाद्रव्यविधान' अनुयोगद्वार में 'द्रव्य की अपेक्षा उत्कृष्ट . Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानावरणीय वेदना किसके होती है' इस प्रश्न को उठा कर (सूत्र ४,२,४,६) उसका उत्तर गुणितकर्माशिक के लक्षणों को प्रकट करते हुए २६ (७-३२) सूत्रों में पूरा किया गया है। अनुयोगद्वारों का विभाग विवक्षित विषय को सरल व सुबोध बनाने के लिए उसे जितने व जिन अनुयोगद्वारों में विभक्त करना आवश्यक प्रतीत हुआ उनका निर्देश प्रकरण के प्रारम्भ में कर दिया गया है। तत्पश्चात् उसी क्रम से प्रसंग प्राप्त विषय की प्ररूपणा की गई है । जैसे—प्रथम खण्ड जीवस्थान के प्रारम्भ में सत्प्ररूपणा आदि आठ अनुयोगद्वारों का निर्देश करके तदनुसार ही क्रम से जीवों के सत्त्व और द्रव्यप्रमाण आदि की प्ररूपणा की गई है। ओघ-आदेश उन अनुयोगद्वारों में भी जो क्रमशः प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा की गई है वह ओघ और आदेश के क्रम से की गई है। ओघ का अर्थ सामान्य या अभेद तथा आदेश का अर्थ विशेष अथवा भेद रहा है।' अभिप्राय यह है कि विवक्षित विषय का विचार वहाँ प्रथमतः सामान्य से—गति-इन्द्रिय आदि की विशेषता से रहित मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थानों के आधार से-और तत्पश्चात् आदेश से-गति-इन्द्रिय आदि अवस्थाभेद के आश्रय से-प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा की गई है। इस प्रकार से यह प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा का क्रम इतना सुव्यवस्थित, क्रमबद्ध और संगत रहा है कि यदि लिपिकार की असावधानी से कहीं कोई शब्द या वाक्य आदि लिखने से रह गया है तो वह पूर्वापर प्रसंगों के आश्रय से सहज ही पकड़ में आ जाता है। उदाहरण के रूप में, सत्प्ररूपणा (पु० १) के अन्तर्गत सूत्र ६३ में नागरी लिपि में लिखित कुछ प्रतियों में मनुष्यणियों से सम्बद्ध प्रमत्तादि संयत गुणस्थानों का बोधक 'संजद' शब्द लिखने से रह गया था। उसके सम्पादन के समय जब उस पर ध्यान गया तो आगे के द्रव्यप्रमाणानुगम आदि अन्य अनुयोगद्वारों में उन मनुष्यणियों के प्रसंग में यथास्थान उस 'संजद' शब्द के अस्तित्व को देखकर यह निश्चित प्रतीत हुआ कि यहाँ वह 'संजद' शब्द लिखने से रह गया है। बाद में मुडबिद्री में सुरक्षित कानड़ी लिपि में ताड़पत्रों पर लिखित प्रतियों से उसका मिलान कराने से उसकी पुष्टि भी हो गई। चूलिका सूत्रों में निर्दिष्ट और उनके द्वारा सूचित तत्त्व की प्ररूपणा यदि उन अनुयोगद्वारों में १. ओधेन सामान्येनाभेदेन प्ररूपणमेकः, अपरः आदेशेन भेदेन विशेषेण प्ररूपणमिति । -धवला पु०१, पृ० १६० २. देखिए सूत्र १,१,८-६ (पु० १); सूत्र १,२,१-२ (पु० ३); सूत्र १,३,१-२, स्त्र १,४, १-२ व सूत्र १,५, १-२ (पु० ४); सूत्र १,६,१-२, सूत्र १,७,१-२ व सूत्र १, ८, १-२ (पु० ५)। ३. विशेष जानकारी के लिए देखिए पु० ७ की प्रस्तावना पृ० १-४ विवेचन-पद्धति | ३५ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांगोपांग कही नहीं की जा सकी है तो उसकी पूर्ति के लिए अन्त में आवश्यकतानुसार चुलिका नामक प्रकरण योजित किये गये हैं। सुत्रसूचित अर्थ को प्रकाशित करना, यह उन चूलिका प्रकरणों का प्रयोजन रहा है। यथा ---- १. जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों के समाप्त हो जाने पर अन्त में चूलिका प्रकरण को योजित किया गया है। उसमें नौ चुलिकायें हैं।२। २. द्वितीय खण्ड 'खुद्दाबंध' के अन्त में 'महादण्डक' नाम का प्रकरण है। उसे धवलाकार ने 'चूलिका' कहा है। ३. वेदनाद्रव्यविधान में पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों के अन्त में 'चूलिका' को योजित किया गया है । ४. वेदनाकालविधान में आवश्यकतानुसार दो चलिकाओं को योजित किया गया है। ५. वेदनाभावविधान में प्रसंगानुसार तीन चूलिकायें जोड़ी गई हैं। ६. बन्धन अनुयोगद्वार में भी एक चूलिका योजित की गई है।" निक्षेप व नय प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा प्रसंगानुरूप संगत व आगमाविरुद्ध हो, इसके लिए प्राचीन आगमव्याख्यान की पद्धति में निक्षेप व नयों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है । कारण यह है कि एक ही शब्द के अनेक अर्थ सम्भव हैं। प्रकृत में उनमें उसका कौन-सा अर्थ अभिप्रेत है, यह निक्षेप विधि से ही हो सकता है। उदाहरण के रूप में, किसी का नाम यदि पार्श्वनाथ है तो यह जान लेना आवश्यक है कि वह नाम से ही 'पार्श्वनाथ' है, स्थापना या भाव से पार्श्वनाथ नहीं है । अन्यथा जिसे वैसा ज्ञान नहीं है वह अविवेकी उसकी पूजा-वन्दनादि में भी प्रवृत्त हो सकता है। किन्तु जो यह समझ चुका है कि वह केवल नाम से पार्श्वनाथ है, न तो उसमें पार्श्वनाथ की स्थापना की गई है और न वह भाव से (साक्षात्) पार्श्वनाथ है, वह उसकी वन्दनादि में प्रवृत्त नहीं होता। प्रस्तुत षट्खण्डागम में आवश्यकतानुसार सर्वत्र प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा करते हुए प्रथमत: विवक्षित विषय के सम्बन्ध में निक्षेपों की प्ररूपणा की गई है व प्रसंगप्राप्त विषय को प्रकरण के अनुरूप स्पष्ट किया गया है । १. सुत्तसूइदत्थपयासणं चूलियाणाम । धवला पु० १०, पृ० ३६५ (पु० ६, पृ० २; पु० ७, पृ० ५७५; पु० ११, पृ० १४०; पु० १२, पृ० ८८ और पु० १४, पृ० ४६६ भी द्रष्टव्य हैं) २. ये सब चूलिकायें ष० ख० पु. ६ में देखी जा सकती हैं। ३. समत्तेसु एक्कारसअणियोगद्दारेसु किमट्ठमेसो महादंडओ वोत्तुमाढत्तओ? वुच्चदे---खुद्दा. बंधस्स एक्कारसअणिओगद्दारणिबद्धस्स चूलियं काऊण महादंडओ वुच्चदे । ---धवला पु० ७, पृ० ५७५ ८. देखिए ष० खं० पु. १०, पृ० ३६५ ५. वही, पु० ११, पृ० १४० व ३०८ .. वही, पु० १२, पृ० ७८,८७ व २४१ ७. वही, पु० १४, पृ० ४६६ ३६ / षट्खण्डागम-परिश Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरणस्वरूप कृति-अनुयोगद्वार को ले लीजिये । वहाँ सर्वप्रथम नाम-स्थापनादि के भेद से 'कृति' को सात प्रकार कहा गया है (सूत्र ४,१,४६) । आगे इन सबके स्वरूप को प्रकट करते हए अन्त में (४,१,७६) यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इनमें यहाँ गणनाकृति प्रकृत है। ____ यही अवस्था नय की भी है। एक ही वस्तु में एक-अनेक, सत्-असत् और नित्य-अनित्य आदि परस्पर विरुद्ध दिखनेवाले अनेक धर्म रहते हैं। उनकी संगति नय-प्रक्रिया के जाने बिना नहीं बैठायी जा सकती है । इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य समन्तभद्र सुमति जिन की प्रस्तुति में कहते हैं कि हे भगवन् ! वही तत्त्व अनेक भी है और एक भी है, यह उसमें भेद का और अन्वय का जो ज्ञान होता है उससे सिद्ध है। उदाहरणार्थ, मनुष्यों में यह देवदत्त है, इस प्रकार जो भिन्नता का बोध होता है उससे उनमें कथंचित् अनेकता सिद्ध है। साथ ही उनमें यह देवदत्त भी मनुष्य है और यह जिनदत्त भी मनुष्य है, इस प्रकार जो उनमें अन्वय रूप बोध होता है उससे उनमें मनुष्य जाति सामान्य की अपेक्षा कथंचित् एकरूपता भी सिद्ध है। यदि इन दोनों में से किसी एक का लोप किया जाता है तो दूसरा भी विनष्ट हो जाता है । तब वैसी स्थिति में वस्तुव्यवस्था ही भंग हो जाती है । इसी प्रकार से सत्त्वअसत्त्व और नित्य-अनित्य आदि परस्पर विरुद्ध दिखनेवाले अन्य धर्मों में भी नयविवक्षा से समन्वय होता है।' यह आवश्यक है कि इस व्यवस्था में मुख्यता और गौणता अपेक्षित है। अर्थात् यदि विशेष मुख्य और सामान्य गौण है तो इस दृष्टि से तत्त्व की अनेकता सिद्ध है । इसके विपरीत यदि सामान्य मुख्य और विशेष गौण है तो इस अपेक्षा से वही तत्त्व कथंचित् एक भी है। इस प्रकार वस्तु-व्यवस्था के लिए नयविवक्षा की अनिवार्यता सिद्ध होती है। तदनुसार प्रस्तुत षट्खण्डागम में विवक्षित विषय का विचार उस नयविवक्षा के आश्रय से किया गया है । उदाहरणार्थ, उसी कृति अनुयोगद्वार में उक्त सात कृतियों में कौन नय किन कृतियों को स्वीकार करता है, ऐसा प्रश्न उठाते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि नैगम, संग्रह और व्यवहार उन सभी कृतियों को विषय करते हैं। किन्तु ऋजुसूत्र स्थापनाकृति को विषय नहीं करता तथा शब्दादिक नय नामकृति और भावकृति को स्वीकार नहीं करते। इसके लिए वहाँ कहीं-कहीं 'नयविभाषणता' नामक एक स्वतन्त्र अनुयोगद्वार भी रहा है। सूत्र-रचना षट्खण्डागम का अधिकांश भाग गद्यात्मक सूत्रों में रचा गया है। फिर भी उसमें कुछ १. अनेक मेकं च तदेव तत्त्वं भेदान्वयज्ञानमिदं हि सत्यम । ___ मृषोपचारोऽन्यतरस्यलोपे तच्छेषलोपोऽपि ततोऽनुपाख्यम् ।।-स्वयंभू० २२ २. विधिनिषेधश्च कथंचिदिष्टौ विवक्षया मुख्य-गुणव्यवस्था । - इति प्रणीतिः सुमतेस्तवेयं मतिप्रवेकः स्तुवतोऽस्तु नाथ ।।--स्वयंभू० २५ ३. देखिए सूत्र ४,१,४७-५० (पु० ६) ४. देखिए सूत्र ४,१,४७ (पु०६), सूत्र ४,२,२,१ (पु० १०), सूत्र ५,३,५ (पु० १३) और सूत्र ५,४,५ (पु० १३) इत्यादि । विवेचन-पद्धति / ३७ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथात्मक सूत्र भी उपलब्ध होते हैं। ये गाथात्मक सूत्र चतुर्थ वेदनाखण्ड में ८ और पांचवें वर्गणाखण्ड में २८, इस प्रकार सब ३६ हैं । चूर्णिसूत्र जिस प्रकार आचार्य गुणधर विरचित कषायप्राभृत में कहीं-कहीं पूर्व में मूलगाथा सूत्र और तत्पश्चात् उनके विवरणस्वरूप भाष्य गाथाएँ रची गई हैं। उसी प्रकार प्रस्तुत षट्खण्डागम में कहीं पर संक्षेप में प्रतिपाद्य विषय के सूचक मूल गाथासूत्र को रचकर तत्पश्चात् ग्रन्थकार द्वारा उसके विवरण में आवश्यकतानुसार कुछ गद्यात्मक सूत्र भी रचे गये हैं। जैसे__ वेदनाभावविधान अनुयोगद्वार में प्रथमतः उत्तरप्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागविषयक अल्पबहुत्व की संकेतात्मक शब्दों में संक्षेप में प्ररूपणा करनेवाले तीन गाथा-सूत्रों को रचकर तत्पश्चात् उनके जघन्य अनुभागविषयक अल्पब हुत्व के प्ररूपक अन्य तीन गाथा-सूत्र रचे गये हैं। उनमें प्रथम तीन गाथागत गूढ़ अर्थ के स्पष्टीकरण में "एत्तो उक्कस्सओ चउसट्ठिपदियो महावंडओ कायव्वो भवदि (सूत्र ६५)" ऐसी सूचना करते हुए ५२ (६६-११७) गद्यात्मक सूत्र रचे गये हैं ! पश्चात् आगे के उन तीन गाथा-सूत्रों के स्पष्टीकरण में "एत्तो जहण्णओ चउसपिदियो महादंडओ कायन्वो भवदि (११८)" ऐसा निर्देश करते हुए ५६ (११६-७४) सूत्रों को रचकर उनके आश्रय से उन तीन (४-६) गाथाओं के दुरूह अर्थ को स्पष्ट किया गया है। उन विवरणामक गद्य-सूत्रों की आवश्यकता इसलिए समझी गई कि उक्त गाथासूत्रों में नामके आद्य अक्षरों के द्वारा जिन प्रकृति विशेषों का उल्लेख किया गया है उनका विशेष स्पष्टीकरण करने के बिना सर्वसाधारण को बाध नहीं हो सकता था । जैसे----'दे' से देवगति व 'क' से कार्मण शरीर आदि। इन विवरणात्मक सूत्रों को धवलाकारने 'चूणिसूत्र' कहा है।' आगे इसी वेदनाभावविधान की प्रथम चूलिका के प्रारम्भ में “सम्मत्तुप्पत्ती वि य" आदि दो गाथासूत्र हैं, जिनके द्वारा ग्यारह गुणश्रेणियों रूप प्रदेशनिर्जरा और उसमें लगनेवाले काल के क्रम की सूचना की गई है। ___ इसके पूर्व इन दोनों गाथाओं को धवलाकार द्वारा वेदनाद्रव्यविधान में गाथासूत्र के रूप में उद्धृत किया जा चुका है। १. जैसे १५वें 'चारित्रमोहक्षपणा' अधिकार में मूल गाथासूत्र ७ और उनकी भाष्य गाथा में क्रम से ५,११,४,३,३,१ और ४ हैं । देखिए क० पा० सुत्त परिशिष्ट १, पृ० ६१५ १८ (गा० १२४-१६१) २. देखिए धवला पु० १२, पृ ४०-७५ ३. क-तदणणुवृत्ती वि कुदो णव्वदे? एदस्स गाहासुत्तस्स विवरणभावेण रचिद उवरिम चुण्णिसुत्तादो ।-पु० १२, पृ० ४१ ख-कधं सव्वमिदं णव्वदे ? उवरि भण्णमाणचुण्णिसुत्तादो।-पु० १२, पृ० ४२-४३ ग-कधं समाणत्तं णव्वदे ? उवरि भण्णमाणचुण्णिसुत्तादो।-धवला पु० १२, पृ० ४३ ४. धवला पु० १०, पृ० २८२ ३८ / बट्खण्डागम-परिशीलन Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन दोनों गाथासूत्रों के अभिप्राय को अन्तहित करनेवाला एक सूत्र तत्त्वार्थसत्र में भी ध्यान के प्रसंग में प्राप्त होता है। विशेषता उसमें यह है कि दूसरे गाथास्त्र के उत्तरार्ध में जो निर्जरा के कालक्रम का भी निर्देश किया गया है वह उस तत्त्वार्थसूत्र में नहीं किया गया है। इन गाथासूत्रों की व्याख्या में धवलाकार ने जहाँ ग्यारह गुणश्रेणियों की सूचना की है वहाँ तत्त्वार्थस्त्र के वृत्तिकार आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में असंख्येयगुण निर्जरा में व्यापत उन सम्यग्दृष्टि आदि दस की ही सूचना की है। वहाँ सूत्र में सामान्य से निर्दिष्ट 'जिन' में कोई भेद नहीं किया गया। फिर भी षट्खण्डागम के कर्ता आचार्य भूतबलि ने स्वयं उन गाथासूत्रों के विवरण में 'जिन' के इन दो भेदों का निर्देश किया है.-अधःप्रवृत्त केवलीसंयत और योगनिरोध केवलीसंयत ।' ये दोनों गाथाएँ शिवशर्मसूरि विरचित कर्मप्रकृति में भी उपलब्ध होती हैं। वहाँ दूसरी गाथा के पूर्वार्ध में जिणे य दुविहे ऐसा निर्देश किया गया है । कर्मप्रकृति में उन गाथाओं की व्याख्या करते हुए आचार्य मलयगिरि ने ग्यारह गुणश्रेणियों का उल्लेख किया है। उन्होंने वहाँ दसवीं गुणश्रेणि सयोगकेवली के और ग्यारहवीं अयोगकेवली के बतलायी है। उपर्युक्त दो गाथासूत्रों में जिस गुणश्रेणिनिर्जरा और उसके काल का संक्षेप में निर्देश किया गया है उसका स्पष्टीकरण स्वयं सूत्रकार आ० भूतबलि ने आगे २२ गद्यसूत्रों (१७५. ६६) द्वारा किया है । इन गद्यसूत्रों को भी पूर्वोक्त धवलाकारके अभिप्रायानुसार चूणिसूत्र ही समझना चाहिए। विभाषा कहीं पर संक्षेप में प्ररूपित दुरवबोध विषय का स्पष्टीकरण स्वयं मूलग्रन्थकार द्वारा 'विभाषा' ऐसी सूचना के साथ भी किया गया है। सूत्र से सूचित अर्थ के विशेषतापूर्वक विवरण को विभाषा कहते हैं । वह प्ररूपणा-विभाषा और सूत्र-विभाषा के भेद से दो प्रकार की है। सूत्र-पदों का उच्चारण न करके सूत्रसूचित समस्त अर्थ की जो विस्तारपूर्वक प्ररूपणा की जाती है उसका नाम प्ररूपणाविभाषा है । गाथासूत्रों के अवयवस्वरूप पदों के अर्थ का परामर्श करते हुए जो सूत्र का स्पर्श किया जाता है उसे सूत्र-विभाषा कहा जाता है। १. सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरतानन्तवियोजक-दर्शनमोहक्षपकोपशमोपशान्तमोह-क्षपक-क्षीणमोह जिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः । त० सू०-४५ २. सूत्र ४,२,७,१८४-८७ (पु० १२, पृ० ८४-८५) ३. क० प्र० उदय गाथा ८-६ । ४. विविहा भासा विहासा, परूवणा णिरूवणा वक्खाणमिदि एयट्ठो ।-धवला पु० ६, पृ० ५ ५. सुत्तेण सूचिदत्थस्स विसेसियूण भासा विहासा विवरणं ति वुत्त होदि । विहासा दुविहा होदि-परूवणाविहासा सुत्तविहासा चेदि । तत्थ परूवणाविहासा णाम सुत्तपदाणि अणुच्चारिय सुत्तसूचिदासेसत्थस्स वित्थरपरूवणा। सुत्तविहासा णाम गाहामुत्ताणमवयवत्थपरामरसमुहेण सुत्तफासो ।-जयध० (क० पा० सुत्त प्रस्तावना पृ० २२) विवेचन-पद्धति | ३३ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस विभाषा को स्पष्ट करने के लिए प्रकृत में जीवस्थान- चूलिका का उदाहरण उपयुक्त है । वहाँ नौ चूलिकाओं में से प्रथम चूलिका के प्रारम्भ में एक पृच्छासूत्र प्राप्त होता है, जिसमें ये पृच्छायें निहित हैं—- प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव कितनी और किन प्रकृतियों को बाँधता है, कितने काल की स्थितिवाले कर्मों के निमित्त से जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता करता है, अथवा नहीं प्राप्त करता है, कितने काल के द्वारा मिथ्यात्व के कितने भागों को करता है, उपशामना व क्षपणा किन क्षेत्रों में, किसके मूल में व कितने दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय करनेवाले और सम्पूर्ण चारित्र को प्राप्त करनेवाले के होती है (सूत्र १, ६ १, १ ) । इन पृच्छाओं की विभाषा - प्ररूपणा या व्याख्या - में स्वयं सूत्रकार द्वारा नौ चूलिकाओं की प्ररूपणा की गई है । " जैसा कि ऊपर कषायप्राभृत के उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा चुका है, आगमग्रन्थों के रचयिताओं की यह पद्धति रही है कि वे प्रथमतः पृच्छासूत्र के रूप में, चाहे वह गाथात्मक हो या गद्यात्मक हो, वर्णनीय विषय की संक्षेप में सूचना करते थे । तत्पश्चात् आगे वे भाष्यगाथाओं या गद्यात्मक सूत्रों द्वारा उसका विस्तारपूर्वक विशेष व्याख्यान किया करते थे । यह पूर्वोल्लिखित पृच्छासूत्र के आधार से निर्मित उन नौ चूलिकाओं की रचना से स्पष्ट हो चुका है । इसके पूर्व भी उसे 'प्रश्नोत्तरशैली' शीर्षक में स्पष्ट किया जा चुका है । कुछ निश्चित शब्दों का प्रयोग आगमग्रन्थों की रचना-पद्धति अथवा उनके व्याख्यान की यह एक पद्धति रही है कि उसमें यथाप्रसंग कुछ नियमित विशिष्ट शब्दों का उपयोग होता रहा है । जैसे— जीवसमास- साधारणतः इस शब्द का उपयोग बादर-सूक्ष्म व पर्याप्त अपर्याप्त एकेन्द्रियादि चौदह जीवभेदों के प्रसंग में किया गया है।" किन्तु प्रस्तुत षट्खण्डागम में उसका उपयोग चौदह गुणस्थानों के अर्थ में किया गया है, यह धवला से स्पष्ट है स्वयं सूत्रकार आचार्य भूतबलि ने भी आगे 'बन्धस्वामित्वविचय' के प्रसंग में पूर्व में ( सूत्र ३ - ३) मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों का नाम निर्देश करते हुए अनन्तर 'एदेसि चोद्दसहं जीवसमासाणं पयडिवोच्छेदो कादव्वो भवदि' ( सूत्र ३-४ ) ऐसा कहकर उन चौदह गुणस्थानों का उल्लेख 'जीवसमास' के नाम से किया है और तदनुसार ही आगे क्रम से उन मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों में कृत प्रतिज्ञा के अनुसार कर्मप्रकृतियों के बन्धव्युच्छेद की प्ररूपणा की है । * १. इसके लिए देखिए धवला पु० ६, पृ० २-४ (विशेषकर पृ० ४ ) २. मूलाचार (१२,१५२-५३ ) में बादर - सूक्ष्म एकेन्द्रियादि १४ जीवभेदों का उल्लेख तो किया गया पर 'जीवसमास' शब्द व्यवहृत नहीं हुआ, वृत्तिकार ने उन्हें 'जीवसमास' ही कहा है । (गो० जीवकाण्ड गाथा ७०-१११ भी द्रष्टव्य हैं ) । ति० प० के प्रायः सभी महाधिकारों में उन १४ जीवभेदों को लक्ष्य करके यथाप्रसंग उस 'जीवसमास' शब्द का व्यवहार हुआ है । ३. जीवाः समस्यन्ते एष्विति जीवसमासाः । तेषां चतुर्दशानां जीवसमासानाम्, चतुर्दशगुण स्थानानामित्यर्थः । धवला पु० १, पृ० १३१ ४. ष० खं०, पु० ८, पृ० ४-५ ४० / षट्खण्डागम - परिशीलन Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषमदेव केशरीमल श्वे० संस्था रतलाम से प्रकाशित 'जीवसमास' ग्रन्थ में मिथ्यादष्टि आदि चौदह गुणस्थानों का उल्लेख 'जीवसमास' नाम से किया गया है (गाथा ८-६)। संयतविशेष-आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थानवर्ती संयतों का उल्लेख सर्वत्र क्रम से अपूर्वकरण-प्रविष्ट-शुद्धिसंयत, अनिवृत्तिबादर-साम्पराय-प्रविष्ट-शुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायिकप्रविष्टशुद्धिसंयत इन नामों से किया गया है।' ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों के लिए क्रम से उपशान्तकषाय-वीतराग-छद्मस्थ और क्षीणकषायवीतराग-छद्मस्थ इन नामों का निर्देश किया गया है। तीर्थकर-नाम-गोत्रकर्म ---तीर्थकर नामकर्म का उल्लेख 'तीर्थकर-नाम-गोत्रकर्म' के रूप में भी किया गया है। इसके विषय में धवला में यह शंका उठायी गई है कि नामकर्म के अवयवभूत तीर्थकर प्रकृति का निर्देश 'गोत्र' के नाम से क्यों किया गया । उसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि उच्चगोत्र का अविनाभावी होने से उस तीर्थकर प्रकृति के गोत्रता सिद्ध है। उतितसमान-इस शब्द का अर्थ विवक्षित पर्याय को समाप्त कर अन्यत्र उत्पन्न होना है । यद्यपि धवला में इसका अर्थ स्पष्ट नहीं किया गया है, फिर भी मूलाचार की आ० वसुनन्दी विरचित वृत्ति में उसका वैसा अर्थ किया गया है। षट्खण्डागम में इस शब्द का उपयोग केवल नरकगति में वर्तमान नारकियों के अन्य गति में आते समय किया गया है। आगति-यद्यपि प्रसंग प्राप्त गति-आगति' चूलिका में धवलाकार ने इस शब्द के अर्थ को स्पष्ट नहीं किया है, किन्तु आगे 'प्रकृति अनयोगद्वार' में मनःपर्ययज्ञान के विषय के प्रसंग में सूत्रकार द्वारा व्यवहृत उस शब्द को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि अन्य गति से इच्छित गति में आने का नाम आगति है। इस शब्द का उपयोग केवल नारकियों और देवों के उस गति से तियंचगति व मनुष्यगति में आते समय किया गया है। कालगतसमान---इस शब्द का अर्थ धवलाकार ने 'विनष्ट होते हुए' किया है। इसका उपयोग केवल तिथंचगति में वर्तमान तिर्यचों और मनुष्यगति में वर्तमान मनुष्यों के लिए अन्य १. उदाहरण के रूप में देखिए सूत्र १,१,१६-१८ (पु० १, पृ० १७६-८७) २. उदाहरणस्वरूप देखिए १,१,१६-२० (पु० १) ३. सूत्र ३,३६-४२ (पु०८) ४. कधं तित्थयरस्स णामकम्मावयवस्स गोदसण्णा ? ण, उच्चागोदबंधाविणाभावित्तणेण तित्थ___ यरस्स वि गोदत्तसिद्धीदो।-धवला पु० ८ पृ०७६ ५. उद्वर्तनम् अस्मादन्यत्रोत्पत्तिः । -- मूला० वृत्ति १२-३ ६. देखिए सूत्र १,६-६,७६ व ८७,६३,२०३,२०६,२०६,२१३,२१७ ७. अण्णगदीदो इच्छिदगदीए आगमणमागदी णाम । -धवला पु० १३, पृ० ३४६ ८. नारकियों के लिए सत्र १,६-६,७६-८५ व ८७-६१ आदि तथा देवों के लिए सूत्र १,६-६, १७३-८३ व १८५-८६ आदि । ६. कालगदसमाणा विणवा संत्ता त्ति घेत्तत्वं । -पु. ६, पृ० ४५४ विषेचन-पतति / ४१ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गति में जाते समय किया गया है।' गति-इच्छित गति से अन्य गति में जाने का नाम गति है। इसका उपयोग केवल तियंचों और मनुष्यों के लिए अपनी-अपनी गति से अन्य गति में जाते समय किया गया है।' . उर्तितच्युतसमान-- 'उर्तित' का अर्थ मूलाचारवृत्ति के अनुसार पूर्व में निर्दिष्ट किया जा चुका है । सौधर्म इन्द्र आदि देवों का जो अपनी सम्पत्ति से वियोग होता है उसका नाम चयन है। इसका उपयोग भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ऐशान कल्पवासी देवों के लिए उस गति से निकलकर अन्यत्र उत्पन्न होने के समय किया गया है। च्युतसमान-'चयन' का अर्थ ऊपर निर्दिष्ट किया जा चुका है। इसका उपयोग केवल सनत्कुमारादि ऊपर के विमानवासी देवों के लिए उस पर्याय को छोड़कर अन्यत्र उत्पन्न होते समय किया गया है। अनेक शब्दों का उपयोग कहीं-कहीं पर प्रशंसा के रूप में प्रायः एक ही अभिप्राय के पोषक अनेक शब्दों का उपयोग किया गया है । जैसे १. तीर्थकर नामकर्म के उदय से जीव अर्चनीय, पूजनीय, वन्दनीय, नमस्करणीय, नेता और धर्मतीर्थ का कर्ता होता है । सामान्य से समानार्थक होने पर धवलाकार ने उनका पृथक्पृथक् विशिष्ट अर्थ भी किया है। २. कोई अन्तकृत् होकर सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं, और सब दुःखों के अन्त को प्राप्त होते हैं । धवलाकार ने 'बुद्धयन्ते', 'मुच्चंति', 'परिनिर्वान्ति' और 'सर्वदुःखानामन्तं परिविजानन्ति' इन पदों की सफलता क्रम से कपिल, नैयायिक-वैशेषिक-सांख्य-मीमांसक, तार्किक और पुनः तार्किक इनके अभिमत के निराकरण में प्रकट को है। शब्दों की पुनरावृत्ति सूत्रों में कहीं-कहीं एक ही शब्द का दो-तीन बार प्रयोग किया गया है। जैसे १. देखिए तिर्यचों के लिए सूत्र १,६-६,१०१ व आगे १०७, ११२,११५,११८,१३१,१३४ १३८; मनुष्यों के लिए सूत्र १,६-६,१४१ व आगे १४७,१५०,१६३,१६६,१७० २. इच्छिदगदीदो अण्णगदिगमणं गदी णाम ।--धवला पृ० १३, प०३४६ ३. देखिए तिर्यचों के लिए सूत्र १,६-६,१०१-२६ व १३१-४० ४. सोहम्मिंदादिदेवाणं सगसंपयादो विरहो चयणं णाम ।-धवला पु० १३, पृ० १४६-४७ ५. देखिए सूत्र १,६-६, १७३ व आगे १८५,१६० ६. देखिए सूत्र १,६-६,१६१, १६२,१६८ ७. सूत्र ३-४२ व उसकी धवला टीका द्रष्टव्य है। --पु० ८, पृ० ६१-६२ ८. देखिए सूत्र १,६-६,२१६ व आगे २२०,२२६,२३३,२४०,२४३ (पु. ६) ६. धवला पु० ६, पृ० ४६०-६१ ४२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. तिरिक्खा "तिरिक्खेहि' कालगदसमाणा कदिगदीओ गच्छंति (सूत्र १, ६-६, १०१) । यहाँ धवलाकार द्वारा स्पष्ट किया गया है कि औपचारिक तिर्यंचों के प्रतिषेध के द्वितीय 'तिर्यंच' पद को ग्रहण किया गया है। 'तिरिक्खेहि' का अर्थ 'तिर्यंच पर्यायों से' किया गया है। २. अधो सत्तमा पुढवीए णेरइया णिरयादो णेरइया उच्चट्टिदसमाणा कदि गदीओ गच्छति ? (सूत्र १, ६-६, २०३ ) । धवला में यहाँ यद्यपि इस शब्द पुनरावृत्ति का कुछ स्पष्टीकरण नहीं किया गया । पर आगे जाकर सूत्र २०६ में पुनः इसी प्रकार का प्रसंग प्राप्त होने पर उसका स्पष्टीकरण उन्होंने इस प्रकार किया है- 'तिरिक्खा एत्थ 'छडी पुढवीए णेरइया उव्वट्टिदसमाणा कदि गदीओ आगच्छंति' त्ति वत्तव्वं, ण 'णिरयादो रया' त्ति, तस्स फलाभावा ? ण एस दोसो, छट्ठीए पुढवीए रइया णिरयादोरियज्जायादो, उन्बट्टिदसमाणा - विगडा संता, णेरइया - दव्वट्ठियणयावलंबणेण णेरइया होदूण, कदि गदीओ आगच्छति त्ति तदुच्चारणाए फलोवलंभा (पु० ६, पृ० ४८५-८६) । ३. इसके पूर्व यहीं पर 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' चूलिका में क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के प्रसंग में प्राप्त सूत्र ११४ में जिन, केवली जौर तीर्थंकर इन तीन शब्दों का उपयोग किया गया है । इनमें जिन व केवली शब्द प्रायः समानार्थक हैं, फिर भी उनका जो पृथक्-पृथक् उपयोग किया गया है उनकी सफलता का स्पष्टीकरण धवला में कर दिया गया है।" १. ओवयारियतिरिक्खपडिसे बिदियतिरित्रखगणं । तिरिक्खेहि तिरिक्खपज्जाएहि । - धवला पु० ६, पृ० ४५४ २. देखिये पु० ६, पृ० २४३-४७ विवेचन-पद्धति / ४३ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलग्रन्थागत विषय का परिचय प्रथम खण्ड : जीवस्थान जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, प्रस्तुत षट्खण्डागम जीवस्थान, क्षुद्रकबन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, वेदना, वर्गणा और महाबन्ध इन छह खण्डों में विभक्त है। उनमें जो प्रथम खण्ड जीवस्थान है उसमें ये आठ अनुयोगद्वार हैं --१. सत्प्ररूपणा, २. द्रव्यप्रमाणानुगम, ३. क्षेत्रानुगम, ४. स्पर्शनानुगम, ५. कालानुगम, ६. अन्तरानुगम, ७. भावानुगम और ८. अल्पबहुत्वानुगम । इनका यहाँ क्रम से विषयपरिचय कराया जा रहा है -- १. सत्प्ररूपणा यह पीछे 'ग्रन्थनाम' शीर्षक में स्पष्ट किया जा चुका है कि मूल ग्रन्थ में कहीं कोई खण्डविभाग नहीं किया गया है। प्रकृत में जो छह खण्डों का विभाग किया गया है वह धवला टीका और इन्द्रनन्दि श्रुतावतार के आधार से किया गया है। सर्वप्रथम यहाँ ‘णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं' आदि पंचनमस्कारात्मक मंगलगाथा के द्वारा-जिसे अनादि मूलमन्त्र माना जाता है—अदादि पाँच परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है । तत्पश्चात् दूसरे सूत्र के द्वारा चौदह जीवसमासों के मार्गणार्थ-चौदह गुणस्थानों के अन्वेषणार्थ ----चौदह मार्गणाओं को जान लेने योग्य कहा गया है। जैसा कि धवला में स्पष्ट किया गया है इस सूत्र में उपर्युक्त 'जीवसमास' से यहाँ मिथ्यात्वादि चौदह गुणस्थान अभिप्रेत हैं। सूत्र में जिन मार्गणास्थानों को ज्ञातव्य कहा गया है वे चौदह मार्गणास्थान कौन हैं, इसे आगे के सूत्र द्वारा स्पष्ट करते हुए उनके नामों का उल्लेख इस प्रकार किया गया है-गति, न्द्रिय, काय.योग, वेद, कषाय. ज्ञान. संयम, दर्शन. लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार (सूत्र ४)। तत्पश्चात् पूर्वनिर्दिष्ट चौदह जीवसमासों की प्ररूपणा के निमित्तभूत उपर्युक्त सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोग द्वारों को ज्ञातव्य कहा गया है (५-७) । इन भूमिका स्वरूप सात सूत्रों को सम्मिलित कर प्रकृत सत्प्ररूपणा अनुयोग द्वार में सब सूत्र १७७ हैं। ___'सत्प्ररूपणा' में सत् का अर्थ अस्तित्व और प्ररूपणा का अर्थ प्रज्ञापन है । इस प्रकार इस सत्प्ररूपणा अनुयोग के आश्रय से गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में जीवों के अस्तित्व का परिज्ञान कराया गया है। वह प्रथमतः ओघ, अर्थात् सामान्य या मार्गणा निरपेक्ष केवल गुणस्थानों के आधार से, और तत्पश्चात् आदेश से, अर्थात् गति-इन्द्रिय आदि मार्गणाओं की विशेषता के साथ कराया गया है। ओघ से जैसे-मिथ्यादृष्टि है, सासादन सम्यग्दृष्टि है, Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साग्मध्यादृष्टि है, इत्यादिक विशेष रूप से यहाँ अपूर्वकरणप्रविष्टशुद्धिसंयतों, अनिवृत्तिबादर-साम्परायिकप्रविष्टशुद्धिसंयतों और सूक्ष्मसाम्परायिकप्रविष्टशुद्धिसंयतों इन तीन (८, ६, १०) गुणस्थानों में उपशम श्रेणि की अपेक्षा उपशमकों के और क्षपकश्रेणि की अपेक्षा क्षपकों के भी अस्तित्व को प्रकट किया गया है। (८-२२)। इस प्रकार सामान्य से चौदह गुणस्थानवी जीवों के अस्तित्व को दिखाकर तत्पश्चात् गुणस्थानातीत सिद्धों के भी अस्तित्व को प्रकट किया गया है (२३)। १. गतिमार्गणा-ओघप्ररूपणा के पश्चात् आदेश प्ररूपणा को प्रारम्भ करते हुए चौदह मार्गणाओं में प्रथम गति मार्गणा का आश्रय लेकर उसके ये पाँच भेद निर्दिष्ट किये गये हैंनरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति और सिद्धगति । इनमें से नारकियों के मिथ्या दृष्टि आदि चार, तिर्यंचों के मिथ्यादृष्टि आदि पाँच, मनुष्यों के मिथ्यादष्टि आदि चौदहों और देवों के मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानों के अस्तित्व को प्रकट किया गया है (२४-२८)। इस प्रसंग में आगे कुछ विशेषता प्रकट करते हुए एकेन्द्रियों से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त तियंचों को शुद्ध तिर्यंच और संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत पर्यन्त मिश्र कहा गया है। इसका अभिप्राय यह है कि एकेन्द्रियादि असंज्ञी पर्यन्त सब जीव एकमात्र तियंचगति में होते हैं, इसीलिए उन्हें शुद्ध तिर्यंच कहा गया है। पर आगे के वे संज्ञी पंचेन्द्रियादि संयतासंयत पर्यन्त प्रथम चार गुणस्थानों की अपेक्षा शेष तीन गतियों के जीवों से तथा संयतासंयत गुणस्थानवर्ती वे इस गुणस्थान की अपेक्षा मनुष्यों से समानता रखते हैं, इसीलिए उन्हें मिश्र कहा गया है । यही अभिप्राय आगे मिश्र और शुद्ध मनुष्यों के कहने में भी समझना चाहिए (२६-३२)। २. इन्द्रिय-दूसरी इन्द्रिय मार्गणा के प्रसग में प्रथमतः एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय (इन्द्रियातीत सिद्ध) इन इन्द्रियों की अपेक्षा पाँच जीवभेदों का उल्लेख करके तत्पश्चात् पंचेन्द्रिय पर्यन्त उन एकेन्द्रियादि जीवों के यथाक्रम से भेदप्रभेदों का निर्देश किया गया है (३३-३५) । आगे उनमें सम्भव गुणस्थानों का उल्लेख करते हुए एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पर्यन्त सब के एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के अस्तित्व को प्रकट किया गया है। आगे के सत्र में असंज्ञी पंचेन्द्रिय से लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त सब ही जीव पंचेन्द्रिय होते हैं, यह कहा गया है, जिसका अभिप्राय यह है कि संज्ञी पंचेन्द्रियों में चौदहों गुणस्थान सम्भव हैं (३६-३७) । तत्पश्चात् वहां यह भी स्पष्ट कर दिया है कि उक्त एकेन्द्रियादि पंचेन्द्रिय जीवों से परे सब जीव अनिन्द्रिय-एकेन्द्रियादि जातिभेद से रहित कर्म-कलंकातीत (सिद्ध) होते हैं (३८)। ३. काय-तीसरी कायमार्गणा के प्रसंग में पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक और अकायिक जीवों के अस्तित्व को दिखाकर आगे उनके भेद-प्रभेदों को प्रकट किया गया है। अनन्तर पृथिवीकायिकादि पाँच स्थावर जीवों में एकमात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के सद्भाव को बतलाकर द्वीन्द्रिय से लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त सब जीव त्रसकायिक होते हैं, यह अभिप्राय व्यक्त किया गया है। बादर एकेन्द्रिय से लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त सब जीव बादर होते हैं। इन स्थावर और त्रस जीवों से परे अकायिक शरीर से रहित हुए सिद्ध होते हैं (३६-४६)। मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | ४५ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. योगमार्गणा – यह चौथी मार्गणा है । इसके प्रसंग में प्रथमतः मनोयोगी, वचनयोगी व काययोगी इन तीन सयोगियों और तत्पश्चात् अयोगियों के अस्तित्व को प्रकट करके आगे मनोयोग के ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं--सत्य मनोयोग, मृषा मनोयोग, सत्य- मृषा मनोयोग और असत्य - मृषा मनोयोग । आगे इसमें कौन मनोयोग किस गुणस्थान तक होता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि सामान्य से मनोयोग, सत्य मनोयोग और असत्य - मृषा मनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली पर्यन्त तथा मृषा मनोयोग और सत्य- मृषा मनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय- वीतराग छदमस्थ तक होते हैं (४७-५१) । यहाँ क्षीणकषाय गुणस्थान तक जो मृषा मनोयोग और सत्य - मृषा मनयोग का सद्भाव बतलाया गया है वह विपर्यय और अनध्यवसाय रूप अज्ञान के कारण मन के सद्भाव के कारण बतलाया गया है ।" मनोयोग के समान वचनयोग भी चार प्रकार का - सत्य वचनयोग, मृषा वचनयोग, सत्य-मृषा वचनयोग और असत्य - मृषा वचनयोग । इनमें सामान्य वचनयोग और असत्य मृषा वचनयोग द्वीन्द्रिय से लेकर सयोगिकेवली तक, सत्य वचनयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयौगिकेवली तक तथा मृषा वचनयोग और सत्यमृषा वचनयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय- वीतराग छद्मस्थ तक होते हैं (५२-५५) । मृषा और सत्यमृषा वचनयोगों का सद्भाव जो क्षीणकषाय गुणस्थान तक निर्दिष्ट किया गया है वह असत्य वचनयोग के कारणभूत अज्ञान के विद्यमान रहने के कारण निर्दिष्ट किया गया है । " काययोग औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण के भेद से सात प्रकार का है। इनमें औदारिक और औदारिकमिश्र काययोग तिर्यंच व मनुष्यों के, वैऋियिक और वैक्रियिकमिश्र काययोग देवों व नारकियों के, आहारक और आहारकमिश्र काययोग ऋद्धिप्राप्त संयतों के तथा कार्मण काययोग विग्रहगति में वर्तमान जीवों के और समुद्घातगत केवलियों के होता है (५६-६० ) । उपर्युक्त सात काययोगों में सामान्य काययोग के साथ औदारिक और औदारिकमिश्र ये दो काययोग एकेन्द्रिय से लेकर सयोगिकेवली तक, वैक्रियिक व वैक्रियिकमिश्र ये दो संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक, आहारक व आहारकमिश्र ये दो काययोग एकमात्र प्रमत्तसंयत गुणस्थान में, और कार्मण काययोग एकेन्द्रिय से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होता है । यह सामान्य कथन है । विशेष रूप में इसका अभिप्राय यह समझना चाहिए कि जिन संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में अपर्याप्तता सम्भव नहीं है वहाँ कार्मण काययोग नहीं होता । इसी प्रकार समुद्घात को छोड़कर पर्याप्तों के वह नहीं होता (६१-६४) । संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली तक मन, वचन व काय तीनों योग होते हैं । वचनयोग व काययोग द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक होते हैं । काययोग एकेन्द्रिय जीवों के होता है । मनोयोग और वचनयोग पर्याप्तक जीवों के होते हैं, अपर्याप्तकों के वे नहीं १. देखिए सूत्र १,१, ५१ की टीका, धवला पु० १, पृ० २८५-८६ २. सूत्र १,१,५५ की टीका, धवला पु० १, पृ० २८६ ४६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते । किन्तु काययोग पर्याप्तकों के भी होता है और अपर्याप्तकों के भी होता है ( ६४-६६ ) । प्रसंग पाकर यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि छह पर्याप्तियाँ और छह अपर्याप्तियाँ संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक, पाँच पर्याप्तियाँ व पाँच अपर्याप्तियाँ द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक और चार पर्याप्तियाँ व चार अपर्याप्तियाँ एकेन्द्रिय जीवों के होती हैं ( ७०-७५ ) 1 उपर्युक्त औदारिकादि सात काययोगों में कौन पर्याप्त जीवों के और कौन अपर्याप्त जीवों के होते हैं, इसका भी यहाँ विचार किया गया है ( ७६-७८ ) । तत्पश्चात् क्रम से चारों गतियों में पर्याप्त अपर्याप्त जीवों के जो गुणस्थान सम्भव हैं और जो सम्भव नहीं हैं उनके सद्भावअसद्भाव को प्रकट किया गया है (७६- १०० ) । ५. वेदइ -- इस मार्गणा के प्रसंग में स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी और अपगतवेदी जीवों के अस्तित्व को प्रकट करते हुए यह कहा गया है कि इनमें स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी असंज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक तथा नपुंसकवेदी एकेन्द्रिय से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं । इसके आगे सब जीव अपगतवेद (वेद से रहित ) होते हैं। आगे इस प्रसंग में यहाँ क्रम से नरकादि चारों गतियों में किस वेदवाले कहाँ तक होते हैं, इसका भी विचार किया गया है (१०१-१०) । ६. कषाय - कषायमार्गणा में क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी और अकषायी जीवों के अस्तित्व को दिखाकर उनमें कौन किस गुणस्थान तक होते हैं इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि क्रोधकषायी, मानकषायी और मायाकषायी ये एकेन्द्रिय से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक, लोभकषायी एकेन्द्रिय से लेकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक तथा अकषायी जीव उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन चार गुणस्थानों में होते हैं (१११-१४) । ७. ज्ञान - ज्ञानमार्गणा की प्ररूपणा में मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी इन तीन अज्ञानियों के साथ आभिनिबोधिक ज्ञानी आदि पाँच सम्यग्ज्ञानियों के अस्तित्व को दिखलाकर उनमें यथा सम्भव गुणस्थानों के सद्भाव को प्रकट किया गया है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में आभिनिबोधिक आदि तीन सम्यग्ज्ञानों को मतिअज्ञान आदि तीन अज्ञानों से मिश्रित कहा गया है ( ११५-२२) । ८. संयम -- इस मार्गणा के प्रसंग में सामायिक शुद्धिसंयत, छेदोपस्थापना - शुद्धिसंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सुक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयत व यथाख्यातविहार-शुद्धिसंयत इन पाँच संयतों के साथ संयतासंयत और असंयत जीवों के अस्तित्व को प्रकट करके उनमें कहाँ कितने गुणस्थान सम्भव हैं; इसे स्पष्ट किया गया है ( १२३-३०) | यहाँ धवला में यह शंका की गई है कि संयम के प्रसंग में असंयतों और सयतासयतों का ग्रहण नहीं होना चाहिए । इसके समाधान में वहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि जिस प्रकार आम्रवृक्षों की प्रधानता से 'आम्रवन' के नाम से प्रसिद्ध वन के भीतर अवस्थित नीम आदि अन्य वृक्षों का भी 'आम्रवन' यह नाम देखा जाता है उसी प्रकार संयम की प्रधानता से इस संयममार्गणा में असंयतों और संयतों का ग्रहण विरुद्ध नहीं है । अन्यथा, आम्रवन में अवस्थित नीम आदि अन्य वृक्षों से व्यभिचार का प्रसंग प्राप्त होता है । ६. दर्शन - इस मार्गणा के प्रसंग में चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और केवल मूलग्रन्थगत विषय का परिचय / ४७ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनी जीवों के अस्तित्व को प्रकट करके उनमें सम्भव गुणस्थानों का उल्लेख है (१३१-३५) । १० लेश्या-इस मार्गणा की प्ररूपणा करते हुए कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, पीतलेश्या, पालेश्या और शुक्ललेश्या इन लेश्यावाले जीवों के साथ उस लेश्या से रहित हुए अलेश्य (सिद्ध) जीवों के भी अस्तित्व को व्यक्त करके उनमें किसके कितने गुणस्थान सम्भव हैं; इसका विचार किया गया है (१३६-४०)। ११. भव्य–यहाँ भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक जीवों के अस्तित्व को दिखाकर आगे उनका गुणस्थानविषयक विचार करते हुए कहा गया है कि भव्यसिद्धिक जीव एकेन्द्रिय से लेकर अयोगिकेवली तक और अभव्यसिद्धिक एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी मिथ्यादष्टि तक होते हैं (१४१-४३)। १२. सम्यक्त्व-इस मार्गणा के प्रसंग में सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग् दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि इनके अस्तित्व को दिखाकर उनमें कौन किस गुणस्थान तक सम्भव हैं; इसे स्पष्ट किया गया है (१४४-५०)। आगे क्रम से चारों गतियों के जीवों में कौन किस-किस सम्यग्दर्शन से रहित होते हुए किस गुणस्थान तक सम्भव हैं, इसका विशेष विचार किया गया है। जैसे-नारकियों में मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थान वाले होते हैं । उनमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती क्षायिक सम्यग्दृष्टि प्रथम पृथिवी में ही सम्भव हैं, द्वितीयादि शेष पृथिवियों में वे संभव नहीं हैं । शेष पृथिवियों में वे वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि ही होते हैं (१५१-५५)। इसी प्रकार से आगे तिर्यंचों, मनुष्यों और देवों में सम्यग्दर्शन भेदों के साथ यथासम्भव गुणस्थानों के सद्भाव को प्रकट किया गया है (१५६-७१)। १३. संज्ञी--इस मार्गणा में संज्ञी और असंज्ञी जीवों के अस्तित्व को दिखाकर आगे यह स्पष्ट कर दिया है कि उनमें संज्ञी जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक होते हैं । असंज्ञी जीव एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक होते हैं (१७२-७४) । १४. आहार--इस मर्गणा के प्रसंग में आहारक-अनाहारक जीवों के अस्तित्व को प्रकट करते हुए आहारक जीवों का सद्भाव एकेन्द्रिय से लेकर सयोगिकेवली तक बतलाया गया है। अनाहारक जीव विग्रहगति में वर्तमान जीव, समुद्घातकेवली, अयोगिकेवली और सिद्ध इन चार स्थानों में सम्भव हैं (१७५-७७)। इस प्रकार आचार्य पुष्पदन्त विरचित यह सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार १७७ सूत्रों में समाप्त हुआ है। वह धवला टीका के साथ षट्खण्डागम की १६ जिल्दों में से प्रथम व द्वितीय इन दो जिल्दों में प्रकाशित हुआ है । दूसरी जिल्द में सूत्र कोई नहीं है, वहाँ धवलाकार द्वारा उपर्युक्त १७७ सूत्रों से सूचित गुणस्थान व जीवसमास आदि रूप बीस प्ररूपणाओं को विशद किया गया है। २. द्रव्यप्रमाणानुगम 'द्रव्य' से यहाँ छह द्रव्यों में जीवद्रत्य विवक्षित है। उसके प्रमाण (संख्या) का अनुगम (बोध) कराना, यह इस अनुयोद्वार का प्रयोजन रहा है । इस द्रव्य प्रमाण की प्ररूपणा के यहाँ ४८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो प्रकार रहे हैं-ओघ और आदेश । इन दोनों का अभिप्राय ऊपर 'सत्प्ररूपणा' के प्रसंग में प्रकट किया जा चुका है।' उनमें प्रथमतः ओघ की अपेक्षा द्रव्यप्रमाण की प्ररूपणा करते हुए क्रम से मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानवी जीवों के प्रमाण का विचार किया गया है। यथा--मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा कितने हैं ऐसा प्रश्न उठाते हुए उत्तर में कहा गया है कि वे अनन्त हैं । काल की अपेक्षा वे अनन्तानन्त अवसर्पिणी व उत्सपिणियों से अपहृत नहीं होते। क्षेत्र की अपेक्षा वे अनन्तानन्त लोक प्रमाण हैं । द्रव्य, काल और क्षेत्र इन तीनों प्रमाणों का जान लेना; यही भावप्रमाण है (सूत्र २-५)। ऊपर काल की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवों के प्रमाण की प्ररूपणा में जो यह कहा गया है कि वे अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सपिणियों से अपहृत नहीं होते, उसका अभिप्राय यह है कि एक ओर अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सपिणियों के समयों को रक्खे और दूसरी ओर मिथ्यादृष्टि जीवराशि को रक्खे, पश्चात् उस काल के समयों में से एक समय को और उस जीवराशि में से एक जीव को अपहृत करे, इस प्रकार से उत्तरोत्तर अपहृत करने पर सब समय तो समाप्त हो जाते हैं, पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि समाप्त नहीं होती। इसी प्रकार क्षेत्र की अपेक्षा जो उन्हें अनन्तानन्त लोक प्रमाण कहा गया है उसका भी अभिप्राय यह है कि लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक मिथ्यादष्टि जीव को रखने पर एक लोक होता है, ऐसी मन से कल्पना करे । इस प्रक्रिया के बार-बार करने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि अनन्तानन्त लोकप्रमाण होती है। ___ आगे सासादनसम्यग्दृष्टि आदि संयतासंयत पर्यन्त चार गुणस्थानवी जीवों के द्रव्यप्रमाण की प्ररूपणा में कहा गया है कि उनमें से प्रत्येक का द्रव्यप्रमाण पल्योपम के असंख्यातवें भाग है। इनमें से प्रत्येक के प्रमाण की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त से पल्योपम अपहृत होता है । इनके प्रमाण की प्ररूपणा यहाँ काल और क्षेत्र की अपेक्षा नहीं की गई है, क्योंकि प्रकृत में उनकी सम्भावना नहीं रही (सूत्र ६)।। इनके पृथक्-पृथक् प्रमाण का स्पष्टीकरण धवला में विस्तार से किया गया है।' आगे प्रमत्तसंयतों का द्रव्यप्रमाण कोटिपृथक्त्व और अप्रमत्तसंयतों का वह संख्यात निर्दिष्ट किया गया है (७-८)। चार उपशामकों के द्रव्यप्रमाण की प्ररूपणा करते हुए उन्हें प्रवेश की अपेक्षा एक, दो, तीन व उत्कर्ष से चौवन कहा गया है। काल की अपेक्षा उन्हें संख्यात कहा गया है। इसी प्रकार चार क्षपकों को प्रवेश की अपेक्षा एक, दो, तीन व उत्कर्ष से एक सौ आठ कहा गया है। काल की अपेक्षा उन्हें भी संख्यात कहा गया है (६-१२)। धवला के अनुसार संदृष्टि में स्थूल रूप से चौदह गुणस्थानवी जीवों का प्रमाण इस प्रकार है १. ध्यान रहे कि यहाँ इन अनुयोद्वारों में जो विषय का परिचय कराया जा रहा है वह मूल सूत्रों के आधार से संक्षेप में कराया जा रहा है, विशेष परिचय धवला के आधार से आगे कराया जायेगा। २. पु० ३, पृ० ६३-८८ मूलमन्यगत विषय का परिचय | ४६ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ० Www IMGGG WM गुणस्थाम प्रमाण १. मिथ्यादृष्टि अनन्त २. सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्य ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि ४. असंयतसम्यग्दृष्टि ५. संयतासंयत ६. प्रमत्तसंयत ५६३६८२०६ ७. अप्रमत्तसंयत २६६६६१०३ ८. अपूर्वकरण ६. अनिवृत्तिकरण १०. सूक्ष्मसाम्पराय ११. उपशान्तमोह १२. क्षीणमोह ५१८ १३. सयोगिकेवली ८९८५०२ १४. अयोगिकेवली ५६८ ओषप्ररूपणा के पश्चात् आदेशप्ररूपणा में क्रम से गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में जहाँ जो गुणस्थान सम्भव हैं उनमें वर्तमान मिथ्यादृष्टि आदि जीवों के द्रव्य प्रमाण की प्ररूपणा इसी पद्धति से की गई है (१५-१६२)। इस प्रकार यह अनुयोगद्वार १६२ सूत्रों में समाप्त हुआ है। वह उक्त १६ जिल्दों में से तीसरी जिल्द में प्रकाशित हुआ है। ३. क्षेत्रानुगम उपर्युक्त आठ अनुयोगद्वारों में यह तीसरा है। इसमें समस्त सत्र ६२ हैं । क्षेत्र से यहाँ आकाश अभिप्रेत है। वह दो प्रकार का है— लोकाकाश और अलोकाकाश । जहाँ तक जीवादि पाँच द्रव्य अवस्थित हैं उतने आकाश का नाम लोकाकाश है । इस लोकाकाश के सब और उन जीवादि द्रव्यों से रहित शद्ध अनन्त अलोकाकाश है। कृत में लोकालाश विवक्षित है। ____ कौन जीव कितने लोकाकाश में रहते हैं, इसका बोध कराना इस अनुयोगद्वार का प्रयोजन है । पूर्वोक्त द्रव्य-प्रमाणानुगम के समान इस क्षेत्रानुगम में प्रत क्षेत्र की प्ररूपणा भी प्रथमतः ओघ अर्थात् मार्गणानिरपेक्ष के गुणास्थान के आधार से की गई है और तत्पश्चात् गतिइन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से उन में यथासम्भव गुणस्थानों को लक्ष्य करके उस क्षेत्र की प्ररूपणा की गई है। उनमें ओघ की अपेक्षा क्षेत्र की प्ररूपणा करते हुए मिथ्यादृष्टि जीवों का क्षेत्र समस्त लोक तथा आगे के सासादनसम्यग्दृष्टि आदि अयोगिकेवली पर्यन्त प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग कहा गया है (स्त्र २-३) । लोक से यहाँ ३४३ घन राज प्रमाण लोक की विवक्षा रही है । यहाँ सूत्र (३) में जो सामान्य से सासादनसम्यग्दष्टि आदि अयोगिकेवली पर्यन्त ऐसा कहा गया है उसमें यद्यपि सयोगिकेवली भी आ जाते हैं, पर उनके क्षेत्र में 'लोक के असंख्यातवें भाग से' विशेषता है, अतएव उसे स्पष्ट करने के लिए अपवाद ५०/षटखण्डागम-परिशीलन Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप से रचित अगले सूत्र (४) में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि सयोगिकेवली लोक के असंख्यातवें भाग में, लोक के असंख्यात बहुभागों में, अथवा सब ही लोक में रहते हैं। इसमें जो उनका लोक का असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र कहा गया है वह दण्ड और कपाट समुद्घातगत केवलियों की अपेक्षा कहा गया है। प्रतरसमुद्घातगत कैवलियों का क्षेत्र जो लोक के असंख्यात बहुभाग प्रमाण कहा गया है उसका अभिप्राय यह है कि वे वातवलय से रोके गये लोक के असंख्यातवें भाग को छोड़कर शेष बहुभागों में रहते हैं। लोकपूरणसमुद्घातगत केवली ३४३ घनराजु प्रमाण सब ही लोक मे रहते हैं, क्योंकि इस समुद्धात में उनके आत्मप्रदेश समस्त लोकाकाश को ही व्याप्त कर लेते हैं। इस प्रकार यहाँ ओघप्ररूपणा २-४ सूत्र में समाप्त हो जाती है। आदेशप्ररूपणा में पूर्व पद्धति के अनुसार प्रस्तुत क्षेत्र प्ररूपणा भी गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं, जहाँ जो गुणस्थान सम्भव हैं उनमें वर्तमान जीवों की, की गई है (५-६२)। इस प्रकार यह क्षेत्रानुगम ६२ सूत्रों में समाप्त हुआ। ४. स्पर्शनानुगम इस चौथे स्पर्शनानुगम अनुयोगद्वार में सब सूत्र १८५ हैं । स्पर्शन से अभिप्राय जीवों के द्वारा स्पृष्ट क्षेत्र का है । पूर्व क्षेत्रानुगम में जहाँ जीवों के क्षेत्र की प्ररूपणा वर्तमानकाल के आश्रय से की गई है वहाँ इस स्पर्शनानुगम अनुयोगद्वार में विभिन्न जीवों के द्वारा तीनों कालों में स्पर्श किए जानेवाले क्षेत्र की प्ररूपणा की गई है। यह क्षेत्रानगम की अपेक्षा इस स्पर्शनानुगम की विशेषता है। यहाँ ओघ की अपेक्षा स्पर्शन की प्ररूपणा में सर्वप्रथम मिथ्यादष्टि जीवों के द्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श किया गया है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि उनके द्वारा सब ही लोक का स्पर्श किया गया है (सूत्र २)। इसका अभिप्राय यह है कि समस्त लोक में ऐसा कोई प्रदेश नहीं है, जो मिथ्यादृष्टि जीवों से अछूता रहा हो। ___ आगे सासादनसम्यग्दप्टियों के स्पर्शनक्षेत्र का निर्देश करते हुए कहा गया है कि उनके द्वारा लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया गया है । यह उनका क्षेत्र प्रमाण वर्तमान काल की अपेक्षा निर्दिष्ट किया गया है, जो पूर्व क्षेत्रानुगम में भी कहा जा चुका है। __ अतीत काल की अपेक्षा उनके स्पर्शनप्रमाण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि अथवा उनके द्वारा लोकनाली के चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग (८/१४) और कुछ कम बारह भाग स्पर्ण किए गए हैं (३-४)। सूत्र निदिष्ट उनका वह आठ बटे चौदह भाग स्पर्शनक्षेत्र विहार अथवा वेदनासमुद्घातादि में परिणत सासादनसम्यग्दष्टियों के सम्भव है। कारण यह है कि भवनवासी देव मेरुतल से नीचे तीसरी पृथिवी तक दो धनराजु क्षेत्र में जाते हैं तथा ऊपर वे उपरिम देवों के प्रयोग से सोलहवें कल्प तक छह घनराजु क्षेत्र में जा सकते हैं । इस प्रकार चौदह घन राजु प्रमाण वसनाली में आठ (२+६) राजु प्रमाण क्षेत्र में उनका गमन सम्भव है । कुछ कम में उसे तीसरी पृथिवी के नीचे के एक हजार योजनों से कम समझना चाहिए। उनका बारह बटे चौदह भाग स्पर्शनक्षेत्र मारणान्तिक समुद्घातगत सासादनसम्यग्दृष्टियों की अपेक्षा कहा गया है। इसका कारण यह है कि मेरुतल से ऊपर ईषत्प्राग्भार पृथिवी तक मूलगन्धगत विषय का परिचय | ५१ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात राजु और नीचे छठी पृथिवी तक पांच राजु, इतने क्षेत्र में उनका मारणान्तिकसमुद्धात सम्भव है। इस प्रकार मारणान्तिकसमुद्घात की अपेक्षा उनका बारह (७+ ५) राजु प्रमाण स्पर्शनक्षेत्र घटित होता है। कुछ कम में उसे छठी पृथिवी के नीचे के एक हजार योजन से कम समझना चाहिए। इसी प्रकार से आगे इस ओघ प्ररूपणा में सम्यग्मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि (५-६), संयतासंयत (७-८) और प्रमत्तसंयतादि अयोगिकेवली पर्यन्त (8) गुणस्थानवी जीवों के विषय में उस स्पर्शन के प्रमाण की प्ररूपणा की गई है। सयोगिकेवलियों के द्वारा स्पृष्ट क्षेत्र के प्रमाण में विशेषता होने से उसकी प्ररूपणा पृथक् से अगले सूत्र (१०) में की गई है। आगे आदेश की अपेक्षा गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में जहाँ जो-जो गुणस्थान सम्भव हैं उनमें वर्तमान जीवों के विषय में भी वह स्पर्शनप्ररूपणा इस पद्धति से की गई है। ५. कालानुगम इस पांचवें अनुयोगद्वार में समस्त सूत्र संख्या ३४२ है। यहाँ पूर्व पद्धति के अनुसार प्रथमतः ओघ की अपेक्षा और तत्पश्चात् आदेश की अपेक्षा काल की प्ररूपणा की गई है। काल से यहाँ द्रव्यकाल से उत्पन्न परिणामस्वरूप नोआगम भावकाल विवक्षित रहा है, जो कल्पकाल पर्यन्त क्रम से समय व आवली आदि स्वरूप है। काल की यह प्ररूपणा यहाँ एक जीव की अपेक्षा और नाना जीवों की अपेक्षा पृथक्-पृथक् की गई है। ओघप्ररूपणा को प्रारम्भ करते हुए यहाँ सर्वप्रथम मिथ्यादृष्टियों के काल का उल्लेख किया गया है व कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि जीव नाना जीवों की अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। पर एक जीव की अपेक्षा उनका वह काल अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित है। आगे सूत्र में सादि-सपर्यवसित काल को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिनमें सादि-सपर्यवसित काल है उसका प्रमाण जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है (२-४)। यहाँ जो मिथ्यात्व का काल अनादि-अपर्यवसित कहा गया है वह अभव्य जीव की अपेक्षा कहा गया है, क्योंकि उसके मिथ्यात्व का न आदि है, न अन्त और न मध्य है—वह सदा बना रहने वाला है । दूसरा अनादि-सपर्यवसित काल उस भव्य के मिथ्यात्व को लक्ष्य में रखकर निर्दिष्ट किया गया है जो अनादि काल से मिथ्यादृष्टि रहकर अन्त में उससे रहित होता हुआ सम्यग्दृष्टि हो जाता है और पुनः मिथ्यात्व को न प्राप्त होकर मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । धवला में उसके लिए वर्धनकुमार का उदाहरण दिया गया है। __ सादि-सपर्यवसित मिथ्यात्व का काल जघन्य और उत्कृष्ट के रूप में दो प्रकार का है। इनसे जघन्य से उसका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है । जैसे—कोई सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा प्रमत्तसंयत परिणाम के वश मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ । वह उस सादि मिथ्यात्व के साथ सबसे जघन्य अन्तर्मुहर्तकाल रहकर फिर से भी सम्यग्मिथ्यात्व, असंयम के साथ सम्यक्त्व, संयमासंयम अथवा अप्रमत्तस्वरूप से संयम को प्राप्त हुआ। इस प्रकार उसके उस सादि मिथ्यात्व का सबसे जघन्य काल उसका उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुदगल परिवर्तन है। कारण यह है कि उक्त प्रकार से मिथ्यात्व को प्राप्त जीव उस मिथ्यात्व के साथ अधिक-से-अधिक कुछ (चौदह अन्तर्मुहूर्त) ५२ / षट्सण्डागम-परिशीलन Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल तक ही संसार में परिभ्रमण करता है, इसके बाद वह सम्यक्त्व ग्रहणकर नियम से मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। इस ओघप्ररूपणा में आगे इसी प्रकार से सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्याष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्त-अप्रमत्तसंयत, चार उपशमक, चार क्षपक और सयोगिकेवली इनके काल की प्ररूपणा की गई है (५-३२)। ___ ओघप्ररूपणा के पश्चात् आदेशप्ररूपणा में कम से गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में जहाँ जितने गुणस्थान सम्भव हैं उनमें वर्तमान जीवों के काल की प्ररूपणा उसी पद्धति से की गई है (३३-३४२)। क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम और कालानुगम ये तीन अनुयोगद्वार धवला टीका के साथ चौथी जिल्द में प्रकाशित हुए हैं । ६. अन्तरानुगम अन्तरानु गम में ओघ और आदेश की अपेक्षा क्रम से अन्तर की प्ररूपणा की गई है । अन्तर, उच्छेद, विरह और परिणामान्तर की प्राप्ति ये समानार्थक शब्द हैं। अभिप्राय यह है कि किसी गुणस्थान से दूसरे गुणस्थान में जाकर पुनः उस गुणस्थान की प्राप्ति में जितना काल लगता है उसका नाम अन्तर है। __ ओघ की अपेक्षा उस अन्तर की प्ररूपणा करते हुए सर्वप्रथम मिथ्यादष्टियों का अन्तर कितने काल होता है इसके स्पष्टीकरण में कहा गया है कि नाना जीवों की अपेक्षा उनका कभी अन्तर नहीं होता--वे सदा ही विद्यमान रहते हैं। ___ एक जीव की अपेक्षा उनका अन्तर सम्भव है । वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से कुछ कम दो छयासठ (६६४२-१३२) सागरोपम प्रमाण होता है (२-४)।' धवला में इसे इस प्रकार से स्पष्ट किया गया है-कोई एक तिर्यंच या मनुष्य चौदह सागरोपम प्रमाण आयु स्थिति वाले लान्तव कापिष्ट कल्पवासी देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ उसने एक सागरोपम विताकर दूसरे सागरोपम के प्रथम समय में सम्यक्त्व को ग्रहण कर लिया। इस प्रकार से वह वहाँ सम्यक्त्व के साथ तेरह सागरोपम काल तक रहकर वहाँ से युत हुआ और मनुष्य हो गया। वहाँ वह संयम अथवा संयमासंयम का परिपालन कर मनुष्य आयु से कम बाईस सागरोपम स्थिति वाले आरण-अच्युत कल्प के देवों में उत्पन्न हुआ । वहाँ से च्युत होकर वह पुनः मनुष्य हुआ। वहाँ संयम का परिपालन करके वह मनुष्यायु से कम इकतीस सागरोपम की स्थितिवाले देवों में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार से वह अन्तर्मुहूर्त से कम छ्यासठ (१३ + २२ + ३१) सागरोपम के अन्तिम समय में परिणाम के वश सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ और उसके साथ अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त हो गया। तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर वह मनुष्य हो गया। वहाँ संयम अथवा संयमासंयम का परिपालन करके वह मनुष्यायु से कम बीस सागरोपम आयुवाले देवों में उत्पन्न हुआ। और तत्पश्चात् वह मनुष्यायु से कम क्रमशः बाईस और चौबीस सागरोपम की स्थितिवाले देवों में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कम दो छ्यासठ (१३+२२+३१ = ६६; २०+-२२ १. इस सबका स्पष्टीकरण आगे 'धवलागत-विषय-परिचय' में किया जाने वाला है। मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | ५३ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +२४ = ६६) सागरोपम के अन्तिम समय में मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया। इस प्रकार से मिथ्यात्व का वह उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कम दो छ्यासठ सागरोपम उपलब्ध हो जाता है । यह अव्युत्पन्न जनों के अवबोधनार्थ दिशावबोध कराया गया है । वस्तुतः उस अन्तर की पूर्ति जिस किसी भी प्रकार से कराई जा सकती है। - इसी प्रकार से आगे सासादनसम्यग्दष्टि आदि शेष गुणस्थानवी जीवों के अन्तर की प्ररूपणा नाना जीवों व एक जीव जी अपेक्षा की गई है (५-२०)। इस प्रकार ओघप्ररूपणा को समाप्त कर आगे आदेश की अपेक्षा उस अन्तर की प्ररूपणा करते हुए क्रम से गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में यथासम्भव गुणस्थानों के आश्रय से उस अन्तर की प्ररूपणा उसी पद्धति से एक और नाना जीवों की अपेक्षा की गई है (२१३६७) । इस प्रकार यह अनुयोगद्वार ३६७ सूत्रों में समाप्त हुआ है। ७. भावानुगम ___भाव से यहाँ जीवपरिणाम की विवक्षा रही है। वह पाँच प्रकार का है । औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक । प्रकृत में इन जीवभावों की प्ररूपणा यहाँ पूर्व पद्धति के अनुसार प्रथमतः ओघ को अपेक्षा और तत्पश्चात् आदेश की अपेक्षा की गई है । यहाँ सब सूत्र ६३ हैं। ओघप्ररूपणा में सर्वप्रथम 'मिथ्यादृष्टि' यह कौन-सा भाव है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि यह औदयिक भाव है। कारण यह है कि वह तत्त्वार्थ के अश्रद्धानरूप मिथ्यात्व परिणाम मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न होता है (२)। __ आगे क्रमप्राप्त दूसरे ‘सासादन' परिणाम को पारिणामिक कहा गया है। जो भाव कर्मों के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना अन्य कारणों से उत्पन्न हुआ करता है उसे पारिणामिक भाव कहा जाता है। प्रकृत सासादन परिणाम चूंकि दर्शनमोहनीय के उदय, उपशम और क्षय की अपेक्षा न करके अन्य कारणों से उत्पन्न होता है, इसीलिए उसे पारिणामिक भाव कहा गया है । यद्यपि वह सासादन भाव अन्यतर अनन्तानुबन्धो के उदय से होता है, इसलिए उसे इस अपेक्षा से औदयिक कहा जा सकता था; किन्तु इस भाव प्ररूपणा के प्रसंग में प्रथम चार गुणस्थानों में दर्शनमोहनीय के उदयादि से उत्पन्न होने वाले भावों की ही विवक्षा रही है, अन्य कारणों से उत्पन्न होने वाले भावों की वहाँ विवक्षा नहीं रही। यही कारण है जो सासादन परिणाम को सूत्र में पारिणामिक कहा गया है (३)। इसी प्रकार से प्ररूपणा करते हुए आगे सम्यग्मिथ्यादृष्टि को क्षायोपशमिक भाव कहा गया है । असंयतसम्यग्दृष्टि भाव औपशमिक भी है, क्षायिक भी है और क्षायोपशमिक भी है। विशेषता यह है कि असंयतसम्यग्दृष्टि का असंयतत्व भाव औदयिक है, क्योंकि वह संयमघाती कर्मों के उदय से उत्पन्न होता है । संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत ये तीन भाव क्षायोपशमिक हैं। कारण यह कि ये तीनों भाव चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम से उ हैं । यह कथन चारित्रमोहनीय की प्रधानता से किया गया है, यहाँ दर्शनमोहनीय की विवक्षा नहीं रही है। आगे चार उपशामक भावों को औपशमिक तथा चार क्षपक, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन भावों को क्षायिक भाव कहा गया है (४-६)। इस प्रकार ओघप्ररूपणा को समाप्त कर आदेश की अपेक्षा भावों की प्ररूपणा करते हुए ५४ / षटखण्डागम-परिशीलन . Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम से गति-इन्द्रियादि चौदह मार्ग गाओं में जो-जो गुणस्थान सम्भव हैं उनके आश्रय से प्रकृत भावप्ररूपणा की गई है (१०-६३)। ८. अल्पबहुत्वानुगम जीवस्थान के उपर्युक्त आठ अनुयोगद्वारों में यह अन्तिम है । इसकी सूत्रसंख्या ३८२ है । अल्पबहुत्व का अर्थ हीनाधिकता है । विवक्षित गुणस्थानवर्ती जीव अन्य गुणस्थानवी जीवों से अल्प हैं या अधिक हैं, इत्यादि का विचार इस अनयोगद्वार में किया गया है। पूर्व पद्धति के अनुसार उस अल्प बहुत्व की प्ररूपणा भी प्रथमतः ओघ की अपेक्षा और तत्पश्चात् आदेश की अपेक्षा की गई है । जैसे-- अपूर्व करण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय इन तीन गुणस्थानवर्ती उपशामक प्रवेश की अपेक्षा परस्पर समान तथा अन्य गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा अल्प हैं। उपशान्तकषायवीतराग-द्गस्थ भी उतने ही हैं । क्षपक उनसे संख्यातगुणे (दुगुने) हैं । क्षीणकषाय-वीतरागछद्मस्थ पूर्वोक्त क्षपकों के समान उतने ही हैं। सयोगिकेवली और अयोगिकेवली दोनों प्रवेश की अपेक्षा परस्पर में समान व उतने ही हैं। किन्तु सयोगिकेवली संचय की अपेक्षा उनसे संख्यातगणे हैं। इन सयोगिकेवलियों से अक्षपक व अनपशामक अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणे, उन । प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे, उनसे संयतासंयत असंख्यातगुणे, उनसे सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातगणे, उनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणे, उनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे और उनसे मिथ्या दृष्टि अनन्तगुणे हैं (२-१४) । __आगे यहाँ असंयतसम्यग्दृष्टि व संयतासंयत आदि उक्त गणस्थानों में पृथक्-पृथक् उपशमसम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि इन तीनों में भी परस्पर अल्पबहुत्व को प्रस्ट किया गया है (१५-२६) । जैसे____ असंयतसम्यग्दृष्टि स्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं, उनसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं, उनसे वेदकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं; इत्यादि । इस प्रकार ओघप्ररूपणा को समाप्त कर तत्पश्चात् आदेश प्ररूपणा में गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में जहाँ जो गुणस्थान सम्भव है उनमें वर्तमान जीवों के अल्प-बहुत्व को प्रकट किया गया है (२७-३८०)। अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम ये तीन अनुयोगद्वार षटखण्डागम की १६ जिल्दों में से ५वीं जिल्द में प्रकाशित हुए हैं। जीवस्थान-चूलिका जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत उपर्युक्त सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों के समाप्त हो जाने पर आगे का जो गति-आगति पर्यन्त ग्रन्थ भाग है धवलाकार ने उसे जीवस्थान की चूलिका कहा है ।' धवलाकार के अनुसार उक्त आठ अनुयोद्वारों के विषम स्थलों का विवरण देना, १. तिहुवण सिरसेहरए भवभयगम्भादु णिग्गदे पणउं । सिद्धे जीवट्ठाणस्समलिणगुणचूलियं वोच्छं ।।-धवला पु० ६, पृ १ मूलगतग्रन्थ विषय का परिचय / ५५ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस चूलिका का प्रयोजन रहा है।' इसमें ये नौ चूलिकायें हैं.--१. प्रकृतिसमुत्कीर्तन, २. स्थानसमुत्कीर्तन, ३. प्रथम महादण्डक, ४. द्वितीय महादण्डक, ५. तृतीय महादण्डक, ६. उत्कृष्ट स्थिति, ७. जघन्य स्थिति, ८. सम्यक्त्वोत्पत्ति, और ६. गति-आगति । यहाँ उनका यथाक्रम से संक्षेप में परिचय कराया जाता है सर्वप्रथम यहाँ ग्रन्थ के प्रारम्भ में जो प्रथम सूत्र प्राप्त हुआ है उसमें ये प्रश्न उठाये गये हैं-प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव कितनी व किन प्रकृतियों को बांधता है, कितने काल की स्थितिवाले कर्मों के आश्रय से सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, अथवा नहीं प्राप्त करता है, कितने काल के द्वारा मिथ्यात्व के कितने भागों को करता है, उपशामना अथवा क्षपणा किन क्षेत्रों में व किसके समीप में, कितने दर्शनमोहनीय के क्षय के करनेवाले व सम्पूर्ण चारित्र को प्राप्त करनेवाले के होती है। ये प्रश्न उन नौ चूलिकाओं की भूमिका स्वरूप हैं, जिनकी कि प्ररूपणा क्रम से आगे की जानेवाली है, इन्हीं के स्पष्टीकरण में वे नौ चूलिकायें रची गई हैं। इनके अन्तर्गत विषय का परिचय यहाँ सूत्रानसार संक्षेप में कराया जाता है। उसका विशेष परिचय आगे धवला के आधार से कराया जाने वाला है। १. प्रकृतिसमुत्कीर्तन--यहाँ प्रथमतः ज्ञानावरणीयादि आठ मूल कर्मप्रकृतियों का और तत्पश्चात् पृथक्-पृथक् उनकी उत्तर प्रकृतियों का निर्देश किया गया है। यहाँ सब मूत्र ४६ हैं। २. स्थानसमत्कीर्तन--प्रथम चूलिका में जिन कर्म-प्रकृतियों का उल्लेख किया गया है वे एक साथ बँधती हैं या क्रम से बँधती हैं, इसे इस दूसरी चूलिका में स्पष्ट किया गया है। जिस संख्या अथवा अवस्था विशेष में प्रकृतियाँ रहती हैं उसका नाम स्थान है। वह मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतस्वरूप है (१-३) । संयत शब्द से यहाँ प्रमत्तसंयत आदि सयोगिकेवली पर्यन्त आठ गुणस्थान अभिप्रेत हैं । अयोगिकेवली गुणस्थान कर्मबन्ध से रहित है, अतः उसका ग्रहण नहीं किया गया है। इन स्थानों की प्ररूपणा यहां क्रम से इस प्रकार की गई है ज्ञानावरण की आभिनिबोधिक आदि पाँच प्रकृतियाँ हैं । ये पाँचों साथ-साथ ही बंधती हैं। इस प्रकार इन पाँचों को बाँधनेवाले जीव का पांच संख्यारूप एक ही अवस्था विशेष में अवस्थान है। वह मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत के होता है। 'संयत' से यहाँ सूक्ष्मसाम्पराय पर्यन्त संयतों को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि आगे के उपशान्तकषायादि संयतों से उनका बन्धन सम्भव नहीं आगे दर्शनावरणीय के प्रसंग में कहा गया है कि दर्शनावरणीय कर्म के नौ, छह और चार के तीन स्थान हैं । उनमें निद्रानिद्रा आदि नौ ही दर्शनावरणीय प्रकृतियों के बाँधनेवाले जीव का सम्यक्त्व के अभाव रूप एक अवस्था विशेष में अवस्थान है । वह मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि के होता है । कारण यह कि आगे नौ की संख्या में उनका बन्ध सम्भव नहीं १. सम्मत्तेसु अट्ठसु अणियोगद्दारेसु चूलिया किमट्ठमागदा ? पुव्युत्ताणमट्टण्णमणिओगद्दाराण विसमपएसविवरण?मागदा ।-धवला पु० ६, पृ० २ ५६ / षट्खण्डागम-परिशीलन . Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। उन नौ प्रकृतियों में निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि इन तीन को छोड़कर शेष छह का दूसरा स्थान है, जो सम्यग्मिथ्यादृष्टि से लेकर अपूर्वकरण के सात भागों में से प्रथम भाग तक अवस्थित संयतों के ही सम्भव है, आगे छह की संख्या में उनका बन्ध सम्भव नहीं रहता । चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण इन चार दर्शनावरण प्रकृतियों का तीसरा स्थान है जो अपूर्वकरण के दूसरे भाग से लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक संयत तक सम्भव है। इसके आगे उस दर्शनावरणीय का बन्ध नहीं होता (७-१६)। इसी पद्धति से आगे क्रमश: वेदनीय आदि शेष कर्मों के भी यथासम्भव स्थानों की प्ररूपणा की गई है (१७-११७)।। इस प्रकार यह दूसरी स्थानसमुत्कीर्तन चूलिका ११७ सूत्रों में समाप्त हुई है। ३. प्रथममहादण्डक-इस तीसरी चूलिका में दो ही सूत्र हैं । इनमें से प्रथम सूत्र में 'अब प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव जिन प्रकृतियों को नहीं बाँधता है उनका निरूपण करते हैं' ऐसी प्रतिज्ञा की गई है। दूसरे सूत्र में कृत प्रतिज्ञा के अनुसार उन प्रकृतियों का उल्लेख कर दिया गया है जिन्हें प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य बांधता है। इस सूत्र के मध्यगत 'आउगं च ण बंदि' इस वचन द्वारा आयू कर्म के बन्ध का निषेध किया गया है । साथ ही उसके अन्तर्गत 'च' शब्द से उन अन्य प्रकृतियों की भी सूचना की गई है जिन्हें वह आयु के साथ नहीं बाँधता है। उन प्रकृतियों का निर्देश यद्यपि सूत्र में नहीं किया गया है, फिर भी उनका उल्लेख धवला में कर दिया गया है । ४. द्वितीय महादण्डक-इस चौथी चूलिका में भी २ ही सूत्र हैं । यहाँ पहले सूत्र में दूसरे दण्डक के करने की प्रतिज्ञा की गई है और तदनुसार अगले सूत्र में उन प्रकृतियों का उल्लेख कर दिया गया है जिन्हें प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हआ देव व सातवीं पृथिवी के नारकी को छोड़ कर अन्य नारकी बाँधता है। पूर्व के समान यहाँ भी 'आउगं च ण बंधदि' इस सूत्रांश के द्वारा आयु के बाँधने का निषेध किया गया है। साथ ही 'च' शब्द से सूचित उन अन्य प्रकृतियों के बन्ध का भी निषेध किया गया है जिन्हें वह नहीं बाँधता है। सूत्र में अनिदिष्ट उन न बँधने वाली अन्य प्रकृतियों का उल्लेख धवला में कर दिया गया है। ५. तृतीय महादण्डक-इस पाँचवीं चूलिका में भी २ ही सूत्र हैं। उनमें प्रथम सूत्र के द्वारा तीसरे महादण्डक के करने की प्रतिज्ञा करते हुए अगले सूत्र में उन प्रकृतियों का नाम निर्देश किया गया है जिन्हें प्रथम सम्यक्त्व के अभिमूख हआ सातवीं पृथिवी का नारकी बाँधता है। यहाँ भी 'आउगं च ण बंधदि' इस सत्रांश के द्वारा आय के बन्ध का तथा 'च' शबद से सचित अन्य कछ प्रकतियों के बन्ध का भी निषेध कर दिया गया है। ६. उत्कृष्ट स्थिति -इस छठी चूलिका में ४४ सूत्र हैं। चूलिका को प्रारम्भ करते हुए पम जो प्रश्न उठाये गये थे उन में एक प्रश्न यह भी था कि कितने काल की स्थितिवाले कर्मों के आश्रय से सम्यक्त्व को प्राप्त करता है. अथवा नहीं करता है। उसकी यहाँ प्रथमसत्र में पुनरावृत्ति करते हुए यह कहा गया है कि 'कितने काल की स्थितिवाले कर्मों के आश्रय से सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त करता है?' इस प्रश्न को इस चलिका में स्पष्ट किया जाता है । अभिप्राय यह है कि कर्मों की जिस उत्कृष्ट स्थिति के रहते हुए वह सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता है उस उत्कृष्ट स्थिति की प्ररूपणा इस छठी चूलिका में की गई है। मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | ५७ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे उस स्थिति के वर्णन की प्रतिज्ञा करते हुए यहाँ प्रथमतः पाँच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, असातावेदनीय और पाँच अन्तराय इन कर्मों की समान रूप से बँधनेवाली तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति का उल्लेख किया गया है। साथ ही उनके आबाधाकाल और निषेकरचना के क्रम का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि उनका आबाधाकाल तीन हजार वर्ष है। इस आबाधाकाल से हीन उनका कर्मनिषेक होता है (२-६)। बांधे गये कर्मस्कन्ध जब तक उदय या उदीरणा को प्राप्त नहीं होते तब तक का काल आबाधाकाल कहलाता है। बांधी गई स्थिति के प्रमाण में से इस आबाधाकाल के कम कर देने पर शेष स्थितिप्रमाण के जितने समय होते हैं उतने कर्मनिषेक होते हैं जो आबाधाकाल के अनन्तर नियमित क्रम से प्रत्येक समय में निर्जरा को प्राप्त होते हैं। उदाहरणार्थ, ऊपर जो ज्ञानावरणादि की तीन हजार वर्ष प्रमाण आबाधा बतलाई गई है उसे उस तीस सागरोपम स्थिति में से कम कर देने पर शेष स्थितिप्रमाण के जितने समय रहते हैं उतने निषेक होंगे। उनमें एकएक निषेक क्रम से तीन हजार वर्ष के अनन्तर एक-एक समय में निर्जीर्ण होनेवाला है। इस प्रकार स्थिति के अन्तिम समय में अन्तिम निषेक निर्जरा को प्राप्त होगा। इसी पद्धति से आगे क्रम से समान स्थिति वाले अन्य साता वेदनीय आदि कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति, आबाधा और कर्मनिषेक की प्ररूपणा की गई है (७-२१)। ___ आयु कर्म को छोड़ शेष सात कर्मों की आबाधा के विषय में साधारणतः यह नियम है कि एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति की आबाधा सौ वर्ष होती है । इसी नियम के अनुसार विवक्षित कर्म की स्थिति को आबाधा के प्रमाण को प्राप्त किया जा सकता है । अन्त: कोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति की आबाधा अन्तर्मुहूर्त होती है। यह आबाधा का नियम आयु कर्म के विषय में लागू नहीं होता। आयु कर्म की आबाधा उसके बाँधने के समय जितनी भुज्यमान आयु शेष रहती है उतनी होती है। वह पूर्वकोटि के तृतीय भाग से लेकर असंक्षेपाद्धा (क्षुद्रभव के संख्यातवें भाग) पर्यन्त होती है । प्रस्तुत च्लिका में आयुकर्म के प्रसंग में नारकायु और देवायु की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम प्रमाण व उसकी आबाधा पूर्वकोटि के तृतीय भाग प्रमाण निर्दिष्ट की गई है। उसका कर्मनिषेक अन्य कर्मों के समान आबाधाकाल से हीन न होकर सम्पूर्ण कर्मस्थिति प्रमाण कहा गया है। तिर्यंच आयु और मनुष्य आयु की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम प्रमाण तथा उसका आबाधाकाल पूर्वकोटि का तृतीय भाग निर्दिष्ट किया गया है। कर्म निषेक उसका सम्पूर्ण कर्मस्थिति प्रमाण ही होता है (२२-२६)। इसी पद्धति से आगे द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रियादि अन्य के कर्मों की भी यथासम्भव उत्कृष्ट स्थिति, आबाधा और कर्मनिषेक की प्ररूपणा की गई है (३०-४४) । ७. जघन्यस्थिति--जिस प्रकार इससे पूर्व छठी चूलिका में सब कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति आदि की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार इस चूलिका में सब कर्मों की जघन्य स्थिति, आबाधा और कर्मनिषेक की प्ररूपणा की गई है। इसमें सब सूत्र ४३ हैं। ८. सम्यक्त्वोत्पत्ति---इस आठवीं चूलिका में सर्वप्रथम यह सूचना की गई है कि जीव इतने काल की स्थितिवाले, पूर्व दो चूलिकाओं में निर्दिष्ट उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति से युक्त, कर्मों के रहते सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त करता है। उस सम्यक्त्व की प्राप्ति कब सम्भव है इसे ५८ / षटवण्डागम-परिशीलन Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि जब जीव इन सब कर्मों की अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति को बाँधता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है (१-३) । इसका अभिप्राय यह है कि कर्मों के उत्कृष्ट व जघन्य स्थितिबन्ध, उत्कृष्ट व जघन्य स्थितिसत्त्व, उत्कृष्ट व जघन्य अनुभागसत्त्व तथा उत्कृष्ट व जघन्य प्रदेशसत्त्व के होने पर जीव सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त करता है । किन्तु जब वह उन कर्मों की अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति को बाँधता है तब प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । यह भी सामान्य से कहा गया है । वस्तुतः उस सम्यक्त्व की प्राप्ति अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन परिणामों के अन्तिम समय में ही सम्भव है । आगे प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए जौव के स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा गया है कि उसे पंचेन्द्रिय, संज्ञो मिथ्यादृष्टि, पर्याप्त और सर्वविशुद्ध होना चाहिए। वह जब इन सभी कर्मों की संख्यात हजार सागरोपमों से हीन अन्तः कोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति को स्थापित करता है तब प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है । प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता हुआ वह अन्तर्मुहूर्त अन्तरकरण करके मिथ्यात्व के तीन भाग करता है— सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व | इस प्रकार से वह दर्शनमोहनीय को उपशमाता है (४-८ ) । विवक्षित कर्मों की नीचे व ऊपर की स्थितियों को छोड़कर मध्यवर्ती अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थितियों के निषेकों का परिणामविशेष के द्वारा अभाव करना, यह अन्तरकरण का लक्षण है । इस सब का उपसंहार करते हुए आगे के सूत्र में कहा गया है कि इस प्रकार दर्शनमोहनी को उपशमाता हुआ वह उसे चारों ही गतियों में उपशमाता है, चारों गतियों में उपशमाता हुआ पंचेन्द्रियों में उपशमाता है, एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रियों में नहीं; पंचेन्द्रियों में उपशमाता हुआ संज्ञियों में उपशमाता है, असंज्ञियों में नहीं; संज्ञियों में उपशमाता हुआ गर्भजों में उपशमाता है, संमूर्च्छिनों में नहीं; गर्भजों में भी पर्याप्तकों में उपशमाता है, अपर्याप्तकों में नहीं; पर्याप्तकों में भी संख्यात वर्षायुष्कों (कर्मभूमिजों) में भी उपशमाता है और असंख्यात वर्षायुष्कों (भोगभूमिजों) में भी उपशमाता है । वह दर्शनमोहनीय की उपशामना किसी भी क्षेत्र में व किसी के भी समीप में की जा सकती है, इसके लिए क्षेत्र विशेष का कुछ नियम नहीं है । इसी प्रकार किसके समीप में वह की जाती है, इसके लिए भी कोई विशेष नियम नहीं हैकिसी के भी समीप में वह की जा सकती है ( ६-१० ) । इस प्रकार दर्शनमोहनीय की उपशामना विधि की प्ररूपणा कर देने पर यह पूछा गया है कि दर्शनमोहनीय के क्षय को प्रारम्भ करनेवाला जीव कहाँ उसे प्रारम्भ करता है । इसके उत्तर में कहा गया है कि वह उसे अढ़ाई द्वीप - समुद्रों के अन्तर्गत पन्द्रह कर्मभूमियों में प्रारम्भ करता है, जहाँ व जिस काल में वहाँ जिन, केवली व तीर्थकर हों। वह उसका समापन चारों गतियों में कहीं भी कर सकता है (११-१२) । यहाँ ( सुत्र ११ में) सामान्य से उपर्युक्त जिन, केवली और तीर्थंकर शब्दों के विषय में स्पष्टीकरण करते हुए धवलाकार ने प्रथम तो देशजिन और सामान्य केवली का निषेध करके तीर्थंकर केवली को ग्रहण किया है । तत्पश्चात् विकल्प रूप में ' अथवा ' कहकर यह भी अभिप्राय प्रकट किया है कि 'जिन' शब्द से चौदह पूर्वी के धारकों, 'केवली' शब्द से तीर्थकर प्रकृति के उदय से रहित केवलज्ञानियों को, और 'तीर्थंकर' शब्द से तीर्थंकर प्रकृति के उदय से उत्पन्न होनेवाले आठ प्रतिहार्यो और चौंतीस अतिशयों से सम्पन्न अरहन्तों को ग्रहण मूलग्रन्थगत विषय का परिचय / ५६ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना चाहिए । इन तीनों में से किसी के भी पादमूल में उस दर्शनमोहनीय के क्षय को प्रारम्भ किया जा सकता है।' पूर्व में प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के प्रसंग में यह कहा जा चुका है कि प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव आयु को छोड़कर शेष सात कर्मों की स्थिति को हजार सागरोपमों से हीन अन्तःकोडाकोड़ी प्रमाण स्थापित करता है (५)। उसका स्मरण कराते हुए यहाँ पुनः यह कहा गया है कि सम्यक्त्व को प्राप्त करनेवाला जीव आयु को छोड़ शेष ज्ञानावरणीयादि सात कर्मों की स्थिति को सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा संख्यातगुणी हीन अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थापित करता है (१३)। आगे चारित्र की उत्पत्ति के प्रसंग में कहा गया है कि चारित्र को प्राप्त करने वाला जीव आयु को छोड़ शेष ज्ञानावरणीयादि सात कर्मों की स्थिति को सम्यक्त्व के अभिमुख हुए उस मिथ्यादृष्टि के द्वारा स्थापित स्थिति की अपेक्षा संख्यातगुणी हीन अन्त:कोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थापित करता है (१४) । सम्पूर्ण चारित्र को प्राप्त करने वाला जीव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार कर्मों की स्थिति को अन्तर्मुहूर्तमात्र स्थापित करता है । वेदनीय की स्थिति को वह बारह महूर्त, नाम व गोत्र की स्थिति को आठ मुहूर्त और शेष कर्मों की स्थिति को भिन्न मुहूर्त मात्र स्थापित करता है (१५-१६) । __ यहाँ धवला में संयमासंयम तथा क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक इन तीन भेदस्वरूप सकलचारित्र की प्राप्ति के विधान की विस्तार से प्ररूपणा की गई है। इसी प्रकार आगे सम्पूर्ण चारित्र की प्राप्ति के विधान की भी वहाँ विस्तारपूर्वक प्ररूपणा की गई है।' इस सब का स्पष्टीकरण आगे 'धवला' के प्रसंग में किया जाएगा। ९. गति-आगति --उपर्युक्त नौ चलिकाओं में यह अन्तिम है । इसमें गति-आगति के आश्रय से इन चार विषयों का क्रम से विचार किया गया है १. नारक मिथ्यादृष्टि आदि प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करते हुए उसे वे किस अवस्था में व किन कारणों से उत्पन्न करते हैं, इसका विचार किया गया है (सूत्र १-४३)। २. नारक मिथ्यादष्टि आदि विवक्षित गति में किस गणस्थान के साथ प्रविष्ट होते हैं और वहाँ से वे किस गुणस्थान के साथ निकलते हैं, इसका स्पष्टीकरण किया गया है (४४-७५)। __३. नारक मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि आदि विवक्षित पर्याय में अपनी आयु को समाप्त करके अगले भव में अन्यत्र किन गतियों में आते-जाते हैं तथा वहाँ वे किन अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं व किन अवस्थाओं को नहीं प्राप्त करते हैं, इसकी चर्चा की गई है (७६-२०२)। १. धवला पु० ६, पृ० २४६ २. 'सम्पूर्ण चारित्र' से यह अभिप्राय समझना चाहिए कि योग का अभाव हो जाने पर जब ___ अयोगिकेवली के शैलेश्य अवस्था प्राप्त होती है तभी चारित्र की पूर्णता होती है। ३. धवला पु० ६, पृ० २६८-३४२ ४. धवला पु० ६, पृ० ३४२-४१८ ६० / षट्खण्डागम-परिशीलन . Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. नारक आदि विवक्षित पर्याय को छोड़कर किन गतियों में आते-जाते हैं व वहाँ उत्पन्न होकर किन-किन ज्ञानादि गुणों को उत्पन्न करते और किन गुणों को वे नहीं उत्पन्न करते हैं, इसे स्पष्ट किया गया है (२०३-४३) । __ इनमें से प्रत्येक को यहाँ उदाहरण के रूप में उसके प्रारम्भिक अंश को लेकर स्पष्ट किया जाता है १. नारकी मिथ्यादृष्टि प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करते हुए उसे पर्याप्तकों में उत्पन्न करते हैं, अपर्याप्तकों में नहीं। पर्याप्तकों में भी वे पर्याप्त होने के प्रथम समय से लेकर तत्प्रायोग्य अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् उत्पन्न करते हैं, उसके पूर्व में नहीं । प्रथम तीन पृथिवियों में वर्तमान नारकियों में कोई उस सम्यक्त्व को जातिस्मरण से, कोई धर्मश्रवण से और कोई वेदना के अनुभव से इस प्रकार तीन कारणों से उत्पन्न करते हैं। नीचे चार पृथिवियों के नारकी धर्मश्रवण के बिना उपर्युक्त दो ही कारणों से उसे उत्पन्न करते हैं (१-१२)। इसी प्रकार से शेष तिर्यंचों आदि में भी उक्त सम्यक्त्व की उत्पत्ति को स्पष्ट किया गया है। २. नारकियों में कितने ही मिथ्यात्व के साथ नरकगति में प्रविष्ट होकर व वहाँ मिथ्यात्व अथवा सम्यक्त्व के साथ रहकर अन्त में वहाँ से मिथ्यात्व के साथ निकलते हैं। कोई मिथ्यात्व के साथ वहाँ प्रविष्ट होकर अन्त में सासादनसम्यक्त्व के साथ वहाँ से निकलते हैं । कोई मिथ्यात्व के साथ प्रविष्ट होकर सम्यक्त्व के साथ वहाँ से निकलते हैं। कोई सम्यक्त्व के साथ नरकगति में प्रविष्ट होकर सम्यक्त्व के साथ ही वहाँ से निकलते हैं। पर यह प्रथम पृथिवी में प्रविष्ट होने वाले नारकियों के ही सम्भव है। इसका कारण यह है कि जिन्होंने सम्यक्त्व के प्राप्त करने के पूर्व नारकायु को बाँध लिया है व तत्पश्चात् सम्यक्त्व को प्राप्त किया है वे बद्धायुष्क जीव नरकगति में तो जाते हैं, पर प्रथम पृथिवी में ही जाकर उत्पन्न होते हैं; आगे की पृथिवियों में उनकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है। दूसरी से छठी पृथिवी के नारकियों में कोई मिथ्यात्व के साथ वहाँ जाकर मिथ्यात्व के साथ ही वहां से निकलते हैं,कोई मिथ्यात्व के साथ वहाँ जाकर सासादनसम्यक्त्व के साथ वहाँ से निकलते हैं, और कोई मिथ्यात्व के साथ जाकर सम्यक्त्व के साथ वहां से निकलते हैं। सातवीं पृथिवी के नारकियों में सभी मिथ्यात्व के साथ ही वहाँ से निकलते हैं। जो नारकी वहाँ सम्यक्त्व, सासादनसम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व को भी प्राप्त होते हैं वे मरण के समय उससे च्युत होकर नियम से मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं (४४-५२)। ___ इसी प्रकार से आगे क्रम से तिर्यंच, मनुष्य और देवों के विषय में भी प्रकृत प्ररूपणा की गई है (५३-७५)। ३. नारकी मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि नरक से निकलकर कितनी गतियों में आते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वे तियंच गति और मनुष्य गति इन दो गतियों में आते हैं। तिर्यंचों में आते हुए वे पंचेन्द्रियों में आते हैं, एकन्द्रियों व विकलेन्द्रियों में नहीं आते। पंचेन्द्रियों में आते हुए वे संज्ञियों में आते हैं, असंज्ञियों में नहीं। संज्ञियों में आते हुए वे गर्भ जन्मवालों में आते हैं, सम्मूर्छन जन्मवालों में नहीं । गर्भजों में आते हुए वे पर्याप्तकों में आते हैं, अपर्याप्तकों में नहीं। पर्याप्तकों में आते हुए वे संख्यातवर्षायुष्कों में आते हैं, असंख्यातवर्षायुष्कों में नहीं। मूलगतप्रन्थ विषय का परिचय | ६१ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यों में आते हुए वे गर्भजों में आते हैं, सम्मूर्छनों में नहीं । गर्भजों में आते हुए बे पर्याप्तकों में आते हैं, अपर्याप्तकों में नहीं । पर्याप्तकों में आते हुए वे संख्यातवर्षायुष्कों में आते हैं, असंख्यात वर्षायुष्कों में नहीं (७६-८५) । यह प्ररूपणा यहाँ नारकी मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्मिथ्यादृष्टियों के आश्रय से की गई है। इसी पद्धति से आगे वह सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि नारकियों (८६-१००), विभिन्न तिर्यंचों (१०१-४०), मनुष्यों (१४१-७२) और देवों (१७३-२०२) के आश्रय से भी की गई है। विशेष इतना है कि सम्यग्मिथ्यात्व के साथ कहीं से भी निकलना सम्भव नहीं है, क्योंकि इस गुणस्थान में मरण नहीं होता। ४. नीचे सातवीं पृथिवी के नारकी नारक पर्याय को छोड़कर कितनी गतियों में आते हैं, इस प्रश्न को स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि वे एक मात्र तिर्यंचगति में आते हैं। तियंचों में उत्पन्न होकर वे तिर्यंच आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और संयमासंयम इन छह को नहीं उत्पन्न करते हैं । छठी पृथिवी के नारकी नरक से निकलते हुए तियंच गति और मनुष्य गति इन दो गतियों में आते हैं । तियंचों और मनुष्यों में उत्पन्न हुए उनमें से कितने ही इन छह को उत्पन्न करते हैं-आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और संयमासंयम। पांचवीं पथिवी के नारकी नरक से निकल कर तिर्यंच गति और मनुष्य गति इन दो गतियों में आते हैं । तिर्यंचों में उत्पन्न हुए उनमें से कितने ही इन छह को उत्पन्न करते हैंआभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और संयमासंयम । मनुष्यों में उत्पन्न हुए उनमें से कुछ इन आठ को उत्पन्न करते हैं-आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम । चौथी पृथिवी के नारकी नरक से निकलकर तिर्यंच और मनुष्य इन दो गतियों में आते हैं । तिर्यंचों में उत्पन्न हुए उनमें से कितने ही पूर्वोक्त आभिनिबोधिकज्ञान आदि छह को उत्पन्न करते हैं । मनुष्यों में उत्पन्न हुए उनमें से कितने ही इन दस को उत्पन्न करते हैं-आभिनिबोधिकज्ञान आदि पांच ज्ञान, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, संयमासंयम, संयम और मुक्ति । पर वे बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती और तीर्थंकर नहीं होते । मुक्ति के प्रसंग में यहाँ कहा गया है कि उनमें कितने ही अन्तकृत होकर सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं, और सब दुःखों के अन्त होने का अनुभव करते हैं। ____ ऊपर की तीन पृथिवियों के नारकियों की प्ररूपणा पूर्वोक्त चतुर्थ पृथिवी से निकलते हुए नारकियों के ही समान है। विशेषता इतनी है कि उन तीन पृथिवियों से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न हुए उनमें कुछ पूर्वोक्त दस के साथ तीर्थकरत्व को भी उत्पन्न करते हैं, इस प्रकार वे ग्यारह को उत्पन्न करते हैं। ____ यह प्ररूपणा यथासम्भव सातवीं-छठी आदि पृथिवियों से निकलते हुए नारकियों के विषय में की गई है (२०३-२०)। इसी पद्धति से आगे प्रकृत प्ररूपणा तिर्यंच-मनुष्यों (२२१-२५) और देवों (२२६-४३) के विषय में भी की गई है। इस प्रकार उपर्युक्त नौ चूलिकाओं में विभक्त यह जीवस्थान खण्ड से सम्बद्ध चूलिका प्रकरण ५१५ सूत्रों (४६+ ११७+२+२+२+४४+४३+१६+ २४३) में समाप्त हुआ ६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। वह १६ जिल्दों में से छठी जिलद में प्रकाशित हुआ है। द्वितीय खण्ड : क्षुद्रकबन्ध (खुद्दाबन्ध) 'क्षुद्रकबन्ध' यह प्रस्तुत षट्खण्डगम का दूसरा खण्ड माना जाता है। जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चका है, मूलग्रन्थकार ने इन खण्डों की न कहीं कोई व्यवस्था की है और न इन खण्डों में प्रस्तुत 'खुद्दाबंध" के अतिरिक्त अन्य किसी खण्ड का उन्होंने नामनिर्देश भी किया है । धवलाकार ने भी प्रस्तुत खण्ड की 'धवला' टीका को प्रारम्भ करते हुए महादण्डक के प्रारम्भ में (पृ० ५७५) ग्यारह अनुयोगद्वारों में निबद्ध 'खुद्दाबंध' का नाम निर्देश किया है । पर वह षट्खण्डागम का दूसरा खण्ड है ऐसा संकेत उन्होंने कहीं भी नहीं किया। इसी प्रकार उन्होंने अन्यत्र यथाप्रसंग इसके सूत्रां को उद्धृत करते हुए प्रायः 'खुद्दाबंध' इस नाम निर्देश के साथ ही उन्हें उद्धृत किया है । पर वह प्रस्तुत षट्खण्डागम का दूसरा खण्ड है, ऐसा उन्होंने कहीं संकेत भी नहीं किया। इसमें बन्धक जीवों की प्ररूपणा संक्षेप से की गई है, इसीलिए इसे नाम से 'क्षुद्रकबन्ध' कहा गया है। यह अपेक्षाकृत नाम निर्देश है । कारण यह कि आचार्य भूतबलि के द्वारा जो प्रस्तुत षट्खण्डागम का छठा खण्ड 'महाबन्ध' रचा गया है वह ग्रन्थप्रमाण में तीस हजार (३०,०००) है, जब कि यह क्षुद्रकबन्ध उनके द्वारा १५८६ सूत्रों में ही रचा गया है। बन्धकसत्त्व यहां सर्वप्रथम "जे ते बन्धगा णाम तेसिमिमो णिद्देसो" इस प्रथम सूत्र के द्वारा बन्धक जीवों की प्ररूपणा करने की सूचना करते हुए आगे के सूत्र में गति व इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं का निर्देश किया गया है। तत्पश्चात् यथाक्रम से उन गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में बन्धक-अबन्धक जीवों के अस्तित्व को प्रकट किया गया है। यथा-- गतिमार्गणा के अनुसार नरकगति में नारकी जीव बन्धक हैं । तिर्यंच बन्धक हैं। देव बन्धक हैं । मनुष्य बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं। सिद्ध अबन्धक हैं (सूत्र ३-७)। ___इस पद्धति से आगे इन्द्रिय आदि शेष तेरह मार्गणाओं के आश्रय से यथासम्भव उन बन्धक-अबन्धक जीवों के अस्तित्व की प्ररूपणा की गई है। इसमें सब सूत्र ४३ हैं । इसका उल्लेख अनुयोगद्वार के रूप में नहीं किया गया है। इस प्रकार बन्धक-अबन्धकों के अस्तित्व को दिखलाकर आगे उन बन्धक जीवों की प्ररूपणा में प्रयोजनीभूत इन ग्यारह अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा गया ह--१. एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, २. एक जीव की अपेक्षा काल, ३. एक जीव की अपेक्षा अन्तर, ४. नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, ५. द्रव्यप्रमाणानुगम, ६. क्षेत्रानुगम, ७. स्पर्शनानुगम, १. गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरश्या बन्धा तिरिक्खिा बंधा..... सिद्धा अबंधा। एवं .. खुद्दाबंध एक्कारस अणियोगद्दारं णेयव्वं । २. यह सूत्र इसी रूप में जीवस्थान के सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में भी आ चुका है । पृ० १, पृ० १३२, सूत्र ४ मूलगतग्रन्थ विषय का परिचय / ६३ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. नानाजीवों की अपेक्षा काल, ६. नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर, १०. भागाभागानुगम और ११. अल्पबहुत्वानुगम । १. एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व उक्त क्रम से इन ग्यारह अनुयोगद्वार के आश्रय से उन बन्धकों की प्ररूपणा करते हुए क्रमप्राप्त इस 'एक जीव की अपेक्षा स्वामित्वानुगम' के प्रसंग में सर्वप्रथम सूत्रकार द्वारा 'एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व' की प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा की गई है। तत्पश्चात् गतिमार्गणा के अनुसार नरक गति में 'नारकी' कैसे होता है, ऐसा प्रश्न उठाते हुए उसके स्पष्टीकरण में कहा गया है कि नरकगति नामकर्म के उदय से नारकी होता है। इसी पद्धति से आगे तिर्यंचगति नामकर्म के उदय से तियंच, मनुष्य गति नामकर्म के उदय से मनुष्य और देवगति नामकर्म के उदय से देव होता है, यह स्पष्ट किया गया है। इसी प्रसंग में आगे सिद्धगति में सिद्ध कैसे होता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि सिद्ध क्षायिकलब्धि से होता है (३-१३)। इसी पद्धति से आगे क्रम से इन्द्रिय आदि शेष मार्गणाओं के आश्रय से भी यथायोग्य उन बन्धकों के स्वामित्व की प्ररूपणा की गई है (१४-६१)। यहाँ सब सूत्र ६१ हैं। २. एक जीव की अपेक्षा कालानुगम ___ इस दूसरे अनुयोगद्वार में एक जीव की अपेक्षा उन बन्धकों के काल की प्ररूपणा करते हुए प्रथमतः नरक गति में नारकी कितने काल रहते हैं, यह पृच्छा की गई है। पश्चात् उसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वे वहाँ जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से तेतीस सागरोपम काल तक रहते हैं। (१-३)। यह उनके काल का निर्देश सामान्य से किया गया है। आगे विशेष रूप में पृथिवियों के आश्रय से उनके काल की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि प्रथम पृथिवी के नारकियों का काल जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक सागरोपम है । अनन्तर द्वितीय पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तक के नारकियों का जघन्य काल क्रम से एक, तीन, सात, दस, सत्रह और बाईस सागरोपम तथा वही उत्कृष्ट क्रम से तीन, सात, दस, सत्रह, बाईस और तेंतीस सागरोपम कहा गया है (४-६)। __ आगे इसी पद्धति से तिर्यंच गति में तिर्यचों (१०-१८), मनुष्य गति में मनुष्यों (१६-२४) और देवगति में देवों (२५-३८) के काल की प्ररूपणा की गई है। तत्पश्चात् उसी पद्धति से आगे क्रम से इन्द्रिय आदि अन्य मार्गणाओं के आश्रय से प्रकृत काल की प्ररूपणा की गई है। इस अनुयोगद्वार की सूत्र संख्या २१६ है । यहाँ यह स्मरणीय है कि प्रस्तुत काल की प्ररूपणा इसके पूर्व जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत पाँचवें कालानुगम अनुयोगद्वार में की जा चुकी है। पर वहाँ जो उसकी प्ररूपणा की गई है वह क्रमसे गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में यथासम्भव गुणस्थानों के आश्रय से की गई है। किन्तु यहाँ उसकी प्ररूपणा गुणस्थान निरपेक्ष केवल मार्गणाओं मे ही की गई है । यह उन दोनों में विशेषता है। यही विशेषता आगे एक जीव की अपेक्षा अन्तरानुगम आदि अन्य अनुयोगद्वारों में भी रही है। ६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. एकजीव की अपेक्षा अन्तरानुगम यहां गति-इन्द्रिय आदि उन्हीं चौदह मार्गणाओं में अपगे-अपने अवान्तर भेदों के साथ एक जीव की अपेक्षा अन्तर की प्ररूपणा की गई है । यथा नरकगति में नारकियों का अन्तर कितने काल होता है, इस प्रश्न को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वह उनका अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्यात पुद्गल परिवर्तन रूप अनन्त काल तक होता है । यह जो सामान्य से अन्तर कहा गया है वही अन्तर पृथक्-पृथक् सातों पृथिवियों के ना रकियों का भी है (१-४)। अभिप्राय यह है कि कोई एक नारकी नरक से निकलकर यदि गर्भज तिर्यंच या मनुष्यों में उत्पन्न होता है और वहाँ सबसे जघन्य आयु के काल में नारक आयु को बाँधकर मरण को प्राप्त होता हुआ पुनः नारकियों में उत्पन्न होता है तो इस प्रकार से वह सूत्रोक्त अन्तर्मुहूर्त मात्र जघन्य अन्तर प्राप्त हो जाता है। । सूत्रनिर्दिष्ट असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण वह उत्कृष्ट अन्तर उसे नारकी की अपेक्षा उपलब्ध होता है जो नरक से निकलकर, नरक गति को छोड़ अन्य गतियों में आवली के असंख्यातवें भाग मात्र पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण परिभ्रमण करता हुआ पीछे फिर से नारकियों में उत्पन्न होता है। __ जिस प्रकार यह अन्तर की प्ररूपणा नरक गति के आश्रय से नारकियों के विषय में की गई है इसी प्रकार से वह आगे सामान्य तिर्यंचों व उनके अवान्तर भेदों में, सामान्य मनुष्यों व उनके अवान्तर भेदों में (५-१०) तथा सामान्य देवों व उनके अन्तर्गत भेदों में (११-३४) की गई है। इसी प्रकार से आगे प्रकृत अन्तर की प्ररूपणा यथाक्रम से इन्द्रिय आदि अन्य मार्गणाओं के आश्रय से की गई है (३५-१५१)। इस अनुयोगद्वार में समस्त सूत्रों की संख्या १५१ है । ४. नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय इस अनुयोगद्वार की समस्त सूत्र संख्या २३ है । गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में जीव नियम से कहाँ सदाकाल विद्यमान रहते हैं और कहाँ वे कदाचित् रहते हैं व कदाचित् नहीं भी रहते हैं, इस प्रकार इस अनुयोगद्वार में विवक्षित जीवों के अस्तित्व व नास्तित्व रूप भंगों का विचार किया गया है । यथा-- गतिमार्गणा के प्रसंग में कहा गया है कि सामान्य नारकी तथा पृथक्-पृथक् सातों पृथिवियों के नारकी नियम से रहते हैं, उनका वहाँ कभी अभाव नहीं होता (१-२)। तियंचगति में सामान्य तिर्यंच व पंचेद्रिय तिर्यंच आदि विशेष तिर्यंच तथा मनुष्यगति में मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त व मनुष्यिणी ये सब जीव नियम से सदा ही रहते हैं (३)। मनुष्य अपर्याप्त कदाचित् रहते हैं और कदाचित् नहीं भी रहते हैं (४)। देवगति में सामान्य से देव व विशेष रूप से भवनवासी आदि सभी देव नियम से सदा काल रहते हैं (५-६)। इसी पद्धति से आगे अन्य इन्द्रिय आदि मार्गणाओं में भी जीवों के अस्तित्व-नास्तित्व का विचार किया गया है (७-२३)। यहाँ विशेष ज्ञातव्य यह है कि ऊपर जिस प्रकार मनुष्य अपर्याप्तों के कदाचित् रहने और मलगतग्रन्थ विषय का परिचय | ६५ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदाचित् न रहने का उल्लेख किया गया है (४) उसी प्रकार आगे वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्र काययोगी (१), सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयत (१६), उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि (२१) जीवों के भी कदाचित् रहने और कदाचित् न रहने का उल्लेख किया गया है। पूर्वोक्त मनुष्य अपर्याप्त और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी आदि सात, इस प्रकार ये आठ सान्तरमार्गणायें निर्दिष्ट की गई हैं ! ५. द्रव्यप्रमाणानुगम इस अनुयोगद्वार में गति-इन्द्रिय आदि उन चौदह मार्गणाओं में यथाक्रम से जीवों की संख्या का विचार किया गया है । यथा द्रव्यप्रमाणानुगम से गतिमार्गणा के अनुसार नरक गति में नारकीजीव द्रव्यप्रमाण से कितने हैं, ऐसा प्रश्न उठाते हुए उसके स्पष्टीकरण में कहा गया है कि वे द्रव्यप्रमाण से असंख्यात हैं । काल की अपेक्षा वे असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सपिणियों से अपहृत होते हैं। क्षेत्र को अपेक्षा वे जगप्रतर के असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात जगश्रेणि प्रमाण हैं । उन जगश्रेणियों की विष्कम्भसूची सूच्यंगुल के द्वितीय वर्गमूल से गुणित उसी के प्रथम वर्गमूल प्रमाण हैं (१-६)। इस प्रकार सामान्य नारकियों की संख्या का उल्लेख करके आगे प्रथमादि पृथिवियों में वर्तमान नारकियों की संख्या का भी पृथक्-पृथक् उल्लेख किया गया है (७-१३)। इसी प्रकार से आगे तिर्यंच आदि शेष तीन गतियों और इन्द्रिय-काय आदि शेष मार्गणाओं में भी जीवों की संख्या की प्ररूपणा की गई है । यहाँ सब सूत्र १६१ हैं । ६. क्षेत्रानुगम इस अनयोगद्वार में गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में वर्तमान जीवों के वर्तमान निवास स्वरूप क्षेत्र की प्ररूपणा स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद इन पदों के आश्रय से की गई है। यथा गति मार्गणा के अनुसार नरक गति में नारकी स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद की अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहते हैं, इस प्रश्न के साथ यह स्पष्ट किया गया है कि वे इन तीन पदों की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। यही क्षेत्र पृथक्-पृथक् प्रथमादि सातों पृथिवियों में वर्तमान नारकियों का भी है (१-३)।। स्वस्थान दो प्रकार का है-स्वस्थान-स्वस्थान और विहारवत्स्वथान । जीव जिस ग्रामनगरादि में उत्पन्न हुआ है उसी में सोना, बैठना व गमन आदि करना, इसका नाम स्वस्थान-स्वस्थान है। अपने उत्पन्न होने के ग्रामनगरादि को छोड़कर अन्यत्र सोने, बैठने एवं गमन आदि करने का नाम विहारवत्स्वस्थान है। वेदना व कषाय आदि के वश आत्मप्रदेशों का बाहर निकलकर जाना, इसका नाम समुद्घात है । वह वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक, तैजस, आहारक और केवलिसमुद्घात के भेद से सात प्रकार का है। इनमें से प्रकृत में वेदना, कषाय वैक्रियिक और मारणान्तिक इन चार समघातों की विवक्षा रही है। कारण यह कि आहारकसमघात नारकियों के सम्भव नहीं है, क्योंकि वह ऋद्धि प्राप्त महर्षियों के ही होता है । केवलिसमुद्१. गो० जीवकाण्ड, १४२ १६ / षटखण्डागम-परिस Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घात केवलियों के होता है, अतः वह भी नारकियों के सम्भव नहीं है। तेजस समुद्घात महाव्रतों के बिना नहीं होता, इससे उसकी भी सम्भावना नारकियों के नहीं है । पूर्व भव को छोड़कर अगले भव के प्रथम समय में जो प्रवृत्ति होती है, इसे उपपाद कहा जाता है । इस प्रकार नरकगति में नारकियों के क्षेत्रप्रमाण को दिखाकर आगे तिर्यंचगति में उस क्षेत्र की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि तियंचगति में सामान्य तिर्यंच उक्त तीन पदों की अपेक्षा सब लोक में रहते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती और पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त ये उन तीनों पदों की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । ( ४-७ ) । मनुष्यगति में सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यणी स्वस्थान और उपपाद पद से लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । समुद्घात की अपेक्षा वे लोक के असंख्यातवें भाग में, असंख्यात बहुभागों में और समस्त लोक में रहते हैं। मनुष्य अपर्याप्त उन तीनों पदों से लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । ( ८-१४) । यहाँ समुद्घात की अपेक्षा जो मनुष्यों का क्षेत्र असंख्यात बहुभाग और समस्त लोक कहा गया है वह क्रम से प्रतरसमुद्घात और लोकपूरण समुद्घातगत केवलियों की अपेक्षा से कहा गया है । देवगति में सामान्य देवों का तथा विशेषरूप में भवनवासी आदि सर्वार्थसिद्धि विमान वासी देवों तक का क्षेत्र सामान्य से देवगति के समान लोक का असंख्यातवाँ भाग निर्दिष्ट किया गया है (१५-१७) । इसी पद्धति से आगे इन्द्रिय व काय आदि अन्य मार्गणाओं के आश्रय से भी क्रमशः प्रकृत क्षेत्र की प्ररूपणा की गई है । यहाँ सब सूत्र १२४ हैं । ७. स्पर्शनानुगम पूर्वक्षेत्रानुगम अनुयोगद्वार में जहाँ जीवों के वर्तमान निवासभूत क्षेत्र का विचार किया गया है वहाँ इस स्पर्शनानुगम में उक्त तीन पदों की अपेक्षा उन चौदह मार्गणाओं में यथाक्रम से वर्तमान क्षेत्र के साथ अतीत ६ जनागत काल का भी आश्रय लेकर इस स्पर्शनक्षेत्र की प्ररूपणा की गई है यथा- नरकगति में नारकियों ने स्वस्थान पद से कितने क्षेत्र का स्पर्श किया है, इस प्रश्न को उठाते हुए उसके स्पष्टीकरण में यह कहा गया है कि उन्होंने स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श किया है तथा समुद्घात और उपपाद इन दो पदों की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग का अथवा कुछ कम छह बटे चौदह भागों का स्पर्श किया है (१-५) । यह कुछ कम छह बटे चौदह भाग प्रमाण क्षेत्र अतीत काल के आश्रय से सातवीं पृथिवी के नारकी द्वारा किए जानेवाले मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदों की अपेक्षा कहा गया है । इसमें जो कुछ कम किया गया है वह धवलाकार के अभिप्रायानुसार संख्यात हजार योजनों से कम समझना चाहिए । प्रकारान्तर से धवलाकार ने यह भी कहा है कि अथवा 'कम का प्रमाण इतना है', यह जाना नहीं जाता, क्योंकि पार्श्व भागों के मध्य में इतना क्षेत्र कम है, इस विषय में विशिष्ट उपदेश प्राप्त नहीं है। आगे उन्होंने कहा है कि उपपाद पद के प्रसंग में भी इस ग्रन्थगत विषय का परिचय / ६७ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमी के प्रमाण को पूर्व के समान जानकर कहना चाहिए।' प्रथम पृथिवी के नारकियों ने उक्त तीनों पदों से लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श किया दूसरी से लेकर सातवीं पृथिवी तक के नारकियों ने स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग तथा समुद्घात और उपपाद की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग अथवा चौदह भागों में यथाक्रम से कुछ कम एक, दो, तीन, चार, पाँच और छह भागों का स्पर्श किया है (८-११)। ___इसी पद्धति से आगे तिर्यंचगति आदि तीन गतियों और इन्द्रिय-काय आदि शेष मार्गणाओं के आश्रय से प्रकृत स्पर्शन की प्ररूपणा की गई है । यहाँ सब सूत्र २७६ हैं । ८. नाना जीवों की अपेक्षा कालानुगम __ इस अनुयोगद्वार में गति-इन्द्रिय आदि मार्गणाओं में वर्तमान जीव वहाँ नाना जीवों की अपेक्षा कितने काल रहते हैं, इसका विचार किया गया है। यथा__नाना जीवों की अपेक्षा कालानुगम से गतिमार्गणा के अनुसार नरकगति में नारकी जीव कितने काल रहते हैं, यह पूछे जाने पर उत्तर में कहा गया है कि वे वहाँ सर्वकाल रहते हैं, उनका वहाँ कभी अभाव नहीं होता। यह जो सामान्य से नारकियों के काल का निर्देश किया गया है। वही पृथक्-पृथक् सातों पृथिवियों के नारकियों को भी निर्दिष्ट किया गया है (१-३) । तिर्यंचगति में नाना जीवों की अपेक्षा पाँचों प्रकार के तिर्यंचों और मनुष्यगति में मनुष्य अपर्याप्तकों को छोड़कर सभी मनुष्यों का भी सर्वकाल (अनादि-अनन्त) ही कहा गया है। मनुष्य अपर्याप्त जघन्य से क्षुद्रभवग्रहण मात्र और उत्कर्ष से वे पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्रकाल तक अपनी उस पर्याय में रहते हैं (४-८)। देवगति में सामान्य से देवों का व विशेष रूप से भवनवासियों को आदि लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी तक पृथक्-पृथक् सभी देव सदाकाल रहते हैं, उनमें से किन्हीं का भी कभी अभाव नहीं होता (६-११)। इसी पद्धति से आगे इन्द्रिय आदि अन्य मार्गणाओं में भी प्रस्तुत काल की प्ररूपणा की गई है। सब सूत्र यहाँ ५५ हैं। ६. नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरानुगम यहाँ गति-इन्द्रिय आदि मार्गणाओं में नाना जीवों की अपेक्षा यथाक्रम से अन्तर की प्ररूपणा की गई है। यथा गतिमार्गणा के अनुसार नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरानुगम से नरकगति में नारकियों का अन्तर कितने काल होता है, इस प्रश्न को उठाते हुए उसके उत्तर में कहा गया है कि उनका अन्तर नहीं होता, वे निरन्तर हैं-सदाकाल विद्यमान रहते हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियों में नारकी जीवों का अन्तर नहीं होता-वे सदा विद्यमान रहते हैं (१-४)। तिर्यंचगति में पाँचों प्रकार के तिर्यंच और मनुष्यगति में सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त १. धवला पु०७, पृ० ३६६-७० ६८/पटवण्डागम-परिशी Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और मनुष्यणी ये जीवराशियां भी निरन्तर हैं, उनका कभी अभाव नहीं होता। मनुष्य अपर्याप्तों का अन्तर जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्रकाल तक होता है (५-१०)। देवगति में सामान्य देवों का और उन्हीं के समान भवनवासियों से लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी तक किन्हीं देवविशेषों का भी अन्तर नहीं होता, वे सब ही निरन्तर हैं (११-१४)। इसी पद्धति से आगे इन्द्रिय व काय आदि अन्य मार्गणाओं में भी यथाक्रम से उस अन्तर की प्ररूपणा की गई है। यहाँ सब सूत्र ६८ हैं । यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि पीछे 'नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय' अनुयोगद्वार में जिन आठ सान्तर मार्गणाओं का निर्देश किया गया है उनमें जहाँ जितना अन्तर सम्भव है उसके प्रमाण को यहाँ प्रकट किया गया है। जैसे--- १. मनुष्य अपर्याप्तों का अन्तर जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र काल तक होता है (सूत्र ८-१०)। २. वैक्रियिक मिश्रकाययोगियों का अन्तर जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से बारह मुहूर्त तक होता है (२४-२६)। ३-४. आहारककाययोगियों और आहारकमिश्रकाययोगियों का अन्तर जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से वर्षपृथक्त्व काल तक होता है (२७-२६) । ५. सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयतों का अन्तर जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से छह मास तक होता है (४२-४४ । ६. उपशमसम्यग्दृष्टियों का अन्तर जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से सात रात-दिन होता है (५७-५६)। ७-८. सासादनसम्यग्दृष्टियों और सम्यग्मिथ्यादृष्टियों का अन्तर जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र काल तक होता है (६०-६२) । १०. भागाभागानुगम _ 'भागाभाग' में भाग से अभिप्राय अनन्तवें भाग, असंख्यातवें भाग और संख्यातवें भाग का है तथा अभाग से अभिप्राय अनन्तबहुभाग, असंख्यातबहुभाग और संख्यात बहुभाग का रहा है। तदनुसार इस अनुयोगद्वार में गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में वर्तमान नारकी आदि जीवों में विवक्षित जीव अन्य सब जीवों के कितने भाग प्रमाण हैं, इसका यथाक्रम से विचार किया गया है । जैसे गतिमार्गणा के अनुसार नरकगति में नारकी जीव सब जीवों के कितने वें भाग प्रमाण हैं, इस प्रश्न को उठाते हुए स्पष्ट किया गया है कि वे सब जीवों के अनन्तवें भाग प्रमाण हैं। इसी प्रकार पृथक्-पृथक् सातों पृथिवियों में स्थित नारकी सब जीवों के अनन्तवें भाग प्रमाण ही हैं (१-३)। तियंचगति में सामान्य से तिर्यंच जीव सब जीवों के अनन्तबहुभाग प्रमाण हैं । वहाँ पंचेन्द्रिय तिर्यंच आदि अन्य चार प्रकार के तिर्यंच तथा मनुष्यगति में मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, यूनग्रन्थगत विषय का परिचय | ६६ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यणी और मनुष्य अपर्याप्त ये सब पृथक्-पृथक् सब जीवों के अनन्तवें भाग प्रमाण देवगति में सामान्य से देव और विशेष रूप से भवनवासियों को आदि लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवों तक सब ही पृथक्-पृथक् सब जीवों के अनन्तवें भाग प्रमाण हैं (८-१०)। ____ इसी पद्धति से आगे इन्द्रियादि अन्य मार्गणाओं के आश्रय से प्रस्तुत भागाभाग का विचार किया गया है । यहाँ सब सूत्र ८८ हैं । ११. अल्पबहुत्वानुगम इस अन्तिम अनुयोगद्वार में गति-इन्द्रिय आदि उन चौदह मार्गणाओं में वर्तमान जीवों के प्रमाणविषयक हीनाधिकता का विचार किया गया है। यहाँ गतिमार्गणा के प्रसंग में सर्वप्रथम पांच गतियों की सूचना करते हुए उनमें इस प्रकार अल्पबहुत्व प्रकट किया गया है मनुष्य सबसे स्तोक हैं, नारकी उनसे असंख्यातगुणे हैं, देव असंख्यातगुणे हैं, सिद्ध अनन्तगुणे हैं, और तिर्यंच उनसे अनन्तगुणे हैं (१-६) । ___ आगे प्रकारान्तर से आठ गतियों की सूचना करते हुए उनमें इस प्रकार से अल्पबहुत्व का निर्देश किया गया है____ मनुष्यणी सबसे स्तोक हैं, मनुष्य उनसे असंख्यातगुणे हैं, नारकी असंख्यातगुणे हैं, पंचेन्द्रिय तियंच योनिमती असंख्यातगुणी हैं, देव संख्यातगुणे हैं, देवियाँ संख्यातगुणी हैं, सिद्ध अनन्तगुणे हैं, और उनसे तिर्यच अनन्तगुणे हैं (७-१५)। दूसरी इन्द्रियमार्गणा में जीवों के अल्पबहुत्व को इस प्रकार प्रकट किया गया हैइन्द्रियमार्गणा के अनुसार पंचेन्द्रिय सबसे स्तोक हैं, चतुरिन्द्रिय उनसे विशेष अधिक हैं, त्रीन्द्रिय विशेष अधिक हैं, द्वीन्द्रिय विशेष अधिक हैं, अनिन्द्रिय अनन्तगुणे हैं, और उनसे एकेन्द्रिय अनन्तगुणे हैं (१६-२१)। इस इन्द्रियमार्गणा में पर्याप्त-अपर्याप्तों का भेद करके प्रकारान्तर से पुन: उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है (२२-३७) । इसी पद्धति से आगे क्रम से कायमार्गणा आदि अन्य मार्गणाओं में प्रस्तुत अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है । यहाँ सब सूत्र २०५ हैं। जैसा कि ऊपर गति और इन्द्रिय मार्गणा में देख चुके हैं, कुछ अन्य मार्गणाओं में भी अनेक प्रकार से उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है । जैसे कायमार्गणा में चार प्रकार से (३८-४४, ४५-५६, ६०-७५ व ७६-१०६); योगमार्गणा में दो प्रकार से (१०७-१० व १११-२६); वेदमार्गणा में दो प्रकार से (१३०-३३ व १३४४४); संयममार्गणा में संयतों के अल्पबहुत्व को दिखाकर (१५६-६७) आगे संयतभेदों में चारित्रलब्धिविषयक अल्पबहुत्व को भी प्रकट किया गया है (१६८-१७४); सम्यक्त्वमार्गणा में उस अल्पबहुत्व को दो प्रकार से प्रकट किया गया है (१८६-६२ व १६३-६६)। यहाँ कायमार्गणा के अन्तर्गत जिस अल्पबहुत्व की चार प्रकार से प्ररूपणा की गई है उसमें सूत्र ५८-५६, ७४-७५, व १०५-६ में निगोद जीवों को वनस्पतिकायिकों से विशेष अधिक कहा गया है। साधारणत: निगोदजीव वनस्पतिकायिकों के ही अन्तर्गत माने गये हैं, उनसे भिन्न निगोदजीव नहीं माने गये। पर इस अल्पबहुत्व से उनकी वनस्पतिकायिकों से ७० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिन्नता सिद्ध होती है। इस विषय में धवलाकार द्वारा जो अनेक शंका-समाधानपूर्वक स्पष्टीकरण किया गया है उसका उल्लेख आगे के प्रसंग में किया जाएगा। महादण्डक चूलिका उक्त अल्पबहुत्व की प्ररूपणा के अनन्तर सूत्रकार ने “आगे सब जीवों में महादण्डक करने योग्य है" ऐसा निर्देश करते हुए समस्त जीवों में मार्गणाक्रम से रहित उस. अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की है। इसे धवलाकार ने चूलिका कहा है। यथा मनुष्य पर्याप्त गर्भोपक्रान्तिक सबसे स्तोक हैं, मनुष्यणी उनसे संख्यातगुणी हैं, सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देव उनसे संख्यातगुणे हैं, बादर तेजस्कायिक पर्याप्त उनसे असंख्यातगुणे हैं, इत्यादि । यहाँ सब सूत्र ७६ हैं। ___ इस प्रकार सूत्रकार द्वारा निर्दिष्ट 'एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व' आदि उन ग्यारह अनुयोगद्वारों में पूर्वप्ररूपित बन्धकसत्त्वप्ररूपणा और इस महादण्डक को सम्मिलित करने पर १३ अधिकार होते हैं । इस प्रकार यह क्षुद्रकबन्ध खण्ड उपर्युक्त १३ अधिकारों में समाप्त हुआ है । इसमें समस्त सूत्रसंख्या ४३ + ६१+२१६-१५१+२३ -१७१-१२४+२७४+५५ +६८+८८+ २०६+७६.-१५८६ है । यह दूसरा खण्ड एक ही ७वीं जिल्द में प्रकाशित हुआ है। तृतीय खण्ड : बन्ध-स्वामित्वविचय यह प्रस्तुत षट्खण्डागम का तीसरा खण्ड है। इसमें समस्त सूत्र ३२४ हैं। जैसा कि इस खण्ड का नाम है, तदनुसार उसमें बन्धक के स्वामियों का विचार किया गया है। सर्वप्रथम यहाँ वह बन्धस्वामित्वविचय की प्ररूपणा ओघ और आदेश के भेद से दो प्रकार की है, ऐसी सूचना की गई है । तत्पश्चात् ओघ से की जानेवाली उस बन्धस्वामित्वविषयक प्ररूपणा में ये चौदह जीवसमास (गुणस्थान) ज्ञातव्य हैं, ऐसा कहते हुए आगे उन चौदह गुणस्थानों का नाम निर्देश किया गया है। तदनन्तर इन चौदह जीवसमासों के आश्रय से प्रकृतियों के बन्धव्युच्छेद (बन्धव्युच्छित्ति) की प्ररूपणा की जाती है, ऐसी प्रतिज्ञा की गई है (सूत्र १-४)। ओघप्ररूपणा कृत प्रतिज्ञा के अनुसार आगे ओघ की अपेक्षा उस बन्धव्युच्छित्ति की प्ररूपणा करते हुए ज्ञानावरणीय आदि के क्रम से उनके साथ विवक्षित गुणस्थान में बन्ध से व्युच्छिन्न होनेवाली अन्य कर्म प्रकृतियों को भी यथाक्रम से सम्मिलित करके प्रश्नोत्तरपूर्वक उन बन्धक-अबन्धकों की प्ररूपणा की गई है। जैसे-- पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यश:कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इन १. देखिए धवला पु० ७, पृ० ५३६-४१ २. खुद्दाबंधस्स एक्कारसअणियोगद्दारणिबद्धस्स चूलियं काऊण महादंडओ वुच्चदे।- धवला पु० ७, पृ० ५७५ मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | ७१ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ कर्मप्रकृतियों का कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है, इस प्रश्न के साथ उसे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धि-संयतों में उपशमक और क्षपक तक बन्धक हैं, सूक्ष्म साम्परायिक शुद्धिकाल के अन्तिम समय में जाकर उनके बन्ध का व्युच्छेद होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं (५-६)। इन सूत्रों की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने उन्हें देशामर्शक कहकर उनसे सूचित अर्थ की प्ररूपणा में पृच्छास्वरूप ५वें सूत्र की व्याख्या में क्या बन्धपूर्व में व्युच्छिन्न होता है, क्या उदय पूर्व में व्युच्छिन्न होता है; क्या दोनों साथ ही व्युच्छिन्न होते हैं; इनका क्या अपने उदय के साथ बन्ध होता है, इत्यादि रूप से सूत्रगत एक ही पृच्छा में निलीन २३ पृच्छाओं को उद्भावित किया है तथा उनमें से कुछ विषम पृच्छाओं का समाधान भी किया है।' इनका स्पष्टीकरण आगे 'धवलागत विषय परिचय' के. प्रसंग में किया गया है। अगले सूत्र (६) की व्याख्या में उन्होंने उपर्युक्त २३ पृच्छाओं को उठाकर सूत्र में निर्दिष्ट उन पांच ज्ञानावरणीय आदि प्रकृतियों के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों के विषय में भी प्रस्तुत प्ररूपणा विस्तार से की है। यहाँ धवला में इस प्रसंग से सम्बद्ध अनेक प्राचीन आर्ष गाथाओं को उद्धृत करते हुए उनके आधार से यह प्रासंगिक विवेचन विस्तार से किया गया है। इस विषय में विशेष प्रकाश आगे धवला के प्रसंग में डाला जाएगा। ___इसी पद्धति से आगे दर्शनावरण के अन्तर्गत निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला व स्त्यानगृद्धि तथा अन्य अनन्तानुबन्धी आदि प्रकृतियों के बन्धक-अबन्धकों का विचार करते हुए इस ओघाश्रित प्ररूपणा को समाप्त किया गया है (७-३८) । यहाँ प्रसंग पाकर आगे तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध के कारणभूत दर्शनविशुद्धि आदि १६ कारणों का भी उल्लेख किया गया है। साथ ही उसके प्रभाव से प्राप्त होनेवाली लोकपूज्यता आदि रूप विशेष महिमा को भी प्रकट किया गया है (३६-४३)। उन १६ कारणों का विवेचन धवला में विस्तार से किया गया है।' आदेशप्ररूपणा ओघप्ररूपणा के समान वह बन्धक-अबन्धकों की प्ररूपणा आगे आदेश की अपेक्षा यथाक्रम से गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में की गई है (४३-३२४)। इस प्रकार यह तीसरा खण्ड ३२४ सूत्रों में समाप्त हुआ है। वह उन १६ जिल्दों में से ८वीं जिल्द में प्रकाशित हुआ है। चतुर्थ खण्ड : वेदना पूर्वनिर्दिष्ट महाकर्म प्रकृतिप्राभृत के कृति-वेदनादि २४ अनयोगद्वारों में से प्रारम्भ के कृति और वेदना ये दो अनुयोगद्वार इस 'वेदना' खण्ड के अन्तर्गत हैं। कृति अनुयोगद्वार से १. धवला पु० ८, पृ० ७-१३ २. वही, पृ० १३-३० ३. वही, पु० ८, पृ० ७६-६१ ७२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदना अनुयोगद्वार के अत्यधिक विस्तृत होने के कारण यह खण्ड 'वेदना' नाम से प्रसिद्ध हुआ है। १. कृति अनुयोगद्वार ___वेदना खण्ड को प्रारम्भ करते हुए इस कृति अनुयोगद्वार में सर्वप्रथम ‘‘णमो जिणाणं, णमो ओहिजिणाणं" को आदि लेकर "णमो वद्धमाणबद्धरिसिस्स" पर्यन्त ४४ सूत्रों के द्वारा मंगल के रूप में 'जिनों' और 'अवधिजिनों आदि को नमस्कार किया गया है। । तत्पश्चात् ४५वें सूत्र में यह निर्देश किया गया है कि अग्रायणीय पूर्व के अन्तर्गत चौदह 'वस्तु' नाम के अधिकारों में पाँचवें अधिकार का नाम च्यवनलब्धि है। उसके अन्तर्गत बीस प्राभतों में चौथा कर्मप्रकृतिप्राभत है। उसमें ये २४ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं-१. कृति २. वेदना, ३. स्पर्श, ४. कर्म, ५. प्रकृति, ६. बन्धन, ७. निबन्धन, ८. प्रक्रम, ६. उपक्रम, १०. उदय, ११. मोक्ष, १२. संक्रम, १३. लेश्या, १४. लेश्याकर्म, १५. लेश्यापरिणाम, ६. सात-असात, १७. दीर्घ-ह्रस्व, १८. भवधारणीय, १६. पुद्गलात्त, २०. निधत्त-अनिधत्त, २१. निकाचित-अनिकाचित, २२. कर्मस्थिति, २३. पश्चिमस्कन्ध और २४ अल्पबहुत्व । _इन २४ अनुयोगद्वारों में प्रथम कृति अनुयोगद्वार है। इसमें 'कृति' की प्ररूपणा की गई है । वह सात प्रकार की है - --१. नामकृति, २. स्थापनाकृति, ३. द्रव्यकृति, ४. गणनाकृति. ५. ग्रन्थकृति, ६. करणकृति और ७ भावकृति (सूत्र ४६)। इस प्रकार से इन सात कृतिभेदों का निर्देश करके आगे 'कृतिनयविभाषणता' के आश्रय से कौन नय किन कृतियों को स्वीकार (विषय) करता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि नैगम, व्यवहार और संग्रह ये तीन नय उन सब ही कृतियों को स्वीकार करते हैं। ऋजुसूत्रनय स्थापना कृति को स्वीकार नहीं करता है-शेष छह को वह विषय करता है। शब्द नय आदि नाम कृति और भाव कृति को स्वीकार करते हैं (४७-५०)। १. इस प्रकार कृतिनयविभाषणता को समाप्त कर आगे क्रम से उन सात कृतियों के स्वरूप को प्रकट करते हुए प्रथम नामकृति के विषय में कहा गया है कि जो एक जीव, एक अजीव, बहुत जोव, बहुत अजीव, एक जीव व एक अजीव, एक जीव व बहुत अजीव, बहुत जीव व एक अजीव तथा बहुत जीव व बहुत अजीव इन आठ में जिसका ‘कृति' यह नाम किया जाता है उसे नामकृति कहते हैं (५१)। २. काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोत्तकर्म, लेप्यकर्म, लेण्ण (लयन) कर्म, शैलकर्म, गृहकर्म, भित्ति कर्म, दन्तकर्म और भंडकर्म इनमें तथा अक्ष व वराटक इनको आदि लेकर और भी जो इसी प्रकार के हैं उनमें 'यह कृति है' इस प्रकार से स्थापना के द्वारा जो स्थापित किये जाते हैं उस सबका नाम स्थापनाकृति है (५२) । ___ अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त काष्ठकर्म आदि विविध क्रियाविशेषों के आश्रय से जो मूर्तियों की रचना की जाती है उसका नाम सद्भाव (तदाकार) स्थापनाकृति है तथा अक्ष (पांसा) व कौड़ी आदि में जो ‘कृति' इस प्रकार स्थापना की जाती है उसे असद्भाव (अतदाकार) स्थापनाकृति जानना चाहिए। ३. द्रव्यकृति दो प्रकार की है-आगमद्रव्यकृति और नोआगम द्रव्यकृति । इनमें जो आगम द्रव्यकृति है उसके ये नौ अर्थाधिकार हैं—स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, मूलप्रन्यगत विषय का परिचय / ७३ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थसम, ग्रन्थसम; नामसम और घोषसम (५३-५४)। __ आगे 'बन्धन' अनुयोगद्वार में आगमभावबन्धका विचार करते हुए पुनः इसी प्रकार का प्रसंग प्राप्त हुआ है (सूत्र ५, ६, १२ पु० १४, पृ० ७)। वहाँ और यहाँ भी धवलाकार ने इन स्थित-जित आदि आगमभेदों के स्वरूप को स्पष्ट किया है। इन दोनों प्रसंगों पर जो उनके लक्षणों में विशेषता देखी जाती है उसे भी यहाँ साथ में स्पष्ट किया जाता है। यथा जो पुरुष वृद्ध अथवा रोगी के समान भावागम में धीरे-धीरे संचार करता है उस पुरुष और उस भावागम का नाम भी स्थित है । आगे पुनः प्रसंग प्राप्त होने पर धवला में उसके स्वरूप का निर्देश करते हुए यह भी कहा गया है कि जिसने बारह अंगों का अवधारण कर लिया है वह साधु स्थित-श्रुतज्ञान होता है। स्वाभाविक प्रवत्ति का नाम जित है, जिस संस्कार से पुरुष निर्वाध रूप से भावागम में संचार करता है उस संस्कार से युक्त पुरुष को और उस भावागम को भी जित कहा जाता है। ___जिस-जिस विषय में प्रश्न किया जाता है उस-उसके विषय में जो शीघ्रता से प्रवृत्ति होती है उसका नाम परिचित है, तात्पर्य यह कि जिस जीव की प्रवृत्ति भावागम रूप समुद्र में क्रम, अक्रम अथवा अनुभय रूप से मछली के समान अतिशय चंचलापूर्वक होती है उस जीव को और भावागम को भी परिचित कहा जाता है। प्रकारान्तर आगे इसके लक्षण में यह भी कहा गया है कि जो बारह अंगों में पारंगत होता हुआ निर्बाध रूप से जाने हुए अर्थ के कहने में समर्थ होता है उसे परिचित श्रुतज्ञान कहते हैं। जो नन्दा, भद्रा, जया और सौम्या इन चार प्रकार की वाचनाओं को प्राप्त होकर दूसरों के लिए ज्ञान कराने में समर्थ होता है उसका नाम वाचनोपगत है । तीर्थंकर के मुख से निकले हुए बीजपद को सूत्र कहते हैं, उस सूत्र के साथ जो रहता है, उत्पन्न होता है, ऐसे गणधर देव में स्थित श्रुतज्ञान को सूत्रसम कहा जाता है। प्रकारान्तर से आगे उसके प्रसंग में श्रुतकेवली को सूत्र और उसके समान श्रुतज्ञान को सूत्रसम कहा गया है । अथवा बारह अंगस्वरूप शब्दागम का नाम सूत्र है, आचार्य के उपदेश बिना जो श्रुतज्ञान सूत्र से ही उत्पन्न होता है उसे सूत्रसम जानना चाहिए। बारह अंगों के विषय का नाम अर्थ है, उस अर्थ के साथ जो रहता है उसे अर्थसम कहते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि द्रव्यश्रुत-आचार्यों की अपेक्षा न करके, संयम के आश्रय से होनेवाले श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से जो बारह अंगस्वरूप श्रुत होता है तथा जिसके आधार स्वयंबुद्ध हुआ करते हैं उसे अर्थसम कहा जाता है। आगे पुनः उस प्रसंग के प्राप्त होने पर आगमसूत्र के बिना समस्त श्रुतज्ञानरूप पर्याय से परिणत गणधर देव को अर्थ और उसके समान श्रुतज्ञान को अर्थसम कहा गया है। यहीं पर प्रकारान्तर से यह भी कहा गया है कि अथवा बीजपद का नाम अर्थ है, उससे जो समस्त श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह अर्थसम कहलाता है। गणधर देव विरचित द्रव्यश्रुत का नाम ग्रन्थ है, उसके साथ जो द्वादशांग श्रुतज्ञान रहता है, उत्पन्न होता है उसे ग्रन्थसम कहते हैं। यह श्रुतज्ञान बोधितबुद्ध आचार्यों में अवस्थित रहता है । आगे पुनः प्रसंग प्राप्त होने पर उसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि १. धवला पु० ६, पृ० २५१-६१ तथा पु० १४, पृ० ७-८ ७४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यों के उपदेश का नाम ग्रन्थ है, उसके समान श्रुत को ग्रन्थसम कहा जाता है । अभिप्राय यह है कि आचार्यों के पादमूल में बारह अंगोंरूप शब्दागम को सुनकर जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है उसे ग्रन्थसम जानना चाहिए। नामभेद के द्वारा अनेक प्रकार से अर्थ ज्ञान के कराने के कारण एक आदि अक्षरोंस्वरूप बारह अंगों के अनुयोगों के मध्य में स्थित द्रव्यश्रुतज्ञान के भेदों को नाम कहा जाता है, उस नामरूप द्रव्यश्रुत के साथ जो श्रुतज्ञान रहता है, उत्पन्न होता है वह नामसम कहलाता है। यह नामसम श्रुतज्ञान शेष आचार्यों में स्थित होता है। इसी के सम्बन्ध में आगे प्रकारान्तर से यह कहा गया है कि आचार्यों के पादमूल में द्वादशांग शब्दागम को सुनकर जिसके प्रतिपाद्य अर्थविषयक ही श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है उसे नामसम कहा जाता है। ___ 'घोष' शब्द से यहाँ नाम का एक देश होने से घोषानुयोग विवक्षित है, उस 'घोष' द्रव्यानुयोगद्वार के साथ जो रहता है उस अनुयोग श्रु तज्ञान का नाम घोषसम है। आगे प्रकारान्तर से उसके सम्बन्ध में कहा गया है कि बारह अंगोंस्वरूप शब्दागम को सुनते हुए जिसके सुने हुए अर्थ से सम्बद्ध अर्थ को विषय करनेवाला ही श्रुतज्ञान उत्पन्न हुआ है उसे घोषसम कहा जाता है। ___ इस प्रकार आगम द्रव्यकृतिविषयक नौ अर्थाधिकारों का निर्देश करते हुए आगे उन अर्थाधिकारों सम्बन्धी उपयोगभेदों का उल्लेख इस प्रकार किया गया है—उन नौ अर्थाधिकारों के विषय में जो वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति, धर्मकथा तथा और भी जो इस प्रकार के हैं वे उपयोग हैं (५५)। सूत्र में 'उपयोग' शब्द के न होने पर धवलाकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि सूत्र में यद्यपि 'उपयोग' शब्द नहीं है तो भी अर्थापत्ति से उसका अध्याहार करना चाहिए। उक्त स्थित आदि नौ आगमोंविषयक जो यथाशक्ति भव्य जीवों के लिए ग्रन्थार्थ की प्ररूपणा की जाती है उसका नाम वाचना-उपयोग है। अज्ञात पदार्थ के विषय में प्रश्न करनापूछना, इसका नाम पृच्छना उपयोग है । विस्मरण न हो, इसके लिए पुनः पुनः भावागम का परिशीलन करना. यह परिवर्तना नाम का उपयोग है। कर्मनिर्जराके लिए अस्थि-मज्जासे अनुगत-हृदयंगम किये गये-श्रुतज्ञान का परिशीलन करना, इसे अनुप्रेक्षणा उपयोग कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि सुने हुए अर्थ का जो श्रुतके अनुसार चिन्तन किया जाता है उसे अनुप्रेक्षणा उपयोग समझना चाहिए। समस्त अंगों के विषय की प्रमुखता से किये जानेवाले बारह अंगों के उपसंहार का नाम स्तव है। बारह अंगों में एक अंग के उपसंहार को स्तुति और अंग के किसी एक अधिकार के उपसंहार को धर्मकथा कहा जाता है।' उक्त वाचनादि उपयोगों से रहित जीव को, चाहे वह श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से रहित हो अथवा विनष्ट क्षयोपशमवाला हो, अनुपयुक्त कहा जाता है । ऐसे अनुपयुक्तों की प्ररूपणा करते हुए आगे कहा गया है कि नैग और व्यवहार नय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त को अथवा अनेक अनुपयुक्तों को आगम से द्रव्यकृति कहा जाता है। संग्रहनय की अपेक्षा एक अथवा अनेक अनुपयुक्त जीव आगम से द्रव्यकृति हैं । ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त १. इसके लिए आगे धवला पु० १४, पृ० ६ और गो० कर्मकाण्ड गाथा ४६ भी द्रष्टव्य हैं। मूलग्रन्थगत विषय का परिचय / ७५ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम से द्रव्यकति है । शब्दनय की अपेक्षा प्रवक्तव्य है। इस सब को आगम से द्रव्यकृति कहा गया है (५६-६०)। नोआगम द्रव्यकृति ज्ञायकशरीर आदि के भेद से तीन प्रकार की है। इनमें ज्ञायकशरीर नोआगमद्रव्यकृति के प्रसंग में पुनः उन स्थित-जित आदि नौ अर्थाधिकारों का निर्देश किया गया है। च्युत, च्यावित और त्यक्त शरीरवाले कृतिप्राभूत के ज्ञायक का यह शरीर है, ऐसा मान करके आधेय में आधार के उपचार से उन शरीरों को ही ज्ञायकशरीर नोआगमद्रव्यकति कहा गया है । जो जीव भविष्य में इन कृतिअन योगद्वारों के उपादान कारण रूप से स्थित है उन्हें करता नहीं है; उन सबका नाम भावी नोपागमद्रव्यकृति है । ग्रन्थिम, वाइम, वेदिम, पूरिम,संघातिम, आहोदिम, निक्खोदिम, प्रोवेल्लिम, उद्वेल्लिम, वर्ण, चूर्ण, गन्ध और विलेपन अादि तथा अन्य भी जो इस प्रकार के सम्भव हैं उन सबको ज्ञायकशरीर-भावीव्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकृति कहा गया है (६१-६५)। ४. गणनाकृति अनेक प्रकार की है । जैसे—'एक' (१) संख्या नोकृति, 'दो' (२) संख्या कृति और नोकृति के रूप से प्रवक्तव्य, 'तीन' (३) संख्या को आदि लेकर आगे की संख्यात, असंख्यात व अनन्त संख्या कतिस्वरूप है (६६) । जिस संख्या का वर्ग करने पर वह वृद्धि को प्राप्त होती है तथा अपने वर्ग में से वर्गमूल को कम करके पुनः वर्ग करने पर वृद्धि को प्राप्त होती है उसे कृति कहा जाता है। '१' संख्या का वर्ग करने पर वह वृद्धि को नहीं प्राप्त होती तथा उसमें से वर्गमूल के कम कर देने पर वह निर्मूल नष्ट हो जाती है, इसलिए '१' संख्या को नोकृति कहा गया है । '२' संख्या का वर्ग करने पर वह वृद्धिंगत तो होती है (२x२ =४), पर उसके वर्ग में से वर्गमूल को कम करने पर वह वृद्धि को प्राप्त नहीं होती (२x२=४, ४–२ २), उतनी ही रहती है, इसलिए उसे न नोकृति कहा जा सकता है और न कृति भी। इसलिए उसे अवक्तव्य कहा गया है। '३' संख्या का वर्ग करने पर तथा वर्ग में से वर्गमूल कम करने पर भी वह वृद्धि को प्राप्त होती है (३X ३-६, ६-३-६), इसलिए '३' इसको आदि लेकर आगे की ४,५,६ आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त इन सब संख्याओं को कृति कहा गया है । ये गणनाकृति के तीन प्रकार हुए। यहाँ धवलाकार ने इस सूत्र को देशामर्शक कहकर उसके प्राश्रय से धन, ऋण और धनऋण सब गणित को प्ररूपणीय कहा है। आगे उन्होंने कृति, नोकृति और अवक्तव्य इनकी सोदाहरण प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा करते हुए उसके विषय में इन चार अनुयोगद्वारों का निर्देश किया है--ओघानुयोग, प्रथमानुयोग, चरमानुयोग और संचयानुयोग । इनकी प्ररूपणा करते हुए संचयानुगम के प्रसंग में उन्होंने उसकी प्ररूपणा सत्यप्ररूपणा व द्रव्यप्रमाणानुगम ग्रादि पाठ अनुयोगद्वारों के प्राश्रय से विस्तारपूर्वक की है।' ५. पाँचवीं ग्रन्थकृति है। उसके स्वरूप का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि लोक, वेद और समयविषयक जो शब्द प्रबन्धरूप अक्षर-काव्यादिकों की ग्रन्थ-रचना की जाती है उस सबका नाम ग्रन्थकृति है (६७)। यहाँ धवलाकार ने ग्रन्थकृति के विषय में चार प्रकार के निक्षेप की प्ररूपणा करते हुए १. धवला पु० ६, पृ० २७६-३२१ ७६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोआगमभावकृति के इन दो भेदों का निर्देश किया है-श्रुतभाव ग्रन्थकृति और नोश्रुतभाव ग्रन्थकृति । इस प्रसंग में उन्होंने श्रुत को लौकिक, वैदिक और सामायिक के भेद से तीन प्रकार का कहा है। इनमें हाथी, अश्व, तंत्र, कौटिल्य और वात्स्यायन आदि के बोध को लौकिकभाव श्रुतग्रन्थ कहा गया है। द्वादशांगविषयक बोध का नाम वैदिकभाव श्रुतग्रन्थ है । नैयायिक, वैशेषिक, लोकायत, सांख्य, मीमांसक और बौद्ध आदि विविध प्रकार के दर्शनों के बोध को सामायिकभावश्रुतग्रन्थ कहा जाता है। इनकी जो प्रतिपाद्य अर्थ को विषय करने वाली शब्दप्रबन्धरूप ग्रन्थ रचना की जाती है उसका नाम श्रुतग्रन्थकृति है। नोश्रुतग्रन्थकति अभ्यन्तर व बाह्य के भेद से दो प्रकार की है। उनमें मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्य. रति, अरति, शोक, भय, जगप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ इन चौदह को अभ्यन्तर नोश्रुतग्रन्थकृति तथा क्षेत्र व वास्तु आदि दस को बाह्य नोश्रुतग्रन्थकृति कहा जाता है। ६. करणकृति मूलकरणकृति और उत्तरकरणकृति के भेद से दो प्रकार की है। इनमें मूलक रणकृति पाँच प्रकार की है-औदारिक शरीरमूलक रणकृति, वैक्रियिक शरीरमूलकरणकृति, आहारक शरीरमूलक रणकृति, तैजसशरीरमूलकरणकृति और कार्मणशरीरमूलकरणकृति । इनमें औदारिक, वैक्रियिक, आहारक इन तीन शरीरमूलकरणकृतियों में प्रत्येक संघातन, परिशातन और संघातन-परिशातन कृति के भेद से तीन-तीन प्रकार की है। तेजस और कार्मण शरीरमूलकरणकृति दो प्रकार की है—परिशातनकृति और संघातन-परिशातनकृति (६८-७०)। विवक्षित शरीर के परमाणुओं का निर्जरा के बिना जो केवल संचय होता है उसका नाम संघातनकृति है । उन्हीं विवक्षित शरीर के पुद्गल स्कन्धों के संचय के बिना जो निर्जरा होती है उसे परिशातनकृति कहा जाता है। विवक्षित शरीरगत पुद्गल स्कन्धों का जो आगमन और निर्जरा दोनों साथ होते हैं उसे संघातन-परिशातनकृति कहते हैं। ____ अगले सूत्र में यह सूचना की गई है कि इन सूत्रों (६९-७०) द्वारा तेरह (उक्त प्रकार से ३ औदारिकशरीरमूलकरणकृति, ३ वैक्रियिकशरीरमूलकरणकृति, ३ आहारकशरीरमूलकरणकृति, २ तेजसशरीरमूलक रणकृति और २ कार्मणशरीरमूलकरणकृति) कृतियों की सत्प्ररूपणा की गई है' (७१)। १. इसके शब्दविन्यास व रचनापद्धति को देखते हुए यह सूत्र नहीं प्रतीत होता है, किन्तु धवला का अंश दिखता है । सूत्रकार ने अन्यत्र कहीं अपने द्वारा विरचित सन्दर्भ का 'सूत्र' के रूप में उल्लेख करके यह नहीं कहा कि इस या इन सूत्रों के द्वारा अमुक विषय की प्ररूपणा की गई है। हाँ, उन्होंने आगे वर्णन किए जानेवाले विषय का उल्लेख कहीं-कहीं प्रतिज्ञा के रूप में अवश्य किया है । जैसे१. एत्तो ट्ठाणसमुक्कित्तणं वण्णइस्सामो ।--सूत्र १,६-२,१ २. इदाणि पढमसम्मत्ताभिमुहो जाओ पयडीओ बंधदि ताओ पयडीओ कित्तइस्सामो। -सूत्र १,६-३,१ ३. तत्थ इमो विदिओ महादंडओ कादवो भवदि । १,६-४,१ ४. तत्थ इमो तदिओ महादंडओ कादव्वो भवदि। १,६-५,१ ५. एत्तो सव्व जीवेस महादंडओ कादव्वो भवदि । २,११-२,१ (शेष पृष्ठ ७८ पर देखिए) मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | ७७ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रसंग में धवलाकार ते कहा है कि यह सूत्र देशामर्शक है, अत: इससे सूचित अधिकारों की प्ररूपणा की जाती है, क्योंकि उनके बिना सत्त्व घटित नहीं होता। ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए उन्होंने आगे पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अधिकारों का निर्देश किया है और तदनुसार क्रम से उन मूलकरण कृतियों की प्ररूपणा की है।' तत्पश्चात् उन्होंने 'अब यहाँ देशामर्शक सूत्र से सूचित अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करते हैं' ऐसा निर्देश करते हुए आगे क्रमशः सत्प्ररूपणा व द्रव्यप्रमाणानुगम आदि आठ अनुयोद्वारों के आश्रय से उन मूलकरणकृतियों की प्ररूपणा की है। उत्तरकरणकृति अनेक प्रकार की है। जैसे-असि, वासि,परशु, कुदारी, चक्र, दण्ड, वेम, नालिका, शलाका, मिट्टी, सूत्र और पानी आदि कार्यों की समीपता से वह उत्तरकरणकृति अनेक प्रकार की है। इसी प्रकार के जो और भी हैं उन सबको उत्तरकरणकृति समझना चाहिए (७२-७३)। ७. कृति का सातवाँ भेद भावकृति है। उसके लक्षण में कहा गया है कि जो जीव कृतिप्राभृत का ज्ञाता होकर उसमें उपयुक्त होता है उसका नाम भावकृति है (७४-७५)। ___ इस प्रकार उपर्युक्त सातों कृतियों के स्वरूप को दिखलाकर अन्त में 'इन कृतियों में कौन कृति यहाँ प्रकृत है' इसे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि इनमें यहाँ गणनाकृति प्रकृत (प्रसंग प्राप्त) है (७६)। यहाँ सूत्रकार ने गणनाकृति को प्रकृत बतलाकर स्वयं उसकी कुछ प्ररूपणा नहीं की है। जैसाकि पूर्व में कहा जा चुका है, धवलाकार ने उस गणनाकृति के स्वरूप के निर्देशक सूत्र (६६) की व्याख्या करते हुए उसके विषय में विशेष प्रकाश डाला है (पु० ६, पृ० २७४-३२१) । यह कृति अनुयोगद्वार हवीं जिल्द में प्रकाशित हुआ है । २. वेदना अनुयोगद्वार चतुर्थ 'वेदना' खण्ड का यह दूसरा अनुयोगद्वार है। विविध अधिकारों में विभक्त उसके अतिशय विस्तृत होने से धवलाकार ने उसे वेदनामहाधिकार कहा है। प्रकृत में तो ऐसा प्रतीत होता है कि धवलाकार यह कह रहे हैं कि सूत्रकार ने इन सूत्रों के द्वारा तेरह मूलकरणकृतियों के सत्त्व की प्ररूपणा की है । यह सत्त्व की प्ररूपणा पदमीमांसा आदि तीन अधिकारों के बिना बनती नहीं है, अतएव हम यहाँ देशामर्शक सूत्र के द्वारा सूचित अधिकारों की प्ररूपणा करते हैं। यदि वह सूत्र होता तो धवलाकार उसके आगे 'पुणो एदेण देसामासियसुत्तेण' में 'पुणो' यह नहीं कहते ।। इसी प्रकार आगे (पु० १४, पृ० ४६६) "एत्तो उवरिमगंथो चूलियाणाम" यह भी सूत्र (५, ६, ५८१) के रूप में सन्देहास्पद है। सूत्रकार ने ग्रन्थगत किसी सन्दर्भ को 'चूलिका' नहीं कहा। १. धवला पु० ६, पृ० ३२६-५४ २. वही, पृ० ३५४-४५० ३. कम्मट्ठजणियवेयणउवट्टिसमुत्तिण्णए जिणे णमिउं । __वेयणमहाहियारं विविहहियारं परूवेमो ।। पु० १०, पृ० १ ५८/पखण्डागम-परिशीलन Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकार ने 'वेदना' इस रूप में प्रकृत अनुयोगद्वार का स्मरण कराते हुए उसमें इन सोलह अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा है—१. वेदनानिक्षेप, २. वेदनानयविभाषणता, ३. वेदनानामविधान, ४. वेदनाद्रव्यविधान, ५. वेदनाक्षेत्रविधान, ६. वेदनाकालविधान, ७. वेदनाभावविधान, ८. वेदनाप्रत्ययविधान, ६. वेदनास्वामित्वविधान, १०. वेदनावेदन विधान, ११. वेदनागतिविधान, १२. वेदनाअनन्तरविधान, १३. वेदनासंनिकर्षविधान, १४. वेदनापरिमाणविधान, १५. वेदनाभागाभागविधान और १६. वेदनाअल्पबहुत्व (सूत्र १)। इन १६ अनुयोगद्वारों के आश्रय से यहाँ यथाक्रम से 'वेदना' की प्ररूपणा इस प्रकार की गई है १. वेदनानिक्षेप-~-इस अनुयोगद्वार में केवल दो सूत्र हैं। उनमें से प्रथम सूत्र के द्वारा 'वेदनानिक्षेप' अधिकार का स्मरण कराते हुए वह वेदनानिक्षेप चार प्रकार का है, यह सूचना की गई है तथा दूसरे सूत्र के द्वारा उसके उन चार भेदों का नामोल्लेख इस प्रकार किया गया है-नामवेदना, स्थापनावेदना, द्रव्यवेदना और भाववेदना। २. वेदनानयविभाषणता --वेदनानिक्षेप में निर्दिष्ट वेदना के उन चार भेदों में कौन नय किन वेदनाओं को स्वीकार करता है, इसे स्पष्ट करते हुए यहाँ कहा गया है कि नंगम, व्यवहार और संग्रह ये तीन नय सब ही वेदनाओं को स्वीकार करते हैं। ऋजुसूत्रनय स्थापनावेदना को स्वीकार नहीं करता है, तथा शब्दनय नामवेदना और भाववेदना को स्वीकार करता है (सूत्र १-४)। ३. वेदनानाम-विधान-यहाँ बन्ध, उदय व सत्त्वस्वरूप नो आगमद्रव्य कर्मवेदना प्रकृत है। प्रकृतवेदना के और नाम के विधान की प्ररूपणा करना-इस अनुयोगद्वार का प्रयोजन है। तदनुसार यहाँ प्रारम्भ में वेदनानाम विधान का स्मरण कराते हुए नैगम और व्यवहार नय की अपेक्षा उक्त वेदना के ये आठ भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-ज्ञानावरणीयवेदना, दर्शनावरणीयवेदना, वेदनीयवेदना, मोहनीयवेदना, आयुवेदना, नामवेदना, गोत्रवेदना और अन्तरायवेदना (सूत्र)। नामविधान को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि 'ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयम्' इस निरुक्ति के अनसार ज्ञान को आवृत करनेवाले कर्मद्रव्य का नाम ज्ञानावरणीय है । 'ज्ञानावरणीयवेदना' में धवलाकार के अभिप्रायानुसार 'ज्ञानावरणीयमेव वेदना ज्ञानावरणीयवेदना' ऐसा कर्मधारय समास करना चाहिए, न कि 'ज्ञानावरणीयस्य वेदना' इस प्रकार का तत्पुरुष समास; क्योंकि द्रव्यार्थिक नयों में भाव की प्रधानता नहीं होती। तदनुसार ज्ञानावरणीय रूप पुद्गल कर्मद्रव्य को ही ज्ञानावरणीयवेदना समझना चाहिए। इन दोनों नयों की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना को ज्ञानावरणीयवेदना नहीं कहा जा सकता। संग्रहनय की अपेक्षा आठों ही कर्मों की एक वेदना है (२)। एक 'वेदना' शब्द से समस्त वेदनाभेदों की अविनाभाविनी एक वेदनाजाति उपलब्ध होती है, इसलिए इस नय की अपेक्षा आठों कर्मों की एक वेदना है । ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा न ज्ञानावरणीय वेदना है और न दर्शनावरणीय वेदना आदि भी हैं किन्तु इस नय की अपेक्षा एक वेदनीय ही वेदना है (३)। लोकव्यवहार में सुख-दुःख को वेदना माना जाता है । ये सुख-दुःख वेदनीयरूप कर्मपुद्गलस्कन्ध को छोड़कर अन्य किसी कर्म से नहीं होते, इसीलिए इस नय की अपेक्षा अन्य कर्मों का मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | ७६ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निषेध करके उदय को प्राप्त एक वेदनीयकर्म द्रव्य को वेदना कहा गया है । शब्द नय की अपेक्षा 'वेदना' ही वेदना है (४)। इस नय की अपेक्षा वेदनीय द्रव्यकर्म के उदय से उत्पन्न होनेवाले सुख-दुःख अथवा आठ कर्मों के उदय से उत्पन्न जीव का परिणाम वेदना है, क्योंकि उस शब्द-नय का विषय द्रव्य नहीं है। इस अनुयोगद्वार में ४ ही सूत्र हैं। ४. वेदनाद्रव्यविधान—यह 'वेदना' अनुयोगद्वार का चौथा अवान्तर अनुयोगद्वार है। इसमें उपर्युक्त वेदनारूप द्रव्य के विधानस्वरूप से उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य पदों की प्ररूपणा की गई है। यहाँ प्रारम्भ में 'वेदनाद्रव्यविधान' का स्मरण कराते हुए उसकी प्ररूपणा में इन तीन अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा गया है—पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व। इनमें से पदमीमांसा में ज्ञानावरणीय वेदना क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुकृष्ट है, क्या जघन्य है और क्या अजघन्य है। इस प्रश्न को उठाते हुए उसके उत्तर में कहा गया है कि उकष्ट भी है, अनुत्कृष्ट भी है, जघन्य भी है और अजघन्य भी है। आगे संक्षेप में यह सूचना कर दी गई है कि इस ज्ञानावरणीय के समान अन्य सात कर्मों के भी इन पदों की प्ररूपणा करना चाहिए यहाँ धवलाकार ने पूर्वोक्त पृच्छासूत्र (२) और उत्तरसूत्र (३) को देशामर्शक कहकर उनके द्वारा सूचित उक्त उत्कृष्ठ आदि चार पदों के साथ अन्य सादि-अनादि आदि नौ पदों विषयक पच्छाओं और उनके उत्तर को प्ररूपणीय कहा है। इस प्रकार उन दो सूत्रों के अन्तर्गत तेरह-तेरह अन्य सूत्रों को समझना चाहिए। उस सबके विषय में विशेष विचार 'धवला' के प्रसंग में किया जायगा। दूसरे स्वामित्व अनुयोगद्वार में स्वामित्व के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-जघन्य पदविषयक और उत्कृष्ट पदविषयक । इनमें उत्कृष्ट पद के आश्रय से पूछा गया है कि स्वामित्व की अपेक्षा उत्कृष्ट पद में ज्ञानावरणीय वेदना द्रव्य से उत्कृष्ट किसके होती है (५-६)। इसके उत्तर में यह कहना अभिप्रेत है कि वह ज्ञानावरणीय वेदना द्रव्य से उत्कृष्ट गुणितकौशिक के होती है। इसी अभिप्राय को हृदयंगम करते हुए यहाँ उस गुणितकर्माशिक के ये लक्षण प्रकट किये गये हैं-जो साधिक दो हजार सागरोपम से हीन कर्मस्थितिकाल तक बादर पृथिवीकायिक जीवों में रहा है, वहाँ परिभ्रमण करते हुए जिसके पर्याप्तभव बहुत और अपर्याप्तभव थोड़े होते हैं, पर्याप्तकाल बहुत व अपर्याप्तकाल थोड़े होते हैं (७-६), इत्यादि अन्य कुछ विशेषताओं को प्रकट करते हुए (१०-२०) आगे कहा गया है कि इस प्रकार से परिभ्रमण करके जो अन्तिम भवग्रहण में नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न हुआ है (२१), आगे इस नारकी की कुछ विशेषताओं को दिखलाते हुए (२२-२६) कहा गया है कि वहाँ रहते हुए जो द्विचरम और चरम समय में उत्कृष्ट संक्लेश को प्राप्त हुआ है, चरम और द्विचरम समय में उत्कृष्ट योग को प्राप्त हुआ है, इस प्रकार जो चरमसमयवर्ती तद्भवस्थ हुआ है उस चरमसमयवर्ती तद्भवस्थ नारकी के ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्य से उत्कृष्ट होती है (३०-३२)। इस प्रकार ये सब विशेषताएँ ऐसी हैं कि उनके आश्रय से ज्ञानावरणीयरूप कर्मपुद्गलस्कन्धों का उस गुणितकौशिक जीव के उत्तरोत्तर अधिकाधिक संचय होता जाता है। इस ८०/षखण्डागम-परिशीलन Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार से परिभ्रमण करता हुआ जब वह अन्त में सातवीं पृथिवी के नारकियों में तेंतीस सागरोपम प्रमाण आय को लेकर उत्पन्न होता है तब उसके आयु के अन्तिम समय में उन ज्ञानावरणीयरूप कर्मस्कन्धों का सर्वाधिक संचय होता है, यह यहाँ अभिप्राय प्रकट किया गया है। ___उक्त गणितकर्माशिक जीव के ज्ञानावरणीय कर्मद्रव्य का कितना संचय होता है तथा वह किस क्रम से उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता है, इस सबकी प्ररूपणा यहाँ धवलाकार ने गणित प्रक्रिया के आधार से बहुत विस्तार से की है।' आगे ज्ञानावरणीय वेदना द्रव्य से अनत्कष्ट किसके होती है, इस विषय में यह कह दिया गया है कि उपर्युक्त उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय द्रव्यवेदना से भिन्न अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना इसका स्पष्टीकरण धवला में पर्याप्त रूप में किया गया है।' इस प्रकार ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना के स्वामी की प्ररूपणा करके तत्पश्चात् अन्य छह कर्मवेदनाओं के विषय में संक्षेप से यह कह दिया है कि जिस प्रकार ज्ञानावरणीय के उत्कष्ट-अनत्कष्ट द्रव्य की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार से आय कर्म को छोड़ शेष छह कर्मों के उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट द्रव्य की प्ररूपणा करना चाहिए । (३४)। ___आयुकर्म के विषय में जो विशेषता रही है उसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाला जो जीव परभव सम्बन्धी पूर्वकोटि प्रमाण आयु को बाँधता हुआ उसे जलचर जीवों में दीर्घ आयुबन्ध काल से तत्प्रायोग्य संक्लेश के साथ उत्कृष्ट योग में बाँधता है, जो योगयवमध्य के ऊपर अन्तर्महर्त काल रहा है, अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तर में प्रावली के असंख्यातवें भाग मात्र काल तक रहा है, इस क्रम से काल को प्राप्त हुआ पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले जलचर जीवों में उत्पन्न हुआ है, अन्तर्मुहुर्त में सबसे अल्प समय में सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हुआ है, अन्तर्मुहूर्तकाल से फिर से भी जलचर जीवों में पूर्वकोटि प्रमाण आयु को बाँधता है, उस आयु को. जो दीर्घ आयुबन्ध काल में तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योग के द्वारा बांधता है, योगयवमध्य के ऊपर अन्तर्मुहूर्तकाल रहता है, अन्तिम गुणहानिस्थानान्तर में आवली के असंख्यातवें भाग काल तक रहा है, बहुत-बहुत बार साताबन्ध के योग्यकाल से युक्त होता है, तथा जो अनन्तर समय में परभविक आयु के बन्ध को समाप्त करने वाला है, उसके आयुकर्मवेदना द्रव्य से उत्कृष्ट होती है (३५-४६)। इन सब विशेषताओं का स्पष्टीकरण धवलाकार ने विस्तार से किया है। उसके सम्बन्ध में आगे 'धवलागत विषय परिचय' में विशेष विचार किया जानेवाला है। ___ आगे आयुवेदना द्रव्य से अनुत्कृष्ट किसके होती है, इस विषय में यह कह दिया है कि उपर्युक्त उस्कृष्ट द्रव्यवेदना से भिन्न अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना जानना चाहिए (४७)। ___ इस प्रकार उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना के प्रसंग को समाप्त कर आगे द्रव्य से जघन्य वेदना की प्ररूपणा करते हुए स्वामित्व की अपेक्षा जघन्य पद में ज्ञानावरणीय वेदनाद्रव्य से जधन्य किसके होती है, इस प्रश्न पर विचार करते हुए कहा गया है कि जो जीव पल्योपम १. धवला पु० १०, पृ० १०६-२१० २. वही, पृ० २१०-२४ मूलप्रन्थगत विषय का परिचय / ८१ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के असंख्यातवें भाग से हीन कर्म स्थितिकाल पर्यन्त सूक्ष्मनिगोद जीवों में रहा है, वहाँ परिभ्रमण करते हुए जिसके अपर्याप्त भव बहु त व पर्याप्त भव थोड़े रहते हैं, इत्यादि क्रम से जो यहाँ जघन्य ज्ञानावरणीय द्रव्यवेदना के स्वामी के लक्षण प्रकट किए गये हैं (४८-५६) वे प्रायः सभी पूर्वोक्त उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय द्रव्यवेदना के स्वामी के लक्षणों से भिन्न हैं । इसी प्रसंग में आगे कहा गया है कि इस प्रकार से परिभ्रमण करके जो बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवों में उत्पन्न हुआ है, अन्तर्मुहूर्त में सर्वलघु काल से सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हुआ है, अन्तर्मुहूर्त में काल को प्राप्त होकर जो पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ है, सर्वलघुकाल (सात मास) में योनिनिष्क्रमण रूप जन्म से जो आठ वर्ष का होकर संयम को प्राप्त हुआ है, वहाँ कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण भवस्थिति तक संयम का पालन कर जीवित के थोड़ा शेष रहने पर जो मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ है, इस मिथ्यात्व से सम्बद्ध सबसे अल्प असंयमकाल में रहा है, इत्यादि क्रम से यहाँ अन्य भी कुछ विशेषताओं को प्रकट करते हुए (५६-७०) आगे कहा गया है कि इस प्रकार नाना भव-ग्रहणों से आठ संयम-काण्डकों का पालन करके, चार बार कषायों को उपशमाकर, पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र संयमासंयम और सम्यक्त्वकाण्डकों का पालन करके जो इस प्रकार से परिभ्रमण करता हुआ अन्तिम भवग्रहण में फिर से भी पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ है, वहाँ सर्वलघु कालवाले योनिनिष्क्रमण रूप जन्म से आठ वर्ष का होकर जो संयम को प्राप्त हुआ है, कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण काल तक संयम का पालन कर जीवित के थोड़ा शेष रह जाने पर जो क्षपणा में उद्यत हुआ है। इस प्रकार जो अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ (क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती) हुआ है उसके ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्य की अपेक्षा जघन्य होती है (७१-७५)। ___ अभिप्राय यह है कि द्रव्य से जघन्य ज्ञानावरणीय वेदना क्षपितकौशिक जीव के होती है। इन सूत्रों में उसी क्षपितकौशिक के लक्षणों को प्रकट किया गया है। ये सब लक्षण ऐसे हैं जिनके आश्रय से ज्ञानावरणीय रूप कर्म पुद्गलस्कन्धों का संचय उत्तरोत्तर हीन होता गया है। धवला में इसका स्पष्टीकरण विस्तार से किया गया है । आगे इस जघन्य ज्ञानावरणीय द्रव्यवेदना से भिन्न अजघन्य ज्ञानावरणीय द्रव्यवेदना है, यह सूचना कर दी गई है (७६) । इसका स्पष्टीकरण धवला में विस्तार से किया गया है।' आगे दर्शनावरणीय, मोहनीय, और अन्तराय इन तीन कर्मों की जघन्य द्रव्यवेदना के सम्बन्ध में यह सूचना कर दी गई है कि जिस प्रकार जघन्य ज्ञानावरणीय द्रव्यवेदना के स्वामी की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार से इन तीन जघन्य कर्मद्रव्यवेदनाओं की प्ररूपणा करना चाहिए। विशेष इतना है कि मोहनीयकर्म की क्षपणा में उद्यत जीव अन्तिम समयवर्ती सकषायी (सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत) होता है तब उसके मोहनीय वेदना द्रव्य से जघन्य होती है (७७)। इस जघन्य द्रव्यवेदना से भिन्न उन तीनों कर्मों की अजघन्य द्रव्यवेदना है (७८) । अनन्तर द्रव्य से जघन्य वेदनीयवेदना के स्वामी की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि जो जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन कर्म स्थितिकाल तक सूक्ष्म निगोद जीवों में १. धवला पु० १०, पृ० २६६-३१२ ८२ / षट्खण्डागम-परिशील Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहा है, वहाँ परिभ्रमण करते हुए उसके अपर्याप्त भव बहुत व पर्याप्त भव थोड़े रहे हैं, इत्यादि क्रम से उसके लक्षणों को स्पष्ट करते हुए (७६ - १०१ ) अन्त में कहा गया है कि इस प्रकार से परिभ्रमण करके जो अन्तिम भवग्रहण में फिर से पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर सर्वलघु योनिनिष्क्रमण रूप जन्म से आठ वर्ष का होता हुआ संयम को प्राप्त हुआ है, अन्तर्मुहूर्त से क्षपणा में उद्यत हुआ व अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान और केवलदर्शन को उत्पन्न करके केवली हुआ है, इस प्रकार कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण भवस्थिति काल तक Shafeविहार से विहार करके जीवित के थोड़ा शेष रह जाने पर जो अन्तिम समयवर्ती भव्य'सिद्धिक हुआ है उसके द्रव्य से जघन्य वेदनीयवेदना होती है ( १०२ - ८ ) । श्रजघन्य वेदनीयद्रव्यवेदना उससे भिन्न निर्दिष्ट की गई है ( १०६) । इसके अनन्तर यह कहा गया है कि जिस प्रकार ऊपर जघन्य - अजघन्य वेदनीयद्रव्यवेदना की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार नाम व गोत्र इन दो कर्मों की भी जघन्य - अजघन्य द्रव्यवेदनाओं की प्ररूपणा करना चाहिए ( ११० ) । स्वामित्व के आश्रय से जघन्य पद में द्रव्य से जघन्य आयुवेदना किसके होती है, इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि जो पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाला जीव अल्प प्रायुबन्धकाल नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में आयु को बाँधता है, उसे जो तत्प्रायोग्य जघन्य योग के द्वारा बाँधता है, योगयवमध्य के नीचे जो अन्तर्मुहूर्तकाल रहता है, प्रथम जीवगुणहानिस्थानान्तर में जो आवली के श्रसंख्यातवें भाग मात्र रहता है, पश्चात् क्रम से काल को प्राप्त होकर जो नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न हुआ है, वहाँ प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ होकर जिसने जघन्य योग के द्वारा पुद्गलपिण्ड को ग्रहण किया है, जो जघन्य वृद्धि से वृद्धिंगत हुआ है, अन्तर्मुहूर्त में सर्वाधिक काल से जो सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हुआ है, वहाँ पर तेंतीस सागरोपम प्रमाण भवस्थिति तक आयु का पालन करता हुआ जो बहुत बार असाताकाल से युक्त हुआ है; तथा जीवित के थोड़ा शेष रह जाने पर जो अनन्तर समय में परभव सम्बन्धी आयु को बाँधेगा उसके द्रव्य से जघन्य आयुवेदना होती है ( १११-२१) । द्रव्य से जघन्य इस आयुवेदना से भिन्न प्रजघन्य आयुर्वेदना कही गई है (१२२) । आयुकर्म के इस अजघन्य द्रव्य की प्ररूपणा गणितप्रक्रिया के अनुसार धवला में विस्तारपूर्वक की गई है । ' इस प्रकार यहाँ स्वामित्व अनुयोद्वार समाप्त हो जाता है । अल्पबहुत्व — ' वेदना द्रव्यविधान' का तीसरा अनुयोगद्वार है । इसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं— जघन्य पदविषयक, उत्कृष्ट पदविषयक और जघन्य उत्कृष्ट पदविषयकं अल्पबहुत्व (१२३) । इनमें जघन्य पदविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा में कहा गया है कि जघन्य पद की अपेक्षा द्रव्य से जघन्य आयुवेदना सबसे स्तोक है, द्रव्य से जघन्य नामवेदना व गोत्रवेदना दोनों परस्पर समान होकर उससे असंख्यातगुणी है, द्रव्य से जघन्य ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय तीनों वेदना में परस्पर समान व उन दोनों से विशेष अधिक हैं। उनसे जघन्य मोह १. धवला पु० १०, पृ० ३३६-८४ लग्रन्थगत विषय का परिचय / ८३ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ atrद्रव्यवेदना विशेष अधिक है, जघन्य वेदनीयवेदना उससे विशेष अधिक है ( १२४-२५) । इसी पद्धति से आगे उत्कृष्ट पदविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है ( १२९-३३) । जघन्य - उत्कृष्ट पदविषयक अल्पबहुत्व के प्रसंग में द्रव्य से जघन्य आयुवेदना को सबसे स्तोक, उससे उसी की उत्कृष्ट वेदना असंख्यातगुणी, उससे नामवेदना और गोत्र वेदना द्रव्य से जघन्य दोनों परस्पर समान होकर असंख्यातगुणी हैं, इस पद्धति से आगे इस जघन्य - उत्कृष्ट पदविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है (१३४-४३) । चूलिका - इस प्रकार पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अधिकारों में विभक्त प्रस्तुत वेदना द्रव्यविधान के समाप्त हो जाने पर उसकी चूलिका प्राप्त हुई है । यद्यपि मूल ग्रन्थ में इस प्रकरण का उल्लेख 'चूलिका' नाम से नहीं किया गया है, पर धवलाकार ने उसे चूलिका कहा है | धवला में इस प्रकरण के प्रारम्भ में यह शंका की गई है कि पूर्वोक्त तीन अनुयोगद्वारों के आश्रय से विस्तारपूर्वक वेदना द्रव्यविधान की प्ररूपणा कर देने पर यह आगे का ग्रन्थ किसलिए कहा जाता है । इसका समाधान करते हुए धवलाकार ने निष्कर्ष के रूप में कहा है कि वेदना द्रव्यविधान की चूलिका की प्ररूपणा करने के लिए यह आगे का ग्रन्थ आया है। सूत्रों से सूचित अर्थ को प्रकाशित करना, यह चूलिका का लक्षण है । ' इस प्रकरण के प्रारम्भ में सूत्र कार ने कहा है कि यहाँ जो यह कहा गया है कि " "बहुतबहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त होता है" (४,२, ४, १२ व १६ ) तथा 'बहुत - बहुत बार जघन्य योगस्थानों को प्राप्त होता है" (४,२, ४, ५४ ) यहाँ उसके स्पष्टीकरण में अल्पबहुत्व दो प्रकार का है-योगाल्पबहुत्व और प्रदेशाल्पबहुत्व (१४४) । यह कहते हुए उन्होंने आगे जीवसमासों के आश्रय से प्रथमतः योगाल्पबहुत्व की प्ररूपणा इस प्रकार की है सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त का जघन्य योग सबसे स्तोक है, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त का जघन्य योग उससे असंख्यातगुणा है, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त का जघन्य योग उससे असंख्यातगुणा है, इत्यादि (१४५-७३) । धवलाकार ने इस मूलवीणा के अल्पबहुत्वालाप को देशामर्शक कहकर यहाँ धवला में उससे सूचित प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की है । * इस प्रकार योगाल्पबहुत्व की प्ररूपणा करके आगे क्रम प्राप्त प्रदेशात्पबहुत्व की प्ररूपणा के विषय में यह कह दिया है कि जिस प्रकार योगाल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार प्रदेशाल्पबहुत्व की प्ररूपणा करना चाहिए । विशेष इतना है कि सूत्रों में जहाँ योगाल्पबहुत्व प्रसंग में योग को अल्प कहा गया है वहाँ इस प्रदेशाल्पबहुत्व के प्रसंग में प्रदेशों को अल्प कहना चाहिए (१७४) । आगे योगस्थानप्ररूपणा में ये दस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य कहे गए हैं-- अविभाग प्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पबहुत्व ( १७५-७६) । १. धवला पु० १०, पृ० ३६५ २. धवला पु० १०, पृ० ४०३-३१ ८४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा में यह स्पष्ट किया गया है कि एक-एक जीवप्रदेश में योग के कितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं (१७७-७९) । २. वर्गणाप्ररूपणा में यह स्पष्ट किया गया है कि असंख्यात लोक मात्र अविभागप्रतिच्छेदों की एक वर्गणा होती है। ऐसी वर्गणाएँ श्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यातहोती हैं (१८०-८१)। ३. एक स्पर्धक श्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात वर्गणाओं का होता है। ऐसे स्पर्धक श्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात होते हैं। यह विवेचन स्पर्धक-प्ररूपणा में किया गया है (१८२-८३)। ४. अन्तरप्ररूपणा में एक-एक स्पर्धक का अन्तर असंख्यात लोकमात्र होता है, इसे स्पष्ट किया गया है (१८४-८५)। ५. स्थानप्ररूपणा में यह स्पष्ट किया गया है कि श्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात स्पर्धकों का एक जघन्य योगस्थान होता है। ऐसे योगस्थान श्रेणि के असंख्यातवें भाग असंख्यात होते हैं (१८६-८७)। ६. अनन्तरोपनिधा में योगस्थानगत स्पर्धकों की हीनाधिकता को प्रकट किया गया है (१८८-६२)। ७. परम्परोपनिधा में यह स्पष्ट किया गया है कि जघन्य योगस्थानों से आगे श्रेणि के असंख्यातवें भागमात्र जाकर वे दुगुणी वृद्धि को प्राप्त हुए हैं । इस प्रकार वे उत्कृष्ट योगस्थान तक उत्तरोत्तर दुगुणी वृद्धि को प्राप्त हुए हैं, इत्यादि (१६३-६६)। ८. समयप्ररूपणा में चार समय वाले व पाँच समय वाले आदि योगस्थान कितने हैं, इसे स्पष्ट किया गया है (१६७-२००) । ____६. वृद्धिप्ररूपणा में यह स्पष्ट किया गया है कि योगस्थानों में इतनी वृद्धि-हानियाँ हैं और इतनी नहीं हैं। साथ ही उनके काल का भी यहाँ निर्देश किया गया है (२०१-५) । १०. अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में आठ व सात आदि समयोंवाले योगस्था में हीनाधिकता को प्रकट किया है (२०६-१२)। अन्त में यह निर्देश किया गया है कि जो (जितने) योगस्थान हैं वे (उतने) ही प्रदेश-बन्धस्थान हैं । विशेष इतना है कि प्रदेशबन्धस्थान प्रकृति विशेष से विशेष अधिक हैं। (२१३) । इसे धवला में बहुत कुछ स्पष्ट किया गया है। इस प्रकार यह वेदनाद्रव्यविधान अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । वेदना अनुयोगद्वार के अन्तर्गत पूर्वोक्त १६ अनुयोगद्वारों में से पूर्व के ये चार अनुयोगद्वार दसवीं जिल्द में प्रकाशित हुए हैं। - ५. वेदनाक्षेत्र विधान. वेदना के अन्तर्गत १६ अनुयोगद्वारों में यह पाँचवाँ अनुयोगद्वार है । पूर्व वेदनाद्रव्यविधान के समान इस वेदनाक्षेत्र विधान में भी वे ही पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व नाम के तीन अनुयोगद्वार हैं (सूत्र १-२)। पदमीमांसा के अनुसार यहाँ यह पूछा गया है कि ज्ञानावरणीयवेदना क्षेत्र की अपेक्षा क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुकृष्ट है, क्या जघन्य है, और क्या अजघन्य है । उत्तर में कहा गया है कि वह उत्कृष्ट भी है, अनुत्कृष्ट भी है, जघन्य भी और अजघन्य भी है। आगे यह सूचना कर १. धवला पु० १०, पृ० ५०५-१२ मलग्रन्थगत विषय का परिचय / ८५ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दी गई है कि इसी प्रकार से शेष दर्शनावरणीय आदि सात कर्मों के विषय में भी पदमीमांसा करना चाहिए (३-५)। स्वामित्व अनुयोगद्वार में स्वामित्व के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं--जघन्य पदविषयक और उत्कृष्ट पदविषयक । आगे पूछा गया है कि स्वामित्व की अपेक्षा उत्कृष्ट पद में ज्ञानावरणीय वेदना क्षेत्र की अपेक्षा उत्कृष्ट किसके होती है। उत्तर में कहा गया है कि एक हजार योजन विस्तारवाला जो मत्स्य स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य तट पर स्थित है, वेदनासमुद्घात से समुद्घात को प्राप्त हुआ है, काकलेश्या-कौवे के समान वर्णवाले तीसरे तनुवातवलय-से संलग्न है, फिर भी मारणान्तिक समुद्घात को करते हुए काण्डक (वाण) के समान तीन बार ऋजुगति से चलकर दो बार मुड़ा है, ऐसा करके जो अनन्तर समय में नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न होनेवाला है, उसके क्षेत्र की अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना उत्कृष्ट होती है (६-१२)। ___क्षेत्र की अपेक्षा उस उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय वेदना से भिन्न अनुत्कृष्ट ज्ञानावरणीयक्षेत्रवेदना कही गई है (१३)। आगे दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन तीन कर्मों की उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट वेदना के क्षेत्र की प्ररूपणा के विषय में यह सूचना कर दी गई है कि जिस प्रकार ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टवेदना के क्षेत्र की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार इन तीन कर्मों की भी उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट वेदना के क्षेत्र की प्ररूपणा करना चाहिए (१४)। ‘पश्चात् क्षेत्र की अपेक्षा उत्कृष्ट वेदनीयवेदना के स्वामी की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि केवलिसमुद्घात से समुद्घात को प्राप्त होकर समस्त लोक को व्याप्त करनेवाले किसी भी केवली के वह क्षेत्र की अपेक्षा उत्कृष्ट वेदनीयवेदना होती है (१५)। ___इस उत्कष्ट वेदनीयवेदना से भिन्न क्षेत्र की अपेक्षा अनुत्कृष्ट वेदनीयवेदना निर्दिष्ट की गई है (१६-१७)। ___ आगे आयु, नाम और गोत्र इन तीन वेदनाओं के विषय में यह निर्देश कर दिया गया है कि जिस प्रकार यह वेदनीयवेदना के उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट क्षेत्र की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार आयु, नाम और गोत्र वेदनाओं के भी उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट क्षेत्र की प्ररूपणा करना चाहिए, क्योंकि उससे इनके क्षेत्र में कुछ विशेषता नहीं है (१८)। क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य ज्ञानावरणीय वेदना उस अन्यतर सूक्ष्मनिगोद जीव अपर्याप्तक के निर्दिष्ट की गई है जो तृतीय समयवर्ती आहारक और तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ होकर जघन्य योग से युक्त होता हुआ शरीर की सबसे जघन्य अवगाहना में वर्तमान है। इससे भिन्न क्षेत्र की अपेक्षा ज्ञानावरणीय वेदना अजघन्य है। इस प्रकार शेष सात कर्मवेदनाओं के भी जघन्यअजघन्य क्षेत्र की प्ररूपणा करना चाहिए, क्योंकि इनके क्षेत्र में ज्ञानावरणीय वेदना के उस जघन्य-अजघन्य क्षेत्र से कुछ विशेषता नहीं है (१६-२२) । अल्प-बहुत्व अनुयोगद्वार में जघन्य पद-विषयक, उत्कृष्ट पदविषयक और जघन्य-उत्कृष्ट पद विषयक इन अवान्तर अनुयोग द्वारों के आश्रय से उस वेदना विषयक क्षेत्र के अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा की गई है (२३.२६)। आगे जिस अवगाहनादण्डक की प्ररूपणा की गई है उसकी उत्थानिका के रूप में धवलाकार ने कहा है कि यह अल्पबहुत्व सूत्र सब जीवसमासों का आश्रय लेकर नहीं कहा गया है, ८६/पटवण्डागम-परिशीलन Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए अब आगे सूत्रकार सब जीवसमासों के आश्रय से ज्ञानावरणादि कर्मों के जघन्य और उत्कृष्ट क्षेत्र की प्ररूपणा के लिए अल्पबहुत्वदण्डक कहते हैं।' तदनुसार ही आगे ग्रन्थकार द्वारा "यहाँ सब जीवों में अवगाहनादण्डक किया जाता है" ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए (सूत्र ३०) उस अल्पबहुत्वदण्डक की प्ररूपणा की गई है। यथा सूक्ष्म निगोदजीव अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना सबसे स्तोक है, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना उससे असंख्यात गुणी है, सूक्ष्म तेजकायिक की जघन्य अवगाहना उससे असंख्यात गुणी है, सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना उससे असंख्यातगुणी है, इत्यादि (सूत्र ३१-६४)। आगे इस अल्पबहुत्व में अवगाहना के गुणकार का निर्देश करते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि एक सूक्ष्म जीव से दूसरे सूक्ष्म जीव का अवगाहना-गुणकार आवली का असंख्यातवाँ भाग. सक्ष्म से बादर जीव की अवगाहना का गणकार पल्यापम का असंख्यातवाँ भाग. बादर से सूक्ष्म की अवगाहना का गुणकार आवली का असंख्यातवाँ भाग, और बादर से बादर जीव की अवगाहना का गुणकार पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । आगे पुनः बादर से बादर का गुणकार जो संख्यात समय कहा गया है वह द्वीन्द्रिय आदि निवृत्त्यपर्याप्त और उन्हीं पर्याप्त जीवों को लक्ष्य करके कहा गया है (६५-६६)। इस प्रकार से यह वेदनाक्षेत्र विधान अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है । यहाँ सब सूत्र ६६ हैं। ६. वेदनाकालविधान–यहाँ भी पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व नाम के वे ही तीन अनुयोगद्वार हैं। पदमीमांसा में काल की अपेक्षा ज्ञानावरणीय आदि वेदनाओं सम्बन्धी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य पदों का विचार किया गया है (१-५)। स्वामित्व अनुयोगद्वार में स्वामित्व के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-जघन्यपदविषयक और उत्कृष्टपदविषयक । इनमें स्वामित्व के अनुसार काल की अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना उत्कृष्ट किसके होती है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वह उस अन्यतर पंचेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादष्टि के होती है जो सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हो चुका है। वह कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज अथवा कर्मभूमि प्रतिभाग में उत्पन्न इनमें कोई भी हो; संख्यातवर्षायुष्क अथवा असंख्यातवर्षायुष्क में कोई भी हो; देव, मनुष्य, तिर्यंच अथवा नारकी कोई भी हो; स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी अथवा नपुंसकवेदी कोई भी हो; जलचर, स्थलचर अथवा नभचर कोई भी हो; किन्तु साकार उपयोगवाला हो, जागृत हो, श्रुतोपयोग से युक्त हो, तथा उत्कृष्ट स्थिति के बन्धयोग्य उत्कृष्ट स्थितिसंक्लेश में वर्तमान अथवा कुछ मध्यम परिणामवाला हो (६-८)। इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने यहाँ सूत्र में उपयुक्त 'अकर्मभूमिज' शब्द से भोगभूमिजों को न ग्रहण कर देव-नारकियों को ग्रहण किया है, क्योंकि भोगभूमिज उसकी उत्कृष्ट स्थिति को नहीं बांधते हैं। १. धवला पु० ११, पृ० ५५ २. यह अवगाहना अल्पबहुत्व इसके पूर्व जीवस्थान-क्षेत्रानुगम में धवला में 'वेदनाक्षेत्रविधान' के नामनिर्देशपूर्वक उद्धृत किया गया है । पु०४, पृ० ६४-६८; वह गो० जीवकाण्ड में भी 'जीवसमास' अधिकार में उपलब्ध होता है । गा० ६७-१०१ मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | ८७ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'संख्यात वर्षायुष्क' से अढ़ाई द्वीप-समुद्रों में उत्पन्न और कर्मभूमि प्रतिभाग में उत्पन्न जीव को ग्रहण किया है। 'कर्मभूमिप्रतिभाग' से स्वयंप्रभ पर्वत के बाह्य भाग में उत्पन्न जीवों का अभिप्राय रहा है। __'असंख्यातवर्षायुष्क' से एक समय अधिक पूर्वकोटि को लेकर आगे की आयुवाले तिर्यंच व मनुष्यों को न ग्रहण करके देव-नारकियों को ग्रहण किया है। __ काल की अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना अनुत्कृष्ट उपर्युक्त उत्कृष्टवेदना से भिन्न कही गई है (६) आगे यह सूचना कर दी गई है कि जिस प्रकार ऊपर काल की अपेक्षा उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदना की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार आयु को छोड़कर शेष छह कर्मों के विषय में प्ररूपणा करना चाहिए (१०)। काल की अपेक्षा उत्कृष्ट आयु कर्मवेदना के विषय में विचार करते हुए आगे कहा गया है कि वह उस अन्यतर मनुष्य अथवा संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच के होती है जो सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हो चुका है; वह सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि में कोई भी हो; कर्मभूमिज अथवा कर्मभूमि प्रतिभाग में उत्पन्न कोई भी हो; किन्तु संख्यातवर्षायुष्क होना चाहिए; स्त्रीवेद, पुरुषवेद अथवा नपुंसकवेद इनमें किसी भी वेद से युक्त हो; जलचर हो या थलचर हो; साकार उपयोग से युक्त, जागृत व तत्प्रायोग्य संक्लेश अथवा विशुद्धि से युक्त हो; तथा जो उत्कृष्ट आबाधा के साथ देव अथवा नारकी की आयु को बाँधनेवाला है। उसके आयुवेदना काल की अपेक्षा उत्कृष्ट होती है (११-१२) । __ यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उत्कृष्ट देवायु को मनुष्य ही बाँधते हैं, पर उत्कृष्ट नारकायु को मनुष्य भी बाँधते हैं और संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच भी बाँधते हैं, इसी अभिप्राय को हृदयंगम करते हुए सूत्र में मनुष्य और तिर्यंच इन दोनों शब्दों को ग्रहण किया गया है । इसी प्रकार देवों की उत्कृष्ट आयु को सम्यग्दृष्टि और नारकियों की उत्कृष्ट आयु को मिथ्यादृष्टि ही बाँधते हैं; इसके ज्ञापनार्थ सूत्र में 'सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि' इन दोनों को ग्रहण किया गया है। देवों की उत्कृष्ट आयु पन्द्रह कर्मभूमियों में ही बांधी जाती है, किन्तु नारकियों की उत्कृष्ट आयु पन्द्रह कर्मभूमियों और कर्मभूमि प्रतिभागों में भी बाँधी जाती है, इस अभिप्राय से सूत्र में कर्मभूमिज और कर्मभूमि-प्रतिभागज इन दोनों का निर्देश किया गया है। देवनारकियों की उत्कृष्ट आयु को असंख्यात वर्षायुष्क तिर्यंच और मनुष्य नहीं बाँधते हैं, संख्यात वर्ष की आयुवाले ही उनकी उत्कृष्ट आयु को बाँधते हैं। सूत्र में काल की अपेक्षा उत्कृष्ट आयुवेदना में तीनों वेदों के साथ अविरोध प्रकट किया गया है। इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि 'वेद' से यहाँ भाववेद को ग्रहण किया गया है, क्योंकि द्रव्य स्त्रीवेद के साथ नारकियों की उत्कृष्ट आयु का बन्ध नहीं होता। ऐसा न मानने पर “आ पंचमी त्ति सिंहा इत्थीओ जंति छट्ठिपुढवि ति" इस सूत्र (मूलाचार १२, ११३) के साथ विरोध का प्रसंग अनिवार्य होगा। इसी प्रकार देवों की उत्कृष्ट आयु भी द्रव्य स्त्रीवेद के साथ नहीं बाँधी जाती, अन्यथा “णियमा णिग्गलिगेण" इस सूत्र (मूलाचार १२१३४) के साथ विरोध अवश्यंभावी है । यदि कहा जाय कि द्रव्य स्त्रियों के निर्ग्रन्थता सम्भव है तो यह कहना संगत नहीं होगा, क्योंकि वस्त्र आदि के परित्याग बिना उनके भावनिर्ग्रन्थता असम्भव है । द्रव्यस्त्री और नपुंसक वेदवालों के वस्त्र का त्याग नहीं होता, अन्यथा छेदसूत्र के ८८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है । " देवों व नारकियों की उत्कृष्ट आयु को नभचर नहीं बाँधते, इस अभिप्राय को व्यक्त करने के लिए सूत्र में जलचर और थलचर इन दो को ही ग्रहण किया गया है। काल की अपेक्षा इस उत्कृष्ट आयुवेदना से भिन्न अनुत्कृष्ट आयु वेदना है (१३) १ जघन्य पद में काल की अपेक्षा जघन्य ज्ञानावरणीय वेदना के स्वामी का निर्देश करते हुए कहा गया है कि वह अन्यतर अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ के होती है। इससे भिन्नकाल की अपेक्षा अजघन्य ज्ञानावरणीय वेदना है (१५-१६) । जिस प्रकार काल की अपेक्षा जघन्य - अजघन्य ज्ञानावरणीय - वेदना की प्ररूपणा गई है उसी प्रकार काल की अपेक्षा जघन्य - अजघन्य दर्शनावरणीय और अन्तराय वेदनाओं की भी प्ररूपणा करना चाहिए, क्योंकि उससे इनकी प्ररूपणा में कुछ विशेषता नहीं है (१७) । स्वामित्व के अनुसार जघन्य पद में काल की अपेक्षा वेदनीयवेदना जघन्य किसके होती है, इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि वह अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिक ( अयोगिकेवली ) के होती है। इससे भिन्न काल की अपेक्षा वेदनीयवेदना अजघन्य है ( १८-२० ) । जिस प्रकार वेदनीयवेदना के जघन्य - अजघन्य स्वामित्व की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार श्रायु, नाम और गोत्र कर्मों के भी जघन्य - अजघन्य स्वामित्व की भी प्ररूपणा करना चाहिए (१२१) । मोहनीय वेदना काल की अपेक्षा जघन्य अन्तिम समयवर्ती अन्यतर सकषाय ( सूक्ष्मसाम्परायिक) क्षपक के होती है। इससे भिन्न काल की अपेक्षा अजघन्य मोहनीयवेदना है (२२-२४) । अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में ये तीन अवान्तर अनुयोगद्वार हैं— जघन्य पदविषयक, उत्कृष्ट पदविषयक और जघन्य - उत्कृष्ट पदविषयक । इन तीन के आश्रय से क्रमशः काल की अपेक्षा उन ज्ञानावरणीय आदि कर्मवेदनाओं के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है (२५-३५) । इस प्रकार पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों के समाप्त हो जाने पर यह वेदनाकालविधान अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है । चूलिका १ उपर्युक्त वेदनाकालविधान के समाप्त हो जाने पर आगे उसकी चूलिका प्राप्त हुई है। धवलाकार ने कालविधान के द्वारा सूचित अर्थों के विवरण को चूलिका कहा है । जिस अर्थ की प्ररूपणा करने पर शिष्यों को पूर्वप्ररूपित अर्थ के विषय में निश्चय उत्पन्न होता है उसे चूलिका समझना चाहिए । यहाँ सर्वप्रथम सूत्र में कहा गया है कि यहाँ जो मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध पूर्व में ज्ञातव्य है उसमें ये चार अनुयोगद्वार हैं -- स्थितिबन्धस्थान प्ररूपणा, निषेक प्ररूपणा, आबाधाकाण्डक प्ररूपणा और अल्पबहुत्व ( ३६ ) । स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा में जीवसमासों के आश्रय से स्थितिबन्धस्थानों की प्ररूपणा की १. धवला पु० ११, पृ० ११४-१५ मूलग्रन्थगत विषय का परिचय / ८ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गई है । यथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिबन्धस्थान सबसे स्तोक हैं, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिबन्धस्थान उनसे संख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिबन्धस्थान उनसे संख्यातगुणे इत्यादि (३७-५०)। धवलाकार ने इस अव्वोगाढ अल्पबहुत्वदण्डक को देशामर्शक बतलाकर यहाँ उसके अन्तर्गत स्वस्थान अव्वोगाढ अल्पबहुत्व, परस्थान अव्वोगाढ अल्पबहुत्व, स्वस्थान मूलप्रकृति अल्पबहुत्व और परस्थान मूलप्रकृति अल्पबहुत्व आदि विविध अल्पबहुत्वों की प्ररूपणा की है।' इसी प्रसंग में आगे सूत्रकार द्वारा संक्लेश-शुद्धिस्थानों (५१-६४) और स्थितिबन्ध (६५-१००) के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। निषेकप्ररूपणा अनुयोगद्वार में अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा इन दो अनुयोगद्वारों का निर्देश करते हुए प्रथमतः अनन्तरोपनिधा के अनुसार पंचेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि आदि के द्वारा ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के प्रथम-द्वितीयादि समयों में निषिक्त प्रदेशाग्र सम्बन्धी प्रमाण को प्रकट किया गया है (१०१-१०)। परम्परोपनिधा के अनुसार पंचेन्द्रिय संज्ञी-असंज्ञी आदि जीवों के द्वारा प्रथम समय में निषिक्त आठों कर्मों का प्रदेशाग्र कितना अध्वान जाकर उत्तरोत्तर दुगुना-दुगुना हीन हुआ है, इत्यादि का विवेचन किया गया है (१११-२०)। आबाधाकाण्डकप्ररूपणा से यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि पंचेन्द्रिय संजीअसंज्ञी व चतुरिन्द्रिय आदि जीवों के द्वारा आयु को छोड़कर शेष सात कर्मों की जो उत्कृष्ट आबाधा के अन्तिम समय में उत्कृष्ट स्थिति बाँधी जाती है उसमें क्रम से एक-एक समय के हीन होने पर पल्योपम के असंख्यातवें भाग नीचे जाकर एक आबाधाकाण्डक किया जाता है। यह क्रम जघन्य स्थिति तक चलता है (१२१-२२)। ___आयुकर्म की अमुक स्थिति अमुक अाबाधा में ही बंधती है, ऐसा कुछ नियम न होने से उसे यहाँ छोड़ दिया गया है। ___ अल्पबहुत्व-यहां पंचेन्द्रिय संज्ञी व असंज्ञी आदि जीवों की सात कर्मों सम्बन्धी आबाधा, आबाधास्थान, आबाधाकाण्डक, नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर, एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर, स्थितिबन्ध और स्थितिबन्धस्थान इनमें हीनाधिकता को प्रकट किया गया है (१२३-६४)। यहाँ धवला में इस अल्पबहुत्व से सूचित अन्य कितने ही अल्पबहुत्वों की प्ररूपणा विस्तार से की गई है। ___इस प्रकार इस अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार के समाप्त हो जाने पर यह चूलिका समाप्त चूलिका २ यह प्रस्तुत कालविधान की दूसरी चूलिका है। इसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं----जीव १. धवला पु० ११, पृ० १४७-२०५ २. वही, पु० ११, पृ० २७६-३०८ ९० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुदाहार, प्रकृतिसमुदाहार और स्थितिसमुदाहार। जीवसमुदाहार में साता वा असातावेदनीय की एक-एक स्थिति में इतने-इतने जीव हैं, इत्यादि का विचार किया गया है । यथा-- ज्ञानावरणीय के बन्धक जीव दो प्रकार के हैं-सातबन्धक और असातबन्धक । इनमें मातबन्धक जीव तीन प्रकार के हैं-चतुःस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक । असातबन्धक जीव भी तीन प्रकार के हैं—द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और चतु:स्थानबन्धक । साता के चतुःस्थानबन्धक जीव से विशुद्ध, त्रिस्थानबन्धक संक्लिष्टतर और द्विस्थानबन्धक उनसे संक्लिष्टतर होते हैं। असाता के द्विस्थानबन्धक जीव सबसे विशुद्ध, त्रिस्थानबन्धक संक्लिष्टतर और चतुःस्थानबन्धक उनसे संक्लिष्टतर होते हैं (१६५-७४) । सातावेदनीय का अनुभाग चार प्रकार का है--गुड़, खांड, शक्कर और अमृत । इनमें चारों के बन्धक चतुःस्थानबन्धक, अमृत को छोड़ शेष तीन बन्धक त्रिस्थानबन्धक और अमृत व शक्कर को छोड़ शेष दो के बन्धक द्विस्थानबन्धक कहलाते हैं। ___'सर्वविशुद्ध' का अर्थ है साता के द्विस्थानबन्धक और त्रिस्थानबन्धकों से विशुद्ध । यहाँ विशुद्धता से अतिशय तीव्रकषाय का अभाव अथवा मन्दकषाय अभिप्रेत है। अथवा जघन्य स्थितिबन्ध के कारणभूत परिणाम को विशुद्धि समझना चाहिए। __ असातावेदनीयका अनुभाग भी चार प्रकार का है-नीम, कांजीर, विष और हालाहल । इनमें चारों के बन्धक जीव असाता के चतुःस्थानबन्धक, हालाहल को छोड़ त्रिस्थानबन्धक और हालाहल व विष को छोड़ द्विस्थानबन्धक कहलाते हैं। आगे साता-असाता के चतुःस्थानबन्धक आदि जीव ज्ञानावरणीय की जघन्य आदि किस प्रकार की स्थिति को बाँधते हैं, इत्यादि का विचार किया गया है (१७५-२३८)। प्रकृतिसमुदाहार में दो अनुयोगद्वार हैं-प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व । इनमें से प्रमाणानुगम में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के स्थितिबन्धाध्यवसानों का प्रमाण प्रकट किया गया है (२३६-४१)। ___ अल्पबहुत्व में उन स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानों की हीनाधिकता को दिखलाया गया है (२४२-४५)। ___ स्थितिसमुदाहार में ये तीन अनुयोगद्वार हैं-प्रगणना, अनुकृष्टि और तीव्र-मन्दता । इनमें से प्रगणना में इस स्थिति के बन्ध के कारणभूत इतने-इतने स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं, इसे स्पष्ट किया गया है (२४६-६८)। अनुकृष्टि में उन स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानों की समानता व असमानता को व्यक्त किया गया है (२६६-७१)। तीव्र-मन्दता के आश्रय से ज्ञानावरणीय आदि के जघन्य अादि स्थिति सम्बन्धी स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान के अनुभाग की तीव्रता व अन्दता का विचार किया गया है (२७२-७६)। ___इस स्थितिसमुदाहार के समाप्त होने पर प्रस्तुत वेदनाकालविधान अनुयोगद्वार की दूसरी चूलिका समाप्त होती है । इस प्रकार यहाँ वेदनाकालविधान समाप्त हुआ है। वेदनाक्षेत्रविधान और वेदनाकालविधान ये दो (५,६) अनुयोगद्वार ११वीं जिल्द में प्रकाशित हुए हैं। मूलग्रन्यगत विषय का परिचय | ६१ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. घेदनाभावविधान-इसमें भी वे ही तीन अनुयोगद्वार हैं—पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व। पदमीमांसा में भाव की अपेक्षा ज्ञानावरणीय आदि वेदनाएँ क्या उत्कृष्ट हैं, क्या अनुत्कृष्ट हैं, क्या जघन्य हैं, और क्या अजघन्य हैं, इन पदों का विचार किया गया है (१-५)। स्वामित्व में उन्हीं ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की भाववेदनाविषयक उपर्युक्त उत्कृष्टअनुकष्ट आदि पदों के स्वामियों की प्ररूपणा की गई है । यथा स्वामित्व दो प्रकार का है-उत्कृष्ट पदविषयक और जघन्य पदविषयक । इनमें उत्कृष्ट पद के अनुसार ज्ञानावरणीयवेदना भाव की अपेक्षा उत्कृष्ट किसके होती है, इसका विचार करते हुए कहा गया है कि नियम से अन्यतर पंचेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि, सभी पर्याप्तियों से पर्याप्त, जागृत और उत्कृष्ट संक्लेश से सहित ऐसे जीव के द्वारा बाँधे गये उत्कृष्ट अनुभाग का जिसके सत्त्व होता है उसके भाव की अपेक्षा वह ज्ञानावरणीयवेदना उत्कृष्ट होती है। वह एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इनमें कोई भी हो सकता है; वह संज्ञी भी हो सकता है और असंज्ञी भी; अथवा बादर भी हो सकता है और सूक्ष्म भी; पर्याप्त भी हो सकता है व अपर्याप्त भी हो सकता है। इसी प्रकार वह चारों गतियों में से किसी भी गति में वर्तमान हो सकता है-इन अवस्थाओं में उसके लिए कोई विशेष नियम नहीं है। इस से भिन्न भाव की अपेक्षा ज्ञानवरणीयवेदना अनुत्कृष्ट होती है (६-१०)। आगे दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायवेदनाओं के विषय में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि जिस प्रकार ज्ञानावरणीय के उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट अनुभाग की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार इन तीन घातिया कर्मों के भी उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट अनुभाग की प्ररूपणा करना चाहिए-उससे इनमें कोई विशेषता नहीं हैं (११)।। वेदनीयवेदना भाव की अपेक्षा उत्कृष्ट किसके होती है, इसका विचार करते हुए आगे कहा गया है कि जिस अन्यतर सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत क्षपक ने अन्तिम समय में उसके उत्कृष्ट अनुभाग को बाँधा है उसके भाव की अपेक्षा वेदनीयवेदना उत्कृष्ट होती है, साथ ही जिसके उसका उत्कृष्ट सत्त्व है। वह उसका-उसका सत्त्व क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ व सयोगिकेवली के होता है। अतः उनके भी भाव की अपेक्षा उत्कृष्ट वेदनीयवेदना होती है । इससे भिन्न भाव की अपेक्षा वेदनीयवेदना अनुत्कृष्ट होती है (१२-१५)।। ____ अभिप्राय यह है कि सातावेदनीय के उत्कृष्ट अनुभाग को बाँधकर क्षीणकषाय, सयोगी और अयोगी गुणस्थानों को प्राप्त हुए जीव के इन गुणस्थानों में भी वेदनीय का उत्कृष्ट अनुभाग होता है । सूत्र में यद्यपि 'अयोगी' शब्द नहीं है, फिर भी धवलाकार के अभिप्रायानुसार सूत्र में उपयुक्त दो 'वा' शब्दों में से दूसरे 'वा' शब्द से उसकी सूचना की गई है। भाव की अपेक्षा उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट नाम और गोत्र वेदनाओं की प्ररूपणा उपर्युक्त वेदनीयवेदना के समान है (१६)। _आगे भाव की अपेक्षा उत्कृष्ट आयुवेदना के स्वामी की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि साकार उपयोग से युक्त, जागृत और तत्प्रायोग्य विशुद्धि से सहित अन्यतर अप्रमत्तसंयत के द्वारा बाँधे गए उसके उत्कृष्ट अनुभाग का सत्त्व जिसके होता है उसके भाव की अपेक्षा उत्कृष्ट अायुवेदना होती है। उसका सत्त्व संयत अथवा अनुत्तर विमानवासी देव के होता है, अतएव उसके वह भाव की अपेक्षा उत्कृष्ट आयुवेदना जानना चाहिए । साथ ही जिस ६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रमत्तसंयत ने उसके उत्कृष्ट अनुनाग को बाँधा है वह भी आयु की उत्कृष्ट भाववेदना का स्वामी होता है। इससे भिन्न उसकी अनुत्कृष्ट वेदना होती है (१७-२०)। भाव की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की जघन्य वेदना अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ क्षपक के होती है । इससे भिन्न उसकी जघन्य भाववेदना निर्दिष्ट की गई है । दर्शनावरणीय और अन्तराय इन दो कर्मों की भी भाव की अपेक्षा जघन्य-अजघन्य वेदनाओं की प्ररूपणा ज्ञानावरणीय के ही समान है (२१-२४)। इसी प्रकार से आगे वेदनीय आदि शेष कर्मों की भाव की अपेक्षा जघन्य-अजघन्य वेदनाओं की प्ररूपणा की गई है (२५-३६)। इस प्रकार स्वामित्व अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है। अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में जघन्य पदविषयक, उत्कृष्ट पदविषयक और जघन्य-उत्कृष्ट पदविषयक इन तीन अनुयोगद्वारों के आश्रय से भाववेदना सम्बन्धी अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हुए प्रथमतः ज्ञानावरणीय आदि मूल प्रकृतियों की भाववेदना के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। यथा__ मोहनीयवेदना भाव की अपेक्षा जघन्य सबसे स्तोक है, अन्तरायवेदना भाव से जघन्य उससे अनन्तगुणी है , ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय वेदनाएँ भाव की अपेक्षा जघन्य परस्पर समान होती हुई अन्तरायवेदना से अनन्तगुणी हैं, आयुवेदना भाव से जघन्य अनन्तगुणी है, इत्यादि (४०-६४)। आगे यहाँ तीन गाथासूत्रों के द्वारा उत्तर प्रकृतियों के आश्रय से उत्कृष्ट अनुभागविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा संक्षेप में की गई है। इसके अनन्तर 'यहाँ चौसठ पदवाला उत्कृष्ट महादण्डक किया जाता है' इस सूचना के साथ आगे उन तीन गाथाओं द्वारा संक्षेप में निर्दिष्ट उसी अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण गद्यात्मक सूत्रों द्वारा पुनः विस्तार से किया गया है । यथा__ लोभसंज्वलन सबसे मन्द अनुभागवाला है। मायासंज्वलन उससे अनन्तगुणा है। मानसंज्वलन उससे अनन्तगुणा है। क्रोधसंज्वलन उससे अनन्तगुणा है। मनःपर्ययज्ञानावरणीय और दानान्त राय ये दोनों परस्पर तुल्य होकर उस क्रोधसंज्वलन से अनन्तगुणे हैं, इत्यादि । ___ इन गद्यात्मक सूत्रों को धवलाकार ने उन गाथासूत्रों के गूढ़ अर्थ को स्पष्ट करनेवाले चूर्णिसूत्र कहा है । आगे अन्य तीन गाथासूत्रों द्वारा उत्तरप्रकृतियों के आश्रय से जघन्य अनुभागविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। ठीक इसके पश्चात् 'यहाँ चौंसठ पदवाला जघन्य महादण्डक किया जाता है' इस सूचना के साथ आगे उन गाथासूत्रों द्वारा निर्दिष्ट उसी संक्षिप्त अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण पुनः १. धवला पु० १२, १०४०-४४ २. वही, पृ० ४४-५६, सूत्र ६५-११७ ३. वही, पु० १२, पृ० ४१,४२-४३ व ४३ ४. वही, पु० १२, पृ० ६२-६४ मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | ६३ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्यात्मक सूत्रों में किया गया है।' जैसे उक्त तीन गाथाओं में से प्रथम गाथा के प्रारम्भ में यह कहा गया है--- संज-मणदाणमोहीलाभं । इसमें 'संज' से चार संज्वलन, 'मण' से मन:पर्ययज्ञानावरणीय, 'दाण' से दानान्तराय और 'ओही' से अवधिज्ञानावरण व अवधिदर्शनावरण अभिप्रेत रहे हैं । तदनुसार गद्यसूत्रों में उसे इस प्रकार स्पष्ट किया गया है— संज्वलनलोभ सबसे मन्द अनुभागवाला है, संज्वलनमाया उससे अनन्तगुणी है, संज्वलनमान उससे अनन्तगुणा है, संज्वलनक्रोध उससे अनन्तगुणा है, मन:पर्ययज्ञानावरण और दानान्तराय ये दोनों परस्पर तुल्य होकर उससे अनन्तगुणे हैं, अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तराय तीनों परस्पर तुल्य होकर उनसे अनन्तगुणे हैं (सूत्र ११९-२४), इत्यादि । इस प्रकार पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों के समाप्त होने पर आगे प्रस्तुत वेदनाभावविधान से सम्बन्धित तीन चूलिकाएँ हैं । चूलिका १ " यहाँ सर्वप्रथम 'सम्मत्तप्पत्ती वि य' इत्यादि दो गाथाएँ प्राप्त होती हैं। इन गाथाओं द्वारा सम्यक्त्व की उत्पत्ति, देशविरति संयत, अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन, दर्शनमोह का क्षपक, कषाय का उपशामक, उपशान्तकषाय, क्षपक, क्षीणमोह और जिन अधःप्रवृत्तकेवली व योगनिरोध के इन स्थानों में नियम से उत्तरोत्तर होनेवाली असंख्यातगुणी निर्जरा और विपरीत क्रम से उस निर्जरा के संख्यातगुणे काल की प्ररूपणा की गई है । आगे इन दोनों गाथाओं के अभिप्राय को गद्यसूत्रों में स्वयं ग्रन्थकार द्वारा इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया है दर्शनमोह के उपशामक की गुणश्रेणिनिर्जरा का गुणकार सबसे स्तोक है । उससे संयतासंयत की गुणश्रेणिनिर्जरा का गुणकार असंख्यातगुणा है। उससे अधःप्रवृत्तसंयत की गुणश्रेणिनिर्जरा का गुणकार असंख्यातगुणा है। उससे अनन्तानुबन्धी के विसंयोजक की गुणश्रेणिनिर्जरा का गुणकार असंख्यातगुणा है, इत्यादि (सूत्र १७५-८५) । इस गुणश्रेणिनिर्जरा का विपरीत कालक्रम योगनिरोधकेवली की गुणश्रेणि का काल सबसे स्तोक है । अधःप्रवृत्त केवली की गुणश्रेणि का काल उससे संख्यातगुणा है । क्षीणकषाय- वीतरागछद्मस्थ की गुणश्रेणि का काल उससे संख्यातगुणा है, इत्यादि (सूत्र १८६ - ६६) । चूलिका २ पूर्व में वेदनाद्रव्यविधान, वेदनाक्षेत्र विधान और वेदनाकालविधान इन तीन अनुयोगद्वारों में अजघन्य और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थानों की सूचना मात्र की गई है, उनकी प्ररूपणा वहाँ नहीं की गई है। अब इस दूसरी चूलिका में श्रविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, काण्डकप्ररूपणा, प्रोज-युग्मप्ररूपणा, षट्स्थानप्ररूपणा, अधस्तनस्थानप्ररूपणा, समयप्ररूपणा, १. धवला सूत्र, ११८-७४, पृ० ६५-७५ २. वही, पु० १२, पृ० ७८ ६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, पर्यवसानप्ररूपणा और अल्पबहुत्व इन बारह अनुयोगद्वारों के आश्रय से उन्हीं अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानों (अनुभागबन्धस्थानों) की प्ररूपणा की गई है। धवलाकार ने 'अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान' से 'अनुभागबन्धस्थान' का अभिप्राय व्यक्त किया है (सूत्र १६७)। यह दूसरी चूलिका १६७ वें सूत्र से प्रारम्भ होकर २६७वें सूत्रपर समाप्त हुई है। चूलिका ३ __ प्रस्तुत भावविधान से सम्बद्ध इस तीसरी चूलिका में जीवसमुदाहार के अन्तर्गत ये आठ अनुयोगद्वार निर्दिष्ट किए गए हैं-एकस्थानजीवप्रमाणानुगम, निरन्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम, सान्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम, नानाजीवकालप्रमाणानुगम, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा और अल्पबहुत्व । १. एकस्थानजीवप्रमाणानुगम में एक-एक अनुभागबन्धस्थान में जघन्य से इतने और उत्कर्ष से इतने जीव होते हैं, इसे स्पष्ट किया गया है (२६६)। २. निरन्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम के आश्रय से निरन्तर जीवों से सहगत अनुभाग-स्थान इतन और उत्कर्ष से इतने होते हैं, यह स्पष्ट किया गया है (२७०)। ३. निरन्तर जीवों से विरहित वे स्थान जघन्य से इतने और उत्कर्ष से इतने होते हैं, इसे सान्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम में स्पष्ट किया गया है (२७१)। ४. नानाजीवकालप्रमाणानुगम में एक-एक स्थान में जघन्य से इतने और उत्कर्ष से इतने जीव होते हैं, इसे स्पष्ट किया गया है (२७२-७४)। रोपनिधा और परम्परोपनिधा के आश्रय से जी प्रकट किया गया है (२७५-८६)। ६. क्रम से बढ़ते हुए जीवों के स्थानों के असंख्यातवें भाग में यवमध्य होता है। उससे ऊपर के सब स्थान जीवों से विशेष हीन होते गये हैं। इसका स्पष्टीकरण यवमध्यप्ररूपणा में किया गया है (२६०-६२)। ७. स्पर्शन अनुयोगद्वार में अतीत काल में एक जीव के द्वारा एक अनुभाग-स्थान इतने काल स्पर्श किया गया है, इसका विचार किया गया है (२६३.३०३)। ८. अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में पूर्वोक्त तीनों अनुभाग स्थानों के अल्पबहुत्व का विवेचन किया गया है (३०४-१४)। इस प्रकार यह तीसरी भावविधान-चूलिका २६८ वें सूत्र से प्रारम्भ होकर ३१४ वें सूत्र पर समाप्त हुई है। इन तीनों चूलिकाओं के समाप्त हो जाने पर प्रस्तुत वेदनाभावविधान अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है। ८. वेदनाप्रत्ययविधान-इस अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मवेदनाओं के प्रत्ययों (कारणों) का विचार किया गया है । यथा नैगम, व्यवहार और संग्रह इन तीन नयों की अपेक्षा ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मवेदनाओं में प्रत्येक के ये प्रत्यय निर्दिष्ट किये गये हैं-प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, म Ar १. पु० १२, पृ० ८७-२४० मूलगतग्रन्थ विषय का परिचय | ६५ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैथुन, परिग्रह व रात्रि भोजन; इसी प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, प्रेम निदान, अभ्याख्यान, कलह, पैशून्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, मान, माय (मेष), मोष, (स्तेय), मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और प्रयोग (सूत्र१-११)। तत्त्वार्थसूत्र (८-१) में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इनको बन्ध का कारण कहा गया है। धवलाकार ने उपर्युक्त वेदनाप्रत्ययविधान में निर्दिष्ट उन सब प्रत्ययों को इन्हीं मिथ्यादर्शन आदि के अन्तर्गत किया है। उन्होंने उपर्युक्त प्रत्ययों में प्राणातिपात मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह और रात्रि भोजन इन प्रारम्भ के छह प्रत्ययों को असंयम प्रत्यय कहा है। क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, प्रेम, निदान, अभ्याख्यान, कलह, पैशून्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, मान (प्रस्थ आदि), माय (मेय-गेहूँ आदि), और मोष (स्तेय), इन सबको धवला में कषाय प्रत्यय कहा गया है । इनके अतिरिक्त वहाँ मिथ्याज्ञान और मिथ्यादर्शन को मिथ्यात्व प्रत्यय तथा प्रयोग को योग प्रत्यय निर्दिष्ट किया गया है। प्रमाद के विषय में धवला में वहाँ यह शंका उठायी गई है कि इन प्रत्ययों में यहाँ प्रमाद प्रत्यय का निर्देश क्यों नहीं किया गया। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि इन प्रत्ययों के बाहर प्रमाद प्रत्यय नहीं पाया जाता-उसे इन्हीं प्रत्ययों के अन्तर्गत समझना चाहिए। आगे ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय आदि वेदनाओं के प्रत्यय की प्ररूपणा करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि इस नय की अपेक्षा प्रकृति और प्रदेश पिण्ड स्वरूप वह कर्मवेदना योग प्रत्यय से तथा स्थिति और अनुभाग स्तरूप वह वेदना कषाय प्रत्यय से होती है (१२-१४)। अन्त में शब्दनय की अपेक्षा उक्त कर्मवेदनाओं के प्रत्यय को प्रकट करते हुए उसे 'अवक्तव्य' कहा गया है (१५-१६)। धवलाकार ने इसका कारण शब्दनय की दृष्टि में समास का अभाव बतलाया है। उदाहरण के रूप में वहाँ यह कहा गया है कि 'योगप्रत्यय' में 'योग' शब्द योगरूप अर्थ को तथा 'प्रत्यय' शब्द प्रत्ययरूप अर्थ को कहता है, इस प्रकार समास के अभाव में दो पदों के द्वारा एक अर्थ की प्ररूपणा नहीं की जाती है । अतएव तीनों शब्दनयों की अपेक्षा वेदना का प्रत्यय अवक्तव्य है। इस प्रकार यह वेदना प्रत्यय विधान अनुयोगद्वार १६ सूत्रों में समाप्त हुआ है । ६. वेदना-स्वामित्व-विधान—इस अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणीय आदि कर्मवेदनाओं के स्वामी के विषय में विचार किया गया है। यथा सर्वप्रथम यहाँ वेदनास्वामित्वविधान अधिकार का स्मरण कराते हुए कहा गया है कि १. एवमसंयमप्रत्ययो परुविदो ।-धवला पु० १२, पृ० २८३ २. क्रोध-माण-माया-लोभ-राग-दोस-मोह-पेम्म-णिदाण-अब्भक्खाण-कलह-पेसुण-रदि-अरदि उवहि-माण-माय-मोसेहि कसायपच्चओ परूविदो। मिच्छणाण-मिच्छदंसणेहि मिच्छत्त पच्चओ णिहिट्ठो। पओएण जोगपच्चओ परूविदो। पमादपच्चओ एत्थ किण्ण वुत्तो? ण, एदेहितो बज्झपमादाणुवसंभादो ।-धवला पु० १२, पृ० २८६ ६६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैगम और व्यवहार इन दो नयों की अपेक्षा ज्ञानावरणीय आदि आठों कर्मवेदनाएँ कंथचित् एक जीव के, कथंचित् नो-जीव के, कथंचित् अनेक जीवों के, कथंचित् अनेक नो-जीवों के, कथंचित् एक जीव व एक नो-जीव के, कथंचित् एक जीव व अनेक नो-जीवों के, कथंचित् अनेक जीव व एक नो-जीव के, और कथंचित् अनेक जीवों व अनेक नो-जीवों के होती हैं (९-१०)। वह वेदना संग्रहनय की अपेक्षा जीव के अथवा जीवों के होती है (११-१३) । शब्द और ऋजुसूत्र इन दो नयों की अपेक्षा वह कर्मवेदना जीव के होती है (१४-१५)। कारण यह कि इन दोनों नयों की दृष्टि में बहुत्व सम्भव नहीं है। इस प्रकार यह अनयोगद्वार १५ सत्रों में समाप्त हुआ है। १०. वेदनावेदनाविधान-'वेदनावेदनाविधान' में प्रथम 'वेदना' शब्द का अर्थ 'वेद्यते वैदिष्यते इति वेदना' इस निरुक्ति के अनुसार वह आठ प्रकार का कर्मपुद्गलस्कन्ध है, जिसका वर्तमान में वेदन किया जाता है व भविष्य में वेदन किया जाएगा। दूसरे 'वेदना'. शब्द का अर्थ अनुभवन है । 'विधान' शब्द का अर्थ प्ररूपणा है । इस प्रकार इस अनुयोगद्वार में बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त कर्मवेदनाओं की प्ररूपणा नैगमादि नयों के आश्रय से की गई है। यथा यहाँ प्रथम सूत्र में प्रस्तुत अनुयोगद्वार का स्मरण कराते हुए आगे कहा गया है कि बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त-इस तीन प्रकार के कर्म का नाम नैगम नय की अपेक्षा प्रकृति है, ऐसा मानकर यहां उस सबकी प्ररुपणा की जा रही है (१-२)। ___अभिप्राय यह है कि नैगमनय बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त इन तीनों कर्मों के 'वेदना' नाम को स्वीकार करता है । तदनुसार आगे यहाँ उस नंगम नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय वेदना के आश्रय से इन बध्यमानादि तीनों की प्ररुपणा एक-एक रूप में और द्विसंयोगी-त्रिसंयोगी भंगों के रूप में भी की गई है। ज्ञानावरणीय वेदना कथंचित् बध्यमान वेदना है । कथंचित् उदीर्ण वेदना है। कथंचित् उपशान्त वेदना है । कथंचित् बध्यमान व उदीर्ण वेदना (द्विसंयोगी भंग) है (३-६)। __ इसी प्रकार से आगे एकवचन, द्विवचन और बहुवचन के संयोग से द्विसंयोगी व त्रिसंयोगी भंगों के रूप में उस ज्ञानावरणीय वेदना की प्ररूपणा की गई है (१०-२८)। आगे यह सूचना कर दी गई है कि जिस प्रकार नैगमनय के अभिप्रायानुसार ज्ञानावरणीय के वेदनावेदनविधान की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार दर्शनावरणीय आदि अन्य सातों कर्मों के वेदनावेदनविधान की प्ररूपणा इस नयके आश्रय से करना चाहिए, उसमें कुछ विशेषता नहीं है (२६)। ___ व्यवहार नयके आश्रय से ज्ञानावरणीय व उसी के समान अन्य सातों कर्मों की वेदना कथंचित् बध्यमान वेदना, कथंचित् उदीर्ण वेदना व कथंचित् उपशान्त वेदना है। कथंचित् उदीर्ण वेदनाएँ व उपशान्त वेदनाएँ हैं । इसी प्रकार आगे भी इस नय की अपेक्षा उस वेदना की प्ररूपणा की गई है (३०-४७)। यहाँ सूत्र (३३) में बध्यमान वेदना का बहुवचन के रूप में उल्लेख नहीं किया गया है। उसके स्पष्टीकरण में धवलाकार ने कहा है कि व्यवहार नय की दृष्टि में बध्यमान वेदना का बहुत्व सम्भव नहीं है । कारण यह है कि बन्धक जीवों के बहुत होने से तो बध्यमान वेदना का बहुत्व सम्भव नहीं है, क्योंकि जीवों के भेद से बध्यमान वेदना में भेद का व्यवहार नहीं होता। मूलप्रन्थगत विषय का परिचय | १७ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृति के भेद से उसका भेद सम्भव नहीं है, क्योंकि एक ज्ञानावरणीय प्रकृति में भेद का व्यवहार नहीं देखा जाता। समयभेद से भी उसका भेद सम्भव नहीं है, क्योंकि बध्यमान वेदना वर्तमान काल को विषय करती है, अतः उसमें काल का बहुत्व नहीं हो सकता। इसी पद्धति से आगे यथासम्भव संग्रहनय की अपेक्षा प्रकृत कर्मवेदना की प्ररूपणा की गई (४७-५५) है। __ ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा उदीर्ण-जिसका विपाक फल को प्राप्त है-ही वेदना है। यही अभिप्राय अन्य दर्शनावरणीय आदि सात कर्मों के विषय में समझना चाहिए (५६-५७) । इसके स्पष्टीकरण में धवलाकार ने कहा है कि जो कर्मस्कन्ध जिस समय में अज्ञान को उत्पन्न करता है उसी समय में वह ज्ञानावरणीय वेदना रूप होता है, आगे के समय में वह उस रूप नहीं होता; क्योंकि उस समय उसकी कर्मपर्याय नष्ट हो जाती है। पूर्व समय में भी वह उक्त वेदना स्वरूप नहीं हो सकता, क्योंकि उस समय वह अज्ञान के उत्पन्न करने में समर्थ नहीं रहता। इसलिए इस नयकी दृष्टि में एक उदीर्ण वेदना ही वेदना हो सकती है। शन्द नयकी अपेक्षा उसे अवक्तव्य कहा गया है, क्योंकि उसका विषय द्रव्य नहीं है (५८)। इस प्रकार यह वेदनावेदनाविधान ५८ सूत्रों में समाप्त हुआ है। ११. वेदनागतिविधान-वेदना का अर्थ कर्मस्कन्ध और गति का अर्थ गमन या संचार है। तदनुसार अभिप्राय यह हुआ कि राग-द्वेषादि के वश जीवप्रदेशों का संचार होने पर उनसे सम्बद्ध कर्मस्कन्धों का भी उनके साथ संचार होता है। प्रस्तुत अनुयोगद्वार में नयविवक्षा के अनुसार ज्ञानावरणीयादि रूप कर्मस्कन्धों की उसी गति का विचार किया गया है। यथा-नैगम, व्यवहार और संग्रह इन तीन नयों की अपेक्षा ज्ञानावरणीय वेदना कथंचित् अस्थित (संचारित) है। कथंचित् वह स्थित-अस्थित है (१-३)। इसका अभिप्राय यह है कि व्याधिवेदनादि के अभाव में जिन जीव प्रदेशों का संचार नहीं होता उनमें समवेत कर्मस्कन्धों का भी संचार नहीं होता तथा उन्हीं जीवप्रदेशों में कुछ का संचार होने पर उनमें स्थित कर्मस्कन्धों का भी संचार होता है । इसी अपेक्षा से उस ज्ञानावरणीय वेदना को कथंचित् स्थित-अस्थित कहा गया है। आगे यह सूचना कर दी गई है कि जिस ज्ञानावरणीय की दो प्रकार गतिविधान की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन तीन कर्मों के गतिविधान की प्ररूपणा करना चाहिए (४)। वेदनीयवेदना कथंचित-अयोगिककेवली की अपेक्षा-स्थित, कथंचित् अस्थित और कथंचित् स्थित-अस्थित है। इसी प्रकार आयु, नाम और गोत्र कर्मों के गतिविधान की प्ररूपणा जानना चाहिए (५-८)। ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय वेदना कथंचित् स्थित और कथंचित् अस्थित है । इस नय की अपेक्षा अन्य सात कर्मों के भी गतिविधान की प्ररूपणा इसी प्रकार करना चाहिए (८-११)। शब्दनय की अपेक्षा वह अवक्तव्य कही गई है (१२) । इस प्रकार यह वेदनागतिविधान अनुयोगद्वार १२ सूत्रों में समाप्त हुआ है। १२. वेदना-अनन्तर-विधान—पूर्व वेदना-वेदना-विधान अनुयोगद्वार में बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त इन तीनों अवस्थाओं को वेदना कहा जा चुका है। उनमें बध्यमान कर्म बंधने ६८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के समय में ही विपाक को प्राप्त होकर फल देता है अथवा द्वितीय आदि समयों में वह फल देता है, इसका स्पष्टीकरण इस वेदना-अनन्तर-विधान में किया गया है। बन्ध अनन्तर-बन्ध और परम्परा-बन्ध के भेद से दो प्रकार का है। इनमें कार्मण वर्गणास्वरूप से स्थित पुद्गल स्कन्धों का मिथ्यात्व आदि के द्वारा कर्मस्वरूप से परिणत होने के प्रथम समय में जो बन्ध होता है वह अनन्तर-बन्ध कहलाता है। बन्ध के द्वितीय समय से लेकर कर्मपुद्गल-स्कन्धों और जीवप्रदेशों का जो बन्ध होता है उसे परम्परा-बन्ध कहा जाता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर समयों में होने वाले बन्ध की निरन्तरता को परम्परा-बन्ध समझना चाहिए। इसका विवेचन यहाँ संक्षेप में नयविवक्षा के अनुसार किया गया है । यथा पूर्व पद्धति के अनुसार प्रस्तुत वेदना-अनन्तर-विधान का स्मरण कराते हुए आगे कहा गया है कि नगम, व्यवहार और संग्रह इन तीन नयों की अपेक्षा ज्ञानावरणीय वेदना-अनन्तरबन्ध रूप, परम्परा-बन्धरूप और उभय-बन्ध रूप हैं। इसी प्रकार इस नय की अपेक्षा अन्य सात कर्मों की प्ररूपणा करना चाहिए (१-५)। इसका स्पष्टीकरण धवला में प्रकारान्तर से इस प्रकार किया गया है-ज्ञानावरणादिरूप अनन्तानन्त कर्मस्कन्ध जो निरन्तर स्वरूप से परस्पर में सम्बद्ध होकर स्थित होते हैं उनका नाम अनन्तर-बन्ध है । ये ही अनन्तर-बन्ध रूप कर्मस्कन्ध जब ज्ञानावरणादि कर्मरूपता को प्राप्त होते हैं तब उन्हें परम्परा-ज्ञानावरणादि-वेदना कहा जाता है। अनन्तानन्त कर्मपुद्गल स्कन्ध परस्पर में सम्बद्ध होकर शेष कर्मस्कन्धों से असम्बद्ध रहते हुए जब जीव के द्वारा सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं तब वे परम्परा-बन्ध कहलाते हैं। ये भी ज्ञानावरणादि वेदना स्वरूप होते हैं।' संग्रह नय की अपेक्षा उन ज्ञानावरणादि वेदनाओं को अनन्तर-बन्ध व परम्परा बन्ध भी कहा गया है (६.८)। ____ आगे ऋजसूत्र नय की अपेक्षा आठों ज्ञानावरणादि वेदनाओं को परम्परा-बन्ध और शब्द नय की अपेक्षा उन्हें अवक्तव्य कहा गया है (६-११)। ___ इस अनुयोगद्वार में ११ ही सूत्र हैं। १३. वेदना-संनिकर्ष-विधान-जघन्य व उत्कृष्ट भेदों में विभक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इनमें किसी एक की विवक्षा में शेष पद क्या उत्कृष्ट हैं, अनुत्कृष्ट हैं, जघन्य हैं या अजघन्य हैं; इसकी जो परीक्षा की जाती है, इसका नाम संनिकर्ष है । वह स्वस्थान संनिकर्ष और परस्थान संनिकर्ष के भेद से दो प्रकार का है। इनमें विवक्षित कर्मविषयक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को विषय करनेवाले संनिकर्ष का नाम स्वस्थान संनिकर्ष तथा आठों कर्मों सम्बन्धी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को विषय करनेवाले संनिकर्ष का नाम परस्थान संनिकर्ष है। प्रस्तुत अनुयोगद्वार में इसी संनिकर्ष की प्ररूपणा की गई है । यथा यहाँ सर्वप्रथम 'वेदना संनिकर्ष विधान' का स्मरण कराते हुए संनिकर्ष के पूर्वोक्त इन दो भेदों का निर्देश किया गया है--स्वस्थान-वेदना-संनिकर्ष और परस्थान-वेदना-संनिकर्ष । इनमें स्वस्थान-वेदना-संनिकर्ष को जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से दो प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। उत्कृष्ट स्वस्थानवेदनासंनिकर्ष द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार प्रकार का है (१-५)। १. धवला, पु. १२, पृ० ३७१-७२ मूलमन्थगत विषय का परिचय | EE Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार संनिकर्ष के भेद-प्रभेदों को प्रकट करके आगे जिसके ज्ञानावरणीय वेदना द्रव्य से उत्कृष्ट होती है उसके क्षेत्र की अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि उसके क्षेत्र की अपेक्षा वह नियम से अनुत्कृष्ट होकर असंख्यातगुणी हीन होती है (६-७)। __इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि पांच सौ धनुष प्रमाण उत्सेधवाले सातवीं पृथिवी के नारकी के अन्तिम समय में ज्ञानावरण का उत्कृष्ट द्रव्य पाया जाता है। उत्कृष्ट द्रव्य के स्वामी इस नारकी का क्षेत्र संख्यात घनांगुल प्रमाण है, क्योंकि पांच सौ धनुष ऊँचे और उसके आठवें भाग प्रमाण-विष्कम्भवाले इस क्षेत्र का समीकरण करने पर संख्यात प्रमाण घनांगुल प्राप्त होते हैं। उधर समुद्घात को प्राप्त महामत्स्य का उत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यात जगश्रेणि प्रमाण है । इस प्रकार इस महामत्स्य के उत्कृष्ट श्रेत्र की अपेक्षा उत्कृष्ट द्रव्य के स्वामी उस नारकी का क्षेत्र कम है। इसलिए सूत्र में द्रव्य की अपेक्षा उस क्षेत्रवेदना को नियम से अनुत्कृष्ट कहा गया है। इस प्रकार वह नियम से अनुत्कृष्ट होकर भी उससे असंख्यातगुणी हीन है, क्योंकि उत्कृष्ट द्रव्य के स्वामी उस नारकी के उत्कृष्ट क्षेत्र का मत्स्य के उत्कृष्ट क्षेत्र में भाग देने पर जगश्रेणि का असंख्यातवा भाग प्राप्त होता है। काल की अपेक्षा वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी (८-६)। यदि उत्कृष्ट द्रव्य के स्वामी उस नारकी के अंतिम समय में उत्कृष्ट स्थिति संक्लेश होता है तो काल की अपेक्षा भी उसके ज्ञानावरणीय वेदना उत्कृष्ट हो सकती है, क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेश से उत्कृष्ट स्थिति को छोड़कर अन्य स्थितियों का बन्ध सम्भव नहीं है। किन्तु यदि उसके अन्तिम समय में उत्कृष्ट स्थितिसंक्लेश नहीं होता है तो वह ज्ञानावरण वेदना काल की अपेक्षा उसके नियम से अनुत्कृष्ट होती है, क्योंकि अंतिम समय में उत्कृष्ट स्थितिसंक्लेश के न होने से उसके उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध सम्भव नहीं है । उत्कृष्ट की अपेक्षा यह अनुत्कृष्ट वेदना कितनी हीन होती है, इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया कि वह उत्कृष्ट की अपेक्षा एक समय कम होती है (९-१०)। भाव की अपेक्षा वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी होती है । उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट इन छह स्थानों में पतित होती है--अनन्तभाग हीन, असंख्यातभाग हीन, संख्यातभाग हीन, संख्यातगुण हीन, असंख्यातगुण हीन और अनन्तगुण हीन (११-१४) । ____ इसी पद्धति से आगे क्रम से ज्ञानावरण वेदना को क्षेत्र (१५-२३), काल (२४-३२) और भाव (३३-४१) की अपेक्षा प्रमुख करके उसके आश्रय से यथा सम्भव अन्य उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट पदों की प्ररूपणा की गई है। आगे यह सूचना कर दी गई है कि जिस प्रकार ऊपर ज्ञानावरण वेदना के किसी एक पद की विवक्षा में अन्य पदों की उत्कृष्टता-अनुत्कृष्टता की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार से दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय वेदनाओं में प्रस्तुत पदों की प्ररूपणा करना चाहिए, क्योंकि उससे इन तीन कर्मवेदनाओं के पदों की प्ररूपणा में कुछ विशेषता नहीं है (४२)। . ___इसी पद्धति से आगे वेदनीय वेदना (४३-६६), नाम-गोत्र (७०) और आयु (७१-६४) वेदनाओं के प्रस्तुत संनिकर्ष की प्ररूपणा की गई है। १. धवला पु० १२, पृ० ३७७-७८ १०० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्पश्चात् पूर्व (सूत्र ४) में जिस जघन्य स्वस्थान-वेदना-संनिकर्ष को स्थगित किया गया था उसके आश्रय से आगे ज्ञानावरणीय वेदना के विषय में द्रव्य, क्षेत्र, काल अथवा भाव से जघन्य किसी एक की विवक्षा में अन्य पदों की जघन्य-अजघन्यता की प्ररूपणा की गई है (९५-२१६)। इस प्रकार स्वस्थान-वेदना-संनिकर्ष को समाप्त कर आगे परस्थान-वेदना-संनिकर्ष की प्ररूपणा करते हुए उसे जघन्य परस्थान-संनिकर्ष और उत्कृष्ट परस्थान-संनिकर्ष के भेद से दो प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। यहां भी जघन्य परस्थान-संनिकर्ष को स्थगित करके प्रथमतः उत्कृष्ट परस्थान-संनिकर्ष की प्ररूपणा की गई है । उत्कृष्ट स्वस्थान-वेदना के समान यह परस्थान वेदना-संनिकर्ष भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार प्रकार का है। इनमें द्रव्य की अपेक्षा जिसके उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय वेदना होती है उसके आयु को छोड़कर शेष छह कर्मवेदनाएँ द्रव्य से उत्कृष्ट होती या अनुत्कृष्ट, इसका विचार किया गया है । यथा-जिसके ज्ञानावरणीय वेदना द्रव्य से उत्कृष्ट होती है उसके आयु को छोड़ शेष कर्मों की वेदना द्रव्य से उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। उत्कृष्ट से अनुकृष्ट अनन्तभाग हीन और असंख्यातभाग हीन इन दो स्थानों में पतित होती है। उसके आयुवेदना द्रव्य की अपेक्षा नियम से अनुत्कृष्ट होकर असंख्यातगुणी हीन होती है । इसी प्रकार से आगे आयु को छोड़कर अन्य छह कर्मों के आश्रय से प्रस्तुत संनिकर्ष की प्ररूपणा करने की सूचना कर दी गई है (२१६-२५)। ___आगे आयु कर्म की प्रमुखता से प्रस्तुत संनिकर्ष का विचार करते हुए कहा गया है कि जिसके आयुवेदना द्रव्य से उत्कृष्ट होती है उसके शेष सात कर्मों की वेदना द्रव्य की अपेक्षा नियम से अनुत्कृष्ट होकर असंख्यातभाग हीन, संख्यातभाग हीन, संख्यातगुण हीन और असंख्यातगुण हीन इन चार स्थानों में पतित होती है (२२६-२८)। ___ इसी प्रकार से आगे क्षेत्र (२२६-३७), काल (२३८-४५), और भाव (२४६-६१) की प्रमुखता से इन कर्मवेदनाओं के विषय में प्रस्तुत संनिकर्ष का विचार उसी पद्धति से किया गया है। इस प्रकार से यहाँ उत्कृष्ट परस्थानवेदना-संनिकर्ष समाप्त हो जाता है। पूर्व (सूत्र २१८) में जिस जिस जघन्य परस्थानवेदना को स्थगित किया गया था यहाँ आगे उसकी प्ररूपणा भी पूर्व पद्धति के अनुसार की गई है (२६२-३२०)। इस वेदना संनिकर्ष अनुयोगद्वार में ३२० सूत्र हैं। १४. वेदनापरिमाणविधान—इसमें प्रकृतियों के प्रमाण की प्ररूपणा की गई है। यहां प्रारम्भ में 'वेदनापरिमाणविधान' अनुयोगद्वार का स्मरण कराते हुए उसमें इन तीन अनुयोग द्वारों का उल्लेख किया गया है-प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यास (१-२)। प्रकृत्यर्थता में प्रकृति के भेद से प्रकृतियों के प्रमाण की प्ररूपणा की गई है । यथा प्रकृत्यर्थता के आश्रय से ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म की कितनी प्रकृतियां हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि उनकी असंख्यात लोक प्रमाण प्रकृतियाँ हैं (३-५)। प्रकृतिका अर्थ स्वभाव या शक्ति है । ज्ञानावरण का स्वभाव ज्ञान को आच्छादित करने का और दर्शनावरण का स्वभाव दर्शन को आच्छादित करने का है। क्रमशः उनसे आवियमाण ज्ञान और दर्शन इन दोनों के असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं । अतः उनको क्रम से आच्छादित करनेवाले ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म भी असंख्यात लोक प्रमाण हैं । मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | १०१ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार से आगे वेदनीय आदि अन्य कर्मों की प्रकृतियों के भेदों की प्ररूपणा की गई है (६-२३)। समयप्रबद्धार्थता में समयप्रबद्ध के भेद से प्रकृतियों के भेदों का निर्देश किया गया है । यथा-समय प्रबद्धार्थता की अपेक्षा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इनकी कितनी प्रकृतियां हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि इनमें प्रत्येक प्रकृति तीस कोडाकोड़ी सागरोपमों को समयप्रबद्धार्थतां से गुणित करने पर जो प्राप्त होता है उतने प्रमाण है। इसी प्रकार से आगे अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार वेदनीय आदि अन्य कर्मप्रकृतियों के भी प्रमाण को प्रकट किया गया है (२४-४२)। क्षेत्रप्रत्यास में क्षेत्र के भेद से प्रकृतियों के भेदों की प्ररूपणा की गई है । यथा क्षेत्रप्रत्यास के अनुसार ज्ञानावरणीय की कितनी प्रकृतियाँ हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य तट पर स्थित जो एक हजार योजन अवगाहनावाला मत्स्य वेदनासमुद्घात से समुद्घात को प्राप्त होकर काकवर्णवाले तनुवातबलय से संलग्न हुआ है, फिर भी जो मारणान्तिक समुद्घात से समुद्घात को प्राप्त होता हुआ तीन विग्रहकाण्डकों को करके, अर्थात् तीन बार ऋजुगति से जाकर दो मोड़ लेता हुआ, अनन्तर समय में नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न होनेवाला है उसके इस क्षेत्रप्रत्यास से पूर्वोक्त समय-प्रबद्धार्थता प्रकृतियों को गुणित करने पर जो प्राप्त हो उतनी ज्ञानावरण प्रकृतियाँ हैं' (४४-४७)। __ अभिप्राय यह है कि प्रकृत्यर्थता में जिन ज्ञानावरणीय प्रकृतियों की प्ररूपणा की गई है उनको अपने अपने समय-प्रबद्धार्थता से गुणित करने पर समय-प्रबद्धार्थता प्रकृतियां होती हैं। उनको जगप्रतर के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रप्रत्यास से गुणित करने पर यहां की प्रकृतियों का प्रमाण होता है। इसी पद्धति से आगे यहाँ दर्शनावरणीय आदि अन्य कर्मप्रकृतियों के प्रमाण की प्ररूपणा की गई है (४८-५३)। १५. वेदनाभागाभागविधान-पूर्वोक्त वेदना-परिमाण-विधान के समान यहाँ भी प्रकृत्यर्थता, समय-प्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यास नाम के वे ही तीन अनुयोगद्वार हैं । यहाँ क्रमशः इन तीनों के आश्रय से विवक्षित कर्मप्रकृतियां सब प्रकृतियों के कितने भाग प्रमाण हैं, इसे स्पष्ट किया गया है । इस अनुयोगद्वार में सब सूत्र २१ हैं। १६. वेदनाअल्पबहत्व-यह वेदना खण्ड के अन्तर्गत दूसरे 'वेदना' अनुयोगद्वार के पूर्वोक्त १६ अनुयोगद्वारों में अन्तिम है। यहाँ भी प्रकृत्यर्थता, समय-प्रबद्धार्थता और क्षेत्र-प्रत्यास ये वे ही तीन अनुयोगद्वार हैं। यहाँ क्रम से इन तीनों अनुयोगद्वारों के आश्रय से प्रकृतियों के अल्पबहुत्व को प्रकट किया गया है। यथा प्रकृत्यर्थता के आश्रय से गोत्रकर्म की प्रकृतियां सबसे स्तोक, उतनी ही वेदनीय की प्रकृतियाँ, उनसे आयुकर्मकी प्रकृतियाँ संख्यातगुणी, उनसे अन्तराय की विशेष अधिक, मोहनीय की संख्यातगुणी, नामकर्मकी असंख्यातगुणी, दर्शनमोहनीय की असंख्यातगुणी और उनसे ज्ञानावरणीय की प्रकृतियाँ असंख्यातुगुणी निर्दिष्ट की गई हैं (१-१०) । १. इसके लिए सूत्र ४,२,५,७-१२ व उनकी धवला टीका द्रष्टव्य है । पु० ११, पृ० १४-२३ १०२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयप्रबद्धार्थता के आश्रय से आयुकर्म की प्रकृतियां सबसे स्तोक, गोत्र की असंख्यातगुणी, वेदनीय की विशेष अधिक, अन्तराय की संख्यातगुणी, मोहनीय की संख्यातगुणी, नामकर्म की असंख्यातगुणी, दर्शनावरणीय की असंख्यातगुणी और उनसे ज्ञानावरणीय की प्रकृतियाँ विशेष अधिक कही गई हैं (११-१८)। क्षेत्र-प्रत्यास के आश्रय से अन्तराय की प्रकृतियां सबसे स्तोक, मोहनीय की संख्यातगुणी, आयु की असंख्यातगुणी, गोत्र की असंख्यातगुणी, वेदनीय की विशेष अधिक, नामकर्म की असंख्यातगणी, दर्शनावरणीय की असंख्यातगुणी और ज्ञानावरणीय की प्रकृतियां उनसे विशेष अधिक कही गई हैं (१६-२६) । यहाँ सब सूत्र २६ हैं। इस प्रकार इस वेदना अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार के समाप्त होने पर चतुर्थ वेदनाखण्ड समाप्त हुआ है । पूर्वोक्त वेदनाभावविधान आदि अल्पबहुत्व पर्यन्त दस (७-१६) अनुयोगद्वार १२वीं जिल्द में प्रकाशित हुए हैं। पंचम खण्ड : वर्गणा इस खण्ड में स्पर्श, कर्म व प्रकृति इन तीन अनुयोगद्वारों के साथ बन्धन अनुयोगद्वार के अन्तर्गत बन्ध, बन्धक, बन्धनीय व बन्धविधान इन चार अधिकारों में बन्ध और बन्धनीय ये दो अधिकार समाविष्ट हैं। इनमें यहाँ बन्धनीय-वर्गणाओं-की प्ररूपणा के विस्तृत होने से इस खण्ड का नाम 'वर्गणा' प्रसिद्ध हुआ है। १. स्पर्श इसमें ये १६ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य कहे गये हैं-स्पर्शनिक्षेप, स्पर्शनय- विभाषणता, स्पर्शनामविधान, स्पर्शद्रव्यविधान, स्पर्शक्षेत्र विधान, स्पर्शकालविधान, स्पर्श-भावविधान, स्पर्शप्रत्ययविधान, स्पर्शस्वामित्वविधान, स्पर्शस्पर्शविधान, स्पर्शगतिविधान, स्पर्शअनन्तरविधान, स्पर्शसंनिकर्षविधान, स्पर्शपरिमाणविधान, स्पर्शभागाभागविधान और स्पर्शअल्पबहुत्व (सूत्र १-२)। ये अनुयोगद्वार नाम से वे ही हैं, जिनका उल्लेख वेदना अनुयोगद्वार के प्रारम्भ (सूत्र ४,२,१,१) में किया गया है, पर प्रतिपाद्य विषय भिन्न है । वेदना अनुयोगद्वार में जहाँ उनके आश्रय से वेदना की प्ररूपणा की गई है वहाँ इस अनुयोगद्वार में उनके आश्रय से स्पर्श की प्ररूपणा की गई है। इसी से उन सबके आदि में वहाँ 'वेदना' शब्द रहा है-जैसे वेदनानिक्षेप व वेदनानयविभाषणता आदि, और यहाँ 'स्पर्श' शब्द योजित किया गया है-जैसे स्पर्शनिक्षेप व स्पर्शनयविभाषणता आदि। यही प्रक्रिया आगे कर्मअनुयोगद्वार (५,४,२) में भी अपनाई गई है। १. स्पर्शनिक्षेप-उक्त १६ अनुयोगद्वारों में प्रथम स्पर्शनिक्षेप है । इसमें यहाँ स्पर्श के इन १३ भेदों का निर्देश किया गया है--नामस्पर्श, स्थापनास्पर्श, द्रव्यस्पर्श, एकक्षेत्रस्पर्श, अनन्तर क्षेत्र स्पर्श, देशस्पर्श, त्वक्स्पर्श, सर्वस्पर्श, स्पर्शस्पर्श, कर्मस्पर्श, बन्धस्पर्श, भव्यस्पर्श और भावस्पर्श (३-४)। २. स्पर्शनयविभाषणता-- यहाँ अधिकार प्राप्त उपर्युक्त तेरह प्रकार के स्पर्श के स्वरूप मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | १०३ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को न प्रकट करके प्रथमतः नयविभाषणता के आश्रय से उन स्पर्शों में कौन नय किन स्पर्शों को स्वीकार करता है, इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि नंगमनय उन सभी स्पर्शों को स्वीकार करता है । व्यवहार और संग्रह ये दो नय बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्श को स्वीकार नहीं करते, शेष ग्यारह स्पर्शों को वे स्वीकार करते हैं। ऋजुसूत्र नय एकक्षेत्र स्पर्श, अनन्तरस्पर्श, बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्श को स्वीकार नहीं करता है । शब्दनय नामस्पर्श, स्पर्शस्पर्श और भावस्पर्श को स्वीकार करता है (५-८)। यहाँ अवसरप्राप्त सूत्रोक्त तेरह स्पर्शों के अर्थ को स्पष्ट न करके नयविभाषणता के अनुसार कौन नय किन स्पर्शों को विषय करता है, यह प्ररूपणा उसके पूर्व क्यों की गई, इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि 'निश्चये क्षिपतीति निक्षेपो नाम' इस निरुक्ति के अनुसार जो निश्चय में स्थापित करता है उसका नाम निक्षेप है । नयविभाषणता के बिना निक्षेप संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय में अवस्थित जीवों को उन संशयादि से हटाकर निश्चय में स्थापित नहीं कर सकता है, इसीलिए पूर्व में नयविभाषणता की जा रही है। विवक्षित नय अमुक स्पर्शों को क्यों विषय करते हैं, अन्य स्पर्शों को वे क्यों नहीं करते, इसका स्पष्टीकरण आगे 'धवला' के प्रसंग में किया जाएगा। नामस्पर्श-इस प्रकार पूर्व में नय विभाषणता को कहके तत्पश्चात् पूर्वोक्त स्पर्शों के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए प्रथमत: अवसर प्राप्त नामस्पर्श के विषय में कहा गया है कि एक जीव, एक अजीव, बहुत जीव, बहुत अजीव, एक जीव व एक अजीव, एक जीव व बहुत अजीव, बहुत जीव व एक अजीव और बहुत जीव व बहुत अजीव, इन आठ में जिसका 'स्पर्श' ऐसा नाम किया जाता है वह नामस्पर्श कहलाता है (8)। स्थापनास्पर्श-काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोत्तकर्म, लेप्यकर्म, लयनकर्म, शैलकर्म, गृहकर्म, भित्तिकम, दन्तकर्म और भेंडकर्म इनमें तथा अक्ष व वराटक आदि अन्य भी जो इस प्रकार के हैं उनमें स्थापना के द्वारा 'यह स्पर्श है' इस प्रकार का जो अध्यारोप किया जाता है उसका नाम स्थापनास्पर्श है (१०)। द्रव्यस्पर्श-एक द्रव्य जो दूसरे द्रव्य के द्वारा स्पर्श किया जाता है, इस सबको द्रव्यस्पर्श कहा गया है । अभिप्राय यह है कि एक पुद्गलद्रव्य का जो दूसरे पुद्गलद्रव्य के साथ संयोग अथवा समवाय होता है उसका नाम द्रव्यस्पर्श है। अथवा जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य इन दोनों का जो एकता के रूप में सम्बन्ध होता है उसे द्रव्यस्पर्श समझना चाहिए (११-१२)।। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल के भेद से द्रव्य छह प्रकार का है। इनमें सत्त्व व प्रमेयत्व आदि की अपेक्षा द्रव्य के रूप में परस्पर समानता है । अतः इनमें एक, दो, तीन आदि के संयोग या समवाय के रूप में जो स्पर्श होता है उस सब को नैगमनय की अपेक्षा द्रव्यस्पर्श कहा गया है । यहाँ दो संयोगी आदि जो समस्त तिरेसठ (६ ।-१५+२०+१५+६+१=६३) भंग होते हैं उनका स्पष्टीकरण धवला में किया गया है। उस सबको आगे धवला के प्रसंग में स्पष्ट किया जाएगा। एकक्षेत्रस्पर्श-एक आकाश प्रदेश में स्थित अनन्तानन्त पुदगलस्कन्धों का जो समवाय या संयोग के रूप में स्पर्श होता है उसे एक क्षेत्रस्पर्श कहते हैं (१३-१४)। अनन्तरक्षेत्रस्पर्श-जो द्रव्य अनन्तर क्षेत्र से स्पर्श करता है उसे अनन्तरक्षेत्रस्पर्श कहा जाता है (१५-१६)। १०४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक आकाशप्रदेश की अपेक्षा अनेक आकाशप्रदेशों का क्षेत्र अनन्तर क्षेत्र होता है। इस प्रकार दो आकाशप्रदेशों में स्थित द्रव्यों का जो अन्य दो आकाशप्रदेशों में स्थित द्रव्यों के साथ स्पर्श होता है, वह अनन्तरक्षेत्रस्पर्श कहलाता है। इसी प्रकार दो आकाशप्रदेश स्थित द्रव्यों का जो तीन प्रदेशों में स्थित, चार प्रदेशों में स्थित, पांच प्रदेशों में स्थित, इत्यादि क्रम से महास्कन्ध पर्यन्त आकाशप्रदेशों में स्थित अन्य द्रव्यों के साथ जो स्पर्श होता है उस सबको अनन्तरक्षेत्रस्पर्श कहा जाता है। यह द्विसंयोगी भंगों की' प्ररूपणा हुई। इसी प्रकार त्रिसंयोगी. चतःसंयोगी आदि अन्य भंगों को भी समझना चाहिए। यहाँ एकक्षेत्रस्पर्शन और अनन्तरक्षेत्रस्पर्शन में यह विशेषता प्रकट की गई है कि समान अवगाहनावाले स्कन्धों का जो स्पर्श होता है उसे एकक्षेत्रस्पर्श और असमान अवगाहनावाले स्कन्धों का जो स्पर्श होता है उसे अनन्तरक्षेत्रस्पर्श कहा जाता है। देश-स्पर्श-जो द्रव्य का एक देश (अवयव) अन्य द्रव्य के देश के साथ स्पर्श को प्राप्त होता है, उसका नाम देशस्पर्श है (१७-१८)। यह देश-स्पर्श स्कन्ध के अवयवों का ही होता है, परमाणु पुद्गलों का नहीं; इस अभिप्राय का निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है कि ऐसा मानना ठीक नहीं है। कारण यह कि वैसा कहना तब संगत हो सकता है जब कि परमाणु निरवयव हों। परन्तु परमाणुओं की निरवयवता सिद्ध नहीं है। परिकर्म में जो परमाणु को 'अप्रदेश' कहा गया है उसके अभिप्रायानुसार प्रदेश का अर्थ परमाणु है, वह जिस परमाणु में समवेतस्वरूप से नहीं रहता है वह परमाणु अप्रदेशी है। इससे उसकी निरवयवता सिद्ध नहीं होती । इसके विपरीत परमाणु की सावयवता के विना चूंकि स्कन्ध की उत्पत्ति बनती नहीं है, इससे उसकी सावयवता ही सिद्ध होती है । त्वकस्पर्श-जो द्रव्य त्वक् और नोत्वक् को स्पर्श करता है उस सबको त्वक्स्पर्श कहा जाता है । त्वक् से अभिप्राय वृक्षों आदि के छाल का और नोत्वक से अभिप्राय अदरख, प्याज व हल्दी आदि के छिलके का रहा है (१९-२०)। सर्वस्पर्श-जो द्रव्य सबको सर्वात्मस्वरूप से स्पर्श करता है उसका नाम सर्वस्पर्श है । जैसे-परमाणु द्रव्य । इसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार परमाणु द्रव्य सब ही अन्य परमाणु को स्पर्श करता हुआ उसे सर्वात्मस्वरूप से स्पर्श करता है उसी प्रकार का अन्य भी जो स्पर्श होता है उसे सर्वस्पर्श जानना चाहिए (२१-२२)। इसका विशेष स्पष्टीकरण प्रासंगिक शंका-समाधानपूर्वक धवला में किया गया है । तद. नुसार आगे इस पर विचार किया जायगा। __ स्पर्श-स्पर्श-कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण के भेद से स्पर्श आठ प्रकार का है । उस सबको सूत्रकार ने स्पर्श-स्पर्श कहा है (२३-२४)। ___ इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि 'स्पृश्यत इति स्पर्शः' इस निरुक्ति के अनुसार 'स्पर्श-स्पर्श' में एक स्पर्श शब्द का अर्थ कर्कशादि रूप आठ प्रकार का स्पर्श है तथा दूसरे स्पर्श का अर्थ 'स्पश्यति अनेन इति स्पर्शः' इस निरुक्ति के अनुसार त्वक् (स्पर्शन) इन्द्रिय है, क्योंकि उसके द्वारा कर्कशादि का स्पर्श किया जाता है। इस प्रकार स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा जो कर्कश आदि आठ प्रकार के स्पर्श का स्पर्श किया जाता है उसे स्पर्श-स्पर्श जानना चाहिए। स्पर्श के आठ भेद होने से स्पर्श-स्पर्श भी आठ प्रकार का है। प्रकारान्तर से वहाँ यह भी कहा गया है कि कर्कशादि आठ प्रकार के स्पर्श मूलग्रन्थगत विषय का परिचय / १०५ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का जो परस्पर में स्पर्श होता है उसे स्पर्श-स्पर्श समझना चाहिए। उसके एक दो तीन आदि के संयोग से २५५ भंग होते हैं। ___ कर्मस्पर्श-कर्मों का कर्मों के साथ जो स्पर्श होता है उसका नाम कर्मस्पर्श है। वह ज्ञानावरणीयस्पर्श व दर्शनावरणीयस्पर्श आदि के भेद से आठ प्रकार का है (२५-२६)। बन्धस्पर्श-बन्धस्वरूप प्रौदारिक आदि शरीरों के बन्ध का नाम बन्धस्पर्श है। वह प्रौदारिक शरीर बन्धस्पर्श आदि के भेद से पाँच प्रकार का है (२७-२८)। यहाँ धवलाकार ने 'बध्नातीति बन्धः, औदारिकशरीरमेव बन्धः औदारिकशरीरबन्धः' ऐसी. निरुक्ति करते हुए यह अभिप्राय प्रकट किया है कि बांधने वाले औदारिक शरीर आदि ही बन्ध हैं, अतः उनके स्पर्श को बन्धस्पर्श समझना चाहिए। इस प्रकार शरीर के भेद से बन्धस्पर्श भी पांच प्रकार का है। आगे उन्होंने इस बन्धस्पर्श के भंगों को भी स्पष्ट किया है। यथा १. प्रौदारिकनोकर्मप्रदेश तिर्यचों व मनुष्यों में औदारिक शरीरनोकर्मप्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। २. औदारिक नोकर्मप्रदेश तियंचों व मनुष्यों में वैक्रियिक नोकर्मप्रदेशों के साथ स्पर्श को प्राप्त हैं। ३. औदारिक शरीर नोकर्मप्रदेश प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारक-शरीर-नोकर्मप्रदेशों के साथ स्पर्श को प्राप्त होते हैं। इस पद्धति से प्रोदारिक बन्धस्पर्श के ५, वैक्रियिक शरीरबन्धस्पर्श के ४, आहारकशरीरबन्ध के ४, तैजसशरीरबन्ध के ५, और कार्मणशरीर बन्ध के ५भंगों का उल्लेख किया गया है। भव्यस्पर्श-विष, कूट व यंत्र आदि, उनके निर्माता तथा उनको इच्छित स्थान में स्थापित करनेवाले; ये सब भव्यस्पर्श के अन्तर्गत हैं । कारण यह कि वे वर्तमान में तो पात आदि के लिए इच्छित वस्तु का स्पर्श नहीं करते हैं, किन्तु भविष्य में उनमें उसकी योग्यता है, अत: कारण में कार्य का उपचार करके इन सबको भव्यस्पर्श कहा गया है (२६-३०)। भावस्पर्श-जो जीव स्पर्शप्राभूत का ज्ञाता होकर वर्तमान में तद्विषयक उपयोग से भी सहित है उसका नाम भावस्पर्श है (३१-३२) । इन सब स्पर्शों में यहाँ किस स्पर्श का प्रसंग है, यह पूछे जाने पर उत्तर में कहा गया है कि यहाँ कर्मस्पर्श प्रसंग-प्राप्त है (३३)। __ इस अनुयोगद्वार में सब सूत्र ३३ हैं। यहाँ सूत्र में 'कर्मस्पर्श' को प्रसंग-प्रान्त कहा गया है। पर धवलाकार ने इस सूत्र की व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट किया है कि यह खण्डग्रन्थ अध्यात्मविषयक है, इसी अपेक्षा से सूत्रकार द्वारा यहाँ कर्मस्पर्श को प्रकृत कहा गया है । किन्तु महाकर्मप्रकृतिप्रामृत में द्रव्यस्पर्श, सर्वस्पर्श और कर्मस्पर्श प्रकृत हैं, क्योंकि दिगन्तरशुद्धि में द्रव्यस्पर्श की प्ररूपणा के बिना वहाँ स्पर्श अनुयोगद्वार का महत्त्व घटित नहीं होता। प्रस्तुत अनुयोगद्वार को प्रारम्भ करते हुए सूत्रकार द्वारा उसकी प्ररूपणा में १६ अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है । यहाँ धवला में यह शंका उठायी गई है कि यदि यहाँ कर्मस्पर्श प्रकृत है तो ग्रन्थकर्ता भूतबलि भगवान् ने उस कर्मस्पर्श की प्ररूपणा यहाँ कर्मस्पर्श-नय विभाषणता आदि शेष पन्द्रह अनुयोगद्वारों के प्राश्रय से क्यों नहीं की है। इसका समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि कर्मस्कन्ध का नाम स्पर्श है, अतः उसकी प्ररूपणा करने पर वेदना अनुयोगद्वार में प्ररूपित अर्थ (कर्मस्कन्ध) से कुछ विशेषता नहीं रहती, इसी से १०६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसकी प्ररूपणा यहाँ सूत्रकार द्वारा नहीं की गई है। कर्म-प्रसंग प्राप्त इस कर्म अनुयोगद्वार को प्रारम्भ करते हुए कर्मनिक्षेप व कर्मनय विभाषणता आदि उन्हीं १६ अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है, जिनका कि निर्देश पूर्व स्पर्श-अनुयोगद्वार में स्पर्शनिक्षेप व स्पर्शनयविभाषणता आदि के रूप में किया गया है (सूत्र १-२)। १. कर्मनिक्षेप-उक्त १६ अनुयोगद्वारों में प्रथम कर्मनिक्षेप है। इसमें कर्म की प्ररूपणा करते हुए यहां उसके इन दस भेदों का निर्देश किया गया है-नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अध:कर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म, क्रियाकर्म और भावकर्म (३.४)। २. कर्मनयविभाषणता-पूर्व स्पर्श अनुयोगद्वार के समान यहां भी प्रथमतः प्रसंगप्राप्त उन कर्मों की प्ररूपणा न करके उसके पूर्व कर्मनयविभाषणता के आश्रय से इन कर्मों में कौन नय किन कर्मों को विषय करता है, इसका विचार किया गया है। यथा नगम, व्यवहार और संग्रह ये तीन नय उन कर्मों में सभी कर्मों को विषय करते हैं। ऋजसूत्रनय स्थापनाकर्म को विषय नहीं करता, क्योंकि इस नय की दृष्टि में संकल्प के वश अन्य का अन्यस्वरूप से परिणमन सम्भव नहीं है, इसके अतिरिक्त सब द्रव्यों में सदृशता भी नहीं रहती। शब्दनय नामकर्म और भावकर्म को विषय करता है (५-८)। नामकर्म-आगे यथाक्रम से उन दस कर्मों का निरूपण करते हुए पूर्व पद्धति के अनुसार नामकर्म के विषय में कहा गया है कि एक जीव, एक अजीव, बहुत जीव, बहुत अजोव, एक जीव व एक अजीव, एक जीव व बहुत अजीव, बहुत जीव व एक अजीव तथा बहुत जीव व बहुत अजीव इन आठ में जिसका 'कर्म' ऐसा नाम किया जाता है वह नामकर्म कहलाता है (६-१०)। स्थापनाकर्म--काष्ठकर्म, चित्रकर्म व पोत्तकर्म आदि तथा अक्ष व वराटक आदि में जो स्थापना बुद्धि से 'यह कर्म है' इस प्रकार की कल्पना की जाती है उसका नाम स्थापनाकर्म है (११-१२)। _द्रव्यकर्म-जो द्रव्य सद्भावक्रिया से सिद्ध हैं उन सबको द्रव्यकर्म कहा जाता है । सद्भाव क्रिया से यहाँ जीवादि द्रव्यों का अपना-अपना स्वाभाविक परिणमन अभिप्रेत है । जैसेजीवद्रव्य का ज्ञान-दर्शनादिस्वरूप से और पुद्गल द्रव्य का वर्ण-गन्धादिस्वरूप से परिणमन, इत्यादि (१३-१४)। प्रयोगकर्म-- मनःप्रयोगकर्म, वचनप्रयोगकर्म और कायप्रयोगकर्म के भेद से प्रयोगकर्म तीन प्रकार का है। यह मन, वचन और काय के साथ होने वाला प्रयोग संसारी (छद्मस्थ) जीवों के और सयोगिकेवलियों के होता है (१५-१८)। यहाँ सूत्र (१७) में संसारावस्थित और सयोगिकेवली इन दो का पृथक् रूप से उल्लेख किया गया है । इसके स्पष्टीकरण में धवलाकार ने कहा है कि 'संसरन्ति अनेन इति संसार:' इस निरुक्ति के अनुसार जिसके द्वारा जीव चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण किया करते हैं उस घातिकर्मकलाप का नाम संसार है, उसमें जो अवस्थित हैं वे संसारावस्थित हैं। इस प्रकार 'संसारावस्थित' से यहाँ मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त छद्मस्थ जीव विवक्षित रहे हैं । सयोगिकेवलियों के इस प्रकार का संसार नहीं रहा है, पर तीनों योग उनके वर्तमान हैं, इस विशेषता को प्रकट करने के लिए सूत्र में सयोगिकेवलियों को पृथक् से ग्रहण किया मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | १०७ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है। समवदानकर्म-आठ प्रकार के, सात प्रकार के और छह प्रकार के कर्मों का जो भेद रूप से ग्रहण प्रवृत्त होता है उसका नाम समवदानकर्म है। अभिप्राय यह है कि अकर्मरूप से स्थित कार्मण वर्गणा के स्कन्ध मिथ्यात्व व असंयम आदि कारणों के वश परिणामान्तर से अन्तरित न होकर जो अनन्तर समय में ही आठ, सात अथवा छह कर्मस्वरूप से परिणत होकर ग्रहण करने में आते हैं, उसे समवदानताकर्म कहा जाता है' (१६-२०)। ____ अधःकर्म-उपद्रावण, विद्रावण, परितापन और आरम्भ कार्य से जो औदारिक शरीर उत्पन्न होता है उसे अधःकर्म कहते हैं । जीव का उपद्रव करने का नाम उपद्रावण, अंगों के छेद आदि करने का नाम विद्रावण, सन्ताप उत्पन्न करने का परितापन और प्राणी के प्राणों का वियोग करने का नाम आरम्भ है। इन कार्यों से जो औदारिक शरीर उत्पन्न होता है उसे अधःकर्म जानना चाहिए । अभिप्राय यह है कि जिस शरीर में स्थित प्राणियों के प्रति दूसरों के निमित्त से उपद्रव आदि होते हैं उसे अधःकर्म कहा जाता है (२१-२२)। ईर्यापथकर्म-ईर्या का अर्थ योग है, केवल योग के निमित्त से जो कर्म बँधता है उसका नाम ईर्यापथ कर्म है । वह ईर्यापथ कर्म छद्मस्थ वीतराग–उपशान्त कषाय और क्षीणकषाय संयतों के तथा सयोगि केवलियों के होता है (२३-२४)। तपःकर्म-अनशन आदि छह प्रकार के बाह्य और प्रायश्चित्त आदि छह प्रकार के अभ्यन्तर, इस बारह प्रकार के तप का नाम तपःकर्म है (२५-२६)। क्रियाकर्म-आत्माधीन (स्वाधीन) होना, प्रदक्षिणा करना, तीन बार नमस्कार आदि करना, तीन अवनमन करना, सिर झुकाकर चार बार नमस्कार करना और बारह आवर्त करना; इस सबका नाम क्रियाकर्म है। इसे ही कृतिकर्म व वन्दना कहा जाता है (२७-२८)। इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने इस क्रियाकर्म के छह भेदों का निर्देश किया हैआत्माधीन, प्रदक्षिणा, त्रिःकृत्वा (तीन बार करना), अवनमनत्रय, चतुःशिर और द्वादश आवर्त । (१) क्रियाकर्म करते हुए उसे जो अपने अधीन रहकर-पराधीन न होकर-किया जाता है, उसका नाम आत्माधीन है । (२) वन्दना के समय जो गुरु, जिन और जिनालय इनकी प्रदक्षिणा करते हुए नमस्कार किया जाता है उसे प्रदक्षिणा कहते हैं । (३) प्रदक्षिणा और नमस्कारादि क्रियाओं के तीन बार करने को 'त्रि:कृत्वा' कहा जाता है । अथवा एक ही दिन में जिन, गुरु और ऋषि की जो तीन बार वन्दना की जाती है उसे त्रिःकृत्वा समझना चाहिए। (४) अवनमन का अर्थ भूमि पर बैठना है जो तीन बार होता है-निर्मलचित्त होकर पादप्रक्षालनपूर्वक जिनेन्द्र का दर्शन करते हुए जिन-के आगे बैठना, यह एक अवनमन है । फिर उठकर जिनेन्द्र आदि की विनती, विज्ञप्ति या प्रार्थना करके बैठना यह दूसरा अवनमन है । तत्पश्चात् पुनः उठकर सामायिक दण्डक के साथ आत्मशुद्धि करके कषाय के परित्यागपूर्वक शरीर से ममत्व छोड़ना, चौबीस तीर्थंकरों की वन्दना करना तथा जिन, जिनालय और गुरु की स्तुति करना-इस सब अनुष्ठान को करते हुए बैठना, यह तीसरा अवनमन है । (५) सब क्रियाकर्म चतुःशिर होता है—सामायिक के आदि में जो सिर को नमाया जाता है, यह एक सिर हुआ। उसी सामायिक के अन्त में जो सिर को नमाया जाता है यह दूसरा सिर १. इस बारह प्रकार के तप की प्ररूपणा धवला में विस्तार से की गई है। पु० १३, ५४-८८ १०८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ । 'थोस्सामि' दण्डक के आदि में जो सिर को नमाया जाता है यह तीसरा सिर हुआ । तथा उस 'थोस्सामि' दण्डक के अन्त में जो सिर को नमाया जाता है यह चौथा सिर हुआ । इस प्रकार एक क्रियाकर्म 'चतुः शिर' होता है । प्रकारान्तर से धवलाकार ने इस चतुः शिर का अन्य अभिप्राय प्रकट करते हुए यह कहा है कि अथवा सब ही क्रियाकर्म अरहन्त, सिद्ध, साधु और धर्म इन चार की प्रधानता से जो किया जाता है उसे चतुः शिर का लक्षण समझना चाहिए, क्योंकि उन चार को प्रधानभूत करके ही सारी क्रियाकर्म की प्रवृत्ति देखी जाती है । (६) सामायिक और थोस्सामि दण्डकों के आदि व अन्त में जो मन, वचन व काय की विशुद्धि का बारह बार परावर्तन किया जाता है, इसका नाम द्वादशावर्त है । इस प्रकार एक क्रियाकर्म को द्वादशावर्त स्वरूप कहा गया है । " भावकर्म -- यह पूर्वोक्त कर्म के दस भेदों में अन्तिम है । जो कर्मप्राभृत का ज्ञाता होता हुआ वर्तमान में उसमें उपयुक्त भी होता है उसे भावकर्म कहा जाता है (२९-३० ) । उपर्युक्त १० कर्मों में यहाँ समवदान कर्म को प्रकृत कहा गया है, क्योंकि कर्मानुयोगद्वार में उसी की विस्तार से प्ररूपणा की गई है (३१) । इसके स्पष्टीकरण में धवलाकार ने कहा है कि सूत्र में जो यहाँ समवदान कर्म को प्रकृत कहा गया है वह संग्रह नय की अपेक्षा कहा गया है । किन्तु मूलतंत्र में प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अध:कर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्म इन छह कर्मों की प्रधानता रही है, क्योंकि वहाँ इनकी विस्तार से प्ररूपणा की गई हैं । इस सूचना के साथ धवलाकार ने यहाँ उन छह कर्मों की सत्-संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से विस्तारपूर्वक प्ररूपणा की है । ३. प्रकृति- यहाँ 'प्रकृति' की प्रमुखता से ( प्रकृतिनिक्षेप व प्रकृतिनयविभाषणता आदि ) उन्हीं सोलह अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा गया है, जिनका उल्लेख स्पर्श की प्रमुखता से 'स्पर्श' अनुयोगद्वार में और कर्म की प्रमुखता से 'कर्म' अनुयोगद्वार में किया जा चुका है (१-२) । प्रकृतिनिक्षेप उन १६ अनुयोगद्वारों में यह प्रथम है । उसमें इसके ये चार भेद निर्दिष्ट किये गए हैं-नाम प्रकृति, स्थापनाप्रकृति, द्रव्यप्रकृति और भावप्रकृति ( ३-४ ) | प्रकृतिनयविभाषणता -- स्पर्श व कर्म अनुयोगद्वार के समान यहाँ भी अवसर प्राप्त उन नामप्रकृति आदि चार निक्षेपों की प्ररूपणा न करके उसके पूर्व प्रकृतिनयविभाषणता के अनुसार कौन नय किन प्रकृतियों को विषय करता है, इसका विचार किया गया है । यथानैगम, व्यवहार और संग्रह ये तीन नय उन नामादिरूप चारों प्रकृतियों को विषय करते हैं । ऋजुसूत्र नय स्थापनाप्रकृति को विषय नहीं करता है । शब्द नय नामप्रकृति और भावप्रकृति को विषय करता है ( ५-८ ) । आगे पूर्वनिर्दिष्ट चार प्रकार के प्रकृतिनिक्षेप की प्ररूपणा करते हुए प्रथमतः नाम प्रकृति के स्वरूप के विषय में कहा गया है कि एक जीव व एक अजीव आदि आठ में से जिसका 'प्रकृति' ऐसा नाम किया जाता है उसे नामप्रकृति कहते हैं ( ६ ) । काष्ठ व चित्रकर्म आदि कर्मविशेषों में तथा अक्ष व वराटक आदि और भी जो इस प्रकार १. पु० १३, पृ० ६०-१६६ मूलग्रन्थगत विषय का परिचय / १०६ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के हैं उनमें 'यह प्रकृति है' इस प्रकार जो अभेद रूप में स्थापना की जाती है उसका नाम स्थापना प्रकृति है ( १० ) । द्रव्यप्रकृति आगम और नोआगम के भेद से दो प्रकार की है। इनमें आगम द्रव्यप्रकृति के ये नौ अर्थाधिकार हैं—स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम और घोषसम । इन आगमविशेषों को विषय करने वाले ये आठ उपयोगविशेष हैंवाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति और धर्मकथा । इन उपयोगों से रहित (अनुपयुक्त) पुरुष द्रव्यरूप होते हैं । इसका यह अभिप्राय हुआ कि जो जीव प्रकृतिप्राभृत के ज्ञाता होकर भी तद्विषयक उपयोग से रहित होते हैं उन सबको आगमद्रव्य प्रकृति जानना चाहिए (११-१४) । नोआगम द्रव्यप्रकृति कर्मप्रकृति और नोकर्मप्रकृति के भेद से दो प्रकार की है। इनमें प्रकृति को स्थगित कर प्रथमतः नोआगम प्रकृति का विचार करते हुए उसे अनेक प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है । यथा - अनेक प्रकार के पात्रों रूप जो घट, पिढर, सराव, अरंजन व उलुंचन आदि हैं उनकी प्रकृति मिट्ट है तथा धान व तर्पण आदि की प्रकृति जौ व गेहूँ है । इस सबको नोआगमद्रव्य प्रकृति कहा जाता है (१५-१८ ) । ' जिस कर्म प्रकृति को पूर्व में स्थगित किया गया है उसकी अब प्ररूपणा करते हुए उसके ये आठ भेद निर्दिष्ट किये गए हैं -- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनमें ज्ञानावरणीय की आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय आदि पाँच प्रकृतियाँ निर्दिष्ट की गई हैं । इनमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय के चार, चौबीस, अट्ठाईस और बत्तीस भेदों का निर्देश करते हुए उनमें उसके ये चार भेद कहे गये हैं— अवग्रहावरणीय, हावरणीय, अवायावरणीय और धारणावरणीय । इनमें अवग्रहावरणीय अर्थावग्रहावरणीय और व्यंजनावग्रहावरणीय के भेद से दो प्रकार का है । इनमें व्यंजनावग्रहावरणीय श्रोत्रेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के भेद से चार प्रकार का है । अर्थावग्रहावरणीय पाँच इन्द्रियों और नोइन्द्रिय के निमित्त से छह प्रकार का है । इसी प्रकार से आगे ईहावरणीय, अवायावरणीय और धारणावरणीय इनमें भी प्रत्येक के इन्द्रिय और नोइन्द्रिय के आश्रय से वे ही छह-छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं । इस प्रकार से अन्त में उस आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय के चार, चौबीस, अट्ठाईस, बत्तीस, अड़तालीस, एक सौ चवालीस, एक सौ अड़सठ, एक सौ बानबै, दो सौ अठासी, तीन सौ छत्तीस और तीन सौ चौरासी भेद ज्ञातव्य कहे गये हैं (१६-३५) । इन भेदों का कुछ स्पष्टीकरण यहाँ किया जाता है-आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय के मूल में व्यंजनावग्रहावरणीय और अर्थावग्रहावरणीय ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं । इनमें क्रमशः उनसे आव्रियमाण व्यंजनावग्रह चक्षुइन्द्रिय व मन को छोड़ शेष चार इन्द्रियों के आश्रय से चार प्रकार का तथा अर्थावग्रह पाँचों इन्द्रियों और मन के आश्रय से छह प्रकार का है । इसी प्रकार ईहा आदि तीन भी पृथक्-पृथक् छह-छह प्रकार के हैं । इस प्रकार व्यंजनावग्रह के ४ और अर्थावग्रह के २४ (४६) भेद हुए। दोनों के मिलकर २८ (४ + २४) भेद होते हैं। इन २८ उत्तर भेदों में अवग्रह आदि ४ मूल भेदों के मिलाने पर ३२ भेद होते हैं । इस प्रकार ४, २४, २८ और ३२ को पाँच इन्द्रिय व मन इन छह से २४; २४X६ - - १४४, २८६ = १६८, ३२x६ == १६२ गुणित करने पर ४X६= भेद होते हैं । उक्त अवग्रह ११० / षट्खण्डागम- परिशीलन Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि बहु व एक आदि बारह ( ६ + ६) प्रकार के पदार्थों को विषय करते हैं, अतः उन्ही चार ( ४, २४, २८ व ३२) को १२ से गुणित करने पर इतने भेद हो जाते हैं-- ४१२=४८, २४×१२ = २८८; २८x१२३३६; ३२ x १२ = ३८४ । इन्द्रिय व मन इन ६ से पूर्व में गुणित किया जा चुका है और यहाँ फिर से भी उनसे गुणित किया गया है, अतः इन २४ (६४) पुनरुक्त भेदों के निकाल देने पर सूत्र (३५) में निर्दिष्ट वे भेद उक्त क्रम से प्राप्त हो जाते हैं । आगे ‘उसी आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय की अन्य प्ररूपणा की जाती हैं' यह सूचना करते हुए उक्त अवग्रह आदि चारों के पर्यायशब्दों को इस प्रकार प्रकट किया गया है१. अवग्रह — अवग्रह, अवदान, सान, अवलम्बना और मेधा । २. ईहा - ईहा, कहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा और मीमांसा । ३. अवाय — अवाय, व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञप्ति, आमुण्डा और प्रत्यामुण्डा । ४. धारणा - धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा । आभिनिबधिक ज्ञान के समानार्थक शब्द हैं—संज्ञा, स्मृति, मति और चिन्ता । इस प्रकार आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्म की अन्यप्ररूपणा समाप्त की गई है (३६-४२) । तत्पश्चात् श्रुतज्ञानावरणीय कर्म की कितनी प्रकृतियाँ हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि श्रुतज्ञानावरणीय कर्म की संख्यात प्रकृतियाँ हैं । इसके स्पष्टीकरण में आगे कहा गया है कि जितने अक्षर अथवा अक्षरसंयोग हैं उतनी श्रुतज्ञानावरणीय कर्म की प्रकृतियाँ हैं । आगे इन संयोगावरणों के प्रमाण को लाने के लिए एक गणितगाथा सूत्र को प्रस्तुत करते हुए यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि संयोगाक्षरों को लाने के लिए ६४ संख्या प्रमाण दो (२) राशियों को स्थापित करना चाहिए, उनको परस्पर गुणित करने पर जो प्राप्त हो उसमें एक कम करने पर संयोगाक्षरों का प्रमाण प्राप्त होता है ( ४३-४६) । चौंसठ अक्षर इस प्रकार हैं- क् ख् ग् घ् ड्. (कवर्ग), च् छ् ज् झ् ञ, (चवर्ग,) ट् ठ् ड् ढ् ण् (टवर्ग), त् थ् द् ध् न् ( त वर्ग ), प् फ् ब् भ् म् ( प वर्ग ); इस प्रकार २५ वर्गाक्षर । अन्तस्थ चार—य् र् ल् व्; ऊष्माक्षर चार श् ष् स् ह; अयोगवाह चार- अं अः क स्वर सत्ताईस --अ इ उ ऋ लृ ए ऐ ओ औ ये नौ ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत के भेद से तीन-तीन प्रकार के हैं, इस प्रकार २७ ( CX३ : २७ ) स्वर | ये सब मिलकर चौंसठ होते हैं२५+४+४+४+२७ ६४ । इन अक्षरों के भेद से श्रुतज्ञान के तथा उनके आवारक श्रुतज्ञानावरण के भी उतने (६४-६४ ) ही भेद होते हैं । इस प्रकार उपर्युक्त गणित गाथा के अनुसार ६४ संख्या प्रमाण '२' के अंक को रखकर परस्पर गुणित करने पर इतनी संख्या प्राप्त होती है - १८४४६७४४०७३७०६५५१६१५ । इतने मात्र संयोगाक्षर होते हैं । इनके आश्रय से उतने ही श्रुतज्ञान उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार उनके आवारक श्रुतज्ञानावरण के भी उतने ही भेद होते हैं । " इस प्रकार अक्षर प्रमाणादि की प्ररूपणा करके आगे 'उसी श्रुतज्ञानावरणीय कर्म की १. इन अक्षर संयोगों का विवरण धवला में विस्तार से किया गया है । - पु० १३, पृ० २४७-६० मूलग्रन्थगत विषय का परिचय / १११ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीस प्रकार की प्ररूपणा की जाती है' ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए उसके बीस भेदों का उल्लेख प्रथमतः संक्षेप में गाथासूत्र के द्वारा और तत्पश्चात् उन्हीं का पृथक्-पृथक् विवरण गद्यात्मक सूत्र के द्वारा किया गया है। वे २० भेद ये हैं-पर्यायावरणीय, पर्यायसमासावरणीय, अक्षराबरणीय, अक्षरसमासावरणीय, पदावरणीय, पदसमासावरणीय, संघातावरणीय, संघातसमासावरणीय, प्रतिपत्तिावरणीय, प्रतिपत्तिसमासावरणीय, अनुयोगद्वारावरणीय, अनुयोगबारसमासावरणीय, प्राभृतप्राभृतावरणीय, प्राभृतप्राभृतसमासावरणीय, प्राभृतावरणीय, प्राभृतसमासावरणीय, वस्तुआवरणीय, वस्तुसमासावरणीय, पूर्वावरणीय और पूर्वसमासावरणीय (४७-४८)। उपर्युक्त बीस प्रकार के श्रुतज्ञानावरणीय के द्वारा आद्रियमाण अक्षर व अक्षर-समास मादि बीस प्रकार के श्रुतज्ञान की प्ररूपणा धवला में विस्तार से की गई है।' आगे 'उसी श्रुतज्ञानावरणीय की अन्य प्ररूपणा हम करेंगे' ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए श्रुतज्ञान के इन इकतालीस पर्याय-शब्दों का निर्देश किया गया है-(१) प्रावचन (२) प्रवचनीय, (३) प्रवचनार्थ, (४) गतियों में मार्गणता, (५) आत्मा, (६) परम्परालब्धि, (७) अनुत्तर, (८) प्रवचन, (६) प्रवचनी, (१०) प्रवचनाद्धा, (११) प्रवचन संनिकर्ष, (१२) नय विधि, (१३) नयान्तरविधि, (१४) भंगविधि, (१५) भंगविधिविशेष, (१६) पृच्छाविधि, (१७) पृच्छाविधिविशेष, (१८) तत्त्व, (१६) भूत, (२०) भव्य, (२१) भविष्यत्, (२२) अवितथ (२३) अविहत, (२४) वेद, (२५) न्याय्य, (२६) शुद्ध, (२७) सम्यग्दृष्टि, (२८) हेतुवाद, (२९) नयवाद, (३०) प्रवरवाद, (३१) मार्गवाद, (३२) श्रुतवाद, (३३) परवाद, (३४) लौकिकवाद, (३५) लोकोत्तरीयवाद, (३६) अग्र्य, (३७) मार्ग, (३८) यथानुमार्ग, (३६) पूर्व, (४०) यथानुपूर्व और (४१) पूर्वातिपूर्व (४६-५०)। धवला में यहां यह शंका की गई है कि सूत्रकार श्रुतज्ञानावरणीय के समानार्थक शब्दों की प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं, पर प्ररूपणा आगे श्रुतज्ञान के समानार्थक शब्दों की की जा रही है, यह क्या संगत है ? इस आशंका का निराकरण करते हुए वहाँ यह कहा गया है कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि आवरणीय (श्रुतज्ञान) की प्ररूपणा का अविनाभाव उसके आवरण के स्वरूप के ज्ञान के साथ है। प्रकारान्तर से वहाँ यह भी कहा गया है कि अथवा 'आवरणीय' शब्द कर्मकारक में सिद्ध हुआ है, अत: 'श्रुतज्ञानावरणीय' से श्रुतज्ञान का ग्रहण हो जाता है। आगे धवला में इन पर्याय शब्दों का भी निरुक्तिपूर्वक पृथक्-पृथक् अर्थ प्रकट किया गया है। आगे क्रम प्राप्त अवधिज्ञानावरणीय की प्ररूपणा के प्रसंग में उसकी कितनी प्रकृतियाँ हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि अवधिज्ञानावरणीय की असंख्यात प्रकृतियाँ हैं । वह अवधिज्ञान भवप्रत्यय और गणप्रत्यय के भेद से दो प्रकार का है। इनमें भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों व नारकियों के होता है तथा गुणप्रत्यय तिर्यंच व मनुष्यों के। आगे इस अवधिज्ञान को अनेक प्रकार का कहकर उसके इन भेदों का उल्लेख किया गया है-देशावधि, परमावधि, सर्वावधि, हीयमान, वर्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, सप्रतिपाती, अप्रतिपाती, एक क्षेत्र और अनेक क्षेत्र (५१-५६) । १. पु. १३, पृ० २६०-७६ २. पु० १३, पृ० २८०-८६ ११२ / षट्लण्डागम-परिशीलन Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि 'गुण' से यहां सम्यक्त्व से अधिष्ठित अणुव्रत-महावत अभिप्रेत हैं, तदनुसार इस गुण के आश्रय से जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता है उसे गुणप्रत्यय अवधिज्ञान कहा जाता है। ___ एक क्षेत्र व अनेक क्षेत्र अवधिज्ञान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि जिस अवधिज्ञान का करण जीव के शरीर का एकदेश हुआ करता है वह एकक्षेत्र अवधिज्ञान कहलाता है तथा जो अवधिज्ञान प्रतिनियत क्षेत्र को छोड़ कर शरीर के सब अवयवों में रहता है उसे अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान कहा जाता है । तीर्थंकर, देव और नारकियों का अवधिज्ञान अनेक क्षेत्र ही होता है, क्योंकि वह शरीर के सब अवयवों से अपने विषयभूत पदार्थ को ग्रहण किया करता है। इनके अतिरिक्त शेष जीव एकदेश से ही पदार्थ को जानते हैं, ऐसा नियम नहीं करना चाहिए, क्योंकि परमावधि और सर्वावधि के धारक गणधर आदि के अपने सब अवयवों से अपने विषयभूत अर्थ का ग्रहण उपलब्ध होता है। इससे यह समझना चाहिए कि शेष जीव शरीर के एकदेश व सब अवयवों से भी जानते हैं।' भागे इस एकक्षेत्र अवधि के विशेष स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा गया है कि जिन जीव प्रदेशों में अवधिज्ञानावरणीय का क्षयोपशम हआ है उनके करणस्वरूप शरीर के प्रदेश अनेक आकारों में अवस्थित होते हैं। जैसे-श्रीवत्स, कलश, शंख, स्वस्तिक और नन्द्यावर्त आदि (५७-५८)। ___ अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार इन्द्रियाँ प्रतिनियत आकार में होती हैं उस प्रकार अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम युक्त जीवप्रदेशों के करणस्वरूप शरीर प्रदेश प्रतिनियत आकार में नहीं होते, किन्तु वे श्रीवत्स व कलश आदि अनेक आकारों में परिणत होते हैं । ये तिर्यंच व मनुष्यों के नाभि के ऊपर होते हैं, उसके नीचे नहीं होते, क्योंकि शुभ आकारों का शरीर के अधोभांग के साथ विरोध है। एक जीव के एक ही स्थान में वे आकार होते हों यह भी नियम नहीं है, किन्तु वे एक दो तीन आदि अनेक स्थानों में हो सकते हैं। विभंगज्ञानी तिर्यच-मनुष्यों के गिरगिट आदि अशुभ आकार हुआ करते हैं, जो नाभि के नीचे होते हैं । यदि इन विभंगज्ञानियों के सम्यक्त्व के प्रभाव से अवधिज्ञान उत्पन्न होता है तो वे गिरगिट आदि के अशुभ आकार हटकर नाभि के ऊपर शंख आदि शुभ आकार उत्पन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार अवधिज्ञानियों के मिथ्यात्व के वश अवधिज्ञान विनष्ट होकर विभंगज्ञान होता है तो उनके वे नाभि के ऊपर के शंख आदि शुभ आकार विनष्ट होकर नाभि के नीचे अशुभ आकार हो जाते हैं । यह अभिप्राय धवलाकार ने सूत्र के अभाव में गुरु के उपदेशअनुसार प्रकट किया है। कुछ आचार्यों के अभिप्रायानुसार अवधिज्ञान और विभंगज्ञान के न क्षेत्रगत आकार में कुछ भेद होता और न नाभि के नीचे-ऊपर का भी कुछ नियम रहता है । सम्यक्त्व व मिथ्यात्व की संगति से किये गये नामभेद के कारण उनमें भेद नहीं है, अन्यथा अव्यवस्था होना सम्भव है। पूर्व में अवधिज्ञान के देशावधि आदि जिन अनेक भेदों का निर्देश किया गया है उनमें १. पु० १३, पृ० २६५-६६ २. पु० १०, पृ० २६६-६८ मूलप्रवगत विषय का परिचय | ११३ : Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक अनवस्थित अवधिज्ञान भी है । अनवस्थित अवधिज्ञान वह है जो उत्पन्न होकर घटताबढ़ता रहता है। इस अनवस्थित अवधिज्ञान के जघन्य व उत्कृष्ट काल के अन्तर्गत अनेक काल भेदों की प्ररूपणा करते हुए समय, प्रावलि, क्षण, लव, मुहूर्त आदि सागरोपम पर्यन्त अनेक काल भेदों का उल्लेख किया गया है (५६)। दो परमाणुओं का तत्प्रायोग्य वेग से ऊपर व नीचे जाते हुए शरीरों के साथ परस्पर स्पर्श होने में जितना काल लगता है उसका नाम समय है। यह उसके प्रवस्थान का जघन्य काल है। कारण यह कि कोई अवधिज्ञान उत्पन्न होने के दसरे ही समय में विनष्ट होता हुआ उपलब्ध होता है। इसी प्रकार उसका अवस्थान काल क्षण-लव आदि समझना चाहिए। ___ आगे अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र दिखलाते हुए कहा गया है कि तृतीय समयवर्ती आहारक और तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ हुए सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक की जितनी अवगाहना होती है उतना अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र है। इस प्रकार अवधिज्ञान के जघन्य क्षेत्र को दिखला कर आगे क्षेत्र से सम्बद्ध काल की और काल से सम्बद्ध क्षेत्र के प्रमाण की प्ररूपणा की गई है। इसी प्रसंग में नाना काल और नाना जीवों के आश्रय से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से सम्बद्ध वृद्धि के क्रम को भी प्रकट किया गया है। इस प्रकार द्रव्य से सम्बद्ध उसके क्षेत्र-काल आदि की प्ररूपणा करते हुए कौन-कौन जीव उस अवधिज्ञान के द्वारा क्षेत्र-काल आदि की अपेक्षा कितना जानते हैं; इसे स्पष्ट किया गया है (गाथा सूत्र ३-१७, पृ० ३०१-२८)। __ इस प्रकार अवधिज्ञानावरणीय की प्ररूपणा को समाप्त कर आगे मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म की प्ररूपणा करते हुए उसकी कितनी प्रकृतियाँ हैं, इसके स्पष्टीकरण में कहा गया है कि उसकी दो प्रकृतियाँ हैं--ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय और विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय । इनमें जो ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म है वह तीन प्रकार का है - ऋजुमनोगत अर्थ को जानता है, ऋजुवचनगत अर्थ को जानता है और ऋजुकायगत अर्थ को जानता है (६०-६२)। इसका अभिप्राय यह रहा है कि ऋजमनोगत अर्थ को विषय करनेवाले, ऋजुवचनगत अर्थको विषय करनेवाले और ऋजुकायगत अर्थ को विषय करनेवाले इस तीन प्रकार के मनःपर्ययज्ञान को आवृत करनेवाला ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म भी तीन प्रकार का है। इसके पश्चात् ऋजुमतिमनःपर्यय ज्ञान के विषय की प्ररूपणा करते हुए यह कहा गया है कि मनःपर्ययज्ञानी मन (मतिज्ञान) से मानस को ग्रहण करके दूसरों की संज्ञा, स्मृति, मति, चिन्ता, जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, नगरविनाश, देशविनाश, जनपदविनाश, खेटविनाश, कर्वटविनाश, मडंबविनाश, पट्टनविनाश, द्रोणमुखविनाश, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सुवृष्टि, दुर्वृष्टि, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, क्षेम, अक्षेम, भय और रोग इन सब काल से विशेषित पदार्थों को जानता है। इनके अतिरिक्त वह व्यक्त मनवाले अपने व दूसरे जीवों से सम्बन्धित वस्तुओं को जानता है, किन्तु अव्यक्त मनवाले जीवों से सम्बन्धित वस्तुओं को वह नहीं जानता है । आगे इसी प्रसंग में काल और क्षेत्र की अपेक्षा वह कितने विषय को जानता है. इसे भी स्पष्ट किया गया है (६३-६६)। इस प्रकार ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय की प्ररूपणा को समाप्त कर आगे विपुल ११४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म की प्ररूपणा के प्रसंग में उसके ये छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं---वह ऋजु व अनृजु मनोगत अर्थ को जानना है, ऋजु व अनृजु वचनगत अर्थ को जानता है तथा ऋजु व अनृजु कायगत अर्थ को जानता है। इसका अभिप्राय ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय के ही समान समझना चाहिए । इसी प्रकार आगे ऋजुमतिमनःपर्यय के समान इस विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान के विषय की भी प्ररूपणा उसी पद्धति से की गई है (७०-७८)। ___ आगे क्रमप्राप्त केवलज्ञानावरणीय की प्ररूपणा के प्रसंग में उसकी कितनी प्रकृतियाँ हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि केवलज्ञानावरणीय कर्म की एक ही प्रकृति है । अनन्तर उस केवलज्ञानावरणीय से आवृत केवलज्ञान के स्वरूप को प्रकट करते हुए उसे सकलतीनों कालों के विषयभूत समस्त बाह्य पदार्थों को विषय करनेवाला, सम्पूर्ण-अनन्तदर्शन व वीर्य आदि अनन्तगुणों से परिपूर्ण-और कर्म-वैरी से रहित होने के कारण असपत्न कहा गया है। आगे स्वयं उत्पन्न होनेवाले उस केवलज्ञान के विषय को प्रकट करते हुए कहा गया है कि स्वयं उत्पन्न हए ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न भगवान देवलोक, असुरलोक व मनुष्यलाक (ऊर्व, अध: व तिर्यक् तीनों लोक) की गति, आगति, चयन, उपपाद, बन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, द्युति, अनुभाग, तर्क, फल, मन, मानसिक, मुक्त, कृति, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरहःकर्म, सब लोकों, सब जीवों और सब भावों को समीचीनतया जानते हैं, देखते हैं व विहार करते हैं (७६-८३)। आगे क्रम से दर्शनावरणीय (८४-८६), वेदनीय (८७-८८), मोहनीय (८६-६८) और आयु (EE) कर्म की उत्तरप्रकृतियों का नाम-निर्देश किया गया है। तत्पश्चात् नामकम की ब्यालीस प्रकृतियों का निर्देश करते हए उनमें यथाक्रम से आनुपूर्वी तक गति-जाति आदि तेरह पिण्डप्रकृतियों की उत्तरप्रकृतियों के नामों का भी निर्देश किया गया है (१००-१३२)। विशेषता यहाँ यह रही है कि आनुपूर्वी के प्रसंग में उसकी नरकगति-प्रायोग्यानुपूर्वी आदि चार में प्रत्येक की उत्तरप्रकृतियों के प्रमाण को भी दिखलाते हुए उसमें एक वार अल्पबहुत्व को प्रकट करके (१२३-२७) 'भयो अप्पाबहअं इस सचना के साथ प्रकारान्तर से पूनः उस अल्पबहुत्व को प्रकट किया गया है (१२८-३२)। ___ इस प्रसंग में यहाँ धवला में यह शंका की गई है कि एक वार उनके अल्पबहुत्व को कहकर फिर से उसकी प्ररूपणा किसलिए की जा रही है। इसके समाधान में वहाँ यह कहा गया है कि अन्य भी व्याख्यानान्तर है, इसके ज्ञापनार्थ उसका प्रकारान्तर से पुनः कथन किया जाता है। आगे जिन अगुरुलघु आदि २६ प्रकृतियों का उल्लेख पूर्व (१०१) में किया जा चुका है उनका उल्लेख उसी रूप में यहां पुनः किया गया है (१३३)। इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि इन प्रकृतियों की प्ररूपणा उत्तरोत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणा जानकर करना चाहिए । इनकी उत्तरोत्तर प्रकृतियां नहीं हैं, ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि धव और धम्ममन आदि प्रत्येक शरीर तथा मूली और थूहर आदि साधारण-शरीर इनके बहत प्रकार के स्वर और गमन आदि उपलब्ध होता है। १. यह सन्दर्भ आचारांग द्वि० श्रुतस्कन्ध (चू० ३) गत केवलज्ञान विषयक सन्दर्भ से शब्दश: । बहुत कुछ मिलता-जुलता है । पृ० ८८८ मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | ११५ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तर गोत्र कर्म की दो और अन्तराय कर्म की पांच प्रकृतियों का निर्देश किया गया है। (१३४-३७)। इस प्रकार प्रकृति के नाम, स्थापना और द्रव्य रूप तीन भेदों की प्ररूपणा करके आगे उसके चौथे भेदभूत भावप्रकृति की प्ररूपणा करते हुए उसके इन दो भेदों का निर्देश किया गया है-आगमभाव प्रकृति और नो-आगमभाव प्रकृति । आगमभाव प्रकृति के प्रसंग में उसके स्वरूप को प्रकट करते हुए पूर्व के समान उसके स्थित-जित आदि नौ अर्थाधिकारों के साथ तद्विषयक वाचना-पृच्छना आदि आठ उपयोग-विशेषों का भी उल्लेख किया गया है। दूसरी नोआगमभाव प्रकृति को अनेक प्रकार का कहा गया है । जैसे--सुर व असुर आदि देवविशेष, मनुष्य एवं मृग-पशु अर्थात् पक्षी आदि विविध प्रकार के तिर्यंच और नारकी इनकी निज का अनुसरण करनेवाली प्रकृति (१३८-४०)। अन्त में प्रकरण का उपसंहार करते हुए 'इन प्रकृतियों में यहां कौन-सी प्रकृति प्रकृत है', इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि उनमें यहाँ भावप्रकृति प्रकृत है। इस प्रकार प्रथम प्रकृति निक्षेप अनुयोगद्वार की प्ररूपणा करके आगे यह कह दिया है कि शेष प्ररूपणा वेदना अनुयोगद्वार के समान है (१४२-४२)। __इसका अभिप्राय यह रहा है कि प्रकृतिनयविभाषणता आदि जिन शेष १५ अनुयोगद्वारों की यहां प्ररूपणा नहीं की गई है उनकी वह प्ररूपणा वेदना अनुयोगद्वार के समान समझना चाहिए। ___ इस प्रकार 'वर्गणा' खण्ड के अन्तर्गत स्पर्श, कर्म और प्रकृति ये तीनों अनुयोगद्वार १३वीं जिल्द में प्रकाशित हुए हैं। ४. बन्धन यहां सर्व प्रथम सूत्र में यह निर्देश किया गया है कि 'बन्धन' इस अनुयोगद्वार में बन्धन की विभाषा (व्याख्यान) चार प्रकार की है-बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान (सूत्र १)। इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने 'बन्धन' शब्द की निरुक्ति चार प्रकार से की है-बन्धो बन्धनम्, बध्नातीति मन्धनः, बध्यते इति बन्धनम्, बध्यते अनेनेति बन्धनम् । इनमें प्रथम निरुक्ति के अनुसार बन्ध ही बन्धन सिद्ध होता है । दूसरी निरुक्ति कर्ता के अर्थ में की - १. प्रकृतियों की यह प्ररूपणा कुछ अपवादों को छोड़कर-जैसे ज्ञानावरणीय व आनुपूर्वी आदि-प्रायः सब ही जीवस्थान की नौ चूलिकाओं में प्रथम 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' चूलिका के समान है। दोनों में सूत्र भी प्रायः वे ही हैं । उदाहरण के रूप में इन सूत्रों को देखा जा सकता है-प्रकृति अनुयोगद्वार सूत्र ८६-११४, प्रकृतिसमु० चूलिका सूत्र १५-४१ । सूत्रसंख्या में जो भेद है वह एक ही सूत्र के २-३ सूत्रों में विभक्त हो जाने के कारण हुआ है । जैसे-जं तं दंसणमोहणीयं कम्मं तं बंधदो एयविहं ।।११।। तस्स संत कम्म पुण तिविहं सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं ।।१२।। (प्रकृतिअनु) जं तं दंसणमोहणीये कम्मं तं बंधादो एयविहं तस्स संतकम्मं पुण तिविहं-सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं चेदि ।।२१।। (जी० चूलिका १) ११६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गई है, तदनुसार बांधनेवाले का नाम बन्धन है। इससे बन्धन का अर्थ बन्धक भी होता है । तीसरी निरुक्ति ( बध्यते यत्) कर्मसाधन में की गई है, तदनुसार जिसे बांधा जाता है वह बन्धन सिद्ध होता है । इस प्रकार बन्धन का अर्थ बाँधने के योग्य ( बन्धनीय) कर्म होता है । चौथी निरुक्ति करण साधन में की गई है। तदनुसार जिसके द्वारा बाँधा जाता है वह बन्धन है, इस प्रकार से बन्धन का अर्थ बन्धविधान भी हो जाता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि प्रस्तुत बन्धन अनुयोगद्वार में चार अवान्तर अनुयोगद्वार हैं—बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान । --- १. बन्ध--- सर्वप्रथम बन्ध की प्ररूपणा करते हुए उसके ये चार भेद निर्दिष्ट किये हैंनामबन्ध, स्थापनाबन्ध, द्रव्यबन्ध और भावबन्ध । आगे बन्धन नयविभाषणता के अनुसार कौन tय किन बन्धों को स्वीकार करता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि नैगम, व्यवहार और संग्रह ये तीन नय सब बन्धों को स्वीकार करते हैं । ऋजुसूत्र नय स्थापनाबन्ध को स्वीकार नहीं करता । शब्दनय नामबन्ध और भावबन्ध को स्वीकार करता है (२-६) । आगे नामबन्ध और स्थापनाबन्ध के स्वरूप को उसी पद्धति से प्रकट किया गया है, जिस पद्धति से पूर्व में नामस्पर्श और स्थापनास्पर्श तथा नामकर्म और स्थापनाकर्म के स्वरूप को प्रकट किया गया है। तत्पश्चात् द्रव्यबन्ध को स्थगित कर भावबन्ध की प्ररूपणा भी उसी पद्धति से की गई है ( ७-१२) । विशेष इतना है कि नो आगमभावबन्ध की प्ररूपणा में उसके ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं— जीवभावबन्ध और अजीवभावबन्ध । इनमें जीवभावबन्ध तीन प्रकार का है- विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध, अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध और उभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध । इनमें विपाक प्रत्ययिक जीवभावबन्ध का स्वरूप प्रकट करते हुए यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि कर्म के उदय के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले औदयिक जीवभावों का नाम विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है । ऐसे वे जीवभाव ये हैं—देव, मनुष्य, तियंच, नारक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या, असंयत, अविरत, अज्ञान और मिथ्यादृष्टि । इनके अतिरिक्त इसी प्रकार के और भी कर्मोदयजनित भाव हैं उन सबको विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध जानता चाहिए' (१३-१५) । ये सब ही जीवभाव विभिन्न कर्मों के उदय से उत्पन्न होते हैं । जैसे— देव - मनुष्य गति आदि नामकर्म के उदय से देव - मनुष्यादि । नोकषायस्वरूप स्त्रीवेदोदयादि से स्त्री-पुरुषनपुंसक rfare प्रत्ययिक जीवभावबन्ध दो प्रकार का है - औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध और क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध । इनमें क्रोध - मानादि के उपशान्त होने पर जो अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण आदि गुणस्थानों में भाव होते हैं उन्हें औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध कहा गया है । औपशमिक सम्यक्त्व व औपशमिक चारित्र तथा और भी जो इसी प्रकार के भाव हैं उन सबको औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध निर्दिष्ट १. ये भाव थोड़ी-सी विशेषता के साथ तत्त्वार्थसूत्र में इस प्रकार निर्दिष्ट किये गये हैंगति - कषाय-लिंग-मिथ्या दर्शनासंयतासिद्धले श्याश्चतुश्चतुस्त्र्ये कै कै कै क षड्भेदा: । ( १२-६) मूलप्रम्यगत विषय का परिचय / ११७ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया इसी प्रकार उक्त क्रोधादि के सर्वथा क्षय को प्राप्त हो जाने पर जो जीवभाव उत्पन्न होते हैं उनके साथ क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र तथा क्षायिक दान - लाभ आदि ( नौ क्षायिक लब्धियाँ) एवं अन्य भी इसी प्रकार के जीवभावों को क्षायिक अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबन्ध कहा गया है। विवक्षित कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाले एकेन्द्रियलब्धि आदि विविध प्रकार के जीवभावों को तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध निर्दिष्ट किया गया है (१६-१६) । अजीवभावबन्ध भी तीन प्रकार का है- विपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध, अविपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध और तदुभयप्रत्ययिक अजीवभावयन्ध । इनमें प्रयोगपरिणत वर्ण व शब्द आदिकों को विपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध और विस्रसापरिणत वर्ण व शब्द आदिकों nt अविपाकप्रत्ययिक अजीव-भावबन्ध कहा गया है । प्रयोगपरिणत स्कन्धगत वर्णों के साथ जो विसापरिणत स्कन्धों के वर्णों का संयोग या समवाय रूप सम्बन्ध होता है उसे तदुभयप्रत्ययिक अजीव - भावबन्ध कहा गया है । इसी प्रकार शब्द व गन्ध आदि को भी तदुभय प्रत्ययिक अजीव भावबन्ध जानना चाहिए (२०-२३) । आगे पूर्व में जिस द्रव्यबन्ध को स्थगित किया गया था उसकी प्ररूपणा करते हुए उसके ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं- आगमद्रव्यबन्ध और नो- आगमद्रव्यबन्ध । इनमें आगमद्रव्यबन्ध के स्वरूप को पूर्व पद्धति के अनुसार दिखलाकर नो-आगमद्रव्य-बन्ध के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं- प्रयोगबन्ध और विस्रसाबन्ध । इनमें प्रयोग बन्ध को स्थगित कर विस्रसाबन्ध सादि और अनादि के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। इनमें भी सादि विस्रसाबन्ध को स्थगित कर अनादि विस्रसाबन्ध के तीन भेद निर्दिष्ट किये गये हैं—-धर्मास्तिक, अधर्मास्तिक और आकाशास्ति । इनमें भी प्रत्येक तीन प्रकार का है। जैसे -- धर्मास्तिक, धर्मास्तिक देश और धर्मास्तिक प्रदेश । अधर्मास्तिक और आकाशास्तिक के भी इसी प्रकार से तीन भेद निर्दिष्ट किये गये हैं । इन तीनों ही अस्तिकायों का परस्पर में प्रदेशबन्ध होता है (२४-३१) । अनादि विस्रसाबन्ध का स्पष्टीकरण धवला में इस प्रकार किया गया है-धर्मास्तिकाय के अपने समस्त अवयवों के समूह का नाम धर्मास्तिक है । इस प्रकार अवयवी धर्मास्तिकाय का जो अपने अवयवों के साथ बन्ध है उसे धर्मास्तिक बन्ध कहा जाता है । उसके अर्धभाग से लेकर चतुर्थ भाव तक का नाम धर्मास्तिक देश है, उन्हीं धमास्तिक देशों का जो अपने अवयवों के साथ बन्ध है वह धमास्तिक देशबन्ध कहलाता है । उसी के चौथे भाग से लेकर जो अवयव हैं उनका नाम प्रदेश और उनके पारस्परिक बन्ध का नाम धर्मास्तिक प्रदेशबन्ध है । इसी प्रकार का अभिप्राय अधर्मास्तिक और आकाशास्तिक के विषय में रहा है। इन तीनों ही अस्तिकायों के प्रदेशों का जो परस्पर में बन्ध है उस सबका नाम अनादिविस्रसाबन्ध है । कारण यह कि ये तीनों द्रव्य अनादि व प्रदेशों के परिस्पन्द से रहित हैं । इसीलिए उनका बन्ध अनादि होकर स्वाभाविक है । अब यहाँ जिस सादि विस्रसाबन्ध को पूर्व में स्थगित किया गया था उसकी प्ररूपणा करते हुए विसदृश स्निग्धता और विसदृश रूक्षता को बन्ध—बन्ध का कारण — कहा गया है तथा समान स्निग्धता और समान रूक्षता को भेद - असंयोग का कारण कहा गया है ( ३२-३३) । इन दो सूत्रों का स्पष्टीकरण आगे एक गाथा - सूत्र (३४) के द्वारा करते हुए "वेमादाद्धिदा मादा ल्हुक्खदा बंधो" इस सूत्र (३२) को पुनः उपस्थित किया गया है । ११८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलाकार ने इसका दूसरा अर्थ करके संगति बैठायी है । यथा --- -पूर्व में 'मादा' का अर्थ सदृशता और 'वेमादा' का अर्थ सदृशता से रहित ( विसदृशता ) किया गया है। अब यहाँ 'मादा' (मात्रा) का अर्थ श्रविभागप्रतिच्छेद और 'वे' का अर्थ दो संख्या किया गया है । तदनुसार अभिप्राय यह हुआ कि स्निग्ध पुद्गल दो अविभागप्रतिच्छेदों से अधिक अथवा दो अविभागप्रतिच्छेदों से हीन अन्य स्निग्ध पुद्गलों के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं, तीन आदि अविभागप्रतिच्छेदों से अधिक अथवा हीन अन्य स्निग्ध पुद्गलों के साथ वे बन्ध को प्राप्त नहीं होते । इस अर्थ का निर्णय आगे एक अन्य गाथा -सूत्र (३६) द्वारा किया गया है। इस प्रकार यहाँ परमाणु- पुद्गलों के बन्धविषयक दो मत स्पष्ट हैं। प्रथम मत के अनुसार स्निग्धता अथवा रूक्षता से सदृश (स्निग्ध-स्निग्ध या रूक्ष- रूक्ष ) परमाणुओं में बन्ध नहीं होता है । किन्तु दूसरे मत के अनुसार स्निग्धता और रूक्षता से सदृश और विसदृश दोनों ही प्रकार के पुद्गलपरमाणुओं में परस्पर बन्ध होता है । विशेष इतना है उन्हें स्निग्धता और रूक्षता के प्रविभाग प्रतिच्छेदों में दो-दो से अधिक अथवा हीन होना चाहिए। उदाहरण के रूप में दो गुण (भाग) स्निग्ध परमाणु का चार गुण स्निग्ध अन्य परमाणु के साथ बन्ध होता है । इसी प्रकार दो गुण स्निग्ध परमाणु का चार गुण रूक्ष परमाणु के साथ भी बन्ध होता है । दो गुण स्निग्ध का तीन गुण व पाँच गुण आदि किसी भी स्निग्ध- रूक्ष परमाणुओं के साथ बन्ध सम्भव नहीं है, उन्हें दो-दो गुणों से ही अधिक होना चाहिए । इसी प्रकार तीन गुण स्निग्ध का पाँच गुण स्निग्ध अथवा रूक्ष परमाणुत्रों के साथ बन्ध सम्भव है । इसी प्रकार से आगे चार गुण स्निग्ध या रूक्ष का छह गुणस्निग्ध अथवा रूक्ष परमाणुओं में परस्पर बन्ध होता है । यह अवश्य है कि जघन्य गुण ( सबसे हीन प्रविभागप्रतिच्छेद युक्त) पुद्गल परमाणु का किसी भी अवस्था में अन्य परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता । यह दूसरा मत तत्त्वार्थसूत्र (५,३२-३६ ) व उसकी व्याख्या स्वरूप सर्वार्थसिद्धि एवं तत्त्वार्थवार्तिक में उपलब्ध होता है । ' आगे इस सादि विस्रसाबन्ध के विषय में अनेक उदाहरण देते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि क्षेत्र, काल, ऋतु, अयन (दक्षिणायन - उत्तरायन) और पुद्गल के निमित्त से उपर्युक्त बन्ध परिणाम को प्राप्त होकर जो अभ्र, मेघ, सन्ध्या, विद्य ुत्, उल्का, कनक (अशनि), दिशादाह, धूमकेतु और इन्द्रायुध के रूप में बन्धनपरिणाम से परिणत होते हैं; इस सबको सादि - विस्रसाबन्ध कहा जाता है। इसी प्रकार के अन्य भी जो स्वभावतः उस प्रकार के बन्धनपरिणाम से परिणत होते हैं उनके उस बन्ध को सादि - विस्रसाबन्ध समझना चाहिए (३७) । * आगे पूर्व में स्थगित किये गए प्रयोगबन्ध की प्ररूपणा करते हुए उसे कर्मबन्ध और नो १. इस प्रसंग में तत्त्वार्थवार्तिक में षट्खण्डागम के अन्तर्गत वर्गणाखण्ड का उल्लेख भी इस प्रकार किया गया है-स पाठो नोपपद्यते । कुतः ? श्रार्षविरोधात् । एवं हि उक्तमार्षे वर्गणायां बन्धविधाने नोआगमद्रव्यबन्धविकल्पे सादि- वैस्रसिकबन्ध निर्देशः प्रोक्तः । विषमरूक्षतायां च बन्धः समरूक्षतायां च भेदः इति । तदनुसारेण च सूत्रमुक्तं 'गुणसाम्ये सदृशानाम्' इति" । --- त० वा० ५,१६,४ पृ० २४२ २. तत्त्वार्थवार्तिक ५,२४,१३, पृ० २३२ मूलग्रन्थगत विषय का परिचय / ११६ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मबन्ध के भेद से दो प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। इनमें कर्मबन्ध को स्थगित करके दूसरे नोकर्मबन्ध के इन पांच भेदों का निर्देश किया है-आलापनबन्ध, अल्लीवनबन्ध, संश्लेषबन्ध, शरीरबन्ध और शरीरीबन्ध । इनमें आलापनबन्ध के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि लोहा, रस्सी, वभ्र अथवा दर्भ आदि अन्य द्रव्य के निमित्त से जो शकट, यान, युग, गड्डी, गिल्ली, रथ, स्यन्दन, शिविका, गृह, प्रासाद, गोपुर और तोरण इनके तथा और भी जो इस प्रकार के हैं उन सबके बन्ध को आलापनबन्ध कहा जाता है । कटक, कुड्ड, गोवरपीढ, प्राकार, शाटिका तथा और भी जो इस प्रकार के द्रव्य हैं, जिनका अन्य द्रव्यों से अल्लीवित होकर बन्ध होता है वह सब ही अल्लीवनबन्ध कहलाता है । परस्पर में संश्लेष को प्राप्त काष्ठ और लाख का जो बन्ध होता है उसका नाम संश्लेशबन्ध है (३८-४३)। ___ प्रयोग का अर्थ जीव का व्यापार है, इस जीवव्यापार से जो बन्ध उत्पन्न होता है उसे प्रयोगबन्ध कहते हैं। वह पाँच प्रकार का है-आलापनबन्ध, अल्लीवनबन्ध, संश्लेषबन्ध, शरीरबन्ध और शरीरीबन्ध । लोहा, रस्सी, चमड़ा और लकड़ी आदि के आश्रय से जो उनसे भिन्न गाड़ी, रथ व जहाज आदि अन्य द्रव्यों का बन्ध होता है उसे आलापनबन्ध कहा जाता है। तत्त्वार्थवार्तिक में इसका उल्लेख आलपनबन्ध के नाम से किया गया है। वहाँ 'लपि' धातु का अर्थ आकर्षण क्रिया किया गया है।' लेपनविशेष से जड़े या जोड़े गये द्रव्यों का जो परस्पर बन्ध होता है उसका नाम अल्लीवन बन्ध है, जैसे-चटाई, भीत व वस्त्र आदि का बन्ध । आलापन बन्ध में जहाँ गाड़ी आदि में लोहे या लकड़ी आदि की कीलें उनसे भिन्न रहती हैं वहाँ इस बन्ध में कीलों आदि के समान द्रव्य नहीं रहते । जैसे-ईटों व मिट्टी (गारा) आदि के लेप से बननेवाली भीत आदि, तथा तन्तुओं के परस्पर बुनने से बननेवाला वस्त्र । तत्त्वार्थवार्तिक में इसका उल्लेख आलेपनबन्ध के नाम से किया गया है। संश्लेषबन्ध काष्ठ और लाख आदि चिक्कन-अचिक्कन द्रव्यों का होता है। आलापनबन्ध में जैसे कीलें आदि भिन्न द्रव्य रहती हैं तथा अल्लीवनबन्ध में जैसे-इंट व मिट्ठी व आदि के साथ पानी भी रहता है, क्योंकि उसके विना लेप नहीं होता; इस प्रकार से इस बन्ध में न कीलों आदि के समान कुछ पृथक् द्रव्य रहते हैं और न अल्लीवन बन्ध के समान पानी आदि का उपयोग इसमें होता है, इससे यह संश्लेषबन्ध उन दोनों से भिन्न है। शरीरबन्ध को औदारिकशरीरबन्ध आदि के भेद से पांच प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। आगे उनके यथा सम्भव एक दो तीन के संयोग से १५ भेद का भी उल्लेख किया गया है। जैसे-औदारिक-औदारिक-शरीरबन्ध, औदारिक-तेजसशरीरबन्ध, औदारिक-कार्मणशरीरबन्ध, औदारिक-तैजस-कार्मणशरीरबन्ध, वैक्रियिक-वैक्रियिक-शरीरबन्ध, आदि (४४-६०)। जीव प्रदेशों का अन्य जीवप्रदेशों के साथ तथा पाँच शरीरों के साथ जो बन्ध हैं उसे शरीरी बन्ध कहते हैं। वह शरीरीबन्ध सादिशरीरीबन्ध और अनादिशरीरीबन्ध के भेद से दो प्रकार का है। इनमें सादिशरीरीबन्ध को शरीरबन्ध के समान जानना चाहिए। जोव के आठ मध्यप्रदेशों का जो परस्पर में बन्ध है उसका नाम अनादिशरीरीबन्ध है। आगे पूर्व में स्थगित किए गए कर्मबन्ध के विषय में यह सूचना कर दी गई है कि उसकी १. इन सब शब्दों को धवला में स्पष्ट किया गया है। पु० १४, पृ० ३८-३६ १२० / पाण्डागम-परिशीलन Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्ररूपणा 'कर्म' अनुयोगद्वार के समान जानना चाहिए (६१-६४)। इस प्रकार यहाँ बन्ध अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है। २. बन्धक-यहाँ प्रारम्भ में 'जो बन्धक हैं उनका यह निर्देश है' ऐसी सूचना करते हुए गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं का नामोल्लेख किया गया है । तत्पश्चात् यह कहा गया है कि गतिमार्गणा के अनुवाद से नरकगति में नारकी बन्धक हैं, तियंच बन्धक हैं, देव बन्धक हैं, मनुष्य बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं, सिद्ध अबन्धक हैं। इस प्रकार क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों को यहां प्ररूपणा करना चाहिए। इसी प्रकार आगे महादण्डकों की प्ररूपणा करना चाहिए (६५-६७) । बन्धक जीव हैं । उन बन्धक जीवों की प्ररूपणा क्षुद्रकबन्ध नाम के दूसरे खण्ड में 'एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व' आदि ग्यारह अनुयोगद्वारों में विस्तार से की गई है । ग्रन्थकर्ता ने यहाँ उसकी ओर संकेत करते हुए यह कहा है कि बन्धकों की प्ररूपणा जिस प्रकार क्षुद्रकबन्ध में की गई है उसी प्रकार यहाँ उनकी प्ररूपणा करना चाहिए । यहाँ ऊपर जो ६५-६६ ये दो सूत्र कहे गये हैं वे क्षुद्रकबन्ध में उसी रूप में अवस्थित हैं ।' विशेषता यह रही है कि यहाँ ६६वें सूत्र में 'सिद्धा अबंधा' के आगे प्रसंगवश ‘एवं खुद्दाबंधएक्कारसमणियोगद्दारं यव्यं' इतना और निर्देश कर दिया गया है तथा उसके पश्चात् ६७वें सूत्र में 'एवं महादंडया यव्या" इतनी और भी सूचना कर दी गई है । इस सूचना के साथ इस बन्धक अनुयोगद्वार को समाप्त कर दिया गया है। ३. बन्धनीय–यहाँ सर्वप्रथम 'बन्धनीय' को स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि जिनका वेदन या अनुभवन किया जाता है वे वेदनास्वरूप पुद्गल स्कन्धरूप हैं, और वे स्कन्ध वर्गणास्वरूप हैं । 'बन्धनीय' से यहाँ वर्गणाएँ अभिप्रेत हैं। इस प्रकार यहां इस 'बन्धनीय' अनुयोगद्वारों में २३ प्रकार की वर्गणाओं को वर्णनीय सूचित किया गया है (६८)। __तदनुसार उन वर्गणाओं की यहाँ विस्तार से प्ररूपणा की गई है। इसी कारण से इस खण्ड के अन्तर्गत पूर्वोक्त स्पर्श, कर्म और प्रकृति इन तीन अनुयोगद्वारों के साथ बन्ध और बन्धक अधिकारों को भी गौण करके इन बन्धनीय वर्गणाओं की प्रमुखता से इस पांचवें खण्ड का वर्गणा नाम प्रसिद्ध हुआ है। चौथे अधिकारस्वरूप बन्धविधान की प्ररूपणा महाबन्ध नामक आगे के छठे खण्ड में विस्तार से की गई है। ___ इस प्रकार यहाँ प्रारम्भ में उन वर्णनीय वर्गणाओं के परिज्ञान में प्रयोजनीभूत · होने से इन आठ अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा गया है-वर्गणा, वर्गणाद्रव्यसमुदाहार, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, अवहार, यवमध्य, पदमीमांसा और अल्पबहुत्व । इनमें जो प्रथम वर्गणा अनुयोगद्वार है उसमें ये १६ अनुयोगद्वार हैं-वर्गणानिक्षेप, वर्गणानयविभाषणता, वर्गणाप्ररूपणा, वर्गणानिरूपणा, वर्गणाध्र वाध्र वानुगम, वर्गणासान्त रनिरन्तरानुगम, वर्गणाप्रोज युग्मानुगम, वर्गणाक्षेत्रानुगम, वर्गणास्पर्शनानुगम, वर्गणाकालानुगम, वर्गणा-अन्तरानुगम, वर्गणाभावानुगम, वर्गणा-उपनयनानुगम, वर्गणापरिमाणानुगम, वर्गणाभागाभागानुगम और वर्गणा-अल्पबहुत्व (६६-७०)। १. सूत्र २, १, १-७ (पु ७, पृ० १-८) २. 'क्षद्रकबन्ध' के अन्त में पु० ५७५-६४ में महादण्डक भी है। मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | १२१ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गणा अभ्यन्तर और बाह्य के भेद से दो प्रकार की है। इनमें बाह्य वर्गणा की प्ररूपणा आगे की जाने वाली है । अभ्यन्तर वर्गणा दो प्रकार की है-एकश्रेणि वर्गणा और नानाश्रेणि वर्गणा । इनमें से उपर्युक्त १६ अनुयोगद्वार एक श्रेणिवर्गणा में ज्ञातव्य हैं। अब उन सोलह अनुयोगद्वारों के आश्रय से क्रमशः वर्गणाओं का परिचय कराया जाता है वर्गणानिक्षेप-यह छह प्रकार का है-नामवर्गणा, स्थापनावर्मणा, द्रव्यवर्गणा, क्षेत्रवर्गणा, कालवी... और भाववर्गणा (७१)। वर्गणानयविभाषणता के अनुसार कौन नय किन वर्गणाओं को स्वीकार करते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन नय सब वर्गणाओं को स्वीकार करते हैं। ऋजुसूत्र नय स्थापना वर्गणा को स्वीकार नहीं करता। शब्दनय नामवर्गणा और भाववर्गणा को स्वीकार करता है (७२-७४) । पूर्व में वर्गणाविषयक ज्ञान कराने के लिए जिन वर्गणा और वर्गणाद्रव्य समुदाहार आदि आठ अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है उनमें से प्रथम वर्गणा अनुयोगद्वार में निर्दिष्ट १६ अनुयोगद्वारों में से वर्गणानिक्षेप और वर्गणानयविभाषणता इन दो ही अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करके पूर्वोक्त आठ अनुयोगद्वारों में से दूसरे वर्गणाद्रव्यसमुदाहार की प्ररूपणा करते हुए उसमें इन १४ अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है___ वर्गणाप्ररूपणा, वर्गणानिरूपणा, वर्गणाध्र वाध्र वानुगम, वर्गणासान्तरनिरन्तरानुगम, वर्गणा-ओजयुग्मानुगम, वर्गणाक्षेत्रानुगम, वर्गणास्पर्शनानुगम, वर्गणाकालानुगम, वर्गणा-अन्तरानुगम, वर्गणाभावानुगम, वर्गणा-उपनयनानुगम, वर्गणापरिमाणानुगम, वर्गणाभागाभागानुगम और वर्गणा-अल्पबहुत्व (७५)। - इसकी व्याख्या के प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गई है कि १६ अनुयोगद्वारों से वर्गणाविषयक प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा करके उनमें केवल पूर्व के दो ही अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की गई है, शेष १४ अनुयोगद्वारों के आश्रय से उस वर्गणाविषयक प्ररूपणा नहीं की गई है । इस प्रकार उनकी प्ररूपणा न करके वगंणाद्रव्यसमुदाहार की प्ररूपणा क्यों की जा रही है। इस शंका के समाधान में धवलाकार ने कहा है कि वर्गणाप्ररूपणा अनुयोगद्वार वर्गणाओं की एक श्रेणि का निरूपण करता है, परन्तु वर्गणाद्रव्यसमुदाहार वर्गणाओं की नाना और एक दोनों श्रेणियों का निरूपण करता है, इसलिए चूंकि वर्गणाद्रव्य समुदाहार प्ररूपणा वर्गणाप्ररूपणा की अविनाभाविनी है, इसीलिए वर्गणाविषयक उन चौदह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा न करके वर्गणाद्रव्यसमुदाहार की प्ररूपणा को प्रारम्भ किया जा रहा है; अन्यथा पुनरुक्त दोष का होना अनिवार्य था। ___ आगे यथाक्रम से उस वर्गणाद्रव्य समुदाहार में निर्दिष्ट उन चौदह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की जा रही है १. वर्गणाप्ररूपणा- इस अनुयोगद्वार में (१) एकप्रदेशिक परमाणु-पुद्गलवर्गणा, द्विप्रदेशिक परमाणुपुद्गलवगंणा, इसी प्रकार त्रिप्रदेशिक, चतुःप्रदेशिक आदि (२) संख्यातप्रदेशिक, (३) असंख्यात प्रदेशिक, परीतप्रदेशिक, अपरीतप्रदेशिक, (४) अनन्तप्रदेशिक, अनन्तानन्त प्रदेशिक परमाणुपुद्गलवर्गणा, अनन्तानन्तप्रदेशिक वर्गणाओं के आगे, (५) आहारद्रव्यवर्गणा, (६) अग्रहण वर्गणा, (७) तैजसद्रव्यवर्गणा, (८) अग्रहणद्रव्यवर्गणा, (६) भाषावर्गणा, (१०) अग्रहणद्रव्य-वर्गणा, (११) मनोद्रव्यवर्गणा, (१२) अग्रहणद्रव्यवर्गणा, (१३) कार्मणद्रव्यवर्गणा, १२२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) ध्र वस्कन्धवर्गणा, (१५) सान्तरनिरन्तर द्रव्यवर्गणा, (१६) ध्र वशून्यवर्गणा, (१७) प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा, (१८) ध्र वशून्यद्रव्यवर्गणा, (१६) बादरनिगोदद्रव्यवर्गणा, (२०) ध्र वशून्य वर्गणा, (२१) सूक्ष्म निगोदवर्गणा, (२२) ध्रु वशून्य द्रव्यवर्गणा और (२३) महास्कन्धवर्गणा; इन वर्गणाओं का उल्लेख किया गया है (७६-१७)। .. इनमें द्वि-त्रिप्रदेशिक आदि वर्गणाएँ संख्यातप्रदेशिक वर्गणा के अन्तर्गत हैं। इसी प्रकार परीतप्रदेशिक, अपरीतप्रदेशिक और अनन्तानन्तप्रदेशिक ये तीन अनन्तप्रदेशिक वर्गणा के अन्तर्गत हैं। इस प्रकार इन पांच को उपर्युक्त वर्गणाओं में से कम कर देने पर शेष एक प्रदेशिक वर्गणा, संख्यातप्रदेशिक वर्गणा, असंख्यातप्रदेशिक वर्गणा, अनन्तप्रदेशिक वर्गणा व आहारद्रव्यवर्गणा आदि २३ वर्गणाएँ रहती हैं। २. वर्गणानिरूपणा-इस अनुयोगद्वार में पूर्वोक्त एकप्रदेशिक आदि पुद्गलवर्गणाओं में से प्रत्येक क्या भेद से होती है, संघात से होती है या भेद-संघात से होती है। इसका विचार किया गया है। यथा एक प्रदेशिकवर्गणा द्विप्रदेशिक आदि ऊपर की वर्गणाओं के भेद से होती है। द्विप्रदेशिक वर्गणा ऊपर की द्रव्यों के भेद से और नीचे की द्रव्यों के संघात से तथा स्वस्थान में भेद-संघात से होती है। त्रिप्रदेशी चतःप्रदेशी आदि संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी, परीतप्रदेशी, अपरीतप्रदेशी, अनन्तप्रदेशी और अनन्तानन्तप्रदेशी पुद्गलद्रव्य वर्गणाएँ ऊपर की द्रव्यों के भेद से, नीचे की द्रव्यों के संघात से और स्वस्थान की अपेक्षा भेद-संघात से होती हैं, इत्यादि (१८-११६) । इस प्रकार यह दूसरा 'वर्गणानिरूपणा' अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है। पूर्वनिर्दिष्ट (७५) वर्गणाप्ररूपणा-वर्गणानिरूपणादि १४ अनुयोगद्वारों में से मूलग्रन्थकर्ता द्वारा वर्गणाप्ररूपणा और वर्गणानिरूपणा इन दो अनुयोगद्वारों की ही प्ररूपणा की गई है, शेष वर्गणाध्र वाध्र वानुगम अादि १२ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा उन्होंने नहीं की है। ___ इस पर धवला में यह शंका उठाई गई है कि सूत्रकार ने इन दो ही अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करके शेष बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा क्यों नहीं की है। अजानकार होने से उन्होंने उनकी प्ररूपणा न की हो, यह तो सम्भव नहीं है; क्योंकि ग्रन्थकर्ता भगवान् भूतबलि चौबीस अनुयोगद्वाररूप महाकर्म प्रकृतिप्राभूत में पारंगत रहे हैं, इस कारण वे उनके विषय में अजानकर नहीं हो सकते। विस्मरणशील होकर उन्होंने उनकी प्ररूपणा न की हो, यह भी नहीं हो सकता । कारण यह कि प्रमाद से रहित होने के कारण उनके विस्मरणशीलता असम्भव है। ___ हम शंका के समाधान में धवलाकार ने कहा है कि पूर्वाचार्यों के व्याख्यानक्रम के ज्ञापनार्थ उन्होंने उन बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा नहीं की है। इस पर पुनः यह शंका की गई है कि अनुयोगद्वार वहीं पर वहाँ के समस्त अर्थ की प्ररूपणा मंक्षिप्त वचनकलाप से क्यों करते हैं । इसके समाधान में वहाँ यह कहा गया है कि वचनयोगरूप ग्रास्रवद्वार से आने-वाले कर्मों के निरोध के लिए संक्षिप्त वचनकलाप से वहाँ के समस्त अर्थ की प्ररूपणा की जाती है। इस शंका-समाधान के साथ आगे धवलाकार ने कहा है कि पूर्वोक्त दो अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा देशामर्शक है, इससे हम उन शेष बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करते हैं, यह कहते हुए उन्होंने आगे धवला में यथाक्रम से उन वर्गणाध्र वाध्र वानुगम व वर्गणासान्तरनिरन्तरा पूलगतग्रन्थ विषय का परिचय / १२३ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुगम आदि बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की है ।" प्रसंग के अन्त में धवलाकार ने कहा है कि आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से तेईस वर्गणाओं की प्ररूपणा करने पर अभ्यन्तर वर्गणा समाप्त हो जाती है । पूर्व में धवलाकार ने वर्गणा के अभ्यन्तर वर्गणा और बाह्य वर्गणा इन दो भेदों का निर्देश करते हुए कहा था कि जो पाँच शरीरों की बाह्य वर्गणा है उसका कथन आगे चार अनुयोगद्वारों के श्राश्रय से करेंगे । बाह्य वर्गणा 'आगे इस बाह्य वर्गणा की अन्य प्ररूपणा की जाती है, ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए उसकी प्ररूपणा में इन चार अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है—शरीरीशरीरप्ररूपणा, शरीरप्ररूपणा, शरीरविस्रसोपचयप्ररूपणा और विस्रसोपचयप्ररूपणा ( ११७-१८ ) । शरीरी का अर्थ जीव है । जहाँ पर जीवों के प्रत्येक और साधारण इन दो प्रकार के शरीरों की अथवा प्रत्येक व साधारण लक्षणवाले जीवों के इन शरीरों की प्ररूपणा की जाती है उसका नाम शरीरीशरीर प्ररूपणा है । जिसमें पाँचों शरीरों के प्रदेशप्रमाण, उन प्रदेशों के निषेकक्रम और प्रदेशों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की जाती है उसका नाम शरीर प्ररूपणा है । जहाँ पर पाँचों शरीरों के विस्रसोपचय सम्बन्ध के कारण भूत स्निग्ध और रूक्ष गुणों की तथा औदारिक आदि पाँच शरीरगत परमाणुविषयक अविभागप्रतिच्छेदों की प्ररूपणा की जाती है उसका नाम शरीरविस्रसोपचय प्ररूपणा है । जीव से रहित हुए उन्हीं परमाणुओं के विस्रसोपचय की प्ररूपणा जहाँ की जाती है उसका नाम विस्रसोपचय प्ररूपणा है । १. शरीरीशरीरप्ररूपणा यहाँ सर्वप्रथम प्रत्येक शरीर और साधारण शरीर इन दो प्रकार के जीवों के अस्तित्व को प्रकट किया गया है । आगे कहा गया है कि जो साधारण शरीर जीव हैं वे नियम से वनस्पतिकायिक ही होते हैं, शेष जीव प्रत्येकशरीर होते हैं । इसका अभिप्राय यह हुआ कि वनस्पतिकायिक साधारण शरीर भी होते हैं और प्रत्येकशरीर भी, किन्तु शेष जीव प्रत्येकशरीर ही होते हैं। आगे साधारण जीवों के लक्षण को प्रकट करते हुए कहा गया है कि जिनका आहार - शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण – तथा आन-पान (उच्छ्वास व निःश्वास) का ग्रहण साधारण (सामान्य) होता है वे साधारण जीव कहलाते हैं। उनका यह साधारण लक्षण कहा गया है । एक जीव का अनुग्रहण - परमाणु पुद्गलों का ग्रहण - - बहुत से साधारण जीवों का होता है तथा बहुतों का अनुग्रहण इस एक जीव का भी होता है। एक साथ उत्पन्न होनेवाले उन जीवों के शरीर की निष्पत्ति एक साथ होती है तथा अनुग्रहण और उच्छ्वासनिःश्वास भी उनका साथ- साथ होता है । जिस शरीर में स्थित एक जीव मरता है उसमें स्थित अनन्त जीवों का मरण होता है । जिस निगोदशरीर में एक जीव उत्पन्न होता है १. धवला पु० १४, पृ० १३५-२२३ १२४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसमें अनन्त जीवों की उत्पत्ति होती है। बादर-निगोद जीव और सूक्ष्म-निगोद जीव परस्परबद्ध (समवेत) और स्पष्ट होकर रहते हैं। वे अनन्त जीव हैं जो मूली, थूहर और अदरख आदि के रूप में रहते हैं । अनन्त जीव ऐसे हैं जिन्होंने कभी सपर्याय को नहीं प्राप्त किया है । वे संक्लेश की अधिकता से कलुषित रहते हुए निगोद स्थान को नहीं छोड़ते हैं । एक निगोद शरीर में अवस्थित द्रव्यप्रमाण से देखे गये (सर्वज्ञ के द्वारा द्रव्यप्रमाण से निर्दिष्ट) जीव सब ही अतीत काल में सिद्ध हुए जीवों से अनन्तगुणे हैं (११६-२८)। एक ही जीव का जो शरीर होता है वह प्रत्येक-शरीर कहलाता है, इस प्रकार के प्रत्येकशरीर से संयुक्त जीवों को प्रत्येक शरीर कहा जाता है । बहुत जीवों का जो एक शरीर होता है उसका नाम साधारण शरीर है, उस साधारण शरीर में जो जीव रहते हैं वे साधारणशरीर कहलाते हैं । अथवा जिन जीवों का प्रत्येक (पृथग्भूत) शरीर होता है उन्हें प्रत्येकशरीर समझना चाहिए। इनमें जो साधारण शरीरवाले जीव हैं वे नियम से वनस्पतिकायिक होते हैं। वनस्पतिकायिकों से निगोद जीवों की भिन्नता- इसका अभिप्राय यह हुआ कि सब निगोद जीव वनस्पतिकाय के अन्तर्गत हैं, उससे बाह्य नहीं हैं । परन्तु प्रस्तुत षट्खण्डागम के ही द्वितीय खण्ड क्षुद्रकबन्ध में उन्हें वनस्पतिकायिकों से पृथग्भूत सूचित किया गया है। इस क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों में अन्तिम अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार है। इनमें यथाक्रम से गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। कायमार्गणा में उस अल्पबहत्व की प्ररूपणा चार प्रकार से की गई है। वहाँ इस प्रसंग में सूत्र ५८-५६, ७४-७५ और १०५-६ में वनस्पतिकायिकों से निगोद जीवों को विशेष अधिक दिखलाया गया है। वहाँ सूत्र ७५ की व्याख्या के प्रसंग में धवला में यह शंका की गई है कि यह सूत्र निरर्थक है, क्योंकि वनस्पतिकायिकों से निगोद जीव पृथक् नहीं पाये जाते । अन्यत्र वनस्पतिकायिकों से पृथग्भुत पृथिवीकायिकादियों में निगोद जीव नहीं हैं, ऐसा आचार्यों का उपदेश भी है। इस शंका के समाधान में धवलाकार ने कहा है कि तुम्हारा कहना सत्य हो सकता है, क्योंकि बहुत से सूत्रों में वनस्पतिकायिकों के आगे निगोद पद नहीं पाया जाता, इसके विपरीत वहाँ निगोद जीवों के आगे वनस्पतिकायिकों का पाठ पाया जाता है तथा वह बहुत से आचार्यों को सम्मत भी है। किन्तु यह सत्र ही नहीं है, ऐसा अवधारण करना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा तो वह कह सकता है जो चौदह पूर्वो का धारक अथवा केवलज्ञानी हो । परन्तु वर्तमानकाल में वे नहीं हैं, और न उनके पास सुनकर आये हुए विशिष्ट ज्ञानीजन भी इस समय पाये जाते हैं । इसलिए इसे ठप्प करके जो आचार्य सूत्र की आसादना से भयभीत हैं उन्हें दोनों ही सूत्रों का व्याख्यान करना चाहिए। इस पर वहाँ पुनः यह शंका की गई है कि निगोद जीवों के आगे वनस्पतिकायिक बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवों के प्रमाण से विशेष अधिक हैं, परन्तु वनस्पतिकायिकों १. वणप्फदिकाइया विसेसाहिया। णिगोदजीवा विसेसाहिया। सूत्र ५८-५६, ७४-७५ व १०५-६ (पु० ७, पृ० ५३५, ५३६ और ५४६) मूलमन्धगत विषय का परिचय | १२५ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के आगे निगोदजीव किससे अधिक हो सकते हैं । इसके समाधान में धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि 'वनस्पतिकायिक' यह कहने पर बादरनिगोद जीवों से प्रतिष्ठित - अप्रतिष्टित जीवों को नहीं ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि आधे से आधार में भेद देखा जाता है । इस स्थिति में वनस्पतिकायिकों से निगोद जीव विशेष अधिक हैं' ऐसा कहने पर बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवों से और बादर निगोदप्रतिष्ठित जीवों से वे विशेष अधिक हैं, यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए ।" धवलाकार आ० वीरसेन के द्वारा जो उपर्युक्त शंका-समाधान किया गया है वह सूत्र आसादना के भय से ही किया गया है, अन्यथा जैसा कि उस शंका-समाधान से स्पष्ट है, उन्हें स्वयं भी वनस्पतिकायिकों से निगोदजीवों की भिन्नता अभीष्ट नहीं रही है । वे 'वनस्पतिकायिक विशेष अधिक हैं' इस सूत्र (७४) की व्याख्या में भी यह स्पष्ट कहते हैं कि सब आचार्यों से सम्मत अन्य सूत्रों में यहीं पर यह अल्पबहुत्व समाप्त हो जाता हँ व आगे अन्य अल्पबहुत्व प्रारम्भ होता है, परन्तु इन सूत्रों में वह अल्पबहुत्व यहाँ समाप्त नहीं हुआ है । प्रकृत विचार- इस प्रकार वनस्पतिकायिकों से निगोदजीवों के भेद-अभेद का प्रासंगिक विचार करके आगे उन निगोदजीवों के लक्षण आदि का विचार किया जाता है। मूल सूत्र में साधारण जीवों का सामान्य लक्षण साधारण आहार और साधारण उच्छ्वास - निःश्वास कहा गया है । शरीर के योग्य पुद्गलस्कन्धों के ग्रहण का नाम आहार है। एक जीव के आहार ग्रहण करने पर उस शरीर में अवस्थित अन्य सब ही जीव आहार को ग्रहण करते हैं । इसी प्रकार एक जीव के उच्छ्वास - निःश्वास को ग्रहण करने पर वे सब ही जीव उच्छ्वास - निःश्वास को ग्रहण करते हैं । यही उनका साधारण या सामान्य लक्षण है । अभिप्राय यह है कि जिस शरीर में पूर्व में उत्पन्न हुए निगोद जीव सबसे जघन्य पर्याप्ति-काल में शरीर, इन्द्रिय, आहार और आन-पान इन चार पर्याप्तयों से पर्याप्त होते हैं उस शरीर में उनके साथ उत्पन्न हुए मन्द योगवाले निगोदजीव भी उसी काल में उन पर्याप्तयों को पूरा करते हैं । यदि प्रथम उत्पन्न हुए जीव दीर्घ काल में उन पर्याप्तयों को पूरा करते हैं तो उस शरीर में पीछे उत्पन्न जीव उसी काल में उन पयाप्तियों को पूर्ण करते हैं । उस आहार से जो शक्ति उत्पन्न होती है वह पीछे उत्पन्न हुए जीवों के प्रथम समय में ही पायी जाती है। इसी से सब जीवों का सामान्य आहार होता है। जिस कारण सब जीवों के परमाणु पुद्गलों का ग्रहण एक साथ होता है, इसी कारण उनके आहार, शरीर, इन्द्रिय और उच्छ्वास - निःश्वास की उत्पत्ति एक साथ होती । वह जिस शरीर में एक जीव मरता है उसमें अवस्थित अनन्त जीव मरते हैं । इसी प्रकार जिस निगोदशरीर में एक जीव उत्पन्न होता है उस शरीर में अनन्त ही जीव उत्पन्न होते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि एक निगोदशरीर में एक संख्यात व असंख्यात जीव नहीं उत्पन्न १. धवला पु० ७, पृ० ५३६-४१ (शंका-समाधान का यह प्रसंग आगे द्रष्टव्य है) । २. पु० ७, पृ० ५४६ १२६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते हैं; किन्तु अनन्त ही उत्पन्न होते हैं । निगोदजीव बादर और सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार के हैं । एक शरीर में स्थित बादर निगोदजीव उस शरीर में स्थित अन्य बादर-निगोद जीवों के साथ परस्पर में समवेत व एक दूसरे के सब अवयवों से स्पष्ट होकर रहते हैं। ये बादर-निगोदजीव मूली व थूहर आदि प्रत्येकशरीर जीवों के रूप में रहते हैं। इन मूली आदि के शरीर उन बादर निगोदजीवों के योनिभूत हैं। ___इसी प्रकार एक शरीर में स्थित सूक्ष्म-निगोदजीव परस्पर में समवेत व एक दूसरे के सभी अवयवों से स्पष्ट होकर रहते हैं । इन सूक्ष्म-निगोदजीवों की योनि नियत नहीं है; उनकी योनि जल, स्थल व आकाश में सर्वत्र उपलब्ध होती है। ____ इन निगोद जीवों में ऐसे अनन्तजीव हैं जिन्हें मिथ्यात्व आदिरूप संक्लिष्ट परिणाम से कलुषित रहने के कारण कभी सपर्याय नहीं प्राप्त हुई । इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यदि ऐसे कलुषित परिणामवाले अनन्त जीव न होते तो संसार में भव्य जीवों के अभाव का प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होता । और जब भव्य जीव न रहते तब उनके प्रतिपक्षभूत अभव्य जीवों के भी अभाव का प्रसंग प्राप्त होनेवाला था। इस प्रकार से संसारी जीवों का ही अभाव हो सकता था। इससे सिद्ध है कि ऐसे संक्लिष्ट परिणामवाले अनन्त जीव हैं, जिन्होंने अतीत काल में कभी त्रसपर्याय को प्राप्त नहीं किया। इसे आगे और भी स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि जिनेन्द्रदेव द्वारा देखे गये अथवा प्ररूपित एक ही निगोदशरीर में जो अनन्त जीव रहते हैं वे समस्त अतीत काल में सिद्ध हुए जीवों से अनन्तगुणे हैं। इससे सिद्ध है कि सब अतीत काल के द्वारा एक निगोदशरीर में स्थित जीव ही सिद्ध नहीं हो सकते हैं। आगे वे कहते हैं कि आय से रहित जिन संख्याओं की व्यय के होने पर समाप्ति होती है उनका नाम संख्यात व असंख्यात है। किन्तु आय से रहित जिन संख्याओं का संख्यात व असंख्यातवें रूप में व्यय के होने पर भी कभी व्युच्छेद नहीं होता उनका नाम अनन्त है। इसके अतिरिक्त सब जीवराशि अनन्त है, इसलिए उसका व्युच्छेद नहीं हो सकता; अन्यथा अनन्तता के विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है। इन निगोदों में स्थित जीव दो प्रकार के होते हैं-चतुर्गतिनिगोद और नित्यनिगोद । जो निगोद जीव देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होकर फिर से निगोदों में प्रविष्ट हुए हैं व वहाँ रह रहे हैं उनका नाम चतुर्गतिनिगोद है तथा जो सदा काल निगोदों में ही रहते हैं वे नित्यनिगोद कहलाते हैं । अतीत काल में त्रसपर्याय को प्राप्त हुए जीव यदि अधिक से अधिक हों तो वे अतीत काल से असंख्यातगुणे ही होते हैं, जबकि एक ही निगोद शरीर में स्थित जीव अतीत काल में सिद्ध होने वाले जीवों से अनन्तगुणे होते हैं। इससे सिद्ध है कि ऐसे अनन्त निगोद जीव हैं जिन्होंने कभी त्रसपर्याय को प्राप्त नहीं किया। __ प्रकृत शरीरीशरीर प्ररूपणा में इन आठ अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है-- सत् प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम, और अल्पबहुत्वानुगम । इनमें सत्प्ररूपणा के आश्रय से ओघ और आदेश का निर्देश करते हुए कहा गया है कि ओघ की अपेक्षा जीव दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले, चार शरीरवाले और शरीर से रहित हुए हैं (१२६-३१)। विग्रह गति में वर्तमान चारों गतियों के जीव तैजस और कार्मण इन दो शरीरों से युक्त मूलग्रन्थनत विषय का परिचय | १२७ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते हैं। तीन शरीरवाले औदारिक, तेजस और कार्मण इन तीन शरीरों से अथवा वैक्रियिक तैजस और कार्मण इन तीन शरीरों से सहित होते हैं। चार शरीर वाले औदारिक, वैक्रियिक, तैजस और कार्मण इन चार शरीरों से अथवा औदारिक, आहारक, तेजस और कार्मण इन चार शरीरों से युक्त होते हैं। जिनके शरीर नहीं है वे मुक्ति को प्राप्त जीव अशरीर हैं। इसी पद्धति से आगे आदेश की अपेक्षा क्रम से गति, इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में भी दो, तीन और चार शरीरवाले तथा शरीर से रहित जीवों का विचार किया गया है (१३२६७)। इस प्रकार से सत्प्ररूपणा समाप्त हुई है। ___इस प्रकार सूत्र-निर्दिष्ट उपर्युक्त आठ अनुयोगद्वारों में से सूत्रकार ने एक सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार की प्ररूपणा की है । आगे द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम और भावानुगम इन छह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा न करके उन्होंने अन्तिम अनुयोगद्वार अल्पबहुत्वानुगम की प्ररूपणा प्रारम्भ कर दी है। ___ इस विषय में धवलाकार ने कहा है कि यह अनुयोगद्वार (सत्प्ररूपणा) शेष छह अनुयोगद्वारों का आश्रयभूत है, इसलिए उन अनुयोगद्वारों को प्ररूपणा यहाँ की जाती है। यह कहते हुए उन्होंने धवला में उन द्रव्यप्रमाणानुगम आदि छह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा स्वयं ही है।' उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हुए ओघ और आदेश की अपेक्षा उसकी प्ररूपणा दो प्रकार से है, यह कहकर सूत्रकार द्वारा प्रथमतः ओघ की अपेक्षा उसकी प्ररूपणा की गई है। यथा-ओघ की अपेक्षा चार शरीरवाले सबसे स्तोक, शरीररहित उनसे अनन्तगुणे, दो शरीर वाले उनसे अनन्तगुणे और तीन शरीरवाले जीव उनसे अनन्तगुणे हैं (१६८-७२)। ___ आगे इसी पद्धति से आदेश की अपेक्षा भी गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है (१७२-२३५)। ___इस प्रकार इस अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार की प्ररूपणा करके प्रकृत शरीरीशरीर प्ररूपणा अनुयोगद्वार को समाप्त किया गया है । २. शरीरप्ररूपणा __इसमें छह अनुयोगद्वार हैं--नामनिरुक्ति, प्रदेशप्रमाणानुगम, निषेकप्ररूपणा, गुणकार, पदमीमांसा और अल्पबहुत्व (२३६)। १. नामनिरुक्ति के आश्रय से औदारिक आदि पाँच शरीरों के वाचक शब्दों के निरुक्तयर्थ को प्रकट किया गया है (२३७-४१)। जैसे___'उरालमिदि पोरालियं' यह ओरालिय (औदारिक) शब्द की निरुक्ति है। उराल या उदार शब्द का अर्थ स्थूल होता है । 'इति' शब्द के हेतु या विवक्षा में घटित होने से 'उराल' को ही 'ओराल (औदारिक)' कहा गया है। अभिप्राय यह है कि उदार या स्थूल शरीर का नाम औदारिक है। यह स्थूलता अवगाहना की अपेक्षा है । अन्य शरीरों की अपेक्षा औदारिक शरीर की अवगाहना अधिक है, जो महामत्स्य के पाँच सौ योजन विस्तार और एक हजार योजन आयाम के रूप में उपलब्ध होती है । १. धवला पु० १४, पृ० २४८-३०१ २२८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वार्थसिद्धि (२-३६) में उक्त औदारिक शरीर की निरुक्ति इस प्रकार को गई है'उदारे भवमौदारिकम्, उदारं प्रयोजनमस्येति वा औदारिकम्'। अभिप्राय यही है कि जो शरीर स्थूल होता है अथवा जिसका प्रयोजन स्थूल होता है उसका नाम औदारिक शरीर है । आगे इसी प्रकार से वैक्रियिक आदि अन्य चार शब्दों की भी निरुक्ति की गई है । २. प्रदेशप्रमाणानुगम में औदारिक आदि शरीरों के प्रदेशप्रमाण को स्पष्ट करते हुए पाँचों शरीरों में से प्रत्येक के प्रदेशाग्र का प्रमाण अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवें भाग मात्र कहा गया है (२४२-४४) । ३. निषेक प्ररूपणा में ज्ञातव्य के रूप में इन छह अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है-समुत्कीर्तना, प्रदेश प्रमाणानुगम, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, प्रदेशविग्च और अल्पबहुत्व (२४५)। समुदीर्तना -यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि यथासम्भव औदारिक आदि शरीरों में विवक्षि त शरीरवाले जीव ने जिस प्रदेशाग्र को ग्रहण किया है वह कितने काल रहता है। यथा--औदारिक शरीरवाले जीव ने प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ होकर औदारिक शरीर के रूप में जिस प्रदेशाग्र को बाँधा है उसमें से कुछ एक समय जीव के साथ रहता है, कुछ दो समय रहता है, कुछ तीन समय रहता है, इस क्रम से वह औदारिक शरीर की उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण तीन पल्योपम काल तक रहता हैं । यही अवस्था वैक्रियिक व आहारक शरीर की भी है। विशेष इतना है कि वैक्रियिक शरीर के रूप में ग्रहण किया गया वह प्रदेशाग्र, उसी क्रम से उसकी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण तेतीस सागरोपम तक और आहारक के रूप में ग्रहण किया गया वह प्रदेशाग्र उसकी स्थिति प्रमाण अन्तर्मुहुर्त काल रहता तैजस शरीर के रूप में ग्रहण किया गया प्रदेशाग्र उसी क्रम से रहता हुआ उत्कृष्ट रूप में छयासठ सागरोपम काल तक रहता है। कार्मणशरीर के रूप में बांधे गये प्रदेशाग्र में से कुछ एक समय अधिक आवलिकाल तक, कुछ दो समय अधिक आवलि काल तक, कुछ तीन समय अधिक आवलि काल तक, इस क्रम से वह उत्कृष्ट रूप में कर्मस्थिति काल तक रहता है (२४७-४८)। यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि तैजस और कार्मण शरीरों में प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ होने का नियम नहीं है। कारण यह कि इन दोनों शरीरों का सम्बन्ध जीव के साथ अनादि काल से है, अतएव जहाँ कहीं भी स्थापित करके उनकी प्रदेशरचना उपलब्ध होती है। प्रदेशप्रमाणानुगम-यहाँ प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ औदारिक शरीरवाले, वैक्रियिक शरीरवाले व आहारक शरीरबाले जीव के द्वारा प्रथमादि समयों में बाँधा गया प्रवेशाग्र कितना होता है; इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वह अभव्यजीवों से अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण होता है । यह प्रथमादि समयों का क्रम यथाक्रम से अपने-अपने शरीर की उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण तीन पल्य, तेतीस सागरोपम, अन्तर्मुहूंत तक समझना चाहिए (२४६-५५)। यही क्रम तैजस और कार्मण शरीरों का है। विशेष इतना है कि उनके प्रदेशाग्र के बाँधे जाने का काल प्रथमादि समय से लेकर उत्कृष्ट रूप में क्रम से छयासठ सागरोपम और कर्म स्थिति मलग्रन्थगत विषय का परिचय / १२९ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल है (२५६-६२)। अनन्तरोपनिधा-उक्त पाँच शरीरों में से विवक्षित शरीरवाले जीव के द्वारा पूर्वोक्त क्रम से अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति तक बाँधा गया प्रदेशाग्र अभव्यजीवों से अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण होकर भी उत्तरोत्तर प्रथम-द्वितीयादि समयों में अपेक्षाकृत हीनाधिक कैसा होता है, इसका स्पष्टीकरण इस अनुयोगद्वार में किया गया है (२६३-७१)। परम्परोपनिधा-पूर्वोक्त क्रम से अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति तक बाँधा गया वह प्रदेशाग्र उत्तरोत्तर अन्तर्मुहूर्त-अन्तर्मुहूर्त जाकर दुगुणा-दुगुणा हीन होता जाता है, इत्यादि का स्पष्टीकरण इस परम्परोपनिधा अनुयोगद्वार में किया गया है (२७२-८६)।। __ प्रदेशविरच-यहाँ सर्वप्रथम सोलह पदवाले दण्डक के आश्रय से एकेन्द्रिय व सम्मूच्छिम आदि जीवों को लक्ष्य करके स्वस्थान व परस्थान में जघन्य और उत्कृष्ट पर्याप्तनिवृत्ति व निर्वृत्ति-स्थानों में उत्तरोत्तर होनेवाली अधिकता के क्रम का विचार किया गया है (२८७-३१६)। इसी प्रसंग में आगे जघन्य अग्रस्थिति, अग्रस्थिति विशेष, अग्रस्थितिस्थान, उत्कृष्ट अग्रस्थिति, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्व इन छह अनुयोगद्वारों के आश्रय से प्रकृत औदारिकादि शरीरों से सम्बन्धित अग्रस्थिति और अग्रस्थिति विशेष आदि के प्रमाण का विचार किया गया है (३२०-८६)। जघन्य निर्वृत्ति के अन्तिम निषेक का नाम अग्र और उसकी जघन्य स्थिति का नाम अग्रस्थिति है। तीन पल्योपमों के अन्तिम निषेक का नाम उत्कृष्ट अग्र और उसकी तीन पल्योपम प्रमाण स्थिति का नाम उत्कृष्ट अग्र स्थिति है। उत्कृष्ट अग्रस्थिति में से जघन्य अग्रस्थिति के कम कर देने पर अग्रस्थिति-विशेष का प्रमाण होता है। यहाँ प्रदेशविरच अनुयोगद्वार समाप्त हो गया है। निषेकअल्पबहुत्व में जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्य-उत्कृष्ट पदविषयक तीन अनुयोगद्वारों के आश्रय से औदारिकादि शरीर सम्बन्धी एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर और नाना गुणहानिस्थानान्तरों के अल्पबहुत्व को प्रकट किया गया है (३६०-४०६)। ___ इस प्रकार समुत्कीर्तनादि छह अनुयोगद्वारों के समाप्त हो जाने पर निषेकप्ररूपणा समाप्त हुई है.। ४. गुणकार --. यह शरीरप्ररूपणा के अन्तर्गत छह अनुयोगद्वारों में चौथा है। इसमें जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्य-उत्कृष्ट इन तीन पदों के आश्रय से औदारिकादि पाँच शरीरों सम्बन्धी जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्य-उत्कृष्ट गुणकार की प्ररूपणा की गई है (४०७-१५)। ५. पदमीमांसा-यह उस शरीरप्ररूपणा का पांचवाँ अनुयोगद्वार है। यहाँ जघन्यपद और उत्कृष्ट पद के आश्रय से औदारिकादि शरीर सम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशाग्र के स्वामी का विचार किया गया है (४१६-६६) । यथा-- यद्यपि सूत्र में प्रथमतः जघन्य पद का निर्देश किया गया है, पर प्ररूपणा पहले उत्कृष्ट पद के आश्रय से की गई है। उसे प्रारम्भ करते हुए प्रथमतः औदारिक शरीर का उत्कृष्ट प्रदेशाग्र किसके होता है, इसके स्पष्टीकरण में कहा गया है कि वह तीन पल्योपम की स्थिति १३० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाले अन्यतर उत्तरकुरु और देवकुरु के मनुष्य के होता है (४१७-१८), इतना सामान्य से कहकर आगे ग्यारह (४१६-२६) सूत्रों में उसके लक्षणों को प्रकट किया गया है। वैक्रियिक शरीर का उत्कृष्ट प्रदेशाग्र किसके होता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया कि वह बाईस सागरोपम प्रमाण स्थितिवाले अन्यतर आरण-अच्युत कल्पवासी देव के होता है (४३७-३२), यह कहते हुए आगे ग्यारह (४३३-४६) सूत्रों में उसकी कुछ विशेषताओं को प्रकट किया गया है। जघन्य पद की अपेक्षा औदारिक शरीर का जघन्य प्रदेशाग्र किसके होता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वह अन्यतर सूक्ष्म निगोद जीव अपर्याप्त के होता है (४७६-८०)। वैक्रियिकशरीर का जघन्य प्रदेशाग्र किसके होता है, इसके स्पष्टीकरण में कहा गया है कि वह असंज्ञी पंचेन्द्रियों में से आये हुए अन्यतर देव-नारकी के होता है, जो प्रथम समयवर्ती व प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ होकर जघन्य योग से युक्त होता है (४८३-८५)। ऊपर औदारिक और वैक्रियिक शरीर का उदाहरण दिया गया है। इसी पद्धति से अन्य शरीरों के उत्कृष्ट व जघन्य प्रदेशाग्र के स्वामी की प्ररूपणा की गई है। ६. अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में पांचों शरीरों के प्रदेशाग्र विषयक अल्पबहुत्व को प्रकट करते हुए औदारिक शरीर के प्रदेशाग्र को सबसे स्तोक, वैक्रियिक शरीर के प्रदेशाग्र को असंख्यातगुणा, आहारक शरीर के प्रदेशाग्र को असंख्यातगुणा, तैजस शरीर के प्रदेशाग्र को अनन्तगुणा और कार्मणशरीर के प्रदेशाग्र को अनन्तगणा निर्दिष्ट किया गया है (४६७५०१)। ___ इस प्रकार छह अनुयोगद्वारों के समाप्त होने पर बाह्य वर्गणा के अन्तर्गत उन चार अनुयोग द्वारों में यह शरीरप्ररूपणा नाम का दूसरा अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। ३. शरीरविस्रसोपचय प्ररूपणा ___ यह बाह्य वर्गणाविषयक तीसरा अनुयोगद्वार है। इसमें ये छह अनुयोगद्वार हैं-अतिभाग प्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, शरीरप्ररूपणा और अल्पबहुत्व (५०२)। पाँच शरीरों सम्बन्धी परमाणपुदगलों के स्निग्ध आदि गुणों के द्वारा उन पाँच शरीरगत पदगलों में जो पदगल संलग्न होते हैं उनका नाम विनसोपचय है। उन विस्रसोपचयों के सम्बन्ध का कारण जो पाँच शरीरों से सम्बन्धित परमाणु पुद्गलगत स्निग्ध आदि गुण है उसे भी कारण में कार्य के उपचार से विस्रसोपचय कहा जाता है। इसी स्निग्धादि गुण की यहाँ विवक्षा है। अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा के अनुसार एक-एक औदारिक प्रदेश में सब जीवों से अनन्तगुणे अनन्त अविभागप्रतिच्छेद होते हैं (५०३-५) । वर्गणाप्ररूपणा के अनुसार सब जीवों से अनन्तगुणे अनन्त अविभागप्रतिच्छेदों की एक वर्गणा होती है । इस प्रकार की वर्गणाएँ अभव्यों से अनन्तगुणी और सिद्धों के अनन्तवें भाग मात्र होती हैं (५०६-७)। स्पर्धकप्ररूपणा के अनुसार अभव्यों से अनन्तगुणी और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण उन वर्गणाओं का एक स्पर्धक होता है। इस प्रकार के स्पर्धक अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | १३१ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अनन्तवें भाग अनन्त होते हैं (५०८-६)। अनन्तरप्ररूपणा के अनुसार एक-एक स्पर्धक का अन्तर सब जीवों से अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेदों से होता है (५१०-११)। शरीरप्ररूपणा के अनुसार शरीरबन्धन के कारणभूत गुणों का बुद्धि से छेद करने पर अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद उत्पन्न होते हैं । प्रसंगवश यहाँ उस छेदना के दस भेद निर्दिष्ट किये गये हैं- नामछेदना, स्थापनाछेदना, द्रव्यछेदना, शरीरबन्धनगुणछेदना, प्रदेशछेदना, वल्लरिछेदना, अणुछेदना, तटछेदना, उत्पातछेदना और प्रज्ञाभावछेदना (५१२-१४)। __शरीर अनन्तानन्त पुद्गलों के समवायस्वरूप है। जिस गुण के निमित्त से उन पुद्गलों का परस्परबन्ध होता है उसका नाम बन्धनगुण है । उस गुण का बुद्धि से छेद करने पर अनन्त अविभागप्रतिच्छेद उत्पन्न होते हैं । गुण का छेद बुद्धि से ही किया जा सकता है। इसी से यहाँ उपर्युक्त दस छेदनाओं में अन्तिम प्रज्ञाछेद विवक्षित है। अल्पबहत्वप्ररूपणा में औदारिक शरीर के अविभागप्रतिच्छेद सबसे कम, वैक्रियिकशरीर के अनन्तगुणे, आहारकशरीर के अनन्तगुणे, तैजसशरीर के अनन्तगुणे और कार्मण शरीर के अनन्तगुणे निर्दिष्ट किये गये हैं (५१५-१६) । इस प्रकार शरीरविस्रसोपचय प्ररूपणा समाप्त हुई है। ४. विस्रसोपचय प्ररूपणा यह बाह्य वर्गणा के अन्तर्गत पूर्वोक्त चार अनुयोगद्वारों में अन्तिम है । यहाँ इस विस्रसोपचय प्ररूपणा के अनुसार एक-एक जीवप्रदेश पर कितने विस्रसोपचय उपचित हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि एक-एक जीवप्रदेश पर सब जीवों से अनन्तगुणे अनन्त विस्रसोपचय उपचित हैं । वे सब लोक से आकर उपचित होते हैं (५२०-२२)। ___ 'जीवप्रदेश' से यहाँ आधेय में आधार का उपचार करके परमाणु अभिप्रेत है। अभिप्राय यह है कि जीव के द्वारा छोड़े गए पाँच शरीरगत पुद्गल सब आकाशप्रदेशों से सम्बद्ध होकर रहते हैं। ___ आगे जीव से पृथक् होकर सब लोक में व्याप्त हुए उन पुद्गलों में जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार प्रकार की हानि होती है उसकी यहाँ प्ररूपणा की गई है (५२३-४३)। इसी प्रसंग में आगे जघन्य व उत्कृष्ट औदारिक आदि पाँच शरीरों के जघन्य व उत्कृष्ट पद में जघन्य व उत्कृष्ट विस्रसोपचयक अल्पबहुत्व को प्रकट करते हुए उन विस्रसोपचयों की प्ररूपणा में प्रयोजनीभूत जीवप्रमाणानुगम, प्रदेशप्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों का आश्रय लिया गया है (५४४-५५) । उनमें जीवप्रमाणानुगम के अनुसार पृथिवीकायिक आदि जीवों के प्रमाण को और प्रदेशप्रमाणानुगम के अनुसार उन पृथिवीकायिकादि जीवों के जीवप्रदेशों के प्रमाण को प्रकट किया गया है (५५६-६७)। अल्पबहुत्व के आश्रय से क्रमशः जीवों के व प्रदेशों के प्रमाण को प्रकट किया गया है (५६८-८०)। ___ इस प्रकार इस विस्रसोपचय प्ररूपणा के समाप्त होने पर बाह्य वर्गणा समाप्त हुई है। १३२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूलिका___ आगे का ग्रन्थ चूलिका है। जिन अर्थों की पूर्व में सूचना-मात्र की गई है, स्पष्टीकरण उनका नहीं किया गया है, उनकी प्ररूपणा करना चूलिका का प्रयोजन होता है। तदनुसार पूर्व में जो यहाँ 'जत्थेउ मरइ जीवो' इत्यादि गाथा (सूत्र १२५) के द्वारा निगोदजीवों के मरने व उत्पन्न होने की सूचना की गई है उसे स्पष्ट करते हुए यहाँ प्रथमतः उनके उत्पत्ति के क्रम की प्ररूपणा की गई है, जिसमें आवलि के असंख्यातवें भाग काल तक एक, दो, तीन आदि समयों में निरन्तर उत्पन्न होनेवाले तथा एक, दो, तीन आदि समयों को आदि लेकर आवलि के असंख्यातवें भाग तक का अन्तर करके उत्पन्न होनेवाले निगोद जीवों के प्रमाण को प्रकट किया गया है व उनके उत्पन्न होने के काल और उन उत्पन्न होनेवाले जीवों के अल्पबहुत्व को भी स्पष्ट किया गया है (५८१-६२८) । यथा सर्वप्रथम यह स्पष्ट किया गया है कि प्रथम समय में जो निगोद जीव उत्पन्न होता है उसके साथ अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं। एक समय में अनन्तानन्त साधारण जीवों को ग्रहणकर एक शरीर होता है और असंख्यात लोकप्रमाण शरीरों को ग्रहणकर एक निगोद होता है। निगोद और पुलवि ये समानार्थक शब्द हैं । एक पुलवि में जो शरीर और उन शरीरों के भीतर अनन्तानन्त जीव रहते हैं, आधार में आधेय के उपचार से उन दोनों को ही निगोद कहा जाता है। आगे इस उत्पत्ति के क्रम को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि द्वितीय समय में असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं। इसी क्रम से आगे आवलि के असंख्यातवें तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे जीव उत्पन्न होते हैं । तत्पश्चात् एक, दो, तीन समय से लेकर अधिक-से-अधिक आवलि प्रमाणकाल के अन्तर से पुनः उसी क्रम से आवलि के असंख्यातवें भाग तक वे निरन्तर उत्पन्न होते हैं। अल्पबहुत्व अद्धाअल्पबहुत्व और जीवअल्पबहत्व के भेद से दो प्रकार का है। उनमें से प्रद्धाअल्पबहुत्व में सान्तर और निरन्तर समय में उन्पन्न होनेवाले जीवों के और इन कालों के अल्पबहुत्व को प्रकट किया गया है । जीवअल्पबहुत्व में काल के आश्रय से जीवों के अल्पबहुत्व को दिखलाया गया है। आगे स्कन्ध, अण्डर, आवास और पुलवियों में जो बादर और सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते हैं वे पर्याप्त, अपर्याप्त या मिश्र होते हैं, इसे स्पष्ट किया गया है (६२६-३०)। निगोदों का मरण-क्रम इस प्रकार निगोदों के उत्पत्तिकम को दिखलाकर आगे पूर्वनिर्दिष्ट गाथा के पूर्वार्ध में सूचित मरण के क्रम का विवेचन करते हुए कहा गया है कि जो निगोद जघन्य उत्पत्तिकाल से उत्पन्न होते हुए जघन्य प्रबन्धनकाल से प्रबद्ध एकरूपता को प्राप्त हुए हैं उन बादर निगोदों का तथा प्रबद्धों का निगमन मरणक्रम के अनुसार होता है। आगे इस मरणक्रम के प्रसंग में कहा गया है कि सर्वोत्कृष्ट गणश्रेणीमरण से मरण को प्राप्त हए तथा सबसे दीर्घ काल में निर्लेप्यमान उन जीवों के अन्तिम समय में मरने से शेष रहे निगोदों का प्रमाण आवलि के असंख्यातवें भाग मात्र रहता है। इसे स्पष्ट करते हुए आयुओं के अल्पबहुत्व को प्ररूपणा की गई है (६३१-३६) । ऊपर जिस मरणक्रम का उल्लेख किया गया है वह यवमध्यमरणक्रम और अयवमध्य मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | १३३ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणक्रम के भेद से दो प्रकार का है। यह जो सर्वोत्कृष्ट गुणश्रेणि से मरण को प्राप्त हुए व सबसे दीर्घकाल में निर्लेप्यमान जीवों के अन्तिम समय में मरने से शेष रहे निगोदों का प्रमाण प्रकट किया गया है वह अयवमध्यक्रम के अनुसार है । 'निर्लेप्यमान' से अभिप्राय आहार, शरीर, इन्द्र और आन-प्राण अपर्याप्तियों की निर्वृत्ति स्वरूप निर्लेपन को प्राप्त होनेवाले जीवों से है । उनके अन्तिम समय में मरने से शेष रहे निगोदों का प्रमाण जो आवलि के असंख्यातवें भागमात्र कहा गया है उसका अभिप्राय यह है कि क्षीणकषाय के अन्तिम समय में मरने से शेष रहे जीवों के निगोद आवलि के असंख्यातवें भाग शेष रहते हैं । निगोद और पुलवि ये समानार्थक शब्द हैं । क्षीणकषाय के अन्तिम समय में असंख्यात लोकमात्र निगोदशरीर होते हैं । उनमें से प्रत्येक शरीर में मरने से शेष रहे जीव अनन्त होते हैं । उनकी आधारभूत पुलवियाँ आवलि के असंख्यातवें भागमात्र होती हैं यही जघन्य बादरनिगोदवर्गणा का प्रमाण है । इस प्रसंग में धवलाकार ने क्षीणकषायकाल के भीतर व थूवर आदि में मरनेवाले जीवों की प्ररूपणा - प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि और अल्पबहुत्व - इन चार अनुयोगद्वारों के आश्रय से की है । " arrerraria में जघन्य आयुमात्र काल के शेष रह जाने पर बादर निगोदजीव क्षीणकषाय शरीर में उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि उनके जीवनयोग्य काल शेष नहीं रहा है। इसी अभिप्राय के ज्ञापनार्थ उक्त आयुओं के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है । निगोदवर्गणाओं के कारणों की प्ररूपणा के प्रसंग में आगे कहा गया है कि इन्हीं सब निगोदों (बादर निगोदों) के मूल कारण ये महास्कन्धस्थान ( महास्कन्ध के अवयव ) हैं - आठ पृथिवियाँ, टंक, कूट, भवन, विमान, विमानेन्द्रक, विमानप्रस्तार, नरक, नरकेन्द्रक, नरकप्रस्तार, गच्छ, गुल्म, वल्ली, लता और तृणवनस्पति आदि (६४०-४१) । शिलामय पर्वतों पर जो वापी, कुआँ, तालाब व जिनगृह आदि उकेरे जाते हैं उनका नाम टंक है । मेरू, कुलाचल, विन्ध्य व सह्य आदि पर्वतों को कूट कहा जाता है । आगे महास्कन्धवर्गणा के जघन्य उत्कृष्ट भाव कैसे होते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जब मास्कन्ध स्थानों का जघन्य पद होता है तब बादर त्रस पर्याप्तों का उत्कृष्ट पद होता है और जब बादर त्रस पर्याप्तों का जघन्य पद होता है तब मूल महास्कन्ध स्थानों का उत्कृष्ट पद होता है (६४०-४३) । पश्चात् 'अब यहाँ महादण्डक किया जाता है' ऐसा निर्देश करते हुए अपर्याप्तनिवृत्ति, आवश्यक, यवमध्य, शमिलामध्य, निर्लेपनस्थान, आयुबन्धयवमध्य, मरणयवमध्य, औदारिकादि शरीरों के निर्वृत्तिस्थान, इन्द्रियनिवृत्तिस्थान, आनपान-भाषा-मननिर्वृत्तिस्थान इत्यादि प्रसंगप्राप्त विषयों की चर्चा विविध अल्पबहुत्वों के आश्रय से की गई है ( ६४३-७०५) । इस प्रकार से ‘जत्थेउ मरइ जीवो' आदि गाथा के अर्थ की प्ररूपणा समाप्त हुई हैं । पूर्व में २३ वर्गणाओं की प्ररूपणा के प्रसंग में सामान्य से ग्रहण प्रायोग्य और अग्रहणप्रायोग्य वर्गणाओं का निर्देश किया गया था । अब यहाँ ये वर्गणाएँ पाँच शरीरों के ग्रहण योग्य हैं और ये उनके ग्रहण योग्य नहीं हैं, इसके परिज्ञापनार्थ इन चार अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा गया है - वर्गणात्ररूपणा, वर्गणानिरूपणा, प्रदेशार्थता और अल्पबहुत्व ( ७०६) । १. धवला पु० १४, पृ०४८७-९१ १३४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गणाप्ररूपणा में एक प्रदेशी पुद्गलवर्गणा से लेकर कार्मणद्रव्यवर्गणा पर्यन्त वर्गणाओं का उल्लेख किया गया है (७०७-१८)। वर्गणानिरूपणा में उपर्युक्त वर्गणाओं में कौन ग्रहणप्रायोग्य हैं और कौन अग्रहणप्रायोग्य हैं, इसे स्पष्ट करते हुए पृथक्-पृथक् उनके स्वरूप को भी दिखलाया गया है (७१६-५८) । प्रदेशार्थता-यहाँ औदारिकादि शरीरद्रव्यवर्गणाओं में प्रत्येक के प्रदेशों और वर्ण-रसादि को स्पष्ट किया गया है (७५६-६३)। अल्पबहुत्व–यहाँ औदारिकादि शरीरद्र व्यवर्गणाओं में प्रत्येक के प्रदेशों की अपेक्षा और अवगाहना की अपेक्षा दो प्रकार से अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है (७८४-६६)। ___ इस प्रकार अनेक अनुयोगद्वारों व अवान्तर अनुयोगद्वारों के आश्रय से वर्गणाओं की सविस्तार प्ररूपणा के समाप्त होने पर बन्धनीय अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है। बन्धविधान __ यह प्रस्तुत बन्धन अनुपोगद्वार के अन्तर्गत चार अधिकारों में अन्तिम है । वह बन्धविधान प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार प्रकार का है (१९७)। ___इसके प्रसंग में धवलाकार ने यह ग्पष्ट कर दिया है कि इन चारों बन्धों के विधान की प्ररूपणा भूतबलि भट्टारक ने महाबन्ध में बहुत विस्तार से की है, इसलिए वहाँ हमने उसकी प्ररूपणा नहीं की है । अतएव यहाँ समस्त महाबन्ध की प्ररूपणा करने पर बन्धविधान समाप्त होता है। इस प्रकार बन्ध, बन्ध क, बन्धनीय और बन्धविधान इन चारों अधिकारों के समाप्त होने पर यह बन्धन अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है । यह षट्खण्डागम की १६ जिल्दों में से १४वीं जिल्द में प्रकाशित हुआ है। इस बन्धन अनुयोगद्वार के साथ षट्खण्डागम का पाँचवाँ वर्गणाखण्ड समाप्त होता है । षष्ठ खण्ड : महाबन्ध महाबन्ध षट्खण्डागम का छठा खण्ड है। जैसाकि पूर्व में कहा जा चुका है, इसके दूसरे खण्ड क्षुद्रकबन्ध में बन्धक जीवों की प्ररूपणा स्वामित्व आदि ११ अनुयोगद्वारों के आश्रय से की गई है। परन्तु इस महाबन्ध खण्ड में उस बन्ध की प्ररूपणा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध के क्रम से अनेक अनयोगद्वारों के आश्रय से बहुत विस्तार के साथ की गई है। इसी दृष्टि से उस दूसरे खण्ड का नाम क्षुद्रकबन्ध या खुद्दाबंध पड़ा है । उसमें समस्त सूत्र संख्या १५७६ है, जब कि महाबन्ध का ग्रन्थ-प्रमाण ३०००० श्लोक है। इसीलिए इस छठे खण्ड का नाम महाबन्ध पड़ा है, जो अपेक्षाकृत है। __ इस महाबन्ध की कानडी लिपि में लिखी गई एक ही प्रति उपलब्ध हुई है, जिसके आधार से उसका प्रकाशन हुआ है । उसमें भी कुछ पत्र त्रुटित रहे हैं । प्रारम्भ का अंश कुछ त्रुटित हो जाने से उसकी प्रारम्भिक रचना किस प्रकार की रही है, यह ज्ञात नहीं हो सका। बन्ध प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार प्रकार का है । इसी चार प्रकार के बन्ध की वहाँ क्रमशः बहुत विस्तार से प्ररूपणा की गई है । मूलगतग्रन्थ विषय का परिचय ! १३५ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्रकृतिबन्ध वर्गणा खण्ड के अर्न्तगत बन्धनीय अर्थाधिकार में २३ पुद्गल वर्गणाओं की प्ररूपणा की गई है। उनमें एक कार्मण वर्गणा भी है, जो समस्त लोक में व्याप्त है। मिथ्यादर्शनादिरूप परिणामविशेष से इस कार्मण वर्गणा के परमाणु जो कर्म रूप से परिणत होकर जीवप्रदेशों के साथ सम्बद्ध होते हैं, प्रकृतिबन्ध कहलाता है। इस प्रकार जीव प्रदेशों से सम्बद्ध होने पर जो उनमें ज्ञान-दर्शन आदि आत्मीय गणों के आच्छादित करने का जो स्वभाव पड़ता है उसे प्रकृतिबन्ध कहा जाता है। प्रारम्भिक अंश के त्रुटित हो जाने से यद्यपि यह ज्ञात नहीं हो सका कि इस प्रकृतिबन्ध की प्ररूपणा में वहाँ कितने व किन अन्योगद्वारों का निर्देश किया गया है, फिर भी आगे स्थिति बन्ध आदि की प्ररूपणा पद्धति के देखने से वह निश्चित ज्ञात हो जाता है कि इस प्रकृतिबन्ध की प्ररूपणा में वहाँ इन २४ अनुयोगद्वारों का निर्देश रहा है-- १. प्रकृतिममृत्कीर्तन, २. सर्वबन्ध, ३. नोसर्वबन्ध, ४. उत्कृष्टबन्ध, ५. अनुत्कृष्टबन्ध, ६. जघन्य बन्ध, ७. अजघन्य बन्ध, ८. सादिबन्ध, ६. अनादिबन्ध, १०. ध्र वबन्ध, ११. अध्र वबन्ध, १२. बन्धस्वामित्व विचय. १३. एक जीव की अपेक्षा काल, १४. एक जीव की अपेक्षा अन्तर, १५. संनिकर्ष, १६. भंगविचय, १७. भागाभागानुगम. १८. परिमाणानुगम, १६. क्षेत्रानुगम, २०. स्पर्शनानुगम, २१. नाना जीवों की अपेक्षा कालानुगम, २२. नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरानुगम, २३. भावानुगम और २४. अल्पबहुत्वानुगम । १. प्रकृतिसमत्कीर्तन - इस अनुयोगद्वार में कर्म की मूल और उत्तर प्रकृतियों की प्रापणा प्रायः उसी प्रकार से की गई है, जिस प्रकार कि उनकी प्ररूपणा उसके पूर्व जीवस्थान खण्ड से सम्बद्ध नौ चूलिकाओं में से प्रथम प्रकृतिसमत्कीर्तन' चलिका में तथा आगे वर्गणाखण्ड (५) के अन्तर्गत प्रकृति अनयोगद्वार में की गई है । विशेषता यह रही है कि प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका में ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच उत्तरप्रकृतियों का ही उल्लेख किया गया है (सूत्र १३-१४)। पर आगे प्रकृति अनयोगद्वार में उन ज्ञानावरणीय की पाँच उत्तरप्रकृतियों की भी कितनी ही अवान्तर प्रकृतियों का उल्लेख किया गया है (सुत्र २१-६६)। प्रकृत महाबन्ध में उस ज्ञानावरणीय की उत्तर-प्रकृतियों और उत्तरोत्तर-प्रकृतियों की प्ररूपणा उपर्युक्त प्रकृति अनयोगद्वार के समान की गई है, यह पूर्व में कहा जा चुका है। साथ ही उन ज्ञानावरणीय प्रकृतियों के प्रसंग से जिस प्रकार प्रकृति अनुयोगद्वार में ज्ञानभेदों की भी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार इस महाबन्ध में भी उन सब की प्ररूपणा की गई है। इसके अतिरिक्त ज्ञान के प्रसंग में प्रकृति अनुयोगद्वार में जिन गाथासूत्रों (३-१७) का उपयोग किया गया है वे ही गाथासूत्र प्रायः उसी रूप में आगे-पीछे इस महाबन्ध में भी उपयुक्त १. १० ख०, पु० ६, पृ० १-७८ में प्रथम प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका । ('प्रकृतिसमुत्कीर्तन' इस नाम का भी उपयोग दोनों स्थानों में समान रूप में किया गया है)। २. १० ख०, पु० १३, पृ० १९७-३६२ में प्रकृति अनुयोगद्वार । ३. महाबन्ध १, पृ० २१-२३ १३६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदना खण्ड के अन्तर्गत कृतिअनुयोगद्वार में मंगल के प्रसंग में देशावधि-परमावधि की प्ररूपणा करते हुए धवलाकार ने भी इन गाथाओं को उद्धृत किया है और कहा है कि इन गाथाओं द्वारा कहे गये समस्त अवधिज्ञान के क्षेत्रों के इस अर्थ प्ररूपणा करना चाहिए।' आगे प्रकृति अनुयोगद्वार में दर्शनावरणीय आदि अन्य मूल प्रकृतियों की उत्तर-प्रकृतियों के नामों का उल्लेख पृथक्-पथक किया गया है, पर महाबन्ध में उनके नामों का पृथक्-पृथक् निर्देश न करके उनकी संख्या मात्र की सूचना की गई है व अन्त में यह कह दिया है कि 'यथा पगदिभंगो तथा कादवो' । यह सूचना करते हुए आचार्य भूतबलि ने सम्भवतः इसी प्रकृति अनुयोगद्वार की ओर संकेत किया है। २-३. सर्वबन्ध-नोसर्वबन्ध--इन दो अनुयोगद्वारों में ज्ञानावरणादि कर्मप्रकृतियों के विषय में सर्वबन्ध व नोसर्वबन्ध का विचार किया गया है । विवक्षित कर्म की जब अधिक से अधिक प्रकृतियाँ एक साथ बँधती हैं तब उनके बन्ध को सर्वबन्ध कहा जाता है। जैसेज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियाँ और अन्त राय की पाँच प्रकृतियाँ ये अपनी बन्धव्युच्छित्ति होने तक सूक्ष्मसाम्परायसंयत गुणस्थान तक साथ-साथ बँधती हैं, अतएव वह इन दोनों कर्मों का सर्वबन्ध है। __दर्शनावरण की नौ प्रकृतियाँ दूसरे गुणस्थान तक साथ-साथ बँधती हैं, अतएव उसका दूसरे गुणस्थान तक सर्वबन्ध है । दूसरे गुणस्थान में निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचलाऔर स्त्यानगृद्धि इन तीन की बन्ध्र व्युच्छित्ति हो जाने से आगे अपूर्वकरण के प्रथम भाग तक छह प्रकृतियाँ बँधती हैं, अत: उसका यह नोसर्वबन्ध है । इसी प्रकरण के प्रथम भाग में निद्रा और प्रचला इन दो के व्यच्छिन्न हो जाने से आगे सूक्ष्मसाम्प्रराय तक उसकी चार प्रकृतियाँ बँधती हैं, यह भी उसका नोसर्वबन्ध है । इस प्रकार दर्शनावरण का सर्वबन्ध भी होता और नोसर्वबन्ध भी होता है। _वेदनीय, आयु और गोत्र इन तीन कर्मों का नोसर्वबन्ध ही होता है, क्योंकि उनकी एक समय में किसी एक प्रकृति का ही बन्ध सम्भव है। मोहनीय और नामकर्म इन दो का सर्वबन्ध और नोसर्वबन्ध दोनों होते हैं। ४-७. उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्ट बन्ध, जघन्यबन्ध और अजघन्यबन्ध ये प्रकृतिबन्ध में सम्भव नहीं है। ८-९. सादि-अनादिबन्ध-विवक्षित कर्मप्रकृति के बन्ध का अभाव हो जाने पर पुनः उसका बन्ध होना सादिबन्ध कहलाता है । जैसे-ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियों का बन्ध सूक्ष्मसाम्पराय तक होता है। जो जीव सक्ष्मसाम्पराय में इनकी बन्धव्यच्छित्ति को करके आगे उपशान्तकषाय हुआ है उसके वहाँ उनके बन्ध का अभाव हो गया । पर वह जब उपशान्तकषाय से पतित होकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में आता है तब उसके उनका बन्ध फिर होने लगता है । यही सादिबन्ध का लक्षण है। जीव जब तक श्रेणि पर आरूढ़ नहीं होता तब तक उसके अनादिबन्ध है। जैसे-उक्त १. १० ख० पु० ६, पृ० २४-२६,२६,३८ व ४२ । एदाहि गाहादि उत्तासेसोहि खेत्ताणमेसो अत्थो जहासंभवं परूवेदव्यो (पृ० २६)। इच्चादिगाहावग्गणसुत्तेहि सह विरोहादो (पृ० ४०)। मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | १३७ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियों का श्रेणि पर आरूढ़ न होने पर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक अनादिबन्ध होता है। क्योंकि तब तक उसके अनादि काल से उनका बन्ध होता रहा है। इस प्रकार सभी कर्मों के विषय में वहाँ विस्तार से इस सादि-अनादि बन्ध का विचार किया गया है। १०-११. ध व-अध्रुवबन्ध-अभव्य जीव के जो बन्ध होता है वह ध्रुव बन्ध है, क्योंकि उसके अनादिकाल से हो रहे उस कर्मबन्ध का कभी अभाव होनेवाला नहीं है। __भव्य जीवों का कर्मबन्ध अध्र वबन्ध है, क्योंकि उनके उस कर्मबन्ध का अभाव होने वाला है। इस प्रकार से वहाँ इन दो अनुयोगद्वारों में अन्य सभी कर्मों के विषय में ध्र व-अध्र वबन्ध की विस्तार से प्ररूपणा की गई है। १२. बन्धस्वामित्वविचय-इस अनुयोगद्वार में नाम के अनुसार बन्धक-अबन्धक जीवों की प्ररूपणा ठीक उसी प्रकार से की गई है, जिस प्रकार कि प्रस्तुत षखण्डागम के तीसरे खण्ड बन्धस्वामित्वविचय में उनकी प्ररूपणा की गई है। विशेषता वहाँ यह रही है कि विवक्षित मार्गणा में उन बन्धक-अबन्धकों की प्ररूपणा करते हए यदि वह पूर्व प्ररूपित किसी मार्गणा के उस विषय से समानता रखती है तो वहाँ विवक्षित प्रकृतियों का नामनिर्देश न करके 'ओघभंग' आदि के रूप में पूर्व में की गई उस प्ररूपणा के समान प्ररूपणा करने का संकेत कर दिया गया है। किन्तु उस तीसरे खण्ड में ओघ और आदेश की अपेक्षा उन बन्धकअबन्धकों की प्ररूपणा करते हुए प्रायः सर्वत्र ही विवक्षित प्रकृतियों के नामोल्लेखपूर्वक प्रकृत प्ररूपणा की गई है। यह उस महाबन्ध में प्रकृतिबन्ध के अन्तर्गत जिन प्रकृतिसमुत्कीर्तन आदि २४ अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है उनमें प्रारम्भ के कुछ अनुयोगद्वारों में प्ररूपित विषय का दिशावबोधमात्र कराया गया है । इसी प्रकार शेष अनुयोगद्वारों में प्ररूपित विषय की प्ररूपणा विवक्षित अनुयोगद्वार के नाम के अनुसार समझना चाहिए। २. स्थितिबन्ध __ज्ञानावरणादि कर्म बँधने के पश्चात् जितने काल तक जीव के साथ सम्बद्ध होकर रहते हैं उसका नाम स्थितिबन्ध है। जिन २४ अनुयोगद्वारों का उल्लेख पूर्व में प्रकृतिबन्ध के प्रसंग में किया गया है, नाम से वे ही २४ अनुयोगद्वार इस स्थितिबन्ध के प्रसंग में भी निर्दिष्ट किये गये हैं। विशेषता केवल इतनी है कि प्रथम अनुयोगद्वार का नाम जहाँ प्रकृतिबन्ध के प्रसंग में 'प्रकृति समुत्कीर्तन' निर्दिष्ट किया गया है वहाँ इस स्थितिबन्ध के प्रसंग में वह 'अद्धाच्छेद' के नाम से निर्दिष्ट किया गया है। सर्वप्रथम यहाँ मुल प्रकृति स्थितिबन्ध के प्रसंग में इन चार अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है-स्थितिबन्धस्थान प्ररूपणा, निषेक प्ररूपणा, आवाधाकाण्डक प्ररूपणा और अल्पबहुत्व। इन अनुयोगद्वारों के आश्रय से वहाँ स्थितिबन्धस्थान आदि की यथाक्रम से १. अपवाद के रूप में कुछ ही प्रसंग वैसे होंगे। जैसे-माणुसअपज्जत्ताणं पंचिदियतिरिक्ख अपज्जत्तभंगो। सूत्र ७६ (इसके पूर्व का सूत्र ७५ भी इसी प्रकार का है) १३८ / षट्खण्डागम परिशीलन Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्ररूपणा की गई है। ___ इसके पूर्व वेदना-खण्ड के अन्तर्गत दूसरे वेदना-अनुयोगद्वार में निर्दिष्ट १६ अनुयोगद्वारों में से छठे वेदनाकालविधान अनुयोगद्वार की प्रथम चूलिका में उन्हीं चार अनुयोगद्वारों के आश्रय से क्रमशः उन बन्धस्थान आदि की प्ररूपणा की गई है जो सर्वथा समान है। सूत्र भी प्रायः समान हैं । उसका परिचय पूर्व में कराया जा चुका है। १. अद्धाच्छेद- अद्धा नाम काल का है। किस कर्म का उत्कृष्ट और जघन्य बन्ध कितना होता है, उसकी इस उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति में आबाधाकाल कितना पड़ता है, तथा निषेक रचना किस प्रकार होती है इत्यादि की प्ररूपणा यहाँ विस्तारपूर्वक की गई है। २-३. सर्वबन्ध-नोसर्वबन्ध-विवक्षित कर्मप्रकृति की जितनी उत्कृष्ट स्थिति नियमित है उसके बन्ध को सर्वबन्ध और उससे कम के बन्ध को नोसर्वबन्ध कहा जाता है। इन दो अनयोग द्वारों में वहाँ स्थितिबन्ध के प्रसंग में उस सर्वबन्ध और नोसर्वबन्ध की प्ररूपणा विभिन्न कर्मप्रकृतियों के आश्रय से विस्तारपूर्वक की गई है। इसी प्रकार अन्य अनुयोगद्वारों के आश्रय से भी वहाँ अपने-अपने नाम के अनुसार प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा की गई है। ३. अनुभागबन्ध ज्ञानावरणादि मूल व उनकी उत्तरप्रकृतियों का बन्ध होने पर जो उनमें यथा योग्य फल देने की शक्ति उत्पन्न होती है उसे अनुभागबन्ध कहते हैं । इस अनुभाग की प्ररूपणा यहाँ क्रम से मूल व उत्तर प्रकृतियों के आश्रय से विस्तार के साथ की गई है। इस प्रसंग में यहाँ प्रथमत: निषेक प्ररूपणा और स्पर्धक प्ररूपणा इन दो अनुयोगद्वारों का निर्देश करते हुए क्रमशः उनके आश्रय से निषेकों और स्पर्धकों की प्ररूपणा की गई है। इसके पूर्व प्रस्तुत षट्खण्डागम के चौथे वेदना खण्ड के अन्तर्गत वेदना-अनुयोगद्वार में जिन १६ अवान्तर अनयोगद्वारों का निर्देश किया गया है उनमें ७ वा अनुयोगद्वार भावविधान है। उसके अन्त में जो तीन चूलिकाएँ हैं उनमें से दूसरी चुलिका में अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानों की प्ररूपणा इन १२ अनुयोगद्वारों के आश्रय से विस्तारपूर्वक की गई है-१. अविभाग प्रतिच्छेदप्ररूपणा २. स्थानप्ररूपणा, ३. अन्तरप्ररूपणा, ४. काण्डकप्ररूपणा, ५. ओज-युग्मप्ररूपणा, ६. षट्स्थानप्ररूपणा, ७. अधस्तनस्थानप्ररूपणा, ८. समयप्ररूपणा, ६. वृद्धिप्ररूपणा, १०. यवमध्यप्ररूपणा, ११. पर्यवसान प्ररूपणा और १२. अल्पबहुत्व' (सूत्र १६७-६८)। १. स्थितिबन्धस्थान प्ररूपणा सूत्र ३६-१००. निषेक प्ररूपणा सूत्र १०१-२०, आबाधाकाण्डक __ १२१-२२, अल्पबहुत्व १२३-६४ (पु० ११, पृ० १४०-३०८)। २. कर्म की मूल व उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट व जघन्य स्थितियों, आबाधाकाल और निषेकरचना क्रम की प्ररूपणा जीवस्थान की चूलिका ६ व ७ में यथाक्रम से पृथक्-पृथक् विस्तारपूर्वक की गई है (पु० ६, पृ० १४५-२०२) । यहाँ 'उत्कृष्ट स्थिति' हेतु सूत्र ६ की धवला टीका भी द्रष्टव्य है (पृ० १५०-५८) । ३. इन्हीं १२ अनुयोगद्वारों के आश्रय से आगे महाबन्ध में स्वामित्व के प्रसंग में अनुभाग बन्धाध्यवसानस्थानों की प्ररूपणा की गई है। मूलमन्यगत विषय का परिचय |१३९ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनमें से अविभागप्रतिच्छेद प्ररूपणा के प्रसंग में धवलाकार ने सूत्र १६६ की व्याख्या में अविभागप्रतिच्छेद, वर्ग, वर्गणा और स्पर्धक इनके स्वरूप आदि का स्पष्टीकरण संदृष्टि के साथ विस्तारपूर्वक किया है।' इस प्रकार अनुभाग के प्रसंग में उन दो अनुयोगद्वारों के आश्रय से निषेकों और स्पर्धकों की प्ररूपणा करके आगे महाबन्ध में उन्हीं २४ अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है, जिनका उल्लेख इसके पूर्व प्रकृति और स्थितिबन्ध में किया जा चुका है। विशेषता इतनी है कि प्रथम अनुयोगद्वार का उल्लेख जहाँ प्रकृतिबन्ध के प्रसंग में 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' और स्थितिबन्ध के प्रसंग में 'अद्धाच्छेद' के नाम से किया गया है वहाँ अनुभाग के प्रसंग में उसका उल्लेख 'संज्ञा' के नाम से किया गया है । शेष २३ अनुयोगद्वार नाम से वे ही हैं। संज्ञा अनुयोगद्वार-घाति संज्ञा और स्थान संज्ञा के भेद से संज्ञा दो प्रकार की है। जो जीव के ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व और वीर्य गुणों का विघात किया करते हैं उन ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मों की 'घाति' संज्ञा है। शेष वेदनीय आदि चार कर्म अधाति हैं, क्योंकि वे जीवगुणों का घात नहीं करते। इन घाति-अघाति कर्मों के अनुभाग की तर-तमता जिनसे प्रकट होती है उनका नाम स्थान है। घाति कर्मों के अनुभागविषय व स्थान चार हैं--एकस्थानीय, द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय । इनमें लता के समान अनुभाग एकस्थानीय, उससे कुछ कठोर दारु (लकड़ी) के समान अनुभाग द्विस्थानीय, दारु से भी कुछ कठोर हड्डी के समान अनुभाग त्रिस्थानीय और उससे भी अधिक कठोर पत्थर के समान अनुभाग चतुःस्थानीय कहलाता है। अघातिकर्म प्रशस्त व अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार के हैं। इनमें प्रशस्त घाति कर्मों का अनुभाग तर-तमता से गुड़, खाँड, शक्कर और अमृत के समान तथा अप्रशस्त धाति कर्मों का अनुभाग नीम, कांजीर, विष और हालाहल के समान होता है। __ इस प्रकार कर्मों के अनुभाग की प्ररूपणा इस संज्ञा अनयोगद्वार में विस्तारपूर्वक की __ आगे सर्व-नोसर्वबन्ध आदि अन्य अनुयोगद्वारों के आश्रय से अपने-अपने नाम के अनुसार प्रकृत अनुभाग विषयक प्ररूपणा की गई है। ४. प्रदेशबन्ध योग के निमित्त से कार्मण वर्गणाओं के परमाण कर्म रूप परिणत होकर जो जीवप्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह रूप में अवस्थित होते हैं, इसका नाम प्रदेशबन्ध हैं । इस प्रदेशबन्ध की प्ररूपणा में वे ही २४ अनुयोगद्वार हैं। उनमें प्रथम अनुयोगद्वार का नाम स्थान-प्ररूपणा है, शेष २३ अनुयोगद्वार नाम से पूर्व के समान वे ही हैं । स्थानप्ररूपणा में दो अनुयोगद्वार हैं---योगस्थानप्ररूपणा और प्रदेशबन्धप्ररूपणा । मन, वचन व काय के निमित्त से जो आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन होता है उसका नाम योग है। एक काल में होनेवाले इस प्रदेश परिस्पन्दनरूप योग को योगस्थान कहते हैं। इन योगस्थानों की प्ररूपणा यहाँ इन दस अनुयोगद्वारों के द्वारा की गई है-अविभाग-प्रतिच्छेदप्ररूपणा, १. ष० ख०, पु० १२, पृ० ६१-१११ १४० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गणा - प्ररूपणा, स्पर्धक प्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पबहुत्व । इन योगस्थानों की प्ररूपणा इसके पूर्व वेदनाद्रव्य विधान की चूलिका में उन्हीं दस अनुयोगद्वारों के आश्रय से पूर्व में भी की जा चुकी है ।" इसी प्रसंग में महाबन्ध में चौदह जीवसमासों के आश्रय से जघन्य व उत्कृष्ट योग विषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है । इस अरुपबहुत्व की प्ररूपणा भी उपर्युक्त वेदनाद्रव्य विधान की चूलिका में उसी प्रकार से की गई है ।" प्रदेशबन्धस्थान --- जितने योगस्थान होते हैं, उतने ही प्रदेशबन्धस्थान होते हैं । विशेष रूप में इन प्रदेशबन्धस्थानों को प्रकृतिविशेष की अपेक्षा उन योगस्थानों से विशेष अधिक कहा गया है । उदाहरणस्वरूप जो जीव जघन्य योग से आठ कर्मों को बाँधता है उससे ज्ञानावरण का एक प्रदेशबन्ध स्थान होता है । तत्पश्चात् प्रक्षेप अधिक दूसरे योगस्थान से आठ कर्मों के बाँधने वाले के दूसरा प्रदेशबन्धस्थान होता है । इसी क्रम से उत्कृष्ट योगस्थान तक जानना चाहिए। इस प्रकार से योगस्थान प्रमाण ही ज्ञानावरण के प्रदेशबन्धस्थान होते हैं । यही नियम आयुकर्म को छोड़कर अन्य सब कर्मों के विषय में है । आयु के प्रदेशबन्धस्थान परिणामयोगस्थान प्रमाण ही होते हैं, क्योंकि उसका बन्ध उपपाद और एकान्तानुवृद्धि योगस्थानों के समय में नहीं होता । यही अभिप्राय इसके पूर्व उस वेदनाद्रव्य विधान की चूलिका में भी प्रकट किया गया है। वहाँ भी यही कहा गया है " जाणि चेव जोगट्ठाणाणि ताणि चेव पदेसबन्धद्वाणाणि । णवरि पदेसबंधद्वाणाणि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि । " सूत्र ४, २, ४, २१३ यहाँ जो प्रदेशबन्ध स्थानों को प्रकृतिविशेष से विशेष अधिक कहा गया है उसका स्पष्टीकरण धवलाकार ने विस्तार से किया है । आगे इसी प्रकार सर्व नोसर्वबन्ध आदि अन्य अनुयोगद्वारों के आश्रय से इस प्रदेशबन्ध की प्ररूपणा उनके नामानुसार वहाँ विस्तार से की गई है । यहाँ महाबन्ध के विषय का दिग्दर्शन मात्र कराया गया है । विशेष परिचय ग्रन्थ के परिशीलन से ही प्राप्त हो सकता है । यह महाबन्ध पृथग्रूप में हिन्दी अनुवाद के साथ भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा ७ जिल्दों में प्रकाशित किया गया है जो मूल मात्र है । प्रस्तुत षट्खण्डागम के पूर्व पाँच खण्डों पर जिस प्रकार आचार्य वीरसेन द्वारा संस्कृत- प्राकृतमय धवला टीका लिखी गई है, उस प्रकार किसी आचार्य के द्वारा इस छठे खण्ड पर कोई टीका नहीं लिखी गई । मूल रूप में ही वह तीस हजार श्लोक प्रमाण है, यह पूर्व में कहा ही जा चुका है । १. ष० ख० पु० १०, पृ० ४३२- ५०५, सूत्र १७५-२१३ २. ष० ख०, पु० १०, पृ० ३६५-४०३, सूत्र १४४-७३ ३. धवला, पु० १०, पृ० ५०५-१२ मूलग्रन्थगत विषय का परिचय / १४१ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार fron यह है कि प्रस्तुत षट्खण्डागम के पूर्व कुछ खण्डों में- जैसे ( १ ) क्षुद्रकबन्ध (२), बन्धस्वामित्वविचय (३) वेदना, (४) खण्ड के अन्तर्गत क्षेत्र, काल व भाव आदि अवान्तर अनुयोगद्वारों में तथा वर्गणा (५) खण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' व 'बन्धन' (बन्धनीय) अनुयोगद्वारों में प्रकृति-स्थिति आदि बन्धभेदों व उनकी विविध अवस्थाओं की प्ररूपणा प्रकीर्णक रूप में जहाँ तहाँ प्रसंगवश संक्षेप में की गई है। प्रकृति-स्थिति आदि रूप उसी चार प्रकार के बन्ध की अतिशय व्यवस्थित प्रक्रियाबद्ध प्ररूपणा प्रस्तुत षट्खण्डागम के इस छठे खण्ड में अनेक अनुयोगद्वारों और उनके अन्तर्गत अनेक प्रवान्तर अनुयोगद्वारों में बहुत विस्तार से की गई है। इसी से यह छठा खण्ड पूर्व पाँच खण्डों से छह गुणा ( ६००० × ५ = ३०००० विस्तृत है । १४२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षटखण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना विषयविवेचन आदि की अपेक्षा प्रस्तुत षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से कहाँ कितनी समानता है, इसका कुछ परिचय यहाँ कराया जाता है। १. षटखण्डागम व कषायप्राभूत षट्खण्डागम और कषायप्राभूत ये दोनों ही महत्त्वपूर्ण प्राचीन आगम ग्रन्थ हैं। इन्हें परमागम माना जाता है । इनमें प्रथम का सीधा सम्बन्ध जहाँ दृष्टिवाद अंग के अन्तर्गत १४ पूर्वो में दूसरे अग्रायणीय पूर्वश्रुत से रहा है वहाँ दूसरे का सीधा सम्बन्ध उन १४ पूर्वो में पाँचवें ज्ञानप्रवाद पूर्वश्रुत से रहा है, यह पूर्व में स्पष्ट किया ही जा चुका है। पट्खण्डागम की अवतारविषयक प्ररूपणा करते हुए उसकी टीका धवला में कहा गया है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् केवली व श्रुतकेवलियों आदि के अनुक्रम से द्वादशांग श्रुत उत्तरोत्तर क्षीण होता गया। इस प्रकार उसके क्रमशः क्षय को प्राप्त होने पर सब अंगपर्यों का एकदेश आचार्यपरम्परा से आकर धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ। वे उन अंग-पूर्वो के एकदेशभूत महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के ज्ञाता थे ।' उन्होंने उस समस्त महाकर्मप्रकृतिप्राभृत को भूतबलि और पुष्पदन्त के लिए समर्पित कर दिया । तब भूतबलि भट्टारक ने श्रुत के व्युच्छेद के भय से उस महाकर्मप्रकृति का उपसंहार कर छह खण्ड किये। वह महाकर्मप्रकृतिप्राभृत दूसरे अग्रायणी पूर्व के अन्तर्गत चौदह वस्तु नामक अधिकारों में चयनलब्धि नामक पाँचवें अधिकार के बीस प्राभतों में चौथा है। यही स्थिति कषायप्राभूत की भी है । पूर्वोक्त क्रम से उत्तरोत्तरश्रुत के क्षीण होने पर शेष रहे सब अंग-पूवों के एकदेशभूत प्रेयोद्वेषप्राभूत के धारक गुणधर भट्टारक हुए। प्रेयोद्वेषप्राभूत यह कषायप्राभृत का दूसरा नाम है। प्रेयस् नाम राग का है, ये राग और द्वेष कषायस्वरूप १. 'तदो सव्वेसिमंग-पुव्वाणमेगदेसो आइरियपरंपराए आगच्छमाणो धरसेणाइरियं संपत्तो। धवला पु० १, पृ० ६५-६७; लोहाइरिये सग्गलोगं गदे आयार-दिवायरो अथमिओ। एवं बारससु दिणयरेसु भरहखेत्तम्मि अत्थमिएसु सेसाइरिया सव्वेसिमंग-पुव्वाणमेगदेसभूद पेज्जदोस-महाकम्मपयडिपाहुडादीणं धारया जादा।-धवला, पु० ६, पृ० १३३ २. धवला पु० ६, पृ० १३३ ३. पुव्वम्मि पंचमम्मि दु दसमे वत्थुम्मि पाहुडे तदिए। पेज्जं ति पाहुडम्मि दु हवदि कसायाण पाहुडं णाम ।।-क० प्रा० १ तस्स पाहुडस्स दुवे णामधेज्जाणि । तं जहा-पेज्ज-दोसपाहुडे त्ति वि कसायपाहुडे त्ति वि। क० प्रा० चूर्णि २१ (क० पा० सुत्त, पृ० १६) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। वह प्रेयोद्वेषप्राभृत पाँचवें ज्ञानप्र वादपूर्व के अन्तर्गत जो वस्तु नामक बारह अधिकार हैं उनमें दसवें वस्तु अधिकार के बीस प्राभृतों में तीसरा प्राभृत है । गुणधर भट्टारक ने सोलह हजार पद प्रमाण इस प्रेयोद्वेषप्राभृत का उपसंहार कर १८० गाथाओं में प्रकृत कषायप्राभूत की रचना की है । ये गाथासूत्र आचार्यपरम्परा से आते हुए आर्यमंक्षु और नागहस्ती को प्राप्त हुए । उनके पादमूल में इन गाथा सूत्रों को सुनकर यतिवृषभ भट्टारक ने उनपर चूर्णिसूत्र रचे । इस प्रकार प्रकृत कषायप्राभृत के रचयिता गुणधर भट्टारक हैं ।' 1 पूर्वापरवर्तित्व इन दोनों ग्रन्थों में पूर्ववर्ती कौन है, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता। फिर भी कषायप्राभृत के गाथासूत्रों की संक्षिप्तता व गम्भीरता को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता कि कषायप्राभृत षट्खण्डागम के पूर्व रचा जा चुका था । आचार्य इन्द्रनन्दी ने अपने श्रुतावतार में आचार्य गुणधर और धरसेन के पूर्वापरवर्ति के विषय में अपनी अनाजकारी व्यक्त की है । यथा गुणधर-धरसेनन्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः । न ज्ञायते तदन्वयकथकागम-मुनिजनाभावात् ।। १५१ ।। समानता इन दोनों ग्रन्थों में रचनापद्धति व विषयविवेचन की दृष्टि से जो कुछ समानता दिखती है, उसका यहाँ विचार किया जाता है— १. षट्खण्डागम में जीवस्थान - चूलिका के प्रारम्भ में यह सूत्र आया है "कदि काओ पयडीओ बंधदि, केवडि कालट्ठिदिएहि कम्मेहि सम्मत्तं लब्भदि वा ण लम्भदि बा, केवचिरेण कालेण वा कदि भाए वा करेदि मिच्छत्तं उवसामणा वा खवणा वा केसु व खेत्ते कस्स मूले केवडियं वा दंसणमोहणीयं कम्मं खवेंतस्स चारितं वा संपुष्णं पडिवज्जंतस्स ||१|| " यह पृच्छासूत्र है । इसमें निर्दिष्ट पृच्छाओं के अन्तर्गत अर्थ के स्पष्टीकरण में स्वयं ग्रन्थकार द्वारा नौ चूलिकाएँ रची गई हैं । ग्रन्थरचना की यह पद्धति कषायप्राभृत में देखी जाती है । वहाँ प्रथमतः पृच्छा के रूप में मूल सूत्रगाथाएँ रची गई हैं और तत्पश्चात् उन पृच्छात्रों में निहित अर्थ के स्पष्टीकरणार्थ भाष्यगाथाएँ रची गई हैं । उदाहरणस्वरूप सम्यक्त्व अर्थाधिकार की ये चार सूत्रगाथाएँ १. जयधवला भा० १, पृ० ८७-८८ व भा०५, पृ० ३८७-८८ तथा धवला पु० १२, पृ० २३१-३२ २. ऐसी गाथाओं को चूर्णिकार ने मूलगाथा व भाष्यगाथा ही कहा है। जैसे -- गाथा १२४ की उत्थानिका में 'तत्थ सत्त मूलगाहाओ'; गाथा १३० की उत्थानिका में 'एत्तो विदिया मूलगाहा'; गा० १४२ की उत्थानिका में 'एतो तदियमूलगाहा' इत्यादि । गाथा १३६-४१ की उत्थानिका में 'तदिये अत्थे छन्भासगाहाओ' इत्यादि । क०पा० सुत्त, पृ० ७५६-६७ । जयधवला में इन मूलगाथाओं को सूत्रगाथाएँ कहा गया है । १४४ / षट्खण्डागम- परिशीलन Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रष्टव्य हैं वंसणमोहउवसामगस्स परिणामो केरिसो भवे । जोगे कसाय उवजोगे लेस्सा वेदो य को भवे ॥६॥ काणि वा पुव्व बद्धाणि के वा अंसे णिबंधदि । कदि आवलियं पविसंति कदिण्हं वा पवेसगो ॥१२॥ के अंसे झीयदे पुथ्वं बंधेण उदएण वा। अंतरं वा कहिं किच्चा के के उवसामगो कहिं ।।६३॥ किंटिदियाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा । ओवट्टे दूण सेसाणि कं ठाणं पडिवज्जदि ॥१४॥ इन गाथाओं की व्याख्या करते हुए चूर्णिकार ने उन्हें सूत्रगाथाएँ कहा है तथा उनमें निर्दिष्ट पृच्छाओं का स्पष्टीकरण विभाषा" कहकर यथाक्रम से किया है । यथा एदाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ अधापवत्तकरणस्स पढमसमए परुविदवाओ। तं जहा। दसणमोहउवसामगस्स केरिसो परिणामो भवे' त्ति विहासा । तं जहा। परिणामो विसुद्धो। पुव्वं पि अंतोमुहत्तप्पहुडि अणंतगुणाए विसोहीए विसुज्झमाणो आगदो। इसी प्रकार से उन्होंने आगे पूर्वनिर्दिष्ट उन सभी पृच्छाओं को स्पष्ट किया है।' षट्खण्डागम में पूर्वोक्त जीवस्थान-चूलिका गत पृच्छासूत्र के अन्तर्गत उन पृच्छाओं में प्रथम पृच्छा के स्पष्टीकरण में सूत्रकार ने 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' आदि पाँच चूलिकाओं को रचा है। इस स्पष्टीकरण का उल्लेख उन्होंने 'विभाषा' के नाम से इस प्रकार किया है--कदि काओ पगडीओ बंधदि त्ति जं पदं तस्स विहासा। सूत्र २ (पु० ६, पृ० ४)। धवलाकार ने भी ५वीं चूलिका के अन्त में यह सूचना की है—एवं 'कदिकाओ पयडीओ बंधदि' त्ति जं पवंतस्स वक्खाणं समतं । (पु० ६, पृ० १४४) __इस प्रकार पृच्छापूर्वक विवक्षित अर्थ के स्पष्टीकरण की यह पद्धति दोनों ग्रन्थों में समान रूप से देखी जाती है। २. उपर्युक्त जीवस्थान-चूलिका के अन्तर्गत नौ चूलिकाओं में आठवीं सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिका है । वहाँ प्रारम्भ में यह कहा गया है कि प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव जब ज्ञानावरणीय आदि सब कर्मों की स्थिति को अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण बाँधता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । आगे उसकी योग्यता को प्रकट करते हुए कहा गया है कि वह पंचेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि और सर्वविशुद्ध होता है । इस प्रकार से दर्शनमोहनीय को उपशमाता हुआ वह चारों गतियों में पंचेद्रियों, संज्ञियों, गर्भोपक्रान्तिकों, पर्याप्तों तथा .. 'विभाषा' का अर्थ धवला और जयधवला में इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया है 'विविहा भासा विहासा, परूवणा, णिरूवणा, वक्खाणमिदि एगट्ठो।' धवला पु० ६, पृ० ५ 'सुत्तेण सूचिदत्थस्स विसेसियूण भासा विहासा विवरणं त्ति वृत्तं होदि ।' जयध० (क०पा० प्रस्तावना पृ २२ का टिप्पण)। २. क० पा० सुत्त, पृ० ६१५ ३. वही, पृ० ६१५-३० ४. सूत्र १, ६-६, १ (पृ० १४५) व १, ६-८, १-२ (पृ० २०३) भी द्रष्टव्य हैं। षट्खण्डागम को अन्य ग्रन्थों से तुलना / १४५ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्यातवर्षायुष्कों व असंख्यातवर्षायुष्कों में भी उसे उपशमाता है; इनके विपरीत एकेन्द्रियविकलेन्द्रियों व असंज्ञियों आदि में नहीं उपशमाता । " कषायप्राभृत में भी लगभग इसी अभिप्राय को व्यक्त किया गया है । इस प्रसंग में इन दोनों का मिलान किया जा सकता है— उपसातो कहि उपसामेदि ? चदसु वि गदीसु उवसामेदि । चट्टसु वि गदीसु उवसामेंतो पंचिदिए उवसामेदि, णो एइंदिय-विगल दियेसु । पचिदिएस उवसामेंतो सण्णीसु उवसामेदि, ण असण्णी | सणीसु उवसामेंतो गन्भोवक्कं तिएस उबसामेदि, णो सम्मुच्छिमेसु । गग्भोवकंतिसु उवसामेंतो पज्जत्तएसु उवसामेदि, जो अपज्जत्तएसु । पज्जत्त एसु उवसामेंतो संखेज्जवरसाउगेसु वि उवसामेदि असंखेज्जवस्साउगेसु वि । - ष० ख० सूत्र 8 (पु० ६, पृ० २३८ ) । कषायप्राभृत का भी यह उल्लेख देखिए दंसणमोहस्सुवसामगो दु चदुसु वि गदीसु बोद्धव्वो । पंचिदिओ य सण्णी णियमा सो होइ पज्जत्तो ||१५|| षट्खण्डागम के सूत्र में जहाँ शब्दों की पुनरुक्ति अधिक हुई है वहाँ कषायप्राभृत की इस गाथा में प्रसंग प्राप्त उन शब्दों की पुनरावृत्ति न करके लगभग उसी अभिप्राय को संक्षेप में प्रकट कर दिया गया है, जो उसकी सूत्र रूपता का परिचायक है । षट्खण्डागम के उस सूत्र में उपयुक्त केवल गर्भज और संख्यात असंख्यातवर्षायुष्क इन दो विशेषणों का उल्लेख यहाँ नहीं किया गया है। इनमें संख्यात - असंख्यात वर्ष का उल्लेख न करने पर भी उसका बोध 'चतुर्गति' के निर्देश से हो जाता है, क्योंकि चतुर्गति के अन्तर्गत मनुष्यगति व तिर्यंचगति सामान्य में वे दोनों आ जाते हैं । यह भी यहाँ स्मरणीय है कि पूर्व में, कषायप्राभृत की जिन चार मूलगाथाओं का उल्लेख किया गया है उनके अन्तर्हित अर्थ के विशदीकरण में जिन १५ (६५ - १०६) गाथाओं का उपयोग किया गया है उनमें यह प्रथम गाथा है । इन गाथाओं के प्रारम्भ में उनकी उत्थानिका में चूर्णिकारने इतना मात्र कहा है कि आगे इन मूल गाथासूत्रों का स्पर्श करना योग्य है—उनका विवरण दिया जाता है। -क० पा० सुत्त, पृ० ६३० कषायप्राभृत की वे ९५-१०६ गाथाएँ ' एत्थुवउज्जतीम्रो गाहाओ' इस सूचना के साथ षट्खण्डागम की उस जीवस्थान- चूलिका में उसी क्रम से उद्धृत की गई हैं। केवल गाथा १०२ व १०३ में क्रमव्यत्यय हुआ है । " दर्शनमोह की उपशामना के प्रसंग में ऊपर कषायप्राभृत की जिन चार मूल गाथाओं को उद्धृत किया गया है उनमें सर्वविशुद्ध 'परिणाम' के विषय में पृच्छा की गई है । चूर्णिकार ने परिणाम को विशुद्ध कहा है । षट्खण्डागम में उसे सर्वविशुद्ध कहा गया है (सूत्र १,६ - ८, ४) । इसके अतिरिक्त उपर्युक्त मूल गाथाओं में योग, कषाय, उपयोग, लेश्या, वेद और पूर्वबद्ध कर्मों आदि के विषय में जो पृच्छा को उद्भावित किया गया है उस सबका स्पष्टीकरण षट् १. सूत्र १, ६-८, ३-६ ( ५० ६ ) २. क० पा० सुत्त पृ० ६३० ३८ व धवला पु० ६, पृ० २३८-४३ १४६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्डागम में कुछ क्रमव्यत्यय के साथ धवलाकार द्वारा किया गया है।' ३. षट्खण्डागम में इसी चूलिका में आगे दर्शनमोहनीय के क्षय के प्रारम्भ करने व उसकी समाप्ति के विषय में विचार करते हुए कहा गया है कि उस दर्शनमोहनीय के क्षय को प्रारम्भ करनेवाला उसके क्षय को अढाई द्वीप-समुद्रों के भीतर पन्द्रह कर्मभूमियों में, जहाँ जिन केवली तीर्थंकर होते हैं, प्रारम्भ करता है। पर उसका निष्ठापक वह चारों ही गतियों में उस दर्शनमोहनीय के क्षयका निष्ठापन करता है (सूत्र १, ६-८, ११-१२) । __ इसी अभिप्राय को व्यक्त करनेवाली गाथा कषायप्राभृत में इस प्रकार उपलब्ध होती वंसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजादो दु । णियमा मणुसगदीए ट्ठिवगो चावि सव्वत्थ ॥११०॥ दोनों ग्रन्थगत इन उल्लेखों में बहुत कुछ समानता है। साथ ही विशेषता भी कुछ उनमें है। वह यह कि षट्खण्डागम में जहाँ मनुष्यगति का कोई उल्लेख नहीं किया गया कहाँ कषायप्राभूत में "जिन केवली तीर्थकर' का कुछ भी उल्लेख नहीं किया गया है । __ हाँ, धवला में वहाँ इस प्रसंग में यह शंका उठाई गई है कि 'पन्द्रह कर्मभूमियों में' इतना मात्र कहने से वहाँ अवस्थित देव, मनुष्य और तिर्यच इन सबका ग्रहण क्यों नहीं प्राप्त होगा। इसके समाधान में वहाँ यह कहा गया है कि सूत्र में निर्दिष्ट 'कर्मभूमि' यह संज्ञा उपचार से उन मनुष्यों की है जो उन कर्मभूमियों में उत्पन्न हुए हैं, इससे उनमें अवस्थित देवों व तिर्यंचों के ग्रहण का प्रसंग प्राप्त नहीं होता। इस पर पुनः यह शंका की गई है कि फिर भी तिर्यंचों के ग्रहण का प्रसंग तो प्राप्त होता ही है, क्योंकि मनुष्यों के समान तियंचों की उत्पत्ति भी वहाँ सम्भव है। इसके समाधान में यह स्पष्ट किया है कि जिनकी उत्पत्ति कर्मभूमियों के सिवाय अन्यत्र सम्भव नहीं है उन मनुष्यों का नाम ही पन्द्रह कर्मभूमि है। तिर्यंच चूंकि कर्मभूमियों के अतिरिक्त स्वयंप्रभ पर्वत के परभाग में भी उत्पन्न होते हैं, इससे तिर्यंचों का भी प्रसंग नहीं प्राप्त होता । इस प्रसंग के स्पष्टीकरण में धवलाकार ने कषायप्राभूत की उसी उपर्युक्त गाथा 'उक्तं च' निर्देश के साथ उद्धृत की है। ___कषायप्राभूत में दर्शनमोह की इस क्षपणा के प्रसंग में, जहाँ तक मैं देख सका हूँ, यह कहीं नहीं कहा गया कि उसकी क्षपणा का प्रारम्भ जिन, केवली व तीर्थंकर के पादमूल में किया जाता है। पर जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, षट्खण्डागम में उसका स्पष्ट उल्लेख किया गया है। षट्खण्डागम के प्रसंगप्राप्त उस सूत्र में उपयुक्त जिन, केवली और तीर्थंकर इन पदों की सार्थकता को प्रकट करते हुए धवलाकार ने प्रथम तो यह कहा है कि देशजिनों का प्रतिषेध करने के लिए सूत्र में केवली' को ग्रहण किया है तथा तीर्थकर कर्म से रहित केवलियों का प्रतिषेध करने के लिए 'तीर्थकर' को ग्रहण किया गया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर १. धवला पु० ६, पृ० २०६-२२२; उनका स्पष्टीकरण चूर्णिकार ने कषायप्राभूत में गाथोक्त क्रम से ही किया है ।--क० पा० सुत्त पृ० ६१५-३० २. धवला पु० ६, पृ० २४६ ३. सूत्र १, ६-८, १०-११ (पु० ६, पृ० २४३) षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १४७ .. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिया है कि तीर्थंकरके पादमूल में दर्शनमोह की क्षपणा को प्रारम्भ करते हैं, अन्यत्र नहीं। विकल्प के रूप में उन्होंने वहाँ आगे यह भी कहा है कि अथवा 'जिन' ऐसा कहने पर चौदह पूर्वो के धारकों को ग्रहण करना चाहिए, 'केवली' ऐसा कहने पर तीर्थकर कर्म के उदय से रहित केवलियों को ग्रहण करना चाहिए, तथा 'तीर्थंकर' ऐसा करने पर तीर्थकर नामकर्म के उदय से उत्पन्न आठ प्रतिहार्यों और चौंतीस अतिशयों से सहित केवलियों को ग्रहण करना चाहिए। इन तीनों के भी पादमूल में दर्शनमोह की क्षपणा को प्रारम्भ करते हैं।' विशेषता इन दोनों ग्रन्थों में जो विशेषता दटिगोचर होती वह इस प्रकार है १. समस्त षट्खण्डागम जहाँ, कुछ अपवाद को छोड़कर, गद्यात्मक सूत्रों में रचा गया है वहाँ कषायप्राभृत गाथाओं में ही रचा गया है। २. षट्खण्डागम के सूत्र अर्थ की दृष्टि से उतने गम्भीर व दुरूह नहीं है, जितने कषायप्राभूत के गाथासूत्र अर्थ की दृष्टि से गम्भीर व दूरूह हैं । यही कारण है कि षट्खण्डागम का ग्रन्थप्रमाण छत्तीस हजार (प्रथम ५ खण्डों का ६०००+छठे खण्ड का ३००००) श्लोक है, पर समस्त कषायप्राभत केवल १८० अथवा २३३ गाथाओं में रचा गया है । ग्रन्थप्रमाण में वह इतना अल्प होकर भी प्रतिपाद्य विषय का सर्वांगपूर्ण विवेचन करनेवाला है। ३. षट्खण्डागम के छह खण्डों में प्रथम खण्ड जीवस्थान और चतुर्थ वेदनाखण्ड के प्रारम्भ में मंगल किया गया है, किन्तु कषायप्राभूत के प्रारम्भ में व अन्यत्र भी कहीं मंगल नहीं किया गया। ४. षट्खण्डागम में खण्डों व उनके अन्तर्गत अधिकारों आदि का कुछ उल्लेख नहीं है । बीच-बीच में वहाँ अनियत क्रम से विविध अनुयोगद्वारों का निर्देश अवश्य किया गया है। धवलाकार ने भी वहाँ खण्डों का व्यवस्थित निर्देश नहीं किया। किन्तु क० प्रा० में ग्रन्थ को प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम यह निर्देश कर दिया गया है कि पाँचवें पूर्व के अन्तर्गत दसवें वस्तु नामक अधिकार में तीसरा पेज्जपाहुड (प्रेयःप्राभृत) है, उसमें कषायों का प्राभृत है-कषायों की प्ररूपणा की गई है (गा० १)। आगे कहा गया है कि एक सौ अस्सी गाथा रूप इस ग्रन्ध में पन्द्रह अर्थाधिकार हैं। उनमें जिस अर्थाधिकार में जितनी सूत्र गाथाएँ हैं उन्हें मैं (गुणधर) कहूँगा। ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए ग्रन्थकार ने आगे उन अर्थाधिकारों में यथा क्रम से सूत्र गाथाएँ व भाष्यगाथाओं की संख्या का उल्लेख भी कर दिया है (२-१२)। इस प्रकार कषायप्राभूत के कर्ता आचार्य गुणधर ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में उसके अन्तर्गत नामनिर्देश के साथ अर्थाधिकारों व उनमें रची जानेवाली सूत्रगाथाओं और भाष्यगाथाओं की संख्या का भी निर्देश कर दिया है तथा उसी क्रम से प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा भी की है। १. धवला पु० ६, पृ० २४६ २. अपवाद के रूप में वहाँ ३६ गाथा सूत्र (वेदनाखण्ड में ८, और वर्गणा खण्ड में २८)भी हैं। १४८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. ष०ख० में जीवस्थान खण्ड से सम्बद्ध नौ तथा वेदना व वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत कुछ अनुयोगद्वारों से सम्बद्ध सात, इस प्रकार सोलह चूलिका नामक प्रकरण भी हैं। दूसरे क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत ११ वें अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार के अन्त में 'महादण्डक' है। इसे भी धवलाकार ने चूलिका कहा है। क० प्रा० में इस प्रकार की किसी चूलिका की योजना नहीं की गई है। ५. १० ख० में ज्ञानावरणादि आठों कर्मों से सम्बद्ध बन्ध, उदय (वेदना) व बन्धनीय (वर्गणा) आदि की प्ररूपणा कुछ अनियत क्रम से की गई है। क० प्रा० में प्रेयोद्वषविभक्ति, स्थितिविभक्ति व अनुभागविभक्ति आदि पन्द्रह अर्थाधिकारों के आश्रय से राग-द्वेषस्वरूप एक मात्र मोहनीय कर्म की व्यवस्थित व क्रमबद्ध प्ररूपणा की गई है। ६. १० ख० के प्रथम खण्ड जीवस्थान में ओघ और आदेश से चौदह गुणस्थानों व चौदह मार्गणाओं से विशेषित उन्हीं गुणस्थानों की सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से क्रमशः सुव्यवस्थित प्ररूपणा की गई है। __क० प्रा० में गुणस्थान और मार्गणाओं से सम्बन्धित इस प्रकार की प्ररूपणा उपलब्ध नहीं होती। अभिप्रायभेद __ दोनों ग्रन्थों में कहीं-कहीं प्रतिपाद्य विषय के व्याख्यान में कुछ मतभेद भी रहा दिखता है । जैसे ७. १० ख० में प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के प्रसंग में यह कहा गया है कि ज्ञानावरणादि सभी कर्मों की स्थिति को जीव जब अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण बाँधता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है (सूत्र १, ६-१, ३)। ___क० प्रा० में सम्यक्त्व की उत्पत्ति -दर्शनमोह की उपशामना–के प्रसंग में इस प्रकार के स्थितिबन्ध का प्रमाण मूल व चूर्णि में कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुआ। ८. ष० ख० में क्षायिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति के प्रसंग में यह कहा गया है कि पन्द्रह कर्मभूमियों में जहाँ-जिन क्षेत्र व काल विशेषों में-जिन, केवली व तीर्थकर सम्भव हैं वहाँ उनके पादमूल में जीव दर्शनमोहनीय की क्षपणा प्रारम्भ करता है (१, ६-८,१०-११)। ___ क० प्रा० में मात्र 'कर्मभूमिज' का उल्लेख किया गया है । परन्तु जिन, केवली तीर्थंकर का उल्लेख वहाँ देखने में नहीं आया। ६.१० ख० में इसी प्रसंग में मनुष्यगति का स्पष्ट डल्लेख नहीं किया गया, जबकि क० प्रा० .(गा० ११०) में उसका स्पष्ट उल्लेख देखा जाता है। ___यह अवश्य है कि धवलाकार ने सूत्र में निर्दिष्ट 'कर्मभूमि' को उपचार से कर्मभूमिजात मनुष्य की संज्ञा मानी है, यह पूर्व में स्पष्ट ही किया जा चुका है। ऊपर जो षट्खण्डागम से कषायप्राभूत के पूर्ववर्ती होने की सम्भावना व्यक्त की गई है वह ऐसी ही कुछ विशेषताओं को देखते हुए की है। ___ यह भी ध्यातव्य है कि पेज्जदोसपाहुड (कषायप्राभृत) अविच्छिन्न परम्परा से आता हुआ गुणधर भट्टारक को प्राप्त हुआ व उन्होंने १६००० पद प्रमाण उस कषायप्राभूत का १८० षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों तुलना / १४६ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासूत्रों में उपसंहार किया। उसी आचार्यपरम्परा से आता हुआ महाकर्मप्रकृतिप्राभृत धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ। पर उन्होंने उसका स्वयं उपसंहार न करके उसका व्याख्यान भूतबलि और पुष्पदन्त के लिए किया।' आचार्य भूतबलि ने उसका उपसंहार कर छह खण्ड किये। __उन छह खण्डों में सबका ग्रन्थप्रमाण ज्ञात नहीं होता, धवला के अनुसार जीवस्थान १८००० पद प्रमाण' और खण्डग्रन्थ की अपेक्षा वेदना का प्रमाण १६००० पद रहा है। । ये दोनों ग्रन्थ आचार्य परम्परा से आकर उन दोनों आचार्यों को गाथासूत्रों के रूप में या गद्यात्मक सूत्रों के रूप में प्राप्त हुए, यह ज्ञात नहीं होता। जिस किसी भी रूप में वे उन्हें प्राप्त हुए हों, पर सम्भवतः परम्परा से मौखिक रूप में ही वे उन्हें प्राप्त हुए होंगे। २. षट्खण्डागम व मूलाचार वट्टकेराचार्य (सम्भवतः ई० द्वितीय शताब्दी) विरचित 'मूलाचार' एक साध्वाचारविषयक महत्त्वपूर्ण प्राचीन ग्रन्थ है। इसमें मुनियों के आचार की विस्तार से प्ररूपणा की गई है। वह इन बारह अधिकारों में विभक्त है-१ मूलगुणाधिकार, २. बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तव, ३. संक्षेपप्रत्याख्यानसंस्तरस्तव, ४. समाचार, ५. पंचाचार, ६. पिण्डशुद्धि, ७. षडावश्यक, ८. द्वादशानुप्रेक्षा, ६. अनगारभावना, १०. समयसार, ११. शीलगुणाधिकार और १२. पर्याप्ति अधिकार ।। __इसकी यह विशेषा रही है कि उन बारह अधिकारों में से विवक्षित अधिकार में जिन विषयों का विवेचन किया जानेवाला है उसकी सूचना उस अधिकार के प्रारम्भ में करके तदनुसार ही क्रम से उनकी प्ररूपणा वहाँ की गई है। उक्त बारह अधिकारों में अन्तिम पर्याप्ति अधिकार है। प्रारम्भ में यहाँ कर्मचक्र से निर्मुक्त सिद्धों को नमस्कार करके आनुपूर्वी के अनुसार पर्याप्तिसंग्रहणियों के कथन की प्रतिज्ञा की गई है। तत्पश्चात् इस अधिकार में जिन विषयों का विवेचन किया जानेवाला है उनका निर्देश इस प्रकार कर दिया गया है—पर्याप्ति, देह, काय व इन्द्रियों का संस्थान, योनि, आयु, प्रमाण, योग, वेद, लेश्या, प्रवीचार, उपपाद, उद्वर्तन, स्थान, कुल, अल्पबहुत्व तथा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग व प्रदेश रूप चार प्रकार का बन्ध । इन सब सैद्धान्तिक विषयों की प्ररूपणा यहाँ व्यवस्थित रूप में जिस क्रम व पद्धति से की गई है उसे देखते हए ऐसा प्रतीत होता है कि उसके रचयिता को उन विषयों का ज्ञान १. पुणो कमेण वक्खाणंतेण आसाढमाससुक्कपक्खएक्कारसीए पुवण्हे गंथो समाणिदो । (धवला पु० १, ७०); तेण वि गिरिणयरचंदगुहाए भूदबलि-पुप्फदंताणं महाकम्मपहुडि पाहुडं सयलं समप्पिदं । (पु० ६, पृ० १३३) २. तदो भूदबलिभडारएण सुदणंईपवाहवोच्छेदभीएण भवियलोगाणुग्गहट्ठ महाकम्मपयडि पाहुडमुवसंहरिऊण छखंडाणि कयाणि ।-.-धवला पु०६, पृ० १३३ ३. पदं पडुच्च अट्ठारहपदसहस्सं । - धवला पु० १, पृ० ६० ४. अधवा खंडगंथं पडुच्च वेयणाए सोलसपदसहस्साणि । ताणि व जाणि दूण वत्तव्वाणि । -धवला पु० ६, पृ० १०६ १५० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविच्छिन्न आचार्य परम्परा से प्राप्त था। __उर्युपक्त विषयों में से बहुतों की प्ररूपणा प्रस्तुत षट्खण्डागम में भी की गई है जिसकी समानता विवेचन पद्धति के कुछ भिन्न होते हुए भी दोनों ग्रन्थों में देखी जाती है। उदाहरण के रूप में यहाँ उनमें से कुछ के विषय में प्रकाश डाला जाता है । जैसे १. पूर्वनिर्दिष्ट क्रम के अनुसार मूलाचार में सर्वप्रथम पर्याप्तियों की प्ररूपणा की गई है। उसमें यहाँ प्रथमतः आहार-शरीरादि छह पर्याप्तियों के नामों का निर्देश करते हुए उनमें से एकेन्द्रियों के चार, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त द्वीन्द्रियादिकों के पाँच और संज्ञियों के छहों पर्याप्तियों का सद्भाव प्रकट किया गया है।' षट्खण्डागम में जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में योगमार्गणा के प्रसंग में उन छह पर्याप्तियों की संख्या का निर्देश करते हुए वे किन जीवों के कितनी सम्भव हैं, इसे भी स्पष्ट किया गया है। विशेषता इतनी है कि यहाँ उन आहार-शरीरादि छह पर्याप्तियों के नामों का उल्लेख नहीं किया गया, जो मूलाचार में किया गया है। उनके नामों का उल्लेख वहाँ धवला में कर दिया गया है । इसके अतिरिक्त मूलाचार में जहाँ एकेन्द्रियों के चार, द्वीन्द्रियादिकों के पांच और संज्ञियों के छह; इस क्रम से उनका उल्लेख किया गया है वहाँ षटखण्डागम में विपरीत क्रम से संज्ञियों के छह, द्वीन्द्रियादिकों के पाँच और एकेन्द्रियों के चार, इस प्रकार से उनका उल्लेख है। इस प्रकार क्रम भेद होने पर भी अभिप्राय में भिन्नता नहीं है।। ___मूलाचार में उक्त रीति से पर्याप्तियों के अस्तित्व को दिखलाते हुए यह कहा गया है कि इन पर्याप्तियों से जो जीव अनिवृत्त (अपूर्ण) होते हैं उन्हें अपर्याप्त जानना चाहिए।' ___यह अभिप्राय षट्खण्डागम में पृथक्-पृथक् उनकी संख्या के निर्देश के साथ ही प्रकट किया गया है। यथा—छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ (७०) आदि । मूलाचार में आगे उन पर्याप्तियों के निष्पन्न होने के काल का भी निर्देश किया गया है, जो ष०ख० में नहीं है। २. मूलाचार में शुद्ध पथिवीकायिक, खरपृथिवी कायिक एवं अपकायिक आदि विभिन्न जातियों के जीवों की आयु के प्रमाण की प्ररूपणा की गई है । पर वहाँ इस प्ररूपणा में गुणस्थान और मार्गणा की अपेक्षा नहीं की गई। ष० ख० में इस आयु (काल) की प्ररूपणा जीवस्थान के अन्तर्गत कालानुगम अनुयोगद्वार में और दूसरे खण्ड क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों में से दूसरे ‘एक जीव की अपेक्षा काल' अनुयोगद्वार में भी की गई है। पर जीवस्थान में जहाँ गुणस्थान और मार्गणा दोनों की १. मूलाचार १२, ४-६ २. ष० ख० सूत्र १, १, ७०-७५ (पु० १, पृ० ३११-१४) । ३. मूलाचार १२-६ ४. पज्जत्तीपज्जत्ता भिण्णमुहुत्ते ण होति णायव्वा । ___अणुसमयं पज्जत्ती सव्वेसिं चोववादीणं ॥१२-७ ५. मूलाचार १२, ६४.८३ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना | १५१ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपेक्षा रखी गई है वहाँ क्षुद्रकबन्ध में गुणस्थाननिरपेक्ष केवल मार्गणा के क्रम से उस काल की प्ररूपणा की गई है। इसके अतिरिक्त विवक्षित पर्याय में जीव उत्कृष्ट व जघन्य रूप में कितने काल रहता है इसकी विवक्षा १० ख० में रही है। पर मूलाचार में एक ही भव की अपेक्षा रखकर उस आयु की प्ररूपणा की गई है। इस प्रकार इन दोनों ग्रन्थों में इस काल प्ररूपणा की सर्वथा तो समानता नहीं रहीं, फिर भी जिन जीवों की विवक्षित पर्याय उसी भव में समाप्त हो जाती है, भवान्तर में संक्रान्त नहीं होती, उन की आयु के विषय में दोनों ग्रन्थों में कुछ समानता देखी जाती है, यदि गुणस्थान की विवक्षा न की जाय । यथा___ मूलाचार में देवों व नारकियों की उत्कृष्ट आयु तेतीस सागरोपम और जघन्य आयु दस हजार वर्ष निर्दिष्ट की गई है । आगे वहाँ पृथिवीक्रम से नारकियों की उत्कृष्ट आयु १, ३, ७, १०,१७, २२ और ३३ सागरोपम कही गई है। तत्पश्चात् वहाँ संक्षेप में यह निर्देश कर दिया गया है कि प्रथमादि पृथिवियों में जो उत्कृष्ट प्रायु है वही साधिक (समयाधिक) द्वितीय आदि पृथिवियों में यथाक्रम से जघन्य आयु है। यहीं पर यह भी सूचना कर दी गई है कि धर्मा (प्रथम) पृथिवी के नारकियों, भवनवासियों और व्यन्तर देवों की जघन्य आयु दस हजार वर्ष प्रमाण है।' इन जीवों की आयु का यही प्रमाण १० ख० में भी यथा प्रसंग निर्दिष्ट किया गया है। इसी प्रकार दोनों ग्रन्थों में देवों के आयुप्रमाण में भी समानता है, भले ही उसका उल्लेख आगे पीछे किया गया हो। विशेषता यह रही है कि मूलाचार में पृथक्-प्रथक् असुरकुमार-नागकुमारादि भवनवासियों और किंनर किंपुरुषादि व्यन्तरों, ज्योतिषियों एवं वैमानिकों की आयु का उल्लेख किया गया है, जिसका कि उल्लेख ष० ख० में नहीं किया गया। इसी प्रकार मूलाचार में सौधर्मादि कल्पों की देवियों के भी आयुप्रमाण को प्रकट किया गया है, जिसका उल्लेख १० ख० में नहीं किया गया। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि मूलाचार में देवियों की इस आयु के प्रमाण को दो भिन्न मतों के अनुसार प्रकट किया गया है। इनमें प्रथम मत के अनुसार सोलह कल्पों में से प्रत्येक में उन देवियों के आयुप्रमाण को यथा क्रम से ५,७,६,११,१३,१५,१७,१९,२१,२३,२५,२७,३४,४१, ४८ और ५५ पल्योपम निर्दिष्ट किया गया है । यही आयुप्रमाण उनका दूसरे मत के अनुसार यथाक्रम से प्रत्येक कल्पयुगल में ५,१७,२५,३०,३५,४०,४५, और ५५ पल्योपम कहा गया है। वृत्तिकार आ० वसुनन्दी ने द्वितीय उपदेश को न्याय्य बतलाते हुए विकल्प के रूप में दोनों १. मूलाचार १२, ७३-७५ २. १० ख० सूत्र २, २, १-१ और २, २, २५-२६ (पु० ७)। ३. मूलाचार १२, ७६-७८ व ष० ख० सूत्र २, २, २८-३८ ४. वही, १२, ७६-७८ ५. वही १२, ८६-८० १५२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशों को ग्राह्य कहा है ।" विरुद्ध मतों के सद्भाव में धवलाकार आ० वीरसेन की प्रायः इसी प्रकार की पद्धति रही है । उसी का अनुसरण सम्भवतः आ० वसुनन्दी ने किया है । " देवियों के आयु प्रमाणविषयक ये दोनों मत तिलोयपण्णत्ती में भी उपलब्ध होते हैं । उनमें प्रथम मत का उल्लेख वहाँ 'लोगायणिये' इस निर्देश के साथ और दूसरे मत का उल्लेख 'मूलायारे इरिया एवं णिउणं णिरूवेति' इस सूचना के साथ किया गया है। ३. मूलाचार में वेदविषयक प्ररूपणा के प्रसंग में यह कहा गया है कि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, नारकी और सम्मूर्च्छन ये सब जीव वेद से नियमतः नपुंसक होते हैं । देव, भोगभूमिज और असंख्यात वर्ष की आयुवाले - भोगभूमिप्रतिभाग में उत्पन्न हुए व म्लेच्छखण्डों में उत्पन्न हुए - मनुष्य और तिर्यंच ये स्त्री और पुरुष इन दो वेदों से युक्त होते हैं, उनके तीसरा ( नपुंसक) वेद नहीं होता । शेष पंचेन्द्रिय संज्ञी व असंज्ञी तिर्यंच एवं मनुष्य ये तीनों वेदवाले होते हैं । * ष० ख० में इस वेद की प्ररूपणा सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के अन्तर्गत वेदमार्गणा में की गई है । दोनों ग्रन्थों का वेदविषयक यह अभिप्राय प्रायः समान ही है । प्ररूपणा के क्रम में भेद अवश्य रहा है, पर आगे पीछे उसका निरूपण उसी रूप में किया गया है। विशेष इतना है कि ० ख० में जो वेद की प्ररूपणा की गई है उसमें गुणस्थान और मार्गणा की विवक्षा रही है, जो मूलाचार में नहीं रही। ४. मूलाचार में अवधिज्ञान के विषय की प्ररूपणा करते हुए जिन गाथाओं के द्वारा देवनारकियों के अवधिज्ञान के विषय को प्रकट किया गया है उनमें गाथा १०७ व १०६-१० ष० ख० में सूत्र के रूप में उपलब्ध होती हैं । विशेष इतना है कि मूलाचारगत गाथा ११० के उत्तरार्ध में जहाँ 'संखातीदा य खलु' ऐसा पाठ है वहाँ ष० ख० में 'संखातीदसहस्सा' ऐसा पाठ है। मूलाचार की गाथा १०८ और ष० ख० की गाथा १३ व १४ के पूवार्ध में कुछ पाठभेद है, इससे अभिप्राय में भी कुछ भेद दिखने लगा है । परन्तु धवलाकार ने उसका समन्वय करते हुए प्रसंगप्राप्त उस गाथा की व्याख्या में कहा है कि आनत - प्राणतकल्पवासी देव पांचवीं पृथिवी के अधस्तन तलभाग तक साढ़े नौ राजु आयत और एक राजु विस्तृत लोकनाली को १. देवायुषः प्रतिपादनन्यायेनायमेवोपदेशो न्याय्योऽत्रैवकारकरणादथवा द्वावप्युपदेशौ ग्राह्यो, सूत्र द्वयोपदेशात् । द्वयोर्मध्य एकेन सत्येन भवितव्यम् । नात्र सन्देहमिथ्यात्वम्, यदर्हत्प्रणीतं तत्सत्यमिति सन्देहाभावात् । छद्मस्थैस्तु विवेकः कर्तुं न शक्यतेऽतो मिथ्यात्वभयादेव द्वयोर्ग्रहणमिति । वृत्ति १२ - ८० २. धवला पु० १, पृ० २१७-२१, ०७, पृ० ५३६-४० और पु० ६, पृ० १२६ इत्यादि । ३. ति० प० गाथा ८,५३० - ३२ 'मूलायारेइरिया' ऐसा कहकर सम्भवतः इस मूलाचार के रचयिता आचार्य की ओर ही संकेत किया गया है । ४. मूलाचार १२,८७-८६ ५. ष० ख० सूत्र १०५-१० ( पु० १, पृ० ३४५-४७ ) । ६. गाथा सूत्र १२ व १०-११ ( पु० १३, पृ० ३१६ व ३१४-१५) । षट्खण्डागल की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १५३ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखते हैं तथा आरण-अच्युत कल्पवासी देव पांचवीं पृथिवी के अधस्तन तलभाग तक दस राजु आयत और एक राजु विस्तृत लोकनाली को देखते हैं । नौवेयकवासी देव छठी पृथिवी के अधस्तन तलभाग तक साधिक ग्यारह राजु आयत और एक राजु विस्तृत लोकनाली को देखते हैं।' ___विशेषता यहाँ यह रही है कि मूलाचार में आगे गाथा १११ में पृथिवी क्रम से नारकियों के भी अवधिज्ञान के विषयभूत क्षेत्र को स्पष्ट किया गया है, जिसका स्पष्टीकरण ष० ख० में नहीं किया गया है। ५. मूलाचार में गुणस्थान और मार्गणा की विवक्षा न करके सामान्य से गति-आगति की प्ररूपणा विस्तार से की गई है। वहाँ संक्षेप में विवक्षित गति में जहाँ जिन जीवों की उत्पत्ति सम्भव है उनकी उत्पत्ति को जातिभेद के बिना एक साथ प्रकट किया गया है । जैसे असंज्ञी जीव प्रथम पृथिवी में, सरीसृप द्वितीय पृथिवी तक, पक्षी तीसरी पृथिवी तक, उरःसर्प (अजगर आदि) चौथी पृथिवी तक, सिंह पाँचवीं पृथिवी तक, स्त्रियाँ छठी पृथिवी तक और मत्स्य सातवीं पृथिवी तक जाते हैं। ___ इस प्रकार मूलाचार में यथाक्रम से नरकों में उत्पन्न होनेवाले जीवविशेषों का निर्देश करके आगे नारक पृथिवियों से निकलते हुए नारकी कहाँ किन अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं और किन अवस्थाओं को नहीं प्राप्त करते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि सातवीं पृथिवी से निकले हुए नारकी मनुष्य पर्याय को प्राप्त नहीं करते, वहाँ से निकलकर वे तिर्यच गति में संख्यात वर्ष की आयुवाले (कर्मभूमिज व कर्मभूमिप्रतिभागज), व्यालों, दंष्ट्रावाले सिंहादिकों में, पक्षियों में और जलचरों में उत्पन्न होते हैं तथा फिर से भी वे नारक अवस्था को प्राप्त होते हैं। छठी पृथिवी से निकले हुए नारकी अनन्तर जन्म में मनुष्यभव को कदाचित् प्राप्त करते हैं । पर मनुष्यभव को प्राप्त करके वे संयम को प्राप्त नहीं कर सकते । पाँचवीं पृथिवी से निकला हुआ जीव संयम को तो प्राप्त कर सकता है, किन्तु वह भवसंक्लेश के कारण नियम से मुक्ति को नहीं प्राप्त कर सकता है । चौथी पृथिवी से निकला हुआ जीव मुक्ति को तो प्राप्त कर सकता है, पर निश्चित ही वह तीर्थंकर नहीं हो सकता। प्रथम तीन पृथिवियों से निकले हुए नारकी अनन्तर भव में कदाचित् तीर्थंकर तो हो सकते हैं, पर वे नियम से बलदेव, वासुदेव और चक्रवर्ती पदों को नहीं प्राप्त कर सकते हैं। १० ख० में जीवस्थान खण्ड से सम्बद्ध नौ चूलिकाओं में अन्तिम गति-आगति चूलिका है। उसमें गति-इन्द्रिय आदि मार्गणाओं के क्रम से गुणस्थान निर्देशपूर्वक प्रकृत गति-आगति १. धवला पु० १३, पृ० ३१६ २. मूलाचार १२, ११२-१३ ३. प्रसंगप्राप्त यह मूलाचार की गाथा (१२-११५) तिलोयपण्णत्ती की गाथा २-२६० से प्रायः शब्दशः समान है । यहाँ यह स्मरणीय है कि मूलाचार और तिलोयपण्णत्ती में प्ररूपित अनेक विषयों में पर्याप्त समानता है। देखिए ति० १० भाग २ की प्रस्तावना पृ० ४२ ४४ में 'मूलाचार' शीर्षक । ४. मूलाचार १२, ११४-२० १५४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयक प्ररूपणा विस्तार से की गई है, जो अभिप्राय में मूलाचार की उस प्ररूपणा कुछ समान है ।' उदाहरण के रूप में दोनों का कुछ मिलान इस प्रकार किया जा सकता हैट्टिदाय संता रइया तमतमादु पुढवीदो | ण लहंति माणुसतं तिरिक्खजोणीमुवणमंति ।। मूलाचार १२, ११४ छट्टोदो पुढवीदो उव्वट्टिदा अणंतरभवम्हि | भज्जा माणुसलंभे संजमलंभेण दु विहीणा । —मूलाचार १२,११६ भी इसी अभिप्राय को देखिए ष० ख० "अधो सत्तमा पुढवीए णेरइया णिग्यादो णेरइया उव्वट्टिद- समाणा कदि गदीओ आगच्छंति ? एक म्हि तिरिक्खगदिमागच्छति । तिरिक्खेसु उववण्णल्लया छण्णो उप्पाएंति आभिणि बोहियणाणं णो उप्पाएंति, सुदणाणं णो उप्पाएंति, ओहिणाणं णो उप्पाएंति, सम्मामिच्छत्तंणो उप्पाएंति, सम्मत्तं णो उप्पाएंति, संजमासंजमं णो उप्पाएंति । से छुट्टी पुढवीए रइया णिरयादो णेरइया उव्वट्टिदसमाणा कदि गदीओ आगच्छति ? दुवे गदीओ आगच्छंति-तिरिक्खर्गादिं मणुस्सर्गादि चेव । तिरिक्ख मणुस्सेसु उववण्णल्लया तिरिक्खा मणुस्सा केई छ उपाएंति – केई आभिणिबोहियणाणमुप्पाएंति, केई सुदणाणमुप्पा एंति, केई मोहिणाणमुप्पाएंति, केई सम्मामिच्छत्तमुप्पाएंति, केई सम्मत्तमुप्पाएंति केई संजमासंजममुप्पाएंति । ष० ख० सूत्र १, ६ - ६, २०३- ८ ( पु० ६, पृ० ४८.४-६६ ) मूलाचार में यह प्ररूपणा संक्षेप में की गई है, पर है वह सर्वांगपूर्ण । कौन जीव कहाँ से आते हैं और कहाँ जाते हैं, इत्यादि का विचार यहाँ बहुत स्पष्टता से किया गया है । जैसे बहुत सब अपर्याप्त, सूक्ष्मकाय, सब तेजकाय व वायुकाय तथा असंज्ञी ये सब जीव मनुष्य और तिर्यंचों में से ही आते हैं— उनमें नारकी, देव, भोगभूमिज और भोगभूमिप्रतिभागज जीव आकर उत्पन्न नहीं होते। पृथिवीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक और सब विकलेन्द्रिय ये सब मनुष्य और तिर्यंचों में जाकर उत्पन्न होते हैं। सभी तेजकाय और सभी वायुकाय जीव अनन्तर भव में नियम से मनुष्य पर्याय को नहीं प्राप्त करते हैं । प्रत्येकशरीर वनस्पति तथा बादर व पर्याप्त पृथिवीकायिक एवं जलकायिक जीव मनुष्य, तिर्यंच और देवों में से ही आते हैं । संज्ञी पर्याप्त तिर्यंच जीव मनुष्य, तियंच, देव और नारकी इनमें उत्पन्न तो होते हैं, पर उन सभी में वे उत्पन्न नहीं होते - यदि नारकियों में वे उत्पन्न होते हैं तो केवल प्रथम पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न होते हैं; यदि देवों में उत्पन्न होते हैं तो भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में ही उत्पन्न होते हैं; यदि मनुष्यों और तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं तो भोंगभूमिज, भोगभूमिप्रतिभाग तथा अन्य भी पुण्यशाली मनुष्य - तिर्यंचों में उत्पन्न न होकर शेष मनुष्य-तिर्यंचों में ही उत्पन्न होते हैं । 2 १. सातवीं व छठी आदि पृथिवियों से निकले हुए नारकी कहाँ जाते हैं, तथा वहाँ जाकर वे क्या प्राप्त करते हैं व क्या नहीं प्राप्त करते हैं, इसके लिए देखिए सूत्र १, ६-६, २०३-२० ( पु० ६) । २. मूलाचार १२,१२३-२६ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १५५ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यादि क्रम से मूलाचार में जो विविध जीवों की गति आगतिविषयक प्ररूपणा की गई है वह सरल व सुबोध है । किन्तु ष० ख० में जो इस गति - आगति की प्ररूपणा की गई है वह प्रायः चारों गतियों के अन्तर्गत भेद-प्रभेदों का आश्रय लेकर गुणस्थान क्रम के अनुसार की गई है । इससे विवक्षित जीव की गति प्रागति के क्रम को वहाँ तदनुसार ही खोजना पड़ता है । ' इसके अतिरिक्त मूलाचार में तापस, परिव्राजक और आजीवक आदि अन्य लिंगियों, निर्ग्रन्थ श्रावकों व आर्यिकाओं, निर्ग्रन्थ लिंग के साथ उत्कृष्ट तप करनेवाले अभव्यों और रत्नत्रय से विभूषित दिगम्बर मुनियों आदि के भी उत्पत्ति क्रम को प्रकट किया गया है । ष० ख० में इनकी वह प्ररूपणा उपलब्ध नहीं होती । यद्यपि वहाँ उन तापस आदि के उत्पत्ति के क्रम की प्ररूपणा मनुष्यगति के प्रसंग में मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों की विवक्षा में की जा सकती थी, पर सम्भवतः सूत्रकार को इस विस्तार में जाना अभिप्रेत नहीं रहा । मूलाचार में इस गति - आगति के प्रसंग को समाप्त करते हुए अन्त में यह सूचना की गई है कि इस प्रकार से मैंने सारसमय - व्याख्याप्रज्ञप्ति में जिस गति-आगति का कथन किया गया है उसकी प्ररूपणा तदनुसार ही यहाँ कुछ की है। मुक्तिगमन नियम से मनुष्य गति में ही अनुज्ञात है । 3 गाथा में निर्दिष्ट यह सारसमय कौन-सा आगमग्रन्थ मूलाचार के कर्ता के समक्ष रहा है, यह अन्वेषणीय है । वृत्तिकार आचार्य वसुनन्दी ने उसका अर्थ व्याख्याप्रज्ञप्ति किया है । * इसका आधार उनके सामने सम्भवतः धवला टीका रही है । धवला में उस गति - प्रगति चूलिका का उद्गम उस व्याख्याप्रज्ञप्ति से निर्दिष्ट किया गया है । आ० वसुनन्दी ने मूलाचार की उस वृत्ति में जहाँ-तहाँ धवला का अनुसरण किया है । इसका परिचय आगे धवला से सम्बद्ध ग्रन्थोल्लेख में कराया जानेवाला है । व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम का पाँचवाँ अंग है । उसमें गति प्रागति की भी प्ररूपणा की गई है। १. उदाहरणस्वरूप पूर्वोक्त मूलाचार में जिन अपर्याप्त, सूक्ष्मकाय व तेज- वायुकाय आदि जीवों की गति - भगति की प्ररूपणा की गई है उसके लिए ष० ख० में सूत्र १, ६ - ६, ११२-४० द्रष्टव्य हैं - ( पु० ६, पृ० ४५७-६८ ) २. मूलाचार १२, १३१-३५ आदि । ३. एवं तु सारसमए भणिदा दु गदीगदी मया किंचि । णियमा दु मणुसगदिए णिव्वुदिगमणं अणुण्णादं ।। १४३ || ४. एवं तु अनेन प्रकारेण सारसमये व्याख्याप्रज्ञप्त्यां सिद्धान्ते तस्माद् वा भणिते गति आगती ...। मूला • वृत्ति १२ - १४३ । (यहाँ पाठ कुछ भ्रष्ट हुआ है, क्योंकि इस गाथा की संस्कृत छाया के स्थान में किसी अन्य गाथा की छाया आ गई दिखती है ) । ५. वियाहपण्णत्ती दो गदिरागदी णिग्गदा । - धवला पु० १, पृ० १३० ६. व्याख्याप्रज्ञप्तौ सद्विलक्षाष्टाविंशतिपदसहस्रायां षष्ठिर्व्याकरणसहस्राणि किमस्ति जीवो नास्ति जीवः क्वोत्पद्यते कुत आगच्छतीत्यादयो निरूप्यन्ते । - धवला पु० ६, पृ० २०० १५६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमृतचन्द्र सूरि ने भी इस गति आगति की प्ररूपणा अपने तत्त्वार्थसार में की है।' उसका श्राधार सम्भवत: मूलाचार का यही प्रकरण रहा है। कारण यह कि इन दोनों ही ग्रन्थों में इस प्ररूपणा का क्रम व पद्धति सर्वथा समान है । इतना ही नहीं, कहीं-कहीं तो तत्त्वार्थसार में मूलाचार की गाथाओं का छायानुवाद-सा दिखता है । 3 इसी प्रकार तत्त्वार्थसार में जो योनि, कुल, ' आयु और उत्सेध आदि की प्ररूपणा की गई है उसका आधार भी यही मूलाचार का पर्याप्ति अधिकार हो सकता है । ६. मूलाचार के इस अधिकार में जीवस्थान ( जीवसमास ), गुणस्थान और मार्गणास्थानों आदि की भी जो संक्षेप में प्ररूपणा की गई है" उनकी वह प्ररूपणा ष० ख० के उस सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में यथाप्रसंग की गई है । इस प्रसंग में यहाँ मार्गणाओं के नामों का निर्देश करनेवाली जो गाथा (१२-१५६) आयी है वह थोड़े-से शब्द परिवर्तन के साथ ब० ख० में सूत्र के रूप में उपलब्ध होती है । इसी प्रकार जिन अनन्त निगोदजीवों ने कभी त्रस पर्याय नहीं प्राप्त की है उनका उल्लेख करनेवाली 'अत्थि अनंता जीवा' आदि गाथा (१६२) तथा आगे एक - निगोदशरीर में अवस्थित जीवों के द्रव्यप्रमाण की प्ररूपक 'एगणिगोदसरीरे' आदि गाथा ( १६३), ये दोनों गाथाएँ ष० ख० में सूत्र के रूप में उपलब्ध होती हैं । " ७. मूलाचार में निगोदों में वर्तमान एकेन्द्रिय वनस्पतिकायिकों का प्रमाण अनन्त तथा एकेन्द्रिय पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक और वायुकायिक जीवों का प्रमाण असंख्यात लोकमात्र निर्दिष्ट किया गया है (१६४) । ष० ख० उनका यही प्रमाण कहा गया है । " ८. मूलाचार में सकायिकों का प्रमाण प्रतरच्छेद से निष्पन्न असंख्यात श्रेणियाँ निर्दिष्ट १. तत्त्वार्थसार २,१४६-७५ २. विशेष जानकारी के लिए 'आ० शान्तिसागर स्मृतिग्रन्थ' में 'तत्त्वार्थसार' शीर्षक द्रष्टव्य है - ( पृ० २१५ - २२ ) । ३. संखातीदाऊणं संकमणं नियमदो दु देवेसु । पडी तणुकसाया सव्वेसि तेण बोधव्वा ॥ - मूलाचार १२,१२८ संख्यातीतायुषां नूनं देवेष्वेवास्तु संक्रमः । निसर्गेण भवेत् तेषां यतो मन्दकषायता ॥ - त० सा० २,१६० ४. मूलाचार १२,५८-६३ व त०सा० २,१०५-११ ५. मूलाचार १२, १६६-६६ व त०सा० २,११२-१६ ६. मूलाचार १२,६४-८३ व त०स० २,११७-३५ ७. मूलाचार १२, १४-३० व त०सा० २,१३६-४५ ८. जीवसमास १५२-५३, गुणस्थान १५४-५५, मार्गणास्थान १५६ व इन मार्गणास्थानों में जीवसमास आदि १५७-५६ ६. ष० ख०, पु० १, पृ० १३२ तथा पु० ७, पृ० ६ १०. वही, १४, पृ० २३३ व २३४ ११. सूत्र १,२, ६५ व ८७ (पु० ३) षट्खण्डागम की अन्य प्रन्थों से तुलना / १५७ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया है (गा० १६५) । ०ख० में उनके द्रव्यप्रमाण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि क्षेत्र की अपेक्षा त्रसकायिकों के द्वारा अंगुल के असंख्यातवें भाग रूप वर्ग के प्रतिभाग से जगप्रतर अपहृत होता है।' निष्कर्ष के रूप में धवलाकार ने स्पष्ट किया है कि प्रतरांगुल के असंख्यातवें भाग का जगप्रतर में भाग देने पर जो लब्ध हो उतने त्रसकायिक जीव हैं। ___. मलाचार में गतियों के आश्रय से अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि मनुष्यगति में मनुष्य स्तोक हैं, उनसे नरकगति में वर्तमान जीव असंख्यातगुणे, देवगति में वर्तमान जीव उनसे असंख्यातगुणे, सिद्धगति में वर्तमान मुक्त जीव उनसे अनन्तगुणे और तिर्यंचगति में वर्तमान जीव उनसे अनन्तगुणे हैं । ०ख० के दूसरे खण्ड क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों में अन्तिम अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार है। उसमें अनेक प्रकार से अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। सर्वप्रथम वहाँ मूलाचारगत जिस अल्पबहुत्व का ऊपर उल्लेख किया गया है वह उसी रूप में उपलब्ध होता है। आगे मूलाचार में नरकादि गतियों में से प्रत्येक में भी पृथक्-पृथक् उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है । षट्खण्डागम में आदेश की अपेक्षा चारों गतियों में पृथक्-पृथक् उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा तो की गई है, पर उसका आधार गुणस्थान रहे हैं, इसलिए दोनों में समानता नहीं रही । यथा__ नरकगति में नारकियों में सासादन सम्यग्दृष्टि सबसे स्तोक हैं, सम्यग्गिथ्यादृष्टि संख्यातगुणे हैं, असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं, मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणे हैं । इसी क्रम से आगे प्रथम-द्वितीय आदि पृथिवियों में भी पृथक्-पृथक् उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। किन्तु मूलाचार में गुणस्थानों की अपेक्षा न करके भिन्न रूप में उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है । जैसे___ सातवीं पृथिवी में नारकी सबसे स्तोक हैं, आगे पाँचवीं व छठी आदि पृथिवियों में वे उत्तरोत्तर क्रम से असंख्यातगुणे हैं, इत्यादि । १०. आगे मूलाचार के इस अधिकार में बन्ध के मिथ्यात्वादि कारणों का निर्देश करते हुए बन्ध के स्वरूप को दिखलाकर उसके प्रकृति-स्थिति आदि चार भेदों का उल्लेख किया गया है । तत्पश्चात् प्रकृति-बन्ध के प्रसंग में ज्ञानावरणादि पाठ-आठ मूल प्रकृतियों और उनकी उत्तर प्रकृतियों का उल्लेख किया गया है । आगे उनमें से मिथ्यादृष्टि आदि कितनी प्रकृतियों को १. सूत्र १,२,१०० (पु० ३) २. मूलाचार १२,१७०-७१ ३. सूत्र २,११,१-६ (पु० ७) ४. मूलाचार १२,१७२-८१ ५. सूत्र १,८,२७-३० (पु० ५) १५८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बांधते हैं, इसे भी स्पष्ट किया गया है। स्थितिबन्ध के प्रसंग में मूल कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति को प्रकट किया गया है।' षट्खण्डागम में जीवस्थान-चूलिका के अन्तर्गत प्रथम प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका में मूलउत्तर प्रकृतियों का उल्लेख किया गया है । छठी 'उत्कृष्ट स्थिति' चूलिका में विस्तार से मूलउत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति और सातवीं 'जघन्यस्थिति' चूलिका में उन्हीं की जघन्य स्थिति की प्ररूपणा की गई है। मूलाचार में आगे क्रमप्राप्त अनुभागबन्ध व प्रदेशबन्ध का विचार करते हुए अन्त में केवलशान की उत्पत्ति और मुक्ति की प्राप्ति को स्पष्ट किया गया है और इस अधिकार को समाप्त किया गया है। उपसंहार इस प्रकार मूलाचार के इस पर्याप्ति अधिकार में जो अनेक महत्त्वपूर्ण सैद्धान्तिक विषयों की व्यवस्थित प्ररूपणा की गई है उसकी कुछ समानता यद्यपि प्रसंग के अनुसार प्रस्तुत षट्खण्डागम से देखी जाती है, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि उसका आधार षट्खण्डागम रहा है। कारण यह है कि इन दोनों ग्रन्थों की वर्णनशैली भिन्न है । यथा १. षट्खण्डागम में विवक्षित विषय की प्ररूपणा प्राय: प्रश्नोत्तर शैली मे गद्यात्मक सूत्रों द्वारा की गई है। पर मूलाचार में प्रश्नोत्तर शैली को महत्त्व न देकर गाथासूत्रों में विवक्षित विषय की संक्षेप में विशद प्ररूपणा की गई है। २. षट्खण्डागम में विवक्षित विषय की प्ररूपणा में यथावयश्क कुछ अनुयोगद्वारों का निर्देश तो किया गया है, पर विवक्षित विषय की स्पष्टतया सूचना नहीं की गई है। किन्तु मूलाचार में प्रत्येक अधिकार के प्रारम्भ में मंगलपूर्वक वहाँ विवक्षित विषयों के कथन की प्रतिज्ञा करते हुए तदनुसार ही उन विषयों की प्ररूपणा की गई है। ३. षट्खण्डागम में विषय की प्ररूपणा प्रायः गुणस्थान और मार्गणाओं के आधार से की गई है। किन्तु मलाचार में गुणस्थान और मार्गणा की विवक्षा न करके सामान्य से ही प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा की गई है जो सरल व सुबोध रही है। ___४. षट्खण्डागम का प्रमुख वर्णनीय विषय कर्म सिद्धान्त रहा है । उससे सम्बद्ध होने के कारण उसके प्रथम जीवस्थान खण्ड में प्रोघ और आदेश के अनुसार जो जीवस्थानों की प्ररूपणा की गई है वह अन्य खण्डों की अपेक्षा अतिशय व्यवस्थित और क्रमबद्ध है। ___ मूलाचार का प्रमुख वर्णनीय विषय साधुओं का आचार रहा है। यही कारण है कि धवलाकार वीरसेन स्वामी ने उसका उल्लेख 'आचारांग' के नाम से किया है। यद्यपि उपर्युक्त पर्याप्ति अधिकार में प्ररूपित विषय साधु का आचार नहीं है, पर उससे सम्बद्ध सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का वह विषयभूत है, अतः ज्ञातव्य है । वृत्तिकार प्राचार्य वसुनन्दी ने उस पर्याप्ति १. मूलाचार १२,१८५-६७ व आगे २००-२०२ २. वही, १२,२०३-५ (मूलाचारगत यह चार प्रकार के कर्मबन्ध की प्ररूपणा तत्त्वार्थसूत्र के वें अध्याय में की गई उस कर्मबन्ध की क्रमबद्ध प्ररूपणा के सर्वथा समान है।) ३. धवला पु० ४, पृ० ३१६ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना | १५६ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकार को 'सर्वसिद्धान्तकरणचरणस्वरूप' कहा है। इस परिस्थिति को देखते हुए अधिक सम्भावना तो यही है कि मूलाचार के कर्ता को आचार्य परम्परा से उन विषयों का ज्ञान प्राप्त था, जिसके आश्रय से उन्होंने इस ग्रन्थ की, विशेषकर उस पर्याप्ति अधिकार की रचना की है, तदनुसार ही उन्होंने आनुपूर्वी के अनुसार उसके कथन की प्रतिज्ञा भी है। दोनों ग्रन्थगत सैद्धान्तिक विषयों के विवेचन की इस पद्धति को देखते हुए ऐसा प्रतीत हाता है कि अंग-पूर्वधरों की श्रृंखला के लुप्त हो जाने पर पीछे जो सैद्धान्तिक विषयों का विवेचन होता रहा है वह दो धाराओं में प्रवाहित हुआ है, जिनमें एक धारा का प्रवाह षट्खण्डागम में और दूसरी धारा का प्रवाह मूलाचार व तत्त्वार्थसूत्र आदि में दृष्टिगोचर होता है। यह भी सम्भव है मुलाचार के रचियता को जो श्रत का उपदेश प्राप्त था वह षटखण्डागम की अपेक्षा भिन्न आचार्यपरम्परा से प्राप्त रहा है। कारण यह है कि इतना तो निश्चित है कि श्रतकेवलियों के पश्चात आचार्यपरम्परा में भी सम्प्रदाय भेद हो चका था, यह षटखण्डागम की टीका धवला में निर्दिष्ट अनेक मतभेदों से स्पष्ट है । यह भी नहीं कहा जा सकता कि मूलाचार के कर्ता के समक्ष प्रस्तुत षट्खण्डागम रहा है या नहीं। यह भी यहां ध्यातव्य है कि मूलाचार, विशेषकर उसके उपर्युक्त पर्याप्ति अधिकार में, जिन विषयों की प्ररूपणा की गई है उनमें से अधिकांश की प्ररूपणा उसी पद्धति से यथाप्रसंग तिलोयपण्णत्ती में भी की गई है । इतना ही नहीं, इन दोनों ग्रन्थों के अन्तर्गत कुछ गाथाएँ भी प्रायः शब्दशः समान उपलब्ध होती हैं। इन दोनों ग्रन्थों में से यदि कोई एक ग्रन्थ दूसरे ग्रन्थ के रचयिता के समक्ष रहा हो व उसने अपने ग्रन्थ की रचना में उसका उपयोग भी किया हो तो इसे असम्भव नहीं कहा जा सकता है।" मूलाचार का कर्तृत्व मूलाचार के कर्ता के विषय में विद्वान् प्रायः एकमत नहीं हैं । मा० दि० जन ग्रन्थमाला से प्रकाशित उसके संस्करण में उसे वट्टकेराचार्य विरचित सूचित किया गया है। पर यह नाम कुछ अद्भुत-सा है और वह भी एकरूप में नहीं उल्लिखित हुआ है। इससे कुछ विद्वान उसके १. “शीलगुणाधिकारं व्याख्याय सर्वसिद्धान्तकरणचरणस्वरूपं द्वादशाधिकारं पर्याप्त्याख्यं प्रतिपादयन् मंगलपूर्विकां प्रतिज्ञा आह"--मूलाचार वृत्ति १२-१ की उत्थानिका। २. काऊण णमोक्कारं सिद्धाणं कम्मचक्क मुक्काणं । पज्जत्तीसंगहणी वोच्छामि जहाणुपुन्वीयं ।।-मुलाचार १२-१० ३. ति० प० भाग २ की प्रस्तावना प० ४२-४४ में 'मूलाचार' शीर्षक । ४. तिलोयपण्णत्ती का वर्तमान रूप कुछ सन्देहास्पद है, उसमें पीछे प्रक्षेप हुआ प्रतीत होता है। किन्तु उसकी रचनापद्धति, वर्णनीय विषय की क्रमबद्ध व अतिशय व्यवस्थित प्ररूपणा तथा उसमें उल्लिखित अनेक प्राचीन ग्रन्थों के नामों को देखते हुए उसकी प्राचीनता में सन्देह नहीं रहता। विशेष जानकारी के लिए भाग २ की प्रस्तावना पृ० ६-२० में 'ग्रन्थकार यतिवृषभ' और ग्रन्थ का रचनाकाल शीर्षक द्रष्टव्य हैं। १६० / बट्लण्डागम-परिशीलन Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय में सन्देह करते हैं । इसके अतिरिक्त उसकी कुछ हस्तलिखित प्रतियों में उसके कुन्दकुन्दाचार्य विरचित होने का भी उल्लेख देखा जाता है । स्व० पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने उसके आचार्य कुन्दकुन्द विरचित होने की सम्भावना भी व्यक्त की है । ' उधर स्व० पं० नाथू रामजी प्रेमी उसे प्राय: आचार्य वट्टकेरि विरचित मानते रहे हैं । " मूलाचार के अन्तर्गत विषय की प्ररूपणा पद्धति को, विशेषकर इस 'पर्याप्तिसंग्रहणी' अधिकार की विषयवस्तु और उसके विवेचन की पद्धति को देखते हुए वह आ० कुन्दकुन्द के द्वारा रचा गया है, ऐसा प्रतीत नहीं होता । कुन्दकुन्दाचार्य के उपलब्ध अध्यात्म ग्रन्थों में कहीं भी इस प्रकार का विषय और उसके विवेचन की पद्धति नहीं देखी जाती है । जैसा कुछ भी हो, ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय और उसके विवेचन की पद्धति को देखते हुए उसकी प्राचीनता में सन्देह नहीं रहता । ३. षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र तत्त्वार्थ सूत्र यह आचार्य उमास्वाति अपरनाम गृद्धपिच्छाचार्य विरचित एक महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक ग्रन्थ है । इसका रचना काल सम्भवतः विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में यहाँ मंगलस्वरूप से जो मोक्षमार्ग के नेता, वीतराग और सर्वज्ञ को इन्हीं तीन गुणों की प्राप्ति के लिए नमस्कार किया गया है उससे उसकी आध्यात्मिकता स्पष्ट है । वह शब्दसन्दर्भ में संक्षिप्त होने पर भी अर्थ से विशाल व गम्भीर है। यही कारण है कि उसपर सर्वार्थ सिद्धि तत्त्वार्थवार्तिक और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक जैसे विस्तारपूर्ण टीकाग्रन्थ रचे गये हैं । उसका दूसरा नाम 'मोक्षशास्त्र' भी प्रसिद्ध है, जो सार्थक ही है । कारण यह कि उसकी रचना मोक्षप्राप्ति के उद्देश्य से की गई है, यह सर्वार्थसिद्धि की उत्थानिका से प्रकट है 13 मोक्ष का अर्थ कर्मबन्धन से छूटना है। वह जन्ममरण स्वरूप संसारपूर्वक होता है । उस संसार के कारण आस्रव और बन्ध तथा मोक्ष के कारण संवर और निर्जरा हैं । उक्त आस्रव आदि जीव और अजीव पौद्गलिक कर्म - से सम्बद्ध हैं । इस प्रकार इस ग्रन्थ में आत्मोत्थान में प्रयोजनीभूत इन्हीं जीव अजीवादि सात तत्त्वों का विचार किया गया है । इसीलिए १. 'पुरातन - जैनवाक्य सूची' की प्रस्तावना पृ० १८-१६ २. 'जैन साहित्य और इतिहास' द्वितीय संस्करण पृ० ५४८-५३ ३. कश्चिद् भव्यः प्रत्यासन्ननिष्ठः प्रज्ञावान् "निर्ग्रन्थाचार्यवर्यमुपसद्य सविनयं परिपृच्छति स्म - भगवन् किं नु खलु आत्मने हितं स्यादिति । स आह मोक्ष इति । स एव पुनः प्रत्याह किस्वरूपोऽसौ मोक्षः कश्चास्य प्राप्त्युपाय इति । आचार्य प्राह । स० सि० १-१ (उत्थानिका) । ४. प्रथम अध्याय भूमिकास्वरूप है । २, ३ व ४ इन तीन अध्यायों में जीव के स्वरूप व उसके भेद-प्रभेदों के निर्देशपूर्वक निवासस्थानों को प्रकट किया गया है । ५ वें में अजीव, ६-७ वें में आस्रव ८ दें में बन्ध, हवें में संवर और निर्जरा तथा १० वें अध्याय में मोक्ष इस प्रकार से वहाँ इन सात तत्त्वों की प्ररूपणा की गई है । घट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १६१ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका 'तत्त्वार्थ सूत्र' यह भी सार्थक नाम है । सम्भवतः यह जैन सम्प्रदाय में सूत्र रूप से संस्कृत में रची गई आद्य कृति है । तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता आचार्य उमास्वाति के समक्ष सम्भवतः प्रस्तुत षट्खण्डागम रहा है और उन्होंने उसका उपयोग भी तत्त्वार्थसूत्र की रचना में किया है । यहाँ यह स्मरणीय है कि षट्खण्डागम यह एक कर्मप्रधान आगमग्रन्थ है, जो अविच्छिन्न आचार्य परम्परा से प्रवाहित श्रुत के आधार पर आगमिक पद्धति से रचा गया है । उसमें विविध अनुयोगद्वारों के आश्रय से कर्म की विभिन्न अवस्थाओं की प्ररूपणा की गई है । किन्तु तत्त्वार्थसूत्र, जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, मुमुक्षु जीवों को लक्ष्य करके मोक्ष की प्राप्ति के उद्देश्य से रचा गया है। इसलिए उसमें उन्हीं तत्त्वों की चर्चा की गई है जो उस मोक्ष की प्राप्ति में प्रयोजनीभूत हैं । इसी से इन दोनों ग्रन्थों की रचनाशैली में भेद होना स्वाभाविक है । फिर भी प्रसंगानुरूप कुछ प्रतिपाद्य विषयों की प्ररूपणा दोनों ग्रन्थों में समान देखी जाती है । यथा १. तत्त्वार्थ सूत्र में सर्वप्रथम मोक्ष के मार्गस्वरूप सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का निर्देश करते हुए सम्यग्दर्शन के विषयभूत सात तत्त्वों का उल्लेख किया गया है (१,१-४) । तत्पश्चात् उन तत्त्व विषयक संव्यवहार में प्रयोजनीभूत नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों का निर्देश किया गया है (१-५) 1 षट्खण्डागम में प्रायः सर्वत्र ही प्रकृत विषय का प्रसंगानुरूप बोध कराने के लिए इन चार निक्षेपों की योजना की गई है । ' २. तत्त्वार्थ सूत्र में आगे उक्त सात तत्त्वों विषयक समीचीन बोध के कारणभूत प्रमाण, नय व निर्देश - स्वामित्व आदि के साथ सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अधिकारों का उल्लेख किया गया है ( १, ६-८ ) । ० ख० में मंगल के पश्चात् सर्वप्रथम जीवसमासों - जीवों का जहाँ संक्षेप किया जाता है उन गुणस्थानों की प्ररूपणा में प्रयोजनीभूत गति इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं का ज्ञातव्य स्वरूप से नामोल्लेख करते हुए उन्हीं जीवसमासों की प्ररूपणा में उपयोगी उपर्युक्त सत् ( सत्प्ररूपणा), संख्या ( द्रव्यप्रमाणानुगम) व क्षेत्र आदि आठ अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा गया है (१, २-७) तथा आगे जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड में यथाक्रम से उन्हीं आठ अनुयोग द्वारों के आश्रय से जीवस्थानों की विस्तारपूर्वक प्ररूपणा की गई है। * विशेष इतना है कि ष० ख० में जहाँ आगम परम्परा के अनुसार उक्त आठ अनुयोगद्वारों का उल्लेख सत्प्ररूपणा व द्रव्यप्रमाणानुगम आदि जैसे शब्दों के द्वारा किया गया है वहाँ संस्कृत भाषा में विरचित तत्त्वार्थसूत्र में उनका उल्लेख सत्, संख्या, क्षेत्र आदि नामों से किया गया है । यह भी यहाँ विशेष स्मरणीय है कि तत्त्वार्थसूत्र यह एक अतिशय संक्षिप्त सूत्र ग्रन्थ है, १. सूत्र ४,१,४६-६५ व ७३-७४ ( पु० ६) तथा सूत्र ४, २, १, २-३ ( पु० १० ); ५,३,३-४; ५,४,३-४ व ५,५, ३-४ ( पु० १३ ); ५, ६, २ - १४ आदि (पु० १४ ) । २. सत्प्ररूपणा पु० १ २, द्रव्यप्रमाणानुगम पु० ३, क्षेत्रानुगमादि पु० ३ अनुयोगद्वार पु० ४, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व पु० ५ । १६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए उसमें उन्हीं तत्त्वों का प्रमुखता से विचार किया गया है जो मोक्षमार्ग से विशेष सम्बद्ध रहे हैं । यही कारण है कि वहाँ षट्खण्डागम के समान उन आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से पृथक्-पृथक् जीवस्थानों की प्ररूपणा नहीं को गई है, वहाँ केवल उन आठ अनुयोग - द्वारों के नामों का उल्लेख मात्र किया गया है । उसकी वृत्तिस्वरूप सर्वार्थसिद्धि में उनके आश्रय से ठीक उसी प्रकार से विस्तारपूर्वक उन जीवस्थानों की प्ररूपणा की गई है, जिस प्रकार कि प्रस्तुत षट्खण्डागम में है ।' ३. तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्ज्ञान के प्रसंग में मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल इम पाँच सम्यग्ज्ञानों का उल्लेख किया गया है (१-९) । ० ख० में सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के अन्तर्गत ज्ञानमार्गणा ( के प्रसंग में उन पाँच सम्यग्ज्ञानों के आश्रयभूत पाँच सम्यग्ज्ञानियों का उल्लेख उसी प्रकार से किया गया है। (१,१,११५) । विशेष इतना है कि तत्त्वार्थ सूत्र में जिसका उल्लेख मतिज्ञान के नाम से किया गया है ष० ख० में उसका उल्लेख आगमिक प्रद्धति से प्राभिनिबोधिक के नाम से किया गया है । तत्त्वार्थ' में मतिज्ञान के पर्याय नामों में जहाँ 'अभिनिबोध' का भी निर्देश किया गया है वहाँ ष० ख० में आगे 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणीय के प्रसंग में निर्दिष्ट आभिनिबोधिकज्ञान के पर्याय नामों में 'मतिज्ञान' का भी निर्देश किया गया है । 3 सूत्र ४. तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञान के इन्द्रिय- श्रनिन्द्रियरूप कारणों, अवग्रहादि भेद-प्रभेदों व उनके विषयभूत बहु-आदि बारह प्रकार के पदार्थों का उल्लेख किया गया है; जिनके आश्रय से उसके ३३६ भेद उत्पन्न होते हैं । ० ख० में पूर्वनिर्दिष्ट 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में उस मतिज्ञान अपरनाम ग्राभिनिबोधिकज्ञान के आवारक ग्राभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय के चार, चौबीस, श्रट्टाईस और बत्तीस भेदों का निर्देश करते हुए उनमें चार भेद अवग्रहावरणीय प्रादि के भेद से निर्दिष्ट किये गये हैं । आगे अवग्रहावरणीय के अर्थावग्रहावरणीय और व्यंजनावग्रहावरणीय इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनमें व्यंजनावग्रहावरणीय के श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और स्पर्शन इन चार इन्द्रियों के भेद से चार भेदों का तथा प्रर्थावग्रहावरणीय के पाँचों इन्द्रियों और छठे अनिन्द्रिय ( मन ) इन छह के आश्रय से छह भेदों का उल्लेख किया गया है । आगे यहीं पर उक्त पाँच इन्द्रियों और छठे अनिन्द्रिय के आश्रय से ईहावरणीय, अवायावरणीय और धारणावरणीय इनमें से प्रत्येक के छह-छह भेदों का निर्देश किया गया है । अन्त में उपसंहार के रूप में उक्त प्रभिनिबोधिकज्ञानावरणीय के ४, २४, २८, ३२, ४८, १४४, १. स० सि० १-८ ( पृ० १३ - ५५ ) । २. मति: स्मृति: संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् । त० सू० १-१३ ३. सण्णा सदी मदी चिंता चेदि । सूत्र ५, ५, ४१ (पु० १३) । ( मननं मतिः- स० सि० १-१३ व धवला पु० १३, पृ० २४४ ) ४. त० सू० १,१४- १६ ५. सूत्र ५,५,२२-२८ ( पु० १३, पृ०२१६-२७) षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १६३ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८, १६२, २८८, ३३६ और ३८४ भेदों को ज्ञातव्य कह दिया गया है। ये सब भेद यथासम्भव उसके भेदों, कारणों और विषयभूत बहु-बहुविध आदि १२ पदार्थों के आश्रय से निष्पन्न होते हैं। विशेष इतना है कि मूल ग्रन्थ में उस आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय के उन भेदों को ज्ञातव्य कहकर वहां बहु-बहुविध आदि उन बारह प्रकार के पदार्थों का निर्देश नहीं किया गया है । पर धवलाकार ने तत्त्वार्थसूत्र के 'बहु-बहुविध-क्षिप्रानिःसृतानुक्त-ध्र वाणां सेतराणाम्' इस सूत्र (१-१६) को उद्धृत करते हुए आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय के उन सूत्रोक्त भेदों को विस्तार से उच्चारणपूर्वक स्पष्ट किया है। ५. तत्त्वार्थसूत्र में अवधिज्ञान के भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्त इन दो भेदों का निर्देश करके उनके स्वामियों के विषय में कहा गया है कि भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों और नारकियों के तथा क्षयोपशमनिमित्त अवधिज्ञान शेष- मनुष्य और तिर्यंचों-के होता है। १० ख० में अवधिज्ञान के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । इनके स्वामियों का उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र के ही समान किया गया है। __तत्त्वार्थसूत्र में जहाँ उसके दूसरे भेद का उल्लेख 'क्षयोपशमनिमित्त' के रूप में किया है वहाँ ष० ख० में उसका उल्लेख 'गुणप्रत्यय' के नाम से किया गया है। स्वामियों का उल्लेख दोनों ग्रन्थों में समान है। 'गुण' से यहाँ सम्यक्त्व से अधिष्ठित अणुव्रत और महावत विवक्षित हैं, तदनुमार अणुव्रत या महाव्रत के आश्रय से होनेवाले अवधिज्ञान को गुणप्रत्यय समझना चाहिए। वह मनुष्य और तिर्यचों के ही सम्भव है। कारण यह कि तिर्यंच और मनुष्य-भवों को छोड़कर अन्यत्र अणुव्रत और महाव्रत सम्भव नहीं हैं। ___ तत्त्वार्थसूत्र में 'गुणप्रत्यय' के स्थान में जो 'क्षयोपशमनिमित्तक' के रूप में उसका उल्लेख किया है वह सामान्य कथन है। उससे मिथ्यादृष्टि तिर्यंच व मनुष्यों के अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाले अवधिज्ञान (विभंगावधि) का भी ग्रहण हो जाता है । १० ख० में निर्दिष्ट 'गुणप्रत्यय' से उसका ग्रहण सम्भव नहीं है। यह इन दोनों ग्रन्थों में किये गये उक्त प्रकार के उल्लेख की विशेषता है । अभिप्राय दोनों का यही है कि तिर्यंच और मनुष्यों के जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता है वह अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम की प्रमुखता से होता है। उनमें जिसके सम्यक्त्व है उसका वह अवधिज्ञान गुणप्रत्यय अवधिज्ञान कहा जायगा। किन्तु जिसके सम्यक्त्व नहीं है उसके मिथ्यात्व से सहचरित उस ज्ञान को अवधिज्ञान न कहकर विभंगावधि कहा जाता है । देव-नारकियों के उस अवधिज्ञान में क्षयोपशम के रहने पर भी उसकी प्रमुखता नहीं है, प्रमुखता वहाँ देव-नारक भव की है। ६. तत्त्वार्थसूत्र में क्षयोपशमनिमित्तक उस अवधिज्ञान के छह भेदों का भी निर्देश मात्र १. सूत्र ५,५, २६-३५ (पु० १३, पृ० २३०-३४) २. धवला पु० १३, पृ० २३४-४१ ३. तत्त्वार्थसूत्र १,२१-२२ ४. सूत्र ५,५, ५३-५५ (पु० १३)। ५. अणुव्रत-गुणव्रतानि सम्यक्त्वाधिष्ठानानि गुणः कारणं यस्यावधिज्ञानस्य तद् गुणप्रत्ययकम् । -धवला पु० १३, पृ० २६१-६२ १६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया है । सर्वार्थसिद्धि के अनुसार उसके वे छह भेद इस प्रकार हैं-अनुगामी, अननु. गामी, वर्धमान, ही यमान, अवस्थित और अनवस्थित।' ० ख० में भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय की विवक्षा न करके सामान्य से अवधिज्ञान को अनेक प्रकार का बतलाते हुए उनमें कुछ का उल्लेख इस प्रकार किया गया है-देशावधि, परमावधि, सर्वावधि, हीयमान, वर्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, सप्रतिपाती, अप्रतिपाती, एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र । इस सूत्र (५६) की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि सूत्र में न अनेक प्रकार का है' ऐसा कहने पर सामान्य से अवधिज्ञान अनेक प्रकार का है, ऐसा अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए । ___ इस पर वहाँ यह शंका उठायी गयी है कि इसके पूर्व में जिस गुणप्रत्यय अवधिज्ञान का उल्लेख किया गया है उसे ही अनेक प्रकार का क्यों न कहा जाय । इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वैसा सम्भव नहीं है, क्योंकि भवप्रत्यय अवधिज्ञान में भी अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी और अननुगामी ये भेद पाये जाते हैं । ___ सर्वार्थसिद्धि में क्षयोपशमप्रत्यय अवधिज्ञान के जिन छह भेदों का उल्लेख किया गया है वे १० ख० में निर्दिष्ट उन अनेक भेदों के अन्तर्गत हैं। ___ तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यरूप तत्त्वार्थवार्तिक में अवधिज्ञान के देशावधि, परमावधि और सर्वावधि इन भेदों का भी ष० ख० के समान उल्लेख किया गया है। आगे वहाँ उस अवधिज्ञानोपयोग को एकक्षेत्र व अनेकक्षेत्र के भेद से दो प्रकार का भी निर्दिष्ट किया गया है । यह यहाँ विशेष स्मरणीय है कि सर्वार्थसिद्धिकार और तत्त्वार्थवार्तिककार के समक्ष प्रस्तुत षट्खण्डागम रहा है और उन्होंने अपनी-अपनी ग्रन्थरचना में उसका उपयोग भी किया है। इसका विशेष स्पष्टीकरण इन ग्रन्थों के प्रसंग में आगे किया जानेवाला है। ७. तत्त्वार्थसूत्र में आगे जहाँ मनःपर्ययज्ञान के ऋजुमतिमनःपर्यय और विपुलमतिमन:पर्यय इन दो भेदों का निर्देश किया गया है वहां प० ख० में इन दोनों ज्ञानों की आवरक ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय और विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय इन दो प्रकृतियों का निर्देश किया गया है। विशेष इतना है कि ष० ख० में ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय को ऋजुमनोगत आदि के भेद से तीन प्रकार का और विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय को ऋजु-अनजुमनोगत आदि के भेद से छह प्रकार का कहा गया है। इसके अतिरिक्त वहाँ इन दोनों ज्ञानों के विषयभेद १. स० सि० १-२२ २. सूत्र ५,५, ५६ (पु० १३, पृ० २६२) ३. धवला पु० १३, पृ० २६३ । ४. 'त० वा० १, २२,५ ५ स एषोऽवधिज्ञानोपयोगो द्विधा भवति एकक्षेत्रोऽनेकक्षेत्रश्च । श्री-वृषभ-स्वस्तिक-नंद्या वर्ताद्यन्यतमोपयोगोपकरण एकक्षेत्र: । तदनेकोपकरणोपयोगोऽनेकक्षेत्र: । त० वा० १, २२, ५ (पृ० ५७)। ६. त० सूत्र १-२३ और षट्खण्डागम सूत्र ५,५,६०-६१ (पु० १३, पृ० ३१८) षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १६५ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को भी प्रकट किया है । ' तत्त्वार्थ सूत्र के भाष्यभूत तत्त्वार्थवार्तिक में उपर्युक्त तीन प्रकार के ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञानावरणीय के द्वारा प्राब्रियमाण तीन प्रकार के ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान को और छह प्रकार के विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानावरणीय के द्वारा आव्रियमाण छह प्रकार के विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान को स्पष्ट किया है । साथ ही वहाँ इन दोनों मन:पर्ययज्ञानों के विषयभेद को भी प्रकट किया है । " ८. तत्त्वार्थसूत्र में पूर्वोक्त क्रम से उन मति आदि पाँच सम्यग्ज्ञानों का निर्देश करके आगे मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान विपर्यय भी होते हैं, यह स्पष्ट कर दिया गया है । 3 षट्खण्डागम में इन तीन मिथ्याज्ञानों का उल्लेख पूर्वोक्त पाँच सम्यग्ज्ञानों के साथ ही किया गया है । * यह तत्त्वार्थ सूत्र में जहाँ 'ज्ञान' शब्द व्यवहृत हुआ है वहीं षट्खण्डागम में 'ज्ञानी' शब्द IT व्यवहार हुआ है । इस विषय में धवलाकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पर्याय और पर्यायी में कथंचित् अभेद होने से पर्यायी (ज्ञानी) का ग्रहण करने पर भी पर्यायस्वरूप ज्ञान का ही ग्रहण होता है । " ६. तत्त्वार्थसूत्र में जीवादि तत्त्वों के अधिगम के कारणभूत प्रमाण और नय में प्रथमतः प्रत्यक्ष-परोक्ष स्वरूप प्रमाण का विचार करके तत्पश्चात् नय का निरूपण करते हुए उसके ये सात भेद निर्दिष्ट किये गये हैं—नगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत (१-३३) । जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, ष० ख० में प्रतिपाद्य विषय के विवेचन के पूर्व उसके विषय में प्रायः सर्वत्र नामादि निक्षेपों के साथ नयों की योजना की गई है । यद्यपि वहाँ तत्त्वार्थ सूत्र के समान नामनिर्देशपूर्वक नयों की संख्या का उल्लेख नहीं किया गया है, फिर भी वहाँ नैगम, व्यवहार, संग्रह, ऋजुस्त्र और शब्द इन पाँच नयों का ही प्रचुरता से उपयोग किया गया है । शब्दय के भेद भूत समभिरूढ और एवंभूत इन दो नयों का उल्लेख षट्खण्डागम में १. ष० ख० सूत्र ५, ५, ६२-७८ ( पु० १३, पृ० ३१६-४४ ) २. त० वा० १, २३, ६-१० ३. त० सूत्र १, ६ व ३१-३२ ४. ष० ख० पु० १, सूत्र १,११५ ( पृ० ३५३ ), तत्त्वार्थ सूत्र २ - ६ ( स द्विविधोऽष्ट- चतुर्भेदः) द्रष्टव्य है । ५. अत्रापि पूर्ववत् पर्याय- पर्यायणोः कथंचिदभेदात् पर्यायिग्रहणेऽपि पर्यायस्य ज्ञानस्यैव ग्रहणं भवति । ज्ञानिनां भेदाद् ज्ञानभेदोऽवगम्यते इति वा पर्यायिद्वारेणोपदेशः । धवला पु० १, पृ० ३५३ ६. सूत्र ४,१,४६-५० ( पु० ) । ४,२, २, १ - ४ व ४, २, ३, १२ एवं १५, ४, २, ६, २ व ११ और १४, ४,२, १०, २ व ११, २ व ६ और १२, ४,२,१२,२ व ६, ६ और ११ ( पु० ५, ५, ५-८ ( पु०१३) । ५, ६, ३-६ व ७२-७४ ( पु० १४ ) । १६६ / षट्खण्डागम-परिशीलन १-४ ( पु० १० ) । ४,२, ८, २ व ३०, ४८, ५६ और ५८ ४,२, १२ ) । ५,३, ५-८ ५,४, ५-८, Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहीं उपलब्ध नहीं होता।' साथ ही वहाँ व्यवहार नय का उल्लेख पूर्व में और संग्रह मय का उल्लेख उसके पीछे किया गया है। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा यहाँ इन दो नयों के विषय में क्रम-भेद भी हुआ है। श्वे० सम्प्रदाय में भाष्यसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार प्रथमत: नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द इन पाँच नयों का नामनिर्देश करके तत्पश्चात् आद्य नय के दो और शब्द नय के तीन भेद प्रकट किये गये हैं। इसे भाष्य में स्पष्ट करते हुए 'आद्य' से नैगमनय को ग्रहण कर उसके देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी इन दो भेदों का तथा शब्द के साम्प्रत, समभिरूट और एवंभूत इन तीन भेदों का निर्देश किया गया है। १०. तत्त्वार्थसूत्र के दूसरे अध्याय में जीवतत्त्व का निरूपण करते हुए सर्वप्रथम जीव के. निज तत्त्वस्वरूप औपशमिक, क्षायिक, मिश्र (क्षायोपशमिक), औदयिक और पारिणामिक इन पाँच भावों का उल्लेख किया गया है तथा आगे क्रम से उनके दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन भेदों को भी स्पष्ट किया गया है। षट्खण्डागम में जीवस्थान के अन्तर्गत सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों में सातवाँ एक स्वतन्त्र भावानुयोगद्वार है । उसमें ओघ और आदेश की अपेक्षा उन भावों की प्ररूपणा पृथक्पृथक् विस्तार से की गई है । ओघ से जैसे-मिथ्यादृष्टि को औदयिक, सासादन सम्यग्दृष्टि को पारिणामिक, सम्यग्मिथ्यादृष्टि को क्षायोपशमिक, असंयम को औदयिक, संयमासंयम आदि तीन को क्षायोपशमिक, चार उपशामकों को औपशमिक तथा चार क्षपकों और सयोगअयोग केवलियों को क्षायिक भाव कहा गया है। __इसी प्रकार से आगे आदेश की अपेक्षा यथाक्रम से गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में भी उन भावों की प्ररूपणा की गई है। इस प्रकार प० ख० के उस भावानुयोगद्वार में पृथक्-पृथक् एक-एक भाव को लेकर विशदता की दृष्टि से प्रश्नोत्तर शैली में जिन भावों की विस्तार से प्ररूपणा की गई है वे सभी भाव संक्षेप में तत्त्वार्थसूत्र के उन सूत्रों (२,१-७) में अन्तर्भूत हैं।। १. अपवाद के रूप में यह एक सूत्र उपलब्ध है- सद्दादओ णामकदि भावकदि इच्छंति ॥ -५० (पु. ६)। यहाँ सूत्र में प्रयुक्त 'सद्दादओ' विचारणीय है। इसके पूर्व यदि शब्द, समभिरूढ और एवंभूत इन तीन नयों का कहीं उल्लेख कर दिया गया होता तो 'सद्दादओ' (शब्दादयः) यह कहना संगत होता । 'सद्दादओ' में आदि शब्द से किन का ग्रहण अभिप्रेत है, यह भी स्पष्ट नहीं है। धवला में भी 'तिसु सद्दणएसु णामकदी वि जुज्जदे' इतना मात्र कहा गया है, उन तीन का स्पष्टीकरण वहाँ भी नहीं किया गया है । २. नगम-संग्रह-व्यवहारर्जुसूत्र-शब्दा नयाः । आद्य-शब्दौ द्वित्रिभेदौ । त० सूत्र १, ३४-३५ ३. त० सूत्र २,१-७ ४. षट्खण्डागम (पु० ५) सूत्र १,७,१-६ (क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत 'स्वामित्व' अनुयोगद्वार भी द्रष्टव्य है-पु० ७, पृ० २५-११३) षट्खण्डागम की अन्य प्रन्थों से तुलना / १६७ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस स्थिति को देखते हुए यदि यह कहा जाय कि ष० ख० के उस भावानुयोग द्वार का तत्त्वार्थसूत्र में संक्षेपीकरण किया गया है तो असंगत नहीं होगा। तत्त्वार्थसूत्र की इस अर्थबहुल संक्षिप्त विवेचन पद्धति को देखते हुए उसमें सूत्र का यह लक्षण पूर्णतया घटित होता है ___ अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् गूढनिर्णयम् ।। निर्दोषं हेतुमत् तथ्यं सूत्रमित्युच्यते बुधैः ॥ इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम के पांचवें वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत जो 'बन्धन' अनुयोगद्वार है उसमें बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान इन चार की प्ररूपणा की गई है। उनमें नाम-स्थापनादि के भेद से चार प्रकार के बन्ध की प्ररूपणा से प्रसंग में नोआगमभावबन्ध का विवेचन करते हुए उसके दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-जीवभावबन्ध और अजीवभावबन्ध । इनमें जीवभावबन्ध विपाक प्रत्ययिक, अविपाकप्रत्ययिक और तदुभयप्रत्ययिक के भेद से तीन प्रकार का है। इनमें विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध के लक्षण में कहा गया है कि कर्मोदयप्रत्ययिक जो भाव उदयविपाक से उत्पन्न होते हैं उन्हें जीवभावबन्ध कहा जाता है। वे भाव कौन-से हैं, इसे स्पष्ट करते हुए उनका उल्लेख वहाँ इस प्रकार किया गया है-(१) देव, (२) मनुष्य, (३) तिर्यंच, (४) नारक, (५) स्त्रीवेद, (६) पुरुषवेद, (७) नपुंसक वेद, (८) क्रोध, (९) मान, (१०) माया, (११) लोभ, (१२) राग, '(१३) द्वेष, (१४) मोह, (१५) कृष्णलेश्या, (१६) नीललेश्या, (१७) कापोतलेश्या, (१८) तजोलेश्या, (१६) पद्मलेश्या, (२०) शुक्ललेश्या, (२१) असंयत, (२२) अविरत, (२३) अज्ञान और (२४) मिथ्यादृष्टि । कर्मोदय के आश्रय से होनेवाले इन सब भावों को औदयिक समझना चाहिए। तत्त्वार्थसूत्र में इन औदयिक भावों का निर्देश इस प्रकार है-गति ४, कषाय ४, लिंग (वेद) ३, मिथ्यादर्शन १, अज्ञान १, असंयत १, असिद्धत्व १, और लेश्या ६ । ये सब २१ हैं ।' __ तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा यदि षट्खण्डागम में (१२) राग, (१३) द्वेष, (१४) मोह और (२२) अविरत ये चार भाव अधिक हैं तो तत्त्वार्थसूत्र में षट्खण्डागम की अपेक्षा एक 'असिद्धत्व' अधिक है। इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में निर्दिष्ट इन औदयिक भावों में जो थोड़ी-सी-हीनाधिकता देखी जाती है उसका कोई विशेष महत्त्व नहीं दिखता। कारण यह कि षट्खण्डागम में जिन रागद्वेष आदि अधिक भावों का निर्देश किया गया है उनका तत्त्वार्थसूत्र में अन्यत्र अन्तर्भाव हो जाता है। जैसे--धवलाकार के अभिमतानुसार राग माया और लोभ स्वरूप है, द्वेष क्रोध और मानस्वरूप है, तथा मोह पाँच प्रकार के मिथ्यात्वादिस्वरूप है। १. धवला पु० ६, पृ० २५६ पर उद्धृत । २. षट्खण्डागम सूत्र ५,६,१५ (पु० १४, पृ० १०-११) ३. त० सूत्र २-६ ४. रागो विवागपच्चइयो, माया-लोभ-हस्स-रदि-तिवेदाणं दव्वकम्मोदयजणिदत्तादो । दोसो विवागपच्चइयो, कोह-माण-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं दव्वकम्मोदयजणिदत्तादो। पंचविहमिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं सासणसम्मत्तं च मोहो, सो विवागपच्चइयो; मिच्छत्तसम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधीणं दव्वकम्मोदजणिदत्तादो।-धवला पु० १४, पृ० ११ १६८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदनुसार ये तत्त्वार्थसूत्र में निर्दिष्ट चार कषायों और मिथ्यादर्शन में अन्तर्भत हो जाते हैं । सामान्य से असंयम और अविरत में विशेष भेद नहीं समझा जाता है। इसी अभिप्राय से सम्भवतः तत्त्वार्थसूत्र में असंयम से भिन्न 'अविरत' का अतिरिक्त उल्लेख नहीं किया गया। सूत्र में असंयम और अविरत दोनों का पृथक्-पृथक् उल्लेख होने से धवला में उनकी विशेषता को प्रकट करते हुए समितियों से सहित अणुव्रत और महाव्रतों को संयम तथा समितियों से रहित उन महाव्रत और अणुव्रतों को विरति कहा है (पु० १४, पृ० ११-१२)। तत्त्वार्थसूत्र में जो षट्खण्डागम से एक 'असिद्धत्व' अधिक है उसका अन्तर्भाव षटखण्डागम में चार गतियों में समझना चाहिए। तत्त्वार्थसूत्र में चूंकि मोक्ष को लक्ष्य में रखा गया है, इसीलिए सम्भवतः वहाँ 'असिद्धत्व' का पृथक् से उल्लेख किया गया है। इस प्रकार उक्त रीति से जिस प्रकार औदयिक भावों की प्ररूपणा प्रायः दोनों ग्रन्थों में समान रूप से की गई है उसी प्रकार औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भावों की प्ररूपणा भी दोनों ग्रन्थों में लगभग समान रूप में ही की गई है। विशेष इतना है कि तत्त्वार्थसूत्र में जहाँ उस जाति के अनेक भावों को विवक्षित भाव के अन्तर्गत करके उनकी प्ररूपणा संक्षेप में की गई है वहाँ ष० ख० में ऐसे अनेक भावों का पृथक्-पृथक् उल्लेख करके उनकी प्ररूपणा विस्तार से की गई है। जैसे-----क्रोध-मानादि के उपशम व क्षय के होने पर उत्पन्न होनेवाले भावों का पृथक्-पृथक् उल्लेख । किन्तु ऐसे भावों का वहाँ पृथक्-पृथक् उरलेख करने पर भी तत्त्वार्थसूत्र निर्दिष्ट दो औपशमिक, नौ क्षायिक और अठारह क्षायोपशमिक भाव षट्खण्डागम में निर्दिष्ट भावों में समाविष्ट हैं। ___ एक विशेषता यह अवश्य देखी जाती है कि तत्त्वार्थसूत्र (२-७) में जिन तीन जीवत्व आदि पारिणामिक भावों का भी उल्लेख किया गया है उनका उल्लेख षट्खण्डागम में नहीं है । इस प्रसंग में वहाँ धवला में यह शंका की गई है कि जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व आदि जीवभाव पारिणामिक भी हैं; उनकी प्ररूपणा यहाँ क्यों नहीं की गई है। इसके समाधान में वहाँ कहा गया है कि वायु आदि प्राणों के धारण करने का नाम जीवन है । वह अयोगिकेवली के अन्तिम समय के आगे नहीं रहता, क्योंकि सिद्धों के प्राणों के कारणभूत आठ कर्मो का अभाव हो चुका है। इसलिए जीवल पारिणामिक नहीं है, किन्तु कर्मविपाकजन्य (औदयिक) है। तत्दार्थसत्र में जो जीवभाव को पारिणामिक कहा गया है वह प्राणधारण की अपेक्षा नहीं कहा गया, किन्तु चेतना गुण का आश्रय लेकर कहा गया है । चार अघाति कर्मों के उदय से उत्पन्न प्रसिद्धत्व दो प्रकार का है.-अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित । इनमें जिन जीवों का असिद्धत्व अनादि-अपर्यवसित है उनका नाम अभव्य है तथा जिनका वह असिद्धत्व अनादि-सपर्यवसित है वे भव्य जीव है। इसलिए भव्यत्व और अभव्यत्व ये विपाकप्रत्ययिक (प्रौदयिक) ही हैं। तत्वार्थसूत्र में जो उन्हें पारिणामिक कहा गया है वह असिद्धत्व की अनादि-अपर्यवसितता और अनादि-सपर्यवसितता को निष्कारण मानकर कहा गया है। १. औपशमिक-त० सूत्र २-३ व षट्खण्डागम ५, ६, १७ । क्षायिक--त० सूत्र २-४ व षट्खण्डागम ५,६,१८ । क्षायोपशमिक-त० सूत्र २-५ व १० ख० ५,६, १६ २. धवला पु० १४, पृ० १३-१४ षट्खण्डागम को अन्य ग्रन्थों से तुलना / १६६ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार धवलाकार ने तत्त्वार्थसूत्र के साथ समन्वय करके उपर्युक्त शंका का समाधान कर दिया है। किन्तु इसके पूर्व इसी षट्खण्डागम के पूर्वोक्त भावानुगम अनुयोगद्वार में भव्य मार्गणा के प्रसंग में अभव्यत्व को पारिणामिक भाव कहा जा चुका है।' यद्यपि वहाँ मूल में भव्यत्व का उल्लेख नहीं है, फिर भी प्रसंग प्राप्त उस सूत्र की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने भव्यत्व को भी पारिणामिक भाव ही प्रकट किया है।' आगे क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत स्वामित्वानुगम अनुयोगद्वार में भी भव्यत्व और अभव्यत्व दोनों को पारिणामिक कहा गया है । ११. तत्त्वार्थसूत्र में आगे इसी अध्याय में सामान्य से जीवों के संसारी और मुक्त इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनमें संसारी जीवों के समनस्क (संज्ञी) और अमनस्क (असंज्ञी) इन दो भेदों के साथ उनके दो भेद त्रस और स्थावर का भी निर्देश किया गया है । तत्पश्चात् उनमें स्थावर कौन हैं और त्रस कौन हैं, इसे स्पष्ट करते हुए पृथिवी, जल, तेज, वायु और वनस्पति इन पाँच को स्थावर तथा द्वीन्द्रिय आदि (त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय) को त्रस कहा गया है। ष० ख० में पूर्वोक्त जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वारों में से प्रथम सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में काय मार्गणा के प्रसंग में सर्वप्रथम पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक और अकायिक (कायातीत मुक्त) जीवों का उल्लेख किया गया है । तत्पश्चात् यथाक्रम से पृथिवीकायिक आदि पांच स्थावर जीवों के बादरसूक्ष्म व पर्याप्त-अपर्याप्त आदि भेद-प्रभेदों को प्रकट किया गया है।५।। यद्यपि सूत्र में उन पृथिवीकायिक आदि पाँच का उल्लेख स्थावर के रूप में नहीं किया गया है, तो भी धवलाकार ने उनके स्थावरस्वरूप को प्रकट कर दिया है। आगे प्रसंगप्राप्त उन पृथिवीकायिकादिकों में पर्याप्त-अपर्याप्तता आदि का विचार करते हुए द्वीन्द्रिय आदिकों को त्रस कहा गया है। उक्त क्रम से स्थावर और त्रस जीवों के भेद-प्रभेदों के निर्देशपूर्वक वहाँ यथा सम्भव गणस्थानों के अस्तित्व को भी प्रकट करते हुए प्रसंग के अन्त में यह स्पष्ट कर दिया है कि उक्त सशरीर (संसारी) स्थावर व त्रसों से परे अका यिक—शरीर से रहित मुक्त--जीव हैं। १. अभवसिद्धिय त्ति को भावो? पारिणामिओ भावो ।-सूत्र १,७,६३ (पु० ५)। २. कुदो ? कम्माणमुदएण उवसमेण खएण खओवसमेण वा अभवियत्ताणुपत्तीदो। भवियत्तस्स वि पारिणामिओ चेव भावो, कम्माणमुदय-उवसम-खय-खोव समेहि भवियत्ताणुप्पत्ती दो।-धवला पु० ५, पृ० २३० ३. भवियाणुवादेण भवसिद्धिओ अभवसिद्धिओ णाम कधं भवदि ? पारिणामिएण भावेण । सूत्र २,१,६४-६५ (पु० ७, पृ० १०६) ४. तत्त्वार्थसूत्र २, १०-१४ ५. सूत्र १,१,३६-४१ (पु० १, पृ० २६४-६८) ६. एते पञ्चापि स्थावरा:, स्थावर-नामकर्मोदयजनितविशेषत्वात् ।-धवला पु० १, २६५ ७. सूत्र १,१,४४ (पु० १, पृ० ३७५) ८. तेण परमकाइया चेदि । सूत्र १,१,४६ १७०/षट्खण्डागम-परिशीलन Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र और षट्खण्डागम में आगे-पीछे प्रायः समान रूप में संसारी और मुक्त जीवों का विचार किया गया है। १२ तवत्तर्थसूत्र में यहाँ प्रसंगप्राप्त इन्द्रियों के विषय में विचार करते हुए सर्वप्रथम इन्द्रियों की पाँच संख्या का निर्देश करके उनके द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय इन दो भेदों का उल्लेख स्वरूपनिर्देशपूर्वक किया गया है । तत्पश्चात् उन पाँच इन्द्रियों के नामनिर्देशपूर्वक उनके विषयक्रम को भी दिखलाया गया है । आगे सूत्रनिर्दिष्ट क्रम (२-१३) के अनुसार यह स्पष्ट कर दिया गया है कि 'वनस्पति' पर्यन्त उन पृथिवी आदि पाँच स्थावरों के एक मात्र स्पर्शन इन्द्रिय होती है तथा आगे कृमि-पिपीलिका आदि के क्रम से उत्तरोत्तर एक-एक इन्द्रिय बढ़ती गई है। षट्खण्डागम में पूर्वोक्त सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के अन्तर्गत इन्द्रिय मार्गणा के प्रसंग में प्रथमत: एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय-इन्द्रियातीतसिद्ध -इनके अस्तित्व को प्रकट किया गया है। आगे उन एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रियादिकों के भेदों का निर्देश करते हुए अन्त में इन्द्रियातीत सिद्धों का भी उल्लेख है।' तत्त्वार्थसूत्र में सामान्य से इन्द्रिय के द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय इन दो भेदों का निर्देश करते हए उनके अवान्तर भेदों को भी प्रकट किया गया है तथा आगे एक व दो आदि इन्द्रियाँ किन जीवों के होती हैं, इसे भी स्पष्ट किया गया है। किन्तु मूल षट्खण्डागम में इसका विचार नहीं किया गया है । धवला में अवश्य प्रसंगप्राप्त उस सबकी प्ररूपणा की गई है। इस प्रसंग में वहाँ यह एक शंका उठायी गई है कि अमुक जीव के इतनी ही इन्द्रियाँ होती हैं, यह कैसे जाना जाता है। इसके समाधान में 'उसका ज्ञान आर्ष से हो जाता है' यह कहते हुए धवलाकार ने इस गाथासूत्र को उपस्थित कर उसके अर्थ को भी स्पष्ट किया है एइंदियस्स फुसणं एक्कं चिय होइ सेसजीवाणं । होति कमवडिढयाई जिब्भा-घाणक्खि-सोत्ताह ।। अनन्तर 'अथवा' कहकर उन्होंने विकल्प के रूप में 'कृमि-पिपीलिका-भ्रमर-मनुष्यादी नामेकैकवृद्धानि' इस सूत्र (तत्त्वार्थसूत्र २-२३) को प्रस्तुत करते हुए उसके भी अर्थ को स्पष्ट किया है। १३. तत्त्वार्थसूत्र में समनस्क जीवों को संज्ञी और अमनस्क जीवों को असंज्ञी प्रकट किया गया है (२-२४) । षट्खण्डागम के पूर्वोक्त सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में संज्ञी मार्गणा के प्रसंग में उन संज्ञी-असंज्ञी जीवों के विषय में विचार किया गया है (सूत्र १,१, १७२-७४)। १४. तत्त्वार्थसूत्र में जो आहारक जीवों का उल्लेख किया गया है (२-३०) वह अनाहार जीवों का सूचक है। __ष० ख० के उस सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में आहार मार्गणा के प्रसंग में आहारक-अनाहारक जीवों के विषय में विचार किया गया है (सूत्र १,१,७५-७७) । १. तत्त्वार्थसूत्र २, १५-२३ २. षट् खण्डागम सूत्र १,१, ३३-३८ (पु० १, पृ० २३१-६४) ३. धवला पु० १, पृ० २३२-४६ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना | १७१ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. तत्त्वार्थसूत्र में औदारिक आदि पांच शरीरों को प्ररूपणा के प्रसंग में प्रदेशों की अपेक्षा उनकी हीनाधिकता, तेजस व कार्मण शरीर की विशेषता, एक जीव के एक साथ सम्भव शरीर, जन्म की अपेक्षा शरीर विशेष की उत्पत्ति तथा आहारक शरीर का स्वरूप व स्वामी; इत्यादि के विषय में अच्छा प्रकाश डाला गया है।' १० ख० में बन्धन अनुयोगद्वार के अन्तर्गत एक 'शरीर-प्ररूपणा' नाम का स्वतंत्र अधिकार है। उसमें नामनिरुक्ति आदि छह अवान्तर अनुयोगद्वारों के आश्रय से शरीरविषयक प्ररूपणा की गई है। पर तत्त्वार्थसूत्र से जिस प्रकार संक्षेप में शरीर के विषय में जानकारी उपलब्ध हो जाती है वैसी सरलता से प० ख० में वह उपलब्ध नहीं होती। वहाँ आग मक पद्धति से उन शरीरों के विषय में प्रदेश व निषेक आदि विषयक प्ररूपणा विस्तार से की ____ तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यभूत सत्त्वार्थवार्तिक में प्रसंग पाकर संज्ञा, स्वलाक्षण्य, स्वकारण, स्वामित्व, सामर्थ्य, प्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, संख्या, प्रदेश, भाव और अल्पबहुत्व आदि अधिकारों में पाँचों शरीरों की परस्पर भिन्नता प्रकट की गई है, जो षट्खण्डागम से कुछ भिन्न है। इस प्रसंग में यहां स्वकारण की अपेक्षा उनमें भिन्नता को प्रकट करते हुए वैक्रियिक शरीर का सद्भाव देव-नारकियों, तेजकायिकों, वायुकायिकों, पंचेन्द्रिय तिर्यचों व मनुष्यों के प्रकट किया गया है। इस प्रसंग में शंकाकार द्वारा यह शंका की गई है कि जीवस्थान में योगमार्गणा के प्रसंग में सात काययोगों के स्वामियों को दिखलाते हुए औदारिक काययोग और औदारिक मिश्रकायंयोग तिर्यच-मनुष्यों के तथा वैक्रियिक काययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोग देव-नारकियों के कहा गया है । परन्तु यहाँ उनका सद्भाव तिर्यंच-मनुष्यों के भी कहा जा रहा है, यह आर्ष के विरुद्ध है । इसके उत्तर में वहाँ आगे कहा गया है कि अन्यत्र वैसा उपदेश है। व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकों में शरीरभंग के प्रसंग में वायु के औदारिक, वैक्रियिक, तैजस और कार्मण ये चार शरीर कहे गये हैं तथा मनुष्यों में भी उनका सद्भाव प्रकट किया गया है । आगे प्रसंगप्राप्त इस विरोध का परिहार करते हुए कहा गया है कि देव-नारकियों में सदा वैक्रियिक शरीर के देखे जाने से जीवस्थान में उन दो योगों का विधान किया गया है, किन्तु लब्धि के निमित्त से उत्पन्न होनेवाला वह वैक्रियिक शरीर तिर्यंच-मनुष्यों में सबके और सदाकाल नहीं रहता । व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकों में उनके कादाचित्क अस्तित्व के देखे जाने से उन तिर्यंच-मनुष्यों में उक्त चार शरीरों का विधान किया गया है, इस प्रकार अभिप्रायभेद होने से दोनों के कथन में कुछ भी विरोध नहीं है।' १६. कर्मादान के कारणभूत कार्मण काययोग का सद्भाव जिस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में विग्रहगति बतलाया गया है उसी प्रकार षट्खण्डागम में भी उसका सद्भाव विग्रहगति में दिखलाया गया है । विशेष इतना है कि ष०ख० में विग्रहमति के साथ समुद्घातगत केवलियों १. त० सूत्र २, ३६-४६ २. १०ख०, पु० १४, सूत्र २३६-५०१, पृ० ३२१-४३० ३. त० वा० २,४६, ८ पृ० १०८-१० १७२/पट्खण्डागम-परिशीलन Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के भी उसका सद्भाव प्रकट किया गया है।' १७. तत्त्वार्थसत्र में आहारक शरीर का सद्भाव प्रमत्तसंयत के ही प्रकट किया गया है।' किन्तु ष० ख० में योग मार्गणा के प्रसंग में आहारककाययोग का सद्भाव सामान्य से ऋद्धिप्राप्त संयतों के निर्दिष्ट किया गया है। वहाँ विशेष रूप में प्रमत्तमंयत का कोई उल्लेख नहीं किया गया, जबकि तत्त्वार्थसूत्र में अवधारणपूर्वक उसका सद्भाव प्रमत्तसंयत के ही कहा गया है। इसके अतिरिक्त ष० ख० में तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा 'ऋद्धिप्राप्त' यह विशेषण अधिक है। वह आहारकशरीर प्रमत्तसंयत के क्यों होता है, इसे स्पष्ट करते हुए सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है कि जब आहारकशरीर के निर्वर्तन को प्रारम्भ किया जाता है तब संयत प्रमाद से यक्त होता है, इसीलिए सूत्र में उसका सद्भाव प्रमत्तसंयत के कहा गया है। __ आगे जाकर ष० ख० में भी विशेष रूप से स्वामित्व को प्रकट करते हुए उन आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोग का सद्भाव एक मात्र प्रमत्त संयत गुणस्थान में ही निर्दिष्ट किया गया है। धवलाकार ने पूर्व सूत्र (५६) की उत्थानिका में 'आहारशरीरस्वामिप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह' ऐसी सूचना की है और तत्पश्चात् अगले सूत्र (६३) की उत्थानिका में उन्होंने 'आहारकाययोगस्वामिप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह' ऐसी सूचना की है। इस स्थिति को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृत आहारकशरीर और आहारककाययोग के स्वामियों के विषय में परस्पर कुछ मतभेद रहा है, जिसे मूल ग्रन्थ और टीका में स्पष्ट नहीं किया गया है। १८. तत्त्वार्थसूत्र में नारकी और सम्मूर्च्छन जन्मवाले जीवों को नपुंसकवेदी, देवों को नपुंसकवेद से रहित-पुरुष-वेदी व स्त्रीवेदी-तथा इन से शेष रहे सब जीवों को तीनों वेदवाले कहा गया है। __ष० ख० के उक्त सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में वेदमार्गणा के प्रसंग में सामान्य से स्त्रीवेदी, पुरुष वेदी और नपुंसकवेदी इन तीनों वेदवाले जीवों के अस्तित्व को दिखा कर आगे गुणस्थान की प्रमुखता से स्त्री और पुरुष इन दो वेदवाले जीवों का अस्तित्व असंज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण तक और नपुंसकवेदियों का अस्तिव एकेन्द्रिय से लेकर अनिवृत्तिकरण तक प्रकट किया गया है । आगे के गुणस्थानवी जीव वेद से रहित होते हैं। इस प्रकार सामान्य से वेद की स्थिति को प्रकट करके आगे गतियों में उस वेद की स्थिति दिखलाते हुए कहा गया है कि नारकी जीव चारों गुणस्थानों में शुद्ध-स्त्री व पुरुषवेद से १. त० सूत्र २-२५ व ष० ख० १,१,६० (पु० १, पृ० २६८) २. त० सूत्र २-४६ ३. ष० ख० १,१, ५६ (पु० १, पृ० २६७) ४. यदाऽऽहारकशरीरं निवर्तयितुमारभते तदा प्रमत्तो भवतीति प्रमत्तसंयतस्येत्युच्यते। . -स०सि० १-४६ ५. सूत्र १,१, ६३ (पु० १, पृ० ३०६) ६. धवला पु० १, पृ० २६७ और ३०६ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १७३ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहित--एक नपुंसक वेद से युक्त होते हैं । एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रियपर्यन्त सब तिर्यच शुद्ध नपुंसकवेदी होते हैं तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय से लेकर संयतासंयत तक वे तिर्यंच तीनों वेदों से सहित होते हैं । मनुष्य मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक तीनों वेदवाले हैं और उस अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के आगे सब उस वेद से रहित होते हैं। चारों गुणस्थानवर्ती देव स्त्री और पुरुष इन दो वेदों से युक्त होते हैं।' इस प्रकार गुणस्थान जी प्रमुखता से ष० ख० में जो वेदविषयक प्ररूपणा की गई है उसका अभिप्राय तत्त्वार्थसूत्र के उन सूत्रों में संक्षेप से प्रकट कर दिया गया है । १६. तत्त्वार्थसूत्र में यथाप्रसंग नारकियों. मनुष्य-तिर्यंचों और देवों की उत्कृष्ट व जघन्य आयु की प्ररूपणा की गई है। १० ख० में आयु की वह प्ररूपणा दूसरे क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों में से दूसरे 'एक जीव की अपेक्षा कालानुगम' अनुयोगद्वार में गति मार्गणा के प्रसंग में की गई है । विशेष इतना है कि वहाँ वह सामान्य, पर्याप्त व अपर्याप्त आदि विशेषता के साथ कुछ विस्तारपूर्वक की गई है, जब कि तत्त्वार्थसूत्र में उन भेदों की विवक्षा न करके वह सामान्य से की गई है। जैसे तत्त्वार्थसूत्र में पृथिवीक्रम के अनुसार नारकियों को उत्कृष्ट आयु १,३,७,१०,१७,२२ और ३३ सागरोपम (सूत्र ३-६) तथा जघन्य अायु उनकी द्वितीयादि पृथिवियों में क्रम से १,३,७,१०,१७ और २२ सागरोपम निर्दिष्ट की गई है। प्रथम पृथिवी में उनकी जघन्य आयु दस हजार वर्ष कही गई है (४,३५-३६) । ष० ख० में भी उनकी आयु का प्रमाण यही कहा गया है (सूत्र २,२,१-६)। तत्त्वार्थसूत्र में मनुष्यों की उत्कृष्ट और जघन्य आयु क्रम से तीन पल्योपम और अन्तर्मुहूर्त कही गई है (३-३८)। १० ख० में उसका उल्लेख मनुष्य सामान्य व मनुष्यपर्याप्त आदि भेदों के साथ किया गया है, फिर भी मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यणी की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट आयु पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक तीन पल्योपम प्रमाण ही कही गई है (२,२,१६-२२)। __ यहाँ १० ख० में जो उसे पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक तीन पल्योपम कहा गया है उसमें मनुष्यपर्याय की विवक्षा रही है । जो कर्मभूमि का मनुष्य यहाँ की आयु को बिताकर दान के अनुमोदन से भोगभूमि में मनुष्य उत्पन्न होता है उसके यह मनुष्य पर्याय का काल घटित होता है । इसी पद्धति से आगे तिर्यंचों और देवों के कालप्रमाण की भी प्ररूपणा इन दोनों ग्रन्थों में अपनी-अपनी पद्धति से की गई है। २० तत्त्वार्थसूत्र में स्कन्ध और अणुरूप पुद्गल भेद, संघात अथवा भेद-संघात से किस १. १० ख० सूत्र १,१,१०१-११० २. त० सूत्र ३-६ (उत्कृष्ट) व ४,३५-३६ (जघन्य) ३. वही ३,३८-३६ ४. वही ४, २८-४२ ५. सूत्र २,२,२१ की धवला टीका (पु० ७, पृ० १२५-२६) १७४ | षट्खण्डागम-परिशीलन Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार उत्पन्न होते हैं, इसे संक्षेप में स्पष्ट करते हुए कहा है कि स्कन्ध तो भद, संघात और भेद संघात से उत्पन्न होते हैं, किन्तु परमाणु केवल भेद से उत्पन्न होते हैं (५,२६-२८ ) । ० ख० में यह स्कन्ध और अणुरूप पुद्गलों की उत्पत्ति की प्ररूपणा बहुत विस्तार से की गई है । उसमें पाँचवें वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत बन्धन अनुयोगद्वार में बन्धनीय (वर्गणाओं) की प्ररूपणा १६ अनुयोगद्वारों के प्राश्रय से की गई है। उनमें 'वर्गणानिरूपणा' नामक चौथे अनुयोगद्वार में एक द्विप्रदेशी आदि वर्णणाएँ क्या भेद से उत्पन्न होती हैं, क्या संघात से उत्पन्न होती हैं और क्या भेद-संघात से उत्पन्न होती हैं; इसका विचार विस्तार से किया गया है ।' दोनों ग्रन्थों में संक्षेप और विस्तार से की गई प्ररूपणा में यथासम्भव कुछ समानता रही ही है । यथा- तत्त्वार्थसूत्र में अणु की उत्पत्ति भेद से प्रकट की गई है (५-२७ ) । ० ख० में भी परमाणुस्वरूप एकप्रदेशिक परमाणुपुद्गल द्रव्यवर्गणा की उत्पत्ति तत्त्वार्थसूत्र के समान भेद से ही प्रकट की गई है। तत्वार्थ सूत्र में द्वि-प्रदेशी आदि स्कन्धों की उत्पत्ति भेद, संघात और भेद-संघात से निर्दिष्ट की गई है (५-२६) । ष० ख० में भी आगे स्कन्धस्वरूप द्वि-त्रिप्रदेशी आदि वर्गणाओं की उत्पत्ति यथासम्भव भेद, संघात और भेद-संघात से निर्दिष्ट की गई है 13 २१. तत्त्वार्थसूत्र में परमाणुओं के परस्पर में होनेवाले एकात्मकतारूप बन्ध का विचार करते हुए कहा गया है कि परमाणुओं का जो परस्पर में बन्ध होता है वह स्निग्ध और रूक्ष गुणनिमित्त से होता है । इसे विशेष रूप में स्पष्ट करते हुए वहाँ आगे यह स्पष्ट कर दिया गया है कि स्निग्ध और रूक्ष गुण के आश्रय से होनेवाला वह बन्ध जघन्य गुणवाले परमाणुओ का अन्य किन्हीं भी परमाणुओं के साथ नहीं होता है । गुण से अभिप्राय यहाँ स्निग्धता और रूक्षता के प्रविभागप्रतिच्छेदरूप अंशों का रहा है। तदनुसार जिन परमाणुओं में स्निग्धता व रूक्षता का जघन्य - सबसे निकृष्ट - अंश रहता है, अन्य परमाणुओं के साथ उनके बन्ध का प्रतिषेध किया गया है। आगे चलकर उन गुणों की समानता में समानजातीय परमाणुओं के भी बन्ध का निषेध किया गया है। उदाहरण के रूप में दो गुण स्निग्धवाले परमाणुओं का दो गुण रूक्षवाले परमाणुओं के साथ, तीन गुण स्निग्धवाले परमाणुओं का तीन गुण रूक्षवाले परमाणुओं के साथ, दो गुण स्निग्धवाले परमाणुओं का अन्य दो गुण स्निग्धवाले तथा दो गुण रूक्षवाले परमाणुओं का अन्य दो गुण रूक्षवाले परमाणुओं के साथ बन्ध नहीं होता है । तब फिर कितने स्निग्ध व रूक्ष गुणवाले परमाणुत्रों में परस्पर बन्ध होता है, इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि वह बन्ध दो-दो गुणों से अधिक परमाणुओं में हुआ करता है । जैसे -- दो गुण स्निग्ध परमाणु का चार गुण स्निग्ध परमाणु के साथ बन्ध होता है, किन्तु १. ष० ख० सूत्र ५, ६, ६८-११६ (५० १४, पृ० १२० - ३३ ) २. वग्गणनिरूवणदाए इमा एयपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणाणाम किं भेदेण किं संघादेण किं भेद-संघादेण ? उवरिल्लीणं दव्वाणं भेदेण । सूत्र ६८-६६ ( पु० १४, पृ० १२० ) । ३. प० ख० सूत्र ५,६,१०० ११६ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १७५ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका एक गुण स्निग्ध, दो गुण स्निग्ध और तीन गुण स्निग्ध अन्य परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता है। उसी दो गुण स्निग्धवाले परमाणु का अन्य पाँच गुण स्निग्ध व छह सात आदि संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त गुणवाले किसी भी परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता है। चार गुण स्निग्ध का छह गुणस्निग्ध परमाणु के साथ बन्ध होता है, अन्य किन्हीं के साथ नहीं होता है। इस प्रकार दो-दो गुण अधिक ( तीन-पांच, चार-छह, पाँच-सात आदि) परमाणुओं में उस बन्ध को समझना चाहिए ।" ष० ख० में भी परमाणुओं व स्कन्धों में होनेवाले इस बन्ध की प्ररूपणा की गई है । वहाँ पूर्वनिर्दिष्ट बन्धन अनुयोगद्वार में सादिविस्रसाबन्ध का विचार करते हुए प्रथम तो समान स्निग्धता और रूक्षता के प्रभाव में बन्ध का सद्भाव दिखलाया गया है, तत्पश्चात् समान स्निग्धता और रूक्षता के होने पर उनमें परस्पर बन्ध का निषेध भी किया गया है । इसका अभिप्राय यह है कि स्निग्ध परमाणुओं का रूक्ष परमाणुओं के साथ और रूक्ष परमाणुओं का स्निग्ध परमाणुओं के साथ बन्ध होता है— स्निग्ध स्निग्ध परमाणुओं में और रूक्ष रूक्ष परमाणुओं में समानता रहने से बन्ध नहीं होता । इसी अभिप्राय को आगे गाथासूत्र द्वारा स्पष्ट किया गया है। आगे जाकर वही सूत्र पुनः अवतरित हुआ है - वेमादा गिद्धदा वेमादा ल्हुक्खता बंधो। ३५ इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने कहा है कि इस सूत्र के पूर्वोक्त अर्थ के अनुसार स्निग्ध पुद्गलों का स्निग्ध पुद्गलों के साथ और रूक्ष पुद्गलों का रूक्ष पुद्गलों के साथ गुणाविभाग प्रतिच्छेदों से समान अथवा असमान होने पर भी बन्ध के अभाव का प्रसंग प्राप्त होने पर उनमें भी बन्ध होता है; यह जतलाने के लिए इसका दूसरा अर्थ कहा जाता है । तदनुसार पूर्वोक्त अर्थ से उसका भिन्न अर्थ करते हुए उन्होंने कहा है कि 'मादा' (मात्रा) का अर्थ अविभाग प्रतिच्छेद है । इस प्रकार जिस स्निग्धता में दो मात्रा अधिक अथवा हीन होती हैं। वह स्निग्धता बन्ध की कारण है । अभिप्राय यह है कि स्निग्ध पुद्गल दो अविभागप्रतिच्छेदों से अधिक अथवा दो अविभाग प्रतिच्छेदों से हीन स्निग्ध पुद्गलों के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं, किन्तु तीन आदि अविभाग प्रतिच्छेदों से अधिक अथवा तीन पुद्गलों के साथ वे बन्ध को प्राप्त नहीं होते । यही अभिप्राय रूक्ष पुद्गलों के विषय में भी व्यक्त किया गया है । आगे इस अर्थ के निर्णय की पुष्टि एक अन्य गाथासूत्र द्वारा की गई है। 3 यह गाथासूत्र तत्त्वार्थवार्तिक में भी 'उक्तं च' के साथ इस प्रसंग में उद्धृत है । " पर त० वा० में उसके चतुर्थ चरण में उपयुक्त 'विसमे समे' का अर्थ जहाँ समान जातीय और असमान जातीय विवक्षित रहा है वहाँ धवला में उसके अर्थ में गुणविभाग- प्रतिच्छेदों से १. त० सूत्र ५, ३३-३६ २. ष० ख० ५,६, ३२-३४ ( पु० १४, पृ० ३०-३१ ) ३. सूत्र ३५-३६ (पु० १४, पृ० ३२-३३) । पूर्व में धवलाकार ने 'वेमादा' में 'वि' का अर्थ विगत और 'मादा' का अर्थ सदृश किया था, तदनुसार 'वेमादा' का अर्थ विसदृश रहा है। ४. त० वा० ५,३५,१ ( पृ० २४२ ) १७६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूक्षपुद्गल के सदृश स्निग्ध पुद्गल का नाम सम और उनसे असमान का नाम विषम अभीष्ट रहा है। इस प्रकार परमाणुपुद्गलों के बन्ध के विषय में तत्त्वार्थसूत्र और ष० ख० में कुछ मतभेद रहा है । धवलाकार ने तत्त्वार्थसूत्र के साथ उसका समन्वय करने का कुछ प्रयत्न किया है, ऐसा प्रतीत होता है । २२. तत्त्वार्थसूत्र से क्रमप्राप्त आस्रव तत्त्व की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में पृथक्पृथक् ज्ञानावरणादि कर्मों के आस्रवों-बन्धक के कारणों का विचार किया गया है।' षट्खण्डागम में चौथे वेदनाखण्ड के अन्तर्गत दूसरे वेदना अनुयोगद्वार में निर्दिष्ट १६ अधिकारों में ८वा 'वेदनाप्रत्ययविधान' है। उसमें पृथक्-पृथक् ज्ञानावरणादि वेदनाओं के प्रत्ययों (कारणों) की प्ररूपणा की गई है। ___ दोनों ग्रन्थगत उस प्ररूपणा में विशेषता यह रही है कि तत्त्वार्थसूत्र में जहाँ उन ज्ञानावरणादि के कारणों की प्ररूपणा नयविवक्षा के बिना सामान्य से की गई है वहाँ षट्खण्डागम में उनकी वह प्ररूपणा नयविवक्षा के अनुसार की गई है यथा तत्त्वार्थसूत्र में ज्ञानावरण और दर्शनावरण इन दो कर्मों के आस्रव ज्ञान और दर्शन से सम्बद्ध इस प्रकार निर्दिष्ट हैं- प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपधात ।' उधर षट्खण्डागम में नैगम, व्यवहार और संग्रह इन तीन नयों की अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठों कर्मवेदनाओं के ये प्रत्यय निर्दिष्ट किए गए हैं प्राणातिपात आदि पाँच पाप, रात्रि-भोजन, क्रोध आदि चार कषाय, राग, द्वेष, मोह, प्रेम, निदान, अभ्याख्यान, कलह, पैशून्य, रति, अरति, उपाधि, निकृति, मान (प्रस्थ आदि माप के उपकरण), माय (मेय), मोष (स्त्येय), मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और प्रयोग ।' ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा प्रकृति-प्रदेशाग्र का कारण योग और स्थिति-अनुभाग का रण कषाय कहा गया है। शब्दनय की अपेक्षा उन्हें अवक्तव्य कहा गया है, क्योंकि उस नय की दृष्टि में पदों के मध्य में समास सम्भव नहीं है। पखण्डागम में निर्दिष्ट ये कारण व्यापक तो बहुत हैं, पर तत्त्वार्थसूत्र में निर्दिष्ट संक्षिप्त कारणों के द्वारा जिस प्रकार पृथक्-पृथक् उन ज्ञानावरणादि के बन्ध का सरलता से बोध हो जाता है उस प्रकार षट्खण्डागम में निर्दिष्ट उन प्रचुर कारणों से भी वह बोध सरलता से नहीं हो पाता। इसके अतिरिक्त जिन कारणों का अन्तर्भाव वहीं पर निर्दिष्ट अन्य कारणों में सम्भव है उनका उल्लेख भी पृथक् से किया गया है। जैसे-राग, द्वेष, मोह, प्रेम, रति, अरति, निकृति-ये चार कषायों एवं मिथ्यादर्शन से भिन्न नहीं है-उनके अन्तर्भूत होते हैं । 'मोष' १. त० सूत्र ६,१०-२७ २. वही, ६-१० (तत्त्वार्थसार में ज्ञानावरण और दर्शनावरण इन दोनों के कारणों का पृथक्___ पृथक् उल्लेख किया गया है-त० सूत्र ४,१३-१६) ३. सूत्र ४,२,८,१-११ (पु० १२, पृ० २७५-८७) ४. वही, १२-१४ ५. वही, १५-१६ बारबड़ागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १७७ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह अदत्तादान (स्त्येय) में गर्भित होता है । सूत्रोक्त इन प्रत्ययों की भिन्नता को प्रकट करने के लिए धवलाकार ने ऐसे प्रत्ययों के स्वरूप का उल्लेख पृथक्-पृथक् किया है । यथा सामान्य से मिथ्यात्व, अविरति (असंयम ), कषाय और योग ये चार बन्ध के कारण माने गये हैं ।' तदनुसार धवलाकार ने ष० ख० में निर्दिष्ट उन सब कारणों का अन्तर्भाव इन्हीं चार में प्रकट किया है । प्राणातिपात आदि पाँच पापों और रात्रिभोजन को उन्होंने असंयम प्रत्यय कहा है । आगे उन्होंने क्रोध मान को आदि लेकर मोष पर्यन्त सब कारणों को कषाय प्रत्यय, मिथ्याज्ञान और मिथ्यादर्शन को मिथ्यात्व प्रत्यय और प्रयोग को योग प्रत्यय निर्दिष्ट किया है । " यहाँ धवला में यह शंका की गई है कि 'प्रमाद' प्रत्यय का उल्लेख यहाँ क्यों नहीं किया। इसके उत्तर 'कहा गया है कि इन प्रत्ययों से बहिर्भूत प्रमाद प्रत्यय नहीं पाया जाता । २३. तत्त्वार्थसूत्र में इसी प्रसंग में तीर्थंकर प्रकृति के बन्धक सोलह कारणों का उल्लेख विशेष रूप से किया गया है। * ० ख० के तीसरे खण्ड बन्धस्वामित्व विचय में बन्धक - अबन्धक जीवों की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध के उन सोलह करणों का निर्देश किया गया है । " दोनों ग्रन्थों में जो उन दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारणों का निर्देश किया गया है वह प्रायः शब्दश: समान है । यदि कहीं कुछ थोड़ा शब्दभेद भी दिखता है तो भी अभिप्राय में समानता है । ष० ख० में निर्दिष्ट उन सोलह कारणों के अन्तर्गत क्षण-लवप्रतिबोधनता और अभीक्ष्णअभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता इन दो कारणों में आपाततः समानता दिखती है। पर उनमें विशेषता है, जिसे धवलाकार ने इस प्रकार स्पष्ट किया है सम्यग्दर्शन, ज्ञान, व्रत और शील इन गुणों को उज्ज्वल करना, कलंक को धोना अथवा दग्ध करना इसका नाम प्रतिबोधनता है । इसमें प्रतिसमय ( निरन्तर ) उद्यत रहना, इसका नाम श्रण- लव तिबोधनता है । अभीक्ष्ण-अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगयुक्तत्ता में ज्ञानोपयोग से भावश्रुत और द्रव्यश्रुत अभिप्रेत है, उसमें बार-बार ( निरन्तर ) उद्य ुक्त रहना, यह अभीक्ष्ण-अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता का लक्षण है । १. धवला पु० ८, पृ० १६-२८ २. एवमसंजमपच्चओ परूविदो । संपहि कसायपच्चयपरूवणट्टमुत्तरसुत्त भणदि । धवला पु० १२, पृ० २८३, क्रोध-माण - माया-लोभ-राग-दोस- मोह-पेम्म णिदाण-अब्भक्खाणकलह - पेसुण्ण-रदि-अरदि-उवहिणियदि माण- माय-मोसेहि कसायपच्चओ परुविदो । मिच्छणाण-मिच्छदंसणेहि मिच्छत्तपच्चओ णिद्दिट्ठो । पओगेण जोगपच्चत्रो परुविदो | - ( पु० १२, पृ० २८६ ) उल्लेख किया गया है— .... ३. त०सू० में उन चार कारणों के साथ प्रमाद का भी पृथक् से मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमाद - कषाय- योगा बन्धहेतवः । -- (त० सू० ८- १ ) ४. त०सू० ६-२४ ५. ष० ख० सूत्र ३, ३६-४१ (पु० ८) १७८ / घटखचदागम-परि Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों ग्रन्थों में निर्दिष्ट वे कारण संख्या में सोलह ही हैं। त० सू० में यदि उनमें क्षणलवप्रतिबोधनता का उल्लेख नहीं किया गया है तो ष० ख० में प्राचार्यभक्ति का उल्लेख नहीं है । तत्त्वार्थसूत्र में अनिर्दिष्ट उस क्षण-लवप्रतिबोधनता का अन्तर्भाव अभीक्ष्ण-अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगयुक्ता में सम्भव है। इसी प्रकार ष० ख० में अनिर्दिष्ट आचार्यभक्ति का अन्तर्भाव बहुश्रुतभक्ति में सम्भव है। तीर्थकर प्रकृति के बन्धक वे सोलह कारण पृथक्-पृथक् उस तीर्थंकर प्रकृति के बन्धक हैं या समस्त रूप में, इसे स्पष्ट करते हुए सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है कि समीचीनतया भाव्यमान वे सोलह कारण व्यस्त और समस्त भी तीर्थंकर नाम कर्म के प्रास्रव के कारण हैं।' प० ख० में प्रसंगप्राप्त सूत्र की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने उन सोलह कारणों में से पृथक-पृथक प्रत्येक में शेष पन्द्रह कारणों का अन्तर्भाव सिद्ध किया है । इस प्रकार से उन्होंने शेष पन्द्रह कारणों से गर्भित प्रत्येक को पृथक्-पृथक् उस तीर्थंकर प्रकृति का बन्धक सूचित किया है । अन्त में 'अथवा' कहकर उन्होंने विकल्प के रूप में यह भी कहा है कि सम्यग्दर्शन के होने पर शेष कारणों में से एक-दो आदि कारणों के संयोग से उस तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है, यह कहना चाहिए। इस प्रकार तीर्थंकर प्रकृति के बन्धक उन कारणों के विषय में प्रायः दोनों ग्रन्थों का अभिप्राय समान रहा है। २४. तत्त्वार्थसूत्र में आगे अवसरप्राप्त बन्ध तत्त्व का विचार करते हुए सर्वप्रथम वहाँ बन्ध के इन पाँच कारणों का निर्देश किया गया है--मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । पश्चात् बन्ध के स्वरूप का निर्देश करते हुए उसके इन चार भेदों का उल्लेख किया गया है-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्ध । आगे उनमें प्रकृतिबन्ध को ज्ञानावरणादि के भेद से आठ प्रकार बतलाते हुए उनमें प्रत्येक के भेदों की संख्या का निर्देश यथा क्रम से इस प्रकार किया है-पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, ब्यालीस, दो और पाँच । अनन्तर निर्दिष्ट संख्या के अनुसार यथाक्रम से ज्ञानावरणादि के उन भेदों का नामनिर्देश भी है। १० ख० में जीवस्थान से सम्बद्ध नौ चूलिकाओं में जो प्रथम प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका है उसमें सर्वप्रथम पृथक्-पृथक् ज्ञानावरण आदि उन आठ मूल प्रकृतियों के और तत्पश्चात् यथाक्रम से उनकी उत्तरप्रकृतियों के नामों का निर्देश किया गया है। आगे वहाँ पाँचवें वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में भी लगभग उसी प्रकार से उन मूल और उत्तर प्रकृतियों का नामनिर्देशपूर्वक उल्लेख पुनः किया गया है । यहाँ विशेषता केवल यह रही है कि प्राभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय आदि के उत्तरोत्तर भेदों का भी उल्लेख हुआ है। इसके अतिरिक्त प्रसंग पाकर वहाँ अवधिज्ञान और मनःपयर्यज्ञान के भेदों व उनके विषय को भी स्पष्ट किया गया है । १. बारहंगधारया बहुसुदा णाम ।-धवला पु० ८, पृ० ८६ २. स० सि. ६-२४ ३. धवला पु० ८, पृ०७६-६१ ४. त० सूत्र ८, १-१३ ५. षट्खण्डागम पु० ६, सूत्र १, ६-१, ३-२८ व ४५-४६ ६. सूत्र ५,५, १६-१५४ (पु० १३) षटखण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना | १७६ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों ग्रन्थगत उन कर्मप्रकृतियों के भेदों में प्रायः शब्दशः नानता है । नामकमं के भेदो का निर्देश करते हुए तत्त्वार्थसूत्र में जहाँ गति-जाति आदि पिण्डप्रकृतियों के साथ ही अपिण्ड प्रकृतियों और उनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियों का भी निर्देश कर दिया गया है वहाँ षट्खण्डागम में ब्यालीस पिण्डप्रकृतियों का निर्देश करके आगे यथाक्रम से पृथक्-पृथक् सूत्रों द्वारा गतिजाति आदि पिण्डप्र कृतियों के उत्तरभेदों को भी प्रकट कर दिया गया है ।' २५. तत्त्वार्थसूत्र में आगे यहीं पर स्थितिबन्ध के प्रसंग में ज्ञानावरणादि की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति को प्रकट किया गया है । " 'मूल प्रकृतियों षट्खण्डागम में पूर्वोक्त नौ चूलिकाओं में छठी उत्कृष्ट स्थिति और सातवीं जघन्यस्थिति चूलिका है। उनमें यथाक्रम से मूल और उत्तर सभी कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थितियों की प्ररूपणा की गई है । तत्त्वार्थ सूत्र की अपेक्षा षट्खण्डागम में इतनी विशेषता रही है कि वहाँ उत्तर - प्रकृतियों की भी उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति की प्ररूपणा की गई है। साथ ही अपनी अपनी स्थिति के अनुसार यथासम्भव उनके आबाधा काल और निषेकरचना - क्रम को भी प्रकट किया गया है । 3 २६. तत्त्वार्थसूत्र में क्रमप्राप्त संवर और निर्जरा इन दो तत्त्वों का व्याख्यान करते हुए तप के आश्रय से होनेवाली कर्मनिर्जरा के प्रसंग में जिन सम्यग्दृष्टि व श्रावक आदि के उत्तरोतर क्रम से असंख्यात गुणी निर्जरा होती है उनका उल्लेख किया गया है। * ष० ख० में वेदना खण्ड के अन्तर्गत दूसरे वेदना - अनुयोगद्वार में जो १६ अनुयोगद्वार हैं उनमें सातवाँ वेदनाभावविधान है । उसकी प्रथम चूलिका के प्रारम्भ में दो गाथासूत्रों द्वारा उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित क्रम से होनेवाली उस निर्जरा की प्ररूपणा की गई है। दोनों ग्रन्थों में प्ररूपित निर्जरा का वह क्रम समान रहा है तथा उसके आश्रयभूत सम्यग्दृष्टि व श्रावक आदि भी समान रूप में वे ही हैं । विशेष इतना है कि उस निर्जरा के अन्तिम स्थानभूत 'जिन' का उल्लेख यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र में और ष० ख० के गाथासूत्र में सामान्य से ही किया है, फिर भी ष० ख० में आगे जो उन दो गाथासूत्रों का गद्यात्मक सूत्रों में स्पष्टीकरण है उसमें 'जिन' के अधःप्रवृत्तकेवली संयत और योगनिरोधकेवली संयत ये दो भेद किये हैं । इस प्रकार वहाँ गुण श्रेणिनिर्जरा के ग्यारह स्थान हो गये हैं । " १. त० सूत्र ८-११ व षट्खण्डागम सूत्र १, ६ १, २८ ४४ ( पु० ६) तथा ५, ५, ११६-५० ( पु० १३) । २. तत्त्वार्थसूत्र ८, १४-३० ३. छठी चूलिका पृ० १४५-७६, सातवीं पृ० १८०-२०२ (पु० ६) । ४. तत्त्वार्थसूत्र - ४५ ५. पु० १२, पृ० ७८ ६. पु० १२, सूत्र ४, २, ७, १८४ ८७ ७. ये दोनों गाथासूत्र शिवशर्मसूरि विरचित कर्मप्रकृति में भी उपलब्ध होते हैं (उदय ८- ९ ) । वहाँ जिणे यणियमा भवे असंखेज्जा' के स्थान में 'जिणे य दुविहे असंखगुणसेढी' पाठभेद है । टीकाकर मलयगिरि सूरि ने 'जिणे य दुविहे' से सयोगी और अयोग जिनो को ग्रहण किया है । १८० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र व उसकी व्याख्यास्वरूप सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में भी इन दो भेदों का उल्लेख नहीं है। । दूसरी विशेषता यह भी है कि षट्खण्डागम के उन दो गाथासूत्रों में दूसरे गाथासूत्र के उत्तरार्ध में उस निर्जरा के उत्तरोत्तर असंख्यातगणित काल का भी विपरीत क्रम से निर्देश किया गया है । तत्त्वार्थसूत्र में यह नहीं है। उपसंहार जैसा कि ऊपर के विवेचन से स्पष्ट हो चुका है, षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र दोनों महत्त्वपूर्ण सूत्रग्रन्थ हैं तथा उनमें प्ररूपित अनेक विषयों में परस्पर समानता भी देखी जाती है। फिर भी दोनों की रचनापद्धति भिन्न है व उनकी अपनी-अपनी कुछ विशेषताएँ भी हैं । यथा-- (१) षटखण्डागम जहाँ गद्यात्मक प्राकृत सत्रों में रचा गया है वहां तत्त्वार्थसत्र संस्कृत गद्य-सूत्रों में रचा गया है व सम्भवतः जैन सम्प्रदाय में वह संस्कृत में रची गई आद्य कृति है। (२) षट्खण्डागम आगम पद्धति के अनुसार प्रायः प्रश्नोत्तरशैली में रचा गया है, इसलिए उसमें पुनरावृत्ति भी बहुत हुई है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में उस प्रश्नोत्तर शैली को नहीं अपनाया गया, वहां विवक्षित विषय की प्ररूपणा अत्यन्त संक्षेप में की गई है, इससे ग्रन्थ प्रमाण में वह अल्प है, फिर भी आवश्यक तत्त्वों का विवेचन उसमें सवांगपूर्ण हुआ है। (३) षट्खण्डागम में पारिभाषिक शब्दों का लक्षणनिर्देशपूर्वक स्पष्टीकरण नहीं किया गया। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के संक्षिप्त होने पर भी उसमें कहीं-कहीं पारिभाषिक शब्दों का लक्षण निर्देशपूर्वक आवश्यकतानुसार स्पष्टीकरण भी किया गया है। (४) षट्खण्डागम की रचना श्रुतविच्छेद के भय से हुई है, इसीलिए उसमें सैद्धान्तिक विषयों की प्ररूपणा की गई है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र की रचना मोक्ष को लक्ष्य में रखकर की गई है, अत: उसमें उन्हीं तत्त्वों का विवेचन है जो मोक्ष की प्राप्ति में प्रयोजनीभूत रहे हैं। तत्त्वार्थसूत्र के तीसरे और चौथे अध्याय में जो भौगोलिक विवेचन किया गया है वह भी प्रयोजनीभूत व आवश्यक रहा है। कारण यह कि कौन जीव मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं और कौन जीव उसे नहीं प्राप्त कर सकते हैं तथा कहाँ से उसकी प्राप्ति सम्भव है और कहाँ से वह सम्भव नहीं है; इत्यादि का परिज्ञान करा देना भी लक्ष्य की पूर्ति के लिए आवश्यक रहा है । संस्थानविचय धर्मध्यान में इसी सबका चिन्तन किया जाता है। (५) तत्त्वार्थसूत्र में चचित ऐसा भी बहुत कुछ विषय है, जिसकी प्ररूपणा षट्खण्डागम में उपलब्ध नहीं होती। जैसे-तीसरे-चौथे अध्याय का भौगोलिक वर्णन, पाँचवें अध्याय में प्ररूपित अजीव तत्त्व, सातवें अध्याय में वर्णित व्रत व उनके अतिचार आदि, नौवें अध्याय में प्ररूपित गुप्ति-समिति आदि तथा दसवें अध्याय में प्ररूपित मोक्ष व उसकी विशेषता। इस स्थिति के होते हुए भी सम्भावना तो यही की जाती है कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता आ० उमास्वाति के समक्ष प्रस्तुत षट्खण्डागम रहा है व उन्होंने उसका उपयोग अपनो पद्धति से तत्त्वार्थसूत्र की रचना में भी किया है, पर निश्चित नहीं कहा जा सकता । हाँ, तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्याता आ० पूज्यपाद और भट्टाकलंक देव के समक्ष वह षट्खण्डागम रहा है व उन्होंने षट्खण्डागम की अन्य प्रन्थ से तुलना / १८१ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका भरपूर उपयोग भी किया है, यह निश्चित कहा जा सकला है । यह आगे सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक के साथ तलनात्मक विचार के प्रसंग से स्पष्ट हो जाएगा। तत्त्वार्थसूत्र में प्ररूपित जिन अन्य विषयों का ऊपर निर्देश किया गया है उनकी प्ररूपणा के आधार कदाचित् ये ग्रन्थ हो सकते हैं (१) तत्त्वार्थसूत्र के तीसरे-चौथे अध्याय में जो लोक के विभागों की प्ररूपणा की गई है उसका आधार आ० सर्वनन्दी विरचित लोकविभाग या उसी प्रकार का अन्य कोई प्राचीन भौगोलिक ग्रन्थ हो सकता है। तिलोयपण्णत्ती में ऐसे कितने ही प्राचीन ग्रन्थों का उल्लेख है, जो वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं।' (२) द्रव्यविषयक प्ररूपणा का आधार कदाचित् आ० कुन्दकुन्द विरचित पंचास्तिकाय सम्भव है। (४) व्रतनियमादि की प्ररूपणा का आधार मूलाचार का पंचाचाराधिकार' तथा योनि, आयु, लेश्या व बन्ध आदि कुछ अन्य विषयों की प्ररूपणा का आधार इसी मूलाचार का पर्याप्ति अधिकार भी सम्भव है। तुलनात्मक दृष्टि से क्रमशः तत्त्वार्थसूत्र और मूलाचार में प्ररूपित इन बन्ध व बन्धकारण आदि को देखा जा सकता है मिथ्यादर्शनाविरति प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतवः । सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः। प्रकृति-स्थित्यनुभव-प्रदेशास्तद्विधयः। आधो ज्ञान-दर्शनावरण-वेदनीयमोहनीयायुर्नाम-गोत्रान्तरायाः । पञ्च-नव-द्वयष्टाविंशति-चतुर्द्विचत्वारिंशद्-द्वि-पञ्चभेदा यथाक्रमम् । -तत्त्वार्थसूत्र ८,१-५ __ कर्मबन्धविषयक यह प्ररूपणा मूलाचार की इन गाथाओं में उसी रूप में व उसी क्रम से इस प्रकार उपलब्ध होती है मिच्छादसण-अविरदि-कसाय-जोगा हवंति बंधस्स । आऊसज्झवसाणं हेदव्वो ते दु णायव्वा ।। जीवो कसायजुत्तो जोगादो कम्मणो दु जे जोग्गा। गेण्हइ पोग्ग लदव्वे बंधो सो होदि णायव्वो ।। पयडि-ट्रिदि-अणभागप्पदेसबंधो य चद् विहो होइ। दविहो य पडिबंधो मलो तह उत्तरो चेव ॥ १. ति० प० २, परिशिष्ट, पृ० ६६५ पर 'ग्रन्थनामोल्लेख'। २. यहाँ 'चरणाचार' के प्रसंग में व्रत-समिति-गुप्ति आदि की प्ररूपणा की गई है । यहीं पर आगे पाँच व्रतों की जिन ५-५ भावनाओं का निरूपण किया गया है (५,१४०-४४) उनका उसी प्रकार से निरूपण तत्त्वार्थसूत्र (७, ३-८) में भी किया गया है । आ० कुन्दकुन्द ने चारित्र प्राभूत में संयमचरण के दो भेद निदिष्ट किये हैं-सागार संयमचरण और निरागार संयमचरण । सागार संयमचरण में उन्होंने ग्यारह प्रतिमाओं के साथ श्रावक के बारह व्रतों का निर्देश किया है (चा० प्रा० २१-२७) । तत्त्वार्थसूत्र में जो श्रावकाचार का विवेचन है वह यद्यपि चरित्रप्रामृत से कुछ भिन्न है, फिर भी आ० उमास्वाति के समक्ष वह रह सकता है। १८२/ षट्खण्डागम-परिशीलन Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णाणस्स सणस्स य आवरणं वेदणीय मोहणियं । आउग-णामा-गोदं तहंतरायं च मूलाओ॥ पंच णव दोणि अट्ठावीसं चदुरो तहेव बादालं । दोणि य पच य भणिया पबडीओ उत्तरा चेव ।। -मूला० १२, १८२-८६ आगे यथाक्रम से तत्त्वार्थसूत्र और मूलाचार में उपर्युक्त ज्ञानावरणादि मूलप्रकृतियों के उत्तरभेद भी द्रष्टव्य हैं।-तत्त्वार्थसूत्र ८, ७-१३ व मूलाचार १२, १८७-६७ इस प्रकार इन दोनों ग्रन्थों में क्रमबद्ध शब्दार्थविषयक समानता को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि मूलाचार के इस बन्धप्रसंग को सामने रखकर तत्त्वार्थसूत्र में बन्धविषयक प्ररूपणा की गई है। दोनों ग्रन्थों में केवलज्ञान का उत्पत्तिविषयक यह प्रसंग भी देखिएमोहक्षयाज् ज्ञान-दर्शनावरणान्त रायक्षयाच्च केवलम् । -तत्त्वार्थसूत्र १०-१ मोहस्सावरणाणं खयेण अह अन्तरायस्स य एव । उववज्जइ केवलयं पयासयं सव्वभावाणं ॥ --मूला० १२-२७५ ४. षट्खण्डागम और कर्मप्रकृति शिवशर्मसूरि विरचित कर्मप्रकृति एक महत्त्वपूर्ण कर्मग्रन्थ है। शिवशर्म सूरि का समय विक्रम की ५वीं शताब्दी माना जाता है । यह प्राकृत गाथाओं में रचा गया है । समस्त गाथा संख्या उसकी ४७५ है । इसमें बन्धन, संक्रमण, उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा, उपशामना, निधत्ति और निकाचना इन आठ करणों की प्ररूपणा की गई है। अन्त में उदय और सत्त्व की भी प्ररूपणा की गई है। इसमें प्ररूपित अनेक विषय ऐसे हैं जो शब्द और अर्थ की अपेक्षा प्रस्तुत षट्खण्डागम से समानता रखते हैं । यथा १. षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान से सम्बद्ध नौ चूलिकाओं में से छठी चूलिका में उत्कृष्ट स्थिति और सातवीं चूलिका में जघन्य कर्मस्थिति की प्ररूपणा की गई है। उधर कर्मप्रकृति में प्रथम बन्धनकरण के अन्तर्गत स्थितिबन्ध के प्रसंग में संक्षेप से उस उत्कृष्ट और जघन्य कर्मस्थिति की प्ररूपणा की गई है । दोनों ग्रन्थों में यह कर्मस्थिति की प्ररूपणा समान है। विशेषता यह है कि ष०ख० में जहाँ उसकी प्ररूपणा प्रक्रियाबद्ध व विस्तार से की गई है वहाँ क० प्र० में वह संक्षेप में की गई है। जैसे १० ख० में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय और पाँच अन्तराय इन बीस प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति को तीस कोडाकोड़ी सागरोपम प्रमाण बतलाते हुए उनका आबाधाकाल तीन हजार वर्ष प्रमाण कहा गया है। इस आबाधाकाल से हीन कर्मस्थिति प्रमाण उनका कर्मनिषेक निर्दिष्ट किया गया है। क० प्र० में इन बीस प्रकृतियों की कर्म स्थिति की प्ररूपणा ........."विग्धावरणेसु १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ४, पृ० ११. २. सूत्र १, ६-६, ४-६ (पु० ६)। षट्खण्डागम की अन्य प्रथों से तुलना / १८३ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोडिकोडीओ | उदही तीसमसाते ।।' इस गाथांश में कर दी गई है।' यहाँ इस गाथा में यद्यपि उनके आबाधाकाल और कर्मनिषेक का निर्देश नहीं किया गया है, पर उसकी व्याख्या में टीकाकार मलयगिरि सूरि ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जिन कर्मों की जितने कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति होती है उतने सौ वर्ष उनका अबाधाकाल' होता है । तदनुसार उक्त बीस कर्मप्रकृतियों की स्थिति चूंकि तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण है, इसलिए उनका उत्कृष्ट अबाधाकाल उपर्युक्त नियम के अनुसार तीस सौ ( ३०००) वर्ष प्रमाण ही सम्भव है । इस अबाधाकाल से हीन उनका कर्मदलिक निषेक होता है । 3 उक्त प्रबाधाकाल के नियम का निर्देश आगे स्वयं मूल ग्रन्थकार ने इस प्रकार कर दिया है वाससहस्समबाहा कोडाकोडीदसगस्स सेसाणं । अणुवाओ अणुवट्टगाउसु छम्मा सिगुक्कोसो | -बन्धन क० ७५ अभिप्राय यह है कि जिन कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है उनका अबाधाकाल एक हजार वर्ष होता है । शेष कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का वह अबाधाकाल इसी अनुपात से त्रैराशिक प्रक्रिया के आश्रय से - जानना चाहिए । अनपवर्त्य आयुवालों - देवनारकियों और असंख्यात वर्षायुष्क मनुष्य-तिर्यचों में परभव सम्बन्धी आयु का उत्कृष्ट अबाधाकाल छह मास होता है । इसी प्रकार से दोनों ग्रन्थों में शेष कर्मों की भी उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति की प्ररूपणा आगे-पीछे समान रूप में की गई है । २. ष० ख० में चौथे वेदना खण्ड के अन्तर्गत १६ अनुयोगद्वारों में छठा 'वेदनाकालविधान' अनुयोगद्वार है । उसकी प्रथम चूलिका में मूलप्रकृतिबन्ध के प्रसंग में इन चार अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है— स्थितिबन्ध स्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आबाधाकाण्डकप्ररूपणा और अल्पबहुत्व । इनमें स्थितिबन्ध स्थानों की प्ररूपणा इस प्रकार है "द्विदिबंधट्टाणपरूवणदाह सव्वत्थोवा सुहुभेइंदियप्रपज्जत्तयस्स द्विदिबंधद्वाणाणि । बादरेइंदि अपज्जत्तस्स द्विदिबंधट्टाणाणि संखेज्जगुणाणि ।" इत्यादि सूत्र ४, २, ६, ३६-५० ( ०११, पृ० १४०-४७) । इस प्रकार यहाँ चौदह जीवसमासों में स्थितिबन्धस्थानों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है । कर्मप्रकृति में इन्हीं स्थितिबन्धस्थानों की प्ररूपणा संक्षेप से इन दो गाथाओं में कर दी गई है fosबंधट्ठणाई सुम अधज्जत्तगस्स थोवाइ' । बायर - सुमेयर-बि-ति-चरदिय-अमण-सण्णीनं ॥ संखेज्जगुणाणि कमा असमत्तियेर बिदियाइम्मि | नवरमसंखेज्जगुणाइ २. क० प्र० बन्धन, क० ७०, पृ० ११० ३. श्वे० ग्रन्थों में आबाधा के स्थान में 'आबाधा' शब्द प्रयुक्त हुआ है । ४. क०प्र०, मलयवृत्ति बन्धन क० गा० ७०, पृ०१११ १८४ / षट्खण्डागम-परिशीलन 11 —बन्धन क० ६८-६६ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में इन स्थितिबन्धस्थान की प्ररूपणा सर्वथा समान रही है। क० प्र० के टीकाकार मलयगिरि सूरि ने इन गाथाओं में संक्षेप से निर्दिष्ट उन स्थानों का पष्टीकरण प्रायः उन्हीं शब्दों में कर दिया है जिन शब्दों द्वारा १० ख० में उनकी प्ररूपणा विस्तार से की गई है। ष० ख० में आगे यहीं पर जिन संक्लेश-विशुद्धिस्थानों की प्ररूपणा चौदह (५१-६४) सूत्रों में की गई है उनकी सूचना क० प्र० में 'संक्लेसाई (य) सव्वत्थ' (पूर्व गा० ६६ का च० चरण) 'एमेव विसोहीओ (गा० का प्र० चरण) इन गाथानों में कर दी गई है। उनका स्पष्टीकरण टीकाकार मलयगिरि सूरि ने ष०ख० के ही समान किया है। ३. १० ख० में जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत नौ चूलिकाओं में आठवीं 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' चूलिका है । उसमें प्रथम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व तथा दर्शनमोह और चारित्रमोह के उपशम व क्षय की प्ररूपणा की गई है। इनमें प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए जीव की योग्यता को प्रकट करते हुए यहाँ उसकी इन विशेषताओं को दिखलाया गया है सर्वप्रथम वहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि वह जब ज्ञानावरणीय आदि सब कर्मों की स्थिति को अन्तःकोडाकोड़ी प्रमाण बाँधता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । आगे इसे और स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि उसे पंचेन्द्रिय, संजी, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्त और सर्वविशुद्ध-अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन विशुद्धियों से विशुद्धहोना चाहिए । उक्त सब कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को जब वह संख्यात सागरोपम से हीन अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थापित करता है तब प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है। उस प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता हुआ वह अन्तमुहूर्त हटता है--अन्तरकरण करता है। अन्तरकरण करके वह मिथ्यात्व के तीन खण्ड करता है-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व । इस प्रकार वह दर्शनमोह को उपशमाता है। उसे उपशमाता हुआ वह चारों गतियों, पंचेन्द्रियों, संज्ञियों, गर्भोपक्रान्तिकों और पर्याप्तकों में उपशमाता है। इसके विपरीत वह एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियों आदि में उसे नहीं उपशमाता है। वह उसे संख्यातवर्षायूष्कों में और असंख्यातवर्षायुष्कों में भी उपशमाता है।' ___ दर्शनमोहनीय की उपशामना किन क्षेत्रों व किसके समक्ष होती है, इसके लिए कोई विशेष नियम नहीं है-वह किसी भी क्षेत्र में और किसी के भी समक्ष हो सकती है।' क० प्र० में छठा उपशामनाकरण है। उसकी उत्थानिका में वृत्तिकार मलयगिरि सूरि ने उसके प्रतिपादन में इन आठ अधिकारों की सूचना की है-(१) सम्यक्त्वोत्पादप्ररूपणा, (२) देश विरतिलाभप्ररूपणा, (३) सर्वविरतिलाभप्ररूपणा, (४) अनन्तानुबन्धिविसंयोजना, (५) दर्शनमोहनीयक्षपणा, (६) दर्शनमोहनीय उपशामना, (७) चारित्रमोहनीय उपशामना और (८) देशोपशामना। इनमें प्रथमतः ग्रन्थकार ने सम्यक्त्वोत्पाद प्ररूपणा के प्रसंग में उपशामना के करणकृता और अकरणकृता इन दो भेदों का निर्देश करते हुए 'अनुदीर्णा' अपर नामवाली दूसरी अकरण १. ष०ख० सूत्र १, ६-८, ३-६ (पु. ६)। २. १०ख० सूत्र १,६-१,१० (इसकी धवला टीका भी द्रष्टव्य है) ३. क० प्र० मलय० वृत्ति, पृ० २५४/२ षट्खण्डागम की अन्य प्रन्यों से तुलना / १८५ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृता उपशामना के अनुयोगधरों को--तद्विषयक व्याख्याकुशलों को-नमस्कार किया है।' ____ आगे वहाँ करणोपशामना के सर्वोपशामना और देशोपशामना इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनमें सर्वोपशामना के गुणोपशामना और प्रशस्तोपशामना तथा देशोपशामना अगुणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना इन दो भेदों का निर्देश किया गया है । साथ ही वहाँ यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि उनमें सर्वोपशामना मोह की ही होती है। ___इसी प्रसंग में आगे कर्म प्रकृति में यह स्पष्ट किया गया है कि इस सर्वोपशामना क्रिया के योग्य पंचेन्द्रिय, संज्ञी, लब्धित्रय--पंचेन्द्रियत्व, संज्ञित्व व पर्याप्तता रूप तीन लब्धियों अथवा उपशमलन्धि, उपदेशश्रवण लब्धि और करण त्रय की हेतु प्रकृष्ट योगलब्धि रूप तीन लब्धियोंसे युक्त, करण काल के पूर्व विशुद्धि को प्राप्त होनेवाला, ग्रन्थिक जीवों (अभव्यों) की विशुद्धि का अतिक्रमण कर वर्तमान; तथा मति व श्रुतरूप साकार उपयोगों में से किसी एक उपयोग में, तीन योगों में से किसी एक योग में व विशुद्ध लेश्या में वर्तमान जीव होता है । इन विशेषताओं से युक्त होता हुआ जो सात कर्मों की स्थिति को अन्त: कोडाकोड़ी प्रमाण करके अशुभ कर्मों के चतुःस्थानरूप अनुभाग को द्विस्थानरूप और शुभ कर्मों के द्विस्थानरूप अनुभाग को चतु:स्थानरूप करता है, ध्र व प्रकृतियों (४७) को बाँधता हुआ जो अपने भव के योग्य शुभ प्रकृतियों को बांधता है, आयु कर्म को नहीं बाँधता है, योग के वश जो जघन्य,मध्यम अथवा उत्कृष्ट प्रदेशाग्र को बाँधता है; स्थिति काल के पूर्ण होने पर जो नवीन स्थिति को पूर्व की अपेक्षा पल्योपम के संख्यातवें भाग से हीन बांधता है तथा अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग को जो अनन्तगुणी हानि के साथ और शुभ प्रकृतियों के अनुभाग को अनन्त गुणी वृद्धि के साथ बांधता है; इस विधि के साथ जो क्रम से अन्तर्मुहूर्त कालवाले यथाप्रवृत्त, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणों को करता है वह क्रम से उपशान्ताद्धा को प्राप्त करता - इसका पूर्वोक्त षटखण्डागम से मिलान करने पर दोनों में पर्याप्त समानता दिखती है। विशेष स्पष्टीकरण दोनों ग्रन्थों की अपनी-अपनी टीका में कर दिया गया है। जैसे (१) क० प्र० में दर्शनमोह के उपशामक जीव को अन्यतर साकार उपयोग में वर्तमान कहा गया है। १. करणकया अकरणा वि य दुविहा उवसामणस्थ बिइयाए । अकरण-अणुइन्नाए अणुओगधरे पणिवयामि ॥-उपशा० १ इसकी प्ररूपणा कषायप्राभत (चूणि) में इस प्रकार की गई है--उवसामणा कदिविधा त्ति ? उवसामणा दुविहा करणोवसामणा अकरणोवसामणा च । जा सा अकरणोवसामणा तिस्से दुवे णामधेयाणि --अकरणोवसामणा त्ति वि अणुदिण्णोवसामणा त्ति वि । एसा कम्मपवादे । जा सा करणोवसामणा सा दुविहा---देसकरणोवसामणा त्ति वि सव्वकरणोवसामणा त्ति वि । देसकरणोवसामणाए दुवे णामाणि-देसकरणोवसामणा त्ति वि अप्पसत्थउवसामणा त्ति वि। एसा कम्मपयडीसु । जा सव्वकरणोवसामणा तिस्से वि दुवे णामाणि-सव्वकरणोवसामणा ति वि पसत्थकरणोवसामणा त्ति वि । -क० पा० चुण्णिसुत्त २६६-३०६, पृ० ७०७-८ ३. क०प्र० (उपशा० क०) गा० ३.८, पृ० २५५ ४. १० ख० सूत्र १, ६-८, ३-१० (पु० ६) । १८६ / षट्लण्डागम-परिशीलन Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि वह मति व श्रुतरूप साकार उपयोग से युक्त होता है । " (२) आगे क० प्र० में उसे विशुद्ध लेश्या में वर्तमान कहा गया है । इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि वह छह लेश्याओं में से किसी एक लेश्या से युक्त होता हुआ अशुभ लेश्या की उत्तरोत्तर होने वाली हानि और शुभ लेश्या की उत्तरीतर होनेवाली वृद्धि से युक्त होता है । " (३) क० प्र० में उसे अशुभ कर्मप्रकृतियों के चतुःस्थानक अनुभाग को द्विस्थानक और शुभ प्रकृतियों के द्विस्थानक अनुभाग को चतुःस्थानक करनेवाला कहा गया है । इस विषय में धवला में उल्लेख है कि वह पाँच ज्ञानावरणीयादि अप्रशस्त प्रकृतियों के अनुभाग की द्विस्थानिक और सातावेदनीयादि प्रशस्त प्रकृतियों के चतुःस्थानिक अनुभाग से सहित होता है । यहाँ उन प्रकृतियों का नामनिर्देश भी कर दिया गया है । 3 (४) क० प्र० में जो यह कहा गया है कि ध्रुव प्रकृतियों को बांधता हुआ वह प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव अपने-अपने भव के योग्य प्रकृतियों को बाँधता है उसे स्पष्ट करते हुए टीकाकार मलयगिरि सूरि ने प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करनेवाला तिर्यंच व मनुष्य प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता हुआ देवगति के योग्य जिन शुभ प्रकृतियों को बांधता है, उस सम्यक्त्व को उत्पन्न करने वाला देव व नारकी मनुष्य गति के योग्य जिन प्रकृतियों को बाँधता है, तथा उस सम्यक्त्व को उत्पन्न करनेवाला सातवीं पृथिवी का नारकी जिन कर्मप्रकृतियों को बाँधता है उन सबको पृथक्-पृथक् नाम निर्देशपूर्वक स्पष्ट कर दिया है । * ष० ख० में मूल ग्रन्थकर्ता ने ही इस प्रसंग को स्पष्ट कर दिया है । यथा जीवस्थान की उन नौ चूलिकाओं में तीसरी 'प्रथम महादण्डक' चूलिका है । इसमें प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करने वाला संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच अथवा मनुष्य जिन कर्मप्र कृतियों को बाँधता है उनको नामनिर्देशपूर्वक स्पष्ट किया गया है। चौथी 'द्वितीय महादण्डक' चूलिका में नामोल्लेखपूर्वक उन कर्मप्रकृतियों को स्पष्ट किया गया है जिन्हें सातवीं पृथिवी के नारकी को छोड़कर अन्य कोई नारकी या देव बाँधता है । पाँचवीं 'तृतीय महादण्डक' चूलिका में सातवीं पृथिवी का नारकी जिन कर्मप्रकृतियों को ता है उन्हें नामनिर्देश के साथ स्पष्ट किया गया है । (५) जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, ष०ख० में आगे यह कहा गया है कि प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करनेवाला अनादि मिथ्यादृष्टि अन्त मुहूर्त हटता है -- वह मिथ्यात्व का अन्तरकरण करता है । १. धवला पु० ६, पृ० २०७ २. 17 ३. धवला पु० ६ पृ० २०८-६ ४. क० प्र० मलय० वृत्ति, पृ० २५६-१ ५. सूत्र १,६-३, १-२ (पु० ६, पृ० १३३-३४) ६. सूत्र १,९-४,१-२ (५०६, पृ० १४०-४१ ) ७. सूत्र १, ६-५, १-२ ( पु० ६, पृ० १४२-४३) षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १८७ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क० प्र० में भी कहा गया है कि प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करने वाला अनिवृत्तिकरणकाल में संख्यातवें भाग के शेष रह जाने पर अन्तरकरण करता है।' इस अन्तरकरण का स्पष्टीकरण दोनों ग्रन्थों की टीका में प्रायः समान रूप में ही किया गया है। (६) १० ख० में आगे यह भी कहा गया है कि इस प्रकार अन्तरकरण करके वह मिथ्यात्व के तीन भाग करता है--सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व । क०प्र० में भी कहा गया है कि मिथ्यात्व के उदय के क्षीण हो जाने पर वह आत्महितकर उस औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, जिसे पूर्व में कभी नहीं प्राप्त किया था। तब वह द्वितीय स्थिति को अनुभाग की अपेक्षा तीन प्रकार करता है-देशघाति सम्यक्त्व, सर्वघाति संमिश्र (सम्यग्मिथ्यात्व) और मिथ्यात्व । इसका स्पष्टीकरण दोनों ग्रन्थों की टीका में विशेषरूप से किया गया है। इतना विशेष रहा है कि धवला में जहाँ उस मिथ्यात्व के तीन भाग करने की सूचना सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने के प्रथम समय में ही की गई है वहाँ क० प्र० की टोका में उसकी सूचना सम्यक्त्वप्राप्ति के पूर्व अनन्तर समयमें, अर्थात् प्रथमस्थिति के अन्तिम समय में की गई है। (७) क० प्र० में आगे कहा गया है कि सम्यक्त्व का यह प्रथम लाभ मिथ्यात्व के सर्वोपशम से होता है। इस सम्यक्त्व के प्राप्त हो जाने पर उसके काल में अधिक से अधिक छह आवलियों के शेष रह जाने पर कोई जीव सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है। १० ख० मूल में यद्यपि इसकी सूचना नहीं की गई है, पर धवलाकार ने उस प्रसंग में 'एत्थ उवउज्जंतीओ गाहाओ' ऐसी सूचना करते हुए कुछ गाथाओं को उद्धृत कर प्रसंगप्राप्त विषय की प्ररूपणा की है। ये सब ही गाथाएँ कषायप्राभूत में उसी क्रम से उपलब्ध होती हैं। उनमें एक गाथा का पूर्वार्ध कर्मप्रकृतिगत गाथा के समान हैं । यथा"सम्मत्तपढमलंभो सव्वोवसमेण तह य वियट्ठण।" ~~-धवला पु० ६, पृ० २४१ "सम्मत्तपढमलंभो सम्वोवसमा तहा विगिट्ठो य ।" __-क० प्र० (उप० क० २३ पू०) कर्म प्रकृतिगत आगे की अन्य तीन (२४-२६) गाथाएँ भी उन गाथाओं के अन्तर्गत हैं । १. क० प्र० (उपशा क०) १६-१७, पृ० २५९/२ २. धवला पु० ६, पृ० २३०-३४ तथा क० प्र० मलय० वृत्ति १६-१७, पृ० २६० ३. सूत्र १,६-८,७ ४. क० प्र० (उपशा० क०) १८-१६ ५. धवला पु० ६, पृ० २३४-३५ तथा क० प्र० मलय० वृत्ति १६, पृ० २६१/२ ६. क० प्र० (उप० क०) २३ ७. धवला पु० ६, पृ० २३८-४३, गा० २-१६ ८. कसायपाहुडसुत्त गा० ४२-५६ (गा० ४६-५० में क्रमव्यत्यय हुआ है । पृ० ६३१-३८ ६. क० प्र० (उप० क०) २४-२६ (धवला पु० ६, २४२-४३ तथा कसायपाहुडसुत्त गा० ५४-५६, पृ० ६३७-३८ १०८ / षट्लण्डागम-परिशीलन . Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवला में उद्धृत उन गाथाओं में एक अन्य गाथा इस प्रकार है उवसामगो य सव्वो णिव्वाघादो तहा णिरासाणो । उवसंते भजियव्वो णिरासाणो चेव खीणम्हि ॥ - पु० ६, पृ० २३६ इस गाथा के द्वारा क० प्र० (२३) के समान यही अभिप्राय प्रकट किया गया है कि मिथ्यात्व का उपशम हो जाने पर प्रथमोपशम सम्यक्त्ववाला जीव कदाचित् सासादन गुणस्थान को प्राप्त हो सकता है । किन्तु उक्त मिथ्यात्व का क्षय हो जाने पर जीव उस सासादन गुणस्थान को नहीं प्राप्त होता है । आचार्य यतिवृषभ विरचित कषायप्राभृत-चूर्णि में उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है— इस उपशमकाल के भीतर जीव असंयम को भी प्राप्त हो सकता है, संयमासंयम को भी प्राप्त हो सकता है, और दोनों को भी प्राप्त हो सकता है । उपशमसम्यक्त्व के काल में छह आवलियों के शेष रहने पर वह कदाचित् सासादन गुणस्थान को भी प्राप्त हो सकता है । किन्तु यदि उस सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर वह मरता है तो नरकगति, तियंचगति अथवा मनुष्यगति को प्राप्त नहीं होता । उस अवस्था में वह नियम से देवगति को ही प्राप्त होता है । ' क० प्र० की पूर्व निर्दिष्ट गाथा ( २३ ) की व्याख्या में बृहच्चूर्णि इस प्रसंग को उद्धृत करते हुए यह अभिप्राय प्रकट स्थित कोई उपशमसम्यग्दृष्टि देशविरति को भी प्राप्त होता है प्राप्त होता है । पर मूल गाथा में इतनी मात्र सूचना की गई छह आवलियों के शेष रह जाने पर कोई जीव सासादन गुणस्थान को प्राप्त हो सकता है । " ०ख० की धवला टीका में सासादन सम्यग्दृष्टियों के पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य अन्तर को घटित करते हुए कहा गया है कि कोई जीवप्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण करके उसके साथ अन्तर्मुहूर्त रहा व सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता हुआ मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ । इस प्रकार अन्तर करके सबसे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र उद्वेलन काल से सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व के स्थिति सत्य को प्रथम सम्यक्त्व के योग्य सागरोपम पृथक्त्व मात्र स्थापित करके तीनों करणों को करता हुआ फिर से प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ । तत्पश्चात् उपशमसम्यक्त्व के काल में छह आवलियों के शेष रह जाने पर सासादन को प्राप्त हो गया । इस प्रकार उसके सासादन का जघन्य अन्तर पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग प्राप्त होता है । मलयगिरि सूरि ने शतककिया है कि अन्तरकरण में और कोई सर्वविरति को भी कि उपशमसम्यक्त्वकाल में इस पर यह शंका की गई है कि उपशम श्रेणि से उतरकर व सासादन को प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त में फिर से उपशम श्रेणिपर आरूढ़ हुआ । पश्चात् उससे उतरता हुआ फिर से सासादन को प्राप्त हो गया, इस प्रकार सासादन का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त प्राप्त होता है । उसकी यहाँ प्ररूपणा क्यों नहीं की । कषायप्राभृत में कहा भी गया है कि उपशमश्रेणि से उतरता हुआ उपशमसम्यग्दृष्टि सासादन को भी प्राप्त हो सकता है। इसके समाधान में वहाँ यह कहा १. क० सुत्त चूर्णि ५४२-४६, पृ० ७२६-२७ ( पाठ कुछ अशुद्ध हुआ दिखता है, संयमासंयम के स्थान में 'संयम' पाठ सम्भव है ) । २. क० प्र० ( उप० क० ) मलय० वृत्ति, गा० २३, पृ० २६२१२ (सम्भव है यह उपर्युक्त क० प्रा० चूर्णि के ही आधार से स्पष्टीकरण किया गया है ।) षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १८६ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है कि उपशमश्रेणि से उतरनेवाला एक ही उपशमसम्यग्दृष्टि दो बार सासादनगुणस्थान को प्राप्त नहीं होता ।' इस विषय में दो भिन्न मत रहे हैं। जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है, "कषायप्राभृत- चूर्णि के कर्ता यतिवृषभाचार्य उपशमसम्यक्त्व के काल में छह आवलियों के शेष रहने पर जीव कदाचित् सासादन को प्राप्त हो सकता है, ऐसा मानते हैं । पर षट्खण्डागम के कर्ता स्वयं भूतबलि भट्टारक के उपदेशानुसार उपशमश्रेणि से उतरता हुआ जीव सासादन गुणस्थान को नहीं प्राप्त होता है । 3 ८. ष०ख० में जीवस्थान की उसी सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिका में आगे दर्शनमोह की क्षपणा के प्रसंग में कहा गया है कि उसकी क्षपणा में उद्यत जीव अढ़ाई द्वीप समुद्रों में अवस्थित पन्द्रह कर्मभूमियों में, जहाँ जिन केवली तीर्थंकर हों, उसकी क्षपणा को प्रारम्भ करता है । पर निष्ठापक उसका चारों ही गतियों में हो सकता है । क०प्र० में भी यही कहा गया है कि दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक आठ वर्ष से अधिक आयुवाला जिनकालवर्ती - केवली जिन के समय में रहने वाला - मनुष्य होता है । अन्तिम काण्डक के उत्कीर्ण होने पर क्षपक कृतकरणकालवर्ती होता है- -उस समय उसे कृतकरण कहा जाता है । इसे स्पष्ट करते हुए मलयगिरि सूरि ने कहा है कि ऋषभ जिन के विचरणकाल से लेकर जम्बूस्वामी के केवलज्ञान उत्पन्न होने के अन्त तक जिनकाल माना गया है । इस जिनकाल में रहने वाला आठ वर्ष से अधिक आयु से युक्त मनुष्य दर्शनमोह की क्षपणा को प्रारम्भ करता है । कृतकरणकाल में यदि कोई मरण को प्राप्त होता है तो वह चारों गतियों में से कहीं भी उसे समाप्त करता है । इस प्रसंग में उन्होंने 'उक्तं च' कहकर इस आगमवाक्य को उद्धृत किया है - " पट्टवगो य मणुस्सो णिट्ठवगो चउसु वि गई । "६ लगभग इससे मिलती हुई गाथा कषायप्राभृत में इस प्रकार उपलब्ध होती हैदंसणमोहक्खवणाugaगो कम्मभूमिजादो दु । ७ णियमा मणुसगदीए णिट्टवगो चावि सव्वत्थ ।। " ६. ष० ख० में वेदना खण्ड के अन्तर्गत दूसरे 'वेदना' अनुयोगद्वार के १६ अवान्तर अनुयोगद्वारों में से चौथे वेदनाद्रव्यविधान अनुयोगद्वार के द्रव्य की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट वेदना किसके होती है, इसे स्पष्ट किया गया है। वह चूंकि गुणितकर्माशिक के होती है, इसलिए उस गुणितकर्माशिक के विशेष लक्षणों को वहाँ प्रकट किया गया है। 5 १. धवला पु० ७, २३३-३४ २. क० प्रा० चूर्णिसूत्र वे ही हैं जिनका उल्लेख अभी पीछे किया जा चुका है । ३. धवला पुं० ६, पृ० ३३१ ( पृ० ४४४ भी द्रष्टव्य है) ४. ष० ख० सूत्र १, ६-८, ११ व १२ (पु०६, पृ० २४३ व २४६) ५. क० प्र० (उप० क० ) गा० ३२, पृ० २६७ /१ ६. क० प्र० (उप० क० ) मलय ० वृत्ति, पृ० २६८ / २ ७. क० पा०, सुत्त० पृ० ६३६, गा० ११० (५७) ८. ष०ख० सूत्र ४, २, ४, ६-३२ (५० १०, पृ० ३१-१०६ ) १६० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क० प्र० में संक्रम करण के अन्तर्गत प्रदेश संक्रम के सामान्य लक्षण, भेद, सादि-अनादि प्ररूपणा, उत्कृष्ट प्रदेश संक्रमस्वामी और जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामी इन पाँच अर्थाधिकारों में से चौथे ‘उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमस्वामी' अर्थाधिकार में उस गुणितकर्माशिक के लक्षणों को प्रकट किया गया है, जिस गुणितकर्माशिक के वह उत्कृष्ट प्रदेश संक्रम होता है । उसके वे लक्षण इन दोनों ग्रन्थों में समान रूप में उपलब्ध होते हैं । विशेषता यह है कि ष० ख० में जहाँ उन लक्षणों को विशदतापूर्वक विस्तार से प्रकट किया गया है वहाँ क० प्र० में उनकी प्ररूपणा अतिशय संक्षेप में की गई है । यथा ० ख० में उसके लक्षणों को प्रकट करते हुए कहा गया है कि जो जीव साधिक दो हजार सागरोपमों से कम कर्मस्थितिकाल तक बादर पृथिवीकायिकों में रहा है, वहाँ परिभ्रमण करते हुए जिसके पर्याप्त भव बहुत और अपर्याप्त भव थोड़े रहे हैं, पर्याप्तकाल बहुत व अपर्याप्त काल थोड़े रहे हैं, जब-जब वह आयु को बाँधता है तब-तब तत्प्रायोग्य जघन्य योग के द्वारा बाँधता है, उपरिम स्थितियों के निषेक का उत्कृष्ट पद और अधस्तन स्थितियों के निषेक का जघन्य पद होता है, बहुत - बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त होता है, बहुत बहुत बार अधिक संक्लेश परिणामों से युक्त होता है, इस प्रकार परिभ्रमण करके जो बादर त्रस पर्याप्त जीवों में उत्पन्न हुआ है ।" इस प्रकार उसके इन थोड़े से लक्षणों को ष० ख० में जहाँ पृथक्-पृथक् आठ सूत्रों में निर्दिष्ट किया गया है वहाँ कर्मप्रकृति में उसके इन्हीं लक्षणों को संक्षेप में इन दो गाथाओं में प्रकट कर दिया गया है जो बायरतसकालेणूणं कम्मट्ठिदि तु पुढवीए । (fx) पज्जत्तापज्जत्तगदी हेयरद्वासु ॥ बायर जोग - कसाक्कोसी बहुसो निच्चमवि आउबंधं च । जोग जहणेणुवरिल्लठिइनिसेगं बहुं किच्चा ॥ " दोनों ग्रन्थों में यहाँ केवल अर्थ से ही समानता नहीं है, शब्दों में भी बहुत कुछ समानता है । ष० ख० में आगे उसके कुछ अन्य लक्षणों को दिखलाते हुए पूर्वोक्त बादर त्रस जीवों में उत्पन्न होने पर वहाँ परिभ्रमण करते हुए भी 'पर्याप्त भव बहुत और अपर्याप्त भव थोड़े,' इत्यादि का निरूपण जिस प्रकार पूर्व में, बादर पृथिवीकायिकों के प्रसंग में, किया गया था उसी प्रकार इन बादर त्रस जीवों में परिभ्रमण के प्रसंग में भी उनका निरूपण उन्हीं सूत्रों में पुनः किया गया है। कर्मप्रकृति के कर्ता को भी प्रसंग प्राप्त उन 'पर्याप्तभव अधिक' इत्यादि का निरूपण करना ‘बादरत्रसों' के प्रसंग में भी अभीष्ट रहा है, किन्तु उन्होंने अगली गाथा में संक्षेप से यह सूचना कर दी है कि बादर त्रसों में उत्पन्न होकर उसके - बादर त्रसकायस्थिति के काल तक इसी प्रकार से - 'पर्याप्तभव बहुत' इत्यादि प्रकार पूर्वोक्त पद्धति से - - भ्रमण करता १. ष० ख० सूत्र ४,२, ४, ७-१४ (५० १० ) २. क० प्र० ( संक्रम क०) ७४-७५ ३. ष० ख० सूत्र ४, २, ४, ८ - १४ और सूत्र १५ - २१ (५०१० ) -- षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १६१ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ जो सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न हुआ है।' इसी प्रकार आगे भी उक्त गुणितकौशिक के शेष लक्षणो को दोनों ग्रन्थों में समान रूप से निर्दिष्ट किया गया है। १०. १० ख० में आगे द्रव्य की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की जघन्य वेदना किसके होती है, इसका विचार करते हुए, वह चूंकि क्षपित कौशिक के होती है इसलिए, उसके लक्षणों को भी वहाँ प्रकट किया गया है।' ___ कर्मप्रकृति में भी जघन्य प्रदेशसंक्रम के स्वामी के प्रसंग में उस क्षपितकौशिक के लक्षणों को स्पष्ट किया गया है। ___ ये क्षपितकौशिक के लक्षण भी दोनों ग्रन्थों में समान रूप में ही उपलब्ध होते हैं। _ विशेषता यह रही है कि क० प्र० में संक्षेप से यह निर्देश कर दिया गया है कि पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन कर्मस्थितिकाल तक सूक्ष्म निगोद जीवों में परिभ्रमण कर जो भव्य के योग्य जघन्य प्रदेशसंचय को करता हुआ उन सूक्ष्म निगोदजीवों में से निकल कर सम्यक्त्व व देशविरति आदि के योग्य त्रसों में उत्पन्न हुआ है, इत्यादि। मूलगाथाओं में उस क्षपितकर्मांशिक के जिन लक्षणों का निर्देश नहीं किया है उनका उल्लेख उनकी टीका में मलयगिरि सूरि के द्वारा प्रायः उन्हीं शब्दों में कर दिया गया है जिनका उपयोग १० ख० में किया गया है। उदाहरण के रूप में उनमें से कुछ का मिलान इस प्रकार किया जा सकता है "एवं संसरिदूण बादरपुढविजीवपज्जत्तएस उववण्णो। अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो। अंतोमुहुत्तेण कालगदसमाणो पुवकोडाउएसु मणुसेसुववण्णो। सव्वल हुं जोणिणिक्खमणजम्मणेण जादो अटुवस्सीओ। संजमं पडिवण्णो। तत्थ य भवट्ठिदि पुवकोडिं देसुणं संजममणुपाल इत्ता थोवावसेसे जीविदव्वए त्ति मिच्छत्तं गदो।"---ष०ख० ४,२,४,५६-६१ "सूक्ष्मनिगोदभ्यो निर्गत्य बादरपृथ्वीकायेषु मध्ये समुत्पन्नस्ततोऽन्तमुहूर्तेन कालेन विनिर्गत्य मनुष्येषु पूर्वकोट्यायुष्केषु मध्ये समुत्पन्नः । तत्रापि शीघ्रमेव माससप्तकान्तरं योनिविनिर्गमनेन जातः । ततोऽष्टवार्षिक: सन् संयम प्रतिपन्नः। ततो देशोनां पूर्वकोटी यावत् संयममनुपाल्य स्तोकावशेषे जीविते सति मिथ्यात्वं प्रतिपन्नः ।" -क०प्र० मलय० वृत्ति, पृ० १६४२ ११. १० ख० में पूर्वोक्त वेदना अनुयागद्वार के १६ अवान्तर अनुयोगद्वारों में से सातवें वेदनाभावविधान अनुयोगद्वार की तीन चूलिकाओं में से प्रथम चूलिका के प्रारम्भ में दो गाथा सूत्रों द्वारा निर्जीर्यमाण कर्मप्रदेश और उस निर्जरा सम्बन्धी काल के क्रम को दिखलाते हुए सम्यक्त्वोत्पत्ति आदि ग्यारह गुणश्रेणियों की प्ररूपणा की गई है । वे गाथासूत्र ये हैं--- सम्मत्तुप्पत्ती वि य सावय-विरदे अणंतकम्मसे। दसणमोहक्खवए कसायउवसामए य उवसंते॥ १. बायरतसेसु तकालमेवमंते य सत्तमखिईए। -क० प्र० (सं० क०) गा० ७६ (पूर्वार्ध) २. ष० ख० सूत्र ४, २,४,२२-३२ (पु०१०) व क० प्र० (सं० क०) गा० ७६-७८ (इतना विशेष है कि ष० ख० में 'गुणित कर्माशिक' का उल्लेख नहीं किया गया है, जबकि क० प्र० में उसका उल्लेख किया गया है) ३. ष० ख० सूत्र ४,२,४,४८-७५ (पु० १०) ४. क० प्र० (सं० क०) गा० ६४-६६ । १६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखज्जा। तविवरीदो कालो संखेज्जगुणा य सेडीओ ॥-पु० १२, पृ० ७८ ये दोनों गाथाएँ साधारण पाठभेद के साथ क० प्र० में इस रूप में उपलब्ध होती हैं सम्मत्तुप्पासावय-विरए संजोयणाविणासे य। दंसणमोहक्खवगे कसाय उवसामगुवसंते ॥ खवगे य खीण मोहे जिणे य दुविहे असंखगुणसेढी। उदओ तस्विवरीओ कालो संखेज्जगुणसेढी॥ -क० प्र० उदय गा० ८-६, पृ० २६१ ष० ख० में जहाँ 'अणंतकम्मसे' पाठ है वहाँ क०प्र० में उसके स्थान में 'संजोयणाविणासे' पाठ है । उसका अर्थ मलयगिरि सूरि ने अनन्तानुबन्धियों का विसंयोजन ही किया है । श्वे० ग्रन्थों में प्रायः अनन्तानुबन्धी के लिए 'संयोजना' शब्द व्यवहृत हुआ है । ___ इसी प्रकार आगे गा० ६ में 'जिणे य दुविहे' ऐसा निर्देश करके उससे सयोगी और अयोगी दोनों केवलियों की विवक्षा की गई है। ष० ख० में वहाँ यद्यपि 'जिणे' के विशेषण स्वरूप 'दुविहे' पद का उपयोग न करके उसके स्थान में 'णियमा' पद का उपयोग किया गया है, फिर भी ग्रन्थकार को 'जिणे' पद से दो प्रकार के केवली जिन विवक्षित रहे हैं । उन्होंने स्वयं ही आगे इन गाथासूत्रों के अभिप्राय को जिन २२ सूत्रों द्वारा स्पष्ट किया है उनमें केवली के इन दो भेदों को स्पष्ट कर दिया हैअधः प्रवृत्तकेवली संयत और योगनिरोधकेवली संयत । १२. ष० ख० के पांचवें वर्गणा' खण्ड में जो 'बन्धन' अनुयोगद्वार है उसमें बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान इन चार की प्ररूपणा की गई है। उनमें बन्धनीय-बँधने योग्य, वर्गणाओं-की प्ररूपणा बहुत विस्तार से की गई है इसीलिए इस खण्ड के अन्तर्गत स्पर्श कर्म और प्रकृति इन अन्य अनुयोगद्वारों के होने पर भी उसका नाम 'वर्गणा' प्रसिद्ध हुआ है । क० प्र० में भी प्रथम बन्धनकरण के प्रसंग में उन वर्गणाओं की प्ररूपणा की गई है। वर्गणाओं की वह प्ररूपणा इन दोनों ग्रन्थों में लगभग समान ही है। थोड़ा-सा जो उनमें शब्दभेद दिखता है वह नगण्य है। दोनों ग्रन्थों में उनके नामों का निर्देश इस प्रकार किया गया हैष० ख० क० प्र० १. एक प्रदेशिक परमाणु पु० द्रव्यवर्गणा परमाणु-संख्येय-असंख्येय२. संख्यातप्रदेशिक अनन्तप्रदेश-वर्गणा ३. असंख्यातप्रदेशिक (अग्राह्य) ४. अनन्त प्रदेशिक १. अग्रहणवर्गणा ५. आहारद्रव्यवर्गणा २. आहारवर्गणा १. ये दोनों गाथाएँ आचार-नियुक्ति (२२२-२३) में भी उपलब्ध होती हैं। २. चतुर्थी संयोजनानामनन्तानुबन्धिनां विसंयोजने।-क० प्र० मलय० वृत्ति गा० ८ (उदय) ३. आचा० नि० में 'जिणे य सेढी भवे असंखिज्जा' पाठ है। ४. दशमी सयोगिकेवलिनि । अयोगिकेवलिनि त्वेकादशीति ।-मल ०६ पट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १६३ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व० ख० ६. अग्रहणद्रव्यवर्गणा ७. तेजसद्रव्यवर्गणा ८. अग्रहणद्रव्यवर्गणा ६. भाषाद्रव्यवर्गणा १०. अग्रहणद्रव्यवर्गणा ११. मनोद्रव्यवर्गणा १२. अग्रहणद्रव्यवर्गणा १३. कार्मणद्रव्यवर्गणा १४. ध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणा १५. सान्तर-निरन्तरद्रव्यवर्गणा १६. ध्रुवशून्यद्रव्यवर्गणा १७. प्रत्येकशरीरद्र व्यवर्गणा १८. ध्र वशून्यद्रव्यवर्गणा १९. बादरनिगोदद्रव्यवर्गणा २०. ध्रु वशून्यद्रव्यवर्गणा २१. सूक्ष्मनिगोदद्रव्यवर्गणा २२. ध्र वशून्यद्रव्यवर्गणा २३. महास्कन्धद्रव्यवर्गणा क. प्र. ३. अग्रहणवर्गणा ४. तेजसवर्गणा ५. अग्रहणवर्गणा ६. भाषावर्गणा ७. अग्रहणवर्गणा ८. मनोद्रव्यवर्गणा ६. अग्रहणवर्गणा १०. कामणवर्गणा ११. ध्र वअचित्तवर्गणा १२. अध्र वअचित्तवर्गणा १३. ध्र वशून्यवर्गणा १४. प्रत्येकशरीरवर्गणा १५. ध्रुवशून्यवर्गणा १६. बादरनिगोदवर्गणा १७. ध्र वशून्यवर्गणा १८. सूक्ष्मनिगोदवर्गणा १६. ध्र वशून्यवर्गणा २०. महास्कन्धवर्गणा विशेषता (१) १० ख० में एकप्रदेशिकपरमाणु पुद्गलद्रव्य वर्गणा, द्विप्रदेशिकपरमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा, इसी प्रकार त्रिप्रदेशिक-चतुःप्रदेशिक-पंचप्रदेशिक आदि संख्येयप्रदेशिक, असंख्येयप्रदेशिक, परीतप्रदेशिक, अपरीतप्रदेशिक, अनन्तप्रदेशिक, अनन्तानन्तप्रदेशिक परमाणुपुद्गल द्रव्यवर्गणा; ऐसा उल्लेख किया गया है।' धवलाकार वीरसेन स्वामी ने उनकी गणना इस प्रकार की है-(१) एकप्रदेशिक परमाणु पुद्गलद्रव्यवर्गणा, (२) संख्येयप्रदेशिक परमाणुपुद्गलद्रव्य वर्गणा, (३) असंख्येयप्रदेशिक परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा, और (४) अनन्तप्रदेशिक परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा । परीत-अपरीतप्रदेशिक परमाणुपुद्गल-द्रव्यवर्गणाओं का अन्तर्भाव उन्होंने अनन्तप्रदेशिक परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणाओं में किया है। कर्मप्रकृति में इस प्रसंग से सम्बद्ध गाथा इस प्रकार है परमाणु-संखऽसंखाणंतपएसा अभव्वणंतगुणा। सिद्धाणणंत भागो आहारगवग्गणा तितणू ॥ -बन्धनक०, गा० १८ इस गाथा के प्रारम्भ में ष० ख० के समान ही परमाणु, संख्येय, असंख्येय और अनन्त १. ख० सूत्र ५, ६, ७६-७८ (पु० १४) २. धवला पु० १४, पृ० ५७-५६ १६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेशों का उल्लेख किया है । टीकाकार मलयगिरि सूरि ने इनका उल्लेख क्रम से परमाणुवर्गणा, एक-द्वि-त्रिप्रदेश आदि संख्येय वर्मणा, असंख्येयवर्गणा और अनन्तवर्गणाओं के रूप में ही किया है तथा उन्हें उन्होंने अग्रहणप्रायोग्य कहा है । अनन्तानन्त परमाणुओं के समुदायरूप वर्गणाओं में किन्हीं को ग्रहणप्रायोग्य और किन्हीं को अग्रहणप्रायोग्य कहा है। . ___गाथा में आगे अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण परमाणुओं के समुदाय रूप आहार वर्गणा का निर्देश करते हुए उसे औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरविषयक निर्दिष्ट किया गया है।' उपर्युक्त गुणकार के प्रसंग में धवला में कहा गया है कि संख्येय प्रदेशिक वर्गणाओं से असंख्येयप्रदेशिक वर्गणाएँ असंख्यातगुणी हैं। गुणकार का प्रमाण असंख्यात लोक है। अनन्तप्रदेशिक वर्गणाविकल्पों का गुणकार अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण है। क० प्र० को उपर्युक्त गाथा (१८) में आहारवर्गणा को औदारिक आदि तीन शरीरों की कारणभूत कहा गया है। धवला में आहार द्र व्यवर्गणा के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर के योग्य पुद्गलस्कन्धों का नाम आहार वर्गणा है। इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में प्ररूपित इस विषय में पूर्णतया समानता है। (२) १० ख० में कार्मण द्रव्यवर्गणा के पश्चात् ध्र वस्कन्धवर्गणा का निर्देश किया गया है। इसके स्पष्टीकरण में धवलाकार ने कहा है कि 'ध्र वस्कन्ध' का निर्देश अन्तदीपक है, इसलिए इससे पूर्व की सब वर्गणाओं को ध्रुव ही-अन्तर से रहित-ग्रहण करना चाहिए।' क०प्र० में इस ध्र वस्कन्धवर्गणा के स्थान में 'ध्र व अचित्त' वर्गणा का निर्देश किया गया है। उसके लक्षण का निर्देश करते हुए टीकाकार मलयगिरि सूरि कहते हैं कि जो वर्गणाएँ लोक में सदा प्राप्त होती हैं उनका नाम ध्र वअचित्तवर्गणा है। इसे आगे और स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि इन वर्गणाओं के मध्य में अन्य उत्पन्न होती हैं और अन्य विनष्ट होती हैं, इनसे लोकविरहित नहीं होता। अचित्त उन्हें इसलिए समझना चाहिए कि जीव उन्हें कभी ग्रहण नहीं करता है। ___इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में यथाक्रम से निर्दिष्ट ध्र वस्कन्धवर्गणा और ध्र वअचित्तवर्गणा इन दोनों में केवल शब्दभेद ही है, अभिप्राय में कुछ भी भेद नहीं है। (३) ष० ख० में उसके आगे सान्तर-निरन्तर द्रव्यवर्गणा का निर्देश किया गया है। उसके स्पष्टीकरण में धवलाकार ने कहा है कि यह अन्तर के साथ निरन्तर चलती है, इसलिए इसकी 'सान्तर-निरन्तर द्रव्यवर्गणा' संज्ञा है । १. क० प्र० (ब० क०) मलय० वृत्ति १८-२०, पृ० ३२/२ २. धवला पु० १४, पृ० ५८-५६ ३. पु० १४, पृ० ५६ ४. वही पृ० ६४ ५. क० प्र० (ब० क०) मलय० वृत्ति, पृ० ३५/२ ६. धवला पु० १४, पृ० ६४ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १९५ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क० प्र० में ध्र वाचित्तवर्गणा के आगे अध्रु वाचित्तवर्गणा का निर्देश किया गया है । इसके लक्षण को स्पष्ट करते हुए मलयगिरि सूरि कहते हैं कि जिन वर्गणाओं के मध्य में कुछ वर्गणाएँ लोक में कदाचित् होती हैं और कदाचित् नहीं होती हैं उनका नाम अध्र वाचित्त-वर्गणा है । इसीलिए उन्हें सान्तर-निरन्तर कहा जाता है।' इस प्रकार सान्तर-निरन्तरवर्गणा और अध्र वाचित्तवर्गणा इनमें कुछ शब्द भेद ही है अभिप्राय दोनों का समान है। मलयगिरि सूरि ने उनका दूसरा नाम सान्तर-निरन्तर भी प्रकट कर दिया है। (४) दोनों ही ग्रन्थों में इन वर्गणाओं की संख्या का कोई उल्लेख नहीं किया गया है । फिर भी ष० ख० की टीका धवला में उनका विवेचन करते हुए जहाँ २३ क्रमांक दिए गये हैं वहाँ क० प्र० की मलयगिरि विरचित टीका में उनकी प्ररूपणा करते हुए २६ क्रमांक दिय गए हैं। इसका कारण यह है कि धवला में प्रारम्भ में एकप्रदेशिक, संख्येयप्रदेशिक, असंख्येयप्रदेशिक और अनन्तप्रदेशिक इन चार वर्गणाओं को गणनाक्रम में ले लिया गया है । पर जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है, कर्मप्रकृति मूल में और उसकी मलयगिरि विरचित टीका में उन चारों का उल्लेख करते हुए भी उन्हें पृथक्-पृथक् गणनाक्रम में न लेकर एक अग्रहणवर्गणा के अन्तर्गत कर लिया गया है। कारण यह कि वे चारों ग्रहण योग्य नहीं हैं। धवलाकार को भी वह अभीष्ट है। इस प्रकार क०प्र० टीका में ३ अंक कम हो जाने से २० (२३३) रह जाते हैं। इसके अतिरिक्त धवला में औदारिक, अग्रहण, वैक्रियिक, अग्रहण, आहारक और अग्रहण इन छह को आहार और अग्रहण इन दो वर्गणाओं के अन्तर्गत लिया गया है। इस प्रकार क० प्र० में धवला की अपेक्षा चार (६-२- ४) अधिक रहते हैं। साथ ही क० प्र० में प्राणापान और अग्रहण इन दो अन्य वर्गणाओं को भी ग्रहण किया गया है, जिन्हें धवला में नहीं ग्रहण किया गया। इस प्रकार छह के अधिक होने से क० प्र० में उनकी संख्या छब्बीस (२०+-४+२) निर्दिष्ट की गई है। इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में टीका की अपेक्षा वर्गणाओं के क्रमांकों में कुछ भिन्नता के होने पर भी मूलग्रन्थों की अपेक्षा उनके उल्लेख में समानता ही रहती है । यहाँ इन दोनों ग्रन्थों में विषय की अपेक्षा उदाहरणपूर्वक कुछ समानता प्रकट की गई है। अन्य भी कुछ ऐसे विषय हैं, जिनमें परस्पर दोनों ग्रन्थों में समानता देखी जाती है । जैसे__ष० ख० में वेदनाद्रव्यविधान-चूलिका में प्रसंग पाकर उनतीस (१४५-७३) सूत्रों में योगविषयक अल्पबहुत्व व उसके गुणकार की प्ररूपणा की गई है। क० प्र० में भी उसकी प्ररूपणा ठीक उसी क्रम से की गई है। विशेषता यह है कि ष०ख० में जहाँ उसकी प्ररूपणा विशदतापूर्वक २६ सूत्रों में की गई है वहाँ कर्मप्रकृति में उसकी प्ररूपणा संक्षेप से इन तीन गाथाओं में कर दी गई है सव्वत्थोवो जोगो साहारणसहमपढमसमयम्मि । बायरबिय-तिय-चउरमण-सन्नपज्जत्तगजहन्नो॥ १. क० प्र०, पृ० ३६/१ (गा० १६) २. ष० ख० सूत्र ४,२,४,१४४-७३ (पु० १०, पृ० ३६५-४०३ १६६/ षटखण्डागम-परिशीलन Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आइदुगुक्कोसो पज्जत्तजहन्नगेयरे य कमा। उक्कोस-जहन्नियरो असमत्तियरे असंख गुणो ॥ अमणाणुत्तर-गेविज्ज-भोगभूमिगय तइयतणुगेसु । कमसो असंखगुणिओ सेसेसु य जोगु उक्कोसा ॥ -क० प्र० बन्धनकरण १४-१६ दूसरी विशेषता यह भी रही है कि ष० ख० में सबके अन्त में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक सामान्य से ही उल्लेख किया गया है किन्तु क० प्र० में 'संज्ञी' के अन्तर्गत इन भेदों में भी पृथक्-पृथक् उस अल्पबहुत्व को प्रकट किया गया है-अनुत्तरोपपाती देव, ग्रेवेयक देव, भोगभूमिज तिर्यग्मनुष्य, आहारकशरीरी और शेष देव-नारक-तिर्यग्-मनुष्य (देखिए ऊपर गाथा १६) । __ष० ख० में यहीं पर आगे योगस्थान प्ररूपणा में इन दस अनुयोगद्वारों का निर्देश करते हुए उनके आश्रय से प्रसंगप्राप्त योगस्थानों की प्ररूपणा की गई है.---अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पबहुत्व ।' क० प्र० में भी इन्हीं दस अनुयोगद्वारों के आश्रय से क्रमशः उनकी प्ररूपणा की गई है।' दोनों ग्रन्थगत प्रारम्भ का प्रसंग इस प्रकार है "जोगट्ठाणपरूवणदाए तत्थ इमाणि दस अणि योगद्वाराणि णादव्वाणि भवंति । अविभागपडिच्छेदपरूवणा वग्गणपरूवणा फद्दयपरूवणा अंतरपरूवणा ठाणपरूवणा अणंतरोवणिधा परंपरोपणिधा समयपरूवणा वढिपरू वणा अप्पाबहुए त्ति ।" -सूत्र ४,२,४,१७५-७६ (पु० १०, पृ० ४३२ व ४३८) अविभाग-वग्ग-फड्डग-अंतर-ठाणं अणंतरोवणिहा। जोगे परंपरा-बुढि -समय-जीवप्प-बहुगं च ॥ --क० प्र० बन्धनकरण ५ दोनों ग्रन्थों में समयप्ररूपणा और वृद्धिप्ररूपणा इन दो अनुयोगद्वारों में क्रमव्यत्यय है। दोनों ग्रन्थों में यह एक विशेषता रही है कि ष० ख० में जहाँ प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा प्रायः प्रश्नोत्तरशैली के अनुसार विस्तारपूर्वक गई है वहाँ क० प्र० में उसी की प्ररूपणा प्रश्नोत्तरशैली के बिना अतिशय संक्षेप में की गई है। उदाहरण के रूप में नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार (जीवकाण्ड-कर्मकाड) को लिया जा सकता है। वहाँ आचार्य नेमिचन्द्र ने ष० ख० व उसकी टीका धवला में प्ररूपित विषय को अतिशय संक्षेप में संगृहीत कर लिया है। ५. षट्खण्डागम और सर्वार्थसिद्धि 'सर्वार्थसिद्धि' यह आचार्य पूज्यपाद अपरनाम देवनन्दी (५-६ ठी शती) विरचित तत्वार्थ सूत्र की एक महत्त्वपूर्ण व्याख्या है। इसमें तत्त्वार्थसूत्र के अन्तर्गत सभी विषयों का विशदी १. ष० ख० सूत्र ४,२,४,१७५-२१२ (पु० १०, पृ० ४३२-५०४) २. क० प्र० बन्धनकरण, गा० ५-१३ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १६७ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण किया गया है । आचार्य पूज्यपाद अद्वितीय वैयाकरण रहे हैं। उनका 'जैनेन्द्र व्याकरण' सुप्रसिद्ध है। साथ ही वे सिद्धान्त के मर्मज्ञ भी रहे हैं। उनके समक्ष प्रस्तुत षट्खण्डागम रहा है और उन्होंने इस सर्वार्थसिद्धि की रचना में उसका भरपूर उपयोग किया है। तत्त्वार्थसूत्र के 'सत्संख्या-क्षेत्र-स्पर्शन-कालान्तर-भावाल्प-बहुत्वैश्च' इस सूत्र (१-८) की जो उन्होंने विस्तृत व्याख्या की है उसका आधार यह षट्खण्डागम ही रहा है। १० ख० के प्रथम खण्ड जीवस्थान में जिस पद्धति से क्रमशः सत्प्ररूपणा व द्रव्यप्रमाणानुगम आदि आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से चौदह गुणस्थानों और चौदह मार्गणास्थानों में जीवों की विविध अवस्थाओं की प्ररूपणा की गई है, ठीक उसी पद्धति से सर्वार्थसिद्धि में उपर्युक्त सूत्र की व्याख्या करते हुए आ० पूज्यपादने यथाक्रम से उन्हीं आठ अनुयोगद्वारों में उन गुणस्थानों और मार्गणाओं के आश्रय से जीवों की प्ररूपणा की है। उदाहरण के रूप में इन दोनों ग्रन्थों के कुछ प्रसंगों को उद्धत किया जाता है, जो न केवल शब्दसन्दर्भ से ही समान हैं प्रत्युक्त उन प्रसंगों से सम्बद्ध सर्वार्थसिद्धि का बहुत-सा सन्दर्भ तो ष० ख० के सूत्रों का छायानुवाद जैसा दिखता है । यथा (१) ष० ख० में सर्वप्रथम गुणस्थानों की प्ररूपणा में प्रयोजनीभूत होने से चौदह मार्गणास्थानों के जान लेने की प्रेरणा इस प्रकार की गई है "एत्तो इमेसि चोद्दसण्हं जीवसमासाणं मग्गणट्ठदाए तत्थ इमाणि चोद्दस चेव ट्ठाणाणि णायव्वाणि भवंति । तं जहा । गइ इंदिए काए जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दंसणे लेस्सा भविय सम्मत्त सण्णि आहारए चेदि ।"-१० ख० सूत्र १,१,२-४ (पु० १)। सर्वार्थसिद्धि में इसी प्रसंग को देखिए जो शब्दश: समान है "एतेषामेव जीवसमासानां निरूपणार्थ चतुर्दश मार्गणास्थानानि ज्ञेयाणि । गतीन्द्रिय-काययोग-वेद-कषाय-ज्ञान-संयम-दर्शन-लेश्या-भव्य-सम्यक्त्व-संज्ञाऽऽहारका इति ।" –स०सि०, पृ० १४ १. सत्प्ररूपणा ___ "संतपरूवणदाए दुविहो णिद्देसो ओघेण य आदेसेण य । ओघेण अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी....सजोगकेवली अजोगकेवली चेदि।"-१०ख० सूत्र १,१,८-२३ __ "तत्र सत्प्ररूपणा द्विविधा सामान्येन विशेषेण च ।' सामान्येन तावत् अस्ति मिथ्या दृष्टिः । अस्ति सासादनसम्यग्दृष्टिरित्येवमादि ।" -- स०सि०, पृ० १४ गतिमार्गणा "आदेसेण गदियाणुवादेण अत्थि णिरयगदी तिरिक्खगदी मणुस्सगदी देवगदी सिद्धगदी चेदि । रइया चउट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि त्ति। तिरिक्खा पंचसु हाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्टि सम्मामिच्छाइट्ठी असंजद १. ओघ और सामान्य तथा आदेश और विशेष ये समानार्थक शब्द हैं । यथा--'ओपेन सामा न्येनाभेदेन प्ररूपणमेकः । अपरः आदेशेन भेदेन विशेषेण प्ररूपण मिति ।' धवला पु० १, पृ० १६० २. चौदह गुणस्थानों का उल्लेख यहीं पर इसके पूर्व किया जा चुका है। -पृ० १४ १६८ / षट्खण्डागम-परिशीलन . Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्माइट्ठी संजदासजदा त्ति । मणुस्सा चोद्दससु गुणट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी....' 'सजोगिकेवली अजोगिकेवलि त्ति । देवा चदुसु ट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइद्वित्ति ।" -ष० ख०, सूत्र १,१, २४-२८ इसी प्रसंग को सर्वार्थसिद्धि में देखिए "विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ सर्वासु पृथिवीसु आद्यानि चत्वारि गुणस्थानानि भवन्ति । तियंग्गतौ तान्येव संयतासंयतस्थानाधिकानि भवन्ति । मनुष्यगतौ चतुर्दशापि सन्ति । देवगतो नारकवत्।" -स०सि०, पृ०१४ ___ यहाँ यह स्मरणीय है कि षट्खण्डागम की रचना के समय और उसके पूर्व भी साधुसमुदाय के मध्य में तत्त्वचर्चा हुआ करती थी। इसलिए उसमें शंका-समाधान को महत्त्व प्राप्त था । साथ ही, अनेक शिष्यों के बीच में रहने से उस तत्त्वचर्चा के समय उनकी बुद्धि की हीनाधिकता और रुचि का भी ध्यान रखा जाता था। इसलिए विशदतापूर्वक विस्तार से तत्त्व का व्याख्यान हुआ करता था। तदनुसार ही आगमपद्धति पर प्रस्तुत षट्खण्डागम की रचना हुई है। इसीलिए उसमें जहाँ तहाँ कुछ पुनरुक्ति भी हुई है। पर सर्वार्थसिद्धिकार के सामने यह समस्या नहीं रही। उन्हें विवक्षित तत्त्व का व्याख्यान संक्षेप में करना तो अभीष्ट था, पर विशदतापूर्वक ही उसे करना था। तदनुसार उन्होंने संक्षेप को महत्त्व देकर भी कुछ भी अभिप्राय छूट न जाय, इसका विशेष ध्यान रखा है। उदाहरणस्वरूप ऊपर के सन्दर्भ में ष० ख० में जहाँ चारों गतियों के प्रसंग में पृथक्पृथक् अनेक बार उन गुणस्थानों का उल्लेख किया गया है वहाँ सर्वार्थसिद्धि में नरकगति के प्रसंग में सम्भव उन चार गुणस्थानों का पृथक-पृथक उल्लेख करके आगे तिर्यंचगति में उनका पृथक्-पृथक् पुनः उल्लेख न करके यह कह दिया है कि एक संयतासंयत गुणस्थान से अधिक वे ही चार गुणस्थान तिर्यंच गति में सम्भव हैं। इसी प्रकार आगे मनुष्यगति के प्रसंग में ष० ख० में जहां पृथक्-पृथक् चौदह गुणस्थानों का उल्लेख किया गया है वहाँ स०सि० में इतना मात्र निर्देश कर दिया गया है कि मनुष्यगति में चौदहों गुणस्थान सम्भव हैं। इसी प्रकार देवगति के प्रसंग में ष० ख० में जहाँ उन चार गुणस्थानों का पुन: उल्लेख किया गया है वहाँ स० सि० में यह स्पष्ट कर दिया है कि देवगति में नारकियों के समान प्रथम चार गुणस्थान सम्भव हैं। __ इस प्रकार स० सि० में संक्षेप को महत्त्व देकर भी ष० ख० के प्रसंग प्राप्त उस सन्दर्भ के सभी अभिप्राय को अन्तहित कर लिया है। शेष मार्गणा ष० ख० में गतिमार्गणा के पश्चात् शेष इन्द्रिय आदि मार्गणाओं में इसी प्रकार से गुणस्थानों के सद्भाव को दिखाते हुए प्रसंगानुसार कुछ अन्य भी विचार किया गया है। जैसेइन्द्रिय मार्गणा में एकेन्द्रिय आदि जीवों के यथासम्भव बादर-सूक्ष्म व पर्याप्त-अपर्याप्त आदि भेदों का निर्देश। इन्हीं भेदों का उल्लेख वहाँ आगे कायमार्गणा के प्रसंग में भी पुनः किया गया है। पश्चात् क्रमप्राप्त योगमार्गणा में क्रम से योग के भेद-प्रभेदों को दिखाकर उनमें कौन योग किन जीवों के सम्भव हैं, इसे स्पष्ट किया है व इसी प्रसंग में पर्याप्ति-अपर्याप्तियों का भी विस्तार से विचार किया गया है। षट्खण्डागम की अन्य प्रन्थों से तुलना / १६६ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वार्थसिद्धि में वैसी कुछ अन्य चर्चा नहीं की गई है। वहीं केवल सत्प्ररूपणा उन मार्गणाओं में यथासम्भव गुणस्थानों के अस्तित्व को प्रकट किया गया है । जैसे इन्द्रियमार्गणा " एइंदिया वीइंदिया तीइंदिया चउरदिया असण्णिपंचिदिया एक्कम्मि चेव मिच्छा इट्ठि| पंचिदिया असष्णिपंचिदियप्पहुडि जाव अजोगिकेवलिति । तेण परमणिदिया इदि ।” - ष० ख० सूत्र १,१,३६-३८ "इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियादिषु चतुरिन्द्रियपर्यन्तेषु एकमेव मिथ्य्यादृष्टिस्थानम् । पंचेद्रियेषु चतुर्दशापि सन्ति । " - स० स०, पृ० १४ इस प्रकार यहाँ गुणस्थानों का उल्लेख दोनों ग्रन्थों में समान रूप से किया गया है । विशेष इतना है कि ष० ख० में जहाँ असंज्ञी पंचेन्द्रियों का निर्देश एकेन्द्रियों आदि के साथ तथा पंचेन्द्रियों के साथ भी गुणस्थानों का उल्लेख करते समय किया गया है वहाँ स० सि० में संज्ञी असंज्ञी का भेद न करके एकेन्द्रियादि चार के एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान और पंचेन्द्रियों के चौदहों गुणस्थानों का सद्भाव प्रकट कर दिया गया है । यहीं स्थिति अन्य मार्गणाओं के प्रसंग में भी दोनों ग्रन्थों की रही है। 'अनुसार २. द्रव्यप्रमाणानुगम ( संख्या प्ररूपणा ) द्रव्यप्रमाणानुगम यह सत्प्ररूपणा आदि उपर्युक्त आठ अनुयोगद्वारों में दूसरा है । स० सि० में इसका उल्लेख 'संख्याप्ररूपणा' के नाम से हुआ है । अर्थ की अपेक्षा दोनों में कुछ भी भेद नहीं है । इसके प्रसंग में भी दोनों ग्रन्थों की समानता द्रष्टव्य है— "दव्वपमाणाणुगमेण दुविहो णिद्द सो ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छाइट्ठी केवडिया ? प्रणता । प्रणंताणंताहि ओसप्पिणिउस्सप्पिणीहि ण प्रवहिरंति कालेण । खेत्तेण अणंताणंता लोगा । तिन्हं पि अधिगमो भावपमाण । सासणसम्माइट्टिप्पहुडि जाव संजदासंजदा ति दव्वपमाणेण केवडिया ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एदेहि पलिदोवममवहिरिज्जदि अंतोमुहुत्तेण । पमत्तसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया ? कोडिपुधत्तं । अप्पमत्तसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया ? संखेज्जा । चदुण्हमुवसामगा दव्वपमाणेण केवडिया ? पवेसणेण एक्को वा दो वा तिणि वा उक्कस्सेण चउवण्णं । श्रद्धं पडुच्च संखज्जा ।" — सूत्र १,१.१ १० "संख्या प्ररूपणोच्यते- - सा द्विविधा | सामान्येन तावत् जीवा मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ता । सासादन-सम्यग्दृष्टयः सम्यग्मिथ्यादृष्टयोऽसंयतसम्यग्दृष्टयः संयतासंयताश्च पल्योपमा संख्येयभागप्रमिताः । प्रमत्तसंयताः कोटीपृथक्त्वसंख्याः । पृथक्त्वमित्यागमसंज्ञा तिसृणां' कोटीनामुपरि नवानामधः । अप्रमत्तसंयताः संख्येयाः । चत्वार उपशमका प्रवेशेन एको वा द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षेण चतुःपञ्चाशत्, स्वकालेन समुदिताः संख्ये याः ।” - स०सि० पृ० १६-१७ इस प्रकार से यह संख्याप्ररूपणा का प्रसंग दोनों ग्रन्थों में प्रायः शब्दश: समान है । विशेषता इतनी है कि ष० ख० में मिथ्यादृष्टियों के प्रमाण को अनन्त बतलाते हुए उसकी प्ररूपणा काल, क्षेत्र और भाव की अपेक्षा भी की गई है (सूत्र २ - ५ ) । पर स०सि० में मिथ्यादृष्टियों की उस संख्या को सामान्य से अनन्तानन्त कहकर सम्भवतः दुर्बोध होने के कारण काल, क्षेत्र और भावकी अपेक्षा उसका उल्लेख नहीं किया गया है। बीच में यहाँ 'पृथक्त्व' इस २०० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोक्त संज्ञा को भी स्पष्ट कर दिया गया है, जिसका स्पष्टीकरण ष० ख० मूल में न करने पर भी धवला टीका में कर दिया गया है । ' आगे दोनों ही ग्रन्थों में चार क्षपकों, प्रयोगि- केवलियों और सयोगि- केवलियों की संख्या का भी उल्लेख समान रूप में किया गया है। * संख्याप्ररूपणा का यह क्रम आगे गति- इन्द्रियादि मार्गणाओं में भी प्रायः दोनों ग्रन्थों में समान उपलब्ध होता है । ३. क्षेत्रानुगम ष० ख० और स० सि० दोनों ही ग्रन्थों में पूर्व पद्धति के अनुसार चौदह गुणस्थानों में क्षेत्र का निर्देश इस प्रकार किया गया है "खेत्ताणुगमेण दुविहो गिद्द े सो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छाइट्ठी केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे । सासणसम्माइट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलित्ति केवड खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभाए । सोगिकेवली केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सब्बलोमे वा।" - ष० ख०, सूत्र १,३,१-४ "क्षेत्र मुच्यते । तद् द्विविधम् - सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन तावत् मिध्यादृष्टीन सर्वलोकः । सासादनसम्यग्दृष्टयादीनामयोग केवल्यन्तानां लोकस्यासंख्येयभागः । सयोगकेवलिनां लोकस्यासंख्येयभागः, समुद्घातेऽसंख्येया वा भागाः सर्वलोको वा ।" स०सि०, पृ० २०-२१ यह क्षेत्रप्ररूपणा का प्रसंग भी दोनों ग्रन्थों में समान है। विशेष इतना है कि वहाँ सयोग - केवलियों का क्षेत्र जो प्रसंख्यात बहुभाग और सर्वलोक प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है वह समुद्घात की अपेक्षा सम्भव है, इसे सर्वार्थसिद्धि में स्पष्ट कर दिया गया है । उसका स्पष्टीकरण मूल ष० ख० में तो नहीं किया गया, पर धवला टीका में उसे स्पष्ट कर दिया गया है । ३ क्षेत्रविषयक यह समानता दोनों ग्रन्थों में आगे मार्गणाओं के प्रसंग में भी देखी जा सकती है। ४. स्पर्शनानुगम स्पर्शनविषयक समानता भी दोनों ग्रन्थों में द्रष्टव्य है “पोसणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं ? सव्वलोगो । सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अट्ठ बारह चोट्स भागा वा देसूणा । सम्मामिच्छाइट्ठि असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं ? १. पुधत्तमिदि तिन्हं कोडीणमुवरि णवण्हं कोडीणं हेट्ठदो जा संख्या सा घेत्तव्वा ! २. ष० ख० सूत्र १, २, ११-१४ और स० सि०, पृ० १७ ३. पदरगदो केवली केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जेसु भागेसु, लोगस्स असंखेज्जदिभागं वादवलयरुद्धखेत्तं मोत्तूण सेसबहुभागेसु अच्छदि त्ति जं वृत्तं होदि । - धवला पु० ४, पृ० ५०; लोगपूरणगदो केवली केवडि खेत्ते ? सव्बलोगे । पु० ४, पृ० ५६ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २०१ - धवला पु० ३, पृ० ८६ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अट्ठ चोद्दस भागा वा देसूणा । संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। छ चोद्दस भागा वा देसूणा । पमतसंजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदि भागो असंखेज्जा वा भागा सव्वलोगो वा।" -ष० ख० सूत्र १,४, १-१० "स्पर्शनमुच्यते। तद् द्विविधम्-सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन तावत् मिथ्यादृष्टिभिः सर्वलोकः । सासादनसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग: अष्टौ द्वादश वा चतुर्दशभागा देशोनाः सम्यंग्मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ वा चतुर्दश भागा देशोनाः । संयतासंयतैलॊकस्यासंख्येयभागः षट् चतुर्दश भागा वा देशोनाः । प्रमत्तसंयतादीनामयोगकेवल्यन्तानां क्षेत्रवत स्पर्शनम् ।" -स० सि०प्र० २३-२४ दोनों ग्रन्थों में गणस्थानों के आश्रित यह स्पर्शनप्ररूपणा भी शब्दशः समान है। विशेषता इतनी है कि ष० ख० में जहाँ अयोगिकेवली पर्यन्त प्रमत्तसंयतादिकों के और सयोगिकेवलियों के स्पर्शन की प्ररूपणा पृथक् रूप से की गई है (सूत्र ६-१०) वहाँ सर्वार्थसिद्धि में संक्षेप से यह निर्देश कर दिया गया है कि अयोगकेवली पर्यन्त प्रमत्तसंयतादिकों के स्पर्शन की प्ररूपणा क्षेत्र के समान है, उससे उसमें कुछ विशेषता नहीं है। इसीलिए सर्वार्थसिद्धि में उनके स्पर्शन की प्ररूपणा पृथक् से नहीं की गई है। दोनों ग्रन्थों में इसी प्रकार की समानता आगे गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं के प्रसंग में भी उपलब्ध होती है। ५. कालानुगम कालविषयक प्ररूपणा भी दोनों ग्रन्थों में समान उपलब्ध होती है । जैसे "कालाणुगमेण दुविहो णि सो-- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो सादिओ सपज्जवसिदो। जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स इमो णिद्दे सो-जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं । सासणसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमो। उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एग जीवं पडुच्च जहण्णण एगसमझो। उक्कस्सेण छजावलियारो।" -१० ख० सूत्र १, ५, १-८ "काल: प्रस्तूयते । स द्विविधः -सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन तावत् मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकजीवापेक्षया त्रयो भङ्गा-अनादिरपर्यवसानः अनादिसपर्यवसानः सादिसपर्यवसानश्चेति । तत्र सादिसपर्यवसानो जघन्येनान्तमुहूर्तः । उत्कर्षेणार्धपुद्गलपरिवर्तों देशोनः । सासादनसम्यग्दृष्टे नाजीवापेक्ष या जघन्येनैकः समयः। उत्कर्षण पल्योपमासंख्येयभागः । एकजीवं प्रति जघन्ये नैकः समयः । उत्कर्षेण षडावलिकाः ।" -स० सि०, पृ० ३१ आगे दोनों ग्रन्थों में इसी प्रकार की समानता सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि शेष गुणस्थानों और गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं के प्रसंग में भी द्रष्टव्य है। ६. अन्तरानुगम अन्तरविषयक प्ररूपणा में भी दोनों ग्रन्थों की समानता द्रष्टव्य है । यथा २०२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अंतराणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-प्रोघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं, णिरंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण वेछावट्ठिसागरोवमाणि देसोणाणि ।" । -१० ख०, सूत्र १,६, १-४ “अन्तरं निरूप्यते । विवक्षितस्य गुणस्य गुणान्तरसंक्रमे सति पुनस्तत्प्राप्तेः प्राड्.मध्यमन्तरम् । तद् द्विविधम्-सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन तावत् मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तमुहूर्तः । उत्कर्षेण द्वे षषष्ठी देशोने सागरोपमानाम् ।" --स० सि०, पृ० ४० यहाँ विशेषता यह रही है कि मूल ष० ख० में प्रकृत अन्तर का कुछ स्वरूप नहीं प्रकट किया गया है, पर स० सि० में उसकी प्ररूपणा के पूर्व उसके स्वरूप का भी निर्देश कर दिया गया है। धवला में उसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसकी प्ररूपणा के प्रारम्भ में अन्तर विषयक निक्षेप की योजना की गई है, जिसके आश्रय से प्रकृत में 'अन्तर' के अनेक अर्थों में कौन-सा अर्थ अभिप्रेत है, यह ज्ञात हो जाता है।' ०ख० में यहाँ ‘णत्थि अंतरं' के साथ 'णिरंतरं' पद का भी उपयोग किया गया है। स०सि० में 'नास्त्यन्तरम्' इतने मात्र से अभिप्राय के अवगत हो जाने से फिर आगे 'निरन्तरम्' पद का उपयोग नहीं किया गया है। दोनों ग्रन्थों में इसी प्रकार की समानता व विशेषता आगे शेष गुणस्थानों और मार्गणास्थानों के प्रसंग में भी देखी जाती है। ७. भावानुगम दोनों ग्रन्थों में क्रमप्राप्त भावविषयक समानता भी देखी जाती है । यथा "भावाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छाइट्ठि त्ति को भावो? ओदइओ भावो । सासणसम्मादिट्टि ति को भावो? पारिणामिओ भावो । सम्मामिच्छादिट्रि त्ति को भावो ? खओवसमिओ भावो। असंजदसम्मादिट्टि त्ति को भावो ? उवसमिओ वा खइओ वा खओवसमिओ वा भावो । ओदइएण भावेण पुणो असंजदो।" -ष ०ख०, सूत्र १,७,१-६ "भावो विभाव्यते ! स द्विविध:--सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन तावत् मिथ्यादृष्टिरित्यौदयिको भावः। सासादनसम्यग्दृष्टिरिति पारिणामिको भावः । सम्यड्.मिथ्यादृष्टिरिति क्षायोपशमिको भावः । असंयतसम्यग्दृष्टिरिति औपशमिको वा क्षायिको वा क्षायोपशमिको वा भावः । उक्तं च ---Xxx। असंयतः पुनरोदयिकेन भावेन ।" -स०सि०, पृ० ५० इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में यह भावविषयक प्ररूपणा भी क्रमशः समान पद्धति में की गई है। स० सि० में इतनी विशेषता रही है कि असंयतसम्यग्दृष्टि भाव के दिखला देने के पश्चात् वहाँ 'उक्तं च' कहकर 'मिच्छे खलु ओदइओ' इत्यादि गाथा को उद्धृत किया गया है। ८. अल्पबहुत्वानुगम ष० ख० में जीवस्थान खण्ड का यह अन्तिम अनुयोगद्वार है । पूर्वोक्त सात अनुयोगद्वारों १. धवला, पु० ५, पृ० १-३ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना | २०३ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के समान इस अनुयोगद्वार में अल्पबहुत्व विषयक प्ररूपणा भी दोनों ग्रन्थों में समान है । यथा -- "अप्पा बहुगागमेण दुविहो णिद्द ेस्सो -- श्रोषेण आदेसेण य । ओघेण तिसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा । उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेय । खवा संखेज्जगुणा । atraसावीद रागछ्दुमत्था तत्तिया चेव । सजोगकेवली अजोगकेवली पवेसणेण दो वि तुल्ला तत्तिया चेव । सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च संखेज्जगुणा । " - ष ० ख०, सूत्र १,८,१-७ “अल्पबहुत्वमुपवर्ण्यते । तद् द्विविधम्--- सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन तावत् त्रय उपशमकाः सर्वतः स्तोकाः स्वगुणस्थानकालेषु प्रवेशेन तुल्यसंख्याः । उपशान्तकषायास्तावन्त एव । त्रयः क्षपकाः संख्येयगुणाः । क्षीणकषायवीत रागच्छद्म स्थास्तावन्त एव । सयोगकेवलिनोsयोगकेवलिनश्च प्रवेशेन तुल्यसंख्याः । सयोगकेवलिनः स्वकालेन समुदिताः संख्येयगुणाः ।” -- स०सि० पृ० ५२ दोनों ग्रन्थों में इसी प्रकार से इस प्रल्पबहुत्व की प्ररूपणा आगे अप्रमत्त प्रमत्तादि शेष गुणस्थानों में ओघ (सामान्य) की अपेक्षा और गत्यादि मार्गणाओं में आदेश (विशेष) की अपेक्षा समान रूप में की गई है । विशेष इतना है कि ष० ख० में ओघप्ररूपणा के प्रसंग में असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संयतासंयत गुणस्थान व प्रमत्ताप्रमत्त गुणस्थानों आदि में उपशम सम्यग्दृष्टियों आदि के अल्पबहुत्व को भी पृथक् से दिखलाया गया है (सूत्र १, ८, १५-२६)। उसकी प्ररूपणा स० सि० में पृथक् से नहीं की गई है। ऐसी ही कुछ विशेषता मार्गणाओं के प्रसंग में भी रही है । अन्य कुछ उदाहरण १. ष० ख० में जीवस्थान के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में सम्यक्त्व मार्गणा के प्रसंग में नारकी असंयत सम्यग्दृष्टियों में कौन-कौन से सम्यग्दर्शन सम्भव हैं, इसका विचार करते हुए कहा गया है कि सामान्य से असंयत सम्यग्दृष्टि नारकियों के क्षायिक सम्यक्त्व वेदक सम्यक्त्व और औपशमिक सम्यक्त्व ये तीनों सम्भव हैं । यह प्रथम पृथिवी को लक्ष्य में रखकर कहा गया है, आगे द्वितीयादि छह पृथिवियों के असंयतसम्यग्दृष्टि नारकियों में क्षायिक सम्यक्त्व का निषेध कर दिया गया है । ' इसके पूर्व योगमार्गणा के प्रसंग में यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि नारकियों के पर्याप्त व अपर्याप्त अवस्था में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि ये दो गुणस्थान सम्भव हैं । यह प्रथम पृथिवी के नारकियों को लक्ष्य में रखकर कहा गया है । आगे द्वितीयादि पृथिवियों के नारकियों के अपर्याप्त अवस्था में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का प्रतिषेध है ।" स० सि० में सम्यग्दर्शन को उदाहरण बनाकर 'निर्देश - स्वामित्व-साधनाधिकरण-स्थितिविधानत:' इस सूत्र ( त० सूत्र १-७) की व्याख्या की गई है । वहाँ स्वामित्व के प्रसंग में कहा गया है कि गति के अनुवाद से नरकगति में सब पृथिवियों में पर्याप्त नारकियों के औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन सम्भव हैं । किन्तु प्रथम पृथिवी के नारकियों में पर्याप्तकों और १. सूत्र १,१, १५३-५५ २. सूत्र १,१,७६-८२ २०४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपर्याप्तकों के क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन सम्भव हैं ।" इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि में की गई इस प्ररूपणा का आधार ष० ख० का उपर्युक्त प्रसंग रहा है। २. तत्त्वार्थसूत्र के उक्त सूत्र (१-७) की समस्त व्याख्या का आधार यही ष०० रहा है । विशेष इतना है कि ष० ख० में जिस पद्धति से गुणस्थानों और मार्गणास्थानों में उस सम्यग्दर्शन के स्वामित्व आदि का विचार किया गया है तदनुसार वह विभिन्न प्रसंगों में किया गया है । जैसे— स० सि० में इसी सूत्र की व्याख्या करते हुए 'साधन' के प्रसंग में कहा गया कि चौथी पृथिवी के पूर्व ( प्रथम तीन पृथिवियों में ) नारकियों में किन्हीं नारकियों के सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का बाह्य साधन (कारण) जातिस्मरण, धर्मश्रवण अथवा वेदना का अभिभव है । किन्तु आगे चौथी से लेकर सातवीं पृथिवी तक के नारकियों के उसकी उत्पत्ति का कारण धर्मश्रवण सम्भव नहीं है, शेष जातिस्मरण और वेदनाभिभव ये दो ही कारण सम्भव हैं । " ष० ख० में उस सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के कारणों की प्ररूपणा जीवस्थान की नौ चूलिकाओं में से अतिम 'गति - आगति' चूलिका के प्रसंग में विस्तार से की गई है । सर्वार्थसिद्धि का उपर्युक्त प्रसंग उस गति आगति चूलिका के इन सूत्रों पर आधारित है— 'रइया मिच्छा इट्ठी कदिहि कारणेहि पढमसम्मत्तमुप्पादेति ? तीहि कारणेहिं पढमसम्मत्तमुप्पादेति । केइ जाइस्सरा, केई सोऊण, कई वेदणाहिभूदा । एवं तिसु उवरिमासु पुढवीसु रइया । चदुसु हेट्टिमासु पुढवीसु णेरइया मिच्छाइट्ठी कदिहि कारणेहि पढमसम्मत्तमुप्पादेति ? दोहि कारणेहि पढमसम्मत्तमुप्पादेति । केई जाइस्सरा केई वेयणाहिभूदा ।' "" - ष० ख०, सूत्र १,६-६, ६-१२ दोनों ग्रन्थगत सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के उन कारणों की प्ररूपणा सर्वथा समान है । विशेषता यही है कि ष० ख० में वह प्ररूपणा जहाँ आगम पद्धति के अनुसार प्रश्नोत्तर के साथ की गई है वहाँ स० सि० में वही प्ररूपणा प्रश्नोत्तर के बिना संक्षेप में कर दी गई है । दोनों ग्रन्थों में आगे सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के उन कारणों की प्ररूपणा अपनी-अपनी पद्धति से समान रूप में क्रम से तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति में भी की गई है । 3 ३. दोनों ग्रन्थों में सम्यग्दर्शन की स्थिति का प्रसंग भी देखिए 41 ष० ख० में दूसरे खण्ड क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत 'एक जीव की अपेक्षा कालानुगम' अनुयोगद्वार में सम्यक्त्वमार्गणा के प्रसंग में सामान्य सम्यग्दृष्टियों और क्षायिक सम्यग्दृष्टियों आदि के जघन्य और उत्कृष्ट काल की प्ररूपणा इस प्रकार की गई है— “सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? जहण्णेण अंतोमुहुत्त । उक् छावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । खइयसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? जहणेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि सादिरेपाणि । वेदगसम्माइट्ठी केवचिरं कालादो १. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ६ २. वही, पृ० ११ ३. ष० ख० सूत्र, तिर्यंचगति १, ६-६, २१-२२; मनुष्यगति १, ६- ६, २६-३०; देवगति १, ε-६,३६-३७ (पु० ६) तथा स०सि० पृ० ११-१२ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २०५ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होति ? जहणेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण छावद्विसागरोवमाणि । उव समसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी के चिरं कालादो होंति ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।" --सूत्र २,२,१८८- ६६ ( पु० ७ ) "स्थिति रौपशमिकस्य जघन्योत्कृष्टा चान्तर्मी हूर्तिकी । क्षायिकस्य संसारिणो जघन्यान्तहूर्त । उत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि सान्तर्मुहूर्ताष्टवर्ष हीन - पूर्व कोटिद्वयाधिकानि । मुक्तस्य सादिरपर्यवसाना । क्षायोपशमिकस्य जघन्यान्तम हूर्तिकी । उत्कृष्टा षट्षष्ठिसागरोपमाणि । " स० [सि० पृ० १२ इस प्रकार इस स्थिति का प्रसंग भी दोनों ग्रन्थों में सर्वथा समान है । विशेषता यह है कि ष० ख० में सामान्य सम्यग्दृष्टियों के काल को भी प्रकट किया गया है, जिसका उल्लेख सर्वार्थसिद्धि में पृथक् से नहीं किया गया है, क्योंकि वह विशेष प्ररूपणा से सिद्ध है । इसके अतिरिक्त ष० ख० में जहाँ उस सम्यक्त्व के आधारभूत सम्यग्दृष्टियों के काल का निर्देश है वहाँ सर्वार्थसिद्धि में सम्यक्त्वविशेषों के काल को स्पष्ट किया गया है । इससे अभिप्राय में कुछ भी भेद नहीं हुआ है । ष० ख० में प्रथमतः क्षायिक सम्यग्दृष्टियों और तत्पश्चात् वेदक ( क्षायोपशमिक ) सम्यदृष्टियों व औपशमिक सम्यग्दृष्टियों के काल को दिखलाया गया है । किन्तु सर्वार्थसिद्धि में प्रथमतः औपशमिक और तत्पश्चात् क्षायिक व औपशमिक सम्यक्त्व की स्थिति को प्रकट किया गया है । इससे केवल प्ररूपणा के क्रम में भेद हुआ है । ष०ख० में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों के उत्कृष्ट काल का निर्देश करते हुए उसे साधिक तेतीस सागरोपम कहकर उसकी अधिकता को स्पष्ट नहीं किया गया है। किन्तु सर्वार्थसिद्धि में उस अधिकता को स्पष्ट करते हुए उसे अन्तर्मुहूर्त आठ वर्ष से हीन दो पूर्वकोटियों से अधिक कहा गया है ।" सर्वार्थसिद्धि में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि क्षायिक सम्यक्त्व की यह उत्कृष्ट स्थिति संसारी जीव की अपेक्षा निर्दिष्ट है । मुक्तजीव की अपेक्षा क्षायिकसम्यक्त्व की स्थिति आदि व अन्त से रहित है । सर्वार्थसिद्धि की यह संक्षिप्त प्ररूपणा बहुत अर्थ से गर्भित है । ष०ख० में सम्यक्त्वमार्गणा के अन्तर्गत होने से सम्यग्मिथ्यादृष्टियों, सासादन सम्यग्दृष्टियों और मिथ्यादृष्टियों के काल का भी उल्लेख है ( २,२,११७-२०३) । ४. ष० ख० में जीवस्थान से सम्बद्ध नौ चूलिकाओं में आठवीं सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिका है । वहाँ सर्वप्रथम सम्यक्त्व कब, कहाँ और किस अवस्था में उत्पन्न होता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वह कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति के होने पर प्राप्त नहीं होता । किन्तु जीव जब सब कर्मों की अन्तःकोड़ाकोड़ा प्रमाण स्थिति को बाँधता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । उसमें भी जब वह उक्त अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति को संख्यात हजार सागरोपम से हीन स्थापित करता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता १. ष० ख० की टीका में उस अधिकता को सर्वार्थसिद्धि के समान स्पष्ट कर दिया गया है । साथ ही वहाँ वह कैसे घटित होता है, इसे भी स्पष्ट कर दिया है । - ( धवला पु० ७, पृ० १७६ -८० ) २०६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। उस सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्त और सर्वविशुद्ध होता है। यही अभिप्राय स० सि० में भी समान रूप से प्रकट किया गया है। दोनों ग्रन्थों की दह समानता इस प्रकार देखी जा सकती है "एवदिकालद्विदिएहि कम्मेहि सम्मत्तं ण लहदि । लभदि त्ति विभाषा। एदेसि चेव सव्वकम्माणं जावे अंतोकोडाकोडिट्ठिदि बंधदि तावे पढमसम्मत्तं लभदि । सो पुण पंचिंदियो सण्णी मिच्छाइट्ठी पज्जत्तओ सव्वविसुद्धो। एदेसिं चेव सव्वकम्माणं जाधे अंतोकोडाकोडिदिदि उवेदि संखेज्जेहि सागरोवमसहस्सेहि ऊणियं ताधे पढमसम्मत्तमुप्पादेदि।" --ष०ख०, सूत्र १,६-८,१-५ (पु० ६) "अपरा कर्मस्थिति काललब्धिः--उत्कृष्टस्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु च प्रथमसम्यक्त्वलाभो न भवति । क्व तहि भवति ? अन्तःकोटाकोटीसागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामवशात् सत्कर्मसु च ततः संख्येयसागरोपमसहस्रोनायायन्तःकोटाकोटीसागरोपमस्थितौ स्थापितेषु प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति । अपरा काललब्धिर्भवापेक्षया-भव्यः पञ्चेन्द्रियः संज्ञी पर्याप्तकः सर्वविशुद्धः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति । आदिशब्देन' जातिस्मरणादिः परिगृह्यते।" दोनों ग्रन्थगत इन सन्दर्भो में शब्द और अर्थ की समानता द्रष्टव्य है । उपसंहार ऊपर षट्खण्डागम और सर्वार्थसिद्धि दोनों ग्रन्थों के जिन प्रसंगों को तुलनात्मक दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है उनमें परस्पर की शब्दार्थ विषयक समानता को देखते हुए इसमें सन्देह नहीं रहता कि सर्वार्थसिद्धि के कर्ता आ० पूज्यपाद के समक्ष प्रस्तुत ष० ख० रहा है और उन्होंने सर्वार्थसिद्धि की रचना में यथाप्रसंग उसका पूरा उपयोग किया है। जैसा कि पूर्व में किये गये विवेचन से स्पष्ट हो चुका है, स०सि० में तत्त्वार्थसूत्र के 'सत्संख्यादि' सूत्र (१-८) की व्याख्या करते हुए ष० ख० के प्रथम खण्ड जीवस्थान के अन्तर्गत सत्प्ररूपणादि आठों अनुयोगद्वारों में प्ररूपित प्रायः समस्त ही अर्थ का संक्षेप में संग्रह कर लिया गया है । विशेष इतना कि षट्खण्डागम आगम ग्रन्थ है, अत: उसकी रचना उसी आगमपद्धति से प्रायः प्रश्नोत्तर शैली के रूप में हुई है, इससे उसकी रचना में पुनरुक्ति भी है। इसके अतिरिक्त उसकी रचना मन्दबुद्धि और तीव्रबुद्धि शिष्यों को लक्ष्य में रखकर हुई है, इसलिए विशदीकरण की दृष्टि से भी उसमें पुनरुक्ति हुई है। इसे धवलाकार ने जहाँ तहाँ स्पष्ट भी किया है। १. यह पद इसके पूर्व छठी और सातवीं चूलिका में प्ररूपित कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति का सूचक है। २. स० सि० में इसके पूर्व यह शंका की गई है कि अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के कर्मोदय से उत्पन्न हुई कलुषता के होने पर अनन्तानुबन्धी आदि सात प्रकृत्तियों का उपशम कैसे होता है। इसके समाधान में वहाँ 'काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात्' कहा गया है। इसमें 'काललब्धि' के आगे जो आदि शब्द प्रयुक्त हुआ है उसी की ओर यह संकेत है। ३. इसके लिए धवला के ये कुछ प्रसंग द्रष्टव्य है- (प्रसंग पृष्ठ २०८ पर देखिए) षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २०७ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्तु सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थसूत्र की व्याख्या रूप ग्रन्थ है, इसलिए उसमें तत्त्वार्थसूत्र के ही विषयों का संक्षेप में स्पष्टीकरण किया गया है । संक्षिप्त होते हुए भी वह अर्थबहुल है । उसे यदि वृत्ति सूत्र रूप ग्रन्थ कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । जयधवला में जो यह वृत्तिसूत्र का लक्षण कहा गया है वह सर्वार्थसिद्धि में भी घटित होता है " तस्सेव विवरणाए संखित सद्दयणाए संगहिदसुत्तासेसत्थाए वित्तिसुत्तववएसादो ।" -- क०पा० सुत्त की प्रस्तावना, पृ० १५ अर्थात् सूत्र के जिस विवरण या व्याख्यान में शब्दों की रचना संक्षिप्त हो, फिर भी जिसमें सूत्र के अन्तर्गत समस्त अर्थ का संग्रह किया गया हो उसका नाम वृत्तिसूत्र है । यही कारण है कि भट्टाकलंकदेव ने सर्वार्थसिद्धि के अधिकांश वाक्यों को अपनी कृति तत्त्वार्थवार्तिक में यथाप्रसंग आत्मसात् कर उनके आश्रय से विवक्षित विषय को स्पष्ट किया है।" ६. षट्खण्डागम और तत्त्वार्थवार्तिक तत्त्वार्थवार्तिक यह आचार्य भट्टा कलंकदेव ( ई० सन् ७२०-८० ) के द्वारा विरचित तत्त्वार्थ (१) एवं सुतं मंदबुद्धिसिस्ससंभालणट्ठ खेत्ताणि ओगद्वारे उत्तमेव पुणवि उत्तं .....। ( पु० ४, पृ० १४८) (२) पुणरुत्तत्तादो ण वत्तव्वमिदं सुत्तं ? ण, सव्वेसि जीवाणं सरिसणाणावरणीयकम्मक्खओवसमाभावा । तदो भट्टसंसकारसिस्ससंभालणट्ट वत्तव्वमिदं सुत्तं । (पु० ६, पृ० ८१ ) ( पु० ६, पृ० ८४ ) (३) ण एस दोसो, अइजडसिस्ससंभालणट्ठत्तादो । (४) विस्सरणालुसिस्ससंभालणट्टमिदं सुत्तं । (५) एदेण पुव्वत्तपयारेण दंण मोहणीयं उवसामेदित्ति पुब्वुत्तत्यो चेव सुत्तेण संभालिदो । ( पु० ६, पृ० ८७ ) ( पु० ६, पृ० २३८ ) (६) पुणरुत्तत्तादो णेदं सुत्तं वत्तव्वं ? ण एस दोसो, जडमइसिस्साणुग्गह्हेदुत्तादो । ( पु० ६, पृ० ४८४ ) (७) ण च एत्थ पुणरुत्तदोसो, मंदबुद्धीणं पुणरुत्तपुण्वुत्तत्यसंभालणेण फलोवलंभादो । (पु० ७, पृ० ३६६ ) इसी प्रकार नगमादि नयों के और औपशमिक आदि भावों के स्वरूप से सम्बन्धित वाक्यों को भी दोनों ग्रन्थों में देखा जा सकता है । २. उदाहरण स्वरूप दोनों ग्रन्थगत ये प्रसंग देखे जा सकते हैं (१) आत्म-कर्मणोरन्योन्यप्र देशानुप्रवेशात्मको बन्धः । (२) आस्रवनिरोधलक्षणः संवरः । (३) एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा । (४) ऋत्स्नकर्मविप्रयोगलक्षणो मोक्षः । (५) अभ्यर्हितत्त्वात् प्रमाणस्य तत्पूर्वनिपातः । २०८ / ट्खण्डागम-परिशीलन ( सर्वार्थसिद्धि १-४ व तत्त्वार्थवार्तिक १, ४, १७) ( सर्वार्थसिद्धि १-४ व त०वा० १, ४, १८ ) ( सर्वार्थसिद्धि १-४ व त०वा० १, ४, १६) ( सर्वार्थसिद्धि १-४ व त०वा० १, ४, २० ) ( सर्वार्थसिद्धि १-६ व त०वा० १, ६, १ ) Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र की एक विस्तृत व्याख्या है। आचार्य वीरसेन ने इसका उल्लेख तत्त्वार्थ भाष्य के नाम से किया है ।' प्रा० अकलंकदेव अपूर्व दार्शनिक विद्वान होने के साथ सिद्धान्त के भी पारंगत रहे हैं | अपनी इस व्याख्या में उन्होंने जहाँ दार्शनिक विषयों का महत्त्वपूर्ण विश्लेषण किया है वही उन्होंने सैद्धान्तिक विषयों को भी काफी विकसित किया है । इसके अतिरिक्त उनकी इस व्याख्या में जहाँ तहाँ जो शब्दों की निरुक्ति व उनके साधन की प्रक्रिया देखी जाती है। उससे निश्चित है कि वे शब्दशास्त्र के भी गम्भीर विद्वान रहे हैं । उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यस्वरूप अपनी इस विस्तृत व्याख्या के रचने में प्रस्तुत ष०ख० का अच्छा उपयोग किया है । कहीं-कहीं उन्होंने ष० ख० के सूत्रों को उसी क्रम से छाया के रूप में प्रस्तुत भी किया है । इसी प्रकार उन्होंने सर्वार्थसिद्धि के भी बहुत से वाक्यों को तत्त्वार्थवार्तिक में आत्मसात् कर उनके आधार पर विवक्षित तत्त्व की विवेचना की है। विशेष इतना है कि स०सि० में जहाँ तत्त्वार्थ सूत्र के 'सत्संख्या' आदि सूत्र की व्याख्या में सूत्र में निर्दिष्ट उन सत्प्ररूपणा आदि आठ अनुयोगद्वारों की विस्तृत प्ररूपणा है वहाँ तत्त्वार्थवार्तिक में केवल सत् व संख्या आदि के स्वरूप को ही दिखलाया गया है, उनके आश्रय से वहाँ जीवस्थानों की प्ररूपणा नहीं की गई है । उनकी प्ररूपणा वहाँ आगे जाकर 'अनित्याशरण - संसार' आदि सूत्र ( ६-७ ) की व्याख्या में मात्र सत्प्ररूपणा के आधार से की गई है । षट्खण्डागम के टीकाकार आ० वीरसेन स्वामी ने अपनी धवला टीका में तत्त्वार्थवार्तिक का आश्रय लिया है । कहीं-कहीं उन्होंने इसके वाक्यों को व प्रसंगप्राप्त पूरे सन्दर्भ को भी उसी रूप में अपनी इस टीका में आत्मसात् कर लिया है। इसके अतिरिक्त जैसा कि पीछे कहा जा चुका है, कहीं पर उन्होंने 'उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये' इस नाम निर्देश के साथ भी उसके वाक्यों को प्रसंग के अनुसार उद्धृत किया है । आगे यहाँ तुलनात्मक दृष्टि से उदाहरण के रूप में कुछ ऐसे प्रसंग उपस्थित किये जा हैं जो ष० ख० और त० वा० दोनों ग्रन्थों में समान रूप से उपलब्ध होते हैं । इतना ही नहीं, कहीं-कहीं तो तत्त्वार्थवार्तिककार ने प० ख० के अन्तर्गत खण्ड और अनुयोगद्वार आदि का भी स्पष्टतया उल्लेख कर दिया है । जैसे I १. त० वा० में 'भवप्रत्ययोऽवधिर्देव-नारकाणाम्' सूत्र (१-२१ ) की व्याख्या के प्रसंग में यह शंका उठाई गई है कि आगमपद्धति के अनुसार इस सूत्र में 'नारक' शब्द का पूर्व में निपात होना चाहिए । कारण यह कि आगम ( षट्खण्डागम) में 'जीवस्थान' आदि खण्डों के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा आदि अनुयोगद्वारों में आदेश की अपेक्षा विवक्षित सत्-संख्या आदि की प्ररूपणा करते हुए सर्वत्र प्रथमतः नारकियों में ही उन 'सत्' आदि की प्ररूपणा की गई है । १. धवला पु० १, पृ० १०३ ( उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये ) २. जैसे—— वाक्संस्कारकारणानि शिरः कण्ठादीन्यष्टो स्थानानि । वाक्प्रयोगशुभेतरलक्षणः सुगमः ( वक्ष्यते ) । -धवला पु० १, पृ० ११६ तथा त०वा० १,२०, १२, पृ० ५२ आगे ‘अभ्याख्यानवाक् ́ आदि रूप बारह प्रकार की भाषा और 'नाम-रूप' आदि दस प्रकार के सत्यवचन से सम्बन्धित पूरा सन्दर्भ दोनों में सर्वथा समानरूप में उपलब्ध होता है । देखिए धवला पु० १,११६ १८ और त० वा० १, २०, १२ ( पृ० ५२ ) । ३. 'उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये ।' -धवला पु० १, पृ० १०३ खण्ड की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २०६ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्पश्चात् तियंच, मनुष्य और देवों में उनकी प्ररूपणा है । इ लिए प्रकृत सूत्र में 'देव' शब्द के पूर्व में 'नारक' शब्द का प्रयोग होना चाहिए।' इस शंका का समुचित समाधान वहाँ कर दिया गया है। २. तत्त्वार्थवार्तिक में अवधिज्ञान के देशावधि-परमावधि आदि भेदों का निर्देश करते हुए उनके विषय की विस्तार से जो प्ररूपणा की गई है वह षटखण्डागम के आधार से की गई दिखती है। _ष० ख० में वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार है। वहाँ अवधिज्ञानावरणीय की प्रकृतियों का निर्देश करते हुए प्रसंगवश अवधिज्ञान के देशावधि-परमावधि आदि भेदों का निर्देश किया गया है तथा उनके विषय की प्ररूपणा द्रव्य-क्षेत्रादि के आश्रय से पन्द्रह गाथासूत्रों में विस्तारपूर्वक की है। तत्त्वार्थवार्तिक में जो अवधिज्ञान के विषय की प्ररूपणा है उसके आधार वे गाथासूत्र ही हो सकते हैं। उदाहरण के रूप में इस गाथासूत्र को देखा जा सकता है कालो चदुण्ण वुड्ढी कालो भजिदव्वो खेत्तवुड्ढीए । वुड्ढीए दव्व-पज्जय भजिदव्वा खेत्त-काला दु॥-पु० १३, पृ० ३०६ इसका त० वा० के इस सन्दर्भ से मिलान कीजिए "उक्तायां वृद्धौ यदा कालवृद्धिस्तदा चतुर्णामपिवृद्धिनियता । क्षेत्रवृद्धौ कालवृद्धिर्भाज्यास्यात् कालवृद्धिः स्यान्नेति । द्रव्य-भावयोस्तु वृद्धिनियता । द्रव्यवृद्धी भाववृद्धिनियता, क्षेत्रकाल-वृद्धिः पुनर्भाज्या स्याद्वा नवेति । भाववृद्धावपि द्रव्यवृद्धिनियता, क्षेत्र-कालवृद्धिर्भाज्या स्याद्वा न वेति ।" - -त० वा० १,२२, ५ पृ० ५७ आगे यहाँ एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र अवधिज्ञानों का स्वरूप भी दोनों ग्रन्थों (ष०ख० सूत्र ५,५, ५७-५८ और त० वा० १,२२,५ पृ० ५७) में द्रष्टव्य है। ३. त० वा० में 'जीव-भव्याभव्यत्वानि च' इस सूत्र (२-७) की व्याख्या के प्रसंग में एक यह शंका की गई है कि जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व इन तीन पारिणामिक भावों के साथ 'सासादनसम्यग्दृष्टि' इस द्वितीय गुण को भी ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वह भी जीव का साधारण पारिणामिक भाव है। कारण यह कि 'सासादनसम्यग्दृष्टि यह कौन-सा भाव है ? वह पारिणामिक भाव है' ऐसा आर्ष (ष० ख०) में कहा गया है । (त०वा० २,७,११) यहाँ 'आर्ष' से शंकाकार का अभिप्राय जीवस्थान के अन्तर्गत भावानुयोगद्वार के इस सूत्र से रहा है "सासणसम्मादिट्ठि त्ति को भावो ? स पारिणामिओ भावो।" --सूत्र १,७,३ (पु० ५) । उपर्युक्त शंका का यथेष्ट समाधान भी वहाँ कर दिया गया है। आगमे हि जीवस्थानादौ सदादिष्वनुयोगद्वारेणाऽऽदेशवचने नारकाणामेवादौ सदादिप्ररूपणा कृता। ततो नारकशब्दस्य पूर्वनिपातेन भवितव्यमिति ।-त० वा० १,२१, ६; ष०ख० सूत्र १,१,२४-२५ (पु० १); सू० १,२,१५ (पु० ३); सूत्र १,३,५; सूत्र १,४, ११; सूत्र १,५,३३ (पु० ४); १,६,२१; सूत्र १,७,१०; सूत्र १,८,२७ (पु० ५); इत्यादि । २. ष० ख० पु० १३, पृ० ३०१-२८ तथा त० वा० १, २२,५ पृ० ५६-५७ (ये गाथासूत्र 'महाबन्ध' में उपलब्ध होते हैं)। २१० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. त० वा० में 'संसारिण स्त्रस-स्थावराः' इस सूत्र (२-१२) की व्याख्या के प्रसंग में कहा गया है कि स्थावर नामकर्म के उदय से जिन जीवों के विशेषता उत्पन्न होती है वे स्थावर कहलाते हैं। इस पर वहाँ शंका उठायी गई है कि जो स्वभावतः एक स्थान पर स्थिर रहते हैं उन्हें स्थावर कहना चाहिए । इसके उत्तर में कहा गया है कि ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि वैसा मानने पर वायु, तेज और जल जीवों के वसरूपता का प्रसंग प्राप्त होता है । इस पर यदि यह कहा जाय कि उक्त वायु आदि जीवों को त्रस मानना तो अभीष्ट ही है तो ऐसा कहना आगम के प्रतिकूल है । कारण यह कि आगमव्यवस्था के अनुसार सत्प्ररूपणा में कायमार्गणा के प्रसंग में द्वीन्द्रियों से लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त जीदों को त्रस कहा गया है। इसलिए चलने की अपेक्षा त्रस और एक स्थान पर स्थिर रहने की अपेक्षा स्थावर नहीं कहा जा सकता है, किन्तु जिनके त्रसनामकर्म का उदय होता है उन्हें त्रस और जिनके स्थावर नामकर्म का उदय होता है उन्हें स्थावर जानना चाहिए। ___ इस शंका-समाधान में यहाँ आगम व्यवस्था के अनुसार जिस सत्प्ररूपणा के अन्तर्गत काय वर्गणा से सम्बन्धित सूत्र की ओर संकेत किया गया है वह इस प्रकार है'तसकाइया बीइंदियप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति।" --ष० ख० सूत्र १,१,४४ (पु०१)। ५. त० वा० में स्वामी, स्वलाक्षण्य व स्वकारण आदि के आश्रय से औदारिकादि पांच शरीरों में परस्पर भिन्नता दिखलाई गई है। उस प्रसंग में वहाँ स्वामी की अपेक्षा उनमें भिन्नता को प्रकट करते हुए यह कहा गया है कि औदारिकशरीर तिर्यचों और मनुष्यों के होता है तथा वैक्रियिकशरीर देव-नारकियों, तेजकायिकों, वायुकायिकों एवं पंचेन्द्रिय तिर्यंचों व मनुष्यों के भी होता है । इस पर वहाँ यह शंका उपस्थित हुई है कि जोवस्थान में योगमार्गणा के प्रसंग में सात प्रकार के काययोग की प्ररूपणा करते हुए यह कहा गया है कि औदारिक और औदारिकमिश्र काययोग तिर्यंचों व मनुष्यों के तथा वैक्रियिक और वैक्रियिक मिश्र काययोग देवों और नारकियों के होता है। परन्तु यहाँ यह कहा जा रहा है कि वह (वैक्रियिकशरीर) तिर्यंचों व मनुष्यों के भी होता है; यह तो आगम के विरुद्ध है । इस शंका का समाधान करते हुए वहाँ यह कहा गया है कि इसमें कुछ विरोध नहीं है। इसका कारण यह है कि अन्यत्र उसका उपदेश है--- व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकों में शरीरभंग में वायु के औदारिक, वैक्रियिक, तेजस और कार्मण ये चार शरीर कहे गये हैं। ये ही चार शरीर वहाँ मनुष्यों के भी निर्दिष्ट किये गये हैं । इसपर शंकाकार ने कहा है कि इस प्रकार से तो उन दोनों आर्षों (आगमों) में परस्पर विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है। इसके समाधान में आगे वहाँ कहा गया है कि अभिप्राय के भिन्न होने से उन दोनों में कुछ विरोध होनेवाला नहीं है । जीवस्थान में देव-नारकियों के सदा काल उसके देखे जाने के कारण वैक्रियिक शरीर का सद्भाव प्रकट किया गया है । परन्तु तिर्यंचों व मनुष्यों के वह सदा काल नहीं देखा जाता है, क्योंकि वह उनके लब्धि के निमित्त १. यहाँ यह स्मरणीय है कि श्वे० परम्परा में तत्त्वार्थाधिगमभाष्यसम्मत 'तेजोवायू द्वीन्द्रिया दयश्च त्रसाः' इस सूत्र (त०सू० २-१४) के अनुसार तेज और वायुकायिक जीवों को चलन क्रिया के आश्रय से त्रस माना गया है। २. त० वा० २,१२,५ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना | २११ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से उत्पन्न होता है। इसलिए उनके वह देव-नारकियों के समान सदा काल नहीं रहता है, उनके वह कदाचित् ही रहता है। इस प्रकार व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकों में उसके अस्तित्व मात्र के अभिप्राय को लेकर तिर्यंच-मनुष्यों में वैक्रियिक शरीर का सद्भाव दिखलाया है।' ऊपर तत्त्वार्थवार्तिक में जीवस्थानगत जिस प्रसंग का उल्लेख किया गया है वह इस प्रकार है "ओरालियकायजोगो ओरालियमिस्सकायजोगो तिरिक्ख-मणुस्साणं । वेउव्वियकायजोगो वेउव्वियमिस्सकायजोगो देव-णेरइयाणं ।" -१० ख०, सूत्र १,१,५७-५८ (पु० १) ६. इसके पूर्व त० वा० में औपशमिक भाव के दो भेदों के प्ररूपक 'सम्यक्त्व-चारित्रे' सूत्र (२-३) की व्याख्या करते हुए औपशमिक सम्यक्त्व के स्वरूप के स्पष्टीकरण में कहा गया है कि अनन्तानुबन्धी चार और मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व ये तीन दर्शन मोहनीय, इन सात प्रकृतियों के उपशम से जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है उसका नाम औपशमिक सम्यक्त्व है। इस पर वहाँ यह पूछा गया है कि अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के कर्मोदय जनित कलुषता के होने पर उनका उपशम कैसे होता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि वह उनका उपशम उसके काललब्धि आदि कारणों की अपेक्षा से होता है। इस प्रसंग में वहाँ कर्मस्थिति रूप दूसरी काललब्धि को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति युक्त कर्मों के होने पर प्रथम सम्यक्त्व का लाभ नहीं होता है, किन्तु जब उनका बन्ध अन्तःकोडाकोड़ी प्रमाण स्थिति से युक्त होता है तथा विशुद्धि के वश उनके सत्त्व को भी जब जीव संख्यात हजार सागरोपमों से हीन अन्तःकोडाकोड़ी प्रमाण में स्थापित करता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व के योग्य होता है । ___ यह प्रसंग पूर्णतया जीवस्थान की नौ चूलिकाओं में आठवीं 'सम्यक्त्वोपत्ति' चूलिका पर आधारित है, जो शब्दशः समान है। उसका मिलान इस रूप में किया जा सकता है "एवदिकालंटिदिएहि कम्मेहि सम्मत्तं ण लहदि । लभदि त्ति विभासा ! एदेसिं चेव सव्व कम्माणे जावे अंतो कोडाकोडिदिदि बंधदि तावे पढमसम्मतं लभदि । सो पुण पंचिदिओ सण्णी मिच्छाइट्ठी पज्जत्तो सव्वविसुद्धो। एदेसि चेव सव्वकम्माणं जाधे अंतोकोडाकोडिट्ठिदि वेदि संखेज्जेहि सागरोवमसहस्सेहि उणियं ताधे पढमसम्मत्तमुप्पादेदि ।” -----५०ख०, सूत्र १, ६-८,१-५ (पु० ६) "अपरा कर्मस्थितिका काललब्धिरुत्कृष्टस्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु प्रथमसम्यक्स्वलाभो न भवति । क्व तहि भवति ? अन्तःकोटाकोटिसागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामवशात् सत्कर्मसु च ततः संख्येयपागरोपमसहस्रोनायामन्तःकोटाकोटिसागरोपमस्थितौ स्थापितेषु प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति।" __ -त०वा० २,३,१-२ आगे त० वा० में प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए जीव की योग्यता को प्रकट करते हुए यह कहा गया है “स पुनर्भव्यः पंचेन्द्रियः संज्ञी मिथ्यादृष्टि: पर्याप्तकः सर्वविशुद्धः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पाद १. त० वा० २,४६,८ २. यह पद इसके पूर्व छठी व सातवीं चुलिका में क्रम से प्ररूपित सब कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थितियों की ओर संकेत करता है । २१२ / षट्सण्डागम-परिशील Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति । (यहाँ ष० ख० की अपेक्षा एक 'भव्य' पद अधिक है)। -त० वा० २,३,२ यह ष० ख० के इस सत्र का छायानुवाद है“सो पुण पंचिंदिओ सण्णी मिच्छाइट्ठी पज्जत्तओ सव्वविसुद्धो।" -सूत्र १,६-८,४ ७. आगे त० वा० में यहीं पर यह कहा गया है कि इस प्रकार प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता हुआ वह अन्तर्मुहूर्त वर्तता है, अन्तरकरण करता है । अन्तरकरण करके मिथ्यात्व के तीन भाग करता है-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व । अनन्तर यहाँ नरकगति में वह सम्यग्दर्शन किन कारणों से उत्पन्न होता है, इसे स्पष्ट किया गया है । यह सब सन्दर्भ ष० ख० से कितना प्रभावित है, द्रष्टव्य है (क) “पढमसम्मत्तमुप्पादेतो अंतोमुत्तमोहदि । ओहदूण मिच्छत्तं तिण्णिभागं करेदि सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं। दसणमोहणीयं कम्म उवसामेदि। उवसामेंतो कम्हि उवसामेदि ? चदुसु वि गदीसु उवसामेदि ।" -ष०ख०, सूत्र १,६-८,६ "उत्पादयन्नसावन्तर्मुहूर्तमेव वर्तयति अपवर्त्य' च मिथ्यात्व कर्म त्रिधा विभजते सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं सम्यड्.मिथ्यात्वं चेति । दर्शनमोहनीयं कर्मोपशमयन् क्वोपशमयति ? चतसृषु गतिषु ।" -त० वा० २,३,२ (ख) “णे रइया मिच्छाइट्ठी पढमसम्मत्तमुप्पादेंति । उप्पादेंता कम्हि उप्पादेंति ? पज्जत्तएसु उप्पादेंति, णो अपज्जएसु । पज्जत्तएसु उत्पादेंता अंतोमुहत्तप्पहुडि जाव तप्पाओग्गंतोमुहुत्तं उवरिमुप्पा-ति, णो हेट्ठा । एवं जाव सत्त सु पुढवीसु णेरइया। रइया मिच्छाइट्ठी कदिहि कारणेहि पढमसम्मत्तमुप्पादेंति ? तीहिं कारणेहिं पढमसम्मत्तमुप्पादेति । केइं जाइस्सरा केइं सोऊण केई वेदणाहिभूदा । एवं तिसु उवरिमासु पुढवोसु णेरइया। चदुसु हेट्ठिमासु पुढवीसु णेरइया मिच्छाइट्ठी कदिहि करणेहि पढमसम्मत्तमुप्पादेंति ? दोहि कारणेहिं पढमसम्मत्तमुप्पा-ति । केइं जाइस्सरा केइं वेयणाहिभूदा ।" ---१० ख० १, ६-६, १-१२ (पु० ६) "तत्र नारकाः प्रथमसम्यक्त्व मुत्पादयन्तः पर्याप्तका उत्पादयन्ति नापर्याप्तकाः, पर्याप्तकाश्चान्तमहूर्तस्योपरि उत्पादयन्ति नाधस्तात् । एवं सप्तसु पृथिवीषु तत्रोपरि तिसृषु पृथिवीषु नारकास्त्रिभि: कारणः सम्यक्त्वमुपजनयन्ति-केचिज्जाति स्मृत्वा केचिद् धर्मं श्रुत्वा केचिद् वेदनामिभूताः । अधस्ताच्चतसृषु पृथिवीषु द्वाभ्यां कारणाभ्याम्-केचिज्जाति स्मृत्वा अपरे वेदनाभिभूताः।" -त० वा० २, ३,२ ___इस प्रकार त० वा० में ष० ख० के सूत्रों का रूपान्तर जैसा किया गया है। जैसा कि पीछे 'सर्वार्थसिद्धि' के प्रसंग में स्पष्ट किया जा चुका है, ष० ख० में अपनी प्रश्नोत्तर पद्धति के अनुसार कुछ पुनरुक्ति हुई है, जो त० वा० में नहीं है। सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के इन कारणों की प्ररूपणा आगे तिर्यंचों, मनुष्यों और देवों में भी शब्दशः समान रूप से ही दोनों ग्रन्थों में की गई है। (देखिए ष० ख० सूत्र १,६-६ १३-४३ तथा त० वा०२,३,२) ८. त० वा० में नारकियों की आयु के प्ररूपक सूत्र (३-६) की व्याख्या करते हुए उस प्रसंग में यह भी स्पष्ट किया गया है कि नारकपृथिवियों में उत्पन्न होनेवाले नारकी वहाँ किस १. यहाँ 'ओहदेंदि' और 'ओहट्टेदूण' इन प्राकृत शब्दों के रूपान्तर करने अथवा प्रतिलिपि के करने में कुछ गड़बड़ी हुई प्रतीत होती है । षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना | २१३ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान के साथ प्रविष्ट होते हैं और किस गुणस्थान के साथ वहाँ से निकलते हैं। यह प्रसंग भी त० वा० में पूर्णतया १० ख० से प्रभावित है । यथा 'रइया मिच्छत्तेण अधिगदा केइं मिच्छत्तण णीति । केई मिच्छत्तेण अधिगदा सासणसम्मत्तेण णीति । केई मिच्छत्तेण अधिगदा सम्मत्तण णीति । सम्मत्तेण अधिगदा सम्मत्तेण चेव णीति । एवं पढ़माए पुढवीए णेरइया । बिदियाए जाव छट्ठीए पुढवीए णेरइया मिच्छत्तेण अधिगदा केई मिच्छत्तेण णीति । मिच्छत्तेण अधिगदा केई सासणसम्मत्तेण णीति । मिच्छत्तेण अधिगदा केइं सम्मत्तेण णीति । सत्तमाए पुढवीए णेरइया मिच्छत्तेण चेव णीति ।" -ष०ख०, सूत्र १,६-६ ४४-५२ (पु० ६) "प्रथमायामुत्पद्यमाना नारका मिथ्यात्वेनाधिगताः केचिन्मिथ्यात्वेन निर्यान्ति । मिथ्यात्वेनाधिगताः केचित् सासादनसम्यक्त्वेन निर्यान्ति । मिथ्यात्वेन प्रविष्टाः केचित् सम्यक्त्वेन । केचित् सम्यक्त्वेनाधिगताः सम्यक्त्वेनैव निर्यान्ति क्षायिकसम्यग्दृष्ट्यपेक्षया। द्वितीयादिषु पञ्चसु नारका मिथ्यात्वेनाधिगताः केचिन्मिथ्यात्वेन निर्यान्ति। मिथ्यात्वेनाधिगताः केचित सासादनसम्यक्त्वेन निर्यान्ति। मिथ्यात्वेन प्रविष्टाः केचित् सम्यक्त्वेन निर्यान्ति । सप्तम्यां नारका मिथ्यात्वेनाधिगता मिथ्यात्वेनैव निर्यान्ति ।" त० वा०३,६,६ पृ० ११८ ६. त० व० में इसी सूत्र की व्याख्या में आगे नारक पृथिवियों से निकलते हुए नारकी किन गतियों में आते हैं, इसे स्पष्ट किया गया है । यह प्रसंग भी ष० ख० से सर्वथा समान 'णेरइयामिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी णिरयादो उन्वद्विदसम्माणा कदि गदीओ आगच्छंति ? दो गदीओ आगच्छंति तिरिक्खगदि चेव मणुसगदि चेव । तिरिक्खेसु आगच्छंता पंचिदिएसु आगच्छंति, णो एइंदिय-विगलिदिएसु। पंचिदिएसु आगच्छंता सण्णीसु आगच्छंति, णो असण्णीसु । सण्णीसु आगच्छंता गब्भोवक्कंतिएसु आगच्छंति, णो सम्मुच्छिमेसु । गब्भोवक्कंतिएसु आगच्छंता पज्जत्तएसु आगच्छंति, णो अपज्जत्तएसु । पज्जत्तएसु आगच्छंता संखेज्जवस्साउएसु आगच्छंति, णो असंखेज्जवस्साउएस।" --ष० ख०, सूत्र १,-६-६, ७६-८२ (पु० ६) "षड्भ्य उवरि पृथिवीभ्यो मिथ्यात्व-सासादनसम्यक्त्वाभ्यामुर्तिताः केचित् तिर्यड्.-मनुष्यगतिमायान्ति। तिर्यक्ष्वायाताः पञ्चेन्द्रिय-गर्भज-संज्ञि-पर्याप्तक-संख्येय-वर्षायुःषुत्पद्यन्ते, नेतरेषु ।” --त० वा० ३,६,६ (पृ० ११८) दोनों ग्रन्थगत यह प्रसंग शब्दशः समान है। विशेषता यह है कि षट्खण्डागम में जहाँ पंचेन्द्रिय, गर्भज, संज्ञी, पर्याप्त और संख्यातवर्षायुष्कों में आने का उल्लेख पृथक्-पृथक् सूत्रों द्वारा किया गया है वहाँ तत्त्वार्थवार्तिक में उनका उल्लेख संक्षेप में 'पञ्चन्द्रिय-गर्भज' आदि एक ही समस्त पद में कर दिया गया है, अभिप्राय में कोई भेद नहीं रहा है। ष०ख० में आगे यह प्रसंग जहाँ ८३-१०० सूत्रों में समाप्त हुआ है वहाँ त०वा० में वहीं पर वह दो पंक्तियों में समाप्त हो जाता है, फिर भी अभिप्राय कुछ भी छूटा नहीं है। १०. त० वा० में आगे इसी प्रसंग में यह स्पष्ट किया गया है कि नारकी उन पृथिवियों से निकलकर किन गतियों में आते हैं व वहाँ आकर वे किन गुणों को प्राप्त करते हैं यह प्रसंग भी दोनों ग्रन्थों में द्रष्टव्य है जो शब्दशः समान है "अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइया णि रयादो णेरइया उव्वट्ठिद-समाणा कदि गदीओ आगच्छंति ? एक्कं हि चेव तिरिक्खगदिमागच्छंति ति । तिरिक्खेसु उववण्णल्लया तिरिक्खा २१४ / षट्खण्डागम-परिशीलन . Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छण्णो उप्पा एंति - आभिणिबोहियणाणं णो उप्पाएंति, सुदणाणं णो उप्पाएंति, ओहिणाणं णो उप्पाएंति, सम्मामिच्छत्तं णो उप्पाएंति, सम्मत्तं णो उप्पाएंति, संजमासंजमं णो उप्पाएंति ।" - प० ख०, सूत्र १,६ - ६, २०३ - ५ “सप्तम्यां नारका मिथ्यादृष्टयो नरकेभ्य उद्वर्तिता एकामेव तिर्यग्गतिमायान्ति । तिर्यक्ष्वायाताः पंचेन्द्रिय- गर्भज-पर्याप्तक-संख्येय वर्षायुः षूत्पद्यन्ते, नेतरेषु । तत्र चोत्पन्नाः सर्वे मतिश्रुतावधि सम्यक्त्व- सम्यड्. मिथ्यात्व-संयमासंयमान् नोत्पादयन्ति ।" - त०वा० ३,६,७ इसी प्रकार दोनों ग्रन्थों में आगे छठी - पाँचवीं आदि पृथिवियों निकलने वाले नारकियों से सम्बन्धित यह प्रसंग भी सर्वथा समान है । (देखिए ष० ख० सूत्र १, ६-६,२०६ २० और त०वा० ३,६,७ पृ० ११८ - १६ ) ११. त०वा० में पीछे ऋजुमतिमन:पर्यय के ये तीन भेद किए गये हैं-- ऋजुमनोगत विषय, ऋजुवचनगतविषय और ऋजुकायगतविषय । यथा "आद्यस्त्रेधार्जु' मनोवाक्कायविषयभेदात् । " - त०वा० १, २, ३, ६ ष०ख० में ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान के आवारक ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञानावरणीय के वे ही तीन भेद इस प्रकार निर्दिष्ट किए गये हैं "जं तं उजुमदिमणपज्जवणाणावरणीयं णाम कम्मं तं तिविहं -- उजुगं मणोगदं जाणदि उगं वचिगदं जाणदि उजुगं कायगदं जणादि । ” - सूत्र ५, ५, ६२ ( पु० १३, पृ० ३२६ ) यद्यपि 'आवरणीय' के साथ 'जाणदि' पद का प्रयोग असंगत-सा दिखता है, फिर भी धवलाकार ने मूलग्रन्थकार के अभिप्राय को इस प्रकार स्पष्ट कर दिया है— "जेण उजुमणोगदट्ठविसयं उजुवचिगदट्ठविसयं उजुकायगदट्ठविसयं ति तिविहमुजुमदिणाणं तेण तदावरणं पि तिविहं होदि । " - पु० १३, पृ० ३२६-३६ त०वा० में आगे ऋजुमतिमन:पर्यय के उक्त भेदों के स्पष्टीकरण के प्रसंग में यह शंका की गई है कि यह अभिप्राय कैसे उपलब्ध होता है । इसके उत्तर में वहाँ कहा गया है कि आगम के अविरोध से वह अभिप्राय उपलब्ध होता है । यह कहते हुए वहाँ कहा गया है "आगमे ह्य ुक्तं मनसा मनः परिच्छिद्य परेषां संज्ञादीन् जानाति इति, मनसा आत्मनेत्यर्थः । ``तमात्मना आत्माऽवबुध्याऽऽत्मनः परेषां च चिन्ता- जीवित-मरण-सुख-दुःख-लाभा लाभादीन् विजानाति । व्यक्तमनसां जीवानामर्थं जानाति, नाव्यक्तमनसाम् ।" - त०वा० १,२३, ६ ( पृ० ५८ ) त०वा० में यहाँ 'आगम' से अभिप्राय प० ख० के इन सूत्रों का रहा है । मिलान कीजिए— "मणेण माणसं पडिविंदइत्ता परेसि संण्णा मदि सदि चिंता जीविद मरणं लाहालाहं सुहदुक्खं यरविणासं देसविणासं जणवयविणासं खेडविणासं कव्वडविणासं मडंबविणासं पट्टणविणासं दोणामुहविणासं अइवुट्ठि प्रणावुट्ठि सुवुट्ठि दुवुट्ठि सुभिक्खं दुब्भिक्खं खेम खेम-भयरोग- कालसंपजुत्ते अत्थे वि जणादि । किं चि भूओ - अप्पणी परेसिं च वत्तमाणाणं जीवाण जाणदि, जो अव्वत्तमाणाणं जाणदि । " -- ष०ख०, सूत्र ५, ५, ६३-६४ ( पु० १३, पृ० २३२ व २३६-३७ ) धवला में 'वत्तमाणाणं' आदि का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है— '''''व्यक्तं निष्पन्नं संशय-विपर्ययानध्यवसायविरहितं मनः येषां ते व्यक्तमनसः, तेषां व्यक्तमनसां जीवानां परेषामात्मनश्च सम्बन्धि वस्त्वन्तरं जानाति, नो अव्यक्तमनसां जीवानां षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २१५ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्धि वस्त्वन्तरम्, तत्र तस्य सामर्थ्याभावात् । कधं मणस्स माणववए सो ? 'एए छच्च समाणा' त्ति विहिददीहत्तादो । अथवा वर्तमानानां जीवानां वर्तमानमनोगतत्रिकालसम्बन्धिनमथं जानाति, नातीतानागतमनोविषयमिति सूत्रार्थो व्याख्येयः ।" -धवला पु० १३, पृ० ३३७ दोनों ग्रन्थों में आगे उस ऋजुमतिमनःपर्यय के विषय की भी प्ररूपणा इस प्रकार की गई है, जो शब्दशः समान है___ "कालदो जहण्णेण दो-तिण्णिभवग्गहणाणि । उक्कस्सेण सत्तट्ठभवग्गहणाणि। जीवाणं गदिमागदि पदुप्पादेदि । खेत्तदो ताव जहण्णेण गाउवपुधत्तं, उक्कस्सेण जोयणपुधत्तस्स अब्भंतरदो णो बहिद्धा।" -ष०ख० सूत्र ५,५,६५-६८ "कालतो जघन्येन जीवानामात्मनश्च द्वि-त्रीणि, उत्कर्षेण सप्ताष्टानि भवग्ग्रहणानि गत्यागत्यादिभिः प्ररूपयति । क्षेत्रतो जघन्येन गव्यूतिपृथक्त्वस्याभ्यन्तरं न बहिः, उत्कर्षेण योजनपृथक्त्वस्याभ्यन्तरं न बहिः।" --तवा० १,२३,६ (प० ५८-५६) दोनों ग्रन्थों में जिस प्रकार समान रूप में ऋजमतिमनःपर्ययज्ञान के भेदों और विषय की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार आगे विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान के भेदों और विषय की भी प्ररूपणा समान रूप में की गई है । यथा "जंतं विउलमदिमणपज्जवणाणावरणीयं णाम कम्मं तं छन्विहं-उज्जुगमणुज्जुगं मणोगदं जाणदि, उज्जुगमणुज्जुगं वचिगदं जाणदि, उज्जुगमणुज्जुगं कायगदं जाणदि ।” इत्यादि --ष०ख०, सूत्र ५,५,७०-७७ "द्वितीयः षोढा ऋजु-वक्रमनोवाक्कायभेदात् ।" इत्यादि --तत्त्वार्थवार्तिक १,२३,१० (पृ० ५६) १२. (क) त० वा० में 'शब्द-बन्ध-सौक्ष्म्य' इत्यादि सूत्र (५-२४) की व्याख्या करते हुए उस प्रसंग में बन्ध के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं—विस्रसाबन्ध और प्रयोगबन्ध । इनमें वैस्रसिकबन्ध आदिमान् और अनादि के भेद से दो प्रकार का है। इनमें आदिमान् वैस्रसिकबन्ध के लक्षण का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि जो बन्ध स्निग्ध और रूक्ष गुणों के निमित्त से विद्युत्, उल्का, जलधारा, अग्नि और इन्द्रधनुष आदि को विषय करनेवाला है उसका नाम आदिमान् वैस्रसिक बन्ध है। --त०वा० ५,२४,१०-११ ०ख० में वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में बन्ध के प्रसंग में विस्रसाबन्ध के सादि विस्रसाबन्ध और अनादि विस्रसाबन्ध ये ही भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। (सूत्र ५,६, २८; पु० १४) आगे सादिविस्रसाबन्ध के स्वरूप को प्रकट करते हुए यह सूत्र कहा गया है "से तं बंधणपरिणामं पप्प से अब्भाणं वा मेहाणं वा संज्झाणं वा विज्जूणं वा उक्काणं वा कणयाणं वा दिसादाहाणं वा धूमकेदूणं वा इंदाउहाणं वा खेत्तं पप्प कालं पप्प उडु पप्प अयणं पप्प पोग्गलं पप्प जे चामण्णे एवमादिया अंगमलप्पहुदीणि बंधणपरिणामेण परिणमंति सो सव्वो सादियबंधोणाम।" -सूत्र ५,६,३७ (पु० १४) ऊपर त० वा० में वस्रसिक बन्ध के उन दो भेदों का निर्देश करते हुए जो आदिमान् (सादि) वससिकबन्ध का लक्षण प्रकट किया गया है वह सम्भवतः इस ष०ख० के सूत्र के माधय से ही प्रकट किया गया है । बिशेष इतना है कि ष०ख० में जहाँ इस बन्ध के रूप से २१६ / षट्सण्डागम-परिशीलन . Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणत होनेवाले अभ्र, मेध, संध्या, विद्युत् और उल्का आदि अनेक पदार्थों का उल्लेख किया है वहाँ तत्त्वार्थवार्तिक में केवल विद्युत्, उल्का, जलधारा, अग्नि और इन्द्रधनुष इनका मात्र उल्लेख किया गया है। (ख) इसके पूर्व ष० ख० में जो उसी सादि विस्रसाबन्ध के प्रसंग में स्निग्धता और रूक्षता के आश्रय से होनेवाले परमाणुओं के पारस्परिक बन्ध के विषय में विचार किया गया है उसमें कुछ मतभेद रहा है।' त० वा० में बन्धविषयक चर्चा आगे ‘स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः' आदि सूत्रों (तत्त्वार्थसूत्र ५,३२-३६) की व्याख्या करते हुए की गई है । उस प्रसंग में वहाँ ष०ख० के इस गाथासूत्र को भी 'उक्तं च' के निर्देश के साथ उद्धृत किया गया है णिद्धस्स गिद्धेण दुराहिएण ल्हुक्खस्स ल्हुखेण दुराहिएण। णिद्धस्स ल्हुक्खण हवेदि बंधो जहण्णवज्जे विसमे समे वा ॥ -त० वा० ५,३५,२ पृ० २४२ व ष०ख० सूत्र ५,६,३६ (पु० १४, पृ० ३३) (ग) इसी प्रसंग में त० वा० में 'बन्धेऽधिको पारिणामिको च' इस सूत्र (५-३६) की व्याख्या करते हुए यह कहा गया है कि इस सूत्र के स्थान में दूसरे 'बन्धे समाधिको पारिणामिको ऐसा (त्र पढ़ते हैं। वह असंगत है, क्योंकि आर्ष के विरुद्ध है। इसे स्पष्ट करते हुए वहाँ आगे कहा गया है कि आर्ष में वर्गणा के अन्तर्गत बन्धविधान में सादिवससिफ बन्ध का निर्देश किया गया है । उस प्रसंग में वहां विषम रूक्षता व विषम स्निग्धता में बन्ध और समरूक्षता व समस्निग्धता में भेद (बन्ध का अभाव) कहा गया है । तदनुसार ही 'गुणसाम्ये सदृशानाम्' यह सूत्र (तत्त्वार्थसूत्र ५-३४) कहा गया है । इस सूत्र के द्वारा समान गुणवाले परमाणुओं के बन्ध का निषेध किया गया है । इस प्रकार समगुणवाले परमाणुओं में बन्ध का प्रतिषेध करने पर बन्ध में समगुणवाला परमाणु परिणामक होता है ऐसा कहना आर्ष के विरुद्ध है। (त० वा०५,३६, ३-४) यहाँ आर्ष व वर्गणा का उल्लेख करते हुए जिस नोआगमद्रव्यबन्ध के प्रसंग की ओर संकेत किया है वह ष ०ख० में वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत बन्धन अनुयोगद्वार में इस प्रकार उपलब्ध होता है ___“जो सो थप्पो सादियविस्ससाबंधो णाम तस्स इमो णिद्दे सो-वेमादा णिद्धदा वेमादा ल्हुक्खदा बंधो । समणिद्धदा समल्हुक्खदा भेदो। णिद्ध-णिद्धा ण बझंति ल्हुक्ख-ल्हुक्खा य पोग्गला । णिद्ध-ल्हुक्खा य बज्झंति रूवारूवी य पोग्गला ॥ -१०ख० ५,६, ३२-३४ (पु० १४, पृ० ३०-३१) जैसाकि त० वा० में निर्देश किया गया है, इस बन्ध की प्ररूपणा ष०ख० में वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत बन्धन अनुयोगद्वार में नोआगमद्रव्यबन्ध (सूत्र २६) के प्रसंग में ही की गई है। १. सूत्र ५,६,३२-३६ (पु०१४, पृ० ३०-३३) २. बन्धे समाधिको पारिणामिको (तत्त्वार्थसूत्र ५-३६-तत्त्वार्थाधिगम भाष्य सम्मत सूत्रपाठ के अनुसार)। षट्खण्डागम की अन्य प्रन्यों से तुलना / २१७ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (घ) अनादिविस्रसाबन्ध के स्वरूप को देखिए जो दोनों ग्रन्थों में सर्वथा समान हैं "जो सो अणादिय विस्ससाबंधो णाम सो तिविहो धम्मत्थिया अधम्मत्थिया आगासत्थिया चेदि । धम्मत्थिया धम्मत्थियदेसा धम्मत्थियपदेसा अधम्मत्थिया अधम्मत्थियदेसा अधम्मस्थियपदेसा आगासत्थिया आगासस्थियदेसा आगासत्थियपदेसा एदासिं तिण्णं पि अत्थिआणमण्णोण्णपदेसबंधो होदि।" —ष०ख० सूत्र ५,६,३०-३१ - "अनादिरपि वैससिकबन्धो धर्माधर्माकाशानामेकशः त्रैविध्यान्नवविधः । धर्मास्तिकायबन्धः धर्मास्तिकायदेशबन्धः धर्मास्तिकायप्रदेशबन्धः अधर्मास्तिकायबन्धः अधर्मास्तिकायदेशबन्धः अधर्मास्तिकायप्रदेशबन्ध: आकाशास्तिकायबन्धः आकाशास्तिकायदेशबन्धः आकाशास्तिकायप्रदेशबन्धश्चेति ।" -त० वा० ५,२४,११, पृ० २३२ आगे यहां धर्मास्तिकाय आदि के स्वरूप का निर्देश इस प्रकार किया गया है"कृत्स्नो धर्मास्तिकायः, तदधं देशः अर्धाधं प्रदेशः । एवमधर्माकाशयोरपि।" -त०वा० ५,२४,११, पृ० २३२ ष०ख० मूल में इनका कुछ भी स्पष्टीकरण नहीं किया गया है । पर धवलाकार ने उनके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए सब अवयवों के समूह को धर्मास्तिकाय, उसके अर्ध भाग से लेकर चतुर्थभाग तक को धर्मास्तिकायदेश और उसी के चौथे भाग से लेकर शेष को धर्मास्तिकायप्रदेश कहा है। आगे अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के भी स्वरूप को इसी प्रकार से जान लेने की सूचना कर दी है । (धवला पु० १४, पृ० ३०) (ड.) आगे दोनों ग्रन्थों में प्रयोगबन्ध के कर्मबन्ध और नोकर्मबन्ध रूप दो भेदों का निर्देश करते हुए नोकर्मबन्ध के ये पाँच भेद कहे गये हैं. आलापनबन्ध, अल्लीवनबन्ध' संश्लेषबन्ध, शरीरबन्ध और शरीरिबन्ध । इन पांचों बन्धों का स्वरूप भी दोनों ग्रन्थों में समान रूप से कहा गया है । (देखिए ष०ख० सूत्र ५,६,३८-६४ (पु० १४, पृ० ३६-४६) और त० वा० ५, २४,१३ पृ० २३२-३३) १३. तत्त्वार्थवार्तिक में 'अनित्यशरण' आदि सूत्र (तत्त्वार्थसूत्र ६-७) की व्याख्या करते हुए बोधिदुर्लभ भावना के प्रसंग में 'उक्तं च' कहकर आगमप्रामाण्य के रूप में 'एगणिगोवसरीरें आदि गाथासूत्र को उद्धृत किया गया है। वह गाथासूत्र ष०ख० में यथास्थान अवस्थित है।" १४. त० वा० में उपर्युक्त सूत्र की ही व्याख्या में 'धर्मस्वाख्यात' भावना के प्रसंग में १. त० वा० में इसका उल्लेख 'आलेपन' के नाम से किया गया है । वहाँ उसका स्वरूप इस प्रकार निर्दिष्ट है _ 'कुड्य-प्रासादादीनां मृतपिण्डेष्टकादिभिः प्रलेपदानेन अन्योऽन्यालेपनात् अर्पणात् आलेपनबन्धः । धातूनामनेकार्थत्वात् आड्.पूर्वस्य लिड.: अर्पणक्रियस्य ग्रहणम् ।' -त० वा० ५,२४,१३, ष०ख० में इसका स्वरूप इस प्रकार कहा गया है-"जो सो अल्लीवणबंधो णाम तस्स इमो णिद्दे सो-से कडयाणं वा कुड्डाणं वा गोवरपीडाणं वा पागाराणं वा साडियाणं वा जे चामण्णे एवमादिया अण्णदव्वाणमण्णदव्वेहि अल्लीविदाणं बंधो होदि सो सव्वो अल्लीवणबंधो णाम ।" -१०ख०, सूत्र ५,६,१४ (पु० १४, पृ० ३६) २. ष०ख० पु० १४, पृ० २३४ तथा त० वा० ६,७,११, पु० ३२६ २१८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उनमें क्रम से यथासम्भव जीवस्थानों-चौदह जीवसमासों और गुणस्थानों के सद्भाव को प्रकट किया गया है।' यथा____..."तान्येतानि चतुर्दशमार्गणास्थानानि, तेषु जीवस्थानानां सत्ता विचिन्त्यते--तिर्यग्गतो चतुर्दशापि जीवस्थानानि सन्ति । इतरासु तिसृषु द्वे द्वे पर्याप्तकापर्याप्तकभेदात् । एकेन्द्रियेषु चत्वारि जीवस्थानानि । विकलेन्द्रियेषु द्वे द्वे । पञ्चेन्द्रियेषु चत्वारः।" (त० वा० ६,७,१२ पृ० ३३०) ०ख० में जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत 'सत्प्ररूपणा' अनुयोगद्वार में यथाप्रसग गुणस्थान और मार्गणास्थानों के क्रम से उस सबका विस्तारपूर्वक विचार किया गया है। धवलाकार ने तो सत्प्ररूपणा के अन्तर्गत समस्त (१७७) सूत्रों की व्याख्या को समाप्त करके तत्पश्चात् 'संपहि संतसुत्तविवरणसमत्ताणंतरं तेसिं परूवणं भणिस्सामो' ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए यथाक्रम से गुणस्थानों और मार्गणास्थानों के आश्रय से केवल जीवस्थानों (जीव समासों) की ही नहीं, गुणस्थान व जीवसमास आदि रूप बीस प्ररूपणाओं की विवेचना बहुत विस्तार से की है। यह सब १० ख० की पु० २ में प्रकाशित है। उपसंहार ___ ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट हो चुका है कि तत्त्वार्थवार्तिक के रचियता आ० अकलंकदेव के समक्ष प्रस्तुत षट्खण्डागम रहा है और उन्होंने उसकी रचना में यथाप्रसग उसका यथेष्ट उपयोग भी किया है । कहीं-कहीं पर उन्होंने उसके सूत्रों को संस्कृत रूपान्तर में उद्धृत करते हुए उसके खण्डविशेष, अनुयोगद्वार और प्रसंगविशेष का भी निर्देश कर दिया है। जैसेजीवस्थान (प्रथम खण्ड), वर्गणा (पाँचवाँ खण्ड), सत्प्ररूपणा. कायानुवाद (कायमार्गणा), योगभंग (योगमार्गणा) और बन्धविधान आदि। __ जैसाकि पीछे 'सर्वार्थसिद्धि' के प्रसंग में स्पष्ट किया जा चुका है, ष०ख० में विवक्षित विषय की प्ररूपणा प्रश्नोत्तर शैली में करते हुए उससे सम्बद्ध सूत्रवाक्यों का उल्लेख पुनः पुनः किया गया है । इस प्रकार की पुनरुक्ति इस त० वा० में नहीं हुई है। वहीं विवक्षित विषय की प्ररूपणा संक्षेप से प्रायः उसी ष० ख० के शब्दों में की गई है। सर्वार्थसिद्धिकार ने उस ष०ख० का आश्रय विशेषकर 'सत्संख्या' आदि सूत्र की व्याख्या में तथा एक-दो अन्य प्रसंगों पर ही लिया है। किन्तु तवा० के रचियता ने उसका आश्रय अनेक प्रसंगों पर लिया है । यह विशेष स्मरणीय है सर्वार्थसिद्धि में जिस 'सत्संख्या' आदि सूत्र की व्याख्या १०ख० के आधार से बहुत विस्तार के साथ की गई है उस सूत्र की व्याख्या में १. त० वा० ६,७,१२, पृ० ३२६-३२ २. इस प्रसंग से सम्बद्ध मूलाचार की ये गाथाएँ द्रष्टव्य हैं-- जीवाणं खलु ठाणाणि जाणि गुणसण्णिदाणि ठाणाणि । एदे मग्गणठाणेसु चेव परिमग्गदव्वाणि ।। तिरियगदीए चोद्दस हवंति सेसासु जाण दो दो दु । मग्गणठाणस्सेदं णेयाणि समासठाणाणि ।। १२,१५७-५८ ३. १० ख०, पु० १ में विवक्षित विषय से सम्बद्ध प्रसंगविशेषों को देखा जा सकता है। षट्भण्डागम को अन्य ग्रन्थों से तुलना | २१६ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० भट्टाकलंक देव ने ष०ख० का आश्रय लेकर गुणस्थानों व मार्गणास्थानों में सूत्रोक्त सत्-संख्या आदि का विशेष विचार नहीं किया है। उन्होंने वहां केवल सत्-संख्या आदि के पूर्वापरक्रम का विचार किया है । ७. षट्खण्डागम और आचारांग दिगम्बर परम्परा के अनुसार यद्यपि वर्तमान में गौतम गणधर द्वारा ग्रथित अंगों व पूर्वो का लोप हो गया है, पर श्वेताम्बर परम्परा में आज भी आचारादि ग्यारह अंग उपलब्ध हैं। वे वीरनिर्वाण के पश्चात् ६८० वर्ष के आस-पास वलभी में आचार्य देवधि गणि के तत्त्वावधान में सम्पन्न हुई वाचना में साधुसमुदाय की स्मृति के आधार पर पुस्तकारूढ़ किये गये हैं।' बारहवें दृष्टिवाद अंग का लोप हुआ श्वे० परम्परा में भी माना जाता है।। प्रकृत आचारांग उन पुस्तकारूढ़ किये गये ग्यारह अंगों में प्रथम है । वह दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। उनमें से प्रथम श्रुतस्कन्ध इन नौ अध्ययनों में विभक्त है-(१) शस्त्रपरिज्ञा, (२) लोकविजय, (३) शीतोष्णीय, (४) सम्यक्त्व, (५) लोकसार, (६) धूत, (७) महापरिज्ञा, (८) विमोक्ष और (६) उपधानश्रुत । इन नौ अध्ययनोंस्वरूप उस प्रथम श्रुतस्कन्ध को नवब्रह्मचर्यमय कहा गया है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में, जिसे आचारान कहा जाता है, पाँच चूलिकाएँ हैं। उनमें से प्रथम चूलिका में सात अध्ययन हैं--(१) पिण्डैषणा, (२) शय्यैषणा, (३) ईर्या, (४) भाषाजात, (५) वस्त्रैषणा, (६) पात्रषणा और (७) अवग्रह । दूसरी चूलिका 'सप्ततिका' में भी सात अध्ययन हैं । तीसरी चूलिका का नाम भावना अध्ययन है । विमुक्ति नाम की चौथी चूलिका में विमुक्ति अध्ययन है। पाँचवी चूलिका का नाम निशीथ है, जो एक पृथक् ग्रन्थ के रूप में निबद्ध है। संक्षेप में इतना परिचय करा देने के पश्चात् अब हम यह देखना चाहेंगे कि इसकी क्या कुछ थोड़ी-बहुत समानता प्रस्तुत षट्खण्डागम से है। दोनों में जो थोड़ी-सी समानता दिखती है वह इस प्रकार है ष०ख० में पांचवें वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत जो प्रकृति अनुयोगद्वार है उसमें ज्ञानावरणीय आदि आठ मूल प्रकृतियों और उनकी उत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणा की गई है। उसमें मनःपर्ययज्ञानावरणीय के प्रसंग में मनःपर्ययज्ञान का निरूपण करते हुए उसके ऋजुमतिमन:पर्यय और विपुलमतिमनःपर्यय इन दो भेदों का निर्देश किया गया है। उनमें ऋजुमतिमनःपर्यय और विपुलमतिमनःपर्यय दोनों के विषय विशेष का पृथक्-पृथक् विचार करते हुए कहा गया है कि ऋजुमतिमनःपर्यय अपने व दूसरे व्यक्त मनवाले जीवों के मनोगत अर्थों को जानता है, अव्यक्त मनवालों के मनोगत अभिप्राय को नहीं जानता है। पर विपुलमतिमनःपर्यय व्यक्त मनवाले १. यद्यपि इसके पूर्व एक वाचना वीरनि० के पश्चात्, लगभग १६० वर्ष के बाद, पाटलिपुत्र में और तत्पश्चात् दूसरी वाचना वीरनि० के लगभग ८४० वर्ष बाद मथुरा में स्कन्दिलाचार्य के तत्त्वावधान में भी सम्पन्न हुई है। ठीक इसी समय एक अन्य वाचना वलभी में आचार्य नागार्जुन के तत्त्वावधान में भी सम्पन्न हुई है, पर इन वाचनाओं में व्यवस्थित रूप से उन्हें पुस्तकारूढ़ नहीं किया जा सका। इसका कारण सम्भवतः कुछ पारस्परिक मतभेद रहा है। २२० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और अव्यक्त मनवाले दोनों के मनोगत अभिप्राय को जानता है । " आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अन्तर्गत पूर्वोक्त पाँच चूलिकाओं में जो तीसरी भावना नाम की चूलिका है उसमें निर्युक्तिकार के द्वारा दर्शनविशुद्धि की कारणभूत दर्शनभावना, ज्ञानभावना, चारित्रभावना एवं तपोभावना आदि का स्वरूप प्रकट किया गया है । वहाँ चारित्रभावना को अधिकृत मानकर उसके प्रसंग में भगवान् महावीर के गर्भ, जन्म, परिनिष्क्रमण (दीक्षा) और ज्ञान - कल्याणकों की प्ररूपणा की गई है । इस प्रसंग में वहाँ यह कहा गया है कि भगवान् महावीर के क्षायोपशमिक सामायिक चारित्र के प्राप्त हो जाने पर उनके मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया । तब वे उसके द्वारा अढ़ाई द्वीपों और दो समुद्रों के भीतर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त व व्यक्त मनवाले जीवों के मनोगत भावों को जानने लगे ।" इस प्रकार मन:पर्ययज्ञान के विषय के सम्बन्ध में इन दोनों ग्रन्थों का अभिप्राय बहुत कुछ समान दिखता है । यहाँ यह ध्यातव्य है कि षट्खण्डागम में 'व्यक्त मनवाले' इस अभिप्राय को प्रकट करने के लिए सूत्र (६४ व ७३ ) में 'वत्तमाणाणं' पद का उपयोग किया गया है । वहाँ धवला में यह शंका उठायी गई है कि मन के लिए सूत्र में 'मान' शब्द का उपयोग क्यों किया गया है । इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि 'एए छच्च समाणा' इस सूत्र के आधार से मकारवर्ती आकार के दीर्घ हो जाने से मन के लिए 'माण' शब्द व्यवहृत हुआ है। आगे प्रकारान्तर से उन्होंने विकल्प के रूप में 'वत्तमाणाणं' पद का अर्थ 'वर्तमान जीवों के' ऐसा करके यह अभिप्राय भी व्यक्त किया है कि वह ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान वर्तमान जीवों के वर्तमान मनोगत तीनों कालों सम्बन्धी अर्थ को जानता है, अतीत-अनागत मनोगत विषय को नहीं जानता है । 3 दूसरा प्रसंग केवलज्ञान का है - आचारांग में कहा गया है कि भगवान् महावीर के केवलज्ञान के प्रकट हो जाने पर वे देव, असुर व मनुष्यलोक की प्रगति, गति, चयन व उपपाद आदि को जानते देखते थे । तुलना के लिए दोनों ग्रन्थगत उस प्रसंग को यहाँ दिया जाता है “सइं भगवं उप्पण्णणाण-दरिसी सदेवासुर- माणुसस्स लोगस्स आर्गादि गदि चयणोववादं बंध मोक्खं इड्ढि द्विदि जुदि अणुभागं तक्कं कलं माणो माणसियं भुत्तं कदं पडिसेविदं आदिकम्मं १. सूत्र ५, ५, ६०-७८ ( पु० १३ ) २. आचार द्वि० विभाग, पृ० ८८६, जैसाकि पीछे तत्त्वार्थवार्तिक के प्रसंग में कहा जा चुका है, त० वा० में भी इस सम्बन्ध में इस प्रकार से स्पष्ट किया गया है “व्यक्तमनसां जीवानामर्थं जानाति, नाव्यक्तमनसाम् । व्यक्तः स्फुटीकृतोऽर्थश्चिन्तया सुनिवर्तितो यैस्ते जीवा व्यक्तमनसस्तै रथं चिन्तितं ऋजुमतिर्जानाति, नेतरः ।" त०वा० १, २३, ६, पृ० ५८ ( सम्भव है धवलाकार के समक्ष उपर्युक्त आचारांग का और त०वा० का भी वह प्रसंग रहा हो ) । ३. धवला पु० १३, पृ० ३३७ ४. यहाँ भी मकारवर्ती आकार को दीर्घ हुआ समझना चाहिए । षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २२१ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरहकम्मं सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्म समं जाणदि पस्सदि विहरदि त्ति।" –५०ख०, सूत्र ५,५,६८ (पु० १३, पृ०३४६) "से भयवं अरहं जिणे जाणए केवली सव्वन्नू सव्वभावदरिसी सदेव-मणुयासरस्स लोगस्स पज्जाए जाणइ । तं जहा-आगई गई ठिई चयणं उपवायं भुत्तं पीयं कर पडिसेवियं आविकम्मं रहोकम्म लवियं कहियं मणो माणसियं सवलोए सव्वजीवाणं जाणमाणो पासमाणो एवं णं विहरई ॥१८॥ --आचार० द्वि० विभाग, पृ० ८८८ __ दोनों ग्रन्थगत इन सन्दर्भो में रेखांकित पदों को देखिए जो भाषागत विशेषता को छोड़कर सर्वथा समान हैं, अभिप्राय में भी कुछ भेद नहीं है। यहाँ यह विशेष स्मरणीय है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् उनके द्वारा अर्थरूप से प्ररूपित तत्त्व का व्याख्यान उसी रूप में क्रम से केवलियों, श्रुतकेवलियों और इतर आरातीय आचार्यों की परम्परा से बहुत समय तक मौखिक रूप में चलता रहा । अन्त में भद्रबाहु श्रुतकेवली के पश्चात् दीर्घकालीन दुभिक्ष के समय भगवान् महावीर की अनुगामिनी परम्परा दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गई। फिर भी कुछ समय तक तत्त्व का वह व्याख्यान उसी रूप में चलता रहा। पर उस दुभिक्ष के समय साधुसंघों के दक्षिण व उत्तर की ओर चले जाने पर वहाँ की भाषा आदि का प्रभाव उनके तत्त्वनिरूपण पर भी पड़ता रहा । अन्ततः उत्तरोत्तर होती हुई श्रुत की हानि को देखकर जब परम्परागत उस मौखिक तत्त्वप्ररूपणा को पुस्तकों के रूप में निबद्ध किया गया तब अपनी-अपनी स्मृति के आधार पर उस तत्त्व के व्याख्यान से सम्बद्ध गाथात्मक या गद्यात्मक सूत्र पुस्तकों के रूप में निबद्ध हो गये । इसलिए विवक्षित सन्दर्भ या वाक्य अमुक के द्वारा अमुक से लिये गये, यह निर्णय करना उचित न होगा। यह अवश्य है कि कुछ समय के पश्चात् विभिन्न देशों की भाषा, संस्कृति और ग्रन्थकारों की मनोवृत्ति अथवा सम्प्रदाय के व्यामोह वश उस तत्त्वप्ररूपणा पर भी प्रभाव पड़ा है व उसमें परिवर्तन एवं हीनाधिकता भी हुई है। ८. षट्खण्डागम और जीवसमास ___ 'जीवसमास' यह एक संक्षेप में जीवों की विभिन्न अवस्थाओं की प्ररूपणा करनेवाला महत्त्वपूर्ण आगम ग्रन्थ है। यह किसके द्वारा रचा गया, ज्ञात नहीं हो सका। ऋषभदेव केशरीमल श्वे० संस्था से प्रकाशित संस्करण में 'पूर्वभृत् सूरि सूत्रित' ऐसा निर्देश किया गया है। ग्रन्थ के प्रक्रियाबद्ध विषय के विवेचन की पद्धति और उसकी अर्थबहुल सुगठित संक्षिप्त रचना को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि उसके रचयिता परम्परागत विशिष्ट श्रुत के पारंगत रहे हैं, क्योंकि इसके बिना ऐसी सु व्यवस्थित अर्थबहुल संक्षिप्त ग्रन्थरचना, जिसमें थोड़े-से शब्दों के द्वारा अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों की प्ररूपणा विस्तार से की गई हो, सम्भव नहीं दिखती। ग्रन्थ प्राकृत गाथाओं में रचा गया है । इसकी समस्त गाथासंख्या २८६ है । इस प्रकार यह ग्रन्थप्रमाण में संक्षिप्त होकर भी अर्थ से गम्भीर व विस्तृत है । ___इसमें सर्वप्रथम मंगलस्वरूप चौबीस जिनवरों को नमस्कार करते हुए जीवसमास के कहने की प्रतिज्ञा की गई है। तत्पश्चात् निक्षेप, नियुक्ति, छह अथवा आठ अनुयोगद्वारों एवं गति आदि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से जीवसमासों' को अनुगन्तव्य (ज्ञातव्य) कहा गया है। १. 'जीवसमास' से दोनों ही ग्रन्थों में गुणस्थानों की विवक्षा रही है । २२२ / षट्खण्डागम-परिशीलम . Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये छह अनुयोगद्वार कौन-से हैं, उनके नामों का उल्लेख यद्यपि ग्रन्थ में नहीं किया गया है, फिर भी प्रश्नात्मक रूप में जो वहाँ संकेत किया गया है उससे वे (१) निर्देश, (२) स्वामित्व, (३) साधन, (४) अधिकरण, (५) काल और (६) विधान ये छह अनुयोगद्वार फलित होते हैं। जैसे (१) अमुक पदार्थ क्या है ? (निर्देश), (२) वह किसके होता है ? (स्वामित्व), (३) वह किसके द्वारा होता है ? (साधन), (४) वह कहाँ रहता है ? (अधिकरण), (५) वह कितने काल रहता है ? (स्थिति) और (६) वह कितने प्रकार का है ? (विधान)। आठ अनुयोगद्वारों का नामनिर्देश ग्रन्थ में ही कर दिया गया है।' __ आगे गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं और मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों का निर्देश करते हुए उन्हें अनुगन्तव्य कहकर उक्त निक्षेप-नियुक्ति आदि के द्वारा जान लेने की प्रेरणा की गई है (गा० ६-६)। इस प्रकार प्रारम्भिक भूमिका को बाँधकर आगे कृत प्रतिज्ञा के अनुसार ओघ और आदेश की अपेक्षा यथाक्रम से उन सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से जीवों की विविध अवस्थाओं की प्ररूपणा की गई है। अब आगे हम यह देखना चाहेंगे कि 'जीवसमास की प्रस्तुत षट्खण्डागम के साथ कितनी समानता है और कितनी विशेषता। १. १०ख० के प्रथम खण्ड जीवस्थान में सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम इन आठ अनुयोगद्वारों (सूत्र १,१,७) के आभय से जीवसमासों (गुणस्थानों) का मार्गण (अन्वेषण) किया गया है। __जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है 'जीवसमास' में भी उन्हीं आठ अनुयोगद्वारों (गाथा ५) के आश्रय से जीवों के स्थानविशेषों का विचार किया गया है, इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में उन आठ अनुयोगद्वारों के विषय में सर्वथा समानता है। २. ष०ख० और 'जीवसमास दोनों ग्रन्थों में ज्ञातव्य के रूप में निर्दिष्ट उन चौदह मार्गणाओं का भी उल्लेख समान शब्दों में इस प्रकार किया गया है "गइ इंदिए काए जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दंसणे लेस्सा भविय सम्मत्त सण्णि आहारए चेदि।" —ष०ख० १,१,४ (पु० १) गइ इंदिए य काए जोए वेए कसाय नाणे य । संजम दंसण लेस्सा भव सम्मे सन्नि आहारे ॥-जीवसमास, गाथा ६ विशेषता इतनी है कि षट्खण्डागम में जहाँ उनका उल्लेख गद्यात्मक सूत्र में किया गया है १. किं कस्स केण कत्थ व केवचिरं क इविहो उ भावो त्ति । छहि अणुओगद्दारेहिं सव्वे भावाऽणुगंतव्वा ।।-गाथा ४ (तत्त्वार्थसूत्र में इन छह अनुयोगद्वारों का उल्लेख इस प्रकार किया गया है-निर्देश स्वामित्व-साधनाधिकरण-स्थिति-विधानतः ।-(१-७) २. संतपयपरूवणया दव्वपमाणं च खित्त-फुसणा य । कालंतरं च भावो अप्पाबहुअं च दाराई ।।-गाथा ५ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना | २२३ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहाँ 'जीवसमास' में वह गाथा के रूप में हुआ है । ३. षट्खण्डागम में आगे उस सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में ओघ की अपेक्षा 'ओघेण अस्थि मिच्छाइट्ठी, सासणसम्माइट्ठी' इत्यादि के क्रम से पृथक्-पृथक् सूत्रों के द्वारा मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों का उल्लेख है। सूत्र १,१,६-२२ (पु०१) _ 'जीवसमास' में भी उसी प्रकार से सत्प्ररूपणा के प्रसंग में मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थानों का उल्लेख किया गया है। (गाथा ७-६) ४. षट्खण्डागम में आगे उसी सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में आदेश की अपेक्षा यथाक्रम से गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में यथासम्भव गुणस्थानों के सद्भाव को दिखलाते हुए जीवों के स्वरूप आदि का विचार किया गया है। (सूत्र १,१,२४-१७७)। 'जीवसमास' में भी उसी प्रकार से आदेश की अपेक्षा उस सत्प्ररूपणा के अन्तर्गत अन्य प्रासंगिक विवेचन के साथ यथा योग्य जीवों के स्वरूप व भेद-प्रभेदादि का विचार किया गया है । जैसे-नरकगति के प्रसंग में सातों नरकों व धर्मावंशादि सातों पृथिवियों तथा मनुष्यगति के प्रसंग में कर्मभूमिज, भोगभूमिज, अन्तर्वीपज और आर्यम्लेच्छादि का विचार इत्यादि । (गाथा १०-८४) ष० ख० में वहाँ उन अवान्तर भेदों आदि का विस्तृत विवेचन नहीं किया गया है । उन सबकी विस्तृत प्ररूपणा यथाप्रसंग उसकी टीका धवला में की गई है। __ 'जीवसमास' की यह एक विशेषता ही रही है कि वहाँ संक्षेप में विस्तृत अर्थ की प्ररूपणा कर दी गई है। उदाहरण के रूप में दोनों ग्रन्थगत संज्ञी मार्गणा का यह प्रसंग द्रष्टव्य है “सण्णियाणुवादेण अत्थि सण्णी असण्णी । सण्णी मिच्छा इट्टिप्पहुडि जाव खीणकसायवीयरायछदुमत्था त्ति। असण्णी एइंदियप्पहुडि जाव असण्णिपंचिंदिया त्ति।" -ष०ख०, सूत्र १,१,१७२-७४ अस्सण्णि अमणचिदियंत सण्णी उ समण छउमत्था । णो सपिण णो असण्णी केवलणाणी उ विण्णेया ॥ -जीवसमास ८१ १० ख० के उपर्युक्त ३ सूत्रों में इतना मात्र कहा गया है कि संज्ञी जीव मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं और असंज्ञी जीव एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक होते हैं। यह पूरा अभिप्राय 'जीवसमास' की उपर्युक्त गाथा के पूर्वार्ध में ही प्रकट कर दिया गया है। साथ ही वहाँ संज्ञी असंज्ञी जीवों के स्वरूप को भी प्रकट कर दिया गया है कि जो जीव मन से सहित होते हैं वे संज्ञी और जो उस मन से रहित होते हैं वे असंज्ञी कहलाते हैं। वहाँ 'छद्मस्थ' इतना मात्र कहने से मिथ्यादृष्टि आदि बारह गुणस्थानों का ग्रहण हो जाता है । उन गुणस्थानों के नामों का निर्देश दोनों ग्रन्थों में पूर्व में किया ही जा चुका है। केवली संज्ञी होते हैं कि असंज्ञी, इसे ष०ख० में स्पष्ट नहीं किया गया है । पर 'जीवसमास' की उपर्युक्त गाथा के उत्तरार्ध में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि केवली न तो संज्ञी होते हैं और न ही असंज्ञी, क्योंकि वे मन से रहित हो चुके हैं । इसी प्रकार इसके पूर्व कायमार्गण के प्रसंग में ष० ख० में प्रसंगप्राप्त पृथिवीकाय आदि के भेदों, योनियों, कुलकोटियों एवं त्रसकायिकों के संस्थान व संहनन आदि का कुछ विचार नहीं २२४ / षट्सण्डागम-परिशीलन Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया पर जीवसमास में उस सबका भी विशद विचार किया गया है ।' (गा० २६-५४) ५. १० ख० में जीवस्थान के अन्तर्गत दूसरे द्रव्यप्रमाणानुगम अनुयोगद्वार में मिथ्यादृष्टि जीवों की संख्या को प्रकट करते हुए ये सूत्र कहे गये हैं "ओघेण मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया? अणंता । अणताणताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण प्रवहिरंति कालेण । खेत्तण अणंताणंता लोगा।" -सूत्र १,२,२-४ (पु०३) इन सूत्रों के उसी अभिप्राय को जीवसमास में एक गाथा के द्वारा उन्हीं शब्दों में इस प्रकार व्यक्त कर दिया गया है मिच्छादग्बमणंता कालेणोसप्पिणी अणंताओ। खेत्तेण मिज्जमाणा हवं ति लोगा अणंताओ (उ)॥ -गा० १४४ ६. १० ख० में ओघ से मिथ्यादृष्टि आदि जीवों के क्षेत्रप्रमाण के प्ररूपक ये सूत्र हैं "ओघेण मिच्छाइट्ठी केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे । सासण सम्माइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभाए । सजोगिकेवली केवडि खेत्ते? लोगस्स असंखेज्जदिभाए असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्लोगे वा।" ~ष०ख०, सू० १,३,२-४ (पु० ४) 'जीवसमास' में इस क्षेत्रप्रमाण को एक ही गाथा में इस प्रकार से व्यक्त कर दिया गया है मिच्छा य सव्वलोए असंखभागे य सेस या हुंति । केवलि असंखभागे भागेसु व सव्वलोए वा ॥ -गाथा १७८ दोनों ग्रन्थों में क्षेत्र-प्रमाण विषयक यह अभिप्राय तो समान है ही, साथ ही शब्द भी प्रायः वे ही हैं व क्रम भी वही है । विशेष इतना है कि 'जीवसमास' में उसे ष०ख० के समान प्रश्नपूर्वक स्पष्ट नहीं किया गया है। इसके अतिरिक्त 'सासादन से लेकर अयोगिकेवली तक' इस अभिप्राय को वहाँ एक 'शेष' शब्द में ही प्रकट कर दिया गया है ।। ७. ष०ख० में जीवस्थान के अन्तर्गत चौथे स्पर्शनानुगम अनुयोगद्वार में मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानवी जीवों के स्पर्शनक्षेत्र को इस प्रकार प्रकट किया गया है "अोघेण मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो । सासण सम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अट्ट बारह चोद्दस भागा वा देसूणा । सम्मामिच्छा १. इन सबकी प्ररूपणा मूलाचार में की गई है। जैसे-पृथिवी आदि के भेद गाथा ५,८-२२; कुल ५, २४-२८ व १२, १६६-६९; योनि १२,५८-६३; इन सबकी प्ररूपणा से सम्बद्ध अधिकांश गाथाएँ मूलाचार व जीवसमास में शब्दशः समान उपलब्ध होती हैं। पृथिवी आदि के भेद-मलाचार ५,६-१६ व जीवसमास २७-३७ कुल , ५,२४-२६ , ४०-४२ योनि , १२,५८-६० , ४५-४७ मूलाचार गाथा १२,१२-१५ और जीवसमास गाथा ३०-३३ का पूर्वाधं समान है, उत्तरार्ध भिन्न है। जैसेमूलाचार-'ते जाण आउजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा ।।' जीवसमास-'वण्णाईहि य भेया सुहुमाणं णत्थि ते भेया ॥' (मूलाचार में पुढवि के स्थान में आगे क्रम से 'आऊ, तेऊ' और 'वाऊ' पाठ है) षट्खण्डागम को अन्य प्रन्थों से तुलना / २२५ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वि-प्रसंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अट्ठ चोट्स भागा या देसूणा । संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । छ चोट्स भागा वा देसूणा । पमत्त संजदप्पहुडि जाव प्रजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जा वा भागा सव्वलोगो वा ।" —सूत्र १, ४,२-१० ( पु० ४) 'जीवसमास' में इसी स्पर्शनक्षेत्र के प्रमाण को डेढ गाथा में इस प्रकार निर्दिष्ट किया गया है- मिच्छेहि सव्वलोओ सासण-मिस्सेहि अजय देसेहि । पुट्ठा चउदस भागा बारस अदृट्ठ छच्चे व ॥ सेसेहऽख भागो फुसिओ लोगो सजोगिकेवलिहि । - जीवसमास, गाथा १६५-६६ इसी पद्धति से आगे काल, अन्तर और भाव की भी प्ररूपणा दोनों ग्रन्थों में क्रम से की गई है। विशेषता वही रही है कि ष० ख० में जहाँ वह प्ररूपणा प्रश्नोत्तर के साथ पृथक्पृथक् रूप से की जाने के कारण अधिक विस्तृत हुई है वहाँ वह बहुत कुछ संक्षिप्त रही है । ऐसा होते हुए भी, जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, उन गति आदि चौदह मार्गंणाओं के प्रसंग में 'जीवसमास' में ष०ख० की अपेक्षा अन्य प्रासंगिक विषयों को भी थोड़ी-सी चर्चा हुई है, जिसका विवेचन ष० ख० में नहीं मिलता है । इतना विशेष है कि दोनों ग्रन्थों में प्रतिपाद्य विषय के विवेचन की पद्धति और क्रम के समान होने पर भी ष० ख० में जहाँ उक्त आठों अनुयोगद्वारों में यथाक्रम से सभी मार्गणाओं का आश्रय लिया गया है वहाँ 'जीवसमास' में उन अनुयोगद्वारों के प्रसंग में प्रारम्भ में एक-दो मार्गणाओं के आश्रय से विवक्षित विषय को स्पष्ट करके आगे कुशलबुद्धि जनों से स्वयं वहां अनुक्त विषय के जान लेने की प्रेरणा कर दी गई है । जैसे कालानुगम के प्रसंग में वहाँ प्रतिपाद्य विषय का कुछ विवेचन करके आगे यह सूचना की गई है -- एत्थ य जीवसमासे अणुमज्जिय सुहुम - निउण मइकुसले । सुहमं कालविभागं विमएज्ज सुयम्मि उवजुत्तो ||२४|| अभिप्राय यही है कि यहाँ 'जीवसमास' में जो प्रसंगप्राप्त सूक्ष्मकालविभाग की चर्चा नहीं की गई है उसका अन्वेषण श्रुत में उपयुक्त होकर निपुणमतियों को अनुमान से स्वयं करना चाहिए । ८. ष० ख० में दूसरे क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत जो ग्यारह अनुयोगद्वार हैं उनमें अन्तिम अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार है । वहाँ यथाक्रम से गति- इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से अल्पबहुत्व की प्ररूपणा है । उस प्रसंग में वहाँ गतिमार्गणा में अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हुए प्रथमतः पाँच गतियों का उल्लेख है और उनमें उस अल्पबहुत्व को इस प्रकार प्रकट किया गया है— "अप्पा बहुगागमेण गदियाणुवादेण पंच गदी समासेण । सव्वत्थोवा मणुसा । णेरइया असंखेज्जगुणा । देवा असंखेज्जगुणा । सिद्धा अनंतगुणा । तिरिक्खा अणंतगुणा । " - सूत्र २, ११, १-६ (पु० ७) जीवसमास में यही अल्पबहुत्व प्रायः उन्हीं शब्दों में इस प्रकार उपलब्ध होता है२२६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योवा नरा नरेहि य असंखगुणिया हवंति नेरइया । तत्तो सुरा सुरेहि य सिद्धाणंता तओ तिरिया || २७१ ॥ ० ख० में आगे इसी प्रसंग में आठ गतियों का निर्देश करते हुए उनमें अल्पबहुत्व को इस प्रकार प्रकट किया है "अट्ठ गदीओ समासेण । सव्वत्थोवा मणुस्सिणी । मणुस्सा असंखेज्जगुणा । णेरइया असंखेज्जगुणा । पंचिदियतिरिक्खजोणिणीओ असंखेज्जगुणाओ । देवा संखेज्जगुणा । देवीओ संखेज्जगुणाओ । सिद्धा अनंतगुणा । तिरिक्खा अनंतगुणा । " सूत्र २,११, ७-१५ (१०७) 'जीवसमास' में भी इस अल्पबहुत्व को देखिए योवाउ मणुस्सीओ नर-नरय- तिरिक्खिओ असंखगुणा । सुर- देवी संखगुणा सिद्धा तिरिया अनंतगुणा ॥ २७२ ॥ इस प्रकार से इस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा दोनों ग्रन्थों में सर्वथा समान है । विशेषता यह रही है कि ष० ख० में जहाँ मनुष्य, नारक और तिर्यंचनियों के वह अल्पबहुत्व पृथक्पृथक् ३ सूत्रों में निर्दिष्ट किया है वहीं जीवसमास में उसे संक्षेप में 'नर-नरय- तिरिक्खिओ असंखगुणा' इतने गाथांश में द्वन्द्व समास के आश्रय से प्रकट कर दिया गया है। इसी प्रकार ० ख० में देव और देवियों में वह अल्पबहुत्व २ सूत्रों में तथा सिद्धों और तिर्यंचों के विषय में भी वह पृथक्-पृथक् २ सूत्रों में प्रकट किया गया है । किन्तु 'जीवसमास' में समस्त पदों के आश्रय से संक्षेप में ही उसकी प्ररूपणा कर दी गई है । इतना संक्षेप होने पर भी अभिप्राय में कुछ भेद नहीं दिखाई देता । उपसंहार इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में विषय-विवेचन की प्रक्रिया और प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा में बहुत कुछ समानता देखी जाती है। विशेषता यह रही है कि ष० ख० में जिस प्रकार आगे द्रव्यप्रमाणानुगम आदि अनुयोगद्वारों के प्रसंग में पृथक्-पृथक् यथाक्रम से गति आदि चौदह मार्गणाओं के श्राश्रय से विवक्षित द्रव्यप्रमाण आदि की प्ररूपणा है उस प्रकार से 'जीवसमास' में सभी मार्गणाओं के आश्रय से उन की प्ररूपणा नहीं की गई है । फिर भी वहाँ विवक्षित विषय से सम्बन्धित अन्य प्रासंगिक अनेक विषयों को स्पष्ट कर दिया गया है, जिनकी प्ररूपणा ष० ख० में उन प्रसंगों में नहीं है । उदाहरण के रूप में द्रव्यप्रमाण को हो ले लीजिए। 'जीवसमास' में वहाँ द्रव्यप्रमाण के निरूपण के पूर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से प्रमाण के चार भेदों का निर्देश करते हुए आगे स्वरूप के निर्देशपूर्वक उनके कितने ही अवान्तर भेदों को भी स्पष्ट किया गया है । तत्पश्चात् ष० ख० के समान ओघ की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानवर्ती जीवों संख्या को प्रकट किया गया है । अनन्तर गतिमार्गणा के प्रसंग में नारकियों आदि की संख्या दिखलाते हुए कायमार्गणा से सम्बद्ध बादर पृथिवीकायिक आदि जीवों की संख्या को प्रकट किया गया है । - गाथा ८७ - १६५ ( द्रव्य क्षेत्रादिप्रमाण ५७ + गुण-संख्या ५ + बादर पृथिबी आदि संख्या १७) ष०ख० में उस ब्रव्यप्रमाणानुगम के प्रसंग में प्रमाण के भेद-प्रभेदों का स्पष्टीकरण 'जीवसमास' के समान नहीं हुआ है । षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २२७ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसंग के अन्त में जीवसमास में वहाँ यह सूचना कर दी गई है कि आगे प्रकृत द्रव्यप्रमाण को अनुमानपूर्वक स्वयं जान लेना चाहिए। यथा एवं जे जे भावा जहिं जहि हुंति पंचसु गदीसु । ते ते अणुमज्जित्ता दव्वपमाणं नए धीरा ॥१६६॥ यही पद्धति वहाँ प्राय: आगे क्षेत्र ( १६८ - ८१ पू० ), स्पर्शन (१८१ उ०- २००), काल ( २०१-४२), अन्तर (२४३-६४ ), भाव ( २६५-७० ) और अल्पबहुत्व ( २७१ - ८४ ) की भी प्ररूपणा में अपनाई गई है । भावानुगम के प्रसंग में वहाँ औपशमिकादि पाँच भावों के साथ सांनिपातिक भाव को भी ग्रहण करके उसके छह भेद प्रकट किये गये हैं तथा आगे त० सूत्र ( २, ३-७ ) के समान उनके अवान्तर भेदों का भी उल्लेख किया गया है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल को पारिणामिक भाव तथा स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु को परिणामोदय से उत्पन्न होनेवाले कहा गया है । इस कथन के साथ भावानुगम अनुयोगद्वार को समाप्त कर दिया गया है (२६५-७०) । इसके पूर्व वहाँ कालानुगम के प्रसंग में एक और नाना जीवों की अपेक्षा प्रायु, कायस्थिति और गुणविभाग काल की प्ररूपणा कुछ विस्तार से की गई है । अन्त में वहाँ जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, सूक्ष्म कालविभाग को अनुमानपूर्वक जान लेने के लिए निपुणमतियों को सूचना कर दी गई है (२४० ) । इस प्रकार ष० ख० में जहाँ उक्त सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों में प्रसंगप्राप्त विषय की प्ररूपणा विशदतापूर्वक विस्तार से की गई है वहाँ जीवसमास में उन्हीं अनुयोगद्वारों में प्रतिपाद्य विषय का विवेचन प्रायः संक्षेप में किया गया है । फिर भी कहीं-कहीं पर वहाँ अन्य प्रासंगिक विषयों का विवेचन ष० ख० की अपेक्षा अधिक हो गया है। यह पीछे द्रव्यप्रमाणुगम के प्रसंग में स्पष्ट किया ही जा चुका है । उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'जीवसमास' यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है जो अनेक विषयों की प्ररूपणा में प्रस्तुत षट्खण्डागम से समानता रखता हुआ कुछ विशेषता भी रखता है । इन दोनों ग्रन्थों के पूर्वापर कालवर्तित्व का निश्चय यद्यपि नहीं है, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि उनमें किसी एक का प्रभाव दूसरे पर अवश्य रहा है, अन्यथा समान रूप में उस प्रकार की विषय विवेचन की पद्धति व प्रतिपाद्य की क्रमबद्ध प्ररूपणा सम्भव नहीं दिखती । ६. षट्खण्डागम और पण्णवणा (प्रज्ञापना) श्यामार्य विरचित प्रज्ञापना को चौथा उपांग माना जाता है । श्यामार्य का ग्रन्थकर्तृत्व व समय प्रायः अनिर्णीत है ।' वह एक आगमानुसारी ग्रन्थ है । 'महावीर जैन विद्यालय' से प्रकाशित उसके संस्करण में सर्वप्रथम पंचपरमेष्ठिनमस्कारात्म मंगलगाथा को कोष्ठक [ ] के भीतर रखा गया है ।" उसे कोष्ठक में रखने का कारण वहाँ टिप्पण में यह प्रकट किया गया १. गुजराती प्रस्तावना पृ० २२-२५ २. यह पंचपरमेष्ठि नमस्कारात्मक गाथासूत्र षट्खण्डागम के प्रारम्भ में मंगलगाथा के रूप में उपलब्ध होता है । धवलाकार ने उसे सकारण मंगलआदि छह का प्ररूपक बतलाया है । - धवला पु० १, पृ० ८ पर मंगलसूत्र की उत्थानिका । २२८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि वह यद्यपि मूल सूत्रादर्श सभी प्रतियों में उपलब्ध है, किन्तु उसकी व्याख्या हरिभद्र सूरि और मलयगिरि सूरि के द्वारा अपनी अपनी वृत्ति में नहीं की गई है। तत्पश्चात् सिद्धों के अभिनन्दनपूर्वक महावीर जिनेन्द्र की वन्दना की गई है । आगे कहा गया है कि 'भगवान् जिनेन्द्र के द्वारा समस्त भावों की प्रज्ञापना दिखलायी गई है। दृष्टिवाद से निकले हुए इस अध्ययन का वर्णन जिस प्रकार से भगवान् ने किया है उसी प्रकार से मैं भी उसका वर्णन करूँगा' (गाथा १-३) । आगे ग्रन्थकार ने उसमें यथाक्रम से चर्चित इन छत्तीस पदों का निर्देश किया है (१) प्रज्ञापना, (२) स्थान, (३) बहुवक्तव्य, (४) स्थिति, (५) विशेष, (६) व्युत्क्रान्ति, (७) उच्छ्वास, (८) संज्ञा, (8) योनि, (१०) चरम, (११) भाषा, (१२) शरीर, (१३) परिणाम, (१४) कषाय, (१५) इन्द्रिय, (१६) प्रयोग, (१७) लेश्या, (१८) कायस्थिति, (१६) सम्यक्त्व, (२०) अन्तःक्रिया, (२१) अवगाहना संस्थान, (२२) क्रिया, (२३) कर्म, (२४) कर्मबन्धक, (२५) कर्मवेदक, (२६) वेदबन्धक, (२७) आहार, (२८) वेदवेदक. (२६) उपयोग, (३०) स्पर्शन, (३१) संज्ञी, (३२) संयम, (३३) अवधि, (३४) प्रवीचार, (३५) वेदना और (३६) समुद्घात (४-७) । आगे वहाँ यथाक्रम से उन ३६ पदों के अन्तर्गत विषय का विवेचन किया गया है। परन्तु विवक्षित पद में वर्णनीय विषय का दिग्दर्शन कराते हुए उसके अन्तर्गत भेद-प्रभेदों का जिस क्रम से उल्लेख किया गया है उनकी प्ररूपणा में कहीं-कहीं क्रमभंग भी हुआ है ।' इसका कारण उन भेद-प्रभेदों की अल्पवर्णनीयता व बहुवर्णनीयता रहा है। तदनुसार निर्दिष्ट क्रम की उपेक्षा करके वहाँ कहीं-कहीं अल्पवर्णनीय की प्ररूपणा पूर्व में की गई है और तत्पश्चात् बहुवर्णनीय की प्ररूपणा की गई है। यथा___ सूत्र ३ में प्रज्ञापना के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं--जीव-प्रज्ञापना और अजीव प्रज्ञापना । इनमें अल्पवर्णनीय होने से प्रथमतः अजीव-प्रज्ञापना की प्ररूपणा की गई है (सूत्र ४-१३) और तत्पश्चात् जीव-प्रज्ञापना की प्ररूपणा है (१४-१४७)। इसी प्रकार रूपी अजीवप्ररूपणा (६-१३) और अरूपी अजीवप्ररूपणा (५) में भी क्रम का भंग हुआ है। आगे और भी कितने ही ऐसे स्थल हैं जहाँ क्रमभंग हुआ है। ___ यह विशेष स्मरणीय है कि ष० ख० और प्रज्ञापना दोनों ही ग्रन्थ लक्षणप्रधान नहीं रहे हैं, उनमें विवक्षित किसी विषय के स्वरूप को न दिखलाकर केवल उससे सम्बन्धित अनुयोगद्वारों अथवा भेद-प्रभेदों का ही उल्लेख है । प्रज्ञापना में विवक्षित विषय की प्ररूपणा गौतम के प्रश्न पर भगवान् (महावीर) के द्वारा किये गये उसके समाधान के रूप में की गई है। पर उसके प्रथम पद 'प्रज्ञापन' में वह १. क्रमभंग की यह पद्धति कहीं ष० ख० में भी देखी जाती है, पर वहां उसकी सूचना कर दी गई है। जैसे-जा सा कम्मपयडी णाम सा थप्पा (सूत्र ५,५,१६)। जा सा थप्पा कम्मपयडी णाम सा अट्ठविहा–णाणावरणीय कम्मपयडी ...(सूत्र ५.५, १६)। सूत्र ५,५,१६ की व्याख्या में धवलाकार ने यह स्पष्ट कर दिया है—'स्थाप्या। कुदो ? बहुवण्णणिज्जत्तादो।' पु० १३, पृ० २०४ । आगे सूत्र ५,६,१० व २४; ५,६,२७ व ३८; ५,६,२६ व ३२ तथा ५,६,३६ व ६४ आदि । षट्खण्डागम की अन्य प्रन्यों से तुलना / २२६ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर की पद्धति नहीं उपलब्ध होती है । वहाँ प्रायः गौतम और भगवान् महावीर के उल्लेख के बिना सामान्य से ही प्रश्न व उसका उत्तर देखा जाता है । यथा - " से कि तं पण्णवणा ? पण्णवणा दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - जीवपण्णवणा य ? अजीवपण्णवणा य" । " यही पद्धति इस पद में सर्वत्र अपनाई गई है । आगे 'स्थान' आदि पदों में गौतम द्वारा प्रश्न और भगवान् के द्वारा किये गये उसके समाधान के रूप में वह पद्धति देखी जाती है । इस प्रकार संक्षेप में प्रज्ञापनासूत्र का परिचय कराकर अब आगे उसकी षट्खण्डागम के साथ कहाँ कितनी समानता है और कितनी विशेषता है, इसका विचार किया जाता है १. षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड 'जीवस्थान' में विभिन्न जीवों में चौदह मार्गणात्रों के आश्रय से चौदह जीवसमासों ( गुणस्थानों) का अन्वेषण करना अभीष्ट रहा है । इसके लिए वहाँ प्रारम्भ में गति इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं के नामों का निर्देश ज्ञातव्य के रूप में किया गया है (सूत्र १,१, २-४)। प्रज्ञापना में 'बहुवक्तव्य' नाम का तीसरा पद है । उसमें दिशा व गति आदि छब्बीस द्वारों के आश्रय से जीव अजीवों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा है । उन द्वारों के नामों में प्रस्तुत षट्खण्डागम में निर्दिष्ट १४ मार्गणाओं के नाम गर्भित हैं। यथा घटखण्डागम सूत्र १,१,४ १. गति २. इन्द्रिय ३. काय ४. योग ५. वेद ६. कषाय ७. ज्ञान ८. संयम ६. दर्शन १०. लेश्या ११. भव्यत्व १२. सम्यक्त्व १३. संज्ञी १४. आहार १. सूत्र ८२ व ८३ इसके अपवाद हैं । २३० / षट्खण्डागम-परिशीलन प्रज्ञापना सूत्र २१२ ( गाथा १८०-८१ ) १. दिशा २. गति ( १ ) ३. इन्द्रिय ( २ ) ४. काय ( ३ ) ५. योग ( ४ ) ६. वेद (५) ७. कषाय ( ६ ) 5. ६. सम्यक्त्व (१२) १०. ज्ञान ( ७ ) ११. दर्शन ( C ) लेश्या (१०) १२. संयत ( ८ ) १३. उपयोग १४. आहार (१४) १५. भाषक १६. परीत १७. पर्याप्त १८. सूक्ष्म १६. संज्ञी (१३) Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. बन्ध २६. पुद्गल इस प्रकार षट्खण्डागम के अन्तर्गत उन १४ मार्गणाओं की अपेक्षा ये १२ द्वार प्रज्ञापना में अधिक हैं - दिशा ( १ ), उपयोग (१३), भाषक (१५), परीत (१६), पर्याप्त (१७), सूक्ष्म (१८), अस्तिकाय (२१), चरम (२२), जीव (२३), क्षेत्र (२४), बन्ध (२५) और पुद्गल (२६) । २०. भव (भवसिद्धियअभवसिद्धिय) (११) २१. अस्तिकाय २२. चरम २३. जीव २४. क्षेत्र इस प्रकार प्रज्ञापना में जो इन द्वारों के आश्रय से जीवों, अजीवों और जीव-अजीवों में अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है उसमें षड् खण्डागम की अपेक्षा अधिक विकास हुआ है । आगे प्रज्ञापना में १८वें 'कायस्थिति' पद के प्रारम्भ में जिन २२ द्वारों का निर्देश किया गया है उनमें भी षट्खण्डागम में निर्दिष्ट उन गति- इन्द्रियादि १४ मार्गणओं के नाम उपलब्ध होते हैं । ये २२ द्वार प्रज्ञापना के पूर्वोक्त 'बहुवक्तव्य' पद के २६ द्वारों में भी गर्भित हैं । यहाँ उन २६ द्वारों में से दिशा ( १ ), क्षेत्र (२४), बन्ध (२५) और पुद्गल (२६) ये चार द्वार नहीं हैं । उन २२ द्वारों का नाम निर्देश करते हुए वहाँ कहा गया है कि इन पदों की कार्यस्थिति ज्ञातव्य है । (प्रज्ञापनासूत्र १२५६, गाथा २११-१२) २. षट्खण्डागम में चौदह जीवसमासों की प्ररूपणा में प्रयोजनीभूत सत्प्ररूपणा आदि आठ अनुयोगद्वारों का उल्लेख करते हुए ( १, १, ७) आगे यथाक्रम से उनकी प्ररूपणा है । प्रज्ञापना में जैसाकि ऊपर ग्रन्थपरिचय में कहा जा चुका है, षट्खण्डागम के समान आगे जिन ३६ पदों के आश्रय से जीव अजीवों की प्ररूपणा की जानेवाली है उनका निर्देश प्रारम्भ में कर दिया गया है । ( गाथा ४-७ ) इस प्रसंग में इन दोनों ग्रन्थों में विशेषता यह रही है कि षट्खण्डागम में जहाँ उन सत्प्ररूपणा आदि अधिकारों का उल्लेख 'अनुयोगद्वार' के नाम से करते हुए उनकी 'आठ' संख्या का भी निर्देश कर दिया गया है ( ११, ५ - ७) वहाँ प्रज्ञापना में उन द्वारों का उल्लेख न तो 'पद' इस नाम से किया गया है और न उनकी उस 'छत्तीस' संख्या का भी निर्देश किया गया है (४-७) । ३. षट्खण्डागम में आगे कृत प्रतिज्ञा के अनुसार यथाक्रम से गति- इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में वर्तमान जीवविशेषों के सत्व को दिखाकर उनमें गुणस्थानों का मार्गण किया गया है । (सूत्र १,१,२४-१७७, पु० १) प्रज्ञापना में जो प्रथम 'प्रज्ञापना' पद है उसके अन्तर्गत जीवप्रज्ञापना और अजीवप्रज्ञापना में से जीवप्रज्ञापना की प्ररूपणा करते हुए उसके ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं—संसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना और असंसारसमापन्नजीव प्रज्ञापना । उनमें संसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना के प्रसंग में संसारी जीवों के एकेन्द्रियादि भेद-प्रभेदों को प्रकट किया गया है। (सूत्र १८ - १४७ ) षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २३१ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों ग्रन्थगत तद्विषयक समानता को प्रकट करने के लिए यहाँ यह उदाहरण दिया जाता है--षट्खण्डागम में कायमार्गणा के प्रसंग में वनस्पतिकायिक जीवों के भेद-प्रभेदों का उल्लेख इस प्रकार से है "वणप्फइकाइया दुविहा–पत्तेयसरीरा साधारणसरीरा । पत्तेयसरीरा दुविहा-पज्जत्ता अपज्जत्ता। साधारणसरीरा दुविहा-बादरा सुहुमा । बादरा दुविहा—पज्जत्ता अपज्जत्ता । सुहमा दुविहा-पज्जत्ता अपज्जत्ता चेदि ।" --सूत्र १,१,४१ प्रज्ञापना में एकेन्द्रियजीवप्रज्ञापना के प्रसंग में इन भेदों का निर्देश इस प्रकार किया गया है___'से किं तं वणस्स इकाइया? वणस्सइकाइया दुविहा पण्णत्ता । तं जहा—सुहुमवणस्सइकाइया य बादर-वणस्सतिकाइया य । से किं तं सुहुमवणस्सइकाइया ? सुहुमवण्णस्सइकाइया दुविहा पन्नत्ता । तं जहा–पज्जत्तसुहुमवणस्सइकाइया य अपज्जत्तसुहुमवणस्सइकाइया य । से तं सुहमवणस्सइकाइया। से किं तं बादर-वणस्सइकाइया ? बादरवणप्फइकाइया दुविहा पण्णता। तं जहा-पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइया य साहारणसरीर-बादरवणप्फइकाइया य । से किं तं पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइया ? पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइया दुवालसविहा पन्नता।" तं जहा रुक्खा गुच्छा गुम्मा लता य वल्ली य पव्वगा चेय। तण वलय हरिय ओसहि जलरुह कुहणा य बोधव्वा ॥ --प्रज्ञापना सूत्र ३५-३८, गाथा १२ आगे प्रसंगप्राप्त इन बारह बादर प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिक जीवभेदों को स्पष्ट करके (सूत्र ३६-५३) तत्पश्चात् साधारण शरीर बादर वनस्पतिकायिक जीवों के अनेक भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। (सू०५४-५५ गाथा ४७-१०६) - इस प्रकार षट्खण्डागम में वनस्पतिकायिक जीवों के जिन प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, पर्याप्त-अपर्याप्त और बादर-सूक्ष्म भेदों का निर्देश किया गया है वे प्रज्ञापना में निर्दिष्ट उपर्युक्त भेदों के अन्तर्गत हैं । पर प्रज्ञापना में उन प्रत्येक व साधारणशरीर वनस्पतिकायिक जीवों के जिन अनेक जातिभेदों का उल्लेख है वह षटखण्डागम में नहीं मिलता है। सम्भवतः प्रज्ञापनाकार द्वारा उन्हें पीछे विकसित किया गया है। उन भेदों का अधिकांश उल्लेख गाथाओं में ही किया गया है। सम्भवतः उपर्युक्त वे सब भेद नियुक्तियों में भी नहीं निर्दिष्ट किये गये । उदाहरण के रूप में प्राचारांगनियुक्ति को लिया जा सकता है। उसमें ये दो गाथाएँ उपलब्ध होती हैं - रुक्खा गुच्छा गुम्मा लया य वल्ली य पव्वगा चेव । तण वलय हरित ओसहि जलरुह कुहणा य बोद्धव्वा ॥ अग्गबीया मूलबीया सांधबीयां चेव पोरबीयाय । बीयरहा सम्मुच्छिम समासओ वयस्सई जीवा ॥ --आचा०नि० १२९-३० इनमें प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिकों के बारह भेदों की निर्देशक प्रथम गाथा प्रज्ञापना (गा० १२) में उपलब्ध होती है, यह पहिले कहा जा चुका है । पर आगे प्रज्ञापना में जिन अन्य गाथाओं (१३-४७) के द्वारा उन बारह भेदों के अन्तर्गत अन्य भेद-प्रभेदों का २३२ / षट्खण्डागम-परिशीलन . Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लेख किया गया वे गाथाएँ आचारांग निर्युक्ति में नहीं उपलब्ध होती हैं । दूसरी गाथा के समकक्ष एक गाथा प्रायः समान रूप में मूलाचार (५-१६) दि० पंचसंग्रह (१-८१) और जीवसमास (३४) में इस प्रकार उपलब्ध होती है मूलग्ग-पोरबीजा कंदा तह खं दबीज-बीजरहा । संमुच्छिमा य भणिया पत्तेयाणंतकाया य ॥ प्रसंग में आचारांगनिर्युक्ति (१३८) में एक अन्य गाथा इस प्रकार इसके आगे इसी उपलब्ध होती है जीणिग्भूए बीए जीवो वक्कमइ सोव अण्णो वा । जो विय मूले जीवो सोच्चिय पत्ते पढमयाए । ' यह गाथा (सूत्र ५४, गा० ६७ ) प्रज्ञापना में भी उपलब्ध होती है । इसके अतिरिक्त आचारांगनियुक्ति में आगे ये दो गाथाएँ और भी देखी जाती हैं गूढसिर-संधि समभंगमहीरुहं च छिण्णरहं । साहारणं सरीरं तब्बिवरीयं च पत्तेयं ।। १४० ।। सेवाल पणग किण्हग कवया कुहुणा य बायरो काओ । मव्वो य सुहुमकाओ सव्वत्थ जलत्थलागासे ॥ १४१ ॥ ये दोनों गाथाएँ 'मूलाचार' (५-१६ व १८) और 'जीवसमास' (३७ व ३६) में भी विपरीत क्रम से उपलब्ध होती हैं । 'प्रज्ञापना' में ये दोनों गाथाएँ तो दृष्टिगोचर नहीं होतीं, किन्तु उपर्युक्त गाथा १४० में जो साधारणकाय की पहिचान तोड़ने पर 'समानभंग' निर्दिष्ट की गई है उसकी व्याख्यास्वरूप (भाष्यगाथात्मक) १० गाथाएँ ( सूत्र ५४, गा० ५६ - ६५ ) वहाँ अवश्य देखी जाती हैं । इसी प्रकार उक्त गाथा में आगे उसी साधारण शरीर की पहिचान 'अहीरुह — समच्छेद' शब्दान्तर से भी प्रकट की गई है। उसके विपरीत 'प्रज्ञापना' में प्रत्येकशरीर के स्वरूप को प्रकट करनेवाली १० गाथाओं (सूत्र ५४, गा० ६६-७५) में से एक में 'हीरो - विषमच्छेद' को ग्रहण कर उसके आधार से प्रत्येकशरीर को स्पष्ट किया गया है। इन गाथाओं को भी भाष्यगाथा जैसी समझना चाहिए । आगे 'प्रज्ञापना' में पर्याप्त जीवों के आश्रित अपर्याप्त जीवों की उत्पत्ति को दिखलाते हुए कहा है – “एएसि णं इमाओ गाहाओ अणुगंतव्वाओ । तं जहा ” — और फिर श्रागे तीन गाथाएँ (१०७ - १ ) और दी गई हैं । इस कथन इतना तो स्पष्ट है कि प्रज्ञापनाकार ने इन गाथाओं को कहीं अन्यत्र से उद्धृत किया है । पर किस ग्रन्थ से उन्हें उद्धृत किया है, यह अन्वेषणीय है । इन गाथाओं में कन्द आदि उन्नीस वनस्पति-भेदों को स्पष्ट किया गया है (सूत्र ५५ [३] ) । इनमें पूर्वोक्त आचारांग नियुक्ति (१४१ ) के अन्तर्गत 'सेवाल, पणग, किण्हग' ये भेद समाविष्ट हैं । ऐसा ही एक प्रसंग वहाँ आगे वानव्यन्तरों की स्थानप्ररूपणा में भी देखा जाता है । वहाँ १. यह गाथा ‘“बीजे जोणी भूदे जीवो" इस रूप में 'वृत्तं च' कह कर धवला में उद्धृत की गई है । (पु० १४, पृ० २३२ ) ; इसी रूप में उसे गो० जीवकाण्ड (१८९) में आत्मसात् किया गया है । षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २३३ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'संगहणिगाहा' ऐसा निर्देश करते हुए तीन (१५१-५३) गाथाओं को उद्धृत किया गया है। (सूत्र १९४) ४. १० ख० में आगे पाँचवें वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में पुनः वह प्रसंग प्राप्त हुआ है। वहाँ शरीरिशरीर-प्ररूपणा के प्रसंग में प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर जीवों का निर्देश करते हुए सात गाथासूत्रों (१२२-२८) द्वारा साधारणशरीर जीवों की विशेषता प्रकट की गयी है।' __ इन गाथासूत्रों में तीन गाथाएँ (१२२-२४) ऐसी हैं जो प्रज्ञापना में भी विपरीत क्रम से उपलब्ध होती हैं। इनमें एक गाथा का पाठ कुछ भिन्न है । यथा एयस्स अणुग्गहणं बहूण साहारणाणमेयस्स । एयस्स जं बहूणं समासदो तं पि होदि एयस्स ।। --ष० ख० १२३ (पु० १४) एक्कस्स उ जं गहणं बहूण साहारणाण तं चेव । जं बहुयाणं गहणं समासओ तं पि एगस्स ॥ -प्रज्ञा० १०० प्रज्ञापनागत इस गाथा का पाठ ष०ख० की अपेक्षा सुबोध है। इस प्रसंग में वहाँ एक गाथा धवला टीका में भी 'वुत्तं च' निर्देश के साथ इस प्रकार उद्धृत की गई है बीजे जोणीभूवे जीवो वक्कमइ सो व अण्णो वा । जे वि य मूलादीया ते पत्तेया पढमदाए ॥ -पु० १४, पृ० २३२ यह गाथा आचारांगनियुक्ति (१३८) और दशवकालिक-नियुक्ति (२३२) में भी कुछ पाठभेद के साथ उपलब्ध होती है, जिसका उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। उक्त गाथा 'प्रज्ञापना' (१७) में भी देखी जाती है। उसका पाठ आचारांग नि० के समान है। इस गाथा के उत्तरार्ध का पाठ भेद विचारणीय है। ष० ख० में इसी प्रसंग में आगे इतना विशेष कहा गया है कि ऐसे अनन्त जीव हैं जिन्होंने मिथ्यात्वादिरूप अतिशय भावकलंक से कलुषित रहने के कारण कभी त्रस पर्याय को प्राप्त नहीं किया है व जो निगोदवास को नहीं छोड़ रहे हैं । अनन्तर वहाँ एक निगोदशरीर में अवस्थित जीवों के द्रव्यप्रमाण का निर्देश करते हुए उसे अतीत काल में सिद्ध हुए जीवों से अनन्तगुणा कहा गया है। 'प्रज्ञापना' में इस प्रकार का उल्लेख कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हुआ। इस प्रकार इन दोनों ग्रन्थों की वर्णन शैली के भिन्न होने पर भी जिस प्रकार ष० ख० के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में क्रम से गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं में जीवों के भेद-प्रभेदों १. ष०ख०, पु० १४, पृ० २२५-३३ २. इनमें पूर्व की दो गाथाएँ (१२२-२३) आचारांगनियुक्ति में भी उपलब्ध होती हैं । क्रम उनका वहाँ ष० ख० के समान (१३६-३७) है। ३. पु० १४ पृ० २३३-३४; ये दोनों गाथाएँ मूलाचार के 'पर्याप्ति' अधिकार (१६२-६३) में तथा दि० पंचसंग्रह में भी विपरीत क्रम (१-८५ व ८४) से उपलब्ध होती हैं । २३४ / षट्खण्डागम-परिशीलन . Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को दिखलाया गया है उसी प्रकार प्रज्ञापना के अन्तर्गत प्रथम 'प्रज्ञापना' पद में भी एकेन्द्रियादि जीवों के भेद-प्रभेदों को दिखलाया गया है। विशेषता यह रही है कि प्रज्ञापना में विवक्षित जीवों में उनके अन्तर्गत विविध जातिभेदों को भी प्रकट किया गया है, जिनका उल्लेख ष० ख० में नहीं है-यह पीछे वनस्पतिकायिक जीवों के प्रसंग में भी स्पष्ट किया जा चुका है। । दूसरा उदाहरण मनुष्यों का लिया जा सकता है। ष० ख० में आध्यात्मिक दृष्टि की प्रमुखता से उक्त सत्प्ररूपणा में मनुष्यगति के प्रसंग में मोक्ष-महल के सोपानस्वरूप चौदह गुणस्थानों में मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि आदि चौदह प्रकार के मनुष्यों का अस्तित्व प्रकट किया गया है। (सूत्र १,१, २७) किन्तु प्रज्ञापना में मनुष्यजीव-प्रज्ञापना के प्रसंग में मनुष्यों के सम्मूर्च्छन व गर्भोपक्रान्तिक इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनके अन्तर्गत अनेक अवान्तर जाति-भेदों को तो प्रकट किया गया है, पर गुणस्थानों व उनके आश्रय से होनेवाले उनके चौदह भेदों का कोई उल्लेख नहीं है । (सूत्र ६२-१३८) ५. ष० ख० के दूसरे खण्ड क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत जो ग्यारह अनुयोगद्वार हैं उनमें तीसरा ‘एक जीव की अपेक्षा कालानुगम' है । उसमें गति-इन्द्रियादि के क्रम से चौदह मार्गणाओं में जीवों के काल की प्ररूपणा है । उधर प्रज्ञापना के पूर्वोक्त ३६ पदों में चौथा 'स्थिति' पद है। उसमें नारक आदि विविध जीवों की स्थिति (काल) की प्ररूपणा है। दोनों ग्रन्थगत इस प्ररूपणा में बहुत कुछ समानता देखी जाती है । यथा "एगजीवेण कालाणुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइया केवचिरं कालादो होंति ? जहण्णेण दसवाससहस्साणि। उक्कस्सेण तेत्तीसं साग रोवमाणि । पढमाए पुढवीए णेरइया केवचिरं कालादो होंति ? जहण्णण दसवाससहस्साणि । उक्कस्सेणं सागरोवमं ।" -ष०ख०, सूत्र २,२,१-६ (पु०७) "नेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेण दसवाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई।.....रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ? केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्साइं, उक्कोसेणं सागरोवमं ।” -प्रज्ञापना सूत्र ३३५ [१] व ३३६ [१] इसी क्रम से आगे भी दोनों ग्रन्थों में अपनी-अपनी पद्धति से कुछ हीनाधिकता के साथ जीवों के काल की प्ररूपणा की गई है। ६. ष० ख० में इसी क्षुद्र कबन्ध खण्ड के अन्तर्गत उन ग्यारह अनुयोगद्वारों में से छठे और सातवें अनुयोगद्वारों में क्रम से जीवों के वर्तमान निवास (क्षेत्र) और कालत्रयवर्ती क्षेत्र (स्पर्शन) की प्ररूपणा गति-इन्द्रिय आदि मार्गणाओं के क्रम से की गई है । इसी प्रकार प्रज्ञापना में उन ३६ पदों के अन्तर्गत दूसरे 'स्थान' नामक द में बादर पृथिवीकायिकादि जीवों के स्थानों की प्ररूपणा कुछ अधिक विस्तार से की गई है। __दोनों ग्रन्थों की इस प्ररूपणा में बहुत कुछ समानता दिखती है। इसके लिए यहाँ एक उदाहरण दिया जाता है "मणुसगदीए मणुसा मणुसपज्जत्ता मणुसिणी सत्थाणेण उववादेण केवडिखत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे। समुग्घादेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । असंखेज्जेसु वा भाएसु षट्खण्डागम को अन्य ग्रथों से तुलना / २३५ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वलोगे वा । मणुसअपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे।" -ष ०ख०, सूत्र २,६, ८-१४ (पु० ७) 'कहिणं भंते ! मणुस्साणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! अंतो मणुस्सखेत्ते पणतालीसजोयणसतसहस्सेसु अड्ढाइज्जेसु दीव-समुद्देसु पण्णरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु' छप्पण्णाए अंतरदीवेसू, एत्थ णं मणुस्साणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णेत्ता। उववाणं लोगस्स असंखेज्जइभागे समुग्घाएणं सव्वलोए, सट्ठाणेणं लोगस्स असंखेज्ज इभागे। -प्रज्ञापना सूत्र १७६ इस प्रकार कुछ शब्द-साम्य के साथ दोनों ग्रन्थों का अभिप्राय समान है। विशेषता यह रही है कि ष० ख० में जहाँ सामान्य से लोक का असंख्यातवा भाग कहा गया है वहां पण्णवणा में उसके स्थान में विशेष रूप से मनुष्यक्षेत्र व अढाई द्वीप-समुद्रों आदि का निर्देश किया गया है जो लोक के असंख्यातवें भागरूप ही है। इसके अतिरिक्त ष० ख० में प्रतरसमुद्घातगत केवली को लक्ष्य करके 'लोक के असंख्यात बहुभागों' (असंखेज्जेसु वा भाएसु) का जो उल्लेख किया गया है वह प्रज्ञापना में उपलब्ध नहीं है । ७. १० ख० के प्रथम खण्ड जीवस्थान के अन्तर्गत सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों में जो अन्तिम अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार है उसमें गुणस्थानों की प्रमुखता से क्रमशः गति आदि चौदह मार्गणाओं में विस्तारपूर्वक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। गुणस्थानों की प्रमुखता के कारण यद्यपि उससे प्रज्ञापना में प्ररूपित अल्पबहुत्व की विशेष समानता नहीं है फिर भी उसके दूसरे खण्ड क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों में जो अन्तिम अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार है उसमें गुणस्थानों की अपेक्षा न करके यथाक्रम से केवल गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं में भी उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। उससे प्रज्ञापना में प्ररूपित अल्पबहुत्व की अधिक समानता है। इसके लिए यहाँ एक-दो उदाहरण दे-देना ठीक होगा। (१) "अप्पाबहुगाणुगमेण गदियाणुवादेण पंच गदीओ समासेण । सव्वत्थोवा मणुसा। णेरइया असंखेज्जगुणा । देवा असंखेज्जगुणा । सिद्धा अणंतगुणा । तिरिक्खा अणंतगुणा।" -ष०ख०, सूत्र २, ११,१-६ (पु० ७) "एएसि णं भंते ! नेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं......? गोयमा ! सव्वत्थोवा मणुस्सा १, नेरइया असंखेज्जगुणा २, देवा असंखेज्जगुणा ३, सिद्धा अणंतगुणा ४, तिरिक्खजोणिया अणंतगुणा ५।" __---प्रज्ञापना सूत्र २२५ (२) "अट्ट गदीओ समासेण । सव्वत्थोवा मणुस्सिणीओ । मणुस्सा असंखेज्जगुणा । णेरइया असंखेज्जगुणा । पंचिदियतिरिक्खजोणिणीओ असंखेज्ज गुणाओ । देवा संखेज्जगुणा । देवीओ १. १० ख० में अढाई द्वीप-समुद्रों व पन्द्रह कर्मभूमियों का उल्लेख सूत्र १,६-८,११ (पु०६) में तथा कम्मभूमि और अकम्मभूमि शब्दों का उपयोग सूत्र ४,२, ६,८ (पु० ११, पृ० ८८) में हुआ है। २. यहाँ ष०ख० सूत्र ३,६,८-१४ व उनकी धवला टीका द्रष्टव्य है (पु० ११, पृ. ८८-११६)। ३. धवलाकार ने देवों के इस गंखेज्जगुणत्व की संगति इस प्रकार बैठायी है-"एत्थ गुणगारो तप्पाओग्गसंखेज्जरूवाणि। कुदो ? देवअवहारकालेण तेत्तीसरूवगुणिदेण पंचिदियतिरिक्ख (शेष पृष्ठ २३७ पर देखिए) २३६ / बट्लण्डागम-परिशीलन Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखेज्जगुणाओ । सिद्धा अणंतगुणा । तिरिक्खा अणंतगुणा।" -ष०ख०, सूत्र २,११,७-१५ (पु० ७) "एतेसिं णं भंते ! नेरइयाणं . . . 'अट्ठ गति समासेणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवाओ मणुस्सीओ १, मणुस्सा असंखेज्जगुणा २, नेरइया असंखेज्जगुणा ३, तिरिक्खजोणिणीओ असंखेज्जगुणाओ ४, देवा असंखेज्जगुणा ५, देवीओ संखेज्जगुणाओ ६, सिद्धा अणंतगुणा ७, तिरिक्ख जोणिया अणंतगुणा ८ ।" -प्रज्ञापना सूत्र २२६ (३) "इंदियाणुवादेण सव्वत्थोवा पंचिदिया । चउरिदिया विसेसाहिया । तीइंदिया विसेसाहिया । बीइंदिया विसेसाहिया । अणिदिया अणंतगुणा । एइंदिया अणंतगुणा।" -ष०ख०, सूत्र २,११,१६-२१ (पु० ७) "एतेसि णं भंते ! सइंदियाणं एइंदियाणं .....? गोयमा ! सव्वत्थोवा पंचिंदिया १, चरिदिया विसेसाहिया २, तेइंदिया विसेसाहिया ३, बेइंदिया विसेसाहिया ४, अणिदिया अणंतगुणा ५, एइंदिया अणंतगुणा ६ ।" -प्रज्ञापना सूत्र २२७ इस प्रकार दोनों ग्रन्थगत उपर्युक्त तीनों सन्दर्भ क्रमबद्ध व शब्दशः समान हैं। इतना विशेष है कि ष० ख० में जहाँ देवों को तिर्यंचयोनिमतियों से संख्यातगुणा कहा गया है वहाँ प्रज्ञापना में उन्हें उन तिथंच योनिमतियों से असंख्यातगुणा कहा गया है । । दूसरी विशेषता यह है कि इन्द्रियाश्रित इस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा में ष० ख० में सामान्य तिर्यंचों को नहीं ग्रहण किया है, पर प्रज्ञापना में आगे सामान्य तियंचों को भी ग्रहण करके उन्हें एकेन्द्रियों से विशेष अधिक कहा गया है। यहाँ यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि ष० ख० में जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत जो दूसरा द्रव्यप्रमाणानुगम अनुयोगद्वार है उसमें गुणस्थान सापेक्ष गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं में जीवों की संख्या की प्ररूपणा की गई है तथा आगे उसके दूसरे क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत पाँचवें द्रव्य प्रमाणानुगम अनुयोगद्वार में भी गुणस्थान निरपेक्ष उन गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं में जीवों की संख्या की प्ररूपणा है । संख्या की यह प्ररूपणा ही उक्त अल्पबहुत्व की प्ररूपणा का आधार रही है। पर जहाँ तक हम खोज सके हैं, प्रज्ञापना में कहीं भी उन जीवों की संख्या की प्ररूपणा नहीं की गई जिसे उक्त अल्पबहुत्व का आधार समझा जाय। ८. ष० ख० में उपर्युक्त अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार के अन्त में 'महादण्डक' प्रकरण है । उसकी सूचना ग्रन्थकार द्वारा इस प्रकार की गई है "एत्तो सव्वजीवेसु महादंडओ कादश्वो भबदि।" -सूत्र २, ११-२,१ (पु०७) इसी प्रकार का 'महादण्डक' प्रज्ञापना में तीसरे 'बहवक्तव्य' पद के अन्तर्गत २७ द्वारों में अन्तिम है। उसकी सूचना वहाँ भी ग्रन्थकार द्वारा इन शब्दों में की गई है"अह भंते ! सव्वजीवप्पबहु महादंडयं वत्तइस्सामि।" -सूत्र ३३४ जोणिणीणमवहारकाले भागे हिदे संखेज्जरूवोवलंभादो।" -धवला पु० ७, पृ० ५२३ इसके अतिरिक्त यहीं पर 'महादण्डक' सूत्र ३६-४० में स्पष्टतया पंचेन्द्रियतिर्यंच योनिमतियों से वानव्यन्तर देवों को संख्यातगुणा कहा गया है। प्रज्ञापना में निर्दिष्ट उनका असंख्यातगुणत्व कैसे घटित होता है यह अन्वेषणीय है। षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २३७ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ 'भंते' यह संबोधन किसके लिए किया गया है तथा 'वत्तइस्सामि' क्रिया का कर्ता कौन है, यह विचारणीय है । पूर्व प्रक्रिया को देखते हुए उपर्युक्त वाक्य का प्रयोग कुछ असंगत- . सा दिखता है। यहां यह स्मरणीय है कि इसके पूर्व जिस प्रकार ष० ख० में उस अल्पबहुत्व को पृथक् पृथक् गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में दिखलाया गया है उसी प्रकार प्रज्ञापना में भी उसे उसके पूर्व पूर्वनिर्दिष्ट दिशा व गति आदि २७ द्वारों में पृथक्-पृथक् दिखलाया गया है।' तत्पश्चात् प० ख० और प्रज्ञापना दोनों में ही इस महादण्डक द्वारा सब जीवों में सम्मिलित रूप से उस अल्पबहुत्व को प्रकट किया गया है । ष० ख० के टीकाकार वीरसेनाचार्य ने इस महादण्डक को क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत ११ अनुयोगद्वारों की चूलिका कहा है। तदनुसार प्रजापना में प्ररूपित उस महादण्डक को भी यदि पूर्वनिर्दिष्ट उन दिशा आदि २६ अनुयोग की चूलिका कहा जाय तो वह असंगत न होगा। अब यहाँ संक्षेप में दोनों ग्रन्थगत इस प्रसंग की समानता को प्रकट किया जाता है"सव्वत्थोवा मणुसपज्जत्ता गब्भोवक्कंतिया । मणुसणीओ संखेज्जगुणाओ।" -ष०ख०, सूत्र २,११-२,२-३ "सव्वत्थोवा गब्भवक्कंतिया मणुस्सा। मणुस्सीओ संखेज्जगुणाओ।" -प्रज्ञापना १, पृ० १०६ १० ख० में इसके आगे मनुष्यणियों से सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवों को संख्यातगुणे, उनसे बादर तेजस्कायिक पर्याप्तकों को असंख्यातगुणे और उनसे अनुत्तर-विजयादि विमान वासी देवों को असंख्यातगुणे कहा गया है। प्रज्ञापना में आगे सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवों का उल्लेख न करके मनुष्यणियों से बादर तेजस्कायिक पर्याप्तकों को असंख्यातगुणे और उनसे अनुत्तरोपपादिक देवों को असंख्यातगुणे कहा गया है । इस प्रकार यहाँ प्रज्ञापना में एक (सर्वार्थसिद्धि) स्थान कम हो गया है। आगे जाकर ष०ख० में अनुदिशविमानवासी देवों को अनुत्तर विमानवासी देवों से संख्यातगुणे कहा गया है। प्रज्ञापना में इस स्थान का उल्लेख नहीं है, क्योंकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में नौ अनुदिश विमानों का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया है। आगे ष० ख० में जहाँ उपरिम-उपरिम आदि नौ ग्रैवेयकों में पृथक्-पृथक् नौ स्थानों में उस अल्पबहुत्व का निर्देश किया गया है वहाँ प्रज्ञापना में उपरिम, मध्यम व अधस्तन इन तीन अवेयकों का ही उल्लेख है। इस प्रकार ष०ख० में यहाँ तक १५ स्थान होते हैं, किन्तु प्रज्ञापना में आठ (१+१+६) स्थानों के कम हो जाने से ७ स्थान ही उस अल्पबहुत्व के रहते हैं। इसी प्रकार आगे १६ व १२ कल्पों के मतभेद के कारण भी उस अल्पबहुत्व के स्थानों में १. १० ख० सूत्र १-२०५ (पु० ७, पृ० ५२०-७४ तथा प्रज्ञापना सूत्र २१२-३३३ २. समत्तेसु एक्कारसअणिओगद्दारेसु किमट्ठमेसो महादंडओ वोत्तमाढत्तओ? वुच्चदे खुद्दाबंधस्स एक्कारस अणिओगद्दारणिबद्धस्स चूलियं काऊण महादंडओ वुच्चदे । (पु० ७, पृ० ५७५) २३८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होनाधिकता हुई है। ____ आगे इन दोनों ग्रन्थों में जितने स्थान उस अल्पबहुत्व के विषय में समान हैं उसका निर्देश किया जाता हैसमान स्थान ष० ख० प्रज्ञापना १६ सातवीं पृथिवी से सौ० कल्प की देवियों तक १६-३४ १२-२७ ४ वानव्यन्तर देवों से ज्योतिष देवियों तक ४०-४३ ३८-४१ २७ चतुरिन्द्रिय पर्याप्त से सूक्ष्मवायु पर्याप्त ४४-७० ४५-७१ ४७ स्थान इस तरह समस्त समान स्थान सेंतालीस हुए। इतने स्थानों में यथाक्रम से दोनों ही प्रन्थों में उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा समान रूप में की गई है। इस प्रकार १० ख० में जहाँ उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा ७८ स्थानों में की गई है वहाँ प्रज्ञापना में उसकी प्ररूपणा कुछ हीनाधिकता के साथ ६८ स्थानों में हुई है । विशेषता प्रज्ञापना में इस स्थानवृद्धि का कारण यह है कि वहाँ अच्युत (८), आरण (E), प्राणत (१०) और आनत (११) इन चार स्थानों में पृथक्-पृथक् उस अल्पबहुत्व का उल्लेख किया गया है, जबकि ष० ख० में उसका उल्लेख आरण-अच्युत (१७) और आनत-प्राणत (१८) इन दो स्थानों में किया गया है। ____ इसी प्रकार प्रज्ञापना में खगचर, स्थलचर और जलचर जीवों में पृथक्-पृथक् पुरुष, योनिमती और नपुंसक के भेद से उसका उल्लेख है। (३२-३७ व ४२-४४) ___ष० ख० में इन ६ स्थानों का उल्लेख पृथक् से नहीं किया गया है। वहाँ मार्गणाश्रित जीव भेदों की प्ररूपणा में कहीं खगचर, स्थलचर और जलचर इन तीन भेदों का उल्लेख नहीं किया गया है। पर प्रसंगवश जलचर स्थलचर और खगचर इन तीन प्रकार के जीवों का निर्देश वहाँ वेदनाकाल-विधान में काल की अपेक्षा उत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदना के प्रसंग में अवश्य किया गया है। प्रज्ञापना में आगे सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त (७२), पर्याप्त (७३), अभवसिद्धिक (७४), परिपतित सम्यक्त्वी (७५), तथा बादर पर्याप्त सामान्य (७८), बादर अपर्याप्त सामान्य (८०), बादर सामान्य (८१), सूक्ष्म अपर्याप्त सामान्य (८३), सूक्ष्म पर्याप्त सामान्य (८५), सूक्ष्म सामान्य (८६), भवसिद्धिक (८७), निगोदजीव सामान्य (८८), वनस्पति जीव सामान्य (८६), एकेन्द्रिय सामान्य (६०), तिथंच सामान्य (६१), मिथ्यादृष्टि (६२), अविरत (६३), सकषायी (६४), छद्मस्थ (६५), सयोगी (६६), संसारस्थ (६७) और सर्वजीव (१८) इन अल्पबहुत्व के स्थानों को वृद्धिगत किया गया है। इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में 'महादण्डक' के प्रसंग में समस्त जीवों के आश्रय से उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा कुछ मतभेदों को छोड़कर प्रायः समान रूप में की गई है। ष० ख० १. ष०ख०, सूत्र ४,२,६,८ (पु० ११, पृ० ८८) पट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २३६ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जहाँ उस अल्पबहुत्व के स्थान ७७ (प्रथम सूत्रांक को छोड़कर) हैं वहां प्रज्ञापना में वे ६८ है। इनमें जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है, उस अल्पबहुत्व के सैतालीस स्थान (१६+ ४+२७) सर्वथा समान हैं। प्रज्ञापना में जो कुछ स्थान अधिक हैं उनकी अधिकता के कारणों का निर्देश भी ऊपर किया जा चुका है। ६. १० ख० के प्रथम खण्ड जीवस्थान से सम्बद्ध नौ चूलिकाएँ हैं। उनमें प्रथम 'प्रकृति समुत्कीर्तन' चूलिका है। इसमें ज्ञानावरणीयादि आठ मूलप्रकृतियों और उनकी उत्तर प्रकृतियों का उल्लेख किया गया है।' (सूत्र ३-४६ पु० ६) प्रज्ञापना में २३ वें पद के अन्तर्गत जो दो उद्देश हैं उनमें से दूसरे उद्देश में मूल और उत्तर कर्मप्रकृतियों का उल्लेख किया गया है । (सूत्र १६८७-६६) उन मूल और उत्तर प्रकृतियों का उल्लेख दोनों ग्रन्थों में समान रूप से ही किया गया है। १०. ष०ख० में उपर्युक्त नौ चूलिकाओं में जो छठी चूलिका है उसमें इन मूल और उत्तर कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति की तथा आगे की सातवीं चूलिका में जघन्य स्थिति की प्ररूपणा की गई है। (पु०६) प्रज्ञापना में इस उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति की प्ररूपणा उपयुक्त २३वें पद के अन्तर्गत दूसरे उद्देश में साथ-साथ की गई है । (सूत्र १६६७-१७०४) दोनों ग्रन्थों में स्थिति की वह प्ररूपणा अपनी अपनी पद्धति से प्रायः समान है। विशेषता यह रही है कि ष० ख० में जहाँ समान स्थितिवाले कर्मों की स्थिति का उल्लेख एक साथ किया गया है वहाँ प्रज्ञापना में उसका उल्लेख पृथक्-पृथक् ज्ञानावरणदि के क्रम से किया गया है । यथा (१) "पंचण्हं णाणावरणीयाणं णवण्हं दंसणावरणीयाणं असादावेदणीयं पंचण्हं अंतराइयाणमुक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो तीसं सागरोवम कोडाकोडीओ। तिण्णि सहसाणि आबाधा । आबाधूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेओ"। -सूत्र १, ६-३, ४-६ __इसी प्रकार जघन्य स्थिति प्ररूपणा भी वहाँ उसी पद्धति से १,६-७, ३-५ सूत्रों में की गई है। __ "णाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तो उक्कोसेणं तीसं सागरोकोडाकोडीओ, तिण्णि य वाससहस्साई अबाहा, अबाहूणिया कम्मठिती कम्मणिसेगो।" । -प्रज्ञापना सूत्र १६९७ (२) पांच दर्शनावरणीय प्रकृतियों की जघन्य स्थिति के लिए देखिए ष० ख० सूत्र १, ६-७,६-८ और प्रज्ञापना सूत्र १६६८ [१] । ___इसी प्रकार से दोनों ग्रन्थों में कर्मों की उस उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति की प्ररूपणा आगे पीछे समान रूप में की गई है। ११. १० ख० में जीवस्थान की उपर्युक्त नौ चूलिकाओं में अन्तिम ‘गति-आगति' चूलिका १. इन मूल-उत्तर प्रकृतियों का उल्लेख आगे ष०ख० के पांचवें वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में थोड़ी-सी विशेषता के साथ पुनः किया गया है । (पु० १३) २. निषेकक्रम का विचार ष० ख० में आगे वेदनाकालविधान में किया गया है । सूत्र ४,२,६, १०१-१० (पु० ११) १४०/ षट्खण्डागम-परिशीलन . Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं । उसमें गति के क्रम से जीव किस गति से निकलकर किन गतियों में जाता है और वहाँ उत्पन्न होकर वह किन-किन गुणों को प्राप्त करता है, इसका विस्तार से विशद विचार किया गया है । प्रज्ञापना में उसका विचार बीसवें 'अन्तःक्रिया' पद के अन्तर्गत उद्वर्तन (४), तीर्थंकर (५.), चक्री ( ६ ), बलदेव (७), वासुदेव ( ८ ), माण्डलिक (E) और रत्न (१०) इन द्वारों में पृथक्-पृथक् किया गया है । इस स्थिति में यद्यपि दोनों ग्रन्थों में यथाक्रम से समानता तो नहीं दिखेगी, पर आगे-पीछे उस प्ररूपणा में अभिप्राय समान अवश्य दिखेगा। इसके लिए उदाहरण ० ख० में उक्त आगति का विचार अन्तर्गत भेदों के साथ यथाक्रम से नरकादि गतियों में किया गया है । यहाँ हम चतुर्थ पृथिवी से निकलते हुए मिथ्यादृष्टि नारकी का उदाहरण ले लेते हैं । उसके विषय में वहाँ कहा गया है कि वह उस पृथिवी से निकलकर तिर्यंच और मनुष्य इन दो गतियों में जाता है। यदि वह तियंच गति में जाता है तो गर्भोपक्रान्तिक, संज्ञी, पंचेन्द्रिय व पर्याप्त तिर्यंचों में उत्पन्न होकर आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, सम्यमिथ्यात्व, सम्यक्त्व और संयमासंयम इन छह को उत्पन्न कर सकता है । (सूत्र १, ६-६,७६८२ और १,६-६,२१३-१५) 'यदि वह मनुष्यगति में जाता है तो वहाँ गर्भोपान्तिक संख्यातवर्षायुष्क पर्याप्त मनुष्य होकर श्राfभfनबोधिक आदि पाँच ज्ञान, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम इन नौ को उत्पन्न करता हुआ मुक्ति को भी प्राप्त कर सकता है । परन्तु वह उस पृथिवी से निकलकर बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती और तीर्थंकर नहीं हो सकता है ।' ( सूत्र १,६-६, ८३ ८५ और १, ६-६,२१६) प्रज्ञापना में यह अभिप्राय सूत्र १४२० [१८], १४२१ [१५] और १४४४-४६ में व्यक्त किया गया है । इस प्रसंग में समान परम्परा से आनेवाले इन शब्दों का उपयोग भी देखने योग्य है"के इमंतयडा होदूण सिज्यंति, बुज्झंति, मुच्चंति, परिणव्वाणयंति, सव्वदुक्खाणमंतं परिविजाणंति ।" - षट्खण्डागम सूत्र १, ६ - ६, २१६ व २२० आदि “जे णं भंते ! केवलणाणं उप्पाडेज्जा से णं सिज्झेज्झा, बुज्झेज्झा, मुच्चेज्जा, सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा ? गोयमा ! सिज्झेज्झा जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा ।" - प्रज्ञापना सूत्र १४२१ [५] विशेषता इस प्रकार एक समान मौलिक परम्परा पर आधारित होने से दोनों ग्रन्थों में जहाँ सैद्धान्तिक विषयों के विवेचन व उनकी रचनापद्धति में समानता रही है वहाँ उनमें अपनी-अपनी अपरिहार्य कुछ विशेषता भी दृष्टिगोचर होती है । यथा १. षट्खण्डागम के रचयिताओं का प्रमुख ध्येय आत्महितैषी जीवों को आध्यात्मिकता की ओर आकृष्ट करके उन्हें मोक्षमार्ग में अग्रसर करना रहा है । इसीलिए उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ में आध्यात्मिक पद पर प्रतिष्ठित होने के लिए उसके सोपानस्वरूप चौदह गुणस्थानों का विचार गति - इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से क्रमबद्ध व अतिशय व्यवस्थित रूप में किया है । षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २४१ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह विचार वहां प्रमुखता से उसके प्रथम खण्ड जीवस्थान में सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों में यथाक्रम से किया गया है। परन्तु प्रज्ञापना में आध्यात्मिक उत्कर्ष को लक्ष्य में रखकर उसका कुछ भी विचार नहीं किया गया। यहां तक कि उसमें गुणस्थान का कहीं नामोल्लेख भी नहीं है। २. जीव अनादि काल से कर्मबद्ध रहकर उसके उदयवश निरन्तर जन्म-मरण के कष्ट को सहता रहा है। वह कर्म को कब किस प्रकार से बांधता है, वह कर्म उदय में प्राप्त होकर किस प्रकार का फल देता है, तथा उसका उपशम व क्षय करके जीव किस प्रकार से मुक्ति प्राप्त करता है, इत्यादि का विशद विवेचन षट्खण्डागम में किया गया है।' प्रज्ञापना में यद्यपि कर्मप्रकृतिपद (२३), कर्मबन्धपद (२४), कर्मबन्धवेदपद (२५), कर्मवेदबन्धपद (२६), कर्मवेदवेदकपद (२७) और वेदनापद (३५) इन पदों में कर्म का विचार किया गया है; पर वह इतना संक्षिप्त, क्रमविहीन और दुरूह-सा है कि उससे लक्ष्य की पूर्ति कुछ असम्भव-सी दिखती है। उदाहरण के रूप में 'कर्मप्रकृति' (२३) पद को लिया जा सकता है । उसके अन्तर्गत दो उद्देशों में से प्रथम उद्देश में ये पांच द्वार हैं-(१) प्रकृतियां कितनी हैं, (२) जीव कैसे उन्हें बाँधता है, (३) कितने स्थानों के द्वारा उन्हें बांधता है, (४) कितनी प्रकृतियों का वेदन करता है और (५) किसका कितने प्रकार का अनुभव करता है। इन द्वारनामों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि उनमें कर्म के बन्ध आदि का पर्याप्त विचार किया गया होगा । पर ऐसा नहीं रहा। वहाँ जो थोड़ा-सा विचार किया गया है, विशेषकर मूलप्रकृतियों को लेकर, वह प्रायः अधूरा है। उससे कर्म की विविध अवस्थाओं पर-जैसे बन्ध, वेदन व उपशम-क्षयादि पर-कोई विशेष प्रकाश नहीं पड़ता। उदाहरणार्थ, 'कैसे बांधता है' इस द्वार को ले लीजिए ! इस द्वार में इतना मात्र विचार किया गया है "कहण्णं भंते ! जीवे अट्ट पयडीओ बंधइ ? गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज्जं कम्मं णियच्छति, दरिसणावरणिज्जस्स कमस्स उदएणं दसणमोहणिज्जं कम्म णियच्छति, दंसणमोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं णियच्छति, मिच्छत्तेणं उदिण्णेणं गोयमा ! एवं खलु जीवे अट्ठ कम्मपयडीओ बंधइ ।" --सूत्र १६६७ 'कहण्णं भंते ! णेरइए अट्रकम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! एवं चेव । एवं जाव वेमाणिए ।" -सूत्र १६६८ १. कर्मबन्ध का विचार बन्धस्वामित्वविचय (पू० ८) में व उसके वेदना का विचार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदि के आश्रय से 'वेदना' अनुयोगद्वार में विविध अधिकारों द्वारा किया गया है। इसके अतिरिक्त बन्ध, बन्धक, बन्धनीय व बन्धनीयविधान का विचार 'बन्धन' अनुयोगद्वार (पु० १४) एवं महाबन्ध (सम्पूर्ण ७ जिल्दों) में विस्तार से किया गया है। २. कर्म की इन विविध अवस्थाओं के विवेचन के लिए शिवशर्म सूरि विरचित कर्मप्रकृति द्रष्टव्य है। ३. प्रज्ञापनागत इस कर्म के विवेचन को गुजराती प्रस्तावना (पृ० १३१ व १३२ तथा पछि के पृ० १२५-२६) में प्राचीन स्तर का बतलाया गया है, पर उस पर विशेष प्रकाश कुछ नहीं डाला गया है कि किस प्रकार वह प्राचीन स्तर का है । २४२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे वहाँ 'कितने स्थानों के द्वारा बांधता है इस द्वार में इतना मात्र अभिप्राय प्रकट किया गया है कि जीव राग और द्वेष इन दो स्थानों के द्वारा ज्ञानावरणीय आदि कर्मप्रकृतियों को बांधता है । उनमें माया और लोभ के भेद से दो प्रकार का राग तथा क्रोध और मान के भेद से द्वेष भी दो प्रकार का है । इन चार स्थानों के द्वारा सभी जीव कर्मप्रकृतियों को बांधते हैं। (सूत्र १६७०-७४) यही स्थिति प्रायः अन्य पदों में भी रही है। ३. षट्खण्डागम में जो विषय का विवेचन है वह जीव की प्रमुखता से किया गया है। अजीव के विषय में जो कुछ भी वहाँ वर्णत हुआ है वह जीव से सम्बद्ध होने के कारण ही किया गया है। उदाहरणार्थ, पांचवें वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार (पु० १४) में बन्धनीय के प्रसंग से तेईस प्रकार की परमाणुपुद्गल-वर्गणाओं की प्ररूपणा की गई है। वहीं इस अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दिया गया है कि वेदनात्मक पुद्गल हैं जो स्कन्धस्वरूप हैं और वे स्कन्ध वर्गणाओं से उत्पन्न होते हैं (सूत्र ५,६,६,८)। इस प्रकार से यहाँ पुदगलद्रव्यवर्गणाओं के निरूपण का प्रयोजन स्पष्ट कर दिया गया है। तत्पश्चात् वर्गणा के निरूपण में सोलह अनुयोगद्वारों का निर्देश करते हुए उनकी प्ररूपणा की गई है। उनमें भी औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरस्वरूप परिणत होने के योग्य परमाणुपुद्गलस्कन्धरूप आहारवर्गणा, तथा तेजसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणा इन पांच ग्राह्य वर्गणाओं की विशेष विवक्षा रही है। परन्तु प्रज्ञापना में 'जीवप्रज्ञापना' के साथ 'अजीवप्रज्ञापना' को भी स्वतन्त्र रूप में स्थान प्राप्त है (सूत्र ४-१३)। इसी प्रकार तीसरे 'बहुवक्तव्य' पद के अन्तर्गत २६ द्वारों में से २१वें द्वार में अस्तिकायों के अल्पबहुत्व (सूत्र २७०-७३) की, २३वें द्वार में सम्मिलित रूप से जीवपुद्गलों के अल्पबहुत्व (सूत्र २७५)की और २६वें पुद्गल-द्वार में क्षेत्रानुवाद और दिशानुवाद आदि के क्रम से पुद्गलों के भी अल्पबहुत्व (सूत्र ३२६-३३) की प्ररूपणा की गई है । पाँचवें 'विशेष' पद में अजीवपर्यायों (सूत्र ५००-५८) का तथा १०वें 'चरम' पद में लोक-अलोक का चरम-अचरम विभाग व अल्पबहुत्व का निरूपण है (सूत्र ७७४-८०६), इत्यादि । ४. षट्खण्डागम में प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा प्रायः निक्षेप व नयों की योजनापूर्वक मार्गणाक्रम के अनुसार की गई है। साथ ही वहाँ विवक्षित विषय की प्ररूपणा के पूर्व उन अनुयोगद्वारों का भी निर्देश कर दिया गया है, जिनके आश्रय से उसकी प्ररूपणा वहाँ की जानेवाली है । इस प्रकार से वहाँ विवक्षित विषय की प्ररूपणा अतिशय व्यवस्थित, सुसंबद्ध एवं निर्दिष्ट क्रम के अनुसार ही रही है। परन्तु प्रज्ञापना में प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा में इस प्रकार का कोई क्रम नहीं रहा है। वहाँ निक्षेप और नयों को कहीं कोई स्थान नहीं प्राप्त हुआ तथा मार्गणाक्रम का भी अभाव रहा है। इससे वहाँ विवक्षित विषय की प्ररूपणा योजनाबद्ध व्यवस्थित नहीं रह सकी है । वहाँ प्रायः प्रतिपाद्य विषय की चर्चा पाँच इन्द्रियों के आश्रय से की गई है। इसके लिए 'प्रज्ञापना' और 'स्थान' पदों को देखा जा सकता है । १. उनमें से अन्तिम १२ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा धवलाकार ने की है। देखिए पु० १४, पृ० १३४-२२३ षट्खण्डागम की अन्य प्रन्थों से तुलना / २४३ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. षट्खण्डागम में प्रतिपाद्य विषय का निरूपण प्रारम्भ में निर्दिष्ट अनुयोगद्वारों के क्रम से किया गया है। पर विवक्षित विषय से सम्बद्ध जिन प्रासंगिक विषयों की चर्चा उन अनुयोगद्वारों में नहीं की जा सकी है उनकी चर्चा वहाँ अन्त में चूलिकाओं को योजित कर उनके द्वारा की गई है। उदाहरणार्थ, षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान के अन्तर्गत सत्प्ररूपणादि पाठ अनुयोगद्वारों में क्षेत्र, काल और अन्तर इन अनुयोगद्वारों में जो विविध जीवों के क्षेत्र व काल आदि का निरूपण किया गया है वह जीवों की गति-आगति और कर्मबन्ध पर निर्भर है, अतः जिज्ञासु जन की जिज्ञासापूर्ति के लिए कर्मप्रकृति के भेद व उनकी उत्कृष्टजघन्य स्थिति आदि का भी विचार करना आवश्यक प्रतीत हुआ है । इससे उस जीवस्थान खण्ड के अन्त में नौ चूलिकाओं को योजित कर उनके द्वारा उक्त आठ अनुयोगद्वारों से सूचित अनेक आवश्यक विषयों की चर्चा है । इस सब की सूचना वहाँ प्रारम्भ में ही इस प्रकार कर दी गई है "कदि कामो पयडीयो बंधदि, केवडिकालटिदिएहि कम्मेहि सम्मत्तं लब्भदि वा, ण लब्भदि वा, केवचिरेण कालेण वा कदि भाए वा करेदि मिच्छत्तं, उवसामणा वा खवणा वा केसु व खेत्तेसु कस्स व मूले केवडियं वा दंसणमोहणीयं कम्मे खवेंतस्स चारित्तं वा संपुण्णं पडिवज्जंतस्स।" -सूत्र १,६-१,१ (पु०६) इन प्रश्नों का समाधान वहां यथाक्रम से जीवस्थान की उन नौ चूलिकाओं द्वारा किया गया है। प्रकृत सूत्र की स्थिति, शब्दरचना और प्रसंग को देखते हुए यही निश्चित प्रतीत होता है कि उन नौ चूलिकाओं की रचना षट्खण्डागमकार आचार्य भूतबलि के द्वारा ही की गई है । इससे यह कहना कि चूलिकाएँ ग्रन्थ में पीछे जोड़ी गई हैं, उचित नहीं होगा । सर्वार्थसिद्धि के कर्ता आचार्य पूज्यपाद ने उसकी रचना में जिस प्रकार षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान का भरपूर उपयोग किया है उसी प्रकार उस जीवस्थान खण्ड की इन नी चूलिकाओं में से ८वीं सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिका और हवीं गति-आगति चूलिका का भी उन्होंने पूरा उपयोग किया है। यह पीछे 'षट्खण्डागम व सर्वार्थसिद्धि' के प्रसंग में स्पष्ट किया जा चुका है। प्रज्ञापना में इस प्रकार की कोई चूलिका नहीं रही है । उसके अन्तर्गत ३६ पदों में १६वां 'सम्यक्त्व' नाम का एक स्वतन्त्र पद है । उसमें सम्यक्त्व का विशद विवेचन विस्तार से किया जा सकता था । परन्तु जिस प्रकार उसके १५वें 'इन्द्रिय' पद में प्रथम उद्देश के अन्तर्गत २४ द्वारों के आश्रय से तथा द्वितीय उद्देशगत १२ द्वारों के आश्रय से इन्द्रिय सम्बद्ध विषयों की विस्तार से प्ररूपणा की गई है, उस प्रकार प्रकृत 'सम्यक्त्व' पद में सम्यक्त्व के विषय में विशेष कुछ विचार नहीं किया गया। वहाँ केवल सामान्य से जीव, नारक, असुरकुमार, पृथिवीकायिकादि, द्वीन्द्रियादिक, पंचेन्द्रिय मनुष्यादिक और सिद्धों के विषय में पृथक्-पृथक् क्या वे सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, या सम्यग्मिथ्या दृष्टि हैं, इस प्रकार के प्रश्नों को उठाकर मात्र उसका ही समाधान किया गया है। इस प्रकार यह सम्यक्त्व का प्रकरण वहाँ आधे पृष्ठ (३१६) में ही समाप्त हो गया है।' (सूत्र १३६६-१४०५) १. विशेष जानकारी के लिए धवला (पु० ६) में पृ० २-४ द्रष्टव्य हैं। २. इस प्ररूपणा में वहाँ पूर्व के समान इन्द्रियादि का भी कम नहीं रहा। २४४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि यहाँ उस सम्यक्त्व का सर्वांगपूर्ण विचार प्रकृत 'सम्यक्त्व' पद में अथवा चूलिकाजैसे किसी अन्य प्रकरण को जोड़कर किया गया होता तो वह आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत उपयोगी प्रमाणित होता। ६. प्रस्तुत दोनों गन्थ सूत्रात्मक, विशेषकर गद्यसूत्रात्मक हैं । फिर भी उनमें कुछ गाथाएँ भी उपलब्ध होती हैं । यह अवश्य है कि षट्खण्डागम की अपेक्षा प्रज्ञापना में ये गाथाएँ अधिक हैं । षट्खण्डागम में ये गाथाएँ जहाँ केवल ३६ हैं वहाँ प्रज्ञापना में ये २३१ हैं।' __षट्खण्डागम के अन्तर्गत उन गाथाओं में अधिकांश परम्परा से कण्ठस्थ रूप में प्रवाहित होकर आचार्य भूतबलि को प्राप्त हुई हैं और उन्होंने उन्हें सूत्रों के रूप में ग्रन्थ का अंग बना लिया है, ऐसा प्रतीत होता है। परन्तु प्रज्ञापनागत गाथाओं में सभी परम्परागत प्रतीत नहीं होती। इसका कारण है कि उनमें अधिकांश गाथाएँ विवरणात्मक दिखती हैं। जिस प्रकार भाष्यकार जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण आदि ने नियुक्तिगत गाथाओं की व्याख्या भाष्यगाथाओं के द्वारा की है उसी प्रकार की यहां भी कुछ गाथाएँ उपलब्ध होती हैं । जैसे—गाथा १३ में प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक के जिन १२ भेदों का निर्देश किया गया है उनको स्पष्ट करनेवाली १३-४६ गाथाएँ । ऐसी प्रचुर गाथाएँ वहाँ उपलब्ध होती हैं, जो प्रज्ञापनाकार के द्वारा रची गई नहीं दिखतीं। किन्तु उन्हें कहीं अन्यत्र से लेकर ग्रन्थ में समाविष्ट किया गया है, ऐसा प्रतीत होता है । वे अन्यत्र कहाँ से ली गईं, यह अन्वेषणीय है । इसका संकेत कहीं-कहीं स्वयं ग्रन्थकार के द्वारा भी किया गया है । यथा (१) “एएसिं णं इमाओ गाहाओ अणुगंतव्वाओ। तं जहा--" ऐसी सूचना करते हुए आगे साधारणशरीर वनस्पतिकायिव जीवों के कंदादि भेदों की प्ररूपंक १०७-६ गाथाओं को उद्धृत किया गया है । (सूत्र ५५ [३]) । (२) "नवरं भवणनाणत्तं इंदणाणत्तं वण्णणाणत्तं परिहाणणाणत्तं च इमाहि गाहाहि अणुगंतव्वं' ऐसी सूचना करते हुए आगे १३८-४४ गाथाओं को उद्धृत किया गया है । (सूत्र १८७) (३) 'संगहणिगाहा' ऐसा निर्देश करते हुए आगे गाथा १५१-५३ को उद्धृत किया गया है । (सूत्र १९४) (४) गाथा १५४-५५ के पूर्व कुछ विशेष संकेत न करके ठीक उनके आगे 'सामाणियसंगहणीगाहा' ऐसा निर्देश करते हुए गाथा १५६ को उद्धृत किया गया है । (सूत्र २०६) (५) "एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । संगहणिगाहा" ऐसी सूचना करते हुए गाथा १६१ को उद्धृत किया गया है । (सूत्र ८२६ [२]) १. जिस प्रकार षट्खण्डागम के प्रारम्भ में पंचपरमेष्ठिनमस्कारात्मक मंगलगाथा उपलब्ध होती है उसी प्रकार प्रज्ञापना के प्रारम्भ में भी वही पंचपरमेष्ठिनमस्कारात्मक मंगल गाथा उपलब्ध होती है । धवलाकार आ० वीरसेन के अभिमतानुसार वह आ० पुष्पदन्त द्वारा विरचित सिद्ध होती है। देखिए पु० ६, पृ० १०३-५ में मंगल के निबद्ध-अनिबद्ध भेदविषयक प्ररूपणा। धवला पु० २ की प्रस्तावना में इस प्रसंग से सम्बन्धित १६-२१ पृष्ठ और पु० १ (द्वि० संस्करण) का 'सम्पादकीय' पृ० ५-६ भी द्रष्टव्य है। षट्खण्डागम को अन्य ग्रन्थों से तुलना / २४५ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) "इमाओ संगहणिगाओ" इस सूचना के साथ आगे गाथा २१५-१६ को गया है । (सूत्र १५१२) । ७. प्रस्तुत दोनों ग्रन्थों की रचना प्रायः प्रश्नोत्तर पद्धति के अनुसार हुई है पर ष०ख० में जहाँ यह प्रश्नोत्तर की पद्धति सर्वत्र समान रही है वहाँ प्रज्ञापना में उस की पद्धति में एकरूपता नहीं रही है । जैसे "ओघेण मिच्छा इट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया ? अनंता ।" - ष०ख० सूत्र १,२, २ ( पु० ३ ) इस प्रकार षट्खण्डागम में सामान्य से प्रश्न करके उसी सूत्र में उसका उत्तर भी दे दिया गया है । यह अवश्य है कि वहाँ 'अनन्त' के रूप में जो उत्तर दिया गया है उसे स्पष्ट करने के लिए आगे तीन सूत्र ( १, २, ३ - ५ ) और रचे गए हैं । यही पद्धति प्रायः षट्खण्डागम में सर्वत्र रही है । कहीं एक ही प्रश्न के समाधान में वहाँ आवश्यकतानुसार अनेक सूत्र भी रचे गये हैं जैसे--- "सामित्तेण उक्कस्सपदे णाणावरणीयवेयणा दव्वदो उक्कस्सिया कस्स ?" - सूत्र ४, २, ४, ६ ( पु० १० ) ज्ञानावरणीय के उत्कृष्ट द्रव्यवेदनाविषयक इस प्रश्न के उत्तर में वहाँ उस ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट द्रव्यवेदना के स्वामी गुणितकर्माशिक के विविध लक्षणों से गर्भित छब्बीस सूत्र (४,२, ४, ७ - ३२) रचे गये हैं । यही स्थिति ज्ञानावरणीय के जघन्य द्रव्यवेदनाविषयक प्रश्न के उत्तर की भी रही है। वहीं पृच्छासूत्र (४,२, ४, ४८ ) के समाधान में क्षपित कर्माशिक के लक्षणों से गर्भित २७ सूत्र (४, २, ४, ४६-७५) रचे गये हैं । विशेष इतना है कि कहीं-कहीं षट्खण्डागम में प्रश्नोत्तर के बिना भी विवक्षित विषय का विवेचन किया गया है । जैसेउसके प्रथम खण्ड के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वारों में से प्रथम सत्प्ररूपणा नामक अनुयोगद्वार में (०१) । उद्धृत किया यह सब होते हुए भी वहाँ प्रश्नोत्तर पद्धति के स्वरूप में भेद नहीं हुआ है । प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना के पूर्व व उस समय भी साधु-संघ में जो तत्त्व का व्याख्यान हुआ करता था उसमें यथावसर शिष्यों के द्वारा प्रश्न और आचार्य अथवा उपाध्याय के द्वारा उनका उत्तर दिया जाता था । इसी पद्धति पर प्रा० भूतबलि के द्वारा प्रस्तुत षट्खण्डागम की रचना की गई है । इसमें उन्होंने आचार्यं धरसेन से प्राप्त महाकमंप्रकृतिप्राभृत के ज्ञान को पूर्णतया सुरक्षित रखा है । परन्तु प्रज्ञापना में उस प्रश्नोत्तर की पद्धति में एकरूपता नहीं रही है । जैसे— (१) उसके प्रथम 'प्रज्ञापना' पद को ही ले लें । वहाँ सूत्र ३ - ०१ तक " से किं तं पण्णवणा, सेकितं अजीवपण्णवणा" इत्यादि प्रकार से सामान्यरूप में प्रश्न उठाया गया है और तदनुसार ही उत्तर दिया गया है, वहाँ विशेषरूप में गौतम के द्वारा प्रश्न और भगवान् महावीर के द्वारा उत्तर की अपेक्षा नहीं की गई है । (२) आगे वहीं पर सूत्र ८२ में सामान्य से प्रश्न इस प्रकार किया गया है - "से कि तं आसालिया ? कहि णं भंते ! आसालिया सम्मुच्छत्ति ?" इसका उत्तर 'गोयमा !' इस प्रकार से गौतम को सम्बोधित करते हुए दिया गया है व अन्त में उसे समाप्त करते हुए यह कह दिया गया है - " से तं आसालिया ।" इस प्रकार से यहाँ प्रथमतः भगवान् महावीर को सम्बोधित न करके सामान्य से ही २४६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसालिया का स्वरूपविषयक प्रश्न किया गया है और तत्पश्चात् वहीं श्रमण महावीर को 'भंते' इस रूप में सम्बोधित करते हुए आसालिया के विषय में यह पूछा गया है कि वह सम्मूर्च्छनजन्म से कहाँ उत्पन्न होती है। उत्तर 'गोयमा' इस प्रकार के सम्बोधन के साथ दिया गया है । इस प्रकार यहाँ प्रश्न के दो रूप हो गये हैं— एक किसी व्यक्ति विशेष को लक्ष्य न करके सामान्य रूप से और दूसरा महावीर को लक्ष्य करके विशेष रूप से । (३) पश्चात् सूत्र ८३ - १२ में पूर्ववत् सामान्य रूप में ही प्रश्नोत्तर की स्थिति रही है, पर आगे सूत्र ६३ में पुनः ८२ वें सूत्र के समान प्रश्न के दो रूप हो गये हैं "से किं तं सम्मुच्छिममणुस्सा ? कहिं णं भंते ! सम्मुच्छिममणुस्सा सम्मुच्छंति ? गोयमा ! • " से तं सम्मुच्छिम मणुस्सा ।" श्रागे प्रकृत प्रथम 'प्रज्ञापना' पद के अन्त (१४७) तक तथा दूसरे स्थान पद में भी पूर्ववत् सामान्यरूप में ही प्रश्नोत्तर की अवस्था रही है । (४) तीसरे 'बहुवक्तव्य' पद के अन्तर्गत २६ द्वारों से प्रथम 'दिशा' द्वार में (सूत्र २१३२४) में प्रश्नोत्तर की पद्धति नहीं रही है । वहाँ "दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा जीवा पच्चत्थिमेणं......" इत्यादि रूप से सामान्य जीवों, पृथिवीकायिकादिकों, नारक - देवादिकों और अन्त में सिद्धों के अल्पबहुत्व को दिशाविभाग के अनुसार दिखलाया गया है । यहाँ यह स्मरणीय है कि जिस प्रकार षट्खण्डागम में 'गवियाणुवादेण' ( सूत्र १,१,२४), 'इंदियाणुवादेण' (सूत्र १,१,३३ ) इत्यादि प्रकार से प्रकरण का निर्देश करते हुए तदनुसार वहाँ प्रतिपाद्य विषय का निरूपण किया गया है उसी प्रकार से प्रज्ञापना के इस द्वार में भी सर्वत्र (सूत्र २१३-२४) 'विसाणुवाएणं' या 'विसाणुवातेण' इस प्रकार से प्रकरण का स्मरण कराते हुए उपर्युक्त जीवों में उम अल्पवहुत्व का विचार किया गया है । (५) श्रागे इसी तीसरे पद में 'गति' द्वार से लेकर २३वें 'जीव' द्वार (सूत्र २२५-७५) तक गति आदि प्रकरणविशेष का प्रारम्भ में स्मरण न कराकर गौतम - महावीर कृत प्रश्नोत्तर के रूप में प्रकृत अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। (६) यहीं पर आगे २४वें 'क्षेत्र' द्वार में पुनः 'खेत्ताणुवाएणं' इस प्रकार से प्रकरण का स्मरण कराते हुए क्षेत्र के आश्रय से प्रकृत अल्पबहुत्व का विचार किया गया है व प्रश्नोत्तरपद्धति का अनुसरण नहीं किया गया है (सूत्र २७६-३२४) । (७) तत्पश्चात् २५ वें 'बन्ध' द्वार (सूत्र ३२५) में गौतम के प्रश्न और भगवान् महावीर के उत्तर के रूप में 'बन्ध' प्रकरण का स्मरण न कराकर बन्धक-अबन्धक के साथ पर्याप्तअपर्याप्त एवं सुप्त- जागृत आदि जीवों में अल्पबहुत्व का विचार किया गया है । (5) अनन्तर २६ वें 'पुद्गल' द्वार में 'खेत्ताणुवाएणं' व 'बिसाणुवाएणं' ऐसा निर्देश करते हुए पुद्गलों (सूत्र ३२६-२७ ) और द्रव्यों (सूत्र ३२८- २६ ) के अल्पबहुत्व को प्रकट किया गया है । (E) आगे सूत्र ३३०-३३ गौतमकृत प्रश्न और महावीर द्वारा दिये गए उत्तर के रूप में विविध पुद्गलों के अल्पबहुत्व को दिखलाया गया है। (१०) प्रकृत 'बहुवक्तव्य' द्वार के अन्तिम 'महादण्डक' द्वार को प्रारम्भ करते हुए यह सूचना की गई है- -"मह भंते ! सव्वजीवप्पबहुं महादंडयं वत्तइस्सामि ।" षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २४७ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ 'भंते' यह संबोधन किसके लिए व किसके द्वारा किया गया है तथा 'वत्तइस्सामि क्रिया का कर्ता कौन है, यह विचारणीय है । क्या गौतम गणधर भगवान् महावीर को सम्बोधित कर उस महादण्डक के कहने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं अथवा प्रज्ञापनाकार ही अपने बहुमान्य गुरु आदि को सम्बोधित कर उक्त महादण्डक के कहने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं ? वाक्य विन्यास कुछ असंगत-सा दिखता है। (११) शेष पदों में प्रायः प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा गौतम के प्रश्न और भगवान् महावीर के उत्तर के रूप में ही की गई है है । अपवाद के रूप में एक सूत्र और (१०८६वां) भी देखा जाता है। वहाँ सामान्य से प्रश्न इस प्रकार किया गया है "से किं तं पओग गती ? पओग गती पण्णरसविहा पण्णत्ता । तं जहा।" इस विवेचन से स्पष्ट है कि प्रशापना में प्रश्नोत्तर की पद्धति समान रूप में नहीं रही है । षट्खण्डागम और प्रज्ञापना में प्राचीन कौन ? महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित प्रज्ञापना के संस्करण की प्रस्तावना में प्रज्ञापना को षट्खण्डागम की अपेक्षा प्राचीन ठहराया गया है। इसके लिए वहाँ जो कारण दिए गए हैं उनके विषय में यद्यपि स्व० डॉ० हीरालाल जी जैन और डॉ० प्रा० ने० उपाध्ये के द्वारा षट्खण्डागम पु० १ की प्रस्तावना मे विचार किया जा चुका है, फिर भी प्रसंग पाकर यहां भी उसके विषय में कुछ विचार कर लिया जाए--- १. उक्त प्रशापना की प्रस्तावना में यह कहा गया है कि षट्खण्डागम में अनुयोगद्वार और नियुक्ति की पद्धति से प्रतिपाद्य विषय को अनुयोगद्वारों में विभाजित कर निक्षेप आदि के आश्रय से उसकी व्याख्या की गई है। वहीं अनुगम, संतपरूवणा, णिद्देस और विहासा जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। किन्तु प्रज्ञापना में ऐसा नहीं किया गया, वह मौलिक सूत्र के रूप में देखा जाता है । इससे सिद्ध है कि षट्खण्डागम प्रशापना से पीछे रचा गया या संकलित किया गया है। यहाँ हम यह देखना चाहेंगे कि भगवान महावीर के द्वारा अर्थरूप से उपदिष्ट और गौतम गणधर के द्वारा ग्रन्थ रूप से प्रथित जिस मौलिक श्रुत की परम्परा पर ये दोनों ग्रन्थ आधारित हैं उस मौलिक श्रुत का क्या स्वरूप रहा है । यहाँ हम आचारादि प्रत्येक अंगग्रन्थ को न लेकर उस चौथे समवायांग के स्वरूप पर विचार करेंगे जिसका उपांग उस प्रज्ञापनासूत्र को माना जाता है । नन्दिसूत्र में समवायांग का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है समवायांग में जीव, अजीव, जीव-अजीव; लोक, अलोक, लोकालोक; स्वसमय, परसमय और स्वसमय-परसमय; इनका संक्षेप किया जाता है। उसमें एक को आदि लेकर उत्तरोत्तर एक-एक अधिक के क्रम से वृद्धिंगत सौ भावों की प्ररूपणा की जाती है। द्वादशांगरूप गणिपिटक के पल्लवानों को संक्षिप्त किया जाता है। उसमें परीत वाचनाएँ, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढा, संख्यातश्लोक, संख्यात नियुक्तियां, संख्यात प्रतिपत्तियां और संख्यात संग्रहणियाँ १. गुजराती प्रस्तावना में 'प्रज्ञापना और षटखण्डागम' शीर्षक । पृ० १६-२२ २. १० ख० पु० १ (द्वि० आवृत्ति) के 'सम्पावकीय' में 'षट्खण्डागम और प्रज्ञापनासूत्र' शीर्षक । पृ० ६-१३ २४८ / बट्लण्डागम-परिशीलन Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं । आगे जाकर उसके पदों का प्रमाण एक लाख चवालीस हजार बतलाया गया है (नन्दिसूत्र १०)। धवला में उसके पदों का प्रमाण एक लाख चौंसठ हजार बतलाया गया है। (पु०१, पृ० १०१) धवला में आगे मध्यम पद के रूप में प्रसिद्ध उन पदों में प्रत्येक पद के अक्षरों का प्रमाण एक प्राचीन गाथा को उद्धृत कर उसके आश्रय से सोलह सौ चौंतीस करोड़ तेरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी (१६३४,८३,०७,८८८) निर्दिष्ट है। (पु० १३, पृ० २६६) उपर्युक्त समवायांग के लक्षण से यह स्पष्ट है कि भगवान् महावीर के द्वारा अर्थरूप से प्ररूपित और गौतमादि गणधरों के द्वारा सूत्र रूप में ग्रथित प्रकृत समवायांग में परीत वाचनाएँ और संख्यात अनुयोगद्वार आदि रहे हैं। उसके पदों का प्रमाण एक लाख चवालीस हजार (१४४०००) रहा है। ____ अब विचार करने की बात है कि जब मूल अंगग्रन्थों में अनुयोगद्वार रहे हैं तब षट्खण्डागम में अनुयोगद्वारों का निर्देश करके प्रतिपाद्य विषय का वर्गीकरण करते हुए यदि कृति व वेदना आदि शब्दों की व्याख्या निक्षेप व नयों के आधार से की गई है तो इससे उसकी प्राचीनता कैसे समाप्त हो जाती है ? प्रज्ञापना में यदि वैसे अनुयोगद्वार नहीं हैं तथा वहाँ यदि नय व निक्षेप आदि के आश्रय से विशिष्ट शब्दों की व्याख्या नहीं की गई है तो यह उसकी प्राचीनता का साधक नहीं हो सकता । किन्तु वहाँ अनुयोगद्वार आदि न होने के अन्य कारण हो सकते हैं, जिन्हें आगे स्पष्ट किया जाएगा। भगवान् महावीर के द्वारा उपदिष्ट और गोतमादि गणधरों द्वारा ग्रथित उसी मौलिक श्रुत की परम्परा के आश्रय से षट्खण्डागम और प्रज्ञापना दोनों ग्रन्थों की रचना हुई है। इसका उल्लेख दोनों ग्रन्थों में किया गया है। यथा बारहवें दृष्टिवाद अंग का चौथा अर्थाधिकार 'पूर्वगत' है। वह उत्पादादि के भेद से चौदह प्रकार का है। उनमें दूसरा अग्रायणीय पूर्व है। उसके अन्तर्गत चौदह 'वस्तु' अधिकारों में पांचवां चयनलब्धि अधिकार है। उसके अन्तर्गत बीस प्राभृतों में चौथा 'कर्मप्रकृतिप्राभूत' है। वह अविच्छिन्न परम्परा से आता हुआ धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ, जिसे उन्होंने गिरिनगर की चन्द्रगुफा में आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि को पूर्णतया समर्पित कर दिया। आचार्य भूतबलि ने श्रुत-नदी के प्रवाह के व्युच्छिन्न हो जाने के भय से उस महाकर्मप्रकृतिप्राभूत का उपसंहार कर छह खण्ड किये-षट्खण्ड स्वरूप प्रस्तुत षट्खण्डागम की रचना की। यह षट्खण्डागम की रचना का इतिहास है। उधर प्रज्ञापना में इस सम्बन्ध में इतना मात्र कहा गया है कि भगवान् जिनेन्द्र ने समस्त भावों की प्रज्ञापना दिखलायी है । भगवान् ने दृष्टिवाद से निकले हुए श्रुत-रत्नस्वरूप इस १. यह केवल समवायांग के ही स्वरूप के प्रसंग में नहीं कहा गया है, अन्य आचारादि अंगों में भी इसी प्रकार परीत वाचनाओं और संख्यात अनुयोगद्वारों आदि के रहने का उल्लेख है । देखिए नन्दिसूत्र ८७-६८ २. १० ख० सूत्र ४,१,४५ (पु० ६, पृ० १३४) तथा धवला पु० ६, पृ० १२६-३४ में ग्रन्थ कर्ता की प्ररूपणा । धवला पु० १. पृ० ६०-७६ व आगे पृ० १२३-३० भी द्रष्टव्य हैं। षट्खण्डागम को अन्य ग्रन्थों से तुलना / २४६ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र अध्ययन का जिस प्रकार से वर्णन किया है मैं भी उसी प्रकार से वर्णन करूंगा।' दृष्टिवाद के पांच भेदों में से किस भेद से उक्त प्रज्ञापना अध्ययन निकला है', इसकी कुछ विशेष सूचना वहाँ नहीं की गई है, जैसी कि उसकी स्पष्ट सूचना षट्खण्डागम में की गई है। षट्खण्डागम के समान नन्दिसूत्र में भी दृष्टिवाद के ये पाँच भेद निर्दिष्ट किये गये हैं(१) परिकर्म, (२) सूत्र, (३) पूर्वगत, (४) अनुयोग और (५) चूलिका । विशेषता इतनी रही है कि ष०ख० में जहाँ तीसरा भेद 'प्रथमानुयोग' निर्दिष्ट किया गया है वहाँ नन्दिसूत्र में चौथा भेद 'अनुयोग' कहा गया है। तीसरे चौथे भेद में क्रम-व्यत्यय है। इस प्रकार नन्दिसूत्र में निर्दिष्ट समवायांग के स्वरूप को देखते हुए वर्तमान में उपलब्ध 'समवायांग' ग्रन्थ को मौलिक ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता है। कारण यह कि उसमें न तो परीत वाचनाएँ हैं और न संख्यात अनुयोगद्वार आदि भी हैं। उसके पदों का प्रमाण भी उतना (१४४०००) सम्भव नहीं है। वह तो वर्तमान में उपलब्ध आचारांग ग्रन्थ से भी, जिसके पदों का प्रमाण नन्दिसूत्र (८७) में केवल १८००० हजार ही निर्दिष्ट किया गया है, ग्रन्थप्रमाण में हीन है। उसका संकलन देवद्धि गणि क्षमाश्रमण (विक्रम सं० ५१०-५२३ के लगभग) के तत्त्वावधान में सम्पन्न हुई वलभी वाचना के पश्चात् किया गया है। उसके उपांगभूत प्रज्ञापना की रचना उसके बाद ही सम्भव है। मौलिक श्रुत का वह प्रवाह भगवान महावीर और गौतम गणधर से प्रवाहित होकर विच्छिन्न धारा के रूप में आचार्य भद्रबाहु तक चला आया। आ० भद्रबाहु ही ऐसे एक श्रुतकेवली हैं जिन्हें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है। वे द्वादशांग श्रत के पारंगत रहे हैं। उनके समय में ही वह अखण्ड श्रत का प्रवाह दो धाराओं में संकुचित हो गया था। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, दिगम्बर मुनिजन उस श्रुत को उत्तरोत्तर लुप्त होता मानते रहे हैं । इस प्रकार क्रमशः उत्तरोत्तर श्रुत के हीन होते जाने पर जो उसके एक देशरूप महाकर्मप्रकृतिप्राभूत आचार्य भूतबलि को प्राप्त हुआ उसका उपसंहार कर उन्होंने अपने बुद्धिबल से गुणस्थान और मार्गणाओं के आश्रय से प्रतिपाद्य विषयको यथासम्भव अनुयोग द्वारों में विभक्त किया और नय-निक्षेप के अनुसार उसका योजनाबद्ध सुव्यवस्थित व्याख्यान किया है। इससे आ० पुष्पदन्त के साथ उनके द्वारा विरचित षट्खण्डागम में व्याख्येय विषय के विवेचन में कहीं कुछ अव्यवस्था नहीं हुई है। इसके विपरीत श्वेताम्बर मुनिजन वर्तमान में उपलब्ध अंगश्रुत में बँधकर उसी के संरक्षण व संवर्धन में लगे रहे, अपने बुद्धिबल से उन्होंने उसका क्रमबद्ध व्यवस्थित व्याख्यान नहीं किया। १. सुय-रयणनिहाणं जिणवरेण भवियजणणिव्वुइकरेण । उवदंसिया भगवया पण्णवणा सव्वभावाणं ।। अज्झयणमिणं चित्तं सुय-रयणं दिट्ठिवायणीसंदं। जह वणियं भगवया अहमवि तह वण्णइस्सामि ॥ -प्रज्ञापना गा०२-३ २. प्रस्तावना के लेखक भी इस विषय में कुछ निर्णय नहीं कर सके हैं। गुजराती प्रस्तावना पृ०६ ३. ष० ख० (धवला) पु० १, पृ० १०६ तथा पु० ६, पृ० २०५ और नन्दिसूत्र ६८; नन्दि सूत्र (११०) में अनुयोग के दो भेद निर्दिष्ट हैं- मूलप्रथमानुयोग और मणिकानुयोग। २५० / षट्लण्डागम-परिशीलन Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इससे प्रतिपाद्य विषय के विवेचन में क्रमबद्धता नहीं रही व अव्यवस्था भी हुई है । प्रज्ञापना को इसी कोटि का ग्रन्थ समझना चाहिए। यही कारण है कि प्रज्ञापना में प्रतिपाद्य विषय का ठीक से वर्गीकरण न करके उसका व्याख्यान अथवा संकलन किया गया है । उसमें विवक्षित विषय का विवेचन क्रमबद्ध व व्यवस्थित नहीं हो सका है । जिन ग्रन्थकारों ने उपलब्ध श्रुत की सीमा में न बँधकर अपनी प्रतिभा के बल पर नवीन शैली से प्रतिपाद्य विषय का व्याख्यान किया है उनके द्वारा रचे गये ग्रन्थों में कहीं कोई अव्यवस्था नहीं हुई है। इसके लिए 'जीवसमास' का उदाहरण है । उसमें समस्त गाथाओं की संख्या केवल २८६ है । वहाँ जो विवक्षित विषय का व्याख्यान किया गया है वह क्रमबद्ध व अतिशय व्यवस्थित रहा है । वहाँ प्रारम्भ में ही विवक्षित जीवसमासों को निक्षेप, नय, निरुक्ति तथा छह अथवा आठ अनुयोगद्वारों से अनुगन्तव्य कहा गया है और तत्पश्चात् चौदह गुणस्थानों और मार्गणाओं के नामनिर्देशपूर्वक सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों में क्रम से गतिइन्द्रियादि मार्गणाओं' के आश्रय से उन जीवसमासों की प्ररूपणा की गई है। उसकी बहु-अर्थगर्भित उस संक्षिप्त प्ररूपणा को देखकर आश्चर्य उत्पन्न होता है । जीवसमास के अन्तर्गत २७ २८ २६ का पूर्वार्ध और उसी २६ का उत्तरार्ध ये गाथाएँ प्रज्ञापना में क्रम से ८-६, १० का पूर्वार्ध और ११ का उत्तरार्ध इन गाथांकों में उपलब्ध होती हैं । दोनों ग्रन्थों में इन गाथाओं के द्वारा पृथिवीभेदों का उल्लेख किया गया है । यह यहाँ स्मरणीय है कि जीवसमास ग्रन्थ में जहाँ पृथिवी के ३६ भेदों का उल्लेख है वहाँ प्रज्ञापना में उसके ४० भेदों का उल्लेख किया गया है । इससे दोनों ग्रन्थगत इस प्रसंग की अन्य गाथाओं में कुछ भेद हो गया है। आगे प्रज्ञापना में जीवसमास की अपेक्षा अप्कायिकादिकों के भेदों को भी विकसित कर उनका उल्लेख वहाँ अधिक संख्या में किया गया है । " आगे जीवसमास की गाथा ३५ का भी प्रज्ञापनागत गाथा १२ से मिलान किया जा सकता है, दोनों में पर्याप्त शब्दसाम्य है । विशेषता यह है कि प्रज्ञापना में वनस्पतिकायिकभेदों को अधिक विकसित किया गया है । जीवसमासगत विषय-विवेचन की शैली, रचनापद्धति और संक्षेप में अधिक अर्थ की प्ररूपणाविषयक पटुता को देखते हुए यह निश्चित प्रतीत होता है कि वह किसी अनिर्ज्ञात बहुश्रुतशाली प्राचीन प्राचार्य के द्वारा रचा गया है व सम्भवतः प्रज्ञापना से प्राचीन है । तत्त्वार्थाधिगमसूत्र में प्रथम अध्यान के अन्तर्गत सूत्र ७ और ८ की आधारभूत कदाचित् जीवसमास की ये गाथाएँ हो सकती हैं— कि कस्स केण कत्थ व केवचिरं कइविहो उ भावोति । छह अणुयोगद्दाहि सव्वे भावाऽणुगंतव्वा ॥४॥ संतपयपरूवणया दव्वपमाणं च वित्त-फुसणा य । कालंतरं च भावो अप्पाबहुअं च बाराई ॥५॥ प्रज्ञापना की रचना तो सम्भवतः सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के पश्चात् हुई है । कारण यह है कि सर्वार्थसिद्धि में अंगबाह्य श्रुत के प्रसंग में दशवैकालिक और १. जीवसमास, गाथा २-६ २. जीवसमास गाथा ३१, ३२, ३३ और प्रज्ञापनासूत्र २८ (१), ३१ (१) व ३४ (१) षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २५१ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यन का तो उल्लेख किया गया है, पर प्रज्ञापना का कहीं उल्लेख नहीं किया गया।' इसी प्रकार त० भाष्य में भी उसी अंगबाह्य श्रुत के प्रसंग में सामायिकादि छह आवश्यकों, दशवकालिक, उत्तराध्याय, दशाश्रुत, कल्प, व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित का तो उल्लेख है, पर प्रज्ञापना का वहाँ भी उल्लेख नहीं किया गया ।' यह भी ध्यातव्य है कि इसी प्रसंग में आगे त० भाष्य में 'उपांग' का भी निर्देश किया गया है । यह पूर्व में कहा जा चुका है कि प्रज्ञापना को चौथा उपांग माना जाता है। ऐसी स्थिति में यदि 'प्रज्ञापना' ग्रन्थ तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकार के समक्ष रहा होता तो कोई कारण नहीं कि वे दशवकालिकादि के साथ प्रज्ञापना का भी उल्लेख न करते । २. षट्खण्डागम में यदि प्रत्येक मार्गणा के प्रारम्भ में 'गदियाणवादण', इंदियाणुवादेण, कायाणुवादेण इत्यादि शब्दों का निर्देश करते हुए प्रकरण के प्रारम्भ करने की सूचना की गई है तो प्रज्ञापना में भी 'दिसाणुवाएण' और 'खेत्ताणुवाएण" इन शब्दों के द्वारा दिशा और क्षेत्र के आश्रय से अल्पबहुत्व के कथन की सूचना की गई है । 'बहुवक्तव्य' पद के अन्तर्गत २७ द्वारों में दिशा (१) और क्षेत्र (२४) द्वारों को छोड़कर यदि अन्य गति आदि द्वारों में वहीं इस 'गइअणुवाएणं' आदि की प्रक्रिया का आश्रय नहीं लिया गया है तो यह षट्खण्डागम उस प्रज्ञापना की प्राचीनता का साधक तो नहीं हो सकता, बल्कि इससे तो प्रज्ञापना में विषय चन की पद्धति में विरूपता ही सिद्ध होती है। समरूपता तो उसमें तभी सम्भव थी, जब उन सब द्वारों में से किसी भी द्वार में वैसे शब्दों का उपयोग न किया जाता या फिर और 'क्षेत्र' द्वारों के समान अन्य द्वारों में भी प्रसंग के अनुरूप वैसे शब्दों का उपयोग जाता। ___ यहाँ एक विशेषता और भी देखी गई है । वह यह कि सूत्र २१६ (१-८) में दिशाक्रम से सामान्य नारकों और फिर क्रम से सातों पृथिवियों के नारकों के अल्पबहुत्व को दिखलाकर प्रागे सूत्र २१७ (१-६) में 'दिसाणुवाएणं' शब्द का निर्देश न करके क्रम से दक्षिणदिशागत सातवी आदि पृथिवियों के नारकों से छठी आदि पृथिवियों के नारकों के अल्पबहुत्व को प्रकट किया गया है, किन्तु वहाँ पूर्वादि दिशागत सातवीं आदि पृथिवियों के नारकों से छठी आदि पृथिवियों के नारकों के अल्पबहुत्व को नहीं प्रकट किया गया है । इस प्रकार से यहाँ प्रकृत अल्पबहुत्व की प्ररूपणा अधूरी रह गई है। इसके अतिरिक्त यहाँ जीवभेदों में जिन जीवों का उल्लेख किया गया है उन सब में यदि १. "अङ्गबाह्यमनेकविधं दशवकालिकोत्तराध्ययनादि । XXआरातीयः पुनराचार्य: काल दोषात् संक्षिप्तायुर्मतिबलशिष्वानुग्रहाय दशवकालिकाद्युपनिबद्धम्, तत्प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिति क्षीरार्णवजलं घटगृहीतमिव ।" -स०सि० १-२० २. "अङ्गबाह्यमनेकविधम् । तद्यथा-सामायिकं चतुर्विशतिस्तवो वन्दनं प्रतिक्रमणं काय व्युत्सर्गः प्रत्याख्यानं दशवकालिकं उत्तराध्यायाः दशाः कल्प-व्यवहारौ निशीथमृषिभाषितान्येवमादि।" -त० भाष्य १-२० ३. "तस्य च महाविषयत्वात् तांस्तानर्थानधिकृत्य प्रकरणसमाप्त्यपेक्षमङ्गोपाङ्गनानात्वम् ।" -त. भाष्य १-२० ४. प्रज्ञापनासूत्र २१३-२४, २७६-३२४ व ३२६-२६ २५२ / पट्खण्डागम-परिशीलन . Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई होती तो उसे परिपूर्ण कहा जाता। किन्तु वहाँ वैसा नहीं हुआ। उदाहरणार्थ, मनुष्यों को ले लीजिए। सूत्र २१६ में मनुष्यों के अल्पबहुत्व दिखलाते हुए वहाँ इतना मात्र कहा गया है 'दिशा के अनुवाद से मनुष्य दक्षिण-उत्तर की ओर सबसे स्तोक हैं, उनसे पूर्व की ओर संख्यातगुणे हैं, उनसे पश्चिम की ओर विशेष अधिक हैं ।' यह स्मरणीय है कि वहाँ मनुष्यजीवप्रज्ञापना में मनुष्यों के अनेक भेदों का उल्लेख किया गया है (सूत्र ६२-१३८)। उन सब में विशेष रूप से उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा क्यों नहीं की गई ? ___इसी प्रकार से आगे सूत्र २२० आदि में सामान्य से ही भवनवासी व वानव्यन्तर देवादि के अल्पबहुत्व दिखलाया गया है, जब कि पीछे प्रज्ञापना (सूत्र १४० आदि) में उनके-अनेक भेदों का उल्लेख हुआ है। स्थान भी उनके पृथक्-पृथक् दिखलाये गये हैं (सूत्र १७७-८७) आदि । ___इस प्रकार इस 'बहुवक्तव्य' पद में केवल जीवों के अल्पबहुत्व को प्ररूपणा की गई है, वह भी कुछ अपूर्ण ही रही है। ३. षट्खण्डागम (पु. १४) में शरीरिशरीर प्ररूपणा के प्रसंग में "तत्थ इमं साहारणलक्खणं भणिदं" (सूत्र १२१) ऐसी सूचना करते हुए आगे तीन (१२२-२४) गाथाओं को उद्धृत किया गया है। ये तीनों गाथाएँ विपरीत क्रम (६६,१००,१०१) से प्रज्ञापना में भी उपलब्ध होती हैं। उपर्युक्त सूत्र में यह साधारण जीवों का लक्षण कहा गया है' ऐसी सूचना करते हुए षट्खण्डागमकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि ये परम्परागत गाथाएँ हैं। यदि प्रज्ञापना में वैसी कुछ सूचना न करके उन गाथाओं को ग्रन्थ में आत्मसात् किया गया है तो वे गाथाएँ प्रज्ञापनाकार के द्वारा रची गई हैं, यह तो सिद्ध नहीं होता। वे गाथाएँ निश्चित ही प्राचीन व परम्परागत हैं। ऐसी परम्परागत बहुत-सी गाथाएँ प्रज्ञापना के अन्तर्गत हैं जो उत्तराध्ययन एवं आचारांग व दशवकालिक आदि नियुक्तियों में उपलब्ध होती हैं। षट्खण्डागम गत उन गाथाओं में गाथा १२३ (प्रज्ञापना १००) का पाठ अवश्य कुछ दुरूह है, जबकि प्रज्ञापना में उसी का पाठ सुबोध है । इससे इतना तो स्पष्ट है कि वह परम्परागत गाथा षट्खण्डागमकार को उसी रूप में प्राप्त हुई है, भले ही उसका पाठ कुछ अव्यवस्थित या अशुद्ध रहा हो । इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि षट्खण्डागमकार के समक्ष प्रकृत प्रज्ञापना ग्रन्थ नहीं रहा, अन्यथा वे उसे वहाँ देखकर उसका पाठ तदनुसार ही प्रस्तुत कर सकते थे। __यह भी सम्भव है कि षट्खण्डागमकार को तो उक्त गाथा का पाठ कुछ भिन्न रूप में उपलब्ध हुआ हो और तत्पश्चात् धवलाकार के पास तक आते आते वह कुछ भ्रष्ट होकर उन्हें उस रूप में प्राप्त हुआ हो। इस प्रकार जिस रूप में उन्हें वह प्राप्त हुआ, उसी की संगति धवला में बैठाने का उन्होंने प्रयत्न किया हो। इससे यह भी निश्चित प्रतीत होता है कि धवलाकार के समक्ष भी वह प्रज्ञापना ग्रन्थ नहीं रहा, अन्यथा वे उससे उक्त गाथा के उस सुबोध पाठ को ले लेते और तब वैसी कष्टप्रद संगति को बैठाने का परिश्रम नहीं करते।' १. धवला पु० १४, पृ० २२८-२९ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २५३ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलाकार के समक्ष प्रज्ञापना के न रहने का दूसरा भी एक कारण है । वह यह कि धुतावतार के प्रसंग में अंगबाह्य या अनंगश्रुत के चौदह भेदों का उल्लेख करते हुए धवला में जहाँ दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और निशीथ जैसे ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है वहाँ प्रज्ञापना के समक्ष रहते हुए भी उसका उल्लेख न किया जाय; यह कैसे सम्भव है ? यदि धवलाकार प्रज्ञापना से परिचित रहे होते वे वहाँ दशवकालिक आदि के साथ उसका भी उल्लेख अवश्य करते ।' उन तीन गाथाओं में षट्खण्डागमगत गाथा १२४ और प्रज्ञापनागत गाथा ६६, दोनों एक ही हैं। उसमें जो 'समगं च अणुग्गहणं' और 'समयं आणुग्गहणं' यह पाठभेद है उसका कुछ विशेष महत्त्व नहीं है । ष० ख० में उसके पाठभेद में जो 'च' है वह समुच्चय का बोधक होने से सार्थक ही दिखता है । प्रज्ञापनागत पाठभेद में यदि 'च' नहीं रहा तो वहाँ छन्द की दृष्टि से 'अ' के स्थान में 'आ' का उपयोग करना पड़ा है। ४. १० ख० में 'महादण्डक' शब्द का उपयोग सात स्थलों में किया गया है, जबकि प्रज्ञापना में 'महादण्डक' शब्द का उपयोग एक ही स्थान में किया गया है । उसकी सूचना ष० ख० में प्रायः सर्वत्र 'कादश्वो भवदि' या 'कायव्वो भवदि' के रूप में की गई है । पर प्रज्ञापना (सूत्र ३३४) में उसका निर्देश 'वत्तइस्सामि' इस भविष्यत्कालीन क्रियापद के साथ किया गया है। ष० ख० में वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में बन्धक जीवों की प्ररूपणा करते हुए "गति के अनुवाद से नरकगति में नारक बन्धक हैं, तिथंच बन्धक हैं, देव बन्धक हैं, मनुष्य बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं, तथा सिद्ध अबन्धक हैं, इस प्रकार क्षद्रकबन्ध (द्वि० खण्ड) के ग्यारह अनुयोगद्वारों की यहाँ प्ररूपणा करना चाहिए" ऐसी सूचना करते हुए आगे यह भी कह दिया गया है कि "इस प्रकार से महादण्डक की भी प्ररूपणा करना चाहिए"। (पु० १४, सूत्र ६६-६७) ___यह संकेत उसी महादण्डक को ओर किया गया है, जिसका उल्लेख प्रज्ञापना की प्रस्तावना (पृ० १८) में किया गया है। ५. १० ख० में द्वि० खण्ड क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों में जो छठा क्षेत्रानुगम और सातवाँ स्पर्शनानुगम अनुयोगद्वार हैं उनमें क्रम से जीवों के वर्तमान निवास रूप क्षेत्र १. अंगबाहिरस्स चोद्दस अत्याहियारा । तं जहा—सामाइयं चउवीसत्थओ वंदणापडिकमणं वेण इयं किदियम्मं दसवेयालियं उत्तरज्झयणं कप्पववहारो कप्पाकप्पियं महाकप्पियं पुंडरीयं महापुंडरीयं णिसिहियं चेदि ।" -धवला पु० १, पृ० ६६ तथा पु० ६, पृ० १८७-८८ (त०भाष्य में निर्दिष्ट अंग बाह्य के अनेक भेदों में जिनका उल्लेख किया गया है उनमें प्रारम्भ के चार तथा दशवकालिक, उत्तराध्ययन और निशीथ ये सात दोनों में समान हैं। धवला में जहाँ 'कप्पववहारो' पाठ है वहाँ त० भाष्य में 'कल्प-व्यवहारौ' पाठ है । श्वे० सम्प्रदाय में कल्पसूत्र और व्यवहारसूत्र ये दो पृथक् ग्रन्थ उपलब्ध हैं)। २. पु० ६, पृ० १४० व १४२; पु० ७, पृ० ५७५; पु० ११, पृ० ५६; पु० १२, पृ० ४४ व ६५; पु० १४, पृ० ४७ व ५०१ ३. महादण्डक के विषय में पीछे तुलनात्मक दृष्टि से पर्याप्त विचार किया जा चुका है । २५४ / षटखण्डागम-परिशीलन Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और कालत्रय सम्बन्धी अवस्थानरूप स्पर्शन की प्ररूपणा की गई है । (पु० ७) प्रज्ञापना में ३६ पदों के अन्तर्गत जो दूसरा 'स्थान' पद है उसमें एकेन्द्रियों (पृथिवीकायिक आदि), द्वीन्द्रियों, त्रीन्द्रियों, चतुरिन्द्रियों, पंचेन्द्रियों (नारक व तिर्यंच आदि) और सिद्ध जीवों के स्थानों की प्ररूपणा की गई है । यह बहुत विस्तृत है । विस्तार का कारण यह है कि वहाँ स्थानों के प्रसंग में ऐसे अनेक स्थानों को गिनाया गया है जो पर्याप्त नहीं हैं-उनसे भी वे अधिक सम्भव हैं । जैसे-बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकों के स्थानों का निर्देश करते हुए रत्न-शर्करादि आठ पृथिवियों का नामोल्लेख, अधोलोक, पातालों, भवनों, भवनप्रस्तारों, नरकों और नारकश्रेणियों आदि का उल्लेख (सूत्र १४८) । पर इतने स्थानों से भी उनके वे अधिक सम्भव हैं, ऐसी अवस्था में उनकी सीमा का निर्धारण करना संगत नहीं प्रतीत होता । इसके अतिरिक्त यह सूत्रग्रन्थ है और सूत्र का लक्षण है-- अप्पग्गंथमहत्थं बत्तीसादोसविरहियं जं च ।। लक्खणजुत्तं सुत्तं अट्ठहि गुणेहि उववेयं ॥ -आव०नि०८८० इस सूत्रलक्षण के अनुसार सूत्र ग्रन्थ को ग्रन्थप्रमाण से हीन होकर विस्तीर्ण अर्थ से गर्भित होना चाहिए। वह बत्तीस दोषों से रहित होकर लक्षण से युक्त और आठ गुण से सम्पन्न होता है। इस सूत्र के लक्षण को देखते हुए यहाँ इतना विस्तार अपेक्षित नहीं था, फिर जो विस्तार किया भी गया है वह अपने आप में अपूर्ण भी रह गया है। __ आगे सामान्य नारकियों के और फिर विशेष रूप में क्रम से रत्नप्रभादि सातो पृथिवियों के नारकियों के स्थानों की पथक-पृथक चर्चा है जिसमें उनकी बीभत्सता के प्रकट करने में पुनरुक्ति अधिक हुई है । (सूत्र १६८-७४) इसी प्रकार का विस्तार वहाँ आगे भवनवासी और वानव्यन्तर देवों के स्थानों की भी प्ररूपणा में हुआ है। (सूत्र १७७-६४) अब तुलनात्मक दृष्टि से ष० ख० में की गई इस स्थानप्ररूपणा पर विचार कीजिये (१) वहाँ प्रश्नोत्तरपूर्वक यह कहा गया है कि बादर पृथिवीकायिकों, अप्कायिकों, तेजस्कायिकों, वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीरियों और उन सब अपर्याप्तों का स्थान स्वस्थान की अपेक्षा लोक का असंख्यातवाँ भाग तथा समुद्घात और उपपाद की अपेक्षा सर्वलोक है । (सूत्र २,६,३४-३७ पु० ७) बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर अप्कायिक पर्याप्त, बादर तेजस्कायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवों का क्षेत्र स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद की अपेक्षा लोक का असंख्यातवाँ भाग है ।' (सूत्र २,६,३८-३६) ___ इस प्रकार ष० ख० में उपर्युक्त जीवों के क्षेत्र की प्ररूपणा छह (३४-३६) सूत्रों में ही कर दी गई है। इसमें प्रज्ञापना में निर्दिष्ट वे सब स्थान तो गभित हैं ही, साथ ही प्रज्ञापना में अनिर्दिष्ट जो अन्यत्र उनके स्थान सम्भव हैं वे भी उसमें आ जाते हैं। इस प्रकार विभिन्न मार्गणाओं में जिन जीवों का क्षेत्र समान है उन सबके क्षेत्र की प्ररूपणा ष० ख० में एक साथ कर दी गई है। १. पागे सूत्र २,७,७२-८१ भी द्रष्टव्य हैं । षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २५५ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) इसके पूर्व गतिमार्गणा में सामान्य से देवों के क्षेत्र की प्ररूपणा करते हुए उनका क्षेत्र स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद की अपेक्षा लोक का असंख्यातवाँ भाग कहा गया है। (सूत्र २,६,१५-१६) आगे भवनवासियों से लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवों तक देवों के क्षेत्र प्रमाण को सामान्य से देवगति (सूत्र २,६,१५-१६) के समान कह दिया गया है। (सूत्र २,६,१७) इस प्रकार ष० ख० में मार्गणाक्रम से जो उस क्षेत्र की प्ररूपणा की गई है वह प्रज्ञापना की अपेक्षा कितनी क्रमबद्ध, सुगठित, संक्षिप्त और विषय विवेचन की दृष्टि से परिपूर्ण है। यह उपर्युक्त दो उदाहरणों से भलीभाँति समझा जा सकता है। ६. प्रज्ञापना में मंगल के पश्चात् जो दो गाथाएँ उपलब्ध होती हैं वे प्रक्षिप्त हैं । उनकी व्याख्या हरिभद्र सूरि और मलयगिरि सूरि ने की तो है, पर उन्हें प्रक्षिप्त मानकर ही वह व्याख्या उनके द्वारा की गई है । इन गाथाओं में भगवान् आर्यश्याम को नमस्कार किया गया है जिन्होंने श्रुत-सागर से चुनकर शिष्यगण के लिए उत्तम श्रुत-रत्न दिया है। उनमें से पूर्व की गाथा में उन मुनि आर्यश्याम को वाचक वंश से तेईसवीं पीढ़ी का धीर पुरुष निर्दिष्ट किया गया है। ___इन प्रक्षिप्त गाथाओं के आधार पर श्यामार्य को प्रज्ञापना का कर्ता माना जाता है। पर मूल ग्रन्थ में कर्ता के रूप में कहीं श्यामार्य का उल्लेख नहीं किया गया है। उन गाथाओं में भी उनके द्वारा उत्तम श्रुत-रत्न के दिये जाने मात्र की सूचना की गई है । पर वह श्रुत-रत्न प्रस्तुत प्रज्ञापना उपांग था, इसे तो वहाँ स्पष्ट नहीं किया गया है--सम्भव है वह दूसरा ही कोई उत्तम ग्रन्थ रहा हो। इस परिस्थिति में प्रक्षिप्त गाथाओं के आधार से भी श्यामार्य को प्रज्ञापना का कर्ता कैसे माना जाय, यह विचारणीय है। हरिभद्र सूरि के द्वारा यदि उन गाथाओं की व्याख्या की गई है तो उससे इतना मात्र सिद्ध होता है कि श्यामार्य हरिभद्र सूरि के समय (८वीं शती) में प्रसिद्ध हो चुके थे, पर वे प्रज्ञापना के कर्ता के रूप में प्रसिद्ध थे, यह सिद्ध नहीं होता। उन गाथाओं में श्यामार्य को वाचकवंश की तेईसवीं पीढ़ी का जो कहा गया है उसके विषय में यह भी ज्ञातव्य है कि वाचकवंश कब से प्रारम्भ हुआ और उसकी तेईसवी पीढ़ी कब पड़ी। इसके विपरीत नन्दिसूत्र की स्थ विरावली में श्यामार्य को हारितगोत्रीय कहा गया है ।' यह परस्पर विरोध क्यों ? ७. प्रज्ञापना की प्राचीनता को सिद्ध करते हुए कहा गया है कि पट्टावलियों में तीन कालकाचार्यों का उल्लेख है। उनमें धर्मसागरीय पट्टावलि के अनुसार एक कालक की मृत्यु वीरनिर्वाण सं० ३७६ में हुई । खरतरगच्छीय पट्टावलि के अनुसार वी रनिर्वाण सं० ३७६ में १. वायगवरवंसाओ तेवीस इएण धीरपुरिसेण । दुद्धरधरेण मुणिणा पुव्वसुयसमिद्धबुद्धीण ।। सुय-सागरा विणेऊण सुय-रयणमुत्तमं दिन्न । सीसगणस्स भगवओ तस्स नमो अज्जसामस्स ।। -पक्खित्तं गाहाजुयलं । २. हारियगोत्तं साईच वंदिमो हारियं च सामजं । —नन्दिसूत्र गाथा २६ पू० : २५६ / षट्खण्डागम-परिशीलन . Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनका जन्म हआ। उनका दूसरा नाम श्यामाचार्य था। दसरा गर्दभिल्ल का उच्छेदक कालक वीरनिर्वाण सं० ४५३ (विक्रम पूर्व १७) में हुआ और तीसरा वीरनि० सं० ६६३ (वि० सं० ५२३) में हुआ। इनमें प्रथम कालक ही श्यामाचार्य हैं, जिन्होंने प्रज्ञापना की रचना की है।' उनमें 'कालक' और 'श्याम' इन समानार्थक शब्दों के आश्रय से जो कालकाचार्य और श्यामाचार्य को अभिन्न दिखलाया गया है वह काल्पनिक ही है, इसके लिए ठोस प्रमाण कुछ भी नहीं दिया गया है। __ दूसरे, इन पट्टावलियों का लेखनकाल भी अनिश्चित है । इसके अतिरिक्त उनमें परस्पर विरोध भी है। इस प्रकार परम्परा के आधार से निगोदव्याख्याता कालकाचार्य को ही श्यामाचार्य मानकर उनके द्वारा विरचित प्रज्ञापना का रचनाकाल वीरनिर्वाण सं० ३३५-७६ (विक्रमपूर्व १३५-६४ व ईसवी पूर्व ७६-३८) मानना संगत नहीं माना जा सकता। उपसंहार षट्खण्डागम और प्रज्ञापना ये दोनों सैद्धान्तिक ग्रन्थ हैं, जो समान मौलिक श्रुत की परम्परा के आधार से रचे गये हैं । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय यह स्वीकार करते हैं कि भगवान् महावीर अर्थश्रुत के प्रणेता और गौतमादि गणधर ग्रन्थश्रुत के प्रणेता रहे हैं।' इस प्रकार समान मौलिक परम्परा पर आधारित होने से प्रस्तुत दोनों ग्रन्थों में रचनाशैली, विषयविवेचन की पद्धति और पारिभाषिक शब्दों आदि की समानता का रहना अनिवार्य है। इतना ही नहीं, परम्परागत उस मौलिक श्रुत के आधार से मौखिक रूप में आनेवाली कितनी ही ऐसी गाथाएँ हैं जो दोनों ही ग्रन्थों में यथाप्रसंग समान रूप में देखी जाती हैं। इतना विशेष है कि षट्खण्डागम की अपेक्षा प्रज्ञापना में वे अधिक हैं। उनमें कुछ भाष्यात्मक गाथाएँ भी हैं, जो सम्भवतः ग्रन्थ में पीछे जोड़ी गई हैं। इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में अनेक समानताओं के होने पर भी उनकी कुछ अपनी अलग विशेषताएँ भी हैं जैसे (१) प्रज्ञापना के प्रारम्भ में मंगल के पश्चात् यह स्पष्ट कहा गया है कि भगवान् जिनेन्द्र ने मुमुक्षुजनों को मोक्षप्राप्ति के निमित्त प्रज्ञापना का उपदेश किया था। परन्तु वर्तमान प्रज्ञापना ग्रन्थ में उस मोक्ष की प्राप्ति को लक्ष्य में नहीं रखा गया दिखता । कारण यह है कि मोक्षप्राप्ति के उपायभूत जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं उनका उत्कर्ष गुणस्थानक्रम के अनुसार होता है । परन्तु प्रज्ञापना में उन गुणस्थानों का कहीं कोई विचार नहीं किया गया। इतना ही नहीं, गुणस्थान का तो वहाँ नाम भी दृष्टिगोचर नहीं होता। ___ इसके विपरीत षट्खण्डागम में, विशेषकर उसके प्रथम खण्ड जीवस्थान में, मिथ्यात्वादि चौदह गुणस्थानों का यथायोग्य गति- इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से पर्याप्त विचार १. गुजराती प्रस्तावना पृ० २२-२३ २. परम्परा के अनुसार कालकाचार्य को निगोद का व्याख्याता माना जाता है । प्रकृत प्रज्ञापना (सूत्र ५४-५५, गाथा ४७-१०६) में निगोद (साधारणकाय) की विस्तृत प्ररूपणा की गई है । इसी आधार से समानार्थक नामों के कारण सम्भवतः प्रथम कालक और श्यामाचार्य को अभिन्न मान लिया गया है, जिसके लिए अन्य कोई प्रमाण नहीं है। ३. धवला पु० १, पृ० ६०-६१ व ६४-६५ तथा आव०नि० ६२ षटखण्डागम को अन्य ग्रन्थों से तुलना | २५७ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया है । (२) दोनों ग्रन्थों का उद्गम बारहवें दृष्टिवाद अंग से हुआ है, इतना तो दोनों ग्रन्थों से स्पष्ट है । परन्तु आगे जिस प्रकार उस दृष्टिवाद के अन्तर्गत दूसरे अग्रायणीयपूर्व तथा उसके पाँचवें 'वस्तु' अधिकार के अन्तर्गत चौथे कर्मप्रकृतिप्राभृत के साथ षट्खण्डागम में उस परम्परा hat प्रकट किया गया है और तदनुसार ही आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि का उसके कर्ता के रूप में उल्लेख हुआ है उस प्रकार प्रज्ञापना में वह आगे की परम्परा दृष्टिगोचर नहीं होती । वहाँ दृष्टिवाद के अन्तर्गत उसके भेद-प्रभेदों में किस भेद व किस क्रम से आकर वह प्रज्ञापना कर्ता श्यामा तक आयी, इसे स्पष्ट नहीं किया गया। वहाँ तो कर्ता के रूप में श्यामार्य के नाम का उल्लेख भी नहीं है । श्यामार्य के कर्ता होने की कल्पना तो उन दो प्रक्षिप्त गाथाओं के आधार से की गई है जिनमें श्यामार्य के द्वारा श्रुत-सागर से निकालकर शिष्यगण के लिए श्रुत-रत्न के दिये जाने का उल्लेख है । इस प्रकार से श्यामार्य को प्रज्ञापना का कर्ता मानना काल्पनिक है । कारण यह है कि प्रथम तो वे दोनों गाथाएँ प्रक्षिप्त हैं, मूल ग्रन्थ की नहीं हैं । दूसरे, उन गाथाओं में भी उनके द्वारा किसी श्रुत-रत्न के देने का ही तो उल्लेख किया गया है । पर वह श्रुत-रत्न प्रज्ञापना है, यह कैसे समझा जाए ? वह दूसरा भी कोई ग्रन्थ हो सकता है । इसके अतिरिक्त वे गाथाएँ टीकाकार हरिभद्रसूरि के पूर्व कब और किसके द्वारा ग्रन्थ में योजित की गई हैं, यह भी अन्वेषणीय है । (३) प्रज्ञापना को षट्खण्डागम से पूर्ववर्ती ठहराते हुए जिन धर्मसागरीय और खरतरगच्छीय पट्टावलियों के आधार से तीन कालकाचार्यों में प्रथम कालकाचार्य को पर्यायवाची 'कालक' शब्द के आश्रय से श्यामाचार्य मान लिया गया है तथा उसका रचनाकाल वीरनिर्वाण ३३५-३७६ ( ईसवी पूर्व ७६-३८) बतलाया गया है उन पट्टावलियों में प्रामाणिकता नहीं है । कारण यह है कि उनका लेखनकाल निश्चित नहीं है तथा उनमें परस्पर विरोध भी है । जब तक कोई ठोस प्रमाण न हो, 'कालक' का पर्यायवाची होने से कालकाचार्य को श्यामाचार्य मान लेना प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता है । (४) उत्तराध्ययन के आधार से भी प्रज्ञापना का रचनाकाल निश्चित नहीं किया जा सकता है, क्योंकि विद्वान् उत्तराध्ययन को किसी एक आचार्य की कृति नहीं मानते हैं, इसे उस प्रस्तावना के लेखक भी स्वीकार करते हैं । " (५) प्रज्ञापना की अपेक्षा षट्खण्डागम में विषय का विवेचन क्रमबद्ध व अतिशय व्यवस्थित है, प्रज्ञापना में वह अव्यवस्थित, असम्बद्ध व क्रमविहीन है । इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम में विषय का वर्गीकरण कर उसे अनुयोगद्वारों में विभक्त किया गया है और निक्षेप आदि के आश्रय से प्रतिपाद्य विषय का विशद विवेचन किया गया है । इन कारणों से षट्खण्डागम को जो प्रज्ञापना से पश्चात्कालवर्ती ठहराया गया है उचित नहीं है । ऐसा क्यों हुआ, इसे हम पीछे स्पष्ट कर चुके हैं । उस प्रस्तावना के लेखकों ने स्वयं भी अपना यह अभिप्राय प्रकट किया है कि केवल १. प्रज्ञापना की गुजराती प्रस्तावना पृ० २२-२५ व नन्दिसूत्र की प्रस्तावना पृ० २१ २. वही, प्रस्तावना पृ० २५ १६ / पटण्डागम-परि Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय के निरूपण की सरल या जटिल प्रक्रिया अथवा विषय की सूक्ष्म या गम्भीर चर्चा के आधार से किसी ग्रन्थ के पौर्वापर्य का निर्णय नहीं किया जा सकता है; क्योंकि इस प्रकार की रचना का आधार लेखक के प्रयोजन पर निर्भर होता है, न कि उसमें की गई चर्चा की सूक्ष्मता या स्थूलता पर । इसलिए इन दोनों ग्रन्थों में चर्चित विषय की सूक्ष्मता या स्थूलता के आधार से उनके पौर्वापर्य के निर्णय में गम्भीर भूल होना सम्भव है।' । (६) प्रज्ञापना को चौथा उपांग माना जाता है। उपांग यह नाम प्राचीन नहीं है, उसका प्रचार बहुत पीछे हुआ है। नन्दिसूत्र (विक्रम ५२३ के लगभग) में, जहाँ श्रुत का विस्तार से वर्णन किया गया है, उपांग नाम दृष्टिगोचर नहीं होता। वहाँ श्रुत के अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। इनमें अंगबाह्य को आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। इनमें भी आवश्यक को सामायिक आदि के भेद से छह प्रकार का और आवश्यकव्यतिरिक्त को कालिक और उत्कालिक के भेद स दो प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। आगे उत्कालिक को अनेक प्रकार का बतलाते हुए प्रकृत में उसके जिन २६ भेदों का उल्लेख है उनमें ८वां प्रज्ञापना है। (नन्दिसूत्र ७६-८३) इस प्रकार नन्दिसूत्र में प्रज्ञापना को उत्कालिक श्रुत में सम्मिलित किया गया है, न कि उपांगश्रुत में। नन्दिसूत्र में उसका उल्लेख होने से इतना निश्चित है कि उसकी रचना नन्दिसूत्र के पूर्व हो चुकी थी। किन्तु उससे कितने समय पूर्व वह रचा गया है, यह निर्णय है। उसका रचनाकाल जो प्रस्तावना लेखकों द्वारा वीरनिर्वाण सं० ३३५-७६ निर्दिष्ट किया गया है वह प्रामाणिक नहीं है, यह पीछे स्पष्ट किया जा चुका है। साथ ही षट्खण्डागम का रचना-काल जो वीरनिर्वाण ६८३ वर्ष के पश्चात् विक्रम सं० की दूसरी शती के लगभग निर्धारित किया गया है उसे प्रज्ञापना की उस प्रस्तावना के लेखक भी स्वीकार करते हैं। प्रस्तावना में यह भी कहा गया है कि आचार्य मलयगिरि के मतानुसार समवायांग में जो विषय वर्णित हैं उन्हीं का वर्णन प्रज्ञापना में है। इसलिए वह प्रज्ञापना का उपांग है। पर इस मत से स्वयं प्रस्तावना के लेखक भी सहमत नहीं दिखते। इसलिए आगे उसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है परन्तु ग्रन्थकर्ता ने स्वयं वैसी कुछ सूचना नहीं की है, उन्होंने तो स्पष्टतया उसका सम्बन्ध दृष्टिवाद अंग के साथ बतलाया है । और वह उचित भी है, क्योंकि दृष्टिवाद में प्रमुखता से दृष्टि (दर्शन) का वर्णन है। इसलिए जैन दर्शन द्वारा मान्य पदार्थों का निरूपण करनेवाले ग्रन्थ प्रज्ञापना का सम्बन्ध यदि दृष्टिवाद से हो तो वह अधिक उचित है। १. प्रज्ञापना की गुजराती प्रस्तावना, पृ० २१ २. उसका सम्बन्ध समयांग से घटित नहीं होता, इसे भी पीछे स्पष्ट किया जा चुका है । ३. प्रस्तावना में इसके पूर्व उसका सम्बन्ध दृष्टिवाद के अन्तर्गत १४ पूर्वो में ज्ञानप्रवाद, आत्मप्रवाद और कर्मप्रवाद के साथ जोड़ा जा सकता है, यह भी अभिप्राय प्रकट किया गया है । अन्त में, जिस प्रकार धवला में षट्खण्डागम का सम्बन्ध अग्रायणीय पूर्व से जोड़ा गया है, उसी प्रकार दोनों ग्रन्थों में चर्चित विषय की समानता से प्रज्ञापना का सम्बन्ध अग्रायणीय-पूर्व के साथ रहना सम्भव है, यह अभिप्राय प्रकट किया गया है । (गु० प्रस्तावना पृ० ९-१०) षट्खण्डागम को अन्य ग्रन्थों से तुलना । २५६ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) षट्खण्डागम में मूल ग्रन्थकर्ता के समक्ष कुछ मतभेद नहीं रहा। पर प्रज्ञापना में भगवान् महावीर के समक्ष भी मतभेद रहा है, ऐसा अभिप्राय प्रकट किया गया है। यथा प्रज्ञापना में १८वा 'कायस्थिति' पद है। उसमें निर्दिष्ट २२ अर्थाधिकार में छठा अर्थाधिकार 'वेद' है । वहाँ वेद के प्रसंग में गौतम प्रश्न करते हैं कि "भगवन् ! स्त्रीनेद का कितना काल है ?" उत्तर में महावीर कहते हैं, "हे गौतम ! एक आदेश से उसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक एक सौ दस (११०) पल्योपम है। ____एक आदेश से वह जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक अठारह पल्योपम है। एक आदेश से वह जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक चौवह पल्योपम है। ___एक आदेश से वह जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक सौ पल्योपम है। एक आदेश से वह जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक पल्योपमपृथक्त्व है।" (सूत्र १३२७) यहाँ यह विशेष विचारणीय है कि क्या भगवान महावीर के समक्ष भी स्त्रीवेद के कालविषयक उपर्युक्त पाँच मतभेद सम्भव हैं, जब कि वे सर्वज्ञ व वीतराग थे। यदि उस विषय में उस समय कछ मतभेद भी रहा हो तो सर्वज्ञ महावीर उनमें से किसी एक मत को यथार्थ बतलाकर शेष चार को असमीचीन व अग्राह्य घोषित कर सकते थे। इस प्रकार का यह प्रसंग गौतम और भगवान् महावीर के संवादस्वरूप प्रज्ञापना में कैसे निबद्ध हुआ? इसके विषय में उस प्रस्तावना के लेखक भी टीका की ओर संकेत मात्र करके अपना कुछ भी अभिप्राय व्यक्त नहीं कर सके ।' षट्खण्डागम में स्त्री-वेद का काल बिना किसी मतभेद के जघन्य से एक समय भौर उत्कर्ष से पल्योपमशतपृथक्त्व कहा गया है ।' ___ क्या इससे यह समझा जाय कि षट्खण्डागमकार के समय तक स्त्रीवेद विषयक किसी प्रकार का मतभेद नहीं रहा, वे मतभेद पीछे उत्पन्न हुए हैं जिन्हें प्रज्ञापना में निबद्ध किया गया है ? (८) प्रज्ञापना के अन्तर्गत २३-२७ और ३५ इन छह पदों में जो कर्म की प्ररूपणा की गई है वह षट्खण्डागम की अपेक्षा स्थूल व अतिशय संक्षेप में की गई है। उदाहरणस्वरूप वहाँ २३वें पदगत ५ अर्थाधिकारों में जीव कितने स्थानों के द्वारा कर्म को बाँधता है, इस तीसरे अर्थाधिकार में इतना मात्र अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि वह माया व लोभस्वरूप १. गुजराती प्रस्तावना, पृ० ११० २. वेदाणुवादेण इत्थिवेदा। केवचिरं कालादो होंति ? जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण पलि दोवम सदपुधत्तं । सूत्र २,२,११४-१६ (पु० ७) । यही काल इसके पूर्व जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत कालानुगम अनुयोगद्वार में भी मिथ्यात्व गुणस्थान के आश्रय से निर्दिष्ट किया गया है। सूत्र १,५,२२७-२६ (पु० ५)। यहाँ उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त रहा है। २६० / षट्खण्डागम-परिशील . Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राग तथा क्रोध व मानस्वरूप द्वेष इन दो या चार स्थानों के द्वारा ज्ञानावरणीय कर्म को बाँधता है । यही प्रक्रिया वहाँ नारक व नारकों से लेकर वैमानिक देव व देवों तक तथा अन्य दर्शनावरणीय आदि कर्मों के विषय में भी अपनाई गई है । (सूत्र १६७०-७४) षट्खण्डागम में जो कर्मबन्ध के कारणों का विचार किया गया है उसकी अपनी अलग विशेषता है । वहाँ 'वेदनाप्रत्ययविधान' नाम का एक स्वतंत्र अनुयोगद्वार है । उसमें नैगम, व्यवहार और संग्रह इन तीन नयों के आश्रय से प्राणातिपात आदि अनेक कारणों के द्वारा ज्ञानावरणीय आदि का बन्ध निर्दिष्ट किया गया है । ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा उक्त ज्ञानावरणीय आदि की प्रकृति व प्रदेशपिण्डरूप वेदना योग के निमित्त से कही गई है । शब्दनय की अपेक्षा उसे अवक्तव्य कहा गया है । सूत्र ४, २, ८, १-१६ ( पु०१२ ) इस प्रसंग में प्रज्ञापना की प्रस्तावना में यह अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि प्रज्ञापना में उक्त प्रकार से जो राग व द्वेष को बन्ध का कारण निर्दिष्ट किया गया है वह प्राचीन स्तर का है। कर्मबन्ध के कारणविषयक इस सर्वमान्य सिद्धान्त को हृदयंगम कर पीछे उन कर्मबन्ध के कारणों का विचार श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्य में पृथक् भूमिका में किया गया है । उसके दर्शन प्रज्ञापना में नहीं होते। इससे प्रज्ञापना की विचारणा का स्तर प्राचीन है। ( गुजराती प्रस्तावना पृ० १२५ ) इस सम्बन्ध में यह भी कहा जा सकता है कि पीछे श्वेताम्बर व दिगम्बर साहित्य में जिस पद्धति से उन कर्मबन्ध के कारणों का विचार किया गया है उनका दर्शन षट्खण्डागम में नहीं होता, अतः षट्खण्डागम की उस कर्मबन्धविषयक विचारणा का स्तर प्राचीन है । वस्तुतः इस आधार से किसी ग्रन्थगत विवक्षित विषय की विचारणा के स्तर को प्राचीन या अर्वाचीन ठहरांना उचित नहीं प्रतीत होता । इसके पूर्व प्रज्ञापना के उपर्युक्त ५ अर्थाधिकारों में जो 'जीव कैसे उन्हें बाँधता है' यह दूसरा अर्थाधिकार है उसमें 'जीव आठ कर्मप्रकृतियों को कैसे बाँधता है' गौतम के इस प्रश्न के उत्तर में इतना मात्र कहा गया है कि ज्ञानावरणीय के उदय से दर्शनावरणीय, दर्शनावरणीय के उदय से दर्शनमोहनीय, दर्शन मोहनीय के उदय से मिथ्यात्व आता है ( नियच्छति') । उदय प्राप्त मिथ्यात्व से (?) हे गौतम ! इस प्रकार जीव आठ कर्मप्रकृतियों को बाँधता है ( १६६८) । प्रज्ञापना की प्रस्तावना में पाँच अर्थाधिकार युक्त इस २३ वें पदगत प्रथम उद्देश को प्राचीन स्तर का तथा उसी के दूसरे उद्देश के साथ आगे के कर्म से सम्बद्ध अन्य (२४-२७ व ३५) पदों को प्रज्ञापना में पीछे प्रक्षिप्त किया गया कहा गया है । प्रथम उद्देश प्राचीन स्तर का है, इसकी पुष्टि में वहाँ ये कारण दिये गये हैं १. बन्ध के प्रकृति आदि चार भेदों का निर्देश करके उनका क्रम के बिना निरूपण करना । १. मूल में जो " णाणावर णिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावर णिज्जं कम्मं नियच्छति" यह कहा गया है उसमें 'णियच्छति' का टीका में आगमन अर्थ अभिप्रेत रहा दिखता है । इस विवेचन का क्या आधार रहा है, यह ज्ञातव्य है । २. गुजराती प्रस्तावना, पृ० १२५-२६ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २६१ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रदेशबन्ध की चर्चा न करना। ३. योग के कर्मबन्ध का कारण होने का निर्देश न करना । ४. कर्मप्रदेश की चर्चा का अभाव । इस विषय में यह पूछा जा सकता है कि प्रज्ञापना में प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा में जो यह अव्यवस्था हुई है वह किस कारण से हुई। वहाँ प्रारम्भ में ही दृष्टिवाद से प्रज्ञापना के उद्गम को बतलाते हुए यह प्रतिज्ञा की गई है कि जिनेन्द्रदेव ने यथा दृष्टभावों की प्रज्ञापना का जैसा वर्णन किया है वैसा ही मैं उसका वर्णन करूँगा। तदनुसार प्रज्ञापनाकार के समक्ष साक्षात् दृष्टिवाद के न रहते हुए भी कुछ तो पूर्वपरम्परागत श्रुत उनके पास रहना ही चाहिए, जिसके आधार से उन्होंने उसकी रचना या संकलन किया है। ऐसी अवस्था में वहाँ प्रतिपाद्य विपय की प्ररूपणा में असम्बद्धता, क्रमविहीनता और शिथिलता नहीं रहनी चाहिए थी। मौलिक श्रुत में तो वैसी कुछ कल्पना नहीं की जा सकती है । इसका विचार करते हुए प्रज्ञापना विषय के प्रतिपादन मे शिथिलता, क्रमविहीनता व अनावश्यक विस्तार हआ है वह उसके प्राचीन स्तर के ग्रन्थ होने का अनुमापक नहीं हो सकता। उसका कारण तो यही सम्भव है कि वर्तमान मे जो अंगश्रुत उपलब्ध है, प्रज्ञापनाकार उसी की सीमा में बँधे रहे। इससे उन्होंने अपनी स्वतंत्र प्रतिभा के बल पर प्रतिपाद्य विषय का वर्गीकरण न कर नय-निक्षेप आदि के आश्रय से उसका प्रतिपादन नहीं किया। यही कारण है कि वहाँ जहाँ-तहाँ अक्रमबद्धता व अनावश्यक विस्तार देखा जाता है । इसके विपरीत षट्खण्डागम के रचयिताओं ने मौलिक श्रुत का लोप होते देख परम्परागत महाकर्मप्रकृतिप्राभूत का छह खण्डों में उपसंहार कर अपने बुद्धि वैभव से प्रतिपाद्य विषय का वर्गीकरण किया व उसे यथाप्रसंग अनुयोगद्वारों आदि में विभक्त करते हुए गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं के क्रम से उसका प्रतिपादन किया है। इससे वह योजनाबद्ध सुगठित रहा है व उसमें क्रमविहीनता व असंगति नहीं हुई है इसे हम इसके पूर्व भी स्पष्ट कर चुके हैं। इस सब विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहचते हैं कि प्रज्ञापना की रचना तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के पश्चात् और नन्दिसूत्र के पूर्व किसी समय में हुई है। १०. षट्खण्डागम और अनुयोगद्वारसूत्र ___ श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से 'नन्दिसूत्र' के साथ प्रकाशित 'अनुयोगद्वारसूत्र' के संस्करण में उसे आर्यरक्षित स्थविर द्वारा विरचित सूचित किया गया है। उसकी प्रस्तावना में कहा गया है कि प्रस्तुत प्रकाशन में जो हमने 'सिरिअज्जरक्खियविर इयाई' यह उल्लेख किया है वह केवल प्रवाद के आधार से किया है। आगे उस प्रवाद को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि इस प्रवाद में कितना तथ्य है यह जानने के लिए हमारे पास कोई साधन नहीं है । ऐसा कोई प्राचीन उल्लेख भी नहीं है कि जिससे आर्यरक्षित स्थविर को अनुयोगद्वार सूत्र का कर्ता माना जाय । यदि कदाचित् आर्य रक्षित के द्वारा अनुयोगद्वार सूत्र की रचना नहीं की गई है तो यह तो सम्भावना है ही कि उनकी परम्परा के किसी शिष्य-प्रशिष्य ने उसकी रचना की होगी । यह तो निश्चित है कि अनुयोगप्रक्रिया का विशेष ज्ञान आर्य रक्षित को रहा है । यदि अनुयोगद्वार आर्यरक्षित की रचना है तो वि० सं० ११४ से १२७ के मध्य किसी समय वह २६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचा गया है । ' आगे प्रकारान्तर से उसकी रचना के विषय में ऊहापोह करते हुए कहा गया है कि ईसवी सन् की दूसरी शती में किसी समय उसके रचे जाने में बाधा आती नहीं दिखती है । किसी भी हालत में पूर्व में बतलाये गये प्रमाण के अनुसार विक्रम सं० ३५७ के पीछे की तो वह रचना अथवा संकलन हो ही नहीं सकता । इस प्रकार यहाँ संक्षेप में प्रकृत अनुयोगद्वार के रचयिता और उसके रचनाकाल के विषय में सम्पादकों का क्या अभिप्राय रहा है, इसे स्पष्ट करके आगे उसमें चर्चित विषय का दिग्दर्शन कराया जाता है - प्रस्तुत अनुयोगद्वारसूत्र गद्यात्मक सूत्रों में रचा गया है; बीच-बीच में कुछ गाथाएँ भी उसमें हैं । समस्त सूत्र संख्या ६०६ और गाथा संख्या १४३ है । सर्वप्रथम यहाँ पाँच ज्ञानों का उल्लेख करके उनमें स्थापनीय चार ज्ञानों को स्थगित कर श्रुतज्ञान के उद्देश, समुद्द ेश, अनुज्ञा और अनुयोगविषयक प्रवर्तन की प्रतिज्ञा की गई है। पश्चात् अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के भी उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोगविषयक कथन की सूचना करते हुए प्रथमतः उत्कालिक अंगबाह्य स्वरूप आवश्यक के अनुयोगों का विचार किया गया है। तदनुसार आवश्यक, श्रुत, स्कन्ध और अध्ययन इनका निक्षेप करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए उन चारों में से प्रथम तीन के विषय में निक्षेप की योजना की गई है । (सूत्र १-७२ ) आगे चलकर आवश्यक के अन्तर्गत सामायिक आदि छह अध्ययनों का उल्लेख करते हुए प्रथम 'सामायिक' अध्ययन के विषय में उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय इन चार अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है और तत्पश्चात् यथाक्रम से उनके भेद - प्रभेदों की चर्चा इन सूत्रों में की गई है १. उपक्रम – सूत्र ७६-६१. प्रकारान्तर से भी सूत्र ६२-५३३ २. निक्षेप - सूत्र ५३४-६०० ३. अनुगम - सूत्र ६०१-६०५ ४. नय — सूत्र ६०६ ( गाथा १३६-४१) इस प्रकार संक्षेप में अनुयोगद्वार के विषय का परिचय कराया। आगे यहाँ यह विचार किया जाता है कि विषयविवेचन की दृष्टि से षट्खण्डागम के साथ उसकी कहाँ कितनी समानता है तथा कहाँ कितनी उसमे विशेषता भी है १. षट्खण्डागम के चौथे वेदना खण्ड के अन्तर्गत दो अनुयोगद्वारों में प्रथम ' कृति ' अनुयोगद्वार है । उसमें कृति के नामकृति, स्थापनाकृति आदि सात भेदों का निर्देश है । उनमें प्रथम नामकृति का स्वरूप इस प्रकार प्रकट किया गया है- - "जा सा णामकदी णाम सा जीवस्स वा, अजीवस्स वा, जीवाणं वा, अजोवाणं वा, जीवस्स च अजीवस्स च, जीवस्स च, अजीवाणं च जीवाणं च अजीवस्स च, जीवाणं च अजीवाणं च जस्स णाम कीरदि कदित्ति सा सव्वा णामकदी णाम ।" - पु०, ६, सूत्र ५१ अनुयोगद्वार में इसी प्रकार का सूत्र नाम अवश्य के प्रसंग में इस प्रकार कहा गया है— १. गुजराती प्रस्तावना, पृ० ४६-५० २. वही, ५०-५१ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २६३ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “से कि तं नामावस्सयं? जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण वा आवस्सये त्ति नाम कीरए । से तं नामावस्सयं ।" -अनु० सूत्र १० इन दोनों सूत्रों में शब्द और अर्थ दोनों से समानता है। विशेष इतना है कि ष० ख० में जहाँ जीव-अजीव विषयक आठ भंगों का उल्लेख है वहाँ अनुयोगद्वार सूत्र में जीव-अजीव से सम्बन्धित एक वचन व बहुवचन सम्बन्धी दो संयोगी भंगों को छोड़कर शेष छह का उल्लेख किया गया है। २. इसी प्रकार स्थापना के सम्बन्ध में भी उपर्युक्त दोनों ग्रन्थों के इन सूत्रों को देखिए "जा सा ठवणकदी णाम सा कट्टकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा लेण्णकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेंडकम्मेसु वा अक्खो वा वराडओ वा जे चामण्णे एवमादिया ठवणाए ठविज्जति कदि त्ति सा सव्वा ठवणकदी णाम ।" -ष०ख० सत्र ५२० ___ 'से किं ठवणावस्सयं ? जण्णं कट्टकम्मे वा चित्तकम्मे वा पोत्थकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइमे वा अक्खे वा वराडए वा एगो वा अणेगा वा सब्भावठवणाए वा असबभावठवणाए वा आवस्सए त्ति ठवणा ठविज्जति । से तं ठवणावस्सयं ।" -अनु० सूत्र ११ इन दोनों में भी अर्थ की अपेक्षा तो समानता है ही, शब्द भी वे ही हैं। विशेष इतना है कि ष० ख० में जहाँ 'कट्टकम्म' आदि के साथ बहुवचन प्रयुक्त हुआ है वहाँ अनुयोगद्वार में एक वचन प्रयुक्त हुआ है। इसके अतिरिक्त ष० ख० में 'लेण्ण' कर्म आदि कुछ अन्य कर्मों का भी निर्देश है। उधर अनुयोगद्वार में 'गंथिम-वेढिम'' आदि का उल्लेख ष०ख० की अपेक्षा अधिक हुआ है। ३. ष० ख० में आगमद्रव्यकृति का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है "जा सा आगमदो दव्वकदी णाम तिस्से इमे अट्टाहियारा भवंति–दिदं जिदं परिजिदं वायणोवगदं सुत्तसमं अत्थसमं गंधसमं णामसमं घोससमं। जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टणा वा अणुपेक्खणा वा थय-थुदि-धम्मकहा वा जे चामण्णे एवमादिया।" - १० ख० सूत्र ४, १, ५४-५५ लगभग इन्हीं शब्दों में आगम-द्रव्य-आवश्यक का स्वरूप अनुयोगद्वार में इस प्रकार कहा गया है --- "से किं तं आगमतो दवावस्सयं? जस्स णं आवस्सये त्ति पदं सिक्खितं ठितं जितं मितं परिजितं णामसमं घोससमं अहीणक्खरं अणच्चक्खरं अव्वाइद्धक्खरं अक्खलियं अमिलियं अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्णघोसं कंठो?विप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं । से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्मकहाए णो अणुप्पेहाए । कम्हा ? अणुओगो दव्वमिदि कटु ।"--सूत्र १४ दोनों ग्रन्थगत इन सूत्रों में उपयुक्त अनेक शब्द प्रायः उसी रूप में आगे पोछे व्यवहृत हुए हैं । अभिप्राय समान ही है। इस प्रकार शब्द व अर्थ की समानता के साथ यह एक विशेषता १. गंथिम, वेढि (दि) म, पूरिम और संघादिम ये शब्द ष० ख० सूत्र ४,१,६५ (पु० ६) में प्रयुक्त हुए हैं। २६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन . Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रही है कि ष०० में जहाँ उन आगम विषयक उपयोगों में 'अनुप्रेक्षा' को ग्रहण किया गया है वहाँ अनुयोगद्वार में अनुपयोग को द्रव्य मानकर उसका निषेध किया है । ४. ० ख० में नैगम और व्यवहार इन दो नयों की अपेक्षा एक अनुपयुक्त और अनेक अनुपयुक्तों को आगम से द्रव्यकृति कहा गया है। (सूत्र ५६, पु० ) अनुयोगद्वार में भी इसी प्रकार से नैगम नय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त को एक, दो अनुप युक्तों को दो और तीन अनुपयुक्तों को तीन आगम से द्रव्यावश्यक बतलाते हुए यह कह दिया गया है कि इस प्रकार जितने भी हैं वे नैगम नय की अपेक्षा आगम से द्रव्यावश्यक हैं। आगे यह सूचना कर दी गई है कि नैगम नय के समान व्यवहार नय से भी इसी प्रकार जान लेना चाहिए । (सूत्र १५) इस प्रकार आगम द्रव्यकृति और आगम द्रव्यावश्यक के स्वरूप विषयक दोनों ग्रन्थों का अभिप्राय सर्वथा समान है । विशेष इतना है कि ष० ख० में जहाँ नैगम और व्यवहार इन दोनों नयों की विवक्षा को एक साथ प्रकट कर दिया गया है वहाँ अनुयोगद्वार में प्रथमतः नैगम नय की विवक्षा को दिखलाकर तत्पश्चात् व्यवहारनय से भी उसी प्रकार जान लेने की सूचना कर दी गई है । इसी प्रकार ष० ख० में जहाँ एक-दो-तीन आदि अनुपयुक्तों का पृथक्-पृथक् उल्लेख न करके दो-तीन आदि अनुपयुक्तों को अनेक अनुपयुक्तों के रूप में ग्रहण कर लिया गया है वहाँ अनुयोगद्वार में एक, दो व तीन अनुपयुक्तों का निर्देश करके आगे यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इस प्रकार से जितने भी अनुपयुक्त हों उन सबको आगम से द्रव्यावश्यक जान लेना चाहिए । आगे दानों ग्रन्थों में संग्रह, ऋजुसूत्र और शब्द नय की अपेक्षा जहाँ क्रम से आगम द्रव्यकृति और आगम द्रव्यावश्यक के स्वरूप का निर्देश है वहाँ भी थोड़ी विशेषता के साथ लगभग समान अभिप्राय ही प्रकट किया गया है ।" ५. षट्खण्डागम में आगे उक्त नोआगमद्रव्यकृति के तीन भेदों में दूसरे भेदरूप भावी द्रव्यकृति के विषय में कहा गया है कि जो जीव भविष्य में कृतिअनुयोगद्वारों के उपादानकारणस्वरूप से स्थित है, वर्तमान में कर नहीं रहा है उसका नाम भावी द्रव्यकृति है । ( सूत्र ६४ ) अनुयोगद्वार में भाविशरीर द्रव्यावश्यक प्रसंग में कहा गया है कि योनिजन्म से निष्क्रान्त जो जीव ग्रहण किये गये इसी शरीरोत्सेध से जिनोपदिष्ट भाव से 'आवश्यक' इस पद को भविष्य काल में सीखेगा, वर्तमान में सीख नहीं रहा है, उसे भाविशरीर द्रव्यावश्यक जानना चाहिए । यहाँ दृष्टान्त दिया गया है— 'यह मधुकुम्भ होगा, यह घृतकुम्भ होगा ।' (सूत्र १८ ) इस प्रसंग में दोनों ग्रन्थों का अभिप्राय प्रायः समान है। विशेष इतना है कि अनुयोगद्वार में उसके स्पष्टीकरण में मधुकुम्भ और घृतकुम्भ का दृष्टान्त भी दिया गया है, जो ष० ख० में उपलब्ध नहीं है । यहाँ यह स्मरणीय है कि ष० ख० में जहाँ यह प्ररूपणा 'कृति' को लक्ष्य में रखकर की गई है वहाँ अनुयोगद्वार में 'आवश्यक' को लक्ष्य में रखा गया है । १. ष० ख० सूत्र ५७-५६ ( पु० ६ ) और अनु० सूत्र १५ [ ३-५ ५७ [५] व ४८३ [५] । षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २६५ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषता ___ इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में की गई इस निक्षेपविषयक प्ररूपणा आदि के विषय में शब्द व अर्थ की अपेक्षा बहुत कुछ समानता के होने पर भी उनमें कुछ अपनी-अपनी विशेषता भी देखी जाती है । यथा-- १. षट्खण्डागम में जहाँ नामनिक्षेप के प्रसंग में उसके आधारभूत जीव व अजीव विषयक आठ भंगों का निर्देश है वहाँ अनुयोगद्वार में छह भंगों का ही निर्देश किया गया है। वहाँ 'जीवस्स च अजीवाणं च' और 'जीवाणं च अजीवस्स च' इन दो (६-७) भंगों का निर्देश नहीं किया गया। २. स्थापनानिक्षेप के प्रसंग में अनुयोगद्वार की अपेक्षा षट्खण्डागम में काष्ठ कर्मादि चार के साथ लेण्णकम्म, सेलकम्म, गिहकम्म, भित्तिकम्म, दंतकम्म और भेंडकम्म इन छह कर्मविशेषों का उल्लेख भी है। उधर अनुयोगद्वार में ष०ख० की अपेक्षा गंथिम, वेढिम, पूरिम और संघाइम इन क्रियाविशेषों का उल्लेख अधिक किया गया है। इसके अतिरिक्त इसी प्रसंग में षट्खण्डागम में जहाँ सामान्य से 'ठवणाए' इतना मात्र निर्देश किया गया है वहाँ अनुयोगद्वार में उस स्थापना के भेदभूत सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना को ग्रहण करके 'सम्भावठवणाए वा असब्भावठवणाए वा' ऐसा स्पष्ट कर दिया गया है। इसके अतिरिक्त ष० ख० की अपेक्षा अनुयोगद्वार में एक यह भी विशेषता रही है कि वहाँ 'नाम-ट्रवणाणं को पइविसेसो' ऐसा प्रश्न उटाकर उसके समाधान में 'णामं आवकहियं, ठवणा इत्तिरिया वा होज्जा आवकहिया वा' यह विशेष स्पष्ट किया गया है। ३. नोआगम-भावनिक्षेप के प्रसंग में दोनों ग्रन्थों में स्थित, जित, परिजित, नामसम और घोषसम इन शब्दों का समान रूप में उपयोग करने पर भी अनुयोगद्वार में ष०ख० की अपेक्षा 'अहीनाक्षर' आदि नौ शब्दों का उपयोग अधिक है। इसके अतिरिक्त प० ख० में जहाँ 'वायणोवगदं' है वहाँ अनुयोगद्वार में 'गुरु' के साथ 'गुरुवायणोवगयं' है। ___ष० ख० में उक्त 'स्थित-जित' आदि नो का निर्देश आगम के अर्थाधिकारों के रूप में किया गया है, साथ ही आगे के सूत्र में निर्दिष्ट वाचना व पृच्छना आदि को भागम-विषयक उपयोग कहा गया है। किन्तु अनुयोगद्वार में उक्त 'स्थित-जित' आदि का उल्लेख आगम के अर्थाधिकार रूप में नहीं हुआ है। वाचना-पृच्छना आदि का उल्लेख भी वहां आगमविषयक उपयोग के रूप १. १० ख० सूत्र ५१ (पु. ६) और अनु० सूत्र १० २. ष० ख० में गंथिम, वेढि [दि] म, पूरिम और संघादिम इन शब्दों का उपयोग तद्व्यति___रिक्त नोआगम द्रव्यकृति के प्रसंग (सूत्र ६५) में हुआ है। इनके अतिरिक्त वहाँ 'वाइम' व 'आहोदिम' आदि कुछ अन्य शब्द भी व्यवहृत हुए हैं। ३. १० ख० सूत्र ६५२ और अनुयोगद्वार सूत्र ११ (१० ख० में स्थापना के इन दो भेदों का उल्लेख मूल में कहीं भी नहीं किया गया है)। ४. अनु० सूत्र १२,२३,५५ और ४८० २६६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में किया गया है। एक विशेषता यह भी है कि ष० ख० में 'कृति' अनुयोगद्वार के प्रसंग में आगमद्रव्यकृति का विचार करते हुए पूर्वोक्त 'वाचना' आदि के साथ 'अनुप्रेक्षा' को भी उपयोग के रूप में ग्रहण किया गया है। इसी प्रकार 'प्रकृति' अनुयोगद्वार के प्रसंग में आगमद्रव्यप्रकृति का विचार करते हुए भी 'अनुप्रेक्षा' को उपयोग के रूप में ही ग्रहण किया गया है। इतना विशेष है कि यहाँ 'अणुव जोगा दव्वेत्ति कटु' ऐसा निर्देश करते हुए सभी अनुपयुक्तों को आगम से द्रव्यप्रकृति कहा गया है ।' पर अनुयोग द्वार में णो अणुप्पेहाए । कम्हा? अणुव जोगो दव्वमिदि कटु' ऐसा निर्देश करते हुए उस अनुप्रेक्षा का उपयोग के रूप में निषेध किया गया है।' ___दोनों ग्रन्थों में 'अणुवजोगा दव्वे त्ति कटु' और 'अणुवजोगो दवमिदि कट्ट' वाक्यांश सर्वथा समान है । भेद केवल बहुवचन व एकवचन का है। ४. षट्खण्डागम में इसी प्रसंग में नैगम और व्यवहार इन दो नयों की अपेक्षा एक अनुपयुक्त को और अनेक अनुपयुक्तों को आगम से द्रव्यकृति कहा गया है, संग्रह नय की अपेक्षा भी एक अथवा अनेक अनुपयुक्तों को आगम से द्रव्यकृति कहा गया है । ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त को आगम से द्रव्यकृति, तथा शब्दनय की अपेक्षा अवक्तव्य कहा गया है। __अनुयोगद्वार में नैगम नय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त को आगम से एक द्रव्यावश्यक, दोतीन अनुपयुक्तों को आगम से दो-तीन द्रव्यावश्यक कहकर आगे यह सूचना कर दी गई है कि इसी प्रकार से जितने भी अनुपयुक्त हों उतने ही उनको आगम से द्रव्यावश्यक जानना चाहिए। आगे नैगमनय के समान ही व्यवहार नय से भी इसी प्रकार जान लेने की प्रेरणा कर दी गई है। संग्रह नय की अपेक्षा एक अथवा अनेक अनुपयुक्तों को आगम से एक द्रव्यावश्यक अथवा अनेक द्रव्यावश्यक कहते हुए एक द्रव्यावश्यक कह दिया गया है। ___ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त आगम से द्रव्यावश्यक है, क्योंकि वह पृथक्त्व को स्वीकार नहीं करता है। तीन शब्द नयों की अपेक्षा ज्ञायक अनुपयुक्त अवस्तु है, क्योंकि यदि ज्ञायक है तो अनुपयुक्त नहीं होता। यहाँ षट्खण्डागम की अपेक्षा अनुयोगद्वार में यह विशेषता रही है कि प० ख० में जहाँ नैगम और व्यवहार इन दोनों नयों की विषयता को एक साथ दिखला दिया गया है वहां भनुयोगद्वार में प्रथमतः नैगमनय की अपेक्षा निरूपण करके तत्पश्चात् 'एवमेव ववहारस्स वि' ऐसी सूचना करते हुए व्यवहारनय की नैगमनय से समानता प्रकट की गई है । (१५ [२]) ऋजुसूत्रनय के प्रसंग में ष० ख० की अपेक्षा अनुयोगद्वार में 'क्योंकि वह पृथक्त्व को १. १० ख० सूत्र ४,१, ५४-५५ (पु० ६) व ५,५, १२-१४ (पु० १३) २. अनु० सूत्र १४ व ४८२ ३. १० ख० सूत्र ५६-६० (पु०६) ४. अनु० सूत्र १५ [१-५] । षट्खण्डागम को अन्य ग्रन्थों से तुलना / २६७ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीकार नहीं करता' यह हेतु भी दे दिया गया है । (१५[४]) शब्द नय के प्रसंग में ष० ख० में जहाँ 'अवक्तव्य' कहा गया है वहाँ अनुयोगद्वार में 'अवस्तु' कहकर उसका कारण यह दिया है कि इस नय की दृष्टि में जो ज्ञायक होता है वह अनुपयुक्त नहीं होता, वह उपयोग सहित ही होता है । (१५[५]) नयों के विषय में एक ध्यान देने योग्य विशेषता दोनों ग्रन्थों में यह रही है कि षट्खण्डागम में सर्वत्र नगम, व्यवहार, संग्रह, ऋजुसूत्र और शब्द इन पाँच नयों का ही उल्लेख हुआ है।' परन्तु अनुयोगद्वार में उक्त पाँच नयों के साथ समभिरूढ़ और एवंभूत इन दो नयों को भी ग्रहण करके सात नयों का निर्देश किया गया है। यद्यपि प्रकृत में शब्दशः समभिरूढ और एवंभूत इन दो नयों का उल्लेख नहीं किया गया, फिर भी 'तिण्हं सद्दनयाणं' ऐसा कहकर उनकी सूचना कर दी गई है ।' इससे ऐसा प्रतीत होता है कि षट्खण्डागम के रचनाकाल तक सम्भवतः समभिरूढ और एवम्भूत ये दो नय प्रचार में नहीं आये थे । ५. षट्खण्डागम में नोआगम द्रव्यनिक्षेप के तीन भेदों में दूसरे भेद का उल्लेख 'भवियदव्य' के रूप में हुआ है। वहाँ कहीं पर भी उसके साथ 'सरीर' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है । पर अनयोगद्वार में सर्वत्र उसका उल्लेख 'भवियसरीरदव्व' के रूप में हआ है।" १. आगे भी सूत्र ४,२,२,२-४; ४,२,३,१-४; ४,२,८,२ तथा १२ व १५; ४,२,६, २ और ११ व १४; ४,२,१०,२ और ३०,४८,५६ व ५८; ४,२,११,२ और ६ व १२; ४,२,१२,४ और ७,६ व ११; ५,३,७-८; ५,४,६-८; ५,५, ६-८; ५,६, ४-६ और ७२-७४ । यहाँ यह एक अपवादसूत्र अवश्य देखा जाता है --सद्दादओ णामकदि भावकदिं च इच्छंति (पु० ६, सूत्र ५०)। यहां सूत्र में 'शब्द' के साथ जो 'आदि' शब्द प्रयुक्त हुआ है उससे क्या विवक्षित रहा है, यह स्पष्ट नहीं है। समस्त ष०ख० में कहीं पर भी समभिरूढ और एवम्भूत इन दो नयों का उल्लेख नहीं किया गया। धवलाकार ने अन्यत्र कुछ स्थानों पर सूत्रपोथियों में पाठान्तर की सूचना की है। सम्भव है उपर्युक्त सूत्र में 'सद्दणओ' के स्थान पर 'सद्दादो' और 'इच्छदि' के स्थान पर 'इच्छंति' पाठभेद हो गया हो। २. अनु० सूत्र १५ [५]. ४७४, ४७५, ४८३ [५], ४६१ और ५२५ [३] । आगे जाकर सूत्र ६०६ में तो स्पष्टतया उन सात नयों का निर्देश इस प्रकार कर दिया गया है --- "से किं तं णए ? सत्त मूलणया पण्णत्ता । तं जहा-णेगमे संगहे ववहारे उज्जुसुए सद्दे समभिरूढे एवंभूते ।" यहाँ संग्रह और व्यवहार इन दो नयों का क्रमव्यत्यय भी हुआ है। आगे गाथा १३७ में इसी क्रम से प्रथमतः संग्रह नय के लक्षण का और तत्पश्चात् व्यवहारनय के लक्षण का निर्देश है। षट्खण्डागम में सर्वत्र नैगम, व्यवहार, संग्रह, ऋजुसूत्र और शब्द-यही क्रम पांच नयों के उल्लेख का रहा है । ३. १० ख० सूत्र ४,१,६१ व ६४ आदि। ४. अनु० सूत्र १६ व १८ आदि । २६८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार षट्खण्डागम और अनुयोगद्वार में संक्षेप से विषयविवेचन की पद्धति में समानता इस प्रकार देखी जा सकती है विषय १. नामनिक्षेप २. स्थापनानिक्षेप ३. आगमद्रव्यनिक्षेप ४. आगमद्रव्यनिक्षेप से सम्बद्ध नैगम और व्यवहारनय ५. संग्रहनय ६. ऋजुसूत्र ७. शब्दनय ८. नोआगम द्रव्य निक्षेप के तीन भेद ६. नोआगम ज्ञायकशरीरद्रव्यनिक्षेप [ष० ख० सूत्र पु० ६, सूत्र ५१ ( कृति से सम्बद्ध) " 31 "3 " 13 37 31 " ५२ ५४-५.५ ५६ ५७ ५८ ५६ ६१ ६३ "" 21 22 23 93 21 11 अनु० सूत्र १० (आवश्यक से सम्बद्ध) ११ १४ १६ 33 १५ [१-२], १५ [३] १५ ]४] १५ [५] १७ 1) 23 11 21 "1 विशेषता जिसका स्पष्टीकरण मूल ष० ख० में नहीं किया गया है उसका स्पष्टीकरण मूल अनुयोगद्वार सूत्र में किया गया तथा प्रसंग के अनुरूप दृष्टान्त भी दिया गया है । जैसे--- I १. नाम व स्थापना निक्षेपों में भेद को प्रकट करना । (सूत्र १२, ३३, ५५ और ४५० ) २. नैगम व व्यवहार नय से आगमद्रव्य के प्रसंग में अनुप्रेक्षा का निषेधपूर्वक स्पष्टीकरण । (सूत्र १४ व ४८२ ) ३. तीन शब्द नयों का निर्देश । (सूत्र १५ [५], ५७ [५], ४७४,४७५ व ५२५ [३]) ४. समभिरूढ और एवम्भूत नयों का नामोल्लेख (सूत्र ६०६ और गाथा १३७) जबकि षट्खण्डागम में इन दो नयों का नामोल्लेख कहीं भी नहीं किया गया है । ५. ज्ञायकशरीर व भव्यशरीर- द्रव्यनिक्षेप में मधुकुम्भ और घृतकुम्भ का दृष्टान्त । (सूत्र १७,१८,३८, ६०, ४८५, ४८६, ५४१, ५४२ व ५८६ ) ६. ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक के प्रसंग में 'च्युत-च्यावित त्यक्त देह से व्यपगत' इत्यादि विवरण । (सूत्र १७, ३६, ५४१, ५४२,५६३ व ५८५ ) ( षट्खण्डागम में इस प्रसंग में 'च्युत-च्यावित त्यक्त शरीर से युक्त' ऐसा कहा गया है। ( सूत्र ६३, पु० ६ ) ७. भव्यशरीरद्रव्यनिक्षेप में षट्खण्डागम की अपेक्षा 'शरीर' शब्द की अधिकता । ( सूत्र १८,३६,३८,५८,६०,५४०-४२, ५६२ व ५६५ ) ८. लौकिक और लोकोत्तरिक भावश्रुत का स्पष्टीकरण । (सूत्र ४९-५०) " षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २६६ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खण्डागम सूत्र ४, १, ६७ (पु० ६) में व्यवहृत लोक, वेद व समय तथा सूत्र ५. ५,५१ ( पु० १३ ) में लौकिकवाद और लोकोत्तरीयवाद इन शब्दों का निर्देश करके भी में उनका मूल कहीं कुछ स्पष्टीकरण नहीं किया गया है । ६. अनुयोगद्वार (सूत्र ४९) में भारत - रामायण आदि जैसे कुछ ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है । मूल षट्खण्डागम में इनका उल्लेख कहीं नहीं है । १०. षट्खण्डागम की अपेक्षा अनुयोगद्वार में व्यवहार और संग्रह इन दो नयों के उल्लेख में क्रमव्यत्यय है । (अनु० सूत्र ६०६ व गाथा १३६-३९ ) ११. अनुयोगद्वार में जो १४१ गाथाएँ हैं। वे प्रायः सभी संकलित की गई हैं, ग्रन्थकार के द्वारा रची गई नहीं दिखती। स्वयं ग्रन्थ में जहाँ-तहाँ किये गये संकेतों से भी यही प्रतीत होता है । यथा एत्थ संग्रहणिगाहाओ (८६-८८) । ( सूत्र २८५ ) एत्थं पि य संगहणिगाहाओ ( ८६ - ६० ) । तं जहा - ( सूत्र २८६ ) एन्थं संगहणिगाहाओ (१०१ -२) भवंति । तं जहा - ( सूत्र ३५१ [५] ) एत्थ एतेसिं संगणिगाहाओ (१०१ २) भवंति । तं जहा - ( सूत्र ३८७ [ ५ ] ) एत्थ संग्रहणिगाहा (१२४) । (सूत्र ५३३) माहि दोहि गाहाहि (१३३-३४) अणुगंतव्वे । तं जहा - ( सूत्र ६०४ ) निष्कर्ष दोनों ग्रन्थों की इस स्थिति को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि अनुयोगद्वार सूत्र की रचना अथवा संकलना षट्खण्डागम के पश्चात् हुई है । कदाचित् अनुयोगद्वारकार के समक्ष षट्खण्डागम भी रहा हो । षट्खण्डागम की टीका धवला व अनुयोगद्वार अनुयोगद्वार में आवश्यक के छह अध्ययनों में से प्रथम सामायिक अध्ययन के प्रसंग में इन चार अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है—उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय । इनमें प्रथमतः उपक्रम के नाम उपक्रम, स्थापनाउपक्रम, द्रव्यउपक्रम, क्षेत्र उपक्रम, कालउपक्रम और भावउपक्रम इन छह भेदों का निर्देश करते हुए क्रम से उनकी प्ररूपणा ७६- ६१ सूत्रों में की गई है । तत्पश्चात् प्रकारान्तर से उसके आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार और समवतार इन छह भेदों का निर्देश करते हुए यथाक्रम से उनकी प्ररूपणा ε२- ५३३ सूत्रों में की गई है। इस प्रकार ग्रन्थ का बहुभाग इस उपक्रम की प्ररूपणा में गया है । ( पृ० ७२ - १६५ ) तत्पश्चात् निक्षेप की प्ररूपणा ५३४ ६०० सूत्रों में, अनुगम की प्ररूपणा ६०१ ५ सूत्रों में र नय की प्ररूपणा एक ही सूत्र (६०६) में की गई है । अनुयोगद्वार में की गई विवक्षित विषय की प्ररूपणा की धवला में प्ररूपित विषय के साथ कहाँ कितनी समानता है, यहाँ स्पष्ट किया जाता है १. धवला में षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान के अवतार को दिखलाते हुए उसे १. इनमें गाथा १२७-२८ मूलाचार (७,२४-२५) और आचा० नि० (७६६-६७) में भी मोड़े पाठभेद के साथ उपलब्ध होती हैं । २७० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपक्रम, निक्षेप, नय और अनुगम के भेद से चार प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। इस प्रकार उपर्युक्त उपक्रम आदि चार भेदों का उल्लेख धवला और अनुयोगद्वार दोनों में सर्वथा समान है।' २. धवला में यहीं पर आगे उपक्रम के इन पांच भेदों का निर्देश किया गया है-आनुपूर्वी, माम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार।' ____ अनुयोगद्वार में उपक्रम के जो छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं उनमें पाँच तो वे ही हैं जिनका उल्लेख धवला में किया गया है, छठा 'समवतार' यह एक भेद वहाँ अधिक है जो धवला में नहीं उपलब्ध होता । विशेष इतना है कि धवला में यहाँ इस प्रसंग में 'उक्तं च' इस सूचना के साथ कहीं अन्यत्र से यह एक प्राचीन गाथा उद्धृत की गई हैं: तिविहा य आणुपुठवी दसहा णामं च छठिवहं माणं । वत्तव्वदा य तिविहा तिविहो अत्याहियारो वि ।। यह गाथा और इसमें निर्दिष्ट आनुपूर्वी आदि के भेदों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि धवलाकार के समक्ष ऐसा कोई प्राचीन ग्रन्थ रहा है, जिसमें उपर्युक्त आनुपूर्वी आदि का विशद विचार किया गया है। ३. उक्त गाथा के अनुसार आगे धवला में आनुपूर्वी के ये तीन भेद निर्दिष्ट किये गये हैंपूर्वानुपूर्वी, पश्चादानुपूर्वी और यथातथानुपूर्वी। इन तीनों को वहाँ उदाहरणपूर्वक स्पष्ट किया गया है। ___अनुयोगद्वार में आनुपूर्वी के नामानुपूर्वी आदि दस भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। (सूत्र ६३) उनका क्रम से निरूपण करते हुए आगे उनमें औपनिधिकी द्रव्यानपूर्वी के तीन भेद किये गये हैं-पूर्वानुपूर्वी, पश्चादानुपूर्वी और अनानुपूर्वी। इनमें पूर्व के दो भेद तो वे ही हैं, जिनका ऊपर धवला में उल्लेख है । तीसरा भेद यथातथानुपूर्वी के स्थान में यहाँ अनानुपूर्वी है ।६ ४. पूर्वानुपूर्वी और पश्चादा नुपूर्वी के स्पष्टीकरण में जिस प्रकार धवला में ऋषभादि तीर्थंकरों का उदाहरण दिया गया है उसी प्रकार अनुयोगद्वार में भी आगे उत्कीर्तनानुपूर्वी के तीन भेदों के अन्तर्गत पूर्वानुपूर्वी और पश्चादानुपूर्वी के स्पष्टीकरण में उन्हीं ऋषभादि तीर्थकरों का उदाहरण दिया गया है। १. धवला पु० १, पृ० ७२ (आगे पु० ६, पृ० १३४ पर भी ये भेद द्रष्टव्य हैं) और अम. सूत्र ७५ पृ० ७२ २. धवला पु० १, पृ० ७२ व पु० ६, पृ० १३४ ३. अनुयोगद्वार, सूत्र ६२ ४. धवला पु. १, पृ० ७२ और पु० ६, पृ० १४०, पु० (6 में 'तिविहो' के स्थान में 'विविहो' पाठ है, तदनुसार वहाँ 'अत्थाहियारो अणेयविहो' ऐसा कहा भी गया है।) ५. धवला पु० १, पृ० ७३ ६. अनुयोगद्वार सूत्र १३१ (आगे इन तीन भेदों का उल्लेख यथाप्रसंग कई सूत्रों में किया गया है। जैसे-सूत्र १३५,१६०,१६८,१७२,१७६,२०१ [१], २०२[१], २०३[१] इस्मादि । षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २७१ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषता यह रही है कि धवला में जहाँ उदाहरण उद्धत गाथाओं के आश्रय से दिए गये हैं वहाँ अनुयोगद्वार में वे सूत्र के ही द्वारा दिये गये हैं।' ५. धवला में नाम के ये दस भेद प्रकट किये गये हैं-- गोण्यपद, नोगौण्यपद, आदानपद, प्रतिपक्षपद, अनादिसिद्धान्तपद, प्राधान्यपद, नामपद, प्रमाणपद, अवयवपद और संयोगपद ।' इन दस नामों का उल्लेख अनुयोगद्वार में भी थोड़े-से क्रमभेद के साथ किया गया है।' विशेष इतना है कि अनुयोगद्वार में नाम-उपक्रम के प्रसंग में एक-नाम, दो-नाम व तीननाम आदि का क्रम से विचार करते हुए (सूत्र २०८-६३) अन्तिम दस-नाम के प्रसंग में उन दस नामों का निर्देश किया गया है, जिनका उल्लेख धवला में ऊपर नाम के दस भेदों के रूप में हुआ है । अनुयोगद्वारगत उन एक-दो आदि नामों का विचार धवला में नहीं किया गया है। ___ इन दस नामों का स्पष्टीकरण धवला और अनुयोगद्वार दोनों ग्रन्थों में उदाहरणपूर्वक किया गया है। ___ इनमें कुछ के उदाहरण भी दोनों ग्रन्थों में समान हैं । जैसे--प्राधान्यपद और अनादिसिद्धान्तपद आदि में। ___ दोनों ग्रन्थों में समान रूप से संयोगपद के ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-द्रव्यसंयोग, क्षेत्रसंयोग, कालसंयोग और भावसंयोग । ६. घवला में प्रमाणउपक्रम के ये पांच भेद बतलाये हैं-द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र प्रमाण, कालप्रमाण, भावप्रमाण और नयप्रमाण ।६ अनुयोगद्वार में उसके ये चार ही भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण । इनके साथ वहाँ पाँचवें भेदभूत नयप्रमाण को नहीं ग्रहण किया गया है। धवला में उन प्रमाणभेदों का विवेचन जहाँ संक्षेप से किया गया है वहां अनुयोगद्वार में उनमें प्रत्येक के अन्तर्गत अनेक भेदों के साथ उनकी प्ररूपणा विस्तार से की गई है। ७. वक्तव्यता के तीन भेद जैसे धवला में निर्दिष्ट किये गये हैं वैसे ही उक्त तीन भेदों का निदश अनुयोगद्वार में भी उसी रूप में है। यथा-स्वसमयवक्तव्यता, परसमयवक्तव्यता और तदुभय (स्व-परसमय) वक्तव्यता। ८. अर्थाधिकारउपक्रम के विषय में दोनों ग्रन्थों में कुछ भिन्नता रही है यथा १. धवला पु० १, पृ० ७३ और अनुयोगद्वार सूत्र २०३ [१-३] २. धवला पु० १, पृ० ७४ व पु० ६, पृ० १३५ ३. अनुयोगद्वार, सूत्र २६३ ४. धवला पु० १, पृ०७४-७६ व पु० ६, पृ० १३५-३८ और अनुयोगद्वार सूत्र २६४-३१२ ५. धवला पु० १, पृ० ७७-७८ और पु० ६, पृ० १३७-३८ तथा अनुयोगद्वार सूत्र २७२-८१ ६. धवला पु० १, पृ० ८० ७. अनुयोगद्वार, सूत्र ३१३ ८. धवला पु० १, १०८० व अनुयोगद्वार सूत्र ३१४-५२० ६. धवला पु० १, पृ० ८२ व पु० ६, पृ० १४० तथा अनुयोगद्वार सूत्र ५२१-२४ २७२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवला में अधिकार के ये तीन भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-प्रमाण, प्रमेय और तदुभय । ' परन्तु अनुयोगद्वार में उसके भेदों को न दिखाकर 'अर्थाधिकार क्या है' इस प्रश्न के उत्तर में यह कह दिया गया कि 'जो जिस अध्ययन का अर्थाधिकार है'। आगे 'तं जहा' इस निर्देश के साथ वहाँ यह गाथा उपस्थित की गई है" सावज्जजोगविरती उक्कित्तण गुणवओ य पडिवत्ती । खलियस्स दिणा वणतिगिच्छ गुणधारणा चेव ॥ ६. धवला मे नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेप भेदों का निर्देश करते हुए उन्हें 'जीवस्थान' के साथ योजित किया गया है। 3 अनुयोगद्वार में 'निक्षेप' अनुयोगद्वार के प्रसंग में सर्वप्रथम उसके इन तीन भेदों का निर्देश इस प्रकार है - प्रोघनिष्पन्न, नाम निष्पन्न और सूत्रालापकनिष्पन्न | तत्पश्चात् ओघनिष्पन्न के अध्ययन, अक्षीण, आय और क्षपणा इन चार भेदों का निर्देश करते हुए उनमें अध्ययन को नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से चार प्रकार का कहा है । आगे उनका स्पष्टीकरण किया गया है। इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में प्रसंग के अनुसार कुछ विशेषता के होने पर भी नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन निक्षेप भेदों की अपेक्षा समानता रही है । १०. धवला में जीवस्थानविषयक अवतार के जिन उपक्रम आदि चार भेदों का निर्देश किया गया है उनमें चौथा भेद नय रहा है । उसके विषय में विचार करते हुए धवला में प्रथमतः उसके द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो भेदों का निर्देश किया गया है । पश्चात् द्रव्यार्थिक को नैगम, संग्रह और व्यवहार के भेद से तीन प्रकार का तथा पर्यायार्थिक को अर्थनय और व्यंजन-नय के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। आगे उनके विषय में कुछ और स्पष्ट करते हुए अर्थनय के नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार भेद तथा व्यंजननय के शब्द, समभिरूढ और एवम्भूत ये तीन भेद बतलाये हैं । अनुयोगद्वार में 'सामायिक' अध्ययन के विषय में जिन चार अनुयोगद्वारों का निर्देश है उनमें अन्तिम नय-अनुयोगद्वार है । उसके विषय में विचार करते हुए वहाँ ये सात मूलनय कहे गये हैं—नगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवम्भूत इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में उन सात नयों का उल्लेख समान रूप में ही किया गया है । १. धवला, पु० १, पृ० ८२ । इनमें से 'जीवस्थान' में प्रमेय प्ररूपणा के आश्रय से एक ही अर्थाधिकार कहा गया है । पर आगे उसी उपक्रमादि चार प्रकार के अवतार की प्ररूपणा के प्रसंग में पूर्वोक्त 'तिविहाय प्राणुपुव्वी' आदि गाथागत ' विविहो' पाठान्तर के अनुसार अधिकार को अनेक प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है । (पु० पृ० १४०) २. अनुयोगद्वार सूत्र ५२६ ( यह गाथा इसके पूर्व आवश्यक के अर्थाधिकार के प्रसंग में भी आ चुकी है -- सूत्र ७३, गाथा ६) ३. धवला, पु० १, पृ० ८३ ४. अनुयोगद्वार, सूत्र ५३४-४६ ५. धवला, पु० १, पृ० ८३ ६१ द्रष्टव्य हैं । ६. अनुयोगद्वार, सूत्र ६०६ व गाथा १३६-३६ षट्खण्डागम की अन्य प्रथों से तुलना / २७३ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषता यह रही है कि धवला में मूल में नय के द्रव्यार्थिक और पर्यायायिक इन दो भेदों का निर्देश किया गया है । इनमें द्रव्याथिक को नैगम, संग्रह और व्यवहार के भेद से तीन प्रकार का तथा पर्यायार्थिक को अर्थनय और व्यंजननय के भेद से दो प्रकार का कहा है। इनमें ऋजुसूत्र को अर्थनय तथा शब्द, समभिरूढ और एवम्भूत को व्यंजन नय कहा गया है। इस प्रकार धवला में जहाँ उपर्युक्त नगमादि सात नयों का उल्लेख नय के अवान्तर भेदों में हुआ है वहाँ अनुयोगद्वार में उन्हीं सात नयों का उल्लेख मूलनय के रूप में हुआ है । शब्द, समभिरूढ और एवम्भूत ये तीन नय अनुयोगद्वार के कर्ता को भी शब्दनय के रूप में अभिप्रेत रहे हैं । यही कारण है कि उन्होंने अनेक प्रसंगों पर 'तिन्ह सद्दणयाणं' या 'तिष्णि सद्दणया' ऐसा संकेत किया है । जैसे-सूत्र १५ (५), ५७ (५), ४७४, ४७५, ४८३ (५), ४६१ व ५२५ (३) । जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है, यहाँ यह स्मरणीय है कि मूल षट्खण्डागम में सर्वत्र नैगम, व्यवहार, संग्रह, ऋजुसूत्र और शब्द ये पाँच नय ही व्यवहृत हुए हैं तथा उनकी प्ररूपणा का क्रम भी यही रहा है । ११. 'अनुगम' यह विवक्षित ग्रन्थविषयक अवतार का तीसरा या चौथा भेद रहा है ! जीवस्थान के अवतार के प्रसंग में उसके चौथे भेदभूत अनुगम के अन्तर्गत 'एत्तो इमेसि चोद्दसह इस सूत्र (१,१, ४) के प्रारम्भ के पूर्व उसकी उत्थानिका के रूप में 'अणुगमं वत्त इस्सामी' इतना मात्र धवला में कहा गया है, वहाँ उसका और कुछ विशेष स्पष्टीकरण नहीं किया गया है ।" किन्तु आगे जाकर सभी ग्रन्थों के अवतार को उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय के भेद से चार प्रकार का निर्दिष्ट किया है। आगे उसे स्पष्ट करते हुए धवलामें कहा गया है कि जिसमें अथवा जिसके द्वारा वक्तव्य की प्ररूपणा की जाती है उसका नाम अनुगम है । इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा है कि 'अधिकार' संज्ञावाले अनुयोगद्वारों के जो अधिकार होते हैं उनको अनुगम कहा जाता है। उदाहरण के रूप में वहाँ कहा गया है कि जैसे वेदना अनुयोगद्वार में पदमीमांसा आदि अधिकार । आगे कहा गया है कि यह अनुगम अनेक प्रकार का है, क्योंकि इसकी संख्या का कुछ नियम नहीं है । इसी प्रसंग में वहाँ प्रकारान्तर से यह भी कहा गया है – 'अथवा अनुगम्यन्ते जीवादयः पदार्था अनेनेत्यनुगमः । किम् ? प्रमाणम् ।' इस निरुक्ति के अनुसार अनुगम को प्रमाण बतलाते हुए उसकी वहाँ प्रत्यक्षपरोक्ष आदि भेद-प्रभेदों में विस्तार से प्ररूपणा है । * इसी सिलसिले में आगे प्रसंगप्राप्त एक शंका के समाधान में प्रकारान्तर से 'अथवा अन् परिच्छिद्यन्ते इति अनुगमाः इस निरुक्ति के अनुसार छह द्रव्यों को अनुगम कहा गया है । १. धवला पु० १, पृ० ६१ २. धवला पु० ६, पृ० १३४ ३. इन अधिकारों के लिए ये सूत्र द्रष्टव्य हैं – ४,२, ४, १ (पु० १०) तथा सूत्र ४, २, ५, १-२ और ४, २, ६, १-२ ( पु० ११) । ४. धवला पु० ६, पृ० १४१-४२ व आगे प्रमाणप्ररूपणा के लिए पृ० १४२-६२ द्रष्टव्य है । ५. धवला पु० ६, पृ० १६२ २७४ / षट्खण्डागम-परिशी Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयोगद्वार में अनुगम के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं— सूत्रानुगम और नियुक्त्यनुगम । इनमें नियुक्त्यनुगम निक्षेपनिर्युक्त्यनुगम, उपघातनिर्युक्त्यनुगम और सूत्र स्पर्शिक निर्युक्त्यनुगम के भेद से तीन प्रकार का कहा गया है। उनमें निक्षेपनिर्युक्त्यनुगम को 'अनुगत' कहकर 'उपघातनिर्युक्त्यनुगम इन दो गाथाओं के द्वारा अनुगन्तव्य है' ऐसी सूचना करते हुए दो गाथाओं में उसके २६ भेदों का निर्देश है । तत्पश्चात् सूत्र स्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगम की चर्चा की गई है ।' (धवला पु० ६ ) इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में जो अनुगमविषयक चर्चा है उसमें कुछ समानता दृष्टिगोचर नहीं होती । तद्विषयक दोनों ग्रन्थों की वह विवेचन पद्धति भिन्न है । उपसंहार इस प्रकार यद्यपि इन दोनों ग्रन्थों में विषय-विवेचन की दृष्टि से बहुत कुछ समानता देखी जाती है, फिर भी उनमें अपनी-अपनी कुछ विशेषताएँ भी हैं, जो इस प्रकार हैं धवला में जो पूर्वोक्त 'तिविहा य आणुपुब्वी' आदि गाथा उद्धृत की गई है वह अनुयोगद्वार की अपेक्षा भिन्न परम्परा की रही प्रतीत होती है। उसके कारण ये हैं (१) पूर्वनिर्दिष्ट गाथा में आनुपूर्वी के जिन तीन भेदों का निर्देश है उनका उल्लेख धवला में इस प्रकार किया गया है—१. पूर्वानुपूर्वी, २. पश्चादानुपूर्वी और ३. यथातथानुपूर्वी । अनुयोगद्वार में सर्वप्रथम उसके नामानुपूर्वी आदि दस भेदों का निर्देश किया गया है। उन दस भेदों में तीसरा भेद जो द्रव्यानुपूर्वी के ज्ञायकशरीर आदि तीन भेदों में तीसरे भेदभूत शायकशरीर भवियशरीर-व्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-औपनिधिकी और अनोपनिधिकी। इनमें औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के भी तीन भेद प्रकट किये गये हैं - १. पूर्वानुपूर्वी, २. पश्चादानुपूर्वी और ३. अनानुपूर्वी । इनमें पूर्व के दो भेद तो धवला और अनुयोगद्वार दोनों में समान हैं । किन्तु तीसरा भेद धवला में जहाँ यथातथानुपूर्वी निर्दिष्ट है वहाँ अनुयोगद्वार में उसका उल्लेख 'अनानुपूर्वी' के रूप में किया गया है । अनानुपूर्वी का उल्लेख अनुयोगद्वार में प्रसंगानुसार अनेक बार करने पर भी वहाँ 'यथातथानुपूर्वी' का उल्लेख कहीं भी नहीं है। उधर धवला में 'अनानुपूर्वी' का उल्लेख भी जहाँ कहीं हुआ । धवला में यथातथानुपूर्वी के स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा है कि अनुलोम और प्रतिलोम क्रम के विना जो जिस किसी भी प्रकार से कथन किया जाता है उसका नाम यथातथानुपूर्वी है। इसके लिए वहाँ एक गाथा के द्वारा शिवादेवी माता के वत्स ( नेमिजिनेन्द्र ) का उदाहरण दिया गया है । यहाँ नेमि जिनेद्र का जयकार न तो ऋषभादि के अनुलोम क्रम से किया गया है और न वर्धमान आदि के प्रतिलोमक्रम से ही । अनुयोगद्वार में प्रकृत अनानुपूर्वी का स्वरूप प्रसंग के अनुसार इस प्रकार कहा गया है १. अनुयोगद्वार, सूत्र ६०१-५ २. सूत्र १३५,१६०,१७२, १७६,२०१ (१), २०२ (१), २०३ (१), २०४ (१), २०५ (१), २०६ (१), २०७ (१) इत्यादि । षट्खण्डागम की अन्य प्रन्थों से तुलना / २७५ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक को आदि करके उत्तरोत्तर एक अधिक के क्रम से गच्छर (प्रकृत में ६) प्रमाणगत श्रेणि में उनको परस्पर गुणित करने पर जो प्राप्त हो उसमें दो (२) अंक कम । (सूत्र १३४ आदि) (२) उक्त गाथा में मान के छह भेदों की सूचना की गई है। तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार मान के छह भेद ये हैं -मान, उन्मान, अवमान, गणना, प्रतिमान और तत्प्रमाण । वहां सामान्य से मान के जो लौकिक और लोकोत्तर-मान ये दो भेद निर्दिष्ट किये हैं उनमें उपर्युक्त छह भेद लौकिक मान के हैं।' अनुयोगद्वार में प्रमाण को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार का कहा गया है। इनमें द्रव्य-प्रमाण के प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न इन दो भेदों में से विभाग निष्पन्न द्रव्यप्रमाण के पाँच भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-मान, उन्मान, अवमान, गणिम और प्रतिमान । ये पांच भेद तत्त्वार्थवार्तिक में निर्दिष्ट लौकिक मान के छह भेदों के अन्तर्गत हैं। पर उसका छठा भेद 'तत्प्रमाण' अनुयोगद्वार में नहीं है। यह ज्ञातव्य है कि धवलाकार ने तत्त्वार्थवार्तिक का अनुसरण अनेक प्रसंगों में किया है। इस प्रकार धवला और अनुयोगद्वार में की गई यह मानविषयक प्ररूपणा भी भिन्न परम्परा का अनुसरण करती है। (३) धवला में पूर्वोक्त गाथा के अनुसार अर्थाधिकार के ये तीन भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-प्रमाण, प्रमेय और तदुभय । इनमें से 'जीवस्थान' में एक प्रमेय अधिकार ही कहा गया है, क्योंकि उसमें प्रमेय की ही प्ररूपणा है। ____जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, अनुयोगद्वार में अर्थाधिकार के किन्हीं भेदों का निर्देश न करके इतना मात्र कहा गया है कि जो जिस अध्ययन का अर्थाधिकार है। (४) षट्खण्डागम और अनुयोगद्वार में यथाक्रम से जो पाँच और सात नयों का उल्लेख है वह भिन्न परम्परा का सूचक है। धवला में जो मूल में द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक तथा अर्थनय और व्यंजननय इन दो भेदों के उल्लेखपूर्वक सात नयों का विचार किया गया है उसका आधार तत्त्वार्थसूत्र व उसकी सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवातिक व्याख्याएँ रही हैं । १. त० वा० ३,३८,२-३ २. त० वा० में ये चार भेद लोकोत्तर मान के कहे गये हैं (३,३८,४)। वहां प्रागे द्रव्यप्रमाण के संख्या और उपमान इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनकी विस्तार से प्ररूपणा की गई है। (३,३८,५-८) ३. अनुयोगद्वार सूत्र ३१३-१६ (आगे इनके भेद-प्रभेदों की जो वहाँ चर्चा की गई है वह भी तत्त्वार्थवार्तिक से भिन्न है)। ४. अनुयोगद्वार, सूत्र ५२६ ५. त० सूत्र १-३३, तत्त्वार्थाधिगमभाष्य सम्मत सूत्रपाठ के अनुसार मूल में नय पांच प्रकार का है--नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द । इनमें देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी के भेद से नैगमनय दो प्रकार का तथा साम्प्रत, समभिरूढ और एवम्भूत के भेद से शब्दनय तीन प्रकार का है। (त० भाष्य १, ३४-३५) २७६/ षट्खण्डागम-परिशी . Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. षट्खण्डागम और नन्दिसूत्र नन्दिसूत्र को चूलिकासूत्र माना जाता है। उसके रचयिता आचार्य देवद्धि का समय विक्रम संवत् ५२३ के पूर्व अनुमानित है।' ____ इसमें सर्वप्रथम तीन गाथाओं के द्वारा भगवान् महावीर का गुणकीर्तन किया गया है। पश्चात् १४ (४-१७) गाथाओं में संघचक्र को नमस्कार करते हुए उसका गुणानुवाद किया गया है। अनन्तर चौबीस तीर्थंकरों (१८-१६) और भगवान् महावीर के ग्यारह गणधरों के नामों का उल्लेख (२०-२१) करते हुए वीर शासन का जयकार किया गया है (२२)। तत्पश्चात् इक्कीस (२३-४३) गाथाओं में सुधर्मादि दूष्यगणि पर्यन्त स्थविरों के स्मरणपूर्वक अन्य कालिकश्रुतानुयोगियों को प्रणाम करते हुए ज्ञान की प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा की गई है। यहाँ यह स्मरणीय है कि इस स्थविरावलि में आर्य मंगु (आर्य मंच, गा० २८) और आर्य नागहस्ती (३०) के अनेक गुणों का उल्लेख करते हुए उनका स्मरण किया गया है। इन दोनों आचार्यप्रवरों को दिगम्बर सम्प्रदाय में भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। आगे वहाँ १४ प्रकार से श्रोताओं का निर्देश करते हुए शिका, अज्ञिका और दुर्विदग्धा के भेद से तीन प्रकार की परिषद् का उल्लेख है। (सू० ७, गा० ४४) इस नन्दिसूत्र में जो ज्ञान की प्ररूपणा की गई है उसकी प्रस्तुत षट्खण्डागम में की गई ज्ञान की प्ररूपणा के साथ कहाँ कितनी समानता-असमानता है, इसका यहाँ विचार किया जाता है १. षट्खण्डागम के पूर्वनिर्दिष्ट 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणीय की प्रकृतियों का निरूपण करते हुए वहाँ सर्वप्रथम ज्ञानावरणीय के इन पांच भेदों का निर्देश किया गया है---- आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्ययज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय। __ नन्दिसूत्र में उक्त पांच ज्ञानावरणीय प्रकृतियों के द्वारा प्राव्रियमाण इन पांच ज्ञानों का निर्देश किया गया है-आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान। १. महावीर जैन विद्यालय से प्रकाशित संस्करण की गुजराती प्रस्तावना, पृ० ३२-३३ २. धवला पु० २, पृ० २३२; पु० १५, पृ० ३२७ और पु० १६, पृ० ५१८ व ५२२ । जयधवला के प्रारम्भ में उन दोनों आचार्यों का उल्लेख इस प्रकार किया गया है -- गुणहरवयणविणिग्गयगाहाणत्थोऽवहारियो सव्वो। जेणज्जमखुणा सो सणागहत्थी वरं देऊ ।।७।। जो अज्जमखुसीसो अंतेवासी वि णागहत्थिस्स । सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो मे वरं देऊ ।।८।। __(विशेष जानकारी के लिए जयपुर, 'महावीर स्मारिका' (१९८३) में प्रकाशित 'आचार्य आर्यमंक्षु और नागहस्ती' शीर्षक लेख द्रष्टव्य है)। ३. ष० ख० सूत्र ५,५,२०-२१ (पु० १३) ४. नन्दिसूत्र ८ षट्खण्डागम की अन्य प्रन्थों से तुलना | २७७ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ यह स्मरणीय है कि ष० ख० में जहाँ प्रसंगवश उन उन ज्ञानों की आवारक ज्ञानापरणीय प्रकृतियों का निर्देश है वहाँ नन्दिसूत्र में ज्ञानावरणीय प्रकृतियों के द्वारा आश्रियमाण ज्ञानों का निर्देश हुआ है। नन्दिसूत्र में आगे ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनमें प्रत्यक्ष के ये दो भेद प्रकट किये गये हैं--इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रियप्रत्यक्ष । इनमें भी नोइन्द्रियप्रत्यक्ष को अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान के भेद से तीन प्रकार का कहा गया है।' प० ख० में इस प्रकार से इन ज्ञानभेदों या उनकी आवारक कर्मप्रकृतियों का कुछ भी उल्लेख नहीं है। २. षट्खण्डागम में आगे उक्त पाँच ज्ञानावरणीय प्रकृतियों में से प्राभिनिबोधिकज्ञानावरणीय के चार, चौबीस, अट्ठाईस और बत्तीस भेदों को ज्ञातव्य कहते हुए उनमें चार भेदों का उल्लेख इस प्रकार किया गया है-अवग्रहावरणीय, ईहावरणीय, अवायावरणीय और धारणावरणीय । इनमें अवग्रहावरणीय अर्थावग्रहावरणीय और व्यंजनावग्रहावरणीय के भेद से दो प्रकार का है। आगे अर्थावग्रहावरणीय को स्थगित करके व्यंजनावग्रहावरणीय के ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं—श्रोत्रेन्द्रिय व्यंजनावग्रहावरणीय, घ्राणेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरणीय, जिह्वन्द्रिय-व्यंजनावग्रहावरणीय और स्पर्शनेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरणीय । तत्पश्चात् स्थगित किये गये उस अर्थावग्रहावरणीय के इन छह भेदों का निर्देश है-चक्षुइन्द्रियअर्थावग्रहावरणीय, श्रोत्रेन्द्रियअर्थावग्रहावरणीय, घ्राणेन्द्रियअर्थावग्रहावरणीय, जिहन्द्रिय अर्थावग्रहावरणीय, स्पर्शनेन्द्रिय अर्थावग्रहावरणीय और नोइन्द्रिय अर्थावग्रहावरणीय । आगे इसी क्रम से ईहावरणीय, अवायावरणीय और धारणावरणीय इनमें से प्रत्येक के भी छह-छह भेदों का निर्देश किया गया है। ___ नन्दिसूत्र में पूर्वोक्त पाँच ज्ञानभेदों में से आभिनिबोधिकज्ञान के श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत ये दो भेद प्रकट किये गये हैं। इनमें अश्रुतनिःसृत चार प्रकार का है-औत्पत्तिकी, वनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी बुद्धि । १० ख० में इन श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत आभिनिबोधिकज्ञानभेदों या उनके आवारक शानावरणीय भेदों का कहीं भी उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार अश्रुतनिःसृत के प्रोत्पत्तिकी आदि चार भेद के विषय में भी वहाँ कुछ भी निर्देश नहीं है। ष० ख० की धवला टीका में प्रज्ञाऋद्धि के भेदभूत उन औत्पत्तिकी आदि चारों के स्वरूप को अवश्य स्पष्ट किया गया है। नन्दिसूत्र में आगे इसी प्रसंग में पूर्वोक्त श्रुतनिःसृत आभिानबोधिकज्ञान के ये चार भेद १. अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष या अतीन्द्रियप्रत्यक्ष ये नोइन्द्रियप्रत्यक्ष के नामान्तर हैं । नन्दिसूत्र __ हरि० वृत्ति (पृ० २८) और अनु० हेम० वृत्ति (पृ० २१२) द्रष्टव्य हैं । २. ५० ख० सूत्र ५,५,२२-३३ ३. नन्दिसूत्र ४६-४७ (इनका स्वरूप गाथा ५८,५६,६०-६३, ६४-६६ और ६७-७१ में निर्दिष्ट किया गया है)। ४. धवला पु०६, पृ० ८१-८३ २७८ / पदसण्डागम-परिशीलन Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्दिष्ट हैं— अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । इनमें अवग्रह दो प्रकार का है - अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह | व्यंजनावग्रह चार प्रकार का है— श्रोत्रेन्द्रियव्यंजनावग्रह, घ्राणेन्द्रियव्यंजनावग्रह, जिह्वन्द्रियव्यंजनावग्रह और स्पर्शेन्द्रियव्यंजनावग्रह | अर्थावग्रह के ये छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं— श्रोत्रेन्द्रियअर्थावग्रह, चक्षुइन्द्रियअर्थावग्रह, घ्राणेन्द्रियअर्थावग्रह, जिह्नन्द्रियअर्थावग्रह, स्पर्शेन्द्रियअर्थावग्रह और नोइन्द्रियप्रर्थावग्रह । आगे इसी क्रम से ईहा, अवाय और धारणा इनमें से प्रत्येक के भी इन छह भेदों का उल्लेख पृथक्-पृथक् किया गया है ।' इस प्रकार इन दोनों ग्रन्थों में आवारक ज्ञानावरणीय के और आव्रियमाण ज्ञान के उपर्युक्त भेदों में पूर्णतया समानता देखी जाती है । प्ररूपणा का क्रम भी दोनों ग्रन्थों में समान है । षट्खण्डागम में आगे इसी प्रसंग में उस आभिनिबोधिक ज्ञानवरणीय के ४,२४,२८,३२,४८, १४४,१६८,१६२,२८८, ३३६ और ३८४ इन भेदों का ज्ञातव्य के रूप निर्देशमात्र है । " नन्दिसूत्र में षट्खण्डागम में निर्दिष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय के भेदों के समान आभिनिबोधिक ज्ञान के भेदों का कहीं भी उल्लेख नहीं है । ३. षट्खण्डागम में आगे 'उसी आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्म की प्ररूपणा की जाती है' ऐसी सूचना करते हुए उक्त अवग्रहादि चार ज्ञानों के पृथक्-पृथक् समानार्थक शब्दों का यथाक्रम से निर्देश है । नन्दिसूत्र में भी अवग्रहादि चार के समानार्थक शब्दों का निर्देश पृथक्-पृथक् उसी प्रकार से किया गया है । तुलना के लिए दोनों ग्रन्थों में निर्दिष्ट समानार्थक शब्दों का उल्लेख यहाँ साथ-साथ किया जाता है (१) अवग्रह अवग्रह, अवदान, सान, अवलम्बना और मेधा । ( ष० ख० ५,५, ३७, पु० १३ ) अवग्रहणता, उपधारणता, श्रवणता, अवलम्बनता और मेधा । ( नन्दिसूत्र ५१ [२] ) (२) ईहा ईहा, ऊहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा और मीमांसा । ( ष०ख० ५,५, ३८ ) आभोगनता, मार्गणता, गवेषणता, चिन्ता और विमर्श । ( नन्दिसूत्र ५२ [२]) (३) अवाय -- वाय, व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञानी (विज्ञप्ति), आमुण्डा और प्रत्यामुण्डा । ( ष० ख० ५,५, ३९ ) अवार्तनता, प्रत्यावर्तनता, अपाय, बुद्धि और विज्ञान । ( नन्दिसूत्र ५३ [२]) (४) धारणा - धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा । ( ष० ख० ५,५,४० ) धरणा, धारणा, स्थापना, प्रतिष्ठा और कोष्ठा । ( नन्दिसूत्र ५४ [२]) १. नन्दिसूत्र, पृ० ४८-५४ २. षट्खण्डागम सूत्र ५, ५.३५, (पु० १३) । इन भेदों का स्पष्टीकरण धवला में किया गया है । पृ० २३४-४१ पट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २७६ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) सामान्य मतिज्ञान संज्ञा, स्मृति, मति और चिन्ता । (ष०ख० ५,५,४१) ईहा, अपोह, मीमांसा, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति और प्रज्ञा । (नन्दिसूत्र ६०, गाथा ७७) दोनों ग्रन्थगत इन शब्दों में कितनी अधिक समानता है, यह इन विशेष शब्दों के देखने से स्पष्ट हो जाता है। नन्दिसत्रगत सामान्य आभिनिबोधिकज्ञान के पर्याय शब्दों में जो ईहा, अपोह, मीमांसा, मार्गणा और गवेषणा ये पांच शब्द हैं वे ष०ख० में ईहा के समानार्थक शब्दों के अन्तर्गत हैं । नन्दिसूत्रगत ईहा के एकार्थक शब्दों में भी उनमें से मार्गणता, गवेषणता और विमर्श (मीमांसा) ये तीन शब्द हैं ही। इसके अतिरिक्त प्रतिलिपि करते समय में भी शब्दों में कुछ भेद का हो जाना असम्भव नहीं है। विशेषकर प्राकृत शब्दों के संस्कृत रूपान्तर में भी भेद हो जाया करता है। दोनों गन्थों में आगे जो श्रुतज्ञान की प्ररूपणा की गई है उसमें कुछ समानता नहीं है । षट्खण्डागम में जहाँ श्रुतज्ञान के प्रसंग में उनके पर्याय व पर्यायसमास आदि बीस भेदों का उल्लेख है वहाँ नन्दिसूत्र में उसके प्रसंग में आचारादि भेदों में विभक्त श्रुत की विस्तार से प्ररूपणा की गई है। ४. षट्खण्डागम में अवधिज्ञानावरणीय के प्रसंग में अवधिज्ञान के भवप्रत्ययिक और गुणप्रत्ययिक ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। आगे इनके स्वामियों का उल्लेख करते हुए वहाँ कहा गया है कि भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान देवों और नारकियों के तथा गणप्रत्ययिक तिर्यंचों और मनुष्यों के होता है । तत्पश्चात् उस अवधिज्ञान को अनेक प्रकार का बतलाते हुए उनमें से कुछ भेदों का निर्देश इस प्रकार किया गया है--देशावधि, परमावधि, सर्वावधि, हीयमान, वर्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, सप्रतिपाति, अप्रतिपाति, एकक्षेत्र और अनेक क्षेत्र ।' नन्दिसूध में भी अवधिज्ञान के भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनमें भवप्रत्ययिक देवों और नारकियों के तथा क्षायोपशमिक मनुष्यों और पंचेन्द्रिय तियंचों के होता है, यह स्पष्ट किया गया है । आगे वहाँ प्रकारान्तर से यह भी कहा गया हैअथवा गुणप्रत्ययिक अनगार के जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता है वह छह प्रकार का होता हैआनुगामिक, अनानुगामिक, वर्धमान, हीयमान, प्रतिपाति और अप्रतिपाति । आगे वहाँ उपसंहार करते हए यह भी कहा है कि भवप्रत्ययिक और गणप्रत्ययिक इस दो प्रकार के अवधिज्ञान का वर्णन किया जा चुका है । उसके द्रव्य, क्षेत्र और काल के आश्रय से अनेक भेद हैं। इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में प्रकृत अवधिज्ञान के भेदों और उनके स्वामियों के निर्देश में १. ष० ख०, सूत्र ५,५,५१-५६ २. नन्दिसूत्र १३-१५ ३. 'ओही भवपच्चइओ गुणपच्चइओ य वण्णिओ एसो। तस्स य बहूवियप्पा दव्वे खेत्ते य काले य ।।'-नन्दिसूत्र २६, गा० ५३ २९० / षट्लण्डागम-परिशीलन Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णतया समानता है । विशेष इतना है कि ष० ख० में जहाँ उसके दूसरे भेद का उल्लेख गुणप्रत्ययिक के नाम से किया गया है वहाँ नन्दिसूत्र में उसका निर्देश प्रथमतः क्षायोपशमिक के नाम से और तत्पश्चात् प्रसंग का उपसंहार करते हुए गुणप्रत्ययिक के नाम से भी किया गया है । इसी प्रकार षट्खण्डागम में जहाँ उसके देशावधि आदि कुछ भेदों का निर्देश करते हुए उसे अनेक प्रकार का कहा गया है वहाँ नन्दिसूत्र में उसके निश्चित छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं । ० ख० में उसके जिन कुछ भेदों का निर्देश किया गया है, नन्दिसूत्र में निर्दिष्ट उसके वे छहों भेद समाविष्ट हैं । ० ख० में निर्दिष्ट देशावधि, परमावधि, सर्वावधि, अवस्थित, अनवस्थित, एक क्षेत्र और अनेक क्षेत्र इन अन्य भेदों का निर्देश नन्दिसूत्र में नहीं है । क्षायोपशमिक और गुणप्रत्ययिक इन दोनों में यह भेद समझना चाहिए कि क्षायोपशमिक जहाँ व्यापक है वहाँ गुणप्रत्ययिक व्याप्य है । कारण यह कि अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम विभंगज्ञान के स्वामी मिथ्यादृष्टियों और अवधिज्ञान के स्वामी सम्यग्दृष्टियों दोनों के होता है, परन्तु अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा रखनेवाला गुणप्रत्ययिक अवधिज्ञान सम्यग्दृष्टियों के ही होता है, मिध्यादृष्टियों के वह सम्भव नहीं है । 'गुण' शब्द से यहाँ सम्यक्त्व, अणुव्रत और महाव्रत अभिप्रेत हैं ।' नन्दिसूत्र में उस छह प्रकार के गुणप्रत्ययिकअवधिज्ञान के स्वामी के रूप में जो अनगार का निर्देश है उसका भी यही अभिप्राय है । ५. षट्खण्डागम में अवधिज्ञान के जघन्य क्षेत्र को प्रकट करते हुए कहा गया है कि सूक्ष्म निगोद जीव की नियम से जितनी अवगाहना होती है उतने क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अवधिज्ञान होता है । नन्दिसूत्र में भी यही कहा गया है कि तीन समयवर्ती सूक्ष्म निगोद जीव की जितनी जघन्य अवगाहना होती है उतना अवधिज्ञान का जधन्य क्षेत्र है । दोनों ग्रन्थों में इस अभिप्राय की सूचक जो गाथा उपलब्ध होती हैं उनमें बहुत कुछ समानता है । यथा ओगाहणा जहण्णा नियमा दु सुहुमणिगोवजीवस्स । जद्द ही तद्द ही अहणिया खेत्तदो ओही ॥ - ष० ख० गाथा सूत्र ३, पु० १३, पृ० ३०१ जावतिया तिसमयाहारगस्स सुहुमस्स पणगजीवस्स । ओगाहणा जहन्ना ओहीखेतं जहन्नं तु ॥ -- नन्दिसूत्र गाथा ४५, सूत्र २४ ० ख० के उस गाथासूत्र में यद्यपि 'तिसमयाहारगस्स' पद नहीं है, पर उसके अभिप्राय को व्यक्त करते हुए धवलाकार ने 'तदियसमयआहार तदियसमयतब्भवत्थस्स' ऐसा कहकर १. अणुव्रत - महाव्रतानि सम्यक्त्वाधिष्ठानानि गुणः कारणं यस्यावधिज्ञानस्य तद्गुणप्रत्ययकम् । - धवला पु० १३, पृ० २६१-६२ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २८१ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह स्पष्ट कर दिया है कि तृतीय समयवर्ती आहारक और तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ हुए सूक्ष्म निगोद जीव की जघन्य अवगाहना के प्रमाण अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र है ६. आगे षट्खण्डागम में अवधि के विषयभूत क्षेत्र से सम्बद्ध काल की अथवा काल से सम्बद्ध क्षेत्र की प्ररूपणा में जो चार गाथाएँ आयी हैं वे नन्दिसूत्र में भी समान रूप में उसी क्रम से उपलब्ध होती हैं ।' विशेष इतना है कि उन चार गाथाओं में जो दूसरी गाथा है उसमें शब्दसाम्य के होने पर भी शब्दक्रम के विन्यास में भेद होने से अभिप्राय में भेद हो गया है । वह गाथा इस प्रकार है आवलिययुधत्तं घणहत्थो तह गाउअं मुहुत्तंतो । जोयण भिण्णमुहत्तं दिवसंतो पण्णवीसं तु ॥ -- ष० ख० पु० १३, पृ० ३०६, गा० ५ हत्थम्मि मुहुत्तंतो दिवसंतो गाउयम्मि बोद्धव्वो । जोयण दिवसपुहुतं पक्खंतो पण्णवीसाओ ॥ - नन्दिसूत्र, गाथा ४८ यहाँ ष० ख० में जहाँ घनहस्त प्रमाण क्षेत्र के साथ काल आवलिपृथक्त्व, घनगव्यूति के साथ अन्तर्मुहूर्त, घनयोजन के साथ भिन्नमुहूर्त और पच्चीस योजन के साथ काल दिवसान्त--- कुछ कम एक दिन - निर्दिष्ट किया गया है वहाँ नन्दिसूत्र में हस्तप्रमाण क्षेत्र के साथ काल अन्तर्मुहूर्त, गव्यूति के साथ दिवसान्त, योजन के साथ दिवसपृथक्त्व और पच्चीस योजन के साथ काल पक्षान्त कहा गया है । इस विषय में परस्पर मतभेद ही रहा है या प्रतियों में कुछ पाठ-भेद हो जाने के कारण वैसा हुआ है, कुछ कहा नहीं जा सकता । आगे की दो गाथाओं में भरतादि प्रमाण क्षेत्र के साथ जिस अर्धमास आदिरूप कालक्रम का निर्देश है वह दोनों ग्रन्थों में सर्वथा समान है । ७. ठीक इसके अनन्तर दोनों ग्रन्थों में यथायोग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सम्बन्धी वृद्धि की सूचक जो “कालो चदुण्ण वुड्ढी" गाथा उपलब्ध होती है वह शब्द और अर्थ दोनों की अपेक्षा प्रायः समान है। षट्खण्डागम में आगे एक गाथा के द्वारा यह बतलाया गया है कि जहाँ अवधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य तैजस शरीर, कार्मणशरीर, तैजसवर्गणा और भाषावर्गणा होता है वहाँ अवधिज्ञान का क्षेत्र असंख्यात द्वीप समुद्र और काल असंख्यात वर्षप्रमाण होता है। तत्पश्चात् वहाँ कुछ गाथाओं में व्यन्तरादि देवों, तिर्यंचों, नारकियों और मनुष्यों में यथासम्भव अवधिज्ञान के विषय को दिखलाया गया है । १. ष० ख० पु० १३, पृ० ३०४-८ में गा० ४-७ तथा नन्दिसूत्र २४, गा० ४७-५० । मूल में गाथाएँ महाबन्ध (१, पृ० २१ ) में भी रही हैं । २. यह गाथा महाबन्ध में उपलब्ध होती है । भा० १, पृ० २१ ३. ष० ख० पु० १३, पृ० ३०६, गा०८ और नन्दिसूत्र २४, गा० ५१ ४. ष० ख० पु० १३, पृ० ३१०-२७, गाथा ६-१७ २८२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्दिसूत्र में द्रव्य क्षेत्रादि से सम्बन्धित अवधिज्ञान के विषय की प्ररूपणा इस प्रकार से नहीं की गई है । वहाँ व्यन्तर देवों आदि के आश्रय से भी अवधिज्ञान के उस विषय को नहीं प्रकट किया गया है । नन्दसूत्र में वर्धमान अवधिज्ञान के इस प्रसंग को समाप्त करते हुए आगे हीयमान, प्रतिपाति और अप्रतिपाति अवधिज्ञान के स्वरूप को क्रम से दिखलाकर वे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा कितने विषय को जानते हैं, इसका विचार किया गया है ।" षट्खण्डागम मूल में अवधिज्ञान के इन भेदों के स्वरूप आदि का कुछ विचार नहीं किया गया जबकि धवला में उनके स्वरूपादि विषयों का उल्लेख है ।" ८. ष० ख० ( धवला) में पूर्वोक्त एक क्षेत्र और अनेक क्षेत्र अवधिज्ञान के भेदों का स्वरूप दिखलाते हुए उस प्रसंग में यह कहा गया है कि तीर्थंकर, देव और नारकियों का अवधिज्ञान अनेक क्षेत्र ही होता है, क्योंकि वे शरीर के सभी अवयवों के द्वारा अपने उस अवधिज्ञान के विषयभूत अर्थ को ग्रहण किया करते हैं। आगे धवला में 'वृत्तं च' ऐसा संकेत करते हुए यह गाथा उद्धृत की गई है— रइय-देव-तित्ययरोहि खेसस्स बाहिरं एवं । जाणंति सव्वदो खलु सेसा देसेण जाणंति ॥ - पु० १३, पृ० २६५ दिसूत्र में कुछ थोड़े से परिवर्तन के साथ इसी प्रकार की एक गाथा इस प्रकार उपलब्ध होती है नेरइय-देव- तित्थंकरा य ओहिस्सम्बा हिरा होंति । पासंति सम्वओ खलु सेसा देसेण पाति ॥ अन्य ज्ञातव्य नन्दिसूत्र में आगे अवग्रहादि के स्वरूप व उनके विषय को प्रकट करते हुए जो छह गाथाएँ (सूत्र ६०, गा० ७२-७७) उपलब्ध होती हैं उनमें "पुट्ठ सुणेइ सर्द" इत्यादि गाथा थोड़े से शब्दव्यत्यय के साथ 'आगमस्तावत्' इस सूचना के साथ सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में भी उद्धृत की गई है ।' x यह गाथा नन्दिसूत्र व सर्वार्थसिद्धि के पूर्व और कहाँ उपलब्ध होती है, यह अन्वेषणीय है । ऊपर निर्दिष्ट इन छह गाथाओं में दूसरी "भाषा समसेढीओ" आदि गाथा व्यंजनावग्रह -- नन्दिसूत्र २७, गाथा ५४ १. नन्दिसूत्र २५ - २८ २. धवला पु० १३, पृ० २६३-६६ ३. इस प्रसंग से सम्बद्ध ष० ख० के ये दो सूत्र द्रष्टव्य हैं - खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंठिदा । सिखिच्छ - कलस - संख-सोत्थिय-णंदावत्तादीणि संठाणाणि पादव्वाणि भवंति । — सूत्र ५,५, ५७-५८ ( पु० १३) ४. स० सि० १ १६; त० वा० १,१६,३ ५. यह गाथा० दि० पंचसंग्रह (१-६८) में भी उपलब्ध होती है । घट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २८३ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के प्रसंग में श्रोत्रेन्द्रिय के विषय का विचार करते हुए धवला में 'उक्तं च' के निर्देश पूर्वक उद्धृत है । विशेषावश्यक भाष्य में भी यह उपलब्ध होती है।' दोनों ग्रन्थों में आगे मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान की जो प्ररूपणा है वह कुछ भिन्न पद्धति से की गई है, अतः उसमें विशेष समानता नहीं है । विशेषता यह है कि षट्खण्डागम में जहाँ मन:पर्ययज्ञान के स्वामी प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ तक बतलाये गये हैं वहाँ नन्दिसूत्र में उसके स्वामी अप्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक ऋद्धिप्राप्त मनुष्य बतलाये गये हैं। १२. षट्खण्डागम (धवला) और दि० प्राकृत पंचसंग्रह __'पंचसंग्रह' नाम से प्रसिद्ध अनेक ग्रन्थ हैं, जो संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं में रचे गये हैं। उनमें यहाँ 'भारतीय ज्ञानपीठ' से प्रकाशित दि० सम्प्रदाय मान्य पंचसंग्रह अभिप्रेत है । यह किसके द्वारा रचा गया है या संकलित किया गया है, यह अभी तक अज्ञात ही बना हुआ है । पर इसकी रचना-पद्धति और विषय-विवेचन की प्रक्रिया को देखते हुए यह प्राचीन ग्रन्थ ही प्रतीत होता है । इसमें ये पांच प्रकरण हैं—१. जीवसमास, २. प्रकृतिसमुत्कीर्तन, ३. कर्मस्तव, ४. शतक और ५. सत्तरी । इनकी गाथा-संख्या क्रम से इस प्रकार है२०६+१२+७७-+-५२२ F५०७ -- १३२४ । इनमें मूल गाथाओं के साथ उनमें से बहुतों के स्पष्टीकरण में बहुत-सी भाष्य-गाथाएँ भी रची गई हैं, जिनकी संख्या लगभग ८६४ है । प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक दूसरे प्रकरण में कुछ गद्यभाग भी है । इन पाँच प्रकरणों में क्रम से कर्म के बन्धक (जीव), बध्यमान (कर्म), बन्धस्वामित्व, बन्ध के कारण और बन्ध के भेद; इनकी प्ररूपणा की गई है। प्रसंग के अनुसार वहाँ अन्य विषयों का-जैसे उदय व सत्त्व आदि का-भी निरूपण किया गया है । मूल षट्खण्डागम से प्रभावित प्रस्तुत पंचसंग्रह का दूसरा प्रकरण प्रकृतिसमुत्कीर्तन है। उसमें केवल दस ही गाथाएँ हैं, शेष गद्यभाग है। गाथाओं में प्रथम गाथा के द्वारा मंगलस्वरूप वीर जिनेन्द्र को नमस्कार करते हुए आगे दूसरी व तीसरी गाथा में क्रम से मूल प्रकृतियों के नामोल्लेखपूर्वक उनके विषय में पृथक्-पृथक् दृष्टान्त दिये गये हैं । चौथी गाथा में उन मूलप्रकृतियों के अन्तर्गत उत्तरप्रकृतियों की गाथासंख्या का क्रम से निर्देश है। आगे गद्यभाग में जो यथाक्रम से मलप्रकृतियों का उल्लेख किया गया है वह मूल षट्खण्डागम के प्रथम खण्डस्वरूप जीवस्थान की दूसरी चूलिका से प्रभावित है। इतना ही नहीं, इन दोनों ग्रन्थगत उस प्रकरण का नाम समान रूप में 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' ही उपलब्ध होता है । पंचसंग्रह के इस प्रकरण में जो गद्यभाग है उसमें अधिकांश पूर्वोक्त जीवस्थान की १. धवला पु० १३, पृ० २२४ व विशेषा० भाष्य ३५१ २. १० ख० सूत्र ५,५, ६०-७८ (पु० १३) और नन्दिसूत्र ३०-४२ ३. १० ख० सूत्र १,१, १२१ (पु० १) व नन्दिसूत्र ३३, विशेषकर सूत्र ३० [६] २८४ | षट्खण्डागम-परिशीलन . Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका से प्राय: जैसा का तैसा ले लिया गया है। उदाहरण स्वरूप दोनों की शब्दशः समानता इस प्रकार देखी जा सकती है "दंसणावरणीयस्स कम्मस्स णव पयडीओ। णिद्दाणिद्दा पयलापयला थीणगिद्धी णिद्दा पयला य चक्खुदंसणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं ओहिदंसणावरणीयं केवलदसणावरणीयं चेदि ।" -ष०ख० सूत्र १,१,१५-१६ (पु० ६) "जं दंसणावरणीयं कम्मं तं णवविहं-णिद्दाणिद्दा पयला-पयला थीणगिद्धी णिद्दा य पयला य। चक्खु दंसणावरणीयं अचक्खुदंसावरणीयं ओहिदसणावरणीयं केवलदसणावरणीयं चेदि ।" -पंचसंग्रह, पृ० ४५ जीवसमास व जीवस्थान पंचसंग्रह का प्रथम प्रकरण 'जीवसमास' है। उधर षट्खण्डागम का प्रथम खण्ड 'जीवस्थान' है। जीवस्थान का अर्थ है जीवों के स्थानों--उनके ऐकेन्द्रियादि भेद-प्रभेदों व उनकी जातियों का वर्णन करनेवाला प्रकरण । 'जीवसमास' का भी अभिप्राय वही है । पंचसंग्रहकार ने उसे स्पष्ट करते हुए स्वयं कहा है कि जिन विशेष धर्मों के आश्रय से अनेक जीवों और उनकी विविध जातियों का परिज्ञान हुआ करता है उन सबके संग्राहक प्रकरण का नाम जीवसमास है। आगे संग्रहकर्ता ने उसका दूसरा नाम स्वयं 'जीवस्थान' भी निर्दिष्ट किया है।' उन सब जीवस्थानों का वर्णन जिस प्रकार षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान में सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से विस्तारपूर्वक किया गया है उसी प्रकार उनका वर्णन इस पंचसंग्रह के 'जीवसमास' प्रकरण में भी विस्तार से हुआ है। षट्खण्डागम की टीका धवला में जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत विवक्षित विषयों को स्पष्ट करते हुए प्रसंगानुसार जिन पचासों प्राचीन गाथाओं को उद्धृत किया है उनमें अधिकांश उसी रूप में व उसी क्रम से पंचसंग्रह के इस जीवसमास नामक अधिकार में उपलब्ध होती. पंचसंग्रह गाथा (जीवसमास) क्रम संख्या गाथांश धवला पृ० २०० ३७३ ३५६ २७१ ३५१ अट्ठविहकम्मविजुदा अणुलोभं वेदंतो अत्थादो अत्यंतर अस्थि अणंता जीवा अप्प-परोभयबाधण १३२ १२२ ८५ १६६ १. जीवाणं वाणवण्णणादो जीवट्ठाणमिदि गोण्णपदं। -धवला पु० १, पृ० ७६ २. जेहि अणेया जीवा णज्जंते बहुविहा वि तज्जादी। ते पुण संगहिदत्था जीवसमासे त्ति विण्णेया ।। जीवट्ठाणवियप्पा चोद्दस इगिवीस तीस बत्तीसा। छत्तीस अट्टतीसाऽडयाल चउवण्ण सयवण्णा॥ -पंचसं० १,३२-३३ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना । २८५ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम संख्या ६. ७. ८. ह. १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८. १६. २०. २१. २२. २३. २४. २५. २६. २७. २८. २६. ३०. ३१. ३२. ३३. ३४. गाथांश अप्पप्पवृत्तिसंचिद अभिमु-हणियमियबोहण अवहीयदि ति ओही असहायणाण- दंसण अंतोमुहुत्तमज्झ अंतोमुहुत्तमज् आभीयमासुरक्खा आहरदि अणेण मुणी आहारदि सरीराणं आहारयमुत्तत्थं इंगाल - जाल - अच्ची उवसंते खीणे वा एक्कम्मि कालसमए एक्खेत्तो गाढं गोदरे एम्म गुणद्वा ओसा य हिमो धूमरि कम्मेव च कम्मभवं कारिस- तणिट्टिवागग्गि किण्हादिलेस्स रहिदा कुंथु - पिपीलिय-मक्कुण केवलणाण - दिवायर खीणे दंसणमोहे गुण-जीवा पज्जती चक्खूण जं पयासदि 91 33 चंडो ण मुयदि वेरं 11 "" चागी भद्दो चोक्खो 37 " चितियमचितियं वा छप्पंच-नवविहाणं .• १ " 33 "" "1 31 "" 19 "" " " 17 11 ४ १ 27 "1 13 17 " " 31 "3 २ १ 6 ू १ १६ १ १६ १ " धवला पृ० १३६ ३५६ ३५६ १६२ २६१ २६२ ३५८ २६४ १५२ २६४ २७३ ३७३ १८३ ३२७ २७० १८३ २७३ २६५ ३४२ ३६० २४३ १६१ ३६५ ४११ ३८२ १०० ३८८ ४६० ३६० ४६० ३६० ३६५ १. 'ओरालियमुत्तत्थं (धवला ) - अंतोमुहुत्तज्झ (पंचसंग्रह )' प्रथम चरण भिन्न । २. पंचसंग्रह - 'अंतोमुहुत्तमज्झं' (प्रथम चरण ) २८६ / षट्खण्डागम-परिशीलन पंचसंग्रह गाथा ( जीवसमास ) ७५ १२१ १२३ २६ ६४ ६६ ११६ ६७ १७६ ६८ ७६ १३३ २० ४६४ ८४ १८ ७८ ६६ १०८ १५३ ७१ २७ १६० १३६ "" १४४ 37 १५१ "" १२५ १५६ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम संख्या ३५. ३६. ३७. ३८. ३६. ४०. ४१. ४२. ४३. ४४. ४५. ४६. ४७. ४८. ४६. ५०. ५१. ५२. ५३. ५४. ५५. ५६. ५७. ५८. ५६. ६०. ६१. ६२. ६३. ६४. गाथांश छादेदि सयं दोसेण छेत्तूणय परियायं जत्थेक्कु मरइ जीवो जह कंचणमग्गिगयं जह भारवहो पुरिसो जं सामण्णं गहणं जाणइ कज्जमकज्जं 13 11 जाणइतिकालसहिए जादि पस्सदि भुंजदि जीवा चोट्सभेया जेसि ण संति जोगा जेहि दुलक्खिज्जते जीणेव सच्च- मोसो जो तसवहा उविरदो ण उ कुणइ पक्खवायं 17 gासेस माओ णय पत्तियइ परं 23 37 " णय सच्च- मोसो ण रमंति जदो णिच्चं णिद्दा- वंचणबहुलो 13 11 णिस्सेसखीणमोहो वित्थी व पुमं इंदिसु विरदो तं मिच्छत्तं जमसद्दणं तारिसपरिणामट्ठिय तिरियंति कुडिलभावं दस विहसच्चे वय दहि- गुडवामिसं दंसण वय सामाइय परमाणु आदिया " 17 पु० १ " 33 11 11 21 १६ १ 11 71 " " "" 33 33 9 : ७ १६ १ १६ १ 33 " १६ १ 37 13 71 17 17 13 17 " " ७ धवला पृ० ३४१ ३७२ २७० २६६ १३६ १४६ ३८६ ४६१ १४४ २३६ ३७३ २८० १६१ २८६ १७५ ३६० ४६२ १७६ ३८६ ४६१ २८२ २०२ ३८६ ४६१ १६० ३४२ १७३ १६३ १८३ २०२ २८६ १७० ३७३ ३८२ १०० पंचसंग्रह गाथा ( जीवसमास ) १०५ १३० ८३ ८७ ७६ १३८ १५० " ११७ ६ ह १३७ १०० ३ ६२ १३ १५२ 17 १६ १४८ "" ६० १-६० १४६ い २५ १०७ ११ ७ १६ १-६१ ६ १ १० १३६ १४० षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २०७ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम संख्या ६५. ६६. ६७. ६८. ६६. ७०. ७१. ७२. ७३. ७४. ७५. ७६. ७७. ७८. ७६. ८०. ८१. ८२. ८३. ८४. ८५. ८६. ८७. ८५. ८६. ६०. १. ६२. ६३. गाea पंच-ति चव्विहि पंचसमिदो-तिगुतो पुढवी य सक्करा वालुया पुरुगुणभोगे सेदे पुरुमहमुदारुरालं पुब्वापुव्वयफड्डय बहुविहबहुप्पयारा 33 बाहिरपाणेहि जहा भविया सिद्धी जेसि भिण्णसमपट्ठिएहि मणसा वचसा काएण मण्णंति जदो णिच्चं मरणं पत्थे रणे 21 " मंद बुद्धिविही " 19 मिच्छत्तं वेदंतो मिच्छाइट्ठी यमा' == मूलग्ग-पोर-बीया रूसदि णिददि अण्णे "" 31 लिपदि अप्पी कीरदि "" वत्तावत्तपमाए वयणे हि वि हेऊहि वि वय समिइ - कसायाणं वाउन्भामो उक्कलि विकहा तहा कसाया विग्गहगमावणा विवरीयमोहिणाणं विविहगुण- इद्धित्तं विस- जंत-कूड-पंजर विहि तीहि चउहि पंचहि १. 'णियमा' पंच० 'जीवो' २८८ / षट्खण्डागम-परिशीलन पु० १ 39 37 "" "" 11 " ७ " " "" 33 11 १६ १ १६ १ ६ 99 १६ "" "" 37 11 "" 31 12 31 " 27 धवला १० ३७३ ३७२ २७२ ३४१ २६१ १८८ ३८२ १०० २५६ ३६४ १८३ १४० २०३ ३८६ xer ३८८ ૪૨૦ १६२ २४२ २७३ ३८६ XeK १५० १७८ ३६५ १४५ २७३ १७८ १५३ ३५६ २६१ ३५८ २७४ पंचसंग्रह गाया ( जीवसमास) १३५ १३१ ७७ १०६ ६३ २३ ext 11 १-४५ १५६ १७ ६८ १-६२ १४६ 39 ૨૪× 13 ५ ८१ १४७ 37 १४२ १४ १६१ १२७ Go १५ १७७ १२० ६५ ११८ १-८६ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ८. ६६. १०१. १५४ २१ धवला पंचसंग्रह गाथा क०सं० गाथांश पृष्ठ (जीवसमास) ६४. वेगुव्यिमुत्तत्थं २६२ वेदण-कसाय-वेउब्विय २६ १-१६६ वेदस्सुदीरणाए १४१ १०१ १७. सकयाहलं जलं वा १८६ सम्भावो सच्चमणो २८१ संपुण्णं तु समग्गं ३६० १२६ १००. सम्मत्त-रयण-पव्वय सम्माइट्ठी जीवो १७३ २४२ १०२. संगहियसयलसंजम ३७२ १२६ १०३. साहारणमाहारो २७० ८२ १०४. सिक्खा-किरियुवदेसा १५२ १७३ १०५. सिद्धत्तणस्स जोग्ग सुह-दुक्ख-सबहुसस्सं १४२ १०६ १०७. सेलेसि संपत्तो १६६ ३० १०८. होति अणियट्टिणोते १८३ इनके अतिरिक्त ये गाथाएँ पंचसंग्रह के चौथे 'शतक' प्रकरण में उपलब्ध होती हैंआउवभागो योवो १० ५१२ ४-४६६ ११०. उवरिग्लपंचए पुण २४ १११. एमक्खेत्तो गाढं २७७ ४-४६४ ४३६ ३५ चदुपच्च इगो बंधो ४-७८ ११३. दस अट्ठारस दसयं ५ २८ ४-१०१ ११४. पणवण्णा इर वण्णा ४-८० सव्वुवरि वेयणीए ५१२ ४-४६७ ___अन्य दो गाथाएँ११६. किण्णं भमरसवण्णा ४८५ १-१८३ ११७. पम्मा पउमसवण्णा , १-१८४ धवला में उद्धृत प्रचुर गाथाओं में से इतनी गाथाएँ यथासम्भव खोजने पर पंचसंग्रह में उपलब्ध हुई हैं । विशेष खोजने पर और भी कितनी ही गाथाएँ पंचसंग्रह में उपलब्ध हो सकती हैं। यह ध्यातव्य है कि पंचसंग्रह के प्रथम "जीवसमास' प्रकरण में समस्त गाथाएँ २०६ हैं जिनमें ये ११७ गाथाएँ धवला में उद्धृत देखी गई हैं। १. पंचसंग्रह प्रथम चरण-अतोमुहुसमजतं । २४ २४ षट्सण्डागम की अन्य प्रन्थों से तुलना / २R Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या प्रस्तुत पंचसंग्रह धवलाकार के समक्ष रहा है ? उपर्युक्त स्थिति को देखते हुए स्वभावतः यह प्रश्न उठता है कि ऐसी प्रचुर गाथाओं को धवलाकार ने क्या प्रस्तुत पंचसंग्रह से लेकर अपनी धवला टीका में उद्धृत किया है ? इस पर विचार करते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि ये गाथाएँ प्रस्तुत पंचसंग्रह से लेकर धवला में नहीं उद्धत की गई हैं। कारण इसका यह है कि धवलाकार के समक्ष प्रस्तुत पंचसंग्रह इस रूप में रहा हो, इसकी सम्भावना नहीं है । यदि वह उनके समक्ष रहा होता तो जैसे उन्होंने आचारांग (मूलाचार), कर्मप्रवाद, कसाय पाहुड, तच्चट्ठ (तत्त्वार्थसूत्र), तत्त्वार्थभाष्य (तस्वार्थ वार्तिक), पंचत्थिपाहुड, पेज्जदोस और सम्मइसुत्त आदि अनेक प्राचीन ग्रन्थों के नाम निर्देशपूर्वक उनके अन्तर्गत वाक्यों को यथाप्रसंग प्रमाण के रूप में धवला में उद्धृत किया है वैसे ही वे प्रस्तुत पंचसंग्रह से इतनी अधिक गाथाओं को धवला में उद्धत करते हुए किसी-न-किसी रूप में उसका भी उल्लेख अवश्य करते। पर उन्होंने उसका कहीं उल्लेख नहीं किया। इससे यही प्रतीत होता है कि उनके समक्ष इस रूप में पंचसंग्रह नहीं रहा है। यह सम्भव है कि प्रस्तुत पंचसंग्रह में जो पूर्वोक्त जीवसमास आदि पांच अधिकार विशेष हैं वे पृथक्-पृथक् मूल रूप में धवलाकार के समक्ष रहे हों व उन्होंने उनसे प्रसंगानुसार उपयुक्त गाथाओं को लेकर उन्हें धवला में उद्धृत किया हो । पश्चात् संग्रहकार ने उन मूल प्रकरणग्रन्थों में विवक्षित विषय के स्पष्टीकरणार्थ आवश्यकतानुसार भाष्यात्मक या विवरणात्मक ओं को रंचकर व उन्हें यथास्थान उन प्रकरण-ग्रन्थों में योजित कर उन पांचों प्रकरणों का प्रस्तुत 'पंचसंग्रह' के रूप में संग्रह कर दिया हो । दूसरी एक सम्भावना यह भी है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् गौतमादि गणधरों व अंग-पूर्दो के समस्त व एक देश के धारक अन्य आचार्यों की अविच्छिन्न परम्परा से जो श्रुत का-विशेषकर गाथात्मक श्रुत का-प्रवाह दीर्घकाल तक मौखिक रूप में चलता रहा है उसका कुछ अंश धवलाकार वीरसेन स्वामी के भी कण्ठगत रहा हो और उन्होंने अपनी स्मृति के प्राधार पर उससे उन प्रचुर गाथाओं को प्रसंगानुसार अपनी धवला टीका में जहां-तहां उद्धृत किया हो। अन्य एक सम्भावना यह भी है कि धवलाकार के समक्ष ऐसा कोई गाथाबद्ध प्राचीन ग्रन्थ रहना चाहिए जिसमें विविध विषयों से सम्बद्ध प्रचुर गाथाओं का संग्रह रहा हो और जो वर्तमान में उपलब्ध न हो। इसका कारण यह है कि धवला में ऐसी अन्य भी पचासों गाथाएँ उद्धृत की गई हैं जो वर्तमान में उपलब्ध किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में नहीं प्राप्त होती हैं । जैसे--- १. सिद्धों में विद्यमान केवलज्ञानादि गुण किस-किस कर्म के क्षय से उत्पन्न होते हैं, इसकी प्ररूपक नौ गाथाएँ । (पु० ७, पृ० १४-१५) २. क्रम से नेगमादि नयों के आश्रय से 'नारक' नाम की प्ररूपक छह गाथाएँ । यहाँ संग्रह नय की अपेक्षा 'नारक' किसे कहा जाता है, इसकी सूचक गाथा सम्भवतः प्रतियों में स्खलित हो गई है । देखिए पु०७, पृ० २८-२६ । (इसके पूर्व इसी पु०७ में पृ०६ पर भी तीन गाथाएँ द्रष्टव्य हैं) ३. मार्गणास्थानों में बन्ध और बन्धविधि आवि पाँच अनुयोगद्वारों की निर्देशक गापा के साथ बन्ध पूर्व में है या उबय पूर्व में, इत्यादि की सूचक अन्य तीन गाथाएँ। देखिए पु०८, २९. / बदबण्डाम-परिशीलन Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ० ८ । (यहीं पर आगे पृ० ११-१६ में उद्धृत १४ (६-१६) गाथाएँ भी दृष्टव्य है) ४. यहीं पर आगे मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन चार मूल बन्धप्रत्ययों में तथा इनके उत्तर ५७ बन्धप्रत्ययों में से क्रम से मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में कितने मूल व उत्तर प्रत्ययों के प्राश्रय से कर्मबन्ध होता है, इसकी निर्देशक ३ गाथाएँ उद्धृत की गई हैं। देखिए पु०८, पृ० २४ । (आगे पृ० २८ पर भी एक गाथा द्रष्टव्य है।) ये यहाँ कुछ ही उदाहरण दिये गये हैं। वैसे अन्यत्र भी कितनी ही ऐसी गाथाएँ धवला म-जैसे पु० १ में पृ० १०, ११,५५,५७,५६,६१ व ६८ आदि पर-उद्धृत हैं जो उपलब्ध प्राचीन ग्रन्थों में कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती। धवलाकार के समक्ष प्रस्तुत पंचसंग्रह के न रहने के कारण १. षटखण्डागम के प्रथम खण्डभूत जीवस्थान के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वारों में पांचवें कालानुगम अनुयोगद्वार में 'जीवसमाए वि उत्त' ऐसी सूचना करते हुए धवलाकार ने "छप्पंचणवविहाणं" इत्यादि गाथा को उद्धृत किया है । यह गाथा प्रस्तुत पंचसंग्रह के जीवसमास प्रकरण (१-१५६) में भी उपलब्ध होती है। पर उसे वहाँ से लेकर धवला में उद्धृत किया गया हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है,' 'जीवसमास' नाम का एक ग्रन्थ श्वे. सम्प्रदाय में उपलब्ध है और वह ऋषभदेव केशरीमल श्वे० संस्था रतलाम से प्रकाशित हो चुका है। पूर्वोक्त गाथा इस 'जीवसमास' में यथास्थान ८२ गाथांक के रूप में अवस्थित है । धवलाकार ने सम्भवतः उसे वहीं से लेकर 'जीवसमास' नामनिर्देश के साथ धवला में उद्धृत कर दिया है। २. प्रस्तुत पंचसंग्रह के अन्तर्गत 'जीवसमास' प्रकरण में गाथा १०२ व १०४ के द्वारा प्रव्य-भाववेदविषयक विपरीतता को भी प्रकट किया गया है। किन्तु धवला में यह स्पष्ट कहा गया है कि कषाय के समान वेद अन्तर्मुहूर्तकाल रहनेवाला नहीं है, क्योंकि उनका उदय जन्म से लेकर मरणपर्यन्त रहता है। यही अभिप्राय प्राचार्य अमितगति विरचित पंचसंग्रह में भी प्रकट किया गया है। पंचसंग्रहगत जीवसमास प्रकरण में कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि जीव नीचे की छह पृथिवियों व ज्योतिषी, व्यन्तर एवं भवनवासी देवों में; समस्त स्त्रियों में और बारह प्रकार के १. धवला पु० ४, पृ० ३१५; इसके पूर्व यह गाथा सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार (पु० १, पृ०३६५) ___में भी धवला में उद्धृत की जा चुकी है । २. देखें 'षट्खण्डागम और जीवसमास' शीर्षक । ३. "इत्थी पुरिस णउसय वेया खलु दम्व-भावदो होति । ते चेय य विपरीया हवंति सम्वे जहाकमसो॥" ४. कषायवन्नान्तर्मुहूर्तस्थायिनो वेवाः, आजन्मन: आमरणात्तदुदयस्य सत्त्वात् । (धवला पु० १, पृ० ३४६) ५. नान्तमौर्तिका वेदास्ततः सन्ति कषायवत् । आजन्म-मृत्युतस्तेषामुदयो दृश्यते यतः ।। १-१६३ ।। षदलण्डागम को अन्य प्रन्यों से तुलना / २६१ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यावाद (एकेन्द्रिय ४, द्वीन्द्रिय २, त्रीन्द्रिय २, चतुरिन्द्रिय २; और असंजीपंचेन्द्रिय २, इन भारह प्रकार के तियंचों) में भी नहीं उत्पन्न होता है।' यहां बारह प्रकार के जिस मिथ्यावाद का उल्लेख किया गया है वह भी धवला में नहीं मिलता है। प्रसंगवश वहाँ तिर्यंचों में प्रथम पाँच गुणस्थानों के सद्भाव के प्ररूपक सूत्र (१,१,२६) की व्याख्या करते हुए प्रसंग प्राप्त एक शंका के समाधान में असंयत सम्यग्दृष्टियों के उत्पन्न होने का निषेध किया गया है । वहाँ यह पूछे जाने पर कि वह कहां से जाना जाता है, इसके उत्तर में वहां इस गाथा को उद्धृत करते हुए कहा है कि वह इस आर्ष (आगमवचन) से जाना जाता है छसु हेट्ठिमासु पुढवीसु जोइस-वण-भवण-सम्वइत्थीम् । देसू समुप्पज्जइ सम्माइट्ठी वु जो जीवो । पु० १, पृ० २०६ इस गाथा का पूर्वार्ध और पंचसंग्रहगत उस गाथा का पूर्वाधं सर्वथा समान है, केवल उत्तरार्ध ही भिन्न है। यदि धवलाकार के समक्ष प्रस्तुत पंचसंग्रह रहा होता तो वे उसी रूप में उस गाथा को प्रस्तुत कर सकते थे। साथ ही वे कदाचित् 'आर्ष' के स्थान में किसी रूप में पंचसंग्रह का भी संकेत कर सकते थे। रत्नकरण्डक (३५) में भी बारह प्रकार के उस मिथ्यावाद का उल्लेख नहीं है, वहाँ सामान्य से 'तिर्यंच' का ही निर्देश किया गया है। अमितगति विरचित पंचसंग्रह में भी उस मिथ्यावाद का उल्लेख नहीं किया गया। यही नहीं, वहाँ तो 'तिर्यंच' का उल्लेख भी नहीं किया है। सम्भवतः यहाँ भोगभूमिज तियंचों को लक्ष्य में रखकर 'तियंच' का उल्लेख नहीं किया गया है।' जीवसमास की प्राचीनता संग्रहकर्ता ने प्रस्तुत पंचसंग्रह के अन्तर्गत पूर्वनिर्दिष्ट 'जीवसमास' नामक अधिकार का उपसंहार करते हुए यह कहा है अणिक्खेवे एय? णयप्पमाणे णित्ति अणि योगे। मग्गइ बीसं भेए सो आणइ जीवसम्भावं ॥१-१२।। इस गाथा का मिलान 'ऋषभदेव केशरीमल श्वे० संस्था' से प्रकाशित जीवसमास ग्रन्थ की इस गाथा से कीजिए, जो मंगलगाथा के अनन्तर ग्रन्थ के प्रारम्भ में दी गई है णिक्खेव-णिरत्तीहि य छहि अट्ठहि अणुयोगद्दारेहिं ।। गइआइमग्गणाहि य जीवसमासाऽणुगंतम्वा ॥-गाथा २ इस गाथा में ग्रन्थकार द्वारा निक्षेप, निरुक्ति, निर्देश-स्वामित्व आदि छह अथवा १. छसु हेट्ठिमासु पुढवीसु जोइस-वण-भवण-सव्वइत्थीसु । बारस मिच्छावादे सम्माइटिस्स णस्थि उववादो ॥ १-१९३।। २. निकायत्रितये पूर्वे श्वभ्रभूमिषु षट्स्वधः । __ वनितासु समस्तासु सम्यग्दृष्टिर्न जायते ॥ ३. यह गाथा गो० जीवकाण्ड में भी बीस प्ररूपणाओं का उपसंहार करते हुए प्रन्थ के अन्त में उपलब्ध होती है । (गा० ७३३) २६२ / षट्समागम-परिशीलन Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों और गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं के आश्रय से जीवसमासो के जानने की प्रेरणा की गई है, जो इस 'जीवसमास' ग्रन्थ की सार्थकता को प्रकट करती है। उपर्युक्त दोनों गाथाओं के अभिप्राय में पर्याप्त समानता दिखती है। विशेषता यह है कि 'जीवसमास' के प्रारम्भ में ग्रन्थकार द्वारा प्रस्तुत गाथा में जैसी सूचना की गई है तदनुसार ही आगे ग्रन्थ में यथाक्रम से निक्षेप, निरुक्ति आदि छह व विशेषकर सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों तथा गति आदि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से जीवसमासों की प्ररूपणा की गई है। इस प्रकार उपर्युक्त गाथा जो वहां प्रारम्भ में दी गयी है वह सर्वथा उचित व संगत है। किन्तु पंचसंग्रहगत वह गाथा 'जीवसमास' नामक उसके प्रथम प्रकरण के अन्त में दी गई है और उसके द्वारा यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि जो निक्षेप, एकार्थ, नय, प्रमाण, निरुक्ति और अनुयोगद्वारों के आश्रय मे बीस भेदों का मार्गण करता है वह जीव के सद्भाव को जानता है। इस प्रकार उस गाथा में जिन निक्षेप व एकार्थ आदि का निर्देश किया गया है उन सब की चर्चा यथाक्रम से इस प्रकरण में की जानी चाहिए थी, पर उनका विवेचन वहाँ कहीं भी नहीं किया गया है। ___इस परिस्थिति में 'जीवसमास' ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्रयुक्त उस गाथा की जैसी संगति रही है वैसी पंचसंग्रहगत उस गाथा की संगति नहीं रही। इससे यही प्रतीत होता है कि पंचसंग्रहकार ने 'जीवसमास' की उस गाथा को हृदयंगम कर इस गाथा को रचा है। इस प्रकार इस पंचसंग्रह अन्य से वह जीवसमास ग्रन्थ प्राचीन सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त यह भी यहाँ ध्यातव्य है कि प्रस्तुत पंचसंग्रह में पूर्वनिर्दिष्ट क्रम से गुणस्थान व जीवसमास आदि रूप उन बीस प्ररूपणाओं का वर्णन करके प्रसंग के अन्त में उस गाथा को प्रस्तुत किया गया है। जैसा कि उस गाथा में संकेत किया गया है, यदि संग्रहकार चाहते तो उसके आगे भी वहाँ गाथोक्त निक्षेप व एकार्थ आदि का विचार कर सकते थे । पर आगे भी वहां उनकी कुछ चर्चा न करके पूर्व प्ररूपित लेश्याओं की विशेष प्ररूपणा की गई है (१८३-६२)। पश्चात् सम्यग्दृष्टि जीव कहाँ उत्पन्न नहीं होते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए मन: ज्ञान व परिहारविशद्धिसंयम आदि जो एक साथ नहीं रहते हैं उनका उल्लेख किया गया है (१६३-६४)। आगे सामायिक-छेदोपस्थापनादि संयमविशेष किन गुणस्थानों में रहते हैं, इसका निर्देश करते हुए केवलिसमुद्घात (१९६-२००), सम्यक्त्व व अणुव्रत-महावतों की प्राप्ति का नियम एवं दर्शनमोह के क्षय-उपशम आदि के विषय में विचार किया गया है (२०१६)। यह विवेचन यहाँ अप्रासंगिक व क्रमशून्य रहा है। इस सबकी प्ररूपणा वहाँ पूर्वप्ररूपित उस मार्गणा के प्रसंग में की जा सकती थी। ____ इस परिस्थिति को देखते हुए यही फलित होता है कि धवलाकार वीरसेन स्वामी के समक्ष प्रस्तुत पंचसंग्रह इस रूप में नहीं रहा । यथाप्रसंग धवला में उद्धृत जो सैकड़ों गाथाएँ प्रस्तुत पंचसंग्रह और गोम्मटसार में उपलब्ध होती हैं उनका, जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है, इस पंचसंग्रह व गोम्मटसार से उद्धृत करना सम्भव नहीं है । किन्तु धवला से पूर्व जो वैसे कुछ प्रकरण विशेष अथवा ग्रन्थविशेष रहे हैं उनमें उन गाथाओं को वहाँ उद्धृत किया जाना चाहिए। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, धवलाकार के समक्ष विशाल आगमसाहित्य रहा है व पर्ययज्ञा षटलण्डागम की अन्य प्रन्थों से तुलना / २६३ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसमें वे पारंगत भी रहे हैं । उस पूर्ववर्ती साहित्य का उन्होंने अपनी धवला और जयधवला टीकाओं की रचना में पर्याप्त उपयोग किया है। उदाहरणस्वरूप उन्होंने इन टीकाओं में नामो. ल्लेखपूर्वक कसायपाहुड, तत्त्वार्थसूत्र, पंचास्तिकाय और सन्मतिसूत्र आदि अनेक प्राचीन ग्रन्थों से प्रसंग के अनुरूप गाथाओं को व सूत्र को लेकर उद्धत किया है, यह स्पष्ट हो चुका है। । परन्तु उन्होंने कहीं प्रस्तुत पंचसंग्रह का उल्लेख नहीं किया। धवला से पूर्ववर्ती किसी अन्य ग्रन्थ में भी उसका उल्लेख देखने में नहीं आया। इससे यही निश्चित होता है कि प्रस्तुत पंचसंग्रह इस रूप में धवलाकार के समक्ष नहीं रहा । पंचसंग्रह के अन्य प्रकरणों से भी धवला की समानता प्रस्तुत पंचसंग्रह का तीसरा प्रकरण 'कर्मस्तव' है। उसकी चूलिका में क्या बन्ध पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, क्या उदय पूर्व में व्युच्छिन्न होता है और क्या दोनों साथ-साथ व्युच्छिन्न होते हैं; इन तीन प्रश्नों को प्रथम उठाया गया है । इसी प्रकार आगे स्वोदय, परोदय व स्व-परोदय तथा सान्तर, निरन्तर व सान्तर-निरन्तर बन्ध के विषय में भी तीन-तीन प्रश्न उठाए गये हैं। इस प्रकार नौ प्रश्नों को उठाकर उनके विवरण की प्रतिज्ञा की गई है।' षट्खण्डागम के तीसरे खण्ड 'बन्धस्वामित्वविचय' में 'पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्त राय इनका कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है' इस पृच्छासूत्र (५) की व्याख्या करते हए धवलाकार ने उसे देशामर्शक कहकर उससे सूचित 'क्या बन्ध पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, क्या उदय पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, क्या दोनों एक साथ व्युच्छिन्न होते हैं' इत्यादि २३ प्रश्नों को उस पृच्छासूत्र के अन्तर्गत बतलाया है। इन २३ प्रश्नों में उपर्युक्त पंचसंग्रह में निर्दिष्ट वे ६ प्रश्न सम्मिलित है। ठीक इसके अनन्तर धवला में 'एत्थुवउज्जतीओ आरिसगाहाओ' ऐसी सूचना करते हुए चार गाथाओं को उद्धृत किया है। उनमें भूमिकास्वरूप यह प्रथम गाथा है.----. बंधो बन्धविही पुण सामित्तद्धाण पच्चयविही य। एदे पंचणिओगा मग्गणठाणेसु मग्गेज्जा ।। --पु० ८, पृ०८ इस गाथा में जिस प्रकार से बन्ध, बन्धविधि, स्वामित्व, बन्धाध्वान और प्रत्ययविधि इन पांच अनुयोगद्वारों के मार्गणास्थानों में अन्वेषण की सूचना की गई है, तदनुसार ही धवला में उपर्युक्त २३ प्रश्नों के अन्तर्गत यहाँ और आगे इस खण्ड के सभी सूत्रों की व्याख्या में उन बन्ध ब बन्धविधि आदि पाँच का विचार किया गया है। यहाँ यह अनुमान किया जा सकता है कि उपर्युक्त गाथा में जिन बन्ध व बन्धविधि आदि पांच के अन्वेषण की प्रेरणा की गई है उनका प्ररूपक कोई प्राचीन आर्ष ग्रन्थ धवलाकार के समक्ष रहा है, जहाँ सम्भवतः उन पांचों की विस्तार से प्ररूपणा की गई होगी। १. छिज्जइ पढमो बंधो कि उदओ कि च दो वि जगवं किं । कि सोदएण बंधो किंवा अण्णोदएण उभएण ||३-६५।। संतर णिरतरो वा किं वा बंधो हवेज्ज उभयं वा ! एवं णवविहपण्हं कमसो योच्छामि एयं तु ॥३-६६।। ये ही नो बन्धविषयक प्रश्न गो० कर्मकाण्ड में भी उठाये गये है। (गाथा ३६६) २६४ / पट्ण्डागम-परिशीलन Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ यह भी स्मरणीय है कि आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती विरचित गो० कर्मकाण्ड में चौथा 'त्रिचूलिका' अधिकार है । वहाँ तीन चूलिकाओं में से प्रथम चूलिका में उन्हीं नौ प्रश्नों को उठाया गया है जो प्रस्तुत पंचसंग्रह में उठाये गये हैं। विशेषता यह रही है कि पंचसंग्रह में जहां उन नो प्रश्नों को दो गाथाओं द्वारा उद्भावित किया गया है वहाँ कर्मकाण्ड में उन नो का निर्देश इस एक ही गाथा में कर दिया गया है-- कि बंधो उदयादो पुव्वं पच्छा समं विणस्सदि सो। स-परोभयोदयो वा णिरंतरो सांतरो उभयो ॥३६६।। आचार्य नेमिचन्द्र की यह पद्धति रही है कि उन्होंने पूर्ववर्ती षट्खण्डागम व उसकी टीका धवला आदि में विस्तार से प्ररूपित विषयों में यथाप्रसंग विवक्षित विषय का स्पष्टीकरण अतिशय कुशलता के साथ संक्षेप में कर दिया है। यही नहीं, आवश्यकतानुसार उन्होंने उनके अन्तर्गत कुछ गाथाओं को ज्यों-का-त्यों भी अपने इन ग्रन्थों में आत्मसात् कर लिया है। इस प्रकार धवला में पूर्णवर्ती किसी आगमग्रन्थ के आधार से जिन २३ प्रश्नों को उठाया गया है और यथाक्रम से उनका स्पष्टीकरण भी किया गया है उनमें से पूर्वोक्त नौ प्रश्नों को पंचग्रहण और कर्मकाण्ड में भी उठाकर स्पष्ट किया गया है।' विवशता इस प्रसंग में धवला में मिथ्यात्व, एकेन्द्रिय आदि चार जातियाँ, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन दस प्रकृतियों के उदयव्युच्छेद को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के अन्तिम समय में दिखलाते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि यह कथन महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के उपदेशानुसार किया गया है। चूर्णिसूत्र कर्ता (यतिवृषभ) के उपदेशानुसार उक्त दस प्रकृतियों में से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में पांच प्रकृतियों का ही उदयव्युच्छेद होता है, क्योंकि उनके द्वारा एकेन्द्रियादि चार जातियों और स्थावर प्रकृति का उदयव्युच्छेद सासादनसम्यग्दृष्टि के स्वीकार किया गया है । ____ आगे वहाँ 'एत्य उवसंहारगाहा' यह कहकर जिस “वस चबुरिगि सत्तारस" आदि गाथा को उद्धृत किया गया है वह कर्मकाण्ड (२६३) में उपलब्ध है । इस मतभेद का उल्लेख जिस प्रकार धवलाकार ने स्पष्टतया कर दिया है उस प्रकार से उसका कुछ उल्लेख पंचसंग्रह में नहीं किया गया है। वहाँ मिथ्यात्व, आताप, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन पाँच प्रकृतियों का उदयव्यूच्छेद मिथ्यादष्टि गुणस्थान में तथा अनन्तानुबन्धी चार, एकेन्द्रियादि जातियाँ चार और स्थावर इन नौ प्रकृतियों का उदयव्युच्छेद सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में कहा गया है।' __ पंचसंग्रह में जिस मूलगाथा (३-१८) के द्वारा गुणस्थानों में उदयव्युच्छित्ति की प्ररूपणा है वह भी कर्मकाण्ड में उपलब्ध होती है (२६४)। १. गो० कर्मकाण्ड में सादि, अनादि, ध्र व और अध्र व बन्ध की भी यथाप्रसंग चर्चा की गई है। (गाथा १० व १२२-२६) २. धवला पु० ८, पृ० ६ ३. पंचसंग्रह गाथा ३,१६-२० (भाष्यगाथा ३,३०-३१) षट्खण्डागम की अन्य प्रन्यों से तुलना / २६५ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मकाण्ड में उक्त मतभेद के अनुसार मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में उदयव्युच्छित्ति की भिन्नता को दिखलाकर भी वह किनके उपदेशानुसार है, इसे स्पष्ट नहीं किया गया है।' २. धवला में पूर्वोक्त २३ प्रश्नों में क्या बन्ध सप्रत्यय (सकारण) होता है या अप्रत्यय' ये दो (१०-११) प्रश्न भी रहे हैं। इनके स्पष्टीकरण में वहाँ धवलाकार ने विस्तार से बन्धप्रत्ययों की प्ररूपणा की है। वहां सामान्य से मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग इन चार मूल प्रत्ययों का तथा ५ मिथ्यात्व, १२ असंयम, २५ कषाय और १५ योग इन ५७ उत्तर प्रत्ययों का पृथक्-पृथक् रूप में विचार किया गया है। पंचसंग्रह के 'शतक' प्रकरण ४ में इन प्रत्ययों का निर्देश इस प्रकार किया गया है मिच्छासंजम हुंति हुकसाय-जोगा य बंधहेऊ ते। पंच बुवालस भेया कमेण पणुवीस पण्णरसं ॥४-७७।। धवला में आगे उन ५७ प्रत्ययों में से जघन्य व उत्कृष्टरूप में कितने प्रत्यय किस गुणस्थान में सम्भव हैं, इसे स्पष्ट किया गया है। इस प्रसंग में धवला में 'एत्थ उवसंहारगाहाओ' ऐसी सूचना करते हुए जिन तीन गाथाओं को उद्धृत किया गया है उनमें दो गाथाओं द्वारा गुणस्थान क्रम से मूलप्रत्ययों का और तीसरी गाथा द्वारा उत्तरप्रत्ययों का निर्देश है । वह तीसरी गाथा इस प्रकार है पणवण्णा इर वण्णा तिवाल छादाल सत्ततीसा य । चउवीस दुवावीसा सोलस एऊण जाव णव सत्ता ।।४-५०।। यही गाथा कुछ ही शब्द परिवर्तन के साथ पंचसंग्रह में भी इस प्रकार प्रयुक्त हुई है पणवण्णा पण्णासा तेयाल छयाल सत्ततीसा य। घउवीस दु वावीसा सोलस एकण जाव णव सत्ता ॥४-८०॥ इन प्रत्ययों का स्पष्टीकरण कर्मकाण्ड में दो (७८६-६०) गाथाओं द्वारा किया गया है । धवला में उन ५७ प्रत्ययों में जघन्य व उत्कृष्ट रूप से मिथ्यादृष्टि आदि तेरह गुणस्थानों में वे जहाँ जितने सम्भव हैं उन्हें यथाक्रम से स्पष्ट करते हुए अन्त में 'एत्थ उवसंहारगाहा' ऐसी सूचना करते हुए यह गाथा उद्धृत की गई है-- बस अट्ठारस बसयं सत्तरह णव सोलसं च वोणं तु । अटु य चोद्दस पणयं सत्त तिए तु ति दु एयमेयं च ॥ १. क० का० गाथा २६५ (पूर्व गाथा २६३-६४ भी द्रष्टव्य है) २. धवला पु० ८,१६-२८ ३. वही, १६-२४ ४. वही, २४-२८ ५. वही, २४ ६. यह गाथा कर्मकाण्ड (७८६) में भी उपलब्ध होती है (च० चरण भिन्न है) । ७. धवला पु० ८, पृ० २८ ८. यह गाथा पंचसंग्रह (४-१०१) और कर्मकाण्ड (७६२) में भी उपलब्ध होती है। २६६ / षट्झण्डागम-परिशीलन Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे धवला में यथाप्रसंग गति आदि मार्गणाओं में भी इन प्रत्ययों की प्ररूपणा संक्षेप में की गई है। ___पंचसंग्रह में यह प्ररूपणा एक साथ विस्तार से १७ (८४-१००) गाथाओं में की गई है। समस्त प्रत्ययप्ररूपणा १४० (४,७७-२१६) गाथाओं में हुई है। ३. षट्खण्डागम में जीवस्थान से सम्बद्ध नौ चूलिकाओं में छठी 'उत्कृष्टस्थिति' और सातवीं 'जघन्यस्थिति' चूलिका है। इन दोनों में क्रम से पृथक्-पृथक् उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति की प्ररूपणा की गई है। इस प्रसंग में वहाँ यथासम्भव विभिन्न कर्मों की स्थिति प्रकट करते हुए उनमें किन का कितना आबाधाकाल और निषेकस्थिति सम्भव है, स्पष्ट किया गया है । उस प्रसंग में वहां सर्वत्र सामान्य से यह सूत्र उपलब्ध होता है "आबाधुणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेओ'।" सूत्र १,६-६,६ आदि । आयुकर्म के आबाधाकाल और निषेकस्थिति में अन्य ज्ञानावरणादि कर्मों की अपेक्षा विशेषता है, अत: उसका विचार अलग से किया गया है । पंचसंग्रह में प्राय: यही अभिप्राय इस गाथा के द्वारा प्रकट किया गया है आबाधूणद्विदी कम्मणिसेओ होइ सत्तकम्माणं। ठिदिमेव णिया सव्वा कम्मणिसेओ य उस्स ॥४-३६५० ४. वेदनाद्रव्य विधान की चूलिका में सूत्रकार ने योगस्थानों को ही प्रदेशबन्धस्थान बतलाते हुए विशेष रूप में उन प्रदेशबन्धस्थानों को प्रकृतिविशेष से विशेष अधिक कहा है । सूत्र ४,२,४,२१३ (पु. १०)। इसकी व्याख्या करते हुए धवला में कहा गया है कि समान कारणता के होने पर भी प्रकृति विशेष से कर्मों के प्रदेशबन्धस्थान प्रदेशों की अपेक्षा विशेष अधिक हैं। इसी प्रसंग में आगे एक योग से आये हुए एक समयप्रबद्ध में आठ मूल प्रकृतियों में किसको कितना भाग प्राप्त होता है, इसे स्पष्ट करते हुए 'वुत्तं च' इस निर्देश के साथ ये दो गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं आउअभागो थोवो णामा-गोदे समो तदो अहिओ। आवरणमंतराए भागो अहिओ दु मोहेवि ॥ सव्वुवरि वेयणीए भागो अहिओ दु कारणं किंतु । पडिविसेसो कारण णो अण्णं तवणुवलंभादो ॥ -पु. १०, पृ० ५११-१२ ये दोनों गाथाएं इसी रूप में पंचसंग्रह में भी उपलब्ध हैं। विशेष इतना है कि दूसरी गाथा का उत्तरार्ध वहाँ इस प्रकार है सुह-दुक्खकारणताट्टिदिविसेसेण सेसाणं ॥४-८६ उत्त. १. सूत्र ६,६-६,६ व आगे १२,१५,१८,२१ आदि (उत्कृष्ट स्थिति) तथा आगे सूत्र १,६-७,५ व ८,११,१४,१७,२० आदि (जघन्य स्थिति) । पु० ६ २. ष० ख० पु० ६, सूत्र १, ६-६, २२-२६ तथा १,६-७, २७-३४ ३. यह गाथा कर्मकाण्ड (१६०) में भी कुछ थोड़े से परिवर्तन के साथ उपलब्ध होती है। ४. मूल गाथा ४. ८८-८६ व भाष्य गाथा ४,४६६-६७ षट्कण्डागम की अन्य पन्यों से तुलना / २६५ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी अभिप्राय को कर्मकाण्ड में भी दो गाथाओं (१६२-६३) द्वारा प्रकट किया गया है, जिनमें प्रथम गाथा का पूर्वार्ध तीनों ग्रन्थों में समान है। ५. यह पूर्व में कहा जा चुका है कि मूल षट्खण्डागम में महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के अन्तर्गत जो २४ अनुयोगद्वार रहे हैं उनमें से प्रार' के कृति-वेदनादि छह अनुयोगद्वारों की ही प्ररूपणा की गई है, शेष निबन्धन आदि १८ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा वहां नहीं हुई है। उनकी प्ररूपणा धवलाकार वीरसेनाचार्य के द्वारा की गई है। उन २४ अनुयोगद्वारों में १३वाँ लेश्या' अनुयोगद्वार है। इसमें 'लेश्या' का निक्षेप करते हए उस प्रसंग में धवलाकार ने चाइन्द्रिय से ग्राह्य पुद्गलस्कन्ध को तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्य लेश्या कहा है तथा उसे कृष्ण-नीलादि के भेद से छह प्रकार का निर्दिष्ट किया है। उनमें किन के कौन-सी लेश्या होती है, इसे स्पष्ट करते हुए भ्रमर व अंगार आदि के कृष्णलेश्या, नीम व कदली आदि के पत्तों के नीललेश्या, क्षार व कबूतर आदि के कापोत लेश्या, कंकम व जपाकुसुम आदि के तेजोलेश्या, तडवड व पद्मकुसुम आदि के पद्मलेश्या तथा हंस ध बलाका आदि के शुक्ललेश्या कही गई है । आगे वहाँ 'वुत्तं च' कहकर जिन "किण्णं भमर सवण्णा" आदि दो गाथाओं को उद्धृत किया गया है। वे प्रस्तुत पंचसंग्रह में 'जीवसमास' अधिकार के अन्तर्गत १८३-८४ गाथांकों में उपलब्ध होती है। आगे धवला में शरीराश्रित छहों लेश्याओं की प्ररूपणा है। जैसे तियंच योनिवाले जीवों के शरीर छहों लेश्याओं से युक्त होते हैं-कितने ही कृष्णलेश्या वाले व कितने ही नीललेश्यावाले, इत्यादि । इसी प्रकार आगे तिर्यंच योनिमतियों, मनुष्यमनुष्यनियों, देवों, देवियों, नारकियों और वायुकायिकों में यथासम्भव उन लेश्याओं की प्ररूपणा की गई है। आगे वहाँ चक्षुइन्द्रिय से ग्राह्य द्रव्य के अल्पबहुत्व को भी प्रकट किया गया है। जैसे--- कापोतलेश्यावाले द्रव्य के शुक्लगुण स्तोक, हारिद्र गुण अनन्तगुणे, लोहित अनन्तगुणे, नील अनन्तगुणे और श्याम अनन्तगणे होते हैं, इत्यादि । इस प्रकार का लेश्याविषयक विवरण पंचसंग्रह में दृष्टिगोचर नहीं होता, जबकि वहाँ 'जीवसमास अधिकार के उपसंहार में तिर्यंच मनुष्यों आदि में सम्भव लेश्याएं आदि स्पष्ट की गयी हैं, यह पूर्व में कहा ही जा चुका है। धवला में आगे १४वाँ अनयोगद्वार 'लेश्याकर्म' है । इसमें उक्त छहों लेश्यावाले जीवों के कर्म-मारण-विदारण आदि क्रियाविशेष-की यथाक्रम से प्ररूपणा है। उस प्रसंग १. धवला पु० १६, पृ० ४८४-८५ २. गाथा १८४ का चतुर्थ चरण भिन्न है । ३. धवला पु० १६, पृ० ४८५-८८ ४. पंचसंग्रह गाथा १,१८६-६२; इस प्रकार का विचार गो० जीवकाण्ड (४६५-६७) में भी किया गया है। लेश्याविषयक विशेष प्ररूपणा तत्त्वार्थवातिक में 'निर्देश' प्रादि १६ अनुयोगद्वारों के आश्रय से विस्तारपूर्वक की गई है (तत्त्वार्थवातिक ४,२२,१०)। जीवकाण्ड में जो उन्हीं १६ अनुयोगद्वारों में लेश्याविषयक प्ररूपणा की गई है (४६०-५५४), सम्भव है उसका आधार यही तत्त्वार्थवार्तिक का प्रकरण रहा हो। २६८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में वहां क्रम से प्रत्येक लेश्या के सम्बन्ध में 'वुत्तं च' कहकर कुछ प्राचीन गाथाओं को उद्धृत किया गया है । उनकी संख्या क्रम से १-1-२+३+१+१+१= है।' ये गाथाएँ उसी क्रम से पंचसंग्रह (१,१४४-५२) और गो० जीवकाण्ड (५०८-१६) में उपलब्ध होती हैं। विशेष प्ररूपणा लेश्या की विशेष प्ररूपणा पा० भट्टाकलंकदेव विरचित तत्त्वार्थवातिक (४,२२,१०) में निर्देश, वर्ण, परिणाम, संक्रम, कर्म, लक्षण, गति, स्वामित्व, साधन, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन सोलह अधिकारों में की गई है। __ यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि धवलाकार ने लेश्या (१३), लेश्याकर्म (१४) और लेश्यापरिणाम (१५) अनुयोगद्वारों में लेश्याविषयक विशेष प्ररूपणा क्यों नहीं की; जबकि उनके पूर्ववर्ती आ० भट्ठाकलंकदेव ने उसके उपर्युक्त १६ अनुयोगद्वारों के आश्रय से विशद विवेचन किया है। ___इसके समाधान में कहा जा सकता है उसका विवेचन चूंकि षट्खण्डागम में प्रसंगानसार यत्र-तत्र हआ है, इसीलिए उन्होंने उसकी विशेष प्ररूपणा यहाँ नहीं की है। उदाहरण के कपा में उन निर्देश आदि १६ अनुयोगद्वारों में प्रथम 'निर्देश' है । तदनुसार जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत प्रथम सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में उसका निर्देश कर दिया गया है । (सूत्र १,१,१३६) दसरा 'वर्ण' अनयोगद्वार है। तदनुसार धवलाकार ने द्रव्यलेश्यागत वर्णविशेष की प्ररूपणा 'लेश्या' अनुयोगद्वार (१३) में की है। तीसरे परिणाम अनुयोगद्वार के अनुसार उसकी प्ररूपणा धवला के अन्तर्गत यहीं पर 'लेश्यापरिणाम' अनुयोगद्वार (१५) में की गई है । स्वस्थान-परस्थान में कृष्णादि लेश्याओं का संक्रमण किस प्रकार से होता है, इसका स्पष्टीकरण जिस प्रकार तत्त्वार्थवार्तिक में संक्रम अधिकार के आश्रय से किया गया है उसी प्रकार धवला में इस 'लेश्यापरिणाम' अनयोग द्वार में किया गया है। इसी प्रकार वह लेश्याविषयक विशेष प्ररूपणा हीनाधिक रूप में कहीं मूल षटखण्डागम में और कहीं उसकी इस धवला टीका में की गई है । मूल प० ख० में जैसे___ गतिविषयक प्ररूपणा 'गति-आगति' चूलिका में (सूत्र १,६-६, ७६-२०२), स्वामित्व. विषयक सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में (सूत्र १,१,१३७-४०), संख्याविषयक क्षुद्र कबन्ध के द्रव्य प्रमाणानगम में (सूत्र २,५,१४७-५४), क्षेत्रविषयक इसी क्षुद्र कबन्ध के क्षेत्रानुगम में (सत्र २,६,१०१-६), स्पर्शनविषयक स्पर्शनानुगम में (सूत्र २,७,१६३-२१६), कालविषयक कालानगम में (सूत्र २,२,१७७-८२), अन्तरविषयक अन्तरानुगम में (सूत्र २,३,१२५-३०), भावविषयक स्वामित्वानुगम में (सूत्र २,१,६०-६३) व अल्पबहुत्वविषयक अल्पबहुत्वानुगम में । (सूत्र २,११,१७६-८५) १. इसके पूर्व भी उन गाथाओं को 'सत्प्ररूपणा' के अन्तर्गत लेश्यामार्गणा के प्रसंग में (पु० १, पृ० ३८८-६०) उद्धृत किया जा चुका है। २. तत्त्वार्थवार्तिक ४,२२,१०, पृ० १७०-७२ षट्खण्डागम को अन्य मन्त्रों से तुलना / २६६ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवार्तिक का यह प्रसंग कहीं-कहीं पर तो षट्खण्डागम सूत्रों का छायानुवाद जैसा दिखता है। उदाहरण के रूप में लेश्याविषयक 'स्पर्श' को लिया जा सकता है __ "लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सिणं असंजदभंगो ।' तेउलेस्सिण सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अट्ठ चोद्दस भागा वा देसूणा । समग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अटूचोइस भागा वा देसूणा । उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । दिवड्ढचोद्दस भागा वा।" -१० ख० सूत्र २,७,१६२-२०१ (पु० ७) इसका त० वा० के उस प्रसंग से मिलान कीजिये "कृष्ण-नील-कापोतलेश्यः स्वस्थान-समुद्धातोपपादैः सर्वलोकः स्पृष्टः । तेजोलेश्यः स्वस्थानेन लोकस्यासंख्येयभागः, अष्टो चतुर्दशभागा वा देशोनाः । समुद्घातेन लोकस्यासंख्येय भागः अष्टौ नव (?) चतुर्दशभागा वा देशोनाः। उपपादेन लोकस्यासंख्येयभागः अध्यर्ध-चतुर्दश भागा वा देशोनाः।" _..---- त० वा० ४,२२,१०, पृ० १७२ इस प्रकार १० ख० और त० वा० में इस प्रसंग की बहुत कुछ समानता देखी जाती है। विशेष इतना है कि ष० ख० में जहाँ उसकी प्ररूपणा आगमपद्धति के अनुसार विभिन्न अनुयोगद्वारों में पृथक्-पृथक् हुई है वहाँ त० वा० में वह 'पीत-पद्म-शुक्लेश्या द्वि-त्रि-शेषेष' इस सूत्र (४-२२) की व्याख्या में पूर्वोक्त निर्देश-वर्णादि १६ अनुयोगद्वारों के आश्रय से एक ही स्थान में कर दी गई है। सिद्धान्तग्रन्थों के मर्मज्ञ आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने भी लेश्याविषयक निरूपण उसी प्रकार से गो० जीवकाण्ड में किया है। उसका आधार षट्खण्डागम और कदाचित् तत्त्वार्थवार्तिक का वह प्रसंग भी रहा हो । १३. षट्खण्डागम (धवला) और गोम्मटसार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (विक्रम की ११ वीं शती) विरचित गोम्मटसार एक सैद्धान्तिक ग्रन्थ है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त के पारगामी रहे हैं । प्रस्तुत षट्खण्डागम में जिन प्रतिपाद्य विषयों का विवेचन आगम पद्धति के अनुसार बहुत विस्तार से किया गया है प्रायः उन सभी विषयों का विवेचन गोम्मटसार में अतिशय कुशलता के साथ व्यवस्थित रूप में संक्षेप से किया है। प्रस्तुत षट्खण्डागम आ० नेमिचन्द्र के समक्ष रहा है व उन्होंने उसका गम्भीर अध्ययन करके सिद्धान्तविषयक अगाध पाण्डित्य को प्राप्त किया था। उन्होंने स्वयं यह कहा है कि जिस प्रकार चक्रवर्ती ने चक्ररत्न के द्वारा बिना किसी विघ्न-बाधा के छह खण्डों में विभक्त समस्त भरतक्षेत्र को सिद्ध किया था उसी प्रकार मैंने अपने बुद्धिरूप चक्र के द्वारा षटखण्ड को-छह खण्डों में विभक्त षट्खण्डागम परमागम को-समीचीनतया सिद्ध किया है-उसमें मैं पारंगत हुआ हूँ। षट्खण्डागम के अन्तर्गत जीवस्थानादि रूप छह खण्डों १. इसके लिए ष० ख० र ष० ख० सूत्र २,७,१७७ और २,७,१३८-३६ द्रष्टव्य हैं। २. १० ख० सूत्र २,७,१,७७ व २, ७, १३८-३६ दृष्टव्य हैं। ३. जीवकाण्ड गा० ४८८-५५५ ४. जह चक्केण य चक्की छक्खंडं साहियं अविग्घेण । तह मइ-चक्केण मया छक्खंडं साड़ियं सम्मं ।।-गो० क० ३६७ ३../ बनण्डागम-परिशीलन Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में अपूर्व पाण्डित्य को प्राप्त करने के कारण ही उन्हें 'सिद्धान्तचक्रवर्ती' को सम्मान्य उपाधि प्राप्त थी। व्यवस्थित रूप में समस्त सैद्धान्तिक विषयों के प्ररूपक उस सुगठित, संक्षिप्त व सुबोध गोम्मटसार के सुलभ हो जाने से प्रस्तुत षट्खण्डागम का प्रचार-प्रसार प्रायः रुक गया था। उसके अधिक प्रचार में न आने का दूसरा एक कारण यह भी रहा है कि कुछ विद्वानों ने गृहस्थों, आर्यिकाओं और अल्पबुद्धि मुनिजनों को उसके अध्ययन के लिए अनधिकारी घोषित कर दिया था।' - इसके अतिरिक्त एक अन्य कारण यह भी रहा है कि इन सिद्धान्त-ग्रन्थों की प्रतियां एक मात्र मूडबिद्री में रही हैं व उन्हें बाहर आने देने के लिए रुकावट भी रही है। इससे भी उनका प्रचार नहीं हो सका। यह गोम्मटसार ग्रन्थ जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड इन दो भागों में विभक्त है। उनमें जीवकाण्ड में जीवों की और कर्मकाण्ड में कर्मों की विविध अवस्थाओं का विवेचन है । दोनों का आधार प्राय: प्रस्तुत षट्खण्डागम व उसकी धवला टीका रही है। इसी को यहां स्पष्ट किया जाता हैजीवकाण्ड यहां सर्वप्रथम मंगलस्वरूप.सिद्ध परमात्मा और जिनेन्द्रवर नेमिचन्द्र को प्रणाम करते हुए जीव की प्ररूपणा के कहने की प्रतिज्ञा की गई है । आगे जीव की वह प्ररूपणा किन अधिकारों द्वारा की जायगी, इसे स्पष्ट करते हुए (१) गुणस्थान, (२) जीवसमास, (३) पर्याप्ति, (४) प्राण, (५) संज्ञा, (६-१६) चौदह मार्गणा और (२०) उपयोग इन बीस प्ररूपणाओं का निर्देश किया है। इन्हीं बीस प्ररूपणाओं का यहाँ विवेचन किया गया है। वह षट्खण्डागम से कितना प्रभावित है, इसका यहाँ विचार किया जाता है जैसा कि ष० ख० के पूर्वोक्त परिचय से ज्ञात हो चुका है, उसके प्रथम खण्डस्वरूप जीवस्थान में जो सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वार हैं उनमें १७७ सूत्रात्मक सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार की रचना आ० पुष्पदन्त द्वारा की गई है । आ० वीरसेन ने अपनी धवलाटीका में उन सब सूत्रों की व्याख्या करने के पश्चात् यह प्रतिज्ञा की है कि अब हम उन सत्प्ररूपणा सूत्रों का विवरण समाप्त हो जाने पर उनकी प्ररूपणा कहेंगे। आगे 'प्ररूपणा' का स्वरूप स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि ओघ और आदेश से गुणस्थानों, जीवसमासों, पर्याप्तियों, प्राणों, संज्ञाओं, गति-इन्द्रियादि १४ मार्गणाओं और उपयोगों में पर्याप्त व अपर्याप्त विशेषणों से विशेषित करके जो जीवों की परीक्षा की जाती है उसका नाम प्ररूपणा है। यह कहते हुए १. दिणपडिम-वीरचरिया-तियालजोगेमु णत्थि अहियारो। सिद्धान्तरहस्साण वि अज्झयणे देसविरदाणं ।।--वसुन० श्रा० ३१२ आर्यिकाणां गृहस्थानां शिष्याणामल्पमेधसाम् । न वाचनीयं पुरतः सिद्धान्ताचार-पुस्तकम् ।।-नीतिसार ३२ २. इस मंगलगाथा में उपयुक्त सिद्ध व जिनेन्द्रवर आदि अनेकार्थक शब्दों के आश्रय से संस्कृत टीका में अनेक प्रकार से इस मंगल गाथा का अर्थ प्रकट किया गया है। ३. धवला पु० २, पृ० ४११ पट्खण्डागम की अन्य प्रन्थों से तुलना / ३०१ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने आगे 'उक्तं च' के निर्देश के साथ इस प्राचीन गाथा को उद्धृत किया है गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य। उवजोगो विय कमसो वोसं तु पावणा भणिया॥ जीवकाण्ड में यह गाथा मंगलगाथा के पश्चात् दूसरी गाथा के रूप में ग्रन्थ का अंग बना ली गई है। २. जीवकाण्ड में आगे कहा गया है कि संक्षेप व अोघ यह गुणस्थान की संज्ञा है जो मोह और योग के निमित्त से होती है तथा विस्तार और आदेश यह मार्गणा की संज्ञा है जो अपने कर्म के अनुसार होती है। ०ख० में प्रायः सर्वत्र ही विवक्षित विषय का विवेचन ओघ और आदेश के क्रम से किया गया है। धवलाकार ने 'ओघ' और 'आदेश' को स्पष्ट करते हुए ओघ का अर्थ सामान्य व अभेद और आदेश का अर्थ विशेष व विस्तार किया है । तदनुसार ओघ से गुणस्थान और आदेश से मार्गणास्थान ही विवक्षित रहे हैं। ___ इस प्रकार जीवकाण्ड में इस मूल षट्खण्डागम और धवला का पूर्णतया अनुसरण किया गया है। १० ख० में प्रायः प्रत्येक अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में ओघ और आदेश से विवक्षित विषय की प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा करते हुए तदनुसार ही उसका विवेचन प्रथमतः गुणस्थानों के आश्रय से और तत्पश्चात् गत्यादि मार्गणाओं के आश्रय से किया है। इसी प्रकार जीवकाण्ड में भी प्रथमतः ओघ के अनुसार गुण स्थानों के स्वरूप को प्रकट किया गया है और तत्पश्चात् जीवसमास आदि का निरूपण करते हुए आगे उन गति आदि १. यह गाथा पंचसंग्रह में इसी रूप में उपलब्ध होती है (१-२)। तिलोयपण्णत्ती (गा. २-२७२,४-४१० व ८-६६२) में भी वह उपलब्ध होती है। विशेषता यह रही है कि वहां प्रसंग के अनुसार उसके उत्तरार्थ में कुछ शब्दपरिवर्तन कर दिया गया है। यथा-- गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणा कमसो । उवजोगा कहिदव्वा णारइयाणं जहाजोगं ॥२-२७२ २. संखेओ ओघो त्ति य गुणसण्णा सा च मोह-जोगभवा । वित्थारादेसोत्ति य मग्गणसण्णा सकम्मभवा ।।--गो०जी०३ इसका मिलान धवला के इस प्रसंग से कीजिए "ओघेण सामान्ये नाभेदेन प्ररूपणमेकः । अपरः आदेशेन भेदेन विशेषेण प्ररूपणमिति । धवला पु० १, पृ० १६०; ओघेन-ओघ वृन्दं समूहः संघातः समुदयः पिण्डः अवशेषः अभिन्न: सामान्यमिति पर्यायशब्दाः । गत्यादिमार्गणस्थान रविशेषितानां चतुर्दशगुणस्थानानां प्रमाण-प्ररूपणमोघनिर्देशः । धवला पु० ३, पृ०६ (यह द्रव्यप्रमाण के प्रसंग में कहा गया है)। आदेशः पृथग्भावः पृथक्करणं विभजनं विभक्तीकरणमित्यादयः पर्याशब्दाः । गत्यादिविभिन्नचतुर्दशजीवसमासप्ररूपणमादेशः ।"-पु० ३, पृ० १० ३. गुणस्थानों व गुणस्थानातीत सिद्धों का अस्तित्व १५ (६-२३) सूत्रों में दिखलाकर आगे समस्त सूत्रों (२४-१७७) में मार्गणाओं का निर्देश है (पु० १) ३०२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह मार्गणामों का निरूपण किया गया है।' विशेषता यह रही है कि ष० ख० में जहाँ “ओघेण अस्थि मिच्छा इट्टी" आदि सूत्रों के द्वारा पृथक्-पृथक् क्रम से मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों के अस्तित्वमात्र की सूचना है वहाँ जीवकाण्ड में प्रथमतः दो (९-१०) गाथाओं में उन चौदह गुणस्थानों के नामों का निर्देश किया गया है और तत्पश्चात् यथाक्रम से उनके स्वरूप का निरूपण है। यह यहां विशेष ध्यान देने योग्य है कि मूल षट्खण्डागम सूत्रों में केवल नामोल्लेखपूर्वक मिथ्यादृष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टि आदि चौदह गुणस्थानवी जीवों के सत्त्व को प्रकट किया गया है। उन सत्रों की यथाक्रम से व्याख्या करते हुए धवलाकार ने उनके स्वरूप आदि को स्पष्ट किया है । इस स्पष्टीकरण में उन्होंने प्रत्येक गुणस्थान के प्रसंग में प्रमाणस्वरूप जो प्राचीन गाथाएँ उद्धत की हैं वे प्रायः सब ही बिना किसी प्रकार की सूचना के यथा प्रसंग जीवकाण्ड में उपलब्ध होती हैं, यह आगे धवला में उद्धृत गाथाओं की सूची के देखने से स्पष्ट हो जावेगा। ३. जीवकाण्ड में अयोगकेवली गुणस्थान का स्वरूप दिखलाकर तत्पश्चात गणश्रेणिनिर्जरा के क्रम को प्रकट करते हुए "सम्मत्तुप्पत्तीये" आदि जिन दो (६६-६७) गाथाओं का उपयोग किया गया है वे षट्खण्डागम के चौथे वेदना खण्ड के अन्तर्गत 'वेदनाभाव विधान' अनुयोगद्वार की प्रथम चूलिका में सूत्र के रूप में अवस्थित हैं।' ४. जी०का० में गुणस्थान प्ररूपणा के अनन्तर जीवसमासों का विवेचन किया गया है। वहाँ जीवसमास के ये चौदह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं—बादर व सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा संज्ञी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय; ये सातों पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं । इस प्रकार इन चौदह जीवभेदों को वहाँ जीवसमास कहा गया है (गाथा ७२)। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, ष० ख० में 'जीवसमास' शब्द से गुणस्थानों की विवक्षा रही है। फिर भी जी० का० में चौदह जीवसमास के रूप में जिन चौदह जीवभेदों का उल्लेख किया गया है उनका निर्देश ष० ख० में सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के अन्तर्गत इन्द्रिय व काय मार्गणाओं के प्रसंग में किया गया है। ___ जी० का० में यद्यपि 'जीवसमास' अधिकार में जीवसमास के रूप में उपर्युक्त चौदह जीवभेद अभीष्ट रहे हैं फिर भी ष० ख० में जिस प्रकार 'जीवसमास' शब्द से गुणस्थानों की विवक्षा रही है उसी प्रकार जी० का० में भी गुणस्थानों का उल्लेख 'जीवसमास' शब्द से १. जीवकाण्ड में पूर्व प्रतिज्ञात बीस प्ररूपणाओं में प्रथमतः गुणस्थानों के स्वरूप को दिखा कर (गा० ८-६६) आगे जीवसमास (७०-११६), पर्याप्ति (११७-२७), प्राण (१२८३२) और संज्ञा (१३३-३८) इन प्ररूपणाओं का वर्णन है। तत्पश्चात् यथाक्रम से गति इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं का विचार किया गया है। (गा० १३६-६७०) २. १० ख० पु० १२, पृ० ७८ ३. जीवाः समस्यन्ते एष्विति जीवसमासाः । चतुर्दश च ते जीवसमासाश्च चतुर्दशजीवसमासाः, ___ तेषां चतुर्दशानां जीवसमासानां चतुर्दशगुणस्थानानामित्यर्थः ।-धवला पु० १, पृ०१३१ ४. १० ख० सूत्र १,१, ३४-३५ (आगे सूत्र १,१,३६-४१ में इनके अवान्तर भेदों का भी निर्देश किया गया है)। प्र० १ षट्खण्डागम को अन्य प्रन्थों से तुलना / ३०३ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया है । यथा- मिच्छो सासण मिस्सो अविरदसम्मो य देसविरदो य । विरदा पमत्त इदरो अयुव्व अणियट्टि सुमो य ॥ - गा०६ वसंत खीणमोहो सजोगकेवलिजिणो अजोगी व । चउदह जीवसमासा कमेण सिद्धा य णायव्वा' ॥ - गा० १० ५. जी० का० के इस जीवसमास अधिकार में संक्षेप से शरीर की अवगाहना के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा है ( गा० ६७-१०१) । ष० ख० में चतुर्थ वेदना खण्ड के अन्तर्गत दूसरे वेदना नामक अनुयोगद्वार में जो १६ अवान्तर अनुयोगद्वार हैं उनमें पाँचवाँ 'वेदनाक्षेत्रविधान' है । उसमें प्रसंगवश सब जीवों में शरीरावगाहनाविषयक अल्पबहुत्व की विस्तार से प्ररूपणा हुई है । " सम्भवतः ष० ख० के इसी अवगाहनामहादण्डक के आधार से जो० का० में उपर्युक्त श्रवगाहनाविकल्पों की प्ररूपणा हुई है । ६. जी० का ० के इसी 'जीवसमास' अधिकार में कुलों की भी प्ररूपणा की गई है । ( ११३-१६) ० ख० में यद्यपि कुलों की प्ररूपणा नहीं है, पर मूलाचार में उनकी विवेचना की गई है । मूलाचार में की गई उस विवेचना से सम्बद्ध गाथा ५- २४ तथा गाथा ५-२६ ये दो गाथाएँ जी० का० में ११३-१४ गाथा संख्या में ज्यों की त्यों उपलब्ध होती हैं। मूलाचार में उन दो गाथाओं के मध्य में जो द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और हरितकाय जीवों के कुलों की निर्देशक २५वीं गाथा है वह जी० का० में नहीं उपलब्ध होती । वहाँ मूलाचार की इस गाथा में निर्दिष्ट द्वीन्द्रिय आदि जीवों के कुलों की संख्या का उल्लेख भी अन्य किसी गाथा में नहीं है । आगे मूलाचार (५-२७) में क्रम से देवों, नारकियों और मनुष्यों के कुलों की संख्या छब्बीस, पच्चीस और चौदह कुलकोटिशतसहस्र निर्दिष्ट की गई है । कुलों की संख्या का यह उल्लेख जी० का ० ( ११५) में भी किया गया है । पर वहाँ विशेषता यह रही है कि मूलाचार में जहाँ मनुष्यों के कुलों की संख्या चौदह कुल कोटिशतसहस्र निर्दिष्ट की गई है वहाँ जी० का० में उनकी वह संख्या बारह कुलकोटिशतसहस्र है । अन्त में मूलाचार में जो समस्त कुलों की सम्मिलित संख्या निर्देश किया है वह उन सबके जोड़ने पर ठीक बैठता है (५-२८), पर जी० का० (११६) में निर्दिष्ट समस्त कुल १. श्वे० संस्था रतलाम से प्रकाशित 'जीवसमास' में भी दो गाथाओं में गुणस्थानों के नामों का उल्लेख किया गया है ( गा० ६-१० ) । वहाँ दूसरी गाथा के चतुर्थ चरण में इस प्रकार का पाठ भेद है- कमेण एएऽणुगंतव्वा । २. ष० ख० पु० ११, सूत्र ३०-६६ ( पृ० ५६-७०) । ३. मूलाचार में आगे 'पर्याप्ति' अधिकार ( १२ ) में उन कुलों की संख्या उन्हीं गाथाओं में फिर से भी निर्दिष्ट की गई है ( १६६-६६ ) । विशेषता यह है कि वहाँ उनकी सम्मिलित संख्या का उल्लेख नहीं किया है । (कुलों की यह प्ररूपणा जीवसमास (४०-४४ ) में भी ( शेष पृष्ठ ३०५ पर देखिए) ३०४ / षट्खण्डागम - परिशीलन Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या जोड़ने पर ठीक नहीं बैठती।' ___ जीवकाण्ड में उपर्युक्त द्वीन्द्रियादि जीवों के कुलों की संख्या का निर्देश करनेवाली गाथा सम्भवतः प्रतिलिपि करनेवाले की असावधानी से छूट गई है। उन द्वीन्द्रियादि के कुलों की संख्या के सम्मिलित कर देने पर जी. का० में निर्दिष्ट वह समस्त कुलसंख्या भी ठीक बैठ जाती है। ७. जीवकाण्ड के 'पर्याप्ति' अधिकार में आहारादि छह पर्याप्तियों का निर्देश करते हए उनमें से एकेन्द्रियों के चार, विकलेन्द्रियों के पांच और संज्ञियों के छहों पर्याप्तियों का सद्भाव दिखलाया गया है (११८)। प० ख० में 'सत्प्ररूपणा' अनुयोगद्वार के अन्तर्गत योगमार्गणा के प्रसंग में नामनिर्देश के बिना क्रम से छह पर्याप्तियों व अपर्याप्तियों का सदभाव संज्ञी मिथ्यादष्टि आदि असंयतसम्यगदृष्टि तक, पाँच पर्याप्तियों व अपर्याप्तियों का सद्भाव द्वीन्द्रियादि असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक और चार पर्याप्तियों व अपर्याप्तियों का सदभाव एकेन्द्रियों के प्रकट किया गया है। (सूत्र १,१,७०-७५) इस प्रकार ष० ख० और जी० का० दोनों ग्रन्थों में पर्याप्तियों का यह उल्लेख समान रूप से किया गया है। विशेष इतना है कि प० ख० में जहाँ उनका उल्लेख संज्ञियों को आदि लेकर किया गया है वहां जी० का० में विपरीत क्रम से एकेन्द्रियों को आदि लेकर किया गया है । पर्याप्तियों के नामों का उल्लेख मूल में नहीं किया गया है, पर धवला में इसके पूर्व इन्द्रिय मार्गणा के प्रसंग में उनके नामों का निर्देश करते हुए स्वरूप आदि को भी स्पष्ट कर दिया गया है। धवला में वहाँ इस प्रसंग में 'उक्तं च' कहकर 'बाहिरपाणेहि जहा' आदि जिस गाथा को उद्धृत किया गया है वह बिना किसी प्रकार की सूचना के जी० का० में गाथा १२८ के रूप में ग्रन्थ का अंग बना ली गई है। विशेषता यह रही है कि वहां 'जीवंति' के स्थान में 'पाणंति' और 'बोद्धव्वा' के स्थान में 'णिद्दिट्ठा' पाठभेद हो गया है। ८. आगे जी० का० में 'मार्गणा' महाधिकार को प्रारम्भ करते हुए जिस 'गइ-इंदियेसुकाये' (१४१) आदि गाथा के द्वारा चौदह मार्गणाओं के नामों का उल्लेख किया गया है वह की गई है । वहां पूर्व की दो गाथाएँ मूलाचार से शब्दशः समान हैं। संख्याविषयक मतभेद जी० का० के समान है) कुलों की यह प्ररूपणा तत्त्वार्थसार (२,११२-१६) में भी उपलब्ध है । वह सम्भवतः मलाचार के आधार से ही की गई है। १. मूलाचार की उस गाथा से जी० का० की गाथा कुछ अंश में समान भी है, पर समस्त संख्या में भेद हो गया है। यथा--- एया य कोडिकोडी णवणवदी-कोडिसदसहस्साई। पण्णासं च सहस्सा संवग्गीणं कुलाण कोडीओ।।-मूला० गाथा ५-२८ एया य कोडिकोडी सत्ताणवदी य सदसहस्साई। वण्णं कोडिसहस्सा सव्वंगीणं कुलाणं य ।।.-जी०का० ११६ २. धवला पु० १, पृ० २५३-५६ परखण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना /३०५ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ष० ख० में गद्यात्मक सूत्र के रूप में अवस्थित है।' ६. जी० का० में आठ सान्तर मार्गणाओं का निर्देश करते हुए उनके अन्तरकाल के प्रमाण को भी प्रकट किया गया है। (१४२-४३) ष० ख० में उन आठ सान्तरमार्गणाओं के अन्तर काल का उल्लेख प्रसंगानुसार इस प्रकार किया गया हैसान्तरमार्गणा अन्तरकाल पु०७, सूत्र १. मनुष्य अपर्याप्त जघन्य एक समय उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग २,६,८-१० २. वैक्रियिक मिश्र का योग जघन्य एक समय उत्कृष्ट बारह मुहूर्त २,६,२४-२६ ३. आहार-काययोग जघन्य एक समय उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व २,६,२७-२६ ४. आहार-मिश्रकाययोग ५. सूक्ष्म साम्परायिकसंयत जघन्य एक समय उत्कृष्ट ६ मास २,६,४२-४४ ६. उपशमसम्यग्दृष्टि जघन्य एक समय उत्कृष्ट ७ रात-दिन २,९,५७-५६ ७. सासादनसम्यग्दृष्टि जघन्य एक समय उत्कृष्ट प० का असंख्यातवाँ भाग २,६,६०-६२ ८. सम्यग्मिथ्यादृष्टि इस प्रकार ष० ख० में जो मार्गणाक्रम से नाना जीवों की अपेक्षा उन आठ सान्तरमार्गणाओं के अन्तरकाल का प्रमाण कहा गया है उसी का उल्लेख जी० का० में किया गया है। विशेषता यह रही है कि ष० ख० में जहां यह उल्लेख मार्गणा के अनुसार किया है वहां जीवकाण्ड में गत्यादि मार्गणाओं के नामनिर्देश के अनन्तर दो गाथाओं में एक साथ प्रकट कर दिया गया है, इसी लिए उनमें क्रमभेद भी हुआ है । १०. जीवकाण्ड के इस 'मार्गणा महाधिकार' में जो यथाक्रम से गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं की प्ररूपणा की गई है उसका आधार प्रायः ष० ख० की धवला टीका रही है। यही नहीं, प्रसंगानुसार वहाँ धवला में उद्धृत सभी गाथाओं को जीवकाण्ड में ग्रन्थ का अंग बना लिया गया है। इसके अतिरिक्त कषायप्राभृत व मूलाचार की भी कुछ गाथाएँ वहाँ उपलब्ध होती हैं। ऐसी गाथाओं की सूची आगे दी गई है । उसके लिए कुछ उदाहरण यहाँ भी दिये गये हैं (१) जीवकाण्ड में कायमार्गणा के अन्तर्गत वनस्पतिकायिक जीवों की प्ररूपणा के प्रसंग १. सूत्र १,१,४ (पु० १) व २,१,२ (पु०७) । यह गाथा के रूप में मूलाचार (१२-१५६) विशेषावश्यकभाष्य (४०६ नि०) और प्रवचनसारोदार (१३०३) में भी उपलब्ध होता है। ३०६ / पट्खण्डागम-परिशीलन Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जो १६१,१६२,१९४ और १९६ ये गाथाएँ उपलब्ध होती हैं वे ष०ख० के 'बन्धन' अनुयोगद्वार में गाथासूत्र १२२,१२५,१२७ और १२८ के रूप में अवस्थित हैं।' (२) जीवकाण्ड में इसी प्रसंग के अन्तर्गत १८५ व १८६ ये दो गाथाएँ मूलाचार के पंचाचाराधिकार में १६ और १६ गाथांकों के रूप में अवस्थित हैं। (३) जीवकाण्ड के अन्तर्गत गाथाएँ १८ व २७ क्रम से कषायप्राभूत में १०७ व १०८ गाथांकों के रूप में अवस्थित हैं।' (४) जीवकाण्ड में प्रमत्तसंयत गुणस्थान के प्रसंग में प्रमाद का निरूपण करते हुए जिन ३६-३८, ४० और ४२ इन पाँच गाथाओं का उपयोग किया गया है वे मूलाचार के 'शीलगुणाधिकार' में यथाक्रम से २०-२२, २३ और २५ इन गाथांकों में अवस्थित हैं। विशेषता यह रही है कि मूलाचार की गाथा २१ में जहाँ प्रसंग के अनुरूप 'सील' शब्द का उपयोग हुआ है वहाँ जोवकाण्ड की गाथा ३७ में उसके स्थान में प्रमाद का प्रसंग होने से 'पमद' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार मूलाचार की गाथा २५ में जहाँ प्रसंग के अनुरूप चतुर्थ चरण में 'कुज्जा पढमंति याचेव' ऐसा पाठ रहा है वहाँ जीवकाण्ड की गाथा ४२ में उसके स्थान में 'कुज्जा एमेव सव्वत्थ' ऐसा पाठ परिवर्तित हुआ है। (५) जीवकाण्ड में ज्ञानमार्गणा के प्रसंग में प्रयुक्त ४०३-६,४११,४२६ और ४२६-३१ ये ६ गाथाएँ ष० ख० के पाँचवें वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में ४-८ और ११-१४ गाथासूत्रों के रूप में अवस्थित हैं। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि आ० नेमिचन्द्र ने अपने से पूर्वकालीन कषायप्राभूतादि अन्य ग्रन्थों से भी प्रसंगानुरूप गाथाओं को लेकर अपने ग्रन्थों का अंग बनाया है। ११. जीवकाण्ड में यथाक्रम से गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं का निरूपण करते हुए प्रत्येक मार्गणा के अन्त में प्रसंग प्राप्त उन जीवों की संख्या को भी प्रकट किया गया है। इस संख्या प्ररूपणा का आधार ष० ख० के प्रथम खण्ड स्वरूप जीवस्थान के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वारों में जो दूसरा 'द्रव्यप्रमाणानुगम' अनुयोगद्वार है, रहा है। विशेष इतना है कि जीवकाण्ड में जहाँ गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं में यथाक्रम से स्वरूप आदि का विचार करते हुए अन्त में उन जीवों की संख्या का उल्लेख है वहाँ षट्खण्डागम के अन्तर्गत इस अनुयोगद्वार में प्रथमतः ओघ की अपेक्षा क्रम से मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानवी जीवों की और तत्पश्चात् गतिइन्द्रियादि मार्गणाओं में प्रसंगप्राप्त जीवों की संख्या का उल्लेख हुआ है। यह 'द्रव्यप्रमाणानुगम' उस संख्या का प्ररूपक स्वतंत्र अनुयोगद्वार है, जो ष०ख० को पु० ३ में प्रकाशित है। इस प्रसंग में धवला में उद्धृत कुछ गाथाओं को भी यथाप्रसंग जीवकाण्ड में आत्मसात् कर लिया गया है। ___ इसी प्रकार धवला में जीवस्थान के अन्तर्गत क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम और भावानुगम इन अन्य अनुयोगद्वारों में तथा चूलिका में भी यथाप्रसंग जो गाथाएँ उद्धृत की गई हैं वे जीवकाण्ड में यथास्थान उपलब्ध होती हैं । उन सब की सूची एक साथ आगे दी गई है। १. १० ख० पु० १४, पृ० २२६-३४ २. कसायसुत्त, पृ० ६३७ घटसणागम की अन्य प्रन्थों से तुलना / ३०७, Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जीवकाण्ड में जो गुणस्थानों आदि की प्ररूपणा की गई है वह प्रस्तुत ष० ख० व उसकी धवला टीका से बहुत कुछ प्रभावित है। पर यह भी ध्यान देने योग्य है कि उक्त जीवकाण्ड में प्रसंगानुसार कुछ ऐसा भी विवेचन किया गया है जो ष० ख० और धवला में नहीं उपलब्ध होता। वहाँ ज्ञानमार्गणा, लेश्यामार्गणा और सम्यक्त्वमार्गणा के प्रसंग में कुछ अन्य प्रासंगिक विषयों की भी चर्चा की गई है । यथा जीवकाण्ड में ज्ञानमार्गणा के प्रसंग में जो पर्याय व पर्यायसमास और अक्षर व अक्षरसमास आदि बीस प्रकार के श्रुतज्ञान की प्ररूपणा की गई है वह पूर्णतया ष०ख० से प्रभावित है क्योंकि वहाँ वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में यह एक गाथासूत्र है-. पज्जय-अक्लर-पद-संघादय-पडिवत्ति-जोगदाराई। पाहुडपाहुड-वत्थू पुश्व समासा य बोद्धव्वा ॥ ----पु० १३, पृ० २६० इस गाथासूत्र का स्वयं मूलग्रन्थकार द्वारा स्पष्टीकरण करते हए पर्यायावरणीय और पर्यायसमासावरणीय आदि श्रुतज्ञानावरणीय के जिन बीस भेदों का निर्देश किया गया है (सूत्र ५,५,४८), तदनुसार ही उनके द्वारा यथाक्रस से आवृत उन पर्याय व पर्यायसमास आदि रूप बीस श्रुतज्ञानभेदों का निर्देश जीवकाण्ड में किया गया है (३१६-१७)। आगे जीव. काण्ड में जो उक्त श्रुतज्ञान भेदों के स्वरूप आदि के विषय में विचार किया गया है (गाथा ३१८-४८) उसका आधार उस सूत्र की धवला टीका रही है । (पु० १३, पृ० २६१-७६) ____ इस प्रकार उक्त ष० ख० सूत्र और उसकी धवला टीका का अनुसरण करते हुए भी यहाँ जीवकाण्ड में अनन्तभागवृद्धि आदि छह वृद्धियों की क्रम से ऊर्वंक, चतुरंक, पंचांक, षडंक, सप्तांक और अष्टांक इन संज्ञाओं का उल्लेख है (गा० ३२४) व तदनुसार ही आगे यथावसर का उपयोग भी किया गया है। यह पद्धति ष० ख० व धवला टीका में नहीं अपनाई १३. जीवकाण्ड में जो ६४ अक्षरों के आश्रय से श्रतज्ञान के अक्षरों के उत्पादन की प्रकिया का निर्देश है (३५१-५२) उसका विवेचन धवला में विस्तार से किया है। (पु० १३, पृ० २४७-६०) इस प्रसंग में धवला में संयोगाक्षरों की निर्देशक जो 'एय? च' आदि गाथा उदधृत है वह जीवकाण्ड में गाथांक ३५३ में उपलब्ध है। __ आगे धवला में मध्यम पद सम्बन्धी अक्षरों के प्रमाण की प्ररूपक जो 'सोलससद चोत्तीसं' आदि गाथा उद्धृत है (पु० १३, पृ० २६६) वह भी जीवकाण्ड में गाथा ३३५ के रूप में उपलब्ध होती है। १४. जीवकाण्ड में इस प्रसंग में यह एक विशेषता देखी गई है कि वहाँ आचारादि ग्यारह अंगों और बारहवें दृष्टिवाद अंग के अन्तर्गत परिकर्म आदि के पदों का प्रमाण संकेतात्मक अक्षरों में प्रकट किया गया है । (गाथा ३५६ व ३६२-६३) जैसे-आचारादि ११ अंगों के समस्त पदों का प्रमाण ४१५०२००० है। इसका संकेत 'वापणन रनोनानं' इन अक्षरों में किया है। साधारणतः इसके लिए यह नियम है कि क से १. पंचांक, ऊर्वक व अष्टांक संज्ञाओं का उल्लेख धवला में वृद्धिप्ररूपणा' के प्रसंग में देखा जाता है। पु० १२, पृ० २१७, २१८ व २२० आदि । ३०८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेकर शतक क्रम से १,२,३ आदि नौ अंक, ट से ध तक नौ अंक; प से म तक क्रम से १,२, ३,४,५ अंक और य से ह तक आठ अंक ग्रहण किये जाते हैं। अकारादि स्वर, ञ और न से शून्य (०) को ग्रहण किया जाता है। छन्द आदि की दृष्टि से उपयुक्त मात्राओं से किसी अंक को नहीं ग्रहण किया जाता है। इसी नियम के अनुसार ऊपर संकेताक्षरों में ग्यारह अंगों के पदों का प्रमाण प्रकट किया गया है। ___ यह पद्धति धवला में नहीं देखी जाती है । वहाँ उन सबके पदों का प्रमाण संख्यावाचक शब्दों के आश्रय से ही प्रकट किया गया है। (पु० १, १०७ व १०६ आदि तथा पु० ६, पृ० २०३ व २०५ आदि।) १५. जीवकाण्ड में संयममार्गणा के प्रसंग में जिस गाथा (४५६) के द्वारा संयम के स्वरूप को प्रकट करते हुए यह कहा गया है कि व्रतों के धारण, समितियों के पालन, कषायों के निग्रह, दण्डों के त्याग और इन्द्रियों के जय का नाम संयम है' वह गाथा धवला में संयममार्गणा के ही प्रसंग में 'उक्तं च' इस निर्देश के साथ उदधृत की गई है । वहीं से सम्भवतः उसे जीवकाण्ड में ग्रहण किया गया है। १६. जीवकाण्ड के आगे इसी संयममार्गणा के प्रसंग में सामान्य से परिहारविशुद्धिसंयत का स्वरूप स्पष्ट करते हुए यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि जो जन्म से ३० वर्ष तक यथेष्ट भागों का अनुभव करता हुआ सुखी रहा है, जिसने तीर्थकर के पादमूल में पृथक्त्ववर्ष तक रहकर प्रत्याख्यान पूर्व को पढ़ा है, और जो संध्याकाल को छोड़कर दो गव्यूति विहार करता है उसके परिहारविशुद्धि संयम होता है । वहाँ जिस गाथा के द्वारा यह विशेषता प्रकट की गई, वह इस प्रकार है तीसं वासो जम्मे वासपुधत्तं खु तित्थयरमले । पच्चक्खाणं पढिदो संझूणदु गाउअविहारो ॥४७२।। यहाँ गाथा में स्पष्टतया सुखी रहने का उल्लेख नहीं किया गया है, वहाँ 'तीसं वासो जम्मे' इतना मात्र कहा गया है। पर धवला में उसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसका उल्लेख स्पष्ट रूप से हुआ है । साथ ही, वहाँ यह विशेष रूप से कहा गया है कि परिहारविशद्धिसंयत सामान्य रूप से या विशेषरूप से-सामायिकछेदोपस्थापनादि के भेदपूर्वक-संयम को ग्रहण करके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से सम्बन्धित परिमित-अपरिमित प्रत्याख्यान के प्ररूपक प्रत्याख्यानपूर्व को समीचीनतया पढ़ता हुआ सब प्रकार के संशय से रहित हो जाता है, उसके विशिष्ट तप के आश्रय से परिहारविशुद्धि ऋद्धि उत्पन्न हो जाती है व वह तीर्थंकर के पादमूल में परिहारविशुद्धिसंयम को ग्रहण करता है । यहाँ 'पृथक्त्ववर्ष' का उल्लेख नहीं किया गया है, जिसका उल्लेख जीवकाण्ड की उपर्युक्त गाथा में है । इस प्रकार से वह गमनागमनादि रूप सब प्रकार की प्रवृत्ति में प्राणिहिंसा के परिहार में कुशल होता है। यहां यह विशेष स्मरणीय है कि धवला में संयममार्गणा के प्रसंग में जिन आठ गाथाओं १. संयम का यही स्वरूप तत्त्वार्थवार्तिक में भी निर्दिष्ट किया गया है। -६,७,१२, पृ० ३३० २. धवला पु० १, पृ० १४५ ३. धवला पु० १, पृ० ३७०-७१ षट्खण्डागम को अन्य ग्रन्थों से तुलना / ३०१ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८७-६४) को 'उक्तं च' कहकर उद्धृत किया है वे उसी रूप में व उसी क्रम से जीवकाण्ड में ४६६-७७ गाथांकों में भी उपलब्ध होती हैं।' विशेषता यह रही है कि ऊपर जीवकाण्ड की जिस 'तीसं वासो जम्म' (४७२) गाथा का उल्लेख है वह धवला में उद्धृत गाथाओं में नहीं है। ___ इस प्रकार अधिक सम्भावना तो यही है कि जीवकाण्ड में संयम की प्ररूपणा धवला के दी आधार से की गई है । 'तीसं वासो जम्मे' आदि गाथा आचार्य नेमिचन्द्र द्वारा ही रची गई दिखती है, वह पूर्ववर्ती किसी अन्य प्राचीन ग्रन्थ में नहीं पायी जाती। १७. जीवकाण्ड में लेश्यामार्गणा के प्रसंग में इन १६ अधिकारों के द्वारा लेश्या से सम्बन्धित कुछ प्रासंगिक चर्चा भी है---(१) निर्देश, (२) वर्ण, (३) परिणाम, (४) संक्रम, (५) कर्म, (६) लक्षण, (७) गति, (८) स्वामी, (६) साधन, (१०) संख्या, (११) क्षेत्र, (१२) स्पर्श, (१३) काल, (१४) अन्तर, (१५) भाव और (१६) अल्पबहुत्व । ख० में इस प्रकार से कहीं एक स्थान पर लेश्या से सम्बन्धित उन सब विषयों की नहीं की गई है, वहाँ यथाप्रसंग विभिन्न स्थानों पर उसका विचार किया गया है । जैसे-. यह पर्व में कहा जा चुका है कि वहाँ जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में लेश्यामार्गणा के प्रसंग में लेश्या के छह भेदों का निर्देश करते हुए उनके स्वामियों का भी उल्लेख किया गया है (सूत्र १३६-४०)। वहाँ छह लेश्यावाले जीवों के प्ररूपक सूत्र (१३२) की व्याख्या करते हए धवला में 'उक्तं च' ऐसा निर्देश करके क्रम से उन छह लेश्याओं के लक्षणों की प्ररूपक नौ गाथाओं को तथा आगे अलेश्य जीवों की प्ररूपक एक अन्य गाथा को उद्धृत किया गया है। जीवकाण्ड में उन गाथाओं को उसी रूप में व उसी क्रम से ग्रन्थ का अंग बना लिया गया है। विशेषता केवल यह रही है कि उन गाथाओं में अलेश्य जीवों की प्ररूपक गाथा को जीवकाण्ड में लेश्यामार्गणा को समाप्त पर लिया गया है। १८. १० ख० में महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के अन्तर्गत कृति-वेदनादि २४ अनुयोगद्वारों में जिन निबन्धन आदि अठारह (७-२४) अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा ग्रन्थकर्ता द्वारा नहीं की गई है उनकी प्ररूपणा वीरसेनाचार्य ने धवला टीका में कर दी है। उन २४ अनयोगद्वारों में १३वा लेश्या-अनुयोगद्वार, १४वां लेश्याकर्म और १५वां लेश्यापरिणाम अनुयोगद्वार है । इनमें से लेश्या-अनुयोगद्वार में शरीराश्रित द्रव्यलेश्या (शरीरगत वर्ण) की प्ररूपणा करते हुए किन जीवों के कौन-सा वर्ण होता है, इसे स्पष्ट किया गया १. धवला पु० १, पृ० ३७२-७३ २. जैसा कि पीछे 'ष० ख० व पंचसंग्रह' शीर्षक में संकेत किया गया है, जी० का० में इस लेश्याविषयक विशेष प्ररूपणा का आधार सम्भवतः 'तत्त्वार्थवार्तिक' का वह प्रसंग रहा है। ३. धवला पु० १, पृ० ३८८-६०; इन गाथाओं को आगे घवला में १४वें 'लेश्याकर्म' अनुयोग द्वार में भी उद्धृत किया गया है । पु० १६, पृ० ४६०-६२ (यहाँ मार्गणा का अधिकार न होने से 'अलेश्य' जीवों से सम्बन्धित गाथा उद्धृत नहीं है) ४. गा० ५०८-१६ व आगे गा० ५५५ ३१० / षट्खण्डागम-परिशीलन . Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। साथ ही, एक ही शरीर में प्रमुख वर्ण के साथ जो अन्य वर्ण रहते हैं उनके अल्पबहुत्व को भी दिखलाया गया है।" ___जीवकाण्ड में पूर्वोक्त निर्देशादि १६ अनुयोगद्वारों में दूसरा 'वर्ण' अनुयोगद्वार है । उस. में लगभग १० ख० के लेश्या अनुयोगद्वार के ही समान द्रव्यलेश्या की प्ररूपणा की गई है (४६३-६७)। १६. उपर्युक्त कृति-वेदनादि २४ अनुयोगद्वारों में १४वाँ 'लेश्याकर्म' अनुयोगद्वार है । इसमें क्रम से कृष्णादि लेश्यावाले जीवों की प्रवृत्ति (कर्म या कार्य) को दिखलाते हुए 'उक्तं च' इस सूचना के साथ ६ गाथाओं को उद्धृत किया गया है। ये वे ही गाथाएँ हैं जिनका उल्लेख पीछे सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के अन्तर्गत लेश्यामार्गणा के प्रसंग में किया जा चुका है तथा जो जीवकाण्ड के छठे 'लक्ष ण' अधिकार में ५०८-१६ गाथांकों में उपलब्ध होती हैं। २०. लेश्यापरिणाम नामक १५वें अनुयोगद्वार में कौन-सी लेश्या षट्स्थानपतित संक्लेश अथवा विशुद्धि के वश किस प्रकार से स्वस्थान और परस्थान में परिणत होती है, इसे धवला में स्पष्ट किया गया है। जीवकाण्ड में तीसरे 'परिणाम' अधिकार के द्वारा लेश्या के परिणमन की जो व्याख्या हुई है वह धवला की उपर्युक्त प्ररूपणा के ही समान है। २१. ष० ख० के दूसरे क्षुद्र कबन्ध खण्ड के अन्तर्गत ११ अनुयोगद्वारों में ५वाँ द्रव्यप्रमाणानुगम है। उसमें यया क्रम से गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में जीवों की संख्या दिखलायी गयी है। वहाँ लेश्यामार्गणा के प्रसंग में कृष्णादि छह लेश्यावाले जीवों की संख्या की विवेचना की गई है। जीवकाण्ड में पूर्वनिर्दिष्ट १६ अधिकारों में १०वां संख्या अधिकार है। उसमें प्रायः धवला के ही समान कृष्णादि छह लेश्यावाले जीवों की संख्या को दिखलाया गया है। २२. षट्खण्डागम के उसी दूसरे खण्ड में जो छठा क्षेत्रानुगम अनुयोगद्वार है उसमें लेश्यामार्गणा के प्रसंग में उक्त छहों लेश्यावाले जीवों के वर्तमान निवासरूप क्षेत्र की प्ररूपणा - जीवकाण्ड के पूर्वनिर्दिष्ट 'क्षेत्र' अधिकार में उन छह लेश्यावाले जीवों के क्षेत्र की प्ररूपणा धवला के ही समान है । (गा० ५४२-४४) २३. षट्खण्डागम में इसी खण्ड के ७वें स्पर्शनानुगम, दूसरे 'एक जीव की अपेक्षा कालानगम' और तीसरे 'एक जीव की अपेक्षा अन्तरानुगम' इन तीन अनुयोगद्वारों में जिस प्रकार से छह लेश्यायुक्त जीवों के क्रम से स्पर्श, काल और अन्तर की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार १. पु० १६, पृ० ४८४-८६ २. पु० १६, पृ० ४६०-६२ ३. वही, ४६३-६७ ४. गा० ४६८-५०२ ५. सूत्र २,५,१४७-५४ (पु० ७, पृ० २६२-६४) ६. गाथा ५३६-४१ ७. सूत्र २,६,१०१-६ (पु० ७) षट्खण्डागम की अन्य प्रन्थों से तुलना / ३११ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से जीवकाण्ड में स्पर्श (१२), काल (१३) और अन्तर (१४) इन तीन अधिकारों में उन कृष्णादि छह लेश्यावाले जीवों के क्रम से स्पर्श, काल और अन्तर की प्ररूपणा है।' २४. भाव की प्ररूपणा के प्रसंग में जिस प्रकार षट्खण्डागम में छहों लेश्याओं को भाव से औदयिक कहा गया है उसी प्रकार जीवकाण्ड में भी भाव की अपेक्षा उन्हें प्रौदयिक कहा गया है। २५. षट्खण्डागम के इसी क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत ११वें अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में उक्त कृष्णादि लेश्या युक्त जीवों के अल्पबहुत्व की विवेचना है। जीवकाण्ड में अल्पबहुत्व अधिकार के प्रसंग में इतना मात्र कहा गया है कि उनका अल्पबहुत्व द्रव्यप्रमाण से सिद्ध है।' मूलाचार ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जी० का० में पूर्वोक्त १६ अधिकारों के आश्रय से जो लेश्या की प्ररूपणा की गई है उसका बहुत-सा विषय यथाप्रसंग षट्खण्डागम में चचित है। जो कुछ विषय षट् खण्डागम में नहीं उपलब्ध होता है वह अन्यत्र मूलाचार और तत्त्वार्थवार्तिक आदि में उपलब्ध होता है जैसे-- जीवकाण्ड के अन्तर्गत सोलह अधिकारों में से वें 'स्वामी' अधिकार में चारों गतियों के विभिन्न जीवों में किनके कौन-सी लेश्या होती है, इसका विचार किया गया है (५२८-३४)। मूलाचार के अन्तिम पर्याप्ति' अधिकार में उक्त कृष्णादि लेश्याओं के स्वामियों का विचार किया गया है। जीवकाण्ड में जो लेश्याओं का स्वामीविषयक विचार किया गया है वह मूलाचार की उस स्वामीविषयक प्ररूपणा से प्रभावित रहा दिखता है। इतना ही नहीं, उस प्रसंग में प्रयुक्त मूलाचार की कुछ गाथाएँ भी जीवकाण्ड में उसी रूप में उपलब्ध होती हैं । जैसे-- गाथांश मूलाचार जीवकाण्ड काऊ काऊ तह काउ १२-६३ ५२८ तेऊ तेऊ तह तेऊ १२-६४ ५३४ तिण्हं दोण्हं दोण्हं १२-६५ ५३३ ये तीन गाथाएँ दोनों ग्रन्थों में शब्दशः समान हैं। विशेष इतना है कि मूलाचार गाथा ६३ के चतुर्थ चरण में जहाँ 'रयणादिपुढवीसु' पाठ है वहाँ जीवकाण्ड में उसके स्थान में 'पढमादिपुढवीणं' पाठ है । यह शब्दभेद ही हुआ है, अभिप्राय में भेद नहीं है। आगे की गाथा के चतुर्थ चरण में जहाँ मूलाचार में 'लेस्साभेदो मुणेयव्वो' पाठ है वहां जीवकाण्ड में उसके स्थान में 'भवणतियापुण्णगे असुहा' पाठभेद है । १. सूत्र २,७,१६३-२१६ (स्पर्श), सूत्र २,२,१७७-८२ (काल) और सूत्र २,३,१२५-३० तथा जी० का० गा० ५४४-४६ (स्पर्श), ५५०-५५१ (काल) और गाथा ५५२-५३ (अन्तर)। २. १० ख०, सूत्र २,१,६०-६३ और जी०का० गाथा ५५४ (पूर्वार्ध)। ३. ष०ख०, सूत्र २,११,१७६-८५ तथा जी०का० गाथा० ५५४ ३१२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ यह स्मरणीय है कि उपर्युक्त तीन गाथाओं में पूर्व की दो गाथाएँ श्वे० 'जीवसमास अन्य में भी प्रायः उसी रूप में उपलब्ध होती हैं (गाथा ७२-७३)। यहाँ विशेषता यह है कि दसरी गाथा के चतुर्थ चरण में जहाँ मूलाचार में 'लेस्साभेदो मुणेयव्वो' पाठ है व जीवकाण्ड में 'मवणतियापूण्णगे' पाठ है वहाँ जीवसमास में उसके स्थान में 'सक्कादिविमाणवासीणं' पाठभेद है। यह पाठभेद व तदनुसार जो कुछ अभिप्रायभेद भी हया है उसका कारण सम्भवतः १२ और १६ कल्पों की मान्यता रही है । तत्त्वार्थसूत्र में देवों में लेश्याविषयक स्वामित्व का प्ररूपक यह सूत्र है-“पीत-पद्मशक्ललेश्या द्वि-त्रि-शेषेषु" । वह सर्वार्थसिद्धिसम्मत (४-२२) और त० भाष्यसम्मत (४-२३) दोनों ही सूत्र पाठों में समान है । पर १६ और १२ कल्पों की मान्यता के अनुसार उसका अर्थ भिन्न रूप में किया गया है। यहां तत्त्वार्थवार्तिक में यह शंका की गई है कि सूत्र में जो 'द्वि-त्रि-शेषेषु' पाठ है तदनुसार पूर्वोक्त लेश्या की वह व्यवस्था नहीं बनती है। उसके समाधान में प्रथम तो वहाँ यह कहा गया है कि इच्छा के अनुसार सम्बन्ध बैठाया जाता है, इससे उस व्यवस्था में कुछ दोष नहीं है। तत्पश्चात् प्रकारान्तर से यह भी कहा गया है-अथवा सूत्र में 'पोत-मिश्र-पद्म-मिश्र-शुक्ललेश्या' ऐसे पाठान्तर का आश्रय लेने से आगमविरोध सम्भव नहीं है। जीवकाण्ड में गाथा ५२६-३२ के द्वारा लेश्याविषयक कुछ और भी विशेष प्ररूपणा की गई है। उनमें गाथा ५२६-३० का अभिप्राय प्रायः मूलाचारगत गाथा ६६ के समान है। जीवकाण्ड में अन्य भी ऐसी कितनी ही गाथाएं हो सकती हैं, जो यथास्थान मूलाचार में उपलब्ध होती हैं । जैसेगाथांश जीवकाण्ड मलाचार संखावत्तयजोणी ८१ १२-६१ कुम्मुण्णयजोणीये १२-६२ णिच्चिदरधातु सत्त य ५-२६ व १२-६३ बाबीस सत्त तिण्णि य ११३ ५-२४ व १२-१६६ अद्धत्तेरस बारस ५-२६ व १२-१६५ छप्पंचाधियवीसं ५-२७ व १२-१६९ एया य कोडिकोडी ११६ ५-२८ (गाथा ११५-१६ में कुछ शब्दभेद व अभिप्रायभेद भी हुआ है) पंच वि इंदियपाणा १२-१५० ८६ तस्वार्थवातिक जीवकाण्ड में पूर्वोक्त १६ अधिकारों के आश्रय से जो लेश्या की प्ररूपणा की गई है उसके साथ यदि पूर्णतया मेल बैठता है तो तत्त्वार्थवार्तिक में प्ररूपित लेश्या की प्ररूपणा के साथ बैठता है। वहां उसी क्रम से उन निर्देशादि १६ अनुयोगद्वारों के आश्रय से लेश्या की प्ररूपणा है जो इन दोनों प्रन्थों में सर्वथा समानरूपता को प्राप्त है। उदाहरणस्वरूप 'लेश्याकर्म' को ले लीजिए । तत्त्वार्थ वार्तिक में उस के विषय में कहा गया है "लेश्याकर्म उच्यते-जम्बूफलभक्षणं निदर्शनं कृत्वा स्कन्ध-विटप-शाखानुशाखा-पिण्डिका षट्खण्डागम को अन्य प्रन्यों से तुलना / ३१३ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदनपूर्वकं फलभक्षणं स्वयं पतितफलभक्षणं चोद्दिश्य कृष्णलेश्यादयः प्रवर्तन्ते।" -तत्त्वार्थवार्तिक ४,२२,१०, पृ० १७१ इसी अभिप्राय को जीवकाण्ड में इस प्रकार प्रकट किया गया है --- पहिया जे छप्पुरिसा परिभट्टारण्णमज्मवेसम्हि । फलभरियरुक्खमेगं पेक्खित्ता विचितंति ॥५०६॥ जिम्मूल-खंध-साहुवसाहं छित्तुं चिणुत्तु पडिदाई। खाउं फलाइं इदि जं मणेण वयणं हवे कम्मं ॥५०७।। इस प्रकार दोनों ही ग्रन्थों में कृष्णादि छह लेश्यावाले जीवों की जैसी कुछ मानसिक प्रवृत्ति हमा करती है उसका चित्रण यहाँ उदाहरण द्वारा प्रकट किया गया है। इसी प्रकार की समानता दोनों ग्रन्थों में अन्य अधिकारों में भी रही है। __ 'गति' अधिकार के प्रसंग में समान रूप से दोनों ग्रन्थों में यह कहा गया है कि लेश्या के २६ अंशों में ८ मध्यम अंश आयुबन्ध के कारण तथा शेष १८ अंश तदनुरूप गति के कारण हैं।' यह कहते हुए आगे किस लेश्यांश से जीव देव व नरकगति में कहां-कहां जाता है, इसे स्पष्ट किया गया है। _इस प्रकार देवों व नारकियों में जानेवालों के क्रम को दिखा करके भी जीवकाण्ड में मनुष्यों व तियंचों में जानेवाले देव-नारकियों के विषय में विशेष कुछ स्पष्टीकरण नहीं किया गया है। उनके विषय में तत्त्वार्थवार्तिक में यह सूचना की गई है"देव-नारकाः स्वलेश्याभिः तिर्यड्.मनुष्यानुयोग्यानां यान्ति ।" -त०वा० ४,२२,१०, पृ० १७२ इसी प्रकार की सूचना जीवकाण्ड में भी इस प्रकार की गई है-- "सुर-णिरया सगलेस्सहिं णर-तिरियं जंति सगजोग्गं ।।" -गाथा ५२७ उत्त० इस प्रकार की उल्लेखनीय समानता को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि जीवकाण्ड में जो लेश्या की प्ररूपणा की गई है वह सम्भवतः तत्त्वार्थवार्तिक में प्ररूपित लेश्या के आधार पर की गई है। २६. जीवकाण्ड में आगे सम्यक्त्व मार्गणा के प्रसंग में सम्यक्त्व का स्वरूप प्रकट करते हुए कहा गया है कि जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट छह (द्रव्य), पांच (अस्तिकाय) और नौ प्रकार के पदार्थों का जो आज्ञा अथवा अधिगम से श्रद्धान होता है उसका नाम सम्यक्त्व है। इस प्रकार छह द्रव्यों के विषय में इन सात अधिकारों का निर्देश किया गया है—नाम, उपलक्षणानुवाद, अच्छनकाल (स्थिति), क्षेत्र, संख्या, स्थानस्वरूप और फल । आगे इन सात अधिकारों के आश्रय से क्रमशः छह द्रव्यों की प्ररूपणा करके तत्पश्चात् पाँच अस्तिकाय और नौ पदार्थों का विवेचन किया गया है। इस प्रकार वहाँ यह सम्यक्त्वमार्गणा ६६ (५६०६५८) गाथाओं में समाप्त हुई है। ___ यहाँ स्थानस्वरूप अधिकार के प्रसंग में तेईस परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणाओं का नामनिर्देश करते हुए उनमें अपने जघन्य व उत्कृष्ट भेदों के गुणकार व प्रतिभाग को भी प्रकट किया गया है (५६३-६००) १. तत्त्वार्थवार्तिक २,२२,१० पृ० १७१ तथा जीवकाण्ड गाथा ५१७-१८ ३१४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ष० ख० में पांचवें वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में बन्धनीय (वर्गणा) के प्रसंग में उन वर्गणाओं की प्ररूपणा की गई है। दोनों ग्रन्थों में उन २३ पुद्गलवर्गणाओं के नामों का निर्देश समान रूप में ही किया गया है। विशेषता यह रही है ष० ख० में जहाँ उनका उल्लेख क्रम से पृथक्-पृथक् सूत्र के द्वारा किया गया है वहां जीवकाण्ड में उनका उल्लेख दो गाथाओं (५६३-६४) में ही संक्षेप से कर दिया गया है। उदाहरणस्वरूप आहार, तेजस, भाषा, मन और कार्मण ये पांच वर्गणाएँ अग्रहणद्रव्यवर्गणाओं से अन्तरित हैं । इनका उल्लेख १० ख० में जहाँ पृथक्-पृथक् ६ सूत्रों (८०-८८) में हुआ है वहाँ जी० का० में 'अगेज्जगेहि अंतरिया । आहार-तेज-भासा-मणकम्मइया' (५६३) इतने मात्र में कर दिया गया है। वहाँ पृथक्-पृथक् 'पाहार-द्रव्यवर्गणा के आगे अग्रहणवर्गणा, उसके आगे तैजसवर्गणा, फिर अग्रहणवर्गणा' इत्यादि-क्रम से निर्देश नहीं किया गया । यह जी० का० में संक्षेपीकरण का उदाहरण है। प० ख० में यद्यपि मूल में जघन्य से उत्कृष्ट भेद के गुणकार और भागहार के प्रमाण का उल्लेख नहीं है, पर धवला में प्रत्येक वर्गणा के प्रसंग में उसे पृथक्-पृथक् स्पष्ट कर दिया गया है। उदाहरणस्वरूप जघन्य आहार द्रव्यवर्गणा से उत्कृष्ट कितनी है, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में यह कहा गया है __ "जहण्णादो उक्कस्सिया विसेसाहिया। विसेसो पुण प्रभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागमेत्तो होतो वि आहारउक्कस्स दव्ववग्गणाए अणंतिमभागो।" जीवकाण्ड में संक्षेप से ग्राह्य आहारादि वर्गणाओं के प्रतिभाग का और उनके मध्यगत चार अग्राह्य वर्गणाओं के गुणकार का निर्देश इस प्रकार एक साथ कर दिया गया है सिद्धाणंतिमभागो पडिभागो गेज्मगाण जेट्ठ।-गा० ५६६ पू० चत्तारि अगेज्जेसु वि सिद्धाण मणंतिमो भागो॥-गा० ५६७ उत्त० इस प्रकार यह गुणकार व भागहार की प्ररूपणा धवला के उक्त विवरण से प्रभावित है। २७. जीवकाण्ड में आगे इसी प्रसंग में फलाधिकार की प्ररूपणा करते हुए छह द्रव्यों के उपकार को दिखलाया गया है। उस प्रसंग में आहारादि पांच ग्राह्य वर्गणाओं के कार्य को प्रकट किया गया है। प्र० ख० में उसका स्पष्टीकरण यथाप्रसंग धवलाकार के द्वारा किया गया है। उदाहरण के रूप में दोनों ग्रन्थों में निर्दिष्ट आहार वर्गणा के कार्य को देखिये'ओरालिय-वेउन्विय-आहारसरीरपाओग्गपोगलखंधाणं आहारदव्ववग्गाणा त्ति सण्णा।" -पु० १४, पृ० ५६ आहारवग्गणावो तिणि सरीराणि होंति उस्सासो। हिस्सासो विय xx॥ -जी० का० गाथा ६०६ जी० का० में इसी प्रसंग में स्निग्धता और रूक्षता के आश्रय से परस्पर परमाणुओं में १. सूत्र ५,६,७६-६७ (पु० १४) २. पु० १४, पृ० ५६; इसी प्रकार आगे अग्रहणवर्गणा और तैजस वर्गणा आदि के विषय में पृथक्-पृथक् गुणकार व भागहार का निर्देश किया गया है। इसके लिए सूत्र १०-८१ आदि की धवला टीका द्रष्टव्य है। षट्खण्डागम को अन्य प्रन्यों से तुलना / ३१५ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने वाला बन्ध किस प्रकार से होता है, इसे स्पष्ट किया गया है (६०८-१८) । ० ख० में परमाणुओं में होने वाले इस बन्ध का विचार पूर्वोक्त बन्धनअनुयोगद्वार के अन्तर्गत सादिविस्रसाबन्ध के प्रसंग में किया गया है (सूत्र ३२-३६) । जीवकाण्ड में बन्ध की वह प्ररूपणा ष० ख० में की गई परमाणुविषयक बन्ध की प्ररूपणा के ही समान है। यही नहीं, जीवकाण्ड में ष० ख० के प्रसंगप्राप्त दो गाथासूत्रों को ग्रन्थ का अंग भी बना लिया गया है । वे 'गाथासूत्र हैं--- गाथांश ० ख० ( पु० १४ ) जी०का० गाथा द्धिणिद्धा ण बज्झंति ६११ द्धिस्स णिद्वेण दुराहिएण सूत्र ३४ ३६ ६१४ "3 प्रथम गाथासूत्र के अनुसार स्निग्ध-स्निग्ध परमाणुओं में और रूक्ष रूक्ष परमाणुओं में बन्ध के अभाव को प्रकट करते हुए विजातीय (स्निग्ध- रूक्ष) परमाणुत्रों में बन्ध का सद्भाव प्रकट किया गया है। इस प्रसंग में गाथा में प्रयुक्त 'रूपारूपी' का अर्थ प्रकट करते हुए धवला में कहा गया है कि जो स्निग्ध और रूक्ष पुद्गल गुणाविभागप्रतिच्छेदों से समान हैं उनका नाम रूपी है तथा जो पुद्गल गुणाविभागप्रतिच्छेदों से समान नहीं हैं उनका नाम अरूपी है । इन दोनों ही अवस्थाओं में उनमें बन्ध सम्भव है । ' इसी अभिप्राय को जीवकाण्ड में आगे गाथा ३१२ व ६१३ के द्वारा प्रकट किया गया है । परमाणुविषयक बन्ध की यह प्ररूपणा तत्त्वार्थ सूत्र (५, ३२-३६) में भी उपलब्ध होती है । पर ष० ख० से उसमें कुछ अभिप्रायभेद रहा है, यह ष० ख० की टीका धवला और तत्त्वार्थ की व्याख्या सर्वार्थसिद्धि और विशेषकर तत्त्वार्थवार्तिक से स्पष्ट है । पूर्वोक्त दो गाथासूत्रों में दूसरा 'णिद्धस्स णिद्वेण दुराहिएण' आदि गाथासूत्र 'उक्तं च' कहकर सर्वार्थसिद्धि (५- ३५) और तत्त्वार्थवार्तिक ( ५, ३५, १ ) में उद्धृत भी किया गया है, पर उसके चतुर्थ चरण में प्रयुक्त 'विसमे समे' पदों के अभिप्राय में परस्पर मतभेद रहा है । २८. जीवकाण्ड में आगे इसी सम्यक्त्वमार्गणा के प्रसंग में पाँच अस्तिकायों और नौ पदार्थों का निर्देश करते हुए प्रसंगप्राप्त पुण्य-पाप के आश्रय से प्रथमतः पापी मिथ्यादृष्टियों व सासादनसम्यग्दृष्टियों की संख्या प्रकट की गयी है और तत्पश्चात् अन्य मिश्र आदि गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या का उल्लेख किया गया है ( ६१६-२८ ) । आगे क्षपकों में बोधितबुद्ध आदि की संख्या दिखलाते हुए चारों गतियों में भागहार का क्रम प्रकट किया गया है तथा अन्त में यह सूचना कर दी गई है कि अपने-अपने अवहार से पल्य के भाजित करने पर अपनी अपनी राशि का प्रमाण प्राप्त होता है ( ६२६-४१) । ष० ख० में जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वारों में दूसरा द्रव्यप्रमाणानुगम अनुयोगद्वार है । उसमें प्रथमतः ओघ को अपेक्षा चौदह गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या की और तत्पश्चात् आदेश की अपेक्षा क्रम से गति- इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में यथासम्भव उन-उन गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या की प्ररूपणा हुई है। इसके लिए पु० ३ द्रष्टव्य है । इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम के दूसरे क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत पाँचवें द्रव्यप्रमाणा १. धवला पु० १४, पृ० ३१-३२ ३१६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगम अनुयोगद्वार में गुणस्थान निरपेक्ष सामान्य से गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में पथाक्रम से जीवों की संख्या की प्ररूपणा हुई है । (पु०७, पृ० २४४-९८) जीवकाण्ड में जो उस संख्या की प्ररूपणा हुई है वह सम्भवतः ष० ख० के उक्त द्रव्यप्रमाणानुगम अनुयोगद्वार के आधार से ही की गई है। वहाँ उपशामकों और क्षपकों की संख्या के विषय में जो मतभेद प्रकट किया गया है (गाथा ६२५) वह धवला टीका के अनुसार है । इन मतभेदों को धवलाकार ने उत्तरप्रतिपत्ति और दक्षिणप्रतिपत्ति के रूप में दिखलाया है । (देखिये पु० ३, पृ० ६३-६४ व १७-१००) ___ जीवकाण्ड में समस्त संयतों, अप्रमत्तसंयतों (६२४ पू०) और प्रमत्तसंयतों (६२४ उत्तरार्ध) की जो संख्या निर्दिष्ट की गई है वह दक्षिणप्रतिपत्ति के अनुसार है। उत्तर प्रतिपत्ति के अनुसार वहां उनकी संख्या का कुछ उल्लेख नहीं किया गया है, जबकि धवला में स्पष्टतया उसका उल्लेख हुआ है (पु० ३, पृ० ६६)। इस सम्बन्ध में धवला में यह गाथा उद्धृत की गई है सत्तावी अट्ठता छण्णवमज्झा य संजदा सव्वे ।। निगभजिदा विगगुणिदापमत्तरासी पमत्ता दु॥ पु० ३, पृ. ६ इसके उत्तरार्ध में परिवर्तन कर उसे जी० का० में इस प्रकार आत्मसात् किया गया है सत्तादी अट्ठता छण्णवममा य संजदा सव्वे । अंजलिमौलियहत्थो तिरयणसुद्धे णमंसामि ॥६३५।। उत्तरप्रतिपत्ति के अनुसार उनकी संख्या का निर्देश करते हुए धवला में जो गाथा उद्धृत की गई है वह इस प्रकार है छक्कादी छक्कंता छण्णवमज्झा य संजदा सव्वे । तिगभजिदा विगगुणिदापमत्त रासी पमत्ता दु ॥ --धवला पु० ३, पृ० १०१ धवला में वहां प्रसंगवश जो गाथाएँ उद्धृत की गई हैं वे कुछ पाठभेद के साथ जीवकाण्ड में आत्मसात् कर ली गई हैं।' जीवकाण्ड में यह संख्या की प्ररूपणा इसके पूर्व प्रथम गुणस्थान' अधिकार में की जा सकती थी, जैसी कि प्रत्येक मार्गणा में उसकी प्ररूपणा की गई है । पर उसकी प्ररूपणा वहाँ न करके पुण्य-पाप के प्रसंग से सम्यक्त्व मार्गणा में की गई है। यह भी स्मरणीय है कि गोम्मटसार में पूर्ववर्ती ग्रन्थों से कितनी ही गाथाओं को लेकर उन्हें ग्रन्थ का अंग बनाया गया है और वहाँ ग्रन्थ कार अथवा 'उक्तं च' आदि के रूप में किसी प्रकार की सूचना नहीं की गई है। इसके विपरीत सर्वार्थसिद्धि , तत्त्वार्थवातिक और धवला आदि प्रमाण के रूप में अथवा विषय के विशदीकरण के लिए ग्रन्थान्तरों से गाथा व श्लोक आदि को उद्धृत करते हुए प्रायः ग्रन्थ आदि का कुछ न कुछ संकेत अवश्य किया गया है । १. धवला पु० ३, पृ० ६०-१८ (गा० ४१-४३,४५,४८ व ५१) और जीवकाण्ड गाथा ६२४-२८ और ६३२ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / ३१७ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्यान्तर जी० का० में इस सम्यक्त्वमार्गणा के प्रसंग में अन्य भी जो जीव-अजीव आदि के विषय में विवेचन किया गया है उसका आधार कषायप्राभूत,' पंचास्तिकाय तथा तरवार्थसूत्र और उसकी व्याख्यास्वरूप सर्वार्थसिद्धि एवं तत्त्वार्थवार्तिक आदि हो सकते हैं। जैसेकषायप्राभत में दर्शनमोह की क्षपणा के प्रसंग में यह गाथासूत्र आया है--- दसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजादो दु । णियमा मणसगदीए णिट्ठवगो चावि सम्वत्थ ।।११०॥ यह गाथासूत्र जीवकाण्ड में ६४७ गाथांक में उपलब्ध होता है। विशेषता वहां यह रही है कि "णियमा मणुसगदीए' के स्थान में 'मणुसो केवलिमूले' ऐसा पाठ परिवर्तित कर दिया गया है। ब० ख० में 'जम्हि जिणा केवली तित्थयरा' (सूत्र १.६-८, ११) ऐसा उल्लेख है। तदनसार ही पाठ में वह परिवर्तन किया गया है । यद्यपि उसे धवला (पू०६, पृ०२४५) में भी उद्धृत किया गया है, पर वहां पाठ में कुछ परिवर्तन नहीं किया गया। (१) पंचास्तिकाय में सामान्य से पुद्गल के स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु इन चार भेदों का निर्देश करते हुए उनका स्वरूप- इस गाथा द्वारा प्रकट किया गया है खधं सयलसमत्थं तस्स दु अद्ध भणंति देसो त्ति । __ अद्धद्धं च पदेसो परमाणु चेव अविभागी।।७।। यह गाथा जी० का० में इसी रूप में उपलब्ध होती है (६०३)। (२) पंचास्तिकाय में बादर और सूक्ष्मरूपता को प्राप्त स्कन्धों को पुद्गल बतलाते हुए उनके छह भेदों का उल्लेख मात्र किया गया है (७६)। यद्यपि उस गाथा में उन छह भेदों के नामों का निर्देश नहीं किया गया, फिर भी उसकी व्याख्या में अमृतचन्द्र सूरि और जयसेनाचार्य ने उन भेदों को इस प्रकार स्पष्ट कर दिया है--- (१) बादर-बादर, (२) बादर, (३) बाद रसूक्ष्म, (४) सूक्ष्मबादर, (५) सूक्ष्म और (६) सूक्ष्म-सूक्ष्म। जी०का० में इन भेदों की प्ररूपक गाथा इस प्रकार उपलब्ध होती है बादरबावर बादर बादरसहमं च सहमथलं च । सुहमं च सुहुमसुहुमं धरादियं होवि छन्भेयं ॥६०२।। (३) पंचास्तिकाय में आगे इसी प्रसंग में जिस प्रकार से धर्मास्तिकायआदिकों के स्वरूप (मूर्तामर्तत्व और सक्रिय-अक्रियत्व) आदि का विचार किया गया है लगभग उसी प्रकार से जी० का० में भी उस सबका विचार हुआ है।' (४) पंचास्तिकाय में काल द्रव्य का स्वरूप स्पष्ट करते हुए यह गाथा कही गई है १. कषायप्राभत के १०८ व ११० ये दो गाथासूत्र जी० का० मे यहाँ क्रम से ६५५ (इसके पूर्व गा० १८ भी) और ६४७ गाथांकों में उपलब्ध होते हैं। २. यह गाथा मूलाचार (५-३४) और ति० प० (१-६५) में भी उसी रूप में उपलब्ध होती है । जीवसमास में उसका पूर्वार्ध (६४) मात्र उपलब्ध होता है । ३. पं० का० गाथा ८३-६६ और जी० का० गाथा ५६२-६६ और ६०४ आदि । ११८ षटखण्डागम-परिशीलन . Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालो त य ववएसो सम्भावप रूवगो हवदि णिल्यो । उप्पण्णप्पद्धंसी अवरो दीहंतरट्ठाई ॥ १०१ ॥ यह गाथा जी० का ० में उसी रूप में ग्रन्थ का अंग बन गई है ( ५७९ ) । जीवकाण्ड में 'कालो त्ति' के स्थान में 'कालो वि य' पाठ है, जो सम्भवतः लिपि के दोष से हुआ है । इस प्रकार पंचास्तिकाय और तत्त्वार्थ सूत्र द्रव्यों के विषय में चर्चा है उसी प्रकार से आगे प्रसंग में उनके विषय में विचार किया गया है । ( ५वां अध्याय) आदि में जिस प्रकार से छह पीछे जी० का ० में भी सम्यक्त्वमार्गणा के २६. जी० का० के आलापाधिकार में जो गुणस्थान और मार्गणाओं से सम्बन्धित आलापों की प्ररूपणा की गई है उसके बीज ष० ख० में सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के अन्तर्गत पृथक्-पृथक् प्रत्येक मार्गणा में पाये जाते हैं। पर्याप्त अपर्याप्त गुणस्थानों का विचार वहीं योगमार्गणा के प्रसंग में विशेष रूप से किया गया है । इसके अतिरिक्त जैसा कि पूर्व में संकेत किया जा चुका है, आचार्य वीरसेन ने धवला में उक्त सत्प्ररूपणा सूत्रों की 'प्ररूपणा' के रूप में पूर्वोक्त बीस प्ररूपणाओं का विचार बहुत विस्तार से किया है, जो एक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में ष०ख० की दूसरी पुस्तक में निबद्ध है । बीस प्ररूपणाओं का अन्तर्भाव षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान में प्रमुखता से गुणस्थान ( ओघ ) और मार्गणा (आदेश) इन दो की ही प्ररूपणा की गई है । ष० ख० अन्तर्गत सत्प्ररूणा सूत्रों से सूचित बीस प्ररूपणाओं की जो व्याख्या धवलाकार के द्वारा की गई है उसमें एक शंका के समाधान में धवलाकार ने जीवसमास व पर्याप्तियों आदि का अन्तर्भाव मार्गणाओं में कहाँ-कहाँ किस प्रकार होता है, इसे स्पष्ट कर दिया है । जीवकाण्ड में भी वस्तुतः ओघ और आदेश की प्रमुखता से ( गाथा ३) ही बीस प्ररूपणाओं का विवेचन किया गया है । वहाँ भी धवला के समान जीवसमास व पर्याप्तियों आदि का अन्तर्भाव मार्गणाओं में व्यक्त किया है, जो धवला से पूर्णतया प्रभावित है । ' इसके लिए उदाहरण के रूप में दोनों ग्रन्थों का थोड़ा-सा प्रसंग यहाँ प्रस्तुत किया जाता है— "पर्याप्ति-जीव समासाः कायेन्द्रिय मार्गण योनिलीनाः, एक-द्वि-त्रि- चतुःपंचेन्द्रिय-सूक्ष्म बादरपर्याप्तापर्याप्तभेदानां तत्र प्रतिपादितत्वात् । उच्छ्वास-भाषा-मनोबल प्राणाश्च तत्रैव निलीनाः, तेषां पर्याप्तिकार्यत्वात् । कायबल - प्राणोऽपि योगमार्गणातो निर्गतः, बललक्षणत्वाद्योगस्य" ( पु०२, पृ० ४१४) । इत्यादि । इसका जी० का० की इस गाथा से मिलान कीजिये -- इंदिय-काये लीणा जीवा पज्जत्ति-आण भास-मणो । जोगे काओ णाणे अक्खा गदि मग्गणे आऊ ।। -- गाथा ५ उपसंहार गोम्मटसार के रचयिता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती सिद्धान्त के मर्मज्ञ रहे हैं । षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / ३१९ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने अपने समक्ष उपस्थित समस्त आगमसाहित्य - जैसे षट्खण्डागम व कषायप्राभूत आदि का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया था । उसका उपयोग उन्होंने प्रकृत गोम्मटसार की रचना में पर्याप्त रूप में किया है। इससे उनकी यह कृति निःसन्देह अतिशय लोकप्रिय हुई है । जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, कषायप्राभृत व षट्खण्डागम आदि में जो गाथासूत्र रहे हैं तथा ष० ख० की टीका धवला आदि में यथा प्रसंग विवक्षित विषय की पुष्टि के लिए अथवा उसे विशद व विकसित करने के लिए जो ग्रन्थान्तरों से ग्रन्थनामोल्लेखपूर्वक अथवा 'उक्तं च' आदि का निर्देश करते हुए गाथाएँ ली गई हैं, जीवकाण्ड में उन्हें बड़ी कुशलता से उसी रूप में ग्रन्थका अंग बना लिया गया है । ऐसी गाथाओं को ग्रन्थ में समाविष्ट करते हुए ग्रन्थ के नाम आदि का कोई संकेत नहीं किया गया है । ऐसी गाथानों की यहाँ सूची दी जा रही है। जैसा कि पीछे स्पष्ट किया जा चुका है उनमें अधिकांश गाथाएँ दि० पचसंग्रह में भी उपलब्ध होती हैं । क्रम संख्या १. २. ३. ४. ५. ७. ८. ε. १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. १५. १६. २०. गाथांश अट्ठत्तीसद्धलवा अविकम्मविजुदा वह अणु लोहं वेदो अत्थादो अत्यंतर अत्थि अणता जीवा २१. " 17 अप्प - परोभयवाधण अभिहणियमियबोहण अदिति ओ असहायणाण- दंसण भीमासुरक्खा आवलि असंखसमया आहरदि अणेण मुणी आहारयमुत्तत्थं उवसंते खीणे वा एइंदियस्स फुसणं एक्कम्हि काल - समए हि गुणा एयणिगोदसरीरे एयणिगोदसरीरे " एदवियम्मि जे ३२० / षट्खण्डागम-परिशीलन पु० ३ १ ३ १ 11 "" १४ १ 21 71 " " ३ १ "" " "} 17 धवला 11 १ " १४ १ १० ६६ २०० ६६ ३७३ ३५६ २७१ २३३ ३५१ ३५६ " १६२ ३६८ ६५ २६४ " ३७३ २५८ १८६ १८३ २७० ३६४ २३४ ३६६ जीवकाण्ड पंचसंग्रह गाथा गाया ५७४ ६८ ६२८ ४७३ ३१४ १६६ 33 २८८ ३०५ ३६६ ६४ ३०३ ५७३ २३८ २३६ ४७४ १६६ ५६ ५१ १६४ 11 79 ५८ १ १-३१ १-१२२ १-८५ 33 १-११६ १-१२१ १-१२३ १-२६ १-११६ १-६७ १-६६ १-१३३ १- २० १-१८ १-८४ "" "" . Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र०सं० २२. २३. २४. २५. २६. २७. २८. २६. ३०. ३१. ३२. ३३. ३४. ३५. ३६. ३७. ३५. ३६. ४०. ४१. ४२. ४३. ४४. ४५. ४६. ४७. ४८. ४६. गाथांश ओरालियमुत्तत्यं कम्मेव च कम्मभवं कारि-तणिद्विवागग्ग किण्हा दिलेस्स रहिदा किमिराय चक्क तणुमल केवलणाण - दिवायर खवए य खीणमोहे "" "" खणे दंसणमोहे गुण-जीवा-पज्जती चक्खूण जं पयासदि "" चत्तारि वि छेत्ताइं चंडो ण मुयदि वेरं " " चागी भो चोखो " चितियमचितियं वा छप्पंच णव विहाणं " छादेदि सयं दोसेण "" 31 छत्तूणय परिया जत्थेक्कु मरइ जीवो " " "1 जह कंचणमग्गिगय जह भारवहो पुरिसो जं सामण्णं गहणं " जाइ जरा मरण-भया जाणइ कज्जमकज्जं जाणइतिकालसहिए जीवा चोदस भैया जेसि ण संति जोगा जेहि दुलक्खिज्जते जो णेव सच्चमोसो पु० १ " "1 ५ १२ १ २ १ ७ १ "" "} " १६ १ १६ 13 29 ૪ " १ "" "1 " ४ १ in "1 ७ १ "} 11 11 "2 १६ धवला पृष्ठ २६१ २६५ ३४२ ३६० ३५० १६१ १८६ ७८ ३६५ ४११ ३५२ १०० ३२६ ३८८ ४६० ३६० ૪૨૦ ३६० ३६५ ३१५ ३४१ ३७२ २७० २३० २६६ १३६ १४६ १०० २०४ ३८४ १४४ ३७३ २५० जीवकाण्ड पंचसंग्रह गाथा गाथा २३० २४० २७५ ५५५ २८६ ६३ ६७ 11 ६४५ २ ४८३ " ६५२ ५०८ ?? ५१५ " ४३७ ५६० = "1 २७३ ४७० १६२ 13 २०२ २०१ ४८२ "" १५१ ५१४ २६८ ४७७ २४२ ५ २२० १-६६ १-१०८ १-१५३ १-२७ १-१६० १-२ १-१३६ 13 १-२०१ १-१४४ "" १-१५१ " १-१२५ १-१५ε 13 १-१०५ १-१३० १-८३ "1 १-८७ १-७६ १-१३८ १६१ १-३ २८६ १-६२ बदुखण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / ३२१ 31 १-६४ १-१५० १-११७ १-१३३ १-१०० Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवला क्रम संख्या प०५० जीवकाण्ड पंचसंग्रह गाथा गाथा १-१३ ५१६ १-१५२ गाथांश जो तसवहाउ विरओ ण उ कुणइ पक्खवायं ५०. ५१. १७५ ३६० " ४६२ ५२. णट्ठाससेपमाओ ण य पत्तियइ परं सो १७६ ३८६ ४६१ ४६ ५१२ ५३. १-१४८ Xxxxx xxu9 ण य परिणमइ सयं सो ण य सच्चमोसजुत्तो ण रमति जदो णिच्चं ण वि इंदियकरणजुदा गिद्दा-वंचण बहुलो २८२ २०२ ५६६ २१८ १४६ १-६० १-६० २४८ ३८६ ५१० १-१४६ ६०. ४६१ १६० ३४२ १७३ १८३ १-२५ १-१०७ १-१६ rrox णिस्सेसखीणमोहो णेवित्थी व पुमं णो इंदिएसु विरदो तारिसपरिणामट्ठिय तिगहिय-सद-णवण उदी तिणि सया छत्तीसा तिरियंति कुडिलभावं तिसदि वदंति केई तेरस कोडी देसे दसविहसच्चे वयणे दहि-गुडमिव वामिस्सं दंसणमोहुदयादो दसणमोहुवसमदो दसण-वय-सामाइय २७४ २६ ५४ ६२४ १२२ १४७ ६२५ ३६० २०२ ६४ २४४ २८६ Wr 9 I wo १७० २१६ २२ ६४८ १-९१ १-१० ३६६ १०२ ४७६ . ७३. ७४. दिव्वंति जदो णिचं परमाणु आदियाई २०३ १५० ४८४ ३८२ १-१४० १०० ३७३ ३७२ १-१३२ १-१३१ ७७. पंच-ति-चउबिहेहि पंचसमिदो तिगुत्तो पुढवी जलं च छाया पुरु-गुणभोगे सेदे पुरु-महमुदारुरालं ४७५ ४७१ ६०१ २७२ २२६ ७८. ३४१ २६१ १-१०६ १२२ / पद्नयागम-परिशीलन Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवला क्रम संख्या जीवकाण्ड पंचसंग्रह गाथा गाथा गाथांश ६२७ ८०. ८१. ३५२ ४८५ बत्तीसमट्ठदालं बहुविह-बहुप्पयारा बाहिरपाणेहि जहा बीजे जोणीभूदे १-१४१ २५६ १२८ १८६ २५१ २३२ भविया सिद्धी जेसि भिण्णसमयट्ठिएहि मण्णंति जदो णिच्चं मरणं पत्थेइ रणे ५५६ ५२ १४८ १-१५६ १-१७ १-६२ १-१४६ ३८६ 1 о ६4. मंदो बुद्धिविहीणो ५०६ १.१४५ a or मिच्छत्तं वेयंतो मिच्छाइट्ठी णियमा मूलग्ग-पोरबीया रुसदि शिंददि अण्णे ३८८ ४६० १६२ २४२ २७३ ३८६ ४६१ १८५ १-१४७ " १३. ५८८ १७८ ६६. ६७. ६८. १७८ ३५६ २६१ ३५८ २७४ १-१५ १-१२० १-१५ १-११८ ० लोयायासपदेसे वत्तावत्तपमाए वयणेहि वि हैउहि वि विकहा तहा कसाया विवरीयमोहिणाणं विविहगुण इड्ढिजुत्तं विस-जंत-कूड-पंजर विहि तीहि चउहि पंचहि बेगुम्वियमुत्तत्थं वेदण-कसाय-वेउब्विय बेलुवमूलोरब्भय सकयाहलं जलं वा सत्तादी अट्ठता' सब्भावो सच्चमणो सम्मत्त-रयणपव्वय १००. ३०४ २३१ ३०२ १६७ २३३ ६६६ २८५ २६२ २६ ३५० १०२. १०३. १०४. १०५. १-२४ २८१ १.८६ __ २०१६ १०७. १. पंचसं० प्रथम चरण-अंतोमुत्तममं । २. उत्तरार्ध भिन्न-अंजलिमोलियहत्थो तिरयण सुबे णमंसामि ।। पदसण्डागम को अन्य अन्यों से तुलना / १२॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवला जीवकाण्ड पंचसंग्रह क्रम संख्या गाथा गाथा गाांश सम्मत्तुपत्तीय वि १०६. २८३ २६२ ३५० २८४ ११८. १०६. सम्माइट्ठी जीवो १७३ २४२ ११०. संगहियसयलसंजम ३७२ ४६६ १.१२६ संपुण्णं तु समग्गं ३६० ४५६ १-१२६ ११२. साहारणमाहारो २७० १६१ १-८२ २२६ ४८७ ११३. सिल-पुढविभेद-धूली ३५० ११४, सुत्तादो तं सम्म २८ ११५. सेलट्ठि-कट्ठ-वेत्तं ११६. सेलेसिं संपत्तो १६६ ११७. सोलसयं चउवीसं होंति अणियट्टिणोते ___ ५७ १-२१ षट्खण्डागम के प्रथम खण्डस्वरूप जीवस्थान में प्रतिपाद्य विषय का विवेचन यथाक्रम से सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों में ओघ और आदेश की अपेक्षा अतिशय व्यवस्थित रूप में किया गया है। जिस विषय का विवेचन मूल ग्रन्थ में नहीं किया गया है उसका विवेचन उसकी महत्त्वपूर्ण टीका में यथाप्रसंग विस्तार से कर दिया गया है। धवलाकार आचार्य वीरसेन ने पचासों सूत्रों को 'देशामर्शक' घोषित करके उनसे सूचित अर्थ की प्ररूपणा परम्परागत व्याख्यान के आधार से धवला में विस्तार से की है। इसका विशेष स्पष्टीकरण आगे 'धवला टीका' के प्रसंग में किया जायेगा। जीवकाण्ड में गुणस्थानों और मार्गणास्थानों को महत्त्व देखकर भी आचार्य नेमिचन्द्र ने प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा गुणस्थान, जीवसमास व पर्याप्ति आदि बीस प्ररूपणाओं के क्रम से की है। इससे दोनों ग्रन्थों में यद्यपि विषयविवेचन का क्रम समान नहीं रहा है, फिर भी जीवस्थान में प्ररूपित प्रायः सभी विषयों की प्ररूपणा आगे-पीछे यथाप्रसंग जीवकाण्ड में की गई है। इस प्रकार जीवस्थान में चचित सभी विषयों के समाविष्ट होने से को यदि उसे षट्खण्डागम के जीवस्थान खण्ड का संक्षिप्त रूप कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। कर्मकाण्ड कर्मकाण्ड यह गोम्मटसार का उत्तर भाग है। इसकी समस्त गाथासंख्या ६७२ है। वह इन नौ अधिकारों में विभक्त है-प्रकृतिसमुत्कीर्तन, बन्धोदय-सत्त्व, सत्त्वस्थानभंग, त्रिभलिका, स्थानसमुत्कीर्तन, प्रत्यय, भावचूलिका, त्रिकरणचलिका और कर्मस्थिति रचना । इन अधिकारों के द्वारा उसमें कर्म की बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदीरणा, सत्त्व, उदय और अपशम आदि विविध अवस्थाओं की अतिशय व्यवस्थित प्ररूपणा की गई है । उसका भी ३२४ / बटाण्डागम-परिशीलन Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमुख आधार प्रस्तुत षट्खण्डागम और उसकी धवला टीका रही है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने के लिए यहाँ कुछ उदाहरण दिये जाते हैं १. षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान से सम्बद्ध नौ चूलिकाओं में प्रथम 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' चूलिका है। उसमें यथाक्रम से कर्म को ज्ञानवरणीयादि आठ मूलप्रकृतियों और उनमें प्रत्येक की उत्तरप्रकृतियों का निर्देश किया गया है । मूल में यद्यपि केवल उनके नामों का ही निर्देश है, पर उसकी धवला टीका में उनके स्वरूप आदि के विषय में विस्तार से विचार किया गया है। कर्मकाण्ड के पूर्वोक्त नौ अधिकारों में भी प्रथम अधिकार 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' ही है। उसमें मंगलपूर्वक प्रकृतिसमुत्कीर्तन के कथन की प्रतिज्ञा करते हुए प्रकृति के स्वरूप, कर्मनोकर्म के ग्रहण और निर्जरा के क्रम को प्रकट किया गया है । यहाँ प्रकृति के स्वरूप का निर्देश करते हुए उसके प्रकृति, शील और स्वभाव इन समानार्थक नामों का उल्लेख किया गया है (गाथा २)। २. षट्खण्डागम के पांचवें वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत जो 'प्रकृति' अनुयोगद्वार है उसक प्रारम्भ में उसकी सार्थकता को दिखलाते हुए धवला में भी उसके इन्हीं समानार्थक नामों का निर्देश इस प्रकार किया गया है "प्रकृतिः स्वभाव: शीलमित्यनर्थान्तरम्, तं परुवेदि त्ति अणियोगद्दारं पि ‘पयडी'णाम उवयारेण ।" -पु० १३, पृ० १६७ ३. कर्मकाण्ड में आगे इस अधिकार में मूल व उत्तरप्रकृतियों की प्ररूपणा करते हुए उनके घाती-अघाती व पुद्गलविपाकी-जीवविपाकी आदि भेदों का उल्लेख किया गया है। इस प्रसंग में वहाँ कर्म के आठ, एक सौ अड़तालीस और असंख्यात लोकप्रमाण भेदों का निर्देश भी किया गया है (गाथा ७)। षट्खण्डागम के पूर्वनिर्दिष्ट 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में एक आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय के ही ४,२४,२८,३२,४८,१४४,१६८,१६२,२२८,३३६ और ३८४ भेदों का निर्देश किया गया है (सूत्र ५,५,३५) । आगे वहाँ श्रुतज्ञानावरणीय के संख्यात भेदों का निर्देश है (सूत्र ५,५,४५) । अनन्तर आनुपूर्वी के प्रसंग में अवगाहनाभेदों के आश्रय से गणितप्रक्रिया के अनुसार नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी आदि के असंख्यात भेदों को प्रकट करते हुए उनमें परस्पर अल्पबहुत्व को भी दिखलाया गया है (सूत्र ५,५,११४-३२)। कर्मकाण्ड में कर्मभेदों का जो निर्देश है उसका षट्खण्डागम के प्रकृतिअनुयोगद्वार में निर्दिष्ट उन भेदों की प्ररूपणा से प्रभावित होना सम्भव है। ४. कर्मकाण्ड में गोत्र कर्म के स्वरूप का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि सन्तानक्रम से आये हुए जीव के आचरण का नाम गोत्र है (गाथा १३)। __ यह धवला के इस कथन पर आधारित होना चाहिए १. धवला पु० ६ में 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' चूलिका पृ० ५-७८ २. यह प्रकृतिसमुत्कीर्तन की प्रतिज्ञा समान रूप से इन दोनों ग्रन्थों में की गई है । यथा इदाणि पयडिसमुक्कित्तणं कस्सामो ।-(ष०ख०, सूत्र १,६-१,३ पु० ६, पृ० ५) पणमिय सिरसा णेमि..... पडिसमुक्कित्तणं वोच्छं॥-गाथा १ षट्कण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना | ३२५ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "दीक्षायोग्य साध्वाचाराणां साध्वाचारैः कृतसम्बन्धानां आर्यप्रत्ययाभिधान- व्यवहारनिबन्धनानां पुरुषाणां सन्तानः उच्चैर्गोत्रम्, तत्रोत्पत्तिहेतुकर्माप्युच्च गत्रम् ।” – पु० १३, पृ० १८२ ५. स्त्यानगृद्धि के उदय से जीव की कैसी प्रवृत्ति होती हैं, इसका उल्लेख दोनों ग्रन्थों में समान रूप से इस प्रकार किया गया है "थी गिद्धीए तिव्वोदएण उट्ठाविदो वि पुणो सोवदि सुत्तो वि कम्मं कुणदि, सुत्तो वि शंक्खइ, दंते, 'कडकडावेइ ।" धबला पु० ६, पृ० ३२, ५० १३, पृ० ३५४ पर भी उसका स्वरूप द्रष्टव्य है । "थीणुदयेणुविदे सोर्वादि कम्मं करेवि जप्पदि य । " - कर्मकाण्ड गाथा २३ पू० ६. जीवस्थान की नौ चूलिकाओं में दूसरी 'स्थानसमुत्कीर्तन' चूलिका है । उसमें एक जीव के यथासम्भव एक समय में बाँधनेवाली प्रकृतियों के समूहरूप स्थान का विचार किया गया है । उदाहरणस्वरूप दर्शनावरणीय के नौ, छह और चार प्रकृतियोंरूप तीन स्थान हैं । इनमें नौ प्रकृतिरूप प्रथम बन्धस्थान मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि के सम्भव है । उनमें से निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि को छोड़कर शेष छह प्रकृतियोंरूप दूसरा स्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टि से लेकर अपूर्वकरण के सात भागों में प्रथम भाग तक सम्भव है । चक्षुदर्श नावरणीय आदि चार प्रकृतियोंरूप तीसरा स्थान अपूर्वकरण के द्वितीय भाग से लेकर सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत तक सम्भव है (सूत्र १, ६-२,७-१६) । कर्मकाण्ड में उपर्युक्त नो अधिकारों में पांचवां स्थानसमुत्कीर्तन' अधिकार भी है। उसमें भी स्थानों आदि की प्ररूपणा की गई है। उदाहरणस्वरूप, जिस प्रकार उपर्युक्त षट्खण्डागम की दूसरी चूलिका में दर्शनावरणीय के तीन स्थानों का उल्लेख किया गया है ठीक उसी प्रकार क० का० में भी संक्षेप से दर्शनावरणीय के उन तीन स्थानों की प्ररूपणा की गई है ( गाथा ४५६ - ६० ) । विशेषता वहाँ यह रही है कि संक्षेप में उनकी प्ररूपणा करते हुए भी उसके साथ भुजकार, अल्पतर और अवस्थित बन्ध का भी निर्देश कर दिया गया है । ७. जीवस्थान की उन नौ चूलिकाओं में छठी 'उत्कृष्टस्थिति' और सातवीं 'जघन्यस्थिति' चूलिका है। इनमें यथाक्रम से कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति की प्ररूपणा की गई है । कर्मकाण्ड में कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट - जघन्य स्थिति की प्ररूपणा दूसरे 'बन्धोदय सत्त्व' अधिकार के अन्तर्गत स्थितिबन्ध के प्रसंग में कुछ विशेषता के साथ की गई है । ( गाथा १२७-६२ ) विशेषता यह रही है कि षट्खण्डागम में जहाँ शाब्दिक दृष्टि से विस्तार हुआ है वहाँ कर्मकाण्ड में संक्षेप से थोड़े ही शब्दों में उसका व्याख्यान दिया है । यथा- "पंचणं णाणावरणीयाणं णवण्हं दंसणाव रणीयाणं असादावेदणीयं पंचण्हमंतराइयाणमुक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ । तिष्णिसहस्साणि आबाधा । आबाघूर्णिया कम्मद्विवी कम्मणिसेओ । सादावेदणीय- इत्थिवेद-मणुसग ति मणुसगदिपाओग्गाणुपुव्विणामाणमुवकसभ द्विदिबंधो पण्णारस सागरोवमकोडाकोडीओ पण्णारस वाससदाणि आबाधा । आबाधूणिया कम्मट्टी कम्मणिसेओ । मिच्छत्तरस उक्कस्सओ द्विदिबंधो सप्तरि सागरोवमकोडाफोडीओ । १२६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तवाससहस्साणि आबाधा । आबाधूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेओ।" -०ख०, सूत्र १,६-७,४-१२ (पु०६) कर्मकाण्ड में इस सम्पूर्ण अभिप्राय को तथा आगे के सूत्र १३-१५ के भी अभिप्राय को संक्षेप से इन गाथाओं में व्यक्त कर दिया गया है दुक्ख-तिघादीणोधं सादिच्छी-मणुद्गे तदद्धतु । सत्तरि वंसणमोहे चरित्तमोहे य चत्तालं ॥१२८।। उवयं पडि सत्तण्हं आबाहा कोडिकोडिउवहीणं । वाससयं तप्पडिभामेण य सैसट्टिवीणं च ॥१५॥ आवाहूणियकम्मदिदि णिसेगो दु सत्तकम्माणं । आउस्स णिसेगो पुण सगट्टिवी होवि णियमेण ।।१६०॥ इस प्रसंग से सम्बद्ध दोनों ग्रन्थों में अर्थसाम्य तो है ही, साथ ही शब्दसाम्य भी बहुत कुछ है। ___आयुकर्म की आबाधा से सम्बन्धित धवलागत इस प्रसंग का भी कर्मकाण्ड के प्रसंग से मिलान कीजिए ---- "जधा णाणावरणादीणमाबाधा णिसेयट्ठिदिपरतंता, एवमाउअस्स आबाधा णिसेयट्रिदी अण्णोण्णा यत्ताओ ण होंति त्ति जाणावण8 णिसेयट्ठिदी चेव परूविदा । पुवकोडितिभागमावि कावण जाव असंखेपद्धा त्ति एदेसु आबाधावियप्पेसु देव-णे रइयाणं आउअस्स उक्कस्स णिसेयट्ठिदी संभवदि ति उक्तं होदि।" -धवला पु० ६, पृ० १६६-६७ पुष्वाणं कोडितिभागादासंखेयभखवोत्ति हवे । आउस्स य आबाधा ण ट्ठिविपडिभागमाउस्स ॥-कर्मकाण्ड, १५८ उपर्युक्त धवलागत सभी अभिप्राय इस गाथा में समाविष्ट हो गया है । जैसा कि ऊपर कहा गया है, कर्मकाण्ड (गा० १५६) में किस कर्मस्थिति की कितनी आबाधा होती है, इसके लिए इस साधारण नियम का निर्देश किया गया है कि एक कोडाकोडि प्रमाण स्थिति की प्राबाधा सौ वर्ष होती है । तदनुसार शेष कर्मस्थितियों की आबाधा को पैराशिक क्रम से ले आना चाहिए। जैसे मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण है। उसकी आबाधा राशिक विधि से इस प्रकार प्राप्त होती है-यदि एक कोड़ाकोड़ि प्रमाण स्थिति की आबाधा सौ वर्ष होती है तो सत्तर कोड़ाकोडि प्रमाण स्थिति की कितनी आबाधा होगी, इस राशिक क्रम के अनुसार फल राशि (१०० वर्ष) को इच्छाराशि (७० कोड़ाकोडि सागरोपम) से गणित करके प्रमाणराशि (१ कोड़ाकोड़ि सागरोपम) का भाग देने पर ७००० वर्ष प्राप्त होते है। यही उस मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति की आबाधा जानना चाहिए। धवला में भी विवक्षित कर्मस्थिति की आबाधा को जानने के लिए उसी त्रैराशिक नियम का निर्देश इस प्रकार किया गया है___ तेरासियकमेण पण्णारसवाससदमेत्तआबाधाए आगमणं उच्चदे-तीसं सागरोवम कोडाकोडिमेत्तकम्मट्टिदीए जदि आबाधा तिण्णि वाससहस्साणि मेत्ताणि लब्भदि तो पण्णारससागरोवमकोडाकोडिमेत ट्ठिदीए किं लभामो त्ति फलेण इच्छं गुणिय पमाणेणोवहिदे पण्णारस षट्खण्डागम की अन्य प्रन्यों से तुलना | ३२७ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाससदमेत्ता आबाधा होदि।" -पु० १, पृ० १५२ विशेष इतना है कि क० का० में जहां प्रमाणराशि एक कोड़ाकोड़ि रही है वहाँ धवला में वह तीस कोड़ाकोड़ी रही है। अन्तःकोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाण स्थिति के आबाधाकाल का निर्देश समान रूप से दोनों ग्रन्थों में अन्तर्मुहूर्त मात्र किया गया है।' ___ आबाधा का उपर्युक्त नियम आयुकर्म के लिये नहीं है, इसका संकेत पूर्व में किया जा चुका है। उसका आबाधाकाल दोनों ही ग्रन्थों में पूर्वकोटि के विभाग से लेकर असंक्षेपाद्धां काल तक निर्देश किया गया है। ८. षटखण्डागम के तीसरे खण्ड बन्धस्वामित्वविचय में क्रम से ओघ और आदेश की अपेक्षा विवक्षित प्रकृतियों का बन्ध किस गुणस्थान से कहाँ तक होता है, इसका विचार किया गया है । जैसे पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यश:कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इन सोलह प्रकृतियों का कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्म साम्परायिक संयत उपशमक और क्षपक तक उनके बन्धक हैं, सूक्ष्मसाम्परायिककाल के अन्तिम समय में उनके बन्ध का व्युच्छेद होता है । ये बन्धक हैं, शेष जीव उनके अबन्धक हैं (सूत्र ३, ५-६ पु० ८)। कर्मकाण्ड में भी उस बन्धव्युच्छित्ति का विचार प्रथमत: क्रम से गुणस्थानों में और तत्पश्चात् गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में किया गया है तथा बन्ध से व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों का भी उल्लेख किया गया है । (गाथा ६४-१२१) प० ख० में ऊपर जिन पांच ज्ञानावरणीय आदि १६ प्रकृतियों के बन्ध और उनकी व्युच्छिति का निर्देश दसवें सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान तक किया गया है कर्मकाण्ड में उनका उल्लेख दसवें गुणस्थान के प्रसंग में इस प्रकार किया है 'पढमं विग्ध सणचउ जस उच्चं च सहमंते ॥"-गाथा १०१ उत्तरार्ध इस विषय में दोनों ग्रन्थों का अभिप्राय समान रहा है, पर प्ररूपणा की पद्धति दोनों ग्रन्थों में भिन्न रही है। प० ख० में जहाँ ओघ और आदेश के अनुसार बन्ध और उसकी व्युच्छित्ति की प्ररूपणा ज्ञान-दर्शनावरणीयादि प्रकृतियों के क्रम से गई है वहाँ कर्मकाण्ड में उसकी प्ररूपणा ज्ञानावरणादि कर्मों के क्रम से न करके गुणस्थानक्रम से की गई है। यह अवश्य है कि ष० ख० में ज्ञानावरणादि के क्रम से उसकी प्ररूपणा करते हुए भी क्रमप्राप्त विवक्षित ज्ञानावरणादि प्रकृतियों के साथ विवक्षित गुणस्थान तक बंधनेवाली अन्य प्रकृतियों का भी उल्लेख एक साथ कर दिया गया है। जैसे-ऊपर ज्ञानावरणीय को प्रमुख करके उसके साथ दसवें गण स्थान तक बंधनेवाली अन्य दर्शनावरण प्रादि का भी उल्लेख कर दिया गया है। इस प्रकार ष० ख० में जहाँ ज्ञानावरण की प्रमुखता से प्रथमतः दसवें गुणस्थान तक बंधने वाली प्रकृतियों का सर्वप्रथम निर्देश किया गया है वहाँ क० का० में प्रथमतः प्रथम गुणस्थान में बन्ध से व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों का उल्लेख किया गया है और तत्पश्चात् १. १०ख०, सूत्र १,६-६,३३ व ३४ (पु० ६, पृ० १७४ व १७७) तथा क०का० गाथा १५७ २. वही सूत्र १,६-६,२२-२७ व धवला पृ० १६६-६७ (पु. ६) तथा क०का० गाथा १५८ १२८ / षड्लग्डागम-परिशीलन Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथाक्रम से सासादनादि अन्य गुणस्थानों में बन्ध से व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों का उल्लेख किया गया है (गाथा ६४-१०१)। __ इसी प्रकार आगे भी दोनों ग्रन्थों में अपनी अपनी पद्धति के अनुसार बन्ध व उसकी व्युच्छित्ति की प्ररूपणा की गई है। उदाहरण के रूप में, ज्ञानावरणीय के बाद दर्शनावरणीय क्रमप्राप्त है। अत एव आगे ष० ख० में दर्शनावरणीय की निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि इन तीन प्रकृतियों की प्रमुखता से उनके साथ सासादन गुणस्थान तक बंधनेवाली अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि अन्य प्रकृतियों को भी लेकर पच्चीस प्रकृतियों के बन्ध को मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दष्टि इन दो गुणस्थानों में दिखलाकर आगे उनके बन्ध का निषेध कर दिया गया है। सूत्र ३,७-८ क० का० में उन पच्चीस प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति क्रमप्राप्त आगे के दूसरे गुणस्थान में निर्दिष्ट की गई है । इससे प्रथम दोनों गुणस्थानवी जीव उन पच्चीस प्रकृतियों के बन्धक हैं, यह स्वयंसिद्ध हो जाता है (गाथा ६६)। ९. ५० ख० के इसी बन्धस्वामित्वविचय खण्ड में पूर्वोक्त पाँचवें पृच्छासूत्र की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने उसे देशामर्शकसूत्र बतलाकर उससे सूचित इन अन्य २३ पृच्छाओं को उसके अन्तर्गत निर्दिष्ट किया है-- (१) क्या बन्ध पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, (२) क्या उदय पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, (३) क्या दोनों साथ ही व्युच्छिन्न होते हैं, (४) क्या उनका बन्ध अपने उदय के साथ होता है, (५) क्या पर के उदय के साथ होता है, (६) क्या अपने और पर के उदय के साथ वह होता है, (७) क्या बन्ध सान्तर होता है, (८) क्या निरन्तर होता है, (E) क्या सान्तर-निरन्तर होता है, (१०) क्या बन्ध सनिमित्तक होता है, (११) क्या अनिमित्तक होता है, (१२) क्या गतिसंयुक्त बन्ध होता है, (१३) क्या गतिसंयोग से रहित होता है, (१४) कितनी गतियों के जीव उनके बन्ध के स्वामी हैं, (१५) कितनी गतियों के जीव उनके बन्ध के स्वामी नहीं हैं, (१६) बन्धाध्वान कितना है, (१७) क्या बन्ध चरम समय में व्युच्छिन्न होता है, (१८) क्या वह प्रथम समय में व्युच्छिन्न होता है, (१६) क्या अप्रथमअचरम समय में व्युच्छिन्न होता है (२०) क्या उनका बन्ध सादि है, (२१) क्या अनादि है, (२२) क्या उनका बन्ध ध्रुव है, (२३) और क्या वह अध्र व होता है। इस प्रकार धवला में यथा प्रसंग इन २३ प्रश्नों का समाधान भी किया गया है।' क० का० में चौथा 'त्रिचूलिका' अधिकार है। ऊपर प० ख० की धवला टीका में जिन २३ प्रश्नों को उठाया गया है उनमें प्रारम्भ के नौ प्रश्नों को क० का० के इस अधिकार में उठाया है तथा उनका उसी क्रम से समाधान भी किया गया है (गाथा ३९८-४०७)। क० का० का यह विवेचन उपर्युक्त धवला के उस प्रसंग से प्रभावित होना चाहिए। विशेषता यह रही है कि धवला में जहाँ सूत्रनिर्दिष्ट ज्ञानावरणादि प्रकृतियों के क्रमानुसार उन नौ प्रश्नों का समाधान किया गया है वहाँ क०का० में एक साथ बन्धयोग्य समस्त १२० प्रकृतियों को लेकर उन नौ प्रश्नों का समाधान कर दिया गया है । तद्विषयक अभिप्राय में दोनों ग्रन्थों में कुछ भिन्नता नहीं रही है। १०. धवला में उठाये गये उपर्युक्त २३ प्रश्नों में से १०वाँ व ११वाँ ये दो बन्धप्रत्यय १. धवला पु० ८, पृ० ७-८ व १३-३० षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / ३२९ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से सम्बन्धित हैं । वहाँ सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत गुणस्थान में व्युच्छिन्न होनेवाली पूर्वोक्त सोलह प्रकृतियों के आश्रय से विस्तार पूर्वक मूल (४) और उत्तर (५७) प्रत्ययों का गुणस्थानादि के क्रम से विचार किया गया है । इसी प्रकार आगे प्रसंग के अनुसार विवक्षित अन्य प्रकृतियों के भी प्रत्ययों का विचार किया गया है। क० का० में छठा स्वतंत्र 'प्रत्यय' अधिकार है । वहाँ धवला के समान ही गुणस्थानादि के क्रम से मूल और उत्तर प्रत्ययों का विचार किया गया है (गाथा ७८५-६०)। दोनों ग्रन्थों में प्रत्ययों की यह प्ररूपणा समान रूप में ही की गई है। उदाहरणस्वरूप ५७ उत्तरप्रत्ययों में से मिथ्यात्व आदि गुणस्थानों में कहाँ कितने प्रत्ययों के आश्रय से बन्ध होता है, इसे धवला में यथाक्रम से गुणस्थानों में स्पष्ट करते हुए उपसंहार के रूप में यह . गाथा उद्धृत की है-- पणवण्णा इर वण्णा तिदाल छादाल सत्ततीसा य । चवीस दुबावीसा सोलस एगूण जाव णव सत्त ॥ क० का० में उन प्रत्ययों की यह प्ररूपणा जिन दो गाथाओं के द्वारा की गई है उनमें प्रथम गाथा प्रायः धवला में उद्धृत इस गाथा से शब्दशः समान है । यथा पणवण्णा पण्णासा तिदाल छादाल सत्ततीसा य । चवीसा बावीसा बावीसमपव्वकरणो त्ति ॥ थूले सोलस पहदी एगणं जाव होदि दसठाणं । सुहुमादिसु दस णवयं णवयं जोगिम्हि सत्तेव ।।७६०।। विशेष इतना है कि धवला में उद्धृत उस गाथा का उत्तरार्ध कुछ दुरूह है। उसके अभिप्राय को क० का० में दूसरी गाथा के द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है । यथा--उक्त गाथा में 'दुबावीसा' कहकर दो वार 'बाईस' संख्या का संकेत किया गया है। वह क० का० की दूसरी गाथा में स्पष्ट हो गया है, साथ ही वहाँ अपूर्वक रण गुणस्थान का भी निर्देश कर दिया गया है। आगे स्थल अर्थात बादरसाम्पराय (अनिवत्तिकरण ) में १६ प्रत्ययों को सचना करके १० तक १-१ कम करने (१५,१४,१३,१२,१६,१०) की ओर संकेत कर दिया गया है। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि अनिवृत्तिकरण के सात भागों में नपुंसकवेद आदि एक-एक प्रत्यय के कम होते जाने से १६,१५,१४,१३,१२,११ और १० प्रत्यय रहते हैं । पश्चात् 'सुहमादिसु' से यह स्पष्ट कर दिया गया है कि सूक्ष्मसाम्प राय में १०, उपशान्त कपाय में ६, क्षीण कषाय में है और सयोगकेवली गुणस्थान में ७ प्रत्यय रहते हैं। ___ आगे धवला में यह भी स्पष्ट किया गया है कि मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में इन ५७ प्रत्ययों में से एक समय में जघन्य से कितने और उत्कर्ष से कितने प्रत्यय सम्भव हैं। इसे बतलाते हुए वहाँ अन्त में 'एत्थ उवसंहारगाहा' ऐसी सूचना करते हुए एक गाथा उद्धतकी १. धवला पु०८, पृ०१६-२८ २. वही , पृ० २२-२४ ३. धवला पु० ८, २४-२८ ३३०/ षटखण्डागम-परिशीलन . Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस अट्ठारस दसय सत्तरह णव सोलसं च दोण्णं तु । अट्ठ य चोट्स पण यं सत्त लिए दुति वु एगमेयं च ॥ यह गाथा प्रायः इसी रूप में क० का० में गाथा संख्या ७६२ में उपलब्ध होती है । विशेषता यही है कि धवला में उसे 'एत्थ उवसंहारगाहा' कहकर उद्धृत किया गया है, पर क० का० में वैसी कुछ सूचना न करके उसे ग्रन्थ का अंग बना लिया है । यहाँ यह ध्यातव्य है कि धवलाकार ने उक्त 'बन्ध स्वामित्वविचय' के सूत्र ६ की व्याख्या के प्रसंग में पूर्वोक्त २३ प्रश्नों में 'क्या बन्ध सप्रत्यय है या अप्रत्यय' इसके स्पष्टीकरण में मूल और उत्तर प्रत्ययों की प्ररूपणा की है । जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्र ( ८ - १ ) में - निर्देश किया गया है, उन्होंने मिथ्यात्व असंयम, कषाय और योग को मूलप्रत्यय कहा है । प्रमाद को उन्होंने कषाय के अन्तर्गत ले लिया है । इन मूल प्रत्ययों के उत्तर प्रत्यय सत्तावन (५ - १२ +-२५+१५ - ५७) हैं । इन बन्धप्रत्ययों में मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में कहाँ कितने सम्भव हैं, इत्यादि का विचार यथाक्रम से धवला में किया गया है ।" मूल षट्खण्डागम में कहीं भी इस प्रकार से इन बन्धप्रत्ययों का उल्लेख नहीं किया गया है । वहाँ वेदना खण्ड में दूसरे 'वेदना' अनुयोगद्वार के अन्तर्गत जो वाँ 'वेदना प्रत्ययविधान' अनुयोगद्वार है उसमें नैगम-व्यवहार आदि नयों के आश्रय से प्राणातिपातादि अनेक प्रत्ययों को बन्ध का कारण कहा गया है । धवलाकार ने इन सब बन्धप्रत्ययों का अन्तर्भाव पूर्वोक्त मिथ्यात्वादि चार बन्धप्रत्ययों में किया है । दि० पंचसंग्रह के चौथे 'शतक' प्रकरण में इन मूल और उत्तर बन्ध प्रत्ययों की प्ररूपणा १४० (७७-२१६) गाथानों में बहुत विस्तार से की गई है । एक विशेषता यह भी है कि जिस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र ( ६,१०-२३) में पृथक् पृथक् ज्ञानावरणादि के प्रत्ययों की प्ररूपणा की गई है उस प्रकार से वह षट्खण्डागम और उसकी टीका धवला में नहीं की गई है, पर क० का० में उनकी प्ररूपणा तत्त्वार्थ सूत्र के समान की गई है ( गाथा ८०० - १० ) । यहाँ यह स्मरणीय है कि षट्खण्डागम के पूर्वोक्त 'बन्धस्वामित्वविचय' खण्ड में विशेष रूप से तीर्थंकर प्रकृति के बन्धक सोलह कारणों का उल्लेख किया गया है तथा उसके उदय से होनेवाले केवली के माहात्म्य को भी प्रकट किया गया है। सूत्र ३६-४२ ( पु० ८ ) इन तीर्थकर प्रकृति के बन्धक कारणों का निर्देश तत्त्वार्थ सूत्र (६-२४) में भी किया गया है, पर कर्मकाण्ड में उनका उल्लेख नहीं किया गया है । ११. धवला में पूर्वोक्त २३ प्रश्नों के विषय में विचार करते हुए 'क्या बन्ध पूर्व में व्युच्छिन्न होता है' इसे स्पष्ट करने के पूर्व वहाँ गुणस्थानों में यथाक्रम से उदयव्युच्छित्ति की की प्ररूपणा की गयी है ( पु०८, पृ० ६-११) । इस प्रसंग में वहाँ प्रथमतः महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के अनुसार मिध्यादृष्टि गुणस्थान में इन दस प्रकृतियों की उदयव्युच्छित्ति दिखलाई गई है— मिध्यात्व, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, १. धवला पु० ८, पृ० १६-२८ २. वही, पु० १२, पृ० २७५-६३ ३. पंचसंग्रह पृ० १०५-७४ बट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / ३३१ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरिन्द्रिय, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण । तत्पश्चात् विकल्प के रूप में चूणिसूत्रों के कर्ता (यतिवृषभाचार्य) के उपदेशानुसार उसी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में उदयव्युच्छित्ति को प्रकट करते हुए मिथ्यात्व, आताप, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन पांच प्रकृतियों की ही उदयव्युच्छित्ति दिखलायी गयी है। इसके कारणों का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि चूर्णिसूत्रों के कर्ता के मतानुसार एकेन्द्रियादि चार जातियों और स्थावर इन पांच प्रकृतियों की उदयव्युच्छित्ति सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में होती है।' क० का० में भी उसी प्रकार से उस उदयव्युच्छित्ति दिखलाई. की गई है। सर्वप्रथम वहाँ क्रम से मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में उदय से व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों की संख्या इस प्रकार से निर्दिष्ट है---दस, चार, एक, सत्तरह, आठ, पांच, चार, छह, छह, एक, दो, दो व चौदह (१६), उनतीस और तेरह । तत्पश्चात् विकल्प रूप में उन्हीं की संख्या इस प्रकार निर्दिष्ट की गयी है-पांच, नौ, एक, सत्तरह, आठ, पाँच, छह, छह, एक, दो, सोलह, तीस और बारह (गा० २६३-६४)। ___ कर्मकाण्ड में यद्यपि उदयव्युच्छित्ति के संख्याविषयक मतभेद को गाथा में स्पष्ट नहीं किया गया है, फिर भी जैसी कि धवला में स्पष्ट सूचना की गई है, पूर्व दस संख्या का निर्देश महाकर्मप्रकृतिप्राभृत (आ० भूतबलि) के उपदेशानुसार और उत्तर पाँच संख्या का उल्लेख यतिवृषभाचार्य के उपदेशानुसार समझना चाहिए। सत्प्ररूपणासूत्रों के रचयिता स्वयं आचार्य पुष्पदन्त ने भी एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों का अवस्थान एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही निर्दिष्ट किया है। यदि एकेन्द्रियादि चार जातियों का उदय सासादनसम्यग्दृष्टियों के सम्भव था तो यहाँ उनके मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि इन दो गुणस्थानों का सद्भाव प्रगट करना चाहिए था, पर वैसा वहाँ निर्देश नहीं किया गया है। इन दोनों मतों का उल्लेख करते हुए धवलाकारने सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिका के प्रसंग में भी यह स्पष्ट कहा है कि प्राभूतचूणि के कर्ता के अभिमतानुसार उपशमसम्यक्त्व के काल में छह आवलियों के शेष रहनेपर जीव सासादन गुणस्थान को भी प्राप्त हो सकता है। पर भूतबलि भगवान् के उपदेशानुसार, उपशमश्रेणि से उतरता हुआ जीव सासादन गुणस्थान को नहीं प्राप्त होता है। ___ इस प्रकार कर्मकाण्ड में प्रथमत: उक्त दोनों मतों के अनुसार उदय से व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों की संख्या का निर्देश है । आगे यथाक्रम से मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों का उल्लेख दूसरे मत के अनुसार भी कर दिया है (२६५-७२)। दोनों ग्रन्थगत इस उदयव्युच्छित्ति की प्ररूपणा में विशेषता यह रही है कि धवलाकार ने जहाँ उन दोनों मतों का उल्लेख करके भी गुणस्थान क्रम से उदयव्युच्छित्ति को प्राप्त होनेवाली प्रकृतियों का निर्देश प्रथम मत के अनुसार किया है वहाँ कर्मकाण्ड में उनका उल्लेख दूसरे (यतिवृषभाचार्य के) मत के अनुसार किया गया है। १. धवला पु० ८, पृ०६ २. सूत्र १, १, ३६ (पु० १, पृ० २६१) ३. धवला पु० ६, पृ० ३३१ तथा क० प्रा० चूणि ५४२-४५ (क० पा० सुत्त, पृ० ७२६-२७) ३३२ / षटखण्डागम-परिशीलन Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दि० पंचसंग्रह में मतभेद का उल्लेख न करके उदय से व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों का निर्देश है, जो यतिवृषभाचार्य के मत का अनुसरण करनेवाला है (गा०३-२७)। यह गाथा कर्मकाण्ड में भी उसी रूप में उपलब्ध होती है (२६४)। धवला में इस उदयव्युच्छिति के प्रसंग को समाप्त करते हुए 'एत्थ उवसंहारगाहा' ऐसी सूचना करते हुए इस गाथा को उद्धृत किया गया है-- दस चदुरिगि सत्तारस अट्ठ य तह पंच चेव चउरो य । छ-छक्क एग दुग दुग चोद्दस उगुतीस तेरसुदयविही ।। -धवला पु०८, पृ० ६-१० यह गाथा कर्मकाण्ड में इसी रूप में ग्रन्थ का अंग बना ली गयी है (गा० २६३) । १२. धवला में उठाये गये उन २३ प्रश्नों में चार (२०-२३) प्रश्न सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव बन्ध से सम्बन्धित हैं। धवलाकार ने यथाप्रसंग सूत्रनिर्दिष्ट विभिन्न प्रकृतियों के विषय में इन चारों बन्धों को स्पष्ट किया है । जैसे-- सूक्ष्मसाम्परायसंयत के बन्ध से व्युच्छिन्न होनेवाली पूर्वोक्त १६ प्रकृतियों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पाँच अन्तराय इन १४ प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यादृष्टि के आदि हैं, क्योंकि उपशमश्रेणि में उनका बन्ध व्युच्छेद करके नीचे उतरते हुए मिथ्यात्व को प्राप्त होने पर उनका सादिबन्ध देखा जाता है। वह अनादि भी हैं, जो मिथ्यादृष्टि जीव उपशम श्रेणि पर कभी आरूढ़ नहीं हुए हैं उनके उस बन्ध का आदि नहीं है। अभव्य मिथ्यादृष्टियों के उनका ध्र वबन्ध है, क्योंकि उनके उस बन्ध की व्युच्छिति कभी होनेवाली नहीं है। वह अध्र व भी है, क्योंकि उपशम अथवा क्षपक श्रेणि पर चढ़ने योग्य मिथ्यादृष्टियों के उस बन्ध की ध्र वता (शाश्वतिकता) रहनेवाली नहीं है । यही स्थिति यशःकीति और उच्च गोत्र की है। इतना विशेष है कि उनका अनादि और ध्र वबन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि उनके प्रतिपक्षभूत अयशःकीर्ति और नीचगोत्र के बन्ध का होना सम्भव है। शेष सासादन आदि गुणस्थानों में उन १४ प्रकृतियों का सादि, अनादि और अध्र व तीन प्रकार का बन्ध सम्भव है। उनका ध्रुवबन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि भव्य जीवों के बन्ध की व्युच्छित्ति नियम से होने वाली है। यशःकीति और उच्च गोत्र इन दो प्रकृतियों का बन्ध सभी गुणस्थानों में सादि और अध्र व दो प्रकार का होता है।' कर्मकाण्ड में इस प्रसंग में प्रथमतः मूल प्रकृतियों में इस चार प्रकार के बन्ध को स्पष्ट करते हुए वेदनीय और आयु को छोड़ शेष ज्ञानावरणादि छह कर्मों के बन्ध को चारों प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है । वेदनीय कर्म का सादि के बिना तीन प्रकार का और आयु का अनादि व ध्र व से रहित दो प्रकार का बन्ध कहा गया है। आगे इस चार प्रकार के बन्ध का स्वरूप इस प्रकार निर्दिष्ट किया है बन्ध का अभाव होकर जो पुन: बन्ध होता है वह सादि बन्ध कहलाता है। श्रेणि पर न चढ़नेवालों के जो विवक्षित प्रकृति का बन्ध होता है उसे अनादि बन्ध कहा जाता है, क्योंकि तब तक कभी उस बन्ध का अभाव नहीं हुआ है। जो बन्ध अविश्रान्त चालू रहता है उसका नाम ध्रुवबन्ध है, जैसे अभव्य का कर्मबन्ध । भव्य जीव के जो कर्मबन्ध होता है उसे अध्रुवबन्ध १. धवला पु० ८, पृ० २६-३०. षट्खण्डागम को अन्य प्रन्थों से तुलना / ३१३ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानना चाहिए, क्योंकि उसके उस बन्ध का अन्त होने वाला है ( गा० १२२-२३) । आगे इसी प्रकार से उत्तर प्रकृतियों में भी इस चार प्रकार के बन्ध का उल्लेख किया गया है (१२४-२६)। इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में समान रूप से इस चार प्रकार के बन्ध की प्ररूपणा की गयी है । केवल पद्धति में भेद रहा है। १३. षट्खण्डागम की टीका धवला में उपपादादि योगों के अल्पबहुत्व की जिस प्रकार से प्ररूपणा है ठीक उसी प्रकार से उसकी प्ररूपणा कर्मकाण्ड में भी की गई है जैसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य उपपादयोग सबसे स्तोक है । उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्त का जघन्य उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य उपपादयोग असंख्यातगुणा है । ( पु० १०, पृ० ४१४) इसी अल्पबहुत्व को कर्मकाण्ड की इस गाथा में प्रकट किया गया हैसुमगलहिणं तण्णिवत्तीजहण्णयं तत्तो । लद्धिअपुण्णुक्कस्सं बावरलद्धिस्स अवरमदो ॥२३३॥ उसकी यह समानता आगे भी दोनों ग्रन्थों में दृष्टव्य है । ' १४. धवला में प्रसंगप्राप्त एक शंका के समाधान में यह स्पष्ट किया गया है कि एक योग से आये हुए एक समान प्रबद्ध में आयु का भाग सबसे स्तोक होता है। नाम और गोत्र दोनों का भाग समान होकर आयु से विशेष अधिक होता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों का भाग परस्पर समान होकर उससे विशेष अधिक होता है। उससे मोहनीय का भाग विशेष अधिक होता है । वेदनीय का भाग उससे अधिक होता है । इस स्पष्टीकरण के साथ वहाँ 'वृत्तं च ' ऐसा निर्देश करते हुए इन दो गाथाओं को उद्धृत किया गया हैआउगभागो थोवो णामागोवे समो तदो अहियो । आवरणमंतराए भागो अहिओ दु मोहे वि ॥ सव्वरि वेयणी भागो अहिओ वु कारणं किंतु । पयडिविसेसो कारण णो अण्णं तबणुवलंभादो ॥ पु० १०, पृ ५११-१२ कर्मकाण्ड में कुछ परिवर्तित रूप में ये गाथाएँ इस प्रकार उपलब्ध होती हैंआउगभागो थोवो णामा-गोदे समो तदो अहियो । - घादितिये वि य तत्तो मोहे तत्तो तदो तदिये ॥ १६२॥ सुह- दुक्खणिमितादो बहुणिज्जरगो त्ति वेयणीयस्स । सहितो बहुगं दव्वं होवि त्तिणिद्दिट्ठ ॥ १६३॥ १५. महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के अन्तर्गत कृति - वेदनादि पूर्वोक्त २४ अनुयोगद्वारों में १२वाँ 'संक्रम' अनुयोगद्वार है । इसमें धवलाकार आचार्य वीरसेन के द्वारा संक्रम के नामसंक्रम, स्थापनासंक्रम, द्रव्यसंक्रम, कालसंक्रम और भावसंक्रम इन भेदों का निर्देश करते हुए संक्षेप में उनका स्वरूप स्पष्ट किया गया है । उनमें नोआगमद्रव्यसंक्रम के तीन भेदों में तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य को कर्मसंक्रम और नोकर्मसंक्रम के भेद से दो प्रकार का बतलाकर कर्मसंक्रम को १ धवला पु० १०, ४१४- १७ और कर्मकाण्ड गाथा ४३३-४० ३३४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसंगप्राप्त कहा गया है । यह प्रकृतिसंक्रम आदि के भेद से चार प्रकार का है । इन चारों का धवला में यथाक्रम से स्वामित्व व एक जीव की अपेक्षा काल आदि अनेक अनुयोगद्वारों के आश्रय से विस्तारपूर्वक निरूपण है। कर्मकाण्ड में तीसरे 'त्रिचूलिका अधिकार के अन्तर्गत पांच भागद्वारों की प्ररूपणा की गई है। उस पर धवलागत उपर्युक्त 'संक्रम' अनुयोगद्वार का बहुत कुछ प्रभाव रहा दिखता है। उसे स्पष्ट करने के लिए यहाँ एक दो उदाहरण दिये जाते हैं (१) धवला के उस प्रसंग में पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण व समाचारणीय आदि ३६ प्रकृतियों का एकमात्र अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है, ऐसा कहा गया है। (पु० १६, पृ० ४१०) कर्मकाण्ड में इस अभिप्राय को संक्षेप में इस प्रकार प्रकट किया गया है सुहमस्स बंधघादी सावं संजलणलोह-पंचिदी। तेज-बु-सम-वण्णचऊ अगुरुग-परधाव-उस्सासं ॥४१६॥ सत्थगवी तसदसयं णिमिणुगुवाले अधापवत्तोवु । ४२० पू० (२) धवला में मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतियों के कौन-से संक्रम होते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है "मिच्छत्तस्स विज्झादसंकमो गुणसंकमो सव्वसंकमो चेदि तिण्णि संकमा ।Xxx वेदगसम्मत्तस्स चत्तारि संकमा-अधापवत्तसंकमो उव्वेल्लणसंकमो गुणसंकमो सव्वसंकमो चेदि ।" __ -पु० १६, पृ० ४१५-१६ इस अभिप्राय को कर्मकाण्ड में निश्चित पद्धति के अनुसार संक्षेप में इस प्रकार प्रकट किया गया है ____xxx मिच्छत्ते। विज्माद-गुणे सव्वं सम्मे विज्मावपरिहीणा ॥४२३॥ धवला में प्रसंग के अनुसार बहुत-सी प्राचीन गाथाओं को उद्धृत किया गया है । ऐसी गाथाओं को कर्मकाण्ड में उसी रूप में या थोड़े-से परिवर्तन के साथ आत्मसात् कर लिया गया है। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं धवला कर्मकाण्ड गाथांश पृष्ठ गाथा १. आउअभागो थोवो ५१२ १६२ २. उगुदाल तीस सत्त य ४१० ४१८ ३. उदये संकम उदये २३६ २७६ ४. उव्वेलण विज्झादो ४०८-8 १२७ ५. एयक्खेतोगाढं २७७ १८५ ४३६ २६५ ४४० 2 dav ४०६ ३५ ४४ २८ ६. णलया बाहू य तहा ७. दस अट्ठारस दसयं २९ ७६२ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / ३३५ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. दस चदुरिगि सत्तारस ६. पणवण्णा इर वण्णा १०. बंधे अधापवत्तो उपसंहार ३३६ / षट्खण्डागम-परिशीलन ८ 5 55 w १६ गोम्मटसार के रचियता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती निःसन्देह अपार सिद्धान्तसमुद्र के पारगामी रहे हैं। उन्होंने अपने समय में उपलब्ध समस्त आगमसाहित्य को —— जैसे षट्खण्डागम और उसकी टीका धवला, कषायप्राभृत व उस पर निर्मित चूर्णिसूत्र एवं जयधवला टीका, पंचस्तिकाय, मूलाचार और तत्त्वार्थ सूत्र व उसकी व्याख्यारूप सर्वार्थसिद्धि एवं तत्त्वार्थवार्तिक आदि का गम्भीर अध्ययन किया था; जिसका उपयोग प्रकृत ग्रन्थ की रचना में किया गया है। उनकी इस कृति में षट्खण्डागम व कषायप्राभृत में प्ररूपित प्रायः सभी विषय समाविष्ट हैं । यही नहीं, उन्होंने उक्त षट्खण्डागम की टीका धवला और कषायप्राभृत की टीका जयधवला के अन्तर्गत प्राप्त गाथाओं को उसी रूप में या प्रसंगानुरूप यत्किंचित् परिवर्तन के साथ इस ग्रन्थ में सम्मिलित कर लिया है। साथ ही, उन्होंने अपने बुद्धिबल से विवक्षित विषय को प्रसंग के अनुरूप विकसित व वृद्धिंगत भी किया है। इस प्रकार यह सर्वांगपूर्ण आ० नेमिचन्द्र की कृति विद्वज्जगत् में सर्वमान्य सिद्ध हुई है । पर आश्चर्य इस बात का है कि जिस षट्खण्ड को सिद्ध करके उन्होंने अगाध सिद्धान्त विषयक पाण्डित्य को प्राप्त किया उस षट्खण्डागम के मूलाधार आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त व भूतबलि तथा गुणधर और यतिवृषभ आदि का कहीं किसी प्रकार से स्मरण नहीं किया । यह आश्चर्य विशेष रूप में इसलिए होता है, जबकि उन्होंने अपनी इस कृति में गौतम स्थविर (जीवकाण्ड गाथा ७०५), इन्द्रनन्दी, कनकनन्दी ( क० का० ३६६ ), वीरनन्दी, अभयनन्दी (क० का ० ४३६) और पुनः अभयनन्दी, इन्द्रनन्दी, वीरनन्दी (क० का ० ७८५ व ८९६) आदि का स्मरण अनेक बार किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने अजितसेन के शिष्य गोम्मटराय चामुण्डराय श्रावक को महत्त्व देते हुए उसका जयकार भी किया है (जीवकाण्ड ७३३ व क ० का० ९६६-६८ ) । ११ २४ ४०६ २६३ ७८६ ४१६ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खण्डागम पर टीकाएं आचार्य इन्द्रनन्दी ने अपने श्रुतावतार में षट्खण्डागम पर निर्मित कुछ टीकाओं का उल्लेख इस प्रकार किया है१. पद्मनन्दी विरचित परिकर्म इन्द्रनन्दी विरचित श्रुतावतार में कहा गया है कि इस प्रकार गुरुपरिपाटी से आते हुए द्रव्यभावपूस्तकगत दोनों प्रकार के सिद्धान्त (षट्खण्डागम व कषायप्राभूत) का ज्ञान कुण्डकुन्दपुर में पद्मनन्दी को प्राप्त हुआ। उन्होंने षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर बारह हजार प्रमाण ग्रन्थ 'परिकर्म' को रचा। इस प्रकार वे 'परिकर्म' के कर्ता हुए। यहाँ आचार्य इन्द्रनन्दी का 'पद्मनन्दी' से अभिप्राय सम्भवतः उन्हीं कुन्दकुन्दाचार्य का रहा है, जिन्होंने समयप्राभृत आदि अनेक अध्यात्म-ग्रन्थों की रचना की है। कारण यह कि कुन्दकुन्दाचार्य का दूसरा नाम पद्मनन्दी भी रहा है । यह पद्मनन्दी के साथ कुन्दकुन्दपुर के उल्लेख से भी स्पष्ट प्रतीत होता है, क्योंकि कुन्दकुन्दपुर से सम्बन्ध उन्हीं का रहा है। यह 'परिकर्म' वर्तमान में उपलब्ध नहीं है, पर वीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका में उसका उल्लेख बीसों बार किया है। उन उल्लेखों में प्रायः सभी सन्दर्भ गणित से सम्बन्ध रखते हैं। जैसे धवला में उसका उल्लेख एक स्थान पर विवक्षित विषय की पुष्टि के लिए किया गया है। जैसे-द्रव्यप्रमणानुगम में थ्यिादृष्टियों के द्रव्यप्रमाण के प्रसंग में अनन्तानन्त के ये तीन भेद निदिष्ट किये गये हैं-जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम अनन्तानन्त । इनमें जघन्य और उत्कृष्ट अनन्तानन्त को छोड़कर प्रकृत में अजघन्य-अनुत्कृष्ट अनन्तानन्त विवक्षित है । उसकी पुष्टि में 'परिकर्म' का उल्लेख धवला में इस प्रकार किया गया है __ "जम्हि जम्हि अणंताणतयं मग्गिज्जदि तम्मि तम्हि अजहण्णमणुक्कस्स अणंताणं तस्सेव, इदि परियम्मवयणादो जाणिज्जदि अजहण्णमणुक्कस्स अणंताणं तस्सेव गहणं होदि त्ति।" -पु. ३, पृ० १६ २. एक अन्य स्थल पर उसका उल्लेख असंगत मान्यता के साथ विरोध प्रकट करने के लिए किया गया है। जैसे १. एवं द्विविधो द्रव्य-भावपुस्तकगतः समागच्छन् । गुरुपरिपाट्या ज्ञात: सिद्धान्तः कुण्डकुन्दपुरे ॥१६०॥ श्रीपद्मनन्दिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाणः [ण-] । ग्रन्थपरिकर्मका [र्ता] षट्खण्डाद्यत्रिखण्डस्य ॥१६१।। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक उपदेश के अनुसार तिर्यग्लोक को एक लाख योजन बाहल्यवाला और एक राजु विस्तृत गोल माना गया है। उसे असंगत ठहराते हुए धवला में कहा गया है कि ऐसा मानने पर लोक के प्रमाण में ३४३ धनराजु की उत्पत्ति घटित नहीं होती। दूसरे, वैसा मानने पर समस्त आचार्यसम्मत परिकर्मसूत्र के साथ विरोध का प्रसंग भी प्राप्त होता है, क्योंकि वहाँ ऐसा कहा गया है "रज्जु सत्तगुणिदा जगसेढी, सा वग्गिदा जगपदरं, सेढीए गुणिदजगपदरं घणलोगो होदि, त्ति परियम्मसुत्तेण सव्वाइरियसम्मदेण विरोहप्पसंगादो च।" -पु. ४, पृ० १८३-८४ यहाँ यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि धवलाकार ने उक्त परिकर्म का उल्लेख सूत्र के रूप में किया है। साथ ही, उसे उन्होंने सब आचार्यों से सम्मत भी बतलाया है। ३. अन्यत्र, सूत्र के विरुद्ध होने से धवलाकार ने उसे अप्रमाण भी ठहरा दिया है जैसे आचार्य वीरसेन के अभिमतानुसार स्वयम्भूरमण समुद्र के आगे भी राजू के अर्धच्छेद पड़ते हैं। इस मान्यता की पुष्टि में उन्होंने दो सौ छप्पन सूच्यंगुल के वर्ग प्रमाण जगप्रतर का भागहार बतलानेवाले सूत्र' को उपस्थित किया है। इस पर शंकाकार ने उक्त मान्यता के साथ परिकर्म का विरोध दिखलाते हुए कहा है कि "जितने द्वीप-सागर रूप हैं तथा जितने जम्बूद्वीप के अर्धच्छेद हैं, रूप (एक) अधिक उतने ही राजू के अर्धच्छेद होते हैं" इस परिकर्म के साथ उस व्याख्यान का विरोध क्यों न होगा? इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि उसके साथ अवश्य विरोध होगा, किन्तु सूत्र के साथ नहीं होगा। इसलिए इस व्याख्यान को ग्रहण करना चाहिए, न कि उस परिकर्म को, क्योंकि वह सूत्र के विरुद्ध जाता है।' प्रसंगवश यहाँ ये तीन उदाहरण दिये गये हैं। इस सम्बन्ध में विशेष विचार आगे 'ग्रन्थोल्लेख' के अन्तर्गत 'परिकर्म' के प्रसंग में विस्तार से किया जाएगा। 'परिकर्म' का क्या आचार्य कुन्दकुन्द विरचित टीका होना सम्भव है ? 'परिकर्म' कुन्दकुन्दाचार्य विरिचित षट्खण्डागम की टीका रही है, इस सम्बन्ध में कुछ विचारणीय प्रश्न उत्पन्न होते हैं जो ये हैं १. जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है, धवला में जहाँ-जहाँ परिकर्म का उल्लेख किया गया है वहाँ सर्वत्र परिकर्म का प्रमुख वर्णनीय विषय गणितप्रधान रहा है। उधर आचार्य कुन्दकुन्द आध्यात्म के मर्मज्ञ रहे हैं, यह उनके द्वारा विरचित समयप्राभूतादि ग्रन्थों से सिद्ध है। ऐसी स्थिति में क्या यह सम्भव है कि वे षट्खण्डागम पर गणितप्रधान परिकर्म नामक टीका लिख सकते हैं ? २. ऊपर परिकर्म से सम्बन्धित जो तीन उदाहरण दिये गये हैं उनमें से दूसरे उदाहरण में परिकर्म का उल्लेख सूत्र के रूप में किया गया है। क्या धवलाकार उस परिकर्म टीका का उल्लेख सूत्र के रूप में कर सकते हैं ? ३. आचार्य कुन्दकुन्द विरचित जितने भी समयप्राभूत आदि ग्रन्थ उपलब्ध हैं वे सब गाथाबद्ध ही हैं, कोई भी उनकी कृति गद्यरूप में उपलब्ध नहीं है । तब क्या गाथाबद्ध समय १. वह सूत्र है—“खेत्तेण पदरस्स बेछप्पण्णंगुलसयवग्गपडिभागेण। --पु० ३, पृ० २६६ २. धवला पु०४, पृ० १५५-५६ ३३८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राभृतादि विविध मूल ग्रन्थों के रचियता आचार्य कुन्दकुन्द किसी ग्रन्थ विशेष पर गद्यात्मक टीका भी लिख सकते हैं ? ४ इन्द्रनन्दिश्रुतावतार के अनुसार परिकर्म नाम की यह टीका षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर लिखी गई है । किन्तु धवला में उसका उल्लेख चौथे वेदनाखण्ड और पांचवें वर्गणाखण्ड में भी अनेक बार किया गया है।' इसके अतिरिक्त उसका तीसरा खण्ड जो 'बन्धस्वामित्व विचय' है, जिस पर टीका लिखे जाने का निर्देश इन्द्रनन्दी द्वारा किया गया है, उसमें कहीं भी धवलाकार द्वारा परिकर्म का उल्लेख नहीं किया गया। वह पूरा ही खण्ड गणित से अछूता रहा है, वहाँ ज्ञानावरणादि मूल और उत्तर प्रकृतियों के बन्धक-अबन्धकों का विचार किया गया है । ५. समयसार में वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यवसानस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बन्धस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबन्धस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, जीवस्थान और गुणस्थान ये जीव के नहीं हैं, ये सब पुद्गल के परिणाम हैं, ऐसा कहा गया है। ( गा० ५०-५५ ) आगे इतना मात्र वहाँ स्पष्ट किया गया है कि वर्ण को आदि लेकर गुणस्थानपर्यन्त ये सब भाव निश्चय नय की अपेक्षा जीव के नहीं हैं, व्यवहार की अपेक्षा वे जीव के होते हैं । जीव के साथ इनका सम्बन्ध दूध और पानी के समान है, इसलिए वे जीव के नहीं हैं, क्योंकि जीव उपयोग गुण से अधिक है (गाथा ५६-५७) । यहाँ यह ध्यातव्य है कि षट्खण्डागम में उपर्युक्त वर्ग वर्गणादिकों को प्रमुख स्थान प्राप्त है, गुणस्थान और मार्गणास्थानों पर तो वह पूर्णतया आधारित है । ऐसी परिस्थिति में यदि कुन्दकुन्दाचार्य उस पर टीका लिखते हैं तो क्या वे समयसार में ही या पंचास्तिकाय आदि अपने अन्य किसी ग्रन्थ में यह विशेष स्पष्ट नहीं कर सकते थे कि वे सब भाव भी ज्ञातव्य हैं व प्रथम भूमिका में आश्रयणीय हैं ? अमृतचन्द्र सूरि ने भी 'समयसार - कलश' (१-५) में यही स्पष्ट किया है कि जो पूर्व भूमिका में अवस्थित है उनके लिए व्यवहारनय हस्तावलम्बन देनेवाला है, पर जो परमार्थ का अनुभव करने लगे हैं उनके लिए व्यवहारनय कुछ भी नहीं है, वह सर्वथा हेय है । इन प्रश्नों पर विचार करते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवतः आचार्य कुन्दकुन्द ने ने षट्खण्डागम पर 'परिकर्म' नाम की कोई टीका नहीं लिखी है । परिकर्म का उल्लेख धवला को छोड़कर अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता ।" यह भी आश्चर्यजनक है कि धवला में जितने बार भी परिकर्म का उल्लेख किया गया है उनमें कहीं भी उसका उल्लेख षट्खण्डागम की टीका या उसकी व्याख्या के रूप में नहीं किया गया। इसके विपरीत एक-दो बार तो वहाँ उसका उल्लेख सूत्र के रूप में किया गया है । अनेक बार उल्लेख करते हुए भी कहीं भी उसके १. पु० ६, पृ० ४८ व ५६; पु० १०, पृ० ४८३; पु० १२, पृ० १५४; पु० १३, पृ० १८, २६२,२६३ व २६६ तथा पु० १४, पृ० ५४,३७४ व ३७५ २. उसका उल्लेख तिलोयपण्णत्ती के जिस गद्यभाग में किया गया है वह धवला और तिलोयपण्णत्ती में समान रूप से पाया जाता है। वह सम्भवतः धवला से ही किसी के द्वारा पीछे तिलोयपण्णत्ती में योजित किया गया है। देखिए धवला पु० ४, पृ० १५२ और ति० प० २, पृ० ७६४-६६ षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ३३१ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता की ओर वहाँ संकेत नहीं किया गया है, जबकि धवलाकार ने 'वुत्तं च पंचत्थिपाहुडे' ऐसा निर्देश करते हुए कुन्दकुन्दाचार्य विरचित पंचास्तिकाय की १०० व १०७ गाथाओं को धवला में उद्धृत किया है । इसके अतिरिक्त धवला में गुणधर, समन्तभद्र, यतिवृषभ, पूज्यपाद और प्रभाचन्द्र भट्टारक आदि के नामों का उल्लेख करते हुए भी वहाँ परिकर्म के कर्ता के रूप में कहीं किसी का उल्लेख नहीं किया गया है। इससे यही प्रतीत होता है कि धवलाकार ने परिकर्म को षट्खण्डागम की टीका, और वह भी कुन्दकुन्दाचार्य विरचित, नहीं समझा। धवला के अन्तर्गत परिकर्म के उल्लेखों को देखने से यह निश्चित है कि 'परिकर्म' एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रहा है और उसका सम्बन्ध गणित से विशेष रहा है। उसे धवला में एक-दो प्रसंग में जो 'सर्व आचार्यसम्मत' कहा गया है उससे भी ज्ञात होता है कि वह पुरातन आचार्यों में एक प्रतिष्ठित ग्रन्थ रहा है। पर वह किसके द्वारा व कब रचा गया है, यह ज्ञात नहीं होता। _ 'परिकर्म' का उल्लेख अंगश्रुत में किया गया है। अंगों में १२वा दृष्टिवाद अंग है। उसके परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका इन पाँच अर्थाधिकारों में 'परिकर्म' प्रथम है। उसके ये पाँच भेद हैं-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, दीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति । इन प्रज्ञप्तियों पर गणित का प्रभाव होना चाहिए। वर्तमान में ये चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति आदि श्वे० सम्प्रदाय में उपलब्ध हैं, पर जैसा उनका पदप्रमाण आदि निदिष्ट किया गया है उस रूप में वे नहीं हैं । इस ‘परिकर्म' का धवलाकार के समक्ष रहना सम्भव नहीं है। २. शामकुण्डकृत पद्धति श्रुतावतार में आगे कहा गया है कि तत्पश्चात् कुछ काल के बीतने पर शामकुण्ड नामक आचार्य ने पूर्ण रूप से दोनों प्रकार के आगम का ज्ञान प्राप्त किया और तब उन्होंने प्ति किया और तब उन्होंने विशाल महाबन्ध नामक छठे खण्ड के बिना दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों पर बारह हजार ग्रन्थ प्रमाण प्राकृत, संस्कृत और कर्नाटक भाषा मिश्रित 'पद्धति' की रचना की। इस 'पद्धति' का अन्यत्र कहीं कुछ उल्लेख नहीं देखा गया है। वर्तमान में वह भी अनुपलब्ध है। ३. तुम्बुलूराचार्य कृत चूडामणि श्रुतावतार में आगे कहा गया है कि उपर्युक्त 'पद्धति' की रचना के पश्चात् कितने ही काल के बीतने पर तुम्बुलूर ग्राम में तुम्बुलूर नामक आचार्य हुए। उन्होंने छठे खण्ड के बिना १. धवला पु०४, पृ० ३१५ २. काले तत: कियत्यपि गते पुनः शामकुण्डसंज्ञेन । आचार्येण ज्ञात्वा द्विभेदमप्यागमः [मं] कान्यात् ।।१५२॥ द्वादशगुणितसहस्र ग्रन्थं सिद्धान्तयोरुभयोः । षष्ठेन विना खण्डेन पृथुमहाबन्धसंज्ञेन ॥१६३।। प्राकृत-संस्कृत कर्णाटभाषया पद्धतिः परा रचिता । १६४ पू० । ३४० / षटखण्डागम-परिशीलन Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों पर, 'चूडामणि' नाम की विस्तृत व्याख्या लिखी। यह ग्रन्थरचना से चौरासी हजार श्लोक प्रमाण रही है। उसकी भाषा कर्नाटक रही है। इसके अतिरिक्त छठे खण्ड पर उन्होंने सात हजार श्लोक प्रमाण 'पंजिका' की। __यह 'चूडामणि' और 'पंजिका' भी वर्तमान में अनुपलब्ध हैं। उनका कहीं और उल्लेख भी नहीं दिखता। ४. समन्तभद्र विरचित टीका तत्पश्चात् श्रुतावतार में ताकिकार्क आचार्य समन्तभद्र विरचित संस्कृत टीका का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि तुम्बुलूराचार्य के पश्चात् कालान्तर में ताकिकार्क समन्तभद्र स्वामी हुए। उन्होंने उन दोनों प्रकार के सिद्धान्त का अध्ययन करके षट्खण्डागम के पाँच खण्डों पर एक टीका लिखी। ग्रन्थ-रचना से वह अड़तालीस हजार श्लोक प्रमाण थी। भाषा उसकी अतिशय सुन्दर मृदु संस्कृत रही है। 'समन्तभद्र' से अभिप्राय इन्द्रनन्दी का उन स्वामी समन्तभद्र से ही रहा है जिन्होंने तर्कप्रधान देवागम (आप्तमीमांसा), युक्त्यनुशासन और स्वयंभूस्तोत्र आदि स्तुतिपरक ग्रन्थों को रचा है। वे 'स्वामी' के रूप में विशेष प्रसिद्ध रहे हैं। इन्द्रनन्दी ने उन्हें तार्किकाकं कहा है। अष्टसहस्री के टिप्पणकार ने भी उनका उल्लेख ताकिकार्क के रूप में किया है (अष्टस० पृ० १ का टिप्पण)। धवलाकार ने भी उनका उल्लेख समन्तभद्रस्वामी के रूप में किया है। धवला में समन्तभद्राचार्य द्वारा विरचित देवागम, स्वयम्भूस्तोत्र और युक्त्यनुशासन आदि के अन्तर्गत पद्यों के उद्धृत करने पर भी उनके द्वारा विरचित इस टीका का कहीं कोई उल्लेख क्यों नहीं किया गया, यह विचारणीय है। १. तस्मादारात् पुनरपि काले गतवति कियत्यपि च ॥ १६४ उत्त० ।। अथ तुम्बुलूरनामाचार्योऽभूत्तुम्बुलू रसद्ग्रामे । षष्ठेन विना खण्डेन सोऽपि सिद्धान्तयोरुभयोः ।।१६।। चतुरधिकाशीतिसहस्रग्रन्थरचनया युक्ताम् । कर्णाटभाषयाऽकृत महती चूडमणि व्याख्याम् ॥१६६।। सप्तसहस्रग्रन्थां षष्ठस्य च पञ्जिकां पुनरकार्षीत् ।।१६७ पू० ॥ २. कालान्तरे ततः पुनरासन्ध्यांपलरि (?) ताकिकार्कोऽभूत् ॥१६७ उत्त० ॥ श्रीमान् समन्तभद्रस्वामीत्यथ सोऽप्यधीत्य तं द्विविधम् । सिद्धान्तमतः षट्खण्डागमगतखण्डपञ्चकस्य पुनः ।।१६८।। अष्टौ चत्वारिंशत्सहस्रसद्ग्रन्थरचनया युक्ताम् । विरचितवानतिसुन्दरमृदुसंस्कृतभाषया टीकाम् ।।१६६॥ ३. क-तहा समंतभद्दसामिणा वि उत्तं-विधिविषक्त..... (स्वयम्भू० ५२) । धवला पु० ७, पृ० ६६ ख–तथा समन्तभद्रस्वामिनाप्युक्तम्-स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नयः (देवागम १०६) ॥धवला पु० ६, पृ० १६७ ग-उत्तं च-नानात्मतामप्रजहत्...' (युक्त्यनु० ५०) धवला पु० ३, पृ० ६ षट्खण्डागम पर टीकाएँ | ३४१ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह टीका भी वर्तमान में उपलब्ध नहीं है तथा उसका अन्य कहीं किसी प्रकार का उल्लेख भी नहीं देखा गया है। इन्द्रनन्दी ने इसी प्रसंग में आगे यह भी कहा है स्वामी समन्तभद्र द्वितीय सिद्धान्तग्रन्थ की व्याख्या लिख रहे थे, किन्तु द्रव्यादिशुद्धि के करने के प्रयत्ल से रहित होने के कारण उन्हें अपने सधर्मा ने रोक दिया था।' ५. बप्पदेवगुरु विरचित व्याख्या इन्द्रनन्दिश्रुतावतार में आगे एक व्याख्या का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि इस प्रकार परम गुरुओं की परम्परा से दोनों प्रकार के सिद्धान्त के व्याख्यान का यह क्रम चलता रहा। उसी परम्परा से आते हुए उसे अतिशय तीक्ष्णबुद्धि शुभनन्दी और रविनन्दी मुनियों ने प्राप्त किया। उन दोनों के पास में, भीमरथी और कृष्णमेखा नदियों के मध्यगत देश में रमणीय उत्कलिका ग्राम के समीप प्रसिद्ध मगणवल्ली ग्राम में विशेष रूप से सुनकर बप्पदेव गुरु ने छह खण्डों में से महाबन्ध को अलग कर शेष पाँच खण्डों में छठे खण्ड व्याख्याप्रज्ञप्ति को प्रक्षिप्त किया। इस प्रकार निष्पन्न हए छह खण्डों और कषायप्राभूत की उन्होंने साठ हजार ग्रन्थ प्रमाण प्राकृत भाषारूप पुरातन व्याख्या लिखी। साथ ही, महाबन्ध पर उन्होंने पांच अधिक आठ हजार ग्रन्थ प्रमाण व्याख्या लिखी। __ ऊपर निर्दिष्ट 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' से क्या अभिप्रेत रहा है, यह ज्ञात नहीं होता। श्लोक १७४-७५ के अन्तर्गत "व्याख्याप्रज्ञप्ति च षष्ठं खण्डं च तत (१) संक्षिप्य । षण्णां खण्डानामिति निष्पन्नानां" इन पदों का परस्पर सम्बन्ध भी विचारणीय है। 'तत' यह अशुद्ध भी है, उसके स्थान में 'ततः' रहा है या अन्य ही कुछ पाठ रहा है, यह भी विचारणीय है। इसी प्रकार श्लोक १. विलिखन् द्वितीयसिद्धान्तस्य व्याख्या सधर्मणा स्वेन । द्रव्यादिशुद्धिकरणप्रयत्नविरहात् प्रतिनिषिद्धम् ॥१७०।। (सम्भव है इस प्रतिषेध का कारण भस्मक व्याधि के निमित्त से उनके द्वारा कुछ समय के लिए किया गया जिनलिंग का परित्याग रहा हो ।) २. एवं व्याख्यानक्रममवाप्तवान् परमगुरुपरम्परया। आगच्छन् सिद्धान्तो द्विविधोऽप्यतिनिशितबुद्धिभ्याम् ॥१७१॥ शुभ-रविनन्दिमुनिभ्यां भीमरथि-कृष्णमेखयोः सरितोः । मध्यमविषये रमणीयोत्कलिकाग्रामसामीप्यम् ॥१७२॥ विख्यातभगणवल्लीग्रामेऽथ विशेषरूपेण । श्रुत्वा तयोश्च पाश्र्चे तमशेषं बप्पदेवगुरुः ॥१७३।। अपनीय महाबन्धं षट्खण्डाच्छेषपञ्चखण्डे तु । व्याख्याप्रज्ञप्ति च षष्ठं खण्डं च तत (?) संक्षिप्य ॥१७४।। षण्णां खण्डानामिति निष्पन्नानां तथा कषायाख्यप्राभृतकस्य च षष्ठिसहस्रग्रन्थप्रमाणयुताम् ॥१७५।। व्यलिखत् प्राकृतभाषारूपां सम्यक् पुरातनव्याख्याम् । अष्टसहस्रग्रन्थां व्याख्यां पञ्चाधिकां महाबन्धे ।।१७६।। ३४२ / षट्वण्डागम-परिशीलन Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ के अन्तर्गत 'अवाप्तवान्' का कर्ता कोन है, यह भी ज्ञात नहीं होता। इस प्रकार इस प्रसंग से सम्बद्ध उन १७१-७६ श्लोंकों में निहित अभिप्राय को समझना कठिन प्रतीत हो रहा है। आचार्य वीरसेन ने धवला में 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' का उल्लेख दो बार किया है। यथा (१) “कम्मि तिरियलोगस्स पज्जवसाणं ? तिण्णं वादवलयाणं बाहिरभागे । तं कधं जाणिज्जदि ? 'लोगो वादपदिट्टिदो' त्ति वियाहपण्णत्तिवयणादो।" -पु० ३, पृ० ३४-३५ यहाँ तिर्यग्लोक का अन्त तीन वातवलयों के बाह्य भाग में है, इस अभिप्राय की पुष्टि में 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' के उक्त प्रसंग को प्रस्तुत किया गया है। (२) “जीवा णं भंते ! कदिभागावसेसयंसि याउगंसि परभवियं आउगं कम्म णिबंधता बंधंति? गोदम ! जीवा दुविहा पण्णत्ता संखेज्जवस्साउआ चेव असंखेज्जवस्साउआ चेव। तत्थ ......।" एदेण वियाहपण्णत्तिसुत्तेण सह कधं ण विरोहो? ण, एदम्हादो तस्स पुधभूदस्स आइरियभेएण भेदभावण्णस्स एयत्ताभावादो। -पु. १०, पृ० २३७-३८ यहाँ शंकाकार ने 'परभविक आयु के बंध जाने पर भुज्यमान आयु का कदलीघात नहीं होता है' इस अभिमत के विषय में उपर्युक्त व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के विरुद्ध होने की आशंका प्रकट की है। उसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आचार्य भेद से भिन्नता को प्राप्त है, अत: उसकी इसके साथ एकरूपता नहीं हो सकती। ___ उपर्युक्त व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के शब्दविन्यास को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि वह वर्तमान में उपलब्ध व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र) में कहीं होना चाहिए। पर षटखण्डागम के अन्तर्गत उस प्रसंग का अनुवाद करते समय वहाँ खोजने पर भी वह मुझे उपलब्ध नहीं हुआ था। ___आचार्य भट्टाकलंकदेव ने एक प्रसंगप्राप्त शंका के समाधान में अपने तत्त्वार्थवार्तिक मे व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकों का उल्लेख इस प्रकार किया है ... 'इत्यत्रोच्यते-न, अन्यत्रोपदेशात् । व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकेषु शरीरभंगे वायोरौदारिकवैक्रियिक-तेजस-कार्मणानि चत्वारि शरीराण्युक्तानि मनुष्याणां च । ..... व्याख्याप्रज्ञप्तिबण्डकष्वस्तित्वमात्रमभिप्रेत्योक्तम्।" -त०वा० २,४६,८ इस प्रकार आचार्य अकलंकदेव के समक्ष कोई व्याख्याप्रज्ञप्ति ग्रन्थ रहा है, ऐसा प्रतीत होता है। उपर्युक्त व्याख्याप्रज्ञप्तिगत उस प्रसंग के समान प्रज्ञापनासूत्र (६,४५-४६) और बहत्संग्रहणीसूत्र (३२७-२८) में भी उसी प्रकार का आयुबन्ध विषयक प्रसंग उपलब्ध होता है। वहाँ गौतम द्वारा पंचेन्द्रिय तियंचों के विषय में प्रश्न किया गया है कि वे आयु के कितने भाग शेष रहने पर परभविक आयु को बाँधते हैं। उसका उत्तर उपर्युक्त व्याख्याप्रज्ञप्ति के ही समान दिया गया है। यह सुविदित है कि बारह अंगों में पाँचवाँ अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति रहा है। इसके अतिरिक्त बारहवें दृष्टिवाद अंग के पाँच भेदों में अन्तिम भेद भी व्याख्याप्रज्ञप्ति रहा है। पर ऊपर इन्द्रनन्दिश्रुतावतार में निर्दिष्ट व्याख्याप्रज्ञप्ति से वहाँ किसका अभिप्राय रहा है, यह ज्ञात नहीं होता। जैसा कि आगे 'धवला टीका' के प्रसंग में स्पष्ट किया जाएगा, धवलाकार ने व्याख्याप्रज्ञप्ति को पाकर आगे के निबन्धनादि अठारह (७-२४) अनुयोगद्वारों के आश्रय से षट्खण्ड पटवण्डागम पर टीकाएँ।३४३ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामक छठे खण्ड की रचना की है। ' इससे ऐसा प्रतीत होता है कि बप्पदेव गुरु और आचार्य वीरसेन के समक्ष कोई व्याख्याप्रज्ञप्ति ग्रन्थ रहा है, जिसे षट्खण्डागम में छठे खण्ड के रूप में जोड़ा गया है और महाबन्ध को उससे अलग किया गया है । उसी व्याख्याप्रज्ञप्ति के आधार से आचार्य वीरसेन ने संक्षेप में निबन्धन आदि अठारह अनुयोगद्वार में विभक्त 'सत्कर्म' को लिखा व उसे षट्खण्डागम का छठा खण्ड बनाया । वह सत्कर्म प्रस्तुत षट्खण्डागम की १६ जिल्दों में से १५ व १६वीं दो जिल्दों में प्रकाशित है । इस प्रकार षट्खण्डागम को इन १६ जिल्दों में समाप्त समझना चाहिए । छठा खण्ड जो महाबन्ध था वह अलग पड़ गया है । इन्द्रनन्दिश्रुतावतार के अनुसार वीरसेनाचार्य ने जिस व्याख्याप्रज्ञप्ति के आश्रय से 'सत्कर्म' की रचना की है तथा जिस व्याख्याप्रज्ञप्ति का उल्लेख पीछे आयु के प्रसंग में धवला में किया गया हैं, वे दोनों भिन्न प्रतीत होते हैं । कारण कि आयु के प्रसंग में उल्लखित उस व्याख्याप्रज्ञप्ति को स्वयं धवलाकार ने ही आचार्यभेद से भिन्न घोषित किया है । श्रुतावतार में निर्दिष्ट बप्पदेवगुरु विरचित वह साठ हजार ग्रन्थ प्रमाण व्याख्या भी उपलब्ध नहीं है और न ही कहीं और उसका उल्लेख भी देखा गया है । ६. आ० वीरसेन विरचित धवला टीका इन्द्रनन्दी ने आगे अपने श्रुतावतार में प्रस्तुत धवला टीका के सम्बन्ध में यह कहा है कि बप्पदेव विरचित उस व्याख्या के पश्चात् कुछ काल के बीतने पर सिद्धान्त के तत्त्वज्ञ एलाचार्य हुए। उनका निवास चित्रकूटपुर रहा है। उनके समीप में वीरसेनगुरु ने समस्त सिद्धान्त का अध्ययन करके ऊपर के आठ अधिकारों को लिखा । तत्पश्चात् वीरसेन गुरु की अनुज्ञा प्राप्त करके वे चित्रकूटपुर से आकर वाटग्राम में आनतेन्द्रकृत जिनालय में स्थित हो गये । वहाँ उन्होंने पूर्व छह खण्डों में व्याख्याप्रज्ञप्ति को प्राप्त कर उसमें उपरितम बन्धन आदि अठारह अधिकारों से 'सत्कर्म' नामक छठे खण्ड को करके संक्षिप्त किया । इस प्रकार उन्होंने छह खण्डों की बहत्तर हजार ग्रन्थ प्रमाण प्राकृत संस्कृत मिश्रित धवला नाम की टीका लिखी । साथ ही, उन्होंने कषायप्राभृत की चार विभक्तियों पर बीस हजार प्रमाण समीचीन ग्रन्थ रचना से संयुक्त जयधवला टीका भी लिखी । इस बीच वे स्वर्गवासी हो गये । तब जयसेन ( जिनसेन) गुरु नामक उनके शिष्य ने उसके शेष भाग को चालीस हजार ग्रन्थ प्रमाण में समाप्त किया । इस प्रकार जयधवला टीका ग्रन्थ-प्रमाण में साठ हजार हुई । १. इ० श्रुतावतार १८०-८१ २. वीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका में 'एलाचार्य का वत्स' कहकर स्वयं भी गुरु के रूप में एलाचार्य का उल्लेख किया है | धवला पु० ६, पृ० १२६ ३. काले गते कियत्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासी । श्रीमाने लाचार्यो बभूव सिद्धान्ततत्त्वज्ञः || १७७ ।। तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः । उपरितमनिबन्धनाद्यधिकारानष्ट (?) च लिलेख ॥। १७८ ॥ ३४४ / षट्खण्डागम-परिशीलन (शेष पृष्ठ ३४५ पर देखें) Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ इस प्रकार इन्द्रनन्दी ने अपने श्रुतावतार में षट्खण्डागम पर निर्मित जिन छह टीकाओं का उल्लेख किया है उनमें एक यह धवला टीका ही उपलब्ध है जो प्रकाशित हो चुकी है। यह प्राकृत-संस्कृत मिश्रित भाषा में लिखी गई है। विचारणीय समस्या इन्द्रनन्दितावतार में निर्दिष्ट 'परिकर्म' आदि षटखण्डागम की छह टीकाओं में एक यह छठी धवला टीका ही उपलब्ध है, शेष परिकर्म आदि पाँच टीकाओं में से कोई भी वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं। वे कहाँ गयीं व उनका क्या हुआ ? षट्खण्डागम और कषायप्राभृत मूल तथा उनकी धवला व जयधवला टीकाएँ दक्षिण (मूडबिद्री) में सुरक्षित रहीं हैं । जहाँ तक मैं समझ सका हूँ, दक्षिण में भट्टारकों के नियन्त्रण में इन ग्रन्थों की सुरक्षा रही है, भले ही ये किन्हीं दूसरों के उपयोग में न आ सके हों। ऐसी स्थिति में उन पाँच टीकाओं का लुप्त हो जाना आश्चर्यजनक है। श्रुतावतार में निर्दिष्ट नामों के अनुसार इन टीकाओं के रचियता दक्षिणात्य आचार्य ही रहे दिखते हैं । ये टीकाएँ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचकवर्ती के समय में उपलब्ध रही या नहीं, यह भी कुछ कहा नहीं जा सकता। हाँ, धवला व जयधवला टीकाएँ तथा आचार्य यतिवृषभ विरचित चूर्णिसूत्र अवश्य ही उनके समक्ष रहे हैं और उनका उन्होंने अपनी ग्रन्थ-रचना में भरपूर उपयोग भी किया है, यह पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। श्रुतावतार के रचियता आचार्य इन्द्रनन्दी के समक्ष भी वे पाँच टीकाएँ रही हैं और उनका अवलोकन करके ही उन्होंने परिचय कराया है, यह भी सन्देहास्पद है। यदि वे उनके समक्ष रही होती तो वे, जैसा कि उन्होंने धवला और जयधवला का स्पष्ट रूप में परिचय कराया है, उनका भी विस्तार से परिचय करा सकते थे। पर वैसा नहीं हुआ, उनके परिचय में उन्होंने जिन पद्यों को रचा है उनके अन्तर्गत पदों का विन्यास कुछ असम्बद्ध-सा रहा है। इससे अभिप्राय स्पष्ट नहीं हो सका है। जैसे --- (१) 'परिकर्म' के परिचय के प्रसंग में प्रयुक्त १६१वें पद्य में 'सोऽपि द्वादशसहस्रपरि आगत्य चित्रकूटात्ततः स भगवान् गुरोरनुज्ञानात् । वाटग्रामे चात्राऽऽनत्तेन्द्रकृतजिनगृहे स्थित्वा ।।१७६।। व्याख्याप्रज्ञप्तिमवाप्य पूर्वषट्खण्डतस्ततस्तस्मिन् (?)। उवरितमबन्धनाद्यधिकारैरष्टादशविकल्पैः ॥१८०।। सत्कर्मनामधेयं षष्ठं खण्डं विधाय संक्षिप्य । इति षण्णां खण्डानां ग्रन्थसहस्र द्विसप्तत्या ।।१८१।। प्राकृत-संस्कृतभाषामिश्रां टीकांविलिख्य धवलाख्याम । जयधवलां च कपायप्राभूतके चतसृणां विभक्तीनाम् ।।१८२।। विंशतिसहस्रसद्ग्रन्थरचनया संयुतां विरच्य दिवम् । यातस्ततः पुनस्तच्छिश्यो जय [जिन] सेनगुरुनामा ॥१८३।। तच्छेषं चत्वारिंशता सहस्र : समापितवान् । जयधवलैवं षष्टिसहस्रग्रन्थोऽभवट्टीका ।।१८४॥ षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ३४५ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णामः। ग्रन्थपरिकर्मका' यह सन्दर्भ असम्बद्ध प्रतीत हो रहा है । हो सकता है कि लिपि के दोष से 'परिमाणः' के स्थान में 'परिणामः' और 'कर्ता' के स्थान में 'की' हो गया हो। वैसी स्थिति में परिमाणः' का सम्बन्ध तीसरे चरण में प्रयुक्त 'ग्रन्थ' के साथ तथा 'कर्ता' का सम्बन्ध 'सोऽपि' के साथ बैठाया जा सकता है। फिर भी अन्तिम क्रियापद की अपेक्षा बनी ही रहती है। 'अपि' शब्द भी कुछ अटपटा-सा दिखता है। यद्यपि पादपूर्ति के लिए ऐसे कुछ शब्दों का उपयोग किया भी जाता है, पर ऐसे प्रसंग में उसका प्रयोग किसी अन्य की भी सूचना करता है। इसके अतिरिक्त 'परिकर्म' के साथ टीका या व्याख्या जैसे किसी शब्द का उपयोग नहीं किया गया है, जिसकी अपेक्षा अधिक थी। (२) बप्पदेव गुरु के द्वारा लिखी जानेवाली पुरातन (?) व्याख्या के प्रसंग में जिन छह (१७१-७६) पद्यों का उपयोग हुआ है उनमें से प्रथम (१७१) पद्य में प्रयुक्त 'अवाप्तवान्' क्रियापद के कर्ता के रूप में सम्बन्ध किससे अपेक्षित रहा है ? तृतीयान्त 'शुभ-विनन्दिमुनिभ्याम्' से सूचित शुभनन्दी और रविनन्दी के साथ तो उसका सम्बन्ध जोड़ना असंगत रहता है (१७२)। इसके अतिरिक्त इन्हीं दोनों के लिए आगे (१७३) 'तयोश्च' इस सर्वनाम पद का भी उपयोग किया गया है। यदि 'अवाप्तवान्' के स्थान में 'अवाप्तः' रहा होता तो उपर्युक्त तृतीयान्त पद से उसका सम्बन्ध घटित हो सकता था। आगे का पद्य (१७४) तो पूरा ही असम्बद्ध दिखता है। छह खण्डों मे महाबन्ध को अलग करके व्याख्याप्रज्ञप्ति को छठे खण्ड के रूप में यदि शेष पाँच खण्डों में जोड़ने का अभिप्राय रहा है तो वह 'संक्षिप्य' पद से तो स्पष्ट नहीं होता। इसके अतिरिक्त इसके पूर्व में जो 'तत' है वह स्पष्टतया अशुद्ध है ! पर उसके स्थान में क्या पाठ रहा है, इसकी कल्पना करना भी अशक्य दिख रहा है। (३) शामकुण्ड के द्वारा दोनों सिद्धान्तों पर बारह हजार ग्रन्थप्रमाण 'पद्धति' के लिखे जाने की सुचना की गई है (१६३), पर उस में षटखण्डागम पर वह कितने प्रमाण में लिखी गई और कषायप्राभृत पर कितने प्रमाण में, यह स्पष्ट नहीं है। इसी प्रकार तुम्बुलू राचार्य द्वारा दोनों सिद्धान्तों पर चौरासी हजार ग्रन्थप्रमाण 'व्याख्या' के लिखे जाने की सूचना है, पर वह उन दोनों में से किस पर कितने प्रमाण में लिखी गई, यह स्पष्ट नहीं है (१६५-६६)। (४) श्लोक १७८ में वीरसेन गुरु के द्वारा 'निबन्धन' आदि उपरितम आठ अधिकारों के लिखे जाने की सूचना है, और फिर आगे श्लोक १८० में 'बन्धन' आदि उपरितम अठारह अधिकारों के लिखे जाने की सूचना की गई है। इससे क्या यह समझा जाय कि आ० वीरसेन ने निबन्धन आदि आठ अधिकारों को चित्रकूटपुर में रहते हुए लिखा और आगे के दस अधिकारों को उन्होंने वाटग्राम में आकर लिखा? पर यह अभिप्राय निकालना भी कठिन दिखता है, क्योंकि आगे (१८०) बन्धन आदि उपरितम अठारह अधिकारों का उल्लेख किया गया है, जबकि उनमें 'बन्धन' नाम का कोई अधिकार रहा ही नहीं है। 'बन्धन' अनुयोगद्वार तो मूल षट्खण्डागम में वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत अन्तिम रहा है। ___'व्याख्याप्रज्ञप्तिमवाप्य पूर्वषट्खण्डतस्ततस्तस्मिन' (१८० पू०) का अभिप्राय समझना भी कठिन प्रतीत हो रहा है। क्या बप्पदेव के द्वारा महाबन्ध को अलग करके व छठे खण्डस्वरूप व्याख्याप्रज्ञप्ति को जोड़कर बनाये गये पूर्व के छह खण्डों में से, वीरसेनाचार्य द्वारा व्याख्याप्रज्ञप्ति को अलग करके छठे खण्डस्वरूप 'सत्कर्म' को उसमें जोड़ा गया है ? पर 'अवाप्य' ३४६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से 'अलग करके' ऐसा अर्थ तो नहीं निकलता है। 'अवाप्य' का अर्थ तो 'प्राप्त करके' यही सम्भव है। यदि इस अर्थ को भी ग्रहण कर लिया जाय तो वीरसेनाचार्य ने उस व्याख्याप्रज्ञप्ति को पाकर उसका क्या किया, इसे किसी पद के द्वारा स्पष्ट नहीं किया गया। उन्होंने उसके आधार से 'सत्कर्म' की रचना की है, यह अभिप्राय भी उन पदों से स्पष्ट नहीं होता। ___इसी पद्यांश में उपयुक्त 'तस्मिन्' पद का सम्बन्ध किसके साथ रहा है, यह भी ज्ञातव्य है। क्या उससे व्याख्याप्रज्ञप्ति को अलग कर शेष रहे पाँच खण्डों की विवक्षा रही है व उसमें छठे खण्डस्वरूप 'सत्कर्म' को जोड़ गया है ? यदि यह अभिप्राय रहा है तो उसे स्पष्ट करने के लिए कुछ वैसे ही पदों का उपयोग किया जाना चाहिए था। वहाँ जो यह कहा गया है कि सत्कर्मनामधेयं षष्ठं खण्ड विधाय' उसका तो यही आशय निकलता है कि 'सत्कर्म' को छठा खण्ड किया गया। आगे जो 'संक्षिप्य' पूर्वकालिक क्रिया का उपयोग हुआ है उसका अर्थ 'संक्षिप्त करके' यही हो सकता है, 'प्रक्षेप करके' नहीं। इस अर्थ को भी यदि ग्रहण करें तो भी वाक्यपूर्ति के लिए अन्तिम किसी क्रियापद की अपेक्षा बनी ही रहती है, जो वहाँ नहीं है। आगे १८३वें पद्य में 'जिनसेन' के स्थान में 'जयसेन' नाम का उल्लेख कैसे किया गया है, यह भी विचारणीय है। लिपि दोष से भी वैसे परिवर्तन की सम्भावना नहीं है। जैसी कि पं० नाथूराम जी प्रेमी ने सम्भावना की है, प्रस्तुत श्रुतावतार के कर्ता वे इन्द्रनन्दी सम्भव नहीं दिखते, जिनका उल्लेख नेमिचन्द्राचार्य ने अपने गुरु के रूप में किया है। ये उनके बाद के होना चाहिए। श्रुतावतारगत उस प्रसंग को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता कि श्रतावतार के रचयिता स्वयं उन टीकाओं से परिचित नहीं रहे और सम्भवतः वे टीकाएँ उनके समय में उपलब्ध भी नहीं रही हैं । लगता है, उन्होंने जो भी उनके परिचय में लिखा है वह अपने समय में वर्तमान कुछेक मुनिजनों से सुनकर लिखा है। उन्होंने गुणधर और धरसेन के पूर्वापरक्रम के विषय में अपनी अजानकारी व्यक्त करते हुए वैसा ही कुछ अभिप्राय इस प्रकार से प्रकट किया है गुणधर-धरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः । न ज्ञायते तदन्वयकथकागम-मुनिजनाभावात् ॥१५१॥ वे टीकाएँ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के समय में रहीं या नहीं रहीं, यह अन्वेषणीय है। हाँ, धवला और जयधवला टीकाएँ उनके समक्ष अवश्य रही हैं व उन्होंने अपनी ग्रन्थरचना में उनका भरपूर उपयोग भी किया है, यह पूर्व में कहा जा चुका है। वीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका में बहुत से मतभेदों को प्रकट किया है व उनमें कुछ को असंगत भी ठहराया है। पर उन्होंने उन मतभेदों के प्रसंग में कहीं किसी आचार्य विशेष या व्याख्या विशेष का उल्लेख नहीं किया। ऐसे प्रसंगों पर उन्होंने केवल 'के वि आइरिया' या 'केसि च' आदि शब्दों का उपयोग किया है । जैसे-~ (१) "एदं च केसिंचि आइरियवक्खाणं पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइटिजोणिणी अवहारकालपडिबद्धं ण घडदे। कुदो ? पुरदो वाणवेतर देवाणं तिण्णि जोयणसद अंगुलवग्गमेत्त अवहारकालो होदि त्ति वक्खाणदंसणादो।" -पु० ३, पृ० २३१ (२) “के वि आइरिया सलागरासिस्स अद्धे गदे तेउक्काइयरासी उप्पज्जदि त्ति भणंति । के वि तं णेच्छति ।" पु० ३, पृ० ३३७ षट्खण्डागम पर टीकाएँ | ३४७ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) "के वि आइरिया 'देवा णियमेण मूलसरीरं पविसिय मरंति' त्ति भणंति ।" -पु० ४, पृ० १६५ (४) "के वि आइरिया कम्मट्ठिदीदो बादरदिदी परियम्मे उप्पण्णा त्ति कज्जे कारणोवयारमवलंबिय बादट्ठिदीए चेय कम्मट्ठिदिसण्णमिच्छंति । तन्न घटते....।" -पु० ४, पृ० ३२ (५) एत्थ वे उवदेसा। तं जहा—तिरिक्खेसु वेमास-मुत्तपुधस्सुवरि सम्मत्तं संजमासंजमं च जीवो पडिवज्जदि । मणुसेसु गब्भादिअट्ठवस्सेसु अंतोमुहुतब्भहिएसु सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च पडिवज्जदि त्ति । एसा दक्खिणपंडिवत्ती। xxxतिरिक्खेसु तिण्णिपक्ख-तिण्णिदिवसअंतोमुत्तस्सुवरि सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च पडिवज्जदि । मणुसेसु अवस्थामुवरि सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च पडिपवज्जदि । "एसा उत्तरपडिवत्ती।" -पु०५, पृ०३२ (६) "के वि आइरिया सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमावलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे बादरपुढविकाइयादीणं कम्मट्ठिदी होत्ति त्ति भणंति ।" --पु० ७, पृ० १४५ (७) "जे पुण जोयणलक्खबाहल्लं रज्जुविक्खंभं झल्लरीसमाणं तिरियलोग ति भणंति तेसि मारणंतिय-उववादखेत्ताणि तिरियलोगादो सादिरेयाणि होति । ण चेदं घडदे,.......।" -पु० ७,३७२ (८) "अण्णेसु सुत्तेसु सव्वाइरियसंमदेसु एत्थेव अप्पाबहुगसमत्ती होदि, पुणो उरिमअप्पाबहुगपयारस्स पारंभो। एत्थ पुण सुत्तेसु अप्पाबहुगसमत्ती ण होदि।" -पु० ७, पृ० ५३६ __(8) "अण्णे के वि आइरिया पंचहि दिवसेहि अट्ठहि मासेहि य ऊणाणि बाहत्तरिवासाणि त्ति बढमाणजिणिदाउअं परुति ।" -पु० ६, पृ० १२१ (१०) "जो एसो अण्णइरियाण वक्खाणकमो परुविदो सो जुत्तीए ण घडदे।" -पु० ६, पृ० ३६ यहाँ मतभेदविषयक ये कुछ थोड़े-से उदाहरण दिये गये हैं। ऐसे मतभेद धवला में बहुत पाये जाते हैं। उनके विषय में विशेष विचार आगे 'वीरसेनाचार्य की व्याख्यान पद्धति' के प्रसंग में किया गया है। आचार्य वीरसेन और उनकी धवला टीका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विस्तृत धवला टीका के रचयिता वीरसेनाचार्य हैं । दुर्भाग्य की बात है कि उनके जीवनवृत्त के विषय में कुछ विशेष जानकारी प्राप्त नहीं है । टीका के अन्त में स्वयं वीरसेनाचार्य के द्वारा जो प्रशस्ति लिखी गयी है वह बहुत अशुद्ध है। फिर भी उससे उनके विषय में जो थोड़ी-सी जानकारी प्राप्त होती है वह इस प्रकार है-- गुरु आदि का उल्लेख तथा रचनाकाल ___इस प्रशस्ति में उन्होंने सर्वप्रथम अपने विद्यागुरु एलाचार्य का उल्लेख करते हुए यह कहा है कि जिनके पादप्रसाद से मैंने इस सिद्धान्त का ज्ञान प्राप्त किया है वे एलाचार्य मुझ वीरसेन पर प्रसन्न हों।' १. जस्स से [प] साएण मए सिद्धतमिदं हि अहिलहुदं । महु सो एलाइरिओ पसियड वरवीरसेणस्स ॥प्रशस्ति गा० १॥ ३४८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इससे स्पष्ट है कि वीरसेनाचार्य के विद्यागुरु का नाम एलाचार्य रहा है । आगे उन्होंने अपने को आर्य आर्यनन्दी का शिष्य और चन्द्रसेन का नातू (प्रशिष्य) बतलाते अपने कुल का नाम 'पंचस्तूपान्वय' प्रकट किया है ।' हुए इससे ज्ञात होता है कि उनके गुरु ( सम्भवतः दीक्षागुरु) आर्यनन्दी और दादागुरु चन्द्रसेन रहे हैं। उनका कुल पंचस्तूपान्वय रहा है । तत्पश्चात् इस प्रशस्ति में उन्होंने अपने को (वीरसेन को ) इस टीका का लेखक बतलाते हुए सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण और प्रमाण (न्याय ) शास्त्र में निपुण घोषित किया है । " आगे की गाथाओं में, जो बहुत कुछ अशुद्ध हैं, ये पद स्पष्ट हैं- अट्ठत्तीसम्हि, विवकमयहि सुतेरसीए, धवलपक्खे, जगतुंगदेवरज्जे, कुंभ, सूर, तुला, गुरु, सुक्क, कत्तियमासे और वोद्दणरायणरिद । इनमें अट्ठत्तीस (अड़तीस ) के साथ 'शती' का उल्लेख नहीं दिखता । कार्तिक मास, धवल (शुक्ल पक्ष और त्रयोदशी इनके बोधक शब्द स्पष्ट हैं । कुंभ, सूर व तुला आदि शब्द ज्योतिष से सम्बन्धित हैं । 3 जैसा कि षट्खण्डागम की पु० १ की प्रस्तावना में विस्तार से विचार किया गया है, 'शती' के लिए 'शक संवत् सात सौ की कल्पना की गयी है । इससे यह स्पष्ट हो तदनुसार जाता है कि वीरसेनाचार्य के द्वारा वह धवला टीका शक संवत् सात सौ अड़तीस में कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी के दिन समाप्त की गयी है । टीका का नाम 'धवला' रहा है व उसे गुरु के प्रसाद से सिद्धान्त का मथन करके वोद्दणराय के शासनकाल में रचकर समाप्त किया गया है, यह भी प्रशस्ति से स्पष्ट है । * यह पूर्व में कहा जा चुका है कि वीरसेनाचार्य के स्वर्गस्थ हो जाने पर उनकी अधूरी जयधवला' टीका की पूर्ति उनके सुयोग्य शिष्य जिनसेनाचार्य ने की है । यह निश्चित है कि वह जयधवला टीका आचार्य जिनसेन द्वारा शक संवत् ७५६ में फाल्गुण शुक्ला दशमी को पूर्ण की गयी है। यह भी पूर्व में कहा जा चुका है कि जयधवला का ग्रन्थप्रमाण साठ हजार श्लोक रहा है । उसमें बीस हजार श्लोक प्रमाण वीरसेनाचार्य के द्वारा और चालीस हजार श्लोक प्रमाण जिनसेनाचार्य के द्वारा लिखी गयी है । इस सबके लिखने में २०-२२ वर्ष का समय लग सकता है । इससे जैसा कि षटखण्डागम पु० १ की प्रस्तावना ( पृ० ४४ ) में निष्कर्ष निकाला गया है, १. अज्जज्जणंदिसिस्सेणुज्जुवकम्मस्स चंदसेणस्स । तह णत्तएण पंचत्थु हण्णयमाणुणा मुणिणा ||४॥ २. सिद्धंत-छंद - जोइस वायरण- पमाणसत्थणिवणेण । भट्टारएण टीका लिहिएसा वीरसेणेण ।। ३. पु० १, प्रस्तावना पृ० ३५-४५ ४. कत्तियमासे एसा टीका हु समाणिया धवला ||८ उत्तरार्ध ॥ वोद्दणरायणरिंदे णरिदचूडामणिम्हि भुंजते । सिद्धतगंथ मत्थिय गुरुप्पसाएण विगत्ता (?) सा ॥६॥ ५. जयधवला प्रशस्ति, श्लोक ६-९ षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ३४६ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला से पूर्व लिखी गयी धवला टीका शक संवत् ७३८ में समाप्त हो सकती है । वीरसेन का व्यक्तित्व बहुश्रुतशालिता - जैसा कि उपर्युक्त धवला की प्रशस्ति से स्पष्ट है, आचार्य वीरसेन सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण और न्याय आदि अनेक विषयों के ख्यातिप्राप्त विद्वान् रहे हैं । इसका प्रमाण उनकी यह धवला टीका ही है । इसमें यथाप्रसंग दन सभी विषयों का उपयोग हुआ है, इसे आगे स्पष्ट किया गया है । आचार्य जिनसेन ने भट्टारक वीरसेन की स्तुति करते हुए जयधवला की प्रशस्ति में उन्हें साक्षात् केवली जैसा कहा है । स्वयं को उनका शिष्य घोषित करते हुए जिनसेन ने कहा है कि समस्त विषयों में संचार करनेवाली उनकी भारती (वाणी) भारती - भरत चक्रवर्ती की आज्ञा — के समान षटखण्ड में भरतक्षेत्रगत छह खण्डों के समान छह खण्ड स्वरूप षटखण्डागम के विषय में – निर्बाध गति से चलती रही। उनकी सर्वार्थगामिनी प्रज्ञा को देखकर बुद्धिमान् सर्वज्ञ के सद्भाव में निःशंक हो गये थे । विद्वज्जन उनके प्रकाशमान ज्ञान के प्रसार को देखकर उन्हें श्रुतकेवली प्रज्ञाश्रमण' कहते थे । वे प्राचीन सूत्रपुस्तकों का गहन अध्ययन करके गुरुभाव को प्राप्त हुए थे, अतएव अन्य पुस्तकपाठी उनके समक्ष शिष्य जैसे प्रतीत होते थे । I महापुराण के प्रारम्भ में भी उनका स्मरण करते हुए आचार्य जिनसेन ने कहा है कि 'जिन वीरसेन भट्टारक में लोकज्ञता और कवित्व दोनों अवस्थित रहे हैं तथा जो वृहस्पति के समान वाग्मिता को प्राप्त थे वे पुण्यात्मा मेरे गुरु वीरसेन मुनि हमें पवित्र करें । सिद्धान्तोपनिबन्धों के विधाता उन गुरु के चरण-कमल मेरे मन रूपी सरोवर में सदा स्थित रहें ।' इस प्रकार उनकी प्रशंसा करते हुए अन्त में जिनसेनाचार्य ने उनकी धवला भारती --- षट्खण्डागम पर रची गयी धवला नामक टीका - को और समस्त लोक को धवलित करने वाली निर्मल कीर्ति को नमस्कार किया है । ३ इस प्रकार उनके शिष्य जिनसेनाचार्य द्वारा जो उनकी प्रशंसा की गई है वह कोरी स्तुति नहीं रही है, यथार्थता भी उसमें निश्चित रही है। यहाँ हम उनकी उस धवला टीका के आश्रय से ही उनके इन गुणों पर प्रकाश डालना चाहते हैं । सिद्धान्तपारिगामिता - उन्होंने अपनी इस धवला टीका में अनेक सैद्धान्तिक गढ विषयों का विश्लेषण कर उन्हें विशद व विकसित किया है । यह उनकी सिद्धान्तविषयक पारगामिता का प्रमाण है । इसकी पुष्टि में यहाँ कुछ उदाहरण दिये जाते हैं (१) आ० वीरसेन ने सत्प्ररूपणासूत्रों की व्याख्या को समाप्त करके उनके विवरणस्वरूप १ गुणस्थान, २ जीवसमास, ३ पर्याप्ति, ४ प्राण, ५ संज्ञा, ६-१६ गति इन्द्रियादि चौदह मार्गणाएँ और २० उपयोग इन बीस प्ररूपणाओं का विस्तार से वर्णन किया है। उसके विस्तार को देखकर उसे एक स्वतन्त्र जिल्द (पु० २) में प्रकाशित किया गया है। (२) जीवस्थान- चूलिका के अन्तर्गत सम्यक्त्वोत्पत्ति नाम की 5वीं चूलिका में सूत्र १४ १. प्रज्ञाश्रमण अथवा प्रश्रवण के लिए धवला पु० ६ में पृ० ८१ ८४ द्रष्टव्य हैं । २. जयधवला की प्रशस्ति, श्लोक १६-२४ ३. महापुराण १, ५५-५८ ३५० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को देशामर्शक बतलाकर धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि वह एक देश का प्ररूपक होकर अपने में गर्भित समस्त अर्थ का सूचक है। इतना स्पष्ट करते हुए आगे वहाँ धवला में संयमासंयम व संयम की प्राप्ति आदि के विधान की विस्तार से प्ररूपणा की गई है। इसी चलिका में आगे वहाँ सूत्र १५-१६ को भी देशामर्शक प्रकट करके उनसे सूचित अर्थ की प्ररूपणा धवला में बहुत विस्तार से की गई है। अन्त में यह स्पष्ट किया गया है कि इस प्रकार दो सूत्रों से सूचित अर्थ की प्ररूपणा करने पर सम्पूर्ण चारित्र की प्राप्ति का विधान प्ररूपित होता है। इस प्रकार से धवलाकार ने इस आठवीं चूलिका को महती चूलिका कहा है। ___ यहाँ ये दो उदाहरण दिये गये हैं। वैसे तो धवला में बीसों सूत्रों को देशामर्शक बतलाकर उनमें गभित अर्थ की विस्तार से व्याख्या की गई है। इसका विशेष स्पष्टीकरण आगे 'धवलागत विषय का परिचय' और 'ग्रन्थोल्लेख' आदि के प्रसंग में किया जायगा। वस्तुत: आचार्य वीरसेन के सैद्धान्तिक ज्ञान के महत्त्व को शब्दों में प्रकट नहीं किया जा सकता है। ज्योतिवित्त्व-आ० वीरसेन का ज्योतिषविषयक ज्ञान कितना बढ़ा चढ़ा रहा है, यह उनके द्वारा धवला की प्रशस्ति में निर्दिष्ट सूर्य-चन्द्रादि ग्रहों के योग की सूचना से स्पष्ट है। इसके अतिरिक्त उन्होंने कालानुगम के प्रसंग में जो दिन व रात्रिविषयक १५-१६ मुहूर्तों का उल्लेख किया है तथा नन्दा-भद्रा आदि तिथि विशेषों का भी निर्देश किया है वह भी उनके ज्योतिष शास्त्रविषयक विशिष्ट ज्ञान का बोधक है।' ___आगे 'कृति' अनुयोगद्वार में आगमद्रव्य कृति के प्रसंग में वाचना के इन चार भेदों का निर्देश किया गया है-नन्दा, भद्रा, जया और सौम्या। अनन्तर उनके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जो तत्त्व का व्याख्यान करते हैं अथवा उसे सुनते हैं उन्हें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शुद्धिपूर्वक ही तत्त्व का व्याख्यान अथवा श्रवण करना चाहिए। इन शुद्धियों के स्वरूप को दिखलाते हुए कालशुद्धि के प्रसंग में कब स्वाध्याय करना चाहिए और कव नहीं करना चाहिए, इसका धवला में विस्तार से विचार किया गया है। इसी प्रसंग में आगे 'अत्रोपयोगिश्लोकाः' ऐसी सूचना करते हुए लगभग २५ श्लोकों को कहीं से उदधृत किया गया है। उक्त शुद्धि के बिना अध्ययन-अध्यापन से क्या हानि होती है, इसे भी वहाँ बताया गया है। १. पु० ६, पृ० २७०-३४२ २. वही, ३४३-४१८ ३. धवला पु० ४, पृ० ३१८-१६; इस प्रसंग में वहाँ धवला में जिन चार श्लोकों को किसी प्राचीन ग्रन्थ से उद्धृत किया गया है वे उसी रूप में वर्तमान लोक विभाग (६, १६७२००) में उपलब्ध होते हैं । पर वह धवला से पश्चात्कालीन है, यह निश्चित है। मलयगिरि सूरि ने ज्योतिष करण्डक की टीका (गा० ५२-५३) में 'उक्तं च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ' इस सूचना के साथ तीन गाथाओं को उद्धृत करते हुए ३० मूहों का उल्लेख किया है, जिनमें कुछ नाम समान और कुछ असमान हैं। इसी प्रकार मलयगिरि सूरि ने उक्त ज्यो०क० की टीका (१०३-४) में 'तथा चोक्तं चन्द्र प्रज्ञप्तौ' ऐसी सूचना करते हुए नन्दा-भद्रादि तिथियों का उल्लेख किया है । साथ ही वहाँ उग्रवती भोगवती आदि रात्रितिथियों का भी उल्लेख है। ४. धवला पु० ६, २५२-५६ षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ३५१ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह सब वीरसेनाचार्य के ज्योतिर्वित्त्व का परिचायक है। गणितज्ञता-आ० वीरसेन जिस प्रकार सिद्धान्त के पारगामी रहे हैं उसी प्रकार वे माने हुए गणितज्ञ भी रहे हैं। यह भी उनकी धवला टीका से ही प्रमाणित होता है। उदाहरण के रूप में यहां 'कृति अनुयोगद्वार को लिया जा सकता है। वहां कृति के नाम कृति आदि सात भेदों के अन्तर्गत चौथी गणना कृति के प्रसंग में सूत्र ६६ को देशमर्शक बतलाकर धवला में धन, ऋण और धन-ऋण गणित सबको प्ररूपणीय कहा गया है । तदनुसार आगे उन तीनों के स्वरूप को प्रकट करते हुए संकलना, वर्ग, वर्गावर्ग, घन, घनाघन, कलासवर्ण, राशिक, पंचराशिक, व्युत्कलना, भागहार, क्षयक और कुट्टाकार आदि का उल्लेख करते हुए उन तीनों को यहाँ वर्णनीय कहा गया है। प्रकारान्तर मे यहाँ 'अथवा' कहकर यह निर्देश किया गया है कि 'कृति' यह उपलक्षण है, अतः यहाँ गणना, संख्यात और कृति का लक्षण भी कहना चाहिए। तदनुसार एक को आदि लेकर उत्कृष्ट अनन्त तक गणना, दो को आदि लेकर उत्कृष्ट अनन्त तक संख्येय और तीन को आदि लेकर उत्कृष्ट अनन्त तक कृति कहा गया है। आगे 'वुत्तं च' कहकर प्रमाण के रूप में यह गाथा उद्धृत की है एयादीया गणणा दोआदीया वि जाव संखे ति। तीयादीया णियमा कदि त्ति सण्णा हु बोद्धव्वा ॥ तत्पश्चात् 'यहाँ कृति, नोकृति और अवक्तव्य-कृति इनके उदाहरणों के लिए यह प्ररूपणा की जाती है' ऐसी प्रतिज्ञा करके उसकी प्ररूपणा में ओघानुगम, प्रथमानुगम, चरमानुगम और संचयानुगम इन चार अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है। उनमें ओघानुगम के मूलओघानगम और आदेशओघानुगम इन दो भेदों का निर्देश और उनके स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। पश्चात् प्रसंगप्राप्त चौथे संचयानुगम के विषय में सत्प्ररूपणा व द्रव्यप्रमाणानुगम आदि आठ अनुयोगद्वारों का निर्देश करते हुए यथाक्रम से उनके आश्रय से संचयानुगम की विस्तारपूर्वक व्याख्या की है।' इसके पूर्व जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वारों में जो दूसरा द्रव्यप्रमाणानुगम अनुयोगद्वार है वह पूरा ही गणित से सम्बद्ध है। उसके अन्तर्गत सूत्रों की व्याख्या दुरूह गणित प्रक्रिया के आश्रय से ही की गई है । उदाहरणस्वरूप, वहाँ मिथ्यादृष्टि जीवराशि की प्ररूपणा द्रव्य, काल, क्षेत्र और भाव की अपेक्षा विस्तार से की गई है। भाव की अपेक्षा उसकी प्ररूपणा करते हुए धवलाकार कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि राशि के प्रमाण के विषय में श्रोताओं को निश्चय उत्पन्न कराने के लिए हम मिथ्यादृष्टि राशि के प्रमाण की प्ररूपण। वर्गस्थान में खण्डित भाजित, विरलित, अवहित, प्रमाण, कारण और निरुक्ति इन विकल्पों के आधार से करते हैं। इस पर वहाँ यह शंका की गई है कि सूत्र के बिना यह प्ररूपणा यहाँ कैसे की जा रही है। समाधान में उन्होंने कहा है कि वह सूत्र से सूचित है। आगे कृतप्रतिज्ञा के अनुसार वीरसेनाचार्य ने धवला में यथाक्रम से उन खण्डित-भाजित १. धवला पु० ६, पृ० २७६-३२१ २. धवला पु० ३, पृ० ४० ३५२ / षट्खण्डागम-परिशीलन . Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि विकल्पों के आश्रय से मिथ्यादृष्टि राशि के प्रमाण को दिखाया है।' ___ इससे सिद्ध है कि आ० वीरसेन गणित के अधिकारी विद्वान् रहे हैं, क्योंकि गणितविषयक गम्भीर ज्ञान के बिना उक्त प्रकार से विशद प्ररूपणा करना सम्भव नहीं है। उन्होंने गणित से सम्बद्ध अनेक विषयों को स्पष्ट करते हुए प्रसंगानुसार जिन विविध करणसूत्रों व गाथाओं आदि को उद्धृत किया है उनकी अनुक्रमणिका यहाँ दी जाती है धवला क्रमांक पृष्ठ १२४ m . * * of ८४ ८८ ३५५ १६६ १७३ २०१ ११. १२. अवतरणांश अच्छेदनस्य राशेः अर्द्ध शून्यं रूपेषु गुणम् अवणयणरासिगुणिदो अवहारवढिरूवाणवअवहारविसेसेण य अवहारेणोवट्टिद आदि त्रिगुणं मूलादआवलियाए वग्गो इच्छं विरलिय दुगुणिय इच्छिदणिसेयभत्तो इट्ठसलागाखुत्तो उत्तरगुणिते तु धने उत्तरगुणिदं इच्छं उत्तरगुणिदं गच्छं उत्तरदलहयगच्छे एकोत्तरपदवृद्धो गच्छकदी मूलजुदा जगसेढीए वग्गो जत्थिच्छसि सेसाणं जे अहिया अवहारे जे ऊणा अवहारे णिक्खित्तु बिदियमेत्तं दो-दो रूवक्खेवं धणमठुत्तरगुणिदे ८७ १६७ ४७५ १३. १४.. १५. १६. umtor" uom rnmom. १६३ २५४,२५८ ३५६ ४५८ १८. १६. worm worrrrror २०. ४६ २१. ४५ २३. ४६० १५० १. धवला पु० ३, पृ० ४०-६६ (प्रकृत 'द्रव्यप्रमाणानुगम' के गणित भाग को आ० वीरसेन द्वारा कितना स्पष्ट किया गया है व उस गणित का कितना महत्त्व रहा है. इसके लिए पु० ४ की प्रस्तावना पृ०१-२४ में 'मैथमेटिक्स ऑफ धवला' शीर्षक लेख द्रष्टव्य है। यह लेख लखनऊ विश्वविद्यालय के गणिताध्यापक डॉ. अवधेशनारायणसिंह के द्वारा लिखा गया है। उसका हिन्दी अनुवाद भी पु० ५ की प्रस्तावना में पृ० १-२८ पर प्रकाशित है। षट्खण्डागम पर टोकाएँ | ३५३ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवला क्रमांक पृष्ठ अवतरणांश पक्खेवरासिगुणिदो पढमं पयडिपमाणं पढमिच्छसलागगुणा प्रक्षेपसंक्षेपेण Gw " २६. ४६ ४५ ४५७ r m १६५ ४५६ ८८ २०,५१ mr m फालिसलागब्भहियावाहिरसूईवग्गो बिदियादिवग्गणा पुण मिश्रधने अष्टगुणो मुह-तलसमास अद्धं मुह-भूमिविसेसम्हि दु मुह-भूमीण विसेसो मूलं मज्झेण गुणं रासिविसेसेणवहिद रूपेषु गुणमर्थेषु वर्गणं रूपोनमादिसंगुण m m < mr ११७ २१,५१ ३४२ २०० m mr mm ४०. < u au6%<< २०६ ४६२ ४१.. रूणिच्छागुणिदं लद्धविसेसच्छिण्णं लद्धंतरसंगुणिदे विक्खंभवग्गदसगुण विरलिदइच्छं विगुणिय ४७५ विसमगुणादेगूणं व्यासं तावत् कृत्वा व्यासं षोडशगुणितं ४२,२२१ व्यासार्धकृतित्रिकं सगमाणेण विहत्ते संकलणरासिमिच्छे २५६ ५१. संजोगावरणट्ठ २४८ संठाविदूण रूवं ५३. सोलह सोलसहिं गुण १६६ हारान्तर हितहाराव्याकरणपटुता-आ० वीरसेन की शब्दशास्त्र में भी अबाध गति रही है। उन्होंने अपनी इस धवला टीका में यथाप्रसंग अनेक शब्दों के निरुक्तार्थ को प्रकट करते हुए आवश्यकतानुसार उन्हें व्याकरणसुत्रों के आश्रय से सिद्ध भी किया है। यथा G < < < १६६ ४६ ५०. ५२. an KG ३५४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में आचार्य पुष्पदन्त द्वारा किये गये पंच-परमेष्ठिनमस्कारात्मक मंगल के प्रसंग में धवलाकार ने धातु, निक्षेप, नय, निरुक्ति और अनुयोगद्वार के आश्रय से मंगल के निरूपण की प्रतिज्ञा की है। इनमें धातु क्या है, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि सत्तार्थक 'भू' धातु को आदि लेकर जो समस्त अर्थवस्तुओं के वाचक शब्दों की मूल कारणभूत हैं उन्हें धातु कहा जाता है। प्रकृत में 'मंगल' शब्द को 'मगि' धातु से निष्पन्न कहा गया है। यहाँ यह शंका की गई है कि धातु की प्ररूपणा यहाँ किस लिए की जा रही है। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि जो शिष्य धातुविषयक ज्ञान से रहित होता है उसे उसके बिना अर्थ का बोध होना सम्भव नहीं है। इस प्रकार शिष्य को शब्दार्थ का बोध हो, इसके लिए धातु की प्ररूपणा की जा रही है। आगे अपने अभिप्राय की पुष्टि में इस श्लोक को उद्धृत करते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि पदों की सिद्धि शब्दशास्त्र से हुआ करती है' __ शब्दात् पदप्रसिद्धिः पदसिद्धरर्थनिर्णयो भवति । अर्थात् तत्त्वज्ञानं तत्त्वज्ञानात् परं श्रेयः ॥२ अभिप्राय यह है शब्द (व्याकरण) से पदों की सिद्धि होती है, पदों की सिद्धि से अर्थ का निर्णय होता है, अर्थ से वस्तु-स्वरूप का बोध होता है, और वस्तु-स्वरूप का बोध होने से उत्कृष्ट कल्याण होता है। इस प्रकार इस सबका मूल कारण धातु-ज्ञान है जो व्याकरण सापेक्ष है। आगे धवला में मंगल (पु०१, पृ० ३२-३४), अरिहन्त (पृ०४२-४४), आचार्य (पृ०४८) साधु (पृ०५१), जीवसमास (पृ० १३१) और मार्गणार्थता (पृ०१३१) आदि शब्दों की निरुक्ति की गयी है। (२) जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वारों में दूसरा 'द्रव्यप्रमाणानुगम' अनुयोगद्वार है। उसमें उसके शब्दार्थ को स्पष्ट करते हुए धवला में प्रथमतः 'द्रवति, द्रोष्यति, अदुद्रवत्, पर्यायान् इति द्रव्यम् । अथवा द्रूयते, द्रोष्यते, अद्रावि पर्याय इति द्रव्यम्' इस प्रकार 'द्रव्य' शब्द की निरुक्ति की गई है। तत्पश्चात् द्रव्यभेदों को प्रकट करते हुए उनमें जीवद्रव्य को प्रसंगप्राप्त बतलाकर 'प्रमाण' शब्द की निरुक्ति इस प्रकार की गई है-प्रमीयन्ते अनेन अर्थाः इति प्रमाणम। अनन्तर 'द्रव्य' और 'प्रमाण' इन दोनों शब्दों में 'द्रव्यस्य प्रमाणं द्रव्यप्रमाणम्' इस प्रकार से 'तत्पुरुष' समास किया गया है। ___इस पर यहाँ यह शंका उपस्थित हुई है कि 'देवदत्तस्य कम्बलः' ऐसा समास करने पर जिस प्रकार देवदत्त से कम्बल भिन्न रहता है उसी प्रकार 'द्रव्यस्य प्रमाणम्' ऐसा यहाँ तत्पुरुष समास करने पर द्रव्य से प्रमाण के भिन्न होने का प्रसंग प्राप्त होगा। इस शंका के समाधान में धवलाकार ने कहा है कि ऐसा नहीं है, वह तत्पुरुष समास अभेद में भी देखा जाता है। जैसे--'उत्पलगन्धः' इत्यादि में। यहाँ उत्पल से गन्ध के भिन्न न होने पर भी 'उत्पलस्य गन्धः उत्पलगन्धः' इस प्रकार से तत्पुरुष समास हुआ है। प्रकारान्तर स १. धवला पु० १, पृ० ६-१० २. यह श्लोक 'शाकटायनन्यास, में उपलब्ध होता है। विशेष इतना है कि वहाँ 'शब्दात् पद प्रसिद्धिः' के स्थान में 'व्याकरणात् पदसिद्धिः' पाठ भेद है। षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ३५५ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ यह भी कह दिया है कि अथवा प्रमाण द्रव्य से किसी स्वरूप से भिन्न भी है, क्योंकि इसके बिना उनमें विशेषण-विशेष्यभाव घटित नहीं होता है। इसलिए भी उनमें तत्पुरुष समास सम्भव है। विकल्परूप में उपर्युक्त शंका के समाधान में 'अथवा' कहकर यह भी कहा गया है कि 'दव्वमेव पमाणं दव्वपमाणं' इस प्रकार से उनमें कर्मधारय समास करना चाहिए। इस प्रकार के समास में भी उन द्रव्य और प्रमाण में सर्वथा अभेद नहीं समझना चाहिए, क्योंकि एक अर्थ में (अभेद में) समास का होना सम्भव नहीं है। आगे पुनः 'अथवा' कहकर वहाँ विकल्प रूप में 'दव्वं च पमाणं दव्वपमाणं' इस द्वन्द्व समास को भी विधेय कहा गया है। इस प्रकार शंका उत्पन्न हुई है कि द्वन्द्व समास में अवयवों की प्रधानता होती है । तदनुसार यहाँ द्वन्द्व समास के करने पर द्रव्य और प्रमाण इन दोनों की प्ररूपणा का प्रसंग प्राप्त होता है। पर सूत्र में उन दोनों की पृथक्-पृथक् प्ररूपणा नहीं की गई है। यदि उस द्वन्द्व समास में समुदाय की प्रधानता को भी स्वीकार किया जाय तो भी अवयवों को छोड़कर समुदाय कुछ शेष रहता नहीं है, इस प्रकार से भी अवयवों की ही प्ररूपणा का प्रसंग प्राप्त है। किन्तु सूत्र में अवयवों की अथवा समुदाय की प्ररूपणा की नहीं गई है इसलिए उनमें द्वन्द्व समास करना उचित नहीं है। ___ इस शंका में शंकाकार द्वारा उद्भावित दोष का निराकरण करते हुए आगे धवला में स्पष्ट किया गया है कि सत्र में द्रव्य के प्रमाण की प्ररूपणा करने पर द्रव्य की भी प्ररूपणा हो हो जाती है, क्योंकि द्रव्य को छोड़कर प्रमाण कुछ है ही नहीं। कारण यह कि त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायों का जो परस्पर में एक-दूसरे को न छोड़ कर अभेद रूप से अस्तित्व है उसी का नाम द्रव्य है। इस प्रकार द्रव्य और उसकी प्रमाणभूत संख्यारूप पर्याय में पर्याय-पर्यायी रूप में कथंचित् भेद के सम्भव होने पर भी सूत्र में चूंकि द्रव्य के गुणस्वरूप प्रमाण की प्ररूपणा की गई है, अतः उसकी प्ररूपणा से द्रव्य की प्ररूपणा स्वयंसिद्ध है। कारण यह कि गुण की प्ररूपणा से ही द्रव्य की प्ररूपणा सम्भव है, क्योंकि उसके बिना द्रव्य की प्ररूपणा का दूसरा कोई उपाय ही नहीं है। इस प्रकार उन दोनों में उपर्युक्त रीति से द्वन्द्व समास करने पर भी कुछ विरोध नहीं रहता। इसी प्रसंग में आगे 'वे सब समास कितने हैं यह पूछने पर एक श्लोक को उद्धृत करते हुए उसके आश्रय से बहुव्रीहि, अव्ययीभाव, द्वन्द्व, तत्पुरुष, द्विगु और कर्मधारय इन छह समासों का उल्लेख किया गया है। अनन्तर दूसरे एक श्लोक को उद्धृत करते हुए उसके द्वारा इन छह समासों के स्वरूप का भी दिग्दर्शन करा दिया गया है।' (३) धवला में आगे यथाप्रसंग इन समासों का उपयोग भी किया गया है। उदाहरणस्वरूप भावानुगम में यह सूत्र आया है"लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सिएसु चदुट्ठाणी ओघं।" --सूत्र १,७,५६ १. इस सब के लिए धवला पु० ३, पृ० ४-७ द्रष्टव्य हैं। (एवम्भूतनय की दृष्टि में समास और वाक्य सम्भव नहीं हैं, यह प्रसंग भी धवला पु० १, पृ० ६०-६१ में द्रष्टव्य है)। ३५६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमें प्रयुक्त 'चट्ठाणी' पद में 'चदुण्हं ठाणाणं समाहारो चट्ठाणी' इस प्रकार से धवला में 'द्विगु समास का उल्लेख करते हुए सूत्रोक्त कृष्णादि तीन लेश्याओं में से प्रत्येक में ओघ के समान पृथक्-पृथक् चार गुणस्थानों का सद्भाव प्रकट किया गया है।' (४) विभक्तिलोप-सूत्र १,१, ४ (पु०१) में 'गइ' और 'लेस्सा भविय सम्मत्त सण्णि' इन पदों में कोई विभक्ति नहीं है। इस सम्बन्ध में धवला में यह स्पष्ट किया गया है कि 'आईममंतवण्ण-सरलोवो" सूत्र के अनुसार यहाँ इन पदों में विभक्ति का लोप हो गया है। आगे 'अहवा' कहकर विकल्प के रूप में यह भी कह गया है कि 'लेस्सा-भविय-सम्मत्त-सण्णिआहारए' यह एक पद है, इसीलिए उसके अवयव पदों में विभक्तियां नहीं सुनी जाती हैं। (५) वेदनाखण्ड के प्रारम्भ में जो विस्तार से मंगल किया गया है उसमें यह एक सूत्र हैगमो आमोसहिपत्ताणं (२,१,३०)। इसकी व्याख्या करते हुए धवला में 'आमर्षः औषधत्वं प्राप्तो येषां ते आमों षधप्राप्ताः' इस प्रकार से बहुव्रीहि समास किया है। इस प्रसंग में वहाँ यह शंका उठायी गई है कि सूत्र में सकार क्यों नहीं सुना जाता । इसके उत्तर में कहा गया है कि 'आई-ममंतवण्ण-सरलोवो' इस सूत्र के अनुसार यहाँ सकार का लोप हो गया है। पश्चात् वहीं दूसरी शंका यह की गई कि 'ओसहि' में इकार कहां से आ गया। इसके उत्तर में कहा गया है कि 'एए छच्च समाणा" इस सूत्र के आधार से यहाँ हकारवर्ती अकार के स्थान में इकार हो गया है। (६) वेदना अधिकार के अन्तर्गत १६ अनुयोगद्वारों में जो ८वा 'वेदनाप्रत्ययविधान' अनुयोगद्वार है उसमें नेगमादि नयों की अपेक्षा ज्ञानावरणादि वेदनाओं के प्रत्ययों का विचार किया गया है। उस प्रसंग में शब्दनय की अपेक्षा ज्ञानावरणवेदना के प्रत्यय का विचार करते हुए उसे अवक्तव्य कहा गया है। उसका कारण शब्दनय की अपेक्षा समास का अभाव कहा है। समास के अभाव को सिद्ध करते हुए धवला में पदों का समास 'क्या अर्थगत है, क्या पदगत है अथवा उभयगत है' इन तीन विकल्पों को उठाकर क्रमशः उन तीनों में ही समास के अभाव को सिद्ध किया गया है। (७) वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'स्पर्श' अनुयोगद्वार में सर्वस्पर्श का प्ररूपक यह एक सूत्र आया है'जं दव्वं सव्वं सव्वेण फुसदि, जहा परमाणुदव्वमिदि, सो सव्वो सव्वफासो णाम ।" ---सूत्र ५,३,२२ इसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार परमाणु द्रव्य सर्वात्मस्वरूप से अन्य परमाणु का स्पर्श करता है उसी प्रकार जो द्रव्य सर्वात्मस्वरूप से अन्य द्रव्य का स्पर्श करता है उसका नाम १. धवला पु० ५, पृ० २२६ २. कीरइ पयाण काण वि आई-मज्झंतवण्ण-सरलोवो।जयधवला १,१३३ ३. धवला पु० १, पृ० १३३ ४. एए छच्च समाण दोणिय संझक्खरा अट्ट॥ __अण्णोण्णस्स परोप्परमुवेंति सव्वे समावेसं ॥-धवला पु० १२, पृ० २८६ ५, धवला पु०६, पृ० ६५-६६ .६. धवला पु० १२, पृ० २६०-६१ बदसण्डागम पर टीकाएँ | ३५० Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व स्पर्श है । यहाँ शंकाकार ने एक परमाणु के दूसरे परमाणु में प्रवेश को एकदेश और सर्वात्मस्वरूप से भी असम्भव सिद्ध करते हुए सूत्रोक्त परमाणु के दृष्टान्त को असंगत ठहराया है। उसके द्वारा उद्भावित इस असंगति के प्रसंग का निराकरण करते हुए धवला में शंकाकार से यह पूछा गया कि परमाणु सावयव है या निरवयव । इन दो विकल्पों में परमाणु के सावयव होने निषेध करते हुए यह कहा गया है कि अवयवी ही अवयव नहीं हो सकता, क्योंकि अन्य पदार्थ के बिना बहुव्रीहि समास सम्भव नहीं है । इसके अतिरिक्त सम्बन्ध के बिना उस सम्बन्ध का कारणभूत 'इन्' प्रत्यय भी घटित नहीं होता है ।" (८) यहीं पर 'कर्म' अनुयोगद्वार में 'प्रयोगकर्म' के प्रसंग में संसारस्थ जीवों और सयोगकेवलियों को प्रयोगकर्मस्वरूप से ग्रहण किया गया है । इस स्थिति में यहाँ यह शंका उठायी गई है कि जीवों की 'प्रयोगकर्म' यह संज्ञा कैसे हो सकती है । इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि 'पओ करेदित्ति पओअकम्मं' इस प्रकार कर्ता कारक में 'प्रयोगकर्म' शब्द सिद्ध हुआ है । इसलिए उसके जीवों की संज्ञा होने में कुछ विरोध नहीं है । इसी प्रसंग में सूत्र (५, ४, १८) में उक्त बहुत से संसारी और केवालियों के ग्रहणार्थ 'तं' इस एकवचनान्त पद का प्रयोग किया गया है। इसके विषय में भी शंका की गई है कि बहुत से संसारस्थ जीवों के लिए सूत्र में 'तं' इस प्रकार से एकवचन का निर्देश कैसे किया गया । उत्तर में कहा गया है कि 'प्रयोगकर्म' इस नामवाले जीवों की जाति के आश्रित एकता को देखकर एकवचन का निर्देश घटित होता है । " ( ६ ) यहीं पर आगे 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में यह एक सूत्र आया है"तस्सेव सुदणाणावरणीयस्स अण्णं परूवणं कस्सायो ।” -५,५,४६ यहाँ यह शंका उत्पन्न हुई है कि आगे प्ररूपणा तो श्रुतज्ञान के समानार्थक शब्दों की की जा रही है और सूत्र में प्रतिज्ञा यह की गई है कि आगे उसी श्रुतज्ञानावरणीय की अन्य प्ररूपणा की जा रही है, इसे कैसे संगत कहा जाय । इस दोष का निराकरण करते हुए धवला में तो यह कहा गया है कि आवरणीय के स्वरूप की प्ररूपणा चूंकि उसके द्वारा आब्रियमाण ज्ञान के स्वरूप की अविनाभाविनी है, इसलिए उक्त प्रकार से प्रतिज्ञा करके भी श्रुतज्ञान समानार्थक शब्दों की प्ररूपणा करने में कुछ दोष नहीं है । तत्पश्चात् प्रकारान्तर से भी उस शंका का समाधान करते हुए यह कहा गया है कि अथवा कर्मकारक में 'आवरणीय' शब्द के सिद्ध होने से भी सूत्र में वैसी प्रतिज्ञा करने पर कुछ विरोध नहीं है । 3 ये जो कुछ ऊपर थोड़े-से उदाहरण दिए गये हैं उनसे सिद्ध है कि आचार्य वीरसेन एक प्रतिष्ठित वैयाकरण भी रहे हैं । कारण यह कि व्याकरणविषयक गम्भीर ज्ञान के बिना शब्दों की सिद्धि और समास आदि के विषय में उपर्युक्त प्रकार से ऊहापोह करना सम्भव नहीं है । न्यायनिपुणता -धवला में ऐसे अनेक प्रसंग आये हैं जहाँ आचार्य वीरसेन ने प्रसंगप्राप्त १. धवला पु० १३, पृ० २१-२३ २ . वही, ४४-४५ ३. धवला, पु० १३, पृ० २७६ ३५८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय का विचार गम्भीरतापूर्वक युक्ति-प्रयुक्ति के साथ दार्शनिक दृष्टि से किया है। यह उनके मंजे हुए तार्किक होने का भी प्रमाण है । जैसे (१) सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में दर्शनमार्गणा के प्रसंग में चक्षुदर्शन के लक्षण का निर्देश करते हुए धवला में कहा गया है कि चक्षु के द्वारा जो सामान्य अर्थ का ग्रहण होता है उसे चक्षुदर्शन करते हैं। इस पर वादी ने कहा है कि विषय और विषयी के सम्पात के अनन्तर जो प्रथम ग्रहण होता है उसे अवग्रह कहा जाता है। वह बाह्य अर्थगत विधिसामान्य को ग्रहण नहीं करता है, क्योंकि वह अवस्तु रूप है इसलिए वह ज्ञान का विषय नहीं हो सकता है । इसके अतिरिक्त जो ज्ञान प्रतिषेध को विषय नहीं करता है उसके विधि में प्रवृत्त होने का विरोध है । यदि वह विधि को विषय करता है तो वह क्या प्रतिषेध से भिन्न उसे ग्रहण करता है या उससे अभिन्न ? यदि उनमें प्रथम विकल्प को स्वीकार किया जाता है तो वह उचित न होगा, क्योंकि प्रतिषेध के बिना विधिसामान्य का ग्रहण असम्भव है । तब दूसरे विकल्प को स्वीकार कर यदि यह कहा जाए कि वह ज्ञान प्रतिषेध से अभिन्न विधि को ग्रहण करता है तो यह कहना भी संगत नहीं होगा, क्योंकि वैसी अवस्था में विधि-प्रतिषेध दोनों के ग्रहण में अन्तर्भूत होने से वह स्वतन्त्र विधिसामान्य का ग्रहण नहीं हो सकता। आगे वादी पुनः यह कहता है कि उक्त प्रकार से विधिसामान्य के ग्रहण के सम्भव न होने पर यदि बाह्यार्थगत प्रतिषेधसामान्य को उस शान का विषय माना जाय तो यह भी सम्भव न होगा, क्योंकि जो दोष विधिसामान्य के ग्रहण में दिये गये हैं वे अनिवार्यतः इस पक्ष में भी प्राप्त होनेवाले हैं। इसलिए विधिप्रषेधात्मक बाह्य अर्य के ग्रहण को अवग्रह कहना चाहिए । सो इस प्रकार के अवग्रह को दर्शन नहीं माना जा सकता, क्योंकि जो सामान्य को ग्रहण करता है उसका नाम दर्शन है, ऐसा उपदेश है। इस प्रकार वादी ने अपने पक्ष को स्थापित कर दर्शन का अभाव सिद्ध करना चाहा है। ___वादी के उपर्युक्त पक्ष का निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है कि दर्शन के विषय में जिन दोषों को उद्भावित किया गया वे उसके विषय में लागू नहीं होते, क्योंकि वह बाह्य पदार्थ को विषय ही नहीं करता है, उसका विषय तो अन्तरंग अर्थ है । वह अन्तरंग अर्थ भी सामान्य-विशेषात्मक है । और चूंकि उपयोग की प्रवृत्ति विधिसामान्य या प्रतिषेधसामान्यों में क्रम से बनती नहीं है, इसलिए उनमें उसकी प्रवृत्ति को एक साथ स्वीकार करना चाहिए। इस पर वादी पुन: कहता है कि वैसा मानने पर अन्तरंग अर्थ के विषय करनेवाले उस उपयोग को भी दर्शन नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उसका विषय सामान्य-विशेष माना गया है, जबकि दर्शन सामान्य को ही विषय करनेवाला है। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि 'सामान्य' शब्द से सामान्य-विशेषात्मक आत्मा को ही कहा जाता है। आगे सामान्य-विशेषात्मक उस आत्मा को कैसे सामान्य कहा जाता है, इसे स्पष्ट करते हुए में कहा है कि चक्ष इन्द्रिय का क्षयोपशम रूप के विषय में ही नियमित है, क्योंकि उसके द्वारा रूपविशिष्ट पदार्थ का ही ग्रहण देखा जाता हैं । इस प्रकार रूपविशिष्ट अर्थ के ग्रहण करने में भी वह रूपसामान्य में ही नियमित है, क्योंकि नील-पीतादिकों में किसी एक रूप से ही विशिष्ट अर्थ का ग्रहण नहीं देखा जाता है। इस प्रकार चक्षुइन्द्रिय का क्षयोपशम रूपविशिष्ट पदार्थ के प्रति समान है, और चूंकि आत्मा को छोड़कर क्षयोपशम कुछ सम्भव है नहीं, इसीलिए आत्मा भी समान है। इस समान आत्मा के भाव षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ३५६ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को ही सामान्य कहा जाता है । इस प्रकार से दर्शन का विषय सामान्य सिद्ध है। इसी दार्शनिक पद्धति से आगे भी यहाँ धवला में उस दर्शन के विषय में ऊहापोह किया गया है।' इस दर्शनविषयक तर्कणापूर्ण ऊहापोहात्मक विचार धवला में आगे भी प्रसंगानुसार किया गया है। (२) धवलाकार ने वेदनाखण्ड के प्रारम्भ में अर्थकर्ता भगवान् महावीर की द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से प्ररूपणा करते हुए द्रव्यप्ररूपणा के प्रसंग में महावीर के शररीगत निरायुधत्व आदि रूप विशेषता को प्रकट किया है तथा उसे ग्रन्थ की प्रमाणता का हेतु सिद्ध किया है। __आगे तीर्थ की प्रमाणता को प्रकट करनेवाली क्षेत्रप्ररूपणा के प्रसंग में समवसरण और उसके मध्यगत गन्धकुटी की विशेषता दिखलाते हुए उसे युक्तिप्रत्युक्तिपूर्वक भगवान् महावीर की सर्वज्ञता का हेतु बतलाया है। इस प्रसंग में यह शंका की गई है कि जिन जीवों ने भगवान् जिनेन्द्र के दिव्य शरीर और समवसरणादिस्व जिनमहिमा को देखा है उनके लिए भले ही वह जिन की सर्वज्ञता का हेतु हो सके, किन्तु जिन जीवों ने उसे नहीं देखा है उनके लिए वह उनकी सर्वज्ञता का अनुमापक हेतु नहीं हो सकती है । और हेतु के बिना सर्वज्ञतारूप साध्य की सिद्धि सम्भव नहीं है । इस शंका को हृदयंगम करते हुए आगे धवला में भावप्ररूपणा की गई है। इस भावप्ररूपणा में जीव के अस्तित्व को सिद्ध करते हुए उसकी जडस्वभावता के निराकरणपूर्वक उसे सचेतन और ज्ञान-दर्शनादि स्वभाववाला सिद्ध किया गया है। इसी प्रसंग में कर्मों की नित्यता का निराकरण करते हुए उन्हें मिथ्यात्व, असंयम और कषाय के निमित्त से सकारण सिद्ध किया गया है। साथ ही, इनके प्रतिपक्षभूत सम्यक्त्व, संयम और कषाय के अभाव को उन कर्मों के क्षय का कारण सिद्ध किया गया है। इस प्रसंग में आगे धवला में यह स्पष्ट किया गया है कि जिस प्रकार सुवर्णपाषाण में स्वभाविक निर्मलता की वृद्धि की तरतमता देखी जाती है व इस प्रकार से अन्त में वह सोलहवें ताव में पूर्णरूप से निर्मलता को प्राप्त हुआ देखा जाता है तथा जिस प्रकार शुक्लपक्ष के चन्द्रमण्डल में वृद्धि की तरतमता को देखते हुए अन्त में पूर्णिमा के दिन वह अपनी सम्पूर्ण कलाओं से वृद्धि को प्राप्त हुआ देखा जाता है उसी प्रकार जीवों के चूंकि स्वाभाविक ज्ञानदर्शनादि गुणों में वृद्धि की तरतमता देखी जाती है, इससे यह भी सिद्ध होता है कि किन्हीं विशिष्ट जीवों के वे ज्ञानादि गुण काष्ठागत वृद्धि को प्राप्त होते हैं । इस स्वभावोपलब्धि हेतु से जीव की सर्वज्ञता भी सिद्ध होती है। इसी प्रकार जीवों में चूंकि कषाय की हानि की तरतमता भी देखी जाती है, इसीलिए १. धवला, पु० १,३७६-८२ २. इसके लिए पु० ६ में ३२-३४ पृ० तथा पु० ७ में पृ० ६६-१०२ दृष्टव्य हैं । ३. धवला, पु० ६.१० १०७-८ ४. वही, १०६-१४ ३१./घट्लण्डागम-परिशीलन Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी जीव में उसका पूर्णतया प्रभाव भी सिद्ध होता है।' (३) पीछे 'व्याकरणविषयक वैदुष्य' के प्रसंग में यह कहा जा चुका है कि सर्वस्पर्श के स्वरूप को प्रकट करते हुए सूत्र (५,३,२२) में परमाणु का दृष्टान्त दिया गया है। इस प्रसंग में उस परमाणु के दृष्टान्त को असंगत बतलाते हुए वादी ने एक परमाणु के दसरे परमाण में प्रविष्ट होने का निषेध किया है। इसके लिए उसने परमाणु क्या दूसरे परमाणु में प्रविष्ट होता हुआ एक देश से उसमें प्रविष्ट होता है या सर्वात्मना, इन दो विकल्पों की उठाकर कहा है कि वह दूसरे परमाणु में एक देश से प्रविष्ट होता है, इस प्रथम पक्ष को तो स्वीकार नहीं किया जा सकता है। कारण यह कि प्रसंगप्राप्त सूत्र में ही सर्वात्मना प्रवेश का विधान है । तब ऐसी परिस्थिति में उस प्रथम पक्ष को स्वीकार करने पर सूत्र से विरोध अनिवार्य है। इसलिए यदि सर्वात्मना प्रवेश रूप दूसरे पक्ष को स्वीकार किया जाता है तो उस अवस्था में द्रव्य का द्रव्य में, गन्ध का गन्ध में, रूप का रूप में, रस का रस में और स्पर्श का स्पर्श में प्रविष्ट होने पर परमाणु द्रव्य कुछ शेष नहीं रहता है, उसके अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। पर परमाणु का अभाव होना सम्भव नहीं है, क्योंकि द्रव्य के अभाव का विरोध है । इत्यादि युक्ति-प्रयुक्ति के साथ वादी ने अपने पक्ष को स्थापित कर परमाणु के दृष्टान्त को असंगत सिद्ध करना चाहा है। वादी के इस पक्ष का निराकरण करते हुए धवलाकार ने परमाणु क्या सा५५ है या निरवयव, इन दो विकल्पों को उठाया है व उनमें उसके सावयव होने का निषेध करते हुए उसे निरवयव सिद्ध किया है। इस प्रकार से उन्होंने यह अभिप्राय प्रकट किया है कि अवयव से रहित अखण्ड परमाणुओं का जो देशस्पर्श है वही द्रव्यार्थिक दृष्टि से उनका सर्वस्पर्श है। कारण यह कि देशरूप से स्पर्श करने योग्य उनके अवयवों का अभाव है। विकल्प के रूप में वहाँ यह भी कहा गया है-अथवा दो परमाणुओं का देशस्पर्श भी होता है, क्योंकि उसके बिना स्थल स्कन्धों की उत्पत्ति नहीं बनती। साथ ही उनका सर्वस्पर्श भी है, क्योंकि एक परमाणु में दूसरे परमाणु के सर्वात्मस्वरूप से प्रविष्ट होने में कोई विरोध नहीं है। इत्यादि प्रकार से यहाँ धवलाकार ने दार्शनिक पद्धति से ऊहापोह कर सूत्रोक्त परमाणु के दृष्टान्त की असंगति का निराकरण किया है और उसे सार्थक सिद्ध किया है। (४) इसी वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में ४३वें सूत्र की व्याख्या करते हुए श्रुतज्ञान के दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-शब्दलिंगज और अशब्दलिंगज। इनमें अशब्द १. धवला पु० ६, पृ० ११४-१८; इसके लिए निम्न पद्य द्रष्टव्य हैं दोषावरणयोर्हानिनिःशेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ।।--आ० मी०, ४ धियां तर-तमार्थवद्गतिसमन्वयान्वीक्षणाद् भवेत् ख-परिमाणवत् क्वचिदिह प्रतिष्ठा परा। प्रहाणमपि दृश्यते क्षयवतो निमूलात् क्वचित् तथायमपि युज्यते ज्वलनवत् कषायक्षयः ।।-पात्रकेसरिस्तोत्र, १८ २. धवला पु० १३, पृ० २१-२४ षट्खण्डागम पर टीकाएँ | ३६१ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिंगज श्रुत के स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा गया है कि धूमलिंग से जो अग्नि का शान होता है वह अशब्दलिंगज श्रुत कहलाता है । शब्दलिंगज श्रुत इससे विपरीत लक्षण वाला है । इस प्रसंग में लिंग का लक्षण पूछने पर धवला में कहा गया है कि उसका लक्षण अन्यथानुपपत्ति है । यहाँ बौद्धों के द्वारा पक्षधर्मत्व, सपक्ष में सत्त्व और विपक्ष में असत्त्व इन तीन लक्षणों से उपलक्षित वस्तु को जो लिंग माना गया है उसका निराकरण करते हुए उसे अनेक उदाहरणों द्वारा सदोष सिद्ध किया गया है । यथा--- (१) ये आम के फल पके हुए हैं, क्योंकि वे एक शाखा में उत्पन्न हुए हैं; जैसे उपयोग में आये हुए आम के फल । (२) वह साँवला है, क्योंकि तुम्हारा पुत्र है; जैसे तुम्हारे दूसरे पुत्र | (३) वह भूमि समस्थल है, क्योंकि भूमि है; जैसे समस्थल रूप से वादी प्रतिवादी के सिद्ध प्रसिद्ध भूमि । (४) लोहलेख्य वज्र है, क्योंकि वह पार्थिव है, जैसे घट | इन उदाहरणों में क्रम से एक शाखा में उत्पन्न होना, तुम्हारा पुत्रत्व, भूमित्व और पार्थिवत्व; ये हेतु (लिंग) उपर्युक्त पक्षधर्मत्व आदि तीन लक्षणों से सहित होकर भी अभीष्ट साध्य की सिद्धि में समर्थ नहीं है, क्योंकि वे व्यभिचरित हैं । इसके विपरीत इन अनुमानों में प्रयुक्त सत्त्वादि हेतु उक्त तीन लक्षणों से रहित होकर भी व्यभिचार से रहित होने के कारण अपने अनेकान्तात्मकत्व आदि साध्य के सिद्ध करने में समर्थ हैं— (१) विश्व अनेकान्तात्मक है, क्योंकि वह सत्स्वरूप है (२) समुद्र बढ़ता है, क्योंकि उसके बिना चन्द्र की वृद्धि घटित नहीं होती है । (३) चन्द्रकान्त पाषाण से जल बहता है, क्योंकि उसके बिना चन्द्र का उदय घटित नहीं होता । (४) रोहिणी नक्षत्र का उदय होनेवाला है, क्योंकि उसके बिना शकट का उदय सम्भव नहीं है । (५) राजा की मृत्यु होनेवाली है, क्योंकि उसके बिना रात में इन्द्रधनुष की उत्पत्ति नहीं बनती । (६) राष्ट्र का विनाश अथवा राष्ट्र के अधिपति का मरण होनेवाला है, क्योंकि उसके बिना प्रतिमा का रुदन घटित नहीं होता । इस प्रकार पूर्वोक्त उदाहरणों में वादी के द्वारा निर्दिष्ट तीन लक्षणों के रहते हुए भी वहाँ साध्यसिद्धि के लिए प्रयुक्त एकशाखाप्रभवत्व आदि हेतु अपने साध्य की सिद्धि में समर्थ नहीं हैं। इसके विपरीत उपर्युक्त सत्त्व आदि हेतु उन तीन लक्षणों के बिना भी अपने अनेकान्तात्मकता आदि साध्य की सिद्धि में समर्थ हैं । इस प्रकार धवला में उक्त तीन लक्षणों के रहते हुए भी साध्यसिद्धि की असमर्थता और उन तीन लक्षणों के न रहने पर भी साध्यसिद्धि की समर्थता को दोनों प्रकार के उदाहरणों द्वारा स्पष्ट करके अन्त में यह कहा गया है कि इसलिए 'इसके ( साध्य के ) बिना यह ( साधन) घटित नहीं होता है' इस प्रकार के अविनाभावरूप 'अन्यथानुपपत्ति' को हेतु का लक्षण स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि वही व्यभिचार से रहित होकर अपने साध्य की सिद्धि में सर्वथा ससमर्थ - ३६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। आगे वहाँ 'अत्र श्लोकः' ऐसा निर्देश करते हुए इस श्लोक को उद्धृत किया गया है अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥' इसी प्रसंगमें आगे धवला में तादात्म्य और तदुत्पत्ति में से किसी एक के नियम को भी सदोष बतलाते हुए यह कह दिया गया है कि 'वह सुगम है', इसलिए उसका यहाँ विस्तार नहीं करते हैं। शेष को हेतुवादों हेतु के प्ररूपक न्यायग्रन्थों में देखना चाहिए।' (५) इसी 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में आगे गोत्रकर्म के प्रसंग में शंकाकार द्वारा दार्शनिक दृष्टि से गोत्र के अभाव को प्रकट करने पर धवलाकार ने आगमिक दृष्टि से उसका सद्भाव सिद्ध किया है । (६) धवलाकार का द्वारा प्ररूपित 'प्रक्रम' अनुयोगद्वार में कर्मप्रक्रम के प्रसंग में वादी के द्वारा अकर्म से कर्म की उत्पत्ति को असम्भव बतलाया गया है। उस प्रसंग में आचार्य वीरसेन ने कार्य की सर्वथा कारणानुसारिता का निराकरण कर सत्-असत्कार्यवाद विषयक एकान्तता के विषय में दार्शनिक दृष्टि से विस्तारपूर्वक विचार किया है। वहाँ उन्होंने कार्य कथंचित् सत् उत्पन्न होता है, कथंचित् वह असत् उत्पन्न होता है, इत्यादि रूप से सात भंगों की भी योजना की है तथा प्रसंग के अनुरूप सांख्यकारिका (8) और आप्तमीमांसा की ३७, ३६-४०, ४१,४२, ५७,५९-६०, और ६-१४ इन कारिकाओं को भी उद्धत किया है। ऊपर जो दार्शनिक प्रसंग से सम्बद्ध ये कुछ उदाहरण दिये गये हैं उन्हें देखते हुए आ० वीरसेन की न्यायनिपुणता में सन्देह नहीं रहता। काव्यप्रतिभा-आ० वीरसेन की काव्यविषयक प्रतिभा भी स्तुत्य रही है। प्रस्तुत षटखण्डागम के सिद्धान्तग्रन्थ होने से उसकी व्याख्या में काव्यविषयक कुशलता के प्रकट करनेवाले प्रसंग प्रायः नहीं रहे हैं, फिर भी जो कहीं पर इस प्रकार का कुछ प्रसंग प्राप्त हुआ है वहाँ धवलाकार ने जिस लम्बे समासोंवाली सुललित संस्कृत व प्राकृत भाषा में विवक्षित विषय का वर्णन किया है उसके देखने से उनकी कार्यकुशलता भी परिलक्षित होती है। इसके अतिरिक्त, उनकी काव्यपटुता का दर्शन उनके द्वारा धवला क प्रारम्भ में छह गाथाओं द्वारा किये गये मंगल-विधान में भी होता है। वहाँ उपमा, रूपक और अनुप्रास १. इस श्लोक को अनेक न्यायग्रन्थों में उद्धृत किया गया है (देखिए, न्यायदीपिका पृ० ८४-८५ का टिप्पण ६) । इस विषय में विशेष जानकारी 'न्यायकुमुदचन्द्र' की प्रस्तावना में 'पात्र केसरी और अकलंक' शीर्षक से प्राप्त होती है। भा० १, पृ० ७३-७६ । २. 'तादात्म्य' और 'तदुत्पत्ति' के विषय में प्र०क०मा० पृ० ११०, २ और न्या०कु०च०२, पृ० ४४४-४५ द्रष्टव्य हैं । ३. धवला पु० १३, पृ० २४५-४६ ४. वही, पृ० ३८८-८९ ५. धवला पु० १५, पृ० १६-३५ . ६. उदाहरण के रूपमें देखिए पु० १, पृ० ६०-६१ में भगवान महावीर का वर्णन तथा पु०६; पृ० १०६-१३ में समवसरण का वर्णन । षद्खण्डागम पर टीकाएँ / ३६३ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलंकार तो अन्तहित हैं ही, साथ ही वहां विरोधाभास और यमक अलंकार भी स्पष्ट दिखते हैं। उदाहरणार्थ, विरोधाभास इस मंगलगाथा में निहित है सयलगण-पंउम-रविणो विविद्धिविराइया विनिस्संगा। ___णीराया वि कुराया गणहरदेवा पसीयं तु ॥३॥ ___ यहाँ गणधरदेवों की प्रसन्नता की प्रार्थना करते हुए उन्हें नीराग होकर भी कुराग कहा गया है। इसमें आपाततः विरोध का आभास होता है, क्योंकि जो नीराग --रागसे रहित... होगा वह कुराग----कुत्सित राग से अभिभूत-नहीं हो सकता। परिहार उसका यह है कि वे वोतराग होकर भी कुराग-जनानुरागी-रहे हैं । 'कु' का अर्थ पृथिवी होता है। उससे लोक व जन अपेक्षित है। अभिप्राय यह कि वे धर्मवत्सलता से प्रेरित होकर उन्हें सदुपदेश द्वारा मोक्षमार्ग में प्रवृत्त करते हैं। रूपक भी यहाँ है। '. यमकालंकार का उदाहरण पणमह कयभूयबलि भूयबलि केसवासपरिभयबलि । विणियबम्हहपसरं वड्ढाधियविमलणाण-बम्हहपसरं ॥६॥ यहाँ प्रथम और द्वितीय पदके अन्त में 'भूयबलि' की तथा तृतीय और चतुर्थ पद के अन्त में 'बम्महपसर' की पुनरावृत्ति हुई है। यमकालंकार में शब्दश्रुति के समान होने पर भी अर्थ भिन्न हुआ करता है। तदनुसार यहाँ प्रथम 'भूतबलि' का अर्थ भतों द्वारा पूजा का किया जाना तथा द्वितीय 'भूतबलि' का अर्थ केशपाश के द्वारा बलि का पराभव किया जाना अपेक्षित है। इसी प्रकार 'बम्हहपसर' का अर्थ वम्हह अर्थात् मन्मथ (काम) का निग्रह करना तथा निर्मलज्ञान के द्वारा ब्रह्मन् (आत्मा) के प्रसार को बढ़ाना अपेक्षित रहा है। ___ आ० वीरसेन की बहुश्रुतशालिता को प्रकट करनेवाले जो प्रसंग उनकी धवला टीका से ऊपर दिये गये हैं उनसे उनकी अनुपम सैद्धान्तिक कुशलता के साथ यह भी निश्चित होता है कि उनकी गति ज्योतिष, गणित, व्याकरण, न्यायशास्त्र आदि अनेक विषयों में अस्खलित रही है। __ जैसाकि उन्होंने पूर्वोक्त प्रशस्ति में संकेत किया है, छन्दशास्त्र में भी उन्हें निष्णात होना चाहिए, पर धवला में ऐसा कोई प्रसंग प्राप्त नहीं हुआ है। यद्यपि धवला और जयधवला टीकाओं के अतिरिक्त वीरसेनाचार्य की अन्य कोई कृति उपलब्ध नहीं है, पर यह सम्भव है कि उनकी 'स्तुति' आदि के रूप में कोई छोटी-मोटी पद्यात्मक कृति रही हो, जिसमें अनेक छन्दों का उपयोग हुआ हो। धवलागत विषय का परिचय १. जीवस्थान-सत्प्ररूपणा __ मूल ग्रन्थगत विषय का परिचय पूर्व में कराया जा चुका है। अत: यहां उन्हीं विषयों का परिचय कराया जाएगा जिनकी प्ररूपणा मूल सूत्रों में नहीं की गई है, फिर भी उनसे सूचित होने के कारण धवलाकार ने अपनी इस टीका में यथाप्रसंग उनका निरूपण विस्तार से किया है। ३६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल आदि छह मूल ग्रन्थ के प्रारम्भ में आचार्य पुष्पदन्त ने पंचपरमेष्ठि- नमस्कारात्मक जिस मंगल को किया है उसकी उत्थानिका में धवलाकार ने एक प्राचीन गाथा उद्धृत करते हुए कहा है-"आचार्य परम्परागत इस न्याय को मन से अवधारण करके पूर्व आचार्यों का अनुसरण रत्नत्रय 'का हेतु है' ऐसा मानते हुए पुष्पदन्ताचार्य सकारण मंगल आदि छह की प्ररूपणा हेतु सूत्र कहते हैं" । " मंगलादि छह की सूचक वह गाथा इस प्रकार है मंगल- निमित्त हेऊ परिमाणं णाम तह य कत्तारं । वारिय छप्पि पच्छा वक्खाणउ सत्यभाइरियो || अर्थात् १ मंगल, २ निमित्त, ३ हेतु, ४ परिमाण, ५ नाम और ६ कर्ता इन छह का व्याख्यान करके तत्पश्चात् आचार्य को अभीष्ट शास्त्र का व्याख्यान करना चाहिए । - धवला पु० १, पृ० ७ इस प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि यह सूत्र ( ' णमो अरिहंताणं' आदि ) सकारण उन मंगल आदि छह का प्ररूपक कैसे है। उसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह सूत्र 'तालप्रलम्ब' सूत्र के समान देशामर्शक है --विवक्षित अर्थ के एक देश की प्ररूपणा करके उससे सम्बद्ध शेष समस्त अर्थ का सूचक है । ---- से क्या अभिप्रेत है, इसका कुछ स्पष्टीकरण यहाँ किया जाता हैतालप्रलम्ब सूत्र साधु के लिए क्या कल्प्य ( ग्राह्य) है और क्या अकल्प्य (अग्राह्य) है, इस प्रकार कल्प्याकल्प्य के प्रसंग में वह सूत्र कहा गया है । 'ताल' शब्द वनस्पति के एक देशभूत वृक्षविशेष का परामर्शक होकर उपलक्षण से वह हरितकाय तृण, औषधि, गुच्छा, लता आदि अन्य सभी वनस्पतियों का बोधक है। जैसे—साधु के लिए जब यह कहा जाता है कि 'तालपलंबं ण कप्पदि' तब उसका अभिप्राय यह होता है कि ताल के समान समस्त हरितकाय औषधि आदि (अग्रप्रलम्ब) और मूलप्रलम्बरूप कन्दमूलादि अकल्प्य हैं उनका उपभोग करना निषिद्ध है । 'भगवती आराधना' में इसका उदाहरण इस प्रकार देखा जाता है सामासितं आचेलक्कं ति तं खु ठिदिकप्पे । लुतोऽथवाऽऽदिसद्दो जह तालपलंबसुत्तम्मि ॥। ११२३ ॥ दस प्रकार के स्थितिकल्प में 'आचेलक्य' यह प्रथम है । यहाँ 'अचेलकता' में 'चेल' शब्द से उपलक्षण रूप में समस्त बाह्य परिग्रह का ग्रहण होने से वस्त्रादि समस्त बाह्य परिग्रह का परित्याग अभीष्ट रहा है । प्रकारान्तर से यह भी कहा गया- अथवा यहाँ 'आदि' शब्द का लोप हो गया समझना चाहिए। इस प्रकार उक्त स्थितिकल्प में चेल (वस्त्र) आदि समस्त बाह्य परिग्रह के परित्याग का विधान है । इसी प्रकार प्रकृत में धवलाकार ने उस तालप्रलम्बरूप सूत्र को दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत करके उक्त पंचपरमेष्ठि- नमस्कारात्मक मंगलगाथा को देशामर्शक कहा है और उससे सूचित मंगल-निमित्तादि छह को धवला में क्रम से प्ररूपित किया है । यथा १. धवला पु० १, पृ० ७-८ षट्खण्डागम पर टीकाएं / ३६५ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) धातु-धातु के प्रसंग में धवलाकार ने 'मंगल' शब्द को 'मगि' धातु से निष्पन्न कहा है। आवश्यकसूत्र (पृ० ४) और दशवकालिक-नियुक्ति (१, पृ० ३) की हरिभद्र विरचित वत्ति के अनुसार 'मंगि' धातु का अर्थ अधिगमन अथवा साधन होता है। तदनुसार 'मङ्ग्यते हितमनेनेति मङ्गलम् , मङ ग्यतेऽधिगम्यते गाध्यते इति यावत्' इस नियुक्ति के अनुसार अभिप्राय यह हुआ कि जिसके आश्रय से हित का अधिगम अथवा उसकी सिद्धि होती है उसका नाम मंगल है।' (२-३) निक्षेप व नय-निक्षेप के प्रसंग में धवला में मंगल के ये छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव मंगल । इनके विषय में वहां प्रथमतः नयकी योजना की गयी है और तत्पश्चात् क्रम से अन्य प्रासंगिक चर्चा के बाद उक्त नामादिस्वरूप छह प्रकार के मंगल की विस्तार से विवेचना की है। अन्त में एक गाथा उद्धृत कर उसके आश्रय से निक्षेप का प्रयोजन, अप्रकृत का निराकरण, प्रकृत का प्ररूपण, संशय का विनाश और तत्त्वार्थ का अवधारण कहा गया है। निष्कर्ष के रूप में वहाँ यह स्पष्ट कर दिया गया है कि जो वक्ता निक्षेप के बिना सिद्धान्त का व्याख्यान करता है अथवा जो श्रोता उसे सुनता है वह कुमार्ग में प्रस्थित हो सकता है। (४) एकार्थ--एकार्थ के प्रसंग में मंगल के ये समानार्थक नाम निर्दिष्ट किये गये हैंपुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, शुभ, कल्याण, भद्र और सौख्य आदि । साथ ही, वहाँ समानार्थक शब्दों के कथन प्रयोजन को भी स्पष्ट कर दिया गया है। (५) निरुक्ति-निरुक्ति के प्रसंग में 'मंगल' शब्द की निरुक्ति इस प्रकार की गयी है'मलं गालयति विनाशयति दहति हन्ति विशोधयति विध्वंसयतीति मंगलम् ।' इस प्रसंग में मल के अनेक भेदों का उल्लेख किया गया है। प्रकारान्तर से 'अथवा मङ्गसुखम्, तल्लाति आदत्ते इति वा मङ्गलम्' इस प्रकार से भी 'मंगल' शब्द को निरुक्ति की गई है। तीसरे प्रकार से भी उसकी नियुक्ति इस प्रकार की गई है--'अथवा मंगति गच्छति कार्यसिद्धि मनेनास्मिन् वेति मंगलम् ।६।। (६) अनुयोगद्वार-इसी प्रसंग में 'मंगलस्यानुयोग उच्यते' ऐसी सूचना के साथ धवला में यह गाथा उद्धृत है कि कस्स केण कत्थ य केचिरं कविविधो य भावो ति। छहि अणिओगद्दारेहि सव्वेभा वाणुगंतव्वा । १. धवला पु० १, पृ०६-१० २. वही, १०-३१ ३. वही, ३१-३२ ४. वही, ३२-३३ ५. वही, ३३ ६. धवला पु० १; पृ० ३४ ७. यह गाथा मूलाचार (८-१५), जीवसमास (४) और आव० नि० (८६४) में भी उपलब्ध होती है। त० सूत्र में इन ६ अनुयोगद्वारों का उल्लेख इस प्रकार से किया गया हैनिर्देशस्वामित्व-साधनाधिकरण-स्थिति-विधानतः । (सूत्र १-८) ३६६ / षट्सण्डागम-परिशीलन Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमें जिन प्रश्नों को उठाते हुए यह कहा गया है कि इन छह अनुयोगद्वारों के आश्रय से समस्त पदार्थों का मनन करना चाहिए। उनसे क्रमश: ये छह अनुयोगद्वार फलित होते हैं१निर्देश, २ स्वामित्व, ३ साधन (कारण), ४ अधिकरण, ५ काल और ६ विधान (भेद)। धवला में क्रम से इन छह अनुयोगद्वारों के आधार से उक्त मंगल की व्याख्या की गई है। मंगल की प्ररूपणा के बाद धवला में प्रकारान्तर से यह कहा गया है - अथवा उस मंगल के विषय में इन छह अधिकारों का कथन करना चाहिए-१ मंगल, २ मंगलकर्ता, ३ मंगलकरणीय, ४ मंगल-उपाय, ५ मंगलविधान ६ मंगलफल । धवला में आगे इन छह के अनुसार भी मंगल का विधान है। तत्पश्चात् धवला में यह स्पष्ट करते हुए कि मंगल का सूत्र क आदि, अन्त और मध्य में करना चाहिए; आगे 'उत्तं च' के साथ यह गाथा उद्धृत की गई है आदीवसाण-मज्झे पण्णत्तं मंगलं जिणिदेहि । तो कयमंगलविणओ वि णमोसुत्तं पवक्खामि ।। यह गाथा कहाँ की है, किसके द्वारा रची गयी है तथा उसके उत्तरार्ध में जो यह निर्देश किया गया है कि 'इसलिए मंगलविनय करके मैं नमस्कार-सूत्र कहूँगा' यह अन्वेषणीय है। क्या णमोसुतं' से यहाँ प्रकृत पंचपरमेष्ठि-नमस्कारात्मक मंगलगाथासूत्र की विवक्षा हो सकती है ? इसी प्रसंग में आगे आदि, अन्त और मध्य में मंगल के करने का प्रयोजन स्पष्ट किया गया है। इस प्रकार धवला में विस्तार से मंगल की प्ररूपणा करके आगे 'इदाणि देवदाणमोक्कारसुत्तस्सत्थो उच्चदे' ऐसी सूचना करते हुए उक्त नमस्कारसूत्र के विषयभूत अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँचों के स्वरूप आदि का यथाक्रम से विस्तारपूर्वक विचार किया गया है। पूर्व में शास्त्रव्याख्यान के पूर्व जिन मंगल व निमित्त आदि छह को व्याख्येय कहा गया था उनमें यहाँ तक धवला में प्रथम मंगल के विषय में ही विचार किया गया है। तत्पश्चात् आगे वहाँ निमित्त (पृ० ५४-५५), हेतु (५५-५६), परिमाण (पृ० ६०) और ५ नाम (पृ० ६०) के विषय में भी स्पष्टीकरण है।' प्रसंगवश प्रकारान्तर से भी निमित्त और हेतु को स्पष्ट करते हुए धवला में जिनपालित को निमित्त और मोक्ष को हेतु कहा गया है। . (७) कर्ता-आगे कर्ता के प्रसंग में उसके अर्थकर्ता और ग्रन्थ कर्ता इन दो भेदों का निर्देश कर अर्थकर्ता भगवान् महावीर की द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार प्ररूपणा है । द्रव्यप्ररूपणा में वहाँ महावीर के दिव्य शरीर की विशेषता को प्रकट किया गया है। क्षेत्रप्ररूपणा के प्रसंग में कुछ गाथाओं को उद्धृत करते हुए उनके आश्रय से 'राजगृह (पंचशैलपुर) १. धवला पु० १, पृ० ३८ २. वही, पु० १, पृ० ४० ३. वही, पू० १, पृ० ४२-५४ ४. वही, ५५-६० ५. वही, पु० १, पृ० ६० षट्खण्डागम पर टोकाएं। ३६७ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवस्थित विपुलाल पर महावीर ने भव्यजनों के लिए अर्थ कहा - भावश्रुत के रूप में उपदेश किया', ऐसा अभिप्राय प्रकट किया गया है । पश्चात् ऋषिगिरि, वैभार, विपुलाचल, छिन्न और पाण्डु इन पाँच पर्वतों की स्थिति भी दिखलायी गयी है । इसी प्रकार कालप्ररूपणा के प्रसंग में भी चार गाथाओं को उद्धृत कर उनके आश्रय से नक्षत्र आदि की कुछ विशेषता को दिखलाते हुए श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन पूर्वाह्न में तीर्थ की उत्पत्ति हुई, यह अभिप्राय प्रकट किया गया है । भावकर्ता के रूप में महावीर की प्ररूपणा करते हुए उन्हें ज्ञानावरणीय आदि के क्षय से प्राप्त हुईं अनन्तज्ञानादि रूप नौ केवललब्धियों स परिणत कहा गया है । इस प्रसंग में भी तीन गाथाओं को उद्धृत किया गया है । " ग्रन्थकर्ता के प्रसंग में कहा गया है कि केवलज्ञानी उन महावीर द्वारा उपदिष्ट अर्थ का अवधारण उसी क्षेत्र एवं उसी काल में इन्द्रभूति ने किया । गौतमगोत्रीय वह इन्द्रभूति ब्राह्मण समस्त दुःश्रुतियों (चारों वेद आदि) में पारंगत था । उसे जब जीव अजीव के विषय में सन्देह हुआ तो वह वर्धमान जिनेन्द्र के पादमूल में आया । उसी समय वह विशिष्ट क्षयोपशम के वश बीजबुद्धि आदि चार निर्मल बुद्धि - ऋद्धियों से सम्पन्न हो गया । यहाँ 'उक्तं च' कहकर यह गाथा उद्धृत की गयी है, जिसके द्वारा उस इन्द्रभूति को गोत्र से गौतम, चारों वेदों व षडंग में विशारद, शीलवान् और ब्राह्मणश्रेष्ठ कहा गया है गोतेण गोदमो विप्पो चाउब्वेय-सरंगवि । णामेण इंदभूदित्ति सीलवं बम्हणुत्तमो ॥ ..भावश्रुतपर्याय से परिणत उस इन्द्रभूति ने बारह अंग और चौदह पूर्व रूप ग्रन्थों की रचना क्रम से एक ही मुहूर्त में कर दी । इसलिए भावश्रुत और अर्थपदों के कर्ता तीर्थंकर हैं तथा तीर्थंकर के आश्रय से गौतम श्रुतपर्याय से परिणत हुए, अतः गौतमद्रव्य श्रुत के कर्ता हैं । इस प्रकार गौतम गणधर द्वारा ग्रन्थरचना हुई। षट्खण्डागम की रचना कैसे हुई ? इस प्रकार कर्ता की प्ररूपण करके आगे धवला में उस श्रुत का प्रवाह किस प्रकार से प्रवाहित हुआ, इसकी चर्चा करते हुए कहा गया है कि उन गौतम गणधर ने दोनों प्रकार के • श्रुतज्ञान को लोहार्य ( सुधर्म ) के लिए और उन लोहार्य ने उसे जम्बूस्वामी के लिए संचारित किया । इस प्रकार परिपाटी क्रम से ये तीनों ही समस्त श्रुत के धारक कहे गये हैं । किन्तु परिपाटी के बिना समस्त श्रुत के धारक संख्यात हजार हुए हैं। गौतमदेव, लोहार्य और जम्बूस्वामी ये तीनों सात प्रकार की ऋद्धि से सम्पन्न होकर समस्त श्रुत के पारंगत हुए और अन्त में केवलज्ञान प्राप्त करके मुक्त हुए हैं। पश्चात् विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये परिपाटीक्रम से चौदह पूर्वी के धारक श्रुतकेवली हुए । तत्पश्चात् विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धार्थदेव, धृतिषेण, विजयाचार्य, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह आचार्य पुरुषपरम्परा के क्रम से ग्यारह अंगों व उत्पादादि दस पूर्वी के धारक हुए। शेष चार पूर्वो के वे एकदेश के १. धवला पु० १, पृ० ६०-६४ २. वही, पु० १, पृ० ६४-६५ ३६८ / बट्खण्डागम-परिशीलन Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारक रहे हैं। अनन्तर नक्षत्राचार्य, जयपाल, पाण्डुस्वामी, ध्र वषेण और कंसाचार्य ये पांचों आचार्य परिपाटीक्रम से ग्यारह अंगों के धारक हए । चौदह पूर्वो के वे एकदेश के धारक रहे हैं । पश्चात् सुभद्र. यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चार आचार्य आचारांग के धारक हुए। शेष अंग-पूर्वो के वे एक देश के धारक रहे हैं। तत्पश्चात सभी अंग-पूर्वो का एकदेश आचार्यपरम्परा से होता हुआ धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ। ____ अष्टांग-महानिमित्त के पारगामी वे धरसेनाचार्य सौराष्ट्र देश के अन्तर्गत गिरिनगर पट्टन की चन्द्रगुफा में स्थित थे। उन्हें 'ग्रन्थ का व्युच्छेद होने वाला है' इस प्रकार का भय उत्पन्न हुआ। इसलिए उन्होंने प्रवचनवत्सलता के वश महिमा (नगरी अथवा कोई महोत्सव) में सम्मिलित हुए दक्षिणापथ के आचार्यों के पास लेख भेजा। लेख में निबद्ध धरमेनाचार्य के वचन का अवधारण कर--उनके अभिप्राय को समझकर उन आचार्यों ने आन्ध्रदेश स्थित वेण्णानदी के तट से दो साधुओं को धरसेनाचार्य के पास भेज दिया। वे दोनों साधु ग्रहण-धारण में समर्थ, विनय से विभूषित, गुरुजनों के द्वारा भेजे जाने से संतुष्ट तथा देश, कुल व जाति से शुद्ध थे। इस प्रकार प्रस्थान कर वे दोनों वहाँ पहुँचनेवाले थे कि तभी रात्रि के पिछले भाग में धरसेनाचार्य ने स्वप्न में देखा कि समस्त लक्षणों से सम्पन्न दो धवल वर्ण बैल तीन प्रदक्षिणा देकर उनके पांवों में गिर रहे हैं। स्वप्न से सन्तुष्ट धरसेनाचार्य के मुख से सहसा 'जयउ सुददेवदा' यह वाक्य निकल पड़ा। पश्चात् उन दोनों के वहाँ पहुँच जाने पर धरमेनाचार्य ने परीक्षापूर्वक उन्हें उत्तम तिथि, नक्षत्र और वार में ग्रन्थ को पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। यह अध्यापन आषाढ़ शुक्ला एकादशी के दिन पूर्वाह्न में समाप्त हुआ। इसकी चर्चा पूर्व में की जा चुकी है। जीवस्थान का अवतार आगे 'जीवस्थान' खण्ड के अवतार के कथन की प्रतिज्ञा करते हुए धवला में उसे उपक्रम, निक्षेप, नय और अनुगम के भेद से चार प्रकार का कहा गया है। उनमें से प्रथम उपक्रम के ये पाँच भेद निर्दिष्ट किये गये हैं. - आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार । (१) आनुपूर्वो—यह पूर्वानुपूर्वी, पश्चादानुपूर्वी और यथातथानुपूर्वी के भेद से तीन प्रकार की है। (२)नाम-इसके दस स्थान हैं ---गौण्यपद, नोगौण्यपद, आदानपद, प्रतिपक्षपद, अनादिसिद्धान्तंपद, प्राधान्यपद, नामपद, प्रमाणपद, अवयवपद और संयोगपद । धवला में आगे इनके स्वरूप आदि को भी विशद किया गया है। इन दस नामपदों में प्रकृत 'जीवस्थान' को जीवों के स्थानों का प्ररूपक होने से गौण्यपद (गुणसापेक्ष) कहा गया है।' (३) प्रमाण-यह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और नय के भेद मे पाँच प्रकार का है। इनके अन्तर्गत अन्य भेदों का भी निर्देश धवला में कर दिया गया है। १. धवला पु० १, ६५-६७ २. वही, पृ० ६७-७० ३. वही, पृ० ७२-७३ ४. धवला पु० १,७४-७८ षट्खण्डागम पर टीकाएँ। ३६६ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसंगवश वहाँ एक यह शंका की गयी है कि नयों को प्रमाण कैसे कहा जा सकता है । इसके उत्तर में कहा गया है कि प्रमाण के कार्यरूप नयों को उपचार से प्रमाण मानने में कुछ भी विरोध नहीं है । उक्त पाँच प्रकार के प्रमाण में 'जीवस्थान' को भावप्रमाण कहा गया है । वह भावप्रमाण मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान के भेद से पाँच प्रकार का है। उनमें 'जीवस्थान' श्रुतभावप्रमाण के रूप में निर्दिष्ट है । यहीं पर आगे प्रसंगप्राप्त एक अन्य शंका का समाधान करते हुए प्रकारान्तर से प्रमाण ये छह भेद भी निर्दिष्ट किये गये हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षत्र, काल और भावप्रमाण । इनका सामान्य स्पष्टीकरण करते हुए आगे भावप्रमाण के मतिभावप्रमाण आदि उपर्युक्त पाँच भेदों का पुनः उल्लेख किया है एवं जीवस्थान को भाव की अपेक्षा श्रुतभावप्रमाण तथा द्रव्य की अपेक्षा संख्यात, असंख्यात व अनन्तरूप शब्दप्रमाण कहा गया है । " ( ४ ) वक्तव्यता - यह स्वसमयवक्तव्यता, परसमयवक्तव्यता और तदुभयवक्तव्यता के भेद से तीन प्रकार की है । प्रकृत जीवस्थान में अपने ही समय की प्ररूपणा होने से स्वसमयवक्तव्यता कही गई है । " (५) अर्थाधिकार- यह प्रमाण, प्रमेय और तदुभय के भेद से तीन प्रकार का है। यहाँ जीवस्थान में एकमात्र प्रमेय की प्ररूपणा के होने से एक ही अर्थाधिकार कहा गया है । " इस प्रकार यहाँ पूर्वोक्त चार प्रकार के अवतार में से प्रथम 'उपक्रम' अवतार की चर्चा समाप्त हुई । २. निक्षेप - अवतार के उक्त चार भेदों में यह दूसरा है। यह नामजीवस्थान, स्थापनाजीवस्थान, द्रव्यजीवस्थान और भावजीवस्थान के भेद से चार प्रकार का है। इनमें भावजीवस्थान के दो भेदों में जो दूसरा नोआगमभावजीवस्थान है उसे यहाँ प्रसंगप्राप्त निर्दिष्ट किया गया है । वह मिथ्यादृष्टि, सासादन आदि चौदह जीवसमास ( गुणस्थान) स्वरूप है । ३. नय — अवतार का तीसरा भेद नय है । नयों के बिना चूँकि लोकव्यवहार घटित नहीं होता है, इसीलिए धवलाकार ने नयों के निरूपण की प्रतिज्ञा करते हुए प्रथमतः नयसामान्य के लक्षण में यह कहा है कि प्रमाण द्वारा परिगृहीत पदार्थ के एक देश में जो वस्तु का निश्चय होता है उसका नाम नय है। उसके मूल में दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं- द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय । इनमें द्रव्यार्थिक नैगम, संग्रह और व्यवहार नय के भेद से तीन प्रकार का तथा पर्यायार्थिकनय सामान्य से अर्थनय और व्यंजननय के भेद से दो प्रकार का है । यहाँ द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों में भेद को स्पष्ट करते हुए यह बतलाया गया है कि जिन नयों का मूल आधार ऋजुसूत्रवचन का विच्छेद है वे पर्यायार्थिक नय कहलाते हैं । ऋजुसूत्रवचन से अभिप्राय वर्तमानवचन का है । तात्पर्य यह है कि जो नय ऋजुसूत्रवचन के विच्छेद से लेकर एक समय पर्यन्त वस्तु की स्थिति का निश्चय कराते हैं उन्हें पर्यायार्थिक नय १. वही, पृ० ८०-८२ २. धवला पु० १, पृ० ८८ ३. वही, ४. वही. पृ० ८३ ३०० / षट्खण्डागम-परिशीलन " Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझना चाहिए। इन पर्यायार्थिक नयों को छोड़कर दूसरे शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय हैं । आगे अर्थनयों का स्वरूप स्पष्ट किया गया है, तदनुसार जो नय अर्थ और व्यंजन पर्यायों से भेद को प्राप्त तथा लिंग, संख्या, काल पुरुष और उपग्रह के भेद से भेद को न प्राप्त होने वाले केवल वर्तमानकालीन पदार्थ का निश्चय कराते हैं उन्हें अर्थनय कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि अर्थनयों में शब्द के भेद से अर्थ का भेद नहीं हुआ करता है। जो शब्द के भेद से वस्तु के भेद को ग्रहण किया करते हैं वे व्यंजननय कहलाते हैं। प्रकृत में ऋजुसूत्र को अर्थनय कहा गया है। कारण यह है कि वह 'ऋजु प्रगुणं सूत्रयति सूचयति' इस निरुक्ति के अनुसार वर्तमानकाल बर्ती सरल अर्थ का सूचक है। इस प्रसंग में यह शंका की गयी है कि नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन नय भी तो अर्थनय है। इसके उत्तर में कहा गया है कि अर्थ में व्याप्त होने से वे भले ही अर्थनय हों, किन्तु वे पर्यायाथिकनय नहीं हो सकत; क्योकि उनका प्रमुख विषय द्रव्य है। ___ व्यंजननय शब्द, समभिरूढ और एवम्भूतनय के भेद से तीन प्रकार का है। इनका स्वरूप जिस प्रकार सर्वार्थसिद्धि आदि में प्ररूपित है, लगभग धवला में भी यहाँ उनके स्वरूप की प्ररूपणा उसी प्रकार की गयी है। एवम्भूतनय के सम्बन्ध में यहाँ यह विशेष स्पष्ट किया गया है कि इस नय की दृष्टि में पदों का समास सम्भव नहीं है, क्योंकि भिन्न कालवर्ती और भिन्न अर्थ के वाचक पदों के एक होने का विरोध है। उनमें परस्पर अपेक्षा भी सम्भव नहीं है, क्योंकि वर्ण, अर्थ, संख्या और काल आदि से भेद को प्राप्त पदों की अन्य पदों के साथ अपेक्षा नहीं हो सकती। इससे सिद्ध है कि इस नय की दृष्टि में पदों का समुदायल्प वाक्य भी नहीं घटित नहीं होता है । अभिप्राय यह हुआ कि एक पद एक ही अर्थ का वाचक है, इस प्रकार से जो निश्चय कराता है उसे एवम्भूतनय समझना चाहिए । इस नय की अपेक्षा एक 'गो' शब्द अनेक अर्थों में वर्तमान नहीं रहता, क्योंकि एक स्वभाववाले एक पद के अनेक अर्थों में वर्तमान का विरोध है। प्रकारान्तर से यहाँ पुनः एवम्भूतनय के लक्षण को प्रकट करते हुए यह कहा गया है कि जो पदगत वर्षों के भेद से अर्थभेद का निश्चायक होता है वह एवम्भूतनय कहलाता है, क्योंकि वह शब्दनिरुक्ति (एवं भेदे भवनादेवम्भूतः) के अनुसार इस प्रकार (भेद में) हुआ है' उसी में उत्पन्न है; अर्थात् उसो को विषय करता है। आगे धवला में नयों के विषय में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि संक्षेप में से हैं, पर अवान्तर भेदों से वे असंख्यात है। व्यवहर्ता जनों को उनके विषय में जानकारी अवश्य होना चाहिए, क्योंकि उनके जाने बिना न तो वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन किया जा सकता है और न उसे समझा भी जा सकता है। इस अभिप्राय की पुष्टि आगे वहाँ दो गाथाओं को उद्धृत करते हए उनके आश्रय से की गई है। इस प्रकार इस प्रसंग में धवलाकार द्वारा नयों के विषय में विशद चर्चा की गयी है।' १. धवला पु० १, पृ० ८३-६१ (धवला में ग्रन्थावतार के प्रसंग में उपक्रम के भेदभूत इन नयों के विषय में पुनः विस्तारपूर्वक विचार किया गया है-देखिए पु० ६, पृ० १६२-८३) षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ३७१ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. अनुगम-नय प्ररूपणा के समाप्त होने पर जीवस्थान के अवतारविषयक उन उपक्रमादि चार भेदों में से चौथा भेद 'अनुगम' शेष रहता है। उसके विषय में धवलाकार ने 'अनुगमं वत्तइस्सामो' ऐसी सूचना करते हुए अवसरप्राप्त "एत्तो इमेसि चोहसण्ह" आदि सूत्र (१,१,२) की ओर संकेत किया है।' इतना संकेत करके यहाँ धवला में उसके स्वरूप को स्पष्ट नहीं किया गया है। पर आगे पुनः प्रसंगप्राप्त उस अनुगम के लक्षण को प्रकट करते हुए धवलाकार ने यह कहा है-"जम्हि जेण वा वत्तव्वं परुविज्जदि सो अणुगमो।" अर्थात् जहाँ पर या जिसके द्वारा विवक्षित विषय की प्ररूपणा की जाती है उसका नाम अनुगम है। निष्कर्ष के रूप में आगे यह बतलाया गया है कि 'अधिकार' संज्ञावाले अनयोगद्वारों के जो अधिकार होते हैं उन्हें अनुगम कहा जाता है। जैसे-'वेदना' अनुयोगद्वार में 'पदमीमांसा' आदि अधिकार (देखिए पु० १०, पृ० १८ व पु० ११, पृ० १-३, ७५-७७ आदि)। यह अनुगम अनेक प्रकार का है, क्योंकि इसकी संख्या नियत नहीं है। प्रकारान्तर से वहाँ 'अथवा अनुगम्यन्ते जीवदयः पदार्थाः अनेनेत्यनुगमः' ऐसी निरुक्ति करते हुए यह अभिप्राय प्रकट किया है कि जिसके द्वारा जीवादि पदार्थ जाने जाते हैं उसका नाम अनुगम है । जीवस्थानगत सत्प्ररूपणावि = अनुयोगद्वारों व चूलिकाओं का उद्गम ऊपर धवलाकार ने 'अनुगम' के प्रसंग में जिस सूत्र की ओर संकेत किया है वह पूरा सूत्र इस प्रकार है-- "एत्तो इमेसिं चोद्दसण्हं जीवसमासाणं मग्गणट्ठदाए तत्थ इमाणि चोद्दस चेय हाणाणि णादब्वाणि भवति ।" -सूत्र २, पृ० ६१ इस सूत्र की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने सूत्र में प्रयुक्त 'एत्तो' (एतस्मात्) पद से प्रमाण को ग्रहण किया है। इस पर वहाँ यह शंका की है कि यह कैसे जाना जाता है कि 'एत्तो' इस सर्वनाम पद से प्रमाण विवक्षित है। उत्तर में यह कहा गया है कि प्रमाणभूत 'जीवस्थान' का चूंकि अप्रमाण से अवतार होने का विरोध है, इसी से जान लिया जाता है कि सूत्र में प्रयुक्त 'एत्तो' पद से प्रमाण अभीष्ट रहा है । इस प्रसंग में यहाँ प्रमाण के दो भेद निदिष्ट किये गये हैं-द्रव्यप्रमाण और भावप्रमाण। इनमें द्रव्यप्रमाण से संख्यात, असंख्यात और अनन्तरूप द्रव्य जीवस्थान का अवतार हुआ है। भावप्रमाण पाँच प्रकार का है-आभिनिबोधिक, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल भावप्रमाण । इनमें ग्रन्थ की अपेक्षा श्रुतभावप्रमाण को और अर्थ की अपेक्षा केवल भावप्रमाण को प्रकृत कहा गया है। अर्थाधिकार के प्रसंग में उस (श्रुत) के अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट ये दो अधिकार निर्दिष्ट किये गये हैं। उनमें अंगबाह्य के य चौदह अर्थाधिकार कहे गये हैं—सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, १. धवला पु० १, पृ० ६१ २. धवला पु० ६, पृ० १४१ ३. धवला पु० १, पृ० ६२-६५ ३७२ / षटखण्डागम-परिशीलन Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषेधिका। धवला में आगे इन सबके स्वरूप को भी प्रकट किया गया है।' ___ अंगप्रविष्ट का अधिकार बारह प्रकार का निर्दिष्ट है-आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, नाथधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तकृतदशा, अनुत्तरौपपादिदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद। आगे इनके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए प्रकृत में दृष्टिवाद को प्रयोजनीभूत कहा गया है। पूर्व पद्धति के समान उक्त दृष्टिवाद के प्रसंग में भी आनुपूर्वी, नाम. प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार इन पाँच उपक्रमभेदों का विचार करते हुए नाम के प्रसंग में दृष्टिवाद को गुणनाम कहा गया है, क्योंकि वह दृष्टियों (विविध दर्शनों) का निरूपण करनेवाला है। ___अर्थाधिकार के ये पाँच भेद निर्दिष्ट किये गये हैं--परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चलिका । इनमें परिकर्म के चन्द्रप्रज्ञति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीप-सागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति इन पाँच उपभेदों का निर्देश कर उनके प्रतिपाद्य विषय का भी क्रमशः विवेचन है। ___ परिक्रमादि उपर्युक्त पाँच भेदों में चौथा पूर्वगत है। उसे यहाँ प्रसंगप्राप्त कहा गया है।' अर्थाधिकार के प्रसंग में उसके ये चौदह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-उत्पादपूर्व, अग्रायणीयपूर्व, वीर्यानुप्रवाद, अस्ति-नास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्याननामध्येय, विद्यानुवाद, कल्याणनामध्येय, प्राणावाद, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार। इनमें से प्रत्येक में वर्णित विषय का परिचय कराते हुए उनमें कितने 'वस्तु' व 'प्राभूत' नाम के अधिकार हैं तथा प्रत्येक के पदों का प्रमाण कितना है, इस सबका विवेचन है।" ___इन चौदह पूर्वो में यहाँ दूसरे अग्रायणीयपूर्व को अधिकार प्राप्त बतलाते हुए उसके भी चौदह अर्थाधिकार निर्दिष्ट किये गये हैं-पूर्वान्त, अपरान्त, ध्रुव, अध्र व, चयनलब्धि, अर्धोपम, प्रणिधिकल्प, अर्थ, भौम, व्रतादि, सर्वार्थ, वाल्पनिर्याण, अतीत काल में सिद्ध व बद्ध और अनागत काल में सिद्ध व बद्ध। इन्हें 'वस्तु' नाम का अधिकार कहा गया है। इन चौदह में यहाँ पाँचवाँ चयनलब्धि नाम का वस्तु अधिकार प्रसंगप्राप्त है। ___ अर्थाधिकार के प्रसंग में प्रकृत चयनलब्धि में बोस अर्थाधिकार निर्दिष्ट किये गये हैं, पर उन के नामों का यहाँ उल्लेख नहीं है। उन बीस को प्राभृत नामक अधिकार समझना चाहिए। उनमें यहाँ चतुर्थ प्राभूत अधिकार प्रसंगप्राप्त है। नाम के प्रसंग में यहाँ यह कहा गया है कि वह चूंकि कर्मों की प्रकृति-स्वरूप का वर्णन करनेवाला है, इसलिए उसका 'कर्मप्रकृतिप्राभृत' यह गुण नाम (गौण्यपद नाम) है। उसका १. धवला पु० १, पृ०६६-६८ २. वही, पृ० १०८-१० ३. दृष्टिवाद के ही समान आगे पूर्वगत व अग्रायणीय पूर्व आदि प्रत्येक के विषय में पृथक पृथक् उन पाँच उपक्रम भेदों का प्रसंगानुसार विचार किया गया है, व्याख्या की यही पद्धति रही है। ४. धवला पु० १, पृ० ११४-२२ षट्खण्डागम पर होकाएँ। ३७३ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा नाम 'वेदना कृत्स्नप्राभृत' भी है । वेदना का अर्थ कर्मों का उदय है, उसका वह चूंकि कृत्स्न - पूर्ण रूप से वर्णन करता है, इसलिए उसका 'वेदनाकृत्स्नप्राभृत' यह दूसरा नाम भी गुणनाम (सार्थक नाम) है । ' अर्थाधिकार के प्रसंग में उसके ये चौबीस भेद निर्दिष्ट किये गये हैं—कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति, बन्धन, निबन्धन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय, मोक्ष, संक्रम, लेश्या, लेश्याकर्म, लेश्यापरिणाम, सात असात, दीर्घ ह्रस्व, भवधारणीय, पुद्गलात्त, निधत्त-अनिधत्त, निकाचितअनिकाचित, कर्मस्थिति, पश्चिमस्कन्ध और सर्वत्र (पूर्व के सभी अनुयोगद्वारों से सम्बद्ध) अल्पबहु । इन चौबीस अधिकारों में यहाँ छठा 'बन्धन' अनुयोगद्वार प्रसंगप्राप्त है । " प्रसंग में उस बन्धन अनुयोगद्वार को भी चार प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है— बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान । इनमें से प्रकृत में बन्धक और बन्धविधान ये दो अर्थाधिकार प्रसंगप्राप्त हैं । 3 इनमें बन्धक अर्थाधिकार में ये ग्यारह अनुयोगद्वार हैं एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, एक जीव की अपेक्षा काल, एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, नाना जीवों की अपेक्षा कालानुगम, नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरानुगम भागाभागानुगम और अल्पबहुत्वानुगम । इनमें यहाँ पाँचवाँ द्रव्यप्रमाणानुगम प्रकृत है। उससे पूर्वनिर्दिष्ट जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा आदि आठ अनुयोगद्वारों में से दूसरा द्रव्यप्रमाणानुगम अनुयोगद्वार निकला है। * बन्धविधान चार प्रकार का है— प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध | इनमें प्रकृतिबन्ध मूल और उत्तर प्रकृतिबन्ध के भेद से दो प्रकार का है। उनमें दूसरा उत्तरप्रकृतिबन्ध भी दो प्रकार का है— एक-एक उत्तरप्रकृतिबन्ध और अव्वोगाढ प्रकृतिबन्ध । इनमें भी एक-एक उत्तरप्रकृतिबन्ध के चौबीस अनुयोगद्वार हैं- समुत्कीर्तना, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध, जघन्यबन्ध, अजघन्यबन्ध, सादिकबन्ध, अनादिकबन्ध, ध्रुवबन्ध, अध्रुवबन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, बन्धकाल, बन्धअन्तर, बन्धसंनिकर्ष, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, भागाभागानुगम, परिमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्व जीवस्थानगत प्रकृति समुत्कीर्तनादि पाँच चूलिकाओं का उद्गम उपर्युक्त २४ अनुयोगद्वारों में से प्रथम समुत्कीर्तना अनुयोगद्वार से प्रकृतिसमुत्कीर्तना, स्थानसमुत्कीर्तना और तीन महादण्डक - जीवस्थान की ६ चूलिकाओं में ये पाँच चूलिकाएं १. धवला पु० १, पृ० १२३-२५ २. वही, पृ० १२५ तथा पु० ६, पृ० २३१-३६ ( यहाँ उक्त कृति व वेदना आदि २४ अनुयोगद्वारों में प्ररूपित विषय को भी प्रकट किया गया है ।) ३. धवला पु० १, पृ० १२६ ( ष० ख० पु० १४, पृ० ५६४ में सूत्र ५, ६, ७६७ भी द्रष्टव्य हैं) ४. वही, पृ० १२६ ( ष० ख० पु० ७, पृ० २४ में सूत्र २१, १-२ द्रष्टव्य हैं) ५. धवला पु० १, पृ० १२७ ३७४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकली हैं ।' जीवस्थानगत भावानुगम उन्हीं २४ अनुयोगद्वारों में जो २३वाँ भावानुगम अनुयोगद्वार है उससे जीवस्थान के सत्प्ररूपणादि ८ अनुयोगद्वारों में से ७वाँ भावानुगम अनुयोगद्वार निकला है । * जीवस्थानगत शेष छह (१,३-६ व ८) अनुयोगद्वार अव्वोगाढ-उत्तरप्रकृतिबन्ध दो प्रकार का है - भुजगारबन्ध और प्रकृतिस्थानबन्ध । इनमें से दूसरे प्रकृतिस्थानबन्ध में ये आठ अनुयोगद्वार हैं— सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम । इन आठ अनुयोगद्वारों में से जीवस्थानगत ये छह अनुयोगद्वार निकले हैं - सत्प्ररूपणा ( १ ), क्षेत्र प्ररूपणा (३), स्पर्शनप्ररूपणा (४), कालप्ररूपणा (५) अन्तरप्ररूपणा (६) और अल्पबहुत्वप्ररूपणा (८) । इन छह में पूर्वोक्त द्रव्यप्रमाणानुगम और भावानुगम इन दो को मिलाने पर जीवस्थान के आठ अनुयोगद्वार हो जाते हैं । प्रकृतिस्थानबन्ध के उक्त आठ अनुयोगद्वारों से जीवस्थानगत छह अनुयोगद्वार कैसे निकले हैं तथा उनसे द्रव्यप्रमाणानुगम और भावानुगम ये दो अनुयोगद्वार क्यों नहीं निकले, इसे भी धवला में शंका-समाधानपूर्वक स्पष्ट किया है। 3 जघन्यस्थिति (७) व उत्कृष्ट स्थिति (६) चूलिकाओं का उद्गम स्थितिबन्ध दो प्रकार का है मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध और उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्ध | इनमें दूसरे उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्ध में ये २४ अनुयोगद्वार हैं - अर्धच्छेद, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध, जघन्यबन्ध, अजघन्यबन्ध, सादिबन्ध, अनादिवन्ध, ध्र ुवबन्ध, अध्रुवबन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, बन्धकाल, बन्धअन्तर, बन्धसंनिकर्ष, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, भागाभागानुगम, परिमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम । इनमें अर्धच्छेद दो प्रकार का है— जघन्यस्थितिअर्धच्छेद और उत्कृष्ट स्थितिअर्धच्छेद । इनमें जघन्यस्थितिअर्धच्छेद से जीवस्थान की ७वीं जघन्यस्थिति चूलिका और उत्कृष्टस्थितिअर्धच्छेद से उसकी छठी उत्कृष्टस्थिति चूलिका निकली है । सम्यक्त्वोत्पत्ति ( ८ ) व गति - आगति ( ६ ) चूलिकाएँ बारहवें दृष्टिवाद अंग के परिकर्म आदि पाँच भेदों में दूसरा भेद सूत्र है। उससे वो 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' चूलिका निकली है । इसी दृष्टिवाद के उन पाँच भेदों में जो प्रथम भेद परिकर्म है वह चन्द्रज्ञप्ति आदि के भेद से पाँच प्रकार का है। उनमें पाँचवें भेदभूत व्याख्यात्रज्ञप्ति । १. वही, पृ० १२७ २. व्ही, ३. वही, पृ० १२७-२६ ४. धवला पु० १, पृ० १३० षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ३७५ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से हवीं 'गति-आगति' चलिका निकली है।' जैसा कि पूर्व में निर्देश किया जा चुका है, धवलाकार ने 'एत्तो इमेसि' आदि सूत्र (२) की व्याख्या करते हुए उसमें प्रयुक्त 'एत्तो' पद से प्रमाण को ग्रहण किया है। सूत्रकार भगवान् पुष्पदन्त को उससे क्या अभिप्रेत रहा है, इसे यहाँ तक धवला में विस्तार से स्पष्ट किया गया है। ऊपर के इस विस्तृत विवेचन से यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रस्तुत जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वार और प्रकृतिसमुत्कीर्तनादि (७) चूलिकाएँ बारहवें दृष्टिवाद अंग के अन्तर्गत दूसरे अग्रायणीय पूर्व के कृति-वेदनादि २४ अनयोगद्वारों में चयनलब्धि नामक चौथे कर्मप्रकृतिप्राभत से निकली हैं। ___ आठवी 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' चूलिका दृष्टिवाद अंग के दूसरे भेदस्वरूप 'सूत्र' से और गतिआगति नाम की हवीं चूलिका उसी के पांचवें भेदभूत व्याख्याप्रज्ञप्ति से निकली हैं । आगे के क्षद्रकबन्ध आदि शेष पाँच खण्ड भी उपर्यक्त कर्मप्रकृतिप्राभूत के यथासम्भव भेद -प्रभेदों से निकले हैं। ___ उन सबके उद्गम स्थानों को संक्षेप से षट्खण्डागम १०१ की प्रस्तावना पृ० ७२-७४ की तालिकाओं में देखा जा सकता है: दर्शनविषयक विचार "गइ इंदिए" आदि सूत्र (१,१,२) में निर्दिष्ट गति व इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं के स्वरूप आदि को स्पष्ट करते हए धवला में दर्शनमार्गणा के प्रसंग में दर्शनविषयक विशेष विचार किया गया है। वहाँ सर्वप्रथम 'दृश्यते अनेनेति दर्शनम्' इस निरुक्ति के अनुसार 'जिसके द्वारा देखा जाता है उसका नाम दर्शन है', इस प्रकार से दर्शन का स्वरूप निर्दिष्ट किया है। इस पर यहाँ यह शंका हो सकती थी कि चक्षु इन्द्रिय और प्रकाश के द्वारा भी तो देखा जाता है, अत: उपर्युक्त दर्शन का लक्षण अतिव्याप्ति दोष से दूषित क्यों न होगा। इस प्रकार की शंका को हृदयंगम करते हुए धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि चक्षु इन्द्रिय और प्रकाश चूँकि आत्मधर्म नहीं है-पुद्गलस्वरूप हैं, जब कि दर्शन आत्मधर्म है; इसलिए उनके साथ प्रकृत लक्षण के अतिव्याप्त होने की सम्भावना नहीं है। इस पर भी शंकाकार का कहना है कि 'दृश्' धातु का अर्थ जानना-देखना है। तदनसार 'दृश्यते अनेनेति दर्शनम्' ऐसा दर्शन का लक्षण करने पर ज्ञान और दर्शन इन दोनों में कुछ भी भेद नहीं रहता है। इस शंका का समाधान करते हुए धवला में कहा गया है कि वैसा लक्षण करने पर भी ज्ञान और दर्शन में अभेद का प्रसंग नहीं प्राप्त होता। कारण यह है कि दर्शन जहाँ अन्तर्मुख चित्प्रकाश स्वरूप है, वहाँ ज्ञान बहिर्मुख चित्प्रकाश स्वरूप है। इस प्रकार जब उन दोनों का लक्षण ही भिन्न है तब वे एक कैसे हो सकते हैं-भिन्न ही रहने वाले हैं । इसके अतिरिक्त 'यह घट है और यह पट है' इस प्रकार की प्रतिकर्मव्यवस्था जिस प्रकार ज्ञान १. धवला पु० १,पृ० १३० २. एदं सव्वमवि मणेण अवहारिय 'एत्तो' इदि उत्तं भयवदा पुप्फयंतेण । पु० १, पृ० १३० (पृ० ६१-१३० भी द्रष्टव्य हैं।) ३७६ / षटखण्डागम-परिशीलन Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के द्वारा सम्भव है वसी वह दर्शन के द्वारा सम्भव नहीं है। इससे भी उन दोनों में भिन्नता निश्चित है। ___अन्तरंग और बहिरंग सामान्य के ग्रहण को दर्शन तथा अन्तरंग और बहिरंग विशेष के ग्रहण को ज्ञान मानकर यदि उन दोनों में भेद माना जाय तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि वस्तु सामान्य-विशेषात्कम है, अतः सामान्य का ग्रहण अलग और विशेष का ग्रहण अलग हो; यह घटित नहीं होता है-दोनों का ग्रहण एक साथ होनेवाला है। ऐसा न मानने पर "दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं" इस आगमवचन के साथ विरोध आता है। इससे सिद्ध है कि ज्ञान सामान्य-विशेषात्मक बाह्य पदार्थों को तथा दर्शन सामान्य-विशेषात्मक आत्मस्वरूप को ग्रहण करता है। इस पर यदि यह कहा जाय कि दर्शन का वैसा लक्षण मानने पर “सामान्य का जो ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं"' इस आगमवचन के साथ विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है, तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त आगमवचन में सामान्य ग्रहण से आत्मा का ग्रहण ही विवक्षित है । कारण यह कि वह आत्मा समस्त पदार्थों में साधारण है। उसी आगम वचन में आगे 'बाह्य पदार्थों के आकार को अर्थात् प्रतिकर्मव्यवस्था को न करके' जो यह कहा गया है उससे भी यह स्पष्ट है कि 'सामान्य' शब्द से आत्मा ही अपेक्षित है। आगे उक्त आगम-वचन म पदार्थों की विशेषता को न करके' और भी जो यह कहा गया है उससे भी उपर्युक्त अभिप्राय की पुष्टि होती है। प्रकारान्तर से आगे अवलोकनवृत्ति को जो दर्शन कहा गया है वह भी उपर्युक्त अभिप्राय का पोषक है। कारण यह कि 'आलोकते इति आलोकनम्' इस निरुक्ति के अनुसार आलोकन का अर्थ अवलोकन करनेवाला (आत्मा) होता है, उसके आत्मसंवेदन रूप वर्तन को यहाँ दर्शन कहा है। आगे जाकर विकल्परूप में प्रकाशवृत्ति को भी दर्शन कहा गया है । यह लक्षण भी उसका पूर्वोक्त लक्षणों से भिन्न नहीं है, क्योंकि प्रकाश का अर्थ ज्ञान है, उसके लिए आत्मा की वृत्ति (प्रवृत्ति या व्यापार) होती है. यह दर्शन का लक्षण है। अभिप्राय यह है कि विषय और विषयी (इन्द्रिय) के सम्बन्ध के पूर्व जो अवस्था होती है उसका नाम दर्शन है। यह विषय और विषयी के सम्पात की पूर्व अवस्था आत्मसंवेदनस्वरूप ही है। अतः इसका अभिप्राय भी पूर्वोक्त लक्षणों से भिन्न नहीं है।' इस प्रकार प्रसंगवश यहाँ दर्शनविषयक कुछ विचार किया गया। अनन्तर क्रमप्राप्त दर्शन मार्गणा में चक्षुदर्शनी आदि चार के अस्तित्व के प्ररूपक सूत्र (१,१,१३१) की व्याख्या करते हुए धवला में दर्शन के विषय में प्रकारान्तर से विचार किया गया है। वहाँ चक्षुदर्शन के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि चक्षु से जो सामान्य अर्थ का ग्रहण होता १. जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कटुमायारं। अविसेसिऊण अत्थे दंसणमिदि भण्णदे समए । धवला पु० १, पृ० १४६ तथा पु० ७, पृ० १०० में उद्धृत । अनुयोगद्वार की हरिभद्र विरचित वृत्ति (पृ० १०३) में भी यह उद्धृत है । २. इस सबके लिए धवला पु० १, पृ० १४५-४६ द्रष्टव्य हैं। बट्लण्डागम पर टीकाएँ । ३७७ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है उसे चक्षुदर्शन कहते हैं। ___ यहाँ शंकाकार ने इस चक्षुदर्शन की असम्भावना को प्रकट करते हुए अपना पक्ष इस प्रकार स्थापित किया है--विषय और विषयी के सम्पात के अनन्तर जो प्रथम ग्रहण होता है उसे अवग्रह माना जाता है। प्रश्न है कि वह अवग्रह विधिसामान्य को ग्रहण करता है या प्रतिषेधसामान्य को ? वह बाह्य पदार्थगत विधिसामान्य को तो ग्रहण नहीं करता है, क्योंकि प्रतिषेध से रहित विधिसामान्य अवस्तुरूप है; अतएव वह उसका विषय नहीं हो सकता है। जो ज्ञान प्रतिषेध को विषय नहीं करता है उसकी प्रवृत्ति विधि में सम्भव नहीं है। इसी प्रसंग में आगे प्रतिषेध से उस विधि के भिन्नता-अभिन्नता विषयक विकल्पों को उठाते हुए उसके ग्रहण का निषेध किया गया है। इस प्रकार अवग्रह द्वारा विधिसामान्य के ग्रहण का निराकरण कर आगे वादी ने उसके द्वारा प्रतिषेध सामान्य के ग्रहण का भी निषेध विधिपक्ष में दिये गये दूषणों की सम्भावना के आधार पर किया है । अन्त में निष्कर्ष निकालते हुए उसने कहा है कि इससे निश्चित है कि जो विधि-निषेधरूप बाह्य अर्थ को ग्रहण करता है उसे अवग्रह कहना चाहिए और वह दर्शन नहीं हो सकता, क्योंकि सामान्य ग्रहण का नाम दर्शन है। इसलिए चक्षुदर्शन घटित नहीं होता है। इस प्रकार वादी के द्वारा चक्षुदर्शन के अभाव को सिद्ध करने पर उसके इस पक्ष का निराकरण करते हुए धवला में कहा गया है कि दर्शन के विषय में जो दोष दिये गये हैं वे वहाँ चरितार्थ नहीं होते। कारण यह है कि वह दर्शन अन्तरंग पदार्थ को विषय करता है, न कि बाह्य पदार्थ को; जिसके आश्रय से उन दोषों को उद्भावित किया गया है । वह जिस अन्तरंग अर्थ को विषय करता हैं वह सामान्य-विशेषरूप है, वह न केवल सामान्य रूप है और न केवल विशेष रूप भी है। इस प्रकार जब विधि-सामान्य और प्रतिषेध-सामान्य में उपयोग की प्रवृत्ति क्रम से घटिल नहीं होती है तब उन दोनों में उसकी प्रवृत्ति को युगपत् स्वीकार कर लेना चाहिए। ___ इस पर पुनः यह शंका की गयी है कि वैसा स्वीकार करने पर वह अन्तरंग उपयोग भी दर्शन नहीं ठहरता है, क्योंकि आपके कथनानुसार वह अन्तरंग उपयोग सामान्य-विशेष को विषय करता है, जबकि दर्शन सामान्य को विषय करता है। समाधान में कहा गया है कि 'सामान्य' शब्द से सामान्य-विशेष रूप आत्मा को ही ग्रहण किया जाता है। ___ 'सामान्य' शब्द से आत्मा का ग्रहण कैसे सम्भव है, इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि चक्षुइन्द्रियावरण का क्षयोपशम रूपसामान्य में नियमित है, क्योंकि उसके आश्रय से रूपविशिष्ट अर्थ का ही ग्रहण होता है। इस प्रकार चक्षु इन्द्रियावरण का वह क्षयोपशम रूपविशिष्ट अर्थ के प्रति समान है, और चूंकि वह क्षयोपशम आत्मा से भिन्न सम्भव नहीं है, इसलिए उससे अभिन्न आत्मा भी समान है। इस प्रकार समान के भावरूप वह सामान्य आत्मा ही सम्भव है और चूंकि दर्शन उसे ही विषय करता है, इसलिए अन्तरंग उपयोग के दर्शन होने में कुछ भी विरोध नहीं आता। इस प्रकार से यहाँ अन्य शंका-समाधान पूर्वक प्रकृत चक्षुदर्शन आदि के विषय में विचार किया गया है।' १. धवला पु० १, पृ० ३७८-८२ ३७८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनविषयक कुछ विचार पीछे 'वीरसेन की न्यायनिपुणता' शीर्षक में भी हम कर आये हैं। ___ आगे प्रकृति समुत्कीर्तन चूलिका में दर्शनावरणीय के प्रसंग में भी दर्शन के स्वरूप का निर्देश है । तदनुसार ज्ञान के उत्पादक प्रयत्न से अनुविद्ध स्वसंवेदन को दर्शन कहा गया है। वह भी आत्मविषयक उपयोग ही है। इसे कुछ और भी स्पष्ट करते हुए आगे धवला में उल्लेख है कि चाइन्द्रियजन्य ज्ञान के उत्पादक प्रयत्न से सम्बद्ध आत्मसंवेदन के होने पर 'मैं रूप के देखने में समर्थ हूँ' इस प्रकार की सम्भावना का जो कारण है उसे चक्षुदर्शन समझना चाहिए । कितने ही विद्वान् बाह्य पदार्थ के सामान्य ग्रहण को दर्शन मानते हैं। उनके इस अभिमत का निराकरण करते हए पूर्व के समान समस्त पदार्थों में साधारण होने से आत्मा को सामान्य मानकर तद्विषयक उपयोग को ही दर्शन कहा गया है। अन्य कितने ही आचार्य 'केवलज्ञान ही एक आत्मा और बाह्य पदार्थों का प्रकाशक है' यह कहते हुए केवलदर्शन के अभाव को प्रकट करते हैं। उनके इस अभिप्राय का निराकरण करते हुए यहाँ धवला में यह कहा गया है कि केवलज्ञान पर्याय है, अत: उसके अन्य पर्याय सम्भव नहीं है। इस कारण उसके आत्मा और बाह्य पदार्थ दोनों के ग्रहण रूप दो प्रकार की शक्ति सम्भव नहीं है, अन्यथा अनवस्था दोष का प्रसंग अनिवार्यतः प्राप्त होगा।' प्रस्तुत षट्खण्डागम के द्वितीय क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों में प्रथम स्वामित्व अनुयोगद्वार है। उसमें दर्शनमार्गणा के प्रसंग में चक्षुदर्शनी व अचक्षुदर्शनी आदि किस कारण से होते हैं. इस पर विचार किया गया है। उस प्रसंग में वादी ने दर्शन के अभाव को सिद्ध करने के लिए अपने पक्ष को प्रस्तुत करते हुए यह कहा है कि दर्शन है ही नहीं, क्योंकि उसका कुछ भी विषय नहीं है। यदि यह कहा जाय कि वह बाह्य अर्थगत सामान्य को विषय करता है तो यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि वैसा स्वीकार करने पर केवल दर्शन के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। इसे स्पष्ट करते हुए वादी कहता है कि तीनों काल सम्बन्धी अर्थ और व्यंजनपर्यायोंरूप समस्त द्रव्यों को केवलज्ञान जानता है। वैसी अवस्था में केवलदर्शन का कुछ भी विषय शेष नहीं रह जाता। तथा केवलज्ञान द्वारा जाने गये विषय को ही यदि केवलदर्शन ग्रहण करता है तो गृहीत के ग्रहण से कुछ प्रयोजन सिद्ध होनेवाला नहीं। यह कहना भी उचित नहीं कि केवलज्ञान जब समस्त पदार्थगत विशेष मात्र को ग्रहण करता है और केवलदर्शन समस्त पदार्थगत सामान्य को ग्रहण करता है तब केवलदर्शन निविषय कहाँ रहा ? ऐसा न कह सकने का कारण यह है कि वैसा स्वीकार करने पर संसार अवस्था में आवरण के वश क्रम से प्रवृत्त होनेवाले ज्ञान और दर्शन द्वारा द्रव्य के न जानने का प्रसंग प्राप्त होगा। कारण यह कि आपके ही मतानुसार केवलज्ञान का व्यापार तो सामान्य से रहित केवल विशेषों में है और दर्शन का व्यापार विशेष से रहित केवल सामान्य में है। इस प्रकार वे दोनों ही द्रव्य को नहीं जान सकते। यही नहीं, केवली के द्वारा भी द्रव्य का ग्रहण न हो सकेगा, क्योंकि सर्वथा एकान्तरूप में स्वीकृत सामान्य और विशेष के विषय में क्रम से व्याप्त रहने वाले केवलदर्शन और केवलज्ञान की द्रव्य के विषय में प्रवृत्ति का विरोध है। इसके अति १. धवला पु० ६, पृ० ३२-३४ षट्लण्डागम पर टीकाएँ । ३७६ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिक्त एक-दूसरे से सर्वथा निरपेक्ष रहनेवाले उन सामान्य और विशेष का अस्तित्व भी सम्भव नहीं है जिन्हें केवलदर्शन और केवलज्ञान विषय कर सकें। और जो असत् है वह प्रमाण का विषय नहीं हो सकता । इस परिस्थिति में प्रमेय के अभाव में उसको विषय करनेवाला प्रमाण भी सम्भव नहीं है। इससे उस दर्शन का अभाव ही सिद्ध होता है। इस प्रकार वादी द्वारा प्रस्तुत उपर्युक्त अभिमत का निराकरण करते हुए धवला में कहा गया है कि दर्शन का अभाव नहीं हो सकता। कारण यह कि सूत्र में आठ कर्मों का निर्देश किया गया है । पर आवरणीय (दर्शन) के अभाव में आवरक (दर्शनावरणीय कर्म) का अस्तित्व सम्भव नहीं है। इससे उस दर्शन का अस्तित्व सिद्ध है। इस पर यदि यह कहा जाय कि आवरणीय भी न रहे, तो ऐसा कहना उचित न होगा, क्योंकि "चक्षुदशिनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी क्षयोपशमलब्धि से तथा केवलदर्शनी क्षायिकलब्धि से होते हैं" इस प्रकार उनके अस्तित्व का प्रतिपादक जिनवचन' देखा जाता है। आगे वहाँ जीव के लक्षणभूत ज्ञानदर्शन का निर्देश करनेवाली दो गाथाओं को उद्धृत करते हुए कहा है कि इत्यादि उपसंहार सूत्र भी देखा जाता है। इस प्रकार धवलाकार द्वारा दर्शन के अभावविषयक उपर्युक्त अभिमत का निराकरण आगम के आधार पर किया गया है। इससे वहाँ यह शंका उठायी गयी है कि भले ही आगम प्रमाण से दर्शन का अस्तित्व सिद्ध होता हो, किन्तु उसका अस्तित्व युक्ति से तो सिद्ध नहीं होता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि जिस आगमवचन के आश्रय से उस दर्शन के अस्तित्व को सिद्ध किया गया है वह युक्तियों से बाधित नहीं होता। इस पर शंकाकार ने भी कहा है कि यथार्थ युक्ति आगम से भी बाधित नहीं होना चाहिए। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह ठीक है, यथार्थ युक्ति आगम से बाधित नहीं होती। पर आपकी वह युक्ति यथार्थ नहीं है, इसलिए वह आगम से अवश्य बाधित है । इसे और स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि ज्ञान केवल विशेष को ग्रहण नहीं करता है, क्योंकि द्रव्य के सामान्य-विशेषात्मक होने से वह जात्यन्तर रूपता को प्राप्त देखा जाता है। ज्ञान जब तक दोनों नयों के विषय को न ग्रहण करे तब तक वह साकार नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति के होते हुए दर्शन का अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि उसका व्यापार बाह्य पदार्थ को छोड़कर अन्तरंग अर्थ में है। धवला में एक बार फिर से यहाँ केवल ज्ञान के द्वारा अन्तरंग और बहिरंग अर्थ के जानने का निषेध करते हए अन्तरंग उपयोगरूप दर्शनविषयक मान्यता का "जं सामण्णग्गहनं'' आदि सूत्र के साथ सम्भावित विरोध का परिहार भी कर दिया गया है। इसी प्रसंग में आगे शंकाकार ने कहा है कि उक्त प्रकार से सामान्य दर्शन और केवल दर्शन के सिद्ध हो जाने पर भी शेष चक्षुदर्शन आदि का सद्भाव सिद्ध नहीं होता, क्योंकि वे बाह्य अर्थ को ही विषय करते हैं। इसकी पुष्टि शंकाकार ने "चक्खूण जं पयासदि" आदि दो गाथाओं द्वारा की है। ___ इस पर धवलाकार ने 'इन गाथाओं के परमार्थ को नहीं समझा है' ऐसा कहते हुए पदच्छेद १. ष०ख० सूत्र २,१,५६-५६ (पु०७, पृ०६६-१०३) ३८० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वक उन दोनों गाथाओं के यथार्थ अर्थ को प्रकट किया है जो ध्यान देने योग्य है। इस प्रकार धवलाकार ने अनेक प्रसंगों पर प्रकृत दर्शन उपयोग के विषय में ऊहापोहपूर्वक विशद विचार किया है और निष्कर्ष के रूप में सर्वत्र स्वरूप संवेदन को दर्शन सिद्ध किया है। उपशामन-विधि और क्षपण-विधि प्रकृत सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में मनुष्यगति के आश्रय से मनुष्यों में निर्दिष्ट चौदह गुणस्थानों के प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि इस सूत्र (१,१,२७) का अर्थ पूर्व में-ओघ के प्रसंग में कहा जा चुका है। पर पूर्व में कहीं उपशामन विधि और क्षपण-विधि का प्ररूपण नहीं हुआ है, इसलिए हम यहाँ उससे सम्बद्ध उपशामक और क्षपक के स्वरूप के ज्ञापनार्थ उसकी संक्षेप में प्ररूपणा करते हैं। ऐसी सूचना करते हुए उन्होंने प्रथमतः धवला में उपशामनविधि की प्ररूपणा इस प्रकार की है____ अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और मिथ्यात्व इन सात प्रकृतियों को असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्त संयत तक-इनमें से कोई भी उपशमा सकता है। अपने स्वरूप को छोड़कर अन्य प्रकृति के रूप में रहना, यह अनन्तानुबन्धियों का उपशम है। सम्यक्त्व आदि तीन दर्शनमोह प्रकृतियों का उदय में नहीं रहना, यह उनका उपशम है। इसका कारण यह है कि उनके उपशान्त होने पर भी उनमें अपकर्षण, उत्कर्षण और प्रकृतिसंक्रमण सम्भव है। ___अपूर्वकरण में एक भी कर्म का उपशम नहीं होता। किन्तु अपूर्वकरणसंयत प्रत्येक समय में अनन्तगुणी विशुद्धि से वृद्धि गत होता हुआ अन्तर्मुहूर्त-अन्तर्मुहूर्त के क्रम से एक-एक स्थितिकाण्डक का घात करता है। इस प्रकार से वह संख्यात हजार स्थितिखण्डों का घात करता है। वह उतने ही स्थितिबन्धापसरणों को भी करता है। एक-एक स्थिति काण्डक काल के भीतर वह संख्यात हजार अनुभागखण्डों का घात करता है। प्रत्येक समय में वह असंख्यातगुणित श्रेणि के क्रम से प्रदेश निर्जरा को करता है। वह जिन अप्रशस्त कर्मों को नहीं बाँधता है उनके प्रदेशपिण्ड को असंख्यात गुणित के क्रम से अन्य बँधनेवाली प्रकृतियों में संक्रान्त करता है। ___इस प्रकार वह अपूर्वकरणकाल को बिताकर अनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट होता हुआ अन्तर्मुहूर्त तक उसी विधि के साथ स्थित रहता है । पश्चात् अन्तर्महर्त में वह अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि बारह कषायों और नौ नोकषायों के अन्तरकरण को करता है। अन्तरकरण के समाप्त होने पर वह प्रथम समय से लेकर आगे अन्तर्मुहूर्त जाकर नपुंसक वेद का उपशम करता १. धवला पु०७, पृ० ६६-१०२ २. जैसे-पु० १, १४५-४६ व आगे पृ० ३७६-८२; पु० ६, पृ० ३२-३४; पृ० ७, पृ०६६ १०२; और पु० १३, पृ० ३५४-५६ ३. अन्तर, विरह और शून्यता ये समानार्थक शब्द हैं; इस प्रकार के अन्तर को करना अन्तर करण कहलाता है । अभिप्राय यह है कि नीचे और ऊपर की कितनी ही स्थितियों को छोड़कर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बीच की स्थितियों को शून्य या उनका अभाव कर देना, अन्तरक रण कहा जाता है । -पु०१, पृ० २१२ का टिप्पण २ षटखण्डागम पर टीकाए । ३८१ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। उपशम का अर्थ है कर्म का उदय, उदीरणा, अपकर्षण, उत्कर्षण, परप्रकृतिसंक्रमण, स्थितिकाण्डक घात और अनुभागकाण्डक घात के बिना सत्ता में स्थित रहना। तत्पश्चात् वह अन्तर्मुहर्त जाकर नपुंसक वेद की उपशामन विधि के अनुसार स्त्रीवेद को उपशमाता है। तदनन्तर अन्तर्मुहुर्त जाकर उसी विधि से वह पुरुषवेद के चिरकालीन सत्त्व को और हास्यादि छह नोकषायों को एक साथ उपशमाता है। आगे एक समय कम दो आवलियाँ जाकर वह पुरुषवेद के नवीन बन्ध को उपशमाता है। तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर प्रत्येक समय में असंख्यात गणित श्रेणि के क्रम से संज्वलन क्रोध के चिरसंचित सत्त्व के साथ अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण दोनों प्रकार के क्रोध को एक साथ उपशमाता है। तत्पश्चात् एक समय कम दो आवलियां जाकर संज्वलन-क्रोध के नवीन बन्ध को उपशमाता है। इसी पद्धति से वह आगे दो प्रकार के मान, माया आदि के साथ संज्वलनमान व माया आदि के चिरकालीन सत्त्व को एक साथ व एक समय कम दो आवलियां जाकर संज्वलन मान आदि के नवीन बन्ध को उपशमाता है। इस प्रकार यह प्रक्रिया बादर-संज्वलन-लोभ तक चलती है। अनन्तर समय में वह सूक्ष्म कृष्टिरूप संज्वलन लोभ का वेदन करता हुआ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान को छोड़ सूक्ष्मसाम्परायिक संयत हो जाता है। तत्पश्चात् वह अपने अन्तिम समय में उस सूक्ष्म कृष्टिरूप संज्वलन लोभ को पूर्ण रूप में उपशमा कर उपशान्तकषाय-वीतरागछद्मस्थ हो जाता है । इस प्रकार से यहाँ धवला में मोहनीय के उपशमाने की विधि की प्ररूपणा की गई है। ____ आगे कृतप्रतिज्ञा के अनुसार मोह की क्षपणा के विधान की भी प्ररूपणा करते हुए सर्वप्रथम धवला कार द्वारा क्षपणा के स्वरूप में यह कहा गया है कि जीव से आठों कर्मों का सर्वथा विनष्ट या पृथक् हो जाने का नाम क्षपणा या क्षय है। ये आठों कर्म मूल व प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से अनेक प्रकार के हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत अथवा अप्रमत्तसंयत में से कोई भी तीनों करणों को करके अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में प्रथमतः अनन्तानुबन्धी क्रोधादि चार का एक साथ क्षय करता है। पश्चात् क्रम से पुनः उन तीन करणों को करके अनिवृत्तिकरण के संख्यात बहुभाग को बिताकर मिथ्यात्व का क्षय करता है। तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर सम्यग्मिथ्यात्व का और फिर अन्तर्मुहुर्त जाकर सम्यक्त्व का क्षय करता है। इस प्रकार क्षायिकसम्यग्दृष्टि होकर वह क्रम से अधःकरण को करके अन्तर्महर्त में अपूर्वकरण हो जाता है। अपूर्वकरणसंयत होकर वह इस गुणस्थान में एक भी कर्म का क्षय नहीं करता है। पर प्रत्येक समय में वह असंख्यात गुणित श्रेणि से प्रदेशनिर्जरा को करता है। तत्पश्चात् पूर्वोक्त क्रम से इस गुणस्थान में स्थितिकाण्डक घात आदि को करता हुआ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रविष्ट होता है । इस अनिवृत्तिकरण के संख्यात बहुभाग को अपूर्वकरण में निर्दिष्ट प्रक्रिया के अनुसार बिताकर उसका संख्यातवाँ भाग शेष रह जाने पर वह निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरकगति, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय जाति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियों का क्षय करता है और तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्या १. धवला पु० १, पृ० २१०-१४ ३८२ / षट्खण्डागम-परिशीलन . Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख्यानावरण क्रोधादिरूप आठ कषायों का एक साथ क्षय करता है । इस प्रसंग में यहाँ धवलाकार ने सत्कर्मप्राभृत और कषायप्राभृत के अनुसार दो भिन्न मतों का उल्लेख किया है और अनेक शंका समाधानपूर्वक उनके विषय में विचार करते हुए उन दोनों को ही संग्राह्य कहा है । उस सबकी चर्चा आगे 'मतभेद' के प्रसंग में हम करेंगे । उक्त दोनों उपदेशों के अनुसार आगे-पीछे उन सोलह प्रकृतियों और आठ कषायों के क्षय को प्राप्त हो जाने पर अन्तर्मुहूर्त जाकर वह चार संज्वलन और नौ नोकषायों के अन्तरकरण को करता है । उन चार संज्वलन कषायों में जो भी एक उदय को प्राप्त हो उसकी तथा नौ नोकषायों के अन्तर्गत तीन वेदों में भी जो एक उदय को प्राप्त हो उसकी प्रथम स्थिति को अन्तर्मुहूर्तं मात्र तथा शेष ग्यारह प्रकृतियों की प्रथम स्थिति को एक आवली मात्र करता है । अन्तरकरण करने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर यह नपुंसकवेद का क्षय करता है । पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर स्त्रीवेद का क्षय करता है । फिर अन्तर्मुहूर्त जाकर सवेद रहने के द्विचरम समय में पुरुषवेद के चिरसंचित सत्त्व के साथ छह नोकषायों का एक साथ क्षय करता है । तत्पश्चात् दो आवली मात्र काल जाकर पुरुषवेद का क्षय करता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त - अन्तर्मुहूर्त जाकर वह क्रम से संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान और संज्वलन माया का क्षय करता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में वह सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान को प्राप्त होता है । वह सूक्ष्मसाम्परायिक संयत भी अपने अन्तिम समय में संज्वलन लोभ का क्षय करता है । अनन्तर समय में वह क्षीणकषाय होकर अन्तर्मुहूर्त काल के बीतने पर अपने क्षीणकषाय काल के द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला इन दोनों ही प्रकृतियों का एक साथ क्षय करता है । इसके बाद के समय में वह पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पाँच अन्तराय इन चौदह प्रकृतियों का क्षय अपने क्षीणकषाय काल के अन्तिम समय में करता है । इन साठ कर्मों के क्षीण हो जाने पर वह सयोगी जिन हो जाता है । वह सयोगकेवली किसी कर्म का क्षय नहीं करता है, वह क्रम से विहार करके योगों का निरोध करता हुआ अयोगकेवली हो जाता है । वह भी अपने द्विचरम समय में अनुदय प्राप्त कोई एक वेदनीय और देवगति आदि बहत्तर प्रकृतियों का क्षय करता है । तत्पश्चात् अनन्तर समय में वह उदयप्राप्त वेदनीय और मनुष्यगति आदि तेरह प्रकृतियों का क्षय करता है । अथवा मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी के साथ वह अयोगकेवली द्विचरम समय में तिहत्तर और अन्तिम समय में बारह प्रकृतियों का क्षय करता है । मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी के क्षय के विषय में कुछ मतभेद रहा है । आचार्य 'पूज्यवाद आदि के मतानुसार अनुदय प्राप्त उस मनुष्यगत्यानुपूर्वी का क्षय अयोगकेवली के अन्तिम समय में होता है', किन्तु अन्य आचार्यों के मतानुसार उस का क्षय अयोगकेवली के द्विचरम समय में होता है।" उपर्युक्त विधि से समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर जीव नीरज होता हुआ सिद्ध हो जाता है । इस प्रकार धवला में प्रसंग पाकर मोहनीय कर्म के क्षय की विधि का निरूपण किया गया है । १. स० स० १०-२ २. कर्मप्रकृति की उपा० यशोवि० टीका पृ० ६४ षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ३८३ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकेन्द्रियादि जीवों की व्यवस्था ____ इसी सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में आगे इन्द्रियमार्गणा के प्रसंग में एकेन्द्रियादि जीवों के अस्तित्व के प्ररूपक सूत्र (१,१,३३) की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने प्रथमतः ‘इन्द्रनात् इन्द्रः आत्मा, तस्य लिंगम् इन्द्रियम् । इन्द्रेण सृष्टमिति वा इन्द्रियम्' इस निरुक्ति के अनुसार इन्द्र का अर्थ आत्मा करके उसके अर्थज्ञान में कारणभूत लिंग को अथवा उसके अस्तित्व के साधक लिंग को इन्द्रिय कहा है। प्रकारान्तर से इन्द्र का अर्थ नामकर्म करके उसके द्वारा जो रची गयी है उसे इन्द्रिय कहा गया है। इसका आधार सम्भवतः सर्वार्थसिद्धि (१-१४) रही है। तत्पश्चात मल में उसके द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनके भेद-प्रभेदों को भी धवला में स्पष्ट किया गया है। इस प्रसंग में यहाँ यह शंका की गयी है कि चक्षु आदि इन्द्रियों का क्षयोपशम स्पर्शन इन्द्रिय के समान समस्त आत्मप्रदेशों में उत्पन्न होता है अथवा प्रतिनियत आत्मप्रदेशों में। इन दोनों विकल्पों में उस क्षयोपशम की असम्भावना को व्यक्त करते हुए आगे शंकाकार कहता है कि समस्त आत्मप्रदेशों में उनका क्षयोपशम होना सम्भव नहीं है, क्योंकि वैसा होने पर समस्त अवयवों के द्वारा रूप-रसादि की उपलब्धि होना चाहिए, पर वैसा देखा नहीं जाता है। प्रतिनियत आत्मप्रदेशों में भी उनका क्षयोपशम नहीं हो सकता है। इसका कारण यह है कि आगे वेदनासूत्रों में जो कर्मवेदनाओं को. यथासम्भव स्थित, अस्थित और स्थित-अस्थित कहा गया हैं' उससे जीवप्रदेशों की परिभ्रमणशीलता निश्चित है। तदनुसार जीवप्रदेशों के संचरमाण हीने पर सब जीवों के अन्धता का प्रसंग प्राप्त होता है । __इस शंका के समाधान में धवला में कहा गया है कि उपर्युक्त दोष की सम्भावना नहीं है । कारण यह है कि चक्षुरादि इन्द्रियों का क्षयोपशम तो समस्त जीवप्रदेशों में उत्पन्न होता है. किन्तु उन सब जीवप्रदेशों के द्वारा जो रूपादि की उपलब्धि नहीं होती है उसका कारण उस रूपादि की उपलब्धि में सहायक जो बाह्य निर्व त्ति है वह समस्त जीवप्रदेशों में व्याप्त नहीं है। इस प्रकार धवलाकार ने अन्य शंका-समाधानपूर्वक इस विषय में पर्याप्त ऊहापोह किया है। आगे स्वरूप निर्देशपूर्वक धवला में चक्षुरादि बाह्य निर्व त्ति, इन्द्रियों के आकार और उनके प्रदेश प्रमाण को प्रकट करते हुए उपकरणेन्द्रिय के बाह्य व अभ्यन्तर भेदों के साथ भावेन्द्रिय के लब्धि और उपयोग भेदों को भी स्पष्ट किया गया है। अन्त में एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जीवों के स्वरूप को दिखलाते हुए उसी सिलसिले में स्पर्शनादि इन्द्रियों के स्वरूप को भी स्पष्ट कर दिया गया है। इसी प्रकार आगे भी इस सत्प्ररूपणा में कायादि अन्य मार्गणाओं के प्रसंग में भी विवक्षित विषय का आवश्यकतानुसार धवला में विवेचन किया गया है । जैसे-योगमार्गणा के प्रसंग में केवलिसमुद्घात का तथा ज्ञानमार्गणा के प्रसंग में मतिज्ञानादि ज्ञानभेदों का।' १. सूत्र ४,२,११,१-१२, पृ० ३६४-६६ २. धवला पु० १, पृ० २३१-४६ ३. वही, १,३००-४ ३५३-६० ३८४/ षट्खण्डागम-परिशीलन . Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलाप प्रकृत सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के अन्तर्गत समस्त (१७७) सूत्रों की व्याख्या कर चुकने पर आगे धवलाकार ने उनकी प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा की है।' यहाँ 'प्ररूपणा' से उनका क्या अभिप्राय रहा है, इसे स्पष्ट करते हुए आगे उन्होंने कहा है कि ओघ और आदेश की अपेक्षा गुणस्थानों, जीवसमासों, पर्याप्तियों, प्राणों, संज्ञाओं, गत्यादि चौदह मार्गणाओं और उपगोगों के विषय में पर्याप्त-अपर्याप्त विशेषणों से विशेषित करके जो जीवों की परीक्षा की जाती है उसका नाम प्ररूपणा है । यह कहते हुए उन्होंने आगे 'उक्तं च' निर्देश के साथ इस गाथा को उद्धृत किया है गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य । उवजोगो वि य कमसो बीसं तु परूवणा भणिया ।। इसके आश्रय से प्ररूपणा के इन बीस भेदों का निर्देश किया है.---- १. गणस्थान, २. जीवसमास, ३. पर्याप्ति, ४. प्राण, ५. संज्ञा, ६-१८. चौदह मार्गणायें और २०. उपयोग। ___आगे धवला में यह सूचना की गई है कि शेष प्ररूपणाओं का अर्थ कहा जा चुका है, इससे उनकी पुनः प्ररूपणा न करके यहाँ प्राण, संज्ञा और उपयोग इन प्ररूपणाओं का अर्थ कहा जाता है। तदनुसार आगे धवला में प्राण, संज्ञा और उपयोग इनका स्वरूप स्पष्ट करते हए उनमें प्राण और संज्ञा के भेदों का भी निर्देश कर दिया गया है।' यहाँ इस प्रसंग में यह शंका की गई है कि गाथा में निर्दिष्ट यह बीस प्रकार की प्ररूपणा सूत्र के द्वारा कही गई है या नहीं। यदि सूत्र द्वारा वह नहीं कही गई है तो यह प्ररूपणा नहीं हो सकती, क्योंकि वह सूत्र में अनुक्त अर्थ का प्रतिपादन करती है । और यदि वह सूत्र में कही गई है तो जीवसमास, प्राण, पर्याप्ति, उपयोग और संज्ञा इनका मार्गणाओं में जैसे अन्तर्भाव होता है वैसा कहना चाहिए। __ इस शंका के समाधान में धवलाकार ने 'सूत्र में अनुक्त' रूप दूसरे पक्ष का निषेध करते हए जीवसमास आदि का मार्गणाओं में जहाँ अन्तर्भाव सम्भव है वहाँ उसे दिखला दिया है। ____ आगे 'प्ररूपणा से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है' यह पूछने पर उसके उत्तर में कहा गया है कि सूत्र के द्वारा जिन अर्थों की सूचना की गई है उनके स्पष्टीकरण के लिए इस प्रकरण के द्वारा वह वीस प्रकार की प्ररूपणा कही जा रही है।' इम प्रकार सूत्र से सूचित होने के कारण धवलाकार ने उन बीस प्रर.पणाओं को वर्णनीय १. संपहि संतसुतविवरणसमत्ताणंतर तेसि परूवणं भणिस्सामो ।--धवला १० २, पृ० ४११ २. परूवणा णाम कि उत्तं होदि ? ओघादेसेहि गुणेसु जीवसभागेनु पज्जत्तीसु पाणेसु सणासु गदीसु इंदिएमु काएसु जोगेस वेदेसु कसाएसु णाणेसु संजमेम् दमणेस लेस्सासु भविएसु अभविएसु सम्मत्तेसु सण्णि-असण्णीसु आहारि अणाहारीमु उवजोगेम च पज्जतापज्जत्तविसेसणेहि विसेसिऊण जा जीवपरिक्खा सा प्ररूवणा णाम । --- धवला पृ० २, पृ० ४११ ३. धवला पु०२, पृ०४१२-१३ ४. धवला पु० २, पृ० ४१३-१५ षटखण्डागम पर टीकाएँ / ३८५ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बतलाकर ओघ और आदेश की अपेक्षा गुणस्थानों और मार्गणाओं में उनके अस्तित्व को प्रकट किया है । यथा बीस प्ररूपणाएं - धवलाकार ने इन बीस प्ररूपणाओं का वर्णन प्रथमतः ओघ ( गुणस्थानों) में और तत्पश्चात् आदेश (गति इन्द्रिय आदि मार्गणाओं) में क्रम से सामान्य जीव, पर्याप्त जीव और अपर्याप्त जीव इन तीन के आश्रय से किया है । सर्वप्रथम यहाँ सामान्य से जीवों में उन बीम प्ररूपणाओं के अस्तित्व को प्रकट करते हुए सभी (१४) गुणस्थानों का और सभी (१४) जीवसमासों का अस्तित्व दिखाया गया है। सिद्धों की अपेक्षा अतीत गुणस्थान और अतीत जीवसमास के भी अस्तित्व को प्रकट किया गया है।. पर्याप्तियों में संज्ञी पंचेन्द्रियों में पर्याप्तता की अपेक्षा ६ पर्याप्तियों और अपर्याप्तता की अपेक्षा ६ अपर्याप्तियों के अस्तित्व को दिखाया गया है । असंज्ञी पंचेन्द्रिय आदि द्वीन्द्रिय पर्यन्त पर्याप्त अपर्याप्तों में क्रम से ५ पर्याप्तियों और ५ अपर्याप्तियों के तथा एकेन्द्रिय पर्याप्त अपर्याप्तों की अपेक्षा ४ पर्याप्तियों और ४ अपर्याप्तियों के अस्तित्व को प्रकट किया गया है । सिद्धों की अपेक्षा अतीत पर्याप्ति के भी अस्तित्व को दिखलाया गया है। प्राणों में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तों के १०, अपर्याप्तों के ७; असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तों के ६, अपर्याप्तों के ७; चतुरिन्द्रिय पर्याप्तों के ८, अपर्याप्तों के ६; त्रीन्द्रिय पर्याप्तों के ७, अपर्याप्तों के ५; दीन्द्रिय पर्याप्तों के ६, अपर्याप्तों के ४; तथा एकेन्द्रिय पर्याप्तों के ४ व अपर्याप्तों के ३ प्राणों के अस्तित्व को प्रकट किया गया है। सिद्धों की अपेक्षा अतीत प्राण को भी दिखलाया गया है । इसी पद्धति से आगे की प्ररूपणाओं में संज्ञाओं, पृथक्-पृथक् गति इन्द्रियादि १४ मार्गणाओं और उपयोगों के अस्तित्व को बतलाया गया है। उपयोग के प्रसंग में साकार उपयोगयुक्त, अनाकार उपयोगयुक्त और एक साथ साकार - अनाकार उपयोगयुक्त (केवली व सिद्धों की अपेक्षा) जीवों के अस्तित्व को प्रकट किया गया है ।" इस प्रकार प्रथमतः धवला में जीवविशेष की विवक्षा न करके ओघ आलाप के रूप में सामान्य से जीवों में उपर्युक्त बीस प्ररूपणाओं के अस्तित्व को दिखलाकर आगे यथाक्रम से वहाँ पर्याप्त ओघआलाप, अपर्याप्त ओघआलाप, मिथ्यादृष्टि ओघआलाप, मिथ्यादृष्टि पर्याप्त ओघ आलाप, मिथ्यादृष्टि अपर्याप्त ओघआलाप तथा इसी पद्धति से आगे सासादन सम्यग्दृष्टि आदि अन्य गुणस्थानों में सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त ओघ आलापों में उक्त बीस प्ररूपणाओं के यथासम्भव अस्तित्व को प्रदर्शित किया गया है । उदाहरण के रूप में यहाँ पर्याप्त व अपर्याप्त ओघआलापों को स्पष्ट किया जाता है। पर्याप्त ओघआलाप जैसे सामान्य से पर्याप्त जीवों में (१) गुणस्थान चौदह पर अतीत गुणस्थान का अभाव; (२) जीवसमास सात ( पर्याप्त ) पर अतीत जीवसमास का अभाव, (३) पर्याप्तियाँ क्रम से संज्ञी असंज्ञी पंचेन्द्रिय आदि के क्रम से छह, पाँच व चार अतीत पर्याप्त का अभाव ; ( ४ ) संज्ञीअसंज्ञी पंचेन्द्रिय आदि के प्राण क्रम से दस, नौ, आठ, सात, छह व चार अतीतप्राण का अभाव; (५) संज्ञाएँ चार व क्षीणसंज्ञा भी, (६) गतियाँ चार, गति का अभाव, (७) जातियाँ एकेन्द्रिय आदि पाँच, अतीत जाति का अभाव (८) काय पृथिवी आदि छह, अतीतकाय का १. धवला पु० २, पृ० ४१५-२० ३८६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभाव; ( ६ ) योग औदारिक मिश्र, वैक्रियिक मिश्र, आहारक मिश्र और कार्मण इन चार के बिना शेष ग्यारह व अयोग; (१०) वेद तीन, अपगत वेद भी; (११) कषाय चार, अकषाय भी; (१२) ज्ञान आठ (तीन अज्ञान के साथ ) : (१३) संयम सात (असंयम व संयमासंयम के साथ), संयम - असंयम-संयमासंयम का अभाव ( सिद्धों की अपेक्षा); (१४) दर्शन चार, (१५) लेश्या द्रव्य व भाव की अपेक्षा छह, अलेश्य का अभाव (१६) भव्यसिद्धिक व अभव्यसिद्धिक, न भव्यसिद्धिक न अभव्यसिद्धिकों का अभाव ; ( १७ ) सम्यक्त्व छह ( मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टि के साथ); (१८) संज्ञी व असंज्ञी, न संज्ञी न असंज्ञी का अभाव ; (१६) आहारी व अनाहारी, (२०) साकार उपयोग युक्त, अनाकार उपयोग युक्त, तथा युगपत् साकार-अनाकार उपयोग युक्त । १ इसे एक दृष्टि में इस प्रकार देखा जा सकता है— पर्याप्त सामान्य ओघ आलाप (१) गुणस्थान - मिथ्यादृष्टि आदि १४ (२) जीवसमास – एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त आदि ७ (३) पर्याप्ति - संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त ६, असंज्ञी पंचेन्द्रिय आदि पर्याप्त ५ तथा एकेन्द्रिय पर्याप्ति ४ (४) प्राण - संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त १०, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त ६, चतुरिन्द्रिय प०८, त्री० प० ७, द्वी० प० ६, एकेन्द्रिय प० ४ (५) संज्ञा - आहार, भय, मैथुन व परिग्रह (६) गति - चारों गतियाँ (७) इन्द्रिय-- पाँचों इन्द्रियाँ (८) काय - - छहों काय (६) योग - औ० मिश्र, बै० मिश्र, आ० मिश्र व कार्मण के बिना ११ (१०) वेद - तीनों व अपगत वेद भी (११) कषाय - चारों व अकषाय भी (१२) ज्ञान - आठों ज्ञान (१३) संयम - सामायिक, छेदो०, परि० वि०, सूक्ष्मसा०, यथाख्यात, संयतासंयत व असंयत । (१४) दर्शन - ४ चक्षुदर्शनादि (१५) लेश्या - ६ द्रव्यलेश्या व ६ भावलेश्या (१६) भव्य - भव्य व अभव्य (१७) सम्यक्त्व - क्षायिक, वेदक, औप०, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व व मिथ्यात्व (१८) संज्ञी संज्ञी व असंज्ञी (१६) आहार - आहारक व अनाहारक (२०) उपयोग -- साकार, अनाकार, युगपत् साकार- अनाकार १. धवला पु० २, पृ० ४२०-२१ षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ३८७ क Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपर्याप्त सामान्य भोघ मालाप' (१) गुणस्थान-मिथ्यात्व, सासादन, असंयतस०, प्रमत्तसं०, सयोगकेवली (२) जीवसमास-७ बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त आदि । (३) पर्याप्ति-सं०५० अपर्याप्त ६, असंज्ञी पंचेन्द्रिय आदि द्वीन्द्रिय पर्यन्त अपर्याप्त ५, एकेन्द्रिय अप०४ (४) प्राण-संज्ञी पं० ७, असंझी पं०७, चतुरिन्द्रिय ६, त्री० ५, द्वी० ४, एकेन्द्रिय ३ (५) संज्ञा-चारों, अतीतसंज्ञा भी। (६) गति-चारों गतियाँ (७) इन्द्रिय-एकेन्द्रियादि ५ (८) काय-पृथिवी कायिकादि छहों (९) योग -४ औ मिश्र, वै०मिश्र, आ०मिश्र व कार्मण (१०) वेद-तीनों, अपगत वेद भी (११) कषाय-क्रोधादि चारों, अकषाय भी (१२) ज्ञान-६ मनःपर्यय व विभंग के बिना (१३) संयम-४ सामायिक, छेदो०, यथाख्यात व असंयम (१४) दर्शन-चक्षुदर्शनादि ४ (१५) लेश्या-द्रव्यलेश्या कापोत व शुक्ल, भावलेश्या छहों (१६) भव्य-भवसिद्धिक व अभवसिद्धिक (१७) सम्यक्त्व-सम्यग्मिथ्यात्व के बिना पांच (१८) संज्ञी-संजी, असंजी, अनुभय (१६) आहार-आहारी व अनाहारी (२०) उपयोग-साकार, अनाकार, युगपत् साकार-अनाकार इसी पद्धति से आगे मिथ्यादृष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में ओघ आलापों और तत्पश्चात् आदेश की अपेक्षा अवान्तर भेदों के साथ गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में आलापों का पृथक्-पृथक् विचार किया गया है। इस विस्तृत आलापाधिकार को षटखण्डागम की सोलह जिल्दों में से दूसरी जिल्द में प्रकाशित किया गया है। यह भी स्मरणीय है कि जिस प्रकार ऊपर दो तालिकाओं द्वारा पर्याप्त व अपर्याप्त सम्बन्धी ओघ आलापों को स्पष्ट किया गया है उसी प्रकार दूसरी जिल्द में सभी आलापों को विविध तालिकाओं द्वारा हिन्दी अनुवाद में स्पष्ट किया गया है। ऐसी सब तालिकायें वहाँ ५४५ हैं। २. द्रव्यप्रमाणानुगम द्रव्य-प्रमाणानुगम का स्पष्टीकरण-जीवस्थानगत पूर्वोक्त आठ अनुयोगद्वारों में यह दूसरा अनुयोगद्वार है। यह 'द्रव्यप्रमाणानुगम' पद द्रव्य, प्रमाण. और अनुगम इन तीन शब्दों के योग से निष्पन्न हुआ है। उसकी सार्थकता को प्रकट करते हुए धवलाकार ने क्रम से उन तीनों शब्दों की व्याख्या की है। 'द्रव्य' शब्द के निरुक्तार्थ को प्रकट करते हुए धवला में १. धवला पु० २, पृ० ४२२-२३ ३८८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा गया है जो पर्यायों को प्राप्त होता है, भविष्य में प्राप्त होनेवाला है, अतीत में प्राप्त होता रहा है उसका नाम द्रव्य है। आगे मूल में उसके जीव और अजीव द्रव्य इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनके भेद-प्रभेदों को स्वरूप निर्देशपूर्वक बतलाया गया है। साथ ही उन भेद-प्रभेदों में यहाँ जीवद्रव्य को प्रसंगप्राप्त कहा गया है, क्योंकि इस अनुयोगद्वार में अन्य द्रव्यों के प्रमाण को न दिखलाकर विभिन्न जीवों के ही प्रमाण को निरूपित किया गया है। ____ 'प्रमाण' शब्द के निरुक्तार्थ को प्रकट करते हुए धवला में कहा गया है कि जिसके द्वारा पदार्थ मापे जाते हैं या जाने जाते हैं उसे प्रमाण कहते हैं। जैसाकि पूर्व में आ० वीरसेन की 'व्याकरणपटुता' के प्रसंग में कहा जा चुका है, कि द्रव्य और प्रमाण इन दोनों शब्दों में तत्पुरुष या कर्मधारय आदि कौन-सा समास अभिप्रेत रहा है, इसका ऊहापोह धवला में शंकासमाधानपूर्वक किया गया है। वस्तु के अनुरूप जो बोध होता है उसे, अथवा केवली व श्रुतकेवली की परम्परा के अनुसार जो वस्तु स्वरूप का अवगम होता है उसे अनुगम कहते हैं । __ अभिप्राय यह हुआ कि जिस अनुयोगद्वार के आश्रय से द्रव्य-क्षेत्रादि के अनुसार विभिन्न जीवों की संख्या का बोध होता है उसे 'द्रव्यप्रमाणानुगम' अनुयोगदार कहा जाता है।' ओघ की अपेक्षा द्रव्यप्रमाण इस अनुयोगद्वार में प्रथमतः ओघ की अपेक्षा--- मार्गणा निरपेक्ष सामान्य से-क्रमशः मिथ्यादृष्टि तथा सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में और तत्पश्चात् आदेश की अपेक्षागति-इन्द्रियादि मार्गणाओं से विशेषित-गुणस्थानों में द्रव्य-क्षेत्रादि से भिन्न चार प्रकार के प्रमाण की प्ररूपणा की गयी है। तदनुसार यहाँ सर्वप्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों के द्रव्यप्रमाए. का निर्देश करते हुए उसे अनन्त बतलाया गया है। इस प्रसंग में धवला में अनन्त को अनेक प्रकार का बतलाते हुए एक प्राचीन गाथा के आधार से उस के इन भेदों का निर्देश किया है-(१) नामानन्त, (२) स्थापनानन्त, (३) द्रव्यानन्त, (४) शाश्वतानन्त, (५) गणनानन्त, (६) अप्रदेशिकानन्त, (७) एकानन्त, (८) उभयानन्त, (8) विस्तारानन्त, (१०) सर्वानन्त और (११) भावानन्त । ___ इन सबके स्वरूप का निर्देश करते हुए धवला में उनमें से प्रकृत में गणनानन्त को प्रसंगप्राप्त कहा गया है। वह गणनानन्त तीन प्रकार का है-परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त । इन तीन में यहाँ अनन्तानन्त को ग्रहण किया गया है। अनन्तानन्त भी जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम के भेद से तीन प्रकार का है। इनमें किस अनन्तानन्त की यहाँ अपेक्षा है, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि "जहां-जहाँ अनन्तानन्त का मार्गण किया जाता है वहाँ-वहाँ अजधन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) अनन्तानन्त का ग्रहण होता है" इस परिकर्मवचन के अनुसार यहाँ अजघन्य-अनुत्कृष्ट अनन्तानन्त का ग्रहण अभिप्रेत है। इस अजधन्य-अनुत्कृष्ट अनन्तानन्त के अनन्त भेद हैं। उनमें से यहाँ उसका कौन-सा भेद अभीष्ट है, इसे स्पष्ट करते हुए आगे धवला में कहा गया है कि जघन्य अनन्तानन्त से अनन्त वर्गस्थान ऊपर जाकर और उत्कृष्ट अनन्तान्त से अनन्त वर्गस्थान नीचे उतरकर मध्य में जिनदेव के द्वारा जो राशि देखी गयी है, उसे ग्रहण करना चाहिए। अथवा, तीन बार वगित-संवर्गित राशि से अनन्तगुणी और १. धवला पु० ३, पृ० २.८ षदखण्डागम पर टीकाएँ। ३८९ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह द्रव्यप्रक्षिप्त राशि से अनन्तगुणी हीन मध्यम अनन्तानन्त प्रमाण मिथ्यादृष्टि जीवों की राशि होती है। यहाँ धवलाकार ने उस तीन बार वर्गित-संवर्गित राशि को स्पष्ट कर दिया है।' 'छह द्रव्यप्रक्षिप्त' राशि को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि उक्त तीन बार वगितसंवर्गित राशि में सिद्ध, निगोदजीव, वनस्पति, काल, पुदगल और समस्त लोकाकाश इन छह अनन्तप्रक्षेपों के मिलाने पर छह द्रव्यप्रक्षिप्त राशि होती है। ___ मिथ्यादृष्टि जीवों के द्रव्यप्रमाण की प्ररूपणा के पश्चात् कालप्रमाण की प्ररूपणा करते हुए सूत्र (१,२,३) में कहा गया है कि काल की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियों के द्वारा अपहृत नहीं होते हैं। इसकी व्याख्या के प्रसंग में काल से मिथ्यादृष्टि जीवों का प्रमाण कैसे जाना जाता है, यह पूछने पर धवला में कहा गया है कि अनन्तानन्त अवसपिणी-उत्सपिणियों के समयों को और मिथ्यादृष्टि जीवराशि को पृथक-पृथक स्थापित करके काल में से एक समय को और मिथ्यादृष्टि जीवराशि में से एक जीव को अपहृत करना चाहिए, इस क्रम से उत्तरोत्तर अपहृत करने पर सब समय तो अपहृत हो जाते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि जीवराशि अपहत नहीं होती है। अभिप्राय यह है कि उक्त क्रम से उन अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सपिणियों के समयों के समाप्त हो जाने पर भी मिथ्यादृष्टि जीवों की राशि समाप्त नहीं होती है। इसके विपरीत यहाँ शंका उठायी गयी है कि मिथ्यादृष्टि राशि समाप्त हो जाये किन्तु सब समय समाप्त नहीं हो सकते हैं, क्योंकि काल की महिमा प्रकट करनेवाला सूत्र देखा जाता है। इसके उत्तर में कहा है कि प्रकृत में अतीतकाल का ग्रहण होने से वह दोष सम्भव नहीं है। उदाहरण देते हुए धवलाकार ने कहा है कि जिस प्रकार लोक में प्रस्थ (माप विशेष) अनागत, वर्तमान और अतीत इन तीन भेदों में विभक्त है। उनमें अनिष्पन्न का नाम अनागत प्रस्थ, निष्पद्यमान का नाम वर्तमान प्रस्थ और निष्पन्न होकर व्यवहार के योग्य हए प्रस्थ का नाम अतीत प्रस्थ है। इनमें अतीत प्रस्थ से सब बीजों (धान्यकणों) को मापा जाता है। उसी प्रकार काल भी तीन प्रकार का है-अनागत, वर्तमान और अतीत । इनमें अतीत के समयों से सब जीवों का प्रमाण किया जाता है । अभिप्राय यह है कि भले ही अनागत के समय मिथ्यादृष्टि जीवराशि से अधिक हो, किन्तु अतीत के समय मिथ्यादृष्टि जीवराशि से अधिक सम्भव नहीं हैं। इसीलिए मिथ्यादृष्टि जीवराशि समाप्त नहीं होती है और अतीत के सब समय समाप्त हो जाते हैं। यहाँ धवलाकार ने मिथ्यादृष्टि जीवराशि की अपेक्षा अतीतकाल के समयों की अल्पता सोलह पदवाले अल्पबहुत्व के आधार से की है।' यहाँ धवला में यह शंका की गयी है कि कालप्रमाण की यह प्ररूपणा किस लिए की जा १. धवला पु० ३, पृ० १०-२० २. वही, २६ ३. धम्माधम्मागासा तिण्णि वि तुल्लाणि होति थोवाणि । वड्ढीद् जीव-पोग्गल-कालागासा अणंतगुणा ।।-पु०३, पृ० २६ ४. धवला पु०३, पृ० २७-३० ५. वही, ३०-३२ ३६० / षट्खण्डगम-परिशीलन Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रही है। उसके उत्तर में वहाँ कहा गया है कि मोक्ष जानेवाले जीवों की अपेक्षा व्यय के होने पर भी मिथ्यादृष्टि जीवराशि का व्युच्छेद नहीं होता है, यह बतलाने के लिए यह कालप्रमाण की प्ररूपणा अपेक्षित है।' आगे के सूत्र (१,२,४) में जो क्षेत्र की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवराशि का प्रमाण अनन्तानन्त लोक बतलाया गया है उसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि जिस प्रकार प्रस्थ द्वारा गेहूँ, जौ आदि धान्य मापा जाता है उसी प्रकार लोक के आश्रय से मिथ्यादष्टि जीवराशि का भी माप किया जाता है। इस प्रसंग में यह गाथा उद्धत की गयी है पत्थेण कोदवेण व जह कोइ मिणेज्ज सव्वबीजाणि । एवं मिणिज्जमाणे हवंति लोगा अणंता दु ॥ इस प्रसंग में यह शंका की गयी है कि प्रस्थ के बाहर स्थित पुरुष उस प्रस्थ के बाहर स्थित बीजों को मापता है, पर लोक के भीतर स्थित पुरुष लोक के भीतर स्थित उस मिथ्यादृष्टि जीवराशि को कैसे माप सकता है। उत्तर में कहा गया है कि चूंकि बुद्धि के द्वारा लोक से मिथ्यादृष्टि जीवों को मापा जाता है, इसलिए यह कोई दोष नहीं है । बुद्धि के द्वारा कैसे मापा जाता है, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में पुन: कहा गया है कि एक-एक लोकाकाश के प्रदेश पर एक-एक मिथ्यादष्टि जीव को रखने पर एक लोक होता है. ऐसी मन से कल्पना करना चाहिए। इस प्रक्रिया को पुनः पुनः करने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि अनन्तलोक प्रमाण हो जाती है। यहाँ भी यह एक गाथा उद्धृत की गयी है लोगागासपदेसे एक्कक्के णिक्खिवे वि तह दिट्ठ। एवं गणिज्जमाणे वंति लोगा अणंता दु । लोकप्रमाण विषयक ऊहापोह यहाँ लोक को जगश्रेणि के घनप्रमाण और उस जगश्रेणि को सात राजु आयत कहा गया है। इस प्रसंग में राज के प्रमाण के विषय में पूछने पर उत्तर में यह कहा है कि तिर्यग्लोक का जितना मध्य में विस्तार है उतना प्रमाण राजु का है। इसे स्पष्ट करते हुए आगे धवलाकार ने कहा है कि जितने द्वीप-सागरों के रूप (संख्या) हैं तथा रूप (एक) से अधिक, अथवा मतान्तर से संख्यात रूपों से अधिक, जितने जम्बूद्वीप अर्धच्छेद हैं उनको विरलित करके व प्रत्येक के ऊपर दो (२) का अंक रखकर उन्हें परस्पर गुणित करने पर जो राशि प्राप्त हो उससे छेद करने से शेष रही राशि को गुणित करने पर राजु का प्रमाण प्राप्त होता है। यह श्रेणि के सातवें भाग मात्र ही होता है। यहाँ तिर्यग्लोक का अन्त कहाँ पर हुआ है, यह पूछे जाने पर उत्तर में कहा गया है कि उसका अन्त तीनों वातवलयों के बाह्य भाग में हुआ है । प्रमाण के रूप में 'लोगो वादपदिट्रिदो" व्याख्याप्रज्ञप्ति का यह वचन उपस्थित किया गया है। स्वयम्भूरमण समुद्र की बाह्य वेदिका के आगे कितना क्षेत्र जाकर तिर्यग्लोक समाप्त हुआ है, इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि असंख्यात द्वीप-समुद्रों के विस्तार से जितने योजन रोके गये हैं उनसे संख्यात गुणे योजन १. धवला पु० ३, पृ० ३२ २. यह गाथा आचारांगनियुक्ति (८७) में उपलब्ध होती है। पृ० ६३ षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ३६१ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे जाकर तिर्यग्लोक समाप्त हुआ है। इस अभिप्राय की सिद्धि में कारणभूत ज्योतिषियों के दो सौ छप्पन अंगुलों के वर्ग मात्र भागहार के प्ररूपक सूत्र' के साथ "दुगुणद्गुणो दुवग्गो" तिलोयपण्णत्ति का यह सूत्र भी उपस्थित किया है और उसका समन्वय परिकर्मसूत्र के साथ किया गया है। साथ ही उसके विरुद्ध जानेवाले अन्य आचार्यों के व्याख्यान को सूत्र के विरुद्ध होने से व्याख्यानाभास भी ठहराया गया है। ___ अन्य आचार्यों के उस व्याख्यान के विरोध में दूसरी यह भी आपत्ति प्रकट की गयी है कि उस व्याख्यान का आश्रय लेने पर श्रेणि के सातवें भाग में आठ शन्य देखे जाते हैं, जिनके अस्तित्व का विधायक कोई सूत्र नहीं है। उन आठ शून्यों को नष्ट करने के लिए कुछ राशि अधिक हो अधिक राशि भी असंख्यातवें भाग अधिक अथवा संख्यातवें भाग अधिक नहीं हो सकती है, क्योंकि उसका अनुग्राहक कोई सूत्र उपलब्ध नहीं होता है। इसलिए दीप-सागरों से रोके गये क्षेत्र के आयाम से संख्यातगुणा बाहरी क्षेत्र होना चाहिए, अन्यथा पूर्वोक्त सूत्रों के साथ विरोध का प्रसंग अनिवार्यतः प्राप्त होता है। इस पर यहाँ फिर शंका की गयी है कि वैसा स्वीकार करने पर "एक हजार योजन अवगाहवाला जो मत्स्य स्वयम्भूरमणसमुद्र के बाह्य तट पर वेदनासमुद्घात से युक्त होता हुआ कापोतलेश्या (तनुवातवलय) से संलग्न है" यह जो वेदनासूत्र' है उसके साथ विरोध क्यों न होगा। इसके समाधान में वहाँ यह कहा गया है कि स्वयम्भ रमणसमुद्र की बाह्य वेदिका से वहाँ उक्त समुद्र के परभाग में स्थित पृथिवी को बाहरी तट के रूप में ग्रहण किया गया है । ___ इस प्रकार से धवला में पूर्वनिर्दिष्ट सूत्रों के आधार से विचार करते हुए अन्त में यह कहा गया है कि यह अभिप्राय यद्यपि पूर्वाचार्यों के सम्प्रदाय के विरुद्ध है, फिर भी हमने आगम और युक्ति के बल से उसकी प्ररूपणा की है। इसलिए 'यह इसी प्रकार है' ऐसा यहाँ कदाग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि अतीन्द्रिय अर्थ के विषय में छद्मस्थों के द्वारा कल्पित युक्तियाँ निर्णय में हेतु नहीं हो सकती हैं । इसीलिए यहाँ उपदेश को प्राप्त करके विशेष निर्णय करना चाहिए। भावप्रमाण धवला में "द्रव्यप्रमाण, कालप्रमाण और क्षेत्र प्रमाण इन तीनों का अधिगम भावप्रमाण है" इस सूत्र (१,२,५) की व्याख्या करते हुए 'अधिगम' शब्द को ज्ञान का समानार्थक बतलाकर उसके मतिज्ञानादि पाँच भेदों का निर्देश किया है। उनमें प्रत्येक को द्रव्य, क्षेत्र और काल के भेद से तीन प्रकार का कहा है । इस प्रकार से धवला में प्रकृत सूत्र का यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि द्रव्य के अस्तित्व विषयक ज्ञान को द्रव्यभावप्रमाण, क्षेत्रविशिष्ट द्रव्य के ज्ञान को १. जोदिसिया देवा देवगदिभंगो। खेत्तेण कपदरस्स बेछापण्णं गुलसदवग्गपडिभाएण । सूत्र २, ५, ४४ व २, ५, ३३ (पु०७); (सूत्र १, २, ६५ व १, २, ५५ (पु०३) द्रष्टव्य हैं) २. यह सूत्र वर्तमान तिलोयपण्णत्ती में नहीं उपलब्ध होता । ३. धवला पु० ३, पृ० ३२-३८ ४. ष०ख० सूत्र ४,२,५,८-१० (पु० ११) ५. धवला पु० ३, पृ० ३८ ३६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्रभावप्रमाण और कालविशिष्ट द्रव्य के ज्ञान को कालभावप्रमाण जानना चहिए।' यहाँ धवला में यह शंका उठायी गयी है कि सूत्र में भावप्रमाण की प्ररूपणा क्यों नहीं की गयी। इसके उत्तर में कहा गया है कि सूत्र में उसकी प्ररूपणा न करने पर भी वह स्वयं सिद्ध है, क्योंकि भावप्रमाण के बिना उन तीन प्रमाणों की सिद्धि सम्भव नहीं है। कारण यह कि मुख्य प्रमाण के अभाव में गौण प्रमाणों की सम्भावना नहीं रहती है। प्रकारान्तर से यहाँ यह भी कहा गया है - अथवा भावप्रमाण के बहुवर्णनीय होने से हेतुवाद और अहेतुवाद का अवधारण करनेवाले शिष्यों का अभाव होने से उस भावप्रमाण की प्ररूपणा सूत्र में नहीं की गयी है। __ अन्य विकल्प के रूप में धवला में यह भी कहा है-अथवा भावप्रमाण की प्ररूपणा में मिथ्यादृष्टि जीवराशि का समस्त पर्यायों में भाग देने पर जो लब्ध हो उसे भागहार मानकर सब पर्यायों के ऊपर खण्डित, भाजित, विरलित और अपहृत का कथन करना चाहिए । आगे इन खण्डित-भाजित आदि को भी धवला में स्पष्ट किया गया है। इसी प्रसंग में धवलाकार ने "मिथ्यादृष्टि जीवराशि के विषय में श्रोताजनों को निश्चय उत्पन्न कराने के लिए यहाँ हम मिथ्यादृष्टि :शि के प्रमाण की प्ररूपणा खण्डित, भाजित, विरलित, अपहृत, प्रमाण, कारण, निरुक्ति और विकल्प के द्वारा करते हैं"; ऐसी प्रतिज्ञा करते हए तदनुसार ही आगे प्ररूपणा की गयी है। यहाँ शंका की गयी है कि सूत्र के न रहते हुए उसका कथन कैसे किया जाता है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह सूत्र से सूचित है।' सासावनसम्यग्दृष्टि आदि का द्रव्यप्रमाण अगले सूत्र में सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयतपर्यन्त चार गुणस्थानवी जीवों के द्रव्यप्रमाण की प्ररूपणा की गयी है। (सूत्र १,२,६,) इसकी व्याख्या के प्रसंग में यह शंका उठायी गयी है कि इन चार गुणस्थानवी जीवों की प्ररूपणा क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाण के द्वारा क्यों नहीं की गयी। इसका समाधान करते हुए धवला में कहा गया है कि जिन कारणों से मिथ्यादृष्टियों की प्ररूपणा उन क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाण के द्वारा की गयी है वे कारण यहाँ सम्भव नहीं हैं। ___ वे कारण कौन से हैं, इसे स्पष्ट करते हुए आगे धवला में कहा गया है कि लोक असंख्यात प्रदेश वाला ही है, उसमें अनन्त जीव कैसे समा सकते हैं। इस प्रकार के सन्देहयुक्त जीवों के उस सन्देह को दूर करने के लिए क्षेत्रप्रमाण की प्ररूपणा की जाती है। इसी प्रकार समस्त जीवराशि आय से तो रहित है, पर सिद्धि को प्राप्त होनेवाले जीवों की अपेक्षा वह व्यय से सहित है। इस परिस्थिति में वह जीवराशि समाप्त क्यों नहीं होती है, इस प्रकार के सन्देह को नष्ट करने के लिए कालप्रमाण की प्ररूपणा की जाती है। इन दो कारणों में से प्रकृत में एक भी कारण सम्भव नहीं है। इसीलिए उपर्युक्त सासादन सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानवी जीवों के क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाण की प्ररूपणा ग्रन्थ में नहीं की गयी है। १. धवला पु० ३, पृ० ३६ २. धवला पु०३, पृ०३६-६३ ३. वही, ६३-६४ षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ३६३ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर्युक्त सूत्र में उन सासादन सम्यग्दृष्टि आदि के द्रव्यप्रमाण की प्ररूपणा के प्रसंग में भागहार का प्रमाण अन्तर्मुहूर्त कहा गया है। इस प्रसंग में धवलाकार का कहना है कि अन्तर्मुहूर्त तो अनेक प्रकार का है, उसमें यहां कितने प्रमाणवाले अन्तर्मुहूर्त की विवक्षा रही है, यह ज्ञात नहीं होता। इसलिए उसका निश्चय कराने के लिए यहाँ हम कुछ काल को प्ररूपणा करते हैं। ऐसी सूचना कर उन्होंने उस काल-प्ररूपणा के प्रसंग में कालविभाग का उल्लेख इस प्रकार किया है १. असंख्यात समयों को लेकर एक आवली होती है। २. तत्प्रायोग्य संख्यात आवलियों का एक उच्छ्वास होता है। ३. सात उच्छ्वासों को लेकर एक स्तोक होता है। ४. सात स्तोकों का एक लव होता है। ५. साढ़े अड़तीस लवों की एक नाली होती है। धवला में आगे 'उक्तं च' ऐसा निर्देश करते हुए चार गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं। उनमें प्रथम दो गाथाओं में उपर्युक्त काल के विभागों का निर्देश है। दूसरी गाथा के उत्तरार्ध में इतना विशेष कहा गया है कि दो नालियों का मुहूर्त होता है। इस मुहूर्त में एक समय कम करने पर भिन्नमुहूर्त होता है। तीसरी गाथा में कहा गया है कि हृष्ट-पुष्ट व आलस्य से रहित नीरोग पुरुष के उच्छ्वास निःश्वास को एक प्राण कहा जाता है। चौथी गाथा में निर्देश किया है कि समस्त मनुष्यों के तीन हजार सात सौ तिहत्तर (३७७३) उच्छवासों का एक मुहूर्त होता है। इसी प्रसंग में आगे धवला में यह स्पष्ट किया गया है कि कितने ही आचार्य जो यह कहते हैं कि सात सौ बीस प्राणों का एक मुहूर्त होता है वह घटित नहीं होता, क्योंकि उसका केवलीकथित अर्थ की अपेक्षा प्रमाणभूत अन्य सूत्र के साथ विरोध आता है। धवला में इस प्रसंगप्राप्त विरोध को गणित प्रक्रिया के आधार से स्पष्ट भी कर दिया गया है।' पश्चात् सूत्र-निर्दिष्ट सासादनसम्यग्दृष्टि आदि के यथायोग्य अवहारकाल सिद्ध करते हुए सासादनसम्यग्दृष्टियों के द्रव्यप्रमाण की प्ररूपणा वर्गस्थान में क्रम से खण्डित, भाजित, विरलित, अपहृत, प्रमाण, कारण, निरुक्ति और विकल्प के ही आधार से की गयी है। ___आगे यह भी सूचना कर दी है कि सम्यरिमथ्यादृष्टियों, असंयत सम्यग्दृष्टियों और संयतासंयतों के प्रमाण की प्ररूपणा सासादन-सम्यग्दृष्टियों के समान करना चाहिए। विशेषता इतनी मात्र है कि उक्त खण्डित-विरलित आदि का कथन अपने-अपने अवहार काल के द्वारा करना चाहिए। आगे धवला में 'हम इनकी संदृष्टि को कहते हैं ऐसी सूचना करते हुए चार गाथाओं को उद्धृत कर उनके आधार से संदृष्टि के रूप में उनके अवहारकाल आदि की कल्पना इस प्रकार की गयी है-सासादन-सम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल ३२, सम्यग्मिथ्यादृष्टियों का १. धवला पु० ३, पृ० ६३-६८ २. धवला पु० ३, पृ० ६८-८७ ३. धवला पु० ३, पृ० ८७ ३६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६, असंयत सम्यग्दृष्टियों का ४, और संयतासंयतों का १२८ है। पल्योपम की कल्पना ६५५३६ की गयी है। इस प्रकार संदृष्टि में सासादन-सम्यग्दृष्टियों आदि का प्रमाण निम्नलिखित प्राप्त होता है' १. सासादन सम्यग्दृष्टि ६५५३६ : ३२- २०४८ २. सम्यग्मिथ्यादृष्टि ६५५३६ : १६ = ४०६६ ३. असंयत सम्यग्दृष्टि ६५५३६ : ४- १६३८४ ४. संयतासंयत ६५५३६:१२८-५१२ प्रमत्तसंयतों का द्रव्यप्रमाण सूत्र में (१,२,७) कोटिपृथक्त्व निर्दिष्ट किया गया है। इस प्रसंग में धवला में यह शंका की गयी है कि कोटिपृथक्त्व से तीन करोड़ के ऊपर और नौ करोड़ के नीचे जो संख्या हो उसे ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार इस संख्या के विकल्प बहुत हैं, उनमें यहाँ कौन-सी संख्या अभिप्रेत रही है, यह ज्ञात नहीं होता। इसके समाधान में वहाँ यह कहा गया है कि वह संख्या परमगुरु के उपदेश से ज्ञात हो जाती है। आचार्य परम्परागत जिनोपदेश के अनुसार प्रमत्तसंयत पाँच करोड़ तेरानबै लाख अट्टानबै हजार दो सौ छह (५६३६८२०६) हैं। __अप्रमत्तसंयतों का प्रमाण सूत्र (१,२,८) में सामान्य से संख्यात कहा है। धवलाकार ने उसे स्पष्ट करते हुए दो करोड़ छयानबै लाख निन्यानबे हजार एक सौ तीन (२६६६६१०३) कहा है। प्रमाण के रूप वहाँ धवला में 'वुत्तं च' कहकर उपर्युक्त प्रमत्तसंयतों और अप्रमत्तसंयतों के निश्चित प्रमाण की सूचक एक गाथा भी उद्धृत कर दी गयी है। ___चार उपशामकों का प्रमाण सूत्र (१,२,८) में प्रवेश की अपेक्षा एक, दो, तीन अथवा उत्कर्ष से चौवन निर्दिष्ट किया गया है। इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि इन चार उपशामक गुणस्थानों में से एक-एक गुणस्थान में एक समय में चारित्रमोह का उपशम करनेवाला जघन्य से एक जीव प्रविष्ट होता है तथा उत्कर्ष से चौवन तक जीव प्रविष्ट होते हैं। यह सामान्य स्थिति है। विशेष रूप में आठ समय अधिक वर्षपृथक्त्व के भीतर उपशम श्रेणि के योग्य आठ समय होते हैं। उनमें से आठ प्रथम समय में एक जीव को आदि लेकर उत्कर्ष से सोलह तक जीव उपशमश्रेणि पर आरूढ़ होते हैं। द्वितीय समय मे एक जीव को आदि लेकर चौबीस जीव तक उपशमश्रेणि पर आरूढ़ होते हैं। तृतीय समय में एक जीव को आदि लेकर तीस जीव तक उपशम श्रेणि पर- आरूढ़ होते हैं। चतुर्थ समय में एक जीव को आदि लेकर उत्कर्ष से छत्तीस जीव तक उपशम श्रेणि पर आरूढ़ होते हैं । पाँचवें समय में एक जीव को आदि लेकर उत्कर्ष से ब्यालीस जीव तक उपशम श्रेणि पर आरूढ़ होते हैं। छठे समय में एक जीव को आदि लेकर उत्कर्ष से अड़तालीस जीव तक उपशम श्रेणि पर आरूढ़ होते हैं। सातवें व आठवें इन दो समयों में एक जीव को आदि लेकर उत्कर्ष से चौवन-चौवन जीव तक उपशम श्रेणि पर आरूढ़ होते हैं। आगे इस अभिप्राय की पुष्टि हेतु धवला में 'उत्तं च' कहकर एक गाथा उद्धृत कर दी गयी है। २. धवला पु० ३, पृ० ७८-८७ ३. वही, ८८-८९ ४. वही, ८६-६० घटखण्डागम पर टीकाएँ / ३६५ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल की अपेक्षा उन आठ समयों में एक-एक गुणस्थान में उत्कर्ष से संचय को प्राप्त हुए उन जीवों का समस्त प्रमाण सूत्र (१,२,१०) में संख्यात कहा गया है । वह पूर्वनिर्दिष्ट क्रम के अनुसार तीन सौ चार (१६ + २४ + ३० + ३६+४२+४८+ ५४ + ५४ - ३०४) होता है । कुछ आचार्यों के मतानुसार उपर्युक्त उत्कृष्ट प्रमाण में जीवों से सहित सब समय एक साथ नहीं पाये जाते हैं । अतः वे उक्त प्रमाण में पाँच कम करते हैं । धवलाकार ने इस व्याख्यान को आचार्य परम्परा से आने के कारण दक्षिणप्रतिपत्ति कहा है तथा पूर्वोक्त व्याख्यान को आचार्य परम्परागत न होने से उत्तरप्रतिपत्ति कहा है ।" आगे के सूत्र (१, २, ११) में चार क्षपकों और अयोगिकेवलियों का जो द्रव्यप्रमाण प्रवेश की अपेक्षा एक, दो, तीन अथवा उत्कर्ष से एक सौ आठ कहा गया है उसको स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि आठ समय अधिक छह मास के भीतर क्षपक श्रेणि के योग्य आठ समय होते हैं । उन समयों में विशेष की विवक्षा न करके सामान्य से कथन करने पर जघन्य से एक जीव और और उत्कर्ष से एक सौ आठ जीव तक क्षपक गुणस्थान को प्राप्त होते हैं। विशेष की अपेक्षा प्ररूपणा करने पर प्रथम समय में एक जीव को आदि लेकर उत्कर्ष से बत्तीस जीव तक क्षपक श्रेणि पर आरूढ़ होते हैं। आगे द्वितीयादि समयों में क्षपक श्रेणि पर आरूढ़ होनेवाले क्षपक जीवों के प्रमाण का क्रम पूर्वोक्त उपशामक जीवों के प्रमाण से क्रमशः दूना दूना जानना चाहिए । यहाँ भी धवला में प्रमाण के रूप में इस अभिप्राय की पोषक एक गाथा उद्धृत की गयी है । काल की अपेक्षा सूत्र (१, २, १२) में जो उन सब का प्रमाण संख्यात कहा गया है उसे उन आठ समयों में एक-एक गुणस्थान में उत्कर्ष से संचय को प्राप्त हुए सब जीवों को एकत्रित करने पर उपशामकों की अपेक्षा दूना अर्थात् छह सौ आठ (३२+४८ + ६० + ७२ +८४.+ ६६ +१०८+१०८ -६० ६०८) जानना चाहिए । अन्य आचार्यों के अभिमतानुसार जहाँ उपशामकों के उस प्रमाण में पाँच कम किया गया था व उस व्याख्यान को धवला में दक्षिणप्रतिपत्ति तथा पूर्व व्याख्यान को उत्तरप्रतिपत्ति कहा गया था वहाँ उक्त आचार्यों के अभिमतानुसार इन क्षपकों के उस समस्त प्रमाण में दस कम किया गया है तथा इस व्याख्यान को दक्षिणप्रतिपत्ति तथा पूर्व व्याख्यान को उत्तरप्रतिपत्ति कहा गया है। आगे 'एसा उवसमग-खवगपरूपणगाहा' ऐसी सूचना करते हुए धवला में दो गाथाएँ उद्धृत की गई हैं व उनके आश्रय से यह कहा गया है कि कुछ आचार्य उपशामकों का प्रमाण तीन सौ, कुछ आचार्य तीन सौ चार और कुछेक आचार्य उसे पाँच कम तीन सौ (२६५) बतलाते हैं । क्षपकों का उनके मतानुसार उससे दूना (६००, ६०८, ५६० ) जानना चाहिए । अन्य कुछ आचार्य उन उपशामकों का प्रमाण तीन सौ चार और कुछ उसी प्रमाण (३०४) को पाँच कम बतलाते है । तत्पश्चात् धवला में “एगेगगुणट्ठाणम्हि उवसामगखवगाणं पमाणपरूवणगाहा" इस निर्देश के साथ एक अन्य गाथा उद्धृत की गयी है, जिसमें कहा गया है कि एक-एक गुणस्थान में आठ १. धवला पु० ३, पृ० ६०-६२; दक्खिणं उज्जुवं आइरियपरंपरागदमिदि एयट्टो । उत्तरमज्जुवं आइरियपरंपराए अणागदमिदि एयट्ठो ।-धवला पु० ५, पृ० ३२ ३९६ / षट्खण्डागम- परिशीलन Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयों में संचित उपशामकों व क्षपकों का प्रमाण आठ सौ सत्तानब है।' ___इस प्रकार उपशामकों और क्षपकों के प्रमाण के विषय में आचार्यों में परस्पर विशेष मतभेद रहा है। ____ आगे सूत्र (१,२,१३) में जो सयोगिकेवलियों का द्रव्यप्रमाण प्रवेश की अपेक्षा एक, दो, तीन अथवा उत्कर्ष से एक सौ आठ कहा गया है उसे क्षपकों के द्रव्यप्रमाण के समान समझना चाहिए। काल की अपेक्षा उनका द्रव्यप्रमाण सूत्र (१,२,१४) में लक्षपृथक्त्व प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है। उसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि आठ समय अधिक छह मास के भीतर यदि आठ सिद्धसमय प्राप्त होते हैं तो चालीस हजार आठ सौ इकतालीस मात्र आठ समय अधिक छह मास के भीतर कितने सिद्धसमय प्राप्त होंगे, इस प्रकार त्रैराणिक करने पर तीन लाख छब्बीस हजार सात सौ अट्ठाईस मात्र सिद्धसमय प्राप्त होते हैं। इस सिद्धकाल में संचित सयोगि जिनों का प्रमाण लाने के लिए कहा गया है कि उक्त आठ सिद्धसमयों में से छह समयों में तीन-तीन और दो समयों में दो-दो जीव यदि केवलज्ञान को उत्पन्न करते हैं तो आठ समयों में संचित सयोगिजिन बाईस [६३ + (२x२)-२२] होते हैं । अब आठ समयों में यदि बाईस सयोगिजिन होते हैं तो तीन लाख छब्बीस हजार सात सौ अट्ठाईस समयों में कितने सयोगिजिन होंगे, इस प्रकार त्रैराशिक करने पर वे आठ लाख अदानबे हजार पाँच सौ दो (इच्छा ३२६७२८Xफल २२ : प्रमाण ८-८९८५०२) प्राप्त होते हैं। __ आगे धवला में त्रैराशिक प्रक्रिया से प्राप्त सयोगिजिनों के इस प्रमाण को 'वृत्तं च' इस सूचना के साथ उद्धत की गयी एक गाथा के द्वारा प्रमाणित किया गया है। पश्चात यह सचना कर दी गयी है कि इस दिशा के अनुसार कई प्रकार से सयोगि राशि का प्रमाण लाया जा सकता है। उदाहरण देकर उसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जहां पर पूर्वोक्त सिद्धकाल का आधा मात्र सिद्धकाल हो वहाँ पर इस प्रकार त्रैराशिक करना चाहिए-आठ सिद्धसमयों में यदि चवालीस मात्र सयोगिजिन होते हैं तो एक लाख तिरेसठ हजार तीन सौ चौसठ सिद्धसमयों में कितने सयोगिजिन होंगे, इस प्रकार त्रैराशिक करने पर पूर्वोक्त सयोगिकेवलियों का प्रमाण (इच्छा १६३३६४ X फल ४४ : प्रमाण ८-८९८५०२) प्राप्त होता है । एक अन्य उदाहरण इस प्रकार (इच्छा ८१६८२४ फल ८८ : प्रमाण ८-८९८५०२) भी वहाँ दिया गया है। ___आगे धवला में 'जहाक्खादसंजदाणं पमाणवण्णणागाहा' ऐसी सूचना करते हुए एक गाथा को उद्धृत कर उसके द्वारा यथाख्यातसंयतों का प्रमाण आठ लाख निन्यानब हज़ार नौ सौ सत्तानबै (८६६६६७) बतलाया गया है।। इसी प्रसंग में आगे समस्त संयतों आदि का प्रमाण इस प्रकार निदिष्ट किया गया है(१) समस्त संयत राशि ८६६६६६६७ (२) उपशामक-क्षपक प्रमाण ६०२६८८ १. धवला पू०३, पृ०६२-६५ २. वही, ६७ षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ३६७ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसे समस्त संयतराशि में से घटाकर शेष में तीन का भाग देने पर अप्रमत्तसंयतराशि होती है(३) अप्रमत्तसंयत ८६६६६६६७-६०२६८८=८६०६७३०६; ८६०९७३०६:३-२६६६६१०३ इसे दुगुणित करने से प्रमत्तसंयतराशि होती है(४) प्रमत्तसंयत २६६६६१०३४२=५६३६८२०६ धवला में एक गाथा को उद्धृत करके उसके द्वारा उपर्युक्त प्रमाण की पुष्टि भी की गई है। प्रमाणों के इस उल्लेख को धवलाकार ने दक्षिण-प्रतिपत्ति कहा है। यहाँ कितने ही आचार्य ऊपर धवला में उद्धृत संयतों आदि के प्रमाण की प्रतिपादक उस गाथा' को युक्ति के बल से असंगत ठहराते हैं। वे यह युक्ति देते हैं कि सब तीर्थंकरों में बड़ा शिष्य परिवार (३३००००) पद्मप्रभ भट्टारक का रहा है । यदि उसे एक सौ सत्तर (पांच भरत क्षेत्रगत ५. पांच ऐरावतक्षेत्रगत ५, पांच विदेहक्षेत्रगत ३२४५ = १६०) से गुणित करने पर उन संयतों का प्रमाण पांच करोड़ इकसठ लाख (३३००००४१७० : ५६१०००००) ही आता है । यह संयतसंख्या उस गाथा में उल्लिखित संयतसंख्या को प्राप्त नहीं होती, इसलिए वह गाथा संगत नहीं है। __इस दोषारोपण का निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है कि सभी अवसर्पिणियों में हुण्डावसर्पिणी अधम (निकृष्ट) है। उसमें उत्पन्न तीर्थंकरों का शिष्य-परिवार युग के प्रभाव से दीर्घ संख्या से हटकर हीनता को प्राप्त हुआ है । इसलिए उस हीन संख्या को लेकर उक्त गाथासूत्र को दूषित नहीं ठहराया जा सकता है। कारण यह कि शेष अवसपिणियों में उत्पन्न तीथंकरों का शिष्य-परिवार बहुत पाया जाता है । इसके अतिरिक्त भरत और ऐरावत क्षेत्रों में मनुष्यों की संख्या बहुत नहीं है, इन क्षेत्रों की अपेक्षा विदेह क्षेत्रगत मनुष्यों की संख्या संख्यात गणी है। इसलिए इन दो क्षेत्रों के एक तीर्थकर का शिष्य-परिवार विदेहक्षेत्र के एक तीर्थकर के शिष्य-परिवार के समान नहीं हो सकता। इस प्रसंग में आगे धवला में मनुष्यों के अल्पबहुत्व को भी इस प्रकार प्रकट किया गया है. अन्तरद्वीपज मनुष्य सबसे स्तोक हैं। उत्तरकुरु तथा देवकुरु के मनुष्य उनसे संख्यातगुणे हैं। हरि व रम्यक क्षेत्रों के मनुष्य उनसे संख्यातगुणे हैं। हैमवत व हैरण्यवत क्षेत्रों के मनुष्य उनसे संख्यातगुणे हैं। भरत व ऐरावत क्षेत्रों के मनुष्य उनसे संख्यातगुणे हैं। विदेह क्षेत्रगत मनुष्य उनसे संख्यातगुणे हैं। बहुत मनुष्यों में चूंकि संयत बहुत होते हैं, इसीलिए यहाँ के संयतों के प्रमाण को प्रधान करके जो ऊपर दोष दिया गया है, वह वस्तुतः दूषण नहीं है; क्योंकि वह बुद्धिविहीन आचार्यों के मुख से निकला है। ___ इस प्रकार धवला में प्रथमत: दक्षिणप्रतिपत्ति-आचार्य परम्परागत उपदेश-के अनुसार प्रमत्त संयतादिकों के प्रमाण को दिखाकर तत्पश्चात् उत्तर-प्रतिपत्ति-आचार्य परम्परा १. धवला पु० ३, पृ० ६५-६८ २. धवला पु० ३, पृ०६८ ३. वही, पृ०६८-६६ ३९८ / षट्ाण्डागम-परिशीलन Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से अनागत उपदेश--- के अनुसार भी उन प्रमत्तसंयतादिकों का प्रमाण बताया गया है । प्रमाण के रूप में यहाँ उस उपदेश की आधारभूत कुछ गाथाओं (५२-५६) को भी उद्धृत किया गया है। ____ आगे धवला में मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानवी जीवों में तथा सिद्धों में भागाभाग और अल्पबहुत्व की भी प्ररूपणा की गयी है।' आदेश की अपेक्षा द्रव्यप्रमाण इस प्रकार सामान्य से ओघ की अपेक्षा चौदह गुणस्थानवी जीवों के द्रव्यप्रमाण की प्ररूपणा करके तत्पश्चात् विशेष रूप से गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में यथाक्रम से जहाँ जितने गुणस्थान सम्भव हैं उनमें जीवों के द्रव्यप्रमाण की प्ररूपणा की गयी है। तदनुसार यहाँ सर्वप्रथम गति के अनुवाद से नरकगति में वर्तमान मिथ्यादृष्टियों के द्रव्यप्रमाण को सूत्र (१,२,१५) में असंख्यात कहा गया है। उसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने असंख्यात को अनेक प्रकार का कहकर उसके इन ग्यारह भेदों का उल्लेख किया है-नामअसंख्यात, स्थापना असंख्यात, द्रव्य असंख्यात, शाश्वत असंख्यात, गणना असंख्यात, अप्रशिक असंख्यात, एक असंख्यात, उभय असंख्यात, विस्तार असंख्यात, सर्व असंख्यात और भाव असंख्यात । धवला में इनके स्वरूप का भी पृथक्-पृथक् संक्षेप मे निर्देश कर दिया गया है। __ इस प्रसंग में नोआगम द्रव्य असंख्यात के ज्ञायकशरीर आदि तीन भेदों में ज्ञायक शरीर नोआगम द्रव्य असंख्यात के स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि असंख्यात प्राभृत के ज्ञाता का त्रिकालवर्ती शरीर नोआगम-ज्ञायक शरीर-द्रव्य-असंख्यात कहा जाता है। __ यहाँ शंका की गयी है कि आगम से भिन्न शरीर को 'असंख्यात' नाम से कैसे कहा जा सकता है। उत्तर में कहा गया है कि आधार में आधेय के उपचार से वैसा कथन है। जैसेअसि (तलवार) के आधार से असि-धारकों को 'सो तलवारें दौड़ती हैं' ऐसा कहा जाता है। ___ इस प्रसंग में धवलाकार ने 'घृतकुम्भ' के दृष्टान्त को असंगत ठहराया है। घृतकुम्भ और मधुकुम्भ इन दो का दृष्टान्त अनुयोगद्वार में उपलब्ध होता है। ___गणना-संख्यात के प्रसंग में धवलाकार ने उसके स्वरूप का स्वयं कुछ निर्देश न करके यह कह दिया है कि उसकी प्ररूपणा परिकर्म में की गयी है। ___ इन असंख्यात के भेदों में गणना-संख्यात को यहाँ प्रसंगप्राप्त कहा गया है। पीछे जिस प्रकार ओघप्ररूपणा में 'गणनानन्त' के प्रसंग में उसके परीतानन्त आदि के भद-प्रभेदों की १. धवला पु०३, पृ० ६६-१०१ २. वही, १०१-२१ ३. धवला पु०३, पृ० २१-२५ (इन्हीं शब्दों में पीछे (पृ०११) अनन्त के भी ११ भेदों का उल्लेख किया गया है। उन अनन्तभेदों की प्ररूपक और इन असंख्यात भेदों की प्ररूपक गाथा समान ही है। विशेष इतना है कि अनन्त के उन भेदों के उल्लेख के प्रसंग में जहाँ गाथा के द्वि० पाद में -अणंत' पाठ है वहाँ इन असंख्यात के भेदों के प्रसंग में तदनुरूप '-मसंखं' पाठभेद है। ४. अनुयोगद्वार, सूत्र १७ षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ३६६ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्ररूपणा है उसी प्रकार यहाँ प्रसंगानुसार गणना-संख्यात के परीतासंख्यात आदि भेद-प्रभेदों का विवेचन है। सूत्र (१,२,१७) में उपर्युक्त नारक मिथ्यादष्टियों के क्षेत्र प्रमाण को जगप्रतर के असंख्यातवे भाग मात्र असंख्यात जगश्रेणि कहा गया है तथा उनकी विष्कम्भसूची को अंगुल के द्वितीय वर्गमूल से गुणित उसी अंगुल के वर्गमूल प्रमाण कहा गया है। उसकी व्याख्या में धवलाकार ने 'सब द्रव्य, क्षेत्र और काल प्रमाणों का निश्चय चूंकि विष्कम्भसूची से ही होता है, इसलिए यहाँ हम उसकी प्ररूपणा करेंगे' ऐसी प्रतिज्ञा कर उसकी प्ररूपणा वर्गस्थान में खण्डित, भाजित, विरलित, अपहृत, प्रमाण, कारण, निरुवित और विकल्प द्वारा लगभग उसी प्रकार की है जिस प्रकार कि पूर्व में ओघ के प्रसंग में की गयी है। नारक मिथ्यादृष्टियों के भागहार के उत्पादन की विधि को दिखलाते हुए ववला में कहा गया है कि जगप्रतर में एक जगश्रेणि का भाग देने पर एक जगश्रेणि आती है। उक्त जगप्रतर में जगश्रेणि के द्वितीय भाग का भाग देने पर दो जगश्रेणियाँ आती हैं। इसी क्रम से उसके तृतीय, चतुर्थ आदि भागों का भाग देने पर तीन, चार आदि जगश्रेणियाँ प्राप्त होती हैं। इस तरह उत्तरोत्तर उसके एक-एक अधिक भागहार को तब तक बढ़ाना चाहिए जब तक कि नारकियों की विष्कम्भसूची का प्रमाण नहीं प्राप्त हो जाता। ___अनन्तर उस विष्कम्भसूची से जगश्रेणि के अपवर्तित करने पर जो लब्ध हो उनका जगप्रतर में भाग देने पर विष्कम्भसूची प्रमाण जगश्रेणियां आती हैं। इसी प्रकार से अन्यत्र भी विष्कम्भसूची से अवहारकाल के लाने का निर्देश यहाँ कर दिया गया है। भागहार से श्रेणि के ऊपर खण्डित-विरलित आदि पूर्वोक्त विकल्पों के आश्रय से अवहारकाल का कथन करना चाहिए , ऐसा निर्देश कर प्रकृत में उन सबका विस्तार से प्ररूपण किया गया है। तत्पश्चात् सूत्र (१,२,१८) में सासादन सम्यग्दृष्टियों से लेकर असयत सम्यग्दृष्टियों तक उनके द्रव्यप्रमाण का, जो ओघ के समान निर्दिष्ट किया गया है, स्पष्टीकरण धवला में विस्तार से मिलता है। ___ आगे विशेष रूप में पृथिवी क्रम के अनुसार नारक मिथ्यादष्टियों के प्रमाण की प्ररूपणा करते हुए सूत्रकार ने प्रथम पृथिवी के नारक मिथ्यादृष्टियों का प्रमाण सामान्य नारक मिथ्या. दृष्टियों के समान कहा है (१,२,१६)। इस पर शंका उत्पन्न हुई है कि पूर्व में जो सामान्य नारक मिथ्यादृष्टियों का प्रमाण कहा गया है वही. यदि प्रथम पृथिवी के नारक मिथ्यादृष्टियों का है तो उस परिस्थिति में शेष द्वितीयादि पृथिवियों में नारक मिथ्यादृष्टियों के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। पर ऐसा नहीं है, क्योंकि आगे सूत्रों (१,२,२०-२३) में द्वितीयादि पृथिवियों में स्थित नारक मिथ्यादृष्टियों के प्रमाण का निर्देश किया गया है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह समानता केवल असंख्यात जगश्रेणियों, जगप्रतर के असंख्यातवें भाग, द्वितीयादि वर्गमूलों से १. धवला पु०३, पृ० १२३-२५ व पीछे पृ० ११-१६ २. वही, पृ० १३१-४१ व पीछे पृ० ४०-६३ ३. धवला पु०३, पृ० १४१-१६ ४. वही, १५६-६० ४०० / षट्खण्डागम-परिशीलन , Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणित अंगुल के वर्गमूल मात्र विष्कम्भसूची और पल्योपम के असंख्यातवें भाग की अपेक्षा है। सामान्य मिथ्यादृष्टि नारकों की अपेक्षा प्रथम पृथिवीस्थ मिथ्यादृष्टि नारकों की विष्कम्भसूची और अवहारकाल भिन्न है । धवलाकार ने इस भिन्नता की चर्चा विस्तारपूर्वक की है। इस प्रकार की विशेषता के रहने पर द्वितीयादि पृथिवियों में मिथ्यादृष्टि नारकियों के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। इस प्रकार धवला में गणित-प्रक्रिया के आश्रय से उसे स्पष्ट करते हुए विविध अंक-संदृष्टियों द्वारा भी प्रथमादि पृथिवियों के मिथ्यादृष्टि नारकों के प्रमाण को स्पष्ट किया गया है।' आगे धवला में इसी प्रकार से द्वितीयादि पृथिवियों के नारकों में सासादन सम्यग्दृष्टियों आदि के भी द्रव्यप्रमाण को स्पष्ट किया गया है। तत्पश्चात् वहाँ नारकों के इस द्रव्यप्रमाण के निर्णयार्थ भागाभाग और अल्पबहुत्व की भी प्ररूपणा की गयी है। इसी पद्धति से आगे धवला में तियंच आदि शेष तीन गतियों तथा इन्द्रिय-कायादि अन्य मार्गणाओं में भी प्रकृत द्रव्यप्रमाण को आवश्यकतानुसार धवला में स्पष्ट किया गया है। ३. क्षेत्रानुगम क्षेत्रानगम का विशदीकरण-जीवस्थान के अन्तर्गत पूर्वोक्त आठ अनुयोगद्वारों में तीसरा क्षेत्रानगम अनुयोगद्वार है। यहाँ सर्वप्रथम धवलाकार ने प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए इस अनुयोगद्वार के प्रयोजन को दिखलाया है। उन्होंने कहा है कि जिन चौदह जीवसमासों के अस्तित्व का ज्ञान सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के आश्रय से कराया गया है तथा 'द्रव्यप्रमाणानुगम' के द्वारा जिनके द्रव्यप्रमाण का भी बोध कराया जा चुका है उन चौदह जीवसमासों के क्षेत्र का परिज्ञान कराने के लिए इस 'क्षेत्रानुगम' अनुयोगद्वार का अवतार हुआ है। प्रकारान्तर से उन्होंने उसका यह भी प्रयोजन बतलाया है कि जीवराशि तो अनन्त है और लोकाकाश असंख्यात प्रदेशवाला ही है. ऐसी अवस्था में समस्त जीवराशि उस लोक में कैसे समा सकती है, इस प्रकार के सन्देह से व्याकुल शिष्य के उस सन्देह को दूर करने के लिए इस अनुयोगद्वार का अवतार हुआ है। ___आगे क्षेत्रविषयक निक्षेप के प्रसंग में उसके स्वरूप को प्रकट करते हुए धवला में कहा गया है कि जो संशय, विपर्यय अथवा अनध्यवसाय में स्थित तत्त्व को उनसे हटाकर निश्चय में रखता है उसे निक्षेप कहते हैं। अथवा बाह्य अर्थ के विकल्प को निक्षेप समझना चाहिए। अथवा जो अप्रकृत अर्थ का निराकरण करके प्रकृत अर्थ की प्ररूपणा करता है उसका नाम निक्षेप है। निक्षेप विषयक इस अभिप्राय की पुष्टि धवला में उद्धृत इस गाथा द्वारा इस प्रकार की गयी है-- अपगयणिवारणट्ठ पयवस्स परवणाणिमित्तं च । संशयविणासणटुं तच्चत्यवधारण? च ॥ १. धवला पु० ३, पृ० १५६-६८ २. वही, १९८-२०७ ३. वही, २०७-१४ षट्खण्डागम पर टीकाएं / ४०१ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार सामान्य से निक्षेप का स्वरूप दिखाकर क्षेत्र के विषय में चार प्रकार के निक्षेप को योजित किया गया है, तदनुसार अनेक प्रकार के क्षेत्र में से यहाँ नोआगम द्रव्यक्षेत्र को अधिकारप्राप्त कहा गया है। नोआगम द्रव्यक्षेत्र का अर्थ आकाश है।। इसी सिलसिले में धवलाकार ने क्षेत्रविषयक विचार तत्त्वार्थसूत्र (१-७) में निर्दिष्ट निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान इन छह अनुयोगद्वारों के आश्रय से भी संक्षेप में किया है । तदनुसार धवला में निर्देश के रूप में क्षेत्र के आकाश, गगन, देवपथ, गुह्यकाचरित, अवगाहन लक्षण, आधेय, व्यापक, आधार और भूमि इन समानार्थक नामों का निर्देश किया गया है। स्वामित्व के प्रसंग में क्षेत्र किसका है, इस भंग को शून्य कहा गया है। इसका अभिप्राय यह है कि क्षेत्र का स्वामी कोई नहीं है। साधन को लक्ष्य में रखकर उसका साधन या कारण पारिणामिक भाव निर्दिष्ट किया गया है, जिसका अभिप्राय यह है कि क्षेत्र कारण अन्य कोई नहीं है-वह स्वभावतः ही है। वह क्षेत्र कहाँ है, इस प्रकार अधिकरण के प्रसंग में कहा गया है कि वह अपने आप में रहता है, अन्य आधार उसका कोई नहीं है। जिस प्रकार स्तम्भ और सार में भेद न होने से परस्पर आधार-आधेयभाव है. उसी प्रकार क्षेत्र (आकाश) को भी स्वयं आधार और आधेय समझना चाहिए। __ स्थिति या काल के प्रसंग में उसे अनादि-अपर्यवसित कहा गया है। विधान को अधिकृत कर उसे द्रव्याथिक नय से एक प्रकार का व प्रयोजनवश लोकाकाश और अलोकाकाश के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। अथवा देश के भेद से वह तीन प्रकार का है-अधोलोक, ऊर्ध्वलोक और मध्यलोक। सुमेरु के मूल से नीचे के भाग को अधोलोक, उसकी चूलिका से ऊपर के भाग को ऊर्ध्वलोक और सुमेरु के प्रमाण एक लाख योजन ऊँचे भाग को मध्यलोक कहा जाता है। ___ आगे 'क्षेत्रानुगम' की सार्थकता को दिखलाते हुए जो वस्तुएँ जिस स्वरूप में अवस्थित हैं उनके उसी प्रकार के अवबोध को अनुगम कहा गया है। इस प्रकार का जो क्षेत्र का अनुगम है उसे क्षेत्रानुगम जानना चाहिए।' ओघ की अपेक्षा क्षेत्र-विचार इस प्रकार धवला में प्रसंगप्राप्त क्षेत्र का स्वरूपादि विषयक विचार करके तत्पश्चात् सूत्र (१,३,२) में जो ओघ की अपेक्षा मिथ्यादृष्टियों का सर्वलोक क्षेत्र कहा गया है उसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि 'लोक' से यहाँ सात राजुओं के धन की विवक्षा रही है। इस अभिप्राय की पुष्टि में धवलाकार ने गाथा को उद्धत करते हुए कहा है कि यहाँ क्षेत्रप्रमाण के अधिकार में इस गाथा में निर्दिष्ट लोक को ग्रहण किया जाता है पल्लो सायर सूई पदरो य घणंगुलो य जगसेठी । लोयपदरो य लोगो अट्ठ दु माणा मुणेयव्वा ॥' १. धवला पु०४, में पृ०२-६ हैं। २. यह गाथा मूलाचार (१२-८५) में उसी रूप में उपलब्ध होती है। त्रिलोकसार में (६२) 'अट्ठ दु माणा मुणेयव्वा' के स्थान में 'उवमपमा एवमट्ठविहा' पाठभेद है। तिलोयपण्णत्ती गा० १-६ में भी इन मानभेदों का निर्देश किया गया है। ४०२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पर यहां यह शंका उत्पन्न हुई है कि यदि लोक को सात राजुओं के धन प्रमाण ग्रहण किया जाता है तो पांच द्रव्यों के आधारभूत आकाश का ग्रहण होना सम्भव नहीं है, क्योंकि उसमें उन सात राजुओं के धन प्रमाण क्षेत्र का अभाव है। और यदि उसमें उन सात राजुओं के धन का सद्भाव माना जाता है तो "हेट्ठा मज्झे उरि" आदि जिन गाथासूत्रों' में लोक के आकार, विस्तार और आयाम आदि का उल्लेख किया गया है वह अप्रमाण ठहरता है। इस शंका का समाधान करते हुए धवला में कहा है कि पूर्वोक्त सूत्र में निर्दिष्ट उस लोक से पांच द्रव्यों के आधारभूत आकाश का ही ग्रहण होता है, अन्य का नहीं। क्योंकि "लोगपूरणगदो केवली केवरिखते ? सव्वलोगे"२ ऐसा वचन है । यदि लोक सात राजुओं के धनप्रमाण न हो तो “लोगपूरणगदो केवली लोगस्स संखेज्जदिभागे" ऐसा कहना चाहिए था। ___अभिप्राय यह है कि सूत्र में लोकपूरण समद्घातगत केवली का क्षेत्र जो समस्त लोक बतलाया गया है वह सात राजुओं के घनप्रमाण लोक को स्वीकार करने पर ही सम्भव है। अन्य आचार्यों द्वारा प्ररूपित मृदंगाकार लोक का प्रमाण उसका संख्यातवाँ भाग ही रहता है, न कि सात राजुओं के धन प्रमाण तीन सौ तेतालीस (७४७४७) घन राजु। मदंगाकार लोक के प्ररूपक आचार्यों के मतानुसार लोक सर्वत्र गोलाकार है। वह चौदह राजु ऊँचा होकर नीचे सात राजु विस्तृत है। फिर क्रम से हीन होता हुआ सात राजु ऊपर जाकर एक राज, साढ़े दस राजु ऊपर जाकर पांच राजु और चौदह राजु ऊपर जाकर पुनः एक राजु विस्तृत रह गया है । आकार में वह नीचे वेत्रासन, मध्य में झालर और ऊपर मृदंग के समान है। ___इस प्रसंग में धवलाकार का कहना है कि लोक को यदि इस रूप में माना जाता है तो सूत्र में जो लोकपूरणसमुदघातगत केवली का क्षेत्र समस्त लोक कहा गया है वह नहीं बनता । वह तो लोक को सात राजु घन (७४७४७-३४३) प्रमाण मानने पर ही घटित होता है। ____ अन्य आचार्यों द्वारा कल्पित लोक सात राजुओं के धन प्रमाण न होकर उसका संख्यातवाँ भाग ही रहता है। उसका संख्यातवाँ भाग कैसे रहता है, इसे सिद्ध करते हुए धवलाकार ने आगे लोक को अनेक विभागों में विभक्त कर गणित की विधिवत् प्रक्रिया के आधार से उसका क्षेत्रफल और घनफल निकालकर दिखलाया है । तदनुसार, उसका घनफल केवल १६४ २९८ अर्थात् (अधोलोक १०६ १६ + ऊर्वलोक ५८ ६७) घनराजु १३५६ प्रमाण ही सिद्ध होता है। १. धवला में शंका के रूप में उद्धत इन गाथाओं में "हेट्ठा मरिझम' आदि गाथा मूलाचार (८-२४) में और जं० दी०प० (११-१०६) में उसी रूप में उपलब्ध होती है। "लोगो अकट्टिमो" आदि गाथा भी मूलाचार में ८-२२ गाथांकों में उसी रूप में उपलब्ध है। यह गाथा त्रि०सा० (४) में भी है । वहाँ "तालरुक्ख संठाणो" के स्थान पर 'सव्वागासावयवो" पाठभेद है। "लोयस्स य विक्खंभो” आदि गाथा जं०दी०प० में ११-१०७ गाथा के रूप में उपलब्ध होती है। २. सजोगिकेवली केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेन्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा। -सूत्र १,३,४ (पु० ४, पृ० ४८; आगे सूत्र २,६,१०-१२ (पु० ७, पृ० ३१०-११) भी द्रष्टव्य है। षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४०३ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक के संख्यातवें भाग को सिद्ध करने के बाद धवलाकार कहते हैं कि इसके अतिरिक्त सात राजुओं के घन प्रमाण अन्य कोई लोक नाम का क्षेत्र शेष नहीं रहता, जिसे छह द्रव्यों का आधारभूत प्रमाणलोक कहा जा सके। धवलाकार ने दूसरी आपत्ति यह भी उठायी है कि सूत्र में प्रतरस मुद्घातगत कवला का क्षेत्र जो असंख्यातवें भाग से हीन लोक (लोक का असंख्यात बहुभाग) कहा गया है वह अधोलोक की अपेक्षा उसके साधिक चतुर्थ भाग से हीन दो अधोलोक १६६४२-~-१६६/४ == ३४३ प्रमाण ऊर्ध्वलोक की अपेक्षा उसके कुछ कम तृतीय भाग से अधिक दो ऊर्ध्वलोक के प्रमाण (१४७४२+१४७/३ = ३४३) में कुछ (वातवलयरुद्ध क्षेत्र से) कम है। यह भी सात राजुओं के घन प्रमाण लोक के स्वीकार करने के बिना सम्भव नहीं है। इस प्रकार से धवलाकार ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्रमाणलोक (३४३ घनराजु) आकाशप्रदेशगणना की अपेक्षा छह द्रव्यों के समुदायरूप लोक के समान ही है, उससे भिन्न नहीं है। ___ लोक सात राजुओं के घन प्रमाण कैसे है, धवला में इस प्रकार से स्पष्ट किया गया हैसमस्त आकाश के मध्य में स्थित लोक चौदह राजु आयत है । यह पूर्व और पश्चिम इन दो दिशाओं में मूल में (नीचे) सात राजु, अर्ध भाग में (सात राजु की ऊँचाई पर) एक राजु, तीन चौथाई पर (साढ़े दस राज़ की ऊँचाई पर) पाँच राजु और अन्त में एक राजु विस्तारवाला है । उसका बाहल्य उत्तर-दक्षिण में सर्वत्र सात राजुप्रमाण है । वह पूर्व-पश्चिम दोनों पावभागों में वृद्धि व हानि को प्राप्त है । उसके ठीक बीच में चौदह राजु आयत और एक राजुवर्ग प्रमाण मुखवाली लोकनाली (बसनली) है। इसे पिण्डित करने पर वह सात राजुओं के घनप्रमाण होता है। यह भी कहा गया है कि यदि इस प्रकार के लोक को नहीं ग्रहण किया जाता है तो प्रतरसमुद्घातगत केवली के क्षेत्र को सिद्ध करने के लिए जो दो गाथाएँ कही गयी हैं वे निरर्थक सिद्ध होंगी, क्योंकि इस प्रकार के लोक को स्वीकार करने के बिना उनमें जो घनफल निर्दिष्ट किया गया है वह सम्भव नहीं है । इनमें प्रथम गाथा द्वारा अधोलोक का घनफल इस प्रकार निर्दिष्ट किया गया है-- __मुख १ राजु+तल ७ राजु-८ राजु; उसका आधा ८ : २ =४; ४X उत्सेध ७ = २८; २८X मोटाई ७-१६६ धनराजु। ऊर्ध्वलोक का धनफल (दूसरी गाथा) मूलविस्तार १४ मध्य विस्तार ५-- ५; ५+ मुखविस्तार १ = ६, उसका आधा ३; ३x उत्सेध का वर्ग ४६ (७४७)=१४७ धनराजु । समस्त लोक का प्रमाण १६६+१४७-.-३४३ घनराजु । शंकाकार द्वारा पूर्व में कहा गया था कि यदि अन्य आचार्यों द्वारा प्ररूपित लोक को ग्रहण न करके उसे सात राजुओं के धन प्रमाण माना जाता है तो पाँच द्रव्यों के आधारभूत लोक का ग्रहण नहीं होगा, क्योंकि उसमें सात राजुओं का घनप्रमाण सम्भव नहीं है । तथा वैसा होने पर जिन तीन गाथासूत्रों को उससे अप्रमाण ठहराया था उनका अपनी उपर्युक्त मान्यता के १. सूत्र १,३,४ व उसकी धवला टीका पु० ४, पृ० ४८-५६ २. पु० ४, पृ० २०-२१ ४०४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ धवलाकार ने आगे समन्वय भी किया है।' शंकाकार ने एक शंका यह भी की थी कि जीव तो अनन्त हैं, पर लोक असंख्यात प्रदेशवाला ही है; ऐसी अवस्था में उस लोक में अनन्त जीवों का अवस्थान कैसे सम्भव है। इसका परिहार भी धवला (पु० ४, पृ० २२-२५) में विस्तार से किया गया है । क्षेत्रप्ररूपणा के आधारभूत दस पद धवलाकार ने क्षेत्रप्ररूपणा में जीवों की इन अवस्थाओं को आधार बनाया है-स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद। इनमें स्वस्थान दो प्रकार का है-स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान । अपने उत्पन्न होने के ग्राम-नगरादि में सोना, बैठना व गमनादि की प्रवृत्तिपूर्वक रहने का नाम स्वस्थानस्वस्थान है । अपने उत्पन्न होने के ग्राम-नगरादि को छोड़कर अन्यत्र सोना, बैठना व गमनादि की प्रवृत्तिपूर्वक रहने को विहारवत्स्वस्थान कहा जाता है । मूलशरीर को न छोड़कर जीवप्रदेशों का शरीर से बाहर निकलकर जाने का नाम समुद्घात है । वह सात प्रकार का है-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रियिकसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात, तेजसशरीरसमुद्घात, आहारसमुद्घात और केवलीसमुद्घात । धवला में इन सब के स्वरूप का पृथक्-पृथक् विवेचन है । पूर्व पर्याय को छोड़कर नवीन पर्याय की प्राप्ति के प्रथम समय में जो अवस्था होती है उसे उपपाद कहा जाता है । वह एक ही प्रकार का है । इस तरह दो प्रकार के स्वस्थान, सात प्रकार के समुद्घात और एक उपपाद इन दस अवस्थाओं से विशेषित मिथ्यादृष्टि आदि चौदह जीवसमासों के क्षेत्र की प्ररूपणाविषयक प्रतिज्ञा कर धवलाकार ने प्रथमतः सूत्र निर्दिष्ट मिथ्यादृष्टियों के समस्त लोकक्षेत्र को स्पष्ट किया है । उन्होंने कहा है कि मिथ्यादृष्टि जीव स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद इन पाँच अवस्थाओं के साथ समस्त लोक में रहते हैं। इसका कारण यह है कि समस्त जीवराशि के संख्यातवें भाग से हीन सब जीवराशि स्वस्थानस्वस्थान रूप है । वेदना व कषायसमुद्घातों में वर्तमान जीव भी समस्त जीवराशि के संख्यातवें भाग मात्र है । मारणान्तिकसमुद्घातगत जीव भी सब जीवराशि के संख्यातवें भाग मात्र हैं । इसका भी कारण यह है कि इन तीनों जीवराशियों का समुद्घातकाल अपने जीवित के संख्यातवें भाग मात्र है । उपपादराशि सब जीवराशि के असंख्यातवें भाग है, क्योंकि वह एकसमय संचित है। इस प्रकार ये पांचों जीवराशियाँ अनन्त हैं, अतएव वे समस्त लोक में स्थित हैं। विहारवत्स्वस्थान में परिणत मिथ्यादृष्टि लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि सपर्याप्तराशि ही विहार करने के योग्य है। इसमें भी उसका संख्यातवा भाग ही विहार में परिणत होता है। कारण कि 'यह मेरा है' इस बुद्धि से जो क्षेत्र गृहीत है वह तो स्वस्थान है और उससे बाहर जाकर रहना, इसका नाम विहारवत्स्वस्थान है । उस विहार में रहने का काल अपने निवासस्थान में रहने के काल के संख्यातवें भाग है। १. धवला पु. ४, पृ० १०-२२ २. धवला पु० ४, पृ० २६-३१ षट्कण्डायम पर टीकाएँ / ४०५ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रसंग में धवलाकार ने स्वयंप्रभ पर्वत के परमभाग में अवस्थित दीर्घ आयु वं विशाल अवगाहनावाली पर्याप्त राशि को प्रधान व उनकी अवगाहनाओं के घनांगुल आदि करके गणित प्रक्रिया के आधार से यह प्रकट किया है कि विहारवत्स्वस्थान की अपेक्षा मिथ्यादृष्टियों का क्षेत्र संख्यात सूच्यंगुल से गुणित जगप्रतर प्रमाण है जो लोक का असंख्यातवाँ भाग है । वह अधोलोक व ऊर्ध्वलोक के असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग और अढ़ाई द्वीप से असंख्यातगुणा है। यहां यह स्मरणीय है कि प्रस्तुत क्षेत्रप्रमाण के विशेष स्पष्टीकरण के लिए धवलाकार ने लोक को पाँच प्रकार से ग्रहण किया है- (१) सात राजुओं का धनप्रमाण सामान्यलोक, (२) एक सौ छ्यानबे (१६६) धनराजु प्रमाण अधोलोक, (३) एक सौ सैतालीस (१४७) धनराजु प्रमाण ऊर्ध्वलोक, (४) पूर्व-पश्चिम में एक राजु विस्तृत, दक्षिण-उत्तर में सात राजु आयत और एक लाख योजन ऊँचा तिर्यग्लोक या मध्यलोक, और (५) पैतालीस लाख योजन विस्तारवाला व एक लाख योजन ऊंचा गोल मनुष्यलोक अथवा अढ़ाई द्वीप।' वैक्रियिकसमुद्घातगत मिथ्यादृष्टियों का क्षेत्र पूर्व पद्धति के अनुसार लोक का असंख्यातवाँ भाग, अधोलोक व ऊर्ध्वलोक इन दो लोकों का असंख्यातवाँ भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवाँ भाग और अढ़ाई द्वीप से असंख्यातगुणा कहा गया है। साथ ही यहाँ ज्योतिषी देवों की सात धनुषप्रमाण ऊँचाई प्रधान है।' यद्यपि इस क्षेत्रप्रमाण के प्रसंग में मूल सूत्रों में स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद इन तीन अवस्थाओं का ही सामान्य से उल्लेख है; वहाँ स्वस्थान के पूर्वोक्त दो और समुद्घात के सात भेदों का निर्देश नहीं किया गया है, फिर भी धवलाकार ने इन भेदों के साथ दस अवस्थाओं को आधार बनाकर क्षेत्रप्रमाण की जो प्ररूपणा की है वह आचार्यपरम्परागत उपदेश के अनुसार तथा 'मिथ्यादृष्टि' इस सामान्य वचन से सूचित सात मिथ्यादृष्टिविशेषों को लक्ष्य बनाकर की है। इसी प्रकार सूत्रों में अनिर्दिष्ट शेष चार लोकों को भी सूत्रसूचित मानकर उनके आश्रय से प्रस्तुत क्षेत्र प्रमाण को निरूपित किया गया है। इस ओघ क्षेत्रप्रमाण की प्ररूपणा में सूत्रकार ने एक ही सूत्र (१,३,३) में सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त सब का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग निर्दिष्ट किया है। लेकिन उसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने पूर्वोक्त प्रक्रिया के अनुसार सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि ओर असंयतसम्यग्दृष्टि इन तीन के, संयतासंयतों के तथा प्रमत्तसंयत से लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त संयतों के क्षेत्र की पृथक्-पृथक् प्ररूपणा की है। इसी प्रकार सत्र (१,३,४) में सयोगिकेवलियों के क्षेत्र का जो सामान्य से उल्लेख किया गया है उसे विशद करते हुए धवलाकार ने विशेष रूप से दण्डसमुद्घातगत, कपाटसमुद्घात, १. धवला पु० ४, पृ० ३१-३८ २. धवला पु० ४, पृ० ३० ३. मिच्छाइटिस्स सत्थाणादी सत्त वि सेसा सुत्तेण अणुदिट्ठा अस्थि त्ति कधं णव्वदे? आइरिय परंपरागदुवदेसादो। किं चXXXसेस चत्तारि वि लोगा सुत्तेण सूचिदा चेवxxx तम्हा सुत्तसंबद्ध मेवेदं वक्खाणमिदि ।-धवला पु० ४, पृ० ३८-३६ ४. धवला पु० ४, पृ० ३६-४७ ४०६ / षट्लण्डागम-परिशीलन Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतरसमुद्घातगत और लोकपूरणसमुद्धातगत केवलियों के क्षेत्र की प्ररूपणा पूर्व पद्धति के अनुसार पृथक्-पृथक् की है।' प्रतरसमुद्घातगत केवली के क्षेत्र प्रमाण के प्रसंग में उद्धत दो गाथाओं के आधार से धवला में ऊर्वलोक और अधोलोक का घनफल दिखलाया गया है। इसी प्रसंग में आगे लोकपर्यन्त अवस्थित वातवलयों से रोके गये क्षेत्र के प्रमाण को भी गणित-प्रक्रिया के आश्रय से निकाला गया है। तदनुसार समस्त वातवलयरुद्ध क्षेत्र इतना है १०२४१६८३४८७ जगप्रतर १०६७६० इस वातवलयरुद्ध क्षेत्र को धनलोक में से कम कर देने पर. प्रतरसमुद्घात केवली का क्षेत्र कुछ कम लोकप्रमाण सिद्ध होता है। इसे अधोलोक के प्रमाण से करने पर वह साधिक एक अधोलोक के चतुर्थ भाग से कम दो अधोलोक प्रमाण होता है । अत्रलोक के प्रमाण से करने पर वह ऊर्वलोक के कुछ कम तृतीय भाग से अधिक दो ऊर्वलोक प्रमाण होता है। आवेश की अपेक्षा क्षेत्रप्रमाण __ इस प्रकार ओघ की अपेक्षा क्षेत्र प्रमाण की प्ररूपणा के समाप्त हो जाने पर, आगे आदेश की अपेक्षा यथाक्रम से गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में जहाँ जितने गुणस्थान सम्भव हैं उनमें प्रस्तुत क्षेत्र प्रमाण की प्ररूपणा की गयी है । प्ररूपणा की पद्धति प्रसंग के अनुसार पूर्ववत् ही रही है। यथा सर्वप्रथम गतिमार्गणा के आश्रय से नरकगति में वर्तमान नारकियों में मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक प्रत्येक गुणस्थानवी नारकियों का क्षेत्र सूत्र (१,३,५) में लोक का असंख्यातवाँ भाग कहा गया है। उसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने स्वस्थानस्वस्थान व विहारवत्स्वस्थान तथा वेदना, कषाय व वैक्रियिक समुद्घातगत नारकमिथ्यादृष्टियों का सामान्यलोक, अधोलोक, ऊर्ध्वलोक और तिर्यग्लोक इन चार का असंख्यातवाँ भाग तथा अढ़ाईद्वीप से असंख्यातगुणा बतलाया है । इसे विशद करते हुए उन्होंने गणित प्रक्रिया के अनुसार प्रथमादि पृथिवियों में यथाक्रम से सम्भव १३ व ११ आदि पाथडों में वर्तमान नारकियों के शरीरोत्सेध के प्रमाण को निकाला है । तत्पश्चात् अवगाहना में सातवी पृथिवी को और द्रव्य की अपेक्षा प्रथम पृथिवी को प्रधान करके स्वस्थानस्वस्थान आदि उन पदों में परिणत कितनी जीवराशि सम्भव है, इत्यादि का विचार करते हुए मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि आदि चारों गुणस्थानों में क्षेत्र प्रमाण को व्यक्त किया है । विशेषता यह रही है कि सासादनसम्यग्दृष्टि के उपपादपद सम्भव नहीं है और सम्यग्मिथ्यादृष्टि के मारणान्तिकसमुद्घात सम्भव नहीं है। इस प्रकार सामान्य नारकियों के क्षेत्र को बतलाकर आगे सूत्र (१,३,६) में केवल यह सूचना कर दी है कि इसी प्रकार सातों पृथिवियों में इस क्षेत्रप्रमाण को जानना चाहिए। __ इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने स्पष्ट कर दिया है कि सूत्र में द्रव्याथिकनय की १. धवला पु० ४, पृ० ४८-५६ २. वही, पृ० ५६-६५ षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४०७ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपेक्षा वैसा कहा गया है। पर्यायाथिकनय की अपेक्षा इन पृथिवियों में विशेषता भी है। धवला में उस विशेषता को भी स्पष्ट किया गया है (पु० ४, पृ० ६५-६६) । __क्षेत्रप्रमाणप्ररूपणा का यही क्रम आगे यथासम्भवं तिथंच आदि शेष तीन गतियों में और इन्द्रिय आदि शेष तेरह मार्गणाओं में भी रहा है । ४. स्पर्शनानुगम पूर्वोक्त जीवस्थानगत आठ अनुयोगद्वारों में स्पर्शनानुगम चौथा है। धवलाकार ने यहां प्रथम सूत्र की व्याख्या कर सर्वप्रथम स्पर्शन के ये छह भेद निर्दिष्ट किये हैं-नामस्पर्शन, स्थापनास्पर्शन, द्रव्यस्पर्शन, क्षेत्रस्पर्शन, कालस्पर्शन और भावस्पर्शन। आगे उन्होंने इन सब स्पर्शनभेदों के स्वरूप का भी विवेचन किया है। उनमें से यहाँ जीवक्षेत्रस्पर्शन अधिकृत है।' पूर्व पद्धति के अनुसार धवला में इस स्पर्शन की प्ररूपणा भी प्रथमतः ओघ की अपेक्षा और तत्पश्चात् आदेश की अपेक्षा की गयी है। ___ओघप्ररूपणा--सूत्रकार ने यहाँ सर्वप्रथम मिथ्यादृष्टियों के स्पर्शनक्षेत्र को समस्त लोक बतलाया है। इस सूत्र की व्याख्या में धवलाकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि क्षेत्रानुयोगद्वार में जहाँ सभी मार्गणाओं का आश्रय लेकर सब गुस्थानों के वर्तमान काल सम्बन्धी क्षेत्र की प्ररूपणा की गयी है वहाँ प्रकृत अनुयोगद्वार में उन सभी मार्गणाओं का आश्रय लेकर सभी गुणस्थानों के अतीत काल से सम्बन्धित क्षेत्र की प्ररूपणा की जाने वाली है। क्षेत्रानुयोगद्वार के समान स्पर्शन अनुयोगद्वार में स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान तथा वेदनादि सात समुद्घात और उपपाद इन दस पदों के आश्रय से प्रकृत स्पर्शन की भी प्ररूपणा की गयी है तथा लोक से सामान्य लोक आदि वे ही पाँच लोक विवक्षित रहे हैं। लोक का प्रमाण ३४३ धनराजु यहाँ भी अभीष्ट रहा है। ___ सूत्र (१,४,२) में जो मिथ्यादृष्टियों का स्पर्शनक्षेत्र सर्व लोक कहा गया है वह द्रव्याथिकनय की दृष्टि से कहा गया है। पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा वह कितना है, इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा कि स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय व मारणान्तिक समुद्घात तथा उपपाद इन पदों से परिणत मिथ्यादृष्टियों के द्वारा अतीत और वर्तमान काल में समस्त लोक का स्पर्श किया गया है। विहार वत्स्वस्थान व वैक्रियिक समुद्घात से परिणत उनके द्वारा वर्तमान में सामान्य लोक, अधोलोक और ऊर्ध्व लोक इन तीन का असंख्यातवाँ भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवाँ भाग और अढ़ाईद्वीप से असंख्यात गुणा क्षेत्र स्पर्श किया गया है। धवलाकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि अपवर्तना का क्रम यहाँ क्षेत्र के ही समान है। ___अतीत काल में उनके द्वारा चौदह भागों में कुछ कम आठ भाग स्पर्श किये गये हैं। इसका अभिप्राय यह है कि लोक के मध्य में एक राजु के वर्गप्रमाण विस्तृत और चौदह राजु आयत जो त्रसनाली है उसके एक राजु लम्बे-चौड़े चौदह भागों में आठ भागों का उनके द्वारा स्पर्श किया गया है। वे आठ भाग हैं-मेरुतल के नीचे के दो भाग और उससे ऊपर के छह भाग । कारण १. धवला पु० ४, पृ० १४१-४४ २. धवला पु० ४, पृ० १४५-४७ ४०८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह है कि वे मिथ्यादृष्टि नीचे तीसरी पृथिवी तक दो राजु और ऊपर सोलहवें कल्प तक छह राजु इस प्रकार उन चौदह भागों में से आठ भागों में विहार व विक्रिया करते हैं। कुछ कम करने का कारण यह है कि तीसरी पृथिवी के नीचे के एक हजार योजन प्रमाण क्षेत्र में उनका निहार सम्भव नहीं है।' सूत्र (१,४.३) में सासादनसम्यग्दृष्टियों का स्पर्शनक्षेत्र लोक का असंख्यातवा भाग कहा गया है। उनके इस क्षेत्रप्रमाण का उल्लेख इसके पूर्व क्षेत्रानुगम अनुयोगद्वार सूत्र (१,३,३) में भी किया जा चुका है। इससे पुनरुक्ति दोष का प्रसंग प्राप्त होता है, इस शंका को हृदयंगम कर इसके परिहारस्वरूप धवलाकार ने कहा है कि प्रस्तुत सूत्र में जो क्षेत्रानुयोगद्वार में प्ररूपित क्षेत्र की पुनः प्ररूपणा की गयी है वह मन्दबुद्धि शिष्यों को स्मरण कराने के लिए है। अथवा चौदह गुणस्थानों से सम्बद्ध अतीत, अनागत और वर्तमान तीनों काल से विशिष्ट क्षेत्र के विषय में पूछने पर शिष्य के सन्देह को दूर करने के लिए अतीत व अनागत इन दो कालों से विशिष्ट उस क्षेत्र की प्ररूपणा की जा रही है । तदनुसार स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान तथा वेदना, कषाय, वैक्रियिक व मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदों से परिणत उक्त सासादनसम्यग्दष्टियों के द्वारा चार लोकों का असंख्यातवाँ भाग और मानुषक्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया गया है। ___ आगे के सूत्र (१,४,४) में सासादनसम्यग्दृष्टियों का स्पर्शनक्षेत्र कुछ कम आठ बटे चौदह भाग अथवा बारह बटे चौदह भाग का भी निर्देश है। उसकी व्याख्या में धवला में स्पष्ट किया गया है कि यह सूत्र अतीत काल से विशिष्ट उनके स्पर्शनक्षेत्र का प्ररूपक है। आगे इस को देशामर्शक कहकर पर्यायाथिक नय की अपेक्षा उसकी प्ररूपणा करते हुए यह स्पष्ट किया है कि स्वस्थानस्वस्थानगत उन सासादनसम्यग्दृष्टियों ने तीन लोकों के असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग और अढाई द्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र का स्पर्श किया है। अतीत काल से सम्बद्ध उन सासादनसम्यग्दृष्टियों के इस स्वस्थान क्षेत्र को स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने प्रथमत: तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टियों के क्षेत्र की प्ररूपणा में कहा है कि त्रसजीव त्रसनाली के भीतर ही होते हैं, इस प्रकार राजुप्रतर के भीतर सर्वत्र सासादनसम्यग्दृष्टियों की सम्भावना है। इस क्षेत्र को तिर्यग्लोक के प्रमाण से करने पर वह उसका संख्यातवाँ भाग होकर संख्यात अंगुल बाहल्यरूप जगप्रतर होता है। तत्पश्चात् ज्योतिषी सासादनसम्यग्दृष्टियों के स्वस्थानस्वस्थान क्षेत्र के निकालने के लिए धवलाकार ने जम्बूद्वीप व लवणसमुद्र आदि असंख्यात द्वीप-समुद्रों में अवस्थित चन्द्र-सूर्यादि समस्त ज्योतिषी देवों की संख्या को गणित-प्रक्रिया के आधार से निकाला है। उस प्रसंग में धवलाकार ने यह अभिमत व्यक्त किया है कि स्वयम्भूरमण समुद्र के आगे भी राजु के अर्धच्छेद हैं। इसका आधार उन्होंने ज्योतिषियों की संख्या के लाने में कारणभूत दो सौ छप्पन अंगुल के वर्गरूप भागहार के प्ररूपक सूत्र' को बतलाया है। इस पर यह शंका की गयी कि "जितनी द्वीप-समुद्रों की संख्या है तथा जितने जम्बूद्वीप के अर्धच्छेद हैं, एक अधिक उतने ही राजु के अर्धच्छेद हैं" ऐसा जो परिकर्म में कहा गया है १. धवला पु० ४, पृ० १४८ २. खेत्तेण पदरस्स बेछप्पण्णंगुलसयवग्गपडिभागेण ।-सूत्र १,२,५५ (पु० ३) षट्खण्डागम पर टोकाएँ / ४०६ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उससे उक्त कथन का विरोध क्यों न होगा। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि उसके साथ तो विरोध होगा, किन्तु सूत्र के साथ उसका विरोध नहीं होगा। इसलिए उस व्याख्यान को ग्रहण करना चाहिए, न कि परिकर्म के उस कथन को; क्योंकि वह सूत्र के विरुद्ध है। सूत्र के विरुद्ध व्याख्यान नहीं होता है, अन्यथा कुछ व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी। तात्पर्य यह है कि स्वयम्भूरमण समुद्र के आगे राजु के अर्धच्छेद हैं, पर वहाँ ज्योतिषी देव नहीं हैं। इससे उवत भागहार की उत्पत्ति के लिए तत्प्रायोग्य अन्य संख्यात रूपों को भी राजु के अर्धच्छेदों में से कम करना चाहिए। __ आगे धवलाकार ने पूर्व निर्दिष्ट सूत्र की प्रामाणिकता को लक्ष्य में रखते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि हम(आ० वीरसेन) ने जो यह राजु के अर्धच्छेदों के प्रमाणविषयक परीक्षा का विधान किया है वह अन्य आचार्यों के उपदेश का अनुसरण न कर केवल तिलोयपण्णत्तिसुत्त का अनुसरण करता है। तदनुसार ज्योतिषी देवों के भागहार के प्ररूपक जिस सूत्र का पूर्व में निर्देश है उस पर आधारित युक्ति के बल से प्रकृत गच्छ के साधनार्थ उसकी प्ररूपणा हमने की है। इसके लिए उन्होंने ये दो उदाहरण भी दिए हैं ) जिस प्रकार सासादनसम्यग्दष्टि. आदि के द्रव्यप्रमाण के प्रसंग में हमने अन्तर्महत में प्रयुक्त 'अन्तर' शब्द को समीपार्थक मानकर उसके आधार से अन्तर्मुहूर्त का अर्थ त के समीप (मुहूर्त से अधिक)किया है। इससे उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्दृष्टि का अवहारकाल असंख्यात आवली प्रमाण बन जाता है। इसके विपरीत यदि अन्तर्मुहूर्त को सर्वत्र संख्यात आवलियों प्रमाण ही माना जाय तो वह घटित नहीं होता है। (२) कुछेक पूर्व आचार्यों की मान्यता के अनुसार लोक का आकार चारों दिशाओं में गोल है। उसका विस्तार नीचे तलभाग में सात राजु है। पश्चात् वह ऊपर क्रम से हीन होता हुआ सात राजु ऊपर जाने पर एक राजु मात्र रह गया है। फिर क्रम से आगे वृद्धिंगत होकर वह साढ़े दस राजु ऊपर जाने पर पाँच राजु हो गया है। तत्पश्चात् पुनः हानि को प्राप्त होता हुआ वह अन्त में चौदह राजु ऊपर जाने पर एक राजु रह गया है। धवलाकार का कहना है कि यदि आचार्यों द्वारा प्ररूपित लोक को वैसा स्वीकार किया जाय तो जिन दो गाथासूत्रों के आधार से प्रतरसमुद्घातगत केवली का क्षेत्र कुछ कम (वातवलयरुद्ध क्षेत्र से ही न) ३४३ घनराजु प्रमाण कहा गया है वे गाथासूत्र' निरर्थक ठहरते हैं, क्योंकि उपर्युक्त लोक का घनफल १६४ ३२८ घनराजु ही आता है, जो ३४३ घनराजुओं से हीन है। इससे धवलाकार वीरसेनाचार्य ने लोक को गोलाकार न मानक र आयत चतुरस्र माना है। तदनुसार उसका आकार इस प्रकार रहता है-पूर्व-पश्चिम में नीचे सात राजु, ऊपर १. धवला पु० ४, पृ० १५७;धवला के अन्तर्गत यह प्रसंगप्राप्त गद्य भाग प्रसंगानुरूप शब्द परिवर्तन के साथ वर्तमान 'तिलोयपण्णत्ती' में उसी रूप में उपलब्ध होता है । देखिए, धवला पु० ४, पृ० १५२-५६ तथा ति०प० २, पृ० ६४-६६ । (ति०प० में सम्भवतः उसे धवला से लिया गया होगा।) २. धवला पु० ३, पृ० ६६-७० ३. धवला पु० ४, पृ० २०-२१ ४१० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम से हीन होकर सात राजु ऊपर जाने पर एक राजु, फिर वृद्धि को प्राप्त होकर साढ़े दस राजु ऊपर जाने पर पांच राजु और पुनः हीन होता हुआ अन्त में चौदह राजु ऊपर जाने पर एक राजु मात्र विस्तृत है। दक्षिण-उत्तर में वह सर्वत्र सात राजु बाहल्यवाला है। इस प्रकार के लोक का प्रमाण ३४३ घनराजु प्राप्त हो जाता है। इससे न तो वे दो गाथासूत्र ही निरर्थक होते हैं और न ज्योतिषी देवों के द्रव्यप्रसाण के लाने में कारणभूत दो सौ छप्पन अंगुल के वर्गरूप भागहार का प्ररूपक सूत्र' भी असंगत ठहरता है। ___इस प्रकार सूत्रों की प्रामाणिकता को सुरक्षित रखते हुए धवलाकार आ० वीरसेन ने उन सूत्रों पर आधारित युक्ति के बल से कुछ पूर्वाचार्यों के उपदेश के विरुद्ध होने पर भी मुहूर्त से अधिक (असंख्यात आवली प्रमाण) अन्तर्मुहूर्त को, आयत चतुरस्र लोक को और स्वयम्भूरमणसमुद्र के बाह्य भाग में तत्प्रायोग्य राजु के संख्यात अर्धच्छेदों को सिद्ध किया है। उपर्युक्त गणित-प्रक्रिया के आधार से धवलाकार ने समस्त ज्योतिषी देवों को बिम्बशलाकाओं को निकाला है । तदनुसार उन्हें संख्यात धनांगुल से गुणित करने पर ज्योतिषी देवों का स्वस्थान क्षेत्र होता है। उस स्वस्थान क्षेत्र को संख्यात रूपों से गुणित करके संख्यात धनांगुल से अपवर्तित करने पर ज्योतिषी देवों की संख्या आती है। उसे ज्योतिषी देवों के उत्सेध से गणित विमानों के अभ्यन्तर प्रतरांगुलों से गुणित करने पर ज्योतिषी देवों का स्वस्थान क्षेत्र तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग मात्र निर्धारित होता है। इसी प्रकार से धवला में सासादनसम्यग्दृष्टि व्यन्तर देवों के भी स्वस्थानक्षेत्र को तिर्यगलोक के संख्यातवें भाग मात्र सिद्ध किया गया है। उन सासादनसम्यग्दृष्टियों के द्वारा विहार, वेदना-समुद्घात, कषाय-समुद्घात और वैक्रियिक-समुद्घात इन पदों की अपेक्षा लोकनाली के चौदह भागों में से कुछ कम (तीसरी पृथिवी के नीचे के हजार योजनों से कम) आठ भागों का स्पर्श किया गया है। मारणान्तिक समुदघात से परिणत उनके द्वारा उन चौदह भागों में से कुछ कम बारह भागों का स्पर्श किया गया है जो इस प्रकार सम्भव है ..... मेरूमूल से ऊपर ईषत्प्राग्भार पृथिवी तक सात राजु और नीचे छठी पृथिवी तक पाँच राजु, इन दोनों के मिलाने पर सासादनमारणान्तिक क्षेत्र का आयाम बारह (७+५) राजु हो जाता है। विशेष इतना है कि उसे छठी पृथिवी के नीचे के हजार योजन से कम समझना चाहिए। उपपाद से परिणत उनके द्वारा उक्त चौदह भागों में से नीचे छठी पृथिवी तक पाँच राजु और ऊपर आरण-अच्युत कल्प तक छह राजु, इस प्रकार ग्यारह (६-५) भागों का स्पर्श किया गया है। यहाँ भी पूर्व के समान हजार योजन से उसे कम समझना चाहिए। यहाँ मारणान्तिक समुद्घात के प्रसंग में कुछ विशेष ज्ञातव्य है। मारणान्तिक समुद्घात से परिणत सासादनसम्यग्दृष्टियों का स्पर्शन १३ बटे १४ भाग निर्दिष्ट है। इस पर वहाँ शंका उठायी गयी है कि यदि सासादनसम्यग्दृष्टि एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं तो उनके दो गुणस्थान होना चाहिए। पर ऐसा है नहीं, क्योंकि सत्प्ररूपणा में उनके एकमात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का सद्भाव दिखलाया गया है। आगे द्रव्यप्रमाणानुगम में भी उनमें एक मिथ्यादृष्टि गुण १. द्रव्यप्रमाणानुगम, सूत्र ५५ व ६५; (पु० ३, पृ० २६८ व २७५) २. सूत्र १,१,३६ (पु० १, पृ० २६१) षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ४११ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान से सम्बन्बित द्रव्यप्रमाण की प्ररूपणा की गयी है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि कौन यह कहता है कि सासादनसम्यग्दृष्टि एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं ? वे वहाँ मारणान्तिक समुद्घात को करते हैं ऐसा हमारा निश्चय है। पर वे वहाँ उत्पन्न नहीं होते हैं, क्योंकि आयुकाल के समाप्त होने पर उनके सासादनगुणस्थान नहीं पाया जाता है। इस पर यह शंका उत्पन्न हुई है कि जहाँ सासादनसम्यग्दृष्टियों की उत्पत्ति सम्भव नहीं है वहाँ भी यदि वे मारणान्तिक समुद्घात करते हैं तो सातवीं पृथिवी के नारकी भी सासादन गुणस्थान के साथ पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में मारणान्तिक समुद्धात कर सकते हैं, क्योंकि सासादन गुणस्थान की अपेक्षा दोनों में कुछ विशेषता नहीं है। इसके समाधान में वहाँ यह कहा गया है कि उन दोनों में जातिभेद के कारण उपर्युक्त दोष सम्भव नहीं है। और फिर नारकियों का स्वभाव जहां गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होने का है वहाँ देवों का स्वभाव पंचेन्द्रियों में और एकन्द्रियों में भी उत्पन्न होने का है। इसलिए दोनों समान जातिवाले नहीं हैं। पुनः यह शंका की गयी है कि एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्धात को करनेवाले देव समस्त लोकगत एकेन्द्रियों में उसे क्यों नहीं करते हैं । इसके समाधान में कहा गया है कि ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि लोकनाली के बाहर उत्पन्न होने का उनका स्वभाव नहीं है, इत्यादि। इसी प्रकार उनके उपपाद के प्रसंग में भी धवलाकार ने बतलाया है कि कितने ही आचार्य यह कहते हैं कि देव नियम से मूल शरीर में प्रविष्ट होकर ही मरण को प्राप्त होते हैं । तदनुसार उपपाद की अपेक्षा उनका स्पर्शनक्षेत्र कुछ कम १० बटे १४ भाग होता है । इस मत का निराकरण करते हुए धवलाकार कहते हैं कि उनका यह कथन सूत्र के विरुद्ध पड़ता है, क्योकि यहीं पर कार्मणशरीरवाले सासादनसम्यग्दृष्टियों का उपपाद सम्बन्धी स्पर्शनक्षेत्र ११ बटे १४ भाग कहा गया है। अतः सूत्र के विरुद्ध होने से उनका वह व्याख्यान ग्रहण नहीं करना चाहिए । ____ इसी प्रकार जो आचार्य यह कहते हैं कि देव सासादनसम्यग्दृष्टि एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं उनके अभिमतानुसार उनका उपपाद सम्बन्धी स्पर्शक्षेत्र कुछ कम १२ बटे १४ भाग होता है, यह व्याख्यान भी चूँकि पूर्वोक्त सत्प्ररूपणासूत्र और द्रव्यप्रमाणानुगमसूत्र के विरुद्ध पड़ता है, इसलिए वह भी ग्रहण करने योग्य नहीं है।' __ आगे इसी पद्धति से ओघ की अपेक्षा सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि शेष गुणस्थानों में तथा आदेश की अपेक्षा गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में यथाक्रम से प्रस्तुत स्पर्शन की प्ररूपणा की गयी है । इस प्रकार यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है । ५. कालानुगम 'कालानुगम' यह जीवस्थान का पाँचवाँ अनुयोगद्वार है। यहाँ प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने काल के इन चार भेदों का निर्देश किया है-नामकाल, स्थापनाकाल, द्रव्य १. सूत्र १,२,७४-७६ (पु० ३ पृ० ३०५-७) २. कम्मइयकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी ओघं । सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेतं फासिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । एक्कारह चोद्दसभागा देसूणा । -सूत्र १,४,६६-६८ (पु० ४, पृ० २६९-७०) ३. धवला पु. ४, पृष्ठ १४८-६५ द्रष्टव्य हैं। ४१२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल और भावकाल। यथाक्रम से उनके स्वरूप बतलाते हुए उन्होंने पल्लवित, अंकुरित, कुलित, करलित, पुष्पित, मुकुलित एवं कोयलों के मधुर आलाप से परिपूर्ण ऐसे वनखण्ड से प्रकाशित चित्र में लिखित वसन्त को सद्भावस्थापनाकाल और मणिभेद व मिट्टी के ठीकरों आदि में 'यह वसन्त है' इस प्रकार की बुद्धि से की जानेवाली स्थापना को असद्भावस्थापनाकाल कहा है। नोआगमद्रव्यकाल के प्रसंग में तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्र व्यकाल का स्वरूप बतलाते हुए धवला में उल्लेख है कि दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श और पाँच वर्ण से रहित होकर जो कुम्हार के चाक के नीचे की शिल के समान वर्तनास्वरूप है उसे तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकाल कहा जाता है, तथा वह लोकाकाश के प्रमाण है। ___ उसी प्रसंग में विशेष रूप से यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जीवस्थानादि में चूंकि द्रव्यकाल की प्ररूपण नहीं की गयी है, इसलिए उसका सद्भाव ही नहीं है। ऐसा नहीं कहा जा सकता। जीवस्थानादि में उसकी प्ररूपणा न करने का कारण वहाँ छह द्रव्यों का प्ररूपणाविषयक अधिकार का न होना है। इसलिए 'द्रव्यकाल का अस्तित्व है', ऐसा ग्रहण करना चाहिए । नोआगमभावकाल के स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि द्रव्यकाल के निमित्त से जो परिणाम (परिणमन) होता है उसे नोआगमभावकाल कहते हैं। यहाँ नोआगमभावकाल को प्रसंगप्राप्त कहा गया है। यह नोआगमभावकाल समय, आवली व क्षण आदि स्वरूप है। समय के स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा गया है कि एक परमाणु जितने काल में दूसरे परमाणु का अतिक्रमण करता है उसका नाम समय है । पुनश्च परमाणु जितने काल में चौदह राजु प्रमाण आकाश प्रदेशों का अतिक्रमण कर सकता है, उतने ही काल में वह मन्दगति से एक परमाणु से दूसरे परमाणु का भी अतिक्रमण करता है। उसके इतने काल को समय कहा गया है। ___यहाँ यह शंका की गयी है कि पुद्गलपरिणामस्वरूप इन समय, आवली आदि को काल कैसे कहा जा सकता है। इसके समाधान में 'कल्यन्ते संख्यायन्ते कर्म-भव-कायायुस्थितयोऽनेनेति कालशब्दव्युत्पत्तेः' ऐसी 'काल' शब्द की निरुक्ति के अनुसार कहा गया है कि उसके आश्रय से कर्म, भव, आयुस्थिति आदि की संख्या की जाती है, इसलिए उसे काल कहा जाता है। इसके पूर्व वहाँ यह भी कहा जा चुका है कि कार्य में कारण के उपचार से उसे काल कहा गया है । काल, समय और अद्धा ये समानार्थक शब्द हैं। आगे धवला में कुछ काल विभागों का स्पष्टीकरण इस प्रकार से किया गया है __ असंख्यात समयों की एक आवली होती है। तत्प्रायोग्य असंख्यात आवलियों का एक उच्छवास-निःश्वास होता है। सात उच्छवासों का स्तोक होता है। सात स्तोकों का लव होता है। साढ़ अड़तीस लवों की नाली होती है। दो नालियों का मुहूर्त होता है । तीस मुहूर्तों का दिवस होता है। पन्द्रह दिवसों का पक्ष होता है। दो पक्षों का मास होता है। बारह मासों का वर्ष और पांच वर्षों का युग होता है। धवला में कल्पकाल तक इसी क्रम से काल विभागों के प्रमाण के कहने की प्रेरणा कर दी गयी है।' १. इस सबके लिए देखिए धवला पु०४, पृ०३१३-२० । (जिज्ञासुजन कल्प काल तक के कालविभागों को तिलोयपण्णत्ती ४; २८४-३०८ गाथाओं में देख सकते हैं। तुलनात्मक अध्ययन के लिए ति० प० २, की प्रस्तावना पृ० ८० और परिशिष्ट पृ० ६६७-६८ द्रष्टव्य हैं ।) षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४१३ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ प्रसंगप्राप्त मुहूर्त में दो श्लोकों के आश्रय से ३७७३ उच्छ्वासों का तथा ५११० निमेषों का भी उल्लेख है। तीस महर्मों का दिवस होता है, यह पहले कहा जा चुका है। वे मुहूर्त कौन से हैं, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में किन्हीं प्राचीन श्लोकों के आधार से दिन के १५ और रात्रि के १५ मूहूर्त के नामों का निर्देश इस प्रकार किया गया है'--- ___दिनमुहूर्त--१. रौद्र, २. श्वेत, ३. मैत्र, ४. सारभट, ५. दैत्य, ६. वैरोचन, ७. वैश्वदेव, ८. अभिजित, ६. रोहण, १०. बल, ११. विजय, १२. नैऋत्य, १३. वारुण, १४. अर्यमन और १५. भाग्य । रात्रिमुहूर्त--१. सावित्र, २. धुर्य, ३. दात्रक, ४ यम, ५. वायु, ६. हुताशन, ८. भानु, ७. वैजयन्त, ६. सिद्धार्थ, १०. सिद्ध सेन, ११. विक्षोभ, १२. योग्य, १३. पुष्पदन्त, १४, सुगन्धर्व और १५. अरुण। ___ आगे एक अन्य श्लोक के आश्रय से यह अभिप्राय व्यक्त किया है कि रात और दिन दोनों का समय और मुहूर्त समान माने गये हैं। पर कभी (उत्तरायण में) छह मुहूर्त दिन को प्राप्त होते हैं और कभी (दक्षिणायन में) वे रात को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार उत्तरायण में दिन का प्रमाण अठारह (१२+६) मुहूर्त और रात का प्रमाण बारह मुहूर्त होता है। इसके विपरीत दक्षिणायन में रात का प्रमाण अठारह मुहूर्त और दिन का प्रमाण बारह महूर्त हो जाता है। इस प्रकार दिन के तीन मुहूर्त यदि कभी रात्रि में सम्मिलित हो जाते हैं तो कभी रात्रि के तीन मुहर्त दिन में सम्मिलित हो जाते हैं। __इसी प्रसंग में आगे धवला में “दिवसानां नामानि' ऐसी सूचनापूर्वक एक अन्य श्लोक के द्वारा तिथियों के इन पाँच नामों का निर्देश है-नन्दा, भद्रा, जया, रिवता और पूर्णा । यथाक्रम से इनके ये देवता भी वहाँ निर्दिष्ट हैं-चन्द्र, सूर्य, इन्द्र, आकाश और धर्म । उन तिथियों का प्रारम्भ प्रतिपदा से होता है। जैसे-प्रतिपदा का नाम नन्दा, द्वितीया का नाम भद्रा, तृतीया का नाम जया, चतुर्थी का नाम रिक्ता, पंचमी का नाम पूर्णा, पुनः परिवर्तित होकर षष्ठी का नाम नन्दा, सप्तमी का जया, अष्टमी का भद्रा, इत्यादि । तदनुसार प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी इन तीन तिथियों को नन्दा; द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी को भद्रा, तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशी इन तीन को जया; चतुथीं, नवमी और चतुर्दशी को रिक्ता; तथा पंचमी, दशमी और पूर्णिमा को पूर्णा तिथि कहा जाता है। निर्देश-स्वामित्व आदि के क्रम से कालविषयक विचार धवलाकार ने प्रसंगप्राप्त विषय का विचार प्रायः निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, १. ये चारों श्लोक सिंहसूरर्षि विरचित लोकविभाग में प्रायः उसी रूप में उपलब्ध होते हैं। देखिए लो०वि० ६; १९७-२००; ज्योतिष्क रण्डक की मलयगिरि विरचित वृत्ति में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की तीन गाथाओं को उद्धत करते हुए ३० मुहूर्तों के नामों का उल्लेख किया गया है, जिनमें कुछ समान हैं। देखिए ज्यो०क०मलय ०वृत्ति ५२-५३ २. इस मुहूर्त आदिरूप काल की विशेषता के परिज्ञानार्थ धवला पु० ४, पृ० ३१८-१६ द्रष्टव्य हैं। ४१४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिवि और विधान इन छह अधिकारों में किया है। तदनुसार ऊपर जो विवक्षित काल के स्वरूप को बतलाया है वह 'निर्देश' रूप है। __स्वामित्व-काल का स्वामी कौन है, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा है कि वह जीव और पुदगलों का है; क्योंकि वह इन दोनों के परिणामस्वरूप है। विकल्प रूप में आगे यह भी कहा गया है --- अथवा वह परिभ्रमशील सूर्यमण्डल का है, क्योंकि उसके उदय और अस्तगमन से दिवस आदि उत्पन्न होते हैं । साधन--काल किसके द्वारा निरूपित है, इस प्रकार उसके साधन या कारण को प्रकट करते हुए कहा है कि वह परमार्थकाल से उत्पन्न होता है, अर्थात् उसका कारण परमार्थ या निश्चयकाल है। अधिकरण-वह काल कहाँ पर है, इस प्रकार आधार को स्पष्ट करते हुए कहा है कि वह त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायों से परिपूर्ण मानुषक्षेत्रगत प्रत्येक सूर्यमण्डल में है। __यहाँ यह शंका उत्पन्न हुई कि यदि काल मानुषक्षेत्रगत सूर्यमण्डल में ही अवस्थित है तो तो यव (जौ) राशि के समान समय स्वरूप से अवस्थित और स्व-पर-प्रकाश का कारणभूत वह काल दीपक के समान छह द्रव्यों के परिणामों को कैसे प्रकाशित कर सकता है, जबकि वह समस्त पुद्गलों से अनन्तगुणा है। इस शंका के समाधान में धवलाकार ने कहा है कि जिस प्रकार प्रस्थ (मापविशेष) मापे जानेवाले धान्य आदि से पृथक रहकर भी उनको मापता है उसी प्रकार काल भी छह द्रव्यों से पृथक् रहकर उनके परिणमन को प्रकाशित करता है। अभिप्राय यह है कि वह स्वयं अपने परिणमन का और अन्य पदार्थों के भी परिणमन का कारण है। जैसे दीपक स्वयं को प्रकाशित करता है और अन्य पदार्थों को भी। इस प्रकार अनवस्था दोष का प्रसंग नहीं प्राप्त होता है,अन्यथा स्व-पर-प्रकाशक दीपक के साथ व्यभिचार अनिवार्य होगा। देवलोक में काल के न होने पर भी यहीं के काल से वहाँ काल का व्यवहार होता है। एक शंका वहाँ यह भी की गयी है कि काल जब जीवों और पुद्गलों का परिमाण है तब केवल मानुषक्षेत्रगत सूर्यमण्डल में स्थित न होकर उसे समस्त जीवों और पुद्गलों में स्थित होना चाहिए । इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि लोक में व आगम में वैसा व्यवहार नहीं है। काल का व्यवहार केवल अनादिनिधन सूर्यमण्डल की क्रियाजनित द्रव्यों के परिणामों में ही प्रवृत्त है । अतः यहाँ किसी प्रकार के दोष की सम्भावना नहीं है । स्थिति .. काल कितने समय तक रहता है, इसका विचार करते हुए धवला में कहा है कि वह अनादि व अपर्यवसित है। इस प्रसंग में शंकाकार ने काल का काल उससे भिन्न है या अभिन्न, इन दो विकल्पों को उठाते हुए उनके निराकरणपूर्वक काल से काल का निर्देश असंगत ठहराया है । उसके इस अभिमत का निराकरण कर धवला में कहा है कि अन्य सूर्यमण्डल में स्थित काल द्वारा उससे पृथग्भूत सूर्यमण्डल में स्थित काल का निर्देश सम्भव है। अथवा उससे उसके अभिन्न होने पर भी काल से काल का निर्देश सम्भव है। जैसे- 'घट का भाव' और 'शिलापुत्र क का शरीर' इन उदाहरणों में घट से अभिन्न उसके भाव में और शिलापुत्रक से अभिन्न उसके शरीर में भेद का व्यवहार देखा जाता है । विधान-काल कितने प्रकार का है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि सामान्य से काल एक ही प्रकार का है । वही अतीत, अनागत और वर्तमान के भेद से तीन प्रकार का है। अथवा गुणस्थितिकाल, भवस्थितिकाल, कर्मस्थितिकाल, कायस्थितिकाल, उपपादकाल और षट्खण्डागम पर टोकाएँ / ४१५ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावस्थितिकाल के भेद से वह छह प्रकार का भी है। अथवा परिणामों के अनन्त होने से उन से अभिन्न वह अनेक प्रकार भी है (धवला ४, पृ० ३१३-३२२)। ओघ की अपेक्षा काल-प्ररूपणा सूत्रकार द्वारा प्रथमत: ओघ की अपेक्षा काल की प्ररूपणा की गयी है। तदनुसार यहाँ सर्वप्रथम मिथ्यादृष्टियों के काल की प्ररूपणा करते हुए नाना जीवों की अपेक्षा उनका काल समस्त काल निर्दिष्ट किया गया है। कारण यह कि नाना जीवों की अपेक्षा वे सदा विद्यमान रहते हैं-उनका कभी अभाव सम्भव नहीं है। __एक जीव की अपेक्षा उनका काल अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादिसपर्यवसित कहा गया है (सूत्र १,५, २-३)। इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने अभव्य मिथ्यादृष्टियों के काल को अनादि-अपर्यवसित बतलाया है, क्योंकि उनके मिथ्यात्व का आदि, अन्त और मध्य नहीं है। भव्य मिथ्यादृष्टियों का मिथ्यात्व अनादि होकर भी विनष्ट हो जानेवाला है। उन्हें लक्ष्य में रखकर सत्र में उस मिथ्यात्व का काल अनादि-सपर्यवसित भी निर्दिष्ट किया गया है। धवला में इसके लिए वर्धनकुमार का उदाहरण दिया गया है। अन्य किन्हीं भव्यों के मिथ्यात्व का काल सादि-सपर्यवसित भी कहा गया है। जैसे कृष्ण आदि के मिथ्यात्व का काल । यह सादि-सपर्यवसित मिथ्यात्व का काल जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से दो प्रकार का है। इनमें जघन्य काल उसका अन्तर्मुहर्त मात्र है। धवला में यह उदाहरण भी दिया है-कोई एक सम्पमिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा प्रमत्तसंयत परिगामवश मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। वह सबसे जघन्य अन्तर्महर्त काल उस मिथ्यात्व के साथ रहकर फिर से सम्यगमिथ्यात्व, असंयम के साथ सम्यक्त्व, संयमासंयम अथवा अप्रमत्तभाव के साथ संयम को प्राप्त हो गया। इस प्रकार से उस मिथ्यात्व का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त हो जाता है।' सुत्र (१,५,४) में उस मिथ्यात्व का उत्कृष्ट काल कछ कम अर्धपदगलपरिवर्तन प्रमाण कहा है। इसकी व्याख्या में धवलाकार ने पुद्गलपरिवर्तन के स्वरूप को बतलाते हुए परिवर्तन के ये पाँच भेद निर्दिष्ट किये हैं-द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन भवपरिवर्तन, और भावपरिवर्तन । इनमें द्रव्यपरिवर्तन नोकर्मपदगलपरिवर्तन और कर्मपूदगलपरिवर्तन के भेद से दो प्रकार का है । प्रकृत में इस नोकर्म व कर्मरूप पुद्गलपरिवर्तन की विवक्षा रही है। पुद्गलपरिवर्तनकाल तीन प्रकार का है-- अगृहीत ग्रहणकाल, गृहीतग्रहणकाल और मिश्रग्रहणकाल । विवक्षित पुद्गलपरिवर्तन के भीतर सर्वथा अगृहीत पुद्गलों के ग्रहण का जो काल है वह अगृहीतकाल कहलाता है। उसी विवक्षित पुद्गलपरिवर्तन के भीतर गृहीत पुद्गलों के ग्रहण-काल को गृहीतग्रहणकाल कहते हैं । यहीं पर कुछ गृहीत और कुछ अगृहीत दोनों प्रकार के पुद्गलों के ग्रहणकाल को मिश्रग्रहणकाल कहा गया है। इस पुद्गल परिवर्तन को पूरा करने में जीव किस प्रकार से गृहीत, अगृहीत और मिथ पुद्गलों को ग्रहण किया करता है, इसका धवला में विस्तार से विवेचन है। इसी प्रसंग में वहाँ अगृहीतग्रहण काल आदि के अल्पबहुत्व का भी निरूपण है। १. धवला पु० ४, पृ० ३२३-२५ २. वही, पृ० ३२५-३२ ४१६ / षट्खण्डागम-परिशीलन - Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्रपरिवर्तन आदि शेष चार परिवर्तनों के बाद धवला में कुछ गाथाओं को उद्धृत करते हुए पुद्गलपरिवर्तन आदि के वारों और उनके कालविषयक अल्पबहुत्व का भी निरूपण है । यथा - अतीतकाल में एक जीव के भावपरिवर्तनवार सबसे स्तोक हैं, उनसे भवपरिवर्तनवार अनन्तगुणे हैं, उनसे कालपरिवर्तनवार अनन्तगुणे हैं, उनसे क्षेत्रपरिवर्तनवार अनन्तगुणे हैं, उनसे पुद्गलपरिवर्तनवार अनन्तगुणे हैं । पुद्गलपरिवर्तन का काल सब में स्तोक है, क्षेत्र परिवर्तन का काल उससे अनन्तगुणा है, कालपरिवर्तन का काल उससे अनन्तगुणा है, भवपरिवर्तन का काल उससे अनन्तगुणा है और भावपरिवर्तन का काल उससे अनन्तगुणा है । उपर्युक्त पुद्गलपरिवर्तन का कुछ कम आधा उस सादि सपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट काल है । उसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा है कि कोई एक अनादि मिथ्यादृष्टि अपरीत (अपरिमित) संसारी जीव अधःप्रवृत्त, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण को करके सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ । उस सम्यक्त्व के प्रभाव से उसने उसके ग्रहण करने के प्रथम समय में ही पूर्वोक्त अपरीत संसार को पुद्गलपरिवर्तन के अर्धभाग प्रमाण परिमित संसार कर दिया । अब वह अधिक-से-अधिक इतने काल ही संसारी रहनेवाला है । वैसे उसका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त भी सम्भव है, पर प्रसंग यहाँ उत्कृष्टकाल का है । सम्यक्त्वग्रहण के प्रथम समय में उसका मिथ्यात्व नष्ट हो गया । वह सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल उपशमसम्यग्दृष्टि रहकर मिथ्यात्व को पुनः प्राप्त हो गया । अब वह सम्यक्त्व पर्याय के नष्ट हो जाने से सादि मिथ्यादृष्टि हो गया । पश्चात् वह इस मिथ्यात्व पर्याय के साथ कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण परिभ्रमण करके अन्तिम भव में मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । अन्तर्मुहूर्तमात्र संसार के शेष रह जाने पर वह पुनः तीन कारणों को करके सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ (२) । फिर वेदकसम्यग्दृष्टि हो गया (३) । अन्तर्मुहूर्त में उसने अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन किया ( ४ ) । तत्पश्चात् दर्शनमोहनीय का क्षय किया ( ५ ), अनन्तर वह अप्रमत्तसंयत होकर (६), तथा हजारों बार प्रमत्त अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में परिवर्तन करके (७), क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होता हुआ अप्रमत्तगुणस्थान में अधःप्रवृत्त विशुद्धि से विशुद्ध हुआ ( ८ ) । तत्पश्चात् क्रम से अपूर्वकरण (E), अनिवृत्तिकरण, (१०), सूक्ष्म साम्पराय संयत क्षपक ( ११ ), क्षीणकषाय ( १२ ), सयोगिजिन (१३), और अयोगिजिन होकर मुक्त हो गया (१४) । इस प्रकार सम्यक्त्व से सम्बद्ध इन चौदह अन्तर्मुहूर्तों से कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण सादि सपर्यवसित मिथ्यात्व का उत्कृष्टकाल प्राप्त होता है ।" यहाँ यह शंका उठायी गयी है कि 'मिथ्यात्व' यह पर्याय है और पर्याय में उत्पाद और व्यय दो ही होते हैं, स्थिति उसकी सम्भव नहीं है । और यदि उसकी स्थिति को भी स्वीकार किया जाता है तो फिर उस मिथ्यात्व के द्रव्यरूपता का प्रसंग प्राप्त होता है, क्योंकि आगम के अनुसार उपपाद, व्यय और स्थिति इन तीनों का रहना द्रव्य का लक्षण है । इस शंका का समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि जो एक साथ उन तीनों से युक्त होता है वह द्रव्य है, १. धवला पु० ४, पृ० ३३ ३४; पाँच परिवर्तनों की प्ररूपक ये गाथाएँ उन परिवर्तनों के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए सर्वार्थसिद्धि (२-१०) में भी उद्धृत की गयी हैं । भव और भाव परिवर्तनों से सम्बद्ध गाथाओं में थोड़ा-सा पाठभेद है । २. धवला पु० ४, पृ० ३३-३६ षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४१७ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्तु जो क्रम से उत्पाद, स्थिति और व्यय से संयुक्त होता है वह पर्याय है । इस पर पुनः यह शंका उत्पन्न हुई है कि ऐसा मानने पर पृथिवी, जल, तेज और वायु के भी पर्यायरूपता का प्रसंग प्राप्त होता है। इसके उत्तर में वहां कहा गया है कि वैसा मानने पर यदि उक्त पृथिवी आदि के पर्यायरूपता प्राप्त होती है तो हो, यह तो इष्ट ही है। इस पर यदि यह कहा जाय कि लोक में तो उनके विषय में द्रव्यरूपता का व्यवहार देखा जाता है तो इसमें भी कुछ विरोध नहीं है। कारण यह कि उनमें वैसा व्यवहार शुद्ध-अशुद्ध द्रव्याथिकनयों से सापेक्ष नैगमनय के आश्रय से होता है। इसे भी स्पष्ट करते हुए आगे वहाँ कहा गया है कि शुद्ध द्रव्याथिकनय का आलम्बन करने पर तो जीवादि छह ही द्रव्य हैं। पर अशुद्ध द्रव्याथिकनय की अपेक्षा पृथिवी आदि अनेक द्रव्य हैं, क्योंकि इस नय की विवक्षा में व्यंजन पर्याय को द्रव्य माना गया है। साथ ही, शुद्ध पर्यायार्थिकनय की प्रमुखता में पर्याय के उत्पाद और विनाश ये दो ही लक्षण हैं, पर अशुद्ध पर्यायाथिकनय का आश्रय लेने पर क्रम से उत्पादादि तीनों भी उसके योंकि वज्रशिला और स्तम्भ आदि में जो व्यंजन पर्याय है उसके उत्पाद और विनाश के साथ स्थिति भी पायी जाती है। प्रकृत में मिथ्यात्व भी व्यंजन पर्याय है, इसलिए उसके भी क्रम से उत्पाद, विनाश और स्थिति इन तीनों के रहने में कुछ विरोध नहीं है। ___ इसी प्रसंग में एक अन्य शंका यह भी उठायी गयी है कि भव्य के लक्षण में जो यह कहा गया है कि जिनके भविष्य में सिद्धि (मुक्तिप्राप्ति) होने वाली है वे भव्य सिद्ध हैं, तदनुसार सब भव्य जीवों का अभाव हो जाना चाहिए। और यदि ऐसा नहीं माना जाता है तो फिर भव्य जीवों का वह लक्षण विरोध को प्राप्त होता है । व्यय से सहित राशि नष्ट नहीं होती है, यह कहना भी शक्य नहीं है, क्योंकि अन्यत्र वैसा देखा नहीं जाता है। धवलाकार के अनुसार यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि भव्य जीवराशि अनन्त है। अनन्त उसे ही कहा जाता है जो संख्यात व असंख्यात राशि का व्यय होने पर भी, अनन्त काल में भी समाप्त नहीं होता।' इस पर दोषोद्भावन करते हुए यह कहा गया है कि यदि व्यय सहित राशि समाप्त नहीं होती है तो व्यय से सहित जो अर्धपुद्गल परिवर्तन आदि राशियाँ हैं उनकी अनन्तरूपता नष्ट होती है। उत्तर में कहा है कि यदि अनन्तरूपता समाप्त होती है तो हो, इसमें कोई दोष नहीं है। इस पर यदि यह कहा जाय कि उनमें सूत्राचार्य के व्याख्यान से प्रसिद्ध अनन्तता का व्यवहार तो उपलब्ध होता है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह उपचार के आश्रित है-यथार्थ नहीं है। आगे उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जैसे प्रत्यक्ष प्रमाण से उपलब्ध स्तम्भ को ही लोक व्यवहार में उपचार से प्रत्यक्ष कहा जाता है वैसे ही अवधिज्ञान की विषयता का उल्लंघन करके जो राशियाँ हैं उन्हें भी अनन्त केवलज्ञान की विषय होने के कारण उपचार से अनन्त कहा जाता है। प्रकारान्तर से इस शंका के समाधान में धवलाकार ने यह भी कहा है-अथवा व्यय के होने पर भी कोई राशि अक्षय (न समाप्त होनेवाली) भी है, क्योंकि सबको उपलब्धि अपने प्रतिपक्ष के साथ ही हुआ करती है। तदनुसार व्यय की उपलब्धि भी अपने प्रतिपक्षभूत अव्यय (अक्षय) के साथ समझना चाहिए। इस प्रकार यह भव्यराशि भी अनन्त है, इसीलिए व्यय के १. संते वए ण णि?दि कालेणाणंतएण वि । जो रासी सो अणंतो त्ति विणिद्दिवो महेसिणा ||--धवला पु० ४, पृ० ३३८(उद्धृत) ४१८/ षट्खण्डागम-परिशीलन Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने पर भी वह अनन्त काल में भी समाप्त नहीं होती।' __इसी पद्धति से आगे इस ओघप्ररूपणा में सासादनसम्यग्दृष्टि आदि शेष गुणस्थानों में तथा आदेश की अपेक्षा यथाक्रम से गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में प्रस्तुत काल की प्ररूपणा की गयी है। ६. अन्तरानुगम अन्तर के छह भेद--- यह जीवस्थान का छठा अनुयोगद्वार है। पूर्व पद्धति के अनुसार यहाँ क्रम से ओघ और आदेश की अपेक्षा अन्तर की प्ररूपणा है। यहाँ धवलाकार ने प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए अन्तर के इन छह भेदों का निर्देश किया है-नाम-अन्तर, स्थापना-अन्तर, द्रव्य-अन्तर, क्षेत्र-अन्तर, काल-अन्तर और भाव-अन्तर । आगे क्रम से इनके स्वरूप और भेदों को बतलाते हुए उनमें यहाँ नोआगम भाव-अन्तर को प्रसंगप्राप्त निर्दिष्ट किया गया है। औपशमिक आदि पाँच भावों में दो भावों के मध्य में स्थित विवक्षित भागों को नोआगम भावअन्तर कहा जाता है। अन्तर, उच्छेद, विरह, परिणामान्तरप्राप्ति, नास्तित्वगमन और अन्यभावव्यवधान ये समानार्थक माने गये हैं। अभिप्राय यह है कि विवक्षित गुणस्थानवी जीव गणस्थानान्तर को प्राप्त होकर जितने समय में पुनः उस गुणस्थान को प्राप्त करता है उतना समय उस विवक्षित गुणस्थान का अन्तर होता है । यह अन्तर कम से कम जितना सम्भव है उसे जघन्य अन्तर और अधिक-से-अधिक जितना संभव है उसे उत्कृष्ट अन्तर कहा जाता है। प्रस्तुत अन्तरानुगम अनुयोगद्वार में इसी दो प्रकार के अन्तर का विचार नाना जीव और एक जीव की अपेक्षा से किया गया है (पु० ५, पृ० १-४)। ओघ की अपेक्षा अन्तर ओघ की अपेक्षा अन्तर की प्ररूपणा करते हुए सूत्रकार द्वारा सर्वप्रथम मिथ्यादृष्टियों के अन्तर के प्रसंग में नाना जीवों की अपेक्षा उनके अन्तर का अभाव प्रकट किया गया है (सूत्र १, ६,२)। अभिप्राय यह है कि मिथ्यादृष्टि जीव सदा विद्यमान रहते हैं, उनका कभी अन्तर नहीं होता। एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त मात्र और उत्कृष्ट कुछ कम दो छ्यासठ सागरोपम प्रमाण कहा गया है (१,६, ३-४)। इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा है कि कोई एक मिथ्या दृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम में अनेक बार परिवर्तित होकर परिणाम के वश सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। वहाँ वह सबसे हीन अन्तर्मुहूर्त काल उस सम्यक्त्व के साथ रहकर मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया। इस प्रकार मिथ्यात्व का सबसे जघन्य अन्तर अन्तर्मुहुर्त प्राप्त होता है। यहाँ शंकाकार मिथ्यात्व के अन्तर को असम्भव बतलाते हुए कहता है कि सम्यक्त्वप्राप्ति के पूर्व जो मिथ्यात्व रहा है वही मिथ्यात्व उस सम्यक्त्व की प्राप्ति के पश्चात् सम्भव नहीं है, वह उससे भिन्न ही रहनेवाला है। अतः इन दोनों मिथ्यात्वों के भिन्न होने से मिथ्यात्व का अन्तर सम्भव नहीं है। १. धवला पु० ४, पृ० ३३६-३६ घटनाडागम पर टोकाएँ । ५ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस शंका के समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह कहना तब संगत हो सकता था जब शुद्ध पर्यायार्थिक नय का आलम्बन लिया जाता, पर वैसा नहीं है। यहाँ जो यह अन्तर की प्ररूपणा की जा रही है वह नैगमनय के आश्रय से की जा रही है। नैगमनय सामान्य और विशेष दोनों को विषय करता है इसलिए उक्त प्रकार से दोष देना उचित नहीं है। इसे और भी स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि प्रथम और अन्तिम ये दोनों मिथ्यात्व पर्यायरूप हैं जो भिन्न नहीं हैं; क्योंकि वे दोनों ही मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न होनेवाले आप्त, आगम और पदार्थविषयक विपरीत श्रद्धानस्वरूप हैं तथा दोनों का आधार भी वही एक जीव है। इस प्रकार से उन दोनों में समानता ही है, न कि भिन्नता। इसीलिए सूत्र में जो मिथ्यात्व का अन्तर निर्दिष्ट किया गया है उसमें कोई बाधा नहीं है। यही अभिप्राय आगे भी इस अन्तर प्ररूपणा में सर्वत्र ग्रहण करना चाहिए। उक्त मिथ्यात्व का जो उत्कृष्ट अन्तर दो छ्यासठ साग रोपम प्रमाण सूत्र में वर्णित है उसकी व्याख्या में धवलाकार ने उदाहरण देकर कहा है कि कोई एक तिर्यच अथवा मनुष्य चौदह सागरोपम प्रमाण आयुस्थिति वाले लान्तव अथवा कापिष्ठ कल्पवाले देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ उसने एक सागरोपम काल बिताकर द्वितीय सागरोपम के प्रथम समय में सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया। वहाँ वह शेष तेरह सागरोपम काल तक उस सम्यक्त्व के साथ रहकर वहाँ से च्युत हुआ और मनुष्य उत्पन्न हुआ। वहाँ संयम या संयमासंयम का परिपालन कर अन्त में मनुष्यायु से कम बाईस सागरोपम आयुवाले आरण-अच्युत कल्प के देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्युत होकर मनुष्य उत्पन्न हुआ। वहाँ संयम का परिपालन कर उपरिम प्रैवेयक के देवों में इस मनुष्यायु से हीन इकतीस सागरोपम प्रमाण आयुस्थिति के साथ उत्पन्न हुआ। पश्चात् वह अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वोक्त छ्यासठ (१३-+२२+३१-६६) सागरोपम के अन्त में परिणाम के वश सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। उसमें अन्तर्मुहूर्त रहकर उसने पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया व विश्राम के पश्चात वहाँ से च्यूत होकर मनुष्य उत्पन्न हआ। वहाँ संय अथवा संयमासंयम का पालन कर वह मनुष्यायु से कम बीस सागरोपम आयुस्थिति वाले देवों में उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् यथाक्रम से वह मनुष्यायु से कम बाईस और चौबीस सागरोपम प्रमाण आयुवाले देवों में उत्पन्न हुआ। इस क्रम से अन्तर्मुहूर्त कम दो छ्यासठ (६६+२०+ २२+२४.--१३२) सागरोपमों के अन्तिम समय में वह मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। इस प्रकार से मिथ्यात्व का वह उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कम दो छ्यासठ सागरोपम प्रमाण प्राप्त हो जाता है। धवलाकार ने यहाँ यह स्पष्ट कर दिया है कि यह उत्पत्ति का क्रम अव्युत्पन्न जनों के समझाने के लिए है। यथार्थ में तो जिस किसी भी प्रकार से दो छ्यासठ सागरोपमों को पूरा किया जा सकता है।' इसी पद्धति से आगे इस ओघ प्ररूपणा में सासादनसम्यग्दष्टि व सम्यग्मिथ्यादष्टि आदि शेष गणस्थानों में तथा आदेश की अपेक्षा क्रम से गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में भी प्रस्तुत अन्तर की प्ररूपणा की गयी है। आवश्यकतानुसार धवला में यथावसर उसका स्पष्टीकरण है। १. धवला पु० ५, पृ० ५-७ ४२० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ यह स्मरणीय है कि प्रस्तुत अन्तरानुगम अनुयोगद्वार में नाना जीवों की अपेक्षा जिन गुणस्थानवी जीवों के अन्तर का अभाव निर्दिष्ट है उनका कभी अन्तर उपलब्ध नहीं होताउनका सदा सद्भाव बना रहता है । जैसे, नाना जीवों की अपेक्षा उपर्युक्त मिथ्यादष्टि जीवों के अन्तर का अभाव। ऐसे अन्य गुणस्थान ये भी हैं-असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत (सूत्र ६) तथा सयोगिकेवली (सूत्र १६)। ___ मार्गणाओं में ये आठ सान्तर मार्गणाएँ हैं, जिनमें नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर उपलब्ध होता है १. गतिमार्गणा में लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों का नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र अन्तर होता है (सूत्र ७८-७६)। २-४. योगमार्गणा में वैक्रियिकमिश्र (सूत्र १७०-७१) और आहारक-आहारक मिश्र (सूत्र १७४-७५) । नाना जीवों की अपेक्षा इनका जघन्य व उत्कृष्ट अन्तर क्रम से एक समय व बारह मुहूर्त तथा एक समय व वर्षपृथक्त्व मात्र होता है। ५. संयममार्गणा में सूक्ष्मसाम्प रायसंयत उपशामक (२७२-७३)। इनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट वर्ष पृथक्त्व मात्र अन्तर होता है । ६. सम्यक्त्व मार्गणा के अन्र्तगत उपशमसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टियों का अन्तर जघन्य से एक समय व उत्कर्ष से सात रात-दिन (सूत्र ३५६-५७), संयतासंयतों का यह अन्तर जघन्य से एक समय व उत्कर्ष से चौदह रात-दिन (३६०-६१), प्रमत्त-अप्रमत्तसंयतों का जघन्य से एक समय व उत्कर्ष से पन्द्रह रात-दिन (सूत्र ३६४-६५), तीन उपशामकों का जघन्य से एक समय व उत्कर्ष से वर्षपृथक्त्व (सूत्र ३६८-६६) तथा उपशान्तकषाय-वीतराग-छद्मस्थों का जघन्य से एक समय व उत्कर्ष से वर्षपृथक्त्व (सूत्र ३७२-७३) होता है। ७-८. सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियों का अन्तर जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र होता है (सूत्र ३७५-७६) । ७. भावानुगम यह जीवस्थान का सातवाँ अनुयोगद्वार है। जैसाकि नाम से ही जाना जाता है, इसमें औपशमिकादि पाँच भावों की प्ररूपणा की गयी है। प्रथम सत्र की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने भाव के इन चार भेदों का निर्देश किया है—नामभाव, स्थापनाभाव, द्रव्यभाव और भावभाव। इनके स्वरूप व अवान्तर भेदों का उल्लेख करते हुए धवला में तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य भाव सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का कहा गया है। इनमें जीवद्रव्य को सचित्त, पुद्गल आदि पाँच द्रव्यों को अचित्त और व.थंचित् जात्यन्तररूपता को प्राप्त पुद्गल व जीव द्रव्यों के संयोग को मिश्रनोआगमद्रव्यभाव कहा है । भावभाव दो प्रकार का है-आगमभावभाव और नोआगमभावभाव । इनमें नोआगमभावभाव पाँच प्रकार का है ---औदयिक, औपशमिक, १. उवसम-सुहमाहारे वेगविय मिस्स-ण रअपज्जत्ते । सासणसम्मे मिस्से सान्तरगा मग्गणा अट्ठ ।। सत्तदिणा छम्मासा वासपुधत्तं च बारस मुहुता। पल्लासंखं तिण्णं वरमवरं एगसमयो दु ।।—गो०जी०, १४२-४३ . षदसण्डागम पर टीकाएँ । ४२१ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक । धवला में क्रम से इन पाँचों भावों के स्वरूप को भी स्पष्ट कर दिया गया है। उपर्युक्त नामादि चार भावों में यहाँ नोआगमभावभाव प्रसंगप्राप्त है। इस नोआगभावभाव के जो यहाँ औदयिकादि पाँच भेद निर्दिष्ट किये गये हैं उन्हीं का प्रकृत में प्रयोजन है। कारण यह है कि जीवों में वे पांचों ही भाव पाये जाते हैं, शेष द्रव्यों में वे पाँच भाव नहीं हैं। इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा है कि शेष द्रव्यों में से पुद्गल द्रव्यों में औदयिक और पारिणामिक ये दो भाव ही उपलब्ध होते हैं। इसके अतिरिक्त धर्म, अधर्म, काल और आकाश इन चार द्रव्यों में एक पारिणामिक भाव ही पाया जाता है। पूर्व पद्धति के अनुसार धवला में प्रस्तुत भाव का व्याख्यान भी निर्देश-स्वामित्व आदि के क्रम से किया है। ___ निर्देश-यहाँ भाव के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि द्रव्य के परिणाम को भाव कहते हैं, अथवा पूर्वापर कोटि से भिन्न वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को भाव समझना चाहिए। स्वामित्व-इस प्रसंग में प्रथम तो यह कहा गया है कि भाव के स्वामी छहों द्रव्य हैं। तत्पश्चात् प्रकारान्तर से यह भी कह दिया है—अथवा भाव का स्वामी कोई नहीं है, क्योंकि संग्रहनय की अपेक्षा परिणामी और परिणाम में कोई भेद नहीं है। साधन-भावों के कारण को स्पष्ट करते हुए कहा गया कि वे कर्मों के उदय, क्षय, क्षयोपशम, उपशम अथवा स्वभाव से उत्पन्न होते हैं। जैसे-जीवद्रव्य के भाव तो उपर्युक्त पाँचों कारणों से उत्पन्न होते हैं, पर पुद्गलद्रव्य के भाव कर्मोदय से अथवा स्वभाव से उत्पन्न होते हैं। शेष धर्मादि चार द्रव्यों के भाव स्वभाव से उत्पन्न होते हैं। अधिकरण--इसके प्रसंग में कहा गया है कि वे भाव द्रव्य में ही रहते हैं, क्योंकि गुणी को छोड़कर गुणों का अन्यत्र कहीं रहना सम्भव नहीं है। ____ काल-भावों के काल को स्पष्ट करते हुए उसे अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित, सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित कहा गया है। जैसे-अभव्य जीवों का असिद्धत्व, धर्मद्रव्य का गतिहेतुत्व, अधर्म द्रव्य का स्थिति हेतुत्व, आकाश का अवगाहन-स्वभाव और कालद्रव्य का परिणामहेतुत्व इत्यादि भाव अनादि-अपर्यवसित हैं । भव्य जीवों के असिद्धत्व, भव्यत्व, मिथ्यात्व और असंयम इत्यादि भाव अनादि-सपर्यवसित हैं। केवलज्ञान व केवलदर्शन आदि भाव सादि-अपर्यवसित हैं । सम्यक्त्व व संयम को प्राप्त करके पीछे पुनः मिथ्यात्व व असंयम को प्राप्त होनेवाले जीवों का मिथ्यात्व व असंयम भाव सादि-सपर्यवसित है। विधान-- इसके प्रसंग में यहाँ पूर्वोक्त औदयिक आदि पाँच भावों का उल्लेख पुनः किया गया है। आगे इनके अवान्तर भेदों का भी उल्लेख है। यथा--जीवद्रव्य का औदयिक भाव स्थान की अपेक्षा आठ प्रकार का और विकल्प की अपेक्षा इक्कीस प्रकार का है। स्थान का अर्थ उत्पत्ति का हेतु है। इसे स्पष्ट करते हुए धवला में एक गाथा उद्धृत की गयी है, जिसका अभिप्राय यह है---गति, लिंग, कषाय, मिथ्यादर्शन, असिद्धत्व, अज्ञान, लेश्या और असंयम ये आठ उदय के स्थान हैं। इनमें गति चार प्रकार की, लिंग तीन प्रकार का, कषाय चार प्रकार १. धवला पु० ५, पृ० १८३-८६ ४२२ / षखण्डागम-परिशीलन Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की, मिथ्यादर्शन एक प्रकार का, असिद्धत्व एक प्रकार का, अज्ञान एक प्रकार का, लेश्या छह प्रकार की और असंयम एक प्रकार का है । ये सब मिलकर इक्कीस भेद हो जाते हैं। इसी प्रकार आगे औपशमिक आदि शेष चार जीवभावों के भेदों का निर्देश भी स्थान और विकल्प की अपेक्षा किया गया है, जो प्रायः तत्त्वार्थसूत्र (२,२-७) के समान है। विशेषता यह रही है कि यहाँ स्थान की अपेक्षा भी भावों के निर्देश किया गया है, जबकि तत्त्वार्थसूत्र में सामान्य से ही उनके भेदों का उल्लेख है। यहाँ धवला में स्थान और विकल्प की अपेक्षा जो उन भावभेदों का उल्लेख है उनकी आधार प्राचीन गाथाएँ रही हैं, धवलाकार ने उन्हें यथाप्रसंग उद्धत भी कर दिया है । ___आगे वहाँ 'अथवा' कहकर सांनिपातिक की अपेक्षा छत्तीस भंगों का निर्देश है। सांनिपातिक का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस गुणस्थान अथवा जीवसमास में जिन बहुत से भावों का संयोग होता है उन भावों का नाम सांनिपातिक है। आगे एक, दो, तीन, चार और पाँच भावों के संयोग से होनेवाले भगों की प्ररूपणा की जाती है, ऐसी सूचना करते हुए एकसंयोगी भंग को इस प्रकार प्रकट किया गया है--मिथ्यादष्टि और असंयत यह औदयिकभाव का एक संयोगी भंग है । अभिप्राय यह है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ये दोनों भाव होते हैं । इनमें दर्शनमोहनीय के उदय से मिथ्यात्व होता है और संयमघाती कर्मों के उदय से असंयत भाव होता है। इस प्रकार ये दोनों औदयिक भाव हैं, जिनका संयोग मिथ्याष्टि गणस्थान में देखा जाता है। इस प्रकार यह एकसंयोगी भंग है। आगे धवला में यह सुचना कर दी गयी है कि इसी क्रम से सब विकल्पों की प्ररूपणा कर लेना चाहिए।' ओघ की अपेक्षा भावप्ररूपणा प्रस्तुत भावों की ओघ की अपेक्षा प्ररूपणा करते हुए सूत्र (१,७,२) में मिथ्यात्व को औदयिक भाव निर्दिष्ट किया गया है। इसकी व्याख्या के प्रसंग में यह शंका उठायी गयी है कि मिथ्यावृष्टि के ज्ञान, दर्शन, गति, लिंग, कषाय, भव्यत्व, अभव्यत्व आदि अन्य भी कितने ही भाव होते हैं। उनका उल्लेख सूत्र में नहीं किया गया है, अतः उनके अभाव में संसारी जीवों के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। शंकाकार ने दो गाथाओं को उद्धृत करते हुए उनके द्वारा मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में सम्भव उन भावों के भंगों का भी निर्देश किया है। इस शंका का समाधान करते हुए धवला में कहा है कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि मिथ्या दृष्टि के जो और भी भाव होते हैं सूत्र में उनका प्रतिषेध नहीं किया गया है। किन्तु मिथ्यात्व को छोड़कर जो अन्य गति-लिंग आदि उसके साधारण भाव रहते हैं वे मिथ्यादृष्टित्व के कारण नहीं हैं, मिथ्यात्व का उदय ही एक मिथ्यादृष्टित्व का कारण है, इसीलिए 'मिथ्या दृष्टि' यह औदयिक भाव है, ऐसी सूत्र में प्ररूपणा की गयी है (पु० ६, पृ० १६४-६६)। आगे के सूत्र (१,७,३) में सासादन सम्यग्दृष्टि भाव को पारिणामिक बतलाया गया है । १. धवला पु० ५,१८७-६३ (सांनिपातिक भावों का स्पष्टीकरण तत्त्वार्थवार्तिक (२,७,२१-२४) में विस्तार से किया ग षट्खण्डागम पर टीकाएं / ४२३ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रसंग में धवला में यह शंका उपस्थित हुई है कि भाव को पारिणामिक कहना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि अन्य कारणों से न उत्पन्न होनेवाले परिणाम के अस्तित्व का विरोध है। और यदि अन्य कारणों से उसकी उत्पत्ति मानी जाती है तो उसे पारिणामिक नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि जो पारिणामिक–कारण से रहित है-उसके सकारण होने का विरोध है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि जो भाव कर्मों के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना अन्य कारणों से उत्पन्न होता है उसे पारिणामिक भाव कहा जाता है, न कि अन्य कारणों से रहित को, क्योंकि कारण के बिना उत्पन्न होनेवाले किसी भी परिणाम की सम्भावना नहीं है। यहाँ दूसरी शंका यह उठायी गयी है कि सासादनसम्यग्दृष्टिपना भी सम्यक्त्व और चारित्र के विघातक अनन्तानुबन्धिचतुष्क के उदय के बिना नहीं होता, तब वैसी स्थिति में उसे औदयिक क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है। इसके उत्तर में धवलाकार ने लिखा है कि यह कहना सत्य है, किन्तु यहाँ वैसी विवक्षा नहीं रही है। आदि के चार गुणस्थानों के भावों की प्ररूपणा में दर्शनमोहनीय को छोड़कर शेष कर्मों की विवक्षा वहाँ नहीं रही है। चूंकि सासादनसम्यवत्व दर्शनमोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम इनमें से किसी की अपेक्षा नहीं करता है, अतएव वहाँ दर्शनमोहनीय की अपेक्षा निष्कारण है। यही कारण है कि उसे पारिणामिक कहा जाता है। इस पर यदि यह कहा जाय कि इस न्याय से तो सभी भावों के पारिणामिक होने का प्रसंग प्राप्त होता है तो वैसा कहने में कुछ दोष नहीं है, क्योंकि वह विरोध से रहित है । अन्य भावों में जो पारिणामिकता का व्यवहार नहीं किया गया है उसका कारण यह है कि सासादनसम्यवत्व को छोड़कर अन्य कोई ऐसा भाव नहीं है जो विवक्षित कर्म से उत्पन्न न हुआ हो।' आगे सूत्र (१,७,४) में क्रमबद्ध सम्यग्मिथ्यात्व को क्षायोपशमिक भाव कहा गया है। इस प्रसंग में धवला में यह शंका की गयी है कि प्रतिबन्धक कर्म का उदय होने पर भी जो जीवगुण का अंश प्रकट रहता है उसे क्षायोपशमिक कहा जाता है । कारण कि विवक्षित कर्म में जो पूर्णतः या जीवगुण के घात करने की शक्ति है उसके अभाव को क्षय कहा जाता है। इस क्षयरूप उपशम का नाम क्षयोपशम है। इस प्रकार के क्षयोपशम के होने पर जो भाव उत्पन्न होता है उसे क्षायोपशमिक कहना चाहिए । परन्तु सम्यग्मिथ्यात्व का उदय होने पर सम्यक्त्व का लेश भी नहीं पाया जाता है। इसी से तो उस सम्यग्मिथ्यात्व को सर्वघाती कहा जाता है, इसके बिना. उसके सर्वघातीपना नहीं बनता है। ऐसी परिस्थिति में उस सम्यग्मिथ्यात्व को क्षायोपशमिक कहना संगत नहीं है। __ इस शंका का परिहार करते हुए धवला में कहा गया है कि सम्यग्मिथ्यात्व का उदय होने पर श्रद्धान और अश्रद्धानस्वरूप जात्यन्त रभूत मिश्र परिणाम होता है। उसमें जो श्रद्धानात्मक अंश है वह सम्यक्त्व का अवयव है जिसे सम्यग्मिथ्यात्व का उदय नष्ट नहीं करता है। इसलिए उस सम्यग्मिथ्यात्व को क्षायोपशमिक कहना असंगत नहीं है। __ इस पर शंकाकार पुनः कहता है कि अश्रद्धानरूप अंश के बिना केवल श्रद्धानरूप अंश को 'सम्यग्मिथ्यात्व' नाम प्राप्त नहीं है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशिक भाव नहीं हो सकता १. धवला पु० ५, १६६-६७ ४२४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। इसके समाधान में यह कहा गया है कि इस प्रकार की विवक्षा में सम्यग्मिथ्यात्व भले ही क्षायोपशमिक न हो, किन्तु पूर्ण सम्यक्त्वरूप अवयवी के निराकरण और अवयवभूत सम्यक्त्वांश के अनिराकरण की अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशमिक व सम्यग्मिथ्यारूप द्रव्यकर्म भी सर्वघाती हो सकता है, क्योंकि जात्यन्तरस्वरूप सम्यग्मिथ्यात्व के सम्यक्त्वरूपता सम्भव नहीं है। किन्तु श्रद्धान का भाग कुछ अश्रद्धान का भाग तो नहीं हो सकता, क्योंकि श्रद्धान और अश्रद्धान के एकरूप होने का विरोध है। उसमें जो श्रद्धान का भाग है वह कर्म के उदय से नहीं उत्पन्न हआ है, क्योंकि उसमें विपरीतता सम्भव नहीं है। उसके विषय में 'सम्यग्मिथ्यात्व' यह नाम भी असंगत नहीं है, क्योंकि जिन नामों का प्रयोग समुदाय में हुआ करता है उनकी प्रवृत्ति उसके एक देश में देखी जाती है। इससे सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशमिक है, यह सिद्ध है। किन्हीं आचार्यों का यह भी कहना है कि मिथ्यात्व के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय-क्षय व उन्हीं के सदवस्थारूप उपमशम से, सम्यक्त्व के देशघाती स्पर्धकों के उदय-क्षय व उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम अथवा अनुदयरूप उपशम से और सम्यग्मिथ्यात्व के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय से चूंकि वह सम्यग्मिथ्यात्व होता है, इसलिए उस सम्यग्मिथ्यात्व के क्षायोपशमिकरूपता है। इस मत का निराकरण करते हुए धवला में कहा गया है कि उनका उपर्यक्त कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि वैसा स्वीकार करने पर मिथ्यात्व के भी क्षायोपशमिकरूपता का प्रसंग प्राप्त होता है। कारण यह है कि सम्यग्मिथ्यात्व के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय व उन्हीं के सदस्थारूप उपशम से, सम्यक्त्व के देशघाती स्पर्धकों के उदय-क्षय व उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम अथवा अनुदयरूप उपशम से तथा मिथ्यात्व के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय से मिथ्यात्व भाव की उत्पत्ति उपलब्ध होती है।' इसी प्रकार से आगे सूत्रकार द्वारा जो असंयतसम्यग्दृष्टि आदि शेष गुणस्थानों और गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में प्रस्तुत भावों की प्ररूपणा की गयी है उन सबका स्पष्टीकरण धवला में प्रसंगानुसार उसी पद्धति से किया गया है। प्रस्तुत भावानुगम के अनुसार किस गुणस्थान में कौन से भाव सम्भव हैं, इसका दिग्दर्शन यहाँ कराया जाता हैगुणस्थान भाव सूत्र १. मिथ्यादृष्टि औदयिक १,७,२ २. सासादनसम्यग्दृष्टि पारिणामिक १,७,३ ३. सम्यग्मिथ्या दृष्टि क्षायोपशमिक १,७,४ ४. असंयतसम्यग्दृष्टि औपशमिक, क्षायिक, क्षायोप० १,७,५ उसका असंवतत्व औदयिक १,७,६ ५. संयतासंयत क्षायोपशमिक १,७,७ ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ८. अपूर्वकरण उपशामक औपशमिक १,७,८ अपूर्वकरण क्षपक क्षायिक १,७,६ १. धवला पु०५, पृ० १६८-६६ षट्समागम पर टीकाएँ | ४२५ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव सूत्र ९. अनिवृत्तिकरण उपशामक औपशमिक १,७,८ अनिवृत्तिकरण क्षपक क्षायिक १,७,६ १०. सूक्ष्मसाम्परायिक-संयत उपशामक औपशमिक १,७,८ सूक्ष्मसाम्परायिक-संयत क्षपक क्षायिक १,७,६ ११. उपशान्तकषाय औपशमिक १,७,८ १२. क्षीणकषाय क्षायिक १,७,६ १३. सयोगिकेवली १४. अयोगिकेवली मार्गणाओं में गतिमार्गणा (नरकगति) १. मिथ्यादृष्टि औदयिक १,७,१० २. सासादनसम्यग्दृष्टि पारिणामिक १,७,११ ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि क्षायोपशमिक १,७,१२ ४. असंयतसम्यग्दृष्टि औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक १,७,१३ उसका असंयतत्व औदयिक १,७,१४ (द्वितीयादि पृथिवियों में क्षायिकभाव सम्भव नहीं है-सूत्र १,७,१७) तिर्यंचगति १. मिथ्यादृष्टि औदयिक १,७,१६ २. सासादनसम्यग्दृष्टि पारिणामिक ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि क्षायोपशमिक ४. असंयतसम्यग्दृष्टि औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक ५. संयतासंयत क्षायोपशमिक (पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों के क्षायिकभाव सम्भव नहीं है ।--- १,७,२०) मनुष्यगति १-१४ गुणस्थान गुणस्थान सामान्य के समान १,७,२२ देवगति १-४ गुणस्थान गुणस्थान सामान्य के समान । विशेष-१. भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देव-देवियों तथा सौधर्म-ईशानकल्पवासिनी देवियों के क्षायिकभाव सम्भव नहीं है (सूत्र १,७,२४-२५) । २. अनुदिशों से लेकर सर्वार्थसिद्धि विमान तक देवों में एक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ही होता है (सूत्र १,७,२८)। ___इसी पद्धति से आगे इन्द्रियादि शेष मार्गणाओं में जहाँ जितने गुणस्थान सम्भव हैं उनमें भी भावों को समझा जा सकता है। १,७,२३ ४२६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. अल्पबहुत्वानुगम ____जीवस्थान का यह अन्तिम (८वा) अनुयोगद्वार है। यहाँ प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए धवला में अल्पबहुत्व के ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं--नामअल्पबहुत्व, स्थापनाअल्पबहुत्व, द्रव्यअल्पबहुत्व और भावअल्पबहुत्व। आगे संक्षेप में इनके स्वरूप और भेद-प्रभेदों को प्रकट करते हुए नोआगमद्रव्यअल्पबहुत्व के तीन भेदों में से तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यअल्पबहत्व को सचित्त, अचित्त और मिश्रअल्पबहुत्व इन तीन प्रकार का निर्दिष्ट किया है। इनमें जीवद्रव्य के अल्पबहुत्व को सचित्त, शेष पाँच द्रव्यों के अल्पबहुत्व को अचित्त और दोनों के अल्पबहत्व को मिश्र-नोआगमद्रव्यअल्पबहुत्व कहा है। इन सब में यहां सचित्तनोआगमद्रव्यअल्पबहत्व का अधिकार है। यहाँ धवलाकार ने पूर्व पद्धति के अनुसार इस अल्पबहुत्व का भी व्याख्यान निर्देश-स्वामित्व आदि के क्रम से किया है। निर्देश के प्रसंग में धवला में कहा गया है कि इसकी अपेक्षा यह तिगुना है या चौगुना, इत्यादि प्रकार की बुद्धि से ग्रहण करने योग्य जो संख्या का धर्म है वह अल्पबहुत्व कहलाता है । इस अल्पबहुत्व का स्वामी जीवद्रव्य है । अल्पबहुत्व का साधन पारिणामिक भाव है। उसका अधिक रण जीवद्रव्य है। उसकी स्थिति अनादि-अपर्यविसित है, क्योंकि सब गुणस्थानों का इसी प्रमाण से सदा अवस्थान रहता है। विधान के प्रसंग में कहा गया है कि मार्गणाओं के भेद से जिन्ने गुणस्थानों के भेद सम्भव हैं उतने भेद अल्पबहुत्व के हैं।' मूत्रकार ने अन्य अनुयोगद्वारों के समान इस अल्पबहुत्व की भी प्ररूपणा प्रथमत: ओघ की अपेक्षा मार्गणानिरपेक्ष गुणस्थानों में और तत्पश्चात् आदेश की अपेक्षा माणणाविशिष्ट गुणस्थानों में की है । आवश्यकतानुसार धवलाकार ने यथावसर सूत्रकार का अभिप्राय भी स्पष्ट कर दिया है । विस्तारपूर्वक स्पष्टीकरण की यहाँ आवश्यकता नहीं हुई है । उदाहरण के रूप में ओघ की अपेक्षा इस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा इस प्रकार देखी जा सकती हैगुणस्थान अल्पबहुत्व [अपूर्वकरण सबसे कम (प्रवेश की अपेक्षा) १,८,२ उपशामक | अनिवृत्तिकरण | सूक्ष्मसाम्पराय उपशान्तकषाय पूर्वोक्तप्रमाण (प्रवेश की अपेक्षा) १,८,३ [अपूर्वकरण संख्यातगुणित १,८,४ क्षपक अनिवृत्तिकरण सुक्ष्मसाम्पराय क्षीणकषाय पूर्वोक्तप्रमाण १,८,५ सियोगिकेवली १,८,६ अयोगिकेवली सयोगिकेवली संख्यातगुणित (संचय की अपेक्षा) १,८,७ अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणित (अक्षपक-अनुपशमक) (पूर्वप्रमाण से) १,८,८ १. धवला पु० ५, पृ० २४१-४३ षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४२७ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमत्तसंयत संख्यातगुणित १,८,६ संयतासंयत उनसे असंख्यातगुणित १,८,१० सासादनसम्यग्दृष्टि १,८,११ सम्यग्मिथ्यादृष्टि ,, संख्यातगुणित १,८,१२ असंयतसम्यग्दृष्टि ,, असंख्यातगुणित १,८,१३ मिथ्यादृष्टि ,, अनन्तगुणित १,८,१४ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम १,८,१५ क्षायिकसम्यग्दृष्टि उनसे असंख्यातगुणित १,८,१६ वेदकसम्यग्दृष्टि १,८,१७ आगे संयतासंयत, प्रमत्त-अप्रमत्तसंयत, तीन उपशामक और तीन क्ष पक गुणस्थानों में भी सम्यक्त्वविषयक अल्पबहुत्व को दिखाया गया है (सूत्र १,८,१८-२६)। इसी पद्धति से आगे आदेश की अपेक्षा गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से भी अल्पबहुत्व की प्ररूपणा हुई है। जीवस्थान-चूलिका प्रथम खण्ड जीवस्थान के अन्तर्गत पूर्वोक्त सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों के समाप्त हो जाने पर आगे के सूत्र में सूत्रकार द्वारा ये प्रश्न उठाये गये हैं प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव कितनी व किन प्रकृतियों को बांधता है ? कितने काल की स्थितिवाले कर्मों के आश्रय से वह सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, अथवा नहीं प्राप्त करता है ? कितने काल से व कितने भाग मिथ्यात्व के करता है ? उपशामना व क्षपणा किन क्षेत्रों में, किसके समीप में व कितना दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय करनेवाले के अथवा सम्पूर्ण चारित्र को प्राप्त करनेवाले के होती है ?—(सूत्र ६-१,१; पु० ६) ___ इस प्रकरण की व्याख्या में सर्वप्रथम धवलाकार ने मंगलस्वरूप सिद्धों को नमस्कार कर जीवस्थान की निर्मलगुणवाली चूलिका के कहने की प्रतिज्ञा की है। इस पर वहाँ शंका हुई है कि आठों अनुयोगद्वारों के समाप्त हो जाने पर चूलिका किसलिए आयी है । इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि वह पूर्वोक्त आठ अनुयोगद्वारों के विषमस्थलों के विवरण के लिए प्राप्त हुई है। जीवस्थान के अन्तर्गत उन अनुयोगद्वारों में जिन विषयों की प्ररूपणा नहीं गयी है, पर वह उनसे सम्बद्ध है, उसके विषय में निश्चय उत्पन्न होइसी अभिप्राय से उसकी प्ररूपणा इस चूलिका' में की गयी है। इससे प्रस्तुत चूलिका को इन्हीं आठ अनयोगद्वारों के अन्तर्गत समझना चाहिए। प्रस्तुत चूलिका में प्ररूपित अर्थ को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि क्षेत्र, काल और अन्तर अनुयोगद्वारों में जिन क्षेत्र व काल आदि का प्ररूपण है उनका सम्बन्ध जीवों की १. सुत्तसूइदत्थपयासणं चूलिया णाम । (पु० १०, पृ० ३६५); जाए अत्थपरुवणाए कदाए पुव्व परूविदत्थम्मि सिस्साणं णिच्छओ उपज्जदि सा चूलिया त्ति भणिदं होदि। (पु० ११, पृ० १४०) पु० ७, ५७५ भी द्रष्टव्य है । ४२८ / षट्सण्डागम-परिशीलन - Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गति - आगति से है । इस प्रकार उनमें गति आगति नामक नौवीं चूलिका की सूचना प्राप्त है । जीवों की यह गति-आगति कर्मप्रकृतियों के बन्ध आदि पर निर्भर है, इसलिए प्रकृतिसमुत्कीर्तन और स्थान समुत्कीर्तन इन दो ( प्रथम व द्वितीय) चूलिकाओं में जो कर्मप्रकृतियों के भेदों और उनके स्थानों की प्ररूपणा है, वह आवश्यक हो जाती है। उक्त प्रकृतिसमुत्कीर्तन और स्थानसमुत्कीर्तन का सम्बन्ध कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति से है, अतएव छठी 'उत्कृष्टस्थिति' और सातवीं 'जघन्यस्थिति' इन दो चूलिकाओं द्वारा क्रम से कर्मप्रकृतियों की उत्कष्ट और जघन्य स्थिति का प्ररूपण है । कालानुगम में सादि-सान्त मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्ततन प्रमाण कहा गया है ।" वह प्रथम सम्यक्त्व के ग्रहण का सूचक है, अन्यथा वह मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्टकाल घटित नहीं होता। इसके लिए 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' नामक आठवीं चूलिका का अवतार हुआ है। प्रथम सस्यवत्व के ग्रहण से सम्यक्त्व के अभिमुख हुए जीवों के द्वारा बाँधी जाने वाली कर्मप्रकृतियों के प्ररूपक तीन महादण्डकों-तीसरी, चौथी व पांचवीं चूलिकाओं की सूचना मिलती है। साथ ही, सम्यक्त्व प्राप्त करनेवाले जीव का अर्धपुदगल परिवर्तन से अधिक चूंकि संसार में रहना असम्भव है, अतः मोक्ष की सूचना भी उसी से प्राप्त होती है । चूंकि मोक्ष दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय के क्षय के बिना सम्भव नहीं है, अतः उनके क्षय की विधि की प्ररूपणा आवश्यक हो जाती है, जो उसी 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' नामक आठवीं चूलिका में की गयी । इस प्रकार नौ चूलिकाओं में विभक्त इस 'चूलिका' प्रकरण को जीवस्थान के अन्तर्गत इन आठ अनुयोगद्वारों से भिन्न नहीं कहा जा सकता है। पूर्व में सूत्रकार के द्वारा उठाये गये जिन प्रश्नों का निर्देश किया गया है उनसे भी इन चूलिकाओं की सूचना प्राप्त होती है । यथा--- प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव 'कितनी प्रकृतियों को बाँधता है, इस प्रश्न के समाधान में प्रकृतिसमुत्कीर्तन और स्थानसमुत्कीर्तन इन दो चूलिकाओं की प्ररूपणा की गयी है । वह 'किन प्रकृतियों को बांधता है' इसे स्पष्ट करने के लिए प्रथम (३), द्वितीय ( ४ ) और तृतीय ( ५ ) इन तीन महादण्डकों (चूलिकाओं) की प्ररूपणा है । 'कितने काल की स्थितिवाले कर्मों के होने पर सम्यक्त्व को प्राप्त करता है अथवा नहीं करता है' इसके समाधान हेतु उत्कृष्ट और जघन्यस्थिति की प्ररूपक दो चूलिकाएँ ( ६ व ७ ) दी हैं। 'कितने काल में व मिथ्यात्व के कितने भागों को करता है तथा उपशामन व क्षपणा कहाँ किसके समक्ष होती है', इनका स्पष्टीकरण आठवीं सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिका में किया है। सूत्र में प्रयुक्त 'वा' शब्द की सफलता में 'गति - आगति' चूलिका (६) की प्ररूपणा है ( पु० ६, पृ० १०४) । १. प्रकृतिसमुत्कीर्तन-उन नौ चूलिकाओं 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' प्रथम चूलिका है। इसमें सूत्रकार द्वारा प्रथमतः आठ मूलप्रकृतियों के नामों का और तत्पश्चात् यथाक्रम से उनके उत्तरभेदों के नामों का निर्देश मात्र किया गया है। उनके स्वरूप आदि का स्पष्टीकरण धवला में किया गया है । ज्ञानावरणीय के पांच उत्तरभेदों के प्रसंग में धवलाकार ने उनके द्वारा क्रम से आयमाण आभिनिबोधिक आदि पाँच ज्ञानों व उनके अवान्तर भेदों के स्वरूप आदि के विषय में विस्तार से विचार किया है। इसी प्रकार नामकर्म के भेदों के प्रसंग में भी धवलाकार द्वारा १. उवकस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं । --- -सूत्र १, ५, ४ ( पु०४) षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४२६ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गति-जाति आदि के विषय में पर्याप्त ऊहापोह किया गया है (पु० ६, पृ० १५-३०, ५०-५७) । २. स्थानसमुत्कीर्तन-यह दूसरी चूलिका है । प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका में कर्मप्रकृतियों के नामों का निर्देश है । वे एक साथ बंधती हैं अथवा क्रम से बंधती हैं, इसे स्पष्ट करने के लिए इम चूलिका का अवतार हुआ है । जिस संख्या में अथवा अवस्थाविशेष में प्रकृतियां अवस्थित रहती हैं उसका नाम स्थान है। वे स्थान हैं-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत । 'संयत' से यहाँ प्रमत्तसंयत से लेकर सयोगिकेवली तक आठ संयत-गुणस्थान अभिप्रेत हैं। अयोगिकेवली को नहीं ग्रहण किया है, क्योंकि वहाँ बन्ध का अभाव हो चुका है। इन स्थानों को स्पष्ट करते हुए प्रथमत: क्रमप्राप्त ज्ञानावरणीय प्रकृतियों के स्थान का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है-- . ज्ञानावरणीय की जो आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय आदि पाँच प्रकृतियाँ हैं उन्हें बाँधनेवाले जीव का पाँच संख्या से उपलक्षित एक ही अवस्थाविशेष में अवस्थान है। अभिप्राय यह है कि उन पाँचों का बन्ध एक साथ होता है, पृथक्-पृथक् सम्भव नहीं है। इससे उनका एक ही म्यान है । यह बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतामयत और संयत के सम्भव है। संयत से यहाँ प्रमत्तसंयत से लेकर सूक्ष्मसाम्परायसंयत तक पाँच संयतगुणस्थानों का अभिप्राय रहा है, क्योंकि आगे उपशान्तकषायादि संयतों के उनका बन्ध नहीं होता (पु०६, पृ० ७६-८२)। दर्शनावरणीय के तीन बन्धस्थान हैं .--१. समस्त नो प्रकृतियों का, २. निद्रानिद्रा, प्रचलापचला और स्त्यानगृद्धि को छोड़कर शेष छह का; तथा ३. चक्षुदर्शनावरण, अचक्षदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण इन चार का। इनमें प्रथम नौ प्रकृतियों का स्थान मिथ्यादष्टि और सासादनसम्यग्दष्टि इन्हीं दो के सम्भव है, क्योंकि आगे निद्रानिद्रा आदि इन तीन के बन्ध का अभाव हो जाता है। दूसरा छह प्रकृतियों का स्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतमम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत (अपूर्वकरण के सात भागों में से प्रथम भाग तक) के होता है । कारण कि अपूर्वकरण के प्रथम भाग से आगे उन छहों में निद्रा और प्रचला इन प्रकृतियों के बन्ध का अभाव हो जाता है। तीसरा चार प्रकृतियों का बन्धस्थान संयत के-अपूर्वकरण के दूसरे भाग से लेकर सूक्ष्मसाम्प रायसंयत तक होता है' (पु०६, पृ० ८२-८६) । आगे क्रम से वेदनीय आदि शेष कर्मप्रकृतियों के भी स्थानों की प्ररूपणा है, जिसका आवश्यकतानुसार धवला में विवेचन किया गया है। ३. प्रथम महादण्डक-इस तीसरी चूलिका में प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच अथवा मनुष्य जिन प्रकृतियों को बांधता है उनका उल्लेख है। जिन कर्मप्रकृतियों को वह नहीं बाँधता है उनका निर्देश धवला में कर दिया गया है। इसके अतिरिक्त उत्तरोत्तर बढ़नेवाली विशुद्धि क प्रभाव से प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए तिर्यंच या मनुष्य के कम से होनेवाली कर्मबन्धव्युच्छित्ति के क्रम वी भी प्ररूपणा धवला(पु०६, पृ०१३३-४०) में कर दी गयी है। ४. द्वितीय महादण्डक- इस चूलिका में सातवीं पृथिवी के नारक को छोड़कर शेष छह पृथिवियों के नारक और देवों द्वारा बांधी गयी कर्मप्रकुतियों का उल्लेख है। जिन प्रकृतियों को व नही बाँधते हैं उनका भी निर्देश कर दिया गया है (पु०६, पृ० १४०-४२)। ५. तृतीय महादण्डक-इस चलिका में सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ सातवीं पृथिवी का ४३० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारक जिन कर्मप्रकृतियों को बाँधता है उनका निर्देश है। वह जिन प्रकृतियों को नहीं बाँधता है उनका उल्लेख धवला (पु०६, पृ० १४२-४४) में है । ६. उत्कृष्ट स्थिति — इस छठी चूलिका में ज्ञानावरणीय आदि मूल व उनकी उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के साथ उनके आबाधाकाल और कर्मनिषेकों के क्रम का विवेचन है । जैसे ---- पाँच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, सातावेदनीय और पाँच अन्तराय का उत्कृष्ट बन्ध तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है । 1 इस प्रसंग में धवला में स्थिति के स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा है कि योग के वश कर्मरूप से परिणत हुए पुद्गल -स्कन्ध कषायवश जितने काल तक एक स्वरूप से अवस्थित रहते हैं उतने काल का नाम स्थिति है। उनका आबाधाकाल तीन हजार वर्ष होता है । आबाधा का अर्थ है बाधा का न होना । अभिप्राय यह है कि तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति वाले इन कर्मों के पुद्गल परमाणुओं में एक, दो, तीन आदि समयों को आदि लेकर उत्कर्ष से तीन हजार सागरोपम प्रमाण स्थितिवाले कोई परमाणु नहीं रहते, जो इस बीच बाधा पहुँचा सकें—उदय में आ सकें । कर्मपरमाणु उदीरणा के बिना जितने काल तक उदय को नहीं प्राप्त होते हैं उतने काल का नाम आबाधा है । आबाधा काल का साधारण नियम यह है कि जो कर्म उत्कर्ष से जितने कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति में बाँधा जाता है उसका आबाधाकाल उतने सौ वर्ष होता है ।' तदनुसार उक्त पाँच ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का आबाधाकाल अपनी उत्कृष्ट तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण बन्धस्थिति के अनुसार तीस सौ ( ३०००) वर्ष होता है । इस आबाधाकाल से रहित कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक होता है । आबाधाकाल के पश्चात् प्रत्येक समय में होनेवाले कर्मपरमाणु स्कन्धों के निक्षेप का नाम निषेक है । प्रत्येक समय में निर्जीर्ण होने योग्य कर्मपरमाणुओं का जो समूह होता है वह पृथक्-पृथक् निषेक होता है । इसी प्रकार आबाधाकाल से रहित विवक्षित कर्मस्थिति के जितने समय होते हैं उतना निषेकों का प्रमाण होता है । इनकी रचना के क्रम का विचार धवला (पु० ६, पृ० १४६ - ५८ ) में गणित प्रक्रिया के अनुसार किया गया है । ऊपर जो आबाधाकाल के नियम का निर्देश किया है वह एक सामान्य नियम है। विशेष रूप में यदि किसी कर्म का बन्ध अन्तः कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति में होता है तो उसका आबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त मात्र जानना चाहिए। जैसे- आहारकशरीर, आहारक अंगोपांग और तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ा कोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है । तदनुसार उनका आबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त मात्र समझना चाहिए (पु०६, पृ० १७४-७७) । आयुकर्म के आबाधाकाल का नियम इससे भिन्न है । परभविक आयु का जो बन्ध होता है उसका आबाधाकाल भुज्यमान पूर्व भव की आयुस्थिति के तृतीय भाग मात्र होता है । जैसेनारका और देवायु का जो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तेतीस सागरोपम प्रमाण है उसका आबाधाकाल अधिक से अधिक पूर्वकोटि का तृतीय भाग होता है, इससे अधिक वह सम्भव नहीं । कारण यह है कि नारकायु और देवायु का बन्ध मनुष्य और तिर्यंचों के ही होता है, जिनकी उत्कृष्ट आयुस्थिति पूर्वकोटि मात्र ही होती है । संख्यात वर्ष की आयुवाले ( कर्मभूमिज ) मनुष्य और तिर्यंच १. उदयं पडि सत्तण्हं आबाहा कोडकोडि उवहीणं । वाससयं तत्पडिभागेण य सेसट्ठिदीणं च ॥ -- गो०क० १५६ षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४३१ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परभविक आयु के बाँधने योग्य तभी होते है जब उनकी भुज्यमान आयु के दो-त्रिभाग (२/३) बीत जाते हैं। इसके पूर्व वे परभविक आयु को नहीं बांधते हैं। इस कारण उत्कृष्ट नारकायु और देवायु का उत्कृष्ट आबाधाकाल पूर्वकोटि का त्रिभाग (१/३) ही सम्भव है। इससे कम तो वह हो सकता है पर अधिक नहीं हो सकता । अभिप्राय यह है कि परभव सम्बन्धी आय का बन्ध संख्यातवर्षायुष्कों के अपनी भुज्यमान आयु के अन्तिम विभाग में होता है। इस विभाग के आठ अपकर्षकालों में (१/३, १४९, १/२७ आदि) से किसी भी अपकर्षकाल में उसका बन्ध हो सकता है । यदि उन अपकर्षकालों में से किसी में भी उसका बन्ध नहीं हुआ तो फिर भुज्यमान आय की स्थिति में अन्तर्महर्त मात्र शेष रह जाने पर वह उस समय असंक्षेपाद्धाकाल (जिसका र संक्षेप न हो सके) में बंधती है। इस प्रकार आयु का उत्कृष्ट आबाधाकाल पूर्वकोटि का त्रिभाग और जघन्य आबाधाकाल असंक्षेपाद्धा (आवली का संख्यातवाँ भाग) होता है। इस काल में बाँधी गयी परभविक आयु का उदय सम्भव नहीं है। उसकी निषेक स्थिति बाँधी गयी आयु की स्थिति के प्रमाण ही होती है, न कि अन्य ज्ञानावरणादि कर्मों की आबाधा से हीन स्थिति के प्रमाण । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार ज्ञानावरणादि सात कर्मों की निषेक स्थिति में बाधा सम्भव है उस प्रकार आयु की निषेकस्थिति में नहीं है। उसकी बाँधी गयी स्थिति के जितने समय होते हैं उतने ही उस के निषेक होते हैं। यद्यपि असंख्यात वर्ष की आयुवाले (भोगभूमिज) भी मनुष्य-तिर्यंच हैं, पर उनकी भुज्यमान आयुस्थिति में जब छह मास शेष रह जाते हैं तभी वे परभविक आयु को बाँधने योग्य होते हैं, इससे अधिक आयु के शेष रहने पर उनके परभविक आयु का बन्ध सम्भव नहीं है। इसी प्रकार देव-नारकियों के भी आयु के छह मास शेष रह जाने पर ही परभविक आयु का बन्ध होता है। इससे निश्चित है कि आयुकर्म का आबाधाकाल उत्कर्ष से पूर्वकोटि का त्रिभाग ही हो सकता है, अधिक नहीं।' ७. जघन्यस्थिति---यह जीवस्थान की सातवीं चूलिका है। इसमें कर्मों की जघन्य स्थिति, आबाधा और निषेक आदि की प्ररूपणा की गयी है। __इसके प्रारम्भ में धवला में यह विशेषता प्रकट की गयी है कि उत्कृष्ट विशुद्धि द्वारा जो स्थिति बँधती है वह जघन्य होती है। कारण कि सभी प्रकृतियाँ प्रशस्त नहीं होती हैं। वहाँ यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि संक्लेश की वृद्धि से सब प्रकृतियों की स्थिति में वृद्धि और विशुद्धि की वृद्धि से उनकी स्थिति में हानि हुआ करती है। असाता के बन्धयोग्य परिणाम का नाम संक्लेश और साता के बन्धयोग्य परिणाम का नाम विशुद्धि है। कुछेक आचार्यों का कहना है कि उत्कृष्ट स्थिति से नीचे की स्थितियों को बांधनेवाले जीव के परिणाम को विशुद्धि और जघन्य स्थिति से ऊपर की द्वितीयादि स्थितियों के बाँधनेवाले जीव के परिणाम को संक्लेश कहा जाता है। उनके इस अभिप्राय को असंगत बतलाते हुए धवला में कहा है कि विशुद्धि और संकले पा का ऐसा लक्षण करने पर जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति के बन्धक परिणामों को छोड़ शेष मध्य की स्थितियों के बन्धक सभी परिणामों के संक्लेश और विशुद्धिरूप होने का प्रसंग प्राप्त होगा। परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, लक्षण भेद के बिना १. इस सबके लिए देखिए धवला पु०६, पृ० १६६-६६ ; विशेष जानकारी के लिए धवला पु० १०, पृ० १७७-३६ व पृ० १३८ के टिप्पण द्रष्टव्य हैं। ४३२ / षट्खण्डागम पर टीकाएँ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक ही परिणाम के दोनों रूप होने का विरोध है (पु० ६, पृ० १८०)। धवलाकार ने आवश्यक तानुसार इसका स्पष्टीकरण भी किया है । जैसे-सूत्र २४ में स्त्री एवं नपुंसक वेद आदि कितनी ही प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्धक समान रूप से पल्योपम के असंख्यातवें भाग से होन सागरोपम के सात भागों में से दो भाग (२/७) निर्दिष्ट किया गया है। __इसकी व्याख्या में यह शंका उठायी गयी है कि नपुंसक वेद और अरति आदि प्रकृतियों का तो जघन्य स्थितिबन्ध सागरोपम के दो-बटे सात भाग सम्भव है, क्योंकि उनका स्थितिबन्ध उत्कृष्ट बीस कोडाकोड़ी सागरोपम प्रमाण देखा जाता है। किन्तु स्त्रीवेद तथा हास्य-रति आदि जिन प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बीस कोडाकोड़ी सागरोपम नहीं है उनका जघन्य स्थितिबन्ध सागरोपम के दो-बटे सात भाग घटित नहीं होता। इसका समाधान करते हुए धवला में कहा है कि यद्यपि उक्त स्त्रीवेद आदि प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण नहीं है, फिर भी मूल प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के अनुसार हीनता को प्राप्त होनेवाली उन प्रकृतियों का पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन सागरोपम के दो-बटे सात भाग मात्र जघन्य स्थितिबन्ध के होने में कोई विरोध नहीं है (पु० ६, पृ० १६०-६२)। सत्र ३५ में नरकगति. देवगति आदि कछ प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध समान रूप में पत्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन हजार सागरोपम के दो-बटे सात भाग मात्र कहा गया है। धवला (पु० ६, १६४-६६) में इसका स्पष्टीकरण एकेन्द्रिय आदि के आश्रय से पृथक्पृथक् किया गया है। ८. सम्यक्त्वोत्पत्ति--प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति का विधान-इस चूलिका के प्रारम्भ में सूत्रकार ने यह सूचना की है कि पहली दो(६ व ७)चूलिकाओं में कर्मों की जिस उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति की प्ररूपणा की गयी है उतने काल की स्थितिवाले कर्मों के रहते हुए जीव सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त करता है (सूत्र १,६-८,१)। __इसके अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यह सूत्र देशामर्शक है। तदनुसार कर्मों के उपर्युक्त जघन्य स्थितिबन्ध और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के साथ उनके जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व, जघन्य व उत्कृष्ट अनुभागसत्त्व और जघन्य व उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व के होने पर जीव सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त करता है। ___इस पर प्रश्न उपस्थित होता है कि इस स्थिति में कर्मों की कैसी अवस्था में जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। इसके समाधान में आगे के सूत्र (१,६-८,३) में कहा गया है कि जीव जब इन्हीं सब कर्मों की अन्त:कोडाकोडी प्रमाण स्थिति को बाँधता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है। इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यह औपचारिक कथन है। वस्तुतः कर्मों की इस स्थिति में भी जीव प्रथम सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त करता है, वह तो अध:प्रवृत्तकरण आदि तीन करणों के अन्तिम समय में प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। इस सूत्र के द्वारा क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चार लब्धियों की प्ररूपणा की गयी है। आगे धवला में इन लब्धियों का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि विशुद्धि के बल से जब पूर्वसंचित कर्मों के अनुभागस्पर्धक प्रतिसमय अनन्तगुणितहीन होकर उदीरणा) को प्राप्त होते हैं तब क्षयोपशमलब्धि होती है। उत्तरोत्तर प्रतिसमयहीन होनेवाली अनन्तगुणी हानि के क्रम से उदी रणा को प्राप्त उन अनुभागस्पर्धकों से उत्पन्न जीव का जो परिणाम सातावेदनीय षट्खण्डागम पर टीकाएँ | ४३३ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि शुभ कर्मों के बन्ध का कारण और असातावेदनीय आदि अशुभ कर्मों के बन्ध का रोधक होता है उसका नाम विशुद्धि है और उसकी प्राप्ति को विशुद्धिलब्धि कहा जाता है। छह द्रव्य और नौ पदार्थों के उपदेश का नाम देशना है । इस देशना और उसमें परिणत आचार्य आदि की उपलब्धि के साथ जो उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण एवं विचार करने की शक्ति का समागम होता है उसे देशनालब्धि कहते हैं । समस्त कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग का घात करके उनका जो अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति में और द्विस्थानिक अनुभाग में अवस्थान होता है, उसका नाम प्रायोग्यलब्धि है । द्विस्थानिक अनुभाग का अभिप्राय है कि प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव प्रायोग्यलब्धि के प्रभाव से घातिया कर्मों के अस्थि और शैल रूप अनुभाग का घातकर उसे लता और दारु रूप दो अनुभागों में स्थापित करता है तथा अघातिया कर्मों के अन्तर्गत पाप प्रकृतियों के अनुभाग नीम और कांजीर रूप दो अनुभागस्थानों स्थापित करता है, पुष्पप्रकृतियों का अनुभाग चतुःस्थानिक ही रहता है । ये चार लब्धियाँ भव्य और अभव्य मिथ्यादृष्टि दोनों के समान रूप से सम्भव हैं । किन्तु पाँचवीं करणलब्धि भव्य मिथ्यादृष्टि के ही सम्भव है, वह अभव्य के सम्भव नहीं है ( पु० ६, पृ० २०३-५) । जो भव्य मिथ्यादृष्टिकरणलब्धि को भी प्राप्त कर सकता है, सूत्र के अनुसार (२, ६-८, ४) वह पंचेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्तक और सर्वविशुद्ध होना चाहिए । इन सब विशेषणों की सार्थकता धवला में वर्णित की है । 'मिथ्यादृष्टि' विशेषण की सार्थकता बतलाते हुए कहा है कि सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं करते हैं । यद्यपि उपशमश्रेणि पर आरूढ होते हुए वेदकसम्यग् - दृष्टि उपशमसम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं, किन्तु उनका उपशमसम्यक्त्व 'प्रथम सम्यक्त्व' नाम को प्राप्त नहीं होता । चूँकि वह सम्यवत्व से उत्पन्न हुआ है, अतः उसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व समझना चाहिए। आगे यहाँ धवला में गति, वेद, योग, कषाय, संयम, उपयोग, लेश्या, भव्य और आहार इन मार्गणाओं के आधार से भी उसकी विशेषता का प्रकाशन है । उसके ज्ञानावरणीय आदि मूलप्रकृतियों की उत्तरप्रकृतियों में कितनी और किनका सत्त्व रहता है, इसे भी धवला में दिखाया है। आगे वहाँ (पु० ६, पृ० २०६-१४) अनुभागसत्त्व, बन्ध, उदय और उदीरणा के विषय में भी विचार किया गया है । अनन्तर अन्तिम 'सर्वविशुद्ध' विशेषण को स्पष्ट करते हुए अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन विशुद्धियों के नामनिर्देशपूर्वक उनके स्वरूप आदि के विषय में धवलाकार ने पर्याप्त विचार किया है ( पु० ६, पृ० २१४-२२) । उनके स्वरूप को संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है-करण नाम परिणाम का है । जिस प्रकार छेदन-भेदन आदि क्रिया में साधकतम होने से तलवार, वसूला आदि को 'करण' कहा जाता है उसी प्रकार दर्शनमोह के उपशम आदि भाव के करने में साधकतम होने से इन परिणामों को भी नाम से कारण कहा गया है।' इन तीन प्रकार के परिणामों में जो अधःप्रवृत्त१. XXX अधापवत्तकरणमिदि सण्णा । कुदो ? उवरिमपरिणामा अधहेट्ठा हेट्टिमपरिणामेसु पवत्ततित्ति अधापवत्तसण्णा । कधं परिणामाणं करणसण्णा ? ण एस दोसो, असि वासीणं व साहयत्तमभावविववखाए परिणामाणं करणत्तुवलंभादो । -धवला पु० ६, पृ० २१७ ४३४ / षट्खण्डागम-परिशालन Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण हैं उनमें चूंकि ऊपर के परिणाम नीचे के परिणामों में प्रवृत्त होते हैं-पाये जाते हैं, इ. लिए उनका 'अधःप्रवृत्तकरण' नाम सार्थक है । अधःप्रवृत्तकरण के अन्तर्मुहूर्तकाल में उत्तरोत्तर प्रथम-द्वितीयादि समयों में क्रम से समान वृद्धि लिये हुए असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम होते हैं। संदृष्टि के रूप में अन्तर्मुहूर्त के समयों का प्रमाण १६, सव परिणामों का प्रमाण ३०७२ और समान वृद्धिस्वरूप चय का प्रमाण ४ है । उसके प्रथमादि समयों में प्रविष्ट होनेवाले जीवों के परिणाम समान नहीं होते हैं -- किन्हीं के वे जघन्य विशुद्धि को, किन्हीं के उत्कृष्ट विशुद्धि को और किन्हीं के मध्यम विशुद्धि को लिये हुए होते हैं । यह आवश्यक है कि प्रथमादि समयवर्ती जीवों के उत्कृष्ट परिणाम से उपरितन समयवर्ती जीवों का जघन्य परिणाम भी अनन्तगणी विशुद्धि को लिये हुए होता है । संदृष्टि में इन परिणामों को इस प्रकार समझा जा सकता है-.. निर्वगणाकाण्डक समय परिणाम प्र० खण्ड द्वि० खण्ड त० खण्ड ५४ च० खण्ड ५७ on on २२२ २१८ a २१४ KK Cccc PoWWK anar xxxxxxxx KKKKCK Momwwxxm a : w २१० २०६ २०२ १६८ १६४ १६० १८६ १८२ १७८ १७४ १७० is a ४६ ४७ w ४६ ४ ४४ ४५ x x ४२ ४ m ४२ ४४ r ar ३६ ४१ अधःकरण काल के प्रत्येक समय में परिणामों में पुनरुक्तता-अपुनरुक्तता अथवा समानता. असमानता को देखने के लिए उनके क्रमश: चार-चार खण्ड किये गये हैं, उन्हें निर्वर्गणाकाण्डक कहा जाता है। इनमें, संदृष्टि के अनुसार, प्रथम समय सम्बन्धी ३६ परिणाम और अन्तिम समय सम्बन्धी ५७ परिणाम ही ऐसे हैं जिनमें नीचे-ऊपर के किन्हीं परिणामों से समानता नहीं है । शेष परिणामखण्डों में ऊपर से नीचे समानता दृष्टिगोचर होती है । यह अनुकृष्टि की रचना है।' १. धवला पु० ६, पृ० २१४-१६ के अतिरिक्त गो० कर्मकाण्ड की गाथा ८६८-६०७ भी दृष्टव्य हैं। पदसण्डागम पर टीकाएँ । ४३५ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधःकरणकाल के समाप्त होने पर जीव अपूर्वकरण को प्राप्त होता है । अपूर्वकरण का काल अन्तर्मुहूर्तमात्र है । उस अन्तर्मुहूर्त के समयों में से प्रथम समय में असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम होते हैं । आगे द्वितीय तृतीय आदि समयों के योग्य भी असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम होते हैं । पर वे उत्तरोत्तर समान वृद्धि से वृद्धिगत होते हैं । जैसी अधःकरण में भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों में समानता व असमानता होती है वैसी अपूर्वकरण में भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों में कभी समानता नहीं रहती । आगे के समयों में वहाँ उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि को लिये हुए अपूर्व-अपूर्व ही परिणाम होते हैं, इसीलिए उनकी 'अपूर्वकरण' यह संज्ञा सार्थक है । इतना विशेष है कि एकसमयवर्ती जीवों के परिणाम समान भी होते हैं और कदाचित् असमान भी । उदाहरण के रूप में, प्रथम समयवर्ती किसी जीव का उत्कृष्ट विशुद्धि से युक्त भी जो अपूर्वकरण परिणाम होता है उसकी अपेक्षा उसके द्वितीय समयवर्ती किसी जीव का जघन्यविशुद्धि से युक्त भी परिणाम अधिक विशुद्ध होता है । संदृष्टि के रूप में अपूर्वकरणकाल के समयों की कल्पना ८, परिणामों की कल्पना ४०६६ और चय के प्रमाण की कल्पना १६ की गयी है । तदनुसार इस संदृष्टि के आश्रय से अपूर्वकरण परिणामों की यथार्थता को इस प्रकार समझा जा सकता है? समय ५ ७ ६ ५ WAWK N ४ ३ २ १ परिणाम ५६८ ५५२ ५३६ ५२० ५०४ ४८५ ४७२ ४५६ सर्वधन ४०६६ तीसरी विशुद्धि का नाम अनिवृत्तिकरण है । इस अनिवृत्तिकण का काल भी अन्तर्मुहूर्त है । इसके जितने समय हैं उतने ही अनिवृत्तिकरण परिणाम हैं । कारण यह है कि इन परिणामों में जघन्य - उत्कृष्ट का भेद नहीं है । यहाँ एक समयवर्ती जीवों का परिणाम सर्वथा समान और भिन्न समयवर्ती जीवों का परिणाम सर्वथा भिन्न रहता है, जो उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि से युक्त होता है । निवृत्ति का अर्थ व्यावृत्ति या भेद है, तदनुसार अनिवृत्ति का अर्थ भेद से रहित (समान) समझना चाहिए। इन अनिवृत्तिकरण परिणामों में चूँकि वह भिन्नता नहीं है -विवक्षित समयवर्ती जीवों का वह परिणाम सर्वथा समान होता है, इसलिए इन परिणामों का 'अनिवृत्तिकरण' नाम सार्थक है ( पु० ६, पृ० २२१-२२) । इस प्रकार प्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति के योग्य जीव की विशेषताओं का वर्णन कर आगे १. धवला पु० ६, पृ० २२०-२१ व गो० कर्मकाण्ड गा० १०८-१० २. समान समयावस्थितजीवपरिणामानां निर्भेदेन वृत्तिः निवृत्तिः । अथवा निवृत्तिर्व्यावृत्तिः, न विद्यते निवृत्तिर्येषां ते अनिवृत्तयः । -धवला पु० १, पृ० १८४-८५ ४३६ / षट्खण्डागम-परिशालन Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र में यह कहा गया है कि इन्हीं सब कर्मों की स्थिति को जब जीव संख्यात सागरोपमों से हीन अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थापित करता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है (१, ६-८, ५)। इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि अधःप्रवृत्त करण में स्थितिकाण्डक, अनुभागकण्डक, गुणश्रेणि और गुणसंक्रम नहीं होते; क्योंकि इन परिणामों में उक्त कर्मों के उत्पन्न करने की शक्ति नहीं है। ऐसा जीव केवल अनन्तगुणी विशुद्धि से विशुद्ध होता हुआ प्रत्येक समय में अप्रशस्त कर्मों के द्विस्थानिक अनुभाग को अनन्तगुणा हीन बाँधता है और प्रशस्त कर्मों के चतुःस्थानिक अनुभाग को वह उत्तरोत्तर प्रत्येक समय में अनन्तगुणा बाँधता है । यहाँ स्थितिबन्ध का काल अन्तर्मुहुर्त मात्र है। इस बन्ध के पूर्ण होने पर वह पल्य के संख्यातवें भाग से हीन अन्य स्थिति को बाँधता है। इस प्रकार संख्यात हजार बार स्थितिबन्धापसरणों के करने पर अधःप्रवृत्तकरणकाल समाप्त होता है। _अपूर्वकरण के प्रथम समय में जघन्य स्थितिखण्ड पल्योपम के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट पृथक्त्व सागरोपम मात्र रहता है । अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय में जो स्थितिबन्ध होता था, अपूर्वक रण के प्रथम समय में वह आयु को छोड़कर शेष कर्मों का उसकी अपेक्षा पल्योपम के संख्यातवें भाग से हीन प्रारम्भ होता है । स्थितिबन्ध बँधनेवाली प्रकृतियों का ही होता है। अपूर्वकरण के प्रथम समय में गुणश्रेणि भी प्रारम्भ हो जाती है । उसी समय अप्रशस्त कर्मों के अनुभाग के अनन्स बहभाग का घात प्रारम्भ हो जाता है। ___इस प्रकार अपूर्वकरणकाल के समाप्त होने पर अनिवृत्तिकरण को प्रारम्भ करता है। उसी समय अन्य स्थितिखण्ड, अन्य अनुभागखण्ड और अन्य स्थितिबन्ध भी प्रारम्भ हो जाते हैं। पूर्व में जिस प्रदेशाग्र का अपकर्षण किया गया था उससे असंख्यातगुणे प्रदेशाग्र का अपकर्षण करके अपूर्वकरण के समान गलितशेष की गुणश्रेणि करता है। ___यहाँ शंका होती है कि सूत्र में केवल स्थितिबन्धापसरण की प्ररूपणा की गयी है; स्थितिघात, अनुभागघात आर प्रदेशघात की प्ररूपणा वहाँ नहीं है, अतः यहाँ उनकी प्ररूपणा करना उचित नहीं है। इसके समाधान में कहा है कि यह सूत्र तालप्रलम्बसूत्र के समान देशामर्शक' है, इससे यहाँ उनकी प्ररूपणा अनुचित नहीं है। ___ इस प्रकार हजारों स्थितिबन्ध, स्थितिखण्ड और अनुभागखण्डों के समाप्त हो जाने पर अनिवृत्तिकरण का अन्तिम समय प्राप्त होता है । प्रस्तुत चूलिका के प्रारम्भ में सूत्रकार द्वारा उद्भावित पृच्छाओं में कितने काल द्वारा' यह पृच्छा भी की गयी थी, उसे दिखलाने के लिए यहाँ सूत्र (१,६-८,६) में अनिवृत्तिकरण परिणामों के कार्य विशेष को स्पष्ट करते हुए निर्देश है कि वह अन्तर्मुहूर्त हटता है । __ इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि यह सूत्र अन्तरकरण का प्ररूपक है। किसके अन्तरकरण को करता है, इसे बतलाते हुए कहा है कि यहाँ चूंकि अनादि मिथ्यादष्टि का अधिकार है, इसलिए वह मिथ्यात्व के अन्तरकरण को करता है, ऐसा अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए । सादि मिथ्यादृष्टि के होने पर तो उसके तीन भेदरूप जो दर्शनमोहनीय रहता है उस १. तालप्रलम्बसूत्र का स्पष्टीकरण पीछे पर किया जा चुका है। इसके लिए धवला पु० १, पृ० ६ का टिप्पण द्रष्टव्य है। षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४३७ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी का अन्तर किया जाता है । यह अन्तरकरण अनिवृत्तिकरणकाल का संख्यातवा भाग शेष रह जाने पर किया जाता है। विवक्षित कर्मों की अधस्तन और उपरिम स्थितियों को छोड़कर मध्य की अन्तर्महर्तमात्र स्थितियों के निषेकों का जो परिणामविशेष से अभाव किया जाता है उसे अन्तरकरण कहते हैं। उन स्थितियों में अधस्तन स्थिति को प्रथम स्थिति और उपरिम स्थिति को द्वितीय स्थिति कहा जाता है। ___ इस प्रसंग में धवला में कहा है कि अन्तरकरण के समाप्त होने पर उस समय से जीव को उपशामक कहा जाता है । इस पर वहाँ शंका उत्पन्न हुई है कि ऐसा कहने पर उससे पूर्व जीव के उपशामकपने के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। इसके समाधान में कहा है कि इसके पूर्व भी वह उपशामक ही है, किन्तु उसे मध्यदीपक मानकर शिष्यों के सम्बोधनार्थ 'यह दर्शनमोहनीय का उपशामक है' ऐसा यतिवृषभाचार्य ने कहा है। इससे उक्त कथन अतीत भाग की उपशामकता का प्रतिषेधक नहीं है। ___ अव पूर्वोक्त पृच्छाओं में 'मिथ्यात्व के कितने भागों को करता है इस पृच्छा के अभिप्राय को बतलाते हुए सूत्र (१,६-८,७) में कहा है कि अन्तरक रण करके वह मिथ्यात्व के तीन भागों को करता है--सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व । धवलाकार ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि यह सूत्र मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति को गलाकर सम्यक्त्व प्राप्त होने के प्रथम समय से लेकर आगे के समय में जो व्यापार होता है उसका प्ररूपक है । आगे सूत्र में 'अन्तरकरण करके' ऐसा जो कहा गया है उसका अभिप्राय यह है कि पूर्व में जो मिथ्यात्व की स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का घात किया गया है उसका वह फिर से घात करके अनुभाग की अपेक्षा उसके तीन भागों को करता है। इसका कारण यह है कि पाहुडसुत्त-कषायप्राभूत की चूणि-में मिथ्यात्व के अनुभाग से सम्यग्मिथ्यात्व का अनुभाग अनन्तगुणा हीन और उससे सम्यक्त्व का अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है, ऐसा निर्देश किया गया है और उपशमसम्यक्त्वकाल के भीतर अनन्तानुबन्धी के विसंयोजन के बिना मिथ्यात्व का घात नहीं होता है, क्योंकि वैसा उपदेश नहीं है। इसलिए सूत्र में जो 'अन्तरकरण करके' ऐसा कहा गया है उससे यह समझना चाहिए कि काण्डकघात के बिना मिथ्यात्व के अनुभाग को घातकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अनुभागरूप से परिणमाता हुआ प्रथम सम्यक्त्व के प्राप्त होने के प्रथम समय में ही उसके तीन कर्माशों को उत्पन्न करता है। __ आगे इस प्रसंग में गुणश्रेणि और गुणसंक्रमण को दिखाते हुए पचीस प्रतिव-पच्चीस पदवाले-दण्डक को किया है। प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव दर्शनमोहनीय को कहाँ उपशमता है, इसे स्पष्ट १. तदो अंतरं कीरमाणं कदं । तदोप्पहुडि उवसामगो त्ति भण्णइ । क० प्रा० चूणि ६५-६६ (क० पा० सुत्त पृ० ६२७) २. णवरि सव्वपच्छा सम्मामिच्छत्तमणंतगुणहीणं । सम्मत्तमणंतगुणहीणं । क० प्रा० चूणि १४६-५० (क० पा० सुत्त पृ० १७१) ३. धवला पु० ६, पृ० २३४-३७ (यह पच्चीसप्रतिक दण्डक क० प्रा० चूणि में उसी रूप में उपलब्ध होता है । देखिए क.० पा० सुत्त पृ० ६२६-३०) ४३८ / षट्लण्डागम-परिशीलन Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हुए सूत्र (१,६-८,९) में कहा है कि वह उसे चारों ही गतियों में उपशमाता है। चारों ही गतियों में उपशमाता हुआ वह उसे पंचेन्द्रिय, संजी, गर्भोपक्रान्तिक व पर्याप्तों में उपशमाता है। इनके विपरीत एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियों, असंज्ञियों, सम्मूच्र्छनों और अपर्याप्तों में नहीं उपशमाता है । संख्यातवर्षायुष्क और असंख्यातवर्षायुष्क इन दोनों के भी उपशमाता है। सूत्रगत यह अभिप्राय सूत्रकार द्वारा पूर्व में भी व्यक्त किया जा चुका है।' धवलाकार ने भी यहाँ यह स्पष्ट कर दिया है कि इस सूत्र के द्वारा पूर्वप्ररूपित अर्थ को ही स्मरण कराया गया है (पु० ६, पृ० २३८)। आगे यहाँ धवला में 'एस्थ उघउज्जंतीओ गाहाओ' सूचना के साथ पन्द्रह गाथाएँ उद्धत की गयी हैं। इन गाथाओं द्वारा इसी अभिप्राय को विशद किया गया है कि दर्शनमोहनीय का उपशम किन अवस्थाओं में किया जा सकता है, क्या वह सासादनगुणस्थान को प्राप्त हो सकता है, उसका प्रस्थापक व निष्ठापक किस अवस्था में होता है, किस स्थितिविशेष में तीन कर्म उपशान्त होते हैं तथा उपशामक के बन्ध किस प्रत्यय से होता है; इत्यादि। उपशामना किन क्षेत्रों में व किसके समक्ष होती है (१,६-८,१०), इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि इसके लिए कोई विशेष नियम नहीं है वह किसी भी क्षेत्र में व किसी के समीप हो सकती है; क्योंकि सम्यक्त्व का ग्रहण सर्वत्र सम्भव है। क्षायिकसम्यक्त्व की प्राप्ति का विधान--इस प्रकार दर्णनमोहनीय की उपशामना के विषय में विचार करके तत्पश्चात् उसकी क्षपणा की प्ररूपणा की गयी है। यहाँ सर्वप्रथम सूत्रकार ने दर्शनमोहनीय की क्षपणा को प्रारम्भ करनेवाला जीव उसका कहाँ प्रारम्भ करता है, इसे स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि वह उसे अढ़ाई द्वीप-समुद्रों में पन्द्रह कर्मभूमियों के भीतर जहाँ जिन, केवली व तीर्थकर होते हैं, उसे प्रारम्भ करता है (सूत्र १, ६-८,११)। इस सूत्र की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने प्रारम्भ में यह स्पष्ट कर दिया है कि क्षपणा के स्थान के विषय में पूछनेवाले शिष्य के लिए यह सूत्र आया है । सूत्र में जो अढ़ाई द्वीपसमुद्रों का निर्देश किया गया है उससे जम्बूद्वीप धातकीखण्ड और आधा पुष्कराध इन अढाई द्वीपों को ग्रहण करना चाहिए। कारण यह है कि इन्हीं द्वीपों में दर्शनमोहनीय की क्षपणा को प्रारम्भ किया जा सकता है, शेष द्वीपों में उसकी सम्भावना नहीं है, क्योंकि उनमें उत्पन्न होनेवाले जीवों में उसके क्षय करने की शक्ति नहीं है । समुद्रों में लवण और कालोद इन दो समुद्रों को ग्रहण किया गया है, क्योंकि अन्य समुद्रों में उसके सहकारी कारण सम्भव नहीं हैं। ___ इन अढ़ाई द्वीपों में अवस्थित पन्द्रह कर्मभूमियों में ही उसकी क्षपणा को प्रारम्भ किया जाता है; क्योकि वहीं पर जिन, केवली व तीर्थंकर का रहना सम्भव है; जिनके पादमल में उसकी क्षपणा प्रारम्भ की जाती है । मानुषोत्तर पर्वत के बाह्य भागों में जिन व तीर्थकर का रहना सम्भव नहीं है । यद्यपि सूत्र में सामान्य से कर्मभूमियों में उसकी क्षपणा के प्रारम्भ करने १. देखिए सूत्र १,६-८,४ व ८-६ २. धवला पु० ६, पृ० २३८-४३, ये सब गाथाएं यथाक्रम से कपायप्राभूत में उपलब्ध होती हैं। केवल गा० ४६-५० में क्रमव्यत्यय हुआ है। देखिए क० पा० सुत्त गा० ४२-५६, पृ० ६३०-३८ ३. धवला पु० ६, पृ० २४३ षट्खण्डागम पर टोकाएँ । ४३६ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का उल्लेख है, पर अभिप्राय उसका यह रहा है कि उन कर्मभूमियों में उत्पन्न मनुष्य ही उसकी क्षपणा प्रारम्भ करते हैं, न कि तिथंच । सूत्र में निर्दिष्ट 'जम्हि जिणा' को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि जिस काल में 'जिनों' की सम्भावना है उसी काल में जीव उसकी क्षपणा का प्रारम्भक होता है, अन्य काल में नहीं। तदनुसार यहाँ दुःषमा, दुःषम-दुःषमा, सुषम-सुषमा, सुषमा और सुषमदुःषमा इन कालों में उस दर्शनमोहनीय की क्षपणा का निषेध किया गया है । यहाँ धवलाकार ने सूत्रोक्त जिन, केवली और तीर्थकर इन शब्दों की सफलता को स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि सूत्र में देशजिनों के प्रतिषेध के लिए केवली को ग्रहण किया गया है तथा तीर्थंकर कर्म के उदय के रहित केवलियों के प्रतिरोध के लिए 'तीर्थंकर' को ग्रहण किया गया है। कारण उसका यह दिया गया है कि तीर्थकर के पादमूल में जीव दर्शनमोहनीय की क्षपणा को प्रारम्भ किया करता है, अन्यत्र नहीं। आगे 'अथवा' कहकर प्रकारान्तर से वहाँ यह भी कहा गया है कि 'जिनों' से चौदह पूर्वी के धारकों. 'केवली' से तीर्थकर कर्म के उदय से रहित केवलज्ञानियों को और 'तीर्थकर' से तीर्थकर नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुए आठ प्रतिहार्यों व चौंतीस अतिशयों से रहित जिनेन्द्रों को ग्रहण करना चाहिए । इन तीनों के भी पादमूल में जीव दर्शनमोह को क्षपणा को प्रारम्भ करते हैं। ___ इस प्रसंग में अन्य किन्हीं आचार्यों के व्याख्यान को प्रकट करते हुए धवला में यह भी कहा गया है कि यहाँ सूत्र में प्रयुक्त 'जिन' शब्द की पुनरावृत्ति करके जिन दर्शनमोह की क्षपणा को प्रारम्भ करते हैं, ऐसा कहना चाहिए, अन्यथा तीसरी पृथिवी से निकले हुए कृष्ण आदि के तीर्थंकरपना नहीं बन सकता है,' ऐसा किन्हीं आचार्यों का व्याख्यान है। इस व्याख्यान के अभिप्रायानुसार दुःषमा, अतिदुःषमा, सुषमासुषमा और सुषमा इन कालों में उत्पन्न हुए मनुष्यों के दर्शनमोह की क्षपणा सम्भव ही नहीं है। इसका कारण यह है कि एकेन्द्रियों में से आकर तीसरे काल में उत्पन्न हुए वर्धनकुमार आदि के दर्शनमोह की क्षपणा देखी जाती है। इसी व्याख्या को यहाँ प्रधान करना चाहिए। (धवला पु० ६, पृ० ३४३-४७) उपयुक्त दर्शनमोह की क्षपणा की समाप्ति चारों ही गतियों में सम्भव है। इसके स्पष्टीकरण में धवलाकार ने कहा है कि कृतकरणीय होने के प्रथम समय में दर्शनमोह की क्षपणा करनेवाले जीव को निष्ठापक कहा जाता है । वह आयुबन्ध के वश चारों ही गतियों में उत्पन्न होकर दर्शनमोह को क्षपणा को समाप्त करता है । कारण यह है कि उन गतियों में उत्पत्ति के कारणभूत लेश्यारूप परिणामों के होने में वहाँ किसी प्रकार का विरोध नहीं है । अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में सम्यक्त्वमोह की अन्तिम फालि के द्रव्य को नीचे के निषेकों में क्षेपण करनेवाला जीव अन्तर्मुहूर्त काल तक कृतक रणीय कहलाता है। दर्शमोह की क्षपणा की विधि उसकी उपशामनाविधि के प्रायः समान है, मूल में उसकी १. इत्यादिशुभचिन्तात्मा भविष्यत्तीर्थकद्धरिः। बद्धायुष्कतया मृत्वा तृतीयां पृथिवीमितः ।।-हरि० पु०, ६२-६३ २. वर्धनकुमार का उल्लेख इसके पूर्व धवला में अनादि सपर्यवसितकाल के प्रसंग में भी किया गया है । पु० ४, पृ० २२४ ४४० / षड्खण्डागम -परिशीलन Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्ररूपणा न होने पर भी धवलाकार ने उसका विवेचन किया है । दर्शनमोह का क्षपक प्रथमतः अनन्तानुबन्धिचतुष्क का विसंयोजन करता है । उसकी क्षपणा में भी अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में स्थितिघात, अनुभागघात, गुणश्रेणि और गुणसंक्रमण नहीं होते । उसके अन्तिम समय तक जीव उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि को प्राप्त होता हुआ पूर्व स्थितिबन्ध की अपेक्षा पल्योपम के संख्यातवें भाग से हीन स्थिति को बांधता है । इस प्रकार इस करण में प्रथम स्थितिबन्ध की अपेक्षा अन्तिम स्थितिबन्ध संख्य ___ अपूर्वकरण के प्रथम समय में पूर्व स्थितिबन्ध की अपेक्षा पल्योपम के संख्यातवें भाग से हीन अन्य हो स्थितिबन्ध होता है । इस प्रकार से यहाँ होनेवाले स्थितिबन्ध, स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, गुणश्रेणि और गुणसंक्रमण आदि की प्ररूपणा की गयी है। इस प्रक्रिया से उत्तरोत्तर हानि को प्राप्त होनेवाले स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व आदि के विषय में धवलाकार ने विस्तार से प्ररूपणा की है। यही प्ररूपणाक्रम आगे अनिवृत्तिकरण के प्रसंग में भी रहा है (धवला पु० ६, पृ० २४७-६६)। __इस प्रसंग में सूत्रकार ने सम्यक्त्व को प्राप्त करनेवाला जीव उस सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा आयु को छोड़ शेष सात कर्मों की अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति को संख्यातगणी हीन स्थापित करता है, इस पूर्वप्ररूपित अर्थ का, चारित्र को प्राप्त करनेवाले जीव के स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व की प्ररूपणा में सहायक होने से पुनः स्मरण करा दिया है।' __संयमासंयम प्राप्ति का विधान-जैसा कि ऊपर कहा गया है, सूत्रकार द्वारा अगले सूत्र में निर्देश किया गया है कि चारित्र को प्राप्त करनेवाला जीव सम्यक्त्व के अभिमुख हुए उस अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि के स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व की अपेक्षा आयु को छोड़कर शेष ज्ञानावरणीयादि सात कर्मों की अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति को स्थापित करता है (१,८-६,१४)। इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने सर्वप्रथम चारित्र के इन दो भेदों का निर्देश किया है-देशचारित्र और सकलचारित्र। इनमें देशचारित्र के अभिमुख होनेवाले मिथ्यादष्टि दो प्रकार के होते हैं-वेदकसम्यक्त्व के साथ संयमासंयम के अभिमख और उपशमसम्यक्त्व के साथ संयमासंयम के अभिमुख । इसी प्रकार संयम के अभिमुख होनेवाले मिथ्यादृष्टि भी दो प्रकार के होते हैं—वेदकसम्यक्त्व के साथ संयम के अभिमुख और उपशमसम्यक्त्व के साथ संयम के अभिमुख । इनमें संयमासंयम के अभिमुख हुआ मिथ्यादृष्टि प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि के स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व की अपेक्षा संख्यातगुणे हीन स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व को अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम के प्रमाण में स्थापित करता है । इसका कारण यह है कि प्रथम सम्यक्त्व के योग्य तीन करणरूप परिणामों की अपेक्षा अनन्तगुणे प्रथम सम्यक्त्व से सम्बद्ध संयमासंयम के योग्य तीन परिणामों से वे घात को प्राप्त होते हैं । धवलाकार ने इस सूत्र को देशामर्शक बतलाकर यह भी स्पष्ट किया है कि यह एकदेश के प्रतिपादन द्वारा सूत्र के अन्तर्गत समस्त अर्थ का सूचक है इसलिए यहाँ सर्वप्रथम संयमासंयम के अभिमुख होनेवाले के विधान की प्ररूपणा की जाती है । तदनुसार प्रथम सम्यक्त्व और संयमासंयम दोनों को एक साथ प्राप्त करनेवाला भी पूर्वोक्त तीन करणों को करता है। १. १०ख० सूत्र १,८-६,१३ व इसकी धवला टीका (पु० ६, पृ० २६६) षट्खण्डागम पर टीकाएँ।४४१ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाले वेदकसम्यक्त्व के योग्य मिथ्यादृष्टि जीव यदि संयमासंयम को प्राप्त करता है तो वह दो ही करणों को करता है, अनिवृत्तिकरण उसके नहीं होता। जब वह अन्तर्मुहूर्त में संयमासंयम को प्राप्त करनेवाला होता है तब से लेकर सभी जीव आयु को छोड़कर शेष कर्मों के स्थितिवन्ध और स्थितिसत्त्व को अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम के प्रमाण में करते हैं। शुभ कर्मों के अनुभागबन्ध और अनुभागसत्त्व को वह चतु:स्थानवाला तथा अशुभ कर्मों के अनुभागबन्ध और अनुभागसत्त्व को दो स्थानवाला करता है । तब से वह अनन्तगुणी अधःप्रवृत्तकरण नाम की विशुद्धि के द्वारा विशद्ध होता है । यहाँ स्थितिकाण्डक, अनुभागका पडक और गुणश्रेणि नहीं होती । वह स्थितिबन्ध के पर्ण होने पर केवल उत्तरोत्तर पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन स्थितिबन्ध के साथ स्थितियों को बांधता है । जो शुभ कर्मों के अंश हैं उन्हें अनन्तगुणे अनुभाग के साथ बाँधता है और जो अशुभ कर्मों के अंश हैं उन्हें अनन्तगुणे हीन अनुभाग के साथ बाँधता है। अपर्वकरण के प्रथम समय में जघन्य स्थितिकाण्डक पल्योपम के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट पृथक्त्व सागरोपम.प्रमाण होता है । अनुभागकाण्डक अशुभ कर्मो के अनभाग का अनन्त वहभाग प्रमाण होता है । शुभ कर्मों के अनुभाग का घांत नहीं होता । यहाँ प्रदेशाग्र की गणश्रेणिनिर्जरा भी नहीं है। स्थितिबन्ध पल्योपम के संख्यातवें भाग से हीन होता है । इस क्रम से अपूर्वकरणकाल समाप्त होता है । अनन्तर समय में प्रथम समयवर्ती संयतासंयत हो जाता है । तब वह अपूर्व-अपूर्व स्थितिकाण्डक, अनुभागकाण्डक और स्थितिबन्ध को प्रारम्भ करता है । आगे संयमासंयमलब्धिस्थानों में प्रतिपातस्थान, प्रतिपद्यमानस्थान और प्रतिपद्यमान-अप्रतिपातस्थानों का विचार किया गया है और उनके अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है। इस प्रकार संयमासंयम को प्राप्त करनेवाले की विधि की धवला में विस्तार से चर्चा है (पु० ६, पृ० २६७-८०) सकलचारित्र की प्राप्ति का विधान-सकलचारित्र क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक के भेद रो तीन प्रकार का है। इनमें प्रथमतः क्षायोपशमिक चारित्र को प्राप्त करनेवाले की दिधि की प्ररूपणा में धवलाकार ने कहा है कि जो प्रथम सम्यक्त्व और संयम दोनों को एक साथ प्राप्त करने के अभिमुख होता है वह तीनों ही करणों को करता है। परन्तु यदि मोहनीय की अट्राईम प्रकृतियों की सत्तावाला मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा संयतासंयत संयम की प्राप्ति के अभिमुख होता है तो वह अनिवृत्तिकरण के बिना दो ही करणों को करता है । आगे इसी सन्दर्भ में इन करणों में होने वाले कार्य की प्ररूपणा संयमासंयम के अभिमुख होनेवाले के ही प्रायः समान की गयी है। यहाँ संयमलब्धिस्थानों के प्रसंग में उनके ये तीन भेद निर्दिष्ट हैं-प्रतिपातस्थान, उत्पादस्थान और तद्व्यतिरिक्तस्थान । जिस स्थान में जीव मिथ्यात्व, असंयमसम्यक्त्व अथवा संयमासंयम को प्राप्त होता है वह प्रतिपा पान ने वह संयम को प्राप्त करता है उसे उत्पादस्थान कहा जाता है। शेष सभी चारित्रस्थानों को तद्व्यतिरिक्त स्थान जानना चाहिए। आगे इन लब्धिस्थानों में अल्पबहुत्व भी दिखलाया है। इस प्रकार क्षायोपशमिक चारित्र प्राप्त करनेवाले की विधि की प्रा.पणा समाप्त हुई है। औपशमिक चारित्र को प्राप्त करनेवाला वेदकसम्यग्दृष्टि पूर्व में ही अनन्तानुबन्धी की ४४२ / षट्खण्डागम पर टीकाएँ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसंयोजना करता है। उसके तीनों करण होते हैं । आगे इन करणों में होने और न होनेवाले कार्यों का विचार किया गया है। इस प्रकार अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करके जीव अन्तर्मुहूर्त अधःप्रवृत्त होता हुआ प्रमत्तगुणस्थान को प्राप्त होता है । वहाँ वह असातावेदनीय, अरति, शोक और अयशःकीर्ति आदि कर्मों को अन्तर्मुहूर्त बाँधकर तत्पश्चात् दर्शनमोहनीय को उपशमाता है। यहाँ भी तीनों करणों के करने का विधान है। यहाँ स्थितिघात, अनुभागघात और गणश्रेणि की जाती है । इन सब की प्ररूपणा दर्शनमोहनीय की क्षपणा के समान है। तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर दर्शनमोहनीय का अन्तर करता है । फिर इस अन्तरकरण में होनेवाले कार्य का विचार किया गया है । टस प्रकार दर्णनमोहनीय का उपशम करके प्रमत्त व अप्रमत्स गुणस्थानों में असाता, अरति, शोक, अयशःकीति आदि कर्मों के हजारों बार बन्धपरावर्तनों को करता हुआ कषायों को उपशमाने के लिए अधःप्रवृत्तकरण परिणामों से परिणत होता है । यहाँ पूर्व के समान स्थितिघात, अनुभागघात और गुणसंक्रमण नहीं होते। संयमगुणश्रेणि को छोड़कर अधःप्रवृत्तकरण परिणामनिमित्तक गुणश्रेणि भी नहीं होती। केवल प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि से वृद्धिंगत होता है। ___ आगे अपूर्वक रण के प्रथम समय में स्थितिकाण्डक आदि को जिस प्रमाण में प्रारम्भ करता है उसका विवेचन है। इस क्रम से अपूर्वकरण के सात भागों में से प्रथम भाग में निन्द्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों का बन्धयुच्छेद हो जाता है । पश्चात् अन्तमहूर्तकाल के बीतने पर उसके सात भागों में से पाँच भाग जाकर देवगति के साथ बन्धने वाले परभविक देवगति व पंचेन्द्रिय जाति. आदि नामकर्मों के बन्ध का व्युच्छेद होता है। तत्पश्चात् उसके अन्तिम समय में स्थितिकाण्डक, अनुभागकाण्डक और स्थिति बन्ध एक साथ समाप्त होते हैं। उसी समय हास्य, रति, भय और जुगप्सा इन चार प्रकृतियों के बन्ध का व्युच्छेद होता है । हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा कर्मों के उदय का भी व्युच्छेद वही पर होता है। ____ अनन्तर वह प्रथम समयवर्ती अनिवृत्तिकरणवाला हो जाता है । उस समय उसके स्थितिकाण्डक आदि जिस प्रमाण में होते हैं उसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा है कि उसी अनिवृत्तिकरणकाल के प्रथम समय में अप्रशस्त उपशामनाकरण, नितिकरण और निकाचनाकरण व्युच्छेद को प्राप्त होते हैं। जिस कर्म को उदय में नहीं दिया जा सकता है उसे उपशान्त, जिसे संक्रम व उदय इन दो में नहीं दिया जा सकता है उसे निधत्त तथा जिसे अपकर्षण, उत्कर्षण, उदय और संक्रम इन चारों में भी नहीं दिया जा सकता है उसे निकाचित कहा जाता है। उस समय आय को छोड़, शेष कर्मों का स्थितिमत्त्व अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण और स्थितिबन्ध अन्त:कोडाकोड़ी में लाखपृथकत्व प्रमाण होता है । इस प्रकार से हजारों स्थितिकाण्डकों के बीतने पर अनिवृत्तिकरणकाल का संख्यात बहुभाग बीत जाता है । उस समय स्थितिबन्ध असंजीपंचेन्द्रिय के स्थितिबन्ध के समान होता है। तत्पश्चात वह क्रम से हीन होता हआ चतूरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि के स्थितिबन्ध के समान होता जाता है। यहीं पर नाम, गोत्र आदि कर्मों का स्थितिबन्ध किस प्रकार हीन होता गया है, इसे भी स्पष्ट कर दिया गया है । आगे उसके अल्पबहुत्व को भी बतलाया गया है। अल्पबहुत्व की इस विधि से संख्यात हजार स्थितिकाण्डकों के बीतने पर मनःपर्ययज्ञानावरणीय व दानान्तराय आदि कर्मप्रकृतियों का अनुभाग बन्ध से किस प्रकार देशघाती होता गया है, इसे दिखलाते हुए स्थितिबन्ध का अल्पबहुत्व भी निर्दिष्ट है । बदलण्डागम पर टीकाएँ / ४३ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार देशघाती करने के पश्चात् संख्यात हजार स्थितिबन्धों के बीतने पर बारह कषायों और नौ नोकषायों के अन्तरकरण को करता है । अन्तरकरण की यह प्रक्रिया भी यहाँ वर्णित है । आगे बढ़ते हुए वह किस क्रम से किन-किन प्रकृतियों के उपशम आदि को करता है, धवला में इसकी विस्तार से चर्चा है। इस क्रम से वह सूक्ष्मसाम्परायिक हो जाता है, तब उसके अन्तिम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का बन्ध अन्तर्मुहूर्त मात्र, नाम और गोत्र कर्मों का सोलह मुहूर्त तथा वेदनीय का चौबीस मुहूर्तमात्र रह जाता है । अनन्तर समय में समस्त मोहनीय कर्म उपशम को प्राप्त हो जाता है। यहां से वह अन्तर्मुहूर्तकाल तक उपशान्तकषाय वीतराग रहता है। समस्त उपशान्तकाल में अवस्थित परिणाम होता है। आगे किन कर्मप्रकृतियों का किस प्रकार का वेदन होता है, इसे स्पष्ट किया गया है । इस प्रकार से औपशमिक चारित्र के प्राप्त करने की विधि को प्ररूपणा समाप्त हुई है (पु० ६, २८८-३१६) । उपशमणि से पतन औपशमिक चारित्र मोक्ष का कारण नहीं है, क्योंकि वह अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् नियम से मोह के उदय का कारण है । उपशान्तकषाय का प्रतिपात दो प्रकार से होता है-भवक्षय के निमित्त से और उपशान्तकषायकाल के समाप्त होने से । इनमें भवक्षय के निमित्त से उसका जो प्रतिपात होता है उसमें देवों में उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही सब करण (उदीरणा आदि) प्रकट हो जाते हैं । जो कर्म उदीरणा को प्राप्त होते हैं वे उदयावलि में प्रविष्ट हो जाते हैं और जो उदीरणा को प्राप्त नहीं होते उनको भी अपकर्षित करके उदयावलि के बाहर गोपुच्छश्रेणि में निक्षिप्त किया जाता है । ___ उपशान्त काल के क्षय से गिरता हुआ वह उपशान्तकषाय वीतराग लोभ में ही गिरता है, क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानों को छोड़कर अन्य किसी गुणस्थान में उसका जाना सम्भव नहीं। इस प्रकार क्रम से नीचे गिरते हुए उसके अनिवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अधःप्रवृत्तकरण में विभिन्न कर्मप्रकृतियों के स्थितिबन्ध आदि उत्तरोत्तर जिस प्रक्रिया से वृद्धिंगत होते गये हैं धवला में उसकी विस्तार से प्ररूपणा की गयी है (पु० ६, पृ० ३१७-३१) । __इस प्रकार से गिरता हुआ वह अधःप्रवृत्तकरण के साथ उपशमसम्यक्त्व का पालन करता है। इस उपशम (द्वितीयोशम) काल के भीतर वह असंयम को भी प्राप्त हो सकता है, संयमासंयम को भी प्राप्त हो सकता है और उसमें छह आवलीमात्र काल के शेष रह जाने पर वह कदाचित् सासादनगुणस्थान को भी प्राप्त हो सकता है । सासादन अवस्था को प्राप्त होकर यदि वह मरण को प्राप्त होता है तो नरकगति, तिर्यंचगति और मनुष्यगति में न जाकर नियम से देवगति में जाता है। यहाँ धवलाकार ने स्पष्ट किया है कि यह प्राभूत (कषायप्राभृत) चूर्णिसूत्र का अभिप्राय है। भूतबलि भगवान् के उपदेश के अनुसार उपशमणि से गिरता हुआ जीव सासादन अवस्था को प्राप्त नहीं होता है । तीन आयुकर्मों में किसी भी एक के बँध जाने पर वह कषाय का उपशम करने में समर्थ नहीं होता है इसलिए वह नरक, तिर्यंच और मनुष्यगति को प्राप्त नहीं होता है। ४४४/ षट्खण्डागम-परिशीलन Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पूर्ण चारित्र की प्राप्ति ___ आगे दो (१,६-८, १५-१६) सूत्रों में कहा गया है कि सम्पूर्ण चारित्र को प्राप्त करनेवाला जीव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार कर्मों की स्थिति को अन्तर्मुहूर्तमात्र, वेदनीय की बारह मुहूर्त, नाम व गोत्र इन दो कर्मों की आठ अन्तर्मुहूर्त और शेष कर्मों की भिन्न मुहूर्त प्रमाण स्थिति को स्थापित करता है। इनकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने कहा है कि ये दोनों सूत्र देशामर्शक हैं, इसलिए इनके द्वारा सूचित अर्थ की प्ररूपणा करते हुए धवला में चारित्रमोह की क्षपणा में अधःप्रवृत्तकरणकाल, अपूर्वकरणकाल और अनिवृत्तिकरणकाल इन तीनों के होने का निर्देश है। इनमें से अधःप्रवृत्तकरण में वर्तमान जीव के स्थितिघात और अनुभागघात नहीं होता है । वह केवल उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि से वृद्धिंगत होता है।। ___आगे यहाँ अपूर्वकरण में होनेवाले स्थितिकाण्डक, अनुभागकाण्डक, गुणसंक्रम, गुणश्रेणि, स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व आदि की विविधता का विवेचन है । इस प्रकार हजारों स्थितिबन्धों के द्वारा अपूर्वकरणकाल का संख्यातवाँ भाग बीत जाने पर निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों के बन्ध का व्युच्छेद हो जाता है। तत्पश्चात् हजारों स्थितिबन्धों के बीतने पर देवगति के साथ बँधनेवाले नाम कर्मों के बन्ध का व्युच्छेद होता है। अनन्तर हजारों स्थितिबन्धों के बीतने पर वह अपूर्वकरण के अन्तिम समय को प्राप्त होता है (धवला पु. ६, पृ० ३४२-४८)। इसी प्रकार अनिवत्तिकरण में प्रविष्ट होने पर वह जिस प्रकार से उत्तरोत्तर कर्मों के स्थितिबन्ध, स्थितिसत्त्व और अनुभागबन्ध को हीन करता है उस सब की प्ररूपणा य में विस्तार से की गयी है । इस क्रम से अनिवृत्तिकरण के अन्त में संज्वलनलोभ का स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त, तीन घातिया कर्मों का दिन-रात के भीतर तथा नाम, गोत्र व वेदनीय का बन्ध वर्ष के भीतर रह जाता है । उस समय मोहनीय का स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहर्त, तीन घातिया कर्मों का संख्यात हजार वर्ष तथा नाम, गोत्र व वेदनीय का स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्षप्रमाण होता है (धवला पु० ६, पृ० ३४८-४०३)। __ पश्चात् धवला में सूक्ष्मसाम्प रायिक गुणस्थान में प्रविष्ट होने पर वृष्टिकरण आदि क्रियाओं का प्रक्रियावद्ध विचार किया गया है । इस प्रक्रिया से आगे बढ़ते हुए अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक के नाम व गोत्र कर्मों का स्थितिवन्ध आठ मुहूर्त, वेदनीय का बारह मुहूर्त और तीन घातिया कर्मों का स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तमात्र और उन तीनों का स्थितिसत्त्व भी अन्तर्मुहूर्त मात्र रहता है। नाम, गोत्र और वेदनीय का स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्ष रहता है। मोहनीय का स्थितिसत्त्व वहाँ नष्ट हो जाता है (पु० ६, पृ० ४०३-११)। अनन्तर समय में वह प्रथम समयवर्ती क्षीणकषाय हो जाता है। उसी समय वह स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध से रहित हो जाता है । इस प्रकार से वह एक समय अधिक आवली. मात्र छदमस्थकाल के शेष रह जाने तक तीन घातिया कर्मों की उदीरणा करता है। पश्चात उसके द्विचरम समय में निद्रा व प्रचला प्रकृतियों के सत्त्व व उदय का व्युच्छेद हो जाता है। उसके पश्चात् उसके ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्त राय कर्मों के सत्त्व-उदय का व्युच्छेद होता है । तब वह अनन्त केवलज्ञान, केवलदर्शन और वीर्य से युक्त होकर जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी व सयोगिकेवली होता हुआ असंख्यातगुणित श्रेणि से निर्जरा में प्रवृत्त रहता है। पश्चात अन्तर्मुहूर्त आयु के शेष रह जाने पर वह केवलिसमुद्घात को करता है । उसमें बट्सण्डागम पर टीकाएँ / ४४५ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम समय में दण्ड को करके वह स्थिति के असंख्यात बहुभाग को तथा अप्रशस्त कर्मों के शेष रहे अनुभाग के अनन्त बहुभाग को नष्ट करता है । द्वितीय समय में कपाट को करके उसमें शेष रही स्थिति के संख्यात बहुभाग को और अप्रशस्त कर्मो के शेष रहे अनुभाग के अनन्त बहुभाग को नष्ट करता है । तृतीय समय में मन्थ (प्रतर) समुद्घात करके वह स्थिति और अनुभाग की निर्जरा पूर्व के ही समान करता है । तत्पश्चात् चतुर्थ समय में लोकपूरणसमुद्घात में समस्त लोक को आत्मप्रदेशों से पूर्ण करता है। लोक के पूर्ण होने पर समयोग होने के प्रथम समय में योग की एक वर्गणा होती है । इसका अभिप्राय यह है कि लोकपूरण समुद्घात में वर्तमान केवली के लोकप्रमाण समस्त जीवप्रदेशों में जो योगों के अविभागप्रतिच्छेद होते हैं वे सब वृद्धि व हानि से रहित होकर समान होते हैं । इसलिए सब योगाविभागप्रतिच्छेदों के समान हो जाने से योग की एक ही वर्गणा रहती है। स्थिति अनुभाग की निर्जरा पूर्ववत् चालू रहती है। लोकपूरणसमुद्घात में वह आयुकर्म से संख्यातगुणी अन्तर्मुहूर्तमात्र स्थिति को स्थापित करता है । इन चार समयों में वह अशुभ कर्माशों के अनुभाग का प्रतिसमय अपकर्षण करता है और एक समयवाले स्थितिकाण्डक का घात करता है । यहाँ से शेष रही स्थिति के संख्यात वहुभाग को नष्ट करता है तथा शेष रहे अनुभाग के अनन्त बहभाग को नष्ट करता है। इस बीच स्थितिकाण्डक और अनभागकाण्डक का उत्कीरणकाल अन्तर्महर्तमात्र होता है। ___ यहाँ से अन्तर्मुहूर्त-अन्तर्मुहुर्त जाकर वह क्रम से बादर काययोग से वादर मनोयोग का, बादर वचनयोग का, बादर उच्छ्वास-निश्वास का और उसी बादर काययोग का भी निरोध करता है। तत्पश्चात् उत्तरोत्तर अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म मनोयोग का, सूक्ष्म वचनयोग का और सूक्ष्म उच्छ्वास-निःश्वास का निरोध करता है। पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म काययोग का निरोध करता हुआ अपूर्वस्पर्धकों व कृष्टियों को करता है। कृष्टिकरण के समाप्त हो जाने पर वह पूर्वस्पर्धकों और अपूर्वस्पर्धकों को नष्ट करता है व अन्तर्मुहूर्तकाल तक कृप्टिगत योगवाला होकर सूक्ष्मत्रियअप्रतिपाती शुक्लध्यान को ध्याता है। अन्तिम समय में कृष्टियों के अनन्त बहुभाग को नष्ट करता है । इस प्रकार योग का निरोध हो जाने पर नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म स्थिति में आयु के समान हो जाते हैं। तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में योगों का अभाव हो जाने से वह समस्त आस्रवों से रहित होता हुआ शैलेश्य अवस्था को प्राप्त होता है व समुच्छिन्नक्रिय-अनिवृत्ति शुक्लध्यान को ध्याता है । शैलेश नाम मेरू पर्वत का है । उसके समान जो स्थिरता प्राप्त होती है उसे शैलेश्य अवस्था कहा जाता है । अथवा अठारह हजार शीलों के स्वामित्व को शैलेश्य समझना चाहिए। इस शैलेश्यकाल के द्विचरम समय में वह देवगति आदि ७३ प्रकृतियों को और अन्तिम समय में कोई एक वेदनीय व मनुष्यगति आदि शेष बारह प्रकृतियों को निर्जीण करके सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। इस 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' चूलिका के अन्त में धवलाकार ने यह भी सूचना की है कि इस प्रकार से उपर्युक्त दो सूत्रों से सूचित अर्थ को प्ररूपणा कर देने पर सम्पूर्ण चारित्र को प्राप्ति के विधान की प्ररूपणा समाप्त हो जाती है।' १. धवला पु० ६, पृ० ४११-१७; इस प्रसंग से सम्बद्ध सभी सन्दर्भ प्रायः कषायप्राभूत चूर्णि से शब्दशः समान हैं । देखिए क० प्रा० चूणि २-५०, क० पा० सुत्त पृ०.६००-६०५ ४६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. गति-आगति यह पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि प्रस्तुत 'चूलिका' प्रकरण के प्रारम्भ में जो 'कदि काओ पयडीओ बंधदि' आदि सूत्र आया है उसके अन्त में उपर्युक्त 'चारित्तं वा संपुण्णं पडिवज्जंतस्स' वाक्यांश में प्रयुक्त 'वा' शब्द से इस नवमी 'गति-आगति' चूलिका की सूचना की गयी है। इसके प्रारम्भ में यहाँ धवलाकार ने पुनः स्मरण कराते हुए कहा है कि अब प्रसंगप्राप्त नवमी चूलिका को कहा जाता है । प्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति के कारण यहाँ सर्वप्रथम सूत्रकार द्वारा सातों पृथिवियों के नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देव मिथ्यादृष्टि किस अवस्था में व किन कारणों के द्वारा प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं, ४३ सूत्रों में इसका उल्लेख है । इसका परिचय 'मूल ग्रन्थगतविषय-परिचय' में पीछे कराया जा चुका है। विवक्षित गति में मिथ्यात्वादि सापेक्ष प्रवेश-निष्क्रमण ___ यहाँ बत्तीस सूत्रों (४४-७५) में यह विचार किया गया है कि नारकी, तिर्यच, मनुष्य और देव मिथ्यात्व और सम्यक्त्व में से किस गुण के साथ उस पर्याय में प्रविष्ट होते हैं व किस गुण के साथ वे वहां से निकलते हैं । यहाँ यह स्मरणीय है कि सम्यग्मिथ्यात्व में मरण सम्भव नहीं है, इससे उस प्रसंग में सम्यग्मिथ्यात्व का उल्लेख नहीं हुआ है। इसके लिए भी 'मूल ग्रन्थगतविषय-परिचय' को ही देखना चाहिए । अधिक कुछ व्याख्येय तत्त्व यहाँ भी नहीं रहा है । भवान्तर-प्राप्ति आगे १२७ (७६-२०२) सूत्रों में भवान्तर का उल्लेख है। तदनुसार नारकी, तिर्यच, मनुष्य और देव मिथ्यादष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि उस-उस पर्याय को छोड़कर भवान्तर में किस-किस पर्याय में आते-जाते हैं, यह सब चर्चा भी 'मूल ग्रन्थगत-विषय-परिचय' में द्रष्टव्य है। कहाँ किन गुणों को प्राप्त किया जा सकता है ___अन्त में ४१ (२०३-४३) सूत्रों में यह स्पष्ट किया गया है कि नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देव अपनी-अपनी पर्याय को छोड़कर कहाँ किस अवस्था को प्राप्त करते हैं और वहाँ उत्पन्न होकर वे (१) आभिनिबोधिक ज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनःपर्ययज्ञान, (५) केवलज्ञान, (६) सम्यग्मिथ्यात्व, (७) सम्यक्त्व, (८) संयमासंयम, (8) संयम और (१०) अन्तकृत्व (मुक्ति) इनमें से कितने व किन-किन गुणों को उत्पन्न करते हैं व किनको नहीं उत्पन्न करते हैं । इसके अतिरिक्त यहाँ यह भी दिखलाया है कि वहाँ उत्पन्न होकर वे वलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती और तीर्थकर इन पदों में से किसको प्राप्त कर सकते हैं और किसको नहीं। यह सब भी 'मूलग्रन्थगत-विषय-परिचय' से ज्ञातव्य है। ___ इस प्रकार उपर्युक्त नौ चूलिकाओं में इस 'चूलिका' का प्रकरण के समाप्त होने पर पट्खण्डागम का प्रथम खण्ड जीवस्थान समाप्त होता है। दूसरा खण्ड : क्षुद्रबन्धक इस दूसरे खण्ड में जो 'एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व' आदि ११ अनुयोगद्वार हैं तथा षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ४४७ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके पूर्व में जो 'बन्धक सत्त्वप्ररूपणा' एवं अन्त में 'महादण्डक' (चूलिका) प्रकरण है उन सब में रूपित विषय का परिचय संक्षेप से 'मूलग्रन्थगत-विषय-परिचय' में कराया जा चुका है । उक्त अनुयोगद्वारों में धवलाकार द्वारा प्रसंग के अनुसार विवक्षित विषय की जो प्ररूपणा विशेष रूप में की गयी है उसका परिचय यहाँ कराया जाता है इस खण्ड के प्रारम्भ में गति इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में कौन जीव बन्धक हैं और कौन अबन्धक हैं, इसे दिखलाया है। धवला में यह शंका उठायी गयी है कि बन्धक जीव ही तो हैं, उनकी प्ररूपणा सत्प्ररूपणा आदि आठ अनुयोगद्वारों द्वारा प्रथम खण्ड जीवस्थान में की जा चुकी है। उन्हीं की यहाँ पुनः प्ररूपणा करने पर पुनरुक्त दोष का प्रसंग आता है। इसके समाधान में धवला में कहा है कि जीवस्थान में उन बन्धक जीवों की प्ररूपणा चौदह मार्गणाओं में गुणस्थानों की विशेषतापूर्वक की गयी है, किन्तु यहाँ उनकी यह प्ररूपणा गुणस्थानों की विशेषता को छोड़कर सामान्य से केवल उन गति - इन्द्रियादि मार्गणाओं में ग्यारह अनुयोगद्वारों के आश्रय से की जा रही है, इसलिए जीवस्थान की अपेक्षा यहाँ उनकी इस प्ररूपणा में विशेषता रहने से पुनरुक्त दोष सम्भव नहीं है । बन्धक भेद-प्रभेद आगे धवला में नाम स्थापनादि के भेद से चार प्रकार के वन्धकों का निर्देश है। उनमें तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यबन्धकों के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं— कर्मबन्धक और नोकर्मद्रव्यबन्धक । इनमें नोकर्मद्रव्यवन्धक सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार के हैं । उनमें हाथी-घोड़ा आदि के बन्धकों को सचित्त, मूल व चटाई आदि निर्जीव पदार्थों के बन्धकों hat अत्ति और आभरणयुक्त हाथी घोड़ा आदि के बन्धकों को मिश्र नोकर्मबन्धक कहा गया है । कर्मबन्धक दो प्रकार के हैं— ईर्यापथकर्मबन्धक और साम्परायिककर्मबन्धक । इनमें ईर्यापथकर्मबन्धक छद्मस्थ और केवली के भेद से दो प्रकार के तथा इनमें भी छद्मस्थ उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय के भेद से दो प्रकार के हैं । साम्परायिक बन्धक भी दो प्रकार के हैं-- सूक्ष्मसाम्परायिक बन्धक और बादरसाम्परायिक बन्धक । सूक्ष्मसाम्परायिक बन्धक भी दो प्रकार के हैं—असाम्परायिक आदि बन्धक ( उपशमश्रेणि से गिरते हुए) और वादर साम्परायिक आदि बन्धक । बादरसाम्परायिक आदि बन्धक तीन प्रकार के हैं- असाम्परायिक आदि, सूक्ष्मसाम्परायिक आदि और अनादि बादरसाम्परायिक आदि। इनमें अनादि बादर साम्परायिक उपशामक, क्षपक और अक्षपक-अनुपशामक के भेद से तीन प्रकार के हैं । उपशामक दो प्रकार हैं- अपूर्वकरण उपशामक और अनिवृत्तिकरण उपशामक । इसी प्रकार क्षपक भी अपूर्वकरणक्षपक और अनिवृत्तिकरणकपक के भेद से दो प्रकार के हैं। अक्षपक-अनुपशामक दो प्रकार के हैं—अनादि - अपर्यवसित बन्धक और अनादि सपर्यवसित वन्धक | इन सब बन्धकों में यहाँ कर्मबन्धकों का अधिकार है (पु० ७, पृ० १-५) । बन्धाकरण यहाँ गतिमार्गणा के प्रसंग में बन्धक अवन्धकों का विचार करते हुए सूत्रकार ने सिद्धों को अबन्धक कहा है । ( सूत्र २,१.७ ) इसकी व्याख्या में धवलाकार ने मिथ्यात्व असंयम, कपाय और योग को बन्ध का कारण और इनके विपरीत सम्यग्दर्शन, संयम, अकपाय और अयोग को मोक्ष का कारण कहा है। ४४८ / षट्खण्डागम- परिशीलन Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ यह शंका उठायी गयी है कि यदि उक्त मिथ्यात्व आदि चार को ही बन्ध का कारण माना जाता है तो 'ओदइया बंधयरा' गाथासूत्र के साथ विरोध का प्रसंग आता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि औदयिक भावबन्ध के कारण हैं-इस कथन में सभी औदयिक भावों का ग्रहण नहीं होता, क्योंकि वैसा होने पर अन्य भी जो गति-इन्द्रिय आदि औदयिक भाव हैं उनके भी बन्धकारण होने का प्रसंग प्राप्त होता है। इसलिए 'जिसके अन्वय-व्यतिरेक के साथ नियम से जिसका अन्वय-व्यतिरेक पाया जाता है वह उसका कार्य और दूसरा कारण होता है' इस न्याय के अनुसार जिन मिथ्यात्व आदि औदयिक भावों का अन्वय-व्यतिरेक बन्ध के साथ सम्भव है वे ही बन्ध के कारण सिद्ध होते हैं, न कि सभी औदयिक भाव । उक्त मिथ्यात्व आदि चार को बन्ध का कारण मानने में गाथासूत्र के साथ विरोध नहीं है। धवला में आगे जिन प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और प्रत्याख्यानावरणचतुष्क के उदय से तथा प्रमाद आदि के निमित्त से हुआ करता है उनका यथाक्रम से पृथक्-पृथक् विचार किया गया है। यहाँ प्रसंगप्राप्त प्रमाद के लक्षण का निर्देश करते हुए चार संज्वलन और नौ नोकषायों में तीव्र उदय को प्रमाद कहा है। तदनुसार उस प्रमाद को उपर्युक्त मिथ्यात्वादि चार कारणों में से कषाय के अन्तर्गत निर्दिष्ट किया गया है। ___ आगे धवला में जिस-जिस कर्म के क्षय से जो-जो गुण सिद्धों के उत्पन्न होता है, उसका उल्लेख नौ गाथाओं को उद्धत कर उनके आधार से किया गया है।' उदाहरणपूर्वक नयों का लक्षण --- 'स्वामित्व' अनुयोगद्वार में 'नरकगति में नारकी कैसे होता है' इस पृच्छासूत्र (२,१,४) को नयनिमित्तक वतलाकर धवलाकार ने प्रसंगप्राप्त नयों का स्वरूप बताया है। इसके लिए छह गाथाएँ धवला में उद्धृत की गयी हैं (संग्रहनय से सम्बद्ध गाथा वहाँ त्रुटित हो गयी दिखती है), जिनके आश्रय से 'नारक' को लक्ष्य करके पृथक-पृथक नैगमादि नयों का स्वरूप स्पष्ट किया गया है । यथा किसी मनुष्य को पापीजन के साथ समागम करते हुए देखकर उसे नैगमनय की अपेक्षा नारकी कहा जाता है । जब वह धनुष-बाण हाथ में लेकर मृग को खोजता हुआ इधर-उधर घमता है तब वह व्यवहारनय से नारकी होता है। जब वह किसी एक स्थान में स्थित होकर मृग का घात करता है तब वह ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा नारकी होता है। जब वह जीव को प्राणों से वियुक्त कर देता है तब हिंसाकर्म से युक्त उसे शब्दनय की अपेक्षा नारकी कहा जाता है । जब वह नारक कर्म को बाँधता है तब नारक कर्म से संयुक्त उसे समभिरुढनय से नारकी कहा जाता है। जब वह नरकगति को प्राप्त होकर नारक दुःख का अनुभव करता है तब एवम्भूतनय से उसे नारकी कहा जाता है। यहीं पर आगे निक्षेपार्थ के अनुसार नामादि के भेद से चार प्रकार के नारकियों का निर्देश करते हुए उनका स्वरूप प्रदर्शित किया गया है (धवला पु० ७, पृ० २८-३०)। इसी स्वामित्व अनुयोगद्वार में देव कैसे होता है, इसे स्पष्ट करते हुए सूत्र में कहा गया है कि जीव देवगति में देव देवगतिनामकर्म के उदय से होता है। (सूत्र २,१,१०-११) इसे स्पष्ट करते हुए प्रसंगवश धवला में कहा है कि नरक, तिथंच, मनुष्य और देव ये १. धवला पु० ७, पृ० ८-१५ (इस बन्धप्रक्रिया को व्युच्छित्ति के रूप में गोककी ६४-१०२ गाथाओं में देखा जा स षट्खण्डागम पर टोकाएँ । ४४६ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतियां यदि केवल उदय में आती हैं तो नरकगति के उदय से नारकी, तिथंचगति के उदय से तिर्यच, मनुष्यगति के उदय से मनुष्य और देवगति के उदय से देव होता है; यह कहना योग्य है। किन्तु अन्य प्रकृतियां भी वहाँ उदय में आती हैं, क्योंकि उनके बिना नरकगति आदि नामकर्मों का उदय नहीं पाया जाता है। इसके स्पष्टीकरण के साथ धवला में आगे नारकियों के २१,२५, २७,२८ व २६ इन पाँच उदयस्थानों को; तियंचगति में २१,२४,२५,२६,२७,२८,२६,३० व ३१ इन नौ उदयस्थानों को; मनुष्यों के सामान्य से २०,२१,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१,६ व ८ इन ग्यारह उदयस्थानों को; और देवगति में २१,२५,२७,२८ व २६ इन पांच उदयस्थानों को दिखलाया है । यथासम्भव भंगों को भी वहाँ दिखलाया गया है। यथा-- नारकियों के सम्भव उपर्युक्त पाँच स्थानों में से इक्कीस प्रकृतिरूप उदयस्थान के प्रसंग में धवला में कहा गया है कि नरकगति, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशकीर्ति और निर्माण इन २१ प्रकृतियों को लेकर प्रथम स्थान होता है। यहाँ भंग एक ही रहता है। वह विग्रहगति में वर्तमान नारकी के सम्भव है। उपर्यक्त २१ प्रकृतियों में से एक आनुपूर्वी को कम करके उनमें वैक्रियिक शरीर, हुण्डसंस्थान, वैक्रियिक शरीरांगोपांग, उपघात और प्रत्येकशरीर इन पाँच प्रकृतियों के मिला देने पर २५ प्रकृतियों का दूसरा स्थान होता है। वह शरीर को ग्रहण कर लेने वाले नारकी के सम्भव है। उसका काल शरीर ग्रहण करने के प्रथम समय से लेकर शरीरपर्याप्ति के अपूर्ण रहने के अन्तिम समय तक अन्तर्महूर्त है। यहाँ पूर्वोक्त भंग के साथ दो भंग हैं। उक्त २५ प्रकृतियों में परघात और अप्रशस्त विहायोगति इन दो के मिला देने पर २७ प्रकृतियों का तीसरा स्थान होता है। वह शरीरपर्याप्ति के पूर्ण होने के प्रथम समय से लेकर आनपानपर्याप्ति के अपूर्ण रहने के अन्तिम समय तक रहता है । सब भंग यहाँ ३ होते हैं। पूर्वोक्त २७ प्रकृतियों में उच्छ्वास को मिला देने पर २८ प्रकृतियों का चौथा स्थान होता है। वह आनप्राणपर्याप्ति से पर्याप्त हो जाने के प्रथम समय से लेकर भाषापर्याप्ति के अपूर्ण रहने के अन्तिम समय तक होता है। यहाँ सब भंग ४ होते हैं। उन २८ प्रकृतियों में एक दुःस्वर के मिला देने पर २६ प्रकृतियों का पांचवां स्थान होता है। वह भाषापर्याप्ति से पर्याप्त होने के प्रथम समय से लेकर आयुस्थिति के अन्तिम समय तक रहता है। यहाँ सब भंग ५ होते हैं। इसी प्रकार से आगे यथासम्भव तिर्यचगति आदि में भी स्थानों को प्रदर्शित किया गया है। विशेषता यह है कि तिरंच एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रियादि भेदों में विभक्त हैं। इससे उनमें आतपउद्योत व यशकीति-अयशकीर्ति आदि कुछ प्रकृतियों के उदय की विशेषता के कारण भंग अधिक सम्भव हैं। इसी प्रकार की विशेषता मनुष्यों में भी रही है।' इन भंगों की प्रक्रिया के परिज्ञापनार्थ धवला में 'एत्थ भंगविसयणिच्छयमुप्प.यणभेदाओ गाहाओ वत्तवाओ' ऐसी सूचना करके ७ गाथाओं को उद्धृत किया गया है (पु० ७, पृ० ४४४६)। ये गाथाएँ उसी क्रम से मूलाचार के 'शीलगुणाधिकार' १६-२५ गाथांवों में उपलब्ध १. इस सबके लिए धवला पु० ७, पृ० ३२-६० देखना चाहिए। ४५० / षट्समागम-परिशीलन Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती हैं।' विशेषता यह है कि मूलाचार में जहाँ 'शील' का प्रसंग रहा है वहाँ धवला में उदय प्राप्त कर्मप्रकृतियों का प्रसंग रहा है। इसलिए गाथाओं के अन्तर्गत शब्दों में प्रसंग के अनुरूप परिवर्तन हुआ है। जैसे-पढम सीलपमाणं पढमं पवडिपमाण' आदि । प्रथम गाथा में शब्दपरिवर्तन विशेष हुआ है, पर अभिप्राय दोनों में समान है। यहीं पर आगे 'इन्द्रिय' मार्गणा के प्रसंग में धवला में एकेन्द्रियत्व आदि की क्षायोपशमिक रूपता को दिखलाते हुए सर्वघाती व देशघाती कर्मों का स्वरूप भी प्रकट किया है। 'दर्शन' मार्गणा के प्रसंग में दर्शन के विषय में भी विशेष विचार किया गया है (धवला पु० ७, पृ० ६६-१०२)। स्पर्शनानुगम अनुयोगद्वार (७) में प्रथम पृथिवीस्थ नारकियों के स्पर्शनक्षेत्र के प्रसंग में जो आचार्य तिर्यग्लोक को एक लाख योजन बाहल्यवाला व एक राजु विष्कम्भ से युक्त झालर के समान मानते हैं उनके उस अभिमत को तथा इसके साथ ही जो आचार्य यह कहते हैं कि पांच द्रव्यों का आधारभूत लोक ३४३ घनराजु प्रमाण उपमालोक से भिन्न है उनके अभिमत को भी यहाँ धवला में असंगत ठहराया गया है (धवला पु० ७, पृ० ३७०-७३)। भागाभागानगम अनयोगद्वार (१०) के प्रसंग में भाग और अभाग के स्वरूप का निर्देश करते हुए धवलाकार ने यह दिखाया है कि अनन्तवें भाग, असंख्यातवें भाग और संख्यातवें भाग को भाग तथा अनन्तबहुभाग, असंख्यातबहुभाग और संख्यातबहुभाग को अभाग कहा जाता है। (धवला पु० ७, पृ० ४६५) । ___ 'अल्पबहुत्व' यह इस खण्ड का अन्तिम (११वाँ) अनुयोगद्वार है। यहाँ काय-मार्गणा के आश्रय से अल्पबहुत्व का विचार करते हुए ५८-५६, ७४-७५ और १०५-६ इन सूत्रों में वनस्पतिकायिकों के निगोदजीवों को विशेष अधिक कहा गया है। निगोदजीव साधारणतः वनस्पतिकायिकों के अन्तर्गत ही माने गये हैं। तब ऐसी अवस्था में वनस्पतिकायिकों से निगोदजीवों को विशेष अधिक कहना शंकास्पद रहा है। इसलिए सूत्र ७५ की व्याख्या के प्रसंग में धवला में अनेक शंकाएं उठायी गयी हैं, जिनका समाधान यथासम्भव धवलाकार के द्वारा किया गया है। इसका विचार पीछे 'मूलग्रन्थगतविषय-परिचय' में 'बन्धन' अनुयोगद्वार के अन्तर्गत 'बन्धनीय' के प्रसंग में किया जा चुका है। इसके पूर्व भागाभाग' अनुयोगद्वार में भी उसी प्रकार का एक प्रसंग प्राप्त हुआ है। वहाँ सूत्रकार द्वारा 'सूक्ष्मवनस्पतिकायिक और सूक्ष्म निगोदजीव पर्याप्त सब जीवों के कितने भाग प्रमाण हैं' इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वे उनके संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं (सत्र २. १०, ३१-३२)। इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि सूत्र में जो 'सूक्ष्मवनस्पतिकायिकों' को कह. कर आगे पृथक् से 'निगोदजीवों' का भी उल्लेख किया गया है उससे जाना जाता है कि सब सूक्ष्मवनस्पतिकायिक ही सूक्ष्म जीव नहीं होते-उनसे पृथक् भी वे होते हैं। इस पर यह शंका उत्पन्न हुई है कि यदि ऐसा है तो सब सूक्ष्मवनस्पतिकायिक निगोद ही होते हैं। इस कथन १. ये गाथाएं प्रसंगानुरूप शब्दपरिवर्तन के साथ गो० जीवकाण्ड में भी ३५-३८ व ४०-४२ गाथांकों में पायी जाती हैं। प्रकरण वहाँ प्रमाद का रहा है। २. धवला पु०७, पृ०६१-६८ पदसण्डागम पर टीकाएँ। ४५१ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के साथ विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है। समाधान में धवलाकार ने कहा है कि वहाँ 'सूक्ष्म निगोद सूक्ष्मवनस्पतिकायिक ही होते हैं' ऐसा अवधारण नहीं किया गया है, इसीलिए उसके साथ विरोध की सम्भावना नहीं है, इत्यादि। आगे इसी प्रसंग में धवला में यह भी शंका की गयी है कि 'निगोद सब वनस्पतिकायिक ही होते हैं, अन्य नहीं' इस अभिप्राय से भी इस 'भागाभाग' में कुछ सूत्र अवस्थित हैं, क्योंकि सूक्ष्मवनस्पतिकायिक से सम्बद्ध उस भागाभाग में तीनों (२६,३१ व ३३) ही सूत्रों में 'निगोद जीवों' का निर्देश नहीं किया गया है। इसलिए उनके साथ इन सूत्रों के विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यदि ऐसा है तो उपदेश प्राप्त करके 'यह सूत्र है व यह असूत्र है' ऐसा आगम में निपुण कह सकते हैं, हम तो उपदेश प्राप्त न होने से यहाँ कुछ कहने के लिए असमर्थ हैं (धवला पु० ७, पृ० ५०४-७) । चूलिका इस क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत ११ अनुयोगद्वारों के समाप्त होने पर 'महादण्डक' नाम से चूलिका प्रकरण भी आया है । यहाँ धवला में यह शंका उठायी गयी है कि ग्यारह अनुयोगद्वारों के समाप्त हो जाने पर इस महादण्डक को क्षुद्रकबन्ध के पूर्वोक्त ग्यारह अनुयोगद्वारों से सम्बद्ध चूलिका के रूप में कहा गया है। धवला में कहा गया है कि ग्यारह अनुयोगद्वारों से सूचित अर्थ की विशेषतापूर्वक प्ररूपणा करना, इस चूलिका का प्रयोजन रहा है। इस पर शंकाकार ने कहा है कि तब तो इस महादण्डक को चूलिका नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसमें 'अल्पबहुत्व' अनुयोगद्वार से सूचित अर्थ को छोड़ अन्य अनुयोगद्वारों में निर्दिष्ट अर्थ की प्ररूपणा नहीं है । उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि यह कोई नियम नहीं है कि चूलिका सभी अनुयोगद्वारों से सूचित अर्थ की प्ररूपक होना चाहिए। एक, दो अथवा सभी अनुयोगद्वारों से सूचित अर्थ की जहाँ विशेष रूप से प्ररूपणा की जाती है उसे चलिका कहा जाता है। यह मा भी चूलिका ही है, क्योंकि इसमें अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार से सूचित अर्थ की विशेषता के साथ प्ररूपणा की गई है (पु० ७, पृ० ५७५)। इस महादण्डक में भी वनस्पतिकायिकों से निगोद जीवों को विशेष रूप से निर्दिष्ट किया गया है (सूत्र ७८-७६)। तीसरा खण्ड : बन्धस्वामित्वविचय बन्धस्वामित्वविचय का उद्गम और उसका स्पष्टीकरण धवलाकार ने यहाँ प्रथम सूत्र "जो सो बंधसामित्तविचओ णाम" इत्यादि की व्याख्या में कहा है कि यह सूत्र सम्बन्ध, अभिध्येय और प्रयोजन का सूचक है । सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि कृति-वेदनादि २४ अनुयोगद्वारों में छठा 'बन्धन' अनुयोगद्वार चार प्रकार का है--बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान । इनमें 'बन्ध' अधिकार नय के आश्रय से जीव और कर्मों के सम्बन्ध की प्ररूपणा करता है। दूसरा 'बन्धक' अधिकार ग्यारह अनुयोगद्वारों के आश्रय से बन्धकों का प्ररूपक है। तीसरा 'बन्धनीय' अधिकार तेईस प्रकार की वर्गणाओं के आश्रय से बन्ध के योग्य और अयोग्य पुद्गलद्रव्य की प्ररूपणा करनेवाला है। चौथा 'बन्धविधान' ४५२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध के भेद से चार प्रकार का है। इनमें प्रकृतिबन्ध दो प्रकार है-मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध । इनमें मूलप्रकृतिबन्ध भी दो प्रकार का हैएक-एक मूलप्रकृतिबन्ध और अव्वोगाढमूलप्र कृतिबन्ध । अव्वोगाढमूलप्रकृतिबन्ध भी भुजगारबन्ध और प्रकृतिस्थानबन्ध के भेद से दो प्रकार का है । उतरप्रकृतिबन्ध के 'समुत्कीर्तना' आदि चौबीस अनुयोगद्वार हैं। उनमें एक बारहवाँ 'बन्धस्वामित्वविचय' नाम का अनुयोगद्वार है।' उसी का 'बन्धस्वामित्वविचय' यह नाम है । यह उपर्युक्त 'बन्धन' अनुयोगद्वार के बन्धविधान नामक चौथे अनुयोगद्वार से निकला है, जो प्रवाहस्वरूप से अनादिनिधन है (पु० ८, पृ० १-२)। बन्धस्वामित्वविचय नाम से ही ज्ञात हो जाता है कि इसमें बन्धक के स्वामियों का विचार किया गया है। यहाँ प्रारम्भ में मूलग्रन्थकार ने मिथ्यादृष्टि आदि चौदह जीवसमासों (गुणस्थानों) के नामनिर्देशपूर्वक उनमें प्रकृतियों के बन्धव्युच्छेद के कथन करने की प्रतिज्ञा है (सूत्र ४)। इस प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि यदि इसमें प्रकृतियों के बन्धव्युच्छेद की ही प्ररूपणा करना ग्रन्थकार को अभीप्ट रहा है तो उसकी 'बन्धस्वामित्वविचय' यह संज्ञा घटित नहीं होती है । समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह कोई दोष नहीं है, क्योकि इस गुणस्थान में इन प्रकृतियों का बन्धव्युच्छेद होता है, ऐसा कहने पर उससे नीचे के गुणस्थान उन प्रकृतियों के बन्ध के स्वामी हैं, यह स्वयं सिद्ध हो जाता है। इसके अतिरिक्त व्युच्छेद दो प्रकार का है.. उत्पादानच्छेद और अनत्पादानच्छेद । उत्पाद का अर्थ सत्त्व तथा अनुच्छेद का अर्थ विनाश या अभाव है । अभिप्राय यह कि भाव ही अभाव है, भाव को छोड़कर अभाव नाम की कोई वस्त नहीं है। यह व्यवहार द्रव्याथिक नय के आश्रित है। इस प्रकार उक्त उत्पादानच्छेद से यह भी सिद्ध है कि जिस गुणस्थान में विवक्षित प्रकृतियो के बन्ध का व्युच्छेद कहा गया है उसके नीचे के गुणस्थानों में उनका बन्ध होता है । इस प्रकार उनके उक्त प्रकृतियो के बन्ध का स्वामित्व सिद्ध है । अत: इस खण्ड का 'बन्धस्वामित्वविचय' नाम सार्थक है (धवला पु०८, पृ० ५-७)। ___ आगे धवला में 'पाँच ज्ञानावरणीय आदि सोलह प्रकृयियों का कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है' इस पृच्छासूत्र (५) की व्याख्या में कहा है कि यह पृच्छासूत्र देशामर्शक है। इसलिए (१) क्या बन्ध पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, (२) क्या उदय पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, (३) क्या दोनों साथ ही व्युच्छिन्न होते हैं, (४) क्या उनका बन्ध स्वोदय से होता है, (५) क्या वह परोदय से होता है, (६) क्या स्व-परोदय से होता है, (७) क्या सान्तर बन्ध होता है, (८) क्या निरन्तर बन्ध होता है, (६) क्या सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, (१०) क्या सकारण बन्ध होता है, (११) क्या अकारण वन्ध होता है, (१२) क्या गतिसंयुक्त बन्ध होता है, (१३) क्या गतिसंयोग से रहित बन्ध होता है, (१४) कितनी गतियोंवाले उनके बन्ध के स्वामी हैं. (१५) कितनी गतियोंवाले बन्ध के स्वामी नहीं हैं, (१६) बन्धाध्वान कितना है, (१७) क्या उनका बन्ध अन्तिम समय में व्युच्छिन्न होता है, (१८) क्या प्रथम समय में व्युच्छिन्न होता है, (१६) क्या अप्रथम-अचरम समय में व्युच्छिन्न होता है, (२०) क्या बन्ध सादि है, (२१) क्या १. इसकी चर्चा इसके पूर्व धवला पु० १, पृ० १२३-२६ में विस्तार से की जा चुकी है। विशेष के लिए इसी पुस्तक की प्रस्तावना (पृ० ७१-७४) द्रष्टव्य है । षट्खण्डागम पर टीकाएं / ४५३ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनादि है, (२२) क्या ध्रुव है, और (२३) क्या अध्र व है; इन २३ पृच्छाओं को उसके अन्तर्गत समझना चाहिए। इस अभिमत की पुष्टि हेतु धवला में वहाँ 'एत्थुवउज्जतीओ आरिसगाहाओं' ऐसी सूचना कर चार गाथाओं को उद्धृत किया है (पु० ८, पृ० ७-८)। तत्पश्चात् वहाँ इन पृच्छाओं में विषम पृच्छाओं के अर्थ की सूचना करते हुए कहा है कि बन्ध का व्युच्छेद तो यहाँ सूत्रों से सिद्ध है, अतएव उसे छोड़कर पहिले उदय के व्युच्छेद को कहते हैं। इस प्रतिज्ञा के साथ धवलाकार ने यहाँ यथाक्रम से मिथ्यात्व व सासादन आदि चौदह गणस्थानों से क्रमशः उदय से व्युच्छिन्न होनेवाली दस व चार आदि प्रकृतियों का उल्लेख किया है। आगे 'एत्थ उपसंहारगाहा' के रूप में जिस गाथा को वहां उद्धत किया गया है वह कर्मकाण्ड में (२६३ गाथांक के रूप में) ग्रन्थ का अंग बन गयी है (पु० ८, पृ० ६-११)। यहाँ यह विशेषता रही है कि मिथ्यादृष्टि के अन्तिम समय में उदय से व्युच्छिन्न होनेवाली मिथ्यात्व व एकेन्द्रिय आदि १० प्रकृतियो के नामों का निर्देश करते हुए धवलाकार ने बताया है कि उनका यह उल्लेख महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के उपदेशानुसार किया गया है। किन्तु चूर्णिसत्रकर्ता (यतिवृषभाचार्य) के उपदेशानुसार उन १० प्रकृतियों में से पांच का ही उदयव्युच्छेद मिथ्यादष्टि गुणस्थान में होता है, एकेन्द्रियादि चार जातियों और स्थावर इन पांच का उदयव्युच्छेद सासादनसम्यग्दृष्टि के होता है । अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि चार का उदयव्युच्छेद सासादनसम्यग्दृष्टि के अन्तिम समय में होता है। गो० कर्मकाण्ड में भी दो मतों के अनुसार उदय से व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों की संख्या का पृथक पृथक् निर्देश है । पर वहाँ गुणस्थान क्रम से उदय से व्युच्छिन्न होनेवाली उन प्रकृतियों का उल्लेख दूसरे (यतिवृषभाचार्य क) मत के अनुसार किया गया है (गो००, गा० २६३७२). यद्यपि वहाँ यतिवृषभ का नामोल्लेख नहीं है । धवला में दोनों मतों का निर्देश नामोल्लेख के साथ है। ___ आग वहाँ किन प्रकृतियों का बन्ध उनके उदय के नष्ट हो जाने पर होता है, किन का उदय बन्ध के नष्ट होन पर होता है और किन का बन्ध और उदय दोनों साथ ही व्युच्छिन्न होते हैं, इस सब का विवेचन धवला में किया गया है (पु० ८, पृ० ११-१३)। पर्व सत्र (५) में जो पाँच ज्ञानावरणीय आदि सोलह प्रकृतियों के बन्धक-बन्धकों के विषय में पूछा गया था उनके उत्तर में अगले सूत्र (६) में यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि से लेकर सक्ष्मसाम्परायिक-शुद्धिसंयत उपशमक व क्षपक तक उनके बन्धक हैं। सूक्ष्मसाम्परायिकसंयतकाल के अन्तिम समय में उनके बन्ध का व्युच्छेद होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं । इस सूत्र की व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि पूर्व सून में जो यह पूछा गया था कि बन्ध क्या अन्तिम समय में व्युच्छिन्न होता है, प्रथम समय में व्युच्छिन्न होता है अथवा अप्रथमअचरम समय में व्युच्छिन्न होता है, उसमें सूत्रकार ने प्रथम और अप्रथम-अचरम समय के प्रतिषेधरूप में प्रत्युत्तर दिया है। शेष प्रश्नों का उत्तर सूत्र में नहीं दिया गया है। चूंकि यह सूत्र देशामर्शक है, इसलिए यहाँ सूत्र में अन्तहित अर्थों की प्ररूपणा है। तदनुसार आगे धवला म, क्या बन्ध पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, क्या दोनों साथ साथ व्युच्छिन्न होते हैं। इस प्रकार उन तेईस प्रश्नों में से प्रथमतः इन तीन प्रश्नों को स्पष्ट करते हुए कहा है कि उक्त सोलह प्रकृतियों का बन्ध उदय के पूर्व सूक्ष्मसाम्परायिक के अन्तिम समय में नष्ट होता है और फिर उनके उदय का व्युच्छेद होता है। कारण यह कि पांच ज्ञानावरणीय, ४५४ / षट्नण्डागम-परिशीलन Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय इन चौदह प्रकृतियों के उदय का व्युच्छेद क्षीणकषाय के अन्तिम समय में तथा यशःकीर्ति और उच्चगोत्र इन दो के उदय का व्युच्छेद अयोगिकेवली के अन्तिम समय में होता है। आगे धवला में उन तेईस प्रश्नों में से स्वोदय-परोदयादि शेष सभी प्रश्नों का स्पष्टीकरण किया गया है। प्रत्ययविषयक प्रश्न के प्रसंग में धवला में कहा है कि बन्ध सप्रत्यय (सकारण) ही होता है, अकारण नहीं। यह कह धवलाकार ने प्रथमतः वन्ध के मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग इन चार मूल प्रत्ययों का निर्देश किया है। तत्पश्चात् उत्तरप्रत्ययों की प्ररूपणा में मिथ्यात्व के एकान्त, अज्ञान, विपरीत, वैनयिक और सांशयिक इन पाँच भेदों का निर्देश और उनके पृथक्-पृथक् स्वरूप को भी वहाँ स्पष्ट किया है। ___असंयम मूल में इन्द्रिय-असंयम और प्राण-असंयम के भेद से दो प्रकार का है। इन में इन्द्रिय-असंयम स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, शब्द और नोइन्द्रिय विषयक असंयम के भेद से छह प्रकार का तथा प्राण-असंयम भी पृथिवी-जलादि के भेद से छह प्रकार का है। इस प्रकार असंयम के समस्त भेद बारह होते हैं। आगे क्रमप्राप्त कषाय के पच्चीम और योग के पन्द्रह भेदों का निर्देश है। इनमें से कषाय के उन भेदों का उल्लेख प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका (सूत्र २३-२४) में और योग के भेदों का सत्प्ररूपणा (सूत्र ४६-५६) में किया जा चुका है। ___इस प्रकार समस्त बन्धप्रत्यय सत्तावन (५+ १२+२५+१५) हैं। मिथ्यादष्टि आदि गुणस्थानों में वे जहाँ जितने सम्भव है उनके आश्रय से यथासम्भव वहाँ-वहाँ बँधनेवाली सोलह प्रकृतियों का निर्देश धवला में किया गया है (पु० ८, पृ० १३-३०)। ___आगे ओघप्ररूपणा में सूत्रकार द्वारा निद्रानिद्रा व प्रचलाप्रचला आदि विभिन्न प्रकृतियों के बन्धक-अबन्धकों का निर्देश है (मूत्र ७-३८) । उन सब सूत्रों को देशामर्शक मानकर धवलाकार ने वहाँ बँधनेवाली उन-उन प्रकृतियों के विषय में पूर्वनिर्दिष्ट तेईस प्रश्नों को स्पष्ट किया है (पु० ८, पृ० ३०-७५)। तीर्थकर प्रकृति के बन्धक-अबन्धक इसी प्रसंग में तीर्थक र प्रकृति के कौन बन्धक और कौन अबन्धक हैं, इसका विशेष रूप से विचार करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अपूर्वकरणप्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक उसके बन्धक हैं, अपूर्वक रण काल का संख्यात बहुभाग जाकर उसके बन्ध का व्युच्छेद होता है । ये बन्धक हैं, शेष सब अबन्धक हैं (मत्र ३७-३८)। पूर्व पद्धति के अनुसार इस सूत्र को भी देशामर्शक कहकर धवलाकार ने तीर्थकर प्रकृति के बन्ध के विषय में भी पूर्वोक्त तेईस प्रश्नों का विवेचन किया है। उनके अनुसार तीर्थकर प्रकृति का बन्ध पूर्व में और उदय पश्चात् व्युच्छिन्न होता है। क्योंकि अपूर्वकरण के सात भागों में से छठे भाग में उसका बन्ध नष्ट हो जाता है, पर उसका उदय सयोगिकेवली के प्रथम समय से लेकर अयोगिकेवली तक रहता है व अयोगिकेवली के अन्तिम समय में उसका व्युच्छेद होता है। उसका बन्ध परोदय से होता है, क्योंकि जिन सगोगिकेवली और अयोगिकेवली गणस्थानों षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४५५ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में उसका उदय सम्भव है वहीं उसका बन्ध व्युच्छिन्न हो चुका है । बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि अपने बन्धकारण के होने पर कालक्षय से उसका बन्ध विश्रान्त नहीं होता । असंयतसम्यग्दृष्टि उसे दो गतियों से संयुक्त बाँधते हैं, क्योंकि नरकगति और तिर्यग्गति के बन्ध के साथ उसके बन्ध का विरोध है । ऊपर के गुणस्थानवर्ती जीव उसे एक मात्र देवगति से संयुक्त बाँधते हैं, क्योंकि मनुष्यगति में स्थित जीवों के देवगति को छोड़कर अन्य गतियों के साथ उसके बन्ध का विरोध है । उसके बन्ध के स्वामी तीन गतियों के असंयतसम्यग्दृष्टि हैं, क्योंकि तियंचगति में उसका बन्ध सम्भव नहीं है । इस प्रसंग में यहाँ यह शंका उठी है कि तिर्यंचगति में तीर्थकर प्रकृति के बन्ध का प्रारम्भ भले ही न हो, क्योंकि वहाँ जिनों का अभाव है । किन्तु जिन्होंने पूर्व में तिर्यंच आयु को बाँध लिया है वे यदि पीछे सम्यक्त्व आदि गुणों को प्राप्त करके उनके आश्रय से उस तीर्थकर प्रकृति हुए तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं तो उन्हें उसके बन्ध का स्वामित्व प्राप्त होता है । इस शंका के समाधान में धवलाकार कहते हैं कि वैसा सम्भव नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार नारक आयु और वायु को बाँध लेनेवाले जीवों के उसका बन्ध सम्भव है उस प्रकार तिर्यंच आयु और मनुष्यायु को बाँध लेनेवालों के उसका बन्ध सम्भव नहीं है । यह इसलिए कि जिस भव में तीर्थकर प्रकृति के बन्ध को प्रारम्भ किया गया है उससे तीसरे भव में उस प्रकृति के सत्त्व से युक्त जीवों के मोक्ष जाने का नियम है। पर तियंच व मनुष्यों में उत्पन्न हुए सम्यग्दृष्टियों का देवों में उत्पन्न होने के बिना मनुष्यों में उत्पन्न होना सम्भव नहीं है, जिससे कि उन्हें उक्त नियम के अनुसार तीसरे भव में मुक्ति प्राप्त हो सके। इसके विपरीत देवायु व नरकायु को बाँधकर देवों व नारकियों में उत्पन्न होनेवालों की तीसरे भव में मुक्ति हो सकती है । इससे सिद्ध है कि तीन गतियों के जीव ही उस तीर्थकर प्रकृति के बन्ध के स्वामी हैं । उसका बन्ध सादि व अध्रुव होता है, देखी जाती है (पु०८, पृ० ७३-७५) । क्योंकि उसके बन्धकारणों के सादिता व सान्तरता तीर्थकर प्रकृति के बन्धक कारण उसके बन्धक प्रत्ययों की प्ररूपणा स्वयं सूत्रकार द्वारा की गयी है । उसके बन्ध के कारण दर्शनविशुद्धता आदि सोलह हैं (सूत्र ३६-४१) । सूत्र ३६ की व्याख्या में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि सूत्रों में शेष कर्मों के बन्ध के प्रत्ययों की प्ररूपणा न कर एक तीर्थकर प्रकृति के ही बन्ध प्रत्ययों की प्ररूपणा क्यों की जा रही है। इसका समाधान धवलाकार ने दो प्रकार से किया है। प्रथम तो उन्होंने यह कहा कि अन्य कर्मों के बन्धक प्रत्यय युक्ति के बल से जाने जाते हैं । जैसे - मिथ्यात्व व नपुंसकवेद आदि सोलह कर्मों के बन्ध का प्रत्यय मिथ्यात्व है, क्योंकि उसके उदय के बिना उनका बन्ध सम्भव नहीं है । निद्रानिद्रा व प्रचलाप्रचला आदि पच्चीस कर्मों के बन्धक कारण अनन्तानुबन्धी क्रोधादि हैं, क्योंकि उनके उदय के बिना उन पच्चीस कर्मों का बन्ध नहीं पाया जाता है। इसी प्रकार आगे अन्य कर्मों के भी यथासम्भव असंयम आदि प्रत्यय युक्ति के बल से स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने अन्त में कहा है कि इस भाँति उन सभी कर्मों के बन्धक प्रत्यय युक्ति से जाने जाते हैं । इसीलिए सूत्रों में उन-उन कर्मों के बन्ध-प्रत्ययों की प्ररूपणा नहीं की गयी है । परन्तु तीर्थकर प्रकृति के बन्ध का कारण क्या है, यह युक्ति के बल से नहीं जाना जाता है; यह इसलिए कि ४५६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वोक्त बन्ध-कारणों में से मिथ्यात्व तो उसके बन्ध का कारण हो नहीं सकता है, क्योंकि मिथ्यात्व अवस्था में उसका बन्ध नहीं पाया जाता है। असंयम भी उसके बन्ध का कारण सम्भव नहीं, क्योंकि संयतों में भी उसका बन्ध देखा जाता है। इसी प्रकार से आगे धवला में कषायसामान्य, उसकी तीव्रता-मन्दता और सम्यक्त्व आदि को भी उसके बन्ध के कारण न हो सकने को स्पष्ट किया गया है। इस प्रकार चूँकि युक्तिबल से प्रकृत तीर्थकर प्रकृति के बन्ध के प्रत्यय का ज्ञान नहीं होता है, इसीलिए सूत्रों में उसके बन्धक प्रत्ययों का उल्लेख है। उपर्यत शंका के समाधान में धवलाकार ने प्रकारान्तर से यह भी कहा है कि जिस प्रकार असंयत, प्रमत्त और सयोगी ये गुणस्थाननाम अन्तदीपक हैं उसी प्रकार यह सूत्र भी अन्तदीपक के रूप में सब कर्मों के बन्धक प्रत्ययों की प्ररूपणा में आया है 'तत्थ इमेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदकम्मं बंधति ।'.-सूत्र ४० इसमें की गयी सोलह कारणों के कथन की सूचना के अनुसार सूत्रकार द्वारा अगले सूत्र ४१ में तीर्थकर प्रकृति के बन्धक 'दर्शनविशुद्धता' आदि सोलह कारणों का उल्लेख भी कर दिया गया है। पूर्व पृच्छासूत्र (३६) में यह पूछा गया था कि कितने कारणों से जीव तीर्थकर नामगोत्रकर्म को बांधते हैं। उत्तर में 'जीव इन कारणों से उस तीर्थकर नामगोत्रकर्म को बाँधते हैं' इतना कहना पर्याप्त था। पर सूत्र के प्रारम्भ में 'तत्थ' पद का भी उपयोग किया गया है। उसकी अनपयोगिता की आशंका को हृदयंगम करते हए धवलाकार ने स्पष्ट किया है कि सत्र में तत्थ' शब्द यह अभिप्राय प्रकट करता है कि मनुष्यगति में ही तीर्थकर कर्म का बन्ध होता है, अन्य में नहीं। अन्य गतियों में उसका बन्ध क्यों नहीं होता, इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा है कि कर्म के बन्ध के प्रारम्भ करने में सहकारी केवलज्ञान से उपलक्षित जीवद्रव्य है, क्योंकि उसके बिना उसकी उत्पत्ति का विरोध है। __ प्रकारान्तर से वहाँ यह भी कहा गया है-अथवा उनमें तीर्थकर नामकर्म के कारणों को कहता हूँ, यह उस 'तत्थ' शब्द से अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए (पु०८, पृ० ७८)। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि प्रसंगप्राप्त इन सूत्रों (३८-४०) में 'तीर्थकरनाम' के साथ 'गोत्र' का भी प्रयोग हुआ है। यहाँ पुनः यह शंका उठी है कि नामकर्म के अवयवस्वरूप 'तीर्थकर' की 'गोत्र' संज्ञा कैस हो सकती है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि तीर्थकर कर्म चूँकि उच्चगोत्र के बन्ध का अविनाभावी है, इसलिए 'तीर्थकर' के गोत्ररूपता सिद्ध है (१०८, १०७६)। धवला में यह भी उल्लेख है कि सूत्र (४०) में शब्द 'सोलह' से जो तीर्थकर प्रकृति के बन्धक कारणों की संख्या का निर्देश किया है वह पर्यायाथिकनय की प्रधानता से है। द्रव्याथिकनय का अवलम्बन लेने पर उसके बन्ध का कारण एक भी हो सकता है, दो भी हो सकते हैं; इसलिए उसके बन्ध के कारण सोलह ही हैं ऐसा अवधारण नहीं करें (पु० ८, पृ० ७८-७९)। धवलाकार ने सूत्र निदिष्ट इन सोलह कारणों में से दर्शनविशुद्धता आदि प्रत्येक को तीर्थकर कर्म के बन्ध का कारण सिद्ध किया है। यथा-दर्शन का अर्थ सम्यग्दर्शन है, उसकी विशुद्धता से जीव तीर्थकर कर्म बाँधते हैं। तीन मूढताओं और आठ मलों से रहित सम्यग्दर्शन परिणाम का नाम दर्शनविशुद्धता है। यहाँ यह शका की गयी है कि एक दर्शनविशुद्धता से ही तीर्थकर कर्म का बन्ध कैसे हो षट्झण्डागम पर टीकाएं / ४५७ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता है, क्योंकि वैसा होने पर सभी सम्यग्दृष्टियों के उसके बन्ध का प्रसंग प्राप्त होता है । समाधान में धवलाकार ने कहा है कि शुद्ध नय के अभिप्राय से केवल तीन मूढताओं और आठ मलों से रहित होने पर ही दर्शनविशुद्धता नहीं होती, किन्तु उन गुणों के द्वारा अपने स्वरूप को पाकर स्थित सम्यग्दृष्टि साधुओं के लिए प्रासुक-परित्याग, साधु-समाधि का संधारण, उनकी वैयावृत्ति, अरहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, प्रवचनवत्सलता, प्रवचनविषयक प्रभावना और निरन्तर ज्ञानोपयोग में युक्तता – इनमें प्रवृत्त कराने का नाम दर्शनविशुद्धता है । इस एक ही दर्शनविशुद्धता से जीव तीर्थंकर कर्म को बाँध लेते हैं । इसी प्रकार से आगे विनयसम्पन्नता आदि प्रत्येक कारण में अन्य कारणों को गर्भित करके उनमें से पृथक्-पृथक् प्रत्येक को तीर्थकर कर्म के बन्ध का कारण माना गया है । अन्त में विकल्प के रूप में धवलाकार ने यह भी कहा है – अथवा सम्यग्दर्शन के होने पर शेष कारणों में से एक-दो आदि के संयोग से उसका बन्ध होता है, ऐसा कहना चाहिए (पु०८, पृ० ७६-६१ ) । इस प्रकार ओघप्ररूपणा के समाप्त होने पर सूत्रकार ने ओघ के समान आदेश की अपेक्षा उसी पद्धति से क्रमशः गति इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में विवक्षित कर्मों के बन्धक - अबन्धकों की भी प्ररूपणा की है । इन सूत्रों की व्याख्या में धवलाकार ने इन्हें देशामर्शक कहकर पूर्व पद्धति के अनुसार यथासम्भव तेईस प्रश्नों का विवेचन किया है। इस प्रकार यहाँ 'बन्धस्वामित्व विचय' नाम का तीसरा खण्ड समाप्त हो जाता है । चतुर्थ खण्ड : वेदना १. कृति अनुयोगद्वार जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है, षट्खण्डागम के चौथे खण्ड का नाम 'वेदना' है । इसमें कृति और वेदना नाम के दो अनुयोगद्वार हैं । उनमें कृति अनुयोगद्वार की अपेक्षा वेदना अनुयोगद्वार का अधिक विस्तार होने के कारण यह खण्ड 'वेदना' नाम से प्रसिद्ध हुआ । इसके अन्तर्गत प्रथम कृति अनुयोद्वार के प्रारम्भ में ग्रन्थकार द्वारा णमो जिणाणं' आदि ४४ सूत्रों में विस्तार से मंगल किया गया है। प्रथम सूत्र 'णमो जिणाणं' की व्याख्या में धवलाकार ने पूर्वसंचित कर्मों के विनाश को मंगल कहा है । यहाँ यह शंका उत्पन्न हुई है कि यदि पूर्वसंचित कर्मों का विनाश मंगल है तो जिन द्रव्यसूत्रों का या द्रव्यश्रुत का अर्थ जिन भगवान् के मुख से निकला है, जो विसंवाद से रहित होने के कारण केवलज्ञान के समान हैं, तथा जिनकी शब्द रचना वृषभसेन आदि गणधरों के द्वारा की गयी है उनके अध्ययन मनन में प्रवृत्त हुए सभी जीवों के प्रतिसमय असंख्यातगुणितश्रेणि से पूर्वसंचित कर्म की निर्जरा होती है; ऐसा विधान है । इस प्रकार पूर्वसंचित कर्म का विनाश जब श्रुत के अध्ययन मनन से सम्भव है तब तो यह मंगलसूत्र निष्फल ठहरता है और यदि उस मंगलसूत्र को सफल माना जाता है तो उस स्थिति में सूत्र का अध्ययन निष्फल सिद्ध होता है, क्योंकि उससे उत्पन्न होनेवाला कर्मक्षयरूप कार्य इस मंगलसूत्र से ही उपलब्ध हो जाता है ? इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह कोई दोष नहीं है । कारण यह है कि सूत्र ४५८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अध्ययन से सामान्य कर्मों की निर्जरा होती है, किन्तु प्रकृत मंगल के द्वारा उस सूत्र के अध्ययन में विघ्नों को उत्पन्न करनेवाले विशेष कर्मों का विनाश होता है । इस प्रकार दोनों का भिन्न विषय होने से उस मंगलसूत्र को निष्फल नहीं कहा जा सकता। इस पर शंकाकार कहता है कि वैसी परिस्थितियों में भी मंगलसूत्र का प्रारम्भ करना निरर्थक ही रहता है, क्योंकि सूत्र के अध्ययन में विघ्नों को उत्पन्न करनेवाले उन विशेष कर्मों का विनाश भी सामान्य कर्मों के विरोधी उसी सूत्र के अभ्यास से सम्भव है। इसके उत्तर में धवला में कहा है कि वैसा सम्भव नहीं है, क्योंकि सूत्र एवं अर्थ के ज्ञान तथा उसके अभ्यास में विध्न उत्पन्न करनेवाले कर्म जब तक नष्ट नहीं होंगे तब तक सूत्रार्थ का ज्ञान और अभ्यास ही सम्भव नहीं है। एक अन्य शंका यह भी की गयी कि यदि जिनेन्द्रनमस्कार सूत्र के अध्ययन में आनेवाले विघ्नों का ही विनाश करता है तो जीवित के अन्त में-मरण के समय-उसे नहीं करना चाहिए? इसके परिहार में वहाँ कहा गया है वह जिनन्द्रनमस्कार केवल विघ्नोत्पादक कर्मों का ही विनाश करता है, ऐसा नियम नहीं है। वह ज्ञान-चारित्र आदि अनेक सहकारी कारणों की सहायता से अनेक कार्यों को कर सकता है । अतः इसमे कुछ विरोध नहीं है। अपने उक्त अभिप्राय की पुष्टि में धवलाकार ने 'उक्तं च' सूचना के साथ इस पद्य को भी उद्धृत किया है एसो पंचणमोक्कारो सम्वपावप्पणासओ। मंगलेसु अ सव्वेसु पढम होदि मंगलं ।। [मूला० ७-१३] और भी अनेक शंका-प्रतिशंकाओं का समाधान करते हुए धवलाकार ने विकल्प के रूप में यह भी कहा है - अथवा सूत्र का अभ्यास मोक्ष के लिए किया जाता है। वह मोक्ष कर्मनिर्जरा से होता है और यह कर्मनिर्जरा भी ज्ञान के अविनाभावी ध्यान और चिन्तन से होती है, तथा वह ध्यान और चिन्तन सम्यक्त्व के आश्रय से होता है । क्योंकि सम्यक्त्व से रहित ज्ञान और ध्यान असंख्यातगणितश्रेणि निर्जरा के कारण नहीं हो सकते । सम्यक्त्व से रहित ज्ञान और ध्यान को यथार्थ में ज्ञान और ध्यान ही नहीं कहा जा सकता है, इसीलिए सम्यग्दृष्टि को सम्यग्दष्टियों के लिए ही सूत्र का व्याख्यान करना चाहिए । इस सबका परिज्ञान कराने के लिए यहाँ जिननमस्कार किया गया है (पु० ६, पृ० २-६) । 'जिन' विषयक निक्षेपार्थ आगे धवला में अप्रकृत के निराकरणपूर्वक प्रकृत अर्थ की प्ररूपणा के लिए 'जिन' के विषय में निक्षेप कर जिन के चार भेद निर्दिष्ट किये हैं-नामजिन, स्थापनाजिन, द्रव्यजिन और भावजिन । धवला में इनके अवान्तरभेदों और स्वरूप का भी निर्देश है । पश्चात् वहाँ इन सब जिनों में से किसे नमस्कार किया गया है, इसे बतलाते हुए कहा है कि यहाँ तत्परिणत भावजिन और स्थापनाजिन को नमस्कार किया गया है। इस प्रसंग में भावजिन के दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-आगमभावजिन और नोआगमभावजिन । इनमें जो जिनप्राभूत का ज्ञाता होकर तद्विषयक उपयोग से युक्त होता है उसे आगमभावजिन कहा जाता है । नोआगमभावजिन उपयुक्त और तत्परिणत के भेद से दो प्रकार का है। जिनस्वरूप के ज्ञापक ज्ञान में जो उपयुक्त होता है वह उपयुक्तभावजिन कहलाता है तथा जो जिनपर्याय से परिणत होता है उसे तत्परिणत भावजिन कहा जाता है। पदसण्डागम पर टीकाएं | ४५६ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाँ यह शंका उठी है कि अनन्तज्ञान-दर्शन आदि एवं क्षायिकसम्यक्त्व आदि गुणों से परिगत जिन को भले ही नमस्कार किया जाय, क्योंकि उसमें देव का स्वरूप पाया जाता है, किन्तु गुण से रहित स्थापनाजिन को नमस्कार करना उचित नहीं है, क्योंकि उसमें विघ्नोत्पादक कर्मों के विनाश करने की शक्ति नहीं है । इसके समाधान में कहा गया है कि जिन भगवान् अपनी वन्दना में परिणत जीवों के पाप के विनाशक तो हैं नही, क्योंकि वैसा होने पर उनकी वीतरागता के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। वे किसी भी जीव के पाप को नष्ट नहीं करते हैं, क्योंकि उस परिस्थिति में जिन को किया जानेवाला नमस्कार निरर्थक ठहरता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जिनपरिणतभाव और जिनगुणपरिणाम ही पाप का विनाशक है, अन्य प्रकार से कर्म का क्षय घटित नहीं होता है । वह जिनपरिणतभाव अनन्त ज्ञान-दर्शनादि गुणों के अध्यारोप के बल से जिनेन्द्र के समान स्थापनाजिन में भी सम्भव है । कारण यह है कि उन गुणों के अध्यारोप से स्थापनाजिन तत्परिणतभावजिन से एकता को प्राप्त है-- उन गुणों का अध्यारोप करने से स्थापनाजिन तत्परिणतजिन से भिन्न नहीं है, इसलिए जिनेन्द्रनमस्कार भी पाप का विनाशक है ( पु० ६, पृ० ६-७ ) । आगे के सूत्र में अवधिजिनों को नमस्कार किया गया है। इसकी व्याख्या में धवलाकार ने बतलाया है कि यहाँ 'अवधि' से देशावधि की विवक्षा रही है, क्योंकि आगे ( सूत्र ३ - ४) परमाधजनों व सर्वावधिजिनों को पृथक् से नमस्कार किया गया है । यह देशावधि जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्य - अनुत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार की है। प्रसंग पाकर धवला में देशावधि के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा विषय की प्ररूपणा है ( पु० ६, पृ० १२-४० ) । इसी प्रकार से परमावधिजिनों के प्रसंग में परमावधि का और सर्वावधिजिनों का प्रसंग में सर्वावधि विषय का भी धवला में विवेचन है ( पु० ६, पृ०४१-५३) । आगे इन मंगलसूत्रों में कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारी, संभिन्नश्रोतृ एवं अष्टांगमहानिमित्त आदि जिन अनेक ऋद्धिविशेषों का उल्लेख है उन सभी के स्वरूप का धवला में प्रसंगानुसार प्रतिपादन हुआ है । अन्तिम मंगलसूत्र (४४) में वर्धमान बुद्ध ऋषि को नरस्कार किया गया है । निबद्ध-अनिबद्ध मंगल उक्त सूत्र की व्याख्या करते हुए धवला में यह शंका की गयी है कि मंगल जो निबद्ध और अनिबद्ध के भेद से दो प्रकार माने गये हैं उनमें से यह निबद्ध मंगल है या अनिबद्ध । उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह निबद्ध मंगल नहीं है । कारण यह है कि उसकी प्ररूपणा गौतम स्वामी ने कृति - वेदनादि चौबीस अनुयोगद्वारोंस्वरूप महाकर्म प्रकृतिप्राभृत के प्रारम्भ में की है । वहाँ से लाकर उसे भूतबलि भट्टारक ने वेदनाखण्ड के आदि में स्थापित किया है । और वेदनाखण्ड महाकर्मप्रकृतिप्राभृत तो है नहीं, क्योंकि अवयव के अवयवी होने का विरोध है । इसके अतिरिक्त भूतबलि गौतम भी नहीं हैं, क्योंकि वे विकल श्रुत के धारक होते हुए धरसेन आचार्य के शिष्य रहे हैं; जबकि गौतम सकलश्रुत के धारक होकर वर्धमान जिनेन्द्र के अन्तेवासी रहे हैं | इसके अतिरिक्त उक्त मंगल के निबद्ध होने का अन्य कोई कारण सम्भव नहीं है । इसलिए यह अनिबद्ध मंगल है | आगे धवलाकार ने प्रकारान्तर से प्रसंगप्राप्त अन्य शंकाओं का समाधान करते हुए ४६० / षट्खण्डागम-पशिीलन Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदनाखण्ड को महाकर्मप्रकृतिप्राभृत, भूतबलि को गौतम और प्रकृत मंगल को निबद्ध मंगल भी सिद्ध कर दिया है। __इसी प्रसंग में यह भी पूछा गया है कि यह मंगल आगे के तीन खण्डों में से किस खण्ड का है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि यह तीनों खण्डों का मंगल है, क्योंकि वर्गणा और महाबन्ध इन दो खण्डों के प्रारम्भ में मंगल नहीं किया गया है, और भूतबलि भट्टारक मंगल के बिना ग्रन्थ को प्रारम्भ करते नहीं है; क्योंकि वैसा करने पर उनके अनाचार्यत्व का प्रसंग प्राप्त होता है। इस प्रसंग में अन्य जो भी शंकाएँ उठायी गयी हैं उन सबका समाधान धवला में किया है। और यह सब मंगल-दण्डक देशामर्शक है, ऐसा बतलाकर यहाँ मंगल के समान निमित्त व हेतु आदि की प्ररूपणा भी उन्होंने संक्षेप में की है। प्रमाण के प्रसंग में जीवस्थान के समान यहाँ भी उसे ग्रन्थ और अर्थ के प्रमाण से दो प्रकार का कहा है। उनमें ग्रन्थ की अपेक्षा अर्थात् अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगद्वारों की अपेक्षा वह संख्यात है। अर्थ की अपेक्षा वह अनन्त है। प्रकारान्तर से यह भी कहा गया है-अथवा खण्डग्रन्थ की अपेक्षा वेदना का प्रमाण सोलह हजार पद है, उनको जानकर कहना चाहिए। अर्थकर्ता महावीर कर्ता के प्रसंग में यहाँ भी जीवस्थानखण्ड के समान अर्थकर्ता और ग्रन्थकर्ता के भेद से दो प्रकार के कर्ता की प्ररूपणा की गयी है। विशेषता यह रही है कि अर्थकर्ता भगवान् महावीर की प्ररूपणा यहाँ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा अधिक की गयी है।' यहाँ द्रव्यप्ररूपणा के प्रसंग में भगवान् महावीर के अतिशयित शरीर की और क्षेत्रप्ररूपणा के प्रसंग में समवसरण-मण्डल की प्ररूपणा भी की गयी है (पु० ६, पृ० १०७-१४)। भावप्ररूपणा के प्रसंग में जीव की जडरूपता का निराकरण करते हुए उसे सचेतन सिद्ध किया गया है। साथ ही उसे ज्ञान, दर्शन, संयम, सम्यक्त्व, क्षमा व मार्दव आदि स्वभाववाला बतलाया गया है। आगे कर्मों की नित्यता का निराकरण है। उन्हें सकारण सिद्ध किया गया है । तदनुसार मिथ्यात्व, असंयम और कषाय को उनका कारण कहा गया है। इनके विपरीत यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि सम्यक्त्व, संयम और निष्कषायता उक्त कर्मों के विनाश के कारण हैं । इस प्रकार जीव के स्वाभाविक गुणों के रोधक उन मिथ्यात्व आदि में चूंकि हानि की तरतमता देखी जाती है, इससे सिद्ध होता है कि किसी जीव में उनका पूर्णतया विनाश भी सम्भव है । जिस जीव विशेष में उनका पूर्णतया विनाश हो जाता है उसके स्वाभाविक गुण भी पूर्ण रूप में प्रकट हो जाते है। जैसे-सुवर्णपाषाण अथवा शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के उत्तरोत्तर मलिनता की हानि होने पर स्वाभाविक निर्मलता की उपलब्धि ।' १. धवला पु. १०७-१४; पु० १, पृ० ६०-७२ २. इस अभिप्राय की तुलना इन पद्यों से करने योग्य है दोषावरणयोर्हानिनिःशेषाऽस्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ।।-आ० मी० ४ (शेष पृ० ४६२ पर देखें) षट्खण्डागम पर टोकाएँ । ४६१ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रसंग में एक यह भी शंका उठायी गयी है कि जिस प्रकार कषाय अथवा अज्ञान आदि में हानि की तरतमता देखी जाती है उसी प्रकार आवरण की भी तरतमता देखी जाती है, अतः वह आवरण किसी जीव के ज्ञान आदि को पूर्णतया आवृत कर सकता है, जैसे कि राहु द्वारा पूर्णतया चन्द्रमण्डल को आवृत कर लेना । उसके उत्तर में धवलाकार ने यही कहा है कि ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि उस परिस्थिति में यावद्रव्यभावी जीव के ज्ञान-दर्शनादि गुणों का अभाव होने पर जीवद्रव्य के भी अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। उपर्युक्त शंका की असंगति प्रकट कर निष्कर्ष के रूप में धवलाकार ने कहा है कि इस प्रकार से जीव केवलज्ञानावरण के क्षय से केवलज्ञानी, केवलदर्शनावरण के क्षय से केवलदर्शनी, मोहनीय के क्षय से वीतराग और अन्तराय के क्षय से अनन्त बलवाला सिद्ध होता है (पू. ६, पृ० ११४-१८)। आगे 'उपर्युक्त द्रव्य, क्षेत्र और भाव की प्ररूपणाओं के संस्कारार्थ काल की प्ररूपणा की की जाती है। इस सूचना के साथ धवला में पहले यह निर्देश किया है कि इस भरतक्षेत्र में अवसर्पिणीकाल के चौथे भेदभूत दुःषमासुषमाकाल में नौ दिन और छह मास से अधिक तेतीस वर्ष के शेष रह जाने पर तीर्थ की उत्पत्ति हुई है। धवलाकार ने इसे और स्पष्ट किया। तदनसार चौथे काल में पचहत्तर वर्ष आठ मास और पन्द्रह दिन के शेष रह जाने पर आषाढ शक्ला षष्ठी के दिन भगवान् महावीर पुष्पोत्तरं विमान से बहत्तर वर्ष की आय लेकर गर्भ में अवतीर्ण हुए।' इसमें उनका कुमारकाल तीस वर्ष, छद्मस्थकाल बारह वर्ष और केवलीकाल तीस वर्ष रहा है । इन तीनों कालों के योगरूप बहत्तर वर्ष को चतुर्थकाल में शेष रहे उपक्त पचत्त र वर्ष, आठ मास और पन्द्रह दिन में से कम कर देने पर तीन वर्ष, आठ मास और पन्द्रह दिन शेष रहते हैं । यह भगवान् महावीर के मुक्त हो जाने पर चतुर्थ काल में शेष रहे काल का प्रमाण है। इसमें छ्यासठ दिन कम केवलिकाल मिला देने पर नौ दिन और छह मास अधिक तेतीस वर्ष चतुर्थ काल में शेष रहते हैं। चतुर्थ काल में इतने काल के शेष रह जाने पर महावीर जिनेन्द्र के द्वारा तीर्थ की उत्पत्ति हुई। इसे एक दृष्टि में इस प्रकार लिया जा सकता है धियां तरतमार्थवद्गतिसमन्वयान्वीक्षणात् भवेत् खपरिमाणवत् क्वचिदिह प्रतिष्ठा-परा। प्रहाणमपि दृश्यते क्षयवतो निर्मूलात् क्वचित् तथायमपि युज्यते ज्वलनवत् कषायक्षयः ।। -पात्रकेसरिस्तोत्र १८ १. भगवान् महावीर के गर्भावतरण का यही काल आचारांग (द्वि० श्रुतस्कन्ध) में भी इसी प्रकार निर्दिष्ट किया गया है । विशेष इतना है कि वहाँ आयुप्रमाण का कुछ उल्लेख नहीं किया गया है यथा "xxxदूसमसुसमाए समाए बहु विइक्कंताए पन्नहत्तरीए वासेहि मासेहि य अद्धनवमेहि सेसेहि जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे अट्टमे पक्खे आसाढसुद्धे तस्स णं आसाढसुद्धस्स छट्ठी पक्खेण हत्थुत्तराहि नक्खत्तेणं.. कुच्छिसि गब्भं वक्कते।" -आचा० द्वि० श्रुत० चूलिका ३ (भावना) पृ० ८७७-७८ ४१२ / बटाण्डागम-परिशीलन . Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष मास महावीरजिन के गर्म में आने के पूर्व शेष चतुर्थ काल महावीर की आयु (कु० ३०+छ० १२ + के० ३०) महावीर के मुक्त होने पर शेष चतुर्थ काल ७२ 2 . -- ३ ८ १५ . . केवली काल उसमें दिव्यध्वनि ६६ दिन नहीं प्रवृत्त हुई | - २६ २४ मुक्त होने पर शेष रहा चतुर्थ काल दिव्यध्वनि से सहित केवलिकाल + २६६ २४ इतने चतुर्थ काल के शेष रहने पर तीर्थ की उत्पत्ति हुई यहाँ शंका की गयी है कि केवलिकाल में से ६६ दिन (२ मास, ६ दिन) किस लिए कम किये जा रहे हैं । उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि केवलज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर भी उतने समय तक दिव्यध्वनि के प्रवृत्त न होने से तीर्थ की उत्पत्ति नहीं हुई । इतने काल तक दिव्यध्वनि क्यों नहीं प्रवृत्त हुई, यह पूछे जाने पर कहा गया है कि गणधर के उपलब्ध न होने से उतने काल तक दिव्यध्वनि प्रवृत्त नहीं हुई। इस पर पुनः यह पूछा गया है कि सौधर्म इन्द्र उसी समय गणधर को क्यों नहीं ले आया। उत्तर में कहा गया है कि काललब्धि के बिना वह उसके पूर्व लाने में असमर्थ रहा ।' मतान्तर यह भी स्पष्ट किया गया है कि अन्य कितने ही आचार्य महावीर जिनेन्द्र की आयु बहत्तर वर्ष में पांच दिन और आठ मास कम (७१ वर्ष, ३ मास, २५ दिन) बतलाते हैं। धवला में गर्भस्थकाल, कुमारकाल, छद्मस्थकाल और केवलिकाल का इस प्रकार भी प्ररूपण है । तदनुसार भगवान महावीर आषाढ शुक्ला.षष्ठी के दिन कुण्डलपुर नगर के अधिपति नाथवंशी राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशलादेवी के गर्भ में आये । वहाँ नौ मास आठ दिन रहकर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन गर्भ से निष्क्रान्त हुए। पश्चात् अट्ठाईस वर्ष, सात मास और बारह दिन कुमारअवस्था में रहकर वे मगसिर कृष्णा दशमी के दिन दीक्षित हुए। अनन्तर बारह वर्ष, पाँच मास, पन्द्रह दिन छद्मस्थ अवस्था में रहे । पश्चात् उन्हें वैशाख शुक्ला दशमी के दिन भिका ग्राम के बाहर ऋजुकूला नदी के किनारे षष्ठोपवास के साथ आतापनयोग से शिलापट्ट पर स्थित रहते हुए अपराह्न में केवलज्ञान प्राप्त हुआ। अनन्तर केवलज्ञान के साथ उन तीस वर्ष, पाँच मास और बीस दिन रहकर वे कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी के दिन निर्वाण को प्राप्त हुए । समस्त योग-... १. धवला पु० ६, पृ० ११६-२१ षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४६३ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भस्थकाल कुमारकाल छद्मस्थकाल केवलिकाल वर्ष १. आचारांग द्वि०श्रु० ( भावना चूलिका) पृ० ८७७-६८ २. धवला पु० ६, पृ० १२१-२६ ४६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन ० २८ १२ २६ ७१ मास ६ ७ ५ ५ ३ समस्त आयु तीर्थंकर महावीर के इस गर्भस्थकाल आदि का विवेचन आचारांग में भी प्रायः इसी प्रकार पाया जाता है जो प्रथम मत के अनुसार दिखाई देता है । तिथियाँ वे ही हैं । किन्तु वहाँ पृथक्पृथक् वर्ष, मास और दिनों का योग नहीं प्रकट किया है । समस्त आयु उनकी कितनी रही है इसे भी वहाँ स्पष्ट नहीं किया गया है ।" दिन धवला में जो भगवान् महावीर के उपर्युक्त गर्भादि कालों की प्ररूपणा की गयी है उसकी पुष्टि वहाँ पृथक्-पृथक् 'एत्थुवउज्जंतीओ गाहाओ' इस निर्देश के साथ कुछेक प्राचीन गाथाओं को उद्धृत करते हुए की गयी है । अन्त में वहाँ यह प्रश्न उपस्थित हुआ है कि इन दो उपदेशों में यहाँ यथार्थ कोन है । उत्तर में धवलाकार ने कहा है- "इस विषय में एलाचार्य का बच्चा उनका शिष्य मैं वीरसेनअपनी जीभ को नहीं चलाता हूँ, अर्थात् कुछ कह नहीं सकता हूँ ।" कारण यह है कि इस सम्बन्ध में कुछ उपदेश प्राप्त नहीं है । इसके अतिरिक्त उन दोनों में से किसी एक कुछ बाधा भी नहीं दिखती है । किन्तु दोनों में एक कोई यथार्थ होना चाहिए। उसका कथन जानकर ही निर्णय कर लेना चाहिए । में ग्रन्थकर्ता गणधर सर्वप्रथम यहाँ धवलाकार ने 'संपहि गंथकत्तार परूवणं कल्सामो' कहकर ग्रन्थकर्ता की प्ररूपणा करने की सूचना दी है । इस प्रसंग में यहाँ यह शंका की गयी है कि वचन के बिना अर्थ का व्याख्यान सम्भव नहीं, क्योंकि सूक्ष्म पदार्थों की प्ररूपणा संकेत से नहीं जा सकती है । अनक्षरात्मक ध्वनि द्वारा भी अर्थ का व्याख्यान घटित नहीं होता है, क्योंकि अनक्षरात्मक भाषा वाले तिर्यंचों को छोड़कर अन्य प्राणियों को उससे अर्थावबोध होना शक्य नहीं है । दूसरे दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक ही हो, यह भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि वह अठारह भाषाओं और सात सौ कुभाषाओंस्वरूप है। इसलिए जो अर्थकर्ता है वही ग्रन्थ का प्ररूपक है । अतः ग्रन्थकर्ता की प्ररूपणा अलग से करना उचित नहीं । ५ १२ १५ २० २५. । इसके कारण को पर जो अनन्त अर्थ इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह कोई दोष नहीं है स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि जिसमें शब्दरचना तो संक्षिप्त होती है, के अवबोध के कारणभूत अनेक लिंगों से संयुक्त होता है उसका नाम बीजपद है। द्वादशांगात्मक अठारह भाषाओं और सात सौ कुभाषाओं रूप उन अनेक बीजपदों का जो प्ररूपक होता है वह Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थकर्ता कहलाता है। और, जो उन बीजपदों में गर्भित अर्थ के प्ररूपक उन बारह अंगों की रचना करता है वह गणधर होता है, उसे ही ग्रन्थकर्ता माना गया है । तात्पर्य यह है कि बीजपदों का व्याख्याता ग्रन्थकर्ता कहा जाता है । इस प्रकार अर्थकर्ता से पृथक् ग्रन्थकर्ता की प्ररूपणा करना उचित ही है (पु० ६, पृ० १२६-२७) । दिव्यध्वनि प्रसंग के अनुसार यहाँ तुलनात्मक दृष्टि से दिव्यध्वनि के विषय में कुछ विचार कर लेना उचित प्रतीत होता है। ___ आचार्य समन्तभद्र ने अर्हन्त जिनेन्द्र की दिव्यध्वनि की विशेषता को प्रकट करते हुए कहा है तव वागमतं श्रीमत् सर्वभाषास्वभावकम् । प्रीणयत्यमतं यद्वत् प्राणिनो व्यापि संसदि ॥-स्वयम्भू० ६६ अर्थात् हे भगवन् ! आपका वचनरूप अमृत (दिव्यवाणी) समस्त भाषारूप में परिणत होकर समवसरणसभा में व्याप्त होता हुआ प्राणियों को अमृतपान के समान प्रसन्न करता है। इस प्रकार आचार्य समन्तभद्र ने अरहन्त की दिव्यवाणी को समस्त भाषा रूप कहा है। यह दिव्यवाणी इच्छा के बिना ही प्रादुर्भूत होती है, समन्तभद्राचार्य ने इसे भी स्पष्ट किया है काय-वाक्य-मनसां प्रवृत्तयो नाभवंस्तव मुश्चिकीर्षया । नासमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो धीर तावकमचिन्त्यमीहितम् ॥-स्वयम्भू०७४ अनात्मार्थ विना रागः शास्ता शास्ति सतो हितम् । ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्मुरजः किमपेक्षते ॥--रत्नकरण्डश्रावकाचार, ८ तदनुसार समस्त भाषास्वरूप परिणत होनेवाली इस दिव्यध्वनि को अतिशयरूप ही समझना चाहिए, जिसे आ० समन्तभद्र ने 'धीर तावकमचिन्त्यमोहितम्' शब्दों में व्यक्त भी कर दिया है। तिलोयपण्णत्ती में तो, तीर्थंकरों के केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर प्रकट होने वाले ग्यारह अतिशयों के अन्तर्गत ही उसका उल्लेख है। धवला की तरह तिलोयपण्णत्ती में भी यह स्पष्ट किया गया है कि संज्ञी जीवों की जो अक्षर-अनक्षरात्मक समस्त अठारह भाषाएँ और सात सौ क्षुद्र भाषाएँ हुआ करती हैं उनमें यह दिव्यवाणी तालु, दन्त, ओष्ठ और कण्ठ के व्यापार से रहित होकर प्रकृति से- इच्छा के बिना स्वभावतः- तीनों सन्ध्याकालों में नौ मुहर्त निकलती है, शेष समयों में वह गणधरादि कुछ विशिष्ट जनों के प्रश्नानुरूप भी निकलती है। _ विशेषता यहाँ यह रही है कि धवला में जहाँ उन भाषाओं का उल्लेख अठारह भाषाओं और सात सौ कुभाषाओं के रूप में किया गया है वहाँ तिलोयपण्णत्ती में उनका उल्लेख अठारह १. यही अभिप्राय भक्तामर-स्तोत्र में भी इस प्रकार व्यक्त किया गया हैस्वर्गापवर्गगममार्गविमार्गणेष्टः सद्धर्मतत्त्वकथनकपटुस्त्रिलोक्याः । दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थ-सर्वभाषास्वभावपरिणामगुणप्रयोज्यः ।।-भक्तामर, ३५ २. ति० प० ४, ८६६-६०६ (इसके पूर्व गाथा १-७४ भी द्रष्टव्य है)। षट्खण्डागम पर टीकाएं / ४६५ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाषाओं और सात सौ क्षुद्रमाचाओं के रूप में किया गया है। कल्याणमन्दिर-स्तोत्र (२१) में दिव्यवाणी को हृदयरूप समुद्र से उद्भूत अमृत' कहा गया है। इसे भोपचारिक कथन समझना चाहिए, क्योंकि वह हृदय या अन्तःकरण की प्रेरणा से नहीं उत्पन्न होती। स्वयं धवलाकार आ० वीरसेन ने 'कषायप्राभूत' की टीका जयधवला (पु० १, पृ० १२६) में दिव्यध्वनि की विशेषता को प्रकट करते हुए उसे समस्त भाषारूप, अक्षर-अनक्षरात्मक, अमन्त अर्थ से गर्भित बीजपदों से निर्मित, तीनों सन्ध्यायों में निरन्तर छह घड़ी तक प्रवास रहने वाली तथा अन्य समयों में संशयादि को प्राप्त गणधर के प्रति स्वभावतः प्रवृत्त होनेवाली कहा है। ___यह अभिप्राय प्राय: तिलोयपण्णत्ती के ही समान है। अन्तर मात्र यह है कि तिलोयपण्णत्ती में जहां उसके प्रवर्तन का काल नो घड़ी कहा गया है वहाँ जयधवला में उसके प्रवर्तने का यह काल छह घड़ी बतलाया है। इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती में गणधर के अतिरिक्त इन्द्र और चक्रवर्ती का भी उल्लेख है, जबकि जयधवला में एकमात्र गणधर का ही निर्देश किया गया है। घर्षमानजिन के तीर्य में ग्रन्थकर्ता सामान्य से ग्रन्थकर्ता की प्ररूपणा में गणधर की अनेक विशेषताओं के उल्लेख के बाद 'संपहि वड्ढमाणतित्थगंथकत्तारो वृच्चदें सूचनापूर्वक धवला में यह गाथा कही गयी है पंचेव अत्यिकाया छज्जीवणिकाया महव्वयापंच । अट्ठ य पवयणमादा सहेउओ बंध-मोक्खो य॥ इस माथा को प्रस्तुत कर 'को होदि' सौधर्म इन्द्र के इस प्रश्न से जिसे सन्देह उत्पन्न हुआ है तथा जो पांच-पाँच सौ शिष्यों से सहित अपने तीन भाईयों से वेष्टित रहा है वह गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ब्राह्मण जब इन्द्र के साथ समवसरण के भीतर प्रविष्ट हुआ तब वहीं मानस्तम्भ के देखते ही उसका सारा अभिमान नष्ट हो गया। परिणामस्वरूप उसकी आत्मशद्धि उत्तरोत्तर बढ़ती गयी जिससे असंख्यात भवों में उपार्जित उसका गुरुतर कर्म नष्ट हो गया। उसने तीन प्रदक्षिणा देते हुए जिनेन्द्र की वन्दना की और संयम को ग्रहण कर लिया। तब उसके विशुद्धि के बल से अन्तर्महर्त में ही उसमें गणधर के समस्त लक्षण प्रकट हो गये। उसने जिन भगवान् के मुख से निकले हुए बीजपदों के रहस्य को जान लिया। इस प्रकार श्रावणमास के कृष्णपक्ष में युग के आदिभूत प्रतिपदा के दिन उसने आचारादि बारह अंगों और सामायिक-चतुविंशति आदि चौदह प्रकीर्णकों रूप अंगबाह्यों की रचना कर दी। इस भाँति इन्द्रभूति भट्टारक वर्धमान जिन के तीर्थ में ग्रन्थकर्ता हुए।' १. पूर्वोक्त स्वयम्भूस्तोत्र (६६) में भी प्रकृत दिव्यवाणी को अमृतस्वरूप ही निर्दिष्ट किया गया है। २. धवला पु० ६, पृ० १२७-२८ ३. धवला पु० ६, पृ० १२६-३० ४६६ / बनण्डागम-परिवोला Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरोत्तरतन्त्रकर्ता धवला में यहाँ उत्तरोत्तरतन्त्रकर्ता की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में जो श्रुतावतार की चर्चा की गयी है वह लगभग उसी प्रकार की है जिस प्रकार इसके पूर्व जीवस्थान-खण्ड के अवतार के प्रसंग में की जा चुकी है। विशेषता यहाँ मात्र इतनी है कि तीर्थंकर महावीर के मुक्त होने पर जो केवली, श्रुतकेवली और अंग-पूर्वधरों की परम्परा चलती आयी है उसकी प्ररूपणा के प्रसंग में यहाँ उनके काल का भी पृथक्-पृथक् उल्लेख है जो कुल मिलाकर ६८३ वर्ष होता है।' शक नरेन्द्र का काल उपर्युक्त ६८३ वर्षों में ७७ वर्ष व ७ मास (शक राजा का काल) के कम कर देने पर ६०५ वर्ष व ५ मास शेष रहते हैं। वीर जिनेन्द्र के निर्वाण को प्राप्त होने के दिन से यह शक राजा के काल का प्रारम्भ है । ___ इस विषय में यहाँ दो अन्य मतों का भी उल्लेख किया गया है। प्रथम मत के अनुसार वीरनिर्वाण के पश्चात् १४७६३ वर्षों के बीतने पर शक नृप उत्पन्न हुआ। दूसरे मत के अनुसार वह वीर-निर्वाण से ७६६५ वर्ष और ५ मास के बीतने पर उत्पन्न हुआ। उपर्युक्त तीनों मतों की पुष्टि वहां तीन गाथाओं को उद्धत करते हुए की गयी है। तिलोयपण्णत्ती में भी शक नप की उत्पत्ति के विषय में विभिन्न मत पाये जाते हैं । यथा(१) वह वीरनिर्वाण के पश्चात् ४६१ वर्षों के बीतने पर उत्पन्न हुआ। (गा० ४-१४६७) (२) वह वीरनिर्वाण के पश्चात् १७८५ वर्ष और ५ मास के बीतने पर उत्पन्न हुआ। (गा० ४-१४६७) (३) वह वीरनिर्वाण के पश्चात् १४७६३ वर्षों के बीतने पर उत्पन्न हुआ। (गा० ४-१४६८) (४) वह वीरनिर्वाण के पश्चात् ६०५ वर्ष और ५ मास के बीतने पर उत्पन्न हुआ। (गा० ४-१४६६) इनमें प्रथम मत धवला से सर्वथा भिन्न है। दूसरे मत के अनुसार धवला में निर्दिष्ट ७६६५ वर्षों की अपेक्षा यहाँ १७८५ वर्ष हैं। शेष दो मत दोनों ग्रन्थों में समान हैं। इन मतभेदों के विषय में धवलाकार ने इतना मात्र कहा है कि इन तीन में कोई एक होना चाहिए, तीनों उपदेश सत्य नहीं हो सकते, क्योंकि उनमें परस्पर विरोध है। इसलिए जानकर कहना चाहिए (पु० ६, पृ० १३१-३३)। पूर्वश्रुत से सम्बन्ध __इस प्रकार कुछ प्रासंगिक चर्चा के पश्चात् प्रकृत की प्ररूपणा करते हुए धवला में कहा गया है कि लोहार्य के स्वर्गस्थ हो जाने पर आचारांगरूप सूर्य अस्त हो गया। भरत क्षेत्र में बारह अंगों के लुप्त हो जाने पर शेष आचार्य सब अंग-पूर्वो के एकदेशभूत पेज्जदोस और महा १. धवला पु० ६, पृ० १३४-२३१ तथा पु० १, पृ० ७२-१३० २. धवला पु० ६, पृ० १३०-३१ षट्सण्डागम पर टीकाएँ । ४६७ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मपडिपाहुड आदि के धारक रह गये। इस प्रकार प्रमाणीभूत महर्षियों की परम्परारूप प्रणाली से आकर महाकर्मप्रकृतिप्राभृतरूप अमृत-जल का प्रवाह धरसेन भट्टारक को प्राप्त हुआ। उन्होंने भी सम्पूर्ण महाकर्मप्रकृतिप्राभूत को गिरिनगर की चन्द्रगुफा में भूतबलि और पष्पदन्त को समर्पित कर दिया । भूतबलि भट्टारक ने श्रुत विच्छेद के भय से महाकर्मप्रकृतिप्राभूत का उपसंहार कर छह खण्ड किये। इस प्रकार प्रमाणीभूत आचार्यपरम्परा से आने के कारण प्रकृत षट्खण्डागम ग्रन्थ प्रत्यक्ष व अनुमान के विरोध से रहित है, अतः प्रमाण है। आगे सूत्रकार ने प्रकृत ग्रन्थ का सम्बन्ध अंग-पूर्वश्रुत में किससे किस प्रकार रहा है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि अग्रायणीय पूर्वगत चौदह 'वस्तु' नामक अधिकारों में पांचा 'चयनलब्धि' नाम का अधिकार है। उसके अन्तर्गत बीस प्राभृतों में चौथा महाकर्मप्रकृतिप्राभूत है। उसमें ये चौबीस अनुयोगद्वार हैं-(१) कृति, (२) वेदना, (३) स्पर्श, (४) कर्म, (५) प्रकृति, (६) बन्धन, (७) निबन्धन, (८) प्रक्रम, (६) उपक्रम, (१०) उदय, (११) मोक्ष, (१२) संक्रम (१३) लेश्या, (१४) लेश्याकर्म, (१५) लेश्यापरिणाम, (१६) सात-असात, (१७) दीर्घ-हस्व, (१८) भवधारणीय, (१९) पुद्गलात्त, (२०) निधत्त-अनिधत्त, (२१) निकाचित-अनिकाचित, (२२) कर्मस्थिति, (२३) पश्चिमस्कन्ध और (२४) अल्पबहुत्व ।-सूत्र ४५ (पु०९) ग्रन्थावतार इस सूत्र की व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि सब ग्रन्थों का अवतार उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय के भेद से चार प्रकार का होता है। इन सबकी यथाक्रम से प्ररूपणा यहाँ उसी प्रकार है, जिस प्रकार इसके पूर्व जीवस्थान के अवतार के प्रसंग में की जा चुकी है।' विशेषता यहां यह रही है कि उपक्रम के आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार इन पाँच भेदों में जो तीसरा भेद प्रमाण है उसके यहाँ नामप्रमाण, स्थापनाप्रमाण, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण ये छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं, जबकि जीवस्थान के प्रसंग में प्रथमतः वहाँ ये पांच भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण, भावप्रमाण और नयप्रमाण । वैसे वहाँ भी विकल्प रूप में उपयुक्त छह भेदों का निर्देश है। प्रसंगवश जीवस्थान में यह शंका भी उठायी गयी है कि नयों के प्रमाणरूपता कैसे सम्भव है। धवलाकार ने इसके उत्तर में कहा है कि नय चूंकि प्रमाण के कार्य हैं, इसलिए उनके उपचार से प्रमाण होने में कोई विरोध नहीं है। अवतार के तीसरे भेदभूत अनुगम का स्वरूप स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि जहां या जिसके द्वारा वक्तव्य-वर्णनीय विषय-की प्ररूपणा की जाती है उसका नाम अनुगम है। जम्हि जेण वा वत्तव्वं परुविज्जदि सो अणुगमो। इस लक्षण के अनुसार उससे अधिकार नामक अनुयोगद्वारों के अन्तर्गत अवान्तर अधिकारों को ग्रहण किया गया है। जैसे'वेदना' अधिकार के अन्तर्गत पदमीमांसा आदि । आगे विकल्प के रूप में यह भी कहा गया है-अथवा अनुगम्यन्ते जीवादयः पदार्थाः १. धवला पु० १, पृ०७२-१३० और पु० ६, पृ० १३४-२३१ २. धवला पु० १, पृ० ८०-८२ व पु० ६, पृ० १३८-४० ३. पु० १०, पृ० १८, सूत्र १ तथा पु० ११, पृ० १, सूत्र १-२ व ७३-७५ ४६८ / पट्खण्डागम-परिशालन Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेमेत्यनुगमः । अर्थात् जिसके द्वारा जीवादिक पदार्थ जाने जाते हैं उसका नाम अनुगम है। इस निरुक्ति के अनुसार 'अनुगम' से प्रमाण विवक्षित रहा है । इस 'प्रमाण' से भी यहाँ निर्बाध संशय, विपर्यय व अनध्यवसाय से रहित-बोध से युक्त आत्मा का अभिप्राय रहा है। यहां यह शंका उत्पन्न हुई कि ज्ञान को ही प्रमाण क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि 'जानाति परिछिनत्ति जीवादिपदार्थानिति ज्ञानम् आत्मा' इस निरुक्ति के अनुसार ज्ञानस्वरूप आत्मा को ही प्रमाण माना गया है । स्थिति से रहित उत्पादव्ययस्वरूप ज्ञानपर्याय को प्रमाण नहीं माना जा सकता है। कारण यह है कि उत्पाद, व्यय और स्थिति इन तीन लक्षणों के अभाव में उसमें अवस्तुरूपता है, अतः उसमें परिच्छेदनरूप अर्थक्रिया सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त स्थिति के बिना स्मृति-प्रत्यभिज्ञानादि के अभाव का भी प्रसंग प्राप्त होता है (पु० ६, पृ० १४१-४२)। प्रमाण के प्रसंग में यहाँ उसके मूल में प्रत्यक्ष और परोक्ष इन भेदों का निर्देश है। इनमें प्रत्यक्ष दो प्रकार का है-सकलप्रत्यक्ष और विकलप्रत्यक्ष । इनमें केवलज्ञान को सकलप्रत्यक्ष और अवधि व मनःपर्ययज्ञान को विकलप्रत्यक्ष कहा गया है (पृ० १४२-४३)। इस प्रकार संक्षेप में प्रत्यक्ष प्रमाण का स्वरूप दिखलाकर परोक्ष के भेदभूत मति और श्रुत इन दो ज्ञानों की विस्तार से प्ररूपणा की गयी है। तीसरे विकल्प के रूप में पूर्वोक्त अनुगम का स्वरूप प्रकट करते हुए धवला में यह भी कहा गया है 'अथवा अनुगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते इत्यनुगमाः षड्द्रव्याणि' । इस निरुक्ति के अनुसार, जो जाने जाते हैं उन ज्ञान के विषयभूत छह द्रव्य अनुगम कहे जाते हैं (पु० ६, पृ० १६२)। नयविवरण पर्वनिर्दिष्ट ग्रन्थावतार के इन चार भेदों में उपक्रम, निक्षेप और अनुगम इन तीन भेदों की प्ररूपणा करके तत्पश्चात् उनके चौथे भेदभूत नय की प्ररूपणा भी धवला में विस्तार से हई है (पु० ६, पृ० १६२-८३)। यहां प्रारम्भ में लघीयस्त्रय की 'नयो ज्ञातुरभिप्रायः युक्तितोऽर्थपरिग्रहः' इस कारिका (५२) को लक्ष्य में रखकर तदनुसार धवलाकार ने ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहा है। आगे इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने उक्त कारिका के अन्तर्गत 'युक्तितोऽर्थपरिग्रहः' इस अंश को लेकर उसमें 'यक्ति' का अर्थ प्रमाण करके 'अर्थ' से उन्होंने परिपूर्ण वस्तु के अंशभूत द्रव्य और पर्याय में से विवक्षा के अनुसार किसी एक को ग्रहण किया है । तदनुसार, वक्ता के अभिप्राय के अनसार प्रमाण की विषयभूत द्रव्य-पर्यायस्वरूप वस्तु के इन दोनों अंशों में से जो एक को प्रमुखता से ग्रहण किया जाता है उसे नय कहते हैं। इसी प्रसंग में धवलाकार ने यह कहा है कि कितने ही विद्वान् प्रमाण को ही नय कहते हैं । पर उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता, क्योंकि वैसा होने पर नयों के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। और नयों का अभाव होना सम्भव नहीं है, अन्यथा लोक में एकान्त का जो समस्त व्यवहार देखा जाता है वह लुप्त हो जाएगा। दूसरे, प्रमाण को नय इसलिए भी नहीं कहा जा सकता है कि उसका विषय अनेकात्मक वस्त है, जबकि नय का विषय एकान्त है। इसी विषयभेद के कारण नय को प्रमाण नहीं कहा जा सकता है । इसके अतिरिक्त प्रमाण केवल विधि को ही विषय नहीं करता है, क्योंकि षट्सण्डागर्म पर टीकाएँ / ४६६ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यव्यावृत्ति (प्रतिषेध) के बिना उसकी प्रवृत्ति में संकरता का प्रसंग अनिवार्य होगा। दूसरे, उस परिस्थिति में वस्तु का जानना न जानने के समान ही रहनेवाला है। वह प्रतिषेध को ही विषय करे, यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि विधि को जाने बिना 'यह इससे भिन्न है' इसका जानना शक्य नहीं है। और विधि व प्रतिषेध भिन्न रूप में दोनों ही प्रतिभासित हों, यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि उस स्थिति में दोनों के विषय में पृथक्-पृथक् उद्भावित दोषों का प्रसंग प्राप्त होनेवाला है। इससे सिद्ध है कि प्रमाण का विषय विधि-प्रतिषेधात्मक वस्तु है । इसलिए न तो प्रमाण को नय कहा जा सकता है और न नय को भी प्रमाण कहा जा सकता है। __ आगे धवलाकार ने 'प्रमाण-नयैरधिगमः' इस तत्त्वार्थसूत्र (१-६) के साथ अपने अभिमत का समर्थन करते हुए कहा है कि हमारा यह व्याख्यान उस सूत्र के साथ भी विरोध को प्राप्त नहीं होता है। कारण यह है कि प्रमाण और नय से जो वाक्य उत्पन्न होते हैं वे उपचार से प्रमाण और नय हैं । और उनसे जो दो प्रकार का ज्ञान उत्पन्न होता है वह भी यद्यपि विधिप्रतिषेधात्मक वस्तु को विषय करने के कारण प्रमाणरूपता को प्राप्त है, फिर भी कार्य में कारण के उपचार से उसे भी सूत्र में प्रमाण और नय रूप में ग्रहण किया गया है। नय वाक्य से उत्पन्न होनेवाला बोध प्रमाण ही है, वह नय नहीं है। इसके ज्ञापनार्थ सूत्र में 'उन दोनों से वस्त का अधिगम होता है' ऐसा कहा जाता है। विकल्प के रूप में धवला में यह भी कहा गया है-अथवा जिसने बोध को प्रधान किया है उस पुरुष को प्रमाण और जिसने उस बोध को प्रधान नहीं किया है उस पुरुष को नय जानना चाहिए । अधिगम वस्तु का ही किया जाता है अवस्तु नहीं, यह स्वीकार करना चाहिए; अन्यथा प्रमाण के भीतर प्रविष्ट हो जाने से नय के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है (पु. ६, पृ० १६२-६४)। इस प्रकार नय के प्रसंग में विविध प्रकार से उसके स्वरूप का निरूपण कर धवलाकार ने उसके द्रव्यार्थिक. और पर्यायार्थिक इन दो मूल भेदों के साथ तत्त्वार्थसूत्र में निर्दिष्ट नगमादि सात नयों के विषय में दार्शनिक दृष्टि से पर्याप्त विचार किया है।' नय की विस्तार से प्ररूपणा के पश्चात् धवलाकार ने इस देशामर्शक सूत्र (४,१,४५) के द्वारा कर्मप्रकृतिप्राभूत के इन उपक्रमादि चारों अवतारों की प्ररूपणा की है यथा सूत्र में "अग्रायणीय पूर्व के अन्तर्गत पांचवें 'वस्तु' अधिकार के चौथे प्राभूत का नाम कर्मप्रकृति है। उसमें चौबीस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं" ऐसा जो कहा गया है उसके द्वारा पाँच प्रकार के उपक्रम की प्ररूपणा है । यह उपक्रम शेष तीन अवतारों का उपलक्षण है, इसलिए उनकी भी प्ररूपणा यहां देखना चाहिए, क्योंकि वह उन तीन का अविनाभावी है। यह अग्रायणीयपूर्व ज्ञान, श्रुत, अंग, दृष्टिवाद, पूर्व और पूर्वोक्त कर्मप्रकृति के भेद से छह प्रकार का है। कारण यह कि के छहों पूर्व-पूर्व के अन्तर्गत हैं, इसलिए यहां शिष्यों की बुद्धि को विकसित करने के लिए उन छहों के विषय में पृथक्-पृथक् चार प्रकार के अवतार की प्ररूपणा की जाती है। तदनुसार यहाँ आगे धवला में ज्ञानादि छह के विषय में यथाक्रम से उक्त चार प्रकार के अवतार की प्ररूपणा हुई है (पु. ६, पृ० १८४-२३१) । १. नय के विविध लक्षणों की जानकारी के लिए 'जैन लक्षणवली' भा० ३, प्रस्तावना पृ० ११-१४ में 'नय' के प्रसंग को देखना चाहिए। ४७०/षदखण्डागम-परिशीलन Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्पश्चात् उन कृति-दवादि चौबीस बनुयोमारों में प्ररूपित विषय का संक्षेप में विधान कराया है। कतिविषयक प्ररूपणा आगे कृति के नामकृति, स्थापनाकृति, द्रष्याकृति, पमनकृति, ग्रन्यकृति, करपति और भावकृति इन सात भेदों में से आगमद्रव्यकृति के प्रसंग में सूत्रकार द्वारा उसके इन नौ गाधिकारों का निर्देश है-स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थमब, अन्यसन, नावसम और घोषसम (सूत्र ५४) । __इन सब का स्वरूप स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने काचवोपपत अर्थाधिकार के प्रसंग में वाचना के इन चार भेदों का निर्देश किया है नन्दा, भद्रा, जया और सौम्या। जिस व्याख्या में अन्य दर्शनों को पूर्वपक्ष में करके, उनका निराकरण करते हुए अपना पक्ष स्थापित किया जाता है उसका नाम नन्दा-वाचना है। युक्तियों द्वारा समाधान करके पूर्वापरविरोध का परि. हार करते हुए सिद्धान्त के अन्तर्गत समस्त विषयों की व्याख्या का नाम भद्रावाचवा है। पूर्वापर विरोध का परिहार न करके सिद्धान्तगत अर्थों का कथन करका जया-वाला कहलाती है। कहीं-कहीं पर स्खलित होते हुए जो व्याख्या की जाती है उसे सौभ्या-वाचमा कहते है (पु. ६, पृ० २५१-५२)। स्वाध्यायविधि इस प्रकार इन चार वाचनाओं का स्वरूप दिखलाकर धवला में आगे कहा गया है कि को तत्त्व का व्याख्यान करते हैं अथवा उसे सुनते हैं उनको द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शुद्धिपूर्वक ही व्याख्यान करना व पढ़ना चाहिए। __ शरीर में ज्वर, कुक्षिरोग, शिरोरोग, दुःस्वप्न, रुधिर, मल, मूत्र, लेप, अतीसार, पीव आदि का न रहना द्रव्यशुद्धि है। जिस स्थान में व्याख्याता अवस्थित है उस स्थान से अट्ठाईस (७X४) हजार आयत चारों दिशाओं में मल, मूत्र, हड्डी, बाल, नाखून, चमड़ा आदि का न रहना; इसका नाम क्षेत्रशुद्धि है । स्वाध्याय के समय बिजली, इन्द्रधनुष, चन्द्र-सूर्य-ग्रहण, अकालवृष्टि, मेघगर्जन, मेघाच्छादित आकाश, दिशादाह, कुहरा, संन्यास, महोपवास, नन्दीश्वरजिनमहिमा इत्यादि के न होने पर कालशुद्धि होती है। __कालशुद्धि के प्रसंग में उसके विधान की प्ररूपणा करते हुए धवलाकार ने कहा है कि पश्चिमरात्रि के स्वाध्याय को समाप्त करके बाहर निकले व प्रासुक भूमिप्रदेश में कायोत्सर्ग से पूर्वाभिमुख स्थित होकर नौ गाथाओं के परिवर्तनकाल से पूर्वदिशा को शुद्ध करे। पश्चात् प्रदक्षिणक्रम से पलटकर इतने ही काल से दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा को शुद्ध करने पर छत्तीस (EX४) गाथाओं के उच्चारणकाल से अथवा एक सौ आठ उच्छ्वासकाल से कालशुद्धि पूर्ण होती है। अपराह्न में भी इसी प्रकार से कालशुद्धि करना चाहिए। विशेष इतना है कि इसमें काल का प्रमाण सात-सात गाथाएँ हैं। इस प्रकार सब गाथाओं का प्रमाण अट्ठाईस (७-४) अथवा चौरासी उच्छ्वास होता है। सूर्य के अस्तंगत होने के पूर्व क्षेत्रशुद्धि करके, उसके अस्तंगत हो जाने पर कालशुद्धि पूर्व के समान करना चाहिए। विशेष इतना है कि यहां काल बीस (५४४) गाथाओं के उच्चारण अथवा साठ उच्छ्वास मात्र रहता है। अपररात्रि पदमागम पर टीकाएं | 7 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में वाचना निषिद्ध है, क्योंकि उस समय क्षेत्रशुद्धि करने का उपाय नहीं रहता। __अवधिज्ञानी व मनःपर्ययज्ञानी, समस्त अंगश्रुत के धारक, आकाशस्थित चारण और मेरु व कुलाचल के मध्य में स्थित चारण; इनके लिए अपररात्रिवाचना निषिद्ध नहीं है, क्योंकि ये क्षेत्रशुद्धि से निरपेक्ष होते हैं। ____ जो राग, द्वेष, अहंकार व आर्त-रौद्रध्यान से रहित होकर पांच महाव्रतों से सहित, तीन गुप्तियों से सुरक्षित तथा ज्ञान, दर्शन व चारित्र आदि आचार से वृद्धिंगत होता है उस भिक्षु के भावशुद्धि हुआ करती है। इस प्रसंग में धवलाकार ने 'अत्रोपयोगिश्लोकाः' इस सूचना के साथ २५ श्लोकों को उद्धृत किया है। इन श्लोकों में कब स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, क्षेत्रशुद्धि कहाँ-किस प्रकार करना चाहिए, अष्टमी व पौर्णमासी आदि के दिन अध्ययन करने से गुरु-शिष्य को क्या हानि उठानी पड़ती है, किस परिस्थिति में स्वाध्याय समाप्त करना चाहिए, तथा वाचना समाप्त अथवा प्रारम्भ करते समय कब कितनी पादछाया रहना चाहिए; इत्यादि का विशद विवेचन है (धवला पु० ६, पृ० २५३-५६)। - मलाचार में भी आठ प्रकार के ज्ञानाचार के प्रसंग में कालाचार की प्ररूपणा करते हुए स्वाध्याय कब करना चाहिए, स्वाध्याय को प्रारम्भ व समाप्त करते समय पूर्वाह्न व अपराह्न में कितनी जंघच्छाया रहना चाहिए, आषाढ़ व पौष मास में किस प्रकार से उस छाया में हानिवद्धि होती है, स्वाध्याय के समय दिग्विभाग की शुद्धि के लिए पूर्वाह्न, अपराह्न व प्रदोषकाल में कितनी गाथाओं का परिमाण रहता है, स्वाध्याय के समय दिशादाह आदि किन दोषों को छोड़ना चाहिए तथा द्रव्य, क्षेत्र व भाव की शुद्धि किस प्रकार की जाती है, इत्यादि को स्पष्ट किया गया है । अन्त में वहाँ सूत्र के लक्षण का निर्देश कर अस्वाध्याय काल में संयत व स्त्रीवर्ग को गणधरादि कथित सूत्र के पढ़ने का निषेध किया गया है, सूत्र को छोड़ आराधनानियुक्ति आदि अन्य ग्रन्थों के अस्वाध्यायकाल में भी पढ़ने को उचित ठहराया गया है। इस प्रकार उपर्युक्त स्थित-जितादि नौ अर्थाधिकारों का विवेचन समाप्त कर धवला में यह सूचना कर दी गयी है कि ऊपर आगम के जिन नौ अर्थाधिकारों का प्ररूपण है उनके अर्थ को प्रसंगप्राप्त इस 'कृति' में योजित कर लेना चाहिए (पु० ६, पृ० २६१-६२) । गणनकृति सूत्रकार ने गणनकृति अनेक प्रकार की बतलाते हुए एक (१) को नोकृति, दो (२) को कृति व नोकृति के रूप में अवक्तव्य और तीन को आदि लेकर (३,४,५ आदि) संख्यात, असंख्यात व अनन्त को कृति कहा है तथा इस सबको गणनकृति कहा है (सूत्र ६६)। इसकी व्याख्या में, धवला में कहा गया है कि 'एक' यह नोकृति है। इसे 'नोकृति' कहने का कारण यह है कि जिस राशि का वर्ग करने पर यह वृद्धि को प्राप्त होती है तथा अपने वर्ग में से वर्गमूल कम करके वर्ग करने पर वृद्धि को प्राप्त होती है उसे 'कृति' कहा जाता है। पर एक का वर्ग करने पर उसमें वृद्धि नहीं होती तथा मूल के कम कर देने पर वह निर्मूल नष्ट हो जाती है, इसीलिए सूत्र में उसे 'नोकृति' कहा गया है । इस 'एक' संख्या को १. मूलाचार गाथा ५७३-८२ ४७२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहाँ गणना का प्रकार दिखाया गया है। 'दो' का वर्ग करने पर उसमें वृद्धि देखी जाती है, इसलिए उसे 'नोकृति' तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु उसमें से वर्गमूल के घटाने पर वह वृद्धि को नहीं प्राप्त होती, वही राशि रहती है (२x२=४, ४-२=२)। इसलिए 'दो. को 'कृति' भी नहीं कहा जा सकता है। इसी कारण सूत्र में उसे 'अवक्तव्य' कहा गया है । यह गणना की दूसरी जाति है । आगे की तीन-चार आदि अनन्त पर्यन्त संख्याओं का वर्ग करने पर उनमें वृद्धि होती है तथा उनमें से वर्गमूल के घटाने पर भी वे वृद्धि को प्राप्त होती हैं (३x ३x; -३=६ इत्यादि)। इसी से उन्हें सूत्र में 'कृति' कहा गया है। यह तीसरा गणनाकृति का विधान है। इसे स्पष्ट करते हुए आगे धवला में कहा गया है कि एक, एक, एक इस प्रकार से गणना करने पर नोकृतिगणना; दो, दो, दो के क्रम से गणना करने पर अवक्तव्य गणना और तीन, चार, पांच आदि के क्रम से गणना करने पर कृतिगणना होती है। प्रकारान्तर से यह भी कहा गया है-अथवा कृतिगत संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेदों से वह अनेक प्रकार की है। उनमें एक को आदि लेकर उत्तरोत्तर एक-एक अधिक के क्रम से वृद्धि को प्राप्त होनेवाली राशि नोकृतिसंकलना कहलाती है। दो को आदि लेकर उत्तरोत्तर दोदो (२,४,६,८ आदि) के अधिक्रम से वृद्धिंगत राशि को अवक्तव्यसंकलना कहा जाता है। तीनचार आदि संख्याओं में किसी एक को आदि करके उन्हीं में उत्तरोत्तर क्रम से वृद्धि को प्राप्त होनेवाली राशि को कृतिसंकलना कहते हैं। इनमें किन्हीं दो के संयोग से अन्य छह संकलनाओं को उत्पन्न करना चाहिए । इस प्रकार से ऋणगणना नौ (३+६)प्रकार की हो जाती है।' गणितभेद - धन, ऋण और धन-ऋण आगे धवलाकार कहते हैं कि यह सूत्र (४,२,१,६६) चूंकि देशामर्शक है, इसलिए यहां धन, ऋण और धन ऋण गणित सबकी प्ररूपणा का औचित्य सिद्ध करते हुए उन्होंने कहा है कि संकलना, वर्ग, वर्गावर्ग, घन, घनाघन इन राशियों की उत्पत्ति के निमित्तभूत गुणकार और कलासवर्ण तक भेदप्रकीर्णक जातियां तथा त्रैराशिक, पंचराशिक इत्यादि सब धनगणित के अन्तर्गत आते हैं। व्युत्कलना, भागहार और क्षयक तथा कलासवर्ण आदि सूत्र से प्रतिबद्ध संख्याएँ-ये सब ऋणगणित माने जाते हैं। गतिनिवृत्तिगणित और कुट्टाकारगणित धन-ऋण गणित हैं। इस प्रकार धवलाकार ने यहाँ उक्त तीन प्रकार के गणित की प्ररूपणा करने की प्रेरणा की है। गणितसारसंग्रह में 'कलासवर्ण' के अन्तर्गत ये छह जातियां निर्दिष्ट की गयी हैं-भाग, प्रभाग, भागभाग, भागानुबन्ध, भागापवाह और भागमात्र (ग०सा० २-५४)। अथवा 'कृति' को उपलक्षण करके यहाँ गणना, संख्यात और कृति का लक्षण कहना चाहिए ---प्रकारान्तर से ऐसा कहकर धवलाकार ने क्रम से उनके लक्षण में कहा है कि एक को आदि करके उत्कृष्ट अनन्त तक गणना कहलाती है। दो को आदि करके उत्कृष्ट अनन्त तक की १. धवला पु. ६, पृ० २७४-७५ २. गतिनिवृत्ती सूत्रम् -निज-निजकालोद्धृतयोर्गमन-निवृत्योविशेणाज्जातम्। दिनशुद्धगति न्यस्य राशिकविधिं कुर्यात् ।। ग०सार ४-२३ (कुट्टाकारगणित के लिए गणितसंग्रह में श्लोक ५, ७६-२०८ अथवा लीलावती में २, ६५-७७ श्लोकों को देखा जा सकता है। षट्सण्डागम पर टीकाएँ | ४७३ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणना को संख्यात या संख्येय कहा जाता है। तीन को आदि करके उत्कृष्ट अनन्त तक की गणना का नाम कृति है। आगे 'वुत्तं च' कहकर इसकी पुष्टि इस गाथा द्वारा की है एयादीया गणना दो आदीया घि जाण संखे ति। तीयादीणं णियमा कदि ति सण्णा दु बोद्धव्वा ॥ तत्पश्चात् 'यहाँ कृति, नोकृति और अवक्तव्यकृति के उदाहरणों के लिए यह प्ररूपणा की जाती है। ऐसी सूचना कर उन तीन की प्ररूपणा में ओघानुगम, प्रथमानुगम, चरमानुगम और संचयानुगम इन चार अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है। तदनुसार उनमें पहले तीन अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा उनके अवान्तर अनुयोगद्वारों के साथ संक्षेप में कर दी गयी है (पु० १, पृ० २७७-८०)। 'संचयानुगम' अनुयोगद्वार की प्ररूपणा में सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों का उल्लेख कर तदनुसार ही उनके आश्रय से क्रम से उपर्युक्त कृति, नोकृति और अवक्तव्यकृति इन तीनों कृतियों की धवला में विस्तार से प्ररूपणा है। जैसे सत्प्ररूपणा की अपेक्षा नरकगति में नारकी कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित हैं। आगे अन्य समस्त नारकियों और एकेन्द्रियादि तियंचों तथा यथासम्भव कुछ अन्य मार्गणाओं में भी इसी प्रकार से सत्प्ररूपणा करने की सूचना है । आहारद्विक व वक्रियिकमिश्र आदि कुछ विशिष्ट मार्गणाओं में कृतिसंचितादि कदाचित् होते हैं और कदाचित् वे नहीं भी होते हैं। जिन मार्गणाओं में उनकी प्ररूपणा नहीं की गयी है उनके विषय में धवलाकार ने यह कह दिया है कि शेष मार्गणाओं में कृति संचित नहीं हैं, क्योंकि उनमें नोकृति और अवक्तव्य कृतियों से प्रवेश सम्भव नहीं है। इस प्रकार से सत्प्ररूपणा समाप्त की गयी है। __ आगे धवला में यथाक्रम से अन्य द्रव्यप्रमाणानुगम आदि सात अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा है। प्रन्थकृति ग्रन्थकृति के स्वरूप-निर्देश के साथ सूत्र (४,१,६७) में कहा गया है कि लोक, वेद और समय विषयक जो शब्दप्रबन्धरूप तथा अक्षरकाव्यादिकों की जो ग्रन्थरचना-अक्षरकाव्यों द्वारा प्रतिपाद्य अर्थ का विषय करने वाली ग्रन्थरचना-की जाती है उस सबका नाम ग्रन्थकृति है। यह पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि धवलाकार प्रसंगप्राप्त विषय का व्याख्यान निक्षेपार्थ पूर्वक करते हैं । तदनुसार उन्होंने यहाँ ग्रन्थकृति नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ग्रन्थकृति के भेद से चार प्रकार की कही है। इस प्रसंग में उन्होंने नोआगमभावग्रन्थकृति को नोआगमभावश्रुतग्रन्थकृति और नोआगमनोभावश्रुतकृति के भेद से दो प्रकार का निर्दिष्ट किया है। यहाँ उन्होंने श्रुत के ये तीन भेद निर्दिष्ट किये हैं-लौकिक, वैदिक और सामायिक । इनमें प्रत्येक द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का बतलाया है। तदनुसार हाथी, घोड़ा, तंत्र, कौटिल्य और वात्स्यायन आदि विषयक बोध को लौकिकभावश्रुत कहा जाता है। द्वादशांग विषयक बोध का नाम वैदिकभावश्रुतग्रन्थ है। नैयायिक, वैशेषिक, लोकायत, सांख्य, मीसांसक, बौद्ध आदि १. यह गाथा यद्यपि त्रिलोकसार में गाथांक १६ में उपलब्ध है, पर वह निश्चित ही धवला से पश्चात्कालवर्ती है। सम्भवतः वह धवला से ही वहाँ ग्रन्थ का अंग बनायी गयी है। ४७४ / पदसण्डागम-परिशीलन Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनविषयक बोध सामायिकभावश्रुत ग्रन्थ कहलाता है । इनकी शब्दप्रबन्धरूप और अक्षरकाव्यों के द्वारा प्रतिपाद्य विषय से सम्बद्ध जो ग्रन्थरचना की जाती है उसका नाम श्रुतग्रन्थकृति है। नोश्रुतग्रन्थकृति अभ्यन्तर और बाह्य के भेद से दो प्रकार की है। इनमें अभ्यन्तर नोश्रुतग्रन्थकृति मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से चौदह प्रकार की तथा बाह्य नोश्रुतग्रन्थकृति क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, यान, शयन, आसन और भाण्ड के भेद से दस प्रकार की है। यहां यह शंका उत्पन्न हुई है कि क्षेत्र-वास्तु आदि को भावग्रन्थ कसे कहा जा सकता है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि कारण में कार्य के उपचार से उन्हें भावग्रन्थ कहा जाता है। इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा है कि व्यवहारनय की अपेक्षा क्षेत्र आदि ग्रन्थ हैं, क्योंकि वे अभ्यन्तर ग्रन्थ के कारण हैं। इसके परिहार का नाम निर्मन्यता है। निश्चयनय की अपेक्षा मिथ्यात्व आदि ग्रन्थ हैं, क्योंकि वे कर्मबन्ध के कारण हैं। इनके परित्याग का नाम निर्ग्रन्थता है। नैगमनय की अपेक्षा रत्नत्रय में उपयोगी बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह के परित्याग को निर्ग्रन्थता का लक्षण समझना चाहिए (पु० ६, पृ० ३२१-२४)। करणकृति करणकृति दो प्रकार की है-मूलकरणकृति और उत्तरकरणकृति। इनमें मलकरणकृति औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मण शरीरमूलकरणकृति के भेद से पांच प्रकार की है। इनमें जो औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरमूलकरण कृति है वह संघातन, परिशातन और संघातन-परिशातन के भेद से तीन प्रकार की है। किन्तु तैजस और कार्मण शरीरमलकरणकृति परिशातनकृति और संघातन-परिशातनकृति के भेद से दो प्रकार की है (सूत्र ६८-७०)। धवलाकार ने कहा है कि करणों में जो पांच शरीररूप प्रथम करण है वह मूलकरण है, क्योंकि शेष करणों की प्रवृत्ति इसी के आश्रय से होती है । आगे दूसरी एक शंका यह भी की गयी है कि कर्ता जो जीव है उससे शरीर अभिन्न है, अतः वह भी कर्ता है, इस स्थिति में वह करण कैसे हो सकता है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि जीव से शरीर कथंचित् भेद को प्राप्त है । यदि उसे जीव से कथंचित् भिन्न न माना जाय तो चेतनता और नित्यत्व आदि जो जीव के गण हैं वे शरीर में भी होना चाहिए । पर वैसा नहीं देखा जाता है। इसलिए शरीर के करण होने में कुछ विरोध नहीं है । ___ मूल करणों का कार्य जो संघातन आदि है इसी का नाम मूलकरणकृति है, क्योंकि 'क्रियते कृतिः' इस निरुक्ति के अनुसार 'कृति' का अर्थ कार्य होता है । _ विवक्षित परमाणुओं का निर्जरा के बिना जो संचय होता है, उसे संघातनकृति कहते हैं। शरीरगत उन्हीं पुद्गलस्कन्धों की संचय के बिना जो निर्जरा होती है उसे परिशासनकृति कहते हैं । विवक्षित शरीरगत पुद्गलस्कन्धों के जो आगमन और निर्जरा दोनों एक साथ होते हैं उसे संघातन-परिशातनकृति कहा जाता है। तियंच और मनुष्यों के उत्पन्न होने के प्रथम संयम में औदारिक शरीर की संघातनकृति ही होती है, क्योंकि उस समय उसके स्कन्धों की निर्जरा सम्भव नहीं है । तत्पश्चात् द्वितीयादि समयों में उसकी संघातन-परिशातनकृति होती है, क्योंकि द्वितीयादि समयों में अभव्यों से अनन्त षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ४७५ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणे और सिद्धों से अनन्तगुणे हीन औदारिकशरीरस्कन्धों का आगमन और निर्जरा दोनों पाये जाते हैं । तियंच और मनुष्यों द्वारा उत्तर शरीर के उत्पन्न करने पर औदारिक शरीर की परिशातनकृति ही होती है, क्योंकि उस समय औदारिकशरीर के स्कन्धों का आना सम्भव नहीं । इसी प्रकार से आगे वैक्रियिक आदि अन्य शरीर के विषय में भी प्रस्तुत कृति का स्पष्टीकरण किया गया है। ___ अयोगिकेवली के योग का अभाव हो जाने से बन्ध नहीं होता, इसलिए उनके तैजस और कार्मण इन दो शरीरों की परिशातनकृति ही होती है । अन्यत्र उनकी संघातन-परिशातनकृति ही होती है, क्योंकि संसार में सर्वत्र उनका आगमन और निर्जरा दोनों साथ-साथ पाये जाते हैं (पु. ६, पृ० २२४-२६)।। 'सूत्र ७१ की व्याख्या मे धवलाकार ने प्रारम्भ में यह सूचना की है कि यह सूत्र देशामशंक है इसलिए उसके द्वारा सूचित पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व अधिकारों की यहाँ प्ररूपणा की जाती है, क्योंकि उनके बिना सत्प्ररूपणा सम्भव नहीं है। तदनुसार यहाँ तीनों अधिकारों का प्ररूपण है। यथा (१) पदमीमांसा-औदारिकशरीर की संघातन कृति उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य चारों प्रकार की होती है । इसी प्रकार से परिशातन और संघातन-परिशातन ये दोनों कृतियां भी चारों प्रकार की होती हैं। इसी प्रकार अन्य शरीरों के विषय में भी इन चार पदों के विचार करने की सूचना है (पु० ६, पृ० ३२६) । (२) स्वामित्व-इस अधिकार में औदारिक आदि शरीरों की वे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य संघातन आदि कृतियाँ किनके सम्भव हैं इसका विचार है। (३) अल्पबहुत्व-अधिकार में उन्हीं औदारिक आदि शरीरों से सम्बन्धित उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य संघातन आदि कृतियों के अल्पबहुत्व का विचार है। आगे धवलाकार ने 'अब हम देशामर्शक सूत्र से सूचित अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करेंगे' ऐसी प्रतिज्ञा कर ओघ और आदेश की अपेक्षा सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों को यथाक्रम से प्ररूपणा की है (पु० ६, पृ० ३५४-४५०)। उत्तरकरणकृति मलकरणकृति की प्ररूपणा के बाद उत्तरकरणकृति के प्ररूपक सूत्र (७२) का व्याख्या में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि सूत्रनिर्दिष्ट मृत्तिका आदि उत्तरकरण किस प्रकार से हैं। समाधान में कहा है कि पांच शरीर जीव से अपृथग्भूत हैं अथवा वे अन्य समस्त करणों के कारण हैं इसलिए उन्हें 'मूलकरण' संज्ञा प्राप्त हुई है । इसी से उन्हें उत्तरकरणकृति भी कहा गया है। असि, वासि, परशु, कुदारी, चक्र, दण्ड, वेम, नालिका, शलाका, मृत्तिका, सूत्र, उदक इत्यादि उपसंपदा के सान्निध्य से उन मूलकरणों के उत्तरकरण हैं । 'उपसंपदा' का अर्थ है 'द्रव्यमुपसंपद्यते आश्रीयते एभिरिति उपसंपदानि कार्याणि' अर्थात् जो द्रव्य का आश्रय लिया करते हैं उनका नाम उपसंपद है, इस निरुक्ति के अनुसार कार्य किया गया है (पृ० ४५०-५१)। १. सूत्ररचना की पद्धति, प्रसंग व पदविन्यास को देखते हुए यह सूत्र नहीं प्रतीत होता, सम्भवतः यह धवला का अंश रहा है। ४७५ / बदलण्डागम-परिशीलन Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ মাকসকুনি भावकरणकृति के स्वरूप का उल्लेख कर सूत्रकार ने कहा है कि कृतिप्राभूत का ज्ञाता होकर जो तद्विषयक उपयोग से सहित होता है उसका नाम भावकरणकृति है। आगे उन्होंने इन सब कतियों में यहां किसका अधिकार है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा है यहाँ गणनकृति अधिकार प्राप्त है (सूत्र ७४-७६)। गणनकृति की प्ररूपणा की आवश्यकता का संकेत कर धवला में कहा गया है कि गणना के बिना चूंकि शेष अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा घटित नहीं होती है, इसलिए यहां उसकी प्ररूपणा की जा रही है (पृ० ४५२) । यह स्मरणीय है कि सूत्रकार ने यहाँ गणनकृति को प्रसगप्राप्त कह उसकी कुछ भी प्ररूपणा नहीं की। जैसाकि पूर्व में कहा जा चुका है, धवलाकार ने पूर्वोक्त गणनकति के निर्देशक सत्र (६६) को देशामर्शक बतलाकर उसके आश्रय से स्वयं ही विस्तारपूर्वक प्रकृत गणनकति की प्ररूपणा की है (पु० ६, पृ० २७४-३२१)। यह 'कृति' अनुयोगद्वार मूलग्रन्थ के रूप में अतिशय संक्षिप्त है, उसमें केवल ७६ सूत्र ही हैं। उनमें भी प्रारम्भ के ४४ सूत्र मंगलपरक हैं, शेष ३२ सूत्र ही 'कृति' से सम्बद्ध हैं। उसका विस्तार धवलाकार आ० वीरसेन ने अपनी सैद्धान्तिक कुशलता के बल पर किया है। २. वेदना अनुयोगद्वार ___ यह 'वेदना' नामक चतुर्थ खण्ड का दूसरा अनुयोगद्वार है। अवान्तर १६ अनुयोगद्वारों के आधार पर इसका विस्तार अधिक हुआ है । इसी विस्तार के कारण षट्खण्डागम का चौथा खण्ड 'वेदना' के नाम प्रसिद्ध हुआ है। इसमें १६ अनुयोगद्वार हैं, जिनका उल्लेख पीछे 'मूलग्रन्थगत-विषयपरिचय' में किया जा चुका है। उनमें प्रथम 'वेदना निक्षेप' अनुयोगद्वार है। (१) वेदनानिक्षेप-यहां सूत्रकार ने वेदना के इन चार भेदों का उल्लेख किया है-- नामवेदना, स्थापनावेदना, द्रव्यवेदना और भाववेदना (सूत्र ४,२,१,२-३)। धवला में वेदनानिक्षेप के अन्य अवान्तर भेदों का भी उल्लेख है । उनमें नोआगमद्रव्यवेदना के ज्ञायकशरीर आदि तीन भेदों में तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यवेदना के ये दो भेद बतलाये गये हैं-कर्मद्रव्यवेदना और नोकर्मद्रव्यवेदना । इनमें कर्मद्रव्यवेदना ज्ञानावरणीय आदि के भेद से आठ प्रकार की तथा नोकर्मद्रव्यवेदना सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार की है। इनमें सिद्ध जीवद्रव्य को सचित्त द्रव्यवेदना और पुद्गल, काल, आकाश, धर्म व अधर्म द्रव्यवेदना को अचित्तद्रव्यवेदना कहा गया है। मिश्रद्रव्यवेदना संसारी जीवद्रव्य है, क्योंकि जीव में जो कर्म और नोकर्म का समवाय है. वह जीव और अजीव से भिन्न जात्यन्तर (मिश्र) के रूप में उपलब्ध होता है। भाववेदना की दूसरी भेदभूत नोआगमभाववेदना जीवभाववेदना और अजीवभाववेदना के भेद से दो प्रकार की है। इनमें जीवभाववेदना औदयिक आदि के भेद से पांच प्रकार की है। उनमें आठ कर्मों के उदय से उत्पन्न वेदना को औदयिक वेदना, उन्हीं के उपशम से उत्पन्न वेदना को औपशमिक वेदना और उनके क्षय से उत्पन्न वेदना को क्षायिक वेदना कहा गया है । उन्हीं के क्षयोपशम से जो अवधिज्ञानादिरूप वेदना होती है उसका नाम क्षायोपशमिक वेदमा है। पदसण्डागम पर टीकाएँ / ४७७ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव, भव्य और उपयोगादिस्वरूप वेदना पारिणामिक वेदना कहलाती है। अजीवभाववेदना औदयिक और पारिणामिक के भेद से दो प्रकार की है। इनमें प्रत्येक पांच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध और आठ स्पर्श आदि के भेद से अनेक प्रकार की है। यहां जीवशरीरगत उन रसादिकों को औदयिक और शुद्ध पुद्गलगत उक्त रसादिकों को पारिणामिक वेदना जानना चाहिए (पु. १०, पृ० ५-८)। (२) वेदनानयविभाषणता-इस अनुयोगद्वार में कोन नय किस वेदना को स्वीकार करता है और किसे स्वीकार नहीं करता है, इसका स्पष्टीकरण मूल सूत्रों (१-४) में किया गया है। उपर्युक्त वेदनाओं में यहाँ किस नय की अपेक्षा कौन-सी वेदना प्रकृत है, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि द्रव्याथिकनय की अपेक्षा बन्ध, उदय व सत्त्वस्वरूप नोआगमकर्मद्रव्यवेदना प्रकृत है। ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा उदयगत कर्मद्रव्यवेदना प्रकृत है । सूत्र (४) में कहा गया है कि शन्दनय नामवेदना और भाववेदना को स्वीकार करती है। इस सम्बन्ध में धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि शब्दनय की अपेक्षा कर्म के बन्ध और उदय से उत्पन्न होनेवाली भाववेदना का यहाँ अधिकार नहीं है, क्योंकि यहां भाव की अपेक्षा प्ररूपणा नहीं की जा रही है (पु० १०, पृ० १२)। (३) वेदनानामविधान-इस प्रसंग में यहाँ प्रथमतः नैगम और व्यवहारनय की अपेक्षा वेदना का विधान कहा जाता है, ऐसी सूचना करते हुए धवला में कहा गया है कि नोआगमकर्मद्रव्यवेदना ज्ञानावरणीयादि के भेद से आठ प्रकार की है, क्योंकि उनके बिना अज्ञान व अदर्शन आदिरूप जो आठ प्रकार का कार्य देखा जाता है वह घटित नहीं होता। कार्य का भेद कारण के भेद से ही हुआ करता है। आगे नामप्ररूपणा के प्रसंग में 'ज्ञानावरणीयवेदना' नाम को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि 'ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयम्' इस निरुक्ति के अनुसार जो ज्ञान का आवरण करता है उस कर्मद्रव्य का नाम ज्ञानावरणीय है। 'ज्ञानावरणीयमेव वेदना ज्ञानावरणीयवेदना' इस प्रकार से कर्मधारय समास का विधान कर 'ज्ञानावरणीयस्य वेदना इस प्रकार के तत्पुरुष समाम का निषेध किया है, क्योंकि द्रव्याथिकनयों में भाव की प्रधानता नहीं होती। तदनुसार यहाँ ज्ञानावरणीय कर्म द्रव्य ही 'ज्ञानावरणीय वेदना' के रूप में विवक्षित है। ४. वेदनाद्रध्यविधान-इस अनुयोगद्वार में वेदनारूप द्रव्य की प्ररूपणा की गयी है । उसमें सूत्रकार ने इन तीन अनुयोगद्वारों का निर्देश किया है-पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व। पदमीमांसा को स्पष्ट करते हुए धवला में पद के दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-व्यवस्थापद और भेदपद । जिसका जिसमें अवस्थान होता है उसका वह पद होता है, उसे स्थान भी कहा जाता है। जैसे-सिद्धों का पद सिद्धक्षेत्र तथा अर्थावगम का पद अर्थालाप। भेदपद को स्पष्ट करते हुए उसकी निरुक्ति इस प्रकार की गयी है-पद्यते गम्यते परिच्छिद्यते इति पदम् । अर्थात् जो जाना जाता है वह 'पद' है। भेद, विशेष व पृथक्त्व ये समानार्थक शब्द हैं। यहाँ कर्मधारय समास-(भेद एव पदं भेदपदम्) के आश्रय से भेदरूप पद को ही भेदपद कहा गया है। यहाँ अधिकार विवक्षा से भेदपद तेरह हैं-उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, सादि, अनादि, ध्रुव, अध्र व, ओज, युग्म, ओम, विशिष्ट और नोम-नोविशिष्ट । इस अनुयोगद्वार में इन्हीं तेरह पदों की मीमांसा की गयी है। स्वामित्व अनुयोगद्वार में उत्कृष्ट, ४७८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य इन चार पदों के योग्य जीवों की प्ररूपणा है। अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में भी इन्हीं चार पदों के अल्पबहुत्व की व्याख्या है (पु० १०, पृ० १८-१६)। आगे 'क्या ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्य से उत्कृष्ट है या अनुत्कृष्ट, जघन्य है या अजघन्य' इस पृच्छासूत्र (४,२,४,२) की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने प्रारम्भ में यह सूचना की है कि यह पृच्छासूत्र देशामर्शक है इसलिए यहाँ उपर्युक्त चार पृच्छाओं के साथ अन्य नौ पृच्छाओं को भी करना चाहिए; क्योंकि इसके बिना सूत्र के असम्पूर्ण होने का प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के पारंगत भूतबलि भट्टारक असम्पूर्ण सूत्र नहीं रच सकते हैं, क्योंकि उस का कोई कारण नहीं है। इसलिए इस सूत्र को ज्ञानावरणीयवेदना क्या उत्कृष्ट है, अनुत्कृष्ट है, जघन्य है, अजघन्य है, सादि है, अनादि है, ध्र व है, अध्र व है, ओज है, युग्म है, ओम है, विशिष्ट है या नोम-नोविशिष्ट है, इन तेरह पदविषयक पृच्छाओं से गर्भित समझना चाहिए। धवला में आगे कहा गया है कि इस प्रकार विशेष के अभाव से ज्ञानावरणीय वेदना की सामान्य प्ररूपणा के विषय में इन पृच्छाओं की प्ररूपणा है। सामान्य चूंकि विशेष का अविनाभावी है, इसलिए हम यहां विशेष रूप में इसी सूत्र से सूचित उन तेरह पदविषयक इन पृच्छाओं की प्ररूपणा करते हैं-उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय वेदना क्या अनुत्कृष्ट है, जघन्य है, अजघन्य है, सादि है, अनादि है, ध्रुव है, अध्र व है, ओज है, युग्म है, ओम है, विशिष्ट है और क्या नोमनोविशिष्ट है; इस प्रकार ये बारह पृच्छाएं उत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदना के विषय में अपेक्षित हैं। इसी प्रकार से अनुत्कृष्ट, जघन्य व अजघन्य आदि अन्य बारह पदों में पृथक्-पृथक् प्रत्येक पद के विषय में भी करना चाहिए। इन समस्त पृच्छाओं का योग एक सौ उनत्तर होता हैसामान्य पृच्छाएँ १३, विशेष पृच्छाएँ १३१२= १५६; १३+१५६ == १६६ । निष्कर्ष के रूप में धवलाकार ने कहा है कि इससे प्रकृत देशामर्शक सूत्र में अन्य तेरह सूत्र प्रविष्ट हैं, यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए। पूर्व सूत्र में निर्दिष्ट चार पृच्छाओं के सन्दर्भ में कहा है कि ज्ञानावरणीय वेदना उत्कृष्ट भी है, अनुत्कष्ट भी है, जघन्य भी है और अजघन्य भी है (सूत्र ४,२,४,३)। ___इसकी व्याख्या में धवला में कहा है कि यह सूत्र भी देशामर्शक है इसलिए सूत्रनिर्दिष्ट उन चार पदों के साथ सादि-अनादि आदि शेष नौ पदों को भी यहाँ कहना चाहिए। उसके देशामर्शक होने से ही शेष तेरह सूत्रों का अन्तर्भाव कहना चाहिए । तदनुसार प्रथम सूत्र की प्ररूपणा करते हुए स्पष्ट किया गया है कि ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् उत्कृष्ट है, क्योंकि भवस्थिति के अन्तिम समय में वर्तमान गुणितकर्माशिक सातवीं पृथिवी के नारकी के उत्कृष्ट द्रव्य पाया जाता है। वह कथंचित् अनुत्कृष्ट भी है, क्योंकि कर्मस्थिति के अन्तिम समयवर्ती गुणितकर्माशिक को छोड़कर अन्यत्र सर्वत्र अनुत्कृष्ट द्रव्य पाया जाता है । वह कथंचित् जघन्य भी है, क्योंकि क्षपितकर्माशिक क्षीणकषाय के अन्तिम समय में जघन्य द्रव्य पाया जाता है। वह कथंचित् अजघन्य भी है, क्योंकि शुद्ध नय से क्षपितकर्माशिक क्षीणकषाय के अन्तिम समय को छोड़कर अन्यत्र सर्वत्र ही अजघन्य द्रव्य पाया जाता है। वह कथंचित् सादि है, क्योंकि उत्कृष्ट आदि पद एक स्वरूप से अवस्थित नहीं रहते । वह कथंचित् अनादि है, क्योंकि जीव और कर्मों के बन्धसामान्य सादि होने का विरोध है। वह कथंचित् ध्रुव है, क्योंकि अभव्यों और अभव्य समान भव्यों के भी सामान्य ज्ञानावरण का विनाश सम्भव नहीं है। वह कथंचित् अध्र व है, क्योंकि केवली के मानावरण का विनाश पाया जाता है, अथवा चारों पदों का शाश्वतिक रूप में अवस्थान सम्भव पदण्डागम पर टीकाएँ / Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है। कथंचित् वह युग्म है, क्योंकि ज्ञानावरण में द्रव्य का सम होना सम्भव है। प्रसंगवश यहाँ युग्म आदि का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि युग्म और समय समानार्थक शब्द हैं । युग्म कृतयुग्म और बादरयुग्म के भेद से दो प्रकार का है। जो संख्या चार (४) से अपहृत हो जाती है उसे कृतयुग्म कहा जाता है; जैसे १६ : ४ ==४ । जिस संख्या को चार से अपहृत करने पर (२) अंक शेष रहते हैं वह बादरयुग्म कहलाती है; जैसे १४ : ४=३, शेष २। जिस संख्या में चार से अपहृत करने पर एक (१) शेष रहता है उसका नाम कलिओज है। जैसे १३:४=३; शेष १ । जिस संख्या को चार से अपहृत करने पर तीन अंक शेष रहते हैं उसे तेजोज कहते हैं; जैसे १५ : ४=३, शेष ३ । __ कथंचित् वह ओज है, क्योंकि कहीं पर वह ज्ञानावरणद्रव्य विषम संख्या में देखा जाता है। कथंचित् वह ओम है, क्योंकि कभी प्रदेशों का अपचय देखा जाता है । कथंचित् वह विशिष्ट है, क्योंकि कभी व्यय की अपेक्षा आय अधिक देखी जाती है। कथंचित् वह नोम-नोविशिष्ट है, क्योंकि प्रत्येक पदावयव की विवक्षा में वृद्धि-हानि का अभाव सम्भव है। इस प्रकार से धवला में प्रथम सूत्र की प्ररूपणा की गयी है (पु० १०, पृ० २२-२३)। इसी पद्धति से आगे धवला में दूसरे से चौदहवें सूत्र तक की प्ररूपणा है। स्वामित्व के प्रसंग में सूत्रकार ने उत्कृष्ट पदरूप और जघन्यपदरूप दो ही प्रकार के स्वामित्व का उल्लेख किया है। सर्वप्रथम द्रव्य की अपेक्षा उत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदना किसके होती है, इसे स्पष्ट करते हुए निष्कर्ष के रूप में कहा है कि वह गुणित कर्माशिक जीव के सातवीं पृथ्वी में अवस्थित रहने पर उस भव के अन्तिम समय में होती है । गुणितकौशिक की अनेक विशेषताओं का भी वहाँ २६ (७ से ३२) सूत्रों में विवेचन है । उन सब विशेषताओं को संक्षेप में 'मूलग्रन्थगत-विषय-परिचय' में दिखाया जा चुका है। इस प्रसंग में एक सूत्र (४,२,४,२८) में यह निर्देश है कि उपर्युक्त प्रकार से परिभ्रमण करता हुआ जीवित के थोड़ा शेष रह जाने पर योगमध्य के ऊपर अन्तर्मुहूर्त रहा है। . इसकी व्याख्या में धवला में कहा गया है कि द्वीन्द्रिय पर्याप्त के सर्वजघन्य परिणाम योगस्थान को आदि करके संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के उत्कृष्ट योगस्थान तक सब योगस्थानों को ग्रहण करके उन्हें पंक्ति के आकार से स्थापित करने पर उनका आयाम श्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र होता है। उनमें सर्वजघत्य परिणाम योगस्थान को आदि करके आगे के श्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र योगस्थान चार समय के योग्य हैं । उससे आगे के श्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थान पाँच समय के योग्य होते हैं। इसी प्रकार आगे के पृथक्-पृथक् छह, सात और आठ समय योग्य योगस्थान श्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र हैं। आगे के यथाक्रम से सात, छह, पांच, चार, तीन और दो समय योग्य योगस्थान श्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र हैं। उनका अल्पबहुत्व दिखलाते हुए धवला में कहा गया है कि योगस्थानों का विशेषणभूत काल अपनी संख्या की अपेक्षा यव के आकार है, क्योंकि वह यव के समान मध्य में स्थूल होकर दोनों पार्श्व भागों में क्रम से हानि को प्राप्त हुआ है । इन चार-पाँच आदि समयों से विशेषित योगस्थान भी ग्यारह प्रकार का है । यवाकार होने से योग को ही यव कहा गया है । योग का मध्य आठ समय योग्य योगस्थान है। उसके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल रहा है । यह योगयवमध्य संज्ञा जीवमध्य की है। आगे यह सब स्पष्ट करने के लिए धवला में योगस्थानों में स्थित जीवों को आधार करके ४८० | षट्खण्डागम-परिशीलन Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगयवमध्य के अधस्तन अध्वान से उपरिम की विशेष अधिकता के प्रतिपादनार्थ प्ररूपणा, प्रेमाणे, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहत्व इन छह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की गयी है। अन्त में निष्कर्ष रूप में कहा गया है कि जीवयवमध्य के अधस्तन अध्वान से उपरिम अध्वान के विशेष अधिक होने से यहाँ अन्तर्मुहूर्त काल रहना सम्भव नहीं है, इसलिए कालयवमध्य के ऊपर अन्तर्मुहर्त काल रहा, यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए (पु० १०, पृ० ५७-९८)। सूत्र (४,२,४,२९) में निर्दिष्ट 'अन्तिमजीवगुणहानिस्थानान्तर में आवली के असंख्यातवें भाग रहा' की व्याख्या के बाद धवला में अन्त में कहा गया है कि नारकभव को विवक्षित कर इन सूत्रों की प्ररूपणा की गयी है। उनके देशामर्शक होने से गुणितकौशिक के सभी भवों में उनकी पृथक-पृथक प्ररूपणा कर लेना चाहिए। कारण यह कि एक भव में यवमध्य के ऊपर अन्तर्मुहर्त और अन्तिम गुणहानि में आवली के असंख्यातवें भाग ही नहीं रहता है, जहां जितना काल सम्भव है वहां पर उतने काल अवस्थान की प्ररूपणा की गयी है (पु० १०, पृ० १८-१०७)। नारकभव के अन्तिम समय में वर्तमानगुणितकांशिक के द्रव्य की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट वेदना किस प्रकार से सम्भव है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि इस प्रकार इस विधान से संचित उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय द्रव्य का उपसंहार कहा जाता है। कर्मस्थिति के प्रथम समय से लेकर उसके अन्तिम समय तक बांधे गये सब समयप्रबद्धों की अथवा प्रत्येक के प्रमाण की परीक्षा का नाम उपसंहार है। उसमें तीन अनुयोगद्वार हैं-- संचयानुगम, भागहारप्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व । इनके आश्रय से क्रमशः ज्ञानावरणीय के उत्कृष्ट द्रव्य की यहाँ विस्तार से प्ररूपणा है (पु० १०, पृ० १०६-२१०)। ज्ञानावरणीय की द्रव्य की अपेक्षा अनुत्कृष्ट वेदना किसके होती है, इसके प्रसंग में सूत्र में संक्षेप से यह कह दिया है कि उपर्युक्त उत्कृष्ट वेदना से भिन्न उसकी अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना है (सूत्र ४,२,४,३३) । इसकी व्याख्या में कहा गया है कि अपकर्षण के वश उसके पूर्वोक्त उत्कृष्ट द्रव्य में से एक परमाणु के हीन होने पर उस अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना का उत्कृष्ट विकल्प होता है। आगे उसमें किस क्रम से हानि के होने पर उस अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना के अन्य-अन्य विकल्प होते हैं, इसका विचार किया गया है। ___ इसी प्रसंग में वहाँ गुणितकौशिक, गुणितघोलमान, क्षपितघोलमान और क्षपितकौशिक जीवों के आश्रय से पुनरुक्त स्थानों का भी निरूपण है । त्रसजीव प्रायोग्य स्थानों के जीवसमुदाहार के कथन के प्रसंग में प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व इन छह अनुयोगद्वारों का भी निर्देश है और उनके आश्रय से जीवसमुदाहार की प्ररूपणा भी की गयी है (पु० १०, पृ० २१०-२४)। छह कर्मों की द्रव्यवेदना सूत्रकार ने आगे के सूत्र में यह सूचना कर दी है कि जिस प्रकार ज्ञानावरणीय के उत्कृष्टअनुत्कृष्ट द्रव्य की प्ररूपणा की गयी है उसी प्रकार आयु को छोड़कर दर्शनावरणीय आदि शेष छह कर्मों के भी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट द्रव्य की प्ररूपणा करना चाहिए । (सूत्र ४,२,४,३४) इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि ज्ञानावरणीय की प्ररूपणा से उन छह कर्मों बदमागम पर टीकाएँ / ४१ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की द्रव्यवेदना को प्ररूपणा में इतनी विशेषता है कि मोहनीय के प्रसंग में उस गुणितकांशिक जीव को त्रसस्थिति से हीन चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम काल तक तथा नाम व गोत्र के प्रसंग में उसे उस त्रसस्थिति से हीन बीस कोडाकोड़ी सागरोपम काल तक बादर एकेन्द्रियों में परिभ्रमण कराना चाहिए । गुणहानिशलाकाओं और अन्योन्याभ्यस्त राशियों के विशेष को भी जानना चाहिए। आयु को उत्कृष्ट द्रव्यवेदना द्रव्य की अपेक्षा आयु कर्म की उत्कृष्ट वेदना किसके होती है, इसका स्पष्टीकरण सूत्रकार ने बारह (३५-४६) सूत्रों में किया है। जिस जीव के आयुकर्म की उत्कृष्ट द्रव्यवेदना सम्भव है, उसके सर्वप्रथम ये पांच लक्षण निर्दिष्ट किये गये हैं--(१) वह पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाला होना चाहिए, (२) वह जलचर जीवों में पूर्वकोटि प्रमाण परभविक आयु का बांधनेवाला होना चाहिए, (३) वह दीर्घआयुबन्धक काल में उसे बांधता है, (४) उसके योग्य संक्लेश से उसे बांधता है तथा (५) उत्कृष्ट योग में उसे बाँधता है। १. उसके इन लक्षणों को स्पष्ट कर धवला में कहा है कि जिसके उत्कृष्ट आयुवेदना सम्भव है उसे पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाला इसलिए होना चाहिए कि जो जीव पूर्वकोटि के तृतीय भाग को आबाधा करके परभविक आयु बाँधते हैं उन्हीं के उत्कृष्ट बन्धककाल सम्भव है। २. जलचरों में पूर्वकोटि प्रमाण आयु का बन्धक क्यों होना चाहिए, इस दूसरे लक्षण के सम्बन्ध में कहा गया है कि जिस प्रकार ज्ञानावरणादि अन्य कर्मों का उदय, जिस भव में उन्हें बांधा जाता है, उसी भव में बन्धावलि के बीतने पर हुआ करता है उस प्रकार बांधे गये आयुकर्म का उदय उस भव में सम्भव नहीं है, उसका उदय अगले भव में ही होता है। __यहां यह शंका होती है कि पूर्वकोटि की अपेक्षा दीर्घ आयु को क्यों नहीं बंधाया गया, क्योंकि प्रथमादि गोपुच्छाओं के स्तोक होने से वहां निर्जरा कम हो सकती थी। इसके समाधान में कहा है कि पूर्वकोटि से एक-दो समयादि से अधिक जितने भी आयु के विकल्प हैं उनमें उसका घात सम्भव नहीं है इसलिए पूर्वकोटि से अधिक आय को बांधनेवाला जीव परभविक आयु के बन्ध के बिना छह मास हीन सब भुज्यमान आयु को गला देता है। इसलिए परभविक आयु के बन्ध के समय उसके आयुद्रव्य का बहुत संचय नहीं हो पाता है। यहाँ यह स्मरणीय है कि देव-नारकियों व असंख्यात वर्ष की आयुवाले मनुष्य-तियंचों के भुज्यमान आयु में छह मास शेष रह जाने पर ही विभाग में परभविक आयु का बन्ध हुआ करता है।' पूर्वकोटि से नीचे की आयु को इसलिए नहीं बंधाया गया कि स्तोक आयुस्थिति की स्थूल गोपुच्छाओं के मरहट की घटिकाओं की जलधारा के समान निरन्तर गलाने पर निर्जरा अधिक होनेवाली थी। जलचर जीवों में आयु को क्यों बंधाया गया, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा है कि विवेक का अभाव होने से वे संक्लेश से रहित होकर अधिक साता से युक्त होते हैं, इसलिए १. पिरुवक्कमाउआ पुण छम्मासावसेसे आउअबंधपाओग्गा होति ।-धवला पु० १०, पृ० २३४; पु० ६, पृ० १७० व उसका टिप्पण १ भी द्रष्टव्य हैं । ४८२ / षट्सपभगम-परिशीलन Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके अवलम्बनाकरण' द्वारा विनष्ट किया जानेवाला द्रव्य बहुत नहीं होता है । ३. वह दीर्घ बन्धककाल में ही उसे बाँधता है, यह जो उसकी तीसरी विशेषता प्रकट की गयी थी उसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि पूर्वकोटि के त्रिभाग को आबाधा करके आयु के बांधनेवालों की वह आयु जघन्य भी होती है और उत्कृष्ट भी होती है । उसमें जघन्य बन्धककाल का निषेध करने के लिए सूत्र में उत्कृष्ट बन्धककाल का निर्देश किया गया है । यह उत्कृष्ट बन्धककाल प्रथम अपकर्ष में ही होता है, अन्य द्वितीयादि अपकर्षों में नहीं । वह उत्कृष्ट बन्धककाल प्रथम अपकर्ष में ही होता है, इसकी पुष्टि में धवलाकार ने महाबन्ध में निर्दिष्ट आयुबन्धककाल के अल्पबहुत्व को उद्धृत किया है। बार, यह भी स्पष्ट किया गया है कि जो जीव सोपक्रम आयुवाले होते हैं वे अपनी-अपनी भुज्यमान आयु के दो त्रिभागों के बीत जाने पर असंक्षेपाद्धाकाल तक परभविक आयु के बन्ध योग्य होते हैं | आयु के बन्ध योग्य उस काल के भीतर कितने ही जीव आठ बार, कितने ही सात कितने ही छह बार कितने ही पांच बार, कितने ही चार बार कितने ही तीन बार, कितने ही दो बार, कितने ही एक बार आयु के बन्ध योग्य परिणामों से परिणत होते हैं । जिन जीवों ने भुज्यमान आयु के तृतीय त्रिभाग के प्रथम समय में परभविक आयु के बन्ध को प्रारम्भ किया है वे अन्तर्मुहूर्त में उस बन्ध को समाप्त कर भुज्यमान समस्त आयु में नौवें भाग (त्रिभाग के त्रिभाग) के शेष रह जाने पर फिर से भी उसके बन्धयोग्य होते हैं । इसी प्रकार से आगे समस्त आयु के सत्ताईसवें भाग के शेष रह जाने पर फिर से भी उसके बन्ध योग्य होते हैं । इसी से आगे आठवें अपकर्ष तक उत्तरोत्तर शेष त्रिभाग के तृतीय भाग के शेष रह जाने पर वे उसके पुनः-पुनः बन्ध योग्य होते हैं । भुज्यमान आयु के तृतीय भाग के शेष रह जाने पर परभविक आयु का बन्ध होता ही हो, ऐसा नियम नहीं है । किन्तु वे उस समय परभविक आयु के बन्ध योग्य होते हैं, यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए। क्रम जो जीव निरुवक्रम आयुवाले होते हैं वे भुज्यमान आयु के छह मास शेष रह जाने पर आयु के बन्ध योग्य होते हैं । उसमें भी पूर्वोक्त क्रम के अनुसार आठ अपवर्षों को समझना चाहिए । ४. तत्प्रायोग्य संक्लेश से उसे क्यों बाँधता है, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि जिस प्रकार ज्ञानावरणादि अन्य कर्म उत्कृष्ट संक्लेश और उत्कृष्ट विशुद्धि से बँधते हैं उस प्रकार से आयु कर्म नहीं बँधता है; वह मध्यम संक्लेश से बँधता है, इसके ज्ञापनार्थं सूत्र में 'तत्प्रायोग्यसंक्लेश' को ग्रहण किया गया है। ५. ‘तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योग' रूप पाँचवीं विशेषता को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि दो समयों को छोड़कर उत्कृष्ट आयुबन्धक मात्र काल तक उत्कृष्ट योग से परिणमन सम्भव नहीं है, इसलिए जब तक शक्य होता है तब तक उत्कृष्ट ही योगस्थानों से परिणत होकर जो उसे बाँधता है वह उत्कृष्ट द्रव्य का स्वामी होता है, यह उसका अभिप्राय समझना चाहिए (पु० १०, पृ० २२५-३५) । इसी प्रकार सूत्रकार द्वारा आगे के कुछ सूत्रों (३७-४६) में भी उसकी जिन अनेक विशेषताओं का उल्लेख किया गया है उनका स्पष्टीकरण यथा प्रसंग धवला में कर दिया गया है। १. परभविआउवउवरिमट्ठिदिदव्वस्स ओकड्डणाए हेट्ठाणिवद गमवलंबणाकरणं णाम । - धवला पु० १०, पृ० ३३०-३१ बट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४८३ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्त में यहाँ 'अब उपसंहार कहा जाता है ऐसी सूचना के साथ जिन विशेषताओं को प्रकट किया गया है उन सबका उल्लेख धवला में विस्तारपूर्वक है। सूत्र में जो आगे आयु की अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना को उत्कृष्ट द्रव्यवेदना से भिन्न निर्दिष्ट किया गया है उसका स्पष्टीकरण भी धवला में विस्तार से किया गया है (पु० १०, पृ० २५५-६८)। ज्ञानवरणीय को जघन्य द्रव्यवेदना ज्ञानावरणीय की जघन्य द्रव्यवेदना क्षपितकौशिक क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती जीव के उसके अन्तिम समय में होती है। उसकी जिन विशेषताओं को यहां प्रकट किया गया है वे सब प्रायः पूर्वोक्त ज्ञानावरण की उत्कृष्ट द्रव्यवेदना के स्वामी गुणितकौशिक की विशेषताओं से विपरीत हैं (पु० १०, पृ० २६८-६९)। _ 'इससे भिन्न उसकी अजघन्य द्रव्यवेदना है' इस सूत्र (४,२,४,७६) के अभिप्राय को भी धवलाकार ने आवश्यकतानुसार स्पष्ट कर दिया है। ___इसी पद्धति से आगे सूत्रकार द्वारा दर्शनावरणीयादि अन्य कर्मों की जघन्य-अजघन्य द्रव्यवेदना की प्ररूपणा की गयी है । उसमें जो थोड़ी विशेषता रही है उसका स्पष्टीकरण भी धवला में किया गया है। आयु की जघन्य द्रव्यवेदना से भिन्न उसकी अजघन्य द्रव्यवेदना है, इस प्रकार से सूत्र (४,२,४,१२२) में जो आयुकर्म के अजघन्य द्रव्य की संक्षेप में सूचना की गयी है उसका धवला में विस्तार से विश्लेषण हुआ है (पु० १०, पृ० ३६६-८४)। इस प्रकार वेदनाद्रव्यविधान के अन्तर्गत दूसरा 'स्वामित्व' अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है। अल्पबहुत्व वेदनाद्रव्यविधान के इस तीसरे अनुयोगद्वार में सूत्रकार ने जो जघन्यपद, उत्कृष्टपद और जघन्य-उत्कृष्टपद इन तीन अनुयोगद्वारों के आश्रय से वेदनाद्रव्यविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की है उसमें कुछ विशेष व्याख्येय तत्त्व नहीं है, वह मूलग्रन्थ से ही स्पष्ट है। वेदनाद्रव्यविधान चूलिका पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन सीन अनुयोगद्वारों के आश्रय से वेदनाद्रव्य की प्ररूपणा के बाद सूत्रकार ने कहा है कि यहां जो यह कहा गया है कि 'बहुत-बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानों और जघन्य योगस्थानों को प्राप्त होता है उसके प्रसंग में अल्पबहुत्व दो प्रकार है-योगस्थानअल्पबहुत्व और प्रदेशअल्पबहुत्व (सूत्र ४,२,४,१४४)। यहाँ धवला में यह शंका उठायी गयी है कि उक्त पदमीमांसादि तीन अनुयोगद्वारों के आश्रय से वेदनाद्रव्यविधान की प्ररूपणा करके उसके समाप्त हो जाने पर आगे का ग्रन्थ किस लिए कहा जा रहा है, धवला में इसका समाधान है। तदनुसार उत्कृष्ट द्रव्यवेदना के स्वामित्व के प्रसंग में 'बहुत-बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त होता है (सूत्र १२) तथा जघन्य स्वामित्व के प्रसंग में भी बहुत-बहुत बार जघन्य योगास्थानों को प्राप्त होता है' (सूत्र ५४) यह कहा गया है। इन दोनों ही सूत्रों का अर्थ भली-भांति अवगत नहीं हुआ, इसलिए इन दोनों सूत्रों के विषय में शिष्यों को निश्चय उत्पन्न कराने के लिए योगविषयक / पदसण्डागम-परिशीलन Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्ररूपणा की जा रही है। अभिप्राय यह है कि वेदनाद्रव्यविधान की चूलिका के प्ररूपणार्थ आगे का ग्रन्थ आया है। क्योंकि सूत्रों से सूचित अर्थ की प्ररूपणा करना, यह चूलिका का लक्षण है। जैसी कि सूत्रकार द्वारा सूचना की गयी है, यहाँ मूल ग्रन्थ में प्रथमतः योगविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा है (सूत्र ४,२,४,१४४-७३) । अन्तिम (१७३३) सूत्र की व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि यह मूलवीणा का अल्पबहुत्व आलाप देशामर्शक है, क्योंकि उसमें प्ररूपणा आदि अनुयोगद्वारों की सूचना की गयी है। इसलिए यहाँ प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की जाती है। योगप्ररूपणा योगों की प्ररूपणा में सूत्रकार ने दस अनुयोंगद्वारों का निर्देश किया है। (सूत्र ४,२,४,१७५-७६) प्रथम सूत्र की व्याख्या के प्रसंग में प्रथमतः धवलाकार ने योगविषयक निक्षेपार्थ को प्रकट करते हुए उसके ये चार भेद निर्दिष्ट किये हैं—नामयोग, स्थापनायोग, द्रव्ययोग और भावयोग । इस प्रसंग में नोआगमद्रव्ययोग के अन्तर्गत तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्ययोग को अनेक प्रकार का बतलाते हुए उनमें कुछ का उल्लेख इस प्रकार किया गया है--सूर्य-नक्षत्रयोग, चन्द्र-नक्षत्रयोग, ग्रह-नक्षत्रयोग, कोण-अंगारयोग, चूर्णयोग मन्त्रयोग इत्यादि। भावयोग के प्रसंग में नोआगमभावयोग के ये तीन भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-गुणयोग, सम्भवयोग और योजनायोग । इनमें गुणयोग सचित्तगुणयोग और अचित्तगुणयोग के भेद से दो प्रकार का है । रूप-रसादि के साथ पुद्गलद्रव्य का जो योग है, यह अचित्तगुणयोग है। इसी प्रकार आकाश-कालादि द्रव्यों का जो अपने-अपने गुणों के साथ योग है, इसे भी अचित्तगणयोग जानना चाहिए। सचित्तगुणयोग औदयिक आदि के भेद से पाँच प्रकार का है। उनमें गति-लिंग आदि के साथ जीव का योग है, यह औदयिक गुणयोग है । औपशमिक सम्यक्त्व व संयम के साथ जो जीव का योग है वह औपशमिक गुणयोग कहलाता है। केवलज्ञान-दर्शन आदि के साथ होनेवाले जीव के योग को क्षायिकगुणयोग कहा जाता है । अवधिज्ञान व मनःपर्ययज्ञान आदि के साथ जो जीव का योग है उसका नाम क्षायोपशमिकगुणयोग है। जीवत्व व भव्यत्व आदि के साथ रहनेवाला जीव का योग पारिणामिकगुणयोग कहलाता है । देव मेरु के चलाने में समर्थ है इस प्रकार के योग का नाम सम्भवयोग है। योजनायोग तीन प्रकार का है-उपपादयोग, एकान्तानुवृद्धियोग और परिणामयोग । इन सब योगभेदों में यहाँ योजनायोग अधिकारप्राप्त है, क्योंकि शेष योगों से कर्मप्रदेशों का आना सम्भव नहीं है (पु० १०, पृ० ४३२-३४)। धवला में 'स्थान' को भी नाम, स्थापना, द्रव्य और भावस्थान के भेद से चार प्रकार का बतलाकर उनके अवान्तर भेदों को भी स्पष्ट करते हुए प्रकृत में औदयिक भावस्थान को अधिकारप्राप्त कहा गया है, क्योंकि तत्प्रायोग्य अघातिया कर्मों के उदय से योग उत्पन्न होता है। सूत्रकार ने प्रकृत योगस्थान प्ररूपणा में अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा व वर्गप्ररूपणा आदि जिन दस अनुयोगद्वारों का निर्देश किया है उनमें वर्गणाप्ररूपणा के प्रसंग में धवलाकार ने षटाण्डागम पर टीकाएं | ४८५ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'यहाँ गुरु के उपदेशानुसार छह अनुयोगद्वारों के आश्रय से वर्गणाजीवप्रदेशों की प्ररूपणा की जाती है' ऐसी सूचना कर प्ररूपणा, प्रमाण; श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व इन छह अनुयोगद्वारों में वर्गणा सम्बन्धी जीवप्रदेशों की प्ररूपणा की है (पु० १०, पृ० ४४२-५१)। स्थानप्ररूपणा के प्रसंग में एक जघन्य योगस्थान कितने स्पर्धकों का होता है, इसके स्पष्टीकरण में धवलाकार ने इन तीन अनुयोद्वारों का निर्देश किया है-प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व । इनमें से दूसरे 'प्रमाण' अनुयोगद्वार में किस वर्गणा में कितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं, इत्यादि का विचार धवला में गणित प्रक्रिया के आधार से विस्तारपूर्वक किया गया है (पृ० ४६३-७६)। ५. वेदनाक्षेत्रविधान यह 'वेदना' अनुयोगद्वार के अन्तर्गत १६ अनुयोगद्वारों में पांचवां है। पिछले वेदनाद्रव्यविधान के समान इस अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में भी सूत्रकार ने पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा है (सूत्र ४,२,५,१-२)। प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने क्षेत्र के अनेक अर्थों में से प्रसंगानुरूप अर्थ को प्रकट करने के लिए क्षेत्रविषयक निक्षेप किया है। तदनुसार यहां नोआगमद्रव्यक्षेत्र के तीसरे भेदभूत तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यक्षेत्र को अधिकारप्राप्त कहा गया है। नोआगमद्रव्यक्षेत्र का अर्थ आकाश है जो लोक और अलोक के भेद से दो प्रकार का है। पदमीमांसा अनुयोगद्वार के प्रसंग में ज्ञानावरणीयवेदनाक्षेत्र की अपेक्षा क्या उत्कृष्ट है, अनुत्कृष्ट है, जघन्य है या अजघन्य है, इन चार पच्छाओं को उद्भावित करते हुए उत्तर में उसे सूत्रकार ने उत्कृष्ट आदि चारों प्रकार की कहा है। ____ इन दोनों सूत्रों को धवलाकार ने देशामर्शक कहकर सूत्रनिर्दिष्ट चार पृच्छाओं के अतिरिक्त सादि-अनादि आदि अन्य नो पृच्छाओं और उनके समाधान को सूत्रसूचित कहा है । इस प्रकार सूत्रसूचित होने से धवला में उन चार के साथ अन्य नौ पृच्छाओं को भी उठाकर यथाक्रम से उनका समाधान किया गया है (पु० ११, पृ० ४-११)। ___ यह सब प्ररूपणा यहां धवला में ठीक उसी पद्धति से की गयी है जिस पद्धति से वेदनाद्रव्यविधान में की जा चुकी है। स्वामित्व अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में उत्कृष्टपद के आश्रय से क्षेत्र की अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना उत्कृष्ट किसके होती है, इस पृच्छा को उठाकर उसके उत्तर में कहा गया है कि वह एक हजार योजन अवगाहनावाले उस मत्स्य के होती है जो स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य तट पर स्थित है । आगे सूत्रकार ने उसकी कुछ अन्य विशेषताओं का भी उल्लेख किया है (सूत्र ४,२, ५,७-१२)। सूत्र आठ की व्याख्या करते हुए धवला में उस प्रसंग में यह पूछा गया है कि उस मत्स्य का आयाम तो एक हजार योजन सूत्र में निर्दिष्ट है, उसका विष्कम्भ और उत्सेध कितना है । इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि उसका विष्कम्भ पांच सौ (५००) योजन और उत्सेध दो सौ पचास (२५०) योजन है। इस पर पुनः यह पूछा गया है कि वह सूत्र के बिना कैसे जाना जाता है । उत्तर में प्रथम तो धवलाकार ने कहा है कि वह आचार्य परम्परागत पवाइ. ज्जंत उपदेश से जाना जाता है। तत्पश्चात् यह भी कहा है कि उस महामत्स्य के विष्कम्भ ४५/-बदलण्यागम-परिशीलन Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और उत्सेध का प्ररूपक सूत्र है ही नहीं, यह भी नियम नहीं है; क्योंकि सूत्र में निर्दिष्ट 'हजार. योजन' यह देशामर्शक है । उससे उसके वे विष्कम्भ और उत्सेध सूचित हैं। आगे 'स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य तटपर स्थित' यह जो सूत्र में निर्दिष्ट किया गया है उसका स्पष्टीकरण है। तदनुसार अपनी बाह्य वेदिका तक स्वयम्भूरमण समुद्र है, उसके बाह्य तट से अभिप्राय उस समुद्र के आगे स्थित पृथिवीप्रदेश से है। कुछ आचार्य यह कहते हैं कि स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य तट का अर्थ वहाँ पर स्थित उसकी अवयवभूत बाह्य वेदिका है, यह उसका अभिप्राय है । उनके इस कथन को असंगत बतलाते हए धवलाकार ने कहा है कि उनका यह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि आगे के सूत्र (१०) में जो उसे काकलेश्या-काक के समान वर्णवाले तनुवातवलय-से संलग्न कहा गया है उसके साथ विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है । कारण यह है कि तीनों ही वातवलय स्वयम्भूरमणसमुद्र की उस बाह्य वेदिका से सम्बद्ध नहीं हैं। आगे प्रसंगप्राप्त अन्य शंकाओं का भी समाधान करते हुए यह पूछने पर कि स्वयम्भूरमणसमुद्र में स्थित जलचर वह महामत्स्य उसके बाह्य तट पर कैसे पहुँचा, धवलाकार ने कहा है कि पूर्व भव के वैरी किसी देव के प्रयोग से वहां उसका पहुँचना सम्भव है (पु० ११, पृ० १५-१८)। ___ आगे सूत्रोक्त उसकी अन्य विशेषताओं को स्पष्ट करते हुए प्रसंगवश यह शंका की गयी है कि उसे सातवीं पृथिवी में न उत्पन्न कराकर सात राजुमात्र अध्वान जाकर नीचे निगोदों में क्यों नहीं उत्पन्न कराया। समाधान में धवलाकार ने कहा है कि निगोदों में उत्पन्न होने पर अतिशय तीव्र वेदना के अभाव में उसके शरीर से तिगुणा वेदनासमुद्घात सम्भव नहीं है। इसी प्रसंग में आगे यह पूछने पर कि सूक्ष्म निगोदों में उत्पन्न होनेवाले महामत्स्य का विष्कम्भ और उत्सेध तिगुणा नहीं होता है, यह कैसे जाना जाता है । इसके समाधान में धवलाकार ने इतना मात्र कहा है कि वह 'नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में अनन्तर समय में उत्पन्न होगा' इस सूत्र (४,२,५,१२) से जाना जाता है । धवला में आगे यहाँ यह स्पष्ट कर दिया गया है कि सत्कर्मप्राभृत में उसे निगोदों में उत्पन्न कराया गया है । पर यह योग्य नहीं है, क्योंकि तीव्र असाता से युक्त सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न होनेवाले महामत्स्य की वेदना और कषाय से सूक्ष्म निगोदों में उत्पन्न होनेवाले महामत्स्य की वेदना और कषाय में समानता नहीं हो सकती। इसलिए इसी अर्थ को प्रधान रूप में ग्रहण करना चाहिए। मानावरणीय की अनुत्कृष्ट क्षेत्रवेदना ज्ञानावरणीय की अनुत्कृष्ट क्षेत्रवेदना का दिग्दर्शन कराते हुए सूत्र में कहा गया है कि उसकी उत्कृष्ट क्षेत्रवेदना से भिन्न अनुत्कृष्ट वेदना है (सूत्र ४,२,५,१३)। इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने यह कहकर कि अनुत्कृष्ट क्षेत्रवेदना के विकल्प असंख्यात हैं, उसकी विवेचना की है। इसी प्रसंग में आगे धवला में कहा गया है कि इन क्षेत्रविकल्पों के स्वामी जो जीव हैं उनकी प्ररूपणा में ये छह अनुयोगद्वार हैं-प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहत्व । इनके आश्रय से उनकी क्रम से प्ररूपणा करते हुए धवलाकार ने श्रेणि और अवहार इन दो अनुयोगद्वारों के प्रसंग में यह स्पष्ट कर दिया है कि उनकी प्ररूपणा करना शक्य नहीं षट्खण्डागम पर टीकाएं /४८७ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, क्योंकि उनके विषय में उपदेश प्राप्त नहीं है। वेदनीय को अनुत्कृष्ट क्षेत्रवेदना क्षेत्र की अपेक्षा वेदनीय की उत्कृष्ट वेदना जो केवली के होती है, उससे भिन्न उसकी अनुत्कृष्ट वेदना है, यह आगे के सूत्र में निर्दिष्ट है (सूत्र ४,२,५,१६-१७)। यह अनुत्कृष्ट वेदनीय की क्षेत्रवेदना उत्कृष्ट रूप में प्रतरसमुद्घातगत केवली के होती है, क्योंकि उसके अन्य अनुत्कृष्ट क्षेत्र में इससे अधिक क्षेत्र अन्यत्र सम्भव नहीं है । यह अनुत्कृष्ट क्षेत्र पूर्वोक्त उत्कृष्ट क्षेत्र से विशेष हीन है, क्योंकि इसमें वातवलयों के भीतर जीवप्रदेश नहीं रहते, जबकि लोकपूरणसमुद्घात में वातवलयों के भीतर भी जीवप्रदेश रहते हैं । यह वेदनीय की अनुत्कष्ट क्षेत्र वेदना का प्रथम विकल्प है। इसके अनन्तर अनुत्कृष्ट क्षेत्र का स्वामी वह केवली है जो सबसे विशाल अवगाहना से कपाटसमुद्घात को प्राप्त है । यह उस अनुत्कृष्टक्षेत्रवेदना का दसरा विकल्प है जो पर्वोक्त अनत्कष्ट क्षेत्र से असंख्यातगणा हीन है। धवला में वेदनीय की अनुत्कृष्ट क्षेत्रवेदना के तृतीय, चतुर्थ आदि विकल्पों को भी स्पष्ट किया गया है। ___ आगे धवला में इन क्षेत्रों के स्वामी जीवों की प्ररूपणा पूर्व पद्धति के अनुसार प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व इन छह अनुयोगद्वारों में की गयी है (पु. ११, पृ० ३०-३३)। शानावरणीय की जघन्य क्षेत्रवेदना ज्ञानावरणीय की जघन्य क्षेत्रवेदना सर्वजघन्य अवगाहना में वर्तमान तीन समयवर्ती आहारक व तीन समयवर्ती तद्भवस्थ सूक्ष्मनिगोद जीव अपर्याप्तक के कही गयी है । उसकी अजघन्य क्षेत्रवेदना उससे भिन्न है, यह सूत्र में निर्दिष्ट है (सूत्र ४,२,५,१६-२१)। इसकी व्याख्या करते हुए धवला में कहा गया है कि ज्ञानावरण की अजघन्य क्षेत्रवेदना अनेक प्रकार की है। उनके स्वामियों की प्ररूपणा करते हुए कहा है कि पल्योपम के असंख्यातवें भाग का विरलन करके, धनांगुल को समखण्ड करने पर एक-एक रूप के प्रति सूक्ष्मनिगोद जीव की जघन्य अवगाहना प्राप्त होती है। इसके आगे एक प्रदेश अधिक के क्रम से वहीं पर स्थित निगोद जीव अजघन्य क्षेत्रवेदना में जघन्य क्षेत्र का स्वामी है । आगे भी इसी पद्धति से धवला में अजघन्य क्षेत्रवेदना के द्वितीयादि विकल्पों का विवेचन है। प्रसंग के अन्त में यहां पूर्वोक्त प्ररूपणा-प्रमाणादि छह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा उत्कृष्टअनुत्कृष्ट क्षेत्रों के समान करने की सूचना दी गयी है। ___अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में सूत्रकार द्वारा जो जघन्यपद, उत्कृष्टपद और जघन्य-उत्कृष्टपद इन तीन अनुयोगद्वारों के आश्रय से प्रकृत क्षेत्रवेदनाविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा है उसमें विशेष व्याख्येय कुछ नहीं है। ६. वेदनाकालविधान काल के प्रकार—यहाँ प्रारम्भ में धवला में काल के ये सात भेद निर्दिष्ट किये गये हैंनामकाल, स्थापनाकाल, द्रव्यकाल, सामाचारकाल, अदाकाल प्रमाणकाल, और भावकाल । आगे क्रम से इन सब के स्वरूप का स्पष्टीकरण है। उस प्रसंग में तद्व्यतिरिक्त नोमागमकाल ४०८/घट्सण्डागम-परिशीलन Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-प्रधानकाल और अप्रधानकाल । इनमें जो शेष पाँच द्रव्यों के परिणमन का हेतुभूत, रत्नराशि के समान प्रदेशचय से रहित, अमूर्त, अनादिनिधन व लोकाकाश के प्रदेशों का प्रमाण काल है उसे प्रधानकाल कहा गया है। अप्रधानकाल सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का है। उनमें डांस-मच्छर आदि के काल को सचित्त, धुलिकाल आदि को अचित्त और डांस सहित शीतकाल आदि को मिश्रकाल कहा गया है। सामाचारकाल लौकिक और लोकोत्तरीय के भेद से दो प्रकार का है। इनमें वन्दनाकाल, नियमकाल, स्वाध्यायकाल, ध्यानकाल आदि को लोकोत्तरीय तथा कर्षणकाल, लुननकाल, वपनकाल आदि को लौकिक काल कहा गया है । अद्धाकाल अतीत, अनागत और वर्तमान काल के भेद से तीन प्रकार का है। पल्योपम, सागरोपम आदि प्रमाणकाल के अन्तर्गत हैं। इन सब कालभेदों में यहां धवला में प्रमाणकाल प्रसंगप्राप्त है। पूर्वोक्त वेदनाद्रव्यविधान और वेदनाक्षेत्रविधान के समान यहाँ भी वे ही पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व नाम के तीन अनुयोगद्वार हैं। उसी पद्धति से यहां भी पदमीमांसा के प्रसंग में धवलाकार ने पृच्छासूत्र और उत्तरसूत्र इन दोनों को देशामर्शक कहकर उनसे सूचित अन्य नौ पृच्छाओं को उठाकर समस्त तेरह प्रकार की पृच्छाओं का समाधान किया है। पूर्व पद्धति के अनुसार यहाँ दोनों सूत्रों के अन्तर्गत अन्य तेरह सूत्रों का निर्देश करते हुए समस्त १६६ पृच्छाओं का उल्लेख किया गया है (पु० ११, पृ० ७८-८४)। स्वामित्व के प्रसंग में सूत्रकार ने उसे जघन्यपदविषयक और उत्कृष्टपदविषयक के भेद से दो प्रकार का निर्दिष्ट किया है (सूत्र ४,२,६,६)। प्रसंग पाकर यहां धवला में नाम-स्थापनादि के भेद से जघन्य और उत्कृष्ट के अनेक भेदप्रभेदों का निर्देश करते हुए पृथक्-पृथक् उनके स्वरूप का विवेचन किया गया है। काल की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट वेदना किसके होती है, इसे स्पष्ट करते हुए सूत्र में कहा गया है कि वह अन्यतर पंचेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि, सब पर्याप्तियों से पर्याप्त कर्मभूमिज अथवा अकर्मभूमिज आदि के होती है (सूत्र ४,२,६,८)। इसकी व्याख्या में धवलाकार ने सूत्रों में प्रयुक्त अनेक पदों का पृथक्-पृथक् विवेचन कर उनकी सार्थकता दिखलायी है । विशेष ज्ञातव्य यहाँ यह है कि प्रकृत सूत्र में प्रयक्त 'अकर्मभूमिज' शब्द से धवलाकार ने देव-नारकियों को और 'कर्मभूमिप्रतिभाग' से स्वयंप्रभ पर्वत के बाह्य भाग में उत्पन्न होनेवाले जीवों को ग्रहण किया है। धवलाकार ने कहा है कि इसके पूर्व सूत्र में प्रयुक्त 'कर्मभूमिज' शब्द से यह अभिप्राय था कि पन्द्रह कर्मभूमियों में उत्पन्न जीव ही ज्ञानावरण की उत्कृष्ट स्थिति बांधते हैं। इस प्रकार देव-नारकियों और स्वयंप्रभ पर्वत के परभागवर्ती जीवों के ज्ञानावरण की उत्कृष्ट स्थिति के बन्ध का निषेध प्रकट होता था। अतः ऐसा अनिष्ट प्रसंग प्राप्त न हो, इसके लिए सूत्र में आगे ‘अकर्मभूमिज' और 'कर्मभूमिप्रतिभाग' को ग्रहण किया गया है। इसी प्रकार सूत्र में प्रयुक्त 'असंख्यातवर्षायुष्क' से एक समय अधिक पूर्वकोटि आदि रूप आगे की आयुवाले तियंच-मनुष्यों को न ग्रहण करके देव-नारकियों को ग्रहण किया गया है। __ इस प्रसंग में यह शंका उत्पन्न हुई है कि देव-नारकियों में भी तो संख्यात वर्ष की आयुवाले हैं । उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि सचमुच ही वे असंख्यात वर्ष की आयुवाले नहीं हैं, बट्खण्डागम पर टीकाएँ | Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्यात वर्ष की आयुवाले ही हैं, पर यहाँ एक समय अधिक पूर्वकोटि आदि आगे की आयु के विकल्पों को असंख्यात वर्षायु माना गया है। आगे उदाहरण देते हुए बतलाया है कि 'असंख्यात वर्ष' शब्द को 'राजवृक्ष' के समान अपने अर्थ को छोड़कर रूढ़ि के बल से आयु विशेष में वर्तमान ग्रहण किया गया है. (पु० ११, पृ० ८५-६१ ) । ज्ञानावरण की अनुत्कृष्ट कालवेदना काल की अपेक्षा ज्ञानवरण की अनुत्कृष्ट वेदना उसकी पूर्वोक्त उत्कृष्ट वेदना से भिन्न है, ऐसा सूत्र में निर्देश है ( सूत्र ४, २, ६, ९) । इसकी व्याख्या में धबलाकार ने कहा है कि वह अनुत्कृष्ट वेदना अनेक प्रकार की है तथा स्वामी भी उसके अनेक प्रकार के हैं इसलिए हम उनकी प्ररूपणा करेंगे, यह कहते हुए उन्होंने धवला में उनकी प्ररूपणा की है। जैसे तीन हजार वर्ष आबाधा करके तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण उसकी स्थिति के बंधने पर उत्कृष्ट स्थिति होती है। संदृष्टि में यहाँ उसका प्रमाण दो सौ चालीस (२४०) है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट रूप में दो सौ उनतालीस (२३९) होगी । उसकी अपेक्षा अन्य जीव के दो समय कम उत्कृष्ट स्थिति के बाँधने पर अनुत्कृष्ट स्थिति का दूसरा स्थान २३८ होता है । इस क्रम से आबाधाकाण्डक से हीन उत्कृष्ट स्थिति के बाँधे जाने पर उसका अन्य अनुत्कृष्ट स्थान होता है । यहाँ संदृष्टि में आबाधाकाण्डक का प्रमाण ३० अंक माना गया है। इसे उत्कृष्ट स्थिति में से घटा देने पर २१० (२४०-३०) शेष रहते हैं । वहाँ का स्थान इतना मात्र होता है । इसी प्रकार से आगे संदृष्टि में ८ को आबाधा का प्रमाण मानकर एक समय अधिक आबाधाकाण्डक (१+३०) से हीन उत्कृष्ट बँधने पर अनुत्कृष्ट स्थिति का अन्य स्थान (२४०२३१ = २०६ ) होता है । इसी क्रम से दो आदि आबाधाकाण्डकों से होन उत्कृष्ट स्थिति के बाँधे जाने पर अनुत्कृष्ट स्थिति के अन्य विकल्पों का धवला में आगे विचार किया गया है । आगे सूत्रकार द्वारा शेष सात कर्मों की उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट व जघन्य - अजघन्य कालवेदना की जो प्ररूपणा की गयी है उसकी व्याख्या पूर्व पद्धति के अनुसार धवला में यथा प्रसंग की गयी है । तीसरे अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में सूत्रकार द्वारा कालवेदना सम्बन्धी अल्पबहुत्व की प्ररूपणा है उसमें विशेष व्याख्येय विषय कुछ नहीं है । वेदनाकालविधान - चूलिका अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार की समाप्ति के बाद सूत्रकार ने कहा है कि मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध पूर्व में ज्ञातव्य । उसमें ये चार अनुयोगद्वार हैं-- स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आाबाधाकाण्डकप्ररूपणा और अल्पबहुत्व (सूत्र ४, २, ६,३६) । इसकी व्याख्या में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि सूत्र में जिन पदमीमांसा आदि तीन अनुयोगद्वारों का निर्देश था उनके आश्रय से वेदनाकालविधान की प्ररूपणा की जा चुकी हैं। इस प्रकार वेदना कालविधान के समाप्त हो जाने पर अब आगे के सूत्र को प्रारम्भ करना ४१० / षट्लण्डागम-परिशीलन Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरर्थक है। इस शंका का निराकरण करते हुए धवला में कहा गया है कि उक्त तीन अनुयोगद्वारों के द्वारा प्ररूपणा कर देने पर वह वेदनाकालविधान समाप्त हो ही चुका है। किन्तु समाप्त हुए उस कालविधान की आगे ग्रन्थ द्वारा यह चूलिका कही जा रही है। कालविधान से सूचित अर्यों का विवरण देना इस चूलिका का प्रयोजन है। क्योंकि जिस अर्थप्ररूपणा के करने पर पूर्व प्ररूपित अर्थ के विषय में शिष्यों को निश्चय उत्पन्न होता है वह चूलिका कहलाती है । इसलिए यह आगे का ग्रन्थ सम्बद्ध ही है, ऐसा समझना चाहिए (पु० ११, पृ० १४०)। यहाँ सूत्रकार द्वारा स्थितिबन्ध स्थानों की प्ररूपणा में स्थितिबन्धस्थानों के जिस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा है, धवलाकार ने उसे अव्वोगाढअल्पबहुत्वदण्डक देशामर्शक कहा है, और उसके अन्तर्गत चार प्रकार के अल्पबहुत्व का निरूपण किया है। वहाँ सर्वप्रथम अल्पबहुत्व के इन दो भेदों का निर्देश है-मूलप्रकृतिअल्पबहुत्व और अन्वोगाढअल्पबहुत्व । आगे उनमें से प्रथमतः स्वस्थान और परस्थान के भेद से दो प्रकार के अव्वोगाढअल्पबहुत्व की और तत्पश्चात् स्वस्थान और परस्थान के भेद से दो प्रकार के मूलप्रकृतिअल्पबहुत्व की प्ररूपणा हुई है।' पश्चात् धवला में संक्लेश-विशुद्धिस्थानों के अल्पबहुत्व के प्रसंग में कर्मस्थिति के बन्ध के कारणभूत परिणामों का निरूपण प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों के आश्रय से किया गया है (पु० ११, पृ० २०५-१०)। सूत्रकार द्वारा यहां सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के संक्लेश-विशुद्धिस्थानों से बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के संक्लेश-विशुद्धिस्थानों को असंख्यातगुणा निर्दिष्ट किया गया है। (सूत्र ४,२,६,५१-५२) इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि यद्यपि 'असंख्यातगुणत्व' बुद्धिमान शिष्यों के के लिए सुगम है, तो भी मन्दबुद्धि शिष्यों के अनुग्रहार्थ हम यहाँ असंख्यातगुणत्व के साधन को कहते हैं, ऐसी सूचना कर उन्होंने संदृष्टिपूर्वक उसका विस्तार से स्पष्टीकरण किया है। निषेकप्ररूपणा के प्रसंग में अन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा के समाप्त हो जाने पर धवलाकार ने श्रेणिप्ररूपणा से सूचित अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की है। आवाधाकाण्डकप्ररूपणा के प्रसंग में सूत्र में कहा गया है कि पंचेन्द्रिय संज्ञी-असंज्ञी व चतुरिन्द्रिय आदि जीवों की आयु को छोड़कर शेष सात कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति से एक-एक समय के क्रम से पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र नीचे जाकर एक आबाधाकाण्डक होता है । यह उनकी जघन्य स्थिति तक चलता है (सूत्र ४,२,६,१२२)। इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि आबाधा के अन्तिम समय को विवक्षित कर जीव उत्कृष्ट स्थिति को बांधता है । उसी आबाधा के अन्तिम समय को विवक्षित कर वह एक समय कम उत्कृष्ट स्थिति को भी बांधता है। इस क्रम से वह उस आबाधा के अन्तिम समय को विवक्षित कर दो समय कम, तीन समय कम इत्यादि के क्रम से पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र से कम तक उत्कृष्ट स्थिति को बांधता है । इस प्रकार आबाधा के अन्तिम समय से बन्ध के १. धवला पु० ११, पृ० १४७-२०५ (अन्योक अल्प० पृ० १४७-८२, मूल प्र० अल्प०, पृ० १८२-२०५) षट्सम्हामम पर टीकाएँ । ४६१ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग्य उन स्थितिविशेषों की 'आबाधाकाण्डक' यह संज्ञा होती है । आबाधा के द्विचरम समय को विवक्षित करके भी उक्त प्रकार से पत्योपम के असंख्यातवें भाग तक हीन स्थिति को बाँधता है । यह दूसरा आबाधाकाण्डक होता है । इसी प्रकार आबाधा के त्रिचरम समय की विवक्षा में पूर्व के समान तीसरा आबाधाकाण्डक होता है । यह क्रम उन सात कर्मों की जघन्य स्थिति के प्राप्त होने तक चलता है। आयुकर्म की अमुक स्थिति इस आबाधा में बँधती है, ऐसा कुछ नियम नहीं है । पूर्वकोटि के विभाग को आबाधा करके तेतीस सागरोपम प्रमाण स्थिति भी बँधती है । इस क्रम से उसी आबाधा से दो समय कम तीन समय कम आदि के रूप से क्षुद्रभवग्रहण तक आयु बँधती है । ऐसे ही आयुबन्धक के विकल्प दो समय कम तीन समय कम आदि उस पूर्वकोटि के त्रिभागरूप आबाधा में चलते हैं । इसलिए सूत्र में आयुकर्म का निषेध किया गया है ।' अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार के प्रसंग में भी धवलाकार ने अल्पबहुत्व से सूचित स्वस्थान और परस्थान अल्पबहुत्वों की प्ररूपणा की है । वेदनाकालविधान- धूलिका २ यहाँ स्थितिबन्धाध्यवसानप्ररूपणा के प्रसंग में इन तीन अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है— जीवसमुदाहार, प्रकृतिसमुदाहार और स्थितिसमुदाहार (सूत्र ४, २, ६, १६५) । धवला में इस दूसरी चूलिका की सार्थकता को प्रकट करते हुए उक्त तीन अनुयोगद्वारों में से प्रथम जीवसमुदाहार में साता व असाता की एक-एक स्थिति में इतने जीव होते हैं और इतने नहीं होते हैं; इसका खुलासा है । अमुक प्रकृति के इतने स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं और इतने नहीं होते, इसका परिज्ञान दूसरे प्रकृतिसमुदाहार में कराया गया है । विवक्षित स्थिति में इतने स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं और इनने नहीं होते हैं, इसे स्पष्ट करना तीसरे स्थितिसमुदहार का प्रयोजन रहा है ( पु० ११, पृ० ३०८-११) । यहाँ मूल में जो विवक्षित विषय की प्ररूपणा की गयी है उसमें अधिक व्याख्येय प्रायः कुछ विषय नहीं रहा है, इसलिए धवला में प्रसंगप्राप्त सूत्रों के अभिप्राय को ही स्पष्ट किया गया है । कहीं पर देशामर्शक सूत्र से सूचित प्ररूपणा, प्रमाण, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व की भी संक्षेप में प्ररूपणा कर दी गयी है। ७. वेदनाभावविधान धवलाकार ने प्रारम्भ में भाव के ये चार भेद निर्दिष्ट किये हैं-नामभाव, स्थापनाभाव, द्रव्यभाव और भावभाव । इनमें नोआगमद्रव्यभाव के तीन भेदों के अन्तर्गत तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यभाव के इन दो भेदों का निर्देश है— कर्मद्रव्यभाव और नोकर्मद्रव्यभाव । इनमें कर्मद्रव्यभाव के स्वरूप का निर्देश करते हुए धवला में कहा गया है कि ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों की जो अज्ञानादि को उत्पन्न करने की शक्ति है उसका नाम नोआगमकर्मद्रव्यभाव है । नोआगमनो कर्मद्रव्यभाव सचित्त और अचित्त के भेद से दो प्रकार का है 1 इनमें केवलज्ञान व केवल १. धवला पु० ११, पृ० २६७-६६ २. सूत्र १५१, पृ० ३२०-२१ व सूत्र २०३, पृ० ३२८-३२ ४१२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन आदि को सचित्तनोकर्मद्रव्य भाव कहा गया है । अचित्त नोकर्मद्रव्यभाव दो प्रकार का हैमर्तद्रव्यभाव और अमूर्तद्रव्यभाव । इनमें वर्ण-गन्धादि को मूर्तद्रव्यभाव और अवगाहना आदि को अमूर्तद्रव्यभाव कहा है। उपर्युक्त भाव के उन भेद-प्रभेदों में यहाँ कर्मद्रव्यभाव को अधिकारप्राप्त कहा गया है, क्योंकि अन्य भावों का वेदना से सम्बन्ध नहीं है (पु० १२, पृ० १-३)। वेदनाद्रव्यविधान आदि के समान इस अनुयोगद्वार में भी पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों का निर्देश है । पदमीमांसा के प्रसंग में धवलाकार ने प्रकृत पृच्छामूत्र और उत्तरसूत्र (३-४) दोनों को देशामर्शक कहकर सूत्रनिर्दिष्ट उत्कृष्टादि चार पृच्छाओं के साथ सादि व अनादि आदि अन्य नौ पृच्छाओं को सूत्रसूचित कहा है । इस प्रकार पूर्व पद्धति के अनुसार यहाँ भी उन्होंने समस्त तेरह पच्छाओं को उभावित कर यथाक्रम से उनका समाधान किया है। स्वामित्व अनुयोगद्वार में सूत्रकार के द्वारा भाव की अपेक्षा जो ज्ञानावरणादि को की वेदना की प्ररूपणा की गयी है उसमें अधिक कुछ व्याख्येय नहीं रहा है, इसीलिए धवलाकार ने प्रसंगप्राप्त सूत्रों के अन्तर्गत पदों की सार्थकता को प्रकट करते हुए उनका अभिप्राय ही स्पष्ट किया है। ___ अल्पबहत्व अनुयोगद्वार में भी विशेष व्याख्येय विषय न रहने से सूत्रों का अभिप्राय ही स्पष्ट किया गया है। विशेषता यहाँ यह रही है कि सूत्रकार ने जिस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा प्रथमतः दुरूह गाथासूत्रों में और तत्पश्चात् उसी को स्पष्ट करते हुए गद्यसूत्रों में भी की है। धवलाकार ने उससे सूचित उत्तरप्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागविषयक स्वस्थान अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की है। इसी प्रकार से आगे सूत्रकार ने चौंसठ पदवाले जिस जघन्य परस्थान अल्पबहत्व की प्ररूपणा की है, धवलाकार ने उससे सूचित स्वस्थान अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की है (पु० १२ पृ० ७५-७८)। घेदनाभावविधान-चूलिका १ प्रकृत वेदनाभावविधान में जो तीन चूलिकाएँ हैं उनमें प्रथम चूलिका में सूत्रकार ने प्रथमतः दो गाथासत्रों द्वारा निर्जीर्यमाण प्रदेश और काल की विशेषतापूर्वक सम्यक्त्वोपत्ति आदि ग्यारह गणश्रेणियों की प्ररूपणा की है (गाथासूत्र ७-८, पु० १२, पृ० ७५-७८)। इन सूत्रों की व्याख्या के प्रसंग में धवला में प्रथमतः यह शंका उपस्थित हुई है कि भावविधान की प्ररूपणा के प्रसंग में ग्यारह गुणश्रेणियों में प्रदेशनिर्जरा और उसके काल की प्ररूपणा किस लिए की जा रही है । समाधान में धवलाकार ने कहा है कि विशुद्धियों के द्वारा जो अनुभाग का क्षय होता है, उससे होनेवाली प्रदेश निर्जरा का ज्ञापन कराते हुए यह प्रकट किया गया है कि जीव और कर्मों के सम्बन्ध का कारण अनुभाग ही है। इसी अभिप्राय को १. गाथासूत्र १,२,३ व गद्यसूत्र ६५-११७ (पु० १२, पृ० ४०-५६) २. धवला पु० १२, पृ० ६०-६२ ३. गाथासूत्र ४-६, गद्यसूत्र ११८-७४ (पु० १२, पृ० ६२-७५) षट्खण्डागम पर टीकाएँ/४९ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिव्यक्त करने के लिए उक्त ग्यारह गुणश्रेणियों की प्ररूपणा की जा रही है। प्रकारान्तर से इस शंका का समाधान करते हुए धवला में आगे यह भी कहा गया हैअथवा द्रव्यविधान में जघन्य स्वामित्व के प्रसंग में गुणश्रेणिनिर्जरा की सूचना की गयी है। उस गुणश्रेणिनिर्जरा का कारण भाव है, इसलिए यहाँ भावविधान में उसके विकल्पों की प्ररूपणा के लिए उस गुणश्रेणिनिर्जरा और उसके काल की प्ररूपणा की जा रही है। गाथा में प्रयुक्त 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' पद को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' से दर्शनमोह को उपशमाकर प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति को ग्रहण करना चाहिए (पु० १२, पृ०७६)। इन गाथासूत्रों का स्पष्टीकरण स्वयं मूलग्रन्थकार ने गद्यसूत्रों द्वारा किया है।' ग्यारह गुणश्रेणियों में होनेवाली प्रदेशनिर्जरा के गुणकार को स्पष्ट करते हुए सूत्रों में दर्शनमोह उपशामक के गुणश्रेणिगुणकार को सबसे स्तोक कहा गया है (सत्र ४,२,७,१७५)। इसकी व्याख्या में धवला में कहा है कि दर्शनमोह उपशामक के प्रथम समय में निर्जरा को प्राप्त द्रव्य सबसे स्तोक होता है। उसके दूसरे समय में निर्जीर्ण द्रव्य उससे असंख्यातगुणा होता है । तीसरे समय में निर्जीर्ण द्रव्य उससे असंख्यातगुणा होता है। इस क्रम से उस दर्शनमोह उपशामक के अन्तिम समय तक वह उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा होता गया है । सूत्र में इस गुणकार की पंक्ति को 'गुणश्रेणि' कहा है । अभिप्राय यह है कि यद्यपि सम्यक्त्वोत्पत्ति का यह गुणश्रेणि गुणकार सबसे महान् है, फिर भी आगे कहे जानेवाले जघन्य गुणकार की अपेक्षा भी वह स्तोक है। धवलाकार ने आगे भी प्रसंगप्राप्त इन सूत्रों का अभिप्राय सष्ट किया है। वेदनाभावविधान-चूलिका २ इस चूलिका में अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा आदि बारह अनुयोगद्वारों के आश्रय से अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानों के कार्यभूत अनुभागस्थानों की प्ररूपणा की गयी है। यहां अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा के प्रसंग में धवला में अविभागप्रतिच्छेद, वर्ग, वर्गणा और स्पर्धकों की प्ररूपणा संदृष्टिपूर्वक हुई है । यहीं अविभागप्रतिच्छेदों के आधारभूत परमाणुओं की भी, प्ररूपणाप्ररूपणाप्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व इन छह अनुयोगद्वारों के आश्रयसे की गयी है (पु० १२, पृ० ८८-१११)। क्रमप्राप्त स्थान, प्ररूपणा आदि अन्य अनुयोगद्वारों के विषय का भी आवश्यकतानुसार धवला में निरूपण है। विशेष रूप से 'षट्स्थानप्ररूपणा' नामक छठे अनुयोगद्वार के प्रसंग में सूत्र में जो यह निर्देश है कि 'अनन्तगुणपरिवृद्धि सब जीवों से वृद्धिंगत होती है' (सूत्र ४,२,७,२१३-१४) उसका स्पष्टीकरण धवला में बहुत विस्तार से हुआ है। सर्वप्रथम वहां इस सूत्र के द्वारा अन्तरोपनिधा की प्ररूपणा के साथ इसी सूत्र के द्वारा देशामर्शक भाव से परम्परोपनिधा की प्ररूपणा की १. सूत्र ४,२,४,७४ व उसकी धवला टीका (यहाँ धवलाकार ने उन ग्यारह गुणश्रेणियों का पृथक्-पृथक् उल्लेख भी कर दिया है) पु० १०, पृ० २६५-६६ २. सूत्र ४,२,७,१७५-७६; पु० १२, पृ० ८०-८७ ver / पदमडागम-परिशीलन Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचनापूर्वक धवला में प्रसंगवश गणित प्रक्रिया के आधार से संदृष्टियों के साथ अनेक प्रासंगिक विषयों की विस्तार से चर्चा की है । वेदनाभावविधान- चूलिका ३ इस चूलिका में एकस्थान जीव प्रमाणानुगम आदि आठ अनुयोगद्वार हैं । उनके अन्तर्गत विषय का परिचय 'मूलग्रन्थगत विषयपरिचय' में संक्षेप में कराया जा चुका है । प्रसंगानुसार धवला में भी जहाँ-तहाँ उसका विवेचन है । ८. वेदनाप्रत्ययविधान मूल ग्रन्थ में ज्ञानावरणादि के जिन प्राणातिपात आदि प्रत्ययों का यहाँ निर्देश किया गया ह, धवला में उन सूत्रों के प्रसंग में उनके स्वरूप आदि का स्पष्टीकरण है; अधिक व्याख्येय वहाँ कुछ रहा नहीं है ।' ९. वेदनास्वामित्वविधान यह 'वेदना' अधिकार के अन्तर्गत सोलह अनुयोगद्वारों में नौवां है । यहाँ सर्वप्रथम जिस सूत्र द्वारा इस 'वेदनास्वामित्वविधान' का स्मरण कराया गया है उसकी व्याख्या के प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि जिस जीव ने जिस कर्म को बाँधा है उसकी वेदना का स्वामी वही होगा, यह उपदेश बिना भी जाना जाता है, इसलिए इस वेदनास्वामित्वविधान को प्रारम्भ नहीं करना चाहिए। समाधान में धवलाकार ने स्पष्ट किया है कि कर्मस्कन्ध जिससे उत्पन्न हुआ है वह यदि वहीं स्थित रहता तो वही उसकी वेदना का स्वामी हो सकता था, परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि कर्मों की उत्पत्ति किसी एक से सम्भव नहीं हैं। आगे कहा गया है कि कर्मों की उत्पत्ति केवल जीव से ही सम्भव नहीं है, क्योंकि वैसा होने पर कर्मों से रहित सिद्धों से भी उनकी उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है । यदि एक मात्र अजीव से भी उनकी उत्पत्ति स्वीकार की जाय तो यह भी उचित नहीं है, क्योंकि वैसा स्वीकार करने पर जीव से भिन्न काल, पुद्गल और आकाश से भी उनकी उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है । इसी प्रकार परस्पर के समवाय से रहित जीव अजीवों से भी उनकी उत्पत्ति मानना उचित नहीं है, क्योंकि उस परिस्थिति में समवाय से रहित सिद्ध जीव और पुद्गलों से भी कर्मों के उत्पन्न होने का प्रसंग प्राप्त होता है । परस्पर संयोग को प्राप्त जीव और अजीव से भी वे उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि वैसा होने पर संयोग को प्राप्त हुए जीव और पुद्गलों से उनके उत्पन्न होने का प्रसंग प्राप्त होता है । यदि कहा जाय कि समवाय को प्राप्त जीव और अजीव से वे उत्पन्न हो सकते हैं तो यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि उस परिस्थिति में अयोगिकेवली के भी कर्मबन्ध का प्रसंग प्राप्त होता है। कारण यह है कि वे कर्म से समवाय को प्राप्त हैं ही। इससे सिद्ध होता है कि मिध्यात्व, असंयम, कषाय और योग इनके उत्पन्न करने में समर्थ पुद्गलद्रव्य और जीव ये दोनों कर्मबन्ध के कारण हैं । आगे यह भी कहा गया है कि यह जीव और पुद्गल का बन्ध प्रवाहरूप से अनादि है, १. धवला पु० १२, पृ० २७५-६३ षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४६५ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि इसके बिना अमूर्त जीव और मूर्त पुद्गल का बन्ध घटित नहीं होता। इस प्रकार प्रवाहस्वरूप से अनादि होकर भी वह बन्धविशेष की अपेक्षा सादि व सान्त भी है । कारण यह कि इसके बिना एक ही जीव में उत्पन्न देवादि पर्यायों के सदा अवस्थित रहने का प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होनेवाला है। अतः दो, तीन अथवा चार कारणों से उत्पन्न होकर जीव में एक स्वरूप से स्थित वेदना उनमें एक के ही होती है, अन्य के नहीं होती है; यह नहीं कहा जा सकता है । इस प्रकार शिष्य के सन्देह को दूर करने के लिए इस 'वेदनास्वामित्वविधान' को प्रारम्भ करना उचित ही है (पु० १२, पृ० २६४-६५)। आगे मूल सूत्रों में जो वेदना की स्वामित्वविषयक प्ररूपणा की गयी है उसमें धवलाकार ने सूत्रों के अभिप्राय को ही प्रायः स्पष्ट किया है, विशेष वर्णनीय विषय वहाँ कुछ नहीं है। १०. वेदनावेदनाविधान ____ 'वेद्यते वेदिष्यते इति वेदना' अर्थात् जिसका वर्तमान में अनुभव किया जा रहा है व भविष्य में अनुभव किया जानेवाला है उसका नाम वेदना है, इस निरुक्ति के अनुसार आठ प्रकार के कर्मपुद्गलस्कन्ध को वेदना कहा गया है । 'वेदनावेदनाविधान' में जो दूसरा वेदना शब्द है उसका अर्थ अनुभवन है। 'विधान' का अर्थ प्ररूपणा है । तदनुसार प्रकृत अनुयोगद्वार में वर्तमान और भविष्य में जो कर्म का वेदन या अनुभवन होता है, इसकी प्ररूपणा की गयी है । इस प्रकार धवला में वेदनावेदनाविधान अनुयोगद्वार की सार्थकता प्रकट की गयी है। सूत्रकार ने नैगमनय को अपेक्षा समस्त कर्म को 'प्रकृति' कहा है (सूत्र ४,२,१०,२) । इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि बद्ध, उदीर्ण और उपशान्त के भेद से जो तीन प्रकार का समस्त कर्म अवस्थित है वह नैगमनय की अपेक्षा प्रकृति है, क्योंकि प्रक्रियते अज्ञानादिकं फलमनया आत्मन इति प्रकृतिः' इस निरुक्ति के अनुसार जो आत्मा के अज्ञानादिरूप फल को किया करता है उसका नाम प्रकृति है। यहां धवला में यह शंका उठायी गयी है कि जो कर्मपुद्गल फलदाता के रूप से परिणत है वह उदीर्ण कहलाता है। जो कार्मण पुद्गलस्कन्ध मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के आश्रय से कर्मरूपता को प्राप्त हो रहा है उसे बध्यमान कहते हैं। इन दोनों अवस्थाओं से रहित कर्मपुद्गलस्कन्ध को उपशान्त कहा जाता है। इनमें उदीर्ण को 'प्रकृति' नाम से कहना संगत है, क्योंकि वह फलदाता के रूप से परिणत है। किन्तु बध्यमान और उपशान्त तो 'प्रकृति' नहीं हो सकते, क्योंकि वे फलदाता के स्वरूप से परिणत नहीं हैं। समाधान में धवलाकार ने कहा है कि ऐसी आशंका करना उचित नहीं है, क्योंकि 'प्रकृति' शब्द तीनों कालों में सिद्ध होता है। इस प्रकार जो कर्मस्कन्ध वर्तमान में फल देता है और जो आगे फल देनेवाला है उन दोनों कर्मस्कन्धों की प्रकृतिरूपता सिद्ध है । अथवा जिस तरह उदीर्ण कर्मस्कन्ध वर्तमान में फल देता है उसी तरह बध्यमान और उपशान्त कर्मस्कन्ध भी वर्तमान काल में फल देते हैं; क्योंकि उन दोनों अवस्थाओं के बिना कर्म का उदय सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व और उत्कृष्ट अनुभाग के होने पर तथा उत्कृष्ट रूप में उन स्थिति और अनुभाग का बन्ध होने पर भी सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम का ग्रहण सम्भव नहीं है । इससे भी बध्यमान और उपशान्त कर्मस्कन्ध का वर्तमान में फल देना सिद्ध होता है। ४६६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य प्रकार से भी उपर्युक्त शंका का समाधान करते हुए आगे धवला में कहा गया हैअथवा नैगमनय भूत और भविष्यत् पर्यायों को वर्तमान के रूप में स्वीकार करता है इसलिए इस नय की अपेक्षा उन तीनों प्रकार के कर्मस्कन्धों को 'प्रकृति' कहा गया है। (पु० १२, पृ० ३०२-४) इस वेदनावेदनविधान के प्रसंग में सामान्य से सूत्रों में इस प्रकार निर्देश है- (१) नंगमनय की अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् बध्यमान वेदना है । (२) कथंचित् वह उदीर्ण वेदना है। (३) कथंचित् उपशान्त वेदना है । (४) कथंचित् बध्यमान वेदनाएं हैं। (५) कथंचित् उदीर्ण वेदनाएँ हैं। (६) कथंचित् उपशान्त वेदनाएं हैं । (७) कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदना है। (6) कथंचित् बध्यमान (एक) व उदीर्ण (अनेक) वेदनाएँ हैं । (8) कथंचित् बध्यमान (अनेक) और उदीर्ण (एक) वेदना है । (१०) कथंचित् बध्यमान (अनेक) और उदीर्ण (अनेक) वेदनाएँ हैं। (सूत्र ४,२,१०,३-१२) धवला में इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है-१. एक जीव की एक समय में बांधी ग यी एक प्रकृति कथंचित् बध्यमान वेदना है । २. एक जीव की एक समय में बांधी गयी एक प्रकृति कथंचित् उदीर्ण वेदना है। ३. एक जीव की एक समय में बांधी गयी एक प्रकृति कथंचित् उपशान्त वेदना है। ४ (१) एक जीव की एक समय में बांधी गयी अनेक प्रकृतियाँ कथंचित् बध्यमान वेदनाएं हैं। ४ (२) अनेक जीवों के द्वारा एक समय में बांधी गयी एक प्रकृति कथंचित् बध्यमान वेदना है। ४ (३) अनेक जीवों के द्वारा एक समय में बांधी गयी अनेक प्रकृतियां कथंचित् बध्यमान वेदनाएँ हैं। ५ (१) एक जीव की अनेक समयों में बांधी गयी एक प्रकृति कथंचित् उदीर्ण वेदना है। ५ (२) एक जीव की एक समय में बांधी गयी अनेक प्रकृतियां कथंचित् उदीर्ण वेदनाएँ हैं । ५ (३) एक जीव की अनेक समयों में बाँधी गयी अनेक प्रकृतियाँ कथंचित उदीर्ण वेदनाएँ हैं। ५ (४) अनेक जीवों की एक समय में बांधी गयी एक प्रकृति कथंचित् उदीर्ण वेदना है। ५ (५) अनेक जीवों की अनेक समयों में बांधी गयी एक प्रकृति कथंचित् उदीर्ण वेदना है। ५ (६) अनेक जीवों को अनेक प्रकृतियाँ एक समय में बांधी गयी कथंचित् उदीर्ण वेदनाएँ हैं। ५ (७) अनेक जीवों की अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयों में बांधी गयी कथंचित उदीर्ण वेदनाएँ हैं । इत्यादि। इस पद्धति से धवलाकार ने जीव, प्रकृति और समय इनकी एक व अनेक की विवक्षा से प्रसंगानुसार एकसंयोगी, द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी अनेक भंगों को स्पष्ट किया है तथा प्रस्तारों को प्रकट करके उनके कुछ उच्चारणक्रम को भी व्यक्त किया है। यह प्ररूपणा यहाँ धवला में सूत्र कार के अभिप्रायानुसार नैगम-व्यवहारादि नयों की विवक्षा से आठों कर्मों के विषय में की गयी है।' ११. वेदनागतिविधान इस अनुयोगद्वार में वेदनास्वरूप ज्ञानावरणादि कर्मों की गति-स्थिर-अस्थिरता-के विषय में विचार हुआ है। प्रकृत अनुयोगद्वार का स्मरण करानेवाले प्रथम सूत्र की व्याख्या के प्रसंग में धवला में यह १. इसे पीछे 'मूलग्रन्थगत-विषयपरिचय' में देखा जा सकता है। षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ४६७ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका उठायी गयी है कि कर्म सब जीवप्रदेशों में समवाय को प्राप्त हैं तब वैसी अवस्थाओं में उनके गमन को कैसे योग्य माना जा सकता है।। ___ इस शंका का समाधान करते हुए धवला में कहा गया है कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि योग के वश जीवप्रदेशों का संचार होने पर उनसे अपृथग्भूत कर्मस्कन्धों के संचार में किसी प्रकार का विरोध नहीं है। प्रस्तुत 'वेदनागतिविधान' अनुयोगद्वार की प्ररूपणा की आवश्यकता क्यों हुई, इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यदि कर्मप्रदेश स्थित होते हैं तो जीव के देशान्तर को प्राप्त होने पर उसे सिद्धों के समान हो जाना चाहिए, क्योंकि समस्त कर्मों का वहाँ अभाव रहनेवाला है । कारण यह है कि स्थित स्वभाववाले होने से पूर्वसंचित कर्म तो वहीं रह गये हैं. जहाँ जीव पूर्व मे था, उनका जीव के साथ यहाँ देशान्तर में आना सम्भव नहीं रहा । वर्तमानकाल में कर्मों का संचय हो सके, यह भी सम्भव नहीं है; क्योंकि कर्मसंचय के कारणभूत जो मिथ्यात्वादि प्रत्यय हैं वे भी कर्मों के साथ वहीं स्थित रह गये, अतः उनकी यहाँ सम्भावना नहीं है । अतः कर्मों को स्थित मानना युक्तिसंगत नहीं है। __ यदि उन कर्मस्कन्धों को अनवस्थित माना जाय तो वह भी उचित न होगा, क्योंकि उस परिस्थिति में सब जीवों की मुक्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। आगे कहा गया है कि विवक्षित समय के पश्चात् द्वितीय समय में कर्मों का अस्तित्व रहनेवाला नहीं है, क्योंकि अनवस्थित होने के कारण वे प्रथम समय में निर्मूल नष्ट हो चुके हैं। उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही वे फल देते हैं, यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि बन्ध के प्रथम समय में कर्मों का विपाक सम्भव नहीं है। अथवा यदि बँधते समय उनका विपाक माना जाय तो कर्म और कर्म का फल दोनों का एक समय में सद्भाव रहकर द्वितीयादि समयों में बन्ध की सत्ता नहीं रहेगी, क्योंकि उस समय बन्ध के कारभूत मिथ्यात्व आदि प्रत्ययों का और कर्मों के फल का अभाव है। ऐसी परिस्थिति में सब जीवों की मुक्ति हो जाना चाहिए । पर ऐसा नहीं है, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता। इससे यदि कर्मप्रदेशों को अवस्थित और अनवस्थित उभयस्वरूप स्वीकार किया जाय तो यह भी संगत न होगा, क्योंकि वैसा मानने पर जो पृथक्-पृथक् दोनों पक्षों में दोष दिये गये हैं उनका प्रसंग अनिवार्यतः प्राप्त होगा। इस प्रकार से पर्यायाथिक नय का आश्रय लेनेवाले शिष्य के लिए जीव और कर्म के परतन्त्रतारूप सम्बन्ध को तथा जीवप्रदेशों के परिस्पन्द का कारण योग ही है यह जतलाने के लिए 'वेदनागतिविधान' की प्ररूपणा गयी है (पु० १२, पृ० ३६४-६५) । ___ यहाँ सूत्र में कहा गया है कि नगम, व्यवहार और संग्रह नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् 'अस्थित है (सूत्र ४,२,११,२)। इसकी व्याख्या में धवला में कहा गया है कि राग, द्वेष व कषाय के वश अथवा वेदना, भय व मार्गश्रम से जीवप्रदेशों का संचार होने पर उनमें समवाय को प्राप्त कर्मप्रदेशों का भी संचार पाया जाता है। पर जीवप्रदेशों में वे कर्मप्रदेश स्थित ही रहते हैं, क्योंकि पूर्व के देश को छोड़कर देशान्तर में स्थित जीवप्रदेशों में समवाय को प्राप्त कर्मस्कन्ध पाये जाते हैं। सूत्र में प्रयुक्त १. सूत्र में यहाँ 'अवट्ठिदा' पाठ है, पर वह प्रसंग व सूत्र की व्याख्या को देखते हुए अशुद्ध हो गया प्रतीत होता है। ४६८/ षट्कण्डागम-परिशीलन Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'स्यात्' शब्द के उच्चारण से वह जाना जाता है। कारण कि जिस प्रकार वे देश में अस्थित हैं उसी प्रकार यदि उन्हें जीवप्रदेशों में भी अस्थित माना जायेगा तो पूर्वोक्त दोष (मुक्तिप्राप्ति.) का प्रसंग प्राप्त होनेवाला है। इस पर यह शंका उठी है कि मध्यवर्ती आठ जीवप्रदेशों में संकोच-विकोच नहीं होता, ऐसी स्थिति में उनमें स्थित कर्मप्रदेशों की अस्थिरता सम्भव नहीं है । तब फिर सूत्र में जो यह कहा गया है कि किसी भी काल में सब जीवप्रदेश अस्थित रहते हैं, वह घटित नहीं होता। इसके समाधान में वहां कहा गया है कि उन मध्यवर्ती आठ जीवप्रदेशों को छोड़कर शेष जीवप्रदेशों के आश्रय से यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है, इसलिए उक्त दोष सम्भव नहीं है। यह विशेष अभिप्राय सूत्र में प्रयुक्त उस 'स्यात्' शब्द से सूचित है। उपर्युक्त नैगम, व्यवहार और संग्रह इन तीन नयों की अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित स्थित-अस्थित भी है (सूत्र ४,२,११,३)। ___ इस सूत्र का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि व्याधि, वेदना और भय आदि के क्लेश से रहित छमस्थ जीव के जो जीवप्रदेश संचार से रहित होते हैं उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी स्थित (संचार से रहित) ही होते हैं। वहीं पर कुछ जीवप्रदेशों में संचार भी पाया जाता है, इससे उनमें स्थित कर्मस्कन्ध भी संचार को प्राप्त होते हैं, इसलिए उन्हें अस्थित कहा जाता है । और उन दोनों ही प्रकार के कर्मस्कन्धों के समुदाय का नाम वेदना है, इसी कारण उसे स्थित-अस्थित दो स्वभाववाली कहा जाता है। यहाँ यह शंका उत्पन्न हुई है कि जो जीवप्रदेश अस्थित हैं उनके कर्मबन्ध भले ही हो, क्योंकि वे योग से सहित होते हैं । किन्तु जो जीवप्रदेश स्थित होते हैं उनके कर्मबन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि उनमें योग का अभाव है । कारण यह कि स्थित जीवप्रदेशों में हलन-चलन नहीं होता है। यदि हलन-चलन से रहित जीवप्रदेशों में योग का सद्भाव स्वीकार किया जाता है तो सिद्धों के भी सयोग होने का प्रसंग प्राप्त होता है । इस शंका के समाधान में कहा गया है कि मन, वचन और काय की क्रिया उत्पन्न करने में जो जीव का उपयोग होता है उसका नाम योग है और वह कर्मबन्ध का कारण है । वह योग थोड़े से जीवप्रदेशों में नहीं होता है, क्योंकि एक जीव में प्रवृत्त हुए योग के थोड़े से ही अवयवों में रहने का विरोध है, अथवा एक जीव में उसके खण्ड-खण्ड स्वरूप से प्रवृत्त होने का विरोध है । इससे स्थित जीवप्रदेशों में कर्मबन्ध होता है, यह जाना जाता है । इसके अतिरिक्त योग के आश्रय से नियमतः जीवप्रदेशों में परिस्पन्दन होता है ऐसा भी नहीं है; क्योंकि उसकी उत्पत्ति नियत नहीं है। और वैसा नियम हो भी नहीं, ऐसा भी नहीं है । हाँ, यह नियम अवश्य है कि यदि वह परिस्पन्दन होता है तो योग से ही होता है। इसलिए स्थित जीवप्रदेशों में भी योग का सद्भाव रहने से कर्मबन्ध को स्वीकार करना चाहिए (पु० १२, पृ० ३६६-६७)। ___ इसी पद्धति से सूत्रकार द्वारा आगे उन तीन नगमादि नयों की अपेक्षा दर्शनावरणीयादि अन्य सात कर्मों का तथा ऋजुसूत्र और शब्द नयों की अपेक्षा ज्ञानावरणीयादि आठों कर्मवेदनाओं की स्थित-अस्थितरूपता का विचार किया गया है, जो 'मूलग्रन्थगत विषय-परिचय' से जाना जा सकता है। १२. वेदना-अन्तरविधान इस प्रसंग में धवला में बन्ध के दो भेदों अमन्तरबन्ध और परम्पराबन्ध का निर्देश करते पदन्तानम पर टीकाएं | Vee Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए यह बतलाया है कि कार्मण वर्गणारूप से स्थित पुद्गलस्कन्ध मिथ्यात्वादि कारणों से कर्मरूप से परिणत होने के प्रथम समय में अनन्तरबन्धरूप होते हैं । कारण यह है कि कार्मणवर्गणारूप पर्याय के परित्याग के अनन्तर समय में ही वे कर्मरूप पर्याय से परिणत हो जाते हैं। बन्ध होने के दूसरे समय से लेकर जो कर्मपुद्गलस्कन्धों का और जीवप्रदेशों का बन्ध होता है उसका नाम परम्पराबन्ध है (पु० १२, पृ० ३७०)। __ आगे तदुभयबन्ध के प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि बन्ध, उदय और सत्त्वरूप से स्थित कर्मपुद्गलों के वेदन की प्ररूपणा 'वेदनावेदनविधान' में की जा चुकी है, इसलिए इन सूत्रों का यह अर्थ नहीं है, अतः इन सूत्रों के अर्थ की प्ररूपणा की जाती है, यह कहते हुए धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि अनन्तानन्त ज्ञानावरणीयरूप कर्मस्कन्ध परस्पर में सम्बद्ध होकर जो स्थित होते हैं, वह अनन्तरबन्ध है । इसी प्रकार सम्बन्ध से रहित एक-दो आदि परमाणुओं के शानावरणस्वरूप होने का प्रतिषेध किया गया है । आगे कहा है कि वे ही अनन्तरबद्ध परमाणु जब ज्ञानावरणीयरूपता को प्राप्त हो जाते हैं तब परम्पराबन्धरूप ज्ञानावरणीय-वेदना भी होती है, इसके ज्ञापनार्थ दूसरे सूत्र (४,२,१२,३) की प्ररूपणा की गयी है । अनन्तानन्त कर्मपुद्गलस्कन्ध परस्पर में सम्बद्ध होकर शेष कर्मस्कन्धों से असम्बद्ध रहते हुए जीव के द्वारा जब दूसरों के साथ सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं तब उन्हें परम्पराबन्ध कहा जाता है। ये भी ज्ञानवरणीयवेदनारूप होते हैं, यह अभिप्राय समझना चाहिए । एक जीव के आश्रित सभी ज्ञानावरणीयरूप कर्मपुद्गलस्कन्ध परस्पर में समवेत होकर ज्ञानावरणीयवेदना होते हैं; इस एकान्त का निराकरण हो जाता है। १३. वेदनासंनिकर्षविधान यहां संनिकर्ष का स्वरूप स्पष्ट करते धवला में कहा है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चारों में प्रत्येक पद उत्कष्ट और जघन्य के भेद से दो प्रकार का है। इनमें से किसी एक को विवक्षित करके शेष पद क्या उत्कृष्ट हैं, अनुत्कृष्ट हैं, जघन्य हैं या अजघन्य हैं, इसकी जो परीक्षा की जाती है उसका नाम संनिकर्ष है। वह स्वस्थानसंनिकर्ष और परस्थानसंनिकर्ष के भेद से दो प्रकार का है । इनमें एक कर्म को विवक्षित करके जो उक्त द्रव्यादि पदों की परीक्षा की जाती है उसे स्वस्थानसंनिकर्ष कहा जाता है । आठों कर्मों के आश्रय से जो उक्त प्रकार से परीक्षा की जाती है वह परस्थानसंनिकर्ष कहलाता है । यथा जिसके द्रव्य की अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना उत्कृष्ट होती है उसके वह ज्ञानावरणीयवेदनाक्षेत्र की अपेक्षा नियम से अनुत्कृष्ट व असंख्यातगुणी हीन होती है। काल की अपेक्षा वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। इसी प्रकार भाव की अपेक्षा वह उसके उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी, इत्यादि ।' यह स्वस्थानसंनिकर्ष का उदाहरण है। परस्थानसंनिकर्ष का उदाहरण जिसके ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्य की अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके आयु को छोड़ शेष छह कर्मों की वेदना उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी होती है, इत्यादि । १. सूत्र ४,२,१३,६-१४ व उनकी धवला टीका। २. सूत्र ४,२,१३,२२०-२२ व उनकी टीका । ५०./ षट्माण्डागम-परिशीलन Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी पद्धति से सूत्रकार द्वारा यहाँ अन्य कर्मों के विषय में भी प्रकृत स्वस्थान- परस्थान संनिकर्ष का विचार किया गया है, जिसका स्पष्टीकरण धवलाकार ने यथाप्रसंग किया है । १४. वेदनापरिमाणविधान इस अधिकार का स्मरण करानेवाले प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए धवला में शंकाकार ने कहा है कि इस अनुयोगद्वार से किसी प्रमेय का बोध नहीं होता है, इसलिए इसे प्रारम्भ नहीं करना चाहिए। उससे किसी प्रमेय का बोध क्यों नहीं होता है, इसे स्पष्ट करते हुए शंकाकार ने कहा है कि यह अनुयोगद्वार प्रकृतियों के परिणाम का प्ररूपक तो हो नहीं सकता, क्योंकि ज्ञानावरणीयादि आठ ही कर्मप्रकृतियाँ हैं, यह पहले बतला चुके हैं । स्थितिवेदना के प्रमाण की भी प्ररूपणा उसके द्वारा नहीं की जाती है, क्योंकि पीछे कालविधान में विस्तारपूर्वक उसकी विधिवत् प्ररूपणा की जा चुकी है। वह भाववेदना के प्रमाण की भी प्ररूपणा नहीं करता है, क्योंकि उसकी प्ररूपणा भावविधान में की जा चुकी है । और जिस अर्थ की पूर्व में प्ररूपणा की जा चुकी है उसकी पुनः प्ररूपणा का कुछ फल नहीं है । वह प्रदेश प्रमाण का भी प्ररूपक नहीं है, क्योंकि द्रव्यविधान के प्रसंग में उसकी प्ररूपणा हो चुकी है । क्षेत्रवेदना के प्रमाण की प्ररूपणा उसके द्वारा की जा रहो हो, यह भी सम्भव नहीं है; क्योंकि वेदनाक्षेत्र विधान में उसे दे चुके हैं । इस प्रकार जब इस अनुयोगद्वार का कुछ प्रतिपाद्य विषय शेष है ही नहीं तो उसका प्रारम्भ करना निरर्थक है । इसका समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि पूर्व में द्रव्याथिक नय की अपेक्षा माठ ही प्रकृतियाँ होती हैं यह कहा गया है। उन आठों प्रकृतियों के क्षेत्र, काल, भाव आदि के प्रमाण की प्ररूपणा पूर्व में नहीं की गयी है इसलिए इस समय पर्यायार्थिक नय का आश्रय लेकर प्रकृतियों के प्रमाण की प्ररूपणा करने के लिए यह अनुयोगद्वार आया है । इस अधिकार में ये तीन अनुयोगद्वार हैं- प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्याश्रय या क्षेत्रप्रत्यास ।' इनमें से प्रकृत्यर्थता अधिकार में प्रकृति के भेद से कर्मभेदों की प्ररूपणा है । प्रकृति, शील और स्वभाव ये समानार्थक शब्द हैं। दूसरे अनुयोगद्वार में समयप्रबद्धों के भेद से प्रकृतियों के भेदों को प्रकट किया गया है। तीसरे अनुयोगद्वार में क्षेत्र के भेद से प्रकृतियों के भेदों की प्ररूपणा की गयी है, यथा प्रकृत्यर्थता के अनुसार ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म की कितनी प्रकृतियाँ हैं, इसे स्पष्ट करते हुए सूत्रकार ने उन्हें असंख्यात लोकप्रमाण कहा है (सूत्र ४,२,१४,३-४) । इसके स्पष्टीकरण में धवलाकार ने कहा है कि इन दोनों कर्मों की प्रकृतियाँ या शक्तियां असंख्यात लोकप्रमाण हैं । कारण यह कि उनके द्वारा आच्छादित किये जानेवाले ज्ञान और दर्शन असंख्यात लोकप्रमाण पाये जाते हैं । धवला में आगे कहा है कि सूक्ष्म निगोदजीव का जो जघन्य लब्ध्यक्षरज्ञान है वह निरावरण है, क्योंकि अक्षर का अनन्त भाग सदा प्रकट रहता १. क्षेत्रं प्रत्याश्रयो यस्याः सा क्षेत्रप्रत्याश्रया अधिकृतिः । -- धवला पु० १२, पृ० ४७८; प्रत्यास्यते यस्मिन् इति प्रत्यासः, क्षेत्रं तत्प्रत्यासश्च क्षेत्रप्रत्यासः । जीवेण ओट्ठद्धखेत्तस्स खेत्तपच्चासे त्ति सण्णा । - धवला पु० १२, पृ० ४६७ बसण्डागम पर टीकाएँ / ५०१ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । यह ज्ञान का प्रथम भेद है । इस लब्ध्यक्षरज्ञान को समस्त जीवराशि से खण्डित करने पर जो लब्ध हो उसे उसमें मिला देने पर ज्ञान का दूसरा भेद होता है । फिर इस दूसरे ज्ञान को उस जीवराशि से खण्डित करने पर ज्ञान का तीसरा भेद होता है । इस प्रकार छह वृद्धियों के क्रम से असंख्यात लोकमात्र स्थान जाकर अक्षरज्ञान के उत्पन्न होने तक ले जाना चाहिए । अक्षरज्ञान के आगे उत्तरोत्तर एक-एक अक्षर की वृद्धि से उत्पन्न होनेवाले ज्ञानभेदों की 'अक्षरसमास' संज्ञा है । यहाँ कुछ आचार्यों का कहना है कि अक्षरज्ञान के आगे छह प्रकार की वृद्धि नहीं है, किन्तु दुगुने तिगुने आदि के क्रम से अक्षरवृद्धि ही होती है । किन्तु दूसरे कुछ आचार्यों का कहना है कि अक्षरज्ञान से लेकर आगे क्षयोपशमज्ञान में छह प्रकार की वृद्धि होती है। इस प्रकार इन दो उपदेशों के अनुसार पद, पदसमास, संघात व संघातसमास आदि ज्ञानभेदों की प्ररूपणा करना चाहिए । उक्त प्रकार से श्रुतज्ञान के भेद असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं। मतिज्ञान भी इतने ही हैं, क्योंकि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही होता है। कार्य के भेद से कारण में भेद पाया ही जाता है । अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान के भेदों की प्ररूपणा जैसे मंगलदण्डक में की गयी है वैसे ही यहाँ करना चाहिए। केवलज्ञान एक ही है । - इसी प्रकार दर्शन के भेद भी असंख्यात लोकमात्र जानना चाहिए, क्योंकि सभी ज्ञान दर्शनपूर्वक ही होते हैं । जितने ज्ञान और दर्शन हैं उतनी ही ज्ञानावरण और दर्शनावरण की आवरणशक्तियाँ हैं । इस प्रकार ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय की प्रकृतियाँ असंख्यात लोकमात्र हैं, यह सिद्ध है ( पु० १२, पृ० ४७९-८० ) । यहाँ सूत्रकार द्वारा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय इन कर्मों के साथ नामकर्म की भी असंख्यात लोकमात्र प्रकृतियाँ निर्दिष्ट की गयी हैं ( सूत्र ४,२, १४, १५-१६) । शेष वेदनीय, मोहनीय, आयु, गोत्र और अन्तराय कर्मों की यथाक्रम से दो, अट्ठाईस, चार और पाँच प्रकृतियाँ उसी प्रकार से निर्दिष्ट हैं; जिस प्रकार कि उनका उल्लेख इसके पूर्व 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका' और इसके आगे 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में किया जा चुका है ।" वेदनीय कर्म के प्रसंग में धवला में यह शंका की गयी है कि सुख और दुःख के अनन्त भेद हैं । तदनुसार वेदनीय की अनन्त शक्तियाँ ( प्रकृतिभेद) सूत्रकार द्वारा क्यों नहीं निर्दिष्ट की गयीं। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह सच है. यदि पर्यायार्थिकनय का अव लम्बन किया गया होता, किन्तु यहाँ द्रव्यार्थिक नय का अवलम्बन किया गया है इसीलिए उसकी अनन्त शक्तियों का निर्देश न करके दो शक्तियों का ही निर्देश है । जैसा कि अभी ऊपर कहा गया है, सूत्रकार ने मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियों का ही निर्देश किया है (सूत्र ४, २, १४,६-११) । इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि यह प्ररूपणा अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का आ १. प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका, सूत्र १७ १८, १९, २५-२६, ४५ और ४६ ( पु० : ६ ) तथा प्रकृतिअनुयोगद्वार सूत्र ८७६०, ६८-६६,१३४-३५ और १३६-३७ (पु० १३ ) २. धवला पु० १२, पृ० ४८१ ५०२ / ट्ण्डागम-परिशीलन Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लम्बन लेकर की गयी है । पर्यायाथिक नय का अवलम्बन करने पर मोहनीय की असंख्यात लीक मात्र प्रकृतियाँ हैं, अन्यथा असंख्यात लोकमात्र उसके उदयस्थान घटित नहीं होते हैं । __ लगभग इसी प्रकार का स्पष्टीकरण धवलाकार द्वारा आयुकर्म के प्रसंग में भी किया गया है।' यह पूर्व में कहा जा चका है कि सत्रकार द्वारा नामकर्म की असंख्यात लोकमात्र प्रकृतियां निर्दिष्ट की गयी हैं (सूत्र ४,२,१४,१५-१७)। इसकी व्याख्या में धवला में यह शंका उठी हैं कि यहाँ पर्यायार्थिक नय का अवलम्बन क्यों किया गया है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि आनुपूर्वी के भेदों के प्रतिपादन के लिए यहाँ पर्यायाथिकनय का अवलम्बन लिया गया है। उन्होंने आगे क्रम से नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी आदि चारों आनुपूर्वियों की शक्तियों (प्रकृतिभेदों) को स्पष्ट किया है। यहाँ यह स्मरणीय है कि इन आनुपूर्वी प्रकृतियों के उत्तर भेदों का उल्लेख प्रायः उसी रूप में स्वयं सूत्रकार द्वारा आगे 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में किया गया है। __ जैसा कि धवलाकार को अपेक्षा रही है, सूत्रकार ने यहीं पर उन आनुपूर्वी-प्रकृतिभेदों का उल्लेख क्यों नहीं किया, जिनका उल्लेख उन्होंने आगे 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में किया है। यह विचारणीय है। आगे समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्याश्रय इन दो अनुयोगद्वारों में सूत्रकार द्वारा क्रम से समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यास के आश्रय से जो प्रकृतिभेदों की प्ररूपणा की गयी है, धवलाकार ने यथाप्रसंग उसका स्पष्टीकरण किया है। माहारकद्विक व तीर्थकर नारकर्मों के विषय में विशेष ऊहापोह विशेष इतना है नामकर्म के प्रसंग में सूत्रकार ने सामान्य से यह कहा है कि नामकर्म की एक-एक प्रकृति को बीस, अठारह, सोलह, पन्द्रह, चौदह, बारह और दस कोडाकोडि सागरोपमों को समयप्रबद्धतार्थता से गुणित करने पर जो प्राप्त हो उतने विवक्षित प्रकृति के भेद होते हैं (सूत्र ४,२,१४,३७-३६)। उसकी व्याख्या करते हुए धवला में उस प्रसंग में शंका की गयी है कि आहारकद्विक की समयप्रबद्धार्थता संख्यात अन्तर्मुहूर्त मात्र है । यहाँ शंकाकार ने कहा है कि आठ वर्ष और अन्तमुहूर्त के ऊपर संयत होकर अन्तर्मुहूर्त काल तक आहारकद्विक को बांधता है और फिर नियम से थक जाता है। कारण यह है कि प्रमत्तकाल में आहारक द्विक का बन्ध नहीं होता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त तक उसका अबन्धक होकर पुन: अप्रमत्त होने पर उसे अन्तर्मुहर्त तक बांधता है। इस क्रम से अप्रमत्त-प्रमत्तकाल में उसका बन्धक-अबन्धक होकर पूर्वकोटि के अन्तिम समय तक रहता है । इन अन्तर्मुहूर्तों को सम्मिलित रूप में ग्रहण करने पर संख्यात अन्तर्मुहूर्त मात्र ही उस आहारकद्विक की समयप्रबद्धार्थता होती है। आगे शंकाकार तीर्थकर प्रकृति की समयप्रबद्धार्थता को भी साधिक तेतीस सागरोपम मात्र १. धवला पु० १२, पृ० ४८३ २. पु० १२, पृ० ४८३-८४; इस प्रसंग में सूत्र ५,५,११६-२२ (पु० १३, पृ० ३७१-९३) द्रष्टव्य हैं। बदलण्डागम पर टीकाएँ । ५.३ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बतलाकर उसे स्पष्ट करते हुए कहता है कि एक देव अथवा नारकी सम्यग्दृष्टि पूर्वकोटि बायुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। गर्भ से लेकर आठ वर्ष व अन्तर्मुहर्त में उसके तीर्थकर नामकर्म बांधने में आया। यहां से लेकर आगे वह उसे शेष पूर्वकोटि से अधिक तेतीस सागरोपमकाल तक बांधता रहा है। कारण यह है कि तीर्थकर कर्म के बन्धक संयत के तेतीस सागरोपम आयुवाले देवों में उत्पन्न होने पर तेतीस सागरोपम काल तक उसका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। फिर वहां से च्युत होकर वह पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होने पर आयु में वर्षपृथक्त्व शेष रह जाने तक उसे निरन्तर बांधता है । यहाँ उसके अपूर्वकरण संयत होने पर उस अपूर्वकरण के सात भागों में से छठे भाग के अन्तिम समय तक बांधता है । तत्पश्चात् सातवें भाग के प्रथम समय में उसका बन्ध व्युच्छिन्न हो जाता है। वर्षपृथक्त्व को कम इसलिए किया गया है कि तीर्थकर का विहार जघन्य रूप में वर्षपृथक्त्व काल तक पाया जाता है । इस प्रकार आदि के तथा अन्त के दो वर्षपृथक्त्वों से कम दो पूर्वकोटियों से अधिक तेतीस सागरोपम तीर्थकर कर्म की समयप्रबद्धार्थता होती है। इस प्रकार किन्हीं आचार्यों ने उस आहारकद्विक और तीर्थकर इन नामकर्मों की समयप्रबद्धार्थता के विषय में अपना अभिमत प्रकट किया है। उसका निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है कि उनका वह अभिमत घटित नहीं होता है, क्योंकि आहारकद्विक की संख्यात वर्ष मात्र और तीर्थकर कर्म की साधिक तेतीस सागरोपममात्र समयप्रबद्धार्थता होती है, इसका प्रतिपादक कोई भी सूत्र नहीं है । और सूत्र के प्रतिकूल व्याख्यान होता नहीं है, वह व्याख्यानाभास ही होता है । युक्ति से भी उसमें बाधा नहीं पहुंचायी जा सकती है, क्योंकि जो समस्त बाधाओं से रहित होता है उसे सूत्र माना गया है। ___ इस पर यह पूछे जाने पर कि तो फिर इन तीन कर्मों की समयप्रबद्धार्थता कितनी है, धवलाकार ने कहा है कि उन तीनों की समयप्रबद्धार्थता बीस कोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाण है। __ यहां यह शंका की गयी है कि तीनों कर्मों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ि प्रमाण ही होता है। और उतने काल भी उनका बन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि उनका बन्ध क्रम से संख्यात वर्ष और साधिक तेतीस सागरोपम मात्र ही पाया जाता है। जिन कर्मों की अन्त:कोडाडि मात्र भी समयप्रबद्धार्थता सम्भव नहीं है, उनकी बीस कोड़ाकोड़ि सागरोपममात्र समयप्रबदार्थता कैसे सम्भव है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह कुछ दोष नहीं है, क्योंकि इन तीनों को के बन्ध के चाल रहने पर बीस कोड़ाकोडि सागरोपमों में संचित नामकों के समयप्रबदों के इन तीनों कर्मों में संक्रान्त होने पर उनकी बीस कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण समयप्रद्धार्थता पायी जाती है। इत्यादि प्रकार से आगे भी उनके विषय में कुछ ऊहापोह किया गया है।' १५. वेदनाभागाभागविधान इस अनुयोगद्वार में भी प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यास वे ही तीन अनुयोगद्वार हैं। यहाँ इन तीनों अनुयोगद्वारों के आश्रय से विवक्षित कर्मप्रकृतियां अन्य सब कमप्रकृतियों के कितनेवें भागप्रमाण हैं, इसे स्पष्ट किया गया है। आवश्यकतानुसार यथाप्रसंग १. इस सब के लिए धवला पु० १२, पृ० ४६२-६६ द्रष्टव्य हैं । ५०४ / पदसण्डागम-परिशीलन Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवला में उसका स्पष्टीकरण किया गया है। १६. वेदनाअल्पबहुत्व विधान प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यास ये ही तीन अनुयोगद्वार यहाँ भी हैं। इनके आश्रय से उक्त ज्ञानावरणादि कर्मप्रकृतियों के अल्पबहुत्व के विषय में विचार किया गया है। धवला में यहां कुछ विशेष व्याख्येय नहीं रहा है । उपर्युक्त १६ अनुयोगद्वारों के समाप्त हो जाने पर प्रकृत 'वेदना' अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है । इस प्रकार से षटखण्डागम का चौथा 'वेदना' खण्ड समाप्त होता है। पंचम खण्ड : वर्गणा जैसाकि 'मूलग्रन्थगत विषय-परिचय' से स्पष्ट हो चुका है, इस खण्ड में स्पर्श, कर्म और प्रकृति इन तीन अनुयोगद्वारों के साथ चौथे 'बन्धन' अनुयोगद्वार के अन्तर्गत बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान इन चार अधिकारों में से वन्ध और बन्धनीय ये दो अधिकार भी समाविष्ट हैं। (१) स्पर्श अनुयोगद्वार इसमें स्पर्शनिक्षेप व स्पर्शनयविभाषणता आदि १६ अवान्तर अनुयोगद्वार हैं। उनमें से 'स्पर्शनिक्षेप' के प्रसंग में स्पर्श के नामस्पर्श, स्थापनास्पर्श आदि तेरह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। इनके स्वरूप को 'मूलग्रन्थगत विषय-परिचय' में स्पष्ट किया जा चुका है। नयविभाषणता-यहाँ कौन नय किन स्पर्शों को विषय करता है और किन को नहीं, इसका विचार किया गया है। एक गाथासूत्र द्वारा यहाँ यह भी स्पष्ट किया गया है कि नैगमनय सभी स्पर्शों को विषय करता है। किन्तु व्यवहार और संग्रह ये दो नय बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्श इन दो स्पर्शों को स्वीकार नहीं करते हैं (सूत्र ५,३,७) । ___ इस प्रसंग में धवला में यह शंका की गई है कि ये दो नय बन्धस्पर्श को क्यों नहीं स्वीकार करते । उत्तर में कहा गया है कि बन्धस्पर्श का अन्तर्भाव कर्मस्पर्श में हो जाता है । यह कर्मस्पर्श दो प्रकार का है-कर्मस्पर्श और नोकर्मस्पर्श । उपर्युक्त बन्धस्पर्श इन दोनों के अन्तर्गत है, क्योंकि इन दोनों से पृथक् बन्ध सम्भव नहीं है। प्रकारान्तर से उक्त शंका के समाधान में धवलाकार ने यह भी कहा है -अथवा बन्ध है ही नहीं, क्योंकि बन्ध और स्पर्श इन दोनों शब्दों में अर्थ भेद नहीं है । यदि कहा जाय कि बन्ध के बिना भी लोहा और अग्नि का स्पर्श देखा जाता है तो यह भी संगत नहीं है, क्योंकि संयोग अथवा समवाय रूप सम्बन्ध के बिना स्पर्श पाया नहीं जाता । अभिप्राय यह है कि लोहा और अग्नि का जो स्पर्श देखा जाता है वह उनके परस्पर संयोग सम्बन्ध से ही होता है। आगे व्यवहार और संग्रहनय भव्यस्पर्श को क्यों नहीं विषय करते हैं, इसे भी स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि विष, यंत्र, कूट, पिंजरा आदि का स्पर्श चूंकि वर्तमान में नहीं है--आगे होने वाला है, इसलिए उसे भी इन दोनों नयों की विषयता से अलग रखा गया है। कारण यह कि दोनों के स्पर्श के विना 'स्पर्श' यह संज्ञा घटित नहीं होती है। इसके अतिरिक्त अस्पृष्टकाल में तो उनका स्पर्श सम्भव नहीं है तथा स्पृष्टकाल में वह कर्म, नोकर्म, सर्व और षटखण्डागम पर टीकाएँ /५०५ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश इन स्पर्श-भेदों में प्रविष्ट होता है। इस कारण इस भव्यस्पर्श को भी उनकी विषयता से अलग रखा गया है । दूसरे, स्थापनास्पर्श के अन्तर्गत होने से भी संग्रहनय उस भव्यस्पर्श को विषय नहीं करता है, क्योंकि 'वह यह है' इस प्रकार के अध्यारोप के बिना वर्तमान में यन्त्र आदिकों में स्पर्श घटित नहीं होता है । आगे दूसरे गाथासूत्र में जो यह कहा है कि ऋजुसूत्रनय एकक्षेत्रस्पर्श, अनन्तरस्पर्श, बन्धस्पर्श और भव्य स्पर्श को विषय नहीं करते तथा शब्दनय नामस्पर्श, स्पर्शस्पर्श और भावस्पर्श को स्वीकार नहीं करते (५,३, ८); इसे भी धवला में स्पष्ट किया गया है ( पु० १३ पृ ४०८ ) | द्रव्यस्पर्श के स्वरूप को प्रकट करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि जो एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के साथ स्पर्श करता है, इसका नाम द्रव्यस्पर्श है । (सूत्र ५, ३, ११-१२) इस सूत्र के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि परमाणुपुद्गल शेष पुद्गलद्रव्य से स्पर्श करता है, क्योंकि परमाणुपुद्गल की शेष पुद्गलों के साथ पुद्गलद्रव्यस्वरूप से एकता पायी जाती है। एक पुद्गलद्रव्य का शेष पुद्गलद्रव्यों के साथ जो संयोग अथवा समवाय होता है, इसका नाम द्रव्यस्पर्श है । अथवा, जीवद्रव्य और पुद्गल का जो एक स्वरूप से सम्बन्ध होता है उसे द्रव्यस्पर्श जानना चाहिए। यहाँ धवला में यह शंका उत्पन्न हुई है कि जीवद्रव्य तो अमूर्त है और पुद्गलद्रव्य मूर्त है, ऐसी अवस्था में इन अमूर्त व मूर्त दो द्रव्यों का एक स्वरूप से सम्बन्ध कैसे हो सकता है । इसके समाधान में वहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि संसार-अवस्था में चूँकि जीवों के अमूर्तरूपता नहीं है, इसलिए उसमें कुछ विरोध नहीं है । इस पर वहाँ यह शंका उठी है कि यदि संसार-अवस्था में जीव मूर्त रहता है तो वह मुक्त होने पर अमूर्तरूपता को कैसे प्राप्त होता है। उत्तर में कहा गया है कि मूर्तता का कारण कर्म है, उसका अभाव हो जाने पर उसके आश्रय से रहनेवाली मूर्तता का भी अभाव हो जाता है । इस प्रकार सिद्ध जीवों के अमूर्तरूपता स्वयंसिद्ध है । यहीं पर आगे, जीव- पुद्गलों के सम्बन्ध की सादिता - अनादिता का विचार करते हुए उस प्रसंग में यह पूछने पर कि द्रव्य की 'स्पर्श' संज्ञा कैसे सम्भव है, धवलाकार ने कहा है कि 'स्पृश्यते अनेन, स्पृशतीति वा स्पर्शशब्दसिद्धेर्द्रव्यस्य स्पर्शत्वोपपत्तेः' अर्थात् 'जिसके द्वारा स्पर्श किया जाता है अथवा जो स्पर्श करता है' इस निरुक्ति के अनुसार 'स्पर्श' शब्द के सिद्ध होने से द्रव्य के स्पर्शरूपता बन जाती है। छहों द्रव्य सत्त्व, प्रमेयत्व आदि की अपेक्षा परस्पर समान हैं, इसलिए नैगम नय की अपेक्षा उन छहों द्रव्यों के द्रव्यस्पर्श है । धवलाकार ने यहाँ एक, दो, तीन आदि द्रव्यों के संयोग से सम्भव भंगों के प्रमाण को भी स्पष्ट किया है । एकसंयोगी भंग जैसे - ( १ ) एक जीवद्रव्य दूसरे जीवद्रव्य का स्पर्श करता है, क्योंकि अनन्तानन्त निगोदजीवों का एक निगोदशरीर में परस्पर समवेत होकर अवस्थान पाया जाता है, अथवा जीवस्वरूप से उनमें एकता देखी जाती है । (२) एक पुद्गलद्रव्य दूसरे पुद्गलद्रव्य के साथ स्पर्श करता है, क्योंकि परस्पर में समवाय को प्राप्त हुए अनन्त पुद्गल परमाणुओं का अवस्थान देखा जाता है, अथवा पुद्गल स्वरूप से उनमें एकता देखी जाती है। (३) धर्मद्रव्य धर्मद्रव्य के साथ स्पर्श करता है, क्योंकि असंग्राही नैगमनय का आश्रय करके 'द्रव्य' नाम को प्राप्त लोकाकाश प्रमाण धर्मद्रव्य के असंख्यात प्रदेशों का परस्पर में स्पर्श देखा जाता है । ५०६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) अधर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य को स्पर्श करता है, क्योंकि असंग्राही नैगमनय की अपेक्षा द्रव्यरूपता को प्राप्त अधर्मद्रव्य के स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणुओं के एकता देखी जाती है । (५) कालद्रव्य कालद्रव्य का स्पर्श करता है, क्योंकि एक क्षेत्र में स्थित मोतियों के समान समवाय से रहित होकर अवस्थित लोकाकाश प्रमाण काल-परमाणुओं में कालरूप से एकता देखी जाती है, अथवा एक लोकाकाश में अवस्थान की अपेक्षा भी उनमें एकता देखी जाती है। (६) आकाश द्रव्य आकाश द्रव्य से स्पर्श करता है, क्योंकि नैगमनय की अपेक्षा द्रव्यरूपता को प्राप्त आकाश के स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु का परस्पर में स्पर्श पाया जाता है। इस प्रकार ये ६ एकसंयोगी भंग होते हैं। द्विसंयोगी भंग जैसे-(१) जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य का स्पर्श करता है, क्योंकि जीवद्रव्य की अनन्तानन्त कर्म और नोकर्म पुद्गलस्कन्धों के साथ एकता देखी जाती है । (२) जीव और धर्म द्रव्यों का परस्पर में स्पर्श है, क्योंकि सत्त्व, प्रमेयत्व आदि गुणों से लोक मात्र में अवस्थित उन दोनों में एकता देखी जाती है । इसी प्रकार अधर्म आदि द्रव्यों के साथ स्पर्श रहने से १५ द्विसंयोगी भंग होते हैं। धवला में अन्य भंगों का भी उल्लेख है । इस प्रकार समस्त भंग ६३ (एकसंयोगी ६+ द्विसंयोगी १५+त्रिसंयोगी २०+ चतुःसंयोगी १५+पंचसंयोगी ६+षसंयोगी १) होते हैं। सर्वस्पर्श के स्वरूप का निर्देश करते हुए सूत्र में कहा गया है कि जो द्रव्य परमाणुद्रव्य के समान सर्वात्मस्वरूप से अन्य द्रव्य का स्पर्श करता है, इसका नाम सर्वस्पर्श है।। (सूत्र ५,३,२२) इस सूत्र का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि जिस प्रकार परमाणु द्रव्य सब (सर्वात्मस्वरूप से) अन्य परमाणु का स्पर्श करता है उसी प्रकार का अन्य भी जो स्पर्श होता है उसे सर्वस्पर्श कहा जाता है। __यहां शंकाकार ने, एक परमाणु दूसरे परमाणु में प्रविष्ट होता हुआ क्या एक देश से उसमें प्रविष्ट होता है या सर्वात्मरूप से, इत्यादि विकल्पों को उठाकर अन्य प्रासंगिक ऊहापोह के साथ सूत्रोक्त परमाणु के दृष्टान्त को असंगत ठहराया है। शंकाकार के इस अभिमत का निराकरण करते हुए धवला में, परमाणु क्या सावयव है या निरवयव-इन दो विकल्पों को उठाकर सावयवत्व के निषेधपूर्वक उसे निरवयव सिद्ध किया गया है। आगे वहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि जो संयुक्त व असंयुक्त पुद्गलस्कन्ध परमाणु प्रमाण में उपलब्ध होते हैं उनके अभाव के प्रसंग को टालने के लिए द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अवयवों से रहित परमाणु के देश स्पर्श को ही सर्वस्पर्श कहा गया है। कारण यह कि अखण्ड परमाणुओं के अवयवों का अभाव होने से उनके सर्वस्पर्श की सम्भावना देखी जाती है। प्रकारान्तर से यहां यह भी कहा है-अथवा दो परमाणुओं के देशस्पर्श होता है, क्योंकि इसके बिना स्थूल स्कन्धों की उत्पत्ति नहीं बनती। सर्वस्पर्श भी उनका होता है, क्योंकि एक परमाणु में दूसरे परमाणु के सर्वात्मना प्रविष्ट होने में कुछ विरोध नहीं है, कारण यह कि कोई परमाणु प्रवेश करनेवाले दूसरे परमाणु के प्रवेश में रुकावट डालता हो, यह तो सम्भव नहीं है, क्योंकि सूक्ष्म का अन्य सूक्ष्म या बादर स्कन्ध के द्वारा रोका जाना बनता नहीं है। इस प्रकार से धवलाकार ने शंकाकार द्वारा उद्भावित सूत्रोक्त परमाणु के दृष्टान्त की असंगति का षट्खण्डागम पर टीकाएँ | ५०७ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निराकरण किया है (पु० १३, पृ० २१-२४) । कर्मस्पर्श के प्रसंग में सूत्र कार ने कहा है कि कर्मस्पर्श ज्ञानावरणीयस्पर्श, दर्शनावरणीयस्पर्श आदि के भेद से आठ प्रकार का है (सूत्र ५,३,२५-२६)। इसकी व्याख्या में धवलाकार ने यह बताया है कि आठ कर्मों का जीव, विस्रसोपचय और नोकर्मों के साथ जो स्पर्श होता है वह द्रव्यस्पर्श के अन्तर्गत है इसलिए यहाँ उसे कर्मस्पर्श नहीं कहा जाता है । किन्तु कर्मों का कर्मों के साथ जो स्पर्श होता है वह कर्मस्पर्श है आगे 'अब यहाँ स्पर्श के भंगों की प्ररूपणा की जाती है' ऐसी सूचना कर उन्होने उसके भंगों को स्पष्ट किया है । कर्मस्पर्श के पुनरुक्त-अपुनरुक्त सभी भंग ६४ होते हैं। इनमें २८ पुनरुक्त भंग कम कर देने पर शेष ३६ भंग अपुनरुक्त रहते हैं । जैसे (१) ज्ञानावरणीय ज्ञानावरणीय का स्पर्श करता है । (२) ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय का स्पर्श करता है। इस क्रम से ज्ञानावरणीय के ८ भंग होते हैं। (१) दर्शनावरणीय दर्शनावरणीय का स्पर्श करता है। (२) दर्शनावरणीय ज्ञानावरणीय का स्पर्श करता है (पुनरुक्त)। (३) दर्शनावरणीय वेदनीय का स्पर्श करता है। इत्यादि क्रम से दर्शनावरणीय के भी ८ भंग होते हैं । इसी प्रकार से वेदनीय आदि शेष छह कर्मों के भी ८-८ भंग निर्दिष्ट किये गये हैं। बन्धस्पर्श के प्रसंग में भी इसी प्रकार से औदारिकशरीर-बन्धस्पर्श आदि के भेद से बन्धस्पर्श के पांच प्रकार के भंगों को धवला में स्पष्ट किया गया है (पु० १३, पृ० ३०-३४)। २. कर्म अनुयोगद्वार इस अनुयोगद्वार में जिन कर्म निक्षेप आदि १६ अनुयोगद्वारों का नामनिर्देश तथा कर्म के जिन दस भेदों का निर्देश किया गया है उनका परिचय 'मूलग्रन्थगत विषय-परिचय' में कराया जा चुका है। वहीं पर उसे देखना चाहिए। । उन दस कर्मों में ईर्यापथ कर्म को स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने 'ई' का अर्थ योग और 'पथ' का अर्थ मार्ग किया है । तदनुसार योग के निमित्त से जो कर्म बंधता है वह ईर्यापथ कर्म कहलाता है। वह उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगिकेवली इन तीन गुणस्थानों में उपलब्ध होता है (सत्र ५,४,२४)। धवला में ईर्यापथ कर्म को विशेष रूप से 'एत्थ ईरियावह कम्मरस लक्खणं गाहाहि उच्चदे' ऐसा निर्देश कर तीन गाथाओं को उद्धृत किया है और उनके आश्रय से कई विशेषणों द्वारा उसकी विशेषता को व्यक्त किया है । यथा वह अल्प है, क्योंकि कषाय का अभाव हो जाने से वह स्थितिबन्ध से रहित होकर कर्मस्वरूप से परिणत होने के दूसरे समय में ही अकर्मरूपता को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार उसके कालनिमित्तक अल्पता देखी जाती है। वह बादर है, क्योंकि ईर्यापथ कर्म सम्बन्धी समयप्रबद्ध के प्रदेश आठ कर्मों के समय प्रबद्ध प्रदेशों से संख्यातगुणे होते हैं। कारण कि उसमें एक सातावेदनीय को छोड़ कर अन्य कर्मों के १. ईर्या योगः, स पन्था मार्गः हेतुः यस्य कर्मणः तदीर्यापथकर्म । जोगणिमित्तेणेव जं बज्झइ तमीरियावहकम्म ति भणिदं होदि।-धवला पु० १३, पृ० ४७ ५०८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्ध का अभाव रहता है। इस प्रकार आनेवाले कर्मप्रदेशों की अपेक्षा उसे बादर कहा गया है। वह मद है, क्योंकि उसके स्कन्ध, कर्कश आदि गुणों से रहित होकर मदुस्पर्श गुण से सहित होते हुए ही बन्ध को प्राप्त होते हैं। वह बहुत है, क्योंकि कषाय सहित जीवों के वेदनीयकर्म के समय प्रबद्ध से ईर्यापथ कर्म का समयप्रबद्ध प्रदेशों की अपेक्षा संख्यातगुणा होता है। __इसी क्रम से आगे धवला में उसे रूक्ष, शुक्ल, मन्द, महाव्यय, साताभ्यधिक, गृहीत-अगृहीत, बद्ध-अबद्ध, स्पृष्ट-अस्पृष्ट, उदित-अनुदित, वेदित-अवेदित, निर्जरित-अनिर्जरित और उदीरितअनूदीरित विशेषणों से विशिष्ट दिखलाया गया है (पु० १३, पृ० ४७-५४)। तपःकर्म के प्रसंग में उसके लक्षण का निर्देश करते हुए धवला में कहा है कि रत्नत्रय को प्रकट करने के लिए जो इच्छा का निरोध किया जाता है उसका नाम तप है । वह बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का है। उनमें बाह्य तप अनेषण (अनशन), अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, कायक्लेश और विविक्तशय्यासन के भेद से छह प्रकार का है। अभ्यन्तर तप भी प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग के भेद से छह प्रकार का है। इस बारह प्रकार के तप को धवला में यथाक्रम से विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया गया है (पु० १३, पृ० ५४-८८) । । प्रायश्चित्तविषयक विचार के प्रसंग में यहाँ उसके ये दस भेद निर्दिष्ट किये गये हैं—आलोचन, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान । प्रायश्चित्त के ये दस भेद मूलाचार में उपलब्ध होते हैं। सम्भवत: उसी का अनुसरण यहाँ किया गया है। यथा आलोयण पडिकमणं उभय विवेगो तहा विउस्सग्गो। तव छेदो मूलं चिय परिहारो चेव सद्दहणा' ।।-मूला० ५/१६५ धवला में इनका स्वरूप बतलाते हुए, किस प्रकार के अपराध के होने पर कौन-सा प्रायश्चित्त विधेय होता है, इसे भी यथाप्रसंग स्पष्ट किया गया है। 'तत्त्वार्थसूत्र' (६-२२) में प्रायश्चित्त के ये नौ ही भेद निर्दिष्ट किये गये हैं--आलोचन, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना। इनमें प्रारम्भ के सात भेद दोनों ग्रन्थों में सर्वथा समान हैं। पर 'मूलाचार' और 'धवला' में जहाँ उनमें मूल, परिहार और श्रद्धान इन तीन अन्य भेदों को सम्मिलित करके उसके दस भेद निर्दिष्ट किये गये हैं जबकि तत्त्वार्थसूत्र में परिहार और उपस्थापना इन दो भेदों को सम्मिलित करके उनके नौ ही भेद निदिष्ट हैं। इनमें परिहार' भी दोनों ग्रन्थों में समान रूप से उपलब्ध होता है, मात्र क्रमव्यत्यय हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र' की टीका 'सर्वार्थसिद्धि' व 'तत्त्वार्थवार्तिक' में जो उनके स्वरूप का निर्देश है उसमें 'धवला' में कहीं पर साधारण स्वरूपभेद भी हुआ है। 'तत्त्वार्थसूत्र' में 'मूल' प्रायश्चित्त का उल्लेख नहीं है । उसके स्वरूप का निर्देश करते हुए १. यह गाथा धवला में (पु० १३, पृ० ६०) 'एत्थ गाहा' इस निर्देश के साथ उद्धृत भी की गयी है। षटखण्डागम पर टीकाए। ५०४ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवला में कहा गया है कि समस्त पर्याय को नष्ट करके फिर से दीक्षा देना मूल प्रायश्चित कहलाता है । यह अभिप्राय 'सर्वार्थसिद्धि' और 'तत्त्वार्थवार्तिक' (६,२२,१०) में 'उपस्थापना' प्रायश्चित्त के अन्तर्गत है।' __'श्रद्धान' प्रायश्चित का उल्लेख भी तत्त्वार्थसूत्र में नहीं हुआ है। इसका स्वरूप स्पष्ट करते हुए धवला में कहा है कि जो मिथ्यात्व को प्राप्त होकर स्थित है उसके लिए महाव्रतों को ग्रहण करके आप्त, आगम और पदार्थों का श्रद्धान करना-यही प्रायश्चित्त है।' परिहार प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य और पारंचिक के भेद से दो प्रकार का है। इनमें अनवस्थाप्य परिहार प्रायश्चित्त जघन्य से छह मास और उत्कर्ष से बारह वर्ष तक किया जाता है । इस प्रायश्चित्त का आचरण करनेवाला अपराधी साधु कायभूमि से परे विहरता है-साधुसंघ से दूर रहता है, प्रतिवन्दना से रहित होता है, गुरु को छोड़कर शेष जनों से मौन रखता है तथा क्षपण (उपवास), आचाम्ल, एकस्थान और निर्विकृति आदि तपों के द्वारा रस, रुधिर व मांस को सुखाता है ।। पारंचिक-परिहार प्रायश्चित्त भी इसी प्रकार का है । विशेषता यह है कि उसका आचरण साधर्मिक जन से रहित स्थान में कराया जाता है । इसमें उत्कर्ष से छह मास के उपवास का भी उपदेश किया गया है । ये दोनों प्रायश्चित्त राजा के विरुद्ध आचरण करने पर नौ-दस पूर्वो के धारक आचार्यों के होते हैं। 'चारित्रसार'५ में अनवस्थान परिहार को निजगण और परगण के भेद से दो प्रकार का कहा है। इनमें से जो मुनि प्रमाद के वश अन्य मुनि सम्बन्धी ऋषि, छात्र, गृहस्थ, दूसरे पाखण्डियों से सम्बद्ध चेतन-अचेतन द्रव्य अथवा पर-स्त्री को चुराता है या मुनियों पर प्रहार करता है, तथा इसी प्रकार अन्य भी विरुद्ध आचरण करता है उसे निजगणानुपस्थापन परिहार प्रायश्चित्त दिया जाता है । इसका आचरण करनेवाला नौ-दस पूर्वो का धारक, आदि के तीन संहननों से सहित, परीषह का जीतनेवाला, धर्म में स्थिर, धीर व संसार से भयभीत होता है । वह ऋषि-आश्रम से बत्तीस धनुष दूर रहता है, बालमुनियों की भी वन्दना करता है, प्रतिवन्दना से रहित होता है, गुरु के पास आलोचना करता है, शेष जनों के विषय में मौन रखता है, पीछी को उलटी रखता है, तथा जघन्य से पांच-पांच व उत्कर्ष से छह-छह मास का उपवास करता है। १. पुनर्दीक्षाप्रापणमुपस्थापना । महाव्रतानां मूलोच्छेदं कृत्वा पुनर्दीक्षाप्रापणमुपस्थापनेत्या___ ख्याते ।-त०वा० ६,२२,१० २. धवला पु० १३, पृ० ६३ ३. इसके विषय में विविध ग्रन्थों में शब्दभेद या पाठभेद हुआ है । देखिए, 'जैन लक्षणावली' ____ में अनवस्थाप्यता, अनवस्थाप्याई, अनुपस्थान और अनुपस्थापन शब्द । ४. धवला पु० १३, पृ० ५६-६३ ५. इस प्रसंग से सम्बद्ध धवला (पु० १३) में जो टिप्पण दिये गये हैं उनमें चारित्रसार के . स्थान में 'आचारसार' का उल्लेख है। ६. चारित्रसार पृ० ६३-६४ (इससे शब्दशः समान यही सन्दर्भ 'अनगार धर्मामृत' की स्वो० टीका (७-५६) में भी उपलब्ध होता है)। ५१० / षदखण्डागम-परिशीलन Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तत्त्वार्थवार्तिक' में तत्त्वार्थसूत्र में निर्दिष्ट नौ प्रकार के प्रायश्चित्त के स्वरूप आदि को प्रकट करते हुए अन्त में वहाँ किस प्रकार के अपराध में कौन-सा प्रायश्चित्त अनुष्ठेय होता है, इसका विवेचन है । पर यह प्रसंग वहाँ अशुद्ध बहुत हुआ है, जिससे यथार्थता का सरलता से बोध नहीं हो पाता है । इस प्रसंग में वहाँ अनुपस्थापन और पारंवि[चि ]क प्रायश्चित्तों का निर्देश करते हुए कहा है कि अपकृष्ट्य आचार्य के मूल में प्रायश्चित्त ग्रहण करने का नाम अनुपस्थापन प्रायश्चित्त है और एक आचार्य के पास से तीसरे आचार्य तक अन्य आचार्यों के पास भेजना यह पारंवि[च]क प्रायश्चित्त है । यहाँ यह स्मरणीय है कि चारित्रसार और आचारसार के अनुसार इस पारंचिक प्रायश्चित्त में अपराधी को एक से दूसरे व दूसरे से तीसरे आदि के क्रम से सातवें आचार्य के पास तक भेजा जाता है । 'तत्त्वार्थवार्तिक' में अन्त में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि यह प्रायश्चित्त नौ प्रकार का है । किन्तु देश, काल, शक्ति और संयम आदि के अविरोधपूर्वक अपराध के अनुसार रोगचिकित्सा के समान दोषों को दूर करना चाहिए। कारण यह कि जीव के परिणाम असंख्यात लोक प्रमाण हैं तथा अपराध भी उतने ही हैं, उनके लिए उतने भेद रूप प्रायश्चित्त सम्भव नहीं हैं । व्यवहार नय की अपेक्षा समुदित रूप में प्रायश्चित्त का विधान किया गया है ।' ध्यान विषयक चार अधिकार आगे इसी तपःकर्म के प्रसंग में अभ्यन्तर तप के पाँचवें भेदभूत ध्यान की प्ररूपणा करते हुए धवला में तत्त्वार्थ सूत्र ( ६ - २६ ) के अनुसार यह कहा गया है कि उत्तम संहननवाला जीव एक विषय की ओर जो चिन्ता को रोकता है उसे ध्यान कहते हैं । वहाँ एक गाथा' उद्धृत की गई है, जिसका अभिप्राय है स्थिर जो अध्यवसान - एकाग्रता का आलम्बन लेनेवाला मन - है उसका नाम ध्यान है । चल या अस्थिर अध्यवसान को चित्त कहा जाता है । वह सामान्य से तीन प्रकार का हैभावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता । भावना का अर्थ ध्यानाभ्यास की क्रिया है । स्मृतिरूप ध्यान से भ्रष्ट होने पर जो चित्त की चेष्टा होती है उसका नाम अनुप्रेक्षा है । इन दोनों प्रकारों से रहित जो मन की चेष्टा होती है उसे चिन्ता कहते हैं । 3 १. देखिए, त० वा० ६,२२,१०; विशेष जानकारी के लिए 'जैन लक्षणावली' भाग १ की प्रस्तावना पृ० ७६-७८ में अनुपस्थापन शब्द से सम्बद्ध सन्दर्भ द्रष्टव्य है । इसी 'जैन लक्षणावली' के भाग २ में 'पारंचिक' शब्द के अन्तर्गत सन्दर्भ भी देखने योग्य हैं । जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं । हो भावणा सा अणुपेहा वा अहव चिता ॥ - ५० १३, पृ०६४ यह गाथा ध्यानशतक में गाथांक २ के रूप में उपलब्ध होती है । इसी का संस्कृत छायानुवाद जैसा यह श्लोक आदिपुराण में इस प्रकार उपलब्ध होता हैस्थिर मध्यवसानं यत् तत् ध्यानं पञ्चलाचलम् । सानुप्रेक्षाथवा चिन्ता भावना चित्तमेव वा ।। २१-६ ३. ध्यानशतक गा० २ की हरिभद्र-वृत्ति द्रष्टव्य है । षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ५११ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. ध्याता - धवला में आगे ध्यान की प्ररूपणा क्रम से इन चार अधिकारों के आश्रय से की गई है - ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यानफल । यहाँ ध्याता उसे कहा गया है जो उत्तम संहनन से सहित, सामान्य से बलवान्, शूर-वीर और चौदह अथवा दस- नौ पूर्वो का धारक होता है । उसे इतने पूर्वों का धारक क्यों होना चाहिए, इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि ज्ञान के विना नौ पदार्थों का बोध न हो सकने से ध्यान घटित नहीं होता है, इसलिए उसे इतने पूर्वो का धारक होना चाहिए । इस प्रसंग में यहाँ यह शंका उठी है कि यदि नौ पदार्थों विषयक ज्ञान से ही ध्यान सम्भव है तो चौदह, दस अथवा नौ पूर्वो के धारकों को छोड़कर दूसरों के वह ध्यान क्यों नहीं हो सकता है, क्योंकि चौदह दस अथवा नौ पूर्वों के विना थोड़े से भी ग्रन्थ से नौ पदार्थों विषयक बोध पाया जाता है । इसके समाधान में धवला में कहा गया है कि वैसा सम्भव नहीं है, क्योंकि बोजबुद्धि ऋद्धि के धारकों को छोड़कर, अन्य जनों के थोड़े से ग्रन्थ से समस्त रूप में उन नौ पदार्थों के जान लेने के लिए और कोई उपाय नहीं है । इसे आगे और भी स्पष्ट किया है । तदनुसार जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इन नौ पदार्थों के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है - समस्त विश्व इन्हीं नौ पदार्थों में समाविष्ट है, इसलिए अल्प श्रुतज्ञान के बल पर समस्त रूप में उन नौ पदार्थों का जान लेना शक्य नहीं है। दूसरे, यहाँ द्रव्यश्रुत का अधिकार नहीं है, क्योंकि पुद्गल के विकार रूप जड़ द्रव्यश्रुत को श्रुत होने का विरोध है । वह केवलज्ञान का (भावश्रुत का ) साधन है । इसके अतिरिक्त यदि अल्प श्रुत से ध्यान को स्वीकार किया जाता है तो शिवभूति आदि, जो बीजबुद्धि के धारक रहे हैं, उनके उस ध्यान के अभाव का प्रसंग प्राप्त होने से मोक्ष के भी अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है । पर वैसा नहीं है, क्योंकि द्रव्यश्रुत के अल्प होने पर भी बीजबुद्धि ऋद्धि के बल से भाव रूप में उनको समस्त नौ पदार्थों का ज्ञान प्राप्त था । इसीलिए उन्हें शुक्ल ध्यान के आश्रय से मोक्ष प्राप्त हुआ है। शिवभूति के द्रव्यश्रुत अल्प रहा है, यह भावप्राभृत की इस गाथा से स्पष्ट हैतुस - मासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य । णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुडं जाओ | - गा० ५३ आगे धवलाकार कहते हैं कि यदि अल्प ज्ञान से ध्यान होता है तो क्षपकश्रेणि और उपशम श्रेणि के अयोग्य धर्मध्यान ही होता है । परन्तु चौदह, दस और नौ पूर्वी के धारकों को धर्म और शुक्ल दोनों ही ध्यानों का स्वामित्व प्राप्त है, क्योंकि इसमें कुछ विरोध नहीं है। इसलिए उनका ही यहाँ निर्देश किया गया है । आगे धवला में ध्याता की विशेषता को प्रकट करनेवाले कुछ अन्य विशेषण भी दिये गये हैं । यथा सम्यग्दृष्टि – नौ पदार्थोविषयक रुचि, प्रत्यय अथवा श्रद्धा के बिना ध्यान सम्भव नहीं है, क्योंकि उसकी प्रवृत्ति के कारणभूत संवेग और निर्वेद मिथ्यादृष्टि सम्भव नहीं है इसलिए उसे १. यह स्मरणीय है कि धवला में धर्मध्यान का सद्भाव असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक व उपशमक तक निर्दिष्ट किया गया है । यथा - असंजदसम्मादिट्ठिसंजदासंजद-पमत्तसंजद- अप्पमत्तसजद- अपुव्वसंजद-अणियट्टिसंजद - सुहुमसांपराइयखवगोवसामसु धम्म (?) स्स पवृत्ती होदि त्ति जिणोवएसादो । – पु० १३, पृ०७४ ५१२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यम्दृष्टि होना चाहिए। ग्रन्थत्यागी--ध्याता को बाह्य और अन्तरङ्ग परिग्रह का त्यागी होना चाहिए क्योंकि क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, यान, शयन, आसन, शिष्य, कुल, गण, संघ इत्यादि बाह्य परिग्रह के आश्रय से मिथ्यात्व व क्रोध-मानादिरूप अन्तरंग परिग्रह उत्पन्न होता है; जिसके वशीभूत होने पर ध्यान नहीं बनता है। विविक्त-प्रासुकदेशस्थ-ध्यान के लिए जीव-जन्तुओं से रहित एकान्त स्थान होना चाहिए । ऐसे स्थान पर्वत, गुफा, श्मशान उद्यान आदि हो सकते हैं। जहाँ स्त्रियों, पशुओं एवं दुष्ट जनों का आना-जाना होता है उस स्थान में चित्त की निराकुलता नहीं रह सकती। यही कारण है जो ध्यान के लिए योग्य निर्जन्तुक एकान्त स्थान का उपदेश दिया गया है। सुखासनस्थ-ध्यान के समय कष्टप्रद आसन पर स्थित होने से अंगों को पीड़ा उत्पन्न हो सकती है। इससे चित्त निराकुल नहीं रह सकता । अतएव जिस आसन पर बैठकर सुखपूर्वक ध्यान किया जा सके ऐसे सुखासन को ध्यान के योग्य आसन कहा गया है। अनियतकाल-ध्यान के लिए कोई समय नियत नहीं है, किसी भी समय वह किया जा सकता है, क्योंकि शुभ परिणाम सभी समयों में सम्भव हैं। सालम्बन-जिस प्रकार सीढ़ी आदि के बिना प्रासाद आदि के ऊपर चढ़ा नहीं जा सकता है उसी प्रकार आलम्बन के बिना ध्यान पर भी आरुढ़ नहीं हुआ जा सकता है। इसके विपरीत, मनुष्य जिस प्रकार लाठी अथवा रस्सी आदि का आलम्बन लेकर दुर्गम स्थान पर पहुँच जाता है उसी प्रकार ध्याता सूत्र व वाचना-पृच्छता आदि का आलम्बन लेकर ध्यान पर स्थिरतापूर्वक आरूढ़ हो जाता है। रत्नत्रयभावितात्मा-ध्यान के योग्य वह ध्याता होता है जिसने ध्यान के पूर्व सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और वैराग्य आदि विषयक भावनाओं के द्वारा उसका अभ्यास कर लिया हो । जो शंकादि दोषों से रहित होकर प्रशमादि गुणों को प्राप्त कर चुका है वह दर्शनविशुद्धि से विशद्ध हो जाने के कारण ध्यान के विषय मे मढ़ता को प्राप्त नही होता है। निरन्तर ज्ञान के अभ्यास से मन की प्रवृत्ति अशुभ व्यापार में नहीं होती है, इसलिए वह निश्चलतापूर्वक ध्यान में निमग्न हो सकता है, चारित्र की भावना से नवीन कर्मों का आस्रव रुककर पुरातन कर्म की निर्जरा होती है। वैराग्यभावना से जगत् के स्वभाव को समझ लेने के कारण ध्याता ध्यान में स्थिर रहता है । इस कारण ध्यान के पूर्व रत्नत्रय की भावना व अनित्यादि बारह भावनाओं के द्वारा मन को स्थिर करना चाहिए। ध्येय में स्थिरचित्त—पाँचों इन्द्रियों के विषयों की ओर से मन को हटाकर ध्येय के विषय में उसे स्थिर करना चाहिए, क्योंकि विषयों की ओर दृष्टि के रहने से मन की स्थिरता सम्भव नहीं है (धवला पु० १३, पृ० ६४-६६)। २. ध्येय-इस प्रकार ध्याता की प्ररूपणा करके आगे क्रमप्राप्त ध्येय का निरूपण करते हुए धवला में उस प्रसंग में अनेक विशेषणों से विशिष्ट वीतराग जिन को, सिद्धों को, जिनदेव के द्वारा उपदिष्ट नौ पदार्थों को तथा बारह अनुप्रेक्षाओं आदि को ध्येय-ध्यान में चिन्तन के योग्य-कहा गया है। __यहाँ धवला में यह शंका उठायी गयी है कि निर्गुण नौ पदार्थ कर्मक्षय के कारण कैसे हो सकते हैं । इसके उत्तर में वहाँ यह कहा गया है कि उनका चिन्तन करने से राग-द्वेष आदि का षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ५१३ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरोध होता है, अतः रागादि के निरोध में निमित्तभूत होने से उनके ध्येय होने में कुछ भी विरोध नहीं है। ___- आगे इसी प्रसंग में उपशमश्रेणि व क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होने के विधान, तेईस वर्गणाओं, पांच परिवर्तनों और प्रकृति-स्थिति आदिरूप चार प्रकार के बन्ध को भी ध्यान के योग्य माना गया है। ३. ध्यान--तत्पश्चात् अवसरप्राप्त ध्यान की प्ररूपणा में सर्वप्रथम उसके भेदों का निर्देश करते हुए धवलाकार ने उसे धर्मध्यान और शुक्लध्यान के भेद से दो प्रकार का कहा है। इनमें धर्मध्यान ध्येय के भेद से चार प्रकार का है-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । इन चारों ही धर्मध्यान के भेदों के स्वरूप आदि का धवला में विस्तार से निरूपण है। यहाँ यह विचारणीय है कि धवलाकार ने यहां ध्यान के उपर्युक्त दो ही भेदों का निर्देश किया है, जबकि तत्त्वार्थसूत्र (६-२८) व मूलाचार (५-१९७) आदि अनेक ग्रन्थों में उसके ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं.-आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । यदि यह समझा जाय कि तप:कर्म का प्रसंग होने से सम्भवत: धवलाकार ने ध्यान के रूप में उन दो ही भेदों का उल्लेख करना उचित समझा हो, तो ऐसा भी प्रतीत नहीं होता, क्योंकि 'तत्त्वार्थसूत्र' और 'मूलाचार' में भी अभ्यन्तर तप के प्रसंग में ध्यान के इन चार भेदों का भी विधिवत् उल्लेख किया गया है। मूलाचार' में विशेषता यह रही है कि वहाँ सामान्य रूप में ध्यान के इन चार भेदों का उल्लेख नहीं किया गया है। किन्तु वहां यह कहा गया है कि आर्त और रोद्र ये दो ध्यान अप्रशस्त हैं तथा धर्म और शुक्ल ये दो ध्यान प्रशस्त हैं (५-१६७)। आगे वहां और भी यह स्पष्ट कर दिया गया है कि अतिशय भयावह व सुगति के बाधक इन आर्त-रोद्र ध्यानों को छोड़कर धर्म और शुक्ल ध्यान के विषय में बुद्धि को लगाना चाहिए (५-२००)। _ 'तत्त्वार्थसूत्र' में भी लगभग यही अभिप्राय प्रकट किया गया है। वहाँ सामान्य से आर्तरौद्र आदि रूप ध्यान के उन चार भेदों का निर्देश करते हुए 'परे मोक्षहेत' (६-२६) यह कहकर पूर्व के आर्त और रौद्र ध्यानों को संसारपरिभ्रमण का कारण कहा गया है।' 'तत्त्वार्थसूत्र' की व्याख्यास्वरूप 'सर्वार्थसिद्धि' में भी कहा गया है कि चार प्रकार का यह ध्यान प्रशस्त और अप्रशस्त रूप से दो भेदों को प्राप्त है। ____ 'ध्यानशतक' में भी, जिसे प्रमुख आधार बनाकर धवलाकार ने प्रस्तुत ध्यान की प्ररूपणा विस्तार से की है, संख्यानिर्देश के बिना ध्यान के उन्हीं आर्त आदि चार भेदों का उल्लेख किया गया है। पर वहाँ भी 'तत्त्वार्थसूत्र' के समान यह स्पष्ट कर दिया गया है कि अन्त के दो (धर्म और शुक्ल) ध्यान निर्वाण के साधन हैं जबकि आर्त और रोद ये दो ध्यान संसार के कारण हैं। १. धवला पु० १३, पृ० ६९-७० २. वही, पृ० ७०-७७ ३. परे मोक्षहेतू इति वचनात् पूर्वे आर्त-रोद्रे संसारहेतू इत्युक्तं भवति । कुतः तृतीयस्य साध्यस्याभावात् । --सर्वार्थसिद्धि ६-२६ ५१४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ध्यानशतक' को धवला में प्ररूपित ध्यान का प्रमुख आधार कहने का कारण यह है कि वहाँ ध्यान के वर्णन में ग्रन्थनामनिर्देश के बिना ध्यानशतक की लगभग ४७ गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं।' इस सबसे यही प्रतीत होता है कि धवलाकार ने मोक्ष को प्रमुख लक्ष्य बनाकर प्रस्तुत ध्यान की प्ररूपणा की है, इसलिए उन्होंने ध्यान के धर्म और शुक्ल इन दो ही भेदों का निर्देश किया है । आर्त और रोद्र का कहीं नामनिर्देश भी नहीं किया। __ हेमचन्द्र सूरि विरचित 'योगशास्त्र' (४-११५) में भी ध्यान के धर्म और शुक्ल ये ही भेद निर्दिष्ट हैं। धवला में धर्मध्यान के चतुर्थ भेदभूत संस्थानविचय के प्रसंग में जिन दस (४१-५०) गाथाओं को उद्धृत किया गया है उनमें ४८वी गाथा का पाठ अस्त-व्यस्त हो गया है। उसके स्थान में शुद्ध दो गाथाएं इस प्रकार होनी चाहिए अण्णाण-मारएरिय-संजोग-विजोग-वीइसंताणं । संसार-सागरमणोरपारमसुई विचितेज्जा ॥४८॥ तस्स य संतरणसहं सम्मसण-सुबंधणमणग्छ । णाणमयकण्णधारं चारित्तमयं महापोयं ॥४६॥ -ध्यानशतक, ५७-५८ 'ध्यानशतक' में आगे ५८वीं गाथा में प्रयुक्त 'चारित्रमय महापोत' से सम्बद्ध ये दो गाथाएं और भी उपलब्ध होती हैं, जो धवला में नहीं मिलती। संवरकयनिच्छिद्दतव-पवणाइद्धजइणतरगं । बेरग्ग-मग्गपडियं विसोत्तिया-वीइनिक्खोभं ॥५६।। आरोढुं मुणि-वणिया माहग्घसोलंग-रयणपडिपुन्न । जह तं निव्वाण-पुरं सिग्घमविग्घेण पावंति ॥६०।। धवला में उद्धृत एक गाथा यह भी है कि बहुसो सव्वं चिय जीवादिपयवित्थरोवेयं । सव्वणयसमूहमयं ज्झायज्जो समयसम्भावं ॥२ -पु० १३, पृ०७३ इसमें प्रयुक्त 'समयसब्भाव' को कर धवला में यह शंका की गई है कि यदि समस्त सद्भाव-आगमोक्त समस्त पदार्थ-ध्यान के ही विषयभूत हैं तो फिर शुक्लध्यान का कुछ विषय ही नहीं रह जाता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि विषय की अपेक्षा इन दोनों ध्यानों में कुछ भेद नहीं है। ___ इस पर पुनः यह शंका की गई है कि यदि ऐसा है तो उन दोनों ध्यानों में अभेद का प्रसंग प्राप्त होता है । कारण यह कि डाँस-मच्छर व सिंह आदि के द्वारा भक्षण किये जाने पर तथा शीत-उष्ण आदि अन्य अनेक बाधाओं के रहते हुए भी जिस अवस्था में ध्याता ध्येय से विचलित १. 'ध्यानशतक' (वीरसेवा-मन्दिर, दिल्ली) की प्रस्तावना में पृ० ५६-६२ पर 'ध्यानशतक और धवला का ध्यानप्रकरण' शीर्षक । २. यह गाथा 'ध्यानशतक' में गाथांक ६२ के रूप में उपलब्ध है। षट्खण्डागम पर टीकाएं | ५१५ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं होता है उसका नाम ध्यान है । यह स्थिरता भी दोनों ध्यानों में समान है, क्योंकि इसके विना ध्यान नहीं बनता। इसका परिहार करते हुए कहा गया है कि यह ठीक है कि विषय की अभिन्नता और स्थिरता इन दोनों स्वरूपों की अपेक्षा उन दोनों ध्यानों में कुछ भेद नहीं है। किन्तु धर्मध्यान एक वस्तु में थोड़े ही समय अवस्थित रहता है, क्योंकि कषाय सहित परिणाम गर्भालय में स्थित दीपक के समान दीर्घ काल तक अवस्थित नहीं रहता। और वह धर्मभ्यान कषाय सहित जीवों के ही होता है, क्योंकि असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरणसंयत, अनिवृत्तिकरणसंयत और सूक्ष्ममाम्प रायिक क्ष पक व उपशामकों में धर्मध्यान की प्रवृत्ति होती है; ऐसा जिन भगवान का उपदेश है । इसके विपरीत शुक्लध्यान एक वस्तु में धर्मध्यान के अवस्थान काल से संख्यातगुणे काल तक अवस्थित रहता है, क्योंकि वीतराग परिणाम मणिशिखा के समान बहुत काल तक चलायमान नहीं होता। इस प्रकार उपर्युक्त स्वरूपों की अपेक्षा समानता के रहने पर भी क्रम से सकषाय और अकषायरूप स्वामियों के भेद से तथा अल्पकाल और दीर्घकाल तक अवस्थित रहने के भेद से दोनों ध्यानों में भेद सिद्ध है। यद्यपि उपशान्तकषाय के पृथक्त्ववितर्कवीचार नाम का प्रथम शुक्लध्यान अन्तर्मुहूर्त काल ही रहता है, दीर्घकाल तक नहीं रहता है; फिर भी वहाँ उसका विनाश वीतराग परिणाम के विनाश के कारण होता है, अतः वह दोषजनक नहीं है (पु० १३, पृ० ७०-७५)। ___ यहाँ यह स्मरणीय है कि 'तत्त्वार्थसूत्र' में धर्मध्यान के स्वामियों का उल्लेख नहीं किया गया है, जब कि वहाँ अन्य तीन ध्यान के स्वामियों का उल्लेख (सूत्र ३४,३५,३७ व ३८) है। फिर भी उसकी वृत्ति 'सर्वार्थ सिद्धि' में 'आज्ञापाय-विपाक-संस्थानविचयाय धर्म्यम्' सूत्र (६-३६) की व्याख्या करते हुए अन्त में यह कहा गया है कि वह अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत के होता है। 'तत्त्वार्थभाष्य' सम्मत सूत्रपाठ के अनुसार तत्त्वार्थसूत्र में ये दो सूत्र उपलब्ध होते हैंआज्ञापाय-विपाक-संस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य । उपशान्त-क्षीणकषाययोश्च । -६,३७-३८ तदनुसार उक्त धर्म्यध्यान अप्रमत्तसंयत, उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय के होता है। यह सूत्रपाठभेद सम्भवतः तत्त्वार्थवार्तिककार के समक्ष रहा है। इसलिए वहाँ 'धर्मध्यान अप्रमत्तसंयत के होता है' इस शंका का निराकरण करते हुए कहा गया है कि ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि वैसा स्वीकार करने पर सम्यक्त्व के प्रभाव से जो असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत के भी धर्म्यध्यान का सद्भाव स्वीकार किया गया है उससे उनके अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। आगे 'तत्त्वार्थवातिक' में उक्त सूत्र पाठभेद के अनुसार जो उसका सद्भाव उपशान्त कषाय और क्षीणकषाय के स्वीकार किया गया है उसे असंगत ठहराते हुए कहा है कि ऐसा स्वीकार करने पर उक्त दोनों गुणस्थानों में शुक्लध्यान के अभाव का प्रसंग प्राप्त होगा।' 'ध्यानशतक' में धर्मध्यान का सद्भाव इसी सूत्रपाठभेद के अनुसार अप्रमत्तसंयत, उपशान्त १. धर्म्यमप्रमत्तसंयतस्पेति चेन्न, पूर्वेषां विनिवृत्तिप्रसंगात् । उपशान्तकषाय-क्षीणकषाययो श्चेति, तन्न शुक्लाभाव प्रसंगात् । -त०व० ६, ३६, १४-१४ ५१६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोह और क्षीणमोह के कहा गया है (गा० ६३)। ४. ध्यानफल -धवला में आगे इस धर्मध्यान में सम्भव पीत, पद्म और शुक्ल इन तीन शुभ लेश्याओं का सद्भाव दिखाकर उसके फल के प्रसंग में कहा है कि उसका फल अक्षपकों में ; प्रचुर देवसुख की प्राप्ति और गुणश्रेणि के अनुसार होने वाली कर्मनिर्जरा है, परन्तु क्षपकों में उसका फल असंख्यात गुणश्रेणि से कर्मप्रदेशों की निर्जरा और पुण्य कर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग का होना है। इस प्रकार धर्मध्यान की प्ररूपणा समाप्त हुई है। शुक्लध्यान-आगे शुक्लध्यान की प्ररूपणा में उसके पृथक्त्ववितर्कवीचार, एकत्ववितर्कअवीचार, सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाती और समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती इन चार भेदों का निर्देश करते हुए प्रथमतः उनमें अन्य प्रासंगिक चचों के साथ पूर्व पहले के दो शुक्लध्यानों के स्वरूप आदि का विचार किया गया है। ___इन दोनों शुक्लध्यानों के फल की प्ररूपणा में कहा गया है कि अट्ठाईस प्रकार के मोहनीय कर्म की सर्वोपशामना में अवस्थित रहना पृथक्त्ववितर्कविचार शुक्लध्यान का फल है। परन्तु धर्मध्यान का फल मोह का सर्वोपशम है, क्योंकि सकषाय रूप से धर्मध्यान करनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिक संयत के अन्तिम समय में मोहनीय का सर्वोपशम पाया जाता है। एकत्ववितर्क-अवीचार शुक्लध्यान का फल तीन घातिया कर्मों का निर्मूल विनाश करना है, जबकि धर्मध्यान का फल मोहनीय का विनाश करना है, क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायिक के अन्तिम समय में उसका विनाश देखा जाता है। इस पर यहां यह शंका उठी है कि यदि मोहनीय का उपशम होना धर्मध्यान का फल है तो उसका क्षय उस धर्मध्यान का फल नहीं हो सकता, क्योंकि एक से दो कार्यों के उत्पन्न होने का विरोध है। इसके उत्तर में धवला में कहा गया है कि धर्मध्यान अनेक प्रकार का है, इसलिए उससे अनेक कार्यों के उत्पन्न होने में कुछ विरोध नहीं है। धवला में एक अन्य शंका यह भी उठायी गयी है कि एकत्ववितर्क-अवीचार शुक्लध्यान के लिए 'अप्रतिपाती' विशेषण से क्यों नहीं विशेषित किया गया। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि उपशान्तकषाय जीव के भव के क्षय से अथवा काल के क्षय से कषायों में पड़ने पर एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान का प्रतिपात पाया जाता है। इसलिए उसे 'अप्रतिपाती' विशेषण से विशिष्ट नहीं किया गया है। या यह स्मरणीय है कि धवलाकार के मतानसार उपशान्तकषाय गणस्थान में प्रमखता से पृथक्त्ववितर्क-वीचार शुक्लध्यान रहता है, साथ ही वहाँ दूसरा एकत्ववितर्क-अवीचार शुक्लध्यान भी रहता है। इसी प्रकार क्षीणकषाय गुणस्थान में एकत्ववितर्क-अवीचार शुक्लध्यान तो होता ही है, साथ ही वहां योगपरावर्तन की एक समय प्ररूपणा न बन सकने के कारण क्षीणकषाय काल के प्रारम्भ में पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान भी सम्भव है। इस पर यह शंका उत्पन्न हुई है कि उपशान्तकषाय गुणस्थान में एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान के होने पर 'उवसंतो दु धत्तो" इस आगमवचन से विरोध होता है। इसके समाधान में कहा है कि उक्त आगमवचन में पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान ही वहाँ होता है, ऐसा नियम नहीं १. उवसंतो दु पुधत्तं झायदि झाणं विदक्कवीचारं। खीणकसाओ झायदि एयत्तविदक्कऽवीचारं ।।-मूला० ५-२०७ षट्खण्डागम पर टीकाएं | ५१७ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। इसलिए वहाँ एकत्ववितर्क- अवीचार ध्यान के भी होने पर उस आगम-वचन के साथ विरोध की सम्भावना नहीं है ।' आगे क्रमप्राप्त तीसरे सूक्ष्मक्रिय अप्रतिपाती शुक्लध्यान की प्ररूपणा के प्रसंग में उसके स्वरूप, दण्ड- कपाटादिरूप केवलिसमुद्घात, स्थितिकाण्डकों और अनुभागकाण्डकों के घात के क्रम, योगनिरोध के क्रम, पूर्वस्पर्धकों व अपूर्वस्पर्धकों के विधान और कृष्टिकरण इन सब के सम्बन्ध में विचार किया गया है। इस प्रसंग में धवला में यह शंका की गयी है कि केवली के योगनिरोधकाल में जो सूक्ष्मक्रियअप्रतिपाती ध्यान का सद्भाव बतलाया गया है वह घटित नहीं होता । कारण यह है कि केवली समस्त द्रव्यों और उनकी पर्यायों को जानते हैं, अपने समस्त काल में एक स्वरूप से अवस्थित रहते हैं तथा इन्द्रियातीत हैं; इसलिए एक वस्तु में उनके मन का निरोध सम्भव नहीं है और मन के निरोध के बिना ध्यान होता नहीं है, क्योंकि अन्यत्र वैसा देखा नहीं जाता । इस शंका के उत्तर में वहाँ यह कहा गया है कि दोष की सम्भावना तब हो सकती थी, जबकि एक वस्तु में चिन्ता के निरोध को ध्यान मान लिया जाता । पर यहाँ ऐसा नहीं माना गया है । यहाँ तो उपचारत: 'चिन्ता' से योग का अभिप्राय रहा है। इस प्रकार जिस ध्यान में योगस्वरूप चिन्ता का एकाग्रता से निरोध (विनाश) होता है उसे ध्यान माना गया है । इसलिए शंकाकार के द्वारा उद्भावित दोष की सम्भावना नहीं है । " ध्यानशतक में ऐसी ही शंका को छद्मस्थ के अतिशय निश्चल मन को निश्चल काय को ध्यान कहा जाता है। नहीं है । हृदयंगम करते हुए यह कहा गया है कि जिस प्रकार ध्यान कहा जाता है उसी प्रकार केवली के अतिशय योग सामान्य की अपेक्षा मन और काय में कुछ भेद आगे क्रमप्राप्त चौथे समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यान की प्ररूपणा करते हुए धवला में कहा गया है जिस ध्यान में योगरूप क्रिया नष्ट हो चुकी है तथा जो अविनश्वर है उसे समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाती ध्यान कहा जाता है । यह चौथा शुक्लध्यान श्रुत से रहित होने के कारण अवितर्क और जीवप्रदेशों के परिस्पन्द के अभाव से अथवा अर्थ, व्यंजन और योग के संक्रमण के अभाव से अवीचार है । यहाँ 'एस्थ गाहा' सूचना के साथ यह गाथा उद्धृत की गयी है अविदक्कमवीचारं अणियट्टी अकिरियं च सेलेसि । जाणं निरुद्धजोगं अपच्छिमं उत्तमं सुक्कं ॥ अर्थात् वह चौथा उत्तम शुक्लध्यान वितर्क व वीचार से रहित, निवृत्त न होनेवाला, क्रिया से विहीन, शैलेशी अवस्था को प्राप्त और योगों के निरोध से सहित होने के कारण सर्वोत्कृष्ट है । धवलाकार ने 'एदस्स अत्थो' संकेतपूर्वक यह कहा है कि योग का निरोध हो जाने पर कर्म १. धवला पु० १३, पृ० ७७-८२ २. धवसा पु० १३, पृ० ८३-८७ ३. जह छउमत्थस्स मणो झाणं भण्णइ सुनिच्चलो संतो । तह केवल काओ सुनिच्चलो भन्नए झाणं ॥ ८४ ॥ ५१८ / षट्खण्डागम-परिशलन Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयु के समान अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थितिवाले होते हैं । अनन्तर समय में वह समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती शुक्ल ध्यान का ध्याता शैलेशी अवस्था को प्राप्त होता है। ___ यहाँ भी यह पूछने पर कि इसे 'ध्यान' संज्ञा कैसे प्राप्त है, धवलाकार ने कहा है कि एकाग्रता से प्रदेशपरिस्पन्द के अभाव स्वरूप चिन्ता के निरोध का नाम ध्यान है; यह जो ध्यान का लक्षण है वह उसमें घटित होता है, इसलिए उसकी 'ध्यान' संज्ञा के होने में कुछ विरोध नहीं है। फल के प्रसंग में यहां तीसरे शुक्लध्यान का फल योगों का निरोध और इस चौथे शुक्लध्यान का फल चार अधातिया कर्मों का विनाश निर्दिष्ट किया गया है (पु०१३, पृ०८७-८८)। क्रियाकर्म-सूत्रकार ने क्रियाकर्म के इन छह भेदों का निर्देश किया है- आत्माधीन, प्रदक्षिणा, त्रिःकृत्वा, तीन अवनति, चार सिर और बारह आवर्त (सूत्र ५,४,२७-२८)। धवला में इनकी विवेचना इस प्रकार की गयी है-- (२) क्रियाकर्म करते समय अपने अधीन रहना, पर के वश नहीं होना; इसका नाम 'आत्माधीन' है। कारण यह कि पराधीन होकर किया जाने वाला क्रियाकर्म कर्मक्षय का कारण नहीं होता। इसके विपरीत वह जिनेन्द्र देव आदि की अत्यासादना का कारण होने से कर्मबन्ध का ही कारण होता है। (२) वन्दना के समय गुरु, जिन और जिनालय की प्रदक्षिणा करके नमस्कार करना 'प्रदक्षिणा' है। (३) प्रदक्षिणा, नमस्कार आदिरूप क्रियाओं का तीन बार करना 'त्रिःकृत्वा' है। अथवा एक ही दिन में जिनदेव, गुरु, और ऋषियों की जो तीन बार वन्दना की जाती है। उसे त्रि:कृत्वा कहा जाता है। यहाँ प्रसंगप्राप्त एक शंका का समाधान करते हुए धवलाकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वन्दना तीन सन्ध्याकालों में नियम से की जाती है, अन्य समयों में उसके करने का निषेध नहीं है। किन्तु तीन सन्ध्याकालों में उसे अवश्य करना चाहिए, इस नियम को प्रकट करने के लिए 'त्रिःकृत्वा' कहा गया है। (४) अवनत का अर्थ अवनमन या भूमि पर बैठना है । यह क्रिया तीन बार की जाती हैं। यथा-पैर धोकर मन की शुद्धिपूर्वक जिनेन्द्रदेव के दर्शन से उत्पन्न हुए हर्ष से रोमांचित होते हुए जिन के आगे बैठना, यह एक (प्रथम) अवनमन हुआ। पश्चात् उठ करके जिनेन्द्र आदि की विज्ञप्ति करते हुए फिर से बैठना, यह दूसरा अवनमन हुआ। तत्पश्चात् पुनः उठ करके सामायिक दण्डक के द्वारा आत्मशुद्धि करते हुए कषाय से रहित होकर शरीर से ममत्व छोड़ना, जिन भगवान् के अनन्त गुणों का ध्यान करना, चौबीस तीर्थंकरों की वन्दना करना तथा जिन, जिनालय और गुरु की स्तुति करके फिर से भूमि पर बैठना है; यह तीसरा अवनमन है। इस प्रकार एक-एक क्रियाकर्म को करते हुए तीन ही अवनमन होते हैं। (५) समस्त क्रियाकर्म चतुःशिर होता है। दोनों हाथों को मुकुलित करके सिर को झुकाना -नमस्कार करना, यह 'शिर' का अभिप्राय है। सामायिक के प्रारम्भ में जो जिनेन्द्र के प्रति सिर को नमाया जाता है, यह एक 'शिर' हुआ। उस सामायिक के अन्त में जो सिर को नमाया जाता है, यह द्वितीय 'शिर' हुआ। 'योस्सामि' दण्डक के आदि में जो सिर को नमाया जाता है, यह तृतीय 'शिर' हुआ। उसी के अन्त में जो सिर को नमाया जाता है, यह चतुर्थ 'शिर' हुआ। पट्खण्डागम पर टीकाएँ | ५१६ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इससे यह नहीं समझना चाहिए कि अन्यत्र नमस्कार करने का निषेध किया गया—उसे अन्यत्र भी किया जा सकता है, पर सामायिक व थोस्सामिदडण्क के आदि व अन्त में उसे नियम से करना ही चाहिए, यह उक्त कथन का अभिप्राय है। विकल्प के रूप में 'चतुःशिर' का अभिप्राय प्रकट करते हुए यह भी कहा गया हैअथवा सभी क्रियाकर्म चतु:शिर-अरहन्त, सिद्ध, साधु और धर्म इन चार को प्रधान करके ही होता है; क्योंकि सभी क्रियाकर्मों की प्रवृत्ति उन चार को प्रधानभूत करके ही देखी जाती है। (६) सामायिक और थोस्सामिदण्डक के आदि व अन्त में मन-वचन-काय की विशुद्धि के परावर्तनवार बारह होते हैं। इस प्रकार एक क्रियाकर्म बारह आवों से सहित होता है, ऐसा कहा गया है (पु० १३, पृ० ८८-६०)। मूलाचार के 'षडावश्यक' अधिकार में 'वन्द ना' आवश्यक के प्रसंग में (७,७६-११४) उसका विस्तार से विवेचन है । वहाँ 'वन्दना' के कृतिकर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म ये समानार्थक नाम निर्दिष्ट हैं (गा० ७-७६)। क्रियाकर्म और कृतिकर्म में कुछ अर्थभेद नहीं है। 'कृत्यते छिद्यते अष्टविध कर्म येनाक्षरकदम्बकेन परिणामेन त्रियया वा तत् कृतिकर्म पापविनाशनोपायः' इस निरक्ति के अनुसार जिस अक्षरसमूह, परिणाम अथवा त्रिया के द्वारा आठ प्रकार के कर्म को नष्ट किया जाता है उसका नाम कृतिकर्म है । पाप के विनाश का यह एक उपाय है।' उस कृतिकर्म में कितनी अवनतियां व कितने सिर-हाथों को मुकुलित करके सिर से लगाने रूप नमस्कार–किये जाते हैं और वह कितने आवर्तों से शुद्ध व कितने दोषों से मुक्त होता है (७-८०), इसके स्पष्टीकरण में वहाँ यह पद्य भी उपलब्ध होता है दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव वा । चस्सिरं तिसुद्धच कि दियम्मं पउंजदे॥-मूला० ७-१०४ अर्थात् जिस क्रियाकर्म में यथाजात रूप में स्थित होकर दो अवनतियों, बारह आवर्त और १. मूलाचार वृत्ति ७-७६ २. इसे धवला पु०, ६ पृ० १८६ पर 'एत्थुववुज्जती गाहा' कहते हुए उद्धृत किया जा चुका है । तुलना कीजिए(क) चतुरावर्तत्रितयश्चतुःप्रणामः स्थितो यथाजातः । सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी ।। रत्नकरण्डक ५-१८ (सामायिक प्रतिमा के प्रसंग में)। इसकी टीका में आ० प्रभाचन्द्र ने 'यथाजात' का अर्थ 'बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह की चिन्ता से व्यावृत्त' किया है। (ख) दुओणयं जहाजायं कितिकम्म बारसावयं । चउसिरं तिगुत्तं च दुपवेसं एग णिक्खमणं ।।-समवायांग सूत्र १२ (ग) चतुःशिरस्त्रि-द्विनतं द्वादशावर्तमेव च। कृतिकर्माख्यमाचष्टे कृतिकर्मविधि परम् ।।--ह० पु. १०-१३३ यासनया सुविशुद्धा द्वादशवर्ता प्रवृत्तिषु प्राजः । सशिरश्चतुरानतिका प्रकीर्तिता वन्दना वन्द्या ।।-ह० पु० ३४-१४४ ५२० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार सिर किये जाते हैं ऐसे मन-वचन-काय से शुद्ध कृतिकर्म का प्रयोग करना चाहिए।' सूत्रकार ने नामस्थापनादि के भेद से दस प्रकार के कर्म का निरूपण करके अन्त में उनमें से यहाँ समवदानकर्म को प्रसंगप्राप्त कहा है (सूत्र ५,४,३१) । समवदान आदि छह कर्म धवला में इसका हेतु यह दिया गया है कि कर्मअनुयोगद्वार में उस समवदानकर्म की ही विस्तार से प्ररूपणा की गयी है। साथ ही विकल्प के रूप में वहाँ यह भी कथन किया गया है-अथवा मूलग्रन्थकर्ता ने जो यहाँ समवदानकर्म को प्रकृत कहा है, वह संग्रहनय की अपेक्षा से है। इसका कारण बतलाते हुए धवला में कहा गया है कि मूलतंत्र में प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अधःकर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्म की प्रधानता रही है; क्योंकि उनकी वहाँ विस्तार से प्ररूपणा की गयी है। ___'इन छह कर्मों को आधारभूत करके यहाँ हम सत्प्ररूपणा, द्रव्य, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करते हैं ऐसी सूचना करते हुए धवलाकार ने यथाक्रम से उनकी विस्तार से प्ररूपणा की है । यथा__ सत्प्ररूपणा के प्रसंग में वहां यह कहा गया है कि ओघ की अपेक्षा प्रयोगकर्म आदि छहों कर्म हैं। आदेश की अपेक्षा गतिमार्गणा के अनुवाद से नरकगति के भीतर नारकियों में प्रयोगकर्म, समवदानकर्म और क्रियाकर्म हैं । अधःकर्म, ईर्यापथकर्म और तपःकर्म उनमें नहीं हैं । अधःकर्म उनके इसलिए नहीं है कि वह औदारिकशरीरस्वरूप है, जिसका उदय उनके सम्भव नहीं है। ईयापथकर्म और तपःकर्म का सम्बन्ध महाव्रतों से है, जिनका आधार भी वही औदारिकशरीर है; इसलिए ये दोनों कर्म भी उनके सम्भव नहीं हैं। यही अभिप्राय देवों के विषय में भी ग्रहण करना चाहिए। तिथंचगति में तियंचों के प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अधःकर्म और क्रियाकर्म ये चार हैं। महाव्रतों के सम्भव न होने से उनके ईर्यापथकर्म और तपःकर्म नहीं होते। मनुष्यगति में मनुष्यों, मनुष्यपर्याप्तों और मनुष्यिनियों के ओघ के समान छहों कर्म होते हैं। द्रव्यप्रमाणानुगम के प्रसंग में प्रथमतः द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता के स्वरूप का विवेचन है। तदनुसार प्रयोगकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्म में जीवों की 'द्रव्यार्थता' संज्ञा है तथा जीवप्रदेशों की संज्ञा 'प्रदेशार्थता' है। समवदानकर्म और ईयापथकर्म में जीवों की संज्ञा द्रव्यार्थता और उन्हीं जीवों में स्थित कर्मपरमाणुओं की प्रदेशार्थता संज्ञा है। अधःकर्म में अभव्यसिद्धों से अनन्तगुणे और सिद्धों से अनन्तगुणेहीन औदारिक नोकर्मस्कन्धों की द्रव्यार्थता और उन्हीं १. वसुनन्दिवृत्ति द्रष्टव्य है । 'यथाजात' का अर्थ वृत्ति में 'जातरूपसदृशं क्रोध-मान-माया___संगादिरहितं' किया गया है। २. धवलाकार को 'मूलतंत्र' से कौन-सा ग्रन्थ अभिप्रेत रहा है, यह स्पष्ट नहीं है । सम्भव है, उनकी दृष्टि महाकर्मप्रकृतिप्राभूत या उसके अन्तर्गत किसी अधिकार की ओर रही हो। ३. जम्हि सरीरे ट्ठिदाणं ओद्दावण-विद्दावण-परिदावण-आरंभाअण्णेहिंतो होति तं सरीरमाधा कम्मं ति भणिदं होदि ।--पु० १३, पृ० ४६-४७ षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ५२१ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औदारिकशरीर नोकर्मस्कन्धों में स्थित पूर्वोक्त परमाणुओं की प्रदेशार्थता संज्ञा है। धवला में द्रव्यप्रमाण को प्रकट करते हुए ओघ की अपेक्षा प्रयोगकर्म, समवदानकर्म और अधःकर्म की द्रव्यार्थता व प्रदेशार्थता का तथा ईर्यापथकर्म की प्रदेशार्थता का द्रव्यप्रमाण अनन्त कहा है। कारण यह कि प्रयोगकर्म और समवदानकर्म के अनन्तवें भाग से हीन सब जीवराशि की द्रव्यार्थता को यहां ग्रहण किया गया है । इनकी प्रदेशार्थता भी अनन्त है, क्योंकि इन जीवों को घनलोक से गुणित करने पर प्रयोगकर्म की प्रदेशार्थता का प्रमाण उत्पन्न होता है तथा उन्हीं जीवों को कर्मप्रदेशों से गुणित करने पर समवदानकर्म की प्रदेशार्थता का प्रमाण उत्पन्न होता है। ___ इसी पद्धति से आगे धवला में ओघ और आदेश की अपेक्षा द्रव्यप्रमाण की तथा क्षेत्र व स्पर्शन आदि अन्य अनुयोगद्वारों की भी प्ररूपणा विस्तार से की गयी है। (पु० १३, पृ० ६१-१९६) ३. प्रकृति अनुयोगद्वार __यहां प्रकृतिनिक्षेप आदि सोलह अनुयोग द्वारों के नामों के निर्देशपूर्वक नयविभाषणता, निक्षेप व उसके भेद-प्रभेदों आदि की जो चर्चा की गयी है उसे 'मूल ग्रन्थगत विषय-परिचय' में देखना चाहिए। इसके अतिरिक्त धवला में जो प्रसंगानुरूप विशेष प्ररूपणा की है उसी का परिचय यहाँ कराया जा रहा है। धवला में यहां पांच ज्ञानावरणीय प्रकृतियों के प्रसंग में आभिनिबोधिक आदि पांच ज्ञानों के स्वरूप आदि का विचार किया गया है (पु० १३, पृ० २०९-१५)। इसी प्रकार आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय के प्रसंग में अवग्रह व ईहा आदि आभिनिबोधिक ज्ञान के भेदों को विशद करते हुए प्रसंगानुसार उनके अन्य भेद-प्रभेदों के विषय में भी पर्याप्त विचार किया गया है। श्रुतज्ञानावरणीय के प्रसंग में श्रुतज्ञान का विचार करते हुए अक्षरसंयोग व उसके आश्रय से उत्पन्न होने वाले भंगों की प्रक्रिया स्पष्ट की गयी है। आगे चलकर अक्षर-अक्षरसमास और पद-पदसमास आदि श्रुतज्ञान के भेदों का निरूपण है। साथ ही सूत्रकार के द्वारा निर्दिष्ट (सूत्र ५,५,५०) प्रावचन, प्रवचनीय व प्रवचनार्थ आदि श्रुतज्ञान के ४८ पर्याय शब्दों को भी स्पष्ट किया गया है। ____ अवधिज्ञानावरणीय की असंख्यात प्रकृतियों का निर्देश करते हुए सूत्रकार ने अवधिज्ञान के इन दो भेदों का उल्लेख किया है-भवप्रत्ययिक और गुणप्रत्ययिक (सूत्र ५,५,५१-५३)। ___अवधिज्ञानावरणीय की प्रकृतियाँ असंख्यात कैसे हैं, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि चूंकि उसके द्वारा आवियमाण अवधिज्ञान के असंख्यात भेद हैं, इसलिए उनका आवरण करने वाले अवधिज्ञानावरणीय कर्म के भी असंख्यात भेद होते हैं। आगे धवला में सूत्रनिर्दिष्ट (५,५,५४-५६) भवप्रत्यय, गुणप्रत्यय और देशावधि-परमावधि आदि अनेक अवधिज्ञान के भेदों को स्पष्ट किया गया है। किन्तु देशावधि, परमावधि और सर्वावधि इन तीन अवधिज्ञान-भेदों की विशेष प्ररूपणा न कर यह सूचित कर दिया है कि इनके द्रव्य, क्षत्र, काल और भाव के आश्रय से होनेवाले भेदों की प्ररूपणा जिस प्रकार वेदना ५२२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड में की गयी है, उसी प्रकार से यहां करना चाहिए, क्योंकि उसमें कुछ भेद नहीं है।' ___ इसी प्रसंग में वहां सूत्रनिर्दिष्ट (५,५,५६) समय, आवली आदि कालभेदों को स्पष्ट करते हुए अनेक गाथासूत्रों (३-१७) के आश्रय से क्षेत्र व काल आदि की अपेक्षा उसके विषय की विस्तार से प्ररूपणा की गयी है। __ मनःपर्यय ज्ञानावरणीय के प्रसंग में ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान किस प्रकार ऋजुमनागत .... वचनगत और ऋजुकायगतं अर्थ को तथा विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान किस प्रकार ऋजु व अनुज मन-वचन-कायगत अर्थ को जानता है, इसका स्पष्टीकरण धवला में किया गया है । इसी प्रसंग में वहां मनःपर्ययज्ञान मन (मतिज्ञान) से मानस को-दूसरों के मन में स्थित अर्थ को- ग्रहण करके सूत्रनिर्दिष्ट (५,५,६३) जिन संज्ञा, मति, स्मृति, चिन्ता, जीवित, मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, नगरविनाश एवं देशविनाश आदि अनेक विषयों को जानता है, उनको भी स्पष्ट किया गया है। क्षेत्र की अपेक्षा विपुलमति मनःपर्ययज्ञान के विषय के प्रसंग में सूत्र में यह निर्देश किया गया है कि वह उत्कर्ष से मानुषोत्तर पर्वत के भीतर जानता है, उसके बाहर नहीं जानता है। (सूत्र ५, ५,७७) इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि 'मानुषोत्तर पर्वत' यहाँ उपलक्षण है, सिद्धान्त नहीं है, इसलिए उसका यह अभिप्राय समझना चाहिए कि पैंतालीस लाख योजन प्रमाण क्षेत्र के भीतर स्थित जीवों के तीनों काल-सम्बन्धी चिन्ता के विषय को जानता है। इससे मानुषोत्तर पर्वत के बाहर भी अपने विषयभूत क्षेत्र के भीतर स्थित रहकर चिन्तन करनेवाले देवों व तियंचों के भी चिन्तित विषय को वह विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान जानता है, यह सिद्ध होता है। यहाँ धवलाकार ने उक्त विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान के उष्कृष्ट विषय के सम्बन्ध में उपलब्ध दो भिन्न मतों का उल्लेख करते हुए कहा है कि कितने ही आचार्य यह कहते हैं कि विपुलमतिमनःपर्यय मानुषोत्तर पर्वत के भीतर ही जानता है। तदनुसार उसका यह अभिप्राय हुआ कि वह मानुषोत्तर पर्वत के बहिर्भूत विषय को नहीं जानता। ___अन्य कुछ आचार्यों का कहना है कि विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी मानुषोत्तर पर्वत के भीतर ही स्थित रहकर जिस अर्थ का चिन्तन किया गया है, उसे जानता है। इस मत के अनुसार, लोक के अन्त में स्थित अर्थ को भी वह प्रत्यक्ष जानता है। इन दोनों मतों को असंगत ठहराते हुए धवलाकार ने कहा है कि ये दोनों ही मत ठीक नहीं हैं, क्योंकि इस प्रकार से अपने विषयभूत क्षेत्र के भीतर आये हुए पदार्थ का बोध न हो सके, यह घटित नहीं होता। कारण यह है कि मानुषोत्तर पर्वत के द्वारा उस मनःपर्ययज्ञान का प्रतिघात होता हो, यह तो सम्भव नहीं है, क्योंकि वह पराधीन होने के कारण व्यवधान से १. धवला, पु० १३, पृ० २६३ तथा 'कृति' अनुयोगद्वार (पु० ६) में देशावधि पृ० १४-४०, परमावधि पृ० ४१-४७, सर्वावधि पृ० ४७-५१ २. धवला, पु० १३, पृ० २६८-३२८; यहां जिन गाथासूत्रों के आधार से उसके विषयविकल्पों की प्ररूपणा की गई है उनमें अधिकांश वे महाबन्ध (भा० १) में भी उस प्रसंग में उपलब्ध ___ होते हैं, पूर्वोक्त कृति-अनुयोगद्वार में उन्हें उस प्रसंग में उद्धृत किया जा चुका है। ३. धवला पु० १३, पृ० ३२८-४१ (सूत्र ६३ की टीका द्रष्टव्य है-पृ० ३३२-३६) षट्खण्डागम पर टीकाएँ | ५२३ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहित है, इसलिए अपने विषयभूत क्षेत्र के भीतर नियत विषय के ग्रहण करने में विसी प्रकार की बाधा सम्भव नहीं है। दूसरे मत के अनुसार, लोक के अन्त में स्थित अर्थ को जाननेवाला वहाँ स्थित चित्त को नहीं जानता है, यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि अपने क्षेत्र के भीतर स्थित अपने विषयभूत अर्थ का न जानना घटित नहीं होता है; इस प्रकार दूसरे मत के अनुसार प्रसंगप्राप्त लोक के अन्त में स्थित चित्त को जानना चाहिए। पर वैसा सम्भव नहीं है, अन्यथा क्षेत्रप्रमाण की प्ररूपणा ही निष्फल ठहरती है। इससे यही अभिप्राय निकलता है कि पैंतालीस लाख योजन के भीतर स्थित होकर चिन्तन करनेवाले जीवों के द्वारा चिन्त्यमान पदार्थ यदि मनःपर्ययज्ञान के प्रकाश से व्याप्त क्षेत्र के भीतर है तो वह उसे जानता है, नहीं तो नहीं जानता है।' ___ केवलज्ञानावरणीय की प्ररूपणा के प्रसंग में केवलज्ञान की विशेषता को प्रकट करते हुए सूत्र में कहा गया है कि स्वयं उत्पन्न ज्ञान-दर्शनवाले भगवान् देवलोक, असुरलोक व मनुष्यलोक की आगति, गति, चयन, उपपाद, बन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, युति, अनुभाग, तर्क, कल, मान (मन) मानसिक, भुक्त, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरहःकर्म, सर्वलोक, सब जीव और सब भावों को एक साथ जानते हैं, देखते हैं व विहार करते हैं। ___इसकी व्याख्या में धवलाकार ने सूत्रनिर्दिष्ट गति-आगति सभी के स्वरूप को स्पष्ट किया है। धवला में आगे दर्शनावरणीय आदि शेष मूल प्रकृतियों की भी उत्तर प्रकृतियों को स्पष्ट किया गया है। ४. बन्धन अनुयोगद्वार यह अनुयोगद्वार बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान इन चार अधिकारों में विभक्त है। यहां मूलग्रन्थकार के द्वारा जो विवक्षित विषय की प्ररूपणा की गयी है, वह अपने आप में बहुत-कुछ स्पष्ट है। इसलिए धवला में प्रसंगप्राप्त अधिकांश सूत्रों के अभिप्राय को ही स्पष्ट किया गया है। जहाँ प्रसंग पाकर धवला में विवक्षित विषय की विस्तार से प्ररूपणा है, उसी का परिचय यहाँ कराया जा रहा है। शेष के लिए 'मूलग्रन्थगत विषय-परिचय' को देखना चाहिए। प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणा 'बन्धन' के अन्तर्गत उपर्युक्त चार अधिकारों में जो तीसरा 'बन्धनीय' अधिकार है उसमें २३ वर्गणाओं की प्ररूपणा की गई है। उनमें सत्रहवीं वर्गणा प्रत्येकशरीरद्र व्यवर्गणा है। उसके विषय में धवलाकार ने विशेष प्रकाश डाला है। सर्वप्रथम धवला में उसके लक्षण का निर्देश १. धवला, पु० १३, पृ० ३४३-४४ २. सूत्र ५,५,८२ (इस सन्दर्भ की तुलना आचारांग द्वि० श्रुतचूलिका ३, सूत्र १८, पृ० ८८८ __ से करने योग्य है।) ३. धवला, पु० १३, पृ० ३४६-५३ ५२४ / पखण्डागम-परिशीलन Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । तदनुसार एक जीव के एक शरीर में उपचित कर्म और नोकर्मस्कन्धों का नाम प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा है । वह जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यवर्ती विकल्पों के अनुसार अनेक प्रकार की है। उनमें सबसे जघन्य वह किसके होती है, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि जो जीव सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्तों में पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन कर्मस्थितिकाल तक क्षपितकर्माशिक' स्वरूप से रहा है । पश्चात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र संयमासंयमकाण्ड को और उनसे विशेष अधिक सम्यक्त्व व अनन्तानुबन्धिविसंयोजन काण्डकों को तथा आठ संयमकाण्डकों को करके व चार वार कषायों को उपशमाकर अन्तिम भवग्रहण में पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ है । पश्चात् गर्भ से निकलने को आदि करके आठ वर्ष व अन्तर्मुहूर्त के ऊपर जो सम्यक्त्व और संयम को एक साथ ग्रहण करके सयोगी जिन हो गया है । अनन्तर कुछ कम पूर्वकोटि काल तक अधः स्थितिगलन द्वारा समस्त औदारिकशरीर और तेजसशरीर की निर्जरा को तथा कार्मणशरीर की गुणश्रेणिनिर्जरा को करके अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिक हुआ है । इस प्रकार के स्वरूप से आये हुए अयोगी के अन्तिम समय में सबसे जघन्य प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा होती है, क्योंकि उसके शरीर में निगोदजीवों का अभाव होता है । आगे धवलाकार ने 'इस वर्गणा के माहात्म्य के ज्ञापनार्थ हम स्थानप्ररूपणा करते हैं' इस सूचना के साथ उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है—औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीन शरीरों के परमाणुपुंजों को ऊपर रखकर उनके नीचे उन्हीं तीन शरीरों के विस्रसोपचयपुंजों को रक्खे । इन छह जघन्य परमाणुपुंजों के ऊपर परमाणुओं को इस प्रकार बढ़ाना चाहिएक्षपितकर्माशिकस्वरूप से आये हुए उस अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिक के औदारिकशरीर सम्बन्धी विस्रसोपचयपुंज में एक परमाणु के बढ़ाने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । उसमें दो परमाणुओं के बढ़ाने पर तीसरा अपुनरुक्त स्थान होता है। तीन परमाणुओं के बढ़ाने पर चौथा अपुनरुक्त स्थान होता है। इस प्रकार उक्त औदारिकशरीरगत विस्रसोपचयपुंज में एक एक परमाणु की वृद्धि के क्रम से सब जीवों से अनन्तगुणे मात्र परमाणुओं को बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार से बढ़ाने पर औदारिकशरीरगत विस्रसोपचयपुंज में सब जीवों से अनन्तगुणे मात्र अपुनरुक्त स्थान प्राप्त होते हैं । इस पद्धति से आगे वहाँ अन्य क्षपितकर्माशिक तथा गुणितकर्माशिक को विवक्षित करके तेजस, कार्मण व वैक्रियिक शरीर के आधार से भी उन अनुनरुक्त स्थानों की प्ररूपणा की गयी है । अन्तिम विकल्प को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि गुणितकर्माशिक जीव सातवीं पृथिवी में तैजस और कार्मण शरीरों को उत्कृष्ट करके मरण को प्राप्त होता हुआ दोतीन भवों में तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ और तत्पश्चात् पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहाँ गर्भ से आदि करके आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त के ऊपर सयोगी जिन होकर कुछ कम पूर्वकोटि तक संयम गुणश्रेणिनिर्जरा करता हुआ अयोगी हो गया । इस प्रकार अयोगी हुए उसके अन्तिम समय में स्थित होने पर प्रत्येकशरीरवर्गणा पूर्वोक्त प्रत्येकशरीरवर्गणा के समान १. क्षपितकर्माशिक के लक्षण के लिए सूत्र ४, २, ४, ४६-७५ द्रष्टव्य हैं । - ( पु० १०, पृ० २६८-६६ ) षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ५२५ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है । अब यहाँ वृद्धि नहीं है, क्योंकि वह सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हो चुकी है। इस प्रकार अन्य भी प्रासंगिक प्ररूपणा धवला में की गयी है । जिन जीवों के निगोदजीवों का सम्बन्ध नहीं है उनका उल्लेख इस प्रकार किया गया हैपृथिवी, जल, तेज, वायु, देव, नारक, आहारकशरीरी प्रमत्तसंयत, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली | ये सब प्रत्येकशरीर हैं । * बादरनिगोदवर्गणा 1 यह उन्नीसवीं बादर निगोदवर्गणा सर्वजघन्य रूप में क्षीणकषाय के अन्तिम समय में होती है । उसकी विशेषता को प्रकट करते हुए धवला में कहा गया है कि जो जीव क्षपितकर्माशिकस्वरूप से आकर पूर्वकोटिप्रमाण आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ है, वहीं गर्भ से लेकर आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त के ऊपर जिसने सम्यक्त्व और संयम दोनों को एक साथ प्राप्त किया है तथा जो कुछ कम पूर्वकोटिकाल तक कर्म की उत्कृष्ट गुणश्रेणिनिर्जरा को करता हुआ सिद्ध होने में अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रह जाने पर क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ हुआ; इस प्रकार उत्कृष्ट विशुद्धि द्वारा कर्मनिर्जरा करते हुए उस क्षीणकषाय के प्रथम समय में अनन्त बादर निगोदजीव मरण को प्राप्त होते हैं । द्वितीय समय में उनसे विशेष अधिक जीव मरते हैं । क्षीणकषायकाल के प्रथम समय से लेकर आवलिपृथक्त्व मात्र काल के व्यतीत होने तक तृतीयादि समयों में भी उत्तरोत्तर विशेष अधिक के क्रम से उक्त बादर निगोद जीव मरण को प्राप्त होते हैं । तत्पश्चात् क्षीणकषायकाल में आवली का असंख्यातव भाग शेष रह जाने तक वे उत्तरोत्तर संख्यातवें भागसंख्यातवें भाग अधिक के क्रम से मरण को प्राप्त होते हैं। पश्चात् अनन्तर समय में वे उनसे प्रसंख्यातगुणे मरते हैं । इस प्रकार क्षीणकषाय के अन्तिम समय तक वे उत्तरोत्तर असंख्यातगुणेअसंख्यातगुणे मरते हैं । गुणकार का प्रमाण यहाँ पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग निर्दिष्ट है । निगोद कौन होते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि पुलवी निगोद कहलाते हैं । यहीं स्कन्ध, अण्डर, आवास, पुलवी और निगोदशरीर इन पांच का निर्देश है। उनमें मूली, यूहर आदि को स्कन्ध कहा गया है। इसी प्रकार अण्डर आदिकों के स्वरूप का भी निर्देश कर उन्हें उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझाया है - जिस प्रकार तीन लोक के भीतर भरत, उसके भीतर जनपद, उनके भीतर ग्राम और उनके भीतर पुर होते हैं, उसी प्रकार स्कन्धों के भीतर अण्डर, उनके भीतर आवास, उनके भीतर पुलवियाँ और उनके भीतर निगोदशरीर होते हैं । ये प्रत्येक असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं । यहाँ क्षीणकषायशरीर को स्कन्ध कहा है, क्योंकि वह असंख्यात लोकप्रमाण अण्डरों का आधारभूत है । वहाँ अण्डरों के भीतर स्थित अनन्तानन्त जीवों के प्रत्येक समय में असंख्यातगुणित श्रेणि के क्रम से शुक्लध्यान के द्वारा मरण को प्राप्त होने पर क्षीणकषाय के अन्तिम समय में मरने वाले अनन्त जीव होते हैं । अनन्त होकर भी वे द्विचरम समय में मरे हुए जीवों से असंख्यातगुणे होते हैं । धवला में अन्य किन्हीं आचार्यों के अभिमतानुसार पुलवियों के आश्रय से भी निगोदजीवों के मरने के क्रम की प्ररूपणा की गयी है । ये जीव वहाँ क्यों मरण को प्राप्त होते हैं, ऐसी शंका के उपस्थित होने पर उसका समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि वहाँ ध्यान के द्वारा निगोदजीवों की उत्पत्ति और स्थिति ५२६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के कारण का निरोध हो जाता है। इस पर पुनः यह शंका उपस्थित हुई है कि जो ध्यान के द्वारा अनन्तानन्त जीवों का विघात करते हैं उन्हें मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि अप्रमाद के द्वारा-प्रमाद के न रहने से-उन जीवों के विधात के होने पर भी उनके मुक्त होने में कुछ बाधा नहीं है। प्रसंग के अनुसार यहाँ अप्रमाद का स्वरूप भी स्पष्ट किया है । तदनुसार पांच महाव्रत, पांच समितियां, तीन गुप्तियाँ और सम्पूर्ण कषाय के अभाव का नाम अप्रमाद है। अप्रमाद की इस अवस्था में समस्त कषाय से रहित हो जाने के कारण द्रव्यहिंसा के होने पर भी संयत के कर्मबन्ध नहीं होता है । इसके विपरीत प्रमाद की अवस्था में बाह्य हिंसा के न होने पर भी अन्तरंग हिंसा-जीवविघात के परिणामवश सिक्थ मत्स्य के कर्मबन्ध उपलब्ध होता है । इससे सिद्ध है कि शुद्धनय से अन्तरंग हिंसा ही वस्तुतः हिंसा है, न कि बहिरंग हिंसा । वह अन्तरंग हिंसा क्षीणकषाय के सम्भव नहीं है, क्योंकि वहां कषाय और असंयम का अभाव हो चुका है। इस अभिमत की पुष्टि धवलाकार ने प्रवचनसार की एक गाथा (३-१७) को उद्धृत करते हुए की है। इसी प्रसंग में मूलाचार की भी दो गाथाएं (५,१३१-३२) उद्धत की हैं। क्षीणकषाय के प्रथम समय से लेकर निगोदजीव तब तक उत्पन्न होते हैं जब तक उन्हीं का जघन्य आयुकाल शेष रहता है । तत्पश्चात् वे वहां नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि उत्पन्न होने पर उनके जीवित रहने का काल शेष नहीं रहता है (पु० १४, पृ० ८४-६१)। . आगे यहाँ धवला में इस जघन्य बादर निगोदद्रव्यवर्गणा के प्रसंग में भी स्थानों की प्ररू. पणा लगभग उसी प्रक्रिया से की गयी है जिस प्रक्रिया से पूर्व में प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा के प्रसंग में की गयी है (पृ० ६१-११२) । उत्कृष्ट बादर निगोदद्रव्यवर्गणा किसके होती है, इसे बतलाते हुए धवला में कहा गया है कि पूर्व प्रक्रिया के अनुसार जगणि के असंख्यातवें भाग मात्र पुलवियों के बढ़ने पर कर्मभूमिप्रतिभागभत स्वयम्भूरमणद्वीप में स्थित मूली के शरीर में जगश्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र एकबन्धनबद्ध पुलवियों को ग्रहण करके उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा होती है। जघन्य से आगे और उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा के नीचे उत्पन्न सब विकल्पों को उसके मध्यम विकल्प समझना चाहिए। सूक्ष्म निगोदद्रव्यवर्गणा यह तेईस वर्गणाओं में इक्कीसवीं वर्गणा है । वह जल, स्थल और आकाश में सर्वत्र देखी जाती है, क्योंकि उसका बादरनिगोदवर्गणा के समान कोई नियत देश नहीं है। सबसे जघन्य सूक्ष्म निगोदद्रव्यवर्गणा क्षपितकौशिक स्वरूप से और क्षपितघोलमान स्वरूप से आये हुए सूक्ष्म निगोदजीवों के होती है, दूसरे जीवों के नहीं; क्योंकि उनके द्रव्य की जघन्यता सम्भव नहीं है। यहाँ भी आवली के असंख्यातवें भाग मात्र पुलवियाँ होती हैं। उनमें से प्रत्येक पुलवी में असंख्यात लोकमात्र निगोदशरीर और एक-एक निगोदशरीर में अनन्तानन्त जीव होते हैं। उन जीवों में क्षपितकौशिक रूप से आये हुए जीव आवली के असंख्यातवें भाग मात्र ही होते हैं, शेष सब क्षपितघोलमान होते हैं। इन अनन्तानन्त जीवों के औदारिक, तेजस और कार्मणशरीरों के कर्म, नोकर्म और विस्रसोपचय परमाणु-पुद्गलों को ग्रहण करके सबसे जघन्य सूक्ष्म निगोद षट्खण्डागम पर टोकाएं / ५२७ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यवर्गणा होती है। धवला में इसके स्थानों की भी प्ररूपणा की गयी है। पूर्वोक्त विधान के अनुसार आवली के असंख्यातवें भाग मात्र पुलवियों के बढ़ जाने पर महामत्स्य के शरीर में एकबन्धनबद्ध छह काय के जोवों के संघात में उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोदवर्गणा देखी जाती है (धवला, पु० १४, पृ० ११३-१६) । वर्गणाध्र वाध्र वानुगम आदि १२ अनुयोगद्वार यहाँ वर्गणाद्रव्यसमुदाहार की प्ररूपणा में सूत्रकार ने जिन वर्गणाप्ररूपणा व वर्गणानिरूपणा आदि १४ अनुयोगद्वारों का निर्देश किया है (सूत्र ५,६,७५), उनमें से उन्होंने वर्गणाप्ररूपणा व वर्गणानिरूपणा इन पूर्व के दो अनुयोगद्वारों की ही प्ररूपणा की है, शेष वर्गणाध्र वाध्र वानुगम आदि १२ अनुयोगद्वारों की नहीं। - इस स्थिति में 'वर्गणानिरूपणा' अनुयोगद्वार के समाप्त हो जाने पर धवला में यह शंका उठायी गयी है कि सूत्रकार ने पूर्वनिर्दिष्ट १४ अनुयोगद्वारों में पूर्व के दो अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करके शेष 'वर्गणाध्र वाध्र वानुगम' आदि १२ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा क्यों नहीं की? उनका ज्ञान न होने से उन्होंने उनकी प्ररूपणा न की हो, यह तो सम्भव नहीं है। क्योंकि २४ अनयोगद्वार रूप 'महाकर्मप्रकृतिप्राभूत' के पारंगत भगवान् भूतबलि के उनकी जानकारी न रहने का विरोध है । यह भी सम्भव नहीं है कि विस्मरणशील हो जाने से वे उनकी प्ररूपणा न कर पाये हों, क्योंकि जो प्रमाद से रहित हो चुका है वह विस्मरणशील नहीं हो सकता। इसके उत्तर में वहाँ कहा गया है कि यह कुछ दोष नहीं है, क्योंकि पूर्वाचार्यों के व्याख्यानक्रम के जतलाने के लिए सूत्रकार ने उन १२ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा नहीं की है। इस पर वहाँ यह पूछा गया है कि अनुयोगद्वारों में वहाँ के समस्त अर्थ की प्ररूपणा संक्षिप्त शब्दसमह के द्वारा क्यों की जाती है । उत्तर में धवलाकार ने कहा है वचनयोगरूप आस्रव के द्वारा आनेवाले कर्मों को रोकने के लिए वहाँ विवक्षित विषय की प्ररूपणा संक्षिप्त शब्दसमूह के द्वारा कर दी जाती है। धवलाकार ने इस प्रसंग में सूत्रकार द्वारा की गयी उन दो अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा को देशामर्शक मानकर, जीवसमुदाहार के प्रसंग में निर्दिष्ट/उन १४ अनुयोगद्वारों में से सूत्रकार के द्वारा अप्ररूपित वर्गणाध्र वाध्र वानुगम, वर्गणासान्तर-निरन्तरानुगम, वर्गणाओज-युग्मानुगम, वर्गणाक्षेत्रानुगम, वर्गणास्पर्शनानुगम, वर्गणाकालानुगम, वर्गणाअन्तरानुगम, वर्गणाभावानुगम, वर्गणाउपनयानुगम, वर्गणापरिमाणानुगम, वर्गणाभागाभागानुगम और वर्गणाअल्पबहुत्वानुगम इन १२ अनुयोगद्वारों की यथाक्रम से विस्तारपूर्वक प्ररूपणा की है।' आगे धवला में यथाक्रम से सूत्र ६६ में निर्दिष्ट आठ अनुयोगद्वारों में से अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, अवहार, यवमध्य, पदमीमांसा और अल्पबहुत्व इन शेष छह अनुयोगद्वारों की की भी प्ररूपणा की गई है। इस प्रकार पूर्वोक्त वर्गणा व वर्गणाद्रव्यसमुदाहार आदि आठ अनुयोगद्वारों के आधार से १. धवला, पु० १४, पृ० १३५-७६ २. वही-अनन्तरोपनिधा व परम्परोपनिधा पृ० १७६-६०, अवहार पृ० १६०-२०१, यवमध्य पृ० २०१-७, पदमीमांसा पृ० २०७-८ और अल्पबहुत्व पृ० २०८-२३ ५२८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकप्रदेशिक परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा आदि तेईस वर्गणाओं की प्ररूपणा के समाप्त हो जाने पर एकश्रेणी और नानाश्रेणी के भेद से दो प्रकार की आभ्यन्तर वर्गणा समाप्त हो जाती है। बाह्य वर्गणा बाह्य वर्गणा का सम्बन्ध औदारिकादि पाँच शरीरों से है। इसकी प्ररूपणा में सूत्रकार ने इन चार अनुयोगद्वारों का निर्देश किया है-शरीरिशरीरप्ररूपणा, शरीरप्ररूपणा, शरीरविस्रसोपचयप्ररूपणा और विस्रसोपचयप्ररूपणा (सूत्र ५,६,११७-१८)। ___ इस प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि औदारिकादि पाँच शरीरों की 'बाह्य वर्गणा' संज्ञा कैसे है । इन्द्रिय और मन से ग्रहण के अयोग्य पुद्गलों की 'बाह्य' यह संज्ञा हो, यह तो सम्भव नहीं है, क्योंकि वैसी परिस्थिति में परमाणु आदि वर्गणाओं के भी बाह्यवर्गणात्व का प्रसंग प्राप्त होता है। कारण यह कि वे भी इन्द्रिय और नोइन्द्रिय से अग्राह्य हैं। पर उन्हें आभ्यन्तरवर्गणा के अन्तर्गत ग्रहण किया गया है । पांच शरीर जीवप्रदेशों से भिन्न हैं, इसलिए भी उन्हें 'बाह्य नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि दूध और पानी के समान परस्पर में अनुगत होने से जीव और शरीर के आभ्यन्तर और बाह्यरूपता नहीं बनती है। अनन्तानन्त विस्रसोपचयपरमाणुओं के मध्य में पाँच शरीरों के परमाणु स्थित हैं, इसलिए भी उनकी 'बाह्य' संज्ञा नहीं हो सकती; क्योंकि भीतर-स्थित विस्रसोपचयस्कन्धों की 'बाह्य' संज्ञा का विरोध है। इस परिस्थिति में पांच शरीरों की 'बाह्य वर्गणा' संज्ञा घटित नहीं होती है। इस शंका का परिहार करते हुए धवला में कहा गया है कि वे पाँच शरीर पूर्वोक्त तेईस वर्गणाओं से भिन्न हैं. इसलिए उनका उल्लेख 'बाह्य' नाम से किया गया है। आगे कहा गया है कि पांच शरीर अचित्त वर्गणाओं के अन्तर्गत तो नहीं हो सकते, क्योंकि साचत्त शरीरों के अचित्त मानने का विरोध है । इसके विपरीत उन्हें सचित्त वर्गणाओं के अन्तर्गत भी नहीं किया जा सकता है, क्योंकि विस्रसोपचयों के बिना पाँच शरीरों के परमाणुओं को ही ग्रहण किया गया है। इसलिए पाँच शरीरों की 'बाह्य वर्गणा' संज्ञा सिद्ध है (पु० १४, पृ० २२३-२४)। ऊपर बाह्य वर्गणा के अन्तर्गत जिन चार अनुयोगद्वारों का उल्लेख है उनका परिचय धवलाकार ने संक्षेप में इस प्रकार कराया है (१) शरीरिशरीरप्ररूपणा अनुयोगद्वार में प्रत्येक और साधारण इन दो भेदों में विभक्त जीवों के शरीरों की अथवा प्रत्येक और साधारण लक्षणवाले शरीरधारी जीवों के शरीरों की प्ररूपणा की गयी है, इसीलिए उसका 'शरीरिशरीरप्ररूपणा' यह सार्थक नाम है। (२) शरीरप्ररूपणा अनुयोगद्वार में पांचों शरीरों के प्रदेशप्रमाण की, उनके प्रदेशों के निषेकक्रम की और प्रदेशों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है। (३) शरीरविस्रसोपचयप्ररूपणा अनुयोगद्वार में औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मण इन पाँच शरीरों के परमाणुओं से सम्बद्ध उक्त पांच शरीरों के विस्रसोपचयसम्बन्ध के कारणभूत स्निग्ध और रूक्ष गुणों के अविभागप्रतिच्छेदों की प्ररूपणा की गयी है। (४) विस्रसोपचयप्ररूपणा अनुयोगद्वार में जीव से छोड़े गये उन परमाणुओं के विस्रसोपचय की प्ररूपणा की गयी है। शरीरिशरीरप्ररूपणा में ज्ञातव्य शरीरिशरीरप्ररूपणा के प्रसंग में सूत्रकार ने प्रथमतः सात (१२२-२८) सूत्रों में साधारण षट्लण्डागम पर टीकाएँ । ५२९ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की विशेषता को प्रकट किया है । पश्चात् सूत्र १२६ में प्रस्तुत शरीरिशरीरप्ररूपणा में ज्ञातव्यस्वरूप से सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों का निर्देश किया है। उनमें से यहां प्रथम सत्प्ररूपणा और अन्तिम अल्पबहुत्व इन दो अनुयोगद्वारों की ही प्ररूपणा की है, शेष द्रव्यप्रमाणानुगमादि छह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा उन्होंने नहीं की। इससे यहां मूल ग्रन्थ में सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के समाप्त हो जाने पर धवलाकार ने 'यह सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार चूंकि शेष द्रव्यप्रमाणादि छह अनुयोगद्वारों से सम्बद्ध है, इसलिए यही उनकी प्ररूपणा की जाती है' इस सूचना के साथ आगे यथाक्रम से उनकी प्ररूपणा की है। गया ओघ की अपेक्षा से दो शरीर वाले और तीन शरीर वाले जीव द्रव्यप्रमाण से अनन्त हैं। चार शरीरवाले द्रव्यप्रमाण से प्रतर के असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात जगश्रेणि प्रमाण असंख्यात हैं। आदेश की अपेक्षा नरकगति में वर्तमान नारकियों में दो शरीरवाले व तीन शरीर वाले नारकीयों को द्रव्यप्रमाण से प्रतर के असंख्यातवें भाग कहा गया है। इस प्रकार शेष तियंच आदि तीन गतियों और इन्द्रिय आदि अन्य मार्गणाओं में भी प्रस्तुत द्रव्यप्रमाण की धवला में प्ररूपणा है। तत्पश्चात वहां क्रम से क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम और भावानुगम इन अनुयोगद्वारों का भी निर्देश है (पु० १४, पृ० २४८-३०१)। आहारक-शरीर शरीरप्ररूपणा के अन्तर्गत छह अनुयोगद्वारों में प्रथम 'नामनिरुक्ति' अनुयोगद्वार है। इसमें औदारिक आदि पांच शरीरों के नामों की निरुक्तिपूर्वक सार्थकता का प्रकाशन है। ___ इस प्रसंग में यहाँ धवला में आहारक शरीर की विशेषता को प्रकट करते हुए कहा गया है कि असंयम की प्रचुरता, आज्ञाकनिष्ठता और अपने क्षेत्र में केवली का अभाव, इन तीन कारणों के होने पर साधु आहारक शरीर को प्राप्त होता है। इनमें से प्रत्येक को वहां इस प्रकार स्पष्ट किया गया है असंयमप्रचुरता-जब जल, स्थल और आकाश उन सूक्ष्म जीवों से, जिनका परिहार करना अशक्य होता है, व्याप्त हो जाता है तब असंयम की प्रचुरता होती है। उसके परिहार के लिए साधु आहारकशरीर को प्राप्त होते हैं । आहारवर्गणा के स्कन्धों से निर्मित वह आहारक शरीर हंस के समान धवल, प्रतिघात से रहित और एक हाथ प्रमाण उत्सेध से युक्त होता है। ___आज्ञाकनिष्ठता-आज्ञा, सिद्धान्त और आगम ये समानार्थक शब्द हैं। अपने क्षेत्र में आज्ञा की अल्पता का नाम आज्ञाकनिष्ठता है। केवली का अभाव-जिन द्रव्य व पर्यायों का निर्णय आगम को छोड़कर अन्य किसी प्रमाण से नहीं किया जा सकता है, उनके विषय में सन्देह के उत्पन्न होने पर उसे दूर करने के लिए 'मैं अन्य क्षेत्र में स्थित श्रुतकेवली अथवा केवली के पादमूल में जाता हूँ', इस प्रकार विचार करके साधु आहारक शरीर से परिणत होता है । उसके प्रभाव से वह पर्वत, नदी व समुद्र आदि के मध्य से जाकर विनयपूर्वक उनसे उस सन्देहापन्न तत्त्व के विषय में पूछता है। तथा सन्देह से रहित हो वह वापस आ जाता है। इसके अतिरिक्त साधु अन्य क्षेत्र में किन्हीं महामुनियों के केवलज्ञान के उत्पन्न होने अथवा मुक्ति के प्राप्त होने पर तथा तीर्थंकरों के दीक्षाकल्याणक ५३० / षट्खण्डागम-परिशीलन . Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि शुभ अवसर पर भी आहारक शरीर से अन्य क्षेत्र में जाते हैं। . तात्पर्य यह है कि जो साधु विक्रियाऋद्धि से रहित होकर आहारक-ऋद्धि से सम्पन्न होते हैं वे अवधिज्ञान से, श्रुतज्ञान से अथवा देवों के आगमन से केव नज्ञान की उत्पत्ति जानकर, 'हम वन्दना की भावना से जाते हैं। ऐसा विचारकर आहारकशरीर से परिणत होते हुए उस स्थान को जाते हैं और उन केवलियों तथा अन्य जिनों व जिनालयों की वन्दना करके वापस आ जाते हैं।' _ 'सर्वार्थसिद्धि' और 'तत्त्वार्थवार्तिक' में प्रकृत आहारक शरीर-निर्वर्तन का प्रयोजन कदाचित् ऋद्धिविशेष के सद्भाव का ज्ञापन, कदाचित् सूक्ष्म पदार्थ का निर्णर और कदाचित् संयम का परिपालन निर्दिष्ट किया गया है। 'तत्त्वार्थवातिक' में 'सर्वार्थसिद्धि' से इतना विशेष कहा गया है कि भरत और ऐरावत क्षेत्र में केवली का अभाव होने पर जिसे संशय उत्पन्न हुआ है, वह उत्पन्न हुए उस संशय के विषय में निर्णय के लिए महाविदेहों में जाने का इच्छुक होकर, 'औदारिकशरीर से जाने पर मेरे लिए महान असंयम होने वाला है', इस सद्भावना से वह आहारकशरीर को उत्पन्न करता है।' इसी प्रसंग में आगे धवला में सूत्रोक्त नामनिरुक्ति के विषय में स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि सूत्र (५,६,२३६) में प्रयुक्त 'णिउण' का अर्थ निपुण, श्लक्ष्ण व मृदु है । 'णिण्णा' या "णिण्हा' का अर्थ धवल, सुगन्धित और अतिशय सुन्दर है। 'अप्रतिहत' का अर्थ सूक्ष्म है। तदनुसार आहारवर्गणाद्रव्यों के मध्य में जो स्कन्ध निपुणतर व पिण्णदर (अतिशय निष्णात) होते हैं, उनका चूंकि उस शरीर के निमित्त आहरण या ग्रहण किया जाता है, इसलिए उसका 'आहारक' यह सार्थक नाम है (पु० १४, पृ० ३८६)। तेजस-शरीर उपर्युक्त नामनिरुक्ति के प्रसंग में सूत्रकार ने तेजःप्रभागुण-युक्त शरीर को तैजस शरीर कहा है । (सूत्र ५,६,२४०) ___इसकी व्याख्या में धवलाकार ने शरीरस्कन्ध के पद्मराग मणि के समान वर्ण को तेज और शरीर से निकलने वाली किरणकला को प्रभा कहकर उसमें होने वाले शरीर को तेजसशरीर कहा है। वह निःसरणात्मक और अनिःसरणात्मक से भेद के दो प्रकार का है। इन में निःसरणात्मक तैजस शरीर भी शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का है। इनमें उत्कृष्ट चारित्रवाले दयालु संयत के उसकी इच्छानुसार जो हंस व शंख के समान वर्ण वाला तेजस शरीर दाहिने कन्धे से निकलकर, मारी, व्याधि, वेदना, दुभिक्ष व उपसर्ग आदि के शान्त करने में समर्थ होता है और जो समस्त जीवों को व उस संयत को भी सुख उत्पन्न करता है, वह निःसरणात्मक शुभ तेजसशरीर कहलाता है । १. धवला, पु० १४, पृ० ३२६-३७ २. कदाचिल्लब्धिविशेषसद्भावज्ञापनार्थ, कदाचित् सूक्ष्मपदार्थनिर्धारणार्थं संयमपरिपालनार्थ च भरतरावतेषु केवलिविरहे जातसंशयस्तन्निर्णयार्थ महाविदेहेषु केवलिसकाश जिगमिषरौदारिकेण मे महान् संयमो भवतीति विद्वानाहारकं निवर्तयति। त०वा० २,४६,४; तुलना के लिए नामनिरुक्ति से सम्बन्धित इसके पूर्व २,३६,६ का सन्दर्भ द्रष्टव्य है। षट्समागम पर टीकाएँ | ५३१ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह योजन आयत, नौ योजन विस्तृत, सूच्यंगुल के संख्यातवें भागमात्र बाहुल्य से सहित और जपाकुसुम के समान वर्णवाला जो शरीर क्रोध को प्राप्त बायें कन्धे से निकलकर अपने क्षेत्र के भीतर स्थित जीवों को विनष्ट करके फिर प्रविष्ट होते हुए उस संयत को भी मार डालता है, उसका नाम निःसरणात्मक अशुभ तेजसशरीर है । अनिःसरणात्मक तेजसशरीर खाये हुए अन्न-पान का पाचक होकर भीतर स्थित रहता है । (पु० १४, पृ० ३२८) 'तत्त्वार्थवातिक' में समुद्घात के प्रसंग में तेजस-समुद्घात के स्वरूप के निर्देश में इतना मात्र कहा गया है कि जीवों के अनुग्रह व उपघात में समर्थ ऐसे तैजसशरीर को उत्पन्न करना ही जिसका प्रयोजन होता है, उसे तैजस-समुद्घात कहते हैं।' 'बहदद्रव्यसंग्रह' की ब्रह्मदेव-विरचित टीका में उसे कुछ अधिक विकसित करते हुए स्पष्ट किया गया है। तदनुसार अपने मन के लिए अनिष्टकर किसी कारण को देखकर जिस संयमी महामनि को क्रोध उत्पन्न हुआ है उसके मूल शरीर को न छोड़कर जो सिन्दूर के समान वर्ण वाला, बारह योजन दीर्घ, सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण मूल विस्तार से व नौ योजन प्रमाण अग्रविस्तार से सहित काहल के समान आकृतिवाला पुरुष बायें कन्धे से निकलकर बायीं ओर प्रदक्षिणापूर्वक हृदय में स्थित विरुद्ध वस्तु को जलाकर उस संयमी के साथ द्वीपायन मनि के समान स्वयं भी भस्मसात् हो जाता है, उसे अशुभ तेजस-समुद्घात कहा जाता है। इसके विपरीत लोक को व्याधि व दुर्भिक्ष आदि से पीड़ित देखकर उत्तम संयम के धारक जिस महर्षि के दया का भाव उत्पन्न हुआ है, उसके मूल शरीर को न छोड़कर जो धवल वर्णवाला बारह योजन आयत तथा सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग मात्र मूलविस्तार से व नो योजनप्रमाण अग्रविस्तार से सहित पुरुष दाहिने कन्धे से निकलकर दक्षिण की ओर प्रदक्षिणापूर्वक उस व्याधि व दुर्भिक्ष को नष्ट कर देता है और वापस अपने स्थान में प्रविष्ट हो जाता है, उसे शुभ तेजःसमुद्घात कहते हैं।' - धवला से यहाँ यह विशेषता रही है कि अशुभ तैजस के प्रसंग में धवला में जहाँ अपने क्षेत्र में स्थित जीवों के विनाश की स्पष्ट सूचना की गयी है, वहाँ इस 'बृहद्रव्यसंग्रह' टीका में "अपने हृदय में निहित विरुद्ध वस्तु को भस्मसात् करके" इतना मात्र कहा गया है। शभ तैजस-समुद्घात के प्रसंग में 'बृहद्दव्यसंग्रह' टीका में 'दाहिने कन्धे से निकलने' का उल्लेख नहीं है । वह सम्भवतः प्रतिलेखक को असावधानी से लिखने में रह गया है। शेष १८ (७ से २४) अनुयोगद्वार यह पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि जो 'महाकर्मप्रकृतिप्राभृत' अविच्छिन्न श्रुतपरम्परा से आता हुआ भट्टारक धरसेन को प्राप्त हुआ और जिसे उन्होंने पूर्णरूप से आचार्य पुष्पदन्त व भूतबलि को समर्पित कर दिया, उसमें कृति-वेदनादि २४ अनुयोगद्वार रहे हैं। रनमें से प्रस्तुत षट्खण्डागम में आ० भूतबलि ने कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बन्धन इन प्रारम्भ के ६ अनुयोगद्वारों की ही प्ररूपणा की है, शेष निबन्धन आदि १८ अनुयोगद्वारों १. त०वा० १,२०,१२, पृ० ५३; आगे २,४६, ८ (पृ० १०८) भी द्रष्टव्य है। २. बृहद् टीका गा०१८, पृ० २२-२३ ५३२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की प्ररूपणा उन्होंने इसमें नहीं की है। उन शेष अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा धवलाकार आचार्य वीरसेन ने की है। उसे प्रारम्भ करते हुए वे कहते हैं कि भूतबलि भट्टारक ने इस सूत्र (५,६,७६७, पु० १४) को देशामर्शक रूप से लिखा है, इसलिए हम इस सूत्र से सूचित शेष अठारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा कुछ संक्षेप से करते हैं।' ___ तदनुसार उन्होंने यथाक्रम से उन अठारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा इस प्रकार की है७. निबन्धन अनुयोगद्वार ___ यहाँ 'निबन्धन' की 'निबध्यते तदस्मिन्निति निबन्धनम्' इस प्रकार निरुक्ति करते हुए यह अभिप्राय प्रकट किया गया है जो द्रव्य जिसमें निबद्ध या प्रतिबद्ध है, उसका नाम निबन्धन है। वह छह प्रकार का है-नामनिबन्धन, स्थापनानिबन्धन, द्रव्यनिबन्धन, क्षेत्रनिबन्धन, कालनिबन्धन और भावनिबन्धन। इनमें जिस नाम की वाचक रूप से प्रवृत्ति का जो अर्थ आलम्बन होता है उसे नामनिबन्धन कहते हैं, क्योंकि उसके बिना नाम की प्रवृत्ति सम्भव नहीं है। यह नामनिबन्धन अर्थ, अभिधान और प्रत्यय के भेद से तीस प्रकार का है । इनमें अर्थ एक जीव व बहुत जीव एवं अजीव आदि के भेद से आठ प्रकार का है।' इन आठ अर्थों के विषय में जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे प्रत्ययनिबन्धन कहा जाता है । जो नामशब्द प्रवृत्त होकर अपने आपका ही बोधक होता है वह अभिधाननिबन्धन कहलाता है।... _ विकल्प के रूप में यहां धवलाकार ने यह भी कहा है-अथवा यह सब तो द्रव्यादिनिबन्धनों में प्रविष्ट होता है, इसलिए इसे छोड़कर 'निबन्धन' शब्द को ही 'नामनिबन्धन' के रूप में ग्रहण करना चाहिए। ऐसा होने पर पुनरुक्त दोष की सम्भावना नहीं रहती। द्रव्यनिबन्धन के प्रसंग में कहा गया है कि जो द्रव्य जिन द्रव्यों का आश्रय लेकर परिणमता है, अथवा जिस द्रव्य का स्वभाव द्रव्यान्तर से सम्बद्ध होता है, उसे द्रव्यनिबन्धन जानना चाहिए। ग्राम-नगरादि को क्षेत्रमिबन्धन कहा गया है, क्योंकि प्रतिनियत क्षेत्र में उनका सम्बन्ध पाया जाता है। जो अर्थ जिस काल में प्रतिबद्ध है, उसे कालनिबन्धन कहा जाता है। जैसे आम की बौर चैत्र मास से निबद्ध है; इत्यादि । ___ जो द्रव्य भाव का आधार होता है उसे भावनिबन्धन कहते हैं। जैसे--लोभ का निबन्धन चांदी-सोना आदि, क्योंकि उनके आश्रय से ही उसकी उत्पत्ति देखी जाती है, अथवा उत्पन्न हुए भी लोभ का वह आलम्बन देखा जाता है। इसी प्रकार क्रोध की उत्पत्ति के निमित्तभूत द्रव्य को अथवा उत्पन्न हुए क्रोध के आलम्बनभूत द्रव्य को भावनिबन्धन जानना चाहिए। उपर्युक्त छह प्रकार के निबन्धन में नाम और स्थापना इन दो निबन्धनों को छोड़कर शेष चार को यहाँ अधिकृत कहा गया है। आगे स्पष्ट किया गया है कि यद्यपि यह निबन्धन अनुयोग छह द्रव्यों के निबन्धनों की प्ररूपणा करता है, फिर भी यहाँ अध्यात्मविद्या का अधि १. भूदबलिभडारएण जेणेदं सुत्तं देसामासियभावेण लिहिदं तेणेदेण सुत्तेण सूचिदसेस-अट्ठारस अणियोगद्दाराणं किं चि संखेवेण परूवणं कस्सामो। (धवला, पु० १५, पृ० १) षट्समागम पर टीकाएँ । ५ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार होने से उसे छोड़कर कर्मनिबन्धन को ही ग्रहण करना चाहिए। ___इस अनुयोगद्वार का प्रयोजन कर्मरूपता को प्राप्त हुए कर्मों के व्यापार को प्रकट करना है। इनमें नोआगमकर्मनिबन्धन दो प्रकार का है-मूलकर्मद्रव्यनिबन्धन और उत्तरकर्मद्रव्यनिबन्धन । इनमें यहाँ प्रथमतः आठ मूल कर्मों के निबन्धन की, और तत्पश्चात् संक्षेप में उत्तर कर्मों के निबन्धन की, प्ररूपणा की गयी है। यथा ज्ञानावरणकर्म सब द्रव्यों में निबद्ध है, न कि सब पर्यायों में। ज्ञानावरण को जो यहां सब द्रव्यों में निबद्ध होने का कथन है वह केवलज्ञानावरण के आश्रय से किया गया है। कारण यह कि वह तीनों कालविषयक अनन्त पर्यायों से परिपूर्ण छहों द्रव्यों को विषय करनेवाले केवलज्ञान का विरोधी है। साथ ही, सब पर्यायों में जो उसकी निबद्धता का निषेध किया गया है वह शेष चार ज्ञानावरणों की अपेक्षा से किया गया है, क्योंकि उनके द्वारा आवियमाण शेष चार ज्ञानों में सब द्रव्यों के ग्रहण की शक्ति नहीं है। इस प्रसंग में यह शंका उठी है कि मति और श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति जब मूर्त व अमूर्त सभी द्रव्यों में उपलब्ध होती है तब उनको सब द्रव्यों को विषय करने वाले क्यों नहीं कहते। इसके समाधान में वहां यह कहा गया है कि वे यद्यपि द्रव्यों के तीनों कालविषयक पर्यायों को जानते हैं, पर उन्हें सामान्य से ही जानते हैं, विशेष रूप से उनकी प्रवृत्ति उनके विषय में नहीं है। और यदि विशेष रूप से भी उनकी प्रवृत्ति को उन अनन्त पर्यायों में स्वीकार किया जाता है तो फिर केवलज्ञान से उनकी समानता का प्रसंग प्राप्त होता है । पर वैसा सम्भव नहीं है, अन्यथा पाँच ज्ञानों के उपदेश के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। इससे सिद्ध है कि मति और श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति विशेष रूप से द्रव्यों की अनन्त पर्यायों में सम्भव नहीं है। (धवला, पु० १५, पृ० १.४) आगे दर्शनावरणीय के निबन्धन की प्ररूपणा के प्रसंग में कहा है कि जिस प्रकार ज्ञानावरणीय सब द्रव्यों में निबद्ध है उसी प्रकार दर्शनावरणीय भी सब द्रव्यों में निबद्ध है। इस पर शंकाकार ने अपना अभिमत प्रकट करते हुए कहा है कि दर्शनावरणीय आत्मा में ही निबद्ध है, न कि सब द्रव्यों में; क्योंकि यदि ऐसा न माना जाय तो ज्ञान और दर्शन में फिर कछ भेद नहीं रहता है। यदि कहा जाय कि विषय और विषयी के सन्निपात के अनन्तर समय में जो सामान्य ग्रहण होता है, उसका नाम दर्शन है, इस प्रकार ज्ञान से दर्शन की भिन्नता सिद्ध है; तो यह कहना भी ठीक नहीं है। कारण यह कि विषय और विषयी के सन्निपात के अनन्तर जो आद्य ग्रहण होता है, वह तो अवग्रह का लक्षण है जो ज्ञानरूपता को प्राप्त है। इस प्रकार ज्ञानस्वरूप अवग्रह को दर्शन मानने का विरोध है। दूसरे, विशेष के बिना सामान्य का ग्रहण भी सम्भव नहीं है; क्योंकि द्रव्य-क्षेत्रादि की विशेषता के बिना सामान्य का ग्रहण घटित नहीं होता है। आगे शंकाकार ने 'ज्ञान क्या अवस्तु को ग्रहण करता है या वस्तु को' इत्यादि विकल्पों को उठाकर उनकी असम्भावनाएं प्रकट करते हुए अन्त में कहा है कि 'ज्ञानावरण के समान दर्शन सब द्रव्यों में निबद्ध है' यह जो कहा गया है वह घटित नहीं होता है। इस प्रकार शंकाकार द्वारा उद्भावित दोष का निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है कि बाह्य अर्थ से सम्बद्ध आत्मस्वरूप के संवेदन का नाम दर्शन है। यह आत्मस्वरूप का संवेदन बाह्य अर्थ के सम्बन्ध के बिना सम्भव नहीं है, क्योंकि ज्ञान, सुख और दुःख-इन सब की प्रवृत्ति बाह्य अर्थ के आलम्बनपूर्वक ही देखी जाती है, इसलिए ज्ञानावरण के समान ५३४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनावरण को भी जो सब द्रव्यों में निबद्ध कहा गया है, वह संगत ही है, यह सिद्ध है। इसी प्रकार से आगे वेदनीय-मोहनीय आदि शेष छह मूलप्रकृतियों के निबन्धनविषयक प्ररूपणा की गयी है (धवला, पु० १५, पृ० ६-७) । उत्तरप्रकृतियों के प्रसंग में मतिज्ञानावरणीयादि चार ज्ञानावरणीय प्रतियों को द्रव्यपर्यायों के एक देश में निबद्ध कहा गया है। इसे स्पष्ट करते हुए वहाँ कहा गया है कि अवधिज्ञान द्रव्य से मूर्त द्रव्यों को ही जानता है; अमूर्त धर्म, अधर्म, काल, आकाश और सिद्धजीव इन द्रव्यों को वह नहीं जानता; क्योंकि अवधिज्ञान का निबन्ध रूपी द्रव्यों में है, ऐसा सूत्र में कहा गया है।' क्षेत्र की अपेक्षा वह घनलोक के भीतर स्थित मूर्त द्रव्यो को ही जानता है, उसके बाहर नहीं। काल की अपेक्षा वह असंख्यात वर्षों के भीतर जो अतीत व अनागत है उसे ही जानता है, उसके बहिर्वर्ती अतीत-अनागत अर्थ को नहीं। भाव की अपेक्षा वह अतीत, अनागत और वर्तमान कालविषयक असंख्यात लोकमात्र द्रव्य-पर्यायों को जानता है। इसलिए अवधिज्ञान सब द्रव्य-पर्यायों को विषय नहीं करता है। इसी कारण अवधिज्ञानावरणीय सब द्रव्यों के एक देश में निबद्ध है, ऐसा कहा गया है। __मनःपर्ययज्ञान भी चंकि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा एक देश को ही विपय करनेवाला है, इसीलिए मनःपर्ययज्ञानावरणीय भी देश में निबद्ध हैं। इसी प्रकार मति और श्रुत ज्ञानावरणीयों की देशनिबद्धता की प्ररूपणा करनी चाहिए। केवलज्ञानावरणीय सब द्रव्यों में निबद्ध है, क्योंकि वह समस्त द्रव्यों को विपय करनेवाले केवलज्ञान की प्रतिबन्धक है (पु० १५, पृ० ७-८)। आगे दर्शनावरणीय आदि अन्य मूलप्रकृतियों की भी कुछ उत्तरप्रकृतियों के निबन्धनविषयक प्ररूपणा की गयी है। नामकर्म के प्रसंग में उसे क्षेत्रजीवनिबद्ध, पुद्गल निबद्ध और क्षेत्र निवद्ध बतलाकर पुद्गलविपाकी, जीवविपाकी और क्षेत्रविपाकी प्रकृतियों का उल्लेख गाथासूत्रों के अनुसार कर दिया गया है। ८. प्रक्रम अनुयोगद्वार पूर्वोक्त निबन्धन के समान यहां इस प्रक्रम को भी नाम-स्थापनादि के भेद से छह प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। इस प्रसंग में यहाँ तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यप्रक्रम के कर्मप्रक्रम और नोकर्मप्रक्रम इन दो भेदों में यहाँ कर्मप्रक्रम को प्रसंगप्राप्त कहा गया है। प्रक्रम से यहाँ 'प्रक्रामतीति प्रक्रमः' इस निरुक्ति के अनुसार कार्मणवर्गणारूप पुद्गलस्कन्ध अभिप्रेत रहा है। कार्य को कारणानुसारिता इस प्रसंग में यहाँ यह शंका की गयी है कि जिस प्रकार कुम्हार एक मिट्टी के पिण्ड से घट-घटी-शराव आदि अनेक उपकरणों को उत्पन्न करता है उसी प्रकार स्त्री, पुरुष, नपुंसक, स्थावर अथवा त्रस कोई भी जीव एक प्रकार के कर्म को बांधकर उसे आठ प्रकार का किया करता है, क्योंकि अकर्म से कम की उत्पत्ति का विरोध है।। ___ इस का परिहार करते हुए धवला में कहा गया है कि यदि कार्मणवर्गणारूप अकर्म से कर्म १. रूपिष्ववधेः।-त० सू० १-२७ षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ५३५ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की उत्पत्ति सम्भव नहीं है तो अकर्म से तुम्हारे द्वारा कल्पित उस एक कर्म की उत्पत्ति भी नहीं हो सकती है, क्योंकि कर्मरूप से दोनों में कुछ विशेषता नहीं है । यदि तुम्हारा अभिप्राय यह हो कि कार्मणवगंणा से जो एक कर्म उत्पन्न हुआ है वह कर्म नहीं है तो फिर वैसी अवस्था में उससे आठ कर्मों की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती है, क्योंकि तुम्हारे अभिमत के अनुसार, अकर्म से कर्म की उत्पत्ति का विरोध है । इसके अतिरिक्त कार्य को कारण का अनुसरण करना ही चाहिए, ऐसा कोई ऐकान्तिक नियम नहीं है, अन्यथा मिट्टी के पिण्ड से मिट्टी के पिण्ड को छोड़कर घट-घटी - शराव आदि के न उत्पन्न हो सकने का प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि सुवर्ण से चूंकि सुवर्णमय घट की ही उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए कार्य-कारण के अनुसार ही हुआ करता है, ऐसा मानना चाहिए; तो यह कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि वैसी परिस्थिति में कठिन सुवर्ण से जो अग्नि आदि के संयोग से सुवर्णमय जल की उत्पत्ति देखी जाती है वह घटित नहीं हो सकेगी। दूसरे, यदि कार्य को सर्वथा कारणस्वरूप ही माना जाता है तो जिस प्रकार कारण नहीं उत्पन्न होता है, उसी प्रकार कार्य को भी नहीं उत्पन्न होना चाहिए । इस प्रकार से आगे और भी शंका-समाधानपूर्वक दार्शनिक दृष्टि से उस पर ऊहापोह करते हुए यह सिद्ध किया गया है कि कर्म कार्मणवर्गणा से सर्वथा भिन्न नहीं हैं, क्योंकि अचेतनता, मूर्तता और पुद्गलरूपता इनकी अपेक्षा उनमें कार्मणवर्गणा से अभेद पाया जाता है । इसी प्रकार वे उक्त कार्मणवर्गणा से सर्वथा अभिन्न भी नहीं हैं, क्योंकि ज्ञानावरणादिरूप प्रकृति के भेद से, स्थिति के भेद से, अनुभाग के भेद से तथा जीवप्रदेशों के साथ परस्पर में अनुबद्ध होने से उनमें कार्मणवर्गणा से भिन्नता भी पाई जाती है। इससे सिद्ध होता है कि कार्य कथंचित् कारण के अनुसार होता है और कथंचित् अनुसरण न करके उससे भिन्न भी होता है । सत्-असत् कार्यवाद पर विचार इसी प्रसंग में कार्य को सर्वथा सत् मानने वाले सांख्यों के अभिमत को प्रकट करते हुए यह कारिका उद्धृत की गयी है--- असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्धकरणा कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥ सांख्य का० ६, सत्कार्यवादी सांख्य कारण व्यापार के पूर्व भी कार्य सत् है, इस अपने अभिमत की पुष्टि में ये पांच हेतु देते हैं (१) कार्य पूर्व में भी सत् है, अन्यथा उसे किया नहीं जा सकता है । जैसे तिलों में तेल विद्यमान रहता है तभी यंत्र की सहायता से उसे उत्पन्न किया जाता है, बालू में असत् तेल को कभी किसी भी प्रकार से नहीं निकाला जा सकता है । (२) उपादानग्रहण - उपादान का अर्थ है नियत कारण से कार्य का सम्बन्ध । घट आदि कार्य मिट्टी आदि अपने नियत कारण से सम्बद्ध रहकर ही अभिव्यक्त होते हैं । कार्य यदि असत् हो तो उसका सम्बन्ध ही नहीं बनता, अन्यथा मिट्टी से जैसे घट उत्पन्न होता है वैसे ही उससे पट भी उत्पन्न हो जाना चाहिए । पर वैसा होना सम्भव नहीं है । (३) सर्वसम्भव का अभाव - सबसे सब कार्य उत्पन्न नहीं होते, किन्तु प्रतिनियत कारण प्रतिनियत कार्यही उत्पन्न होता है । यदि कार्य अपने प्रतिनियत कारण में सत् न हो तो ५३६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबसे सबके उत्पन्न होने का प्रसंग प्राप्त होता है। (४) शक्त का शक्य कार्य का करना-समर्थ कारण में जिस कार्य के करने की शक्ति होती है उसी को वह करता है, अन्य को नहीं। अभिप्राय यह है कि समर्थ कारण में जो शक्य कार्य के करने की शक्ति रहती है वह उसके सत् रहने पर ही सम्भव है, अन्यथा वह असत् आकाशकुसुम के करने में भी होनी चाहिए। पर वैसा सम्भव नहीं है । (५) कारणभाव-कार्य कारण रूप हुआ करता है, इसलिए जब कारण सत् है तो उससे अभिन्न कार्य असत् कैसे हो सकता है ? उसे सत् ही होना चाहिए। ___इन पांच हेतुओं द्वारा जो कारणव्यापार के पूर्व भी कार्य के सत्त्व को सिद्ध किया गया है, उसे असंगत ठहराते हुए धवलाकार कहते हैं कि यदि कार्य सर्वथा सत् ही हो, तो उसके उत्पन्न करने के लिए जो कर्ता की प्रवृत्ति होती है व वह उसके लिए अनुकूल सामग्री को जुटाता है वह सब निष्फल ठहरता है। जो सर्वथा सत् ही है उसकी उत्पत्ति का विरोध है। इसके अतिरिक्त कार्य के सब प्रकार से विद्यमान रहने पर अमुक कार्य का अमुक कारण है, यह जो कार्यकारणभाव की व्यवस्था है वह बन नहीं सकती है-जिस किसी से जिस किसी भी कार्य की उत्पत्ति हो जानी चाहिए, पर ऐसा सम्भव नहीं है। इत्यादि प्रकार से उपर्युक्त सत्कार्य के साधक उन हेतुओं का यहाँ निराकरण किया गया है। ___ इसी प्रसंग में नैयायिक व वैशेषिकों के द्वारा जो लगभग उन्हीं पांच हेतुओं के आश्रय से कार्य के असत्त्व को व्यक्त किया गया है, उसका भी निराकरण धवलाकार ने कर दिया है । उन हेतुओं में सांख्य, जहाँ प्रथम हेतु को 'असत् किया नहीं जा सकता है' के रूप में प्रस्तुत करते हैं, वहाँ नैयायिक उसे 'सत् को किया नहीं जा सकता है के रूप में प्रस्तुत करते हैं । शेष चार हेतुओं का उपयोग जैसे सत् कार्य की सिद्धि में किया जाता है, वैसे ही उनका उपयोग असत् कार्य की सिद्धि में हो जाता है। इस प्रकार यहाँ सत्-असत् व नित्य-अनित्य आदि सर्वथा एकान्त का निराकरण करते हुए अन्त में धवलाकार ने 'कार्य कथंचित् सत् भी है, कथंचित् असत् भी है, कथंचित् सत्-असत् भी' इत्यादि रूप में उसके विषय में सप्तभंगी को योजित किया है। ___ इस प्रसंग में धवलाकार ने प्रकरण के अनुसार आप्तमीमांसा की चौदह (३७,३६-४०, ४२,४१,५६-६०,५७,६ व १०-१४) कारिकाओं को उद्धृत किया है।' प्रक्रम के भेद-प्रभेद ___ आनुषंगिक चर्चा को समाप्त कर आगे धवला में एक से अनेक कर्मों की उत्पत्ति कैसे होती है व मूर्त कर्मों का अमूर्त जीव के साथ कैसे सम्बन्ध होता है, इत्यादि का विचार करते हुए प्रकृत प्रक्रम के ये तीन भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-प्रकृतिप्रक्रम, स्थितिप्रक्रम और अनुभागप्रक्रम । इनमें प्रकृतिप्रक्रम मल और उत्तर प्रकृतिप्रक्रम के भेद से दो प्रकार का है। मूलप्रकृति प्रक्रम का निरूपण प्रक्रमस्वरूप कार्मणपुद्गलप्रचय द्रव्य के अल्पबहुत्व को इस प्रकार प्रकट १. धवला, पु० १५, पृ० १५-३१ (सत्कार्यवाद व असत्कार्यवाद का विचार प्रमेयकमलमार्तण्ड (पत्र ८०-८३) और न्यायकुमुदचन्द्र (१, पृ० ३५२-५८) आदि में किया गया है। ये ग्रन्थ धवला से बाद के हैं। षट्खण्डागम पर टीकाएँ| ५३७ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया है-आयु का वह द्रव्य एक समयप्रबद्ध में सबसे स्तोक, नाम व गोत्र इन दोनों कर्मों का वह द्रव्य परस्पर में समान होकर आयु के द्रव्य से विशेष अधिक; ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों का परस्पर में समान होकर पूर्व से विशेष अधिक; मोहनीय का विशेष अधिक, तथा वेदनीय का उससे विशेष अधिक होता है। इसी पद्धति से उत्तरप्रकृतिप्रक्रम के प्रसंग में प्रथमतः उत्तरप्रकृतिप्रक्रमद्रव्य की और तत्पश्चात जघन्य प्रकृति प्रक्रमद्रव्य के अल्पबहुत्व की भी प्ररूपणा की गयी है।' स्थितिप्रक्रम के प्रसंग में कहा गया है कि चरम स्थिति में प्रक्रमित प्रदेशाग्र सबसे स्तोक, प्रथम स्थिति में उससे असंख्यातगुणा, अप्रथम-अचरम स्थितियों में असंख्यातगुणा, अप्रथम स्थिति में विशेष अधिक, अचरम स्थिति में विशेष अधिक तथा सब स्थितियों में वह प्रक्रमित प्रदेशाग्र विशेष अधिक होता है। यह अल्पबहुत्व स्थितियों में प्रकान्त द्रव्य की अपेक्षा है, इसे आगे स्पष्ट किया गया है (पु० १५, पृ० ३६)। अनुभागप्रक्रम के प्रसंग में कहा गया है कि जघन्य वर्गणा में बहुत प्रदेशाग्र प्रक्रान्त होता है. द्वितीय वर्गणा में वह अनन्तवें भाग से विशेष हीन प्रक्रान्त होता है। इस क्रम से अनन्त स्पर्धक जाकर वह दुगुणा हीन प्रक्रान्त होता है। इस प्रकार उत्कृष्ट वर्गणा तक ले जाना चाहिए। आगे इस प्रक्रान्त द्रव्य के अल्पबहुत्व को स्पष्ट किया गया है। ___ इस प्रकार आठवां प्रक्रम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है। ६. उपक्रम अनुयोगद्वार पूर्व पद्धति के अनुसार उपक्रम अनुयोगद्वार नाम-स्थापनादि के भेद से छह प्रकार का कहा गया है। उनके अवान्तर भेदों नोआगमद्रव्य कर्मोपक्रम को यहाँ प्रसंगप्राप्त कहा गया है। यहाँ प्रक्रम और उपक्रम में भेद दिखलाया है। प्रक्रम जहाँ प्रकृति, स्थिति और अनुभाग में आनेवाले प्रदेशपिण्ड की प्ररूपणा करता है, वहाँ उपक्रम बन्ध के द्वितीय समय से लेकर सत्स्वरूप से स्थित कर्मपुद्गलों के व्यापार की प्ररूपणा करता है। कर्म-उपक्रम चार प्रकार का है-बन्धनउपक्रम, उदीरणाउपक्रम, उपशामनाउपक्रम और विपरिणामनाउपक्रम । इनमें बन्धनउपक्रम भी चार प्रकार का है-प्रकृतिबन्धनउपक्रम, स्थितिबन्धनउपक्रम, अनुभागबन्धनरपक्रम और प्रदेशबन्धनउपक्रम । (१) बन्धनउपक्रम दूध और पानी के समान जीव के प्रदेशों के साथ परस्पर में अनुगत प्रकृतियों के बन्ध के क्रम की जहाँ प्ररूपणा की जाती है, उसका नाम प्रकृतिबन्धन उपक्रम है । जो सत्स्वरूप उन कर्मप्रकृतियों के एक समय से लेकर सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम काल तक अवस्थित रहने के काल की प्ररूपणा करता है उसे स्थितिबन्धन उपक्रम कहा जाता है । अनुभागबन्धन उपक्रम में जीव के साथ एकरूपता को प्राप्त उन्हीं सत्त्वरूप प्रकृतियों के अनुभाग सम्बन्धी स्पर्धक, वर्ग, वर्गणा, स्थान और अविभागप्रतिच्छेदों आदि की प्ररूपणा की जाती है। क्षपितकर्माशिक, गुणितकर्माशिक, क्षपितघोलमानकौशिक और गुणितघोलमानकर्माशिक का आश्रय करके जो १. धवला, पु० १५, ३२-३६ ५३८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्हीं प्रकृतियों के उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशों की प्ररूपणा की जाती है, उसका नाम प्रदेशबन्धन उपक्रम है। धवलाकार ने आगे यह सूचना कर दी है कि इन चार उपक्रमों की प्ररूपणा जिस प्रकार 'सत्कर्मप्राभूत' में की गयी है उसी प्रकार से यहां भी उनकी प्ररूपणा करनी चाहिए। यहां यह शंका उत्पन्न हुई है कि कि उनकी प्ररूपणा जैसे 'महाबन्ध' में की गयी है वैसे उनकी प्ररूपणा क्यों नहीं की जाती है । उत्तर में कहा गया है कि महाबन्ध का व्यापार प्रथम समय-सम्बन्धी बन्ध की ही प्ररूपणा में रहा है। यहाँ उसका कथन करना योग्य नहीं है, क्योंकि वैसा करने पर पुनरुक्त दोष का प्रसंग प्राप्त होता है। इस प्रकार से यहां कर्मोपक्रम का प्रथम भेद बन्धनोपक्रम समाप्त हुआ है। (२) उदीरणोपक्रम उदीरणा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार प्रकार की है। इनमें प्रकृतिउदीरणा दो प्रकार की है-मूलप्रकृतिउदीरणा और उत्तरप्रकृतिउदीरणा। इनमें प्रथमतः मूलप्रकृतिउदीरणा की प्ररूपणा करते हुए उदीरणा के लक्षण में कहा गया है कि परिपाक को नहीं प्राप्त हुए कर्मों के पकाने का नाम उदीरणा है । अभिप्राय यह है कि आवली से बाहर की स्थिति को आदि करके आगे की स्थितियों के बन्धावलि से अतिक्रान्त प्रदेशपिण्ड को असंख्यात लोक के प्रतिभाग से अथवा पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रतिभाग से अपकर्षित करके जो उदयावलि में दिया जाता है, उसे उदीरणा कहते हैं। उपर्युक्त दो भेदों में मूलप्रकृतिउदीरणा दो प्रकार की है--एक-एक प्रकृतिउदीरणा और प्रकतिस्थानउदीरणा । इनमें यहाँ एक-एक प्रकृतिउदीरणा की प्ररूपणा क्रम से स्वामित्व, एक जीव की अपेक्षा काल, एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवों की अपेक्षा काल और अल्पबहुत्व इन अधिकारों में की गयी है । जैसे स्वामित्व की अपेक्षा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इनके उदीरक मिथ्यादृष्टि को आदि लेकर क्षीणकषाय तक होते हैं । विशेष इतना है कि क्षीणकषायकाल में एक समय से अधिक आवली के शेष रह जाने पर इन तीनों प्रकृतियों की उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है। ____ इसी प्रकार से आगे मोहनीय आदि शेष मूलप्रकृतियों की उदीरणा के स्वामित्व की प्ररूपणा की गयी है (पु० १५, पृ० ४३)। एक जीव की अपेक्षा काल की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि वेदनीय और मोहनीय का उदीरक अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित होता है । इनमें जो सादि-सपर्यवसित है वह उनकी उदीरणा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त करता है । अप्रमत्त से च्युत होकर व अन्तर्मुहुर्त स्थित रहकर जो पुनः अप्रमत्त गुणस्थान को प्राप्त हुआ है उसके वेदनीय की उदीरणा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त होती है, तथा उपशान्तकषाय से पतित होकर व अन्तर्मुहूर्त स्थित रहकर जो एक समय अधिक आवलीप्रमाण सूक्ष्म साम्परायिक के अन्तिम समय को नहीं प्राप्त हुआ है उसके मोहनीय की उदीरणा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त होती है । उत्कर्ष से उन दोनों की उदीरणा उपार्धपुद्गलपरिवर्तनकाल तक होती है । अप्रमत्त गुणस्थान से च्युत होकर व उपार्धपुद्गलप्रमाणकाल तक परिभ्रमण करके जो पुन: अप्रमत्त षट्खण्डागम पर टीकाएँ | १३९ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान को प्राप्त हुआ है उसके उदीरणा के व्युच्छिन्न हो जाने पर उत्कर्ष से वेदनीय की उदीरणा उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाणकाल तक होती है । इसी प्रकार उपशान्तकषाय से पतित होकर व उपार्धंपुद् गल परिवर्तनप्र माणकाल तक परिभ्रमण करके पुनः उपशान्तकषाय गुणस्थान को प्राप्त हुआ है उसके उदीरणा के व्युच्छिन्न हो जाने पर मोहनीय की उदीरणा उत्कर्ष से उपार्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाणकाल तक होती है । इसी प्रकार से आगे एक जीव की अपेक्षा आयु आदि अन्य मूल प्रकृतियों के जघन्य और उत्कृष्ट उदीरणाकाल की प्ररूपणा की गयी है वेदनीय, मोहनीय और आयु को छोड़ शेष मूल प्रकृतियों का उदीरक वह अनादि - अपर्यवसित होता है जो क्षपक श्रेणि पर आरूढ़ नहीं हुआ है । तथा क्षपक श्रेणि पर आरूढ़ हुआ वह उनका उदीरक सादि सपर्यवसित होता है, क्योंकि वहाँ उनकी उदीरणा का व्युच्छेद हो जाता है ( पु० १५, पृ० ४४-४८ ) । इसी क्रम से आगे यहाँ एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवों की अपेक्षा काल और अल्पबहुत्व के आश्रय से भी यथासम्भव उस उदीरणा की प्ररूपणा की गयी है । नाना जीवों की अपेक्षा उसके अन्तर की असम्भावना प्रकट कर दी गयी है । एक-एक प्रकृति का अधिकार होने से यहाँ भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि उदीरणा सम्भव नहीं है । प्रकृतिस्थानसमुत्कीर्तन के प्रसंग में उदीरणा के इन पाँच प्रकृतिस्थानों की सम्भावना व्यक्त की गयी है-आठ प्रकार के, सात प्रकार के छह प्रकार के, पाँच प्रकार के और दो प्रकार के कर्मों के प्रकृतिस्थान । इनमें सब ही प्रकृतियों की उदीरणा करनेवाले के आठ प्रकार की आयु के बिना सात प्रकार की आयु व वेदनीय के बिना अप्रमत्तादि गुणस्थानों में छह प्रकार की तथा मोहनीय, आयु और वेदनीय के बिना क्षीणकषाय और उपशान्तकषाय गुणस्थानों पाँच प्रकार की उदीरणा होती है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु अन्तराय के बिना सयोगिकेवली गुणस्थान में दो की उदीरणा होती है । 1 और जिस प्रकार पूर्व में एक-एक प्रकृतिउदीरणा की प्ररूपणा स्वामित्व, एक जीव की अपेक्षा काल, एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवों की अपेक्षा काल, नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर और अल्पबहुत्व तीन अधिकारों में की गयी है उसी प्रकार इस प्रकृतिस्थान उदीरणा की भी प्ररूपणा इन्हीं स्वामित्व आदि अधिकारों में की गयी है । नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर के प्रसंग में यहाँ पाँच प्रकृतियों के उदीरकों का जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट छह मास कहा गया है। शेष प्रकृतिस्थानों के उदींरकों का अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा सम्भव नहीं है ( पु० १५, पृ० ४८- ५० ) । • भुजाकार के प्रसंग में यहाँ भुजाकार आदि का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है कि इस समय जिन प्रकृतियों की उदीरणा कर रहा है उसके अनन्तर पूर्व समय में उनसे कम की उदीरणा करता है, यह भुजाकार उदीरणा है। इस समय जितनी प्रकृतियों की उदीरणा कर रहा है उसके अनन्तर अतिक्रान्त समयों में बहुतर प्रकृतियों की जो उदीरणा की जाती है, यह अल्पतर उदीरणा का लक्षण है । दोनों समयों में उतनी ही प्रकृतियों की उदीरणा करनेवाले के अवस्थित उदीरणा होती है । अनुदीरणा से उदीरणा करनेवाले के अवक्तव्य उदीरणा ५४० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है। इस प्रकार इन भुजाकारादि के स्वरूप स्पष्ट करके आगे यह सूचना कर दी गयी है कि इस अर्थपद के अनुसार आगे के अधिकारों की प्ररूपणा करनी चाहिए। ___ आगे इस भुजाकार के विषय में स्वामित्व आदि का विचार करते हुए पदनिक्षेप व वृद्धि उदीरणा को प्रकट किया गया है (पु० १५, पृ० ५०-५४)। उत्तर प्रकृतिउदीरणा भी एक-एक प्रकृतिउदीरणा और प्रकृतिस्थानउदीरणा के भेद से दो प्रकार की है । इस दो प्रकार की उत्तरप्रकृतिउदीरणा की भी प्ररूपणा मूलप्रकृतिउदीरणा के समान उन्हीं स्वामित्व आदि अधिकारों में विस्तारपूर्वक की गयी है (पृ० ५४-१००)। ___ इस प्रकार मूलप्रकृतिउदीरणा और उत्तरप्रकृति के समाप्त हो जाने पर प्रकृतिउदीरणा समाप्त हुई है। - इसी पद्धति से आगे यहाँ स्थितिउदीरणा, अनुभागउदीरणा और प्रदेशउदीरणा की भी प्ररूपणा की गयी है (पु० १५, पृ० १००-२७५) । इस प्रकार से यहां कर्मोपक्रम का दूसरा भेद उदीरणोपक्रम समाप्त हो जाता है। (३) उपशामनोपक्रम नाम-स्थापना आदि के भेद से उपशामना चार प्रकार की है। इस प्रसंग में नोआगमद्रव्यउपशामना के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-कर्मउपशामना और नोकर्मउपशामना। इनमें कर्मउपशामना दो प्रकार की है—करणोपशामना और अकरणोपशामना । अकरणोपशामना का दूसरा नाम अनुदीर्णोपशामना भी है। ___अकरणोपशामना के प्रसंग में धवलाकार ने यह कहा है कि इसकी प्ररूपणा कर्मप्रवाद' में विस्तारपूर्वक की गयी है। करणोपशामना दो प्रकार की है—देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना। इनमें सर्वकरणोपशामना के अन्य दो नाम हैं-गुणोपशामना और प्रशस्तोपशामना। सर्वकरणोपशामना के प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि इसकी प्ररूपणा 'कषायप्राभत' में की जावेगी। सम्भवत: 'कषायप्राभृत' से यहाँ धवलाकार का आशय अपने द्वारा विरचित उसकी टीका जयधवला से रहा है। देशकरणोपशामना के अन्य ये दो नाम हैं-अगुणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना। इसी को यहाँ अधिकृत कहा गया है । यह उपशामना से सम्बन्धित सन्दर्भ प्रायः 'कषायप्राभूतचूणि' से शब्दशः समान है। विशेषता इतनी है कि कषायप्राभृतचूणि में 'गुणोपशामना' के स्थान में 'सर्वोपशामना' और 'अगु १. कम्मपवादो णाम अट्ठमो पुव्वाहियारो जत्थ सव्वेसि कम्माणं मूलुत्तरपयडिभेयभिण्णाणं दव्व-खेत्त-काल-भावे समस्सियूण विवागपरिणामो अविवागपज्जायो व बहुवित्थरो अणुवण्णिदो । तत्थ एसा अकरणोवसामणा दट्टव्वा, तत्थेदिस्से पबंधेण परूपणोवलंभादो । -जयध० (क०पा० सुत्त पृ. ७०७, टि० १) २. देखिये धवला, पु० १५, पृ० २७५-७६ तथा क०प्रा० चूणि २६६-३०६ (क०पा० सुत्त पृ० ७०७-८) षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ५४१ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णोपशामना' के स्थान में 'देशकरणोपशामना' उपलब्ध होता है। सर्वोपशामना और देशकर. णोपशामना में दोनों ग्रन्थों में क्रमव्यत्यय भी हुआ है। देशकरणोपशामना के प्रसंग में आगे कायप्राभूत में 'एसा कम्मपयडीसु'' (चूणि ३०४) कहकर यह अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि इस देशकरणोपशामना की प्ररूपणा 'कर्मप्रकृतिप्राभृत' में की गयी है। शिवशर्म सूरि-विरचित 'कर्मप्रकृति' में छठा 'उपशामना' नाम का अधिकार है। वहां सर्वप्रथम मंगलस्वरूप यह गाथा कही गयी है करणकया अकरणा वि य दविहा उवसामण त्थ बिइयाए । अकरण-अणुइण्णाए अणुओगधरे पणिवयामि ॥-क०प्र० उप० १ __इसमें ग्रन्थकर्ता ने उपशामना के करणकृता और अकरणा इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनमें अकरणा और अनुदीर्णा नामवाली दूसरी उपशामना विषयक अनुयोग के धारकों को नमस्कार किया है। ___ इस गाथा की व्याख्या में टीकाकार मलयगिरि सूरि ने यह अभिप्राय व्यक्त किया है कि 'अनदीर्णा' अपर नाम वाली अकरणा उपशामना का अनुयोग इस समय नष्ट हो चुका है, इसलिए आचार्य (शिवशर्म सूरि) स्वयं उसके अनुयोग सम्बन्धी ज्ञान से रहित होने के कारण उसके पारंगत विशिष्ट मति-प्रभा से युक्त चतुर्दशपूर्ववेदियों को नमस्कार करते हैं।' उपर्युक्त सब विवेचन से यही प्रतीत होता है कि चूर्णिकार आचार्य यतिवृषभ, शिवशर्म सूरि और धवलाकार वीरसेन स्वामी के समय में अकरणोपशामना के ज्ञाता नहीं रहे थे। यदि चर्णिकार और धवलाकार को उसका विशेष ज्ञान होता तो वे 'उसकी प्ररूपणा कर्मप्रवाद में विस्तार से की गयी है' ऐसी सूचना न करके उसकी प्ररूपणा कुछ अवश्य करते। __ 'जयधवला' में उस प्रसंग में 'कर्मप्रवाद' को आठवाँ पूर्व कहकर यह जो कहा गया है कि उसे वहाँ देखना चाहिए, यह विचारणीय है । क्योंकि उसका तो उस समय लोप हो चुका था। वह जयधवलाकार के समक्ष रहा हो और उन्होंने उसका परिशीलन भी किया हो, ऐसा नहीं दिखता। क्या यह सम्भव है कि उस समय उक्त कर्मप्रवाद पूर्व का एकदेश रहा हो और उसके आधार से यतिवृषभ, वीरसेन और जिनसेन ने वैसा संकेत किया हो ? 'कर्मप्रकृति' में इस प्रसंग में करणोपशामना के सर्वोपशामना और देशोपशामना इन दो १. कम्मपयडीओ णाम विदियपुठवपंचमवत्थुपडिबद्धो चउत्थो पाहुडसण्णिदो अहियारो अस्थि । तत्थेसा देसकरणोवसामणा दट्टव्दा, सवित्थरमेदिस्से तत्थ पबंधेण परूविदत्तादो। कथमेत्थ एगस्स कम्मपयडिपाहुडस्स 'कम्मपयडीसु' त्ति बहुवयणणिद्दे सो त्ति णासंकणिज्ज, एक्कस्स वि तस्स कदि-वेदणादि अवंतराहियारभेदावेक्खाए बहुवयणाणिसाविरोहादो। -जयध० (क.पा.सुत्त प० ७०८, टिप्पण ३) २. अस्माश्चाकरणकृतोपशामनाया नामधेयद्वयम् । तद्यथा-अकरणोपशामना अनुदीर्णोप शामना च । तस्याश्च संप्रत्यनयोगो व्यवच्छिन्नः । तत आचार्यः स्वयं तस्या अनुयोगमजानानस्तद्वेदितृणां विशिष्टमतिप्रभाकलितचतुर्दशपूर्ववेदिनां नमस्कारमाह-'बिइणाए' इत्यादि । -क०प्र० मलय० वृत्ति उप०० १, पृ० २५४ ५४२ / षट्पण्डागम-परिशीलन Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेदों का निर्देश है। उसमें बतलाया है कि सर्वोपशामना मोह की ही हुआ करती है। उसं सर्वोपशामना क्रिया के योग्य कौन होता है, इसे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि उसके योग्य पंचेन्द्रिय, संजी, पर्याप्त, तीन लब्धियों से युक्त-पंचेन्द्रियत्व, संज्ञित्व व पर्याप्तत्व रूप अथवा उपशम, उपदेशश्रवण और तीन करणों के हेतुभूत प्रकृष्ट योगलब्धिरूप तीन लब्धियों से युक्त, करणकाल के पूर्व ही विशुद्धि को प्राप्त होनेवाला, ग्रन्थिकसत्त्वों (अभव्यसिद्धिकों) की विशुद्धि का अतिक्रमण करके अवस्थित, अन्यतर (मति-श्रुत में से किसी एक) साकार उपयोग में तथा विशुद्ध लेश्याओं में से किसी एक लेश्या में वर्तमान होता हुआ जो सात कर्मों की स्थिति को अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण करके, अशुभ कर्मों के चतुःस्थानरूप अनुभाग को द्वि-स्थानरूप और शुभ कर्मों के द्विस्थानरूप अनुभाग को चतुःस्थानरूप करता है, इत्यादि । लगभग यही अभिप्राय प्रायः उन्हीं शब्दों में षट्खण्डागम और उसकी टीका धवला में प्रकट किया गया है। ___ इस प्रकार धवला में उपशामना के भेद-प्रभेदों में उल्लेख करते हुए यहाँ देशकरणोपशामना को प्रसंगप्राप्त कहा गया है। अप्रशस्तोपशामना का स्वरूप स्पष्ट करते हुए यहां कहा गया है कि अप्रशस्त उपशामना से जो प्रदेशपिण्ड उपशान्त है उसका अपकर्षण भी किया जा सकता है और उत्कर्षण भी, तथा अन्य प्रकृति में उसे संक्रान्त भी किया जा सकता है। किन्तु उसे उदयावली में प्रविष्ट नहीं कराया जा सकता (पु० १५, पृ० २७६)। पश्चात् पूर्व पद्धति के अनुसार यहाँ क्रम से मूल और उत्तर प्रकृतियों के आश्रय से प्रस्तुत अप्रशस्त उपशामना की प्ररूपणा स्वामित्व, एक जीव की अपेक्षा काल, एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय और नाना जीवों की अपेक्षा काल आदि अनेक अधिकारों में की गयी है । जैसे स्वामित्व अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में प्रविष्ट हुए चारित्रमोह के क्षपक व उपशामक जीव के सब कर्म अप्रशस्त उपशामना से अनुपशान्त होते हैं। अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में प्रविष्ट दर्शनमोह के उपशामक के दर्शनमोहनीय अप्रशस्त उपशामना से अनुपशान्त होता है, शेष सब कर्म उस के उपशान्त और अनुपशान्त होते हैं। ____ अनन्तानबन्धी की विसंयोजना में अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में प्रविष्ट होते समय में ही अनन्तानुबन्धिचतुष्क अप्रशस्त उपशामना से अनुपशान्त होता है, शेष सब कर्म उपशान्त और अनूपशान्त होते हैं। किसी भी कर्म का सब प्रदेशाग्र उपशान्त व सब प्रदेशाग्र अनुपशान्त नहीं होता, किन्तु सब उपशान्त-अनुपशान्त होता है। .. विशेषता यह रही है कि वहाँ प्रकृति, स्थिति और अनुभागविषयक उपशामना की प्ररूपणा कर प्रदेशउपशामना के विषय में 'प्रदेशउपशामना की प्ररूपणा जानकर करनी चाहिए' इतना १. क०प्र० उप०क० गाथा २-८ द्रष्टव्य हैं । २. ष०ख० सूत्र १,६-८,४-५ व उनकी धवला टीका (पु० ६, पृ० २०६-३०) तथा सूत्र १, ६-३,१.२; सूत्र १,६-४,१-२; सूत्र १,६-५,१-२ और उनकी टीका (पु०६, पृ० १३३-४४) ३. पदेसउवसामणा जाणियूण परूपदेव्वा । पु० १५, पृ० २८२ षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ५४३ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्र कहा है। (४) विपरिणाम उपक्रम यह भी प्रकृति-स्थिति आदि के भेद से चार प्रकार का है। इनमें प्रकृति विपरिणामना मूल और उत्तर प्रकृति के भेद से दो प्रकार की है। मूल प्रकृतिविपरिणामना भी देशविपरिणामना और सर्वविपरिणामना के भेद से दो प्रकार की है। जिन प्रकृतियों का एकदेश अधःस्थितिगलना के द्वारा निर्जीर्ण होता है, वह देश विपरिणामना है। जो प्रकृति सर्वनिर्जरा से निर्जीर्ण होती है उसे सर्वविपरिणामना कहा जाता है। आगे यहाँ यह सूचना कर दी गयी है कि इस अर्थपद से मूलप्रकृतिविपरिणामना के विषय में स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, संनिकर्ष और विपरिणामना अल्पबहुत्व को ले जाना चाहिए। भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि यहां भी नहीं है। उत्तरप्रकृतिविपरिणामना का निरूपण करते हुए कहा गया है कि जो प्रकृति देश निर्जरा अथवा सर्वनिर्जरा के द्वारा निर्जीर्ण होती है अथवा जो देशसंक्रम या सर्वसंक्रम के द्वारा संक्रम को प्राप्त करायी जाती है, वह उत्तरप्रकृतिविपरिणामना है। यहां भी आगे इस अर्थपद से स्वामित्व आदि की प्ररूपणा करने की सूचना कर दी गयी है। साथ ही प्रकृति स्थानविपरिणामना की प्ररूपणा करने की ओर संकेत भी कर दिया गया है। आगे क्रमप्राप्त स्थितिविपरिणामना के प्रसंग में उसका स्वरूप निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो स्थिति अपकर्षण व उत्कर्षण को प्राप्त करायी जाती है अथवा अन्य प्रकृति में संक्रान्त करायी जाती है, इसका नाम स्थितिविपरिणामना है। आगे कहा गया है कि इस अर्थपद से स्थितिविपरिणामना की प्ररूपणा स्थितिसंक्रम के समान करनी चाहिए, क्योंकि दोनों की प्ररूपणा की पद्धति समान है। अनुभागविपरिणामना के प्रसंग में उसका स्वरूप निर्देश करते हुए कहा है कि अपकर्षण को प्राप्त, उत्कर्षण को भी प्राप्त और अन्य प्रकृति में संक्रान्त कराया गया भी अनुभाग विपरिणामित होता है । यहाँ भी यह सूचना कर दी गयी कि इस अर्थपद से प्रकृत अनुभागविपरिणामना की प्ररूपणा उसी प्रकार करनी चाहिए, जिस प्रकार से अनुभागसंक्रम की प्ररू. पणा की गयी है। यही स्थिति प्रदेशविपरिणामना की भी रही है। निर्जरा को तथा अन्य प्रकृति में संक्रम को प्राप्त हुए प्रदेशाग्र का नाम प्रदेश विपरिणामना है। इस अर्थपद से प्रकृत प्रदेश विपरिणामना को प्रदेशसंक्रम के समान जानना चाहिए। विशेष इतना है कि उदय से निर्जरा को प्राप्त होने वाला प्रदेशाग्र प्रदेशसंक्रम की अपेक्षा विपरिणामना में अधिक होता है। इस प्रकार उपक्रम के बन्धनोपक्रम आदि चारों भेदों की प्ररूपणा के समाप्त हो जाने पर उपक्रम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है । १०. उदय अनुयोगद्वार यहाँ सर्वप्रथम नामादि उदयों में कौन-सा उदय प्रसंगप्राप्त है, इस प्रश्न को स्पष्ट करते ५४४ / षटखण्डागम-परिशीलन Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए नोआगमकर्मद्रव्य उदय को प्रसंगप्राप्त कहा गया है। वह प्रकृतिउदय आदि के भेद से चार प्रकार का है । उनमें प्रकृतिउदय दो प्रकार का है-मूलप्रकृतिउदय और उत्तरप्रकृतिउदय । मूलप्रकृतिउदय का कथन विचारकर करना चाहिए, ऐसी यहां सूचना भी कर दी गयी है। उत्तरप्रकृतिउदय के प्रसंग में स्वामित्व का विचार किया गया है। तदनुसार पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय के वेदक सब छद्मस्थ होते हैं। निदा आदि पाँच दर्शनावरणीय प्रकतियों का वेटक शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त होने के दूसरे समय से लेकर आगे का कोई भी जीव होता है, जो उसके वेदन के योग्य हो। विशेष इतना है कि देव, नारक और अप्रमत्तसंयत ये स्त्यानगृद्धि आदि तीन दर्शनावरणीय प्रकृतियों के वेदक नहीं होते हैं। इनके अतिरिक्त जिन प्रमत्तसंयतों ने आहारकशरीर को उत्थापित किया है वे भी इन तीन दर्शनावरणीय प्रकृतियों के अवेदक होते हैं । अन्य आचार्यों के मतानुसार इन सबके अतिरिक्त असंख्यातवर्षायुष्क और उत्तरशरीर की विक्रिया करने वाले तियंच मनुष्य भी उनके अवेदक होते हैं। ___ साता व असाता में से किसी एक का वेदक कोई भी संसारी जीव, जो उसके वेदन के योग्य हो, होता है। ___इसी क्रम से आगे मिथ्यात्व आदि शेष सभी उत्तरप्रकृतियों का वेदन-विषयक विचार किया गया है (पु० १५, पृ० २८५-८८)। इस प्रकार स्वामित्व के विषय में विचार करने के उपरान्त यह सूचना कर दी गयी है कि एक जीव की अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और संनिकर्ष अनुयोगद्वारों का कथन उपर्युक्त स्वामित्व से सिद्ध करके करना चाहिए। ___अल्पबहुत्व के संदर्भ में कहा गया है कि उसकी प्ररूपणा, जिस प्रकार उदीरणा के प्रसंग में की गयी है, उसी प्रकार यहाँ भी करना चाहिए। उससे जो कुछ कहीं विशेषता रही है उसे यह स्पष्ट कर दिया गया है । यथा मनुष्यगतिनामकर्म के और मनुष्यायु के वेदक समान हैं। इसी प्रकार शेष गतियों और आयुओं के अल्पबहुत्व को जानना चाहिए, इत्यादि (पु० १५, पृ० ८८-८६)। स्थितिउदय भी मूलप्रकृतिस्थितिउदय और उत्तरप्रकृतिस्थितिउदय के भेद से दो प्रकार का है। मूलप्रकृतिस्थितिउदय भी प्रयोग और स्थितिक्षय से दो प्रकार से होता है। इनमें स्थितिक्षय से होने वाले उदय को सुगम बतलाकर प्रयोग से होने वाले उदय को संपत्ति (संप्रति या संप्राप्ति) और सेचीय (निषेक) की अपेक्षा दो प्रकार का निर्दिष्ट किया है । संपत्ति की अपेक्षा एक स्थिति को उदीर्ण कहा गया है, क्योंकि इस समय जो परमाणु उदय को प्राप्त हैं, उनका अवस्थान एक समय को छोड़कर दो आदि अन्य समयों में नहीं पाया जाता है। सेचीय की अपेक्षा अनेक स्थितियों को उदीर्ण कहा गया है, क्योंकि वर्तमान में जो प्रदेशाग्र उदीर्ण है उसके द्रव्याथिकनय की अपेक्षा पूर्व के भाव के साथ उपचार सम्भव है। आगे कहा है कि इस अर्थपद से स्थितिउदयप्रमाणानुगम चार प्रकार का है— उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य। इनका स्पष्टीकरण यहां प्रथमत: मूलप्रकृतियों के आश्रय से और तत्पश्चात् उत्तरप्रकृतियों के आश्रय से पूर्व पद्धति के अनुसार उन्हीं स्वामित्व व एक जीव की अपेक्षा कालानुगम आदि अधिकारों में किया गया है। इस प्रसंग में जहाँ-तहाँ यह भी कथन है कि इसकी प्ररूपणा स्थितिउदीरणा के समान करनी चाहिए (पु० १५, पृ० २६६-६५) । षट्खण्डागम पर टीकाएँ | ५४५ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी क्रम में अनुभागउदय और प्रवेशउदय की भी प्ररूपणा की गयी है ( पु० १५, पृ० २६५(३३६) । इस प्रकार से यह उदयअनुयोगद्वार समाप्त हुआ है । ११. मोक्ष अनुयोगद्वार यहाँ सर्वप्रथम मोक्ष का निक्षेप करते हुए उसके इन चार भेदों का निर्देश है- नाममोक्ष, स्थापना मोक्ष, द्रव्यमोक्ष और भावमोक्ष । इनमें शेष को सुगम बतलाकर नोआगमद्रव्यमोक्ष के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं— कर्ममोक्ष और नोकर्ममोक्ष । कर्मद्रव्यमोक्ष प्रकृतिमोक्ष आदि के भेद से चार प्रकार का है। प्रकृतिमोक्ष भी मूलप्रकृतिमोक्ष और उत्तरप्रकृतिमोक्ष के भेद से दो प्रकार का है । वे भी देश मोक्ष और सर्वमोक्ष के भेद से दो-दो प्रकार के हैं । विवक्षित प्रकृति का निर्जरा को प्राप्त होना अथवा अन्य प्रकृति में संक्रान्त होना प्रकृतिमोक्ष है। इसे यहाँ प्रकृतिउदय और प्रकृतिसंक्रम के अन्तर्गत होने से सुगम कह दिया गया है । स्थितिमोक्ष जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से दो प्रकार का है । जो स्थिति अपकर्षण या उत्कर्षण को प्राप्त करायी गयी है अथवा अधः स्तनस्थितिगलना के द्वारा निर्जरा को प्राप्त हुई है, वह स्थितिमोक्ष है । आगे यह कह दिया है कि इस अर्थपद के अनुसार उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य मोक्ष की प्ररूपणा करनी चाहिए । इसी पद्धति से आगे अनुभागमोक्ष और प्रदेशमोक्ष की भी प्ररूपणा की गयी है । नोआगममोक्ष को प्रथम तो सुगम कहा गया है, पश्चात् वैकल्पिक रूप से यह भी कहा गया है— अथवा वह मोक्ष, मोक्षकारण और मुक्त के भेद से तीन प्रकार का है। इनमें जीव और कर्म 'पृथक् होने का नाम मोक्ष है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये मोक्ष के कारण हैं। समस्त कर्मों से रहित होकर अनन्त ज्ञान दर्शनादि गुणों से सम्पन्न होना, यह मुक्त का लक्षण है । ( पु० १६, पृ० ३३७-३८ ) इस प्रकार से यह मोक्ष अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है । १२. संक्रम अनुयोगद्वार इस अनुयोगद्वार में सर्वप्रथम संक्रम के नामसंक्रम आदि छह भेदों और उनके अवान्तर भेदों का उल्लेख है । उनमें से कर्मसंक्रम को यहाँ प्रकृत कहा गया है। वह प्रकृति- स्थिति आदि के भेद से चार प्रकार का है। जो प्रकृति अन्य प्रकृति को प्राप्त करायी जाती है, इसे प्रकृतिसंक्रम कहा जाता है । यह प्रकृतिसं क्रम स्वभावतः परस्पर मूलप्रकृतियों में सम्भव नहीं है । उत्तरप्रकृतिसंक्रम की प्ररूपणा पूर्व पद्धति के अनुसार स्वामित्व, एक जीव की अपेक्षा काल, एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवों की अपेक्षा काल और नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर और अल्पबहुत्व इन अधिकारों में प्रथमतः सामान्य से और तत्पश्चात् विशेष रूप से नरकगति आदि के आश्रय से की गयी है । जैसे— स्वामित्व के प्रसंग में प्रथमतः यह सूचना है कि बन्ध के होने पर ही संक्रम होता है, उसके अभाव में नहीं । वह भी विवक्षित मूलप्रकृति की उत्तरप्रकृतियों में ही परस्पर होता है । किन्तु दर्शन मोहनीय चारित्रमोहनीय में और चारित्रमोहनीय दर्शनमोहनीय में संक्रान्त नहीं होती । इसी प्रकार चार आयुओं का भी परस्पर में संक्रमण नहीं होता । ५४६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय और पाँच अन्तराय प्रकृतियों का संक्रामक कोई भी कषाय सहित जीव होता है। जो असाता का बन्धक है वह साता का और जो साता का बन्धक है वह असाता का संक्रामक होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि दर्शन मोहनीय के संक्रामक नहीं होते । सम्यक्त्व प्रकृति का संक्रामक नियम से वह मिथ्यादृष्टि होता है जिसके उसका सत्त्व आवली से बाहर होता है । मिथ्यात्व का संक्रामक वह सम्यग्दृष्टि होता है जिसके उस मिथ्यात्व का सत्त्व आवली से बाहर होता है । सम्यग्मिथ्यात्व का संक्रामक वह सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि होता है जिसके उस सम्यग्मिथ्यात्व का सत्त्व आवली से बाहर होता है । इसी क्रम से आगे बारह कषाय आदि अन्य उत्तरप्रकृतियों के संक्रमविषयक प्ररूपणा हुई है । अनन्तर प्रकृतिस्थान संक्रम को भी संक्षेप में बतलाकर प्रकृतिसंक्रम को समाप्त किया गया है ( पु० १६, पृ० ३३६-४७)। स्थितिसंक्रम के प्रसंग में भी प्रकृतिसंक्रम के समान उसके ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं - मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रम और उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रम । जो स्थिति अपकर्षण को प्राप्त करायी गई है, उत्कर्षण को प्राप्त करायी गयी है अथवा अन्य प्रकृति को प्राप्त करायी गयी है उसे स्थितिसंक्रम कहा जाता है । अपकर्षण और उत्कर्षण का कुछ स्वरूप निरूपण करके प्रकृतस्थितिसंक्रम की प्ररूपणा इन अधिकारों में की गयी है— प्रमाणानुगम, स्वामित्व, एक जीव की अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवों की अपेक्षा काल, अन्तर और अल्पबहुत्व । ( पु०१६, पृ० ३४९-७४) अनुभाग संक्रम के प्रसंग प्रथमतः सब कर्मों के आदि स्पर्धक को गमनीय बतलाकर जो कर्म देशघाती, अघाती और सर्वघाती हैं, उनके नामों का पृथक्-पृथक् उल्लेख किया है। उन में किनके आदि स्पर्धक समान हैं और वे किस प्रकार प्राप्त होते हैं, इसकी चर्चा है । अनुभागविषयक अर्थपद को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि अपकर्षण को प्राप्त अनुभाग अनुभागसंक्रम है, उत्कर्षण को प्राप्त अनुभाग अनुभागसंक्रम है, और अन्य प्रकृति को प्राप्त कराया गया भी अनुभाग अनुभागसंक्रम है । आदि स्पर्धक का अपकर्षण नहीं होता । आदि स्पर्धक से जितना जघन्य निक्षेप है इतने मात्र स्पर्धक अपकर्षण को प्राप्त नहीं होते। उनसे ऊपर के स्पर्धक का भी अपकर्षण नहीं होता, क्योंकि अतिस्थापना का अभाव है । जितने जघन्य निक्षेप स्पर्धक हैं और जितने जघन्य अतिस्थापना स्पर्धक हैं, प्रथम स्पर्धक से लेकर, इतने मात्र स्पर्धक ऊपर चढ़कर जो स्पर्धक स्थित है उसका अपकर्षण किया जा सकता है, क्योंकि उसके अतिस्थापना स्पर्धक और निक्षेपस्पर्धक सम्भव हैं ( पु० १६, पृ० ३७४-७६)। इस क्रम से आगे प्रमाणानुगम ( पृ० ३७७), स्वामित्व, ( पृ० ३७७-८२), एक जीव की अपेक्षा काल, ( पृ० ३८२-८७), एक जीव की अपेक्षा अन्तर ( पृ० ३८७-८८), नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय ( पृ० ३८८-८९), नाना जीवों की अपेक्षा काल ( पृ० ३८६ - ६१), नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर ( पृ० ३६१-६२) और संनिकर्ष ( पृ० ३६२ ) इन अधिकारों में प्रस्तुत संक्रम की प्ररूपणा की गयी है । पश्चात् अल्पबहुत्व के प्रसंग में स्वस्थान- परस्थान के भेद से उसकी दो प्रकार से प्ररूपणा करते हुए प्रथमतः ओघ की अपेक्षा और तत्पश्चात् क्रम से नरकादि गतियों में की गयी है (धवला, पु० १६, पृ० ३९३-९७ ) । षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ५४७ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्त में भुजाकार के प्रसंग में उसकी प्ररूपणा पूर्वनिर्दिष्ट उन्हीं स्वामित्व व एक जीव की अपेक्षा काल आदि अधिकारों में की गयी है । अनुभाग संक्रमस्थानों की प्ररूपणा के प्रसंग में यह सूचना कर दी गई है कि उनकी प्ररूपणा सत्कर्मस्थानों की प्ररूपणा के समान है (पृ० ३६८-४०८)। इस प्रकार से अनुभागसंक्रम समाप्त हुआ है। प्रदेशसंक्रम का स्वरूप निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो प्रदेशाग्र अन्य प्रकृति में संक्रान्त कराया जाता है उसका नाम प्रदेशसंक्रम है। वह मूल और उत्तर प्रकृतिसंक्रम के भेद से दो प्रकार का है। मूल प्रकृतियों में प्रदेश संक्रम सम्भव नहीं है। उत्तर प्रकृतिसंक्रम पांच प्रकार का है ---उद्वेलनसंक्रम, विध्यातसंक्रम, अधःप्रवृत्तसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम । इनके स्वरूप-निरूपण के लिए निम्न गाथा को उद्धृत किया गया है धंधे अधापवत्तो विज्झाद अबंध अप्पमत्तंतो। गणसंकमो द एत्तो पयडीणं अप्पसत्थाणं ।। अधःप्रवृत्तसंक्रम-जहां जिन प्रकृतियों का बन्ध सम्भव है वहाँ उन प्रकृतियों के बन्ध के होने पर और उसके न होने पर भी अधःप्रवृत्त संक्रम होता है। यह नियम बन्ध प्रकृतियों के विषय में है, अबन्ध प्रकृतियों के विषय में नहीं, क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन अबन्धप्रकृतियों में भी अधःप्रवृत्तसंक्रम पाया जाता है। विध्यातसंक्रम-जहाँ जिन प्रकृतियों का नियम से बन्ध सम्भव नहीं है, वहाँ उनका विघ्यात संक्रम होता है। यह भी नियम मिथ्या दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ध्र वस्वरूप से हैं। ___गुणसंक्रम-अप्रमत्तसंयत से लेकर आगे के गुणस्थानों बन्ध से रहित प्रकृतियों का गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम भी होता है। यह प्ररूपणा अप्रशस्त प्रकृतियों के विषय में की गई है, प्रशस्त प्रकृतियों के विषय में नहीं; क्योंकि उपशम और क्षपक दोनों ही श्रेणियों में बन्ध से रहित प्रशस्त प्रकृतियों का अध:प्रवृत्तसंक्रम देखा जाता है। आगे कौन प्रकृतियाँ कितने भागहारों से संक्रान्त होती हैं, इसे अन्य एक गाथा को उद्धृत कर उसके आधार से स्पष्ट किया गया है। साथ ही, वे भागहार उनके कहाँ किस प्रकार से सम्भव हैं, इसे भी स्पष्ट किया है। यथा पांच ज्ञानावरणीय व चार दर्शनावरणीय आदि उनतालीस प्रकृतियों का एकमात्र अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है। ____ स्त्यानगृद्धि आदि तीन दर्शनावरण, बारह कषाय व स्त्रीवेद आदि तीस प्रकृतियों के उद्वेलन के बिना शेष चार संक्रम होते हैं । निद्रा, प्रचला, अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस और उपघात इन सात प्रकृतियों के अधःप्रवृत्त संक्रम और गुणसंक्रम ये दो होते हैं। असातावेदनीय व पाँच संस्थान आदि बीस प्रकृतियों के अधःप्रवृत्तसंक्रम, विध्यातसंक्रम और गुणसंक्रम ये तीन होते हैं। मिथ्यात्व प्रकृति के विध्यातसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम ये तीन होते हैं। वेदकसम्यक्त्व के अधःप्रवृत्तसंक्रम, उद्वेलनसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम ये चार होते हैं। ५४८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्मिथ्यात्व, देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, नरकगति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आहारकशरीर, आहारकशरीरांगोपांग और उच्चगोत्र-इन बारह प्रकृतियों के पांचों संक्रम होते हैं। - तीन संज्वलन और पुरुषवेद इन चार प्रकृतियों के अधःप्रवृत्तसंक्रम और सर्वसंक्रम ये दो संक्रम होते हैं। हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार प्रकृतियों के अधःप्रवृत्तसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम ये तीन होते हैं। ___ औदारिकशरीर, औदारिक शरीरांगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और तीर्थकर इन चार प्रकृतियों के अधःप्रवृत्तसंक्रम और विध्यातसंक्रम ये दो होते हैं । ___उपर्युक्त प्रकृतियों में सम्भव इन संक्रम-भेदों को एक दृष्टि में इस प्रकार देखा जा सकता है प्रकृति । ३६ | ३० । ७ | २० | १ | १ | १२ | ४ । ४ । ४ । संक्रमभेद | १ | ४ | २ | ३ | ३ | ४ | ५ | २ | ३ | २ आगे इन संक्रमों के अवहारकाल के अल्पबहुत्व को दिखाकर उत्कृष्ट व जघन्य प्रदेशसंक्रम के स्वामित्व के विषय में विचार किया गया है (पु०१६, पृ० ४२१-४०)। तत्पश्चात् एक जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम के काल को प्रकट करते हुए यह सचना कर दी गई है कि एक जीव की अपेक्षा जघन्य प्रदेशसंक्रमकाल व अन्तर तथा नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, काल और अन्तर का कथन स्वामित्व से सिद्ध करके करना चाहिए (पृ० ४४१-४२)। . अल्पबहत्व के प्रसंग में प्रथमतः सामान्य से और तत्पश्चात् विशेष रूप से नारक आदि गतियों में उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशसंक्रमविषयक अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। (पृ० ४४२-५३) भुजाकारसंक्रम के प्रसंग में स्वामित्व व एक जीव की अपेक्षा काल की प्ररूपणा करके आगे यह सूचना कर दी गयी है कि एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, काल और अन्तर की प्ररूपणा एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व और काल से सिद्ध करके करनी चाहिए । तत्पश्चात् प्रसंगप्राप्त अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है (पृ० ४५३-६१)। आगे पदनिक्षेप और वृद्धिसंक्रम की प्ररूपणा करते हुए प्रस्तुत संक्रम अनुयोगद्वार को समाप्त किया गया है (पृ० ४६१-८३)। १३. लेश्या अनुयोगद्वार यहाँ लेश्या का निक्षेप करके नोआगम द्रव्यलेश्या के अन्तर्गत तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यलेश्या के स्वरूप का निर्देश है। तदनुसार चक्षु इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य पुद्गलस्कन्धों के वर्ण का नाम तद्व्यतिरिक्त द्रव्यलेश्या है। वह कृष्ण-नीलादि के भेद से छह प्रकार की है। वह किनके होती है, इसे कुछ उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया गया है। १. धवला पु० १६, पृ० ४०८-२१ षट् ण्डागम पर टीकाएँ। ५४६ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोआगम भावलेश्या के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि कर्मागम की कारणभूत जो मिथ्यात्व, असंयम और कषाय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति होती है उसका नाम नोआगमभावलेश्या है । अभिप्राय यह है कि मिथ्यात्व, असंयम और कषाय के आश्रय से जो संस्कार उत्पन्न होता है उसे नोआगमभावलेश्या जानना चाहिए। यहाँ नैगमनय की अपेक्षा नोआगमद्रव्यलेश्या और नोआगमभावलेश्या ये दो प्रसंग प्राप्त हैं। द्रव्यलेश्या का वर्णन करते हुए आगे कहा गया है कि जीव के द्वारा अप्रतिगृहीत पुद्गलस्कन्धों में जो कृष्ण, नील आदि वर्ण होते हैं, यही द्रव्यलेश्या है जो कृष्णादि के भेद से छह प्रकार की है। उसके ये छह भेद द्रव्याथिकनय की विवक्षा से निर्दिष्ट हैं, पर्यायाथिकनय की विवक्षा से वह असंख्यात लोकप्रमाण भेदों वाली है। तत्पश्चात्, शरीर के आश्रित रहनेवाली इन लेश्याओं में कौन-कौन लेश्याएँ किन जीवों के रहती हैं, इसका स्पष्टीकरण है। जैसे तिर्यंचों के शरीर छहों लेश्याओं से युक्त होते हैं--उनमें कितने ही शरीर कृष्णलेश्या वाले, कितने ही नीललेश्यावाले, कितने ही कापोतलेश्या वाले, कितने ही तेजलेश्या वाले, कितने ही पद्मलेश्या वाले और कितने ही शुक्ललेश्या वाले होते हैं। देवों के शरीर मूलनिवर्तन की अपेक्षा तेज, पद्म और शुक्ल इन तीन लेश्यावाले तथा उत्तरनिवर्तना की अपेक्षा वे छहों लेश्याओं वाले होते हैं, इत्यादि। ___औदारिक आदि पांच शरीरों में कौन किन लेश्याओं से युक्त होते हैं, इसकी चर्चा में कहा है कि औदारिक शरीर छहों लेश्याओं से युक्त होते हैं। वैक्रियिक शरीर मूलनिवर्तना की अपेक्षा कृष्ण, पीत, पद्म अथवा शुक्ललेश्या से युक्त होते हैं। तेजस शरीर पीतलेश्या से और कार्मणशरीर शुक्ललेश्या से युक्त होता है। शरीरगत पुद्गलों में अनेक वर्ण रहते हैं, फिर भी अमुक शरीर का यह वर्ण होता है, यह जो यहां कहा गया है वह शरीरगत उन अनेक वर्गों में प्रमुख वर्ण के आश्रय से कहा गया है । जैसे-जिस शरीर में प्रमुखता से कृष्ण वर्ण पाया जाता है उसे कृष्णलेश्यावाला, इत्यादि । ___ आगे विवक्षित लेश्यावाले द्रव्य में जो अन्य अनेक गुण होते हैं उनका अल्पबहुत्व दिखलाया है । जैसे-कृष्णलेश्यायुक्त द्रव्य में शुक्ल गुण स्तोक, हारिद्र गुण अनन्तगुणे और कृष्ण गुण अनन्तगुणे होते हैं । नीललेश्यादि युक्त द्रव्यों के अन्य गुणों के अल्पबहुत्व को भी यहाँ प्रकट किया गया है। विशेषता यह रही है कि किसी विवक्षित लेश्या से युक्त द्रव्य के अन्य गुणों के अल्पबहुत्व में अन्य विकल्प भी रहे हैं। जैसे कापोतलेश्या के विषय में उस अल्पबहुत्व को तीन प्रकार से प्रकट किया गया है-(१) शुक्ल गुण स्तोक, हारिद्र गुण अनन्तगुणे, कालक गुण अनन्तगुणे, लोहित अनन्तगुणे और नील अनन्तगुणे। (२) शुक्ल स्तोक, कालक अनन्तगुणे, हारिद्र अनन्तगुणे, नील अनन्तगुणे और लोहित अनन्तगुणे। (३) कालक स्तोक, शुक्ल अनन्तगुणे, नील अनन्तगुणे, हारिद्र अनन्तगुणे और लोहित अनन्तगुणे। द्रव्यलेश्या की प्ररूपणा के पश्चात् भावलेश्या के प्रसंग में उसके स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा है कि मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग के आश्रय से जीव के जो संस्कार उत्पन्न होता है उसे भावलेश्या कहते हैं । उसमें तीव्र संस्कार को कापोतलेश्या, तीव्रतर संस्कार को नीललेश्या, तीव्रतम संस्कार को कृष्णलेश्या, मन्द संस्कार को तेजलेश्या या पीतलेश्या, मन्दतर संस्कार को पद्मलेश्या और मन्दतम संस्कार को शुक्ललेश्या कहा जाता है। ५५० / पदसण्डागम-परिशीलन Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन छहों पतित है । से प्रत्येक अनन्त भाग वृद्धि आदि छह वृद्धियों के क्रम से छह स्थानों में उक्त छह लेश्याओं में से कापोतलेश्या को द्विस्थांनिक तथा शेष लेश्याओं को द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक निर्दिष्ट करते हुए अन्त में तीव्रता व मन्दता के विषय में उनका अल्पबहुत्व दिखलाया है (धवला, पु० १६, पृ० ४८४-८९)। इस प्रकार लेश्या अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है । १४. लेश्याकर्म अनुयोगद्वार कर्म का अर्थ क्रिया या प्रवृत्ति है ! छह लेश्याओं के आश्रय से जीव की प्रवृत्ति किस प्रकार की होती है, इसका विचार इस अनुयोगद्वार में किया गया है । यथा कृष्णलेश्या से परिणत जीव की प्रवृत्ति कैसी होती है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है। कि वह निर्दय, कलहप्रिय, वैरभाव की वासना से सहित, चोर, असत्यभाषी; मधु-मांस-मद्य में आसक्त, जिनोपदिष्ट तत्त्व के उपदेश को न सुननेवाला और असदाचरण में अडिग रहता है । आगे यथाक्रम से नील आदि अन्य लेश्याओं से परिणत जीवों की प्रवृत्ति का भी वर्णन किया गया है। यहाँ पृथक्-पृथक् प्रत्येक लेश्यावाले जीव की प्रवृत्ति को दिखाते हुए, 'वृत्तं च' कहकर जो नौ (१+२+३+१+१+१) गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं ये 'गोम्मटसार जीवकाण्ड' (५०८-१६) में उसी रूप में व उसी क्रम से उपलब्ध होती हैं, सम्भवतः वहीं से लेकर इन्हें इस ग्रन्थ का अंग बनाया गया है । ये गाथाएँ दि० प्रा० 'पंचसंग्रह ' (१, १४४ - ५२ ) में भी उसी रूप में व उसी क्रम से उपलब्ध होती हैं । इस पंचसंग्रह का रचना-काल अनिश्चित है । इनमें जो थोड़ा-सा पाठ भेद उपलब्ध होता है तो वह 'गो० जीवकाण्ड' और 'पंचसंग्रह' में समान है ।" ये गाथाएँ इसके पूर्व जीवस्थान -सत्प्ररूपणा (पु० १, पृ० ३८८- ९० ) में भी लेश्या के प्रसंग में उद्धृत की जा चुकी हैं । १५. लेश्या - परिणाम अनुयोगद्वार इस अनुयोगद्वार में कौन लेश्याएँ किस भाँति वृद्धि अथवा हानि को प्राप्त होकर स्वस्थान और परस्थान में परिणत होती हैं, इसे स्पष्ट किया गया है। जैसे— कृष्णलेश्या वाला जीव संक्लेश को प्राप्त होता हुआ अन्य किसी लेश्या में परिणत नहीं होता, किन्तु स्वस्थान में ही अनन्तभागवृद्धि आदि छह वृद्धियों से वृद्धिंगत होकर स्थानसंक्रमण करता हुआ स्थित रहता है । अन्य लेश्या में परिणत वह इसलिए नहीं होता; क्योंकि उससे निकृष्टतर अन्य कोई लेश्या नहीं है । वही यदि विशुद्धि को प्राप्त होता है तो अनन्तभाग हानि आदि छह हानियों से संक्लेश की हानि को प्राप्त हुआ स्वस्थान (कृष्णलेश्या) में स्थानसंक्रमण १. जैसे -- फिण्णाए संजुओ जीवो - लक्खणमेयं तु किन्हस्स । णीलाए लेस्साए वसेण जीवो पारंभासे - लक्खणमेयं भणियं समासओ नीललेसस्स ।। इत्यादि । षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ५५१ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता है । वही अनन्तगुणा संवलेश हानि से परस्थानस्वरूप नीललेश्या में भी परिणत होता है। इस प्रकार कृष्णलेश्या में संक्लेश की वृद्धि में एक ही विकल्प है, किन्तु विशुद्धि की वृद्धि में दो विकल्प हैं-स्वस्थान में स्थित रहता है और परस्थानरूप नीललेश्या में भी परिणत होता है। नीललेश्यावाला संक्लेश की छह स्थानपतित वृद्धि के द्वारा स्वस्थान में परिणत होता है और अनन्तगुणी संक्लेशवृद्धि के द्वारा कृष्णलेश्या में भी परिणत होता है। इस प्रकार यहां दो विकल्प हैं। यदि वह विशुद्धि को प्राप्त होता है तो पूर्वोक्त क्रम से स्वस्थान में स्थित रहकर हानि को प्राप्त होता है तथा अनन्तगुणी विशुद्धि के द्वारा वृद्धिंगत होकर कापोत लेश्या में भी परिणत होता है । इस प्रकार इसमें भी दो विकल्प हैं। परिणमन का यही कम अन्य लेश्याओं में भी है। विशेष इतना है कि शुक्ललेश्या में संक्लेश की अपेक्षा दो विकल्प हैं, किन्तु विशुद्धि की अपेक्षा उसमें एक ही विकल्प है, क्योंकि यह सर्वोत्कृष्ट विशुद्ध लेश्या है। आगे कम से इन छहों लेश्याओं में तीव्रता और मन्दता के आश्रय से संकम और प्रतिग्रह से सम्बद्ध अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है (पु० १६, पृ० ४६३-६७) । १६. सात-असात अनुयोगद्वार यहां समुत्कीर्तना, अर्थपद, पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन पाँच अधिकारों में साता-असाता विषयक विचार किया गया है। यथा समुत्कीर्तना में एकान्तसात, अनेकान्तसात, एकान्तअसात और अनेकान्तमसात के अस्तित्व को प्रकट किया गया है। अर्थपद के प्रसंग में यह दिखलाया गया है कि जो कर्म सात रूप से बाँधा गया है वह संक्षेप व प्रतिक्षेप से रहित होकर सात रूप से ही वेदा जाता है, यह एकान्तसात का लक्षण है। इसके विपरीत अनेकान्तसात है । जो कर्म असातस्वरूप से बांधा जाकर संक्षेप व प्रतिक्षेप से रहित होकर असातस्वरूप से ही वेदा जाता है उसे एकान्तअसात कहते हैं। इसके विपरीत अनेकान्त-असात है। पदमीमांसा में उक्त एकान्त-अनेकान्त सात-असात के उत्कृष्ट, अनुस्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य पदों के अस्तित्व मात्र का वर्णन है। स्वामित्व के प्रसंग में उत्कृष्ट एकान्तसात के स्वामी का निर्देश करते हुए कहा गया है कि अभव्यसिद्धिक प्रायोग्य सातवीं पृथिवी का नारक गुणितकर्माशिक वहाँ से निकलकर सर्वलघुकाल में इकतीस सागरोपमप्रमाण आयुस्थिति वाले देवलोक को प्राप्त होने वाला है, उस सातवीं पृथिवी के अन्तिम समयवर्ती नारक के उत्कृष्ट एकान्तसात होता है। कारण यह कि उसके सातवेदन के काल सबसे महान् और बहुत होंगे। इसी प्रकार आगे उत्कृष्ट अनेकान्तसात, उत्कृष्ट एकान्तअसात और उत्कृष्ट अनेकान्तअसात के स्वामियों का भी विचार किया गया है। अल्पबहुत्व में उपर्युक्त एकान्तसात आदि के विषय में अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है। ५५२ / षट्लण्डागम-परिशीलन Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. दीर्घ-ह्रस्व अनुयोगद्वार ____ इस अनुयोगद्वार में दीर्घ के ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-प्रकृतिदीर्घ, स्थितिदीर्घ, अनुभागदीर्घ और प्रदेशदीर्घ । इनमें प्रकृतिदीर्घ मूल और उत्तरप्रकृतिदीर्घ के भेद से दो प्रकार का है । मूल प्रकृतिदीर्घ भी दो प्रकार का है-प्रकृतिस्थानदीर्घ और एक-एक प्रकृतिस्थानदीर्घ । इन्हें स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि आठों प्रकृतियों के बंधने पर प्रकृतिदीर्घ और उनसे कम के बंधने पर नोप्रकृतिदीर्घ होता है। यही अभिप्राय सत्त्व और उदय के विषय में भी व्यक्त किया गया है। ___उत्तरप्रकृतिदीर्घ-पांच ज्ञानावरणीय और पांच अन्तराय में प्रकृतिदीर्घ का प्रतिषेध करते हुए नो दर्शनावरणीय प्रकृतियों के बाँधनेवाले के प्रकृतिदीर्घ कहा गया है और उनसे कम बांधने वाले के उसका निषेध किया गया है। यही प्रक्रिया उनके सत्त्व और उदय के विषय में भी व्यक्त की गयी है। _ वेदनीय के बन्ध और उदय का आश्रय करके प्रकृतिदीर्घ सम्भव नहीं है, किन्तु सत्त्व की अपेक्षा वह सम्भव है क्योंकि अयोगिकेवली के अन्तिम समय में एक प्रकृति के सत्त्व की अपेक्षा द्विचरम आदि समयों में दो प्रकृतियों के सत्त्व की दीर्घता उपलब्ध होती है। इसी प्रकार से आगे यथासम्भव मोहनीय, आयु, नामकर्म और गोत्रकर्म के आश्रय से बन्ध, उदय और सत्त्व की अपेक्षा उस प्रकृतिदीर्घता को स्पष्ट किया गया है। इसी पद्धति से स्थितिदीर्घता और अनुभागदीर्घता के विषय में भी विचार किया गया है। साथ ही, चार प्रकार की प्रकृतिह्रस्वता के विषय में भी चर्चा की गयी है। १८. भवधारणीय अनुयोगद्वार इस अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में भव के ये तीन भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-ओघभव, आदेशभव और भवग्रहणभव । इनमें आठ कर्मों अथवा उनसे उत्पन्न जीव के परिणाम का नाम ओघभव है। चार गतिनामकर्मों अथवा उनसे उत्पन्न जीव के परिणाम को आदेशभव कहा जाता है । यह आदेशभव नारकभव आदि के भेद से चार प्रकार का है। जिसका भुज्यमान आयुकर्म गल चुका है तथा अपूर्व आयुकर्म उदय को प्राप्त हो चुका है उसके प्रथम समय में जो 'व्यंजन' संज्ञावाला जीवपरिणाम होता है उसे अथवा पूर्व शरीर के परित्यागपूर्वक उत्तर शरीर के ग्रहण को भवग्रहणभव कहते हैं। यही यहाँ प्रसंगप्राप्त है। भव के इन भेदों और उनके स्वरूप का निर्देश करके, वह किसके द्वारा धारण किया जाता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि वह मात्र आयुकर्म के द्वारा धारण किया जाता है, शेष सात कर्मों के द्वारा नहीं; क्योंकि उनका व्यापार अन्यत्र उपलब्ध होता है। वह भव इस भव-सम्बन्धी आयु के द्वारा धारण किया जाता है, न कि परभव-सम्बन्धी आयु के। ___अन्त में यहाँ यह सूचित कर दिया गया है कि जिस प्रदेशाग्र से भव को धारण करता है उसको प्ररूपणा जिस प्रकार पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व के आश्रय से वेदना अनुयोग. द्वार में की गयी है, उसी प्रकार यहाँ भी करनी चाहिए (पु० १६, पृ० ५१२-१३)। १६. पुद्गलात्त अनुयोगद्वार इस अनुयोगद्वार में प्रथमतः पुद्गल के नाम-स्थापनादिरूप चार भेदों का निर्देश करते हुए षट्खणागम पर टीकाएं / ५५३ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्व्यतिरिक्त नोआगम-द्रव्यपुद्गल को यहाँ प्रकृत कहा गया है। 'पुद्गलात्त' में जो 'आत्त' शब्द है उसका अर्थ गृहीत या ग्रहण है । तदनुसार 'पुद्गलास' से ग्रहण किये गये अथवा आत्मसात् किये गये पुद्गल अभिप्रेत हैं । वे पुद्गल छह प्रकार से ग्रहण किये जाते हैं— ग्रहण से, परिणाम से, उपभोग से, आहार से, ममत्व से और परिग्रह से । हाथ-पाँव आदि से जो दण्ड आदि पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं वे ग्रहण से गृहीत पुद्गल हैं । मिथ्यात्व आदि परिणाम द्वारा जो पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं वे परिणाम से गृहीत पुद्गल हैं । गन्ध व ताम्बूल आदि उपभोग में आनेवाले पुद्गल उपभोग से गृहीत पुद्गल कहलाते हैं । भोजन-पान आदि रूप जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण किया जाता है, वे आहार से ग्रहण किये गये पुद्गल माने जाते हैं । अनुरागवश जिन पुद्गलों को ग्रहण किया जाता है, उन्हें ममत्व से आत्त पुद्गल कहा जाता है । जो पुद्गल परिग्रह के रूप में स्वाधीन होते हैं वे परिग्रह से आत्त पुद्गल कहलाते हैं । आगे विकल्प के रूप में 'आत्त' इस प्राकृत शब्द का अर्थ आत्मा या स्वरूप किया गया है । तदनुसार पुद्गलों का जो रूप-रसादि स्वरूप है उसे पुद्गलात्त समझना चाहिए। उनमें जो श्रनन्तभागादिरूप छह वृद्धियाँ होती हैं, उनकी प्ररूपणा जैसे भावविधान में की गयी है, वैसे ही यहाँ भी करनी चाहिए, ऐसी सूचना यहाँ कर दी गयी है (पु० १६, पृ० ५१४-१५)। २०. निधत्त अनिधत्त अनुयोगद्वार निधत्त और अनिधत्त ये दोनों प्रकृति-स्थिति आदि के भेद से चार-चार प्रकार के हैं । जिस प्रदेशाग्र को न उदय में दिया जा सकता है और न अन्य प्रकृतियों में संक्रान्त भी किया जा सकता है, किन्तु जिसका अपकर्षण और उत्कर्षण किया जा सकता है, उसका नाम निधत्त है । अनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट हुए उपशामक व क्षपक के सब कर्म अनिधत्तस्वरूप में रहते हैं, क्योंकि उनमें निधत्त के सब लक्षणों का विनाश हो चुका होता है । अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना करनेवाले के अनिवृत्तिकरण में चार अनन्तानुबन्धी तो अनिधत्त हैं, किन्तु शेष कर्म निधत्त और अनिधत्त दोनों प्रकार के होते हैं । दर्शनमोहनीय के उपशामक और क्षपक के अनिवृत्तिकरण में दर्शनमोहनीय कर्म ही अनिधत्त होता है, शेष कर्म निधत्त भी होते हैं और अनिधत्त भी । आगे यहाँ यह सूचना कर दी गयी है कि इस अर्थपद के अनुसार मूल प्रकृतियों का आश्रय करके चौबीस अनुयोगद्वारों द्वारा इस निधत्त और अनिधत्त की प्ररूपणा करनी चाहिए । २१. निकाचित-अनिकाचित अनुयोगद्वार यहाँ प्रकृतिनिकाचित आदि के भेद से चार प्रकार के निकाचित का अस्तित्व दिखाकर उसके स्वरूप का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि जिस प्रदेशाग्र का अपकर्षण, उत्कर्षण और अन्य प्रकृतिरूप संक्रम नहीं किया जा सकता है तथा जिसे उदय में भी नहीं दिया जा सकता है, उसका नाम निकाचित है । आगे यह स्पष्ट किया गया है कि अनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट हुए जीव के सब कर्म अनिकाचित और उसके नीचे निकाचित व अनिकाचित भी होते हैं। पूर्व अनुयोगद्वार के समान यहाँ भी यह सूचित किया गया है कि इस अर्थपद के अनुसार निकाचित और अनिकाचित की प्ररूपणा चौबीस अनुयोगद्वारों के आश्रय से करनी चाहिए । ५५४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशान्त, निधत्त और निकाचित के संनिकर्ष के प्रसंग में कहा गया है कि अप्रशस्त उपसामना से जो प्रदेशाग्र उपशान्त होता है, वह निधत्त और निकाचित नहीं होता। जो प्रदेशान निधत्त होता है वह उपशान्त और निकाचित नहीं होता है। जो प्रदेशाग्र निकाचित होता है वह उपशान्त और निधत्त नहीं होता। ___ अल्पबहुत्व के प्रसंग में बतलाया है कि जिस किसी भी एक प्रकृति का अधःप्रवृत्त संक्रम स्तोक, उससे उपशान्त प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा, निधत्त उससे असंख्यातगुणा और निकाचित उससे असंख्यातगुणा होता है।' २२. कमंस्थिति अनुयोगद्वार इस अनयोगद्वार में भिन्न दो उपदेशों का उल्लेख है। तदनुसार नागहस्ती क्षमाश्रमण जघन्य और उत्कृष्ट स्थितियों के प्रमाण की प्ररूपणा को कर्म स्थितिप्ररूपणा कहते हैं। किन्तु आर्यमा क्षमाश्रमण कर्मस्थिति में संचित सत्कर्म की प्ररूपणा को 'कर्मस्थितिप्ररूपणा कहते हैं। इस प्रकार दो उपदेशों से कर्मस्थिति की प्ररूपणा करनी चाहिए (पु० १६, पृ० ५१८)। इतना स्पष्ट करके इस कर्मस्थिति अनुयोगद्वार को यही समाप्त कर दिया गया है। २३. पश्चिमस्कन्ध अनुयोगद्वार इस अनुयोगद्वार में पूर्वप्ररूपित भवधारणीय (१८) अनुयोगद्वार के समान भव के ओघभव, आदेशभव और भवग्रहणभव इन तीन भेदों का निर्देश है। उनमें यहाँ भवग्रहणभव प्रसंगप्राप्त है। आगे कहा गया है कि जो अन्तिम भव है उसमें जीव की सब कर्मों की बन्धमार्गणा, उदयमार्गणा, उदीरणामार्गणा, संक्रममार्गणा और सत्कर्ममार्गणा ये पाँच मार्गणाएँ इस पश्चिमस्कन्ध अनुयोगद्वार में की जाती हैं। ___ आगे यह निर्देश किया गया है कि प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशाग्र इनका आश्रय लेकर इन पाँच प्ररूपणाओं के कर चुकने के बाद अन्तिम भवग्रहण में सिद्ध होनेवाले जीव की यह अन्य प्ररूपणा करनी चाहिए आयु के अन्तर्मुहुर्त शेष रह जाने पर जीव आवजितकरण' को करता है। आवजितकरण के कर चकने पर वह केवलिस मुवात को करता है। उसे करते हुए प्रथम समय में दण्ड को करता है। उसमें वह स्थिति के असंख्यात बहुभाग तथा अप्रशस्त कर्मों के अनुभाग के अनन्त बहुभाग को नष्ट करता है। द्वितीय समय में कपाट को करता है। उसमें वह शेष स्थिति के १. धवला, पु० १६, पृ० ५१७ २. केवलिसमुग्धादस्स अहिमुही भावो आवज्जिदकरणमिदि ।---धवला, पु० १०, पृ० ३२५ का टिप्पण ७। अपरे आवजितकरणमित्याहुः । तत्रायं शब्दार्थ:--- आवजितो नाम अभिमुखीकृतः । तथा च लोके वक्तारः आजितो मया, अभिमुखीकृतः इत्यर्थः । ततश्च तथा भव्यत्वेनाजितस्य मोक्षगमनं प्रत्यभिमुखीकृतस्य करणं क्रिया शुभोपयोगकारणं आवजितकरणम् ।-प्रज्ञाप० मलय० व० ३६, पृ० ६०४ व पंचसं०मलयवृत्ति १-१५, पृ० २८ (जैन लक्षणावली १, पृ० २१५) इसे 'आयोजिकाकरण' भी कहा गया है। षट्खण्डागम पर टीकाएं | ५५५ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंख्यात बहुभाग को तथा शेष अनुभाग के अनन्त बहुभाग को नष्ट करता है। तीसरे समय में मन्य को करता है। उसमें भी वह स्थिति और अनुभाग को उसी प्रकार से नष्ट करता है। तत्पश्चात् चौथे समय में लोक को पूर्ण करता है और उसमें भी स्थिति और अनुभाग को उसी प्रकार से नष्ट करता है। उस समय वह स्थितिसत्त्व को आयु से संख्यातगुणे अन्तर्मुहूर्तमात्र स्थापित करता है।' यह प्ररूपणा कषायप्राभत के चूर्णिसूत्रों पर अधारित है, जो प्रायः शब्दशः समान है।' स्थितिघात व अनुभागधात का क्रम स्पष्ट करते हुए योगनिरोध के प्रसंग में कहा गया है -फिर अन्तर्मुहूर्त जाकर वचन-योग का निरोध करता है, पश्चात् अन्तर्मुहर्त जाकर मनोयोग का निरोध करता है, पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर उच्छ्वास-निःश्वास का निरोध करता है, फिर अन्तर्महतं जाकर काययोग का निरोध करता है। इसके पूर्व धवला में इस योगनिरोध के क्रम की प्ररूपणा इस प्रकार की जा चुकी है xxx यहाँ से अन्तर्मुहूतं जाकर बादर काययोग से बादर मनयोग का निरोध करता है, पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर बादर काययोग से बादर वचनयोग का निरोध करता है, पश्चात् बादर काययोग से बादर उच्छ्वास-निःश्वास का निरोध करता है, पश्चात् बादरकाययोग से उसी बादर काययोग का निरोध करता है । पश्चात् सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म मनोयोग का निरोध करता है, पश्चात् सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म वचनयोग का निरोध करता है, पश्चात् सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म उच्छ्वास का निरोध करता है, पश्चात् सूक्ष्म काययोग से उसी सूक्ष्म काययोग का निरोध करता है। योगनिरोध की यह प्ररूपणा व इसके आगे-पीछे का प्रसंग भी प्रायः कषायप्राभत के चणिसूत्रों पर आधारित है, जो प्रायः शब्दशः समान हैं। सर्वार्थसिद्धि' और 'तत्त्वार्थवातिक' में इसका विचार करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि तीथंकर व इतर केवली की जब अन्तर्मुहूर्तमात्र आयु शेष रह जाती है तथा वेदनीय, नाम और गोत्र इन तीन अघाती कर्मों की स्थिति आयु के ही समान रहती है, तब वह सब वचनयोग, मनोयोग और बादर काययोग का निरोध करके सूक्ष्म काययोग का आलम्बन लेता हआ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान पर आरूढ़ होने के योग्य होता है । किन्तु जब आय अन्तर्महर्त शेष रह जाती है और उन तीन अघाती कर्मों की स्थिति उससे अधिक रहती है, तब सयोगी जिन दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात को विसर्पण की अपेक्षा चार समयों में करके तदनन्तर चार समयों में उनका संकोच करते हुए शेष रहे अघाती कर्मों की स्थिति को समान १. इसके पूर्व इस केवलिसमुद्घात की प्ररूपणा धवला में कितने ही प्रसंगों पर की जा चुकी है। देखिए पु० १, पृ० ३०१-४; पु० ४, पृ० २८-२९; पु० ६, पृ० ४१२-१४; पु० १०, पृ० ३२०-२१ (पु० ४ और १० में इन दण्डादि समुद्घातों में फैलने वाले जीवप्रदेशों के आयाम, विष्कम्भ, परिधि और बाहल्य आदि के प्रमाण को भी स्पष्ट किया गया है।) २. क० प्रा० चूणि १-१६ (क० पा० सुत्त पृ० ६००-३) ३. धवला, पु० ६, पृ० ४१४-१५ ४. क० प्रा० चूणि २०-२८; क. पा० सुत्त, पृ० ६०४ ('पश्चिमस्कन्ध' का यह अधिकांश भाग कषायप्राभूत चूणि से शब्दशः समान है)। ५५६ / पदसण्डागम-परिशीलन Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हैं व पूर्व शरीर के प्रमाण हो जाते हैं, उस समय वे सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती ध्यान को ध्याते हैं।' धवला में आगे इस प्रसंग में उक्त प्रकार से काययोग का निरोध करता हुआ वह जिन अपूर्वस्पर्धक आदि करणों को करता है, उन्हें स्पष्ट किया गया है । आगे कहा गया है कि कृष्टिकरण के समाप्त होने पर अनन्तर समयों में अपूर्वस्पर्धकों और पूर्वस्पर्धकों को नष्ट करता है व अन्तर्मुहूर्त कृष्टिगतयोग होकर सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाती ध्यान को ध्याता है। कृष्टियों के अन्तिम समय में असंख्यात बहुभाग को नष्ट करता है । योग का निरोध हो जाने पर आयु के समान कर्मों को करता है । पश्चात् अन्तर्मुहूर्त शैलेश्य अवस्थान को प्राप्त होकर समुच्छिन्नक्रिया-अनिवृत्ति ध्यान को ध्याता है । शैलेश्य काल के क्षीण हो जाने पर वह समस्त कर्मों से रहित होकर एक समय में सिद्धि को प्राप्त करता है। यह सब प्ररूपणा भी प्रायः पूर्वोक्त कषायप्राभृतचूणि से शब्दशः समान है-चूणि २७५१ (क०पा० सुत्त, पृ० ६०४-६) । इस प्रकार यह पश्चिमस्कन्ध अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है। २४. अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार यहाँ सर्वप्रथम यह सूचना की गयी है कि नागहस्ती भट्टारक अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में सत्कर्म का मार्गण करते हैं और यही उपदेश परम्परागत है । तत्पश्चात् उस सत्कर्म के ये चार भेद निर्दिष्ट किए गए है-प्रकृतिसत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनुभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कम । इनमें प्रकृतिसत्कर्म मूल और उत्तरप्रकृतिसत्कर्म के भेद से दो प्रकार का है। मूल प्रकृतियों के साथ स्वामित्व को ले जाकर उत्तरप्रकृतियों के सत्कर्म-सम्बन्धी स्वामित्व की प्ररूपणा की १. स०सि० ६-४४ व त०वा० ६-४४; यह प्रसंग ज्ञानार्णव (३६, ३७-४६ या २१८४-६४) में भी द्रष्टव्य है। २. 'शीलानामीशः शंलेशः, तस्य भावः शैलेश्यम्' इस निरुक्ति के अनुसार शैलेश्य का अर्थ है समस्त (१८०००) शीलों का स्वामित्व । जयध० (पश्चिमस्कन्ध)। अन्यत्र सर्वसंवरस्वरूप चारित्र के स्वामी को शैलेश और उसकी अवस्था को शैलेषी कहा गया है । प्रकारान्तर से शैलेश का अर्थ मेरु करके उसके समान स्थिरता को शैलेषी कहा गया है। व्याख्याप्रज्ञप्ति अभय-वृत्ति १,८,७२ (जैन लक्षणावली ३, पृ० १०६६)। सेलेसो किर मेरु सेलेसी होई जा तहाऽचलया। होडं च असेलेसो सेलेसी होइ थिरयाए ।।७।। अहवा सेलुव्व इसी सेलेसी होइ सोउ थिरयाए। सेव अलेसी होई सेलेसी हो आलोवाओ ।।८।। सीलं व समाहाणं निच्छयओ सव्वसंघरो सो य । तस्सेसो सीलेसो सीलेसी होइ तयवत्थो । -ध्यानश गा० ७६, हरि० वृत्ति में उद्धृत ३. धवला पु० १६, पृ०५१६-२१ षट्भण्डागम पर टीकाएं । ५५७ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाती है, ऐसी सूचना कर आगे कहा है कि पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय इन प्रकृतियों से सम्बन्धित सत्कर्म के स्वामी सभी छद्मस्थ हैं । निद्रा और प्रचला के सत्कर्म के भी ये ही स्वामी हैं। विशेष इतना है कि अन्तिम समयवर्ती छमस्थ के इनका सत्कर्म नहीं रहता। स्स्यानगृद्धि आदि तीन दर्शनावरण प्रकृतियों के सत्कर्म के भी स्वामी सभी छवमस्थ हैं। विशेष इतना है कि अनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट होने पर अन्तर्मुहूर्त में उनका सत्कर्म व्युच्छिन्न हो जाता है। इस कारण आगे के छद्मस्थों के उनका सत्कर्म नहीं रहता है। साता-असाता के सत्कर्म के स्वामी सभी संसारी जीव निर्दिष्ट किये गये हैं। विशेषता यह प्रकट की गयी है कि अन्तिमसमयवर्ती भव्य सिद्धि के जिसका उदय नहीं रहता, उसका सत्त्व नहीं रहता। मोहनीय के सत्कर्म के विषय में यह सूचना कर दी गयी है कि उसके स्वामी की प्ररूपणा जिस प्रकार कषायप्राभूत' में की गयी है, उसी प्रकार से यहाँ करनी चाहिए। नारकायु का सत्कर्म नारकी, मनुष्य और तिर्यंच के तथा मनुष्यायु और तिर्यंच आयु का सत्कर्म देव, नारकी, तिथंच और मनुष्य इनमें से किसी के भी रहता है । देवायु का सत्कर्म देव, मनुष्य और तिर्यच के रहता है।। इसी प्रकार से आगे गति-जाति आदि शेष सभी प्रकृतियों के सत्कर्म के स्वामियों का विचार किया गया है । तत्पश्चात् एक जीव की अपेक्षा काल, अन्त र, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और संनिकर्ष के विषय में यह सूचना कर दी गयी है कि इनका कथन स्वामित्व से सिद्ध करके करना चाहिए (पु० १६, पृ० ५२२-२४) । आगे स्वस्थान और परस्थान के भेद से दो प्रकार के अल्पबहुत्व का निर्देश करते हुए यहाँ परस्थान अल्पबहुत्व की प्ररूपणा प्रथमत: ओघ से और तत्पश्चात् नरकादि गतियों के आश्रय से की गयी है। भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि की असम्भावना प्रकट कर दी गयी है। मोहनीय के प्रकृतिस्थानसत्कर्म के विषय में यह सूचना कर दी गयी है कि जिस प्रकार 'कषायप्राभूत' में मोहनीय के प्रकृरिथान सत्कर्म की प्ररूपणा की गयी है, उसी प्रकार से उसकी प्ररूपणा यहां करनी चाहिए। शेष कर्मों के प्रकृतिस्थान की मार्गणा को सुगम बतलाकर प्रकृतिसत्कर्म की मार्गणा को समाप्त किया गया है। स्थितिसत्कर्म के प्रसंग में उसके मूलप्रकृतिस्थितिसत्कर्म और उत्तरप्रकृतिस्थितिसत्कर्म इन दो भेदों का निर्देश है । उनमें मूलप्रकृतिस्थितिसत्कर्म को सुगम कहकर आगे उत्तरप्रकृतिसत्कर्म के प्रसंग में प्रथमतः उत्कृष्टस्थितिसत्कर्म की और तत्पश्चात् जघन्यस्थितिसत्कर्म की प्ररूपणा की गयी है । इस प्रकार स्थितिसत्कर्म के प्रमाणानुगम को समाप्त किया गया है। (पु० १६, पृ० ५२८-३१) आगे क्रम से उत्कृष्टस्थितिसत्कर्म और जघन्यस्थितिसत्कर्म के स्वामियों का विचार किया गया है। जैसे पांच ज्ञानावरणीय प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म किसके होता है, इसे स्पष्ट करते हए कहा है कि जो नियम से उनकी उत्कृष्ट स्थिति बाँधने वाला है उसके उनका उत्कट स्थिति५५८ / षट्सण्डागम-परिशीलन Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्कर्म होता है । इसी प्रकार से चार दर्शनावरणीय आदि अन्य प्रकृतियों के उत्कृष्टस्थितिसत्कर्म के स्वामियों का विचार किया गया है। जघन्यस्थितिकर्म-जैसे पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय इनका जघन्य स्थितिसत्कर्म किसके होता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि उनका जघन्य स्थिति सत्कर्म अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ के होता है। निद्रा और प्रचला का जघन्य स्थितिसत्कर्म द्विचरमवर्ती छपस्थ के होता है । स्त्यानगृद्धि आदि तीन दर्शनावरण प्रकृतियों का जघन्य स्थितिसत्कर्म उस अनिवृत्तिकरण में वर्तमान जीव के होता है जो उन तीन का निक्षेप करके एक समय कम आवलीकाल को बिता चुका है। इसी क्रम से साता-असाता आदि अन्य प्रकृतियों के जघन्य स्थितिसत्कर्म के स्वामियों के विषय में भी विचार किया गया है। एक जीव की अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और संनिकर्ष के विषय में यह सूचना कर दी गयी है कि इनका कथन स्वामित्व से जान करके करना चाहिए (धवला, पु० १६, पृ० ३३१-३८)। भनुभागसत्कर्म के प्रसंग में प्रथमतः आदिस्पर्धकों की प्ररूपणा करते हुए 'घाती' और 'स्थान' संज्ञाओं को स्पष्ट किया गया है। पश्चात् उत्कृष्ट व जघन्य अनुभागसत्कर्म विषयक स्वामित्व का विचार करते हुए प्रथमत: उसका विचार ओघ से और तत्पश्चात् नरकादि गतियों के आश्रय से किया गया है (१०१६, पृ०५३८-४३)। तत्पश्चात् नरकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति, देवगति और एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियों में उत्कष्ट अनुभागसत्कर्म के अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण है (पृ० ५४४-४७) । जघन्य अनुभागसत्कर्म के प्रसंग में अल्पबहुत्व का विचार करते हुए प्रथमतः उसकी प्ररूपणा भोघ से की गयी है। तत्पश्चात् उसकी प्ररूपणा नरकादि चार गतियों और एकेन्द्रियों में की गयी है। इस प्रकार अनुभागउदीरणा समाप्त हुई है। प्रदेशउदीरणा के प्रसंग में मूलप्रकृतियों के आश्रय से कहा गया है कि उत्कर्ष से जो उत्कृष्ट प्रदेशाग्र उदीर्ण होता है वह आयु में स्तोक, वेदनीय में असंख्यातगुणा, मोहनीय में असंख्यातगुणा; ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन में समान होकर असंख्यातगुणा; तथा नाम व गोत्र में वह समान होकर असंख्यातगुणा होता है। आगे इन मूलप्रकृतियों में जघन्य प्रदेशाग्र विषयक अल्पबहुत्व को भी प्रकट किया गया है। आगे मनुष्यगति के आश्रय से उदीयमान प्रदेशाग्र के अल्पबहुत्व को प्रकट करते हुए उसके अनन्तर एकेन्द्रियों के आश्रय से इसी अल्पबहत्व की प्ररूपणा की गयी है (पृ० ५५३-५५)। तत्पश्चात् विपरिणामना उपक्रम से जो मार्गणा है वही मोक्ष अनुयोगद्वार में करने योग्य है, ऐसी सूचना करते हुए संक्रम के आश्रय से प्रकृत अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है।' ___ आगे लेश्या (पृ० ५७१), लेश्यापरिणाम (५७२), लेश्याकर्म (५७२-७४), सात-असात (५७४-७५), दीर्घ-ह्रस्व (५७५), भवधारण (५७५), पुद्गलात्त (५७५-७६), निधत्त-अनिधत्त १. धवला, पु० १६, पृ० ५५५.७१ (यह संक्रमविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा प्रकृतिसंक्रम (पृ० ५५५-५६), स्थितिसंक्रम (५५६-५७), अनुभागसंक्रम (५५७-५६) और प्रदेशसंक्रम (५५६-७१) के आश्रय से की गयी है।) षट्माण्डागम परडीकाएँ। ५५६ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७६), निकाचित-अनिकाचित (५७६-७७), कर्मस्थिति (५७७) और पश्चिमस्कन्ध (५७७७६) इन पूर्वोक्त अनुयोगद्वारों का निर्देश करते हुए पृथक्-पृथक् कुछेक पदों आदि के उल्लेख के साथ कुछ विवेचन किया गया है, जो अधिकांश पुनरुक्त है। ___अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार के प्रसंग में प्रथमतः यह सूचना है कि यहां महावाचक क्षमाश्रमण (सम्भवतः नागहस्ती) सत्कर्म का मार्गण करते हैं। आगे उत्तरप्रकृतिसत्कर्म से दण्डक किया जाता है, ऐसा. निर्देश कर उत्तरप्रकृतियों के आश्रय से प्रकृतिसत्कर्म (पृ० ५७६-८०), केवल मोहनीय के आधार से प्रकृतिस्थानसत्कर्म (५८०-८१), स्थितिसत्कर्म (५८१), अनुभागसत्कर्म (५८१-८२) और प्रदेशाग्र (५८३-६३) को आधार बनाकर पृथक्-पृथक् प्रायः ओघ से नरकादि चारों गतियों में तथा एकेन्द्रियों में अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है। इस प्रकार अन्तिम अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है। ५६० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया (सत्कर्मपंजिका) परिचय जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, आचार्य भूतबलि ने मूल 'षट्खण्डागम' में 'महाकर्मप्रकृतिप्राभृत' के अन्तर्गत २४ अनुयोगद्वारों में से प्रारम्भ के कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बन्धन इन छह अनुयोगद्वारों की ही प्ररूपणा की है। शेष निबन्धनादि १८ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा उन्होंने नहीं की। उनकी प्ररूपणा षट्खण्डागम के टीकाकार आचार्य वीरसेन ने अन्तिम सूत्र को देशामर्शक कहकर अपनी धवला टीका में की है।' उन १८ अनुयोगद्वारों में निबन्धन (७), प्रक्रम (८), उपक्रम (8) और उदय (१०) इन चार अनुयोगद्वारों पर 'सत्कर्मपंजिका' नाम की एक पंजिका उपलब्ध होती है। वह किसके द्वारा और कब लिखी गयी है, इसका संकेत वहां कहीं कुछ नहीं देखा जाता है। इस पंजिका को षट्खण्डागम की १५वीं पुस्तक में परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित किया गया है। सम्पादन के समय उसकी जो हस्तलिखित प्रति मूडबिद्री से प्राप्त हुई थी वह बहुत अशुद्ध और बीच-बीच में कुछ स्खलित भी रही है । उसके प्रारम्भ में पंजिकाकार के द्वारा जिस गाथा में मंगल किया गया है उसका पूर्वार्द्ध भाग स्खलित है। उत्तरार्द्ध उसका इस प्रकार है वोच्छामि संतकम्मे पंचि[जियस्वेण विवरणं सुमहत्थं ॥ इसमें पंजिकाकार ने 'सत्कर्म' के ऊपर पंजिका के रूप में महान् अर्थ से परिपूर्ण विवरण' के लिखने की प्रतिज्ञा की है । गाथा के पूर्वार्ध में उन्होंने क्या कहा है, यह ज्ञात नहीं हो सका। सम्भव है, वहां उन्होंने मंगल के रूप में किसी तीर्थकर या विशिष्ट आचार्य आदि का स्मरण किया हो । अन्तिम पुष्पिकावाक्य इस प्रकार है ॥ एवमुदयाणिओगद्दारं गदं॥ ॥ समाप्तोऽयमुग्रन्थः ॥ श्रीमन्माघनंदिसिद्धान्तदेवर्गे सत्कर्मदपंजियं श्रीमदुदयादित्यं वरदं । मंगलमहः । आगे 'बस्यांत्यप्रशस्ति' के रूप में और कुछ कनाड़ी में लिखा गया उपलब्ध होता है। १. धवला, पु० १५, पृ० १ २. सम्भव है, वह सभी (१८) अनुयोगद्वारों पर लिखी गयी है, किन्तु उपलब्ध वह निबन्धन आदि चार अनुयोगद्वारों पर ही है। ३. यह प्रति पं० लोकनाथजी शास्त्री के शिष्य पं० देवकुमारजी के द्वारा मुडबिद्री के 'वीर वाणीविलास, जैन सिद्धान्त भवन' को प्रति पर से लिखी गयी है। Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्थानिका पंजिका के प्रारम्भ में उत्थानिका के रूप में यह उल्लेख है-'महाकर्मप्रकृतिप्राभूत' के चौबीस अनुयोगद्वारों से कृति (१) और वेदना (२) अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा वेदना-खण्ड में की गयी है। आगे [(३) स्पर्श, (४) कर्म, (५) प्रकृति और (६) बन्धन] अनुयोगद्वारों में से बन्धन अनुयोगद्वार के अन्तर्गत बन्ध और बन्धनीय इन दो अनुयोगद्वारों के साथ स्पर्श, कर्म और प्रकृति की प्ररूपणा वर्गणा-खण्ड में की गयी है । बन्धनविधान नामक अनुयोगद्वार की प्ररूपणा महाबन्ध (छठे खण्ड) में और बन्धक अनुयोगद्वार की प्ररूपणा क्षुद्रकबन्ध खण्ड में विस्तार से की गयी है। शेष अठारह अनुयोगद्वारों (७-२४) की प्ररूपणा सत्कर्म में की गयी है। तो भी उसके अतिशय गम्भीर होने से अर्थविषयक पदों के अर्थों को यहां हम हीनाधिकता के साथ पंजिका के रूप से कहेंगे।' अर्थविवरणपद्धति भूमिका के रूप में इतना स्पष्ट करके आगे वहाँ यह कहा गया है कि इन अठारह अनुयोगद्वारों में प्रथम निबन्धन अनुयोगद्वार की प्ररूपणा सुगम है। विशेष इतना है कि उसके निक्षेप की जो छह प्रकार से प्ररूपणा की गयी है उसमें तीसरे निक्षेप द्रव्य निक्षेप के स्वरूप की प्ररूपणा के लिए आचार्य इस प्रकार से कहते हैं____ "जं दव्वं जाणि दव्वाणि अस्सिदण परिणमदि जस्स वा दश्वस्स सहावो दवंतरपटिबद्धोतं दव्वणिबंधणमिदि ।"-निबन्धन अनु०, पृ० २ (धवला पु० १५) । इसका अभिप्राय स्पष्ट करते हुए पंजिका में कहा गया है कि मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग से परिणत संसारी जीव जीवविपाकी, पुद्गलविपाकी, भवविपाकी और क्षेत्रविपाकी स्वरूप कर्मपुद्गलों को बांधता है व उनके आश्रय से चार प्रकार के फलस्वरूप अनेक प्रकार की पर्यायों को प्राप्त करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता है । इन पर्यायों का परिणमन पुद्गलनिबन्धन है। मुक्त जीव के इस प्रकार का निबन्धन नहीं है, वह स्वस्थान से पर्यायान्तर को प्राप्त होता है। __ आगे 'जस्स वा दव्वस्स सहावो दवंतरपडिबद्धों' का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जीवद्रव्य का स्वभाव ज्ञान-दर्शन है । दो प्रकार के जीवों का वह ज्ञान-स्वभाव विवक्षित जीवों से भिन्न जीव व पुद्गल आदि सब द्रव्यों के जानने रूप से पर्यायान्तर-प्राप्ति का निबन्धन है । इसी प्रकार दर्शन के विषय में भी कहना चाहिए। पश्चात् 'जीवद्रव्य का धर्मास्तिकाय के आश्रय से होनेवाले परिणमन का विधान कहा जाता है' ऐसा कहते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि संसार में परिभ्रमण करने वाले जीवों का आनपूर्वी कर्म के उदय से, विहायोगति कम के उदय से, और मरणान्तिकसमुद्घात के वश १. संतकम्मपंजिया (परिशिष्ट), पृ० २ २. यहां आचार्य के नाम का निर्देश नहीं किया गया है । उत्थानिका में यह कहा गया है ...'पुणो तेहिंतों सेसट्टारसाणियोगद्दाराणि संतवम्मे सव्वाणि परूविदाणि । तो वि तस्साइगंभीरत्तादो अत्थविषमपदाणमत्थे थोसत्थयेण पंजियसरूवेण भणिस्सामो। -पंजिका पृ० १ (पु० १५ का परिशिष्ट) ५६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतिपर्याय से परिणत होने पर गमन सम्भव है, कम से रहित (मुक्त) जीवों का भी ऊध्वंगमन परिणाम सम्भव है; यह धर्मास्तिकाय के स्वभाव की सहायता रूप निमित्तभेद से होता है, क्योंकि वह पृथक्-पृथक पर्याय से परिणत संसारी जीवों के पृथक्-पृथक् क्षेत्रो मे गमन का हेतु है । धर्मास्तिकाय से रहित क्षेत्रों में पूर्वोक्त गमन की सम्भावना भी नहीं है। ___इसी प्रकार से आगे अधर्मास्तिकाय आदि शेष द्रव्यों के आश्रय से प्रकृत निबन्ध का निरूपण है। 'निबन्धन' अनुयोगद्वार के अन्तर्गत केवल उपर्युक्त एक प्रसंग को बतलाकर उससे सम्बद्ध पंजिका को समाप्त कर दिया गया है।' आगे 'अब प्रक्रम अधिकार के उत्कृष्ट प्रक्रमद्रव्य सम्बन्धी उक्त अल्पबहुत्व के विषय में हम विवरण देंगे' इस सूचना के साथ प्रक्रम अनुयोगद्वार में प्ररूपित अल्प बहुत्व में से कुछ प्रसंगों को लेकर उनका विवेचन है। बीच-बीच में यहाँ व आगे भी कुछ अंक-संदृष्टियां दी गयी हैं, पर उनके विषय में कुछ काल्पनिक सूचना नहीं है । इसके अतिरिक्त वे कुछ अव्यवस्थित और अशुद्ध भी हैं। इससे उनका समझना कठिन रहा है । पंजिकाकार के द्वारा इस पंजिका में प्रसंगप्राप्त अल्पबहत्व के अतिरिक्त प्रायः अन्य किसी विषय का स्पष्टीकरण नहीं किया गया है। उक्त अल्पबहुत्व से सम्बद्ध पंजिका को ‘एवं पक्कमाणियोगो गदो' इस सूचना के साथ समाप्त कर दिया गया है। संतकम्मपाहुड उपक्रम अनुयोगद्वार को प्रारम्भ करते हुए मूलग्रन्थकार ने उपक्रम के भेद-प्रभेदों का निर्देश करके यह सूचना की है कि बन्धनोपक्रम के प्रकृतिबन्धनोपक्रम, स्थितिबन्धनोपक्रम, अनुभागबन्धनोपक्रम और प्रदेशबन्धनोपक्रम इन चार भेदों की प्ररूपणा जैसे 'सत्कर्मप्रकृतिप्राभूत' में की गयी है वैसे ही यहाँ करनी चाहिए।' __ यहाँ जो ‘सत्कर्मप्राभूत' का उल्लेख है उसके स्पष्टीकरण में पंजिकाकार कहते हैं कि महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के चौबीस अनुयोगद्वारों में दूसरा 'वेदना' नाम का अनुयोग द्वार है। उसके सोलह अनुयोगद्वारों में चौथा, छठा और सातवां ये तीन अनुयोगद्वार क्रम से द्रव्य विधान, कालविधान और भावविधान नामवाले हैं। उस महाकर्मप्रकृतिप्राभूत का पांचवां 'प्रकृति' नाम का अधिकार है। वहाँ चार अनुयोगद्वारों में आठ कर्मों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशसत्त्व की प्ररूपणा करके उत्तरप्रकृतियों के सत्त्व की सूचना की गयी है। इससे ये 'सत्कर्मप्राभृत' हैं। मोहनीय की अपेक्षा कषायप्राभृत भी है। यहाँ पंजिकाकार का अभिप्राय स्पष्ट नहीं है। वे 'सत्कर्मप्राभृत' किसे कहना चाहते हैं, यह उनकी भाषा से स्पष्ट नहीं होता। सन्दर्भ इस प्रकार है-- "संतकम्मपाहुडं तं कध(द) मं? महाकम्मपयडिपाहुडस्स चउवीसअणियोगद्दारेसु बिदिया १. संतकम्मपंजिया (पु० १५, परिशिष्ट), पृ० १-३ २. वही, पृ० ३-१७ ३. संतकम्मपंजिया, धवला, पु० १५, पृ० ४३ ४. देखिये पंजिका, पृ० १८ सत्कर्मपंजिका | ५३ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हियारो वेदणा णाम । तस्स सोलसअणियोगद्दारेसु चउत्थ-छट्ठम-सत्तमाणि योगद्दाराणि दव्वकाल-भावविहाणणामधेयाणि। पुणो तहा महाकम्मपयडिपाहुडस्स पंचमो पयडीणामहियारो। तत्थ चत्तारि अणियोगद्दाराणि अट्ठकम्माणं पयडि-टिदि-अणुभागप्पदेससत्ताणि परूविय सचिदुत्तरपयडि-ट्ठिदि-अणुभाग-प्पदेससत्तादो (?) एदाणि सत्त (संत ?) कम्मपाहुडं णाम । मोहणीयं पडुच्च कसायपाहुडं पि होदि ।" -संतकम्मपंजिया, पृ० १८ (पु० १५, परिशिष्ट)। यहाँ 'तत्थ चत्तारि अणियोगद्दाराणि' से पंजिकाकार को क्या अभीष्ट है, यह ज्ञात नहीं होता । क्या वे इससे उपर्युक्त 'वेदना' के अन्तर्गत चौथे, छठे और सातवें इन तीन अनुयोगद्वारों में 'महाकर्मप्रकृतिप्राभृत' के पांचवें प्रकृतिअनुयोगद्वार को सम्मिलित कर चार अनुयोगद्वारों को ग्रहण करना चाहते हैं या 'तत्थ' से प्रकृति अनुयोगद्वार को लेकर उसमें चार अनुयोगद्वारों को दिखलाना चाहते हैं ? ऐसा कुछ भी स्पष्ट नहीं होता। ऊपर-निर्दिष्ट 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में कोई चार अनुयोगद्वार नहीं हैं। वहाँ मूल व उनकी उत्तर प्रकृतियों का उल्लेख मात्र है। वहाँ स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के सत्त्व का भी विचार नहीं किया गया है।' ___ 'वेदना' के अन्तर्गत चौथे वेदना द्रव्यविधान, छठे वेदनाकाल विधान और सातवें वेदन भावविधान में यथाक्रम से द्रव्य, काल और भाव की अपेक्षा आठों की वेदना का विचार किया गया है। स्थिति आदि पर कुछ भी विचार नहीं किया गया ; जैसा कि पंजिकाकार ने निर्देश किया है। निष्कर्ष यह है कि आचार्य वीरसेन ने जिस 'सत्कर्मप्रकृतिप्राभृत' का उल्लेख किया है, वस्तुतः पंजिकाकार उससे परिचित नहीं रहे। उन्होंने जो उसका परिचय कराया है वह अस्पष्ट व काल्पनिक है। ___ 'संतकम्मपाहुड' और 'संतकम्मपयडिपाहुड' इन ग्रन्थनामों का उल्लेख धवला में चार बार हआ है । ये दो नाम पृथक्-पृथक् दो ग्रन्थों के रहे हैं या एक ही किसी ग्रन्थ के रहे हैं, यह अभी. अन्वेषणीय ही बना हुआ है। ___यदि आचार्य भूतबलि के द्वारा 'सत्कर्मप्राभृत' या 'सत्कर्मप्रकृतिप्राभृत' जैसे किसी खण्डग्रन्थ की भी रचना की गयी हो तो यह असम्भव नहीं दिखता। अथवा महाकर्मप्रकृतिप्राभूत में ही कोई ऐसा प्रकरण रहा हो, जिसका उल्लेख सत्कर्मप्राभूत के नाम से किया गया हो। कारण यह कि धवलाकार ने 'सत्कर्मप्राभृत' और 'कषायप्राभृत' के मध्य में जिन मतभेदों का उल्लेख किया उनका सम्बन्ध 'महाकर्मप्रकृतिप्राभृत' और आ० भूतबलि के साथ अधिक रहा है। आगे, इसी प्रकार से प्रकृत उपक्रम अनुयोगद्वार में उदीरणा (पृ० १८-७३), उपशामना (पृ० ७३-७४) व विपरिणामणा (पृ० ७४) के प्रसंग में तथा उदयानुयोगद्वारगत उदय के प्रसंग १. यह प्रकृति अनुयोगद्वार ष०ख० पु० १३ में द्रष्टव्य है। २. वेदनाद्रव्यविधान (पु० १०) में वेदनाकालविधान (पु० ११) में और वेदनाभावविधान (पु० १२) में समाविष्ट हैं। ३. धवला, पु० १, पृ० २१७ (संतकम्मपाहुड), पु० ६, पृ० ३१८ (संतकम्मपयडिपाहुड), पु० ११, पृ० २१ (संतकम्मपाहुड) और पु० १५, पृ० ४३ (संतकम्मपडिपाहुड)। ५६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पृ०७५-११४) में जो भी स्पष्टीकरण पंजिकाकार के द्वारा किया गया है वह प्राय: अल्पबहुत्व को लेकर ही किया गया है जो दुरूह व अस्पष्ट है । समीक्षा ___ इस सम्पूर्ण स्थिति पर विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि पंजिकाकार का भाषा पर कुछ अधिकार नहीं रहा है। उन्होंने अपने अभिप्राय को प्रकट करने के लिए जिन पदों व वाक्यों का प्रयोग किया है वे असम्बद्ध व अव्यवस्थित रहे हैं। साथ ही, वे सिद्धान्त के कितने मर्मज्ञ रहे हैं, यह भी कुछ कहा नहीं जा सकता। इसके अतिरिक्त उन्होंने वीरसेनाचार्य के मन्तव्यों व वाक्यों का प्रचुरता से उपयोग किया है, पर इससे वे वीरसेनाचार्य जैसे गम्भीर विद्वान् तो सिद्ध नहीं होते। इस सब का स्पष्टीकरण यहाँ कुछेक उदाहरणों द्वारा किया जाता हैभाषा (१) धर्मास्तिकाय के निमित्त से जीवों का परिणमन कैसा होता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है "संसारे भमंतजीवाणं आणुपुस्विकम्मोदय-विहायगदिकम्मोदयवसेण मुक्कमारणंतियवसेण च गदिपज्जायेण परिणदाणं गमणस्स संभवो पुणो कम्मविरहिदजीवाणं उड्ढगमणपरिणामसंभवो च धम्मत्थिकायस्स सहावसहायसरूवणिमित्तभेदेण होदि । तं कथं जाणिज्जदे ? पुह-पुह पज्जायपरिणद-संसारिजीवाणं पुह पुह खेत्तेसु णिबंधणातिविहसरूवगमणाणं हेदुत्तादो धम्मत्थियविरहिदखेत्तेसु पुव्वुत्तचउम्विहसरूवगमणाभावादो च ।" -पंजिका, पृ० १ (पु० १५ का परिशिष्ट)। वैसे तो उपर्युक्त सभी सन्दर्भ भाषा की दृष्टि से विचारणीय हैं, पर रेखांकित पद विशेष ध्यान देने योग्य हैं। (२) कालनिबन्धन के विषय में यह कहा गया है - "पुणो कालदव्वस्स सहावणिबंधणं जीव-पोग्गल-धम्माधम्मागासदव्वाणमत्थवंजणपज्जायेसु गच्छंताणं सहायसरूवेण णिबंधणं होदि जहा कुंभारहेट्ठिमसिलो व्व।”—पृ० ३ (३) एक सौ बीस बन्धप्रकृतियों की संख्या के विषय में "पुणो वण्ण-रस-गंध-फासाणं दव्वट्ठियणयेण सामण्णसरूवेण एत्थ गहणादी । तेसिं संखम्मि चत्तारि-एग-चत्तारि-सत्त चेव संखाणि अवणिदा ।".--१०६ (४) "एदेसि दोण्हमुवदेसेसु कधमविसिद्धमिदि चे णेवं जाणिज्जदे, तं सदकेवली जाणिज्जदि । किं तु पढमंतर-परूवणाए विदियंतरपरूवणं अत्थविवरणमिदि मम मइणा पडिभासदि ।" -पृ० २४ सैद्धान्तिक ज्ञान पंजिकाकार का सिद्धान्तविषयक ज्ञान कितना कैसा रहा है, यह समझना कठिन है, क्योंकि उन्होंने जिस किसी भी प्रसंग को स्पष्ट किया है वह कुछ समझ में नहीं आ रहा है। इसके लिए भी यहाँ एक-दो उदाहरण दिये जाते हैं, जिन्हें समझने का प्रयत्न किया जाना चाहिए सत्कर्मपंजिका / ५६५ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) 'प्रक्रम' अनुयोगद्वार में उत्तरप्रकृतियों में उत्कृष्ट रूप से प्रक्रम को प्राप्त होनेवाले प्रदेशाग्रविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में वीरसेनाचार्य ने केवलज्ञानावरण के प्रक्रमद्रव्य से आहारशरीर नामकर्म के प्रक्रमद्रव्य को अनन्तगुणा कहा है।' इसका स्पष्टीकरण पंजिकाकार ने इस प्रकार किया है "आहारसरोरपक्कमवण्वमणंतगुणं । कुदो ? सत्तविहबंधगुक्कस्तदव्वस्स छन्वीसदिमभागस्स चउन्भागत्तादो । तं पि कुदो ? अप्पमतापुव्यकरणसंजदाणं तीसबंधएण बद्धक्कस्सणामकम्मसमयपबद्धं विभंजमाणे तहोवलं - भादो । कथं विजिज्जदि ? उच्चदे - सव्वुक्कस्ससमयपबद्ध मावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडेदुणेगखंडरहिदबहुखंडाणि बज्झमाणती सपयडीसु चत्तारि सरीराणि एगभागं दोण्णि अंगोवंगाणि एग भागं लहंति त्ति छप्पयडीओ अवणिय सेसचउवीसपयडीसु दोपयडिसंखे पक्खित्ते छब्बीसामो होंति । तेहि खंडिय छब्वीसट्टाणेसु ठविय सेमेयखंडं पुव्वविहाणेण (?) पक्खियव्वं जाव चरिमखंडा पड[ढ] मखंडे ति । तत्थ पढमखंडो गदिभागो होदि विदियखंडं जादिभागो विसेसाहिओ होदि, एवं विसेसाहियकमेण णेदव्वं जाव णिमिणो त्ति । पुणो एत्थ विसेसाहियं होि कथं वदे ? तिरिक्खगदीदो उवरि अजसकित्ती विसेसाहिया त्ति उत्तप्पा बहुगादो (?) । पुणो तत्थ सरीरभागे घेत्तूण आवलि० असं० भागेण खंडेदुणेग खंड रहिदबहुखंडाणि चत्तारि खंडाणि काढूण सेसकिरियं पुव्वं कदे तत्थ सम्वत्थोवं वेगुव्विय० । आहारसरीर० विसे० । तेउ० विसे० । कम्म० विसे० । पुणो एत्थतण आहारसरीरं उक्कस्सं होदि । एवमुवरि वि विभंजविहाणं जाणिय वत्तव्वं ।" पंजिका, पृ० ७ इसका अभिप्राय यह दिखता है कि आहारकशरीर का प्रक्रमद्रव्य केवलज्ञानावरण के प्रक्रमद्रव्य की अपेक्षा अनन्तगुणा है, क्योंकि वह सात प्रकृतियों के बन्धक जीव के छब्बीसवें भाग का चौथा भाग है | हेतु यह दिया गया है कि अप्रमत्त और अपूर्वकरण संयतों के (?) तीस प्रकृतियों (अपूर्वकरण के छठे भाग से सम्बद्ध) के बन्धक के द्वारा बाँधे गये उत्कृष्ट नामकर्म के समयप्रबद्ध का विभाग करने पर वैसा ही पाया जाता है। कैसे विभाग किया जाता है, इसे स्पष्ट करतें हुए आगे कहा गया है कि सर्वोत्कृष्ट समयप्रबद्ध को आवली के असंख्यातवें भाग से भाजित करके जो लब्ध हो, उसमें एक भाग से रहित बहुभाग को बँधनेवाली तीस प्रकृतियों में चार शरीर (आहारक को छोड़कर) एक भाग को और दो अंगोपांग (आहारक अंगोपांग को छोड़कर) एक भाग को प्राप्त करते हैं। इसलिए छह (चार शरीर व दो अंगोपांग) प्रकृतियों को कम करके शेष चौबीस प्रकृतियों में दो प्रकृतियों की संख्या के मिलाने पर छब्बीस होती हैं। उनसे (?) भाजित करके छब्बीस स्थानों में रखकर शेष एक खण्ड को पूर्वोक्त विधान से अन्तिम खण्ड से लेकर प्रथम खण्ड तक प्रक्षिप्त करना चाहिए। उसमें प्रथम खण्ड गति का भाग होता है; द्वितीय खण्ड जाति का भाग विशेष अधिक होता है, इस प्रकार विशेष अधिक के क्रम से निर्माण तक ले जाना चाहिए। फिर यहाँ विशेष अधिक है, यह कैसे जाना जाता है; इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वह 'तियंचगति के आगे अयशकीर्ति विशेष अधिक है' इस उक्त अल्पबहुत्व से जाना जाता है (?)। फिर उसमें शरीरभाग को लेकर आवलि के असंख्यातवें भाग १. धवला, पु० १५, पृ० ३६ ५६६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से भाजित कर एक खण्ड से रहित बहुत खण्डों के चार भाग करके शेष क्रिया को पूर्व के समान करने पर उसमें सबसे स्तोक वैक्रियिकशरीर का, आहारकशरीर का विशेष अधिक, तेजसशरीर का विशेष अधिक और कार्मणशरीर का प्रक्रमद्रव्य विशेष अधिक होता है। फिर यहां का आहारकशरीर उत्कृष्ट होता है। इस प्रकार आगे भी जानकर विभाजन के विभाग को करना चाहिए। इस सब विवरण का प्रकृत के विवरण से क्या सम्बन्ध है व उसकी क्या वासना रही है, यह एक विचारणीय तत्त्व है । प्रकृत में तो केवलज्ञानावरण के प्रक्रमद्रव्य से आहारकशरीर का प्रक्रमद्रव्य अनन्तगुणा है, इसे स्पष्ट करना था, जो उक्त विवरण से तो स्पष्ट नहीं हुआ है। यही नहीं, उक्त विवरण प्रकत से असम्बद्ध भी दिखता है। (२) दूसरा एक उदाहरण लीजिए -आचार्य वीरसेन के द्वारा सातावेदनीय की उदीरणा का काल उत्कर्ष से छह मास कहा गया है (पु० १५, पृ० ६२) । इसे स्पष्ट करते हुए पंजिकाकार कहते हैं कि इन्द्रिय-सुख की अपेक्षा संसारी जीवों में सुखी देव ही हैं। उनमें भी शतार-सहस्रार स्वर्ग के देव ही अतिशय सुखी हैं, क्योंकि उससे ऊपर के कल्पों में स्थित देव शुक्ललेश्या वाले हैं, इसलिए वीतरागसुख में अनुरक्त रहने से उनके साता के उदय से उत्पन्न हुए दिव्य सुख का अभाव है। और नीचे के देवों के वैसा पुण्य सम्भव नहीं है। इसलिए शतार-सहस्रार कल्प के इन्द्र ही सुखी हैं। इस प्रकार उनके माहात्म्य को प्रकट करते हुए इसी प्रसंग में आगे पंजिका में कहा गया है कि सचित्त और अचित्त के भेद से द्रव्य दो प्रकार का है। इनमें सचित्त सम्पादित द्रव्य कैसे अवस्थित है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया कि प्रतीन्द्र, सामानिक, तेतीस (३३) संख्या वाले त्रायस्त्रिश, लोकपाल, पारिषद, अंगरक्ष, सात (७) अनीक, किल्विष, पदाति, आठ (८) महादेवियाँ और शेष सब देवियों व देवों का समूह । तीर्थकर प्रकृतिसत्त्व से संयुक्त होने के कारण अपने कल्प से, इनके अतिरिक्त नीचेऊपर के देव पूजा के निमित्त आगत । अचेतनों का एक और विक्रिया आदि पर्यायों का एक, इस प्रकार सब साठ होते हैं। आगे इनके द्वारा सन्दोषदान आदि प्रकट करते हुए कहा गया ६० को पाँच प्रकार के क्षयोपशम से गणित करने पर ३०० होते हैं। इनको छह इन्द्रियों से गुणित करने पर १८०० होते हैं। इन्हें मन-वचन-काय तीन से गुणित करने पर वे ५४०० होते हैं। इनमें ६०० का भाग देने पर छह मास प्राप्त होते हैं, इस प्रकार नियम किया गया है। आगे इससे ऊपर के देवों के संधाण नहीं पाया जाता है, यह कहाँ से जाना जाता है, इस शंका के उत्तर में कहा गया है कि वह इसी आर्ष वचन (?) से जाना जाता है । आगे पंजिकाकार और भी अपना मन्तव्य प्रकट करते हैं कि यह जो छह मास के साधन के लिए प्ररूपणा की गयी है, यह उदाहरण मात्र है । इसलिए इसी प्रकार ही है, ऐसा आग्रह नहीं करना चाहिए। इसी प्रसंग में आगे प्रकारान्तर से भी साठ (६०) संख्या को अन्तर्मुहूर्त के रूप में स्पष्ट किया गया है (पृ० २४-२५) । यहाँ यह विचारणीय है कि धवलाकार आ० वीरसेन के उपर्युक्त कथन का क्या ऐसा __ अभिप्राय रह सकता है। सत्कर्मपंजिका | ५६७ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेनाचार्य के पद-वाक्यों का उपयोग __ आ० वीरसेन ने मतभेदों के प्रसंग में कुछ विशेष पद-वाक्यों का उपयोग करते हुए धवला में अपने अभिप्राय को प्रकट किया है। पंजिकाकार ने प्रसंग की गम्भीरता को न समझते हुए भी उनके व्याख्यान की पद्धति को अपनाकर जहां-तहां वैसे पद-वाक्यों का उपयोग किया है जो यथार्थता से दूर रहा है। जैसे (१) "केइं एवं भणंति-आवलियाए असंखेज्जदिभागे (?) ण होदि, किंतु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं खंडणभागहामिति भणंति । तदो उपदंसं लद्धण दोण्हमेनकदरणिण्णवो कायव्यो।"--पंजिका, पृ०४ ___ आ० वीरसेन कृतिसंचित और नोकृतिसंचित आदि के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में कहते हैं "एदमप्पाबहुगं सोलसवदियअप्पाबहुएण सह विरुज्झदे, सिद्धकालादो सिद्धाणं संखेज्जगणतं फिट्टिदूण विसेसाहियत्तप्पसंगादो। तेणेत्य उवएस लहिय एगदर णिण्णओ कायन्वो।" --धवला, पु० ६, पृ० ३१८ (२) प्रक्रम अनुयोगद्वार में उत्तरप्रकृतिप्रक्रम के प्रसंग में जो वीरसेनाचार्य के द्वारा अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है उसमें ६४ प्रकृतियों का ही उल्लेख हुआ है।' ___पंजिकाकार ने उनमें से पृथक्-पृथक् कुछ प्रकृतियों के संग में ‘एत्थ सूचिदपयडीणं अप्पाबहुगमुच्चदें' इत्यादि सूचना करते हुए शेष रही कुछ अन्य प्रकृतियों के अल्पबहुत्व को प्रकट किया है। ___ अन्त में उन्होंने यह कहा है-...'च उसट्ठिपयडीणं अप्पाबहुगं गंथयारेहि परूविदं । अम्हेहि पुणो सूचिदपयडीणमप्पाबहुगं गंथउत्तप्पाबहुगबलेण परविदं । कुदो? वीसुत्तरसयबंधयडीओ इदि विवक्खादो।" यह वीरसेनाचार्य के निम्न वाक्यों का अनुसरण किया गया दिखता है"संपहि एदेण अप्पाबहुगसुत्तेण सूचिदाणं सत्थाणपरत्थाणअप्पाबहुआणं परूवणं कस्सामो।" -धवला पु० ११, पृ० २७६-८० "संपहि सुत्तंतोणिलीणस्स एदस्स अप्पाबहुगस्स विसमपदाणं भंजणप्पिया पंजिया उच्चदे।" -धवला पु० ११, पृ० ३०३ पंजिकाकार ने ग्रन्थोक्त अल्पबहुत्व के बल पर किस आधार से सूचित उन-उन प्रकृतियों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की है, यह विचारणीय है । तद्विषयक जो परम्परागत उपदेश वीरसेनाचार्य को प्राप्त रहा है उसमें यदि वे प्रकृतियां सम्मिलित रही होती तो उनका उल्लेख वे स्वयं कर सकते थे या वैसी सूचना सकते थे। यही उनकी पद्धति रही है। बन्धप्रकृतियां चूंकि १२० हैं, जिनमें ६४ प्रकृतियों के ही अल्पबहुत्व की प्ररूपणा 'प्रक्रम' १. धवला, पु० १५, पृ० ३६-३७ २. देखिए पंजिका पृ० ७.८ में तेजस शरीर, नरक गति, मनुष्य गति व तियंच गति का प्रसंग। ३. पंजिका, पृ०६ ५६८ / षखण्डागम-परिशीलन Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनयोगद्वार में की गयी है, इसीलिए सम्भवतः पंजिकाकार को शेष ५६ प्रकृतियों को उसमें सम्मिलित करना आवश्यक दिखा है। इसी कारण उन्होंने अपनी कल्पना के आधार पर उनके भी अल्पबहुत्व को दिखला दिया है, ऐसा प्रतीत होता है। (३) आ० वीरसेन ने इसी प्रक्रम अनुयोगद्वार में उत्कृष्ट आदि वर्गणाओं में प्रक्रमित द्रव्य के व अनुभाग के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हुए यह कहा है कि यह निक्षेपाचार्य का उपदेश है (पु० १५, पृ० ४०)। पंजिकाकार निक्षेपाचार्य का उल्लेख इस प्रकार करते हैं स्थिति और अनुभाग में प्रक्रमित द्रव्यविषयक अल्पबहुत्व ग्रन्थसिद्ध सुगम है, इसलिए उसकी प्ररूपणा न करके स्थितिनिषेक आदि में प्रक्रमित अनुभाग की प्ररूपणा निक्षेपाचार्य ने इस प्रकार की है, यह कहते हुए उन्होंने उस अल्पबहुत्व का कुछ उल्लेख किया है व आगे 'एदस्स कारणं किंचि वत्तइस्सामो' ऐसी सूचना करते हुए उनके द्वारा जो स्पष्टीकरण किया गया है वह प्रसंग से असम्बद्ध ही दिखता है और उस के स्पष्टीकरण में सहायक नहीं है। __इसी प्रसंग में आगे संज्वलन-लोभ ग्रादि के अनुभागोदय सम्बन्धी अल्पबहुत्व को दिखलाते हए वे कहते हैं कि उनसे जघन्य प्रतिस्थापना मात्र नीचे उतरकर स्थित अनुभाग का उदय अपनी-अपनी प्रथम कषाय का उदय होता है, क्योंकि 'उदय के अनुसार उदीरणा होती है। ऐसा गुरु का उपदेश है।' यहाँ हेतु के रूप में गुरु के उपदेशानुसार उदीरणा को उदयानुसारी बतलाने का क्या प्रसंग रहा है तथा उसकी वह उदयान सारिता कहां कितनी है, यह विचारणीय है। ___ आगे और भी जो इस प्रसंग में स्पष्टीकरण किया गया है, जैसे-...'आरिसावो'. .... ति णिक्खेवाइरिय वयणं सिद्धं व सेसाइरियाणमभिप्पारण...', 'णदं पि, सत्तविरुद्धत्तादो'. 'सेसाइरियाणमभिप्पाएण'; इत्यादि वह सब विचारणीय है। (४) पंजिकाकार के द्वारा किए गये ये अन्य उल्लेख भी ध्यान देने के योग्य हैं। "एदस्स अत्थो तत्थ गंथे आइरियाणमभिप्पायंतरमिदिमुत्तकंठं भणिदो।"-4०१८ "एवं संते एवं जीवट्ठाणस्स कालाहियारेण तं पि कधं णव्वदे? एदेण कसावपाडसत्तण (गा० १५-१७) संजदाणं जहण्णद्धा अंतोमुहुत्तमिदि परूवयेण । तंजहा.''परूवयसुत्तादो, पाइरियाणं संखेज्जावलियमंतोमुहुत्तमिदि "इदि आइरिये हि परुदवित्तादो "सच्चं विरोहोचेव, कित अभिप्पायंतरेण परूविज्जमाणे विरोहो पत्थि। -प०१८-१९ ....ण, सिया ठिया सिया अट्ठिया सिया ट्ठियाट्ठिया त्ति आरिसादो" (ष०ख० का 'वेदनागतिविधान' द्रष्टव्य है-पु० १२, पृ० ३६४-६६ ।) पंजिका प० २१ . ___ "सादस्स उदीरणंतरं गदि पडुच्च भण्णमाणे दुविहमुवदेसं होदि । तत्थेक्कवदेसेण...... अण्णेक्कुबवेसेण एदेसि दोण्हमुक्देसेसु कधमवसिटुमिदि चे णेवं जाणिज्जदे, तं सुबकेवली १. पंजिका, पृ० १४-१५ २. वही, पृ० १५-१७ ३. ...त्ति वुत्ते सच्चं विरुज्झइ, किंतु एयंतग्गहो एत्थ ण कायव्वो इदमेव तं चैव सच्चमिदि, सुदकेवलीहि पच्चक्खणाणीहि वा विणा अवहारिज्जमाणे मिच्छत्तप्पसंगादो। -धवला पु० ८, पृ० ५६-५७ सत्कर्मपंजिका | ५९९ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानिज्जदि । किंतु हम तररूगाए विदियंत रपरूवणं प्रत्यविवरणमिदि मम मइणा पडिभासदि ।" - पंजिका पृ० २४ "कुदो जव्व दे ? एवम्हादो (?) चेव आरिसवयणादो । एदं परुवणमुदाहरणमेत्तं छम्माससाहg परूविदं । तदो एवं चेव होदि त्ति णाग्गहो कायव्वो । एवमण्णेहि वि पयारेहि जाणिय वत्तव्वं ।" - पृ० २५ "एदमंगाभिप्पायं श्रपणे काभिप्पायेण णिरय-तिरिक्ख मणुस्सगदीए।" - पृ० २६ "ण केवलमेदं वयणमेत्तं चेव, किंतु सुहुमदिट्ठीए जोइज्जमाणे जहा देवाणं तित्थयरकुमाराणं च सुरभिगंधो मेरइएस दुरभिगंधो आगमभेदेण दिस्सदि । – पृ० २८ "एदं पि सुगमं, आइरियाणमुवदेसत्तादो । जुत्तीए वा ण केवलं उवदेसेण विसेसाहियत्तं, fig जुत्ती विसेसाहियतं प्रसंखेज्जभागाहियत्तं गव्वदे जाणाविज्जदे । - पृ० ७४-७५ उपसंहार पंजिकाकार ने वीरसेनाचार्य द्वारा विरचित निबन्धनादि १८ अनुयोगद्वारों को सत्कर्म कहा है व प्रारम्भ में उसके विवरण करने की प्रतिज्ञा की है । पर उन्होंने पंजिका में कहीं वीरसेन के नाम का उल्लेख नहीं किया है, ग्रन्थकार के रूप में ही जहाँ-तहाँ उनका निर्देश देखा जाता है । उधर धवलाकार आचार्य वीरसेन ने प्रारम्भ में तथा आगे भी कहीं-कहीं आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि का बहुत आदर के साथ स्मरण किया है । यह पंजिका निबन्धन, प्रक्रम, उपक्रम और उदय इन प्रारम्भ के चार अनुयोगद्वारों पर रची गयी है । प्रन्थगत विषम स्थलों को जो पदच्छेदपूर्वक स्पष्ट किया जाता है उसका नाम पंजिका है।" तदनुसार इस पंजिका के द्वारा इन अनुयोगद्वारों में निहित दुर्बोध प्रसंगों को स्पष्ट किया जाना चाहिए था; पर जैसा कि उसके अनुशीलन से हम समझ सके हैं, उसके द्वारा प्रसंगप्राप्त विषय का स्पष्टीकरण हुआ नहीं है। पंजिका में प्रसंगप्राप्त अनेक प्रकरणों को 'सुगम' कहकर छोड़ दिया गया है, जबकि यथार्थ में वे सुगम नहीं प्रतीत होते। इसके अतिरिक्त प्रसंगप्राप्त विषय के स्पष्टीकरण में जिनका विवक्षित विषय के साथ सम्बन्ध नहीं रहा है, उनका विवेचन वहाँ अधिक किया गया है, यह ऊपर दिये गये उदाहरण से स्पष्ट है । १. दोन्हं वयणाणं मज्झे कं वयणं सच्चमिदि चे सुदकेवली केवली वा जाणदि, ण ण्णो, तहा णिण्णयाभावादो | धवला पु० १, पृ० २२२ सो एवं भणदि जो चोट्स पुव्वधरो केवलणाणी वा । - धवला पु० ७, पृ० ५४० २. श्रम्हाणं पुण एसो ग्रहिप्पाम्रो जहा पढमपरूविदग्रत्थो चेव भद्दश्रो ण बिदियो त्ति । -- धवला पु० १३, पृ० ३८२ ३. ...तदो इदमित्थं चेवेत्ति हासग्गाहो कायव्वो । धवला पु० ३, पृ० ३८ ( पिछले पृष्ठ का टिप्पण १ भी द्रष्टव्य है । एसो उप्पत्तिकमो उप्पण्णउप्पायण उत्तो । परमत्थदो पुण जेण केण वि पयारेण छावट्टी पूरेदव्वा । - धवला पु० ५, पृ० ७ ४. विसमपदाणं भंजणप्पिया पंजिया उच्चदे । ५७० / षट्खण्डागम-परिशीलन -- धवला पु० ११, पृ० ३०३ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंजिकाकार द्वारा विषय के स्पष्टीकरण में वीरसेनाचार्य की व्याख्यानद्धति को तो अपनाया गया है, पर निर्वाह उसका नहीं किया जा सका है। पंजिका में विषय के स्पष्टीकरण का लक्ष्य प्राय: अल्पबहुत्व से सम्बन्धित प्रसंग रहे हैं। उनके स्पष्टीकरण में अंकसंदृष्टियाँ बहुत दी गयी हैं, पर वे सुबोध नहीं हैं। उनके विषय में कुछ संकेत भी नहीं किया गया है। इन संदृष्टियों की पद्धति को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि प्रस्तुत पंजिका की रचना गोम्मटसार की 'जीवतत्त्व-प्रदीपिका' टीका के पश्चात् हुई है। उसके रचयिता सम्भवतः दक्षिण के कोई विद्वान् रहे हैं। पंजिकाकार की भाषा भी सुबोध व व्यवस्थित नहीं दिखती। सत्कर्मपंजिका / ५७१ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थोल्लेख यह पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि आचार्य वीरसेन सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण, गणित. मंत्र-तंत्र, क्रियाकाण्ड और ज्योतिष आदि अनेक विषयों में पारंगत होकर एक प्रामाणिक टीकाकार रहे हैं। यह इससे स्पष्ट है कि उन्होंने अपनी इस महत्त्वपूर्ण धवला टीका में उपर्यक्त विषयों से सम्बद्ध ग्रन्थों के अवतरणों को यथाप्रसंग प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है। इनमें कुछ ग्रन्थगत अवतरणों को तो उन्होंने ग्रन्थ के नामनिर्देशपूर्वक उद्धत किया है। यहां हम प्रथमतः उन ग्रन्थों का उल्लेख करेंगे जिनका उपयोग उन्होंने नामनिर्देश के साथ किया है। वे इस प्रकार हैं १ आचारांग, २ उच्चारणा, ३ कम्मपवाद, ४ करणाणिओगसुत्त, ५ कसायपाहुड, ६ चुण्णिसत्त, ७ छेदसुत्त, ८ जीवसमास, ६ जोणिपाहुड, १० णिरयाउबंधसुत्त, ११ तच्चट्ठ, तच्चत्थसुत्त, तत्त्वार्थसूत्र; १२ तत्त्वार्थभाष्य, १३ तिलोयपण्णत्तिसुत्त, १४ परियम्म, १५ पंचत्थिपाह. १६ पाहडसुत्त, १७ पाहुडचुण्णिसुत्त, १८ पिडिया, १६ पेज्जदोस, २० महाकम्मपयडिपाहुड, २१ मूलतंत, २२ वियाहपण्णत्तिसुत्त, २३ सम्मइसुत्त; २४ संतकम्मपय डिपाहुड, २५ संतकम्मपाहुड, २६ सारसंगह और २७ सिद्धिविनिश्चय। इनमें से यहां कुछ का परिचय प्रसंग के अनुसार कराया जा रहा है १. आचारांग-यहाँ आचारांग से अभिप्राय वट्टकेराचार्य-विरचित 'मूलाचार' का रहा है। वह मा० दि० जैन ग्रन्थमाला से आचारवृत्ति के साथ दो भागों में प्रकाशित हो चुका है। धवलाकार ने आज्ञाविचय धर्मध्यान से सम्बद्ध उसकी एक गाथा (५-२०२) को तह आयारंगे वि वृत्तं' इस निर्देश के साथ कालानुगम के प्रसंग में उद्धृत किया है।' २. उच्चारणा-यह कोई स्वतंत्र ग्रन्थ रहा है, यह तो प्रतीत नहीं होता। पं० हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्री के द्वारा लिखी गयी 'कसायपाहुडसुत्त' की प्रस्तावना से ज्ञात होता है कि जयधवला में उच्चारणा, मूल उच्चारणा, लिखित उच्चारणा, वप्पदेवाचार्य-विरचित उच्चारणा और स्वलिखित उच्चारणा का उल्लेख किया गया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि श्रुतकेवलियों के पश्चात् जो श्रुत की परम्परा चलती रही है उसमें कुछ ऐसे विशिष्ट आचार्य होते रहे हैं जो परम्परागत सूत्रों के शुद्ध उच्चारण के साथ शिष्यों को उनके अर्थ का व्याख्यान किया करते थे। ऐसे आचार्यों को उच्चारणाचार्य व व्याख्यानाचार्य कहा जाता है । ऐसे १. धवला पु० ४, पृ० ३१६ और मूलाचार गाथा ५-२०२ २. क. पा० सुत्त, प्रस्तावना, पृ० २६-२७ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्चारणाचार्यों में एक 'वप्पदेव" नामक आचार्य भी हुए हैं, जिन्होंने कसायपाहुड के चूर्णिसूत्रों पर बारह हजार श्लोक-प्रमाण उच्चारणावृत्ति लिखी है । इस उच्चारणावृत्ति का एक उल्लेख जयधवला में इस प्रकार किया गया है "चुण्णिसुत्तम्मि वप्पदेवाइरियलिहिदुच्चारणाए च अंतोमुहुत्तमिदि भणिदो । अम्हेहि लिहिदुच्चारणाए पुण जहण्णेण एगसमओ उक्कस्सेण संखेज्जा समया इदि परुविदो ।" धवला में वेदनाद्रव्यविधान के प्रसंग में तीव्र संक्लेश को विलोम प्रदेशविन्यास का कारण और मन्दसंक्लेश को अनुलोमप्रदेशविन्यास का कारण बतलाते हुए उस उच्चारणाचार्य का अभिप्राय निर्दिष्ट किया गया है । इसी प्रसंग में आगे वहाँ भूतबलिपाद के अभिप्राय को प्रकट करते हुए कहा गया है कि उनके अभिमतानुसार विलोमविन्यास का कारण गुणितकर्माशिकत्व और अनुलोमविन्यास का कारण क्षपितकर्माशिकत्व है, न कि संक्लेश और विशुद्धि । यहीं पर आगे एक शंका के रूप में कहा गया है कि उच्चारणा के समान भुजाकार काल के भीतर ही गुणितत्व को क्यों नहीं कहा जाता है। इसके समाधान में कहा गया है कि ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि अल्पतर काल की अपेक्षा गुणितभुजाकार काल बहुत है, इस उपदेश का श्रालम्बन लेकर यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है ( पु० १० पृ० ४५) । ३. कर्मप्रवाद – उपक्रम अनुयोगद्वार के अन्तर्गत उपशामना के प्रसंग में उसके भेद-प्रभेदों का निर्देश करते हुए धवलाकार ने यह सूचना की है कि अकरणोपशामना की प्ररूपणा कर्मप्रवाद में विस्तार से की गयी है ( पु० १५, पृ० २७५) । इसी प्रकार की सूचना कषायप्राभृतचूर्णि में भी की गयी है । उसे स्पष्ट करते हुए जयधवला में तो आठवें पूर्वस्वरूप कर्मप्रवाद में देख लेने की भी प्रेरणा की गयी है। * जैसा कि धवला और जयधवला में प्ररूपित 'श्रुतावतार' से स्पष्ट है, आचार्य धरसेन और गुणधर के पूर्व ही अंगश्रुत लुप्त हो चुका था, उसका एक देश ही आचार्य-परम्परा से आता हुआ धरसेन और गुणधर को प्राप्त हुआ था । ऐसी परिस्थिति में यह विचारणीय है कि जयधवलाकार के समक्ष क्या कर्मप्रवाद का कोई संक्षिप्त रूप रहा है, जिसमें उन्होंने उस अकरणोपशामना के देख लेने की प्रेरणा की है। दूसरा एक यह भी प्रश्न उठता है कि यदि उनके सामने वह कर्मप्रवाद रहा है तो उन्होंने उसके आश्रय से स्वयं ही उस उपशामना की प्ररूपणा क्यों नहीं की । धवलाकार ने तो देशामर्शक सूत्रों के आधार पर धवला में अनेक गम्भीर विषयों की प्ररूपणा विस्तार से की है । १. ष०ख० के प्रथम पाँच खण्डों व कषायप्राभृत पर वप्पदेवगुरु द्वारा लिखी गयी प्राकृत भाषा रूप साठ हजार ग्रन्थप्रमाण पुरातन व्याख्या का तथा महाबन्ध के ऊपर लिखी आठ हजार ग्रन्थप्रमाण व्याख्या का उल्लेख इन्द्रनन्दिश्रुतावतार (१७१ - ७६ ) में किया गया है। २. धवला, पु० १०, पृ० ४४ ३. जा सा अकरणोवसामणा तिस्से दुवे णामधेयाणि अकरणोवसामणात्ति वि अणुदिण्णोवसामणातिवि । एसा कम्मपवादे । - क० पा० सुत्त, पृ० ७०७ ( चूर्णि ३०० - १) ४. कम्मपवादो णाम अट्टमो पुव्वाहियारो .....तत्थ एसा अकरणोवसामणा दट्ठव्वा, तत्थेदिस्से पबंधेण परूवणोवलंभादो । -- जयध० (क०पा० सुत्त, पृ० ७०७ का टिप्पण १ ) ग्रन्थोल्लेख / ५७३ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवशर्म-विरचित कर्मप्रकृति में एक उपशामनाविषयक स्वतन्त्र अधिकार है। उसमें भी उपशामना के उपर्युक्त भेदों का निर्देश किया गया है । जैसी कि टीकाकार मलयगिरि सरि ने सचना की है, अकरणोपशामना का अनुयोग विच्छिन्न हो चुका था। इसी से शिवशर्मसूरि ने उस अनयोग के पारगामियों को मंगल के रूप में नमस्कार किया है व तद्विषयक ज्ञान के न रहने से स्वयं उसकी कुछ प्ररूपणा नहीं की है-यह पूर्व में कहा ही जा चुका है। ४. करणाणिओगसुत्त-यह कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ रहा है या लोकानुयोग के किसी प्रसंग से सम्बद्ध है, यह अन्वेषणीय है। प्रकृत में इसका उल्लेख धवलाकार ने क्षेत्रानुगम के प्रसंग में मिथ्यादृष्टियों के क्षेत्रप्रमाण की प्ररूपणा करते हुए किया है। वहाँ सूत्र में मिथ्यादृष्टियों का क्षेत्र सर्वलोक निर्दिष्ट किया गया है। उसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने सूत्र में निर्दिष्ट लोक को सात राजुओं के घन (७४७४७-३४३) स्वरूप ग्रहण किया है। पूर्व मान्यता के अनुसार, लोक नीचे सात राज, मध्य में एक राजु, ब्रह्मकल्प के पार्श्व भागों में पांच राजु और ऊपर एक राजु विस्तृत सर्वत्र गोलाकार रहा है। इस मान्यता के अनुसार सूत्र (२,३,४) में जो लोकपूरण समुद्घातगत केवली का क्षेत्र सर्वलोक कहा गया है वह घटित नहीं होता। इसलिए धवलाकार ने लोक को गोलाकार न मानकर आयत चतुरस्र के रूप में उत्तर-दक्षिण में सर्वत्र सात राजु बाहल्यवाला माना है। इस मान्यता के अनुसार वह गणितप्रक्रिया के आधार पर ३४३ घनराज प्रमाण बन जाता है। ____ इस प्रसंग में शंकाकार ने आ० वीरसेन के द्वारा प्रतिष्ठापित उक्त लोकप्रमाण के विरुद्ध जो तीन सूत्रों की अप्रमाणता का प्रसंग उपस्थित किया था, उसका निराकरण करते हुए धवलाकार ने अपनी उक्त मान्यता में उन गाथासूत्रों के साथ संगति बैठायी है । आगे उन्होंने इस प्रसंग में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि हमने जो लोक का बाहल्य उत्तर-दक्षिण में सर्वत्र सात राजु माना है, वह करणाणिओगसुत्त के विरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि वहाँ उसके विधि और प्रतिषेध का अभाव है।' ५. कसायपाहुड-गुणधराचार्य-विरचित कसायपाहुडसुत्त आचार्य यतिवृषभ-विरचित चूर्णिसूत्रों के साथ 'श्री वीरशासनसंघ, कलकत्ता' से प्रकाशित हो चुका है। प्रकत में धवलाकार ने यद्यपि कुछ प्रसंगों पर उसके कुछ मूल गाथासूत्रों को भी धवला में उद्धृत किया है, फिर भी अधिकतर उन्होंने उसके ऊपर यतिवृषभाचार्य-विरचित चूणि का उल्लेख कहीं पर कसायपाहड के नाम से, कहीं पर चुण्णिसुत्त के नाम से, कहीं पाहुडसुत्त के नाम से और कहीं पाहुडचुण्णिसुत्त के नाम से भी किया है । जैसे (१) सत्प्ररूपणा में मनुष्यों में चौदह गुणस्थानों के सद्भाव के प्ररूपक सूत्र (१,१,२७) की व्याख्या करते हुए धवला में उपशामनाविधि और क्षपणाविधि की प्ररूपणा की गयी है । उस प्रसंग में अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में तीन स्त्यानगृद्धि आदि सोलह प्रकृतियों और अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण इन आठ कषायों का क्षय आगे-पीछे कब होता है, इस विषय में धवलाकार ने दो भिन्न उपदेशों का उल्लेख किया है। उनमें सत्कर्मप्राभूत के उपदेशानुसार १. इस सबके लिए देखिए धवला, पु० ४, पृ० १०-२२ ५७४ | षट्खण्डागम-परिशीलन Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिवृत्तिकरणकाल का संख्यातवाँ भाग शेष रह जाने पर स्त्यानगद्धि आदि तीन, नरकगति, तियंचगति, एकेन्द्रिय आदि चार जातियाँ, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियों का क्षय किया जाता है। तत्पश्चात अन्तर्महर्त जाकर प्रत्याख्यानावरण चार और अप्रत्याख्यानावरण चार इन आठ कषायों का क्षय किया जाता है। दूसरे कषायप्राभत के उपदेशानुसार उक्त आठ कषायों का क्षय हो जाने पर, तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर स्त्यानगृद्धि आदि उन सोलह कर्मप्रकृतियों का क्षय किया जाता है (पु० १, पृ० २१७)। कसायपाहड के नाम पर धवला में जो उपर्युक्त अभिप्राय प्रकट किया गया है, वह उसी प्रकार से कसायपाहुड पर निर्मित चूणि में उपलब्ध होता है।' (२) क्षुद्रक-बन्ध में अन्तरानुगम के प्रसंग में सूत्रकार द्वारा सासादनसम्यग्दष्टियों का जघन्य अन्तर पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग निर्दिष्ट किया गया है। उसके स्पष्टीकरण के प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गई है कि उपशमणि से पतित होता हुआ सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त में यदि पुनः उपशम श्रेणि पर आरूढ़ होता है और उससे पतित होकर फिर से यदि सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है तो इस प्रकार से उस सासादन सम्यक्त्व का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। उसकी प्ररूपणा यहाँ सूत्रकार ने क्यों नहीं की। उपशम श्रेणि से उतरते हुए उपशमसम्यग्दृष्टि सासादन गुणस्थान को न प्राप्त होते हों, ऐसा तो कुछ नियम है नहीं, क्योंकि 'आसाणं पि गच्छेज्ज' अर्थात् वह सासादनगुणस्थान को भी प्राप्त हो सकता है, ऐसा चूणिसूत्र देखा जाता है। ___इसके पूर्व जीवस्थान-चूलिका में उपशमणि से प्रतिपतन के विधान के प्रसंग में भी यह विचार किया गया है। वहाँ धवला में यह स्पष्ट किया गया है कि उपशमकाल के भीतर जीव असंयम को भी प्राप्त हो सकता है, संयमासंयम को भी हो सकता है तथा छह आवलियों के शेष रह जाने पर सासादन को भी प्राप्त हो सकता है। पर सासादन को प्राप्त होकर यदि वह मरण को प्राप्त होता है तो नरक, तिथंच और मनुष्य इन तीन गतियों में से किसी में भी नहीं जाता है--किन्तु तब वह नियम से देवगति को प्राप्त होता है । यह प्राभूतणि सूत्र का अभिप्राय है । भूतबलि भगवान् के उपदेशानुसार उपशम श्रेणि से उतरता हुआ सासादन गुणस्थान को नहीं प्राप्त होता है । कारण यह कि तीन आयुओं में से किसी एक के बंध जाने पर वह कषायों को नहीं उपशमा सकता है। इसीलिए वह नरक, तिर्यंच और मनुष्य गति को नहीं प्राप्त होता है। (३) बन्धस्वामित्वविचय में संज्वलन मान और माया के बन्धव्युच्छेद के प्रसंग में धवला में प्ररूपित उन बन्धव्युच्छित्ति के क्रम के विषय में यह शंका उठायी गई है कि इस प्रकार का यह व्याख्यान 'कषायप्राभृतसूत्र' के विरुद्ध जाता है । इसके समाधान में धवलाकार ने यह स्पष्ट १. देखिए क०पा० सुत्त, पृ० ७५१ में चूणि १६५-६६ २. देखिए धवला पु० ७, पृ० २३३ तथा कषायप्राभूत चूणि का वह प्रसंग-छसु आवलियासु सेसासु आसाणं पि गच्छेज्ज । -- के०पा० सुत्त, पृ० ७२६-२७; चूणिसूत्र ५४३ ३. देखिए धवला पु० ६, पृ० ३३१ तथा क पा० सुत्त पृ० ७२६-२७, चूणि ५४२-४६ । दोनों ग्रन्थगत यह सन्दर्भ प्रायः शब्दशः समान है (क० प्रा० चूणि में मात्र 'संजमासंजमंपि गच्छेज्ज' के आगे 'दो वि गच्छेज्ज' इतना पाठ अधिक उपलब्ध होता है।) ग्रन्थोल्लेख / ५७५ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया है कि यथार्थ में यह व्याख्यान उसके विरुद्ध है, किन्तु यहाँ 'यही सत्य है या वही सत्य है' ऐसा एकान्तग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि श्रुतकेवलियों अथवा प्रत्यक्षज्ञानियों के बिना वैसा अवधारण करने पर मिथ्यात्व का प्रसंग प्राप्त होता है (पु०८, पृ० ५६)। (४) वेदनाद्रव्यविधान में स्वामित्व के प्रसंग में ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्य की अपेक्षा उत्कृष्ट किस के होती है, इसका विस्तार से विचार करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि गुणितकमाशिक स्वरूप से परिभ्रमण करता हुआ जो जीव अन्तिम भव में सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न हुआ है, वह उस अन्तिम समयवर्ती नारकी के होती है। यहां सत्र ३२ की धवला टीका में निर्दिष्ट भागहारप्रमाण के प्रसंग में यह शंका उठायी गयी है कि यह कैसे जाना जाता है। इसके समाधान में वहां यह कहा गया है कि वह पाहुहुसत्त में जो उसकी प्ररूपणा की गयी है उससे जाना जाता है। आगे कसायपाहड में जिस प्रकार से उसकी प्ररूपणा की गयी है उसे स्पष्ट करते हुए अन्त में वहां कहा गया है कि इस प्रकार 'कसायपाहुड' में कहा गया है।' (५) इसी वेदनाद्रव्यविधान के प्रसंग में आगे धवला में कर्मस्थिति के आद्य समयप्रबद्ध सम्बन्धी संचय के भागहार प्रमाण को सिद्ध करते हुए सूचित किया गया है कि पाहड में अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्य की जो प्ररूपणा की गयी; उसके प्रसंग में यह कहा गया है कि एक समयप्रबद्ध सम्बन्धी कर्मस्थिति में निषिक्त द्रव्य का काल दो प्रकार से जाता है—सान्तरवेदककाल के रूप से और निरन्तरवेदककाल के रूप से; इत्यादि । (६) इसी प्रसंग में आगे धवला में कसायपाहुड की ओर संकेत करते हुए यह कहा गया है कि चारित्रमोहनीय की क्षपणा में जो आठवीं मूल गाथा है उसकी चार भाष्यगाथाएं हैं। उनमें से तीसरी भाष्यगाथा में भी इसी अर्थ की प्ररूपणा की गयी है। यथा-असामान्यस्थितियां एक, दो व तीन इस प्रकार निरन्तर उत्कर्ष से पल्योपम के असंख्यातवें भाग तक जाती हैं। --पु० १०, पृ० १४३ कसायपाहुड में चारित्रमोह की क्षपणा के प्रसंग में आयी हुई आठवीं मूलगाथा है । उसकी चार भाष्यगाथाओं का उल्लेख चूर्णिकार ने किया है। उनमें तीसरी भाष्यगाथा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए चूणि में कहा गया है कि अब तीसरी भाष्यगाथा का अर्थ कहते हैं। असामान्य स्थितियाँ एक, दो व तीन इस प्रकार अनुक्रम से उत्कृष्ट रूप में पल्योपम के असंख्यातवें भाग हैं । इस प्रकार तीसरी गाथा का अर्थ समाप्त हुआ। (७) इसी वेदनाद्रव्यविधान में द्रव्य की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की जघन्य वेदना किसके होती है, इसे स्पष्ट करते हुए (सूत्र ४८-७५) सूत्रकार ने कहा है कि वह क्षपितकर्माशिकस्वरूप से आते हुए अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ के होती है। इस प्रसंग में अन्तिम सत्र (७५) की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने उपसंहार के रूप में प्ररूपणा और प्रमाण इन दो अनुयोगद्वारों का उल्लेख किया है। इनमें 'प्ररूपणा' के प्रसंग में १. धवला पु० १०, पृ० ११३-१४ तथा क०पा० सुत्त, पृ० २३५-३६ चूणि १-१३ (यह सन्दर्भ दोनों ग्रन्थों में प्रायः शब्दशः समान है)। २. धवला पु० १०, पृ० १४२ और क०पा० .... ३. कपा० सुत्त पृ० ८३२, चूणि ६२२; पृ० १३३, चू० ६४३ तथा पृ० ८४२, चूणि ६६२-६४ ५७६ / अखण्डागम-परिशीलन Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि कर्मस्थिति के प्रथम व द्वितीय आदि समयों में बाँधे गये कर्म का क्षीणकषाय के अन्तिम समय में एक भी परमाणु नहीं रहता है। यह क्रम पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र निलेपनस्थानों के प्रथम विकल्प तक चलता है। इस प्रसंग में यह पूछने पर कि निर्लेपनस्थान पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र ही होते हैं, यह कहाँ से जाना जाता है; उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह कसायपाहुडचुण्णिसुत्त से जाना जाता है। आगे कसायपाहुडचुण्णिसुत्तगत उस प्रसंग को यहाँ स्पष्ट भी कर दिया है, जो 'कसायपाहुड' में उपलब्ध भी होता है।' (E) इसी वेदनाद्रव्यविधान में पूर्वोक्त ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट द्रव्यवेदना के स्वामी के प्रसंग में प्राप्त सूत्र ३२ की व्याख्या में यह पूछने पर कि कर्मस्थिति के आदि समयप्रबद्ध का संचय अन्तिम निषेक-प्रमाण होता है, यह कैसे जाना जाता है, उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट संक्लेश के आश्रय से उत्कृष्ट स्थिति को बांधता हआ जितने परमाणुओं को कर्मस्थिति के अन्तिम समय में निषिक्त करता है उतने मात्र अग्रस्थितिप्राप्त होते हैं, ऐसा जो कसायपाहुड में उपदेश किया गया है उससे वह जाना जाता है।' उक्त वेदनाद्रव्यविधान में ज्ञानावरणीय की जघन्य द्रव्य वेदना के ही प्रसंग में दसरे 'प्रमाण' अनयोगद्वार की प्ररूपणा करते हुए धवला में यह शंका उठायी गयी है कि कसायपाहड में मोहनोजिन निलेपनस्थानों का उल्लेख किया है उन्हें ज्ञानावरण के निर्लेपनस्थान कैसे कहा जा सकता है । इसके उत्तर में धवलाकार ने इतना मात्र कहा है कि उसमें कुछ विरोध नहीं है (धवला, ". १०, पृ० २६८-६६)। (E) उक्त वेदनाद्रव्य विधान की चूलिका में वर्ग-वर्गणाओं के स्वरूप को प्रकट किया गया है। उस प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि सूत्र (४,२,१८०) में असंख्यात लोक मात्र अविभाग प्रतिच्छेदों की एक वर्गणा होती है, यह सामान्य से कहा गया है । इसीलिए उससे समान धनवाले नाना जीवप्रदेशों को ग्रहण करके एक वर्गणा होती है, यह नहीं जाना जाता है। ____ इसके उत्तर में धवला में कहा गया है कि सूत्र में समान धनवाली एक पंक्ति को ही वर्गणा कहा गया है, क्योंकि इसके बिना अविभागप्रतिच्छेदों की प्ररूपणा और वर्गणा की प्ररूपणा में भिन्नता न रहने का प्रसंग प्राप्त होता है तथा वर्गणाओं के असंख्यात प्रतर मात्र प्ररूपणा का भी प्रसंग प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त कसायपाहुड के पश्चिमस्कन्ध सत्र से १. धवला पु० १०, पृ० २६७; तत्थ पुव्वं गमणिज्जा पिल्लेवणट्टाणाणमुवदेसपरूवणा। एत्थ दुविहो उवएसो। एक्केण उवदेसेण कम्मट्ठिदीए असंखेज्जा भागा णिल्लेवणट्ठाणाणि । एक्केण उवएसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। जो पवाइज्जइ उवएसो तेण उवदेसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि वग्गमूलाणि णिल्लेवणाढाणाणि । -क० पा० सुत्त, पृ० ८१८, चूणि ९६४-६८ २. कम्मदिदिआदिसमयपबद्धसंचओ चरिमणिसेयपमाणमेत्तो होदि त्ति कधं णव्वदे? सण्णि पंचिदियपज्जत्तएण उक्कस्सजोगेण उक्सस्ससंकिलिट्ठण उक्कास्सियं दिदि बंधमाणेण जेत्तिया परमाणू कम्मट्ठिचरिमसमएणिसित्ता तेत्तियमेत्तमम्गट्ठिदिपत्तयं होदि त्ति कसायपाहुडे उवदिद्रुत्तादो।-धवला, पु० १०, पृ० २०८ ग्रन्थोल्लेख / ५७७ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी जाना जाता है कि समान धनवाले सब जीवप्रदेशों की वर्गणा होती है । वह सूत्र इस प्रकार है-केवलिस मुद्घात में केवली चौथे समय में लोक को पूर्ण करते हैं। लोक के पूर्ण होने पर योग की एक वर्गणा होती है ।' अभिप्राय यह है कि लोक के पूर्ण होने पर लोकप्रमाण जीवप्रदेशों का समयोग होता है। (१०) वेदनाभावविधान की दूसरी चूलिका में प्रसंगप्राप्त एक शंका का समाधान करते हए धवला में कहा गया है कि लोकपूरणसमुद्घात में वर्तमान केवली का क्षेत्र उत्कृष्ट होता है, भाव भी जो सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक के द्वारा प्राप्त हुआ, वह लोक को पूर्ण करनेवाले केवली के उत्कृष्ट अथवा अनुत्कृष्ट होता है, ऐसा न कहकर उत्कृष्ट ही होता है, यह जो कहा गया है, उसका अभिप्राय यही है कि योग की हानि-वृद्धि अनुभाग की हानि-वृद्धि का कारण नहीं हैं। अथवा कसायपाहुड में जो यह कहा गया है कि दर्शनमोह के क्षपक को छोड़कर सर्वत्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व का अनुभाग उत्कृष्ट होता है उससे भी जाना जाता है कि योग की हानिवृद्धि अनुभाग की हानि-वृद्धि का कारण नहीं है । धवला में निर्दिष्ट वह प्रसंग कसायपाहुड में भी उसी रूप में उपलब्ध होता है। (११) इसी भाव विधान-चूलिका में आगे काण्डकप्ररूपणा में प्रसंगप्राप्त सूत्र २०२ की व्याख्या करते हुए उस प्रसंग में धवला में यह कहा गया है कि यह सूक्ष्म निगोदजीव का जघन्य अनभागसत्त्वस्थान बन्धस्थान के समान है। इस पर शंका उत्पन्न हुई है कि यह कहाँ से जाना जाता है। इसका समाधान करते हुए धवला में कहा गया है कि इसके ऊपर एक प्रक्षेप कि करके बन्ध के होने पर अनुभाग की जघन्य वृद्धि होती है और उसी का अन्तर्मुहूर्त में काण्डकघात के द्वारा घात करने पर जघन्य हानि होती है, यह जो कसायपाहुड में प्ररूपणा की गयी है, उससे वह जाना जाता है। (१२) इसी भावविधान-चूलिका में आगे प्रसंगवश सत्कर्मस्थाननिबन्धन और बन्धस्थाननिबन्धन इन दो प्रकार के घातपरिणामों का उल्लेख करते हुए धवला में यह कहा गया है कि उनमें जो सत्कर्मस्थाननिबन्धन परिणाम हैं, उनसे अष्टांक और ऊवंक के मध्य में सत्कर्मस्थान ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि वहाँ अनन्तगुणहानि को छोड़कर अन्य हानियां सम्भव नहीं हैं। __ इस पर वहां यह शंका उत्पन्न हुई है कि सत्त्वस्थान अष्टांक और ऊर्वक के मध्य में ही होते हैं; चतुरंक, पंचांक, षडंक और सप्तांक के मध्य में नहीं होते हैं, यह कैसे जाना जाता है। इसके समाधान में वहां कहा गया है कि वह "उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान में एक बन्ध १. तदो चउत्थसमये लोग पूरेदि। लोगे पुण्णे एवका वग्गणा जोगस्स त्ति समजोगो त्ति णायव्वो।-क० पा० सुत्त, पृ० ६०२, चू० ११-१२ २. धवला, पु० १०, पृ० ४५१ ३. देखिए धवला, पु० १२, पृ० १६० तथा कपा० का निम्न प्रसंग सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्काणुभागसंतकम्मं कस्स? दसणमोहक्खवगं मोत्तूण सव्वस्स उक्कस्सयं । -कपा० सुत्त, पृ० १६०, चूणि ३३-३४ ४. धवला पु० १२, पृ० १२६-३० ५७८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान है । वही सत्कर्मस्थान है । यही क्रम द्विचरम अनुभागबन्धस्थान में है। इस प्रकार पश्चादानुपूर्वी से तब तक ले जाना चाहिए जब तक प्रथम अनन्तगुणाहीन बन्धस्थान नहीं प्राप्त होता है । पूर्वानुपूर्वी से गणना करने पर जो अनन्तगुणा बन्धस्थान है उसके नीचे अनन्तगुणा हीन अनन्तर स्थान है । इस अन्तर में असंख्यात लोकमात्र घात स्थान हैं । वे ही सत्कर्मस्थान हैं" यह इस पाहुडसुत से जाना जाता है । " (१३) इसी वेदनाभावविधान की तीसरी चूलिका में सूत्रकार द्वारा निरन्तरस्थान जीवप्रमाणानुगम के प्रसंग में जीवों से सहित स्थान एक, दो, तीन इत्यादि क्रम से उत्कृष्ट रूप में आवली के असंख्यातवें भाग मात्र निर्दिष्ट किये गए हैं । —सूत्र ४, २, ७; २७० इस प्रसंग में यहाँ धवला में यह शंका की गई है कि कसायपाहुड में 'उपयोग' नाम का अर्थाधिकार है । वहाँ कहा गया है कि कषायोदयस्थान असंख्यात लोक मात्र हैं । उनमें वर्तमान काल में जितने त्रस हैं उतने मात्र उनसे पूर्ण हैं । ऐसा कषायपाहुडसुत्त में कहा गया है । इस लिए यह वेदनासूत्र का अर्थ घटित नहीं होता है । इस शंका का समाधान करते हुए धवला में कहा गया है कि ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि जिन भगवान् के मुख से निकले हुए व अविरुद्ध आचार्य - परम्परा से आये हुए सूत्र की अप्रमाणता का विरोध है । आगे वहाँ प्रकृत दोनों सूत्रों में समन्वय करते हुए यह स्पष्ट कर दिया गया है कि यहाँ ( वेदनाभावविधान में) अनुभागबन्ध्याध्यवसानस्थानों में जीवसमुदाहार की प्ररूपणा की गयी है, पर कसायपाहुड में कषायउदयस्थानों में उसकी प्ररूपणा की गयी है, इसलिए दोनों सूत्रों में परस्पर विरोध नहीं है (धवला पु० १२, पृ० २४४-४५) । (१४) उपक्रम अनुयोगद्वार में उपशामना उपक्रम के प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि करणोपशामना दो प्रकार की है- देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना । इनमें सर्वकरणीपशामना के अन्य दो नाम ये हैं- गुणोपशामना और प्रशस्तोपशामना । इस सर्वोपशामना की प्ररूपणा कसा पाहुड में की जावेगी । 3 (१५) संक्रम अनुयोगद्वार में प्रकृतिस्थानसंक्रम के प्रसंग में स्थानसमुत्कीर्तना की प्ररूपणा करते हुए धवला में यह सूचना की गयी है कि मोहनीय की स्थानसमुत्कीर्तना जैसे कषायपाहुड की गयी है वैसे ही उसे यहाँ भी करनी चाहिए । (१६) इसी प्रकार से आगे अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में भी सत्कर्मप्ररूपणा के प्रसंग में १. देखिए धवला पु० १२, पृ० २२१ तथा क०षा० सुत्त, पृ० ३६२-६३, चूर्णि ५२६-३० २. कसायपाहुड में यह प्रसंग उसी रूप में इस प्रकार उपलब्ध होता है कसायुदयट्ठाणाणि असंखेज्जा लोगा । तेसु जत्तिया तसा तत्तियमेत्ताणि आवृण्णाणि । - क०पा० सुत्त पृ० ५६३, चूर्णि २६१-६२ ३. देखिए धवला पु० १५, पृ० २७५ तथा क० पा० सुत्त पृ० ७०७-८, चूर्णि २९६ ३.६ ( उपशामना की यह प्ररूपणा दोनों ग्रन्थों में प्रायः शब्दशः समान है। विशेषता यहाँ यह रही है कि धवलाकार ने जहाँ सर्वकरणोपशामना के प्रसंग में 'एसा सव्वकरणुवसामणा कसा पाहुडे पर विज्जिहिदि' ऐसी सूचना की है वहाँ कसायपाहुड में देशकरणोपशामना के प्रसंग में 'एसा कम्पयडीसु' (चूर्णि ३०४) ऐसी सूचना की गयी है । ) ४. धवला, पु० १६, पृ० ३४७ तथा क०पा० सुत्त, पृ० २८८-३०६' ग्रन्थोल्लेख / ५७६ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलाकार ने यह सूचना की है कि मोहनीय कर्म के सत्कर्मविषयक स्वामित्व की प्ररूपणा जैसे कसायपाहुड में की गयी है वैसे ही उसकी प्ररूपणा यहाँ भी करनी चाहिए।' (१७) यहीं पर आगे भी धवलाकार ने यह सूचना की है कि मोहनीय के प्रकृतिस्थानसत्कर्म की प्ररूपणा जैसे कसायपाहुड में की गयी है वैसे उसकी प्ररूपणा यहाँ करनी चाहिए। इस प्रकार धवलाकार ने कषायप्राभृतचूणि का उल्लेख कहीं कसायपाहुंडसुत्त, कहीं पाडसुत्त, कहीं चुण्णिसुत्त और कहीं पाहुडचुण्णिसुत्त इन नामों से किया है। इनमें से अधिकांश के उदाहरण ऊपर दिये जा चुके हैं। चुण्णिसुत्त जैसे (१८) बन्धस्वामित्वविचय में उदयव्युच्छेद की प्ररूपणा करते हुए धवला में महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के उपदेशानुसार मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में इन दस प्रकृतियों के उदयव्युच्छेद का निर्देश किया गया है--मिथ्यात्व, एकेन्द्रिय आदि चार जातियाँ, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण । ___ इसी प्रसंग में आगे चूणिसूत्रकर्ता के उपदेशानुसार उक्त मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में उपर्यक्त दस प्रकृतियों में से मिथ्यात्व, आताप, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन पाँच का ही उदयव्युच्छेद कहा गया है, क्योंकि उनके उपदेशानुसार चार जातियों और स्थावर इन पांच का उदय व्युच्छेद सासादनगुणस्थान में होता है। (१६) पाहुडसत्त जैसे-जीवस्थान-अन्तरानुगम में सूत्र २२३ में क्रोधादि चार कषायवाले जीवों का अन्तर मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक-क्षपक तक मनोयोगियों के समान कहा गया है। इस पर धवला में यह शंका उठायी गयी है कि तीन क्षपकों का नाना जीवों की अपेक्षा वह उत्कृष्ट अन्तर मनोयोगियों के समान छह मास घटित नहीं होता, क्योंकि विवक्षित कपाय से भिन्न एक, दो और तीन के संयोग के क्रम से क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होने वाले क्षपकों का अन्तर छह मास से अधिक उपलब्ध होता है। इस शंका के उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि ओघ से जो चार मनोयोगी क्षपकों का उत्कृष्ट अन्तर छह मास कहा गया है, वह इसके बिना बनता नहीं है (देखिए सूत्र १,६,१६-१७ व १५६)। इससे चार कषायवाले क्षपकों का वह उत्कृष्ट अन्तर छह मास ही सिद्ध होता है । आगे वे कहते हैं कि ऐसा मानने पर पाहुडसूत्र के साथ व्यभिचार भी नहीं आता है, क्योंकि उसका उपदेश भिन्न है (धवला पु० ५, पृ० १११-१२) । ___कषायप्राभृत में जघन्य अनुभागसत्कर्म से युक्त तीन संज्वलनकषाय वाले और पुरुषवेदियों का उत्कृष्ट अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा साधिक वर्ष प्रमाण कहा गया है। प्रकृत जीवस्थान-अन्तरानुगम में वेदमार्गणा के प्रसंग में पुरुषवेदी दो क्षपकों का उत्कृष्ट अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा साधिक वर्ष प्रमाण कहा गया है। -सूत्र १,६,२०४-५ १. धवला, पु० १६, पृ० ५२३; क०पा० सुत्त पृ० १८४.६७ आदि २. वही, पृ० ५२७-२८; क०पा० सुत्त, पृ० ७५-७६ ३. धवला, पु० ८, पृ०६ ४. तिसंजलण-पुरिसवेदाणं जहण्णाणुभागसंतकम्मियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण - एगसमओ। उक्कस्सेण वस्सं सादिरेयं ।-क०पा० सुत्त, पृ० १७०, चूणि १४५-४७ ५८० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस सूत्र की व्याख्या में धवलाकार ने इस साधिक वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर को स्पष्ट किया है व निरन्तर छह मास प्रमाण अन्तर को असम्भव बतलाया है। अन्त में उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि किन्हीं सूत्र पुस्तकों में पुरुषवेद का अन्तर छह मास भी उपलब्ध होता है।' (२०) पाहुडसुत्त-जीवस्थान-चूलिका में प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव मिथ्यात्व के तीन भाग कैसे करता है, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि जिस मिथ्यात्व का पूर्व में स्थिति, अनुभाग और प्रदेश की अपेक्षा घात किया जा चुका है उसके वह अनुभाग से पुनः घात करके तीन भाग करता है, क्योंकि "मिथ्यात्व के अनुभाग से सम्यग्मिथ्यात्व का अनुभाग अनन्तगुणाहीन और उससे सम्यक्त्व का अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है" ऐसा पाहुडसुत्त में कहा गया है। (२१) पाहुडचुण्णिसुत्त-इसी जीवस्थान-चूलिका में सूत्रकार द्वारा आहारकशरीर, आहारकअंगोपांग और तीर्थकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है। --सूत्र १,६-६,३३ इसकी व्याख्या में उसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि अपूर्वकरण के प्रथम समय सम्बन्धी स्थितिबन्ध को सागरोपमकोटि लक्षपृथक्त्व प्रमाण प्ररूपित करने वाले पाहुंडचुण्णिसुत्त के साथ वह विरोध को प्राप्त होगा, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह दूसरा सिद्धान्त है। आगे विकल्प के रूप में उसके साथ समन्वय भी कर दिया गया है। (२२) पाहुडसुत्त-इसी जीवस्थान-चूलिका में आगे नारक आदि जीव विवक्षित गति में किस गुणस्थान के साथ प्रविष्ट होते हैं व किस गुणस्थान के साथ वहां से निकलते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने उस प्रसंग में आगे कहा है कि इसी प्रकार से सासादन गुणस्थान के साथ मनुष्यों में प्रविष्ट होकर उसी सासादन गुणस्थान के साथ उनके वहाँ से निकलने के विषय में भी कहना चाहिए, क्योंकि इसके बिना पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र काल के बिना सासादनगणस्थान बनता नहीं है। आगे उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह कथन पाहुडसुत्त के अभिप्राय के अनुसार किया गया है। किन्तु जीवस्थान के अभिप्रायानुसार संख्यात वर्ष की आयुवाले मनुष्यों में सासादनगुणस्थान के साथ वहाँ से निकलना सम्भव नहीं है, क्योंकि उपशम श्रेणि से पतित हुए जीव का सासादनगुणस्थान को प्राप्त होना असम्भव है। पर प्रकृत में संख्यात व असंख्यात वर्ष की आयुवालों की विवक्षा न करके सामान्य से वैसा कहा गया है, इसलिए उपर्युक्त कथन घटित हो जाता है।" १. धवला पु० ५, पृ० १०५-६ २. धवला पु. ६, पृ० २३४-३५; णवरि सवपच्छा सम्मामिच्छत्तमणंतगुणहीणं । सम्मत्त____ मणंतगुणहीणं ।-क०पा० सुत्त, पृ० १७१, चूणि १४६-५० ३. धवला, पु० ६, पृ० १७७ ४. धवला, पू०६, १०४४४-४४५; एदिस्से उवसमसम्मत्तत्तद्धाए अभंतरदो असंजमं पि गच्छेज्ज, संजमासंजमं पि गच्छेज्ज, दो वि गच्छेज्ज, छसु आवलियासु सेसासु आसाणं पि गच्छेज्ज । आसाणं पुण गदो जदि मरदि ण सक्को णिरयगदि तिरिक्खगदि मणुस्सगदि वा गंतु, णियमा देवगदि गच्छदि। हंदि तिसु आउएसु एक्केण वि बद्धेण आउगेण ण सक्को कसाए उवसामेदु ।-क०पा० सुत्त, पृ० ७२६-२७, चूर्णि ५४२-४५ प्रन्योल्लेख/ ५८१ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) कसायपाहुड-पूर्वोक्त भावविधान की दूसरी चूलिका में परम्परोपनिधा की प्ररूपणा के प्रसंग में धवला में यह एक शंका उठायी गई है कि अधस्तन संख्यात अष्टांक और ऊर्वक के अन्तरालों में हतसमुत्पत्तिक स्थान नहीं उत्पन्न होते हैं, यह कहाँ से जाना जाता है। इसके समाधान में वहां कहा गया है कि वह आचार्य के उपदेश से अथवा अनुभाग की वृद्धिहानिविषयक "हानि सबसे स्तोक है; वृद्धि उससे विशेष अधिक है" इस अल्पबहुत्व से जाना जाता है। इसी प्रसंग में आगे प्रकारान्तर से वहां यह भी कहा गया है कि अथवा वह कसायपाहुड के अनुभागसंक्रमविषयक सूत्र के व्याख्यान से जाना जाता है कि वे हतसमुत्पत्तिक स्थान सर्वत्र नहीं उत्पन्न होते हैं। इसे आगे कसायपाहुडगत उस सन्दर्भ से स्पष्ट भी कर दिया गया है।' -वेदनाभावविधान में वर्ग व वर्गणाविषयक भेदाभेद के एकान्त का निराकरण करते हुए धवला में द्रव्याथिकनय की अपेक्षा वर्गणा को एक और पर्यायाथिकनय की अपेक्षा अनन्त भी कहा गया है। आगे इस प्रसंग में शंकाकार ने कहा है वर्गणा की एक संख्या को छोड़कर अनन्तता प्रसिद्ध नहीं है । इस पर यह पूछे जाने पर कि उसकी एकता कहाँ प्रसिद्ध है-इसके उत्तर में शंकाकार ने कहा है कि वह पाहुरचुण्णिसुत्त में प्रसिद्ध है, क्योंकि वहां लोकपूरणसमुद्घात की अवस्था में योग की एक वर्गणा होती है, ऐसा कहा गया है। इसके समाधान में वहां कहा गया है कि यह कुछ दोष नहीं है, क्योंकि एक वर्गणा में कहीं पर अनेकता का व्यवहार देखा जाता है । जैसे—एक प्रदेशवाली वर्गणाएँ कितनी है इसे स्पष्ट करते हए कहा गया है कि वे अनन्त हैं, दो प्रदेशवाली वर्गणाएँ अनन्त हैं, इत्यादि वर्गणाविषयक व्याख्यान से उनकी अनन्तता जानी जाती है । यह व्याख्यान अप्रमाण नहीं है, क्योंकि उसे अप्रमाण मानने पर व्याख्यान की अपेक्षा समान होने से उस चूणिसूत्र के भी अप्रमाणता का प्रसंग प्राप्त होता है। उपसंहार ___ जैसा कि ऊपर के विवेचन से स्पष्ट हो चुका है, धवलाकार ने आचार्य यतिवृषभ-विरचित कषायप्राभूतचूणि का उल्लेख कहीं कसायपाहुडचुण्णिसुत्त, कहीं चुण्णिसुत्त, कहीं पाहुड, कहीं पाहडचण्णिसुत्त और कहीं पाहुडसुत्त इन नामों के निर्देशपूर्वक किया है । संक्षेप में उन उल्लेखों को इस प्रकार देखा जा सकता है (१) कसायपाहुड-धवला पु० १, पृ० २१७ । पु० ८, पृ० ५६ । पु० १०-१० ११३१४, २०८, २६८-६६ व ४५१ । पु० १२-पृ० ११६, १२६, २३०-३२ व २४४-४५ । पु० १५, पृ० २७५ । पु० १६-पृ० ३४७ व ५२७-२८ । १. देखिए धवला, पु० १२, पृ० २३०-३१ तथा क.प्रा० चूणि ५२३-३६ (क०पा० सुत्त पृ०३६२-६४) २. देखिए धवला, पु० १२, पृ० ६४-६५ व क० प्रा० का यह संदर्भ-लोगे पुण्णे एक्का वग्गणा जोगस्से त्ति समजोगो ति णायब्वो ।-क० पा० सुत्त, पृ० ६०२, चूणि १२ ३. धवला, पु० १२, पृ० ६४-६५ ५८२/ षट्खण्डागम-परिशीलन Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) कसायपाहुडचुण्णिसुत्त-पु० १०, पृ० २६७ । (३) चुण्णिसुत्त-पु० ७, पृ० २३३ । पु० ८, पृ० ६ । पु० १२, पृ० ६५ । (४) पाहुड-पु. १०, पृ० १४२ व १४३ । (५) पाहुरचुण्णिसुत्त-पु० ५, पृ० ११२। पु० ६, पृ० १७७ व ३३१ । पु० १२, पृ० ६४। (६) पाहुडसुत्त-पु० ६, पृ० २३५ व ४४४ । पु० १०, पृ० ११३-१४। पु० १२, पृ० २३१ । मूलकषायप्राभूत धवलाकार ने कसायपाहुड की कुछ मूल गाथाओं को भी धवला में यथाप्रसंग ग्रन्थ नामनिर्देश के बिना उद्धृत किया है, जो इस प्रकार हैंमूल धवला क० पा० गाथा गाथांक गाथांश पु० पृ० (भाष्यगाथासम्मिलित) ४२ दसणमोहस्सुव २३६ ४३ सव्वणिरयभवणेसु ४४ उवसामगो य सव्वो सायारे पट्ठवगो मिच्छत्तवेदणीयं सव्वम्हि दिदिविसे सेहि मिच्छत्तपच्चओ १०१ अंतोमुहुत्तमद्धं २४१ सम्मामिच्छाइट्ठी सम्मत्तपढमलंभो सम्मत्तपढमलंभस्स कम्माणि जस्स तिण्णि सम्माइट्ठी सद्दहदि १०७ मिच्छाइट्ठी णियमा १०८ सम्मामिच्छाइट्ठी २४३ १०६ १११ किट्टी करेदि णियमा ३८२ ११२ गुणसेडि अणंतगुणा १६५ ११४ किट्टी च ठिदिविसेसेसु ३८३ १६७ ११५ सव्वाओ किट्टीओ १६८ ओवट्टणा जहण्णा ३४६ संकामेदुक्कड्डदि १५३ २२ १०१ ओकड्डदि जे असे ३४७ १५४ २३ १०२ एक्कं च ठिदिविसेसं २४ २६ सव्वावरणीयं पुण rr»9422 w000० xu91500 amr xur ० ० ० ० १०२ MAKWWW DOG १३ ~ ~ ~ . १५२ १५५ ७६ २ प्रन्थोल्लेख/ ५८३ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. छेदसुत्त—यह एक प्रायश्चित्तविषयक कोई प्राचीन ग्रन्थ रहा प्रतीत होता है। वह कब और किसके द्वारा रचा गया है, यह ज्ञात नहीं होता। सम्भव है वह आ० वीरसेन के समक्ष रहा हो। पर जिस प्रसंग में धवला में उसका उल्लेख किया गया है, वहाँ प्रसंग के अनुसार उसका कुछ उद्धरण भी दिया जा सकता था। किन्तु उद्धरण उसका कुछ भी नहीं दिया गया। इससे धवलाकार के समक्ष उसके रहने में कुछ सन्देह होता है । प्रसंग इस प्रकार रहा है- वेदनाकालविधान में आयुवेदना काल की अपेक्षा उत्कृष्ट किसके होती है, इसका विचार करते हुए सूत्रकार ने उसके स्वामी के विषय में अनेक विशेषण दिये हैं। प्रसंगप्राप्त सूत्र (४,२, ६,१२) में वहाँ यह भी कहा गया है कि आयु की वह उत्कृष्ट कालवेदना स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी अथवा नपंसकवेदी इनमें से किसी के भी हो सकती है, क्योंकि इनमें से किसी के साथ उसका विरोध नहीं है। इसके स्पष्टीकरण में धवलाकार ने कहा है कि इस सूत्र में भाववेद का ग्रहण किया गया है. क्योंकि अन्यथा द्रव्य-स्त्रीवेद से भी नारकियों की उत्कृष्ट आयु के बन्ध का प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु द्रव्य-स्त्रीवेद के साथ उसका बन्ध नहीं होता है, अन्यथा "सिंह पांचवीं पृथिवी तक और स्त्रियां छठी पृथिवी तक जाती हैं" इस सूत्र' के साथ विरोध होने वाला है। द्रव्य-स्त्रीवेद के साथ देवों की उत्कृष्ट आयु का भी बन्ध नहीं होता है, अन्यथा "ग्रेवेयकों को आदि लेकर आगे के देवों में नियम से निर्ग्रन्थलिंग के साथ ही उत्पन्न होते हैं" इस सूत्र' के साथ विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु द्रव्य-स्त्रियों के वह निर्ग्रन्थलिंग सम्भव नहीं है, क्योंकि वस्त्र आदि के छोडे बिना उनके भावनिर्ग्रन्थता सम्भव नहीं है । और द्रव्यस्त्रियों एवं द्रव्यनपुंसकवेदियों के वस्त्र आदि का परित्याग हो नहीं सकता है, क्योंकि वैसा होने पर छेदसुत्त के साथ विरोध होता है। धवलाकार की प्राय: यह पद्धति रही है कि वे विवक्षित विषयक व्याख्यान की प्रष्टि में अधिकतर प्राचीन ग्रन्थों के अवतरण देते रहे हैं, किन्तु इस प्रसंग में उन्होंने छेदसूत्र के साथ विरोध मात्र प्रकट किया है, प्रसंगानुरूप उसका कोई उद्धरण नहीं दिया। __इसके पूर्व सत्प्ररूपणा में भी एक ऐसा ही प्रसंग आ चुका है, पर वहां उन्होंने छेदसत्र जैसे किसी प्राचीन ग्रन्थ से उपर्युक्त अभिप्राय की पुष्टि नहीं की है। दिगम्बर सम्प्रदाय में भी प्रायश्चित्तविषयक कुछ प्राचीन ग्रन्थ होने चाहिए, पर अभी १. आ पंचमि त्ति सीहा इत्थीओ जंति छट्ठिपुढवि त्ति ।-मूला० १२-११३ पंचमखिदिपरियंतं सिंहो इत्थीवि छ?खिदि अंतं ।-ति०प० २-२८५ २. तत्तो परं तु णियमा तव-दसण-णाण-चरणजुत्ताणं। णिग्गंथाणुववादो जाव दुसव्वट्ठसिद्धि त्ति ।।-मूला० १२-१३५ परदो अच्चण-वद-तव-दसण-णाण-चरणसंपण्णा। णिग्गंथा जायते भव्वा सव्वट्ठसिद्धिपरियंतं ॥-ति०प० ८-५६१ ३. धवला, पु० ११, पृ० ११४-१५ ४. वही, पु० १, पृ० ३३२-३३ ५. श्वेताम्बर सम्प्रदाय में तो प्रायश्चित्तविषयक बृहत्कल्पसूत्र और व्यवहारसूत्र जैसे ग्रन्थ पाये जाते हैं। ५८४ | षट्लण्डागम-परिशीलन Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक कहीं कोई वैसा ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ है। मा०दि० जैन ग्रन्थमाला से प्रकाशित 'प्रायश्चित्तसंग्रह' में छेदपिण्ड, छेदशास्त्र, प्रायश्चित्तचूलिका और प्रायश्चित्तग्रन्थ ये चार ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं, पर वे सभी अर्वाचीन दिखते हैं। उनमें मैंने वैसे किसी प्रसंग को खोजने का प्रयत्न किया है, पर उनमें मुझे वसा कोई प्रसंग दिखा नहीं है । (७) जीवसमास-जीवस्थान-कालानुगम अनुयोगद्वार में प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए वहाँ धवलाकार ने तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकाल के प्रसंग में 'जीवसमासाए वि उत्तं' इस सूचना के साथ निम्न गाथा को उद्धृत किया है छप्पंच-णवविहाणं अत्थाणं णिजवरोवइट्ठाणं । ___ आणाए अहिगमेण य सद्दहणं होइ सम्मत्तं' । यह गाथा दि० प्रा० पंचसंग्रह के अन्तर्गत पाँच प्रकरणों में से प्रथम 'जीव-समास' प्रकरण में गाथांक १५६ के रूप में उपलब्ध होती है । साथ ही वह प्राकृत वृत्ति से सहित दूसरे प्रा० पंचसंग्रह के तीसरे 'जीव-समास' प्रकरण में भी गाथांक १४६ के रूप में उपलब्ध होती है।' ८. जोणिपाहुड–'प्रकृति' अनुयोगद्वार में केवलज्ञानावरणीय के प्रसंग में सूत्रकार द्वारा केवलज्ञान के स्वरूप का निर्देश करते हुए उसके विषयभूत कुछ विशिष्ट पदार्थों का उल्लेख किया गया है। उनमें अनुभाग भी एक है ।--सूत्र, ५, ५ ६७-६८ (पु० १३) धवला में उसकी व्याख्या करते हुए छह द्रव्यों की शक्ति को अनुभाग कहा गया है। वे हैं जीवानुभाग, पुद्गलानुभाग, धर्मास्तिकायानुभाग, अधर्मास्तिकायानुभाग, आकाशास्तिकायानुभाग और कालद्रव्यानुभाग। इनमें पुद्गलानुभाग के लक्षण का निर्देश करते हुए धवला में कहा गया है कि ज्वर, कुष्ठ और क्षय आदि रोगों का विनाश करना, यह पुद्गलानुभाग का लक्षण है। निष्कर्ष रूप में वहाँ यह भी कहा गया है कि योनिप्राभृत में वर्णित मन्त्र-तन्त्र शक्तियों को पुद्गलानुभाग जानना चाहिए। ___जैसा कि पूर्व में 'धरसेनाचार्य व योनिप्राभूत' शीर्षक में कहा जा चुका है, वह कदाचित् धरसेनाचार्य के द्वारा विरचित हो सकता है। 8.णिरयाउबंधसुत्त-यह कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ रहा है या किसी कर्मग्रन्थ का कोई प्रकरण विशेष रहा है, यह अन्वेषणीय है। पूर्वोक्त जीवस्थान-कालानुगम अनुयोगद्वार में प्रथमादि सात पृथिवियों में वर्तमान मिथ्यादृष्टि नारकियों के उत्कृष्टकाल प्रमाण के प्ररूपक सूत्र (१,५,४) की व्याख्या में धवलाकार ने पृथक्-पृथक् प्रथमादि पृथिवियों में उनके उस उत्कृष्ट काल काउल्लेख किया है। कारण को स्पष्ट करते हुए उन्होंने यह कहा है कि इससे अधिक आयु का बन्ध उनके सम्भव नहीं है । इस विषय में यह पूछे जाने पर कि वह कहाँ से जाना जाता है, उन्होंने “एक्कं तिय सत्त १. धवला, पु० ४, पृ० ३१५ २. भा. ज्ञानपीठ से प्रकाशित पंचसंग्रह में पृ० ३४ व ५८२ (यह गाथा 'ऋषभदेव केशरीमल श्वेता० संस्था, रतलाम से प्रकाशित (ई. १९२८) जीव-समास में भी हो सकती है ।) ३. जोणिपाहुडे भणिदमंत-तंतसत्तीयो पोग्गलाणुभागो त्ति धेत्तन्वो। -धवला, पु० १३, पृ० ३४६ प्रन्थोल्लेख / ५८५ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस" आदि गाथा को उद्धृत करते हुए कहा है कि वह इस 'णिरयाउबंधसुत्त' से जाना जाता है । ' १०. तत्त्वार्थ सूत्र - धवलाकार ने इसका उल्लेख तच्चट्ठ, तच्चत्थ तचत्थसुत्त और तत्त्वार्थसूत्र इन नामों के निर्देशपूर्वक किया है । यथा— तच्चट्ठ - जीवस्थान - चूलिका में प्रथम सम्यक्त्व कहाँ किन बाह्य कारणों से उत्पन्न होता है, इसका विचार किया गया | वहाँ मनुष्यगति के प्रसंग में सूत्रकार द्वारा उसके उत्पादक तीन कारणों का निर्देश किया गया है— जातिस्मरण, धर्मश्रवण और जिनबिम्बदर्शन । --सूत्र १, ६-६, २६-३० इस प्रसंग को स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि तच्चट्ठ में नैसर्गिक – स्वभावतः उत्पन्न होनेवाला भी - प्रथम सम्यक्त्व कहा गया है। उसे भी यहीं पर देखना चाहिए अर्थात् वह भी इन्हीं कारणों से उत्पन्न होता है; यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि जाति-स्मरण और जिनबिम्ब-दर्शन के बिना उत्पन्न होनेवाला नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्व सम्भव नहीं है । नैसर्गिक का अभिप्राय इतना ही समझना चाहिए कि वह दर्शनमोह के उपशम आदि के होने पर परोपदेश के बिना उत्पन्न होता है । तच्चत्थ-बन्धन अनुयोगद्वार में सूत्रकार द्वारा अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं- औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध और क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध । —सूत्र ५, ६ १६ इसकी व्याख्या के प्रसंग में धवलाकार ने प्रसंग प्राप्त एक शंका के समाधान में जीवभाव ( जीवत्व) को औदयिक सिद्ध किया है। आगे उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि तच्चत्थ में जो जीवभाव को पारिणामिक कहा गया है वह प्राण धारण की अपेक्षा नहीं कहा गया है, किन्तु चैतन्य का अवलम्बन लेकर वहाँ उसे पारिणामिक कहा गया है | इसी प्रसंग में आगे धवलाकार ने भव्यत्व और अभव्यत्व को भी विपाकप्रत्ययिक कहा है । यहाँ यह शंका उठायी गयी है कि तच्चत्थ (२-७) में तो उन्हें पारिणामिक कहा गया है, उसके साथ विरोध कैसे न होगा । इसका समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि असिद्धत्व की अनादि-अनन्तता और अनादि- सान्तता का कोई कारण नहीं है, इसी अपेक्षा से उन अभव्यत्द और भव्यत्व को वहाँ पारिणामिक कहा गया है, इससे उसके साथ विरोध होना सम्भव नहीं है । तच्चत्थसुत्त --- जीवस्थान - कालानुगम अनुयोगद्वार में कालविषयक निक्षेप के प्रसंग में तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकाल के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने वर्ण- गन्धादि से १. धवला, पु० ४, पृ० ३६०-६१ २. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तन्निसर्गादधिगमाद्वा । त० सूत्र १, २, ३ ३. धवला, पु०६, पृ० ४३०-३१ ४. तस्मिन् सति यद् बाह्योपदेशादृते प्रादुर्भवति तन्नैसर्गिकम् । - स० स० १-३ ५. जीव - भव्याभव्यत्वानि च । त० सू० २-७ ६. धवला, पु० १४, पृ० १३ ५८६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहित वर्तनालक्षणवाले लोकप्रमाण अर्थ को तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकाल कहा है। इस प्रसंग में आगे उन्होंने कहा है कि गद्धपिच्छाचार्य द्वारा प्रकाशित तच्चत्यसत्त में भी "वर्तनापरिणाम-क्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य” (त० सू० ५-२२) इस प्रकार द्रव्यकाल की प्ररूपणा की गयी है।' तत्त्वार्थसूत्र-जीवस्थान-सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में एकेन्द्रियादि जीवों की प्ररूपणा के प्रसंग में शंकाकार द्वारा यह पूछा गया है कि पृथिवी आदि स्थावर जीवों के एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है, उनके शेष इन्द्रियां नहीं होती हैं, यह कैसे जाना जाता है । इसके समाधान में धवलाकार ने "जाणदि पस्सवि भुजदि"२ इत्यादि गाथा-सूत्र को उद्धृत करते हुए कहा है, वह उसके प्ररूपक इस आर्ष से जाना जाता है। तत्पश्चात् विकल्प के रूप में उन्होंने यह भी कहा है कि अथवा "वनस्पत्यन्तानामेकम्" इस तत्त्वार्थसूत्र (२-२२) से भी जाना जाता है कि वनस्पतिपर्यन्त पृथिवी आदि स्थावर जीवों के एक स्पर्शन-इन्द्रिय होती है। यहीं पर आगे द्वीन्द्रियादि जीवों की प्ररूपणा के प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गई है कि अमुक जीव के इतनी ही इन्द्रियाँ होती हैं, यह कैसे जाना जाता है। इसके उत्तर में वहाँ "एईविस्स फुसगं" इत्यादि गाथा-सूत्र को उद्धृत करते हुए कहा गया है कि इस आर्ष वचन से वह जाना जाता है । तत्पश्चात् विकल्प के रूप में वहां यह भी कहा गया है कि वह "कमिपिपोलिका-भ्रमर-मनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि” इस तत्त्वार्थसूत्र (२-२३) से जाना जाता है। इस प्रसंग में धवलाकार ने उपर्युक्त गाथा-सूत्र और इस तत्त्वार्थसूत्र के अर्थ को भी स्पष्ट कर दिया है। ११. तत्त्वार्थभाध्य-धवलाकार का अभिप्राय 'तत्त्वार्थभाष्य' से भट्टाकलंकदेव-विरचित 'तत्त्वार्थवार्तिक' का रहा है । जीवस्थान-सत्प्ररूपणा में षटखण्डागम के प्रथम खण्डभूत जीवस्थान का पूर्वश्रुत से सम्बन्ध प्रकट करते हुए धवलाकार ने अंगबाह्य के चौदह और अंगप्रविष्ट के बारह भेदों को स्पष्ट किया है। उस प्रसंग में अन्तकृद्दशा नामक आठवें अंग का और अनुत्तरोपपादिक दशा नामक नौवें अंग का स्वरूप दिखलाकर उसकी पुष्टि में धवलाकार ने 'उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये' इस सूचना के साथ उन दोनों अंगों के तत्त्वार्थवार्तिकगत लक्षणों को उद्धृत किया है, जो कुछ थोड़े से नाम-भेद के साथ उसी रूप में तत्त्वार्थवातिक में उपलब्ध होते हैं। विशेष इतना है कि धवला में उद्धृत अन्तकृद्दशा के लक्षण से आगे तत्त्वार्थवार्तिक में इतना अधिक है ---"अथवा अन्तकृतां दश अन्तकृद्दश, तस्यामहदाचार्यविधिः सिध्यतां च।"५ सम्भवतः यह लक्षण का विकल्प धवलाकार को अभीष्ट नहीं रहा, इसीलिए उन्होंने उसे उद्धृत नहीं किया। १२. तिलोयपण्ण त्तिसुत्त-जीवस्थानद्रव्यप्रमाणानुगम में सूत्रकार द्वारा क्षेत्र की अपेक्षा १. धवला, पु० ४, प० ३१६ २. धवला, पु० ४, पृ० १३६ (यह गाथासूत्र दि० प्रा० पंचसंग्रह (१-६६) में उपलब्ध होता है।) ३. धवला, पु०१ पृ० २३६ ४. धवला, पु० १, पृ० २५८-५६ ५. वही, पृ० १०३ तथा त० वा० १, २०, १२, पृ० ५१ प्रन्योल्लेख / ५८७ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मियादृष्टि जीवराशि का प्रमाण अनन्तानन्तलोक निर्दिष्ट किया गया है। सूत्र १,२,४ इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने सूत्रोक्त 'लोक' से जगश्रेणि के धन को ग्रहण किया है। इस प्रसंग में उन्होंने सात राजुओं के आयाम को जगश्रेणि और तियंग्लोक के मध्यम विस्तार को राजु कहा है। इस पर यह पूछने पर कि तिर्यग्लोक की समाप्ति कहाँ हई है, धवलाकार ने कहा है उसकी समाप्ति तीन वातवलयों के बाह्य भाग में हुई है। इस पर पुनः यह पूछा गया है कि स्वयम्भूरमण समुद्र की बाह्य वेदिका से भागे कितना क्षेत्र जाकर तियं. ग्लोक की समाप्ति हुई है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि असंख्यात द्वीप-समुद्रों के द्वारा जितने योजन रोके गये हैं उनसे संख्यात गुणे आगे जाकर उसकी समाप्ति हुई है। प्रमाण के रूप में उन्होंने ज्योतिषी देवों के दो सौ छप्पन अंगुलों के वर्ग-प्रमाण भागहार के प्ररूपक सूत्र (१, २, ५५) को और "दुगुणदुगुणो दुवग्गो णिरंतरो तिरियलोगे" इस तिलोयपण्णत्ति सुत्त को प्रस्तुत किया है।' - यह ज्ञातव्य है कि 'जैन संस्कृति संरक्षक संघ' शोलापुर से प्रकाशित वर्तमान तिलोयपण्णत्ती में उपर्युक्त गाथांश उपलब्ध नहीं होता।' सम्भव है वह उसकी किसी प्राचीन प्रति में लेखक की असावधानी से लिखने से रह गया है। तत्पश्चात् उसके आधार से जो उसकी अन्य प्रतियाँ लिखी गई हैं उनमें उसका उपलब्ध न होना स्वाभाविक है। प्रस्तुत संस्करण में अनेक ऐसे प्रसंग रहे हैं जहाँ पाठ स्खलित हैं। यही नहीं, कहीं-कहीं तो पूरी गाथा ही स्खलित हो गई है। उदाहरण के रूप में ऋषभादि तीर्थंकरों के केवलज्ञान के उत्पन्न होने की प्ररूपणा में सम्भव जिनेन्द्र के केवलज्ञान की प्ररूपक गाथा स्खलित हो गयी है। उसका अनुमित हिन्दी अनुवाद कोष्ठक [ ] के अन्तर्गत कर दिया गया है। इतनी मोटी भूल की सम्भावना ग्रन्थकार से तो नहीं की जा सकती है। ऐसे ही कुछ कारणों से अनेक विद्वानों का अभिमत है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्ती यतिवृषभाचार्य की रचना नहीं है । पर वैसा प्रतीत नहीं होता। कारण यह कि उपलब्ध 'तिलोयपण्णत्ती' एक ऐसी महत्त्वपूर्ण सुव्यवस्थित प्रामाणिक रचना है जो प्राचीनतम भौगोलिक ग्रन्थों पर आधारित है । स्थान-स्थान पर उसमें कितने ही प्राचीन ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है तथा यथाप्रसंग पाठान्तर व मतभेद को भी स्पष्ट किया गया है।४।। इस सारी स्थिति को देखते हुए उसके यतिवषभाचार्य द्वारा रचे जाने में सन्देह करना १. धवला, पु० ३, पृ० ३६; इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा 'धवलागत-विषय-परिचय' में द्रव्य प्रमाण के अन्तर्गत मिथ्यादृष्टि जीवराशि के प्रमाण के प्रसंग में तथा स्पर्शनानुगम के अन्तर्गत सासादन सम्यग्दृष्टियों के स्पर्शन के प्रसंग में की जा चुकी है, वहां उसे देखा जा सकता है। २. इससे मिलती-जुलती एक गाथा धवला पु० ४, पृ० १५१ पर इस प्रकार उद्धृत की गयी है चंबाइच्च-गहेहि घेवं णक्खत्त सारस्वहिं। दुगुण-गणेहि गोरंतरेहि दुवग्गो तिरियलोगो॥ ३. ति०प०, भाग १, पृ० २२८ ४. ति०प० २, परिशिष्ट प० ६६५ और ६८७-८८ ५८८ / षट्सण्डागम-परिशीलन Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचित नहीं दिखता। यह सम्भव है कि उसकी प्रतियों में कहीं कुछ पाठ स्खलित हो गये हों तथा प्ररूपित विषय के स्पष्टीकरणार्थ उससे सम्बद्ध कुछ सन्दर्भ भी पीछे किन्हीं विद्वानों के द्वारा जोड़ दिये गये हों।' घवला में उसका एक दूसरा उल्लेख जीवस्थान-स्पर्शनानुगम के प्रसंग में किया गया है । ज्योतिषी देव सासादन-सम्यग्दृष्टियों के सूत्र (१, ४, ४) में निर्दिष्ट आठ-बटे चौदह (८/१४) भावप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र के लाने के लिए स्वयम्भूरमण समुद्र के परे राजू के अर्धच्छेद माने गये हैं। इसके प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गई है कि स्वयंम्भूरमण समुद्र के परे राजू के अर्धच्छेद मानने पर "जितनी द्वीप-समुद्रों की संख्या है और जितने जम्बूद्वीप के अर्धच्छेद हैं, राजु के एक अधिक उतने ही अर्धच्छेद होते हैं" इस परिकर्म के साथ विरोध' का प्रसंग प्राप्त होने वाला है। इसके समाधान में धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि उसका उपर्युक्त परिकर्मवचन के साथ तो विरोध होगा, किन्तु ज्योतिषी देवों की संख्या के लाने में कारणभूत दो सौ छप्पन अंगुलों के वर्ग-प्रमाण जगप्रतर के भागहार के प्ररूपक सूत्र (१,२,५५-पु० ३) के साथ उसका विरोध नहीं होगा। इसलिए स्वयम्भूरमण समुद्र के परे राजु के अर्धच्छेदों के प्ररूपक उस व्याख्यान को ग्रहण करना चाहिए, न कि उक्त परिकर्मवचन को; क्योंकि वह सूत्र के विरुद्ध है और सूत्र के विरुद्ध व्याख्यान होता नहीं है, अन्यथा व्यवस्था ही कुछ नहीं रह सकती है। प्रसंग के अन्त में धवलाकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि तत्प्रायोग्य संख्यात रूपों से अधिक जम्बूद्वीप के अर्धच्छेदों से सहित द्वीप-सागरों के रूपों-प्रमाण राजु के अर्धच्छेदों के प्रमाण की यह परीक्षाविधि अन्य आचार्यों के उपदेश की परम्परा का अनुसरण नहीं करती है, वह केवल तिलोयपण्णत्ति-सुत्त का अनुसरण करती है। उसकी प्ररूपणा हमने ज्योतिषी देवों के भागहार के प्ररूपक सूत्र का आलम्बन लेनेवाली युक्ति के बल से प्रकृत गच्छ के साधनार्थ की है। ___ यहाँ यह स्मरणीय है कि धवला में इस प्रसंग से सम्बद्ध जो यह गद्यभाग है वह प्रसंगानुरूप कुछ शब्द-परिवर्तन के साथ प्रायः उसी रूप में तिलोयपण्णत्ती में उपलब्ध होता है। इस को वहां किसी के द्वारा निश्चित ही पीछे जोड़ा गया है। यह उस (तिलोयपण्णत्ती) में किये गये 'केवलं तु तिलोयपण्णत्तिसुत्तानुसारिणी' इस उल्लेख से स्पष्ट है, क्योंकि कोई भी ग्रन्थकार विवक्षित विषय की प्ररूपणा की पुष्टि में अपने ही ग्रन्थ का प्रमाण के रूप में वहाँ उल्लेख नहीं कर सकता है। १३. परियम्म-धवला में इसका उल्लेख अनेक प्रसंगों पर किया गया है। कहीं पर १. इस सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए ति०प० २ की प्रस्तावना पृ० १५-२० और पुरातन जैन वाक्यसूची' की प्रस्तावना पृ०४१-५७ द्रष्टव्य हैं। २. धवला, पु० ४; पृ० १५५-५७ ३. धवला, पु० ४, पृ० १५२-५६ और ति० प० भा० २, पृ. ७६४-६६ ४. यथा-पु० ३, पृ० १६, २४, २५, ३६, १२४, १२७, १३४, २६३, ३३७ व ३३६ । पु० ४, पृ० १५६, १८४ व ३६०। पु०७, पृ० १४५, २८५ व ३७२ । पु० ६, पृ० ४८ व ५६ । पु. १०, पृ० ४८३ । पु० १२, पृ० १५४ । पु० १३, पृ० १८, २६२-६३ व २६६ । पु० १४, पृ० ५४, ३७४ व ३७५ प्रन्योल्लेख / ५८६ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि उसे सर्वाचार्य-सम्मत बतलाकर प्रमाणभूत प्रकट किया गया है, तो कहीं पर उसे सूत्र के विरुद्ध होने से अप्रमाणभूत भी ठहरा दिया गया है। इसी प्रकार कहीं पर उसके आश्रय से विवक्षित विषय की पुष्टि की गई है और कहीं पर उसके विरुद्ध होने से दूसरी मान्यताओं को असंगत घोषित किया गया है । धवला में जो प्रचुरता से उसका उल्लेख किया गया है उसमें पु० ३, पृ० १६ तथा पु० ४, पृ० १८३-८४ व १५५-५६ पर किये गये उसके तीन उल्लेखों को पीछे स्पष्ट किया जा चुका है। शेष उल्लेखों में कुछ को यहाँ स्पष्ट किया जाता है (४) जीव-स्थान-द्रव्य प्रमाणानुगम में सूत्रोक्त नारक-मिथ्यादृष्टियों के द्रव्यप्रमाण को स्पष्ट करते हुए धवला में प्रसंग-प्राप्त असंख्यात के अनेक भेद प्रकट किये गये हैं। आगे यथाक्रम से उनके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उनमें से एक 'गणना' असंख्यात के प्रसंग में यह कह दिया है कि 'जो गणना संख्यात है उसका कथन परिकर्म में किया गया है।' (५) उपर्युक्त द्रव्यप्रमाणानुगम में उन्हीं मिथ्यादृष्टि नारकों के क्षेत्र-प्रमाण को जगप्रतर के असंख्यातवें भाग-मात्र असंख्यात जगश्रेणियां बतलाते हुए उन जगश्रेणियों की विष्कम्भसूची अंगुल के द्वितीय वर्गमूल से गुणित उसके प्रथम वर्गमूल-प्रमाण निर्दिष्ट की गई है। -सूत्र १,२,१७ इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने सूत्र में निर्दिष्ट अंगुलसामान्य से सूच्यंगुल को ग्रहण किया है। इस पर चहाँ यह शंका उठती है कि सूत्र में सामान्य से 'अंगुल का वर्गमूल' ऐसा निर्देश करने पर उससे प्रतरांगुल अथवा घनांगुल के वर्गमूल का ग्रहण कैसे नहीं प्राप्त होता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि वैसा सम्भव नहीं है, क्योंकि "आठ का पुनः-पुनः वर्ग करने पर असंख्यात वर्ग-स्थान जाकर सौधर्म-ऐशान की विष्कम्भ-सूची उत्पन्न होती है, इस विष्कम्भ-सूची का एक बार वर्ग करने पर नारकविष्कम्भ-सूची हो ; उसका एक बार वर्ग करने पर भवनवासी विष्कम्भ-सूची होती है और उसका एक बार वर्ग करने पर घनांगुल होता है" इस परिकर्म के कथन से जाना जाता है कि घनांगुल व प्रतरांगुल के वर्गमूल का यहाँ ग्रहण नहीं होता; किन्तु सूच्यंगुल के वर्गमूल का ही ग्रहण होता है । कारण यह है कि इसके बिना घनांगुल का द्वितीय वर्गमूल बनता नहीं है। (६) जीव-स्थान-कालानुगम में बादर एकेन्द्रियों के उत्कृष्टकाल को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि द्वीन्द्रियादि कोई जीव अथवा सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव बादर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होकर यदि अतिशय दीर्घ काल तक वहाँ रहता है तो वह असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणीउत्सर्पिणीकाल तक ही रहता है, तत्पश्चात् निश्चय से वह अन्यत्र चला जाता है। इस प्रसंग में वहां यह शंका की गई है कि “कर्मस्थिति को आवलि के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर बादर स्थिति होती है" इस प्रकार जो यह परिकर्म में कहा गया है उससे प्रस्तुत सूत्र विरुद्ध जाता है, इसलिए उसे संगत नहीं कहा जा सकता है । इसके उत्तर में धवला कार ने कहा है कि ऐसा कहना उचित नहीं है। कारण यह कि परिकर्म का वह कथन चूंकि १. देखिए पीछे 'षट्खण्डागम पर निर्मित कुछ टीकाओं का उल्लेख' शीर्षक में 'पद्मनन्दी विरचित परिकर्म' शीर्षक । २. धवला, पु० ३, पृ० १३३-३४ ५९० / वखण्डागम-परिशीलन Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र का अनुसरण नहीं करता है, इसलिए वस्तुतः वही असंगत है।' (७) इसी कालानुगम में आगे सूत्रकार द्वारा एक जीव की अपेक्षा बादर पृथिवीकायिक आदि जीवों का उत्कृष्ट काल कर्मस्थिति प्रमाण कहा गया है।-सूत्र १, ५, १४४ उसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने 'कर्मस्थिति' से सब कर्मों की स्थिति को न ग्रहण करके गुरूपदेश के अनुसार एक दर्शनमोहनीय कर्म की ही उत्कृष्ट स्थिति को ग्रहण किया है। क्योंकि उसकी सत्तर कोड़ाकोड़िसागरोपम-प्रमाण उत्कृष्टस्थिति में समस्त कर्मस्थितियां संग्रहीत हैं, इसलिए वही प्रधान है। यहां धवलाकार ने स्पष्ट किया है कि कितने ही आचार्य कर्मस्थिति से चूंकि बादरस्थिति परिकर्म में उत्पन्न है, इसलिए कार्य में कारण का उपचार करके बादर स्थिति को ही कर्मस्थिति स्वीकार करते हैं। पर उनका वैसा मानना घटित नहीं होता है, क्योंकि गौण और मुख्य के मध्य में मुख्य का ही बोध होता है, ऐसा न्याय है । आगे उसे और भी स्पष्ट किया है । तदनुसार बादरस्थिति को कर्मस्थिति स्वीकार करना संगत नहीं है।' (८) क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत एक जीव की अपेक्षा कालानुगम अनुयोगद्वार में यही प्रसंग पुन: प्राप्त हुआ है (सूत्र २, २, ७७)। वहाँ भी धवलाकार ने कर्मस्थिति से सत्तर कोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाणकाल को ग्रहण किया है । यहाँ भी धवलाकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि कुछ आचार्य सत्तर कोड़ाकोडि सागरोपमों को आवलि के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर बादर पृथिवीकायिकादि जीवों की कायस्थिति होती है, ऐसा कहते हैं। उनके द्वारा निर्दिष्ट यह 'कर्मस्थिति' नाम कारण में कार्य के उपचार से है। इस पर यह पूछने पर कि ऐसा व्याख्यान है, यह कैसे जाना जाता है, उत्तर में कहा गया है कि इस प्रकार के व्याख्यान के बिना चूंकि “कर्मस्थिति को आवलि के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर बादरस्थिति होती है" यह परिकर्म का कथन बनता नहीं है, इसी से जाना जाता है कि वैसा व्याख्यान है।' (६) इसी क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत द्रव्यप्रमाणानुगम में सूत्रकार द्वारा अकषायी जीवों का द्रव्यप्रमाण अनन्त कहा गया है।-सूत्र २, ५, ११६-१७ इस प्रसंग में यह पूछने पर कि अकषायी जीवराशि का यह अनन्त प्रमाण नौ प्रकार के अनन्त में से कौन से अनन्त में है, धवलाकार ने कहा है कि वह अजघन्य-अनुत्कृष्ट अनन्त में है, क्योंकि जहाँ-जहाँ अनन्तानन्त की खोज की जाती है वहाँ-वहाँ अजघन्य-अनुत्कृष्ट अनन्तानन्त को ग्रहण करना चाहिए, ऐसा परिकर्म वचन है।" (१०) उपर्युक्त क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत स्पर्शनानुगम में प्रथम पृथिवी के नारकियों का स्पर्शन-क्षेत्र, स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद पदों की अपेक्षा लोक का असंख्यातवाँ भाग निर्दिष्ट किया गया है। सूत्र २,७,६-७ इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि प्रथम पृथिवी के नारकियों द्वारा अतीत काल में मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदों की अपेक्षा तीन लोकों का असंख्यातवाँ भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवाँ भाग और अढाई द्वीप से असंख्यात गुणा क्षेत्र स्पर्श किया गया है। १. धवला, पु० ४, पृ० ३८६-६० २. धवला, पु० ४, पृ० ४०२-३ ३. धवला, पु० ७, पृ० १४५ ४. धवला, पु० ७,१० २८५ प्रन्थोल्लेख | ५९१ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रसंग में धवलाकार ने गुरु के उपदेशानुसार तिर्यग्लोक का प्रमाण एक राज विष्कम्भवाला, सात राजु आयत और एक लाख योजन बाहल्यवाला कहा है। आगे, पूर्व के समान, उन्होंने यहां भी यह स्पष्ट कर दिया है कि जो आचार्य उस तिर्यग्लोक को एक लाख योजन बाहत्य वाला और एक राजु विस्तृत झालर के समान (गोल) कहते हैं उनके अभिमतानुसार मारणान्तिक क्षेत्र और उपपाद क्षेत्र तिर्यग्लोक से साधिक ठहरते हैं। पर वह घटित नहीं होता, क्योंकि उनके इस उपदेश के अनुसार लोक में तीन सौ तेतालीस घनराजु की उत्पत्ति नहीं बनती। वे उतने धनराजु असिद्ध नहीं हैं, क्योंकि वे "सात से गुणित राजु-प्रमाण जगश्रेणि, जगश्रेणि का वर्ग जगप्रतर और जगश्रेणि से गुणित जगप्रतर प्रमाणलोक (१४७४७४७ = ३४३) होता है" इस समस्त आचार्य-सम्मत परिकर्म से सिद्ध है।' (११) वेदनाखण्ड के अन्तर्गत 'कृति' अनुयोग द्वार के प्रारम्भ में आचार्य भूतबलि ने विस्तृत मंगल किया है। उस प्रसंग में उन्होंने बीजबुद्धि ऋद्धि के धारकों को भी नमस्कार किया है। -सूत्र ४, १, ७ उसकी व्याख्या में धवलाकार ने बीजबुद्धि के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि जो बुद्धि संख्यात पदों के अनन्त अर्थ से सम्बद्ध अनन्त लिंगों के आश्रय से बीजपद को जानती है, उसे बीजबुद्धि कहा जाता है । इस पर वहाँ यह शंका की गयी है कि बीजबुद्धि अनन्त अर्थ से सम्बद्ध अनन्त लिंगों से युक्त बीजपद को नहीं जानती है, क्योंकि वह क्षायोपशमिक है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि ऐसा नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार क्षायोपशमिक परोक्षश्रुतज्ञान केवलज्ञान के विषयभूत अनन्त पदार्थों को परोक्ष रूप से ग्रहण करता है, उसी प्रकार मतिज्ञान भी सामान्य रूप से अनन्त पदार्थों को ग्रहण करता है, इसमें कुछ विरोध नहीं है। इस पर यहाँ पुनः यह शंका की गयी है कि यदि श्रुतज्ञान का विषय अनन्त संख्या है तो परिकर्म में जो यह कहा गया है कि चौदह पूर्वो के धारक का विषय उत्कृष्ट संख्यात है, वह कैसे घटित होगा। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि यह कुछ दोष नहीं है, क्योंकि चतुर्दशपूर्वी उत्कृष्ट संख्यात को ही जानता है, ऐसा वहाँ नियम निर्धारित नहीं किया गया है। धवलाकार का यह समाधान उनको समन्वयात्मक बुद्धि का परिचायक है। (१२) वेदना-द्रव्यविधान-चूलिका में योगस्थानगत स्पर्धकों के अल्पबहुत्व के प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गई है कि जघन्य स्पर्धक के अविभागप्रतिच्छेदों का जघन्य योगस्थान १ धवला, पु० ७, पृ० ३७१-७२ २. जदि सुदणाणिस्स विसओ अणंतसंखा होदि तो जमुक्कस्ससंखेनं विसओ चोद्दस्सपुन्वि स्सेत्ति परियम्मे उत्तं तं कधं घडदे ?-धवला, पु. ६, पृ०५६ । अइया जं संखाणं पंचिंदियविसनो तं संखेज्जं णाम । तदो उवरि जं ओहिणाणविसओ तमसंखेज्ज णाम । तदो उवरि जं केवलणाणस्सेव विसओ तमणतं णाम । -धवला, पु० ३, पृ० २६७-६८ त (अजहण्णमणुक्कस्ससंखेज्जयं) कस्स विसओ? चोद्दस पुव्विस्स । ति०प० १, पृ० १८०; अजहण्णमक्कस्सासंखेज्जासंखेज्जयं कस्स विसओ? ओधिणाणिस्स । ति०प० १, पृ० १८२; अजहण्णमणुक्कस्स अणंताणतयं कस्य विसओ? केवलणाणिस्स । ति० ५० १, पृ० १८३ ३. धवला पु० ६, ५५-५७ (इसके पूर्व पृ० ४८ पर भी परिकर्म का एक उल्लेख द्रष्टव्य है) ५९२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के प्रविभागप्रतिच्छेदों में भाग देने पर निरग्र होकर सिद्ध होता है, यह कैसे जाना जाता है । इसका समाधान करते हुए धवला में कहा गया है कि जघन्य स्पर्धक और जघन्य योगस्थान इनके अविभागप्रतिच्छेदों में चूंकि कृतयुग्मता' देखी जाती है, इसीसे जाना जाता है जघन्य स्पर्धक के अविभागप्रतिच्छेदों का जघन्य योगस्थान के अविभागप्रतिच्छेदों में भाग देने पर निरग्र होकर सिद्ध होता है । उस कृतयुग्मता का ज्ञान अल्पबहुत्वदण्डक से होता है, यह कहते हुए आगे धवला में उस अल्पबहुत्व को प्रस्तुत किया गया है । और अन्त में कहा गया है कि ये योगाविभागप्रतिच्छेद परिकर्म में वर्ग समुत्थित कहे गये हैं । इन योगाविभाग प्रतिच्छेदों को पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र योगगुणकार से अपवर्तित करने पर जघन्य योगस्थान के अविभाग-प्रतिच्छेद होते हैं । वे भी कृतयुग्म हैं । 2 (१३) वेदनाभावविधान अनुयोगद्वार में संख्यात भागवृद्धि पूछने पर सूत्रकार ने कहा है कि वह एक कम जघन्य असंख्यात की -सूत्र ४, २, ७,२०७-८ इसकी व्याख्या करते हुए उस प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गई है कि सूत्र में सीधे 'उत्कृष्ट संख्यात न कहकर एक कम जघन्य असंख्यात' ऐसा क्यों कहा गया है। इससे सूत्र में जो लाघव रहना चाहिए, वह नहीं रहा । प्रमाण के साथ संख्यात इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि उत्कृष्ट संख्यात के भागवृद्धि के प्रमाण की प्ररूपणा के लिए सूत्र में वैसा कहा गया है। यदि कहा जाय कि उत्कृष्ट संख्यात का प्रमाण तो परिकर्म से अवगत है तो ऐसा कहना योग्य नहीं है, क्योंकि परिकर्म के सूत्ररूपता नहीं है । अथवा आचार्य के अनुग्रह से पदरूप से निकले हुए उस सबके इस से पृथक होने का विरोध है । इसलिए उससे उत्कृष्ट संख्यात का प्रमाण सिद्ध नहीं होता है । (१४) वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'स्पर्श' अनुयोगद्वार में देशस्पर्श के प्रसंग में शंकाकार ने यह अभिप्राय प्रकट किया है कि यह देशस्पर्श स्कन्ध के अवयवों में ही होता है, परमाणु पुद्गलों के नहीं होता, क्योंकि वे अवयवों से रहित हैं । इस अभिप्राय को असंगत बतलाते हुए धवला में कहा गया है कि परमाणुओं की निरवयवता असिद्ध है । इस पर शंकाकार ने कहा है कि परमाणुओं की निरवयवता असिद्ध नहीं है, क्योंकि "अपदेसं शेव इंदिए गेज्सं" अर्थात् परमाणु प्रदेशों से रहित होता हुआ इन्द्रिय से ग्रहण करने योग्य नहीं है, यह कहकर परिकर्म में उसकी निरवयवता को प्रकट किया गया है। I १. जिस संख्या में ४ का भाग देने पर शेष कुछ न रहे, उसे कृतयुग्म कहा जाता है । जैसे१६ (१६ ÷ ४= ४) | देखिये पु० १०, पृ० २२-२३ २. धवला, पु० १०, पृ० ४८२-८३ ३. धवला, पु० १२, पृ० १५४ ४. अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं णेव इंदिए गेज्झं । अविभाग जं दव्वं परमाणुं तं वियाणाहि ।। किस वृद्धि से होती है, यह वृद्धि से होती है । अंतादि-मज्झहीणं अपदेसं इंदिएहि ण जं दव्वं अविभत्तं तं परमाणु कहति जिणा ॥ - नि० सा० २६ (स० सि० २ २५ में उद्धृत ) गेज्झं । ति० प० १-६८ ग्रन्थोलेख / ५६३ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसका निराकरण करते हुए धवला में कहा गया है कि 'अपदेश' का अर्थ निरवयव नहीं है। यथा-प्रदेश नाम परमाणु का है, वह जिस परमाणु में समवेत रूप से नहीं रहता है, उस परमाणु को परिकर्म में अप्रदेश कहा गया है। आगे धवलाकार ने परमाणु को स्कन्ध की अन्यथानुपपत्ति रूप हेतु से सावयव सिद्ध किया है।' (१५) आगे 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में प्रसंग-प्राप्त बीस प्रकार के श्रुतज्ञान की प्ररूपणा करते हुए धवला में लब्ध्यक्षर ज्ञान के प्रसंग में यह कहा गया है कि उसमें सब जीवराशि का भाग देने पर सब जीवराशि से अनन्त गुणे ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद आते हैं। ___इस प्रसंग में वहाँ यह पूछा गया है कि लब्ध्यक्षर ज्ञान सब जीवराशि से अनन्त गुणा है, यह कहाँ से जाना जाता है । इसके उत्तर में यह कहकर, कि वह परिकर्म से जाना जाता है, आगे धवला में प्रसंग-प्राप्त परिकर्म के उस सन्दर्भ को उद्धृत भी कर दिया गया है। (१६) यहीं पर आगे काल की अपेक्षा अवधिज्ञान के विषय के प्रसंग में सूत्रकार ने समय व आवलि आदि कालभेदों को ज्ञातव्य कहा है।-सूत्र ५, ५, ५६ इसकी व्याख्या के प्रसंग में क्षण-लव आदि के स्वरूप को प्रकट करते हुए धवलाकार ने स्तोक को क्षण कहकर उसे संख्यात आवलियों का प्रमाण कहा है और उसकी पुष्टि "संख्यात आवलियों का एक उच्छ्वास और सात उच्छ्वासों का एक स्तोक होता है" इस परिकर्मवचन से की है। (१७) पूर्वोक्त वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में वर्गणाप्ररूपणा के प्रसंग में धवलाकार ने एकप्रदेशिक परमाणुपुद्गल द्रव्यवर्गणा को परमाणु स्वरूप कहा है। इस पर वहाँ यह शंका उठायी गयी है कि परमाणु तो अप्रत्यक्ष है, क्योंकि वह इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने के योग्य नहीं है। इसलिए यहाँ सूत्र (५, ६, ७६) में जो उसके लिए 'इमा' अर्थात् 'यह' ऐसा प्रत्यक्ष निर्देश किया गया है वह घटित नहीं होता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि आगम-प्रमाण से उसका प्रत्यक्ष बोध सिद्ध है, इस प्रकार उसके प्रत्यक्ष होने पर उसके लिए सूत्र में 'इमा' पद के द्वारा जो प्रत्यक्ष-निर्देश किया गया है, वह संगत है। * इस पर वहाँ पुनः यह शंका की गई है कि परिकर्म में परमाणु को 'अप्रदेश' कहा गया है, पर यहाँ उसको एक प्रदेशवाला कहा जा रहा है। इस प्रकार इन दोनों सूत्रों में विरोध कैसे न होगा। इसके उत्तर में धवला में कहा गया है कि यह कुछ दोष नहीं है, क्योंकि परिकर्म में 'अप्रदेश' कहकर एक प्रदेश के अतिरिक्त द्वितीयादि प्रदेशों का प्रतिषेध किया गया है। कारण यह है कि 'न विद्यन्ते द्वितीयादयः प्रदेशा यस्मिन् सोऽप्रदेशः परमाणुः' इस निरुक्ति के अनुसार जो द्वितीय-आदि प्रदेशों से रहित होता है उसका नाम परमाणु है, यह परिकर्म में उसका अभि प्राय प्रकट किया गया है। यदि उसे प्रदेश से सर्वथा रहित माना जाय, तो खरविषाण के समान उसके अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है । १. धवला, पु० १३, पृ० १५-१६ २. धवला, पु० १३, पृ० २६२-६३ ३. धवला, पु० १३, पृ० २६६ ४. धवला, पु० १४, पृ० ५४-५५; आगे यहाँ पृ० ३७४-७५ पर भी परिकर्म का अन्य उल्लेख द्रष्टव्य है। ५६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. पंचत्यिपाहुड-आचार्य कुन्दकुन्द-विरचित पंचत्थिपाहुड (पंचास्तिप्राभृत) यह पाँच अस्तिकाय द्रव्यों का प्ररूपक एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। उसका उल्लेख धवला में इस प्रकार किया गया (१) जीवस्थान-कालानुगम में कालविषयक निक्षेप की प्ररूपणा करते हुए धवला में तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकाल के प्रसंग में धुत्तं च पंचत्थिपाहुडे ववहारकालस्स अस्थित्तं' इस प्रकार ग्रन्थनामनिर्देशपूर्वक उसकी "कालोत्तिय ववएसो" आदि और "कालो परिणामभवो" आदि इन दो गाथाओं को विपरीत क्रम से (१०१ व १००) उद्धृत किया गया है।' (२) आगे वेदनाकालविधान अनुयोगद्वार में तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्र व्यकाल को प्रधान और अप्रधान के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। उनमें प्रधान द्रव्यकाल के स्वरूप का निर्देश करते हुए धवला में कहा गया है कि शेष पांच द्रव्यों के परिणमन का हेतुभूत जो रत्नराशि के समान प्रदेशसमूह से रहित लोकाकाश के प्रदेशों प्रमाण-काल है, उसका नाम प्रधान द्रव्यकाल है। वह अमूर्त व अनादिनिधन है। उसकी पुष्टि में आगे 'उक्तं च' इस सूचना के साथ ग्रन्थनामनिर्देश के बिना पंचास्तिकाय की उपर्युक्त दोनों (१०० व १०१) गाथाओं को यथाक्रम से वहां उद्धृत किया गया है ।। विशेषता यह है कि यहां इन दोनों गाथाओं के मध्य में अन्य दो गाथाएं भी उद्धृत हैं, जो गो०जी० में भी ५६६-५८८ गाथाओं में उपलब्ध होती हैं। (३) पूर्वोक्त जीवस्थान-कालानुगम में उसी कालविषयक निक्षेप के प्रसंग में धवलाकार ने द्रव्यकालजनित परिणाम को नोआगमभावकाल कहा है। इस पर वहाँ यह शंका की गयी है कि पुद्गलादि द्रव्यों के परिणाम को 'काल' नाम से कैसे व्यवहृत किया जाता है। इसके उत्तर में वहां कहा गया है कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उसे जो 'काल' नाम से व्यवहृत किया जाता है वह कार्य में कारण के उपचार से किया जाता है। इसकी पुष्टि में वहां 'वुत्तं च पंचस्थिपाहुडे ववहारकालस्स अत्थित्तं' ऐसी सूचना करते हुए पंचास्तिकाय की २३, २५ और २६ इन तीन गाथाओं को उद्धृत किया गया है। (४) जीवस्थान सत्प्ररूपणा में प्रस्तुत षट्खण्डागम का पूर्वश्रुत से सम्बन्ध दिखलाते हुए स्थानांग के प्रसंग में धवला में कहा गया है कि वह ब्यालीस हजार पदों के द्वारा एक को आदि लेकर उत्तरोत्तर एक-एक अधिक के क्रम से स्थानों का वर्णन करता है। आगे वहाँ 'तस्सोदाहरणं ऐसा निर्देश करते हुए ग्रन्थनाम-निर्देश के बिना पंचास्तिकाय की ७१ व ७२ इन दो गाथाओं को उद्धृत किया गया है। । ये दोनों गाथाएँ आगे इसी प्रसंग में धवलाकार द्वारा 'कृति' अनुयोगद्वार में पुनः उद्धृत हैं । विशेषता वहाँ यह रही है कि स्थानांग के स्वरूप में एक को आदि लेकर उत्तरोत्तर एक-एक अधिक के क्रम से जीवादि पदार्थों के दस-दस स्थानों की प्ररूपणा का उल्लेख किया गया है। १. धवला, पु० ४, पृ० ३१७ २. धवला, पु० ११, पृ०७५-७६ ३. धवला, पु० ४, पृ० ३१७ ४. धवला, पु० १, पृ० १०० ५. धवला. पु० ६, पृ० १६८ ग्रन्थोल्लेख/ ५६५ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) उपर्युक्त कृति अनुयोगद्वार में नयप्ररूपणा के प्रसंग में धवला में द्रव्याथिकनय के ये तीन भेद निर्दिष्ट किये गये है-नैगम, संग्रह और व्यवहार । इनमें संग्रहनय के स्वरूप को प्रकट करते हुए वहाँ कहा गया कि जो पर्यायकलंक से रहित होकर सत्ता आदि के आश्रय से सबकी अद्वैतता का निश्चय करता है-सबको अभेद रूप में ग्रहण करता है-वह संग्रहनय कहलाता है, वह शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। आगे वहाँ 'अत्रोपयोगी गाहा' इस निर्देश के साथ ग्रन्थनामोल्लेख के बिना पंचास्तिकाय की "सत्ता सव्वपयत्था" आदि गाथा को उद्धृत किया गया है।' (६) वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'स्पर्श' अनुयोगद्वार में द्रव्यस्पर्श के प्रसंग में पुद्गलादि द्रव्यों के पारस्परिक स्पर्श को दिखलाते हुए धवला में :एत्थुव उज्जतीओ गाहाओ' ऐसी सूचना करके "लोगागासपदेसे एक्कक्के' आदि गाथा के साथ पंचास्तिकाय की "खधं सयलसमत्थं" गाथा को उद्धृत किया गया है। विशेष इतना कि यहाँ 'परमाणू चेव अविभागी' के स्थान में 'अविभागी जो स परमाणु' पाठ-भेद है ।' १५. पिडिया--जीवस्थान-सत्प्ररूपणा में आलाप-प्ररूपणा के प्रसंग में लेश्यामार्गणा के आश्रय से पद्मलेश्या वाले संयतासंयतों में आलापों को स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने उनके द्रव्य से छहों लेश्याओं और भाव से एक पद्मलेश्या की सम्भावना प्रकट की है। इस प्रसंग में वहाँ आगे 'उक्तं च पिडियाए' इस निर्देश के साथ यह गाथा उद्धृत की गयी है: लेस्सा य दव्वभावं कम्म णोकम्ममिस्सियं दव्वं । जीवस्स भावलेस्सा परिणामो अप्पणो जो सो।। यह 'पिडिया' नाम का कौन सा ग्रन्थ रहा है व किसके द्वारा वह रचा गया है, यह अन्वेषणीय है। वर्तमान में इस नाम का कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। सम्भव है, वीरसेनाचार्य के समक्ष वह रहा हो। १६. पेज्जदोसपाहुड---यह कसायपाहुड का नामान्तर है। आचार्य गुणधर के उल्लेखानसार पांचवें ज्ञानप्रवादपूर्व के अन्तर्गत दसवें 'वस्तु' नामक अधिकार के तीसरे प्राभूत का नाम पेज्जदोस है। इसी का दूसरा नाम कसायपाहुड है। धवला में प्रस्तुत षट्खण्डागम का पूर्वश्रुत से सम्बन्ध प्रकट करते हुए उस प्रसंग में कहा गया है कि लोहार्य के स्वर्गस्थ हो जाने पर आचार (प्रथम अंग) रूप सूर्य अस्तंगत हो गया। इस प्रकार भरत क्षेत्र में बारह अंगों रूप सूर्यों के अस्तंगत हो जाने पर शेष आचार्य सब अंगपूर्वो के एकदेशभूत पेज्जदोस और महाकम्मपयडिपाहुंड आदि के धारक रह गये । १७. महाफम्मपडिपाहुड--प्रस्तुत षट्खण्डागम इसी महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के उपसंहार १. धवला, पु. ६, पृ० १७०-७१ २. धवला, पु १३, पृ० १३, (यह गाथा मूलाचार (५-३४) और तिलोयपण्णत्ती (१-६५) में उपलब्ध होती है। ३. धवला, पु० २, पृ० ७८८ ४. पुवम्मि पंचमम्मि दु दसमे वत्थुम्मि पाहुडे तदिए। पेज् ति पाहुडम्मि दु हवदि कसायाण पाहुडं णाम ||--क० पा० १ ५. धवला, पु० ६, पृ० १३३ ५६६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरूप है, यह पूर्व में कहा जा चुका है। इसका उल्लेख धवला में कई प्रसंगों पर किया गयां है। जैसे (१) आचार्य भूतबलि ने प्रस्तुत षट्खण्डागम के चतुर्थ खण्डस्वरूप 'वेदना' के प्रारम्भ में विस्तृत मंगल किया है। सर्वप्रथम उन्होंने 'गमो जिणाणं' इस प्रथम सूत्र के द्वारा सामान्य से 'जिनों' को नमस्कार किया है। तत्पश्चात् विशेष रूप से उन्होंने 'अवधिजिनों' आदि को नमस्कार किया है। ___ इसी प्रसंग में आगे 'णमो ओहिजिणाणं' इस सूत्र (२) की उत्थानिका में धवलाकार कहते हैं कि इस प्रकार गौतम भट्टारक महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के आदि में द्रव्याथिक जनों के अनुग्रहार्थ नमस्कार करके पर्यायाथिकनय का आश्रय लेनेवाले जनों के अनुग्रहार्थ आगे के सूत्रों को कहते हैं।' (२) ऊपर 'पेज्जवोस' के प्रसंग में 'महाकम्मपडिपाहुड' का भी उल्लेख हुआ है । (३) वेदनाद्रव्यविधान में पदमीमांसा के प्रसंग में "ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्य की अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है, क्या अनुत्कृष्ट होती है, क्या जघन्य होती है और क्या अजघन्य होती है" इस पृच्छा सूत्र (४, २, ४, २) की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने उसे देशामर्शक सूत्र बतलाकर यह कहा है कि यहाँ अन्य नौ पृच्छाएं करनी चाहिए, क्योंकि इनके बिना सूत्र के असम्पूर्णता का प्रसंग आता है । पर भूतबलि, भट्टारक जो महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के पारंगत रहे हैं, असम्पूर्ण सूत्र की रचना नहीं कर सकते हैं।' (४) इसी वेदनाद्रव्यविधान में ज्ञानावरणीय की जघन्य द्रव्यवेदना के स्वामी की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में सूत्र में कहा गया है कि वह बहुत-बहुत बार जघन्य योग स्थानों को प्राप्त होता है। सूत्र ४,२,४,५४ ___ इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने कहा है कि सूक्ष्म निगोद जीवों में जघन्य योगस्थान भी होते हैं और उत्कृष्ट भी होते हैं। उनमें वह प्राय: जघन्य योगस्थानों में परिणत होकर ही उसे बांधता है । पर उनके असम्भव होने पर वह उत्कृष्ट योगस्थान को भी प्राप्त होता है। ___इस प्रसंग में वहाँ यह पूछा गया है कि वह जघन्य योग से ही उसे क्यों बाँधता है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि स्तोक कर्मों के आगमन के लिए वह जघन्य योग से बांधता है। आगे इस प्रसंग में यह पूछने पर कि स्तोक योग से कर्म स्तोक आते हैं, यह कैसे जाना जाता है; उत्तर में कहा गया है कि द्रव्यविधान में जघन्य योगस्थानों की जो प्ररूपणा की गयी है वह चूंकि इसके बिना घटित नहीं होती है, इसी से जाना जाता है कि स्तोक योग से कर्म स्तोक आते हैं । कारण यह कि महाकर्मप्रकृतिप्राभूत रूप अमृत के पान से जिनका समस्त राग, द्वेष और मोह नष्ट हो चुका है वे भूतबलि भट्टारक असम्बद्ध प्ररूपणा नहीं कर सकते हैं। (५) स्पर्श अनुयोग द्वार से तेरह स्पर्शभेदों की प्ररूपणा के पश्चात् सूत्रकार ने वहाँ कर्म १. धवला, पु. ६, पृ० १२ २. धवला, पु० १०, पृ०२० ३. धवला, पु० १३, पृ० २७४-७५ ग्रन्थोल्लेख / ५९७ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्श को प्रकत कहा है। -सूत्र ५, ३, ३३ इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने स्पष्ट किया है कि अध्यात्म-विषयक इस खण्ड ग्रन्थ की अपेक्षा यहाँ कर्मस्पर्श को प्रकृत कहा गया है। किन्तु महाकर्मप्रकृतिप्राभूत में द्रव्य स्पर्श, सर्वस्पर्श और कर्मस्पर्श ये तीन प्रकृत रहे हैं।' (६) 'कर्म' अनुयोगद्वार में सूत्र कार द्वारा जिन कर्मनिक्षेप व कर्मनयविभाषणता आदि १६ अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा गया है (सूत्र ५, ४, २) उनमें उन्होंने प्रारम्भ के उन दो अनयोगद्वारों की ही प्ररूपणा की है, शेष कर्मनामविधान आदि १४ अनुयोगद्वारों की उन्होंने प्ररूपणा नहीं की हैं। उन शेष १४ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा वहाँ धवलाकार ने की है। इस प्रसंग में वहां यह शंका उठी है कि उपसंहारकर्ता ने उनकी प्ररूपणा स्वयं क्यों नहीं की है। उत्तर में धवलाकार कहा है कि पुनरुक्तिदोष के प्रसंग को टालने के लिए उन्होंने उनकी प्ररूपणा नहीं की है। इस पर वहां पुनः यह शंका की गयी है तो फिर महाकर्मप्रकृतिप्राभूत में उन अनुयोगद्वारों के द्वारा उस कर्म की प्ररूपणा किसलिए की गयी है। ७) बन्धनअनुयोगद्वार में वर्गणाओं की प्ररूपणा करते हुए 'वर्गणाद्रव्यसमुदाहार' के प्रसंग में जिन वर्गणाप्ररूपणा व वर्गणानिरूपणा आदि १४ अनुयोगद्वारों का सूत्र (७५) में उल्लेख किया गया है, उनमें सूत्रकार द्वारा प्रथम दो अनुयोगद्वारों को ही प्ररूपणा की गई है, शेष वर्गणाध्र वाधवानुगम आदि १२ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा उन्होंने नहीं की है। - इस पर उस प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गई है कि सूत्र कार ने चौदह अनुयोगवारों में दो अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करके शेष बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा किसलिए नहीं की है । अजानकार होते हुए उन्होंने उनकी प्ररूपणा न की हो, यह तो सम्भव नहीं है। क्योंकि चौबीस अनुयोगद्वारों स्वरूप महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के पारगामी भूतबलि भगवान् के तद्विषयक ज्ञान के न रहने का विरोध है। १८. मलतंत्र-वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'कर्म' अनुयोगद्वार में सूत्रकार ने अन्त में यह निर्देश किया है कि उक्त दस कर्मों में यहाँ 'समवदानकर्म' प्रकृत है। -सूत्र ५,४,३१ इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि समवदानकर्म यहां इस लिए प्रकृत है कि 'कर्म' अनुयोगद्वार में उसी की विस्तार से प्ररूपणा की गई है। अथवा संग्रहनय की अपेक्षा सत्र में वैसा कहा गया है। मूलतंत्र में तो प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अधःकर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्म इनकी प्रधानता रही है, क्योंकि वहाँ इन सबकी विस्तार से प्ररूपणा की है। 'मूलतंत्र' यह कोई स्वतंत्र ग्रन्थ रहा है, ऐसा तो प्रतीत नहीं होता । सम्भवत: धवलाकार का अभिप्राय उससे महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के अन्तर्गत चौबीस अनुयोगद्वारों में से 'कर्म' अनुयोगद्वार (चतुर्थ) का रहा है । पर उसमें भी यह विचारणीय प्रश्न बना रहता है कि वह धवला १. धवला, पु० १३, पृ० ३६ २. धवला, पु० १३, पृ० १६६ ३. धवला, पु० १४, पृ० १३४ ४, धवला, पु० १३, पृ० ६० ५६८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार के समक्ष तो नहीं रहा । तब उन्होंने यह कैसे समझा कि उसमें इन कर्मों की विस्तार से प्ररूपणा की गयी है । हो सकता है कि परम्परागत उपदेश के अनुसार उनको तद्विषयक परिज्ञान रहा हो । यहाँ यह स्मरणीय है कि धवलाकार ने ग्रन्थकर्ता के प्रसंग में वर्धमान भट्टारक को मूलकर्ता गौतमस्वामी को अनुतंत्र कर्ता और भूतबलि पुष्पदन्त आदि को उपतंत्र कर्ता कहा है ।" १६. विवाहपण्णत्तिसुत - - धवला में इसका उल्लेख दो प्रसंगों पर किया गया है (१) जीवस्थान- द्रव्यप्रमाणानुगम में सूत्रकार द्वारा क्षेत्र की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवराशि का द्रव्यप्रमाण अनन्तानन्त लोक निर्दिष्ट किया गया है । – सूत्र १,२,४ इसकी व्याख्या में लोक के स्वरूप को प्रकट करते हुए उस प्रसंग में तिर्यग्लोक की समाप्ति कहाँ हुई है, यह पूछा गया है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि उसकी समाप्ति तीन वातवयों के बाह्य भाग में हुई है । इस पर यह पूछने पर कि वह कैसे जाना जाता है, धवलाकार ने कहा है कि वह "लोगोवादपदिट्ठिदो" इस व्याख्याप्रज्ञप्ति के कथन से जाना जाता है । " (२) वेदनाद्रव्यविधान में द्रव्य की अपेक्षा उत्कृष्ट आयुवेदना के स्वामी की प्ररूपणा के प्रसंग में यह कहा गया है कि जो क्रम से काल को प्राप्त होकर पूर्वकोटि आयुवाले जलचर जीवों में उत्पन्न हुआ है। सूत्र ४,२,४,३६ यहाँ सूत्र में जो क्रम से काल को प्राप्त होकर' ऐसा कहा गया है, उसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि परभव-सम्बन्धी आयु के बँध जाने पर पीछे भुज्यमान आयु का कदलीघात नहीं होता है, यह अभिप्राय प्रकट करने के लिए 'क्रम से काल को प्राप्त होकर' यह कहा गया है । इस पर वहाँ यह शंका की गई है कि परभव-सम्बन्धी आयु को बाँधकर भुज्यमान आयु के घातने में क्या दोष है । इसके उत्तर में धवला में कहा गया है कि वैसी परिस्थिति में जिसकी भुज्यमान आयु निर्जीर्ण हो चुकी है और परभव-सम्बन्धी आयु का उदय नहीं हुआ है, ऐसे जीव के चारों गतियों के बाहर हो जाने के कारण अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है । यही उसमें दोष है । ..... इस पर शंकाकार कहता है कि वैसा स्वीकार करने पर "जीवाणं भंते ! कदिभागावसेससि आउगंसि इस व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के साथ विरोध कैसे न होगा। इसके उत्तर धवलाकार ने कहा है कि आचार्यभेद से भेद को प्राप्त वह व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र इससे भिन्न है । अतः इससे उसकी एकता नहीं हो सकती । ३ यहाँ व्याख्याप्रज्ञप्ति से धवलाकार को क्या अभिप्रेत रहा है, यह विचारणीय है (१) बारह अंगों में व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम का पाँचवाँ अंग रहा है । उसमें क्या जीव है, क्या जीव नहीं है, इत्यादि साठ हजार प्रश्नों का व्याख्यान किया गया है। (२) दूसरा व्याख्याप्रज्ञप्ति श्रुत बारहवें दृष्टिवाद अंग के परिकर्म व सूत्र आदि पाँच १. धवला, पु० १, पृ० ७२ २. धवला, पु० ३, पृ० ३४-३५ ३. धवला, पु० १०, पृ० २३७-३८ ४. धवला, पु० १, पृ० १०१ ग्रन्थोल्लेख / ५६ε Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थाधिकारों में जो परिकर्म नाम का प्रथम अर्थाधिकार रहा है उसके चन्द्रप्रज्ञप्ति - सूर्य प्रज्ञप्ति आदि पाँच भेदों में अन्तिम है । उसमें रूपी अजीव द्रव्य, अरूपी अजीव द्रव्य तथा भव्यसिद्धिक व अभव्यसिद्धिक जीवराशि की प्ररूपणा की गयी है । " दिगम्बर- मान्यता के अनुसार उपर्युक्त दोनों प्रकार का व्याख्याप्रज्ञप्ति श्रुत लुप्त हो चुका है । (३) तीसरा व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र, जिसका दूसरा नाम भगवतीसूत्र भी है, वर्तमान में श्वेताम्बर सम्प्रदाय में उपलब्ध है । ग्रन्थप्रमाण में वह पन्द्रह हजार श्लोक प्रमाण है । इसमें नरक, स्वर्ग, इन्द्र, सूर्य और गति आगति आदि अनेक विषयों की प्ररूपणा की गई है। * I धवला में प्रसंगप्राप्त इस व्याख्याप्रज्ञप्ति के सन्दर्भ को मैंने यथावसर उसके अनुवाद के समय वर्तमान में उपलब्ध इस व्याख्याप्रज्ञप्ति में खोजने का प्रयत्न किया था । किन्तु उस समय वह मुझे उसमें उपलब्ध नहीं हुआ था । पर सन्दर्भगत वाक्यविन्यास की पद्धति और धवलाकार के द्वारा किये गये समाधान को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि वह वहाँ कहीं पर होना चाहिए । इस समय मेरे सामने उसका कोई संस्करण नहीं है, इसलिए उसे पुनः वहाँ खोजना शक्य नहीं हुआ । २०. सम्मइसुत्त - आचार्य सिद्धसेन दिवाकर विरचित प्राकृत गाथामय सन्मतिसूत्र दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में समान रूप से प्रतिष्ठित है। इसमें तीन काण्ड हैं- नयकाण्ड, जीवकाण्ड और तीसरा अनिर्दिष्टनाम । इनमें से प्रथम काण्ड में नय का और द्वितीय काण्ड में ज्ञान व दर्शन का विचार किया गया है। तीसरे काण्ड में सामान्य व विशेष का विचार करते हुए तद्विषयक भेदकान्त और अभेदेकान्त का निराकरण किया गया है। धवला में उसका उल्लेख ग्रन्थनाम-निर्देशपूर्वक दो प्रसंगों पर किया गया है । यथा (१) धवला में मंगलविषयक प्ररूपणा विस्तार से की गयी है । वहाँ उस प्रसंग में कौन किन निक्षेपों को विषय करते हैं, इसका विचार करते हुए यह कहा गया है कि नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन नय सब निक्षेपों को विषय करते हैं । इस पर वहाँ यह शंका की गयी है कि सन्मतिसूत्र में जो यह कहा गया है कि नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीन निक्षेप द्रव्यार्थिकनय के विषयभूत हैं, किन्तु भावनिक्षेप पर्यायप्रधान होने से पर्यायार्थिकनय का विषय है। उसके साथ उपर्युक्त व्याख्यान का विरोध क्यों नहीं होगा । इसका समाधान करते हुए धवला में कहा गया है कि उक्त व्याख्यान का इस सन्मतिसूत्र के साथ कुछ विरोध नहीं होगा । इसका कारण यह है कि सन्मतिसूत्र में क्षणनश्वर पर्याय को भाव स्वीकार किया गया है, परन्तु यहाँ आरम्भ से लेकर अन्त तक रहने वाली वर्तमान स्वरूप व्यंजन पर्याय भाव स्वरूप से विवक्षित है । इसलिए विवक्षा भेद से इन दोनों में कोई विरोध १. धवला, पु० १, पृ० १०६ १० २. यह कई संस्करणों में प्रकाशित है। ३. णामं ठवणा दविए त्ति एस दव्वट्ठियस्स णिक्खेवो । भाव दुपज्जवट्टियपरूवणा एस परमट्ठो ॥ - सन्मति ०१-६ ६०० / षट्खण्डागम- परिशीलन Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने वाला नहीं है। (२) इसी प्रकार का एक अन्य प्रसंग आगे 'कृति' अनुयोगद्वार में पुनः प्राप्त हुआ है। वहाँ सरकार ने कृति के नाम-स्थापनादिरूप सात भेदों का निर्देश करके उनमें कौन नय किन कतियों को विषय करता है, इसे स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि नैगम, व्यवहार और संग्रह ये तीन नय सभी कृतियों को विषय करते हैं, किन्तु ऋजुसूत्रनय स्थापनाकृति को विषय नहीं करता_वह शेष कृतियों को विषय करता है। -सूत्र ४,१,४६-४६ इस प्रसंग में धवला में यह शंका की गयी है कि ऋजुसूत्रनय पर्यायाथिक है, ऐसी अवस्था में वह नाम, द्रव्य, गणना और ग्रन्थ इन कृतियों को कैसे विषय कर सकता है, क्योंकि उसमें हो और यदि वह उन चार कृतियों को विषय करता है तो स्थापनाकृति को भी वह विषय कर ले, क्योंकि उनसे उसमें कुछ विशेषता नहीं है। ___ इसके समाधान में धवला में कहा गया है कि ऋजुसूत्र दो प्रकार का है- शुद्ध ऋजसत्र और अशद्ध ऋजसूत्र । इनमें शुद्ध ऋजुसूत्रनय अर्थपर्याय को विषय करता है। तदनुसार उसका विषय प्रत्येक क्षण में परिणमते हुए समस्त पदार्थ हैं। सादृश्य -सामान्य और तद्भवसामान्य उसके विषय से बहिर्भूत हैं। इसलिए उसके द्वारा भावकृति को छोड़कर अन्य कृतियों को विषय करना सम्भव नहीं है, क्योंकि उनके विषय करने में विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है। इससे भिन्न जो दूसरा अशुद्ध ऋजुसूत्रनय है, वह चक्षु इन्द्रिय की विषयभूत व्यंजनपर्यायों को विषय करता है। उन व्यंजन-पर्यायों का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और छह मास अथवा संख्यात वर्ष है, क्योंकि द्रव्य की प्रधानता से रहित होकर चक्षु इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य उन व्यंजन-पर्यायों का उतने ही काल अवस्थान पाया जाता है।। इस पर वहाँ पुनः यह शंका उठी है कि यदि इस प्रकार का भी पर्यायाथिक नय है तो "पर्यायार्थिक नय की दृष्टि में पदार्थ नियम से उत्पन्न होते हैं और विनष्ट होते हैं, किन्त द्रव्याथिक नय की दष्टि में सभी पदार्थ उत्पाद और विनाश से रहित होते हुए सदाकाल अवस्थित रहते हैं" इस सन्मतिसूत्र से विरोध होता है। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि उसके साथ कुछ विरोध होने वाला नहीं हैं, क्योंकि अशुद्ध ऋजसूत्रनय व्यंजनपर्यायों को विषय करता है, अन्य सब पर्याय उसकी दष्टि में गौण रहती हैं। उधर उक्त सन्मतिसूत्र में शुद्ध ऋजुसूत्र की विवक्षा रही है । तदनुसार पूर्वापर कोटियों के अभाव से उत्पत्ति व विनाश को छोड़कर उसकी दृष्टि में अवस्थान नहीं पाया जाता। इसलिए ऋजुसूत्रनय में स्थापना को छोड़कर अन्य सब निक्षेप सम्भव हैं । स्थापनानिक्षेप की असम्भावना इसलिए प्रकट की गयी है कि अशुद्ध ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में संकल्प के वश अन्य द्रव्य का अन्य स्वरूप से परिणमन नहीं उपलब्ध होता। कारण यह कि इस नय की दृष्टि में सदशता से द्रव्यों में एकता नहीं पायी जाती है। पर स्थापना-निक्षेप में उसकी अपेक्षा रहा करती है। १. धवला पु० १, पृ० १४-१५ २. सन्मतिसूत्र १-११ (यह गाथा इसके पूर्व पु० १, पृ० १४ में भी अन्य तीन गाथाओं के साथ उद्धृत की जा चुकी है ) ३. धवला पु० ६, पृ० २४३-४५ प्रन्थोल्लेख६०१ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलाकार ने प्रसंग के अनुसार उक्त सन्मतिसूत्र की कुछ अन्य गाथाओं को भी धवला में उद्धत किया है। जैसे (३) उपर्युक्त मंगलविषयक निक्षेप के ही प्रसंग में एक प्राचीन गाथा को उद्धृत करते हुए तदनुसार धवला में यह कहा गया है कि इस वचन के अनुसार किये गये निक्षेप को देखकर नयों का अवतार होता है। प्रसंगवश यहाँ नय के स्वरूप के विषय में पूछने पर एक प्राचीन गाथा के अनुसार यह कहा गया है कि जो द्रव्य को बहुत से गुणों और पर्यायों के आश्रय से एक परिणाम से दूसरे परिणाम में, क्षेत्र से क्षेत्रान्तर में और काल से कालान्तर में अविनष्ट स्वरूप के साथ ले जाता है, उसे नय कहा जाता है। यह नय का निरुक्त लक्षण है। __ आगे इस प्रसंग में यहाँ धवला में द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक नयों के स्वरूप व उनके विषय को विशद करने वाली सन्मतिसूत्र की चार गाथाओं (१,३,५ व ११) को उद्धत किया गया है।' (४) इसी सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में जीवस्थान खण्ड की अवतार-विषयक प्ररूपणा में धवलाकार ने उस अवतार के ये चार भेद निर्दिष्ट किये हैं-उपक्रम, निक्षेप, नय और अनुगम। इनमें उपक्रम पाँच प्रकार का है-आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार। इन सबके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने 'प्रमाण' के प्रसंग में उसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और नय के भेद से पांच प्रकार का कहा है। इनमें नयप्रमाण को वहां नैगम आदि के भेद से सात प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। विकल्प के रूप में आगे वहाँ सन्मतिसत्र की इस गाथा को उद्धृत करके यह कह दिया है कि 'क्योंकि ऐसा वचन है जावदिया बयणवहा तावदिया चेव होंति णयवादा । जावदिया णयवादा तावदिया चेव परसमया ॥१-४७॥ (५) इसी प्रसंग में आगे धवला में उपसंहार के रूप में यह कहा गया है कि इस प्रकार से संक्षेप में ये नय सात प्रकार के हैं, अवान्तर भेद से वे असंख्यात हैं। व्यवहर्ताओं को उन नयों को अवश्य समझ लेना चाहिए, क्योंकि उनके समझे बिना अर्थ के व्याख्यान का ज्ञान नहीं हो सकता है। ऐसा कहते हुए वहाँ आगे धवला में 'उक्तं च' इस निर्देश के साथ ये दो गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं णत्थि णएहि विहणं सुत्तं अत्थो व्व जिणवरमदम्मि । तो णयवादे णिउणा मुणिणो सिद्धतिया होति ॥ तम्हा अहिगयसुत्तेण अत्थसंपायणम्हि जइयव्वं । अस्थगई वि य णयवादगहणलीणा दुरहियम्मा ॥ इनमें प्रथम गाथा किंचित् परिवर्तित रूप में आवश्यकनियुक्ति की इस गाथा से प्रायः शब्दशः समान है । अभिप्राय में दोनों में कुछ भेद नहीं है---- १. धवला पु० १, पृ० ११-१३ २. धवला पु० १, पृ०८० ३. धवला पु० १, पृ० ६१ ६०२/ षट्खण्डागम-परिशीलन Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्थि नएहि विहणं सुत्तं अत्यो य जिणमए किचि । आसज्ज उ सोयारं नए नयविसारओ बूआ॥-नि० ६६१ दूसरी गाथा सन्मतिसूत्र की है जो इन दो गाथाओं से बहुत-कुछ समान है - सुतं अत्यनिमेण न सुत्तमेत्तेण अत्थपडिवत्ती। अत्यगई उण णयवायगहणलोणा दुरभिगम्मा ॥३-६४ तम्हा अहिगयसुत्तेण अत्थसंपायणम्मि जइयव्वं । आयरियधरिहत्या हंदि महाणं विलंबेन्ति ॥३-६५ इस प्रकार उन में दूसरी गाथा सन्मतिसूत्र की उपर्युक्त गाथा ६५ के पूर्वार्द्ध और ६४वीं गाथा के उत्तरार्ध के रूप में है। इस स्थिति को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि धवलाकार को परम्परागत सैकड़ों माथाएँ कण्ठस्थ रही हैं । प्रसंग प्राप्त होने पर उन्होंने उनमें से स्मृति के आधार पर आवश्यकतानुसार एक-दो आदि गाथाओं को उद्धृत कर दिया है । इसीलिए उनमें आगे-पीछे पाठभेद भी हो गया है। उदाहरणस्वरूप लेश्या की प्ररूपणा जीवस्थान-सत्प्ररूपणा में और तत्पश्चात् पूर्वनिर्दिष्ट शेष १८ अनुयोगद्वारों में से 'लेश्याकर्म' (१४) अनुयोगद्वार में भी की गई है। उसके प्रसंग में दोनों स्थानों पर कृष्ण आदि लेश्याओं से सम्बन्धित नौ गाथाओं को उद्धृत किया गया है, जिनमें कुछ पाठभेद भी हो गया है।' __ कहीं-कहीं पर प्रसंग के पूर्णरूप से अनुरूप न होने पर भी उन्होंने कुछ गाथाओं आदि को उद्धृत कर दिया है। उदाहरण के रूप में जीवस्थान-कालानुगम में कालविषयक निक्षेप को प्ररूपणा करते हुए धवला में तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकाल के स्वरूप को प्रकट किया गय है। उसकी पुष्टि में प्रथमतः जो पंचास्तिकाय आदि की चार गाथाओं को उद्धृत किया गया है, वे प्रसंग के अनुरूप हैं। किन्तु आगे चलकर जो 'जीवसमासाए वि उत्तं' कहकर एक गाथा को तथा 'तह आयारंगे वि वुत्तं' कहकर दूसरी गाथा को उद्धृत किया गया है, वे आज्ञाविचय धर्मध्यान से सम्बद्ध हैं व प्रसंग के अनुरूप नहीं हैं। २१. संतकम्मपडिपाहुर-यह कोई स्वतंत्र ग्रन्थ रहा है अथवा महाकर्मप्रकृतिप्राभूत का कोई विशेष प्रकरण रहा है, यह ज्ञात नहीं है। इसका धवला में दो बार उल्लेख हुआ है (१) 'कृति' अनुयोगद्वार में गणनाकृति के प्ररूपक सूत्र (४,१,६६) को देशामर्शक कहकर धवलाकार ने उसकी व्याख्या में कृति, नोकृति और अवक्तव्यकृति इन कृति-भेदों की विस्तार से प्ररूपणा की है, यह पूर्व में कहा ही जा चुका है। उसी प्रसंग में अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हुए धवला में कहा गया है कि यह अल्पबहुत्व सोलह पद वाले अल्पबहत्व के साथ विरोध को प्राप्त है, क्योंकि उसके अनुसार सिद्धकाल से सिद्धों का संख्यातगुणत्व नष्ट होकर उससे विशेषाधिकता का प्रसंग प्राप्त होता है। इसलिए यहाँ उपदेश प्राप्त करके किसी एक का निर्णय करना चाहिए । 'सत्कर्मप्रकृतिप्राभृत' को छोड़कर उपर्युक्त सोलह पदवाले अल्पबहुत्व १. धवला, पु० १, पृ० ३८५-६० और पु० १६, पृ० ४६०-६२ २. वही, पु० ४, पृ० ३१५-१६ ३. सोलह पद वाले अल्पबहुत्व के लिए देखिए धवला, पु० ३, पृ० ३० अन्योल्लेख /६०३ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को प्रधान करने पर मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यणी, इससे संचय को प्राप्त होने वाले सिद्ध और आनतादि देवराशि -इनके अल्पबहुत्व का कथन करने पर नोकृतिसंचित सबसे स्तोक, अवक्तव्यकृतिसंचित उनसे विशेष अधिक हैं, कृतिसंचित उनसे संख्यातगुणे हैं, ऐसा कहना चाहिए।' ___ इसका अभिप्राय यह हुआ कि पूर्वोक्त अल्पबहुत्व की प्ररूपणा वहाँ सत्कर्मप्रकृतिप्राभूत के अनुसार की गयी है। (२) 'उपक्रम' अनुयोगद्वार में उपक्रम के बन्धनउपक्रम, उदीरणा उपक्रम, उपशामनाउपक्रम और विपरिणामउपक्रम इन चार भेदों का निर्देश करते हुए धवला में यह सूचना की गयी है कि इन चारों उपक्रमों की प्ररूपणा जिस प्रकार सत्कर्मप्रकृतिप्रामृत में की गयी है उसी प्रकार से करनी चाहिए। इस सम्बन्ध में विशेष विचार पीछे 'धवलागत-विषय-परिचय' के प्रसंग में किया जा चुका है। २२. संतकम्मपाहुड-यह पूर्वोक्त 'संतकम्मपयडिपाहुड' का ही नामान्तर है अथवा स्वतंत्र कोई ग्रन्थ रहा है, यह कुछ कहा नहीं जा सकता है। नामान्तर को कल्पना इसलिए की जा रही है कि पूर्वोक्त उपक्रम के प्रसंग में धवलाकार ने जहां उसका उल्लेख 'संतकम्मपयडिपाहुड' के नाम से किया है वहीं उसी के स्पष्टीकरण में पंजिकाकार ने उसी का उल्लेख संतकम्मपाहुड के नाम से किया है। साथ ही उसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उन्होंने 'वेदना' के अन्तर्गत वेदनाद्रव्य विधान आदि (४,६ व ७) व 'वर्गणा' के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार को सत्कर्मप्राभूत कहा है, ऐसा प्रतीत होता है जो स्पष्ट भी नहीं है। मोहनीय की अपेक्षा कषायप्राभूत भी सत्कर्मप्राभूत कहा है। इसमें कुछ प्रामाणिकता नहीं है, कल्पना मात्र दिखती है। इस संतकम्मपाहुड का भी उल्लेख धवला में दो स्थानों पर किया गया है (१) जीवस्थान-सत्प्ररूपणा में मनुष्यगति में चौदह गुणस्थानों के सद्भाव के प्ररूपक सूत्र (१,१,२७) की व्याख्या करते हुए क्षपणाविधि के प्रसंग में धवला में कहा गया है कि अनिवत्तिकरण गुणस्थान में प्रविष्ट होकर वहाँ उसके काल के संख्यात बहुभाग को अपूर्वकरण की विधि के अनुसार बिताकर उसका संख्यातवाँ भाग शेष रह जाने पर तीन स्त्यानगृद्धि प्रकृतियों को आदि लेकर १६ प्रकृतियों का क्षय करता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर चार प्रत्याख्यानावरण और चार अप्रत्याख्यानावरण इन आठ कषायों का एक साथ क्षय करता है । यह सत्कर्मप्राभूत का उपदेश है । किन्तु कषायप्राभूत के उपदेशानुसार आठ कषायों का क्षय हो जाने पर तत्पश्चात् उपर्युक्त १६ प्रकृतियों का क्षय होता है।' (२) वेदनाक्षेत्रविधान अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट क्षेत्रवेदना की प्ररूपणा करते हुए अन्त में सूत्र (४,२,५,१२) में कहा गया है कि इस क्रम से जो वह मत्स्य अनन्तर १. धवला, पु० ६, पृ० ३१८-१६ २. धवला, पु० १५, पृ० ४२-४३ ३. धवला, पु० १५, पृ० ४३ और 'संतकम्मपंजिया' पृ० १८ (पु० १५ का परिशिष्ट) ४. धवला, पु० १, पृ० २१७ व २२१ ६०४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय में नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न होनेवाला है, उसके क्षेत्र की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट वेदना होती है । इस प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि सातवीं पृथिवी को छोड़कर नीचे सात राजु मात्र जाकर उसे निगोदों में क्यों नहीं उत्पन्न कराया । इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि निगोदों में उत्पन्न होनेवाले के अतिशय तीव्र वेदना का अभाव होने के कारण शरीर से तिगुणा वेदनासमुद्घात सम्भव नहीं है । इसी कारण से उसे निगोदों में नहीं उत्पन्न कराया गया है । इसी प्रसंग में वहाँ अन्य कुछ शंका-समाधानपूर्वक धवलाकार ने यह स्पष्ट कर दिया कि सत्कर्मप्राभृत में उसे निगोदों में उत्पन्न कराया गया है, क्योंकि नारकियों में उत्पन्न होनेवाले महामत्स्य के समान सूक्ष्मनिगोद जीवों में उत्पन्न होनेवाला महामत्स्य भी तिगुने शरीर के बाहल्य से मारणान्तिकसमुद्घात को प्राप्त होता है । परन्तु यह योग्य नहीं है, क्योंकि प्रचुर असाता से युक्त सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न होनेवाले महामत्स्थ की वेदना और कषाय सूक्ष्मनिगोद जीवों में उत्पन्न होने वाले महामत्स्य की वेदना और कषाय समान नहीं हो सकते । इसलिए इसी अर्थ को ग्रहण करना चाहिए।' यहाँ यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि धवलाकार ले पूर्वोक्त सत्कर्मप्राभृत के उपदेश से अपनी असहमति प्रकट की है। २३. सारसंग्रह — वेदनाखण्ड के प्रारम्भ में प्रस्तुत ग्रन्थ का पूर्वश्रुत से सम्बन्ध प्रकट करते हुए सूत्रकार ने यह कहा है कि अग्रायणीयपूर्व के 'वस्तु' अधिकारों में जो चयनलब्धि नाम का पाँचवाँ 'वस्तु' अधिकार है उसके अन्तर्गत बीस प्राभृतों में चौथे प्राभृत का नाम 'कर्मप्रकृति' है । उसमें कृति - वेदना आदि चौबीस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं । —सूत्र ४,१,४५ इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने कहा है कि सब ग्रन्थों का अवतार चार प्रकार का होता है- उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय । तदनुसार धवला में यथाक्रम से इन उपक्रम आदि की प्ररूपणा की गयी है । उनमें नय की प्ररूपणा करते हुए उसके प्रसंग में धवला में कहा गया है कि सारसंग्रह में भी पूज्यपाद ने नय का यह लक्षण कहा है "अनन्तपययात्मकस्य वस्तुनोऽअन्यतमपर्यायाधिगमे कर्त्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नयः । "12 यहाँ धवलाकार ने आचार्य पूज्यपाद - विरचित जिस सारसंग्रह ग्रन्थ का उल्लेख किया है, वह वर्तमान में उपलब्ध नहीं है तथा उसके विषय में अन्यत्र कहीं से कुछ जानकारी भी नहीं प्राप्त है। आ० पूज्यपाद - विरचित तत्त्वार्थसूत्र की वृत्ति 'सर्वार्थसिद्धि' सुप्रसिद्ध है । उसमें उक्त प्रकार का नय का लक्षण उपलब्ध नहीं होता । वहाँ नय के लक्षण इस प्रकार उपलब्ध होते हैं "प्रगृह्य प्रमाणतः परिणतिविशेषादर्थावधारणं नयः । " - स० स० १-६ "सामान्यलक्षणं तावद् – वस्तुन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हेत्वर्पणात् साध्यविशेषयाथात्म्यप्रापणप्रवणप्रयोगो नयः ।" स०सि० १- ३३ १. धवला, पु० ११, पृ० २०-२२ २. धवला, पु० ६, पृ० १६७ ग्रन्थोल्लेख / ६०५ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ उपर्युक्त सारसंग्रहोक्त लक्षण और सर्वार्थसिद्धिगत दूसरा लक्षण इन दोनों नय के लक्षणों में निहित अभिप्राय प्रायः समान है। ___ इसके पूर्व यहीं पर धवला में 'तथा पूज्यपादभट्टारकरप्यभाणि सामान्यनयलक्षणमिदमेव' ऐसा निर्देश करते हुए नय का यह लक्षण भी उद्धृत किया गया है-प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः। नय का लक्षण पूज्यपाद-विरचित 'सर्वार्थसिद्धि' में तो नहीं उपलब्ध होता है, किन्तु वह भद्राकलंकदेव-विरचित 'तत्त्वार्थवातिक' में उसी रूप में उपलब्ध होता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि धवलाकार ने 'पूज्यपाद' के रूप में जो दो बार उल्लेख किया है वह नामनिर्देश के रूप में तो नहीं किया, किन्तु आदरसूचक विशेषण के रूप में किया है और वह भी सम्भवतः भट्टाकलंकदेव के लिए ही किया है । सम्भव है धवला में निर्दिष्ट वह 'सारसंग्रह' अकलंकदेव के द्वारा रचा गया हो और वर्तमान में उपलब्ध न हो। धवलाकार ने प्रसंग के अनुसार तत्त्वार्थवार्तिक के अन्तर्गत अनेक वाक्यों को उसी रूप में अपनी इस टीका में ले लिया है। उपर्युक्त नय के लक्षण का स्पष्टीकरण पदच्छेदपूर्वक जिस प्रकार तत्त्वार्थवार्तिक में किया गया है उसी प्रकार से शब्दशः उसी रूप में उसे भी धवला में ले लिया गया है। २४. सिद्धिविनिश्चय-भट्टाकलंकदेव द्वारा विरचित इस 'सिद्धिविनिश्चय' का उल्लेख धवला में 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में दर्शनावरणीय प्रकृतियों के निर्देशक सूत्र (५,५,८५) की - व्याख्या के प्रसंग में किया गया है। वहाँ प्रसंग के अनुसार यह शंका उठायी गयी है कि सूत्र में विभंगदर्शन की प्ररूपणा क्यों नहीं की गयी है। उसका समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि उसका अन्तर्भाव चूंकि अवधिदर्शन में हो जाता है, इसीलिए सूत्र में उसका पृथक् से उल्लेख नहीं किया गया है। इतना स्पष्ट करते हुए उन्होंने आगे सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख इस प्रकार किया है "तथा सिद्धिविनिश्चयेऽप्युक्तम्-अवधि-विभंगयोरवधिदर्शनमेव।" २५. सुत्तपोत्थय-धवलाकार के समक्ष जो सूत्रपोथियाँ रही हैं उनमें प्रायः षट्खण्डागम व कषायप्राभूत आदि आगम-ग्रन्थों के मूल सूत्र व गाथाएँ आदि रही हैं। उनके अनेक संस्करण धवलाकार के समक्ष रहे हैं। इनके अन्तर्गत सूत्रों में उनके समय में कुछ पाठभेद व हीनाधिकता भी हो गयी थी। धवला में इन सूत्रपुस्तकों का उल्लेख इस प्रकार हुआ है (१) केसु वि सुत्तपोत्थएसु पुरिसवेदस्संतरं छम्मासा ।-पु० ५, पृ० १०६ (२) बहुएसु सुत्तेसु वणप्फदीणं उवरि णिगोदपदस्स अणुवलंभादो, बहुएहि आइरिएहि संमदत्तादो च ।-पु०७, पृ० ५४० यद्यपि यहाँ 'सूत्रपुस्तक' का निर्देश नहीं किया गया है, पर अभिप्राय भिन्न सूत्रपुस्तकों का ही रहा है। (३) अप्पमत्तद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु देवाउअस्स बंधो वोच्छिज्जदि त्ति केसु वि सुत्तपोत्थएसु उवलब्भइ ।-पु० ८, पृ० ६५ १. धवला, पु० ६, पृ० १६५-६६ और त०वा० १,३३,१ २. धवला, पु० १३, पृ० ३५६ ६.६ / षट्पण्डागम-परिशीलन Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...केसु वि सुत्तपोत्थएस बिदियमत्थमस्सिदृणं परूविदअप्पा बहुआभावादो च । - पु० १३, पृ० ३८२ (४) (५) केसु वि सुत्तपोत्थएसु एसो पाठो । – पु० १४, पृ० १२७ इनके विषय में विशेष विचार आगे 'मतभेद' के प्रसंग में किया जायेगा । षट्खण्डागम के ही अन्तर्गत खण्ड व अनुयोगद्वार आदि का उल्लेख धवला में ग्रन्थनामनिर्देशपूर्वक जो अवतरण वाक्य उद्धृत किये गये हैं उनका उल्लेख पूर्वापर प्रसंग के साथ ऊपर किया जा चुका है । अब आगे यहाँ धवलाकार के द्वारा यथाप्रसंग प्रस्तुत षट्खण्डागम के ही अन्तर्गत खण्ड, अनुयोगद्वार, अवान्तर अधिकार व सूत्रविशेष आदि का उल्लेख किया गया है, उनका निर्देश किया जाता है— (१) अप्पा बहुगसुत्त -- पु० ३, पृ०६८,२६१,२७३ व ३२१ । पु० ४, पृ० २१५ । (२) कम्माणिओगद्दार – पु० १४, पृ० ४६ । (३) कालविहाण – पु० १०, पृ० ४५, २४१,२७२ व २७५ । (४) कालसुत - पु० १, पृ० १४२ व पु० ४, पृ० ३८४ । (५) कालाणिओगद्दार - पु०३, पृ० ४४८ । पु० १०, पृ० ३६ व २७१ । (६) खुद्दाबंध -- पु० ३, पृ० २३२, २४६-५०, २७८, २७६ व ४१४ । पु० ४, पृ० १८५ व २०६ । पु० ६, पृ० ३१० । पु० १४, पृ० ४७ । (७) खेत्ताणिओगद्दार - पु० ४, पृ० २४५ व पु० ६, पृ० २१ । (८) चूलियाअप्पाबहुअ - पु० १४, पृ० ३२२ । (६) चूलियासुत्त - पु० ५, पृ० ११६ व पु० १४, पृ० ८५ । (१०) जीवट्ठाण - पु० ३, पृ० २५०, २७८ व २७६ । पु०६, पृ० ३३१ व ३४४ | पु० ७, पृ० २४६ । पु० १३, पृ० २६६ । पु० १४, पृ० २१४ व ४२६ । १०, पृ० २६४ व पु० १६, पृ० ५१० । (११) जीवट्ठाण - चूलिया – पु० (१२) दव्वसुत्त – पु० ४, पृ० १६५ । (१३) दव्वाणिओगद्दार - पु० ४, पृ० १६३ । पु०५, पृ० २५२ व २५७ । पु० ६, पृ० ४७१ । पु० ७, पृ० ३७२ । (१४) पदेसबंधसुत्त - पु० १०, पृ० ५०२ । (१५) पदेसविरइयअप्पा बहुग - पु० १०, पृ० १२०,१३६ व २०८ । पु० ११,पृ० २५६ । (१६) पदेसविरइयसुत्त - पु० १०, पृ० ११६ । (१७) बंधप्पा बहुग सुत्त - पु० ४, पृ० १३२ व पु० ७, पृ० ३६० । (१८) भावविहाण - पु० १३, पृ० २६३ व २६४ | ०१६, पृ० ४१५ । (१६) महाबंध - पु० ७, पृ० १६५ । पु० १०, पृ० २२८ । पु० १२, पृ० २१ ब ६५ । पु० १४, पृ० ५६४ । पु० १५, पृ० ४३ । ( २० ) वग्गणागाहासुत्त पु० ६, पृ० ३१ । (२१) वग्गणसुत्त, वर्गणासूत्र – पु० १, पृ० २६० । पु०४, ( वग्गण अप्पा बहुग ) | पु०, पृ० १७, २८, २६ व ६८ । पृ० १७६ व २१५ ०१४, पृ० ३८५ । ग्रन्थोल्लेख / ६०७ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) वेदणखेत्तविहाण, वेदणाखेत्तविहाणसुत्त-पु. ३, पृ० ३३१ । पु० ४, पृ० २२ व ६४ । (२३) वेयणा-पु. ६, पृ० १७ । पु० १३, पृ० ३६,२०३,२१२.२६८,२६०,३१०,३२५, ३२७ व ३६२ । पु० १४, पृ० ३५१ । (२४) वेयणादव्वविहाण-पु० १४, पृ० १८४। (२५) वेयणासुत्त-पु० ३, पृ० ३७ ।। (२६) संतसुत्त-पु० २, पृ० ६५८ व पु० ४, पृ० १६५ । (२७) संताणिओगद्दार—पु० ४, पृ० १६३ । ६०८/ षट्खण्डागम-परिशीलन Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिदिष्ट नाम ग्रन्थ धवलाकार ने जहाँ ग्रन्थनाम-निर्देशपूर्वक कुछ ग्रन्थों की गाथाओं व श्लोकों आदि को अपनी इस टीका में उद्धृत किया है वहाँ उन्होंने ग्रन्थनामनिर्देश के बिना भी पचासों ग्रन्थों की गाथाओं और श्लोकों आदि को प्रसंगानुसार जहाँ-तहां धवला में उद्धत किया है। उनमें से जिनको कहीं ग्रन्थविशेषों में खोजा जा सका है उनका उल्लेख यहां किया जाता है १. अनुयोगद्वार-धवलाकार ने जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम के प्रसंग में सासादनसम्यगदृष्टि आदि के काल की अपेक्षा द्रव्यप्रमाण के प्ररूपक सूत्र (१,२,६) की व्याख्या में प्रसंगप्राप्त आवलि आदि कालभेदों के प्रमाण को प्रकट किया है। उसे पुष्ट करते हुए आगे धवला में 'उक्तं च' इस निर्देश के साथ चार गाथाओं को उद्धृत किया गया है ।' उनमें तीसरी गाथा इस प्रकार है अड्ढस्स अणलसस्स य णिरुवहदस्स य जिणेहि जंतस्स । उस्सासो णिस्सासो एगो पाणो त्ति आहिदो एसो॥ कुछ थोड़े शब्दभेद के साथ इसी प्रकार की एक गाथा अनुयोगद्वार में भी उपलब्ध होती है । यथा हट्ठस्स अणवगल्लस्स णिरुवकिट्ठस्स जंतुणो। एगे ऊसास-णीसासे एस पाणु त्ति बुच्चई ॥ इस प्रकार इन दोनों गाथाओं में कुछ शब्दभेद के होने पर भी अभिप्राय प्रायः समान है। दोनों के शब्दविन्यास को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि वे एक-दूसरे पर आधारित रही हैं। उनमें से उक्त दोनों ग्रन्थों में चौथी गाथा इस प्रकार है तिण्णि सहस्सा सत्त य सयाणि तेहरिं च उस्सासा । एगो होदि मुहुत्तो सर्वेसि चेव मणुयाणं ।।-धवला तिणि सहस्सा सत्त सयाई तेहरिं च ऊसासा । एस मुहुत्तो दिट्ठो सर्वहिं अणंतनाणोहिं ।' १. धवला, पु० ३, पृ० ६६ २. अनुयो० गा० १०४, पृ० १७८-७९; यह गाथा इसी रूप में भगवती (पृ० ८२४) और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र (१८, पृ० ८६) में भी इसी रूप में उपलब्ध होती है। ३. अनुयो० १०५-६, पृ० १७६; यह गाथा भी इसी रूप में भगवती (६,७,४, पृ० ८२५) और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र (१८, पृ० ८६) में उपलब्ध होती है । Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जत्थ इन दोनों गाथाओं का उत्तरार्ध शब्दशः समान है । अभिप्राय भी दोनों का समान ही है। विषयविवेचन की दृष्टि से धवला और अनुयोगद्वार में बहुत-कुछ समानता देखी जाती है । तुलनात्मक दृष्टि से इसका विचार पीछे 'षट्खण्डागम व अनुयोगद्वार' शीर्षक में विस्तार से किया जा चुका है। २. आचारांगनियुक्ति ---आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) द्वारा आचारांग पर गाथाबद्ध नियुक्ति लिखी गयी है । धवला में प्रसंगानुसार उद्धृत कुछ गाथाओं में इस नियुक्ति की गाथाओं से समानता देखी जाती है । यथा (१) जीवस्थान-सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में धवलाकार ने मंगल के विषय में विस्तार से प्ररूपणा की है। उस प्रसंग में निक्षेपों की प्ररूपणा के अनन्तर यह प्रश्न उपस्थित हुआ है कि इन निक्षेपों में यहाँ किस निक्षेप से प्रयोजन है । इसके उत्तर में वहाँ कहा गया है कि प्रकृत में तत्परिणत नोआगमभावनिक्षेप से प्रयोजन है। इस प्रसंग में यहाँ धवला में यह शंका उठायी गयी है कि यहाँ तत्परिणत नोआगमभावनिक्षेप से प्रयोजन रहा है तो अन्य निक्षेपों की प्ररूपणा यहाँ किसलिए की गयी है। इसके उत्तर में आगे इस गाथा को उद्धृत करते हुए कहा गया है कि इस वचन के अनुसार यहाँ निक्षेप किया गया है।' णज्जा अवरिमिदं तत्थ णिक्खिवेणियमा। जत्थ बहुअंण जाणदि चउट्ठयं णिक्खिवे तत्थ ॥ यह गाथा कुछ थोड़े परिवर्तन के साथ आचारांगनियुक्ति में इस प्रकार पायी जाती है जत्य य जं जाणिज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेस । जत्थ वि य न जाणिज्जा चउक्कयं निक्खिवे तत्य ।। दोनों गाथाओं का अभिप्राय तो समान है ही, साथ ही उनमें शब्दसाम्य भी बहुत-कुछ है। (२) आचारांगनियुक्ति के 'शस्त्रपरिज्ञा' अध्ययन में सात उद्देश हैं जिनमें क्रम से जीव, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वनस्पतिकायिक, असकायिक और वायुकायिक जीवों का उल्लेख करते हुए यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि उनके वध से चूंकि बन्ध होता है, इसलिए उससे विरत होना चाहिए। धवला में उपर्युक्त सत्प्ररूपणा में कायमार्गणा के प्रसंग में पृथिवीकायिकादि जीवों के भेद- - प्रभेदों को प्रकट किया गया है । उस प्रसंग में वहाँ त्रस जीव बादर हैं या सूक्ष्म, यह पूछे जाने पर धवलाकार ने कहा है कि वे बादर हैं, सूक्ष्म नहीं हैं; क्योंकि उनकी सूक्ष्मता का विधान करने वाला आगम नहीं है । इस पर पुनः वहाँ यह प्रश्न उपस्थित हुआ है कि उनके बादरत्व का विधान करनेवाला भी तो आगम नहीं है, तब ऐसी अवस्था में यह कैसे समझा जाय कि वे बादर हैं, सूक्ष्म नहीं हैं । इसके उत्तर में वहाँ धवलाकार ने कहा है कि आगे के सूत्रों में जो पृथिवीकायिकादिकों के सूक्ष्मता का विधान किया गया है, उससे सिद्ध है कि त्रस जीव बादर १. धवला, पु० १, पृ० ३० २. आचा०नि० ४; यह गाथा अनुयोगद्वार (१-६) में भी इसी रूप में प्राप्त होती है। ३. आचारा०नि०३५ ६१० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, सूक्ष्म नहीं हैं । इसी प्रसंग में वहाँ यह पूछने पर कि वे पृथिवीकायिक आदि जीव कौन हैं, इसका उत्तर देते हुए धवला में छह गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं ।" उनमें प्रथम गाथा इस प्रकार हैपुढवी य सक्करा वालुवा य उवले सिलादि छत्तीसा । पुढवीमया हु जीवा णिद्दिट्ठा जिणर्वारिदेहि ॥ आचारांग नियुक्ति में जिन गाथाओं में पृथिवी के उन छत्तीस भेदों का नाम-निर्देश किया गया है, उनमें प्रथम गाथा इस प्रकार है पुढवीय सक्का वालुगा य उवले सिला य लोणूसे । अब त सीसय रुप्प सुवण्णे य वइरे य ॥ इन दोनों गाथाओं का पूर्वार्ध समान है । विशेषता यह रही है कि आचारांगनिर्युक्ति में जहाँ 'लोणसे' (लोण ऊष) के आगे उक्त छत्तीस भेदों में शेष सभी का नामोल्लेख कर दिया गया है वहाँ धवला में उद्धृत उस गाथा में 'सिलादि छत्तीसा' कहकर सिला के आगे 'आदि' शब्द के द्वारा शेष भेदों की सूचना मात्र की गयी है । 3 (३) धवला में उद्धृत उन गाथाओं में आगे की तीन गाथाओं में क्रम से जलकायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के भेदों का निर्देश किया गया है । * इन जलकायिक आदि जीवों के भेदों की निर्देशक तीन गाथाएँ आचारांगनिर्युक्ति में भी उपलब्ध होती हैं। दोनों ग्रन्थों में निर्दिष्ट वे भेद प्रायः शब्दश: समान हैं । उन भेदों की प्ररूपक ऐसी ही तीन गाथाएँ मूलाचार में भी उपलब्ध होती हैं । मूलाचार और आचारांगनिर्युक्तिगत इन गाथाओं में विशेषता यह रही है कि इनके पूर्वार्ध उन भेदों का उल्लेख किया गया हैं और उत्तरार्ध में आचारांगनियुक्ति में जहाँ 'ये पाँच प्रकार के अप्कायिक (तेजस्कायिक व वायुकायिक) विधान वर्णित हैं' ऐसा कहा गया है वहाँ मूलाचार में 'उनको अप्काय (तेजस्काय व वायुकाय) जीव जानकर उनका परिहार करना चाहिए, ऐसा कहा गया गया है। इस प्रकार का पाठभेद बुद्धिपुरस्सर ही हुआ दिखता है । यथा बायर आउविहाणा पंचविहा वण्णिया एए ॥ आचा०नि० १०८ ते जाण आउ जीवा जाणित्ता परिहरे दव्वा ।। - मूला० ५ १३ आगे तेजस्काय के प्रसंग में 'आउ' के स्थान पर 'तेउ' और वायु के प्रसंग में 'वाउ' शब्द १. धवला, पु० १, पृ० २७२-७४ २. देखिए आचा०नि०गा० ७३ ७६ । ये ३६ भेद मूलाचार (५, ६-१२), तिलोयपण्णत्ती (२, ११-१४) और जीवसमास ( २७-३०) में प्राय: समान रूप में उपलब्ध होते हैं । प्रज्ञापना (२४,८-११) में ३६ के स्थान में ४० भेदों का नामनिर्देश किया गया है । ३. धवला, पु० १, पृ० २७२ ४. धवला, पु० १, पृ० २७३ ५. आचा०नि० १०८, ११८ व १६६ ६. मूलाचार ५, १३-१५ अनिर्दिष्ट नाम ग्रन्थ / ६११ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों ग्रन्थों में परिवर्तित हैं।' (४) जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम में क्षेत्र की अपेक्षा सूत्र (१,२,४) में निर्दिष्ट मिथ्यावृष्टि जीवराशि के प्रमाण को स्पष्ट करते हुए धवला में उस प्रसंग में यह पूछा गया है कि क्षेत्र की अपेक्षा मिथ्यादष्टि जीवराशि को कैसे मापा जाता है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि जिस प्रकार प्रस्थ (एक माप विशेष) के द्वारा जौ, गेहूँ आदि को मापा जाता है, उसी प्रकार 'लोक' के द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशि मापी जाती है। इस प्रकार से मापने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि अनन्त लोकप्रमाण होती है। आगे वहाँ धवला में 'एत्थुवउज्जती गाहा' ऐसी सूचना करते हुए "पत्येण कोद्दवं वा” इत्यादि गाथा को उद्धृत किया गया है । यह गाथा आवश्यकनियुक्ति में उसी रूप में उपलब्ध होती है। ३. आप्तमीमांसा--इसका दूसरा नाम देवागमस्तोत्र है। आचार्य समन्तभद्र द्वारा विरचित यह एक स्तुतिपरक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ है। इसके ऊपर आचार्य भट्टाकलंकदेव द्वारा विरचित अष्ट शती और आचार्य विद्यानन्द द्वारा विरचित अष्टसहस्री जैसी विशाल टीकाएँ हैं। धवला में इसकी कुछ कारिकाओं को समन्तभद्रस्वामी के नामनिर्देशपूर्वक उद्धृत किया गया है । यथा (१) जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम में निक्षेप योजनापूर्वक उसके शाब्दिक अर्थ को स्पष्ट करते हुए धवला में त्रिकालविषयक अनन्तपर्यायों की परस्पर में अजहद्वत्ति (अभेदात्मकता) को द्रव्य का स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है। प्रमाण के रूप में वहाँ 'वुत्तं च' कहते हुए ‘आप्तमीमांसा' की १०७वीं कारिका को उद्धृत किया गया है। (२) इसी कारिका को आगे धवला में जीवस्थान चूलिका में अवधिज्ञान के प्रसंग में भी 'अत्रोपयोगी श्लोकः' कहते हुए उद्धृत किया गया है। (३) आगे 'कृति' अनुयोगद्वार में नयप्ररूपणा के प्रसंग में आ० पूज्यपाद-विरचित सारसंग्रह के अन्तर्गत नय के लक्षण को उद्धृत करते हुए यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि अनन्त पर्यायस्वरूप वस्तु की उन पर्यायों में से किसी एक पर्यायविषयक ज्ञान के समय निर्दोष हेतु के आश्रित जो प्रयोग किया जाता है, उसका नाम नय है। इस पर वहाँ यह शंका उठायी गयी है कि अभिप्राय-युक्त प्रयोक्ता को यदि 'नय' नाम से कहा जाता है तो उचित कहा जा सकता है, किन्तु प्रयोग को नय कहना संगत नहीं है, क्योंकि नित्यत्व व अनित्यत्व आदि का अभिप्राय सम्भव नहीं है। इस शंका का निराकरण करते हुए धवला में कहा गया है कि वैसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि नय के आश्रय से जो प्रयोग उत्पन्न होता है वह प्रयोक्ता के अभिप्राय को प्रकट करने वाला होता है, इसलिए कार्य में कारण के उपचार से प्रयोग के भी नयरूपता सिद्ध है। यह स्पष्ट करते हुए आगे 'तथा समन्तभद्रस्वामिनाप्युक्तम्' इस प्रकार की सूचना के साथ आप्त १. ये गाथाएं जीवसमास (३१-३३) में भी आचा० नि० के पाठ के अनुसार ही उपलब्ध होती हैं। २. धवला पु० ३, पृ० ३२ और आव० नि० ८७ (पृ० ६३) ३. धवला, पु० ३, पृ० ६ ४. धवला, पु० ६, पृ० २८ ६१२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मीमांसा की १०६वों कारिका के उत्तरार्ध को इस प्रकार उद्धृत किया गया है स्याद्वादप्रविभतार्थविशेषव्यञ्जको नयः । पदविभाग के साथ उसके अभिप्राय को भी वहाँ प्रकट किया गया है।' इसी प्रसंग में आगे धवला में यह स्पष्ट किया गया है कि ये सभी नय यदि वस्तुस्वरूप का अवधारण नहीं करते हैं तो वे समीचीन दृष्टि (सन्नय) होते हैं, क्योंकि वे उस स्थिति में प्रतिपक्ष का निराकरण नहीं करते हैं। इसके विपरीत यदि वस्तुस्वरूप का एकान्त रूप से अवधारण करते हैं तो वे उस स्थिति में मिथ्यादृष्टि (दुर्नय) होते हैं, क्योंकि वैसी अवस्था में उनकी प्रवृत्ति प्रतिपक्ष का निराकरण करने में रहती है। इतना स्पष्ट करते हुए आगे वहाँ 'अत्रोपयोगिनः श्लोकाः' इस सूचना के साथ जिन तीन श्लोकों को उद्धृत किया गया है, उनमें प्रारम्भ के दो श्लोक स्वयम्भूस्तोत्र (६२ व ६१) के हैं तथा तीसरा श्लोक आप्तमीमांसा (१०८वीं कारिका) का है। ___इसी प्रसंग में आगे धवला में कहा गया है कि इन नयों का विषय उपचार से उपनय और उनका समूह वस्तु है, क्योंकि इसके बिना वस्तु की अर्थक्रियाकारिता नहीं बनती। यह कहते हुए आगे वहाँ 'अत्रोपयोगी श्लोकः' इस निर्देश के साथ आप्तमीमांसा की क्रम से १०७वीं और २२वीं इन दो कारिकाओं को उद्धृत किया गया है। साथ ही इन दोनों के बीच मे "एयदवियम्मि जे" इत्यादि सन्मतितकी एक गाथा (१-३३) को भी उद्धृत किया गया है। (४) आगे 'प्रक्रम' अनुयोगद्वार में प्रसंगप्राप्त सत् व असत् कार्यवाद के विषय में विचार करते हुए उस प्रसंग में धवला में क्रम से आप्तमीमांसा की इन १४ कारिकाओं को उद्धत किया गया है-३७,३९-४०,४२,४१,५६-६०,५७ और ६-१४ । ४. आवश्यकनियुक्ति-धवला में ग्रन्थावतार के प्रसंग में नय की प्ररूपणा करते हुए अन्त में यह स्पष्ट किया गया है कि व्यवहर्ता जनों को इन नयों के विषय में निपुण होना चाहिए, क्योंकि उसके बिना अर्थ के प्रतिपादन का परिज्ञान नहीं हो सकता है। यह कहते हुए आगे वहाँ 'उत्तं च' कहकर दो गाथाओं को उद्धत किया गया है। उनमें प्रथम गाथा इस प्रकार है णत्थि णएहिविहूणं सुत्तं अत्थोव्व जिणवरमदम्हि । तो णयवादे णियमा मुणिणो सिद्धतिया होंति ॥ इसके समकक्ष एक गाथा आ० भद्रबाहु (द्वितीय) विरचित आवश्यकनियुक्ति में इस प्रकार उपलब्ध होती है नत्थि नएहि विहूणं सुत्तं अत्थो य जिणवरमदम्मि। आसज्ज उ सोयारं नए नयविसारओ बूआ॥-आव०नि०मा० ६६१ इन दोनों गाथाओं का पूर्वार्ध प्राय: समान है । तात्पर्य दोनों गाथाओं का यही है कि वक्ता १. धवला, पु० ६, पृ० १६७ २. धवला, पु० ६, पृ० १८२ ३. धवला, पु० ६, पृ० १८२-८३ ४. धवला पु० १५, पृ० १८-२१ और २६-३१ ५. वही, पु० १, पृ० ६१ अनिर्दिष्टनाम ग्रन्थ / ६१३ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या व्याख्याता को नयों के विषय में निपुण अवश्य होना चाहिए । पूर्व गाथा के उत्तरार्ध में जहाँ यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि — इसलिए सिद्धान्त के वेत्ता मुनिजन नयवाद में निपुण' हुआ करते हैं, वहाँ दूसरी गाथा के उत्तरार्ध में यह स्पष्ट किया गया है कि नयों के विषय में दक्ष वक्ता को नयों का आश्रय लेकर श्रोता के लिए तत्त्व का व्याख्यान करना चाहिए । इस प्रकार पूर्व गाथा की अपेक्षा दूसरी गाथा का उत्तरार्ध अधिक सुबोध दिखता है । (२) जीवस्थान - सत्प्ररूपणा में सूत्रकार ने चौदह जीवसमासों की प्ररूपणा में प्रयोजनीभूत आठ अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा है । —सूत्र १,१,५ सूत्र में प्रयुक्त 'अणियोगद्दार' के प्रसंग में धवला में उसके अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा और वार्तिक इन समानार्थक शब्दों का निर्देश करते हुए 'उक्तं च' के साथ "अणियोगो य जियोगो" आदि गाथा को उद्धृत किया गया है । यह गाथा आवश्यक निर्यक्ति में उसी रूप में उपलब्ध होती है । 3 ५. उत्तराध्ययन- - पूर्वोक्त पृथिवी के वे ३६ भेद उत्तराध्ययन में भी उपलब्ध होते हैं । ~(३६, ७४-७७) ६. कसायपाहुड - यह पीछे ( पृ० १००७-२३) स्पष्ट किया जा चुका है कि धवलाकार ने ग्रन्थनामनिर्देश के बिना कसायपाहुड की कितनी ही गाथाओं को उद्धृत किया है । ७. गोम्मटसार – आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा विरचित गोम्मटसार जीवकाण्ड-कर्मकाण्ड में आ० वीरसेन के द्वारा धवला में उद्धृत पचासों गाथाएँ आत्मसात् की गयी हैं । * ८. चारित्रप्राभृत — जीवस्थान खण्ड के अवतार की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में आचार्य कुन्दकुन्द - विरचित चारित्रप्राभृत की "दंसण-वद-सामाइय' आदि गाथा को उद्धृत करते हुए धवला में कहा गया है कि उपासकाध्ययन नाम का अंग ग्यारह लाख सत्तर हजार पदों के द्वारा दर्शनिक, व्रतिक व सामायिकी आदि ग्यारह प्रकार के उपासकों के लक्षण, उन्हीं के व्रतधारण की विधि और आचरण की प्ररूपणा करता है । " ६. जंबूदीवपण्णत्तिसंगहो - मुनि पद्मनन्दी द्वारा विरचित 'जंबूदीवपण्णत्तिसंगहो' का रचनाकाल प्रायः अनिर्णीत है । फिर भी सम्भवतः उसकी रचना धवला के पश्चात् हुई है, ऐसा प्रतीत होता है । जीवस्थान - क्षेत्र प्रमाणानुगम में प्रसंगप्राप्त लोक के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यदि लोक को नीचे से क्रमश: सात, एक, पाँच व एक राजु विस्तारवाला; उत्तर-दक्षिण में सर्वत्र सात राजु बाहल्यवाला और चौदह राजु आयत न माना जाय तो प्रतरसमुद्घातगत केवली के क्षेत्र को सिद्ध करने के लिए जो दो गाथाएँ कही गयी हैं वे निरर्थक सिद्ध होंगी, क्योंकि उनमें जो लोक का घनफल कहा गया है, वह इसके बिना बनता १. गाथा में 'नियमा' के स्थान में यदि 'णिउणा' पाठ रहा हो, तो यह असम्भव नहीं दिखता । २. धवला, पु०१, पृ० १५३-५४ ३. आव० नि० गा० १२५ ४. देखिए पीछे ' ष० ख० ( धवला) व गोम्मटसार' शीर्षक । ५. धवला, पु० १ १०२ व चा० प्रा० २२ ६१४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है, ऐसा कहते हुए उन्होंने आगे उन गाथाओं को उद्धृत कर दिया है।' वे दोनों गाथाएं प्रकृत जंबूदीवपण्णती में उपलब्ध होती हैं। उनमें से प्रथम गाथा में अधोलोक का घनफल और दूसरी गाथा में मृदंगाकृतिक्षेत्र (ऊर्ध्वलोक) का घनफल गणित-प्रक्रिया के आधार से निकाला गया है । विशेषता यह है कि वहाँ इन दो गाथाओं के मध्य में एक अन्य गाथा और भी है, जिसमें अधोलोक और ऊर्ध्वलोक सम्बन्धी घनफल के प्रमाण का केवल निर्देश किया गया है। उनमें प्रथम गाथा से बहुत-कुछ मिलती हुई एक गाथा (१-१६५) तिलोयपण्णत्ती में उपलब्ध होती है । १०. जीवसमास-इसके सम्बन्ध में कुछ विचार ग्रन्थोल्लेख के प्रसंग में किया गया है । (१) धवला में अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के भेदों की प्ररूपक जिन तीन गाथाओं को उद्धृत किया गया है, उनके पूर्वार्ध जीवसमास (गा० ३१-३३) में शब्दशः समान रूप में उपलब्ध होते हैं । जैसा पीछे 'आचारांगनिर्यक्ति' के प्रसंग में स्पष्ट किया गया है, यहाँ उन गाथाओं के उत्तरार्ध आचारांगनियुक्तिगत उन गाथाओं के उत्तरार्ध के समान हैं; जबकि धवला में उद्धृत उन गाथाओं के उत्तरार्ध पंचसंग्रहगत उन गाथाओं (१,७८-८०) के समान हैं। (२) इसके पूर्व इस सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में मार्गणाओं के स्वरूप को प्रकट करते हुए धवलाकार ने आहारक और अनाहारक जीवों के स्वरूप का निर्देश किया है । उस प्रसंग में उन्होंने 'उक्तं च' कहकर "विग्गहगइमावण्णा" आदि एक गाथा को उद्धत किया है। यह गाथा जीवसमास में उपलब्ध होती है। ११. तत्त्वार्थवातिक-जैसा कि 'ग्रन्थोलेख' के प्रसंग में पीछे (पृ० ५८७) स्पष्ट किया जा चुका है, धवलाकार ने इस तत्त्वार्थवार्तिक का उल्लेख 'तत्त्वार्थभाष्य' के नाम से किया है। अनेक प्रसंगों पर नामनिर्देश के बिना भी उसके कितने ही वाक्यों को धवला में उद्धत किया गया है। यह स्मरणीय है कि धवलाकार ने तत्त्वार्थवार्तिक के अनेक सन्दर्भो को उसी रूप में धवला में आत्मसात् कर लिया है। जैसे (१) प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः । प्रकर्षेण मानं प्रमाणम्, सकलादेश इत्यर्थः, तेन प्रकाशितानां न प्रमाणाभासपरिगृहीतानामित्यर्थः । तेषामर्थानामस्तित्व-नास्तित्व-[नित्या] नित्यत्वाद्यन्तात्मनां [धनन्तात्मनां] जीवादीनां ये विशेषाः पर्यायास्तेषां प्रकर्षेण रूपकः प्ररूपकः निरुद्धदोषानुषंगद्वारेणेत्यर्थः।- तवा० १,३३,१ "प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः इति । प्रकर्षण मानं प्रमाणम्, सकलादेशीत्यर्थः । तेन प्रकाशितानां प्रमाणपरिगृहीतानामित्यर्थः । तेषामर्थानामस्तित्व-नास्तित्व-नित्यानित्यत्वाद्यनन्तात्मकानां जीवादीनां ये विशेषाः पर्यायाः तेषां प्रकर्षेण रूपकः प्ररूपकः निरुद्धदोषानुषंगद्वारे १. धवला, पु० ४, पृ० २०-२१ २. जं०दी० प्र० संगहो ११,१०८-१० ३. धवला, पु० १, पृ० २७३ ४. देखिये धवला पु० १, १५३ व जी०स० गाथा ८२; यह गाथा दि० पंचसंग्रह (१-१७७) और श्रावकप्रज्ञप्ति (गा०६८) में भी उपलब्ध होती है। अनिर्दिष्टनाम ग्रन्थ / ६१५ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णत्यर्थः।"-धवला, पु० ६, पृ० १६५-६६ (२) शपत्यर्थमाह्वयति प्रत्यायतीति शब्दः ।XX स च लिंग-संख्या-साधनाविव्यभिचारनिवत्तिपरः।xxx लिंगव्यभिचारस्तावत् स्त्रीलिंगे पुल्लिगाभिधानं तारका स्वातिरिति । पल्लिगे स्व्यभिधानमवगमो विद्यति । स्त्रीत्वे नपुंसकाभिधानं वीणाऽऽतोद्यमिति । नपुंसके स्त्र्यभिधानमायुधं शक्तिरिति। पुल्लिगे नपुंसकाभिधानं पटो वस्त्रमिति । नपुंसके पुल्लिगाभिधानं द्रव्यं परशुरिति ।-त०वा० १,३३,८-६६ "शपत्यर्थमाह्वयति प्रत्यायतीति शब्दः। अयं नयः लिंग-संख्या-काल-कारक-पुरुषोपग्रहव्यभिचारनिवत्तिपरः। लिंगव्यभिचारस्तावत् स्त्रीलिगे पुल्लिगाभिधानम्-तारका स्वातिरिति । पल्लिगे स्च्यभिधानम्-अवगमो विद्यति । स्त्रीत्वे नपुंसकाभिधानम्-वीणा आतोद्यमिति । नपुंसके स्थ्यभिधानम्-आयुधं शक्तिरिति । पुल्लिगे नपुंसकाभिधानम्-पटो वस्त्रमिति । नसके पुल्लिगाभिधानम्-द्रव्यं परशुरिति ।"'--धवला पु०६, पृ० १७६-७७ ___आगे इस शब्दनय से सम्बन्धित संख्या, साधन, काल और उपग्रह विषयक सन्दर्भ भी दोनों ग्रन्थों में शब्दशः समान हैं। विशेष इतना है कि साधन और काल के विषय में क्रमध्यत्यय हुआ है। शब्दनय का उपसंहार करते हुए दोनों ग्रन्थों में समान रूप में यह भी कहा गया है "एवमादयो व्यभिचारा अयुक्ताः (धवला-न युक्ताः) अन्यार्थस्यान्यार्थेन सम्बन्धाभावात् । xxx तस्माद्यथालिगं यथासंख्यं यथासाधनादि च न्याय्यमभिधानम् ।” यहां ये दो ही उदाहरण दिये गये हैं, ऐसे अन्य भी कितने ही और भी उदाहरण दिये जा सकते हैं। १२. तत्त्वार्थसत्र-'ग्रन्थोल्लेख' के प्रसंग में यह पूर्व (पृ० ५८६-८७) में स्पष्ट किया जा चुका है कि धवला में तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों को ग्रन्थनामनिर्देश के साथ उद्धृत किया गया है। उनके अतिरिक्त उसके अन्य भी कितने ही सूत्रों को यथाप्रसंग ग्रन्थनामनिर्देश के बिना धवला में उद्धत किया गया है। १३. तिलोयपण्णत्ती--यह पीछे (पृ० ५८७-८६) 'ग्रन्थोल्लेख' के प्रसंग में स्पष्ट किया जा चुका है कि धवलाकार ने प्रसंगप्राप्त तिर्यग्लोक के अवस्थान और राजु के अर्धच्छेदविषयक प्रमाण के सम्बन्ध में अपने अभिमत की पुष्टि में तिलोयपण्णत्तिसुत्त' को ग्रन्थनामोल्लेखपूर्वक प्रमाण के रूप में उपस्थित किया है। अब यहाँ हम धवला में प्ररूपित कुछ ऐसे प्रसंगों का उल्लेख करना चाहते हैं जो या तो १. यह शब्दनयविषयक सन्दर्भ सत्प्ररूपणा (पु० १, पृ० ८६-८९) में भी इसी प्रकार का है। २. उदाहरणस्वरूप देखिये पु० ६, पृ० १६४ में "प्रमाण-नय रधिगमः" इत्यनेन सूत्रेणापि (त०सू० १-६) नेदं व्याख्यानं विघटते । पु० १३, पृ० २११ में “रूपिष्ववधेः" (त०सू० १-२७) इति वचनात् । आगे पृ० २२० में "न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम्" (तसू० १-१६) इति तत्र तत्प्रतिषेधात् । आगे पृ० २३४-३५ में "बहु-बहुविध-क्षिप्रानिःसृतानुक्तध्र वाणां सेतराणाम्" (त० सू० १-१६) संख्या-वैपुल्यवाचिनो बहु-शब्दस्य ग्रहणमविशेषात् । इत्यादि ६१६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी तिलोयपणत्ति पर आधारित हैं या फिर उसके समान कोई अन्य प्राचीन ग्रन्थ धवलाकार के समक्ष रहा है, जिसको उन्होंने उनका आधार बनाया है। इसका कारण यह है कि वे प्रसंग ऐसे हैं जो शब्द और अर्थ से भी तिलोयपण्णत्ती से अत्यधिक समानता रखते हैं । यथा (१) धवलाकार ने षट्खण्डागम की इस टीका को प्रारम्भ करते हुए स्वकृत मंगल के पश्चात् इस गाथा को उपस्थित किया है मंगल-णिमित्त-हेऊ परिमाणं णाम तह य कत्तारं । वागरिय छापि पच्छा वक्खाणउ सत्थमाइरियो ।। इसके अनन्तर वे कहते हैं कि आचार्य-परम्परा से चले आ रहे इस न्याय को मन से अवधारित कर 'पूर्वाचार्यों का अनुसरण रत्नत्रय का हेतु है' ऐसा मानकर पुष्पदन्ताचार्य उपर्युक्त मंगल आदि छह की कारणपूर्वक प्ररूपणा करने के लिए सूत्र कहते हैं । इस प्रकार कहते हुए धवलाकार ने आगे आ० पुष्पदन्त द्वारा ग्रन्थ के प्रारम्भ में किये गये मंगल के रूप में पंचपरमेष्ठिनमस्कारात्मक गाथा (णमोकारमंत्र) की ओर ध्यान दिलाया गया है। उक्त पंचपरमेष्ठिनमस्कारात्मक मंगलगाथा की उत्थानिका में धवलाकार ने जो कहा है वह इस प्रकार है__"इदि णायमाइरियपरंपरागयं मणणावहारिय पुवाइरियायाराणुसरणं ति-रयण उत्ति पष्फदंताइरियो मंगलादीणं छण्णं सकारणाणं परूवणट्ठसुत्तमाह"---धवला १, पृ० ८ इसके साथ शब्द व अर्थ की समानता तिलोयपण्णत्ती की इस गाथा से देखने योग्य है इय णायं अवहारिय आइरियपरंपरागदं मणसा। पुथ्वाइरिया (आरा) णुसरण तिरयणणिमित्तं ॥-ति०प०१-८४ इसके पूर्व धवलाकार ने मंगल-निमित्त आदि उन छह की निर्देशक जिस गाथा को प्रस्तत किया है उसकी समकक्ष गाथा तिलोयपण्णत्ती में इस प्रकार उपलब्ध होती है मंगल-कारण-हेदू सत्थस्स पमाण-णाम-कत्तारा।। पठम चिय कहिदम्वा एसा आइरियपरिभासा ।।१-७ आगे शास्त्रव्याख्यान के कारणभूत उन मंगल आदि छह की क्रम से धवला में जिस प्रकार प्ररूपणा की गयी है उसी प्रकार से उनकी प्ररूपणा तिलोयपण्णत्ती में भी की गयी है। विशेषता यह है कि धवला में जहाँ उनकी वह प्ररूपणा शंका-समाधानपूर्वक अन्य प्रासंगिक चर्चा के साथ कुछ विस्तार से की गयी है वहां तिलोयपण्णत्ती में वह सामान्य रूप से की गयी है। यहाँ यह स्मरणीय है कि धवला में जहाँ इस प्ररूपणा का लक्ष्य षट्खण्डागम, विशेषकर उसका प्रथम खण्ड जीवस्थान, रहा है वहाँ तिलोयपण्णत्ती में उसका लक्ष्य उसमें प्रमुख रूप से प्ररूपित लोक रहा है। मंगल व निमित्त आदि उन छह के विषय में जो प्ररूपणा धवला और तिलोयपण्णत्ती में की १. धवला पु० १, पृ० ७ २. धवला, पु० १, पृ०८ अनिदिष्ट नाम ग्रन्थ / ६१७ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयी है उसमें शब्द और अर्थ की अपेक्षा कितनी समानता है, इसे संक्षेप में इस प्रकार देखा जो सकता है प्रसंग धवला पु० १ ( पृष्ठ ) ति०प०महाधि० १ ( गाथा) १. मंगल मंगल के ६ भेद क्षेत्र मंगल कालमंगल भावमंगल मंगल के पर्यायशब्द मंगल की निरुक्ति मंगल के स्थान व फल २. निमित्त ३. हेतु ४. प्रमाण ५. नाम ६. कर्ता १० २८-२६ २६ - २६ ३१-३२ ३२-३४ ३६-४१ १. धवला पु० १, पृ० ५७-५८ २. वही, पृ० ६५ ६७ ५४-५५ ५५-५६ ६० ३. वही, पु० ६, पृ० १३०-३१ ४. ति०प० १, ४,१४७६-६२ ६१८ / घट्खण्डागम-परिशीलन ६० १८ २१-२४ २४-२६ २७ ८ ६०-६५ व ७२ ५५-८१ ( २ ) इसके अतिरिक्त धवला में प्ररूपित अन्य भी कितने ही विषयों के साथ तिलोयपणती की समानता देखी जाती है । जैसे- राजा, १८ श्रेणियाँ, अधिराज, महाराज, अर्धमण्डलिक, माण्डलिक, महामाण्डलिक, त्रिखण्डपति (अर्धचक्री), षट्खण्डाधिपति (सकलचक्री) और तीर्थंकर आदि । ६-१७ २७-३१ विशेषता यह रही है कि धवलाकार ने जहाँ उपर्युक्त राजा आदि के विषय में अन्यत्र से उद्धृत गाथाओं व श्लोकों में विचार किया है, वहाँ तिलोयपण्णत्ती में उनका विचार मूलग्रन्थगत गाथाओं में ही किया गया है।" (३) धवला में जीवस्थान के अवतार के प्रसंग में तथा आगे चलकर 'वेदना' खण्ड के अवतार के प्रसंग में यथाक्रम से केवलियों, श्रुतकेवलियों, अंगश्रुत के धारकों का निर्देश किया गया है । ३२-३४ ३५-५२ तिलोयपण्णत्ती में 'जम्बूद्वीप' अधिकार के आश्रय से भरतक्षेत्र में सुषमादि छह कालों की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में उपर्युक्त केवलियों आदि का उल्लेख किया गया है, जिसमें एक-दो नामों की भिन्नता को छोड़कर प्रायः दोनों में समानता है । * ५३ ५४ (४) महावीर के निर्वाण के पश्चात् उत्पन्न होनेवाले शक राजा के काल से सम्बन्धित विभिन्न मतों का उल्लेख धवला में इस प्रकार किया गया है - प्रथम मत ६०५ वर्ष व पांच Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मास, द्वितीय मत १४७६३ वर्ष, तृतीय मत ७६६५ वर्ष व ५ मास । ___ ध्यान रहे कि इन मतभेदों का उल्लेख धवलाकार ने अन्यत्र से उद्धृत गाथाओं के द्वारा किया है। शक राजा के काल से सम्बन्धित इन मतभेदों का उल्लेख तिलोयपण्णत्ती में इस प्रकार किया गया है प्रथम मत ४६१ वर्ष, द्वितीय ६७८५ वर्ष ५ मास, तृतीय १४७६३ वर्ष, चतुर्थ ६०५ वर्ष ५ मास।' उपर्युक्त मतभेदों के प्रदर्शन में विशेषता यह रही है कि धवला में जहाँ तीन मतभेदों को प्रकट किया गया है वहां तिलोयपण्णत्ती में चार मतभेदों को प्रकट किया गया है। उनमें ६०५ वर्ष ५ मास और १४७६३ वर्ष ये दो मतभेद तो दोनों ग्रन्थों में समान हैं। किन्तु ७६६५ वर्ष व ५ मास तथा ६७८५ वर्ष व ५ मास, यह मत दोनों ग्रन्थों में कुछ भिन्न है (कदाचित् इस मतभेद में प्रतिलेखक की असावधानी से हुआ अंकव्यत्यास भी कारण हो सकता है। ६ का अंक कई रूपों में लिखा जाता है ।) विचारणीय समस्या उपर्युक्त दोनों ग्रन्थगत इस शब्दार्थ-विषयक समानता और असमानता को देखते हुए यह निर्णय करना शक्य नहीं है कि तिलोयपण्णत्ती का वर्तमान रूप धवलाकार के समक्ष रहा है और उन्होंने अपनी इस महत्त्वपूर्ण टीका की रचना में उसका उपयोग भी किया है। ऐसा निर्णय करने में कुछ बाधक कारण हैं जो इस प्रकार हैं-- (१) जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम में मिथ्यादृष्टियों का प्रमाण क्षेत्र को अपेक्षा अनन्तानन्त लोक कहा गया है।---सूत्र १,२,४ उस संदर्भ में लोक के स्वरूप को धवला में स्पष्ट किया गया है। इस प्रसंग में यह पूछने पर कि तिर्यग्लोक की समाप्ति कहाँ होती है, उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि असंख्यात द्वीप-समुद्रों से रोके गये क्षेत्र से आगे संख्यातगणे योजन जाकर तिर्यग्लोक की समाप्ति हुई है। इस पर वहाँ शंका की गयी है कि यह कहाँ से जाना जाता है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह ज्योतिषी देवों के दो सौ छप्पन अंगुलों के वर्गप्रमाण भागहार के प्रतिपादक सूत्र से और तिलोयपण्णत्ती के इस सूत्र से जाना जाता है दुगुण-दुगुणो दुवग्गो णिरंतरो तिरियलोगेत्ति। धवलाकार ने इसे 'तिलोयपण्णत्तिसुत्त' कहा है। इसे ही या इसी प्रकार की एक अन्य गाथा को धवलाकार ने आगे 'स्पर्शनानुगम' में चन्द्रसूर्यबिम्बों की संख्या के लाने के प्रसंग में इस प्रकार उद्धृत किया है चंदाइच्च-गहेहि चेवं णक्खत्त-ताररूवेहि । दुगुण-दुगुणेहि णीरंतरेहि दुवग्गो तिरियलोगो ।।-धवला पु० ४, पृ० १५१ किन्तु यहाँ किसी ग्रन्थ के नाम का उल्लेख नहीं किया गया है । १. देखिए धवला, पु० ६, पृ० १३२-३३ और ति०प० १,४,१४६६-६६ अनिदिष्टनाम प्रन्थ / ६११ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार उपर्युक्त 'तिलोयपण्णत्तिसुत्त' के नाम से उद्धृत वाक्य तिलोयपण्णत्ती के उपलब्ध संस्करण में नहीं पाया जाता है । (२) धवलाकार ने प्रतरसमुद्घातगत केवली के क्षेत्र के साथ संगति बैठाने के लिए लोक को दक्षिण-उत्तर में सात राजु प्रमाण बाहल्यवाला आयतचतुरस्र सिद्ध किया है । वर्तमान तिलोय पण्णत्ती (१-१४६ ) में लोक का प्रमाण इसी प्रकार कहा गया है । यदि धवलाकार के समक्ष तिलोयपण्णत्ती में निर्दिष्ट लोक का यह प्रमाण रहा होता तो उन्हें विस्तारपूर्वक गणितप्रक्रिया के आधार से उसे सिद्ध न करना पड़ता । प्रमाण के रूप में वे उसी तिलोयपण्णत्ती के प्रसंग को प्रस्तुत कर सकते थे । इससे यही सिद्ध होता है कि धवलाकार के समक्ष तिलोयपण्णत्ती में इस प्रकार का प्रसंग नहीं रहा । इसीलिए उन्हें यह कहना पड़ा ख - एसा क - एसो अत्थो जइवि पुव्वाइरियसंपदायविरुद्धो तो वि तंत-जुत्तिबलेण अम्हहिं परुविदो । - पु० ३, पृ० ३८ तप्पा ओग्गसंखेज्जरूवाहिय जंबूदीव - छेदणय सहिददीव-साथ रख्वमेत्त रज्जुच्छेदपमाणपरिक्खाविहीण अण्णाइरिओवदेसपरंपराणुसारिणी, केवलं तु तिलोयपण्णत्तिसुत्ताणुसारा जोदिसियदेवभागहारपदुप्पा इयत्तावलंविजुत्तिवलेण पयदगच्छसाहणट्टमम्हेहि परूविदा, प्रतिनियितसूत्रावष्टम्भबलविजं भितगुणप्रतिपन्न प्रतिबद्धासंख्येयावलिकावहारकालोपदेशवत् आयतचतुरस्रलोकसंस्थानोपदेशवद् वा । —धवला पु० ४, पृ० १५७ (३) तिलोयपण्णत्ती में कुछ ऐसा गद्य-भाग है जो धवला में प्रसंगप्राप्त उस गद्यभाग से शब्दश: समान है । यथा--- कतिलोयपण्णत्ती के प्रथम महाधिकार में गाथा २६२ में यह प्रतिज्ञा की गयी है कि हम वातवलय से रोके गये क्षेत्र के घनफल को, आठों पृथिवियों के घनफल को तथा आकाश के प्रमाण को कहते हैं । तदनुसार आगे वहाँ प्रथमतः 'संपहि लोगपरंतद्विदवाववलयरुद्धखेत्ताणं आणण विधाणं उच्चदे' इस सूचना के साथ लोक के पर्यन्त भाग में स्थित वायुओं के घनफल को निकाला गया है। उससे सम्बद्ध गद्यभाग वहाँ इस प्रकार है “लोगस्स तले तिष्णिवादाणं बहलं वादेक्कस्स य वीस-सहस्सा य जोयणमेत्तं । तं सब्वमेय कदे सट्ठिजोयणसहस्सबाहल्लं जगपदरं होदि । एवं सव्वमेत्थ मेलाविदे चउवीस-कोडिसमहियसहस्सकोडीओ एगूणवीसलवखतेसीदिसहस्सचउसदसत्तासीदिजोयणाणं णवसहस्ससत्तसयसरूवाहियलक्खाए अवहिदेगभागबाहल्लं जगपदरं होदि ।' १०२४१६८३४८७ १०६७६० आगे कृत प्रतिज्ञा के अनुसार आठ पृथिवियों के नीचे वायु द्वारा रोके गये क्षेत्र के और आठ पृथिवियों के भी घनफल को प्रकट किया गया है । " धवला में प्रतरसमुद्घातगत केवली के प्रसंग में 'संपहि लोगपरंतट्टिदवादवलयरुद्ध खेत्ताण १. ति०प०, भा० १, पृ० ४३-४६ २. ति० प०, भा० १, पृ० ४६-४८ ६२० / षट्खण्डागम-परिशीलन דיי Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यणविधाणं वच्चदे' इसी प्रतिज्ञा के साथ लोक के पर्यन्त भाग में स्थित वायुओं के घनफल को जिस गद्यभाग के द्वारा दिखलाया गया है, वह तिलोयपण्णत्ती के उपर्युक्त गद्यभाग से शब्दशः समान है। विशेषता यह रही है कि तिलोयपण्णत्ती में कृत प्रतिज्ञा के अनुसार आगे आठ पृथिवियों के नीचे वायुमण्डल द्वारा रोके गये क्षेत्र के घनफल को और आठ पृथिवियों के भी घनफल को जैसे प्रकट किया गया है वैसे प्रसंग के बहिर्भूत होने से यहाँ धवला में उसे नहीं दिखलाया गया है। इस प्रकार दोनों ग्रन्थगत इन प्रसंगों को देखते हुए यह कहना शक्य नहीं है कि तिलोयपण्णत्ती में धवला से इस गद्यभाग को लिया गया है अथवा धवला में उसे तिलोपयण्णत्ती से लिया गया है। ख-तिलोयपण्णत्ती के 'ज्योतिर्लोक' नामक सातवें महाधिकार के प्रारम्भ में निर्दिष्ट (७, २-४) अवान्तर अधिकारों के अनुसार ज्योतिषी देवों की क्रम से प्ररूपणा की गयी है। वहाँ क्रमप्राप्त अचर ज्योतिषियों की प्ररूपणा करते हए सपरिवार समस्त चन्द्रों के प्रमाण को निकाला गया है। उधर धवला में स्पर्शनानुगम के प्रसंग में ज्योतिषी सासादनसम्यग्दृष्टियों के स्वस्थान क्षेत्र की प्ररूपणा करते हुए समस्त ज्योतिषियों की संख्या को जान लेने की आवश्यकता पड़ी है। इसके लिए वहाँ भी सपरिवार समस्त चन्द्रों के प्रमाण को निकाला गया है। दोनों ग्रन्थगत उनकी यह प्ररूपणा प्रायः शब्दशः समान है । यथा--- "(एत्तो) चंदाण सपरिवाराणयणविहाणं वक्त इस्सामो। तं जहा-जंबूदीवादिपंचदीव-समुद्दे मुत्तूण तदियसमुद्दमादि कादूण जाव सयंभूरमणसमुद्दो ति एदासिमाणयण किरिया ताव उच्चदे-तदियसमुद्दम्मि गच्छो बत्तीस, च उत्थदीवे गच्छ चउसट्ठी,. . . . . . . .।" -ति०प०, भाग २, पृ० ७६४-६६ __ "(तिरियलोगावट्ठिदसयल-) चंदाणं सपरिवाराणमाणयणविहाणं वत्तइस्सामो । तं जहाजंबूदीवादि पंचवीव-समुद्दे मोत्तूण तदियसमुद्दमादि कादूण जाव सयंभूरमणसमुद्दो ति एदासिमाणयणकिरिया ताव उच्चदे-तदियसमुद्दम्मि गच्छो वत्तीस, चउत्यदीवे गच्छो चउसट्ठी... ......!"-धवला पु० ४, पृ० १५२-५६ इस प्रकार यह पूरा प्रकरण दोनों ग्रन्थों में शब्दशः समान है। अन्त में उपसंहार करते हए दोनों ग्रन्थगत प्रसंग के अनुसार जो अन्त में पाठ-परिवर्तन हुआ है, वह यहाँ द्रष्टव्य है। यथा "ति०५०-एसा तप्पाउग्गसंखेज्जरूवाहियजंबूदीवछेदणयसहिददीव-समुद्दरूवमेत्तरज्जुच्छेदणयपमाणपरिक्खाविहीण अण्णाइरियउवदेसपरंपराणुसारिणी, केवलं तु तिलोयपण्णत्तिसुत्ताणुसा. रिणी, जोदिसियभागहारपदुप्पाइदसुत्तावलंबिजुत्तिबलेण पयदगच्छसाधण?मेसा परूवणा परूविदा । तदो ण एत्थ इदमित्थमेवेत्ति एयंतपरिग्गहेण असग्गाहो कायव्वो।" ...... पृ० ७६६ "धवला--एसा तप्पाओग्गसंखेज्जरूवाहिय.........."पयदगच्छसाहणट्ठमम्हेहि परूविदा प्रतिनियतसूत्रावष्टम्भबल विज भितगुणप्रतिपन्नप्रतिबद्धासंख्येयावलिकावहारकालोवदेशवत् आ १. धवला, पु० ४, पृ० ५१-५५ अनिदिष्टनाम ग्रन्थ /६२१ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतचतुरस्रलोकसंस्थानोपदेशवद्वा । तदो ण एत्थ इदमित्थमेवेति ।"-पु० ४, पृ० १५७-५८ दोनों ग्रन्थगत इन गद्यांशों की समानता और कुछ विलक्षणता को देखते हुए कुछ विद्वानों का यह मत रहा है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्ती यतिवृषभाचार्य की रचना नहीं है और बहुत प्राचीन भी वह नहीं है, धवला के बाद की रचना होनी चाहिए। कारण यह कि धवला में तिलोयपण्णत्ति के नाम से उल्लिखित वह “दुगुण-दुगुण दुवुग्गो णिरंतरो तिरियलोगो" सूत्र वर्तमान तिलोयपण्णत्ती में उपलब्ध नहीं होता तथा उपर्युक्त गद्यभाग धवला से ही लेकर इस तिलोयपण्णत्ती में आत्मसात् किया गया है, इत्यादि।' पिछले गद्यभाग में जो पाठ परिवर्तित हुआ है, उसे देखते हुए ये कुछ प्रश्न अवश्य उठते (१) तिलोयपण्णत्ती के अन्तर्गत इस गद्यभाग में जो यह कहा गया है कि यह राजु के अर्धच्छेद के प्रमाण की परीक्षाविधि अन्य आचार्यों के उपदेश का अनुसरण करने वाली नहीं है, वह केवल तिलोयपण्णत्तिसुत्त का अनुसरण करने वाली है; उसे कैसे संगत कहा जा सकता है ? कोई भी ग्रन्थकार विवक्षित तत्त्व की प्ररूपणा को अपने ही ग्रन्थ के बल पर पुष्ट नहीं कर सकता है, किन्तु अपने से पूर्ववर्ती किसी प्रामाणिक प्राचीन ग्रन्थ के आधार से उसे पुष्ट करता है। (२) इसी गद्यभाग में प्रसंगप्राप्त एक शंका का समाधान करते हुए परिकर्म के व्याख्यान को सूत्र के विरुद्ध कहकर अग्राह्य ठहराया गया है। यहाँ यह विचारणीय है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्ती के कर्ता के सामने वह कौन-सा सूत्र रहा है, जिसके विरु द्ध उस परिकर्म को विरुद्ध समझा जाय? धवलाकार के समक्ष तो षट्खण्डागम का यह सूत्र रहा है "खेत्तेण पदरस्स वेछप्पण्णंगुलस्यवग्गपडिभागेण ।"-सूत्र १,२,५५ (पु० ३)। इसके विरुद्ध होने से धवलाकार ने परिकर्म के उस व्याख्यान को अप्रमाण व्याख्यान घोषित किया है। (३) धवला के अन्तर्गत उपर्युक्त सन्दर्भ में जो एक विशेषता दृष्टिगोचर होती है, वह भी ध्यान देने योग्य है। उसमें स्वयम्भूरमणसमुद्र के आगे राजु के अर्धच्छेदों के अस्तित्व को सिद्ध करके धवलाकार ने जो यह कहा है कि यह राजु के अर्धच्छेदों के प्रमाण की परीक्षाविधि अन्य आचार्यों के उपदेश की परम्परा का अनुसरण नहीं करती है, फिर भी हमने तिलोयपण्णत्तिसूत्र के अनुसार ज्योतिषी देवों के भागहार के प्रतिपादक सूत्र पर आधारित युक्ति के बल से प्रकृत गच्छों के साधनार्थ उसकी प्ररूपणा की है। इसके लिए उन्होंने ये दो उदाहरण भी दिये हैंजिस प्रकार परम्परागत आचार्योपदेश के प्राप्त न होने पर भी हमने प्रसंगवश असंख्यात आवलिप्रमाण अवहारकाल को और आयत चतुरस्र लोक के आकार को सिद्ध किया है। १. देखिये 'जैन सिद्धान्त-भास्कर' भाग ११, कि १, पृ० ६५-८२ में 'वर्तमान तिलोयपण्णत्ति और उसके रचनाकाल आदि का विचार' शीर्षक लेख (इस प्रसंग में 'पुरातन जैन वाक्यसूची' की प्रस्तावना पृ० ४१-५७ तथा तिलोयपण्णत्ती, भाग ३ की प्रस्तावना पृ० १५-२० भी द्रष्टव्य हैं।) २. धवला, पु० ४, पृ० १५७ ६२२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ यह प्रश्न उठता है कि धवलाकार ने जब प्रसंगप्राप्त उस पूरे सन्दर्भ को प्राकृत भाषा में निबद्ध किया है तब उन्होंने इन उदाहरणों के प्ररूपक अंश को संस्कृत में क्यों लिखा? यद्यपि धवलाकार ने अपनी इस टीका को संस्कृत-प्राकृत मिश्रित भाषा में लिखा है, इसलिए यह प्रश्न उपस्थित नहीं होना चाहिए; क्योंकि धवला में विषय की प्ररूपणा करते हुए बीच-बीच में उन्होंने संस्कृत का भी सहारा लिया है। यही नहीं, कहीं-कहीं तो उन्होंने एक ही वाक्य में प्राकृत और संस्कृत दोनों शब्दों का उपयोग किया है, फिर भी यह प्रसंग कुछ शंकास्पद-सा बन गया है। यह भी सम्भव है कि उपर्युक्त गद्यमय सन्दर्भ वर्तमान तिलोयपण्णत्ती और धवला दोनों से पूर्वकालीन किसी ग्रन्थ में रहा हो और प्रसंग के अनुसार कुछ शब्दों में परिवर्तन कर इन दोनों ग्रन्थों में उसे आत्मसात् कर लिया गया हो। जैसा कि उपर्युक्त (११. तत्त्वार्थवार्तिक) के प्रसंग से स्पष्ट है, धवला में कहीं-कहीं प्रसंगानसार ग्रन्थनामनिर्देश के बिना अन्य ग्रन्थगत सन्दर्भक को आत्मसात् कर लिया गया है। इन सब परिस्थितियों को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्ती में यह गद्यभाग धवला से लेकर आत्मसात् किया गया है। तिलोयपण्णत्ती का स्वरूप उपलब्ध तिलोयपण्णत्ती एक महत्त्वपूर्ण प्रामाणिक ग्रन्थ है। उसकी विषयविवेचन की पद्धति आगम-परम्परा पर आधारित, अतिशय व्यवस्थित और योजनाबद्ध है। वहाँ सर्वप्रथम मंगल के पश्चात् जो विस्तार से मंगल-निमित्तादि उन छह के विषय में चर्चा की गयी है, वह परम्परागत व्याख्यान के क्रम के आश्रय से की गयी है। ऐसी सैकड़ों गाथाओं का परम्परागत प्रवाह बहुत समय तक चलता रहा है, जिसका उपयोग आवश्यकतानुसार पीछे के ग्रन्थकारों ने यथाप्रसंग अपनी स्मृति के आधार पर किया है। इससे यह कहना संगत नहीं होगा कि तिलोयपण्णत्ती में जो उन मंगलादि छह का विवेचन किया गया है, वह धवला के आश्रय से किया गया है। प्रत्युत इसके विपरीत यदि यह कहा जाय कि धवलाकार ने ही तिलोयपण्णत्तीगत उस प्रसंग का अनुसरण किया है, तो उसे असम्भव नहीं कहा जा सकता। । उक्त मंगलादि छह के विवेचन के पश्चात् ग्रन्थकार ने यह प्रतिज्ञा की है कि जिनेन्द्र के मुख से निर्गत व गणधरों के द्वारा पदसमूह में ग्रथित आचार्य-परम्परा से चली आ रही तिलोयपण्णत्ती (त्रिलोकप्रज्ञप्ति) को कहता हूँ (गा० १,८५-८७)। ठीक इसके बाद उन्होंने उसमें वर्णनीय सामान्यलोक व नारकलोक आदि नौ महाधिकारों का उल्लेख कर दिया है। -१,८८-६० इस प्रकार जिस क्रम से उन्होंने उन महाधिकारों का निर्देश किया है, उसी क्रम से उनकी प्ररूपणा करते हुए प्रत्येक महाधिकार के प्रारम्भ में उन अन्तराधिकारों का उल्लेख भी कर दिया है जिनके आश्रय से वहाँ प्रतिपाद्य विषय का विवेचन करना अभीष्ट रहा है। पश्चात तदनुसार ही उन्होंने योजनाबद्ध विषय का विचार किया है। १. प्रथम 'सामान्य लोक' भूमिका रूप होने से वहाँ अवान्तर अधिकारों की सम्भावना नहीं रही। अनिदिष्टनाम ग्रन्थ / ६२३ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार निर्दिष्ट क्रम से प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा करते हुए उनके समक्ष विवक्षित विषय के सम्बन्ध में जहाँ कहीं जो कुछ भी मतभेद रहा है, उसे उन्होंने ग्रन्थ के नामनिर्देशपूर्वक आचार्यविशेष के उल्लेख के साथ, अथवा 'पाठान्तर' के रूप में, स्पष्ट कर दिया है। इस प्रकार से ग्रन्थकार ने अपनी प्रामाणिकता को पूर्णतया सुरक्षित रखा है। जिन गद्यांशों की ऊपर चर्चा की गयी है, अवान्तर अधिकारों के निर्देशानुसार उनमें प्ररूपित विषय की प्ररूपणा करनी ही चाहिए थी, भले ही वह गाथाओं में की जाती या गद्य में। तदनुसार ही प्रत्येक महाधिकार में विवक्षित विषय की प्ररूपणा वहाँ की गयी है। प्रथम महाधिकार में गाथा २८२ में लोक के पर्यन्त भाग में वायुमण्डल से रोके गये क्षेत्र के घनकल, आठ पृथिवियों के नीचे वायुरुद्ध-क्षेत्र के घनफल और आठ पृथिवियों के धनफल के कथन की प्रतिज्ञा की गयी है। तदनुसार आगे गद्य में उक्त घनफलों के प्रमाण को स्पष्ट किया गया है। जिस गद्यभाग में उस तीन प्रकार के घनफल को निकाला गया है, उसमें केवल लोक के पर्यन्त भाग में अवस्थित वायु से रोके गये क्षेत्र के घनफल का प्ररूपक गद्यांश ही ऐसा है जो धवला में भी उसी रूप में उपलब्ध होता है। उसको छोड़कर आठ पृथिवियों के नीचे वायुरुद्ध क्षेत्र के घनफल का प्ररूपक और आठ पृथिवियों के घनफल का प्ररूपक गद्यभाग धवला में नहीं पाया जाता है। तब ऐसी स्थिति में यह विचारणीय है कि आगे के शेष गद्यभाग की रचन जब तिलोयपण्णत्तिकार स्वयं करते हैं, तब उसमें से प्रारम्भ के थोड़े से गद्यांश को वे धवला सो क्यों लेंगे? इससे यही फलित होता है कि या तो वह पूरा गद्यभाग ग्रन्थकार के द्वारा ही लिखा गया है या फिर पूरा ही वह उसमें कहीं से पीछे प्रक्षिप्त हुआ है। राज के अर्धच्छेद प्रमाण के प्ररूपक दूसरे गद्यभाग के विषय में पीछे विचार किया ही जा चुका है। एक अन्य प्रश्न तिलोयपण्णत्ती के रचयिता कौन हैं, इसका ग्रन्थ में कहीं कुछ संकेत नहीं मिलता है। उसके अन्त में ये दो गाथाएं उपलब्ध होती हैं - पणमह जिणवरवसहं गणहरवसहं तहेव गुणवसहं ।। दट्ठण परिसहवसहं जदिवसहं धम्मसुत्तपाठए घसहं ।। चुण्णिसरूवत्थ[च्छ] करणसरूवपमाण होइ किंजंत्तं [जंतं] । अट्ठसहस्सपमाणं तिलोयपण्णत्तिणामाए ।—ति०प०८,७६-७७ ___ इनके अन्तर्गत अभिप्राय को समझना कठिन दिखता है, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें से प्रथम गाथा में उस जिनेन्द्र को प्रणाम करने की प्रेरणा की गयी है, जो गणधरों में श्रेष्ठ, उत्कृष्ट गुणों से सम्पन्न, परीषहों के विजेता, यतिजनों में सर्वश्रेष्ठ और धर्मसूत्र के ज्ञापन १. ति०प०, भा० २, परिशिष्ट पृ० ६६५ व १८७-८८ २. ति०५०, भा० १, पृ० ४३-५० ३. वही, पृ० ४३-४६ व धवला पु० ४, पृ० ५१-५५ ४. वही, ४६-५० ६२४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में कुशल हैं। अप्रकट रूप में यहाँ 'जदिवसहं' द्वारा 'यतिवृषभ' इस नाम को भी सम्भवतः सूचित किया गया है । गुण से नाम के एकदेश के रूप में आचार्य 'गुणधर' का भी स्मरण करना सम्भव है। दूसरी गाथा का अर्थ बैठाना कुछ कठिन है । पर जैसी कसायपाहुडसुत्त की प्रस्तावना में पं० हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री ने कल्पना की है, तदनुसार 'चुण्णिसरूवत्थाढ] करणसरूवपमाणं' इस पाठ को लेकर यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि आठ करणस्वरूप कम्मपयडि या कर्मप्रकृति की चूणि का जितना प्रमाण है, उतना ही आठ हजार ग्रन्थप्रमाण तिलोयपण्णत्ती ___इस सम्बन्ध में पं० हीरालाल जी ने यह अभिप्राय प्रकट किया है कि बन्धन व संक्रमण आदि आठ करणस्वरूप जो शिवशर्मसूरि-विरचित कम्मपयडि है उस पर एक चूणि उपलब्ध है जो अनिर्दिष्ट नाम से प्रकाशित भी हो चुकी है । उसके रचयिता वे ही यतिवृषभाचार्य हैं, जिन्होंने कसायपाहुड पर चूर्णिसूत्र लिखे हैं। इसके स्पष्टीकरण में पं० हीरालाल जी ने कसायपाहुउचूर्ण और कम्मपडिणि दोनों से कुछ उद्धरणों को लेकर उनमें शब्दार्थ से समानता को प्रकट किया है। उनके उपर्युक्त स्पष्टीकरण में कुछ बल तो है, पर यथार्थ स्थिति वैसी रही है, यह सन्देह से रहित नहीं है।' इससे भी तिलोयपण्णत्ती के रचयिता आ० यतिवृषभ हैं, यह सिद्ध नहीं होता। आ० यतिवृषभ के द्वारा कसायपाहुड पर चूणि लिखी गयी है, यह निश्चित है। आ० वीरसेन ने धवला और जयधवला दोनों में यह स्पष्ट किया है कि गुणधराचार्य द्वारा विरचित कसायपाहड आचार्य-परम्परा से आकर आर्यमंक्षु और नागहस्ति भट्टारक को प्राप्त हुआ। इन दोनों ने क्रम से उसका व्याख्यान यतिवृषभ भट्टारक को किया और उन यतिवृषभ ने उसे चणिसूत्र में लिखा। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि चूर्णिसूत्रों को रचते हुए यतिवृषभाचार्य ने उनके प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में कहीं कुछ मंगल नहीं किया है। किन्तु उपलब्ध तिलोयपण्णत्ती के प्रारम्भ में सिद्ध व अरहन्त आदि पाँच गुरुओं को और अन्त में ऋषभ जिनेन्द्र को नमस्कार किया गया है । तत्पश्चात् प्रत्येक महाधिकार के आदि व अन्त में क्रम से अजितादि जिनेन्द्रों में से एक-एक को नमस्कार किया गया है । अन्तिम नौवें अधिकार के अन्त में शेष रहे कंथ आदि आठ जिनेन्द्रों को नमस्कार किया गया है।। इस मंगल की स्थिति को देखते हुए चूर्णिसूत्रों के रचयिता यतिवृषभाचार्य ही तिलोयपण्णत्ती के रचयिता हैं, यह सन्देहास्पद है। इस प्रकार तिलोयपण्णत्ती के कर्तृत्व के विषय में अन्तिम किसी निर्णय के न होने पर भी १. 'कसायपाहुडसुत्त', प्रस्तावना, पृ० ३८-४६ २. गुणहरवयणविणिग्गयगाहाणत्थोऽवहारियो सव्वो। जेणज्जमंखुणा सो सणागहत्थी वरं देऊ ॥ जो अज्जमखुसीसो अंतेवासी वि णागहत्थिस्स । सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो मे वरं देऊ ।।-जयध०, प्रारम्भिक मंगल, गा० ७-८ (धवला पु० १२, पृ० २३१-३२ का प्रसंग भी द्रष्टव्य है।) अनिदिष्ट नाम ग्रन्थ / ६२५ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसकी अतिशय व्यवस्थित प्रामाणिक रचना को देखते हुए उसे धवला के बाद का नहीं कहा जा सकता है। १४. दशवकालिक-इसके रचयिता शय्यम्भव सूरि हैं । साधारणतः ग्रन्थ-रचना और उसके अध्ययन-अध्यापन का काल रात्रि की व दिन की प्रथम और अन्तिम पौरुषी माना गया है । पर अपने पुत्र 'मनक' की आयु को अल्प (छह मास मात्र) जानकर उसके निमित्त यह ग्रन्थ विकाल (विगतपौरुषी) में रचा गया है, इसलिए इसका नाम 'दशवैकालिक' प्रसिद्ध हुआ है। उसकी टीका में हरिभद्र सूरि ने शय्यम्भव मूरि को चतुर्दशपूर्व वित् कहा है। उनके विषय में जो कथानक प्रचलित है, उसमें भी उनके चतुर्दशपूर्ववित् होने का उल्लेख है। उसमें ये दस अध्ययन हैं-द्रुमपुष्पिका, श्रामण्यपूर्विका, क्षुल्लिकाचारकथा, षड्जीवकाय, पिण्डषणा, भट्टाचारकथा, वाक्य शुद्धि, आचारप्रणिधि, विनयसमाधि और सभिक्षु । अन्त में रतिवाक्यचूलिका और विविक्तचर्याचूलिका ये दो चूलिकाएँ हैं। उन दस अध्ययनों में चौथा जो 'षड्जीव निकाय' है, उसमें ये अधिकार हैं-जीवाजीवाभिगम, चारित्रधर्म, उपदेश, यातना और धर्मफल । धवला में जो कुछ समानता इस दशवकालिक के साथ दृष्टिगोचर होती है, उसे यहाँ स्पष्ट किया जाता है (१) उपर्युक्त 'षड्जीवनिकाय' अध्ययन के अन्तर्गत जीवाभिगम नामक अर्थाधिकार में पथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक इन छह काय के जीवों की प्ररूपणा की गयी है।' प्रस्तुत षट्खण्डागम में इन छह काय वाले जीवों का उल्लेख किया गया है । विशेषता यहाँ यह रही है कि उक्त छह कायवाले जीवों के साथ प्रसंगवश अकायिक (कायातीत-सिद्ध) जीवों का भी उल्लेख किया गया है। दशवकालिक के उस प्रसंगप्राप्त सूत्र में आगे अनेक वनस्पति-भेदों में कुछ का उल्लेख इस प्रकार किया गया है--अग्रबीज, मूलबीज, पोरबीज, स्कन्धबीज, बीजरुह, संमूछिम और तृणलता। षट्खण्डागम की धवला टीका में इन वनस्पति-भेदों की प्ररूपक एक गाथा इस प्रकार उद्धत रूप में उपलब्ध होती है मलग्ग-पोरबीया कंदा तह खंधबीय-बीयरहा । सम्मुच्छिमा य भणिया पत्तेयाणंतकाया य ॥" इसके समकक्ष एक गाथा आचारांगनियुक्ति में इस प्रकार उपलब्ध होती है १. छहि मासेहि अहि [ही]अं अज्झयणमिणं तु अज्जमणगेणं। छम्मासा परिआओ अह कालगओ समाहीए।-दशव०नि० ३७० २. दशवै० सूत्र १, पृ० २७४-७५ ३. ष०ख० सूत्र १,१,३६ (पु. १) ४. धवला पु० १, पृ० २७३ (यह गाथा मूलाचार (५-१६), दि०पंचसंग्रह (१-८१), जीवन समास (३४) और गो०जीवकाण्ड (१८६) में उपलब्ध होती है।) ६२६ / पट्खण्डागम-परिशीलन Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्गबीया मूलबीया खंधबीया चेव पोरबीया य । बीयरुहा सम्मुच्छिम समासओ वणस्सई जीवा ॥१३०॥ इस प्रकार ये वनस्पतिभेद दोनों ग्रन्थों में प्रायः समान हैं। (२) दशवकालिक में आगे इसी चौथे अध्ययन के अन्तर्गत 'चारित्र' अर्थाधिकार में छठे रात्रिभोजन-विरमण के साथ क्रम से पांच महाव्रतों के स्वरूप को प्रकट किया गया है। तत्पश्चात् उसके 'यतना' नामक चौथे अर्थाधिकार में भिक्षु व भिक्षुणी के द्वारा मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमत रूप नौ प्रकार से क्रमश: पृथिवीकायिकादि जीवों को पीड़ा न पहुँचाने की प्रतिज्ञापूर्वक प्रतिक्रम व निन्दा-गर्हा आदि की भावना व्यक्त की गयी है।' इस प्रसंग में वहां जलकायिक जीवों को पीड़ा न पहुँचाने की प्रेरणा करते हुए इन जलकायिक जीवों का उल्लेख किया गया है उदक, ओस, हिम, महिका, करक, हरतणु और शुद्ध उदक । धवला में इन जीवभेदों की निर्देशक एक गाथा इस प्रकार उद्धृत की गयी है ओसा य हिमो धूमरि हरधणु सुद्धोदओ घणोदो य । एवे हु आउकाया जीवा जिणसासणु हिट्ठा ॥ दोनों ग्रन्थों में पर्याप्त शब्दसाम्य है। (३) दशवकालिक में अग्निकायिक जीवों के प्रसंग में उनके ये नाम निर्दिष्ट किये गये हैं अग्नि, इंगाल, मुर्मुर, अचि, ज्वाला, अलात, शुद्ध अग्नि और उल्का । धवला में उद्धृत गाथा द्वारा उक्त अग्निकायिक जीवों के ये भेद प्रकट किये गये हैंइंगाल, ज्वाला, अचि, मुर्मुर और शुद्ध अग्नि । इन जीवभेदों की प्ररूपक गाथाएं मूलाचार (५,१३-१५), जीवसमास (३१-३३), दि० प्रा० पंचसंग्रह (१,७८-८०) और आचारांगनियुक्ति (गा० १०८,११८ व १६६) में भी उपलब्ध होती हैं । इन भेदों का संग्राहक पूर्वार्ध सबका समान है, किन्तु उत्तरार्ध परिवर्तित है। (४) इस 'षड्जीवनिकाय' अध्ययन के अन्तर्गत पाँचवें 'उपदेश' अर्थाधिकार में कहा गया है कि जो अयत्नपूर्वक-प्रमाद के वश होकर-चलता है, स्थित होता है, बैठता है, भोजन करता है और भाषण करता है, वह त्रस-स्थावर जीवों को पीड़ा पहुँचाता हुआ जिस पापकर्म को बांधता है उसका कटुक फल होता है। ___ इस प्रसंग में वहाँ यह पूछा गया है कि यदि ऐसा है तो फिर किस प्रकार से गमनादि में प्रवृत्ति करे, जिससे पापकर्म का बन्ध न हो। उत्तर में यह कहा गया है कि प्रयत्नपूर्वक (सावधान होकर) जिनाज्ञा के अनुसार गमनादि प्रवृत्ति करने पर पाप का बन्ध नहीं होता है। इस प्रसंग से सम्बद्ध वे पद्य इस प्रकार हैं कह चरे कह चिट्ठ कह मासे कहं सए। कह भुजंतो भासंतो पावं कम्मं न बंधइ ॥ १. सूत्र ३-१५, पृ० २८६-३१४ २. ओसा य हिमग महिगा हरदणु सुद्धोदगे घणुदगे य । ते जाण आउजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा ॥--मूला० ५-१३ अनिदिष्टनाम ग्रन्थ / ६२७ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयं चरे जयं चिट्ठ जयमासे जयं सए । जयं भुजतो भासंतो पावं कम्मं न बंधइ ।।' धवला में जीवस्थान के अवतार की प्ररूपणा करते हुए प्रसंगप्राप्त अंगश्रुत का निरूपण किया गया है । उस प्रसंग में धवलाकार ने आचारांग के स्वरूप को प्रकट करते हुए वहाँ इन पद्यों को उद्धृत किया है और यह कहा है कि आचारांग अठारह हजार पदों के द्वारा इत्यादि (पद्यों में निर्दिष्ट) प्रकार के मुनियों के आचार का वर्णन करता है.... वट्टकेराचार्य-रचित मूलाचार के अन्तर्गत 'समयसार' नामक दशम अधिकार में मुनियों के आचरण को दिखलाते हुए आगमानुसार प्रवृत्ति करने वाले साधु की प्रशंसा और विपरीत प्रवृत्ति करने वाले की निन्दा की गयी है। वहीं प्रसंग को समाप्त करते हुए यह कहा गया है कि पृथिवीकायिक जीव पृथिवी के आश्रित रहते हैं, इसलिए पृथिवी के आरम्भ में निश्चित ही उनकी विराधना होती है। इस कारण जिन-मार्गानुगामियों को जीवन-पर्यन्त उस पृथिवी का आरम्भ करना योग्य नहीं है । जो जिनाज्ञा के अनुसार उन पृथिवीकायिक जीवों का श्रद्धान नहीं करता है वह जिन-वचन से दूरस्थ होता है, उसके उपस्थापना नहीं है। इसके विपरीत जो श्रद्धान करता है वह पुण्य-पाप के स्वरूप को समझता है, अत: उसके उपस्थापना है। उक्त प्रथिवीकायिक जीवों का श्रद्धान न करने वाला जिन-लिंग को धारण करता हआ भी दीर्घ होता है। यहाँ वृत्तिकार कहते हैं कि इस प्रकार के जीवों के संरक्षण के इच्छुक गणधर देव तीर्थकर । परमदेव से पूछते हैं। उनके प्रश्न का स्वरूप इस प्रकार है___उन जीवों की रक्षा में उद्यत साधु कैसे गमन करे, कैसे बैठे, कैसे शयन करे, कैसे भोजन करे और कैसे सम्भाषण करे, जिससे पाप का बन्ध न हो। इन प्रश्नों के उत्तर में वहां यह कहा गया है-.-- उन जीवों की रक्षा में उद्यत साधु प्रयत्नपूर्वक -ईर्यासमिति से-गमन करे, सावधानी से बैठे, सावधान रहकर शयन करे, प्रमाद को छोड़ भोजन करे और भाषासमिति के अनुसार सम्भाषण करे; इस प्रकार से उसके पाप का बन्ध होनेवाला नहीं है। इस प्रकार मूलाचारगत इन पद्यों में और पूर्वोक्त दशवैकालिक के उन पद्यों में 'कह' व 'कधं' जैसे भाषाभेद को छोड़कर अन्य कुछ शब्द व अर्थ की अपेक्षा विशेषता नहीं है, सर्वथा वे समान हैं। धवला में उद्धत वे पद्य भाषा की दृष्टि से मूलाचार के समान हैं। (५) दशवकालिक के अन्तर्गत नौवें 'विनयसमाधि' अध्ययन में गुरु के प्रति की जानेवाली अविनय से होनेवाली हानि और उसके प्रति की गयी विनय से होनेवाले लाभ का विचार करते १. सूत्र ७-८, पृ० ३१६ २. धवला पु० १, पृ० ६६ ३. मूलाचार १०,११६-२० ४. कध चरे कधं चिट्ठ कधमासे कधं सये । कधं भुजेज्ज भासेज्ज कधं पावं ण बज्झदि ।। जदं चरे जदं चिट्ठ जदमासे जदं सये । जदं भुंजेज्ज भासेज्ज एव पावं ण बज्झइ ॥—मूला० १०,१२१-२२ ६२८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए उस प्रसंग में यह एक सूत्र उपलब्ध होता है जस्संतिए धम्मपयाई सिक्खे तस्संतिए वेणइयं परंजे । सक्कारए सिरसा पंजलीओ कायग्गिरा भो मणसा अनिच्चं ॥-दशवै० ६,१,१२ (पृ ४८६) धवला में मंगलप्ररूपणा के प्रसंग में यह एक शंका उठायी गयी है कि समस्त कर्मफल से निर्मुक्त हुए सिद्धों को पूर्व में नमस्कार न करके चार अघाती कर्मों से सहित अरहन्तों को प्रथमत: क्यों नमस्कार किया गया है । इसके उत्तर में वहाँ यह कहा गया है कि अरहन्त के न होने पर हमें आप्त, आगम और पदार्थों का बोध होना सम्भव नहीं है, इसलिए चूंकि अरहन्त के आश्रय से उन गुणाधिक सिद्धों में श्रद्धा अधिक होनेवाली है इसीलिए उक्त उपकारी की दष्टि से सिद्धों के पूर्व में अरहन्तों को नमस्कार किया गया है । अतएव उसमें कुछ दोष नहीं है। इसके आगे वहाँ 'उक्तं च' ऐसा निर्देश करते हुए इस पद्य को उद्धृत किया गया है जस्संतियं धम्मवह णिगच्छे तस्संतियं वेणइयं पउंजे । सक्कारए तं सिरपंचमेण काएण वाया मणसा वि णिच्चं ॥ इन दोनों ग्रन्थों में उपर्युक्त इस पद्य में पर्याप्त समानता है। जो कुछ पाठभेद हुआ है उसमें कुछ लिपिदोष से भी सम्भव है। दशवकालिक में व्यवहृत उसके तृतीय चरण में छन्दोभंग दिखता है । अभिप्राय उन दोनों का समान ही है। १५. धनंजय अनेकार्थनाममाला-इसके रचयिता वे ही कवि धनंजय हैं, जिनके द्वारा 'द्विसन्धानकाव्य' और 'विषापहार स्तोत्र' रचा गया है। ___ धवला में प्रसंगवश इस अनेकार्थनाममाला के "हेतावेवं प्रकारादो" आदि पद्य को उद्धत किया गया है। १६. ध्यानशतक-यह कब और किसके द्वारा रचा गया है, यह निर्णीत नहीं है। फिर भी उस पर सुप्रसिद्ध हरिभद्र सूरि के द्वारा टीका लिखी गयी है । हरिभद्र सूरि का समय आठवीं शताब्दी माना जाता है। अतएव वह आठवीं शताब्दी के पूर्व रचा जा चुका है, यह निश्चित है। षट्खण्डागम में वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'कर्म' अनुयोगद्वार में कर्म के नामकर्म व स्थापनाकर्म आदि दस भेदों की प्ररूपणा की गयी है। उनमें आठवां तपःकर्म है। ग्रन्थकार ने उसे अभ्यन्तर के साथ बाह्य तप को लेकर बारह प्रकार का कहा है। -सूत्र ५,४,२५-२६ उसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने अनेषण (अनशन) आदि रूप छह प्रकार के बाह्य तप की और प्रायश्चित्त आदि रूप छह प्रकार के अभ्यन्तर तप की प्ररूपणा की है। उस प्रसंग में उन्होंने अभ्यन्तर तप के प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग इन १. धवला, पु० १, पृ० ५३-५४ २. धवला, पु०६, पृ० १४ अनिर्दिष्ट नाम ग्रन्थ / ६२९ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह की प्ररूपणा में पाँचवें ध्यान की प्ररूपणा ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यानफल इन चार अधिकारों में विस्तार से की है।' ___ इस प्रसंग में धवलाकार ने यथावसर ग्रन्थ या ग्रन्थकार का नामनिर्देश न करके 'एत्थ गाहा' व 'एत्थ गाहाओ' इस सूचना के साथ धवला में लगभग ६६ पद्यों को उद्धृत किया है, जिनमें ४६-४७ पद्य प्रस्तुत ध्यानशतक में उपलब्ध होते हैं। धवला पु० १३ गाथांक ध्यानशतक गाथांक संख्या गाथांश पृष्ठ w १२ w wr rxraor mox१ जं थिरमझवसाणं जच्चिय देहावत्था सव्वासु वट्टमाणा तो जत्थ समाहाणं णिच्चं चिय जुव इ-पसू थिरकयजोगाणं पुण कालो वि सोच्चिय तो देस-काल-चेट्ठा आलंबणाणि वायण विसमं हि समारोहइ पुवकयब्भासो णाणे णिच्चब्भासो संकाइसल्लरहियो णवकम्माणादाणं सुविदियजयस्सहावो सुणिउणमणाइणिहणं ज्झाएज्जो णिरवज्ज तत्थ मइदुब्बलेण टेदूदाहरणासंभवे अणुवगयपराणुग्गह रागद्दोस-कसाया पयडिट्ठिदिप्पदेसाणु जिणदेसियाइ लक्खण पंचत्थिकायम इयं खिदिवलयदीव-सायर उवजोगलक्खणमणाइ तस्स य सकम्मजणियं WWW AM K१ Www cWW. MGK WW० ० WM८ ० 0 W XcccccK mr am GmWGM mrr ॥ mr ० mmm * KWWW २६ २७ ५५ १. धवला, पु० १३, पृ० ६४८८ ६३० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवला पु. १३ पृष्ठ गाथांक ध्यानशतक गाथांक संख्या गायांश २८ ४८ ४६ ५८ उ० ६२पू. बहुलो= ६५ बहुणा ३० ३३ xxxxxx wr mm m णाणमयकण्णहारं कि बहुसो सव्वं चिय झाणोवरमे वि मुणी अंतोमुहुत्तमेत्तं अंतोमुहुत्तपरदो होंति कमविसुद्धाओ आगमउवदेसाणा जिग-साहुगुणक्कित्तण होंति सुहासव-संवर जह वा घणसंघाया अह खंति-मद्दबज्जव जह चिरसंचियमिंधण जह रोगासयसमणं अभयासंमोहविवेग चालिज्जइ बीहेइ व देहविचित्तं पेच्छइ ण कसायसमुत्थेहि सीयायवादिएहि हि ३७ १०२ ६४ ६५ ३६ ४० १०१ १०० ९० ध्या० 'अवहा ६७ " ६२ ४४ १०४ पू० कमव्यत्यय धवला में पु०७३ पर गाथा ४८ के पाठ में कुछ क्रमभंग हुआ है तथा पाठ कुछ स्खलित भी हो गया है । यहाँ धवला के अन्तर्गत उस ४८वीं गाथा को देकर ध्यानशतक के अनुसार उसके स्थान में जैसा शुद्ध पाठ होना चाहिए, उसे स्पष्ट किया जाता है णाणमयकण्णहारं वरचारित्तमयमहापोयं । संसार-सागरमणोरपारमसुहं विचितेज्जो ॥-धवला पृ० ७३, गा० ४८ अण्णाण-मारएरियसंजोग-विजोग-वीइसंताण । संसार-सागरमणोरपारमसुहं विचितेज्जा ।।५७ तस्स य संतरणसहं सम्मदसण-सुबंधणमणग्धं । णाणमयकण्णधारं चारित्तमयं महापोयं ॥५८ संवरकयनिच्छिदं तव-पवणाइद्धजइणतरवेगं । बेरग्गमग्गपडियं विसोइया-वीइनिक्लोभं ॥५६ १. विशेष जानकारी के लिए 'ध्यानशतक' की प्रस्तावना प० ५६-६२ में 'ध्यानशतक और धवला का 'ध्यान प्रकरण' शीर्षक द्रष्टव्य है। अनिर्दिष्ट नाम ग्रन्थ / ६३१ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरोढुं मुणि-वणिया महग्घसोलंग-रयणपडिपुण्णं । जह तं निव्वाणपुरं सिग्घभविग्घेण पावंति ॥६०॥-ध्यानशतक यहां यह ध्यान देने योग्य है कि ध्यानशतक के अनुसार जो ‘णाणमयकण्णधारं' विशेषण संसार-सागर से पार कराने वाली चारित्ररूपी विशाल नौका का रहा है, वह ऊपर निर्दिष्ट धवलागत पाठ के अनुसार संसार-सागर का विशेषण बन गया है। साथ ही 'चारित्रमय महा. पोत' भी उसी संसार-सागर का विशेषण बन गया है । इस प्रकार का उपर्युक्त गाथागत वह असंगत पाठ धवलाकार के द्वारा कभी प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। वह सम्भवतः किसी प्रतिलेखक की असावधानी से हुआ है। ध्यानशतक से विशेषता (१) ध्यानशतक में तत्त्वार्थसूत्र और स्थानांग आदि के समान ध्यान के ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल । वहाँ यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इनमें अन्त के दो ध्यान निर्वाण के साधन हैं तथा आर्त व रौद्र ये दो ध्यान भी संसार के कारण हैं। परन्तु धवला में ध्यान के ये केवल दो ही भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-धर्मध्यान और शक्लध्यान । हेमचन्द्र सरि-विरचित योगशास्त्र में भी ध्यान के ये ही दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं।' (२) धवलाकार ने स्पष्ट रूप में तो धर्मध्यान के स्वामियों का उल्लेख नहीं किया है, किन्तु उस प्रसंग में यह शंका धवला में उठायी गयी है कि धर्मध्यान सकषाय जीवों के होता है, यह कैसे जाना जाता है । इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह 'असंयतसम्यग्दष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरणसंयत, अनिवृत्तिकरणसंयत और सक्षमसाम्परायिक क्षपक व उपशामकों में धर्मध्यान की प्रवृत्ति होती है' इस जिनदेव के उपदेश से जाना जाता है। इस शंका-समाधान से यह स्पष्ट है कि धवलाकार के अभिमतानुसार धर्मध्यान के स्वामी असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक और क्षपक तक हैं। ध्यानशतक में इस प्रसंग में यह कहा गया है कि सब प्रमादों से रहित हुए मुनिजन तथा क्षीणमोह और उपशान्तमोह ये धर्मध्यान के ध्याता निर्दिष्ट किये गये हैं। इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि ध्यानशतक के कर्ता असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत को धर्मध्यान का अधिकारी स्वीकार नहीं करते हैं। (३) धवला में पूर्व दो शुक्लध्यानों के प्रसंग में यह शंका उठायी गयी है कि एक वितर्क १. त०स० ६, २८-२८ व स्थानांगसूत्र २४७, पृ० १८७ तथा ध्या० श०, गाथा ४ २. झाणं दुविहं-धम्मज्झाणं सुवकज्झाणमिदि।-धवला पु० १३, पृ० ७० ३. मुहर्तान्तरमनःस्थैर्य ध्यानं छद्मस्थयोगिनाम् । धम्यं शुक्लं च तद् द्वेधा योगरोधस्त्वयोगिनाम् ।।-यो० शा० ४-११५ ४. धवला पु० १३, ७४ ५. ध्यानशतक, गा० ६३ ६३२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवीचार ध्यान के लिए 'अप्रतिपाति विशेषण क्यों नहीं दिया गया। इसका समाधान करते हा धवला में कहा गया है कि उपशान्तकषाय संयत का भवक्षय से और काल के क्षय से पायों में पड़ने पर पतन देखा जाता है, इसलिए एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान को 'अप्रतिपाति' विशेषण से विशेषित नहीं किया गया है । इस पर पूनः यह शंका उठी है कि उपशान्तकषाय गुणस्थान में एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान के न होने पर “उपशान्तकषाय संयत पृथक्त्ववितर्क-वीचार ध्यान को ध्याता है" इस आगमवचन' के साथ विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह पृथक्त्ववितर्क-वीचार ध्यान को ही ध्याता है. ऐसा नियम वहां नहीं किया गया है। इसी प्रकार क्षीणकषाय गुणस्थान में सदा-सर्वत्र एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान ही रहता हो, ऐसा भी नियम नहीं है, क्योंकि वहाँ इसके बिना योगपरावर्तन की एक समय प्ररूपणा घटित नहीं होती है। इसलिए क्षीणकषायकाल के प्रारम्भ में पृथक्त्ववितर्क-अवीचार ध्यान की भी सम्भावना सिद्ध है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि धवलाकार के अभिमतानुसार उपशान्तकषाय गुणस्थान में पथक्त्ववितर्कवीचार के अतिरिक्त एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान भी होता है तथा क्षीणकषाय गुणस्थान में एकत्ववितर्क-अवीचार के अतिरिक्त पृथक्त्ववितर्क-वीचार ध्यान भी होता है। ध्यानशतक में इस प्रसंग में इस प्रकार का कुछ स्पष्टीकरण नहीं किया गया है। वहाँ इतना मात्र कहा गया है कि जो धर्मध्यान के ध्याता हैं, वे ही पूर्व दो शुक्लध्यानों के ध्याता होते हैं । विशेष इतना है कि उन्हें प्रशस्त संहनन से सहित और पूर्वश्रुत के वेत्ता होना चाहिए।' इस प्रकार की कुछ विशेषताओं के होते हुए भी यह सुनिश्चित है कि धवला में जो ध्यान की प्ररूपणा की गयी है उसका आधार ध्यानशतक रहा है। साथ ही वहाँ यथाप्रसंग 'भगवतीआराधना' और 'मूलाचार' का भी अनुसरण किया गया है । धवला में वहाँ उस प्रसंग में भगवती-आराधना की इन गाथाओं को उद्धृत किया गया है धवला पृ० भगवती आ० गाथा १ किचिद्दिट्ठिमुपा १७०६ २ पच्चाहरित्तु विसएहि १७०७ ३ अकसायमवेदत्तं २१५७ ४ आलंबणेहि भरियो १८७६ ५ कल्लाणपावए जे' ६ एगाणेगभवगयं १७१३ १. उवसंतो दु पुधन्तं झायदि झाणं विदक्कवीचारं । खीणकसाओ झायदि एयत्तविदक्कवीचारं ।। -मूला० ५-२०७ (यही अभिप्राय स०सि० (९-४४), तत्त्वार्थवार्तिक (९-४४) में भी प्रकट किया गया है।) २. धवला, पु० १३, पृ० ८१ ३. ध्यानशतनः ६४ ४. नं० ५ व ६ की दो गाथाएं मूलाचार (५,२०३-४) में भी उपलब्ध होती हैं। अनिर्दिष्टनाम ग्रन्थ / ६३३ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवला १० भगवती आ• गाथा ७ जम्हा सुदं विदक्कं १८८१ ८ अत्थाण वंजणाण य १८८२ ९ जेणेगमेव दव्वं १८८३ १० जम्हा सुदं विदक्कं १८८४ ११ अत्थाण वंजणाण य १८८५ १२ अविदक्कमवीचारं सुहुम १८८६ १३. सुहमम्मि कायजोगे १८८७ १४ अविदक्कमवीचारं अणियट्टी १८८८ १७. नन्विसूत्र-पीछे 'षट्खण्डागम व नन्दिसूत्र' शीर्षक में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि धवला में 'अनेकक्षेत्र' अवधिज्ञान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उस प्रसंग में 'वृत्तं च' के निर्देशपूर्वक "णेरइय-देवतित्थयरोहि" इत्यादि गाथा को उद्धृत किया गया है । यह गाथा नन्दिसूत्र में उपलब्ध होती है। १८. पंचास्तिकाय-ग्रन्थनामनिर्देश के बिना भी जो धवला में इसकी गाथाओं को उद्धत किया गया है उसका भी स्पष्टीकरण पीछे 'ग्रन्थोल्लेख' में पंचत्थिपाहुड के प्रसंग में किया जा चुका है। १९. प्रज्ञापना-जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है, जीवस्थान-सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के अन्तर्गत कायमार्गणा के प्रसंग में धवलाकार द्वारा अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायकायिक जीवों के कुछ भेदों का निर्देश किया गया है। वे भेद जिस प्रकार मूलाचार, उत्तराध्ययन, जीवसमास और आचारांगनियुक्ति में उपलब्ध होते हैं उसी प्रकार वे प्रज्ञापना में भी उपलब्ध होते हैं।' २०. प्रमाणवातिक—यह ग्रन्थ प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक विद्वान् धर्मकीति (प्रायः ७वीं शती) के द्वारा रचा गया है। वेदनाकालविधान अनुयोगद्वार में स्थित बन्धाध्यवसान प्ररूपणा में प्रसंगप्राप्त अयोगव्यवच्छेद के स्वरूप को प्रकट करते हुए धवला में प्रमाणवार्तिक के इस श्लोक को उद्धत किया गया है-- अयोगमपर्योगमत्यन्तायोगमेव च । व्यवच्छिनत्ति धर्मस्य निपातो व्यतिरेचकः ॥४-१६०।। २१. प्रवचनसार-इसके रचयिता सुप्रसिद्ध आचार्य कुन्दकुन्द (लगभग प्रथम शताब्दी) हैं। जीवस्थान खण्ड के प्रारम्भ में आचार्य पुष्पदन्त के द्वारा जो मंगल किया गया है उस पंचनमस्कारात्मक मंगल की प्ररूपणा में प्रसंगप्राप्त नैःश्रेयस सुख के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए धवला में प्रकृत प्रवचनसार की "आदिसयमादसमुत्थं" आदि गाथा (१-१३) को उद्धत किया गया है। गाथा के चौथे चरण में प्रवचनसार में जहाँ 'सुद्धवओगप्पसिद्धाणं' ऐसा पाठ है, १. देखिए प्रज्ञापना (पण्णवणा) गाथा १-२०, १-२३ और १-२६ आदि। २. धवला, पु० ११, पृ० ३१७ ६३४ | षट्खण्डागम-परिशीलन Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहाँ धवला में उसके स्थान में 'सुवोगो य सिद्धाणं' पाठ है जो लिपिदोष से हुआ मालूम होता है। (२) जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम में द्रव्यभेदों का निर्देश करते हुए धवला में जीव-अजीव के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है । वहाँ जीव के साधारण लक्षण का निर्देश करते हुए यह कहा है कि जो पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध व आठ प्रकार के स्पर्श से रहित, सूक्ष्म, अमतिक, गुरुता व लघुता से रहित, असंख्यात प्रदेशवाला और आकार से रहित हो, उसे जीव जानना चाहिए। यह जीव का साधारण लक्षण है । प्रमाण के रूप में वहाँ 'वुतं च' कहकर "अरसमरूवमगंध" आदि गाथा को उद्धृत किया गया है।' यह गाथा प्रवचनसार (२-८०) और पंचास्तिकाय (१२७) में उपलब्ध होती है। (३) आगे बन्धस्वामित्वविचय में वेदमार्गणा के प्रसंग में अपगतवेदियों को लक्ष्य करके पांच ज्ञानावरणीय आदि सोलह प्रकृतियों के बन्धक-अबन्धकों का विचार किया गया है। उस प्रसंग में धवलाकार ने उन सोलह प्रकृतियों का पूर्व में बन्ध और तत्पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, यह स्पष्ट करते हुए 'एत्थुवउज्जती गाहा" ऐसा निर्देश करके इस गाथा को उद्धृत किया है आगमचक्खू साहू इंदियचक्खू असेसजीवा जे । देवा य ओहिचक्खू केवलचक्खू जिणा सव्वे ॥ यह गाथा कुछ पाठभेद के साथ प्रवचनसार में इस प्रकार उपलब्ध होती है आगमचक्खू साहू इंदिय चक्खूणि सव्वभूदाणि । देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पण सव्वदोचक्खू ।।३-३४।। (४) 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में श्रुतज्ञान के पर्याय-शब्दों का स्पष्टीकरण करते हुए धवला में प्रवचनसार की "जं अण्णाणी कम्म" आदि गाथा को उद्धृत किया गया है। २१. भगवती आराधना -यह शिवार्य (आचार्य शिवकोटि) के द्वारा रची गयी है। जीवस्थान-सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में कार्मण काययोग के प्रतिपादक सूत्र (१,१,६०) की व्याख्या के प्रसंग में शंकाकार ने, केवलिसमुद्घात सहेतुक है या निर्हेतुक, इन दो विकल्पों को उठाते हुए उन दोनों की ही असम्भावना प्रकट की है। उसके अभिमत का निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यतिवृषभ के उपदेशानुसार क्षीणकषाय के अन्तिम समय में सब कर्मों (अघातियों) की स्थिति समान नहीं होती, इसलिए सभी केवली समुद्घात करते हुए ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं । किन्तु जिन आचार्यों के मतानुसार लोकपूरण समुद्घातगत केवलियों में बीस संख्या का नियम है, उनके मत से उन में कुछ समुद्घात को करते हैं और कुछ उसे नहीं भी करते हैं। ____ आगे प्रसंगप्राप्त कुछ अन्य शंकाओं का समाधान करते हुए उस संदर्भ में इन दो गाथाओं का उपयोग हुआ है छम्मासाउवसेसे उप्पण्णं जस्स केवलं जाणं। ससमुग्धाओ सिज्मइ सेसा भज्जा समुग्घाए । १. धवला, पु० ३, पृ० २ २. वही, पु० ८, पृ० २६४ ३. देखिए धवला पु० १३, पृ० २८१ और प्रवचनसार गाथा ३-३८ __ अनिर्दिष्टनाम ग्रन्थ | ६१५ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसि आउसमाई णामा-गोदाणि वेयणीयं च । ते अकयसमुग्धाया वच्चतियरे समुग्धाए ॥ कुछ पाठभेद के साथ ऐसी ही ये तीन गाथाएँ भगवती आराधना में इस प्रकार उपलब्ध होती हैं उक्कस्सएण छम्मासाउग से सम्मि केवली जादा । वच्चति समुग्धावं सेसा भज्जा समुग्धादे ।। २१०५ ।। जेसि आउसमाई णामा-गोदाणि वेयणीयं च । ते अकयसमुग्धाया जिणा उवणमंति सेलेसि ॥। २१०६ ।। जेसि हवंति विसमाणि नामा-गोदाई वेयणीयाणि । ते अकदसमुग्धादा जिणा उवणमंति सेलेसि ॥। २१०७॥ - भ० आ० २१०५-७ धवला में उद्धृत उपर्युक्त दो गाथाओं में प्रथम गाथा का और 'भगवती आराधना' की इस २१०५वीं गाथा का अभिप्राय सर्वथा समान है। यही नहीं, इन दोनों गाथाओं का चौथा चरण ( सेसा भज्जा समुग्धाए) शब्दों से भी समान है । धवला में उद्धृत दूसरी गाथा और 'भगवती आराधना' की २१०६वी गाथा शब्द वं अर्थ दोनों से समान है। विशेष इतना है कि चतुर्थ चरण दोनों का शब्दों से भिन्न होकर भी अर्थ की अपेक्षा समान ही है । कारण यह कि मुक्ति को प्राप्त करना और शैलेश्य ( अयोगिकेवली) अवस्था को प्राप्त करना, इसमें कुछ विशेष अन्तर नहीं है । 'भगवती आराधना' की जो तीसरी २१०७वीं गाथा है, वह धवला में उद्धृत प्रथम गाथा के और 'भ०आ०' की २१०५वीं गाथा के 'सेसा भज्जा समुग्धाए' इस चतुर्थ चरण के स्पष्टीकरण स्वरूप है । प्रकृत में शंकाकार का अभिप्राय यह रहा है कि यतिवृषभाचार्य के उपदेशानुसार जो धवला में यह कहा गया है कि सभी केवली समुद्घातपूर्वक मुक्ति को प्राप्त करते हैं, यह व्याख्यान सूत्र के विरुद्ध है । किन्तु उपर्युक्त गाथा में जो यह कहा गया है कि छह मास आयु के शेष रह जाने पर जिनके केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, वे तो समुद्घात को प्राप्त करके मुक्ति को प्राप्त करते हैं, शेष के लिए कुछ नियम नहीं है - वे समुद्घात को करें और न भी करें; यह गाथोक्त अभिप्राय सूत्र के विरुद्ध नहीं है, इसलिए इस अभिप्राय को क्यों न ग्रहण किया जाय । इस पर धवलाकार ने कहा है कि उन गाथाओं की आगमरूपता निर्णीत नहीं है, और यदि उनकी आगमरूपता निश्चित है तो उन्हें ही ग्रहण करना चाहिए । उन दो गाथाओं को धवलाकार ने सम्भवतः कुछ पाठभेद के साथ 'भगवती आराधना' से उद्धृत किया है, या फिर उससे भी प्राचीन किसी अन्य ग्रन्थ से लेकर उन्हें धवला में उद्धृत किया है । ' (२) १. इस सबके लिए देखिए धवला, पु० १, पृ० ३०१-४ ६३६ / षट्खण्डागम-परिशीलन जैसा कि पीछे ध्यानशतक के प्रसंग में कहा जा चुका है, धवलाकार ने 'कर्म' अनु Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगद्वार के अन्तर्गत ध्यान की प्ररूपणा में 'भगवती-आराधना' की १४ गाथाओं को धवला में उद्धृत किया है। (३) 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में श्रुतज्ञान के पर्याय-शब्दों को स्पष्ट करते हुए धवला में 'प्रवचनीय' के प्रसंग में 'उक्तं च' के निर्देशपूर्वक "सज्झायं कुव्वंतो" आदि तीन गाथाएँ उद्धत की गयी हैं। उनमें पूर्व की दो गाथाएँ 'भगवती-आराधना' में १०४ व १०५ गाथासंख्या में उपलब्ध होती हैं। पूर्व की गाथा मलाचार (५-२१३) में भी उपलब्ध होती है। तीसरी 'जं अण्णाणी कम्म' आदि गाथा प्रवचनसार (३-३८) में उपलब्ध होती है।। २३. भावप्राभूत-जीवस्थान-चूलिका के अन्तर्गत प्रथम 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन'. चूलिका में दर्शनावरणीय के प्रसंग में जीव के ज्ञान दर्शन लक्षण को प्रकट करते हुए धवलाकार ने आ० कुन्दकुन्द-विरचित 'भावप्राभृत' के 'एगो मे सस्सदो अप्पा' आदि पद्य को उद्धृत किया है ।। २४. मूलाचार-यह पीछे (पृ० ५७२ पर) कहा जा चुका है कि धवलाकार ने वट्टकराचार्य-विरचित मूलाचार का उल्लेख आचारांग के नाम से किया है। उन्होंने ग्रन्थनामनिर्देश के बिना भी उसकी कुछ गाथाओं को यथाप्रसंग धवला में उद्धृत किया है। उनमें कछ का उल्लेख 'ध्यानशतक' और 'भगवती आराधना' के प्रसंग में किया जा चुका है। अन्य कुछ इस प्रकार (१) जीवस्थान-सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में इन्द्रिय-मार्गणा के प्रसंग में श्रोत्र आदि इन्द्रियों के आकार को प्रकट करते हुए धवला में जो "जवणालिया मसूरी" आदि गाथा को उद्धृत किया गया है वह कुछ पाठभेद के साथ मूलाचार में उपलब्ध होती है। (२) यहीं पर आगे कायमार्गणा के प्रसंग में निगोद जीवों की विशेषता को प्रकट करने वाली चार गाथाएँ 'उक्तं च' के निर्देशपूर्वक उद्धृत की गयी हैं। ये चारों गाथाएं आगे मल षटखण्डागम में सूत्र के रूप में अवस्थित हैं। उनमें तीसरी (१४७) और चौथी (१४८) ये दो गाथाएँ मूलाचार में भी उपलब्ध होती हैं । (३) वेदनाकालविधान अनुयोगद्वार में आयु कर्म की उत्कृष्ट वेदना के स्वामी की प्ररूपणा के प्रसंग में सूत्र ४,२,६,१२ की व्याख्या करते हुए धवलाकार द्वारा उसमें प्रयुक्त पदों की सफलता प्रकट की गयी है। इस प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि सूत्र में जो तीनों में से किसी भी वेद के साथ उत्कृष्ट आयु के बन्ध का अविरोध प्रकट किया गया है, उसमें सूत्रकार का अभिप्राय भाववेद से रहा है, क्योंकि इसके बिना स्त्रीवेद के साथ भी नारकियों की उत्कृष्ट आयु के बन्ध का प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु स्त्रीवेद के साथ उत्कृष्ट नरकायु का बन्ध नहीं होता है, कारण यह कि स्त्रीवेद के साथ उत्कृष्ट आयुबन्ध के स्वीकार करने १. धवला, पु० १३, पृ० २८१ २. धवला, पु० ६, पृ० ६ और भावप्राभृत गाथा ५६ ३. धवला, पृ० १, पृ० २२६ और मलाचार गाथा १२-५० ४. ष०ख० मूत्र २२६,२३०,२३४ और २३३ (पु० १४) ५. धवला, पु० १ पृ० २७०-७१ और मूलाचार गाथा १२-१६३ व १२-१६२ अनिर्दिष्ट नाम ग्रन्थ / ६३७ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर "पांचवीं पृथिवी तक सिंह और छठी पृथिवी तक स्त्रियां जाती हैं" इस सूत्र' के साथ विरोध प्राप्त होता है।' वह गाथासूत्र मूलाचार (१२-११३) में उपलब्ध होता है। धवलाकार ने सूत्र के रूप में उल्लेख करके उसको महत्त्व दिया है । सम्भव है वह उसके पूर्व अन्यत्र भी कहीं रहा हो। (४) 'कर्म' अनुयोगद्वार में प्रायश्चित्त के दस भेदों का उल्लेख करते हुए धवला में 'एत्थ गाहा' कहकर "आलोयण-पडिकमणे" आदि गाथा को उद्धृत किया गया है। यह गाथा मूलाचार में उपलब्ध होती है। (५) 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म के भेदों के प्ररूपक सूत्र (५,५,१२०) की व्याख्या में ऊर्ध्वकपाटच्छेदन से सम्बद्ध गणित-प्रक्रिया के प्रसंग में धवलाकार ने दो भिन्न मतों का उल्लेख करते हुए यह कहा है कि यहाँ उपदेश प्राप्त करके यही व्याख्यान सत्य है, दूसरा असत्य है। इसका निश्चय करना चाहिए। ये दोनों ही उपदेश सूत्र-सिद्ध हैं, क्योंकि आगे दोनों ही उपदेशों के आश्रय से अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है। ___ इस पर वहां यह शंका की गयी है कि विरुद्ध दो अर्थों की प्ररूपणा को सूत्र कसे कहा जा सकता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह सत्य है, जो सूत्र होता है वह अविरुद्ध अर्थ का ही प्ररूपक होता है । किन्तु यह सूत्र नहीं है। सूत्र के समान होने से उसे उपचार से सूत्र स्वीकार किया गया है । इस प्रसंग में सूत्र का स्वरूप क्या है, यह पूछने पर . उसके स्पष्टीकरण में वहाँ यह गाथा उद्धृत की गयी है-- सुत्तं गणधरकहियं तहेव पत्तेयबुद्धकहियं च । सुदकेवलिणा कहियं अभिण्णदसपुटिवकहियं च ।। इसी प्रसंग में आगे धवलाकार ने कहा है कि भूतबलि भट्टारक न गणधर हैं, न प्रत्येकबुद्ध हैं, न श्रुतकेवली हैं और न अभिन्नदशपूर्वी भी हैं जिससे यह सूत्र हो सके। (६) 'बन्धन' अनयोगद्वार में बादर-निगोद वर्गणाओं के प्रसंग में धवला में क्षीणकषाय के प्रथमादि समयों में मरनेवाले निगोद जीवों की मरणसंख्या के क्रम की प्ररूपणा की गयी है। इस प्रसंग में वहाँ यह शंका उठायी गयी है कि वहाँ ये निगोदजीव क्यों मरते हैं। उत्तर में यह स्पष्ट किया गया है कि ध्यान के द्वारा निगोद जीवों की उत्पत्ति और स्थिति के कारणों का निरोध हो जाने से वे क्षीणकषाय के मरण को प्राप्त होते हैं। आगे वहाँ पुनः यह शंका की गयी है कि ध्यान के द्वारा अनन्तानन्त जीवराशि का विघात करनेवालों को मुक्ति कैसे प्राप्त होती है। उत्तर में कहा गया है कि वह उन्हें प्रमाद से रहित हो जाने के कारण प्राप्त होती है। साथ ही, वहाँ प्रमाद के स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा गया है कि पांच महाव्रतों, पांच समितियों, तीन गुप्तियों का तथा समस्त कषायों के अभाव का नाम अप्रमाद है। आगे वहाँ १. आ० पंचमि त्ति सीहा इत्थीओ जंति छट्ठिपुढवि ति। गच्छंति माधवी त्ति य मच्छा मणुया य ये पावा ।।-मूला० १२-१२३ २. धवला, पु० ११, पृ० ११३-१४ (ति०प० गाथा ८, ५५६-६१ भी द्रष्टव्य हैं)। ३. धवला, पु० १३, पृ० ६० और मूलाचार गा० ५-१६५ ४. धवला, पु० १३, पृ० ३८१ व मूलाचार गाथा ५-८० ६३८ / षदखण्डागम-परिशीलन Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा-अहिंसा का विचार करते हुए शुद्ध नय से अन्तरंग हिंसा को ही यथार्थ हिंसा सिद्ध किया गया है। इसकी पुष्टि में 'उक्तं च' कहकर वहाँ तीन गाथाओं को उद्धृत किया गया है। उनमें प्रथम गाथा प्रवचनसार की और आगे की दो गाथाएँ मूलाचार की हैं। २५. युक्त्यनुशासन-जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम के प्रसंग में धवलाकार ने 'द्रव्य-प्रमाणानुगम' के शब्दार्थ पर विचार किया है। इस प्रसंग में 'द्रव्य' और 'प्रमाण' शब्दों में अनेक समासों के आश्रय से पारस्परिक सम्बन्ध का विचार करते हुए धवला में कहा गया है कि संख्या (प्रमाण) द्रव्य की एक पर्याय है, इसलिए दोनों (द्रव्य और प्रमाण) में एकता या अभेद नहीं हो सकता है । इस प्रकार उनमें भेद के रहने पर भी द्रव्य की प्ररूपणा उसके गुणों के द्वारा ही होती है, इसके बिना द्रव्य की प्ररूपणा का अन्य कोई उपाय नहीं है। इसे स्पष्ट करते हुए आगे धवला में 'उक्तं च' के निर्देशपूर्वक "नानात्मतामप्रजाहत्तदेक" पद्य को उद्धृत किया है । यह पद्य आ० समन्तभद्र द्वारा विरचित युक्त्यनुशासन में यथास्थान अवस्थित है। २६. लघीयस्त्रय - उपर्युक्त द्रव्यप्रमाणानुगम में मिथ्यादृष्टियों के प्रमाणस्वरूप अनेक प्रकार के अनन्त को स्पष्ट करते हुए धवला में उनमें से गणनानन्त को अधिकृत कहा गया है। इस पर वहाँ शंका उठी है कि यदि गणनानन्त प्रकृत है तो अनन्त के नामानन्त आदि अन्य दस भेदों की प्ररूपणा यहाँ किसलिए की जा रही है। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह अप्रकृत के. निराकरण व प्रकृत की प्ररूपणा करने, संशय का निवारण करने और तत्त्व का निश्चय करने के लिए की जा रही है । इसी प्रसंग में आगे उन्होंने यह भी कहा है कि अथवा निक्षेप से विशिष्ट अर्थ को प्ररूपणा वक्ता को उन्मार्ग से बचाती है, इसलिए निक्षेप किया जाता है। आगे 'तथा चोक्तं' ऐसी सूचना करते हुए उन्होंने "ज्ञानप्रमाणमित्याहुः' इत्यादि श्लोक को उद्धत किया है। यह श्लोक भट्टाकलंकदेव-विरचित लघीयस्त्रय में उपलब्ध होता है । विशेष इतना है कि यहाँ '-मात्मादेः' के स्थान में '-मित्याहुः' और 'इष्यते' के स्थान में 'उच्यते' पाठभेद है। २७. लोकविभाग - जीवस्थान-कालानुगम में नोआगम-भावकाल के अन्तर्गत समय व आवली आदि के स्वरूप को प्रकट करते हुए उस प्रसंग में 'मुहूर्तानां नामानि' इस सूचना के साथ धवला में ये चार श्लोक उद्धृत किये गये हैं रौद्रः श्वेतश्च मैत्रश्च ततः सारभटोऽपि च । दैत्यो वैरोचनश्चान्यो वैश्वदेवोऽभिजित्तथा ।। रोहणो बलनामा विजयो नैऋतोऽपि च । वारुणश्चार्ययामा स्युर्भाग्यः पंचदशो दिने । सावित्रो धुर्यसंज्ञश्च दात्रको यम एव च । वायुर्हताशनो भानुवैजयंतोऽष्टमो निशि ।। १. धवला, पृ० १४, पृ० ८८-८६ तथा प्रसा० गाथा ३-१७ व मूलाचार गाथा ५,१३१-३२ २. धवला, पु० ३, पृ० ६ और युक्त्यनु० ५० ३. देखिए धवला, पु० ३, पृ० १७-१८ और लघीयस्त्रय ६-२ अनिदिष्टनाम ग्रन्थ/६३६ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिवार्थः सिद्धसेनश्च विक्षोभो योग्य एव च । पुष्पदन्तः सुगन्धर्वो मुहूर्तोऽन्योऽरुणो मतः ।। ये चारों श्लोक वर्तमान लोकविभाग में कुछ थोड़े से पाठभेद के साथ उपलब्ध होते हैं।' सिंहसूरषि-विरचित यह 'लोकविभाग' धवला के बाद रचा गया है। इसका कारण यह है कि 'उक्तं चार्षे' कहकर उसमें जिनसेनाचार्य (हवीं शती) विरचित आदिपुराण के १५०-२०० श्लोकों का एक पूरा ही प्रकरण ग्रन्थ का अंग बना लिया गया हैं। इसके अतिरिक्त 'उक्तं च त्रिलोकसारे' इस सूचना के साथ आ० नेमिचन्द्र (११वीं शती) विरचित त्रिलोकसार की अनेक गाथाओं को वहां उद्धृत किया गया है। इस प्रकार से उपलब्ध लोकविभाग यद्यपि धवला के बाद लिखा गया है, फिर भी जैसी कि सूचना ग्रन्थकर्ता ने उसकी प्रशस्ति में की है, तदनुसार वह मुनि सर्वनन्दी द्वारा विरचित (शक सं० ३८०) शास्त्र के आधार से भाषा के परिवर्तनपूर्वक सिंहसूरर्षि के द्वारा रचा गया है। ___ इससे यह सम्भावना हो सकती है कि सर्वनन्दी-विरचित उस शास्त्र में ऐसी कुछ गाथाएं प्रादि रही हों जिनका इस लोकविभाग में संस्कृत श्लोकों में अनुवाद कर दिया गया हो। अथवा ज्योतिषविषयक किसी अन्य प्राचीन ग्रन्थ के आधार से उन श्लोकों में प्रथमतः दिन के १५ मुहूर्तों का और तत्पश्चात् रात्रि के १५ मुहूर्तों का निर्देश कर दिया गया हो। __ ज्योतिष्करण्डक की मलयगिरि सूरि-विरचित वृत्ति में उन मुहूर्तों के नाम इस प्रकार निर्दिष्ट किये गये हैं १ रुद्र, २ श्रेयान्, ३ मित्र, ४ वायु, ५ सुपीत, ६ अभिचन्द्र, ७ महेन्द्र, ८ बलवान्, ६ पक्ष्म, १० बहुसत्य, ११ ईशान, १२ त्वष्टा, १३ भावितात्मा, १४ वैश्रवण, १५ वारुण, १६ आनन्द, १७ विजय, १८ विश्वासन, १६ प्राजापत्य, २० उपशम, २१ गान्धर्व, २२ अग्निवैश्य. २३ शतवषभ, २४ आतपवान, २५ असम, २६ अरुणवान्, २७ भोम, २८ वषभ, २६ सर्वार्थ और ३० राक्षस । प्रमाण के रूप में वहाँ 'उक्तं च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ' इस निर्देश के साथ ये गाथाएँ उद्धत की गयी हैं रुद्दे सेए मित्ते वायू पीए तहेव अभिचंदे । माहिवं बलवं पम्हे बहुसच्चे चव ईसाणे ।। तट्ठव भावियप्प वेसवणे वारुणे य आणंदे । विजए य वीससेणे पायावच्चे तह य उवसमे य ।। १. धवला, पु० ४, पृ० ३१८-१६ और लोकविभाग श्लोक ६, १६७-२०० २. देखिए लो० वि०, पृ० ८७, श्लोक ६ आदि (विशेष जानकारी के लिए लो० वि० की प्रस्तावना पृ० ३५ की तालिका भी द्रष्टव्य है।) ३. देखिए लो०वि०, पृ० ४२,७३,८६ और १०१ ४. वही, पृ० २२५, श्लोक ५१-५३ ५. तिलोयपण्णत्ती में ७वा 'ज्योतिर्लोक' नाम का एक स्वतन्त्र महाधिकार है, किन्तु वहाँ ये मुहूर्तों के नाम नहीं उपलब्ध होते हैं । ६४० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंधव अग्गिवेसा सयस्सिहे आयवं च असम च । अणव भोम रिस हे सवढे रक्खसे ईया ।।-ज्यो० क०, पृ० २७-२८ यहाँ और धवला में इन मुहूर्तनामों का जो निर्देश किया गया है, उसमें भिन्नता बहुत है। दिवसनाम इसी प्रसंग में आगे धवला में, पन्द्रह दिनों का पक्ष होता है, यह स्पष्ट करते हुए 'दिवसानां नामानि' सूचना के साथ यह श्लोक उ किया गया है' नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा च नियमः क्रमात् । देवताश्चन्द्र-सूर्येन्द्रा आकाशो धर्म एव च ।। पूर्वोक्त ज्योतिष्करणक की वृत्ति में 'तथा चोक्तं चन्द्रप्रज्ञप्तौ' इस सूचना के साथ इन तिथियों के नाम इस प्रकार निर्दिष्ट किये गये हैं "नन्दा, भद्रा, जया, तुच्छा, पुण्णा पक्खस्स पन्नरसी, एवं तिगुणा तिगुणा तिहीओ" यास्तु रात्रितिथयस्तासामेतानि नामानि-- . ... 'उक्तं च चन्द्रप्रज्ञप्तावेव'..... पन्नरस राईतिही पण्णत्ता । तं जहा-"उग्गवई भोगवई जसोमई सव्वसिद्धा सुहनामा, पुणरवि उग्गवई भोगवई जसवई सव्वसिद्धा सुहनामा । एवं तिगुणा एता तिहीओ सव्वसिं राईणं” इति । जोतिष्क रण्डक के टीकाकार मलयगिरि सूरि ने पूर्वांग व पूर्व आदि संख्याभेदों के प्रसंग में उत्पन्न मतभेदों की चर्चा करते हुए यह स्पष्ट किया है कि स्कन्दिलाचार्य की प्रवृत्ति में दुषमाकाल के प्रभाव से दुर्भिक्ष के प्रवृत्त होने पर साधुओं का पठन-गुणन आदि सब नष्ट हो गया था। पश्चात् दुर्भिक्ष के समाप्त हो जाने पर व सुभिक्ष के प्रवृत्त हो जाने पर दो संघों का मिलाप हुआ-एक वलभी में और दूसरा मथुरा में। उसमें सूत्र व अर्थ की संघटना से परस्पर में वाचनाभेद हो गया। सो ठीक भी है, क्योंकि विस्मृत सूत्र और अर्थ का स्मरण कर-करके संघटना करने पर अवश्य ही वाचनाभेद होने वाला है, इसमें अनुपपत्ति (असंगति) नहीं है। इस प्रकार इस समय जो अनुयोगद्वार आदि प्रवर्तमान हैं वे माथुर वाचना का अनुसरण करने वाले हैं तथा ज्योतिष्करण्डक सूत्र के कर्ता आचार्य वलभी-वाचना के अनुयायी रहे हैं। इस कारण इसमें जो संख्यास्थानों का प्रतिपादन किया गया है वह वलभीवाचना के अनुसार हैं, इसलिए अनुयोगद्वार में प्रतिपादित संख्यास्थानों के साथ विषमता को देखकर घृणा नहीं करनी चाहिए। मलयगिरि सूरि के इस स्पष्टीकरण को केवल संख्याभेदों के विषय में ही नहीं समझना चाहिए । यही परिस्थिति अन्य मतभेदों के विषय में भी रह सकती है। २८. विशेषावश्यक भाष्य-यह भाष्य जिनभद्र क्षमाश्रमण (७वीं शती) के द्वारा आवश्यक सूत्र के प्रथम अध्ययनस्वरूप 'सामायिक' पर लिखा गया है। इसमें आ० भद्रबाहु (द्वितीय) द्वारा उस 'सामायिक' अध्ययन पर निर्मित नियुक्तियों की विशेष व्याख्या की गयी है। १. धवला, पु० ४, पृ० ३१६ २. ज्यो०क० मलय० वृत्ति गा० १०३-४, पृ० ६१ ३. देखिए ज्योतिष्क० मलय० वृत्ति २-७१, पृ० ४१ अनिर्दिष्ट नाम ग्रन्थ / ६४१ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कृति' अनुयोगद्वार में बीजबुद्धि ऋद्धि की प्ररूपणा के प्रसंग में धवला में एक यह शंका उठाई गयी है कि यदि श्रुतज्ञानी का विषय 'अनन्त' संख्या है तो 'परिकर्म' में जो चतुर्दशपूर्वी का 'उत्कृष्ट संख्यात' विषय कहा गया है वह कैसे घटित होगा। इसके उत्तर में वहां कहा गया है कि वह उत्कृष्ट संख्यात को ही जानता है, ऐसा परिकम' में नियम निर्धारित नहीं किया गया है। ___ इस प्रसंग में शंकाकार ने कहा है कि श्रुतज्ञान समस्त पदार्थों को नहीं जानता है, क्योंकि ऐसा वचन है' पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो दु अणभिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुदणिबद्धो ।। इस प्रकार से शंका के रूप में उद्धृत यह गाथा विशेषावश्यक भाष्य में १४१ गाथासंख्या के रूप में उपलब्ध होती है । गो० जीवकाण्ड में भी वह गाथासंख्या ३३४ के रूप में उपलब्ध होती है, पर वहाँ उसे सम्भवतः धवला से ही लेकर ग्रन्थ का अंग बनाया गया है। २९. सन्मतिसूत्र-- इसके विषय में पीछे (५० ५९६ पर) 'ग्रन्थोल्लेख' के प्रसंग में पर्याप्त विचार किया जा चुका है। प्रसंगवश धवला में नामनिर्देश के बिना भी उसकी जो गाथाएं उद्धृत की गयी हैं उनका भी उल्लेख वहां किया जा चुका है। ३०. सर्वार्थसिद्धि-जीवस्थान-कालानुगम में मिथ्यादृष्टियों के उत्कृष्ट कालप्रमाण के प्ररूपक सूत्र (१,५,४) में निर्दिष्ट अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल को स्पष्ट करते हुए धवला में पांच परिवर्तनों के स्वरूप को प्रकट किया गया है। इस प्रसंग में वहाँ द्रव्यपरिवर्तन के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि सब जीवों ने अतीत काल में सब जीवराशि से अनन्तगुणे पुद्गलों के अनन्तवें भाग ही भोगकर छोड़ा है। कारण यह कि अभव्य जीवों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग से गुणित अतीत काल मात्र सब जीवराशि के समान भोग करके छोड़े गये पुद्गलों का प्रमाण पाया जाता है। (१) इस पर वहाँ यह शंका की गयी है कि समस्त जीवों ने अतीत काल में उक्त प्रकार से सब पुद्गलों के अनन्तवें भाग को ही भोगकर छोड़ा है और शेष अनन्त बहुभाग अभुक्त रूप में विद्य वद्यमान है तो ऐसी स्थिति के होने पर-"जीव ने एक-एक करके सब पुद्गलों को अनन्तवार भोगकर छोड़ा है।" इस सूत्र गाथा के साथ विरोध क्यों न होगा। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि उक्त गाथासूत्र के साथ कुछ विरोध नहीं होगा, क्योंकि उस गाथासूत्र में प्रयुक्त 'सर्व' शब्द 'सबके एकदेश' रूप अर्थ में प्रवृत्त है, न कि 'सामस्त्य' रूप अर्थ में । जैसे 'सारा गांव जल गया' इत्यादि वाक्यों में 'सारा' शब्द का प्रयोग गांव आदि के एकदेश में देखा जाता है। आगे इसी प्रसंग में क्रम से क्षेत्र, काल, भव और भाव-परिवर्तनों की प्ररूपणा करने की १. देखिए धवला, पु० ६, पृ० ५६-५७ २. देखिए स०सि० २-१० (वहाँ 'एगे' स्थान में 'कमसो'; 'हु' के स्थान में 'य' और 'असई' के स्थान में 'अच्छई' पाठ है। ३. देखिए धवला, पु० ४, पृ० ३२६ ६४२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सचना करते हुए धवला में 'तेसि गाहाओ' ऐसा कहकर अन्य कुछ गाथाओं को उद्धृत किया गया है। ये गाथाएँ सर्वार्थ सिद्धि में 'उक्तं च' के साथ उद्धत की गयी हैं।' (२) वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में 'एकक्षेत्र' अवधिज्ञान की प्ररूपणा के प्रसंग में क्षण-लव आदि कालभेदों की प्ररूपणा करते हुए धवला में 'वुत्तं च' कहकर "पुटवस्स परिमाण" इत्यादि एक गाथा को उद्धृत किया गया है । यह गाथा सर्वार्थ सिद्धि में 'तस्याश्च (स्थितेश्च) सम्बन्धे गाथां पठन्ति' ऐसी सूचना करते हुए उद्धृत की गयी है। उक्त गाथा 'बृहत्संग्रहिणी (३१६), ज्योतिष्करण्डक (६३) और जीवसमास (११३) में भी कुछ पाठभेद के साथ उपलब्ध होती है। ३१. सौन्दरानन्द महाकाव्य --जीवस्थान-चूलिका के अन्तर्गत 'गति-आगति' चूलिका (6) में भवनवासी आदि देवों में से आकर मनुष्यों में उत्पन्न हुए मनुष्य कितने गुणों को उत्पन्न कर सकते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए उस प्रसंग में "दीपो यथा निर्व तिमभ्युपेतो" आदि दो पद्यों को धवला में उद्धत करके यह कहा गया है कि इस प्रकार स्वरूप के विनाश को जो बौद्धों ने मोक्ष । माना है, उनके मत के निरासार्थ सूत्र (६,६-६,२३३) में 'सिद्ध्यन्ति' ऐसा कहा गया है। ये दोनों पद्य सौन्दरानन्द महाकाव्य में पाये जाते हैं। विशेष इतना है कि वहां 'जीवस्तथा' के स्थान में 'एवं कृती' पाठभेद है। ३२. स्थानांग-जीवस्थान-सत्प्ररूपणा में प्रसंगप्राप्त गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए धवला में योग के स्वरूप का निर्देश तीन प्रकार से किया गया है और अन्त में 'उक्तं च' कहकर इस गाथा को उद्धृत किया गया है मणसा वचसा काएण चावि जुत्तस्स विरियपरिणामो। जीवस्सप्पणियोओ जोगो त्ति जिणेहि णिद्दिवो ।। यह गाथा कुछ थोड़े से परिवर्तन के साथ स्थानांग में इस प्रकार उपलब्ध होती है मणसा वयसा काएण वावि जुत्तस्स विरियपरिणामो। जीवस्स अप्पणिज्जो स जोगसन्नो जिणक्खाओ ॥५ उक्त दोनों गाथाएँ शब्द व अर्थ से प्रायः समान हैं। उनमें जो थोड़ा सा शब्द-परिवर्तन हुआ है वह लिपिदोष से भी सम्भव है। जैसे.-'चावि' व 'वावि' तथा 'प्पणियोओ' व 'अप्प. णिज्जो'। ३३. स्वयम्भूस्तोत्र-'कृति' अनुयोगद्वार में नयप्ररूपणा का उपसंहार करते हुए धवला में कहा गया है कि ये सभी नय वस्तुस्वरूप का एकान्तरूप में अवधारण न करने पर सम्यग्दृष्टि -समीचीन नय-होते हैं, क्योंकि वसी अवस्था में उनके द्वारा प्रतिपक्ष का निराकरण नहीं किया जाता है। इसके विपरीत वे ही दुराग्रहपूर्वक वस्तु का अवधारण करने पर मिथ्यादृष्टि १. देखिए धवला, पु० ४, पृ० ३३३ और स०सि० २-१० २. देखिए धवला, पु० १३, पृ० ३०० और स०सि० ३-३१ ३. देखिए धवला, पु० ६, पृ० ४६७ और सौन्दरा० १६, २८-२९ ४. देखिए धवला, पु० १, पृ० १४० ५. स्थानांग, पृ० १०१ अनिदिष्टनाम प्रन्थ/६४३ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (दुर्नय) होते हैं-ऐसा कहते हुए वहाँ 'अत्रोपयोगिनः श्लोकाः' निर्देश करके तीन श्लोकों को उद्धृत किया गया है। उनमें प्रथम दो श्लोक समन्तभद्राचार्य-विरचित 'स्वयम्भस्तोत्र' में और तीसरा उन्हीं के द्वारा विरचित 'आप्तमीमांसा' में उपलब्ध होता है । यहाँ धवला में उन्हें विपरीत क्रम से उद्धृत किया गया है।' ३४. हरिवंशपुराण-पूर्वोक्त 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में उन्हीं कालभेदों की प्ररूपणा करते हए आगे धवला में कहा गया है कि एक 'पूर्व' के प्रमाण वर्षों को स्थापित करके उन्हें एक लाख से गुणित चौरासी के वर्ग से गुणित करने पर 'पर्व' का प्रमाण होता है। इसी प्रसंग में आगे कहा गया है कि असंख्यात वर्षों का पल्योपम होता है। पल्य-विचार इसी प्रसंग में आगे शंकाकार ने "योजनं विस्तृतं पल्यं' इत्यादि दो श्लोकों को उद्धृत करते हुए यह कहा है कि इस वचन के अनुसार संख्यात वर्षों का भी व्यवहार-पल्य होता है, उसे यहां क्यों नहीं ग्रहण किया जाता है। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि उक्त वचन में जो 'वर्षशत' शब्द है वह विपुलता का वाचक है, इससे उसका अभिप्राय यह है कि असंख्यात सौ वर्षों के बीतने पर एक-एक रोम के निकालने से असंख्यात वर्षों का ही पल्योपम होता है। __ यहाँ धवला में जो उक्त दो श्लोक उद्धत किये गये हैं वे उसी अभिप्राय के प्ररूपक पुनाटकसंघीय आ० जिनसेन-विरचित हरिवंशपुराण के "प्रमाणयोजनव्यास-" इत्यादि तीन श्लोकों के समान हैं। हरिवंशपुराणगत वे तीन श्लोक धवला में उद्धृत उक्त दो श्लोकों से अधिक विकसित हैं। जैसे- उन दो श्लोकों में सामान्य से 'योजन शब्द का उपयोग किया गया है तथा परिधि के प्रमाण का वहां कुछ निर्देश नहीं किया गया है, जब कि हरिवंशपुराण के उन श्लोकों में विशेष रूप से प्रमाण योजन का उपयोग किया गया है तथा परिधि के प्रमाण का भी उल्लेख किया गया है। इससे ऐमा प्रतीत होता है कि धवलाकार के सामने लोकस्वरूप का प्ररूपक कोई प्राचीन ग्रन्थ रहा है । उसी से सम्भवत: उन्होंने उन दो श्लोकों को उद्धृत किया है । सर्वार्थसिद्धि में प्रसंगवश पल्य की प्ररूपणा करते हुए उसके ये तीन भेद निर्दिष्ट किये हैंव्यवहारपल्य, उद्धारपल्य और अद्धापल्य । वहाँ इन तीन पल्यों और उनसे निष्पन्न होने वाले व्यवहार-पल्योपम, उद्धार-पल्योपम और अद्धापल्योपम के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उनके प्रयोजन को भी प्रकट किया गया है । अन्त में वहाँ 'उक्ता च संग्रहगाथा' इस सूचना के साथ यह एक गाथा उद्धृत की गयी है"..-- १. देखिए धवला, पु० ६, पृ० १८२ और स्वयम्भूस्तोत्र श्लोक ६२,६१ तथा आप्तमीमांसा __ श्लोक १०८ २. देखिए धवला, पु० १३, पृ० ३०० और ह०पु० श्लोक ७,४७-४६ ३. ऐसी कुछ विशेषता हरिवंशपुराण में दृष्टिगोचर नहीं होती। ४. देखिए स०सि० ३-३८ ६४४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ववहारसारखा पल्ला तिण्णेव होंति बोब्वा । संखादी च समुद्दा कम्मदिदि वण्णिदा तदिये ॥-स० सि० ३-३८ यह गाथा प्राय: इसी रूप में जम्बूवीवपण्णत्ती में उपलब्ध होती है (देखिए जल्दीगा० १३-३६)। यहाँ 'बोद्धव्वा' के स्थान में उसका समानार्थक 'णायव्वा' शब्द है। तीसरा पाद यहाँ 'संखादीव-समुद्दा' ऐसा है । सर्वार्थसिदि में उसके स्थान में जो 'संखादी च समूहा' ऐसा पाठ उपलब्ध होता है वह निश्चित ही अशुद्ध हो गया प्रतीत होता है, क्योंकि 'च' और 'व' की लिखावट में विशेष अन्तर नहीं है। इस प्रकार स०सि० में सम्भवतः 'संखादी च समुद्दा' के स्थान में 'संखादीव-समुद्दा' ऐसा ही पाठ रहा है, ऐसा प्रतीत होता है। इसी अभिप्राय की प्ररूपक एक गाथा तिलोयपण्णत्ती में इस प्रकार उपलब्ध होती है ववहारुद्वारदा तियपल्ला पढमयम्मि संखाओ। विदिए द्वीव-समुद्दा तदिए मिज्जेवि कम्मठिदी ॥१-१४॥ इस परिस्थिति को देखते हुए यह निश्चित प्रतीत होता है कि इन ग्रन्थों के पूर्व लोकानयोग विषयक दो-चार प्राचीन ग्रन्थ अवश्य रहने चाहिए, जिनके आधार से इन ग्रन्थों में विविध प्रकार से लोक की प्ररूपणा की गयी है । तिलोयपण्णत्ती में अनेक बार ऐसे कुछ ग्रन्थों का उल्लेख भी किया गया है। यथा- . ___ मग्गायणी (४-१९८२), लोकविनिश्चय (४-१८६६ आदि), लोकविभाग (१.२८२ व ४२४४८ आदि), लोकायनी (८-५३०), लोकायिनी (४-२४४४), सग्गायणी (४-२१७), संगाइणी (४-२४४८), संगायणी (८-२७२), संगाहणी (८-३८७) और संगोयणी (४-२१९)। अनिदिष्टनाम ग्रन्थ /६४५ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकारोल्लेख धवलाकार ने जिस प्रकार अपनी इस विशाल धवला टीका में कुछ ग्रन्थों के नामों का उल्लेख करते हुए उनके अवतरणवाक्यों को लिया है तथा जैसा कि ऊपर के विवेचन से स्पष्ट हो चुका है, ग्रन्थनामनिर्देश के बिना भी उन्होंने प्रचुर ग्रन्थों के अन्तर्गत बहुत-सी गाथाओं व श्लोकों आदि को इस टीका में उद्धृत किया है, उसी प्रकार कुछ ग्रन्थकारों के भी नाम का निर्देश करते हुए उन्होंने उनके द्वारा विरचित ग्रन्थों से प्रसंगानुरूप गाथाओं आदि को लेकर धवला में उद्धृत किया है । कहीं-कहीं उन्होंने मतभेद के प्रसंग में भी किसी किसी ग्रन्थकार के . नाम का उल्लेख किया है । यथा १. आर्यनन्दी - महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के अन्तर्गत चौबीस अनुयोगद्वारों में अन्तिम 'अल्पबहुत्व' अनुयोगद्वार है । वहाँ 'कर्मस्थिति' अनुयोगद्वार के आश्रय से धवलाकार ने कहा है कि महावाचक आर्यनन्दी 'कर्मस्थिति' अनुयोगद्वार में सत्कर्म को करते हैं । इसका अभिप्राय यह दिखता है कि आर्यनन्दी के मतानुसार २२ वें 'कर्मस्थिति' अनुयोगद्वार में सत्कर्म की प्ररूपणा की गयी है । इसके पूर्व उस 'कर्मस्थिति' अनुयोगद्वार के प्रसंग में धवला में यह कहा गया है कि यहाँ दो उपदेश हैं—नागहस्ती क्षमाश्रमण जघन्य और उत्कृष्ट स्थितियों के प्रमाण की प्ररूपणा को कर्मस्थिति प्ररूपणा कहते हैं, किन्तु आर्यमक्षु क्षमाश्रमण कर्मस्थितिसंचित सत्कर्म की प्ररूपणा को कर्मस्थिति प्ररूपणा कहते हैं । इन दो उल्लेखों में से प्रथम जिस सत्कर्म की प्ररूपणा का अभिमत आर्यनन्दी का कहा गया है, उसी सत्कर्म की प्ररूपणा का अभिमत दूसरे उल्लेख में आर्यमक्षु का कहा गया है । इससे यह सन्देह उत्पन्न होता है कि क्या आर्यनन्दी और आर्यमक्षु दोनों एक ही हैं या भिन्न हैं । धवला में आगे आर्यनन्दी का दूसरी बार उल्लेख आर्यमंक्षु के साथ इस प्रकार हुआ है— "महावाचयाणमज्जमंखुखमणाणमुवदेसेण लोगे पुणे आउसमं करेदि । महावाचयाण १. कम्मट्ठिदि अणियोगद्दारे तत्थ महावाचया अज्जणंदिणो संतकम्मं करेंति । महावाचया (?) पुण द्विदिसंतकम्मं पयासंति । -- धवला, पु० १६, पृ० ५७७ २. जहष्णुक्कस्सट्ठिदीणं पमाणपरूवणा कम्मट्ठिदिपरूवणे ति णागहत्थिखमासमणा भति । अज्जमंखुखमासमणा पुण कम्मट्ठिदिसंचिदसंतकम्मपरूवणा कम्मट्ठदिपरूवणेत्ति भणंति । धवला, पु० १६, पृ० ५१८ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीणं उपदेसेण अंतोमुहुत्तं टुवेदि संखेज्जगुणमाउआदो ।" - पु० १६, पृ० ५७८ इसका अभिप्राय यह है कि आर्यमंशु के मतानुसार, लोकपूरणसमुद्घात के होने पर चार अघातिया कर्मों की स्थिति प्रायु के समान अन्तर्मुहूर्त प्रमाण हो जाती है । किन्तु आर्यनन्दी के मतानुसार, तीन अघातिया कर्मों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त होकर भी वह आयु से संख्यातगुणी होती है । जैसाकि जयधवला, भाग १ की प्रस्तावना ( पृ० ४३ ) में जयधवला का उद्धरण देते हुए स्पष्ट किया गया है, तदनुसार उपर्युक्त आर्यनन्दी का वह मत महावाचक नागहस्ती के समान ठहरता है । यह सब चिन्तनीय है । आनन्दी कब और कहाँ हुए हैं, उनके दीक्षा- गुरु और विद्यागुरु कौन थे, तथा उन्होंने किन ग्रन्थों की रचना की है; इत्यादि बातों के सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं है । देवगण क्षमाश्रमण (वि०सं० ५२३ के आसपास) विरचित नन्दिसूत्र स्थविरावली में आर्यनन्दिल क्षपण का उल्लेख आर्यमंशु के शिष्य के रूप में किया गया है ।' क्या आर्यनन्दी और ग्रानन्दिल एक हो सकते हैं ? यह अन्वेषणीय है । २. आर्यमक्षु और नागहस्ती - ये दोनों आचार्य विशिष्ट श्रुत के धारक रहे हैं । कषायप्राभृत के उद्गम को प्रकट करते हुए जयधवला में कहा गया है कि श्रुत के उत्तरोत्तर क्षीण होने पर अंग-पूर्वी का एकदेश ही आचार्य परम्परा से आकर गुणधर आचार्य को प्राप्त हुआ । ये गुणधर भट्टारक पांचवें ज्ञानपूर्व के 'वस्तु' नामक दसवें अधिकार के अन्तर्गत बीस प्राभूतों में तीसरे कषायप्राभृत के पारंगत थे। उन्होंने प्रवचनवत्सलता के वशं ग्रन्थव्युच्छेद के भय से प्रेयोद्वेषप्राभृत ( कषायप्राभृत) का, जो ग्रन्थप्रमाण में सोलह हजार पदप्रमाण था, केवल एक सौ अस्सी गाथाओं में उपसंहार किया। ये ही सूत्रगाथाएँ आचार्य परम्परा से आकर आर्यमक्षु और नागहस्ती को प्राप्त हुईं। इन दोनों ही के पादमूल में गुणधर आचार्य के मुख कमल से निकली हुई उन एक सौ अस्सी गाथाओं के अर्थ को भली-भाँति सुनकर यतिवृषभ भट्टारक ने चूर्णिसूत्रों को रचा। लगभग इसी अभिप्राय को धवला में भी अनुभाग-संक्रम के प्रसंग में इस प्रकार व्यक्त किया गया है ....... एसो अत्थो विउलगिरिमत्थयत्थेण पच्चक्खीकयतिकाल गोयरछदव्वेण वड्ढमाणभडारएण गोदमथेरस्स कहिदो । पुणो सो वि अत्थो आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहरभडारयं संपत्ती । पुणो तत्तो आइरियपरंपराए आगंतूण अज्जमंखु - नागहत्थिभडारयाणं मूलं पत्तो । पुणो तेहि दोहि विकमेण जदिव सहभडारस्स वक्खाणिदो । तेण वि अणुभागसंक मे सिस्साणुग्गहट्ठ १. यहाँ 'आर्यमक्षु' के स्थान में 'आर्यमंग' नाम है। यथा भगं करगं झरगं पभावगं णाण दंसणगुणाणं । वंदामि अज्जमंगं सुय - सायर - पारगं धीरं ॥ - न०सू०२८ णाणमिदंसणंमि य तव विणए णिच्चकालमुज्जुत्तं । अज्जादिलखमणं सिरसा वंदे पसण्णमणं ॥ - न० सू० २६ २. देखिए जयधवला १, पृ० ८७-८८ ग्रन्थका रोल्लेख / ६४७ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुण्णिसुत्तै लिहिदो । तेण जाणिज्जदि जहा सव्वट्ठकुव्वंकाणं विच्चालेसु घादट्ठाणाणि णस्थित्ति । -पु० १३, पृ० २३१-३२ जयधवला में भी उपर्युक्त अनुभागसंक्रम के ही प्रसंग में उसी प्रकार की शंका उठायी गयी है व उसके समाधान में धवला के समान ही उपर्युक्त अभिप्राय को प्रायः उन्हीं शब्दों में प्रकट किया गया है। विशेषता यह रही है कि धवला में जहाँ प्रसंगप्राप्त उस शंका के समाधान में वह कषायप्राभत के अनुभागसंक्रमसूत्र के व्याख्यान से जाना जाता है' यह कहकर उस प्रसंग को उदधत करते हुए उपर्युक्त अभिप्राय को प्रकट किया गया है वहाँ जयधवला में 'वह इस दिव्यध्वनिरूप किरण से जाना जाता है' यह कहकर उसी अभिप्राय को प्रकट किया गया है। . इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि गुणधर भट्टारक ने सोलह हजार पद प्रमाण प्रेयोद्वेषप्राभत (कषायप्राभूत) का जिन १८० गाथासूत्रों में उपसंहार किया था, गम्भीर व अपरिमित अर्थ से गभित उन गाथासूत्रों के मर्म को समझकर आर्य मंक्षु और नागहस्ती ने उनका व्याख्यान यतिवृषभाचार्य को किया था। इससे आर्यमंक्षु और नागहस्ती इन दोनों आचार्यों के महान् श्रुतधर होने में कुछ सन्देह नहीं रहता। विशिष्ट श्रुतधर होने के कारण ही धवला और जयधवला में उनका उल्लेख क्षमाश्रमण, क्षमण और महावाचक जैसी अपरिमित पाण्डित्य की सूचक उपाधियों के साथ किया गया है। कषायप्राभत की टीका 'जयधवला' को प्रारम्भ करते हुए वीरसेनाचार्य ने आर्यमक्ष और नागहस्ती के साथ वृत्ति-सूत्रकर्ता यतिवृषभ का भी स्मरण करके उनसे वर देने की प्रार्थना की है।" श्वेताम्बर सम्प्रदाय में उल्लेख _ जैसाकि पीछे 'आर्यनन्दी' के प्रसंग में कुछ संकेत किया जा चका है, इन दोनों लब्धप्रतिष्ठ आचार्यों को श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है। नन्दिसत्र की स्थविरावली में आचार्य आर्यमंगु (आर्यमंक्षु) को सूत्रार्थ के व्याख्याता, साधु के योग्य क्रियाकाण्ड के अनुष्ठाता, विशिष्ट ध्यान के ध्याता और ज्ञान-दर्शन के प्रभावक कहकर श्रुत-समुद्र के पारगामी कहा गया है व उनकी वन्दना की गयी है। १. वही, भाग ५, पृ० ३८७-८८ २. गुणहर-वयण-विणिग्गयगाहाणत्थोऽवहारियो सव्वो। जेणज्जमखुणा सो सणागहत्थी वरं देऊ ।। जो अज्जमखुसीसो अंतेवासी वि णागहत्थिस्स । सो वित्तिसुत्त कत्ता जइवसहो मे वरं देऊ ।।--मंगल के पश्चात् गा० ७.८ (यह स्मरणीय है कि यतिवृषभाचार्य ने स्वयं चूर्णिसूत्रों में या अन्यत्र भी कहीं इन दोनों आचार्यों का उल्लेख नहीं किया है।) ३. भणगं करगं झरगं पहावगं णाण-दसणगणाणं । वंदामि अज्जमंगुं सुय-सायरपारगं धीरं ।।-गा० २८ ६४८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार वहां आचार्य नागहस्ती के विषय में भी कहा गया है कि वे व्याकरण में कुशल होकर पिण्डशद्धि, समिति, भावना, प्रतिमा, इन्द्रियनिरोध, प्रतिलेखन और गुप्ति आदि अभिग्रहस्वरूप करण के ज्ञाता एवं कर्मप्रकृतियों के प्रमुख व्याख्याता थे । इस प्रकार उनके महत्त्व को प्रकट करते हुए उनके वाचकवंश की वृद्धि की प्रार्थना की गयी है। इस स्थविरावली में आर्यमंगु के उल्लेख के पूर्व में क्षोभ से रहित समुद्र के समान आर्यसमुद्र की वन्दना की गयी है (गाथा २७) । इससे यह ध्वनित होता है कि आर्यमंगु आर्य समुद्र के शिष्य रहे हैं। इसी प्रकार वहां नाग हस्ती के उल्लेख के पूर्व में ज्ञान व दर्शन आदि में निरन्तर उद्य क्त रहनेवाले आर्यनन्दिल क्षमण की वन्दना की गयी है (गा० २६)। इससे यह प्रकट होता है कि नागहस्ती आर्यनन्दिल के शिष्य रहे हैं । हरिभद्रसूरि-विरचित वृत्ति में स्पष्टतया आर्यनन्दिल को आर्य मंगु का शिष्य और नागहस्ती को आर्यनन्दिल का शिष्य कहा गया है।' इस स्थविरावली के अनुसार इनमें गुरु-शिष्य परम्परा इस प्रकार फलित होती है१. आर्यसमुद्र २. आर्य मंगु ३. आर्यनन्दिल ४. आर्यनागहस्ती इस गरु-शिष्य परम्परा में यह एक बाधा उपस्थित होती है कि जयधवला के अनुसार आचार्य गुणधर ने कषायप्राभूत के उपसंहारस्वरूप जिन १८० गाथाओं को रचा था वे आचार्यपरम्परा से आकर आर्यमंक्षु और नागहस्ती को प्राप्त हुईं तथा उन दोनों ने यतिवषभ को उनके गम्भीर अर्थ का व्याख्यान किया। ये यतिवृषभ आर्यमंक्षु के शिष्य और नागहस्ती के अन्तेवासी रहे हैं। इस प्रकार यहाँ आर्यमंक्षु और नागहस्ती को समान समयवर्ती और यतिवृषभ के गरु कहा गया है। इसकी संगति उक्त गुरु-शिष्य-परम्परा से नहीं बैठती है, क्योंकि उक्त गरु-शिष्यपरम्परा के अनुसार नागहस्ती आर्यमंक्षु के प्रशिष्य ठहरते हैं, इससे उन दोनों के मध्य में समय का कुछ अन्तर अवश्यंभावी हो जाता है। इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार में यह कहा गया है कि गुणधर मुनीन्द्र ने एक सौ तेरासी (?) मल गाथासूत्रों और तिरेपन विवरण-गाथाओं की कषायप्राभृत, अपरनाम प्रेयोद्वेषप्राभत, के नाम से रचना की व उन्हें पन्द्रह महाधिकारों में विभक्त कर उन्होंने उनका व्याख्यान नागहस्ती और आर्यमक्ष के लिए किया । यतिवृषभ ने उन दोनों के पास उन गाथासूत्रों को पढ़कर उनके ऊपर १. वड्ढउ वायगवंसो जसवंसो अज्जणागहत्थीणं । वागरण-करणभंगिय कम्मप्पयडीपहाणाणं ।।-गा० ३० २. आर्यमंगुशिष्यं आर्यनन्दिलक्षपणं शिरसा वन्दे ।XXX आर्यनन्दिल क्षपणशिष्याणां आर्य नागहस्तीनां .....। हरि० वृत्ति० ३. देखिए जयधवला १, मंगल के पश्चात् गा० ७-८ प्रन्थकारोल्लेख/६४६ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्तिसूत्रों के रूप में छह हजार प्रमाण चूर्णिसूत्रों को रचा ।' इस श्रुतावतार के उल्लेख से भी आर्यमंक्षु और नागहस्ती, ये दोनों समकालीन ही सिद्ध होते हैं । यहाँ श्रुतावतार में जो यह कहा गया है कि गुणधर ने इन गाथासूत्रों का व्याख्यान नागहस्ती और आर्यमक्षु के लिए किया, यह अवश्य विचारणीय है; क्योंकि धवला और जयधवला दोनों में ही यह स्पष्ट कहा गया है कि वे गाथासूत्र उन दोनों को गुणधर के पास से आचार्य - परम्परा से आते हुए प्राप्त हुए थे । इससे इन्द्रनन्दी के कथनानुसार जहाँ वे दोनों गुणधर के समकालीन सिद्ध होते हैं वहाँ धवला और जयधवला के कर्ता वीरसेन स्वामी के उपर्युक्त उल्लेख के अनुसार वे गुणधर के कुछ समय बाद हुए प्रतीत होते हैं । इससे इन्द्रनन्दी के उक्त कथन में कहाँ तक प्रामाणिकता है, यह विचारणीय हो जाता है । इसी प्रकार इन्द्रनन्दी ने कषायप्राभूतगत उन गाथाओं की संख्या १०३ कही है जब कि स्वयं गुणधराचार्य उनकी संख्या का निर्देश १८० कर रहे हैं । ' समय की समस्या ऊपर जो कुछ विचार प्रकट किया गया है, उससे आचार्य गुणधर, आर्यमक्षु, नागहस्ती और यतिवृषभ के समय की समस्या सुलझती नहीं है । उनके समय के सम्बन्ध में विद्वानों द्वारा जो विचार किया गया है उसके लिए कषायप्राभृत ( जयधवला ) प्रथम भाग की प्रस्तावना ( पृ० ३८-५४) देखनी चाहिए। धवला और जयधवला में उनका उल्लेख (१) कृति - वेदनादि २४ अनुयोगद्वारों में से दसवें उदयानुयोगद्वार में भुजाकार प्रदेशोदय की प्ररूपणा करते हुए धवला में एक जीव की अपेक्षा काल की प्ररूपणा के अन्त में यह सूचना की गयी है कि यह नागहस्ती श्रमण का उपदेश है। यथा एसुवदेसो नागहत्यिखमणाणं । – पु० १५, पृ० ३२७ ठीक इसके आगे 'अण्णेण उवएसेण' ऐसी सूचना करते हुए उसकी प्ररूपणा प्रकारान्तर से पुनः की गयी है । यह अन्य उपदेश किस आचार्य का रहा है; इसकी सूचना धवला में नहीं की गयी है । सम्भव है वह आर्यमक्ष, क्षमाश्रमण का रहा हो । (२) उक्त २४ अनुयोगद्वारों में २२वाँ 'कर्मस्थिति' अनुयोगद्वार है । वहाँ धवलाकार ने कहा है कि इस विषय में दो उपदेश हैं - १. नागहस्ती क्षमाश्रमण जघन्य और उत्कृष्ट स्थितियों के प्रमाण की प्ररूपणा को 'कर्मस्थिति प्ररूपणा' कहते हैं, २. पर आर्यमक्षु क्षमाश्रमण कर्मस्थिति में संचित सत्कर्म की प्ररूपणा को 'कर्मस्थिति प्ररूपणा' कहते हैं । इतना स्पष्ट करके आगे वहाँ यह सूचना कर दी गयी है कि इस प्रकार इन दो उपदेशों के १. इ० श्रुतावतार १५२-५६ २. गाहासदे असीदे अत्थे पण्णरसधा विहत्तम्मि | वच्छामि सुत्तगाहा जयि गाहा जम्मि अत्थम्मि ॥ क०पा०, गा० २ ६५० / षट्खण्डागम- परिशीलन Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसार कमस्थिति को प्ररूपणा करनी चाहिए। इस सूचना के साथ ही उस 'कर्मस्थिति' अनुयोगद्वार को समाप्त कर दिया गया है।' सम्भवतः धवलाकार को इसके विषय में कुछ अधिक उपदेश नहीं प्राप्त हुआ है। (३) उन २४ अनुयोगद्वारों में अन्तिम 'अल्पबहुत्व' अनुयोगद्वार है, जिसे पिछले सभी अनुयोगद्वारों से सम्बद्ध कहा गया है । इसको प्रारम्भ करते हुए धवला में कहा गया है कि नागहस्ती भट्टारक अल्पब हुत्व अनुयोगद्वार में सत्कर्म का मार्गण करते हैं और यही उपदेश प्रवाह्यमान-आचार्यपरम्परागत है। इतना कहकर आगे धवला में प्रकृतिसत्कर्म व स्थितिसत्कर्म आदि की प्ररूपणा स्वामित्व व एक जीव की अपेक्षा काल आदि अनेक अवान्तर अनुयोगद्वारों में की गयी है। इसके विपरीत अन्य किसी मत का उल्लेख धवलाकार ने नहीं किया है। (४) आगे निकाचित-अनिकाचित अनुयोगद्वार (२१) से सम्बद्ध इसी 'अल्पब हुत्व' अनुयोगद्वार के प्रसंग में धवलाकार ने महावाचक क्षमाश्रमण के उपदेशानुसार कषायोदयस्थान, स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान, प्रदेशउदीरक अध्यवसानस्थान, प्रदेशसंक्रमण अध्यवसानस्थान, उपशामक अध्यवसानस्थान, निधत्त अध्यवसानस्थान और निकाचन अध्यवसानस्थान-इनमें महावाचक क्षमाश्रमण के उपदेशानुसार अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की है।" महावाचक क्षमाश्रमण से किसका अभिप्राय रहा है, यह धवला में स्पष्ट नहीं है। सम्भवतः उससे धवलाकार का अभिप्राय नागहस्ती से रहा है। इसके विपरीत दूसरे किसी उपदेश के अनुसार उसकी प्ररूपणा वहां नहीं की गयी है। वह उपदेश कदाचित् आर्यमंक्षु का हो सकता है। जैसा कि पाठक आगे देखेंगे, आर्यमक्ष के उपदेश की प्रायः उपेक्षा की गयी है। (५) जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, यहीं पर आगे 'कर्मस्थिति' अनुयोगद्वार (२२) से सम्बद्ध इसी अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में धवला में कहा गया है कि 'कर्मस्थिति' अनयोगद्वार में महावाचक आर्यनन्दी सत्कर्म को करते हैं, पर महावाचक (?) स्थितिसत्कर्म को प्रकाशित करते हैं। इतना कहकर आगे धवला में 'एवं कम्मट्ठिदि त्ति समत्तमणियोगद्दारं' यह सूचना करते हए उस कर्मस्थिति से सम्बद्ध अल्पबहुत्व को समाप्त कर दिया गया है, व उसके विषय में कुछ विशेष प्रकाश नहीं डाला गया है । यहाँ भी 'महावाचक' से किसका अभिप्राय रहा है, यह स्पष्ट नहीं है। यह सब प्ररूपणा अपूर्ण व अस्पष्ट है। इस स्थिति को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि धवलाकार को इससे सम्बन्धित व्यवस्थित अधिक उपदेश नहीं प्राप्त हुआ है। १. धवला, पु० १६, पृ० ५१८ २. अग्गेणियस्स पुव्वस्स पंचमस्स वत्थुस्स....अप्पाबहुगं च सव्वत्थ ।-सूत्र ४,१,४५ (पु० ६, पृ० १३४)। ३. धवला, पु० १६, पृ० ५२२ आदि। ४. धवला, पु० १६, पृ० ५७७ ५. वही, ॥ ॥ प्रत्यकारोल्लेख / ६५१ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि पूर्व में उस कर्मस्थिति के प्रसंग में आर्यमा के नाम से जिस मत का उल्लेख किया गया है, उसी मत का उल्लेख यहाँ आर्यनन्दी के नाम से किया गया है।' आर्यनन्दी और आर्यमंक्षु ये दो अभिन्न रहे हैं या उक्त मत के अनुयायी वे दोनों पृथक्-पृथक् रहे हैं, यह अन्वेषणीय है। (६) यहीं पर आगे 'पश्चिमस्कन्ध' (२३) से सम्बद्ध उस अल्पबहुत्व में धवलाकार ने 'पश्चिमस्कन्ध अनुयोगद्वार में वहाँ यह मार्गणा है' इस प्रकार सूचना करते हुए आवर्जितकरण और केवलिसमुद्घात का विचार किया है । इसी प्रसंग में, वहां यह भी कहा गया है कि महावाचक आर्यमा श्रमण के उपदेशानुसार लोकपूरण समुद्घात के होने पर केवलीजिन शेष तीन अघातिया कर्मों की स्थिति को आयु के समान करते हैं। किन्तु महावाचक आर्यनन्दी के उपदेशानुसार शेष तीन अधातिया कर्मों की स्थिति को अन्तर्मुहर्त प्रमाण करते हैं जो आयु से संख्यातगुणी रहती है। इस प्रकार यह आर्यनन्दी का मत आर्यमंक्षु के मत से विपरीत है। इसके पूर्व धवला में पश्चिमस्कन्ध में जो प्ररूपणा की जा चुकी है, वही प्ररूपणा लगभग उसी रूप में यहाँ (अल्पबहुत्व में) पुनः की गयी है। विशेषता यह रही कि पूर्व में की गयी उस प्ररूपणा के प्रसंग में अघातिया कर्मों की उस स्थिति के विषय में किसी प्रकार के मतभेद को नहीं प्रकट किया गया है। किन्तु उसके विषय में यहाँ उपर्युक्त आर्यमंक्षु और आर्यनन्दी के दो भिन्न मतों का उल्लेख किया गया है। यह प्ररूपणा कषायप्राभूत के अन्तर्गत 'पश्चिमस्कन्ध' में की गयी है। धवलाकार ने सम्भवत: उसी का अनुसरण किया है। कषायप्राभूतचूर्णि में की गयी उस प्ररूपणा के प्रसंग में उपर्युक्त अघातिया कर्मों की स्थिति विषयक कोई मतभेद नहीं प्रकट किया गया है। वहाँ इतना मात्र कहा गया है कि लोकपूरण १. यथा-अज्जमंखुखमासमणा पुण कम्मट्ठिदिसंचिदसंतकम्मपरूवणा कम्मट्ठिदिपरूवणे त्ति भणंति ।-धवला, पु० १६, पृ० ५१८ कम्मट्ठिदि त्ति अणियोगद्दारे एत्थ महावाचया अज्जणंदिणो संतकम्मं करेंति । -धवला, पु० १६, पृ० ५७७ (सम्भवतः धवलाकार भी इन मतभेदों के विषय में असन्दिग्ध नहीं रहे, इसी से स्पष्टतया वह प्ररूपणा नहीं की जा सकी है। कहीं-कहीं इस प्रसंग में नामनिर्देश के बिना केवल 'महावाचमाणं खमासमणाणं उवदेसेण' ... 'महावाचया ट्ठिदिसंतकम्मं पयासंति' इन उपाधिपरक पदों का ही प्रयोग किया है, जब कि आर्यनन्दी, आर्यमंक्षु और नागहस्ती तीनों ही 'महावाचक क्षमाश्रमण' रहे हैं। २. धवला, पु० १६, पृ० ५७८ ३. वही, पृ० ५१६-२१ व आगे पृ० ५७७-७६ ४. देखिए क० प्रा० चूणि ३६-५१ (क०पा० सुत्त प० ६००-६०६) ५. प्रसंगवश यह कुछ प्ररूपणा धवला में इसके पूर्व 'वेदनाद्रव्यविधान' में भी की गयी है। वहाँ भी अघातिया कर्मों की स्थिति के विषय में कुछ मतभेद नहीं प्रकट किया गया है। देखिए पु० १०, पृ० ३२०-२६ ६५२ / षट्लण्डागम-परिशीलन Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्घात के होने पर अघातिया कर्मों की स्थिति को अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थापित करता है। अन्य तीन अघातिया कर्मों की यह अन्तर्मुहूर्त स्थिति आयुस्थिति से संख्यातगुणी होती है।' उक्त मतभेद को उसकी टीका जयधवला में धवला के ही समान प्रकट किया गया है। यथा __ "एत्थ दुहे उवएसा अस्थि त्ति के वि भणंति। तं कथं ? महावाचयाणमज्जमखुखवणाणमववेसेण लोगे पूरिदे आउगसमं णामा-गोद-वेदणीयाणं द्विदिसंतकम्मं ठवेदि। महावाचयाणं णागहत्थिखवणाणमवएसेण लोगे पूरिदे णामा-गोद-वेदणीयाणं ट्ठिदिसंतकम्ममंतोमुहुत्तपमाणं होदि । होतं वि आउगादो संखेज्जगुणमेत्तं ठवेदि त्ति । णवरि एसो वक्खाणसंपदाओ चण्णिसत्तविरुद्धो, चण्णिसत्ते मुत्तकंठमेव संखेज्जगुणमाउआदो त्ति णिद्दिठ्ठत्तादो। तदो पवाइज्जतोवएसो एसो चेव । पहाणभावेणावलंबेयव्वो।"-जयध० १, प्रस्तावना पृ० ४३ ___यहाँ यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि ऊपर धवला में जिस मत का उल्लेख महावाचक . आर्यनन्दी के नाम से किया गया है उसी मत का उल्लेख ऊपर जयधवला में महावाचक नागहस्ती के नाम से किया गया है। (७) धवला से इसी अल्पबहुत्व के प्रसंग में आगे कहा गया है कि अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में महावाचक क्षमाश्रमण (?) सत्कर्म का मार्गण करते हैं । इसे स्पष्ट करते हुए आगे वहाँ कहा गया है-आहारसत्कमिक सबसे स्तोक हैं, उनसे सम्यक्त्व के सत्कर्मिक असंख्यातगणे हैं, इत्यादि। यहाँ भी महावाचक क्षमाश्रमण से धवलाकार का अभिप्राय आर्यमा का, नागहस्ती का अथवा अन्य ही किसी का रहा है। यह स्पष्ट नहीं है। इसके पूर्व इसी अभिमत को धवला में नागहस्ती भट्टारक के नाम से प्रकट किया जा चुका है तथा उसे ही प्रवाह्यमान या आचार्य-परम्परागत भी इस प्रकार कहा गया है___ "अप्पाबहुगअणियोगद्दारे णागहत्थिभडारओ संतकम्ममग्गणं करेदि । एसो च उवदेसो पवाइज्जदि ।"-धवला, पु० १६, पृ० ५२२ पवाइज्जंत-अप्पवाइज्जंत उपदेश _ 'पवाइज्जत' का अर्थ आचार्यपरम्परागत और 'अप्पवाइज्जंत' का अर्थ आचार्यपरम्परा से अनागत है। ऊपर के उल्लेख में धवलाकार ने नागहस्ती भट्टारक के उपदेश को 'पवाइज्जदि' कहकर आचार्यपरम्परागत कहा है। इसके पूर्व अघातिया कर्मों की स्थिति से सम्बन्धित जयधवला के जिस प्रसंग को उद्धत किया गया है उसमें धवलाकार ने महावाचक आर्यमंक्षु के उपदेश को चूर्णिसूत्र के विरुद्ध कहकर अग्राह्य प्रकट करते हुए महावाचक नागहस्ती के उपदेश को 'पवाइज्जंत' कहकर आश्रयणीय कहा है। ___ जयधवलाकार ने दीर्घकाल से अविच्छिन्न परम्परा से आने वाले समस्त आचार्यसम्मत उपदेश को पवाइज्जंत उपदेश कहा है। प्रकारान्तर से आगे उन्होंने यह भी कहा है----अथवा आर्यमा भगवान का उपदेश यहाँ (अघातिया कर्मों की स्थिति के प्रसंग में) अप्पवाइज्जमाण है १. लोगे पुण्णे अंतोमुहुत्तं ट्ठिदि ठवेदि । संखेज्जगुणमाउआदो। —क०पा० सुत्त पृ०६०२, चूणि १३-१४ २. देखिए धवला, पु० १६, पृ० ५७६ आदि । प्रन्थकारोल्लेख | ६५३ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और नागहस्ती क्षपण का उपदेश पवाइज्जत है, इसलिए इसे ही ग्रहण करना चाहिए । यथा "को पुण पवाइज्जतोवएसोणाम वुत्तमेदं? सव्वाइरियसम्मदो चिरकालमन्वच्छिण्णसंपदायकमेणागच्छमाणो जो सिस्सपरंपराए पवाइज्जदे पण्णविज्जदे सो पवाइज्जंतोवएसो त्ति भण्णदे । अथवा अज्जमखुभयबंताणमुवएसो एत्थापवाइज्जमाणो णाम । णागहत्थिखवणाणमुवएसो पवाइज्जंतओ त्ति घेत्तव्वं ।” धवला में भी प्राय: पवाइज्जत-अप्पवाइज्जत उपदेश का स्वरूप इसी प्रकार का कहा गया है। वहां नामान्तर से उसे दक्षिणप्रतिपत्ति व उत्तरप्रतिपत्ति भी कहा गया है। यद्यपि धवलाकार ने उक्त प्रसंग में नागहस्ती क्षमाश्रमण के उपदेश को पवाइज्जमाण और आर्यमंक्ष के उपदेश को अपवाइज्जमाण नहीं कहा है, फिर भी अन्यत्र उन्होंने भी नागहस्ती भट्टारक के उपदेश को पवाइज्जमाण कहा है । यथा "अप्पाबहगअणियोगद्दारे णागहत्थिभडारओ संतकम्ममग्गणं करेदि । एसो च उवदेसो पवाइज्जदि ।"-पु० १६, पृ० ५२३ इसका अभिप्राय यह समझना चाहिए कि विवक्षित विषय के प्रसंग में जहाँ आचार्य आर्यमंक्षु और नागहस्ती के बीच में कुछ मतभेद रहा है, वहीं आ० नागहस्ती के उपदेश को आचार्य-परम्परागत मानकर प्रमाणभूत माना गया है और आर्यमा के उपदेश की उपेक्षा की गयी है। किन्तु जिस विषय में उन दोनों के मध्य में किसी प्रकार का मतमेद नहीं रहा हैएकरूपता रही है-उसका उल्लेख उन दोनों के ही नाम पर आदरपूर्वक किया गया है । यथा-- "पवाइज्जंतेण पुण उवएसेण सव्वाइरियसम्मदेण अज्जमखु-णागहत्थिमहावाचयमुह-कमलविणिग्गयेण सम्मत्तस्स अट्ठवस्साणि ।"3 श्वेताम्बर परम्परा में आर्यमंगु के विषय में यह प्रसिद्धि है कि वे विहार करते हुए किसी समय मथुरा पहुँचे । वहाँ कुछ भक्तों की सेवासुश्रूषा पर मुग्ध होकर वे रसगारव आदि के वशीभूत होते हुए वहीं रह गये। इस प्रकार श्रामण्य धर्म से भ्रष्ट हुए उनका मरण वहीं पर हआ।४ . __ यदि इसमें कुछ तथ्यांश है तो सम्भव है कि इस कारण भी आर्यमंक्षु या आर्य मंगु के उपदेश की उपेक्षा की गयी हो। उपसंहार (१) गुणधराचार्य ने सोलह हजार पद-प्रमाण कषायप्राभूत का जिन एक सौ अस्सी या दो सौ तेतीस सूत्रगाथाओं में उपसंहार किया था वे आचार्य-परम्परा से आकर महावाचक आर्यमंक्षु और महावाचक नागहस्ती को प्राप्त हुई थीं। उन दोनों ने उनके अन्तर्गत अपरिमित गम्भीर अर्थ का व्याख्यान यतिवृषभाचार्य को किया था। (२) यतिवृषभाचार्य ने आर्यमंक्षु और नागहस्ती से उन सूत्रगाथाओं के रहस्य को सुनकर १. क० पा० सुत्त प्रस्तावना, पृ० २४-२५ २. धवला, पु० ३, पृ० ६२,६४,६८ व ६६ तथा पु० ५, पृ० ३२ ३. क० प्रा० (जयधवला) भा० १ की प्रस्तावना, पृ० ४१ ४. देखिए 'अभिधान-राजेन्द्र' कोश में 'आर्यमंगु' शब्द । ६५४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके ऊपर छह हजार ग्रन्थप्रमाण चूर्णिसूत्रों को रचा। इससे आर्यमंक्षु, नागहस्ती और यतिवृषभ इन तीनों श्रुतधरों की कर्मसिद्धान्तविषयक अगाध विद्वत्ता प्रकट होती है। (३) उक्त सूत्रगाथाओं और चूर्णिसूत्रों में निहित अर्थ के स्पष्टीकरणार्थ वीरसेनाचार्य और उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने क्रम से बीस और चालीस हजार (समस्त ६००००) ग्रन्थ प्रमाण जयधवला नाम की टीका लिखी। (४) आर्यमंक्षु (आर्यमंगु) और नागहस्ती क्षमाश्रमण इन दोनों श्रुतधरों को श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । नन्दिसूत्रंगत स्थविरावली के अनुसार उनकी गुरुशिष्य परम्परा इस प्रकार रही-(१) आर्यसमुद्र, (२) आर्यभक्षु (या आर्यमंगु), (३) आर्यनन्दिल और नागहस्ती।। (५) मुनि कल्याणविजयजी के अभिमतानुसार आर्यमंगु और नागहस्ती इन दोनों के मध्य में लगभग १५० वर्ष का अन्तर रहता है, जबकि धवला और जयधवला के उल्लेखानसार वे दोनों यतिवृषभाचार्य के गुरु के रूप में समकालीन ठहरते हैं। उनके यह समय की समस्या विचारणीय है। (६) इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार के अनुसार ये दोनों आचार्य गुणधराचार्य के समकालीन सिद्ध होते हैं। (७) धवलाकार ने मतभेद के प्रसंग में आर्यमा और नागहस्ती महावाचक के साथ आर्यनन्दी का भी दो बार उल्लेख किया है। ये आर्यनन्दी क्या नन्दिसूत्र की स्थविरावली में निर्दिष्ट आर्यनन्दिल सम्भव हैं ? (८) धवला और विशेषकर जयधवला में कहीं-कहीं आर्यमंक्षु के उपदेश को आचार्यपरम्परागत न होने से 'अपवाइज्जमाण' और नागहस्ती के उपदेश को आचार्य परम्परागत होने से 'पवाइज्जमाण' कहा गया है । ३. उच्चारणाचार्य यह किसी आचार्यविशेष का नाम नहीं है । आचार्यपरम्परागत सूत्रों व गाथाओं आदि का आम्नाय के अनुसार जो विधिपूर्वक शुद्ध उच्चारण कराते और अर्थ का व्याख्यान किया करते थे, उन्हें उच्चारणाचार्य कहा जाता था। ऐसे उच्चारणाचार्य समय-समय पर अनेक हुए हैं। वेदनाद्रव्यविधान अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट द्रव्यवेदना किसके होती है, इसे स्पष्ट करते हुए गुणितकौशिक की, जिसके उसकी वह उत्कृष्ट द्रव्यवेदना होती है, अनेक विशेषताओं को प्रकट किया गया है । उनमें उसकी एक विशेषता यह भी है कि उसके उपरिम स्थितियों के निषेक का उत्कृष्ट पद और अधस्तन स्थितियों के निषेक का जघन्य पद होता है (सूत्र ४,२,४,११)। इसकी व्याख्या के प्रसंग में धवला में कहा गया है कि तीव्रसंक्लेश विलोम प्रदेशविन्यास का कारण और मन्दसंक्लेश अनुलोम प्रदेशविन्यास का कारण होता है । इस प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि यह उच्चारणाचार्य के अभिमतानुसार प्ररूपणा की गयी है। किन्तु भतबलिपाद का अभिप्राय यह है कि विलोम विन्यास का कारण गुणितकर्माशिकत्व और अनुलोम विन्यास का कारण क्षपितकर्मा शिकत्व है, न कि संक्लेश और विशुद्धि ।' १. देखिए धवला, पु० १०, १० ४४-४५ ग्रन्थकारोल्लेख / ६५५ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार निषेक-रचना के प्रसंग में अनेक शंका-समाधानपूर्वक आचार्य भूतबलि के मत से उच्चारणाचार्य के भिन्न मत को प्रकट करते हुए धवला में उच्चारणाचार्य का उल्लेख है । ४. एलाचार्य इनके विषय में कुछ विशेष ज्ञात नहीं है। वेदनाखण्ड के अन्तर्गत दो अनुयोगद्वारों में प्रथम 'कृति' अनुयोगद्वार की प्ररूपणा करते हुए धवला में अर्थकर्ता के रूप में वर्धमान जिनेन्द्र की प्ररूपणा की गयी है। वहाँ एक मत के अनुसार वर्धमान जिन की ७२ वर्ष और दूसरे मत के अनुसार उनकी आयु ७१ वर्ष, ३ मास और २५ दिन प्रमाण निर्दिष्ट की गयी है व तदनुसार ही उनके कुमारकाल आदि की पृथक-पृथक् प्ररूपणा की गयी है। इस प्रसंग में यह पूछने पर कि इन दो उपदेशों में यथार्थ कौन है, धवलाकार ने कहा है कि एलाचार्य का वत्स (मैं वीरसेन) कुछ कहना नहीं चाहता, क्योंकि इस विषय में कुछ उपदेश प्राप्त नहीं है।' इस प्रकार धवलाकार वीरसेनाचार्य ने 'एलाचार्य का वत्स' कहकर अपने को एलाचार्य का शिष्य प्रकट किया है। यद्यपि धवला की अन्तिम प्रशस्ति में उन्होंने एलाचार्य के अतिरिक्त अपने को आर्यनन्दी का शिष्य और चन्द्रसेन का नातू (प्रशिष्य) प्रकट किया है, पर उसका अभिप्राय यह समझना चाहिए कि उनके विद्यागुरु एलाचार्य और दीक्षागुरु आर्यनन्दी रहे हैं। इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार में भी वीरसेनाचार्य को एलाचार्य का शिष्य कहा गया है। विशेष इतना है कि वहाँ एलाचार्य को चित्रकूटपुरवासी निर्दिष्ट किया गया है। इसके अतिरिक्त अन्य कुछ जानकारी एलाचार्य के विषय में प्राप्त नहीं है। ५. गिद्धि-पिंछाइरिय (गृद्धपिच्छाचार्य) गद्धपिच्छाचार्य अपरनाम उमास्वाति के द्वारा विरचित तत्त्वार्थसूत्र एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में प्रतिष्ठित है। ___ जीवस्थान कालानुगम अनुयोगद्वार में नोआगमद्रव्यकाल के स्वरूप को प्रकट करते हुए धवलाकार ने "वर्तना-परिणाम-क्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य" इस सूत्र (५-२२) को गद्धपिच्छा १. दोसुवि उवएसेसु को एत्थ समंजसो? एत्थ ण बाहइ जिब्भमेलाइरियवच्छओ, अलद्धोवदेसत्तादो दोण्णमेक्कस्स बाहाणुवलंभादो। किंतु दोसु एक्केण होदव्वं । तं जाणिय वत्तव्वं ।। -धवला, पु० ६, पृ० १२६ २. जस्स से [प] साएण मए सिद्धन्तमिदं हि अहिलहुदी। महु सो एलाइरियो पसियउ वरवीरसेणस्स ।।--गा० १ अज्जज्जणंदिसिस्सेणुज्जवकम्मस्स चंदसेणस्स । तह णत्तुवेण पंचत्थुहण्यंभाणुणा मुणिणा।।-गा० ४ ३. काले गते कियत्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासी। श्रीमानेलाचार्यों बभूव सिद्धान्ततत्त्वज्ञः ।।-१७७ तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः । उपरितमनिबन्धनाद्यधिकारानष्ट (?) च लिलेख ॥-१७८ ६५६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्य-विरचित तत्त्वार्थसूत्र के नाम से उद्धृत किया है।' यहाँ धवलाकार ने सुप्रसिद्ध 'तत्त्वार्थसूत्र' के उस सूत्र को ग्रन्थकर्ता 'गृद्धपिच्छाचार्य' के नाम के साथ उद्धृत किया है। इससे निश्चित है कि तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता गृद्धपिच्छाचार्य रहे हैं। उनके उमास्वाति और उमास्वामी ये नामान्तर भी प्रचलित हैं। शिलालेखों में उन्हें कुन्दकुन्दाचार्य की वंश-परम्परा का कहा गया है । शिलालेख के अनुसार समस्त पदार्थों के वेत्ता उन मुनीन्द्र ने जिनोपदिष्ट पदार्थसमूह को सूत्र के रूप में निबद्ध किया है जो तत्त्वार्थ', तत्त्वार्थशास्त्र व तत्त्वार्थसत्र इन नामों से प्रसिद्ध हुआ। श्वेता० सम्प्रदाय में उसका उल्लेख 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' के नाम से हुआ है। वे योगीन्द्र प्राणियों के संरक्षण में सावधान रहते हुए गद्ध (गीध) के पंखों को धारण करते थे, इसीलिए विद्वज्जन उन्हें तभी से 'गद्धपिच्छाचार्य' कहने लगे थे । यथा अभूवुमास्वातिमुनिः पवित्र वंशे तदीये सकलार्थवेदी। सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुंगवेन ॥ स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी फिल गृध्र पिच्छान् । तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिच्छम् ॥ जैसाकि ऊपर शिलालेख में भी निर्देश किया गया है, उनकी इस महत्त्वपूर्ण कृति में आगमग्रन्थों में बिखरे हुए मोक्षोपयोगी जीवादि तत्त्वों का अतिशय कुशलता के साथ संक्षेप में संग्रह कर लिया गया है व आवश्यक कोई तत्त्व छूटा नहीं है। ___ आचार्य गृद्धपिच्छ कब हुए, उनके दीक्षागुरु व विद्यागुरु कौन रहे हैं और प्रकृत तत्त्वार्थसूत्र के अतिरिक्त अन्य भी कोई कृति उनकी रही है; इस विषय में कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं है। १. तह गिद्धपिच्छाइरियप्पयासि सितिच्चत्थसुत्ते वि "वर्तना-परिणाम-त्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य" इदि दव्वकालो परूविदो।-धवला, पु० ४, पृ० ३१६ २. आ० पूज्यपाद-विरचित तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि), भट्टाकलंकदेव-विरचित तत्त्वार्थ वार्तिक और आ० विद्यानन्द-विरचित तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 'तत्त्वार्थ' के नाम पर ही लिखी गयी हैं। ३. आ० विद्यानन्द ने उसका उल्लेख 'तत्त्वार्थशास्त्र' के नाम से भी किया है। देखिए आप्त परीक्षा-श्लोक १२३-२४ । ४. धवलाकार ने पूर्वोक्त सूत्र को 'तत्त्वार्थसूत्र' नाम से उद्धृत किया है। ५. जैन शिलालेखसंग्रह प्र० भाग, नं० १०८, पृ० २१०-११ ६. श्वेता० सम्प्रदाय में तत्त्वार्थाधिगमभाष्य को स्वोपज्ञ माना जाता है। वहाँ उसकी प्रशस्ति में वाचक उमास्वाति को वाचक मुख्य शिवश्री के प्रशिष्य और एकादशांगवित् घोषनन्दी का शिष्य कहा गया है । वाचना से-विद्याध्ययन की अपेक्षा-वे महावाचक क्षमण मुण्डपार के शिष्यस्वरूप मूल नामक वाचकाचार्य के शिष्य रहे हैं। उनका जन्म न्यग्रोधिका में हआ था, पिता का नाम स्वाति और माता का नाम वात्सी था। गोत्र उनका कौभीषणी था (शेष पृ० ६५८ पर देखें) ग्रन्थकारोल्लेख / ६५७ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय- विचार उनके प्रकृत तत्त्वार्थसूत्र पर आ० पुष्पदन्त भूतबलि विरचित षट्खण्डागम, कुन्दकुन्दाचार्यविरचित पंचास्तिकाय व प्रवचनसार आदि का तथा वट्टकेराचार्य विरचित मूलाचार का प्रभाव परिलक्षित होता है । इससे इन आचार्यों के पश्चात् ही उनका होना सम्भव है । यथा(१) षट्खण्डागम – तत्त्वार्थसूत्र में तत्त्वार्थाधिगम के हेतुभूत प्रमाण- नय और निर्देशादि का उल्लेख करने के पश्चात् अन्य सदादि अनुयोगद्वारों का प्ररूपक यह सूत्र उपलब्ध होता है"सत्-संख्या क्षेत्र - स्पर्शन - कालान्तर भावाल्पबहुत्वैश्च ।" - त०सू० १-८ यह सूत्र षट्खण्डागम के इस सूत्र पर आधारित है— "संतपरूवणा दव्वपमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो फोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो भावागमो अप्पा बहुगाणुगमो चेदि । " -- सूत्र १,१,७ ( पु० १, पृ० १५५ ) ष० ख० में जहाँ सूत्रोक्त आठ अनुयोगद्वारों में प्रथम अनुयोगद्वार का उल्लेख 'सत्प्ररूपणा' के नाम से किया गया है वहाँ त०सू० में उसका उल्लेख 'सत्' के नाम से कर दिया गया है । इसी प्रकार दूसरे अनुयोगद्वार को जहाँ ष०ख० में 'द्रव्यप्रमाणानुगम' कहा गया है वहाँ त०सू० में उसे 'संख्या' कहा गया है, अर्थभेद कुछ नहीं है । ष०ख० में प्रत्येक अनुयोगद्वार का पृथक्पृथक् उल्लेख करते हुए उनके साथ 'अनुगम' शब्द को योजित किया गया है, पर तत्त्वार्थ सूत्र में अनुयोगद्वार के सूचक उन सत् - संख्या आदि शब्दों के मध्य में 'द्वन्द्व' समास किया गया है । वहाँ पिछले 'प्रमाणनयैरधिगम:' सूत्र (१-६) के अन्तर्गत 'अधिगम' शब्द की अनुवृत्ति रहने से तृतीयान्त बहुवचन के द्वारा यह सूचित कर दिया गया है कि इन सत् - संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से जीवादि तत्त्वों का ज्ञान होता है। इसीलिए वहाँ 'अनुगम' जैसे किसी शब्द को प्रत्येक पद के साथ योजित नहीं करना पड़ा। इस प्रकार सूत्र में जो लाघव होना चाहिए वह यहाँ तत्त्वार्थसूत्र में रहा है व अभिप्राय कुछ छूटा नहीं है । यहाँ यह विशेष स्मरणीय है कि षट्खण्डागम की रचना आगमपद्धति पर शिष्यों के सम्बोधनार्थ प्रायः प्रश्नोत्तर शैली में की गयी है, इसलिए वहाँ विस्तार भी अधिक हुआ है तथा पुनरुक्ति भी हुई है । पर तत्त्वार्थसूत्र की रचना मुमुक्षु भव्य जीवों को लक्ष्य में रखकर की गई है, इसलिए उसमें उन्हीं तत्त्वों का समावेश हुआ है जो मोक्ष प्राप्ति में उपयोगी रहे हैं । उसकी संरचना में इसका विशेष ध्यान रखा गया है कि कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अभिप्राय को प्रकट किया जा सके । यह उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट है । (२) ष० ख० में वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में प्रसंगप्राप्त नोआगमभावबन्ध की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में नोआगम जीवभावबन्ध के ये तीन भेद निर्दिष्ट किये गये हैं- विपाक प्रत्ययिक, अविपाक प्रत्ययिक और तदुभय प्रत्ययिक नोआगम भावबन्ध | यहाँ विपाक का अर्थ उदय, अविपाक का अर्थ विपाक के अभावभूत उपशम और क्षय तथा तदुभय का अर्थ क्षयोपशम है । तदनुसार फलित यह हुआ कि नोआगमजीवभावबन्ध चार प्रकार का है - औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक । आगे के सूत्र में अविपाकप्रत्ययिक वे वाचक उच्च नागर शाखा के थे । उमास्वाति विहार करते हुए कुसुमपुर पहुँचे । वहाँ उन्होंने गुरुपरिपाटी के क्रम से आये हुए जिनवचन (जिनागम) का भली-भाँति अवधारण करके दुःख से पीड़ित जीवों के लिए अनुकम्पावश तत्त्वार्थाधिगम शास्त्र को रचा । ६५८ / षट्खण्डागम - परिशीलन Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवभावबन्ध के औपशमिक और क्षायिक ये दो भेद निर्दिष्ट भी कर दिये गये हैं। इनमें विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध के यहाँ संख्यानिर्देश के बिना चौबीस; औपशमिक भाव के उपशान्त क्रोध-मानादि के साथ औपशमिक सम्यक्त्व व औपशमिक चारित्र इत्यादि; क्षायिकभाव के क्षीण क्रोध-मानादि के साथ क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, क्षायिक दानादि पांच लब्धियां तथा केवलज्ञान व केवलदर्शन आदि इसी प्रकार के अन्य कितने ही भाव; तथा तदुभय (क्षायोपशमिक) भाव के क्षायोपशमिक एकेन्द्रियत्व आदि के साथ मति-अज्ञान आदि तीन मिथ्याज्ञान, मनिबोधिक आदि चार सम्यग्ज्ञान, चक्षुदर्शनादि तीन दर्शन इत्यादि अनेक भेद प्रकट किये गये हैं । -सूत्र ५,६,१४-१६ (पु० १४) ____ इस सबको दृष्टि में लेते हुए तत्त्वार्थसूत्र में जीव के 'स्वतत्त्व' के रूप में इन पांच भावों का निर्देश किया गया है- औपशमिक, क्षायिक, मिश्र (तदुभय या क्षायोपशमिक), औदयिक और पारिणामिक। इनमें से वहाँ औपशमिक के दो, क्षायिक के नौ, मिश्र के अठारह, औदयिक के इक्कीस और पारिणामिक के तीन भेदों का निर्देश करते हुए उनको पृथक्-पृथक् स्पष्ट भी कर दिया गया है। -सूत्र २,१-७ उदाहरणस्वरूप यहाँ औदयिक भाव के भेदों के प्ररूपक सूत्रों को दोनों ग्रन्थों से उद्धत किया जाता है___“जो सो विवागपच्चइयो जीवभावबन्धो णाम तस्स इमो णिद्दे सो-देवे त्ति वा मणुस्से त्ति तिरिक्खेत्ति वा रइए त्ति वा इत्थिवेदे त्ति वा पुरिसवेदे त्ति वा णउसयवेदे त्ति वा कोहवेदे त्ति वा माणवेदे त्ति वा मायवेदेत्ति वा लोहवेदे त्ति वा रागवेदे त्ति वा दोसवेदे त्ति वा मोहवेदे त्ति बा किण्हलेस्से त्ति वा णीललेस्से ति वा काउलेस्से त्ति वा तेउलेस्से त्ति वा पम्मलेस्से त्ति वा सुक्कलेस्से त्ति वा असंजदे त्ति वा अविरदे त्ति वा अण्णाणे त्ति वा मिच्छादिट्टि त्ति वा जे चामण्णे एवमादिया कम्मोदयपच्चइया उदयविवागणिप्पण्णा भावा सो सव्वो विवागपच्चइयो जीवभावबन्धो णाम।"-सूत्र १५ अब इस सम्पूर्ण अभिप्राय को अन्तहित करने वाला तत्त्वार्थसूत्र का यह सूत्र देखिए"गति-कषाय-लिंग-मिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्त्येकैकैकैक-षड्भेदाः।" -सूत्र २-८ इस प्रकार ष०ख० में जहाँ उपर्युक्त उतने विस्तृत सूत्र में औदयिक भाव के उन भेदों को प्रकट किया गया है वहाँ उसी के आधार से तसू० में उन सब भावों को बहुत संक्षेप में ग्रहण कर लिया गया है। यह पूर्व में कहा जा चुका है कि ष०ख० में जो तत्त्व का विचार किया गया है वह प्राचीन आगमपद्धति के अनुसार किया गया है, इसीलिए उसमें विस्तार व पुनरुक्ति अधिक हुई है। यह ऊपर के उदाहरण से भी स्पष्ट है____ त०सू० के उपर्युक्त सूत्र में प्रथमतः गति, कषाय, लिंग (वेद), मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयत, असिद्धत्व और लेश्या इन भावों का निर्देश एक ही समस्यन्त पद में करके आगे यथाक्रम से उनकी संख्या का निर्देश चार, चार, तीन, एक, एक, एक, एक और छह के रूप में कर दिया गया है । इस प्रकार सूत्र में जो लाघव रहना चाहिए वह रह गया है और अभिप्राय कुछ छूटा नहीं है। पर ष०ख० के सूत्र में गति-कषाय आदि के उन अवान्तर भेदों का उल्लेख पृथक्-पृथक् ग्रन्थकारोल्लेख / ६५९ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया है व प्रत्येक के साथ 'इति वा' का भी प्रयोग किया गया है। इस प्रकार से उसमें लाघव नहीं रह सका है। ___ इसका अभिप्राय यह नहीं है कि षटण्डागम सूत्र ग्रन्थ नहीं है, उसे सूत्रग्रन्थ ही माना गया है। पर वह "सुत्तं गणहरकहियं” इत्यादि सूत्रलक्षण' के आधार पर सूत्रग्रन्थ है, न कि "अल्पाक्षरमसंदिग्धं" इत्यादि सूत्र लक्षण' के आधार पर। प्रकृत औदयिकभाव के ष०ख० में जहाँ २४ भेद कहे गये हैं वहाँ त० सू० में वे २१ ही निर्दिष्ट किये गये हैं। इसका कारण यह है कि त०सू० की अपेक्षा ष०ख० में राग, द्वेष, मोह और अविरति इन चार अतिरिक्त भावों को ग्रहण किया गया है तथा त० सू० में निर्दिष्ट असिद्धत्व को वहाँ ग्रहण नहीं किया गया है। . इनमें राग और द्वेष ये कषायस्वरूप ही हैं, इसी कारण त० सू० में कषाय के अन्तर्गत होने से उन्हें अलग से नहीं ग्रहण किया गया है । 'मोह' से धवलाकार ने पाँच प्रकार के मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सासादनसम्यक्त्व को ग्रहण किया है । इस प्रकार के मोह को मिथ्यात्व के अन्तर्गत ही समझना चाहिए। इसीलिए सम्भवतः त० सू० में अलग से उसे नहीं ग्रहण किया गया है। ष० ख० में उपर्युक्त भावों के अन्तर्गत असंयत भी है और अविरति भी है। सामान्य से इन दोनों में कुछ और भेद नहीं है। इसीलिए त०सू० में अविरति को असंयत से पृथक् रूप में नहीं ग्रहण किया गया है। इस प्रसंग में वहाँ धवला में यह शंका उठायी गयी है कि संयम और विरति में क्या भेद है। इसके उत्तर में धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि समितियों से संहित महाव्रतों और अणुव्रतों को संयम तथा उनसे रहित उन महाव्रतों और अणुव्रतों को विरति कहा जाता है। ष०ख० से त०सू० में विशेषता यह रही है वहाँ इन भावों में असिद्धत्व को भी सम्मिलित किया गया है, जिसे ष० ख० में नहीं ग्रहण किया गया है। फिर भी ष०ख० के उस सूत्र में जो अन्त में 'एवमादिया' कहा गया है, उससे असिद्धत्व का भी ग्रहण वहाँ हो जाता है। तसू० में जो असिद्धत्व को विशेष रूप से ग्रहण किया गया है, उसे संसार व मोक्ष की प्रधानता होने के कारण ग्रहण किया गया है। इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में निर्दिष्ट उन २४ और २१ भेदों में कुछ विरोध नहीं रहता है। __यहाँ उपर्युक्त दो उदाहरण दिये गये हैं। वैसे तत्त्वार्थसूत्र के अनेक सूत्र प्रस्तुत षट्खण्डागम से प्रभावित हैं। इसे ग्रन्थारम्भ में 'षट्खण्डागम व तत्त्वार्थसूत्र' शीर्षक में विस्तार से स्पष्ट किया जा चुका है। इससे प्रायः यह निश्चित है गृद्धपिच्छाचार्य षटखण्डागमकार आ० पुष्पदन्त-भूतबलि (प्रायः प्रथम शताब्दि) के पश्चात् हुए हैं। (२) पंचास्तिकायादि-जिस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र के अनेक सूत्रों पर षट्खण्डागम का प्रभाव रहा है, उसी प्रकार उसके कुछ सूत्रों पर आ० कुन्दकुन्द-विरचित पंचास्तिकाय और १. देखिए धवला, पु० १३, पृ० ३८१ २. वही, पु० ६, पृ० २५६, श्लोक ११७ ३. इस सबके लिए सूत्र १५ की धवला टीका (पु० १४, पृ० ११-१२) द्रष्टव्य है। ६६० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसार आदि का भी प्रभाव रहा है । यथा प्रवचनसार-तत्त्वार्थसूत्र में पदार्थावबोधक के हेतुभूत प्रमाण और नयों का विचार करते हए उस प्रसंग में मति-श्रुतादि पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहा गया है व उसे परोक्ष और प्रत्यक्ष इन भेदों में विभक्त किया गया है। उनमें इन्द्रियसापेक्ष मति और श्रत इन दो जानों को परोक्ष और अवधिज्ञानादि शेष तीन अतीन्द्रिय ज्ञानों को प्रत्यक्ष कहा गया है। __ तत्त्वार्थसूत्र का यह विवेचन प्रवचनसार के इस प्रसंग पर आधारित रहा है-वहाँ आत्मस्वभाव से भिन्न इन्द्रियों को पर बतलाते हुए उनके आश्रय से होने वाले ज्ञान की प्रत्यक्षरूपता का प्रतिषेध किया गया है तथा आगे परोक्ष और प्रत्यक्ष का यह लक्षण प्रकट किया गया है-- जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्ख त्ति भणिदमत्थेस । जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पच्चक्खं ॥-गाथा १-५८ इसका अभिप्राय यही है कि जो ज्ञान इन्द्रियादि पर की सहायता से होता है उसे परोक्ष, तथा परनिरपेक्ष केवल आत्मा के आश्रय से होनेवाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है। इसी अभिप्राय को तत्त्वार्थसूत्र में प्रकृत सूत्रों के द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। पंचास्तिकाय-तत्त्वार्थसूत्र में अजीव द्रव्यों का निरूपण करते हुए सर्वप्रथम वहां धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल इन चार अजीव द्रव्यों को अजीव होते हुए काय (अस्तिकाय) कहा गया है। आगे इन्हें द्रव्य कहते हुए जीवों को भी इससे सम्बद्ध कर दिया गया है, अर्थात् जीव भी द्रव्य होकर अस्तिकाय स्वरूप हैं, इस अभिप्राय को प्रकट कर दिया गया है। क-त०सू० का यह विवेचन पंचास्तिकाय की इस गाथा पर आधारित रहा है जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा तहेव आयासं ।। अत्थित्तम्हि य णियदा अणण्णमइया अणुमहंता ।। -गा० ४ ख-यहीं पर आगे त०सू० में 'सत्' को द्रव्य का लक्षण बतलाकर उस 'सत्' के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होता है, उसे 'सत्' कहा जाता है। आगे चलकर प्रकारान्तर से द्रव्य के लक्षण में यह भी स्पष्ट किया गया है कि जो गुण और पर्यायों से सहित होता है, वह द्रव्य कहलाता है । त०स० का यह कथन पंचास्तिकाय की इस गाथा से पूर्णतया प्रभावित है, जिसमें द्रव्य के उन दोनों लक्षणों को एक साथ उन्हीं शब्दों में अभिव्यक्त कर दिया गया है दव्वं सल्लक्खणियं उप्पाद-व्वय-धुवत्तसंजुत्तं । गुण-पज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ॥-गा० १० १. मति-श्रुतावधि-मनःपर्यय-केवलानि ज्ञानम् । तत्प्रमाणे । आद्य परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत्। -त०सू० १,६-१२ २. इसकी पूर्व की गाथा ५६-५७ भी द्रष्टव्य हैं। ३. अजीवकाया धर्माधर्माकाश-पुद्गलाः । द्रव्याणि । जीवाश्च ।-त०स० ५,१-३ ४. इससे आगे की गाथाएँ ५,६ और २२ भी द्रष्टव्य हैं। ५. सद् द्रव्यलक्षणम् । उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् । -तसू० ५,२६-३० ६. गुण-पर्ययवद्-द्रव्यम् ।-त०सू० ५-३८ ग्रन्थकारोल्लेख/६६१ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग-इसके पूर्व त०सू० में जीव का लक्षण उपयोग बतलाकर उसे ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। आगे इनमें से ज्ञान को आठ प्रकार का और दर्शन को चार प्रकार का कहा गया है।' त०सू० का यह विवरण पंचास्तिकाय की इन तीन गाथाओं के आश्रित है उवओगो खलु दुविहो णाणेण य वंसणेण संजुत्तो। जीवस्स सम्वकालं अणण्णभूदं वियाणाहि ॥४०॥ आभिणि-सुदोधि-मण-केवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि । कुदि-सुद-विभंगाणि य तिण्णि वि णाणेहि संजुत्ते ॥४१॥ दसणमवि चक्खुजुदं अचक्खुजुदमवि य ओहिणा सहियं । अणिधणमणंतविसयं केवलियं चावि पण्णत्तं ।।४२।। इसी प्रकार से और भी कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं । जैसे त०स० १-१ व पंचास्तिकाय गा० १६४; त०सू० २.१ व पंचास्तिकाय गाथा ५६; तथा त०सू० ६-३ व ८,२५-२६ और पंचास्तिकाय गाथा १३२; इत्यादि । __ इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आचार्य गृद्धपिच्छ आ० कुन्दकुन्द (लगभग प्रथम शती) के पश्चात् हुए हैं। (३) मूलाचार-षट्खण्डागम व पंचास्तिकाय आदि के समान मूलाचार का भी प्रभाव तत्त्वार्थसूत्र पर अधिक दिखता है। यथा क-त०सू० में जीवादि तत्त्वों के अधिगम के उपायभूत प्रमाण और नय के उल्लेख (१-६) के पश्चात् निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान इन छह अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र का यह कथन मूलाचार की इस गाथा पर आधारित है कि केण कस्स कत्थ व केवचिरं कदिविधो य भावो य । छहि अणिओगद्दारे सव्वे भावाणुगंतव्वा ।।-गा० ८-१५ इस गाथा में प्रश्न के रूप में जिन निर्देश-स्वामित्व आदि को अभिव्यक्त किया गया है, उन्हीं का उल्लेख त०सू० में स्पष्ट शब्दों द्वारा कर दिया गया है। यहाँ यह विशेष ध्यातव्य है कि उपर्युक्त गाथा जीवसमास में भी गायांक ४ के रूप में उपलब्ध होती है। सम्भव है मूलाचार में उसे जीवसमास से ही आत्मसात् किया गया हो। कारण यह है कि जीदसमास में वह जिस प्रकार प्रसंग के अनुरूप दिखती है उस प्रकार से वह मलाचार में प्रसंग के अनुरूप नहीं दिखती है। इसका भी कारण यह है कि वहाँ संसारानप्रेक्षा का प्रसंग रहा है। इस गाथा से पूर्व की गाथा (८-१४) में स्पष्ट शब्दों द्वारा द्रव्य-क्षेत्रादि के भेद से चार प्रकार के संसार के जानने की प्रेरणा की गयी है । पर इस गाथा में संसार का कहीं किसी प्रकार से उल्लेख नहीं किया गया है। इससे वह संसारानुप्रेक्षा के अनुरूप नहीं दिखती। १. उपयोगो लक्षणम् । स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ।-त०सू० २,८-६; इसके पूर्व के सूत्र १-६ और १-३१ भी द्रष्टव्य हैं । २. निर्देश-स्वामित्व-साधनाधिकरण-स्थिति-विधानतः।–त सू०१-७ ६६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्तिकार वसुनन्दी ने यद्यपि 'कि केण कस्स' आदि पदों के आश्रय से छह प्रकार के संसार को अभिव्यक्त किया है, पर वह प्रसंग को देखते हुए अस्वाभाविक-सा दिखता है । अन्त में उन्हें भी गाथा के चतुर्थ चरण (सव्वे भावाणुगंतव्वा) को लेकर यह कहना पड़ा है कि इन छह अनुयोगद्वारों के द्वारा केवल संसार का अनुगमन नहीं करना चाहिए, किन्तु सभी पदार्थों का उन के आश्रय से अनुगमन करना चाहिए। अब जरा जीवसमास को देखिए, वहाँ उसको प्रसंग के अनुरूप कितना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है जीवसमास में इससे पूर्व की गाथा (२) में निक्षेप, निरुक्ति तथा छह और आठ अनुयोगद्वारों के द्वारा गति आदि मार्गणाओं में जीवसमासों के जान लेने के लिए कहा गया है' और तदनुसार ही आगे वहाँ क्रम से निक्षेप, निरुक्ति तथा उक्त निर्देशादि रूप छह और सत्प्ररूपणा आदि रूप आठ अनुयोगद्वारों को स्पष्ट किया गया है। इस प्रकार प्रसंग के अनुसार वहाँ उस गाथा की स्थिति दृढ़ है । ख - त०सू० के ७वें अध्याय में व्रत के स्वरूप और उसके भेदों का निर्देश करते हुए उनकी स्थिरता के लिए यथाक्रम से अहिंसादि पाँच व्रतों की पांच-पांच भावनाओं का उल्लेख किया गया है । 13 मूलाचार के पंचाचाराधिकार में उनका उल्लेख प्रायः उसी क्रम से व उन्हीं शब्दों में किया गया है । उदाहरणस्वरूप द्वितीय व्रत की भावनाओं को उक्त दोनों ग्रन्थों में देखिए"क्रोध-लोभ-भीरुत्व-हास्य- प्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पञ्च । " -- त०सू० ७-५ कोह-भय- लोह -हासपइणा अणुवीचिभासणं चेव । fafare भावणाओ वदस्स पंवेव ता होंति ।। - मूला० ५- १४१ इस प्रकार यह निश्चित-सा प्रतीत होता है कि उन भावनाओं का वर्णन त०सू० में मूलाचार के आधार से ही किया गया है । ग - त० सू० में संवर और निर्जरा के कारणों को स्पष्ट करते हुए उस प्रसंग में नवम अध्याय में बाह्य और आभ्यन्तर तप के छह-छह भेदों का निर्देश किया गया है। * मूलाचार के उक्त पंचाचाराधिकार में 'तप' आचार के प्रसंग में उन दोनों तपों के भेदों का उल्लेख किया गया है ।" - इतना विशेष है कि त०सू० में जहाँ उनके केवल नामों का ही उल्लेख किया गया है वहाँ मुख्य प्रकरण होने से मूलाचार में तप के उन भेदों के स्वरूप आदि को भी पृथक्-पृथक् स्पष्ट कर दिया गया है। १. णिक्खेव - णिरुत्तीह य छहि अट्ठहि अणुओंगदारेहि । गइ आइमग्गणाहि य जीवसमासाऽणुगंतव्वा || - जी०स०, गा० २ २. देखिए त०सू० ७,४-८ ३. मूलाचार, ५, १४०-४४ ४. त०सू०, ९,१६-२० ५. मूलाचार, ५-१४६ व ५-१६३ ६. मलाचार, बाह्य तप ५, १४६ - ६२ ( अभ्यन्तर तप का विशेष विस्तार वहाँ पर नहीं किया गया है ।) प्रन्थकारोल्लेख / ६६३ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त० सू० ام س इस प्रसंग में दोनों ग्रन्थगत इन अन्य प्रसंगों को भी देखा जा सकता हैविषय मलाचार विनय के भेद ६-२३ --५-१६७ वैयावृत्त्य ६-२४ ५-१६२ स्वाध्याय ९.२५ ५-१६६ व्युत्सर्ग ६-२६ ५-२०६ (व्युत्सर्ग और ध्यान में दोनों ग्रन्थों मे क्रमव्यत्यय हुआ है) ध्यानभेद आदि ६,२८-४४ ५,१६७-२०८ अन्य प्रसंग भी देखिए(१) "मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतवः।"-त०सू०८-१ मिच्छादसण-अविरदि-कसाय-जोगा हवंति बंधस्स । आऊसज्झवसाणं हेदवो तेदु णायव्वा ।।--मूलाचार १२-१८२ (२) "सकसायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः ।"-त०सू० ८-२ जीवो कसायजुत्तो जोगादो कम्मणो दु जे जोगा। गेण्हइ पोग्गलदवे बंधो सो होदि णायव्वो॥-मूला १२-१८३ (शब्द-साम्य भी यहां द्रष्टव्य है) तत्त्वार्थसत्र (८वां अध्याय) के अन्तर्गत कर्म का यह प्रसंग भी अन्य कार्मिक ग्रन्थ पर आधारित न होकर प्रायः इस मूलाचार पर आधारित रहा दिखता है।' दोनों ग्रन्थगत और भी शब्दार्थ-सादृश्य देखिए"मोहक्षयात् ज्ञान-दर्शनावरणान्त रायक्षयाच्च केवलम् ।"-त०सू० १०-१ मोहस्सावरणाणं खयेण अह अंतरायस्स य एव । उप्पज्जइ केवलयं पयासयं सव्वभावाणं ॥--मूला० १२-२०५ इस स्थिति को देखते हुए इसमें सन्देह नहीं रहता कि तत्त्वार्थसूत्र पर मलाचार का सर्वाधिक प्रभाव रहा है। यद्यपि उसके रचयिता और रचनाकाल के विषय में विशेष कुछ ज्ञात नहीं है. फिर भी उसकी विषयवस्तु और उसके विवेचन की क्रमबद्ध अतिशय व्यवस्थित पद्धति को देखते हए वह एक साध्वाचार का प्ररूपक प्राचीन ग्रन्थ ही प्रतीत होता है। उसकी कुछ हस्तलिखित प्रतियों में उसके कुन्दकन्दाचार्य-विरचित होने का संकेत मिलता है तथा उसकी वसुनन्दी-विरचित वृत्ति की अन्तिम पुष्पिका में यह सूचना भी की गयी है___ "इति मूलाचारविवृतौ द्वादशोऽध्यायः । कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत मूलाचाराख्यविवृतिः । कृतिरियं वसुनन्दिनः श्रीश्रमणस्य।" इससे कुछ विद्वानों का यह मत बन गया है कि वह कुन्दकुन्दाचार्य के द्वारा रचा गया है। उनका कहना है कि प्रतियों में उसके रचयिता के रूप में जिन 'वट्टकेराचार्य, वट्टकेर्याचार्य और वट्टके रकाचार्य' नामों का उल्लेख किया गया है, वे नाम कहीं गुर्वावलियों व पट्टातलियों आदि १. मूलाचार के १२वें 'पर्याप्ति' अधिकार में जिस क्रम से व जिस रूप में प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध की प्ररूपणा की गयी है, त०सू० के ८वें अध्याय में उसी क्रम से व उसी रूप में उन चारों बन्धों की प्ररूपणा की गयी है, जिसमें शब्दसाम्य भी अधिक रहा है। ६६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में नहीं पाये जाते हैं। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द और वट्टकेराचार्य ये दो भिन्न ही प्रतीत होते हैं। यद्यपि कुन्दकन्दविरचित ग्रन्यगत कुछ गाथाएं मूलाचार में प्रायः उसी रूप में उपलब्ध होती हैं, पर दोनों की विवेचन-पद्धति में भिन्नता देखी जाती है। उदाहरणस्वरूप द्वादशानुप्रेक्षाओं को ले लीजिए (१) संसारानुप्रेक्षा के प्रसंग में आ० कुन्दकुन्द ने संसार को पांच प्रकार का बतलाकर आगे द्रव्यादि पांच परिवर्तनों के स्वरूप को भी स्पष्ट किया है।' पर मलाचार में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से ही संसार का निर्देश किया गया है. तथा वहाँ किसी भी परिवर्तन के स्वरूप को नहीं दिखलाया गया है। इसी प्रसंग में मूलाचार में "किं केण कस्स कत्थ वि' आदि गाथा का (देखिए पीछे प० ६६२-६३) उपयोग किया गया है जो सम्भवतः कुन्दकुन्दाचार्य के समक्ष ही नहीं रही। (२) सातवीं अनुप्रेक्षा के प्रसंग में कुन्दकुन्द ने शरीर की अशुचिता को दिखलाया है, पर मूलाचार में वहाँ प्रायः अशुभरूपता को प्रकट किया है। (३) आस्रवानुप्रेक्षा के प्रसंग में आ० कुन्दकुन्द ने मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगों को आस्रव बतलाकर उनके भेद का निर्देश करते हुए उन सबके स्वरूप को स्पष्ट भी किया है। परन्तु मलाचार में राग, द्वेष, मोह, इन्द्रियाँ, संज्ञाएं, गारव, कषाय, मन, वचन और काय इनको कर्म के आस्रव बतलाकर उसी क्रम से उनमें से प्रत्येक को (योगों को छोड़कर) विशद भी किया है।" मलाचार में यहाँ यह विशेषता रही है कि आ० कुन्दकुन्द ने जिन मिथ्यात्वादि का उल्लेख आस्रव के प्रसंग में किया है, उनका उल्लेख वहां संवर के प्रसंग में किया गया है (गा० ५२)। (४) निर्जरान्प्रेक्षा के प्रसंग में आ० कुन्दकुन्द ने निर्जरा के स्वकालपक्व (सविपाक) और तप से क्रियमाण (अविपाक) इन दो भेदों का निर्देश किया है, पर मूलाचार में तप की प्रमुखता से उसके देशनिर्जरा और सर्वनिर्जरा ये दो भेद निर्दिष्ट किए गये हैं। (५) धर्मानुप्रेक्षा के प्रसंग में आः कुन्दकुन्द ने सम्यक्त्वपूर्वक ग्यारह प्रकार के सागारधर्म १. 'पुरातन-जैन वाक्य-सूची' की प्रस्तावना, पृ० १८-१६ २. उदाहरण के रूप में कुन्दकुन्द-विरचित द्वादशानुप्रेक्षा की १,२,१४,२२ और २३ ये गाथाएँ मलाचारगत 'द्वादशानुप्रेक्षा' में क्रम से १, २, ६, ११ और १२ गाथांकों में देखी जा सकती हैं। ३. देखिए गाथा २४-३८ ४. मूला० गा० ८, १३-२० ५. कन्द० गा० ४३-४६ तथा मूलाचार गाथा ३०-३६ । यहाँ यह स्मरणीय है कि मुलाचार गा० २ में अनूप्रेक्षाओं के नामों का निर्देश करते हुए प्रकृत अनुप्रेक्षा का उल्लेख 'अशचित्त' के रूप में किया है, पर यथाप्रसंग उसके स्पष्टीकरण में 'असुह' शब्द का उपयोग किया है। 'असुह' शब्द से अशुभ और असुख दोनों का ग्रहण सम्भव है। गाथा ३४ में 'सरीर मसुभं' व गा० ३५ 'कलेवरं असुई' भी कहा गया है । ६. गा० ४७-६० ७. गा० ३७-४७ ८. फन्दकुन्द गा० ६७ व मूलाचार गा० ५४ प्रन्थकारोल्लेख / ६६५ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का निर्देश करते हुए उतमक्षमादिरूप दस प्रकार के धर्म को विशद किया है तथा अन्त में यह स्पष्ट कर दिया है कि जो सागारधर्म को छोड़कर मुनिधर्म में प्रवृत्त होता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है, इस प्रकार सदा चिन्तन करना चाहिए।' मलाचार में इस धर्मानुप्रेक्षा के प्रसंग में क्षमा आदि दस धर्मों का निर्देश मात्र किया गया है। सागारधर्म का वहीं कुछ भी उल्लेख नहीं है।' एक विशेषता यहाँ यह भी रही है कि आ० कुन्दकुन्द ने अपनी पद्धति के अनुसार यहाँ भी निश्चय नय को प्रधानता दी है। जैसे-- (१) संसारानुप्रेक्षा का उपसंहार करते हुए वे गा० ३७ में कहते हैं कि कर्म के निमित्त से जीव संसार-परिभ्रमण करता है । निश्चय नय से कर्म से निर्मुक्त जीव के संसार नहीं है। (२) आस्रवानुप्रेक्षा के प्रसंग में उन्होंने गा० ६० में कहा है कि निश्चयनय से जीव के पूर्वोक्त आस्रवभेद नहीं है। (३) जैसा कि पूर्व में भी कहा जा चुका है, धर्मानुप्रेक्षा के प्रसंग में आ० कुन्दकुन्द ने कहा है कि निश्चय से जीव सागार-अनगार धर्म से भिन्न है, इसलिए मध्यस्थ भावना से सदा शुद्ध आत्मा का चिन्तन करना चाहिए (गा० ८२)। (४) प्रसंग का उपसंहार करते हुए उन्होंने अन्त में भी यह स्पष्ट कर दिया है-इस प्रकार से कन्दकन्द मुनीन्द्र ने निश्चय और व्यवहार के आश्रय से जो कहा है, उसका जो शुद्ध मन से चिन्तन करता है वह परम निर्वाण को प्राप्त करता है (६१) केप गाथा ४२ में कुन्दकुन्द ने यह भी कहा है कि जीव अशुभ उपयोग से नारक व तियंच अवस्था को, शुभ उपयोग से देवों व मनुष्यों के सुख को और शुद्ध उपयोग से सिदि को प्राप्त करता है। आगे (गा० ६३-६५ में) उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि शुभ उपयोग की प्रवत्ति अशभ योग का संवरण करती है, पर शुभ योग का निरोध शुद्ध उपयोग से सम्भव है। धर्म और शक्ल ध्यान शुद्ध उपयोग से होते हैं। वस्तुतः जीव के संवर नहीं है। इस प्रकार सदा संवरभाव से रहित आत्मा का चिन्तन करना चाहिए। यह पद्धति मूलाचार में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। इस प्रकार दोनों नयों के आश्रय से वस्तु-तत्त्व का विचार करते हुए आ० कुन्दकन्द ने प्रधानता निश्चयनय को दी है व तदनुसार ही तत्त्व को उपोदय कहा है। नयों की यह विवक्षा मूलाचार में दृष्टिगोचर नहीं होती। इससे सिद्ध है कि मलाचार के कर्ता प्रा० कुन्दकुन्द से भिन्न हैं, दोनों एक नहीं हो सकते। यह अवश्य प्रतीत होता है कि मूलाचार के रचयिता ने यथाप्रसंग आवश्यकतानसार आचार्य कन्दकन्द के ग्रन्थों से अथवा परम्परागत रूप में कुछ गाथाओं को अपने इस ग्रन्थ में आत्मसात किया है तथा अनेक गाथाओं में उन्होंने कुन्दकुन्द-विरचित गाथाओं के अन्तर्गत शब्दविन्यास को भी अपनाया है। जैसे—संसारभावनाएँ कुन्द० गा० २४ व मूला० गा० १३ आदि । इससे सम्भावना यह की जाती है कि वे कुन्दकुन्द के पश्चात् हुए हैं। पर सम्भवतः वे उनके १००२०० वर्ष बाद ही हुए हैं, अधिक समय के बाद नहीं। १. गा० ६८.८२ २. मूलाचार, गा० ६०-६४ ६६६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसका कारण यह है कि मूलाचार में निश्चित अधिकारों के अनुसार विवक्षित विषय का-विशेषकर साध्वाचार का-विवेचन सुसम्बद्ध व अतिशय व्यवस्थित रूप में किया गया है। वहाँ प्रत्येक अधिकार के प्रारम्भ में प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा के लिए कुछ अवान्तर अधिकारों का निर्देश किया गया है और तत्पश्चात् उसी क्रम से उसकी प्ररूपणा की गई है। __ सम्भवतः मूलाचार के रचयिता की इस विषय-विवेचन की पद्धति को तिलोयपण्णत्तिकार ने भी अपनाया है। तिलोयपण्णत्ती के कर्ता मूलाचार के कर्ता के पश्चात् हुए हैं, यह उन्हीं के इस निर्देश से सुनिश्चित है - पलिदोवमाणि पंचय-सत्तारस-पंचवीस-पणतीसं । चउसु जुगलेसु आऊ णादव्वा इंददेवीणं ।। आरणदुगपरियंतं वड्ढंते पंचपल्लाई । मूलायारे इरिया एवं णिउणं णिरूवेति ॥-ति० प० ८,५३१-३२ यहाँ देवियों के उत्कृष्ट आयुविषयक जिस मतभेद का उल्लेख मूलाचार के कर्ता के नाम से किया गया है वह मत मूलाचार में इस प्रकार उपलब्ध होता है - पणयं दस सत्तधियं पणवीसं तीसमेव पंचधियं । चत्तालं पणदालं पण्णाओ पण्णपण्णाओ ।।---मूला० १२-८० इससे सिद्ध है कि मूलाचार के रचयिता तिलोयपण्णत्ती के कर्ता यतिवृषभाचार्य (लगभग ५वीं शती) से पूर्व में हुए हैं । उनसे वे कितने पूर्व हुए हैं, यह निश्चित तो नहीं कहा जा सकता है, पर वे आ० कुन्दकुन्द (प्रायः प्रथम शती) के पश्चात् और यतिवृषभ से पूर्व सम्भवतः दूसरीतीसरी शताब्दी के आसपास हुए होंगे। मलाचार में यद्यपि ऐसी अनेक गाथाएँ उपलब्ध होती हैं जो दशवैकालिक तथा आचारांगनिर्यक्ति, आवश्यकनियुक्ति एवं पिण्डनियुक्ति' आदि में उसी रूप में या कुछ परिवर्तित रूप में उपलब्ध होती हैं, पर उन्हें कहाँ से किसने लिया, इस विषय में कुछ निर्धारण करना युक्तिसंगत नहीं होगा। इसका कारण यह है कि श्रुतकेवलियों के पश्चात् ऐसी सैकड़ों गाथाएँ कण्ठगत रूप में आचार्य-परम्परा से प्रवाह के रूप में उत्तरकालीन ग्रन्थकारों को प्राप्त हुई हैं व उत्तरकालवर्ती ग्रन्थकारों ने अपनी मनोवृत्ति के अनुसार उन्हें उसी रूप में या कुछ परिवर्तित रूप में अपने-अपने ग्रन्थों में आत्मसात् किया है। इस प्रकार मूलाचार की प्राचीनता में कुछ बाधा नहीं दिखती। और तत्त्वार्थसूत्र पर चंकि मुलाचार का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, इसलिए तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता गद्धपिच्छाचार्य वट्टकेराचार्य के पश्चात् ही हो सकते हैं । तत्त्वार्थसूत्र पर पूज्यपादाचार्य (अपरनाम देवनन्दी) ने सर्वार्थसिद्धि नाम की वृत्ति लिखी है। पूज्यपाद का समय प्रायः विक्रम की १. तिलोयपण्णत्ती में भी प्रत्येक महाधिकार के प्रारम्भ में अनेक अवान्तर अधिकारों का निर्देश करके, तदनुसार ही आगे वहाँ यथाक्रम से प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा की गयी है। २. इसके लिए 'अनेकान्त' वर्ष २१, किरण (पृ० १५५-६१) में शुद्धि के अन्तर्गत उद्दिष्ट माहार पर शीर्षक लेख द्रष्टव्य है। ग्रन्थकारोल्लेख / ६६७ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा-छठी शताब्दी है। अतएव गृद्धपिच्छाचार्य का इसके पूर्व होना निश्चित है। इसके पूर्व वे कब हो सकते हैं, इसका ठीक निर्णय तो नहीं किया जा सकता है, पर सम्भावना उनके तीसरी शताब्दी के आसपास होने की है। ६. गुणधर भट्टारक यह पूर्व में कहा जा चुका है कि कसायपाहुड के अवसर प्राप्त उल्लेख के प्रसंग में धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि वर्षमान जिनेन्द्र ने जिस अर्थ (अनुभागसंक्रम) की प्ररूपणा गौतम स्थविर के लिए की थी, वह आचार्यपरम्परा से आकर गुणधर भट्टारक को भी प्राप्त हुआ। उनके पास से वही अर्थ आचार्यपरम्परा से आकर आर्यमक्ष और नागहस्ती भट्टारक को प्राप्त हुआ। उसका व्याख्यान उन दोनों ने क्रम से यतिवृषभ भट्टारक को किया व उन्होंने भी उसे शिष्यों के अनुग्रहार्थ चूर्णिसूत्र में लिखा।' प्राचार्य गणधर ने कषायप्राभूत ग्रन्थ की रचना को प्रारम्भ करते हुए यह स्वयं स्पष्ट किया-कि पांचवें पूर्व के भीतर 'वस्तु' नाम के जो बारह अधिकार हैं, उनमें दसवें वस्तु अधिकार के अन्तर्गत बीस प्राभृतों में तीसरा 'प्रेयःप्राभृत' है। उसका नाम कषायप्राभत है । मैं उसका व्याख्यान एक सौ अस्सी (१८०) गाथासूत्रों में पन्द्रह अधिकारों के द्वारा करूंगा। उनमें जो गाथाएँ जिस अर्थाधिकार से सम्बद्ध हैं, उनको कहता हूँ।' ____ इस अभिप्राय को व्यक्त करते हुए उन्होंने आगे उन गाथासूत्रों को विवक्षित अर्थाधिकारों में विभाजित भी किया है। इससे यह स्पष्ट है कि आचार्य गुणधर पांचवें ज्ञानप्रवाद पूर्व के अन्तर्गत 'प्रेयोद्वेषप्राभूत' अपरनाम 'कषायप्राभृत' के पारंगत रहे हैं। उनके द्वारा विरचित यह गाथासूत्रात्मक कषायप्राभूत गम्भीर अर्थ से गभित होने के कारण अतिशय दुर्बोध है, चूर्णिसूत्र और जयधवला टीका के बिना मूल गाथासूत्र के रहस्य को समझ सकना कठिन है। यही कारण है जो मूल ग्रन्थकर्ता ने कहीं-कहीं दुरूह गाथासूत्रों को स्पष्ट करने के लिए स्वयं कुछ भाष्यगाथाओं को भी रचा है। ऐसी भाष्यगाथाओं की संख्या तिरेपन (५३) है। इस प्रकार ग्रन्थगत समस्त गाथाओं की संख्या दो सौ तेतीस (१८०+५३ == २३३) है। किन्हीं व्याख्यानाचार्यों का यह भी अभिमत है कि १८० गाथाओं के अतिरिक्त जो ५३ भाष्यगाथाएँ हैं वे स्वयं मूलग्रन्थकार गुणधराचार्य के द्वारा नहीं रची गयी हैं, उनकी रचना नागहस्ती आचार्य द्वारा की गयी है । इस प्रकार गाथा २ में जो १८० गाथाओं को १५ अर्थाधिकारों में विभाजित करने की प्रतिज्ञा की गई है, वह स्वयं ग्रन्थकार के द्वारा न होकर आचार्य नागहस्ती के द्वारा की गयी है । १. धवला, पु० १२, पृ० १३१-३२; लगभग यही अभिप्राय जयधवला (भाग १, पृ० ८८ व भाग ५, पृ० ३८८) में भी प्रकट किया गया है। २. पुग्वम्मि पंचमम्मि दु दसमे वत्थुम्मि पाहुडे तदिए। पंज्जं ति पाहडम्मि दु हवदि कसायाण पाहुडं णाम ॥ गाहासदे असीदे अत्थे पण्णरधा विहत्तम्मि । वोच्छामि सुत्तगाहा जयि गाहा जम्मि अत्थम्मि ।।-क०पा० १-२ ३. देखिए आगे गाथा, ३.१६ ६६८ / षट्प डागम-परिशीलन Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस आशय का एक शंका-समाधान जयधवला में भी इस प्रकार उपलब्ध होता है "असीदिसदगाहाओ मोत्तूण अवसेस-संबंधद्धा परिमाणणिद्देस-संकमणगाहाओ जेण जाग हत्यि-आइरिय-कयाओ तेण 'गाहासदे असीदे' इदि भणिदूण णागहत्यिआइरिएण पइज्जा कदा इदि के वि वक्खाणाइरिया भणंति तण्ण घडदे, संबंधगाहाहि अद्धापरिमाणणिद्देसगाहाहि संकमणगाहाहि य विणा असीदिसदगाहाओ चेव भणंतस्स गुणहरभडारयस्स अयाणप्पसंगादो। तम्हा पुवुत्तत्थो चेव घेत्तव्यो।"-भाग १, पृ० १८३ ।। विचार करने पर व्याख्यानाचार्यों का उक्त कथन संगत ही प्रतीत होता है। कारण यह कि जो ग्रन्यकार अपेक्षित ग्रन्थ की रचना को प्रारम्भ करता है वह ग्रन्थ-रचना के पूर्व ही उसमें आवश्यकतानुसार रची जाने वाली गाथाओं की संख्या को निर्धारित करके व उन्हें अधिकारों में भी विभाजित करके दिखा दे, यह कुछ कठिन ही प्रतीत होता है। गुणधर का समय आदि परम्परागत अंगश्रुत के एकदेश के धारक व वर्तमान श्रुत के प्रतिष्ठापक आचार्य गुणधर के जन्म-स्थान, माता-पिता व गुरु आदि के विषय में कुछ भी जानकारी उपलब्ध नहीं है। वे महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के पारंगत आचार्य धरसेन से पूर्व हुए हैं या पश्चात्, यह भी ज्ञात नहीं है। श्रुतावतार के कर्ता इन्द्रनन्दी ने भी इस विषय में अपनी अजानकारी प्रकट की है।' वेदनाखण्ड के अवतार को प्रकट करते हुए धवला में अन्यकर्ता के प्रसंग में कहा गया है कि लोहाचार्य के स्वर्गस्थ हो जाने पर आचारांग लुप्त हो गया। इस प्रकार भरत क्षेत्र में बारह अंगों के लुप्त हो जाने पर शेष आचार्य सब अंग-पूर्वो के एकदेशभूत पेज्जदोसप्राभत और महा कर्मप्रकृतिप्राभूत आदि के धारक रह गये। ___'पेज्जदोस' कषायप्राभूत का नामान्तर है। आ० गुणधर इस कषायप्राभूत के पारंगत रहे हैं, यह धवलाकार के उक्त कथन से स्पष्ट है। पर वे महाकर्मप्रकृति के धारक भाचार्य धरसेन से पूर्व हुए हैं या पश्चात्, यह उससे स्पष्ट नहीं होता। इतना होते हुए भी पं० हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री और उन्हीं के मत का अनुसरण करते हुए डॉ. नेमिचन्द्र जी ज्योतिषाचार्य ने भी गुणधर के धरसेन से लगभग २०० वर्ष पूर्व होने की कल्पना की है। उनकी युक्तियां इस प्रकार हैं (१) गुणधर को 'पेज्जदोसपाहुड' के अतिरिक्त महाकम्मपयडिपाहुड का भी ज्ञान था, जबकि धरसेन केवल महाकम्मपयडिपाहुड के वेत्ता रहे हैं। इस प्रकार धरसेन की अपेक्षा गुणधर विशिष्ट ज्ञानी रहे हैं। इसका कारण यह है कि कसायपाहुड में महाकम्मपयरिपाहर से सम्बद्ध बन्ध, संक्रमण और उदय-उदीरणा जैसे अधिकार हैं जो महाकम्मपयडिपाहड के अन्तर्गत २४ अनुयोगद्वारों में क्रम से छठे (बन्धन), बारहवें (संक्रम) और दसवें (उदय) अनुयोगद्वार हैं । २४वा अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार भी कसायपाहुड के सभी अधिकारों में व्याप्त है। १. इ० श्रुतावतार, श्लोक १५१ २. धवला, पु० ६, पृ० १३३ ३. क०पा० सुत्त की प्रस्तावना, पृ० ५ व आगे पृ० ५७-५८ तथा 'तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा', भाग २, पृ० २८-३० प्रत्यकारोल्लेख / ६६६ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) धरसेन ने किसी अन्य का उपसंहार नहीं किया है, जबकि गुणधर ने प्रस्तुत ग्रन्थ में 'पेज्जदोस' का उपसंहार किया है । इस प्रकार आ० धरसेन जहाँ वाचकप्रवर सिद्ध होते हैं, वहाँ गुणधराचार्य सूत्रकार के रूप में सामने आते हैं। (३) आ० गुणधर की यह रचना षट्खण्डागम, कम्मपयडी, शतक और सित्तरी इन ग्रन्यों की अपेक्षा अतिसंक्षिप्त, असंदिग्ध, बीजपदयुक्त, गहन और सारवान् पदों से निर्मित है। (४) आ० अर्हद्बली (वी०नि० ६६५ या वि०संवत् ६५) के द्वारा स्थापित संघों में एक गणधर नाम का भी संघ है, जिसे आ० गुणधर के नाम पर स्थापित किया गया है। इससे मा० गणधर का समय आ० अर्हद्बली से पूर्व सिद्ध होता है। इस प्रकार उनका समय विक्रम-पूर्व एक शताब्दी सिद्ध होता है। यहां उपर्युक्त युक्तियों पर विचार कर लेना अप्रासंगिक नहीं होगा, इससे उन पर कुछ विचार किया जाता है (१) आ० धरसेन 'महाकम्मपयडिपाहुड' के साथ 'पेज्जदोसपाहुड' के भी वेत्ता हो सकते हैं। जैसाकि पाठक ऊपर देख चुके हैं, धवलाकार ने इस प्रसंग में यह स्पष्ट कहा है कि भरत क्षेत्र में बारह दिनकरों (अंगों) के अस्तंगत हो जाने पर शेष आचार्य सब अंग-पूर्वो के एकदेशभत 'पेज्जदोस' और 'महाकम्मपयडिपाहुड' के धारक रह गये। इस प्रकार प्रमाणीभूत महर्षि रूप प्रणाली से आकर महाकम्मपयडिपाहुड रूप अमृत-जल का प्रवाह धरसेन भट्टारक को प्राप्त हुआ। इस परिस्थिति में आचार्य धरसेन को गुणधराचार्य की अपेक्षा अल्पज्ञानी और गुणधर को विशिष्ट ज्ञानी कहना कुछ युक्तिसंगत नहीं दिखता। सम्भव तो यही है कि ये दोनों श्रुतधर अपने-अपने विषय--पेज्जदोसपाहुड और महाकम्मपयडिपाहुड-में पूर्णतया पारंगत होकर अन्य कुछ परम्परागत श्रुत के वेत्ता भी रहे होंगे। रही कुछ विशिष्ट बन्ध आदि अनुयोगद्वारों की बात, सो वे महाकम्मपयडिपाहुड में तो रहे ही हैं, पर वे या उनको अन्तर्गत करनेवाले उसी प्रकार के अधिकार पेज्जदोसपाहुड में सम्भव हैं-जैसे बन्धक व वेदक आदि । धवलाकार ने विविध प्रसंगों पर यह स्पष्ट भी किया है कि अमुक सूत्र या प्रकरणविशेष सूत्र में अनिर्दिष्ट अमुक-अमुक अर्थों का सूचक है।' पेज्जदोसपाहुड के अन्तर्गत सूत्रगाथाएं इसी प्रकार के अपरिमित अर्थ से गर्भित रही हैं। ___इसके अतिरिक्त पेज्जदोसपाहुड के अन्तर्गत पन्द्रह अधिकारों के विषय में मूलग्रन्थकार, चूर्णिसूत्रों के कर्ता और जयधवलाकार एकमत भी नहीं हैं। यह भी यहां विशेष ध्यान देने योग्य है कि महाकम्मपयडिपाहुड के अन्तर्गत जो २४ अनुयोगद्वार रहे हैं उनमें से मूल षट्खण्डागमकार ने प्रारम्भ के कृति व वेदना आदि छह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की है, और वह भी अन्तिम वेदना आदि तीन खण्डों में की गयी है। अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा सूत्रसूचित कहकर धवलाकार आ० वीरसेन ने की है। षखण्डागम के जीवस्थान, क्षुद्रकबन्ध और बन्धस्वामित्वविचय--प्रारम्भ के इन तीन १. धवला, पु० ६, पृ० १३३ २. उदाहरणस्वरूप देखिए पु०६, पृ० ३५४ व पु० १०, पृ० ४०३ ३. क०पा० सुत्त प्रस्तावना पृ० ११-१२ तथा मूल में पृ० १४-१५ ३७०/षदखण्डागम-परिशीलन Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बण्डों में उक्त २४ अनुयोगद्वारों में से कोई भी अनुयोगद्वार नहीं है। पर, जैसा कि धवला में स्पष्ट किया गया है, उनका सम्बन्ध उक्त महाकम्मपयडिपाहुड से ही रहा है।' षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान से सम्बद्ध जो नौ चूलिकाएं हैं, उनमें ८वीं 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' चूलिका है। उसमें दर्शनमोह की उपशामना व क्षपणा तथा चरित्र (संयमासंयम व सकलसंयम) की प्ररूपणा की गयी है। पर ये अधिकार या अनुयोगद्वार उपर्युक्त २४ अनयोगद्वारों में नहीं रहे हैं। ये अनुयोगद्वार पेज्जदोसपाहुड के अन्तर्गत १५ अर्थाधिकारों में उपलब्ध होते हैं। इस परिस्थिति में क्या यह समझा जाय कि आचार्य धरसेन व उनके शिष्य भूतबलि महाकम्मपडिपाहुड के साथ पेज्जदोसपाहुड के भी मर्मज्ञ रहे हैं, इसलिए वे इन अधिकारों को यहाँ षट्खण्डागम में समाविष्ट कर सके हैं ? - इसका तात्पर्य यही है कि आ० गुणधर और धरसेन क्रम से पेज्जदोसपाहुड और महाकम्मपयडिपाहुड में तो पूर्णतया पारंगत रहे हैं, साथ ही वे अन्य प्रकीर्णक श्रुत के भी ज्ञाता थे। इस से एक की अपेक्षा दूसरे को अल्पज्ञानी या विशिष्टज्ञानी कहना युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता। (२) यह ठीक है कि आ० गुणधर ने पेज्जदोसपाहुड का उपसंहार किया है और आ. धरसेन ने स्वयं किसी ग्रन्थ का उपसंहार नहीं किया। पर इस विषय में यह विचारणीय है कि आ० धरसेन ने जब समस्त महाकम्मपयडिपाहुड को ही अपने सुयोग्य शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि दोनों को समर्पित कर दिया, तब उनके लिए उसके उपसंहार करने का प्रश्न ही नहीं उठता। उसका उपसंहार तो उनके शिष्य भूतबलि ने षट्खण्डागम के रूप में किया है। इस प्रकार से सूत्रकार के रूप में तो भूतबलि सामने आते हैं । पर सूत्रकार तो वस्तुतः न गुणधर हैं, न धरसेन हैं और न पुष्पदन्त-भूतबलि ही हैं । कारण यह कि सूत्र का जो यह लक्षण निर्दिष्ट किया गया है, तदनुसार इनमें कोई भी सूत्रकार सिर नहीं होता सुत्तं गणधरकहियं तहेव पत्तेयबुद्धकहियं च । सुदकेवलिणा कहियं अभिण्णदसपुग्विकहियं च ।। इस सूत्र-लक्षण को धवलाकार ने 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में आनुपूर्वियों के संख्याविषयक मतभेद के प्रसंग में उद्धृत किया है। मनुष्यानुपूर्वी प्रकृति के विकल्पों के प्ररूपक सूत्र १२० की व्याख्या के विषय में दो भिन्न मत रहे हैं। उन्हें कुछ स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि इसके विषय में उपदेश को प्राप्त करके यही व्याख्यान सत्य है, दूसरा असत्य है। इस प्रकार का निश्चय करना चाहिए। प्रसंगप्राप्त वे दोनों ही उपदेश सूत्रसिद्ध हैं, क्योंकि आगे उन दोनों ही उपदेशों के आश्रय से अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है। -सूत्र १२३-२७ व आगे सूत्र १२८-३२ इस पर वहाँ यह शंका उठी है कि दो विरुद्ध अर्थों का प्ररूपक सूत्र कैसे हो सकता है। १. धवला, पु० १, पृ० १२४-३० व प्रस्तावना ७२-७४ की तालिकाएं। २. ष०ख० सूत्र १,६-८, १-१६ (पु. ६) ३. क.पा० गाथा ५-६ ४. धवला, पु० १३, पृ० ३८१-८२ प्रन्थकारोल्लेख / ६७१ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके उत्तर में धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि सचमुच में सूत्र वही हो सकता है जो अविरुद्ध अर्थ का प्ररूपक हो। किन्त यह सत्र नहीं है। जो सत्र के समान होता है वह भी सत्र है, इस प्रकार उपचार से उसे सूत्र माना गया है। इसी प्रसंग में वहां उपर्युक्त गाथा को उद्धृत करते हुए यह भी कहा गया है कि भूतबलि भट्टारक न गणधर हैं, न प्रत्येक बुद्ध हैं, न श्रुतकेवली हैं और न अभिन्नदशपूर्वी हैं; जिससे उसे सूत्र कहा जा सके। इस प्रकार से अप्रमाण का प्रसंग प्राप्त होने पर उसका निराकरण करते हुए आगे धवलाकार ने कहा है कि यथार्थतः उसके सूत्र न होने पर भी राग, द्वेष और मोह का अभाव होने से प्रमाणीभूत परम्परा से आने के कारण उसे अप्रमाण नहीं ठहराया जा सकता है।' इससे सिद्ध है कि कषायप्राभूत और षट्खण्डागम, जिन्हें सूत्रअन्य माना जाता है, यथार्थ में सूत्र नहीं है, फिर भी राग, द्वेष और मोह से रहित महर्षियों की अविच्छिन्न परम्परा से आने वाले अर्थ के प्ररूपक होने के कारण उन्हें भी उपचार से सूत्रग्रन्थ मानने में किसी प्रकार का विरोध नहीं है। धवला में अनेक प्रसंगों पर पुष्पदन्त और भूतबलि का उल्लेख सूत्रकार के रूप में किया गया है। यथा (१) इदि णायमाइरियपरंपरागयं मणेणावहारिय पुज्वाइरियाणुसरणं तिरयणहेउत्ति पुप्फदंताइरियो मंगलादीणं छण्णं सकारणाणं परूवणट्ट सुत्तमाह-पु० १, पृ०८ (२) एवं पृष्ठवतः शिष्यस्य सन्देहापोहनार्थमुत्तरसुत्तमाह ।—पु० १, पृ० १३२ (३) आइरियकहियं संतकम्म-कसायपाहुडाणं कथं सुत्तत्तणमिदि चे ण, तित्ययरकहियस्थाणं गणहरदेवकयगंथरयणाणं बारहंगाणं आइरियपरम्पराए णिरंतरमागयाणं जुगसहावेण ओहट्ट तीस भायणाभावेण पुणो ओहट्टिय आगयाणं पुणो सुठ्ठबुद्धीणं खयंदठूण तित्यवोच्छेदभएण वज्जभीरूहि गहिदत्थेहि आइरिएहि पोत्थएसु चढावियाणं असुत्तत्तणविरोहादो। -पु० १, पृ० २२१ (४) संपहि चोद्दसण्हं जीवसमासाणमत्थित्तमवगदाणं सिस्साणं तेसिं चेव परिमाणपडि. बोहणट्ठ भूदबलियारियो सुत्तमाह । -पु० ३, पृ० १ (५) चोद्दससु अणियोगद्दारेसु..."सुत्तकारेण किमट्ठ परूवणा ण कदा? ण ताव अजाणंतेण ण कदा, चउवीसअणियोगद्दारसरूव महाकम्मपयडिपाहुड पारयस्स, भूदबलिभयवंतस्स तदपरिण्णाणविरोहादो..।-पु० १४, पृ० १३४-३५ ।। (६) संपहि इमाओ पंचण्हं सरीराणं गेज्झाओ इमाओ च अगेझाओ त्ति जाणावेतो भवबलिभारओ उत्तरसुत्तकलावं परूवेदि।-पु० १४, पृ० ५४१ ऐसे प्रचुर उदाहरण यहाँ धवला से दिए जा सकते हैं, जिनसे आ० पुष्पदन्त और भूतबलि सूत्रकार तथा उनके द्वारा विरचित षट्खण्डागम सूत्रग्रन्थ सिद्ध होता है। इस परिस्थिति में आ० गुणधर को सूत्रकार और आ० धरसेन को केवल वाचकप्रवर कहना उचित नहीं दिखता, जबकि धरसेनाचार्य के शिष्य आ० पुष्पदन्त और भूतबलि भी सूत्रकार के रूप में प्रख्यात हैं। इस प्रकार गुणधर के समान धरसेन को भी श्रुत के महान् प्रतिष्ठापक समझना चाहिए। १. धवला, पु० १३, पृ० ३८१-८२ ६७२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) गुणधराचार्य की रचना कसायपाहुड निश्चित ही षट्खण्डागम आदि अन्य कर्मग्रन्थों से संक्षिप्त और गहन है, इसमें विवाद नहीं है । किन्तु कसायपाहुड बीजपदों से युक्त है और षट्खण्डागम बीजपदों से युक्त नहीं है, यह कहना उचित नहीं दिखता। यथार्थ में बीजपदों से युक्त न षट्खण्डागम है और न ही कसायपाहुड। कारण यह कि जो शब्दरचना में संक्षिप्त पर अनन्त अर्थ के बोधक अनेक लिंगों से संगत हो, वह बीजपद कहलाता है। ऐसे बीजपदों से युक्त तो द्वादशांगश्रुत ही सम्भव है, जिसके प्ररूपक तीथंकरों को अर्थकर्ता कहा गया है। उन बीजपदों में अन्तहित अर्थ के प्ररूपक उन बारह अंगों के प्रणेता गणधर बीजपदों के व्याख्याता होते हैं, कर्ता वे भी नहीं होते।' ___ इस प्रकार की आगमव्यवस्था के होने पर कसायपाहुड को बीजपदयुक्त नहीं कहा जा सकता है। वस्तुतः कसायपाहुड और षट्खण्डागम को तो सूत्र भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि तीर्थकर के मुख से निकले हुए बीजपद को ही सूत्र कहा जाता है। तदनुसार तो गणधर भी सूत्रकार नहीं हैं, वे केवल सूत्र के व्याख्याता हैं । यह ऊपर के ही कथन से स्पष्ट हो जाता है। इस विवेचन का अभिप्राय यह न समझिए कि मैं कसायपाहुड को षट्खण्डागम से पश्चातकालीन सिद्ध करना चाहता हूँ। यथार्थ में कसायपाहुड की भाषा, शब्दसौष्ठव और अर्थगम्भीरता को देखते हुए वह कदाचित् षट्खण्डागम से पूर्ववर्ती हो सकता है, पर कितने पूर्व का है, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता। (४) अर्हबली के द्वारा नन्दी, वीर, सेन और भद्र आदि जिन संघों की स्थापना की गयी है उनमें एक 'गणधरसंघ' भी है। पर उसकी स्थापना श्रुत के महान् प्रतिष्ठापक उन गणधर आचार्य के नाम पर की गयी है, ऐसा प्रतीत नहीं होता। इसके लिए कुछ प्रमाण भी उपलब्ध नहीं है। उसे प्रतिष्ठित करते हुए इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार में यह कहा गया है कि जो यतिजन शाल्मलि वृक्ष के नीचे से आये थे, उनमें से कुछ को 'गुणधर' और कुछ को 'गप्त' के नाम से योजित किया। आगे इस श्रुतावतार में 'उक्तं च' यह कहकर एक श्लोक (६६) को उद्धृत करते हुए उसके द्वारा उन विविध संघों की स्थापना की पुष्टि की गयी है। यहाँ यह स्मरणीय है कि अहंबली के द्वारा उन संघों की स्थापना स्थानति शेष से और वक्षविशेष के नीचे से आने की प्रमुखता से की गयी है, किसी शूलधर या विशेष के नाम पर या उनका अनुसरण करने के कारण नहीं की गयी है। यह भी विचारणीय है कि एक ही स्थान से आने वालों को पृथक्-पृथक् दो-दो संघों में क्यों विभक्त किया १. संखित्तसद्दरयणमणंतत्थावगमहेदुभूदाणेगलिंगसंगमं बीजपदं णाम । सिमणेयाणं बीज पदाणं दुवालसंगप्पयाणमट्ठारस-सत्तसयभास-कुभासरूवाणं परूवओ जत्थकत्तारो णाम. बीजपदणिलीणत्थपरूवयाणं दुवालसंगाण कारओ गणहरभडारओ गंथकत्तारोत्ति अब्भुव गमादो। बीजपदाणं वक्खाणओ त्ति वुत्तं होदि।-धवला, पु० ६, पृ० १२७ २. .... इदि वयणादो तित्थयरवयणविणिग्गयबीजपदं सुत्तं णाम । -धवला, पु० ६, पृ० २५६ ३. इ० श्रुतावतार ८५.६ प्रन्थकारोल्लेख / ६७३ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे इसी श्रुतावतार में दूसरे किन्हीं के मत को प्रकट करते हुए यह भी स्पष्ट किया गया है-अन्य कोई कहते हैं कि जो महात्मा गुफा से आये थे उन्हें 'नन्दी', अशोकवन से आनेवाले को 'देव', पंचस्तूप से आनेवालों को 'सेन', शाल्मली वृक्ष के मूल में रहने वालों को 'वीर' और खण्डकेसर वृक्ष के मूल में रहने वालों को 'भद्र' कहा गया है। इस प्रकार इस मत के अनुसार किसी एक स्थान से आने वालों या वहां रहने वालों को किसी एक संघ में प्रतिष्ठित किया गया है, न कि पूर्व मत के अनुसार उन्हें दो-दो संघों में विभक्त किया गया है।'. इसके अतिरिक्त इस मत के अनुसार 'गुणधर' नाम से किसी भी संघ को प्रतिष्ठापित नहीं किया गया है । यहाँ तो यह कहा गया है कि खण्डकेसरवृक्ष के मूल में रहनेवाले 'वीर' नाम से प्रसिद्ध हुए । आगे दो श्लोक (६६-१००) और भी इस प्रसंग से सम्बन्धित यहां प्राप्त होते हैं, पर उनमें उपयुक्त पदों का सम्बन्ध ठीक नहीं बैठ रहा, इससे ग्रन्थकार क्या कहना चाहते हैं; यह स्पष्ट नहीं होता। इस सब स्थिति को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता है कि आ० अर्हबली ने 'गुणधर' संघ की स्थापना 'गुणधर' आचार्य के नाम पर की है। इससे आचार्य गुणधर को आचार्य अर्हद्वली से पूर्व का कहना कुछ प्रामाणिक नहीं दिखता। __ इन्द्रनन्दी के द्वारा प्ररूपित उपर्युक्त संघस्थापन की प्रक्रिया को देखते हुए उसे विश्वसनीय भी नहीं माना जा सकता है । यह भी यहां विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि जिस प्राकृत पट्टावली के आधार से आ० अहंबली का समय वीर नि० सं० ५६५ या विक्रम सं० ६५ निर्धारित किया गया है, उस पट्टावली में अहंबली के नाम के आगे माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि इन आचार्यों के नामों का उल्लेख होने पर भी उन गुणधर आचार्य का उल्लेख न तो अर्हद्बली के पूर्ववर्ती आचार्यों में किया गया है और न उनके पश्चाद्वर्ती आचार्यों में ही कहीं किया गया है, जब कि उसमें धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि का उल्लेख एक अंग के धारकों में किया गया है।' आचार्य-परम्परागत विशिष्ट श्रुत के धारक और कसायपाहुड जैसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तग्रन्थ के रचयिता उन गुणधर आचार्य का उल्लेख उस पट्टावली में न किया जाय, यह आश्चर्यजनक है। कारण इसका क्या हो सकता है, यह विचारणीय है। इस प्रकार आ० अर्हबली के द्वारा स्थापित उपर्युक्त संघों के अन्तर्गत 'गुणधर' संघ की स्थापना आ० गुणधर के नाम पर की गयी है, ऐसा मानकर उनको अर्हबली से पूर्ववर्ती मानना काल्पनिक ही कहा जा सकता है, प्रामाणिकता उसमें कुछ नहीं है । ७. गौतमस्वामी धवलाकार ने इनका उल्लेख ग्रन्थकर्ता के प्रसंग में द्रव्यश्रुत के कर्ता व अनुतन्त्र कर्ता के रूप में किया है। वे अर्थकर्ता भगवान् वर्धमान जिनेन्द्र के ग्यारह गणधरों प्रमुख रहे हैं । उनका यथार्थ नाम इन्द्रभूति था, गोत्र उनका ‘गौतम' रहा है । इस गोत्र के नाम पर वे १. इ० श्रुतावतार ६७-६८ २. यह नन्दि-आम्नाय की प्राकृत पट्टावली 'जैनसिद्धान्त भास्कर', भाग १ (सन् १९१३) में ___अथवा ष०ख० पु. १ की प्रस्तावना पृ० २४-२७ में देखी जा सकती है। ३. देखिए धवला, पु० १, पृ० ६४-६५ व ७२ तथा पु० ६, पृ० १२६-३० ६७४ | षट्खण्डागम-परिशीलन Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'गौतम' के रूप में प्रसिद्ध हुए हैं। जन्मतः वे ब्राह्मण रहे हैं । धवलाकार ने प्रन्थकर्ता की प्ररूपणा के प्रसंग में उनका परिचय इस प्रकार दिया है महावीर जिनेन्द्र के द्वारा की गयी तीर्थोत्पत्ति के प्रसंग में धवला में निर्दिष्ट तीस वर्ष प्रमाण केवलीकाल में ६६ दिनों के कम करने पर धवला में यह शंका की गयी है कि केवलिकाल में से इन ६६ दिनों को क्यों कम किया जा रहा है । इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि केवलज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर भी इतने दिन तीर्थ की उत्पत्ति नहीं हुई, इसलिए उसमें से इतने दिन कम किये गये हैं । इस प्रसंग में आगे का कुछ शंका-समाधान इस प्रकार है शंका-केवलज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर भी दिव्यध्वनि क्यों नहीं प्रवृत्त हुई ? समाधान-गणधर के न होने से दिव्यध्वनि नहीं प्रवृत्त हुई। शंका-सौधर्म इन्द्र ने उसी समय गणधर को लाकर क्यों नहीं उपस्थित कर दिया ? समाधान-काललब्धि के बिना असहाय सौधर्म इन्द्र के गणधर को लाकर उपस्थित कर देने की शक्ति सम्भव नहीं थी। शंका-तीर्थकर के पादमूल में महाव्रत स्वीकार करनेवाले को छोड़कर अन्य को लक्ष्य करके दिव्यध्वनि क्यों नहीं प्रवृत्त होती है। __ समाधान-ऐसा स्वभाव है व स्वभाव दूसरों के प्रश्न के योग्य नहीं होता, अन्यथा कुछ व्यवस्था ही नहीं बन सकती है। सौधर्म इन्द्र गौतम गणधर को किस प्रकार लाया, इसे स्पष्ट करते हुए आगे धवला में कहा गया है कि काललब्धि की सहायता पाकर सौधर्म इन्द्र वहाँ पहुँचा, जहाँ पांच-पांच सौ शिष्यों सहित एवं तीन भाइयों से वेष्टित इन्द्रभूति ब्राह्मण अवस्थित था। वहां जाकर उसने पंचेव अत्थिकाया छज्जीवणिकाया महग्वया पंच। अट्ठय पवयणमादा सहेउओ बंध-मोक्सो य ॥ यह गाथा प्रस्तुत करते हुए उसका अभिप्राय पूछा। इस पर इन्द्रभूति सन्देह में पड़कर तीनों भाइयों के सहित इन्द्र के साथ होकर वर्धमान जिनेन्द्र के पास जाने को उद्यत हुआ। वहाँ जाते हुए समवसरण में प्रविष्ट होने पर मानस्तम्भ को देखकर उसका अपनी विद्वत्ताविषयक सारा मान नष्ट हो गया । तब उसकी विशुद्धि उत्तरोत्तर बढ़ती गयी । वहाँ वर्धमान जिनेन्द्र का दर्शन करने पर उसके असंख्यात भवों में उपार्जित गुरुतर कर्म नष्ट हो गये । उसने तीन प्रदक्षिणा देते हुए जिनेन्द्र की वन्दना की और अन्तःकरण से जिन का ध्यान करते हुए उनसे संयम को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार बढ़ती हुई विशुद्धि के बल से उसके अन्तर्महर्त में ही गणधर के समस्त लक्षण प्रकट हो गये । तब गौतमगोत्रीय उस इन्द्रभूति ब्राह्मण ने जिनदेव के मुख से निकले हुए बीजपदों को अवधारित करके दृष्टिवादपर्यन्त आचारादि बारह अंगों और अंगबाह्यस्वरूप निशीथिका-पर्यन्त सामायिकादि चौदह प्रकीर्णकों की रचना कर दी। यह ग्रन्थरचना का कार्य उसके द्वारा युग के आदि स्वरूप श्रावणकृष्णा प्रतिपदा के दिन पूर्वाह्न में सम्पन्न हुआ । इस प्रकार इन्द्रभूति भट्टारक वर्धमान-जिन के तीर्थ में ग्रन्थकर्ता हुए।' १. धवला, पु० ६, पृ० १२६-३० व इसके पूर्व पु० १, पृ० ६४-६५; गणधर के लक्षण पृ० ६, पृ० १२७-२८ में देखे जा सकते हैं। ग्रन्थकारोल्लेख / ६७५ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. धरसेन इनके विषय में जो कुछ थोड़ा परिचय प्राप्त है उसका उल्लेख पीछे 'धरसेनाचार्य व योनिप्राभृत' शीर्षक में किया जा चुका है । ९. नागहस्ती क्षमाश्रमण इनका परिचय पीछे 'आर्यमंक्षु और नागहस्ती' शीर्षक में आर्यमंक्षु के साथ कराया जा चुका है । १०. निक्षेपाचार्य यह पूर्व में कहा जा चुका है कि जो आचार्य - आम्नाय के अनुसार विवक्षित गाथासूत्रों आदि का शुद्ध उच्चारणपूर्वक व्याख्यान करते-कराते थे, उन्हें उच्चारणाचार्य कहा जाता था । इसी प्रकार जो आचार्य नाम स्थापनादि निक्षेपों की विधि में कुशल होते थे और तदनुसार ही प्रसंग के अनुरूप वस्तुतत्त्व का व्याख्यान किया करते थे, वे 'निक्षेपाचार्य' के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं । धवला में निक्षेपाचार्य का उल्लेख इन दो प्रसंगों पर किया पर किया गया है (१) वेदनाद्रव्यविधान - चूलिका में अन्तरप्ररूपणा के प्रसंग में एक-एक स्पर्धक के अन्तर के प्ररूपक सूत्र (१८४) की व्याख्या करते हुए धवला में यह कहा गया है " तत्थ दव्वट्ठियणयावलंबणाए एगवग्गस्स सरिसत्तणेण सगंतोक्खित्तसरिसधणियस्स वग्गसणं काद्धण एगोलीए फसण्णं काऊण णिक्खवाइरिय परूविदगाहाणमत्थं भणिस्सामो ।' यह कहते हुए आगे वहाँ संदृष्टिपूर्वक पाँच (२०-२४) गाथाओं को उद्धत कर उनके अभिप्राय को स्पष्ट किया गया है ।' (२) कृति - वेदनादि २४ अनुयोगद्वारों में वें 'प्रक्रम' अनुयोगद्वार की प्ररूपणा के प्रसंग में अनुभागप्रक्रम का विचार करते हुए धवला में 'एत्थ अप्पाबहुअं उच्चदे' ऐसी सूचना करके उत्कृष्ट और जघन्य वर्गणाओं में प्रक्रान्तद्रव्यविषयक अल्पबहुत्व को प्रकट किया गया है । तत्पश्चात् स्थिति में प्रक्रान्त अनुभाग के अल्पबहुत्व को स्पष्ट करते हुए अन्त में 'एसो णिवखेवाइरियउarसो' यह सूचना की गयी है । * ११. पुष्पदन्त यह पूर्व में कहा जा चुका है कि आचार्य धरसेन को जो आचार्यपरम्परा से अंगपूर्वश्रुत का एकदेश प्राप्त हुआ था, वह उनके बाद नष्ट न हो जाय, इस प्रवचन- वत्सलता के वश उन्होंने महिमानगरी में सम्मिलित हुए दक्षिणापथ के आचार्यों के पास एक लेख भेजा था । उससे धरसेनाचार्य के अभिप्राय को जानकर उन आचार्यों ने ग्रहण-धारण में समर्थ जिन दो सुयोग्य साधुओं को धरसेन के पास भेजा था उनमें एक पुष्पदन्त थे । इन्होंने धरसेनाचार्य के पादमूल में भूतबलि के साथ समस्त महाकर्मप्रकृतिप्राभृत को पढ़ा था । यह अध्ययन-अध्यापन कार्य आषाढ़ शुक्ला एकादशी के दिन समाप्त हुआ था । विनयपूर्वक इस अध्ययनकार्य के समाप्त करने पर सन्तुष्ट हुए भूतों ने पुष्पदन्त के अस्तव्यस्त दाँतों की पंक्ति को समान कर दिया था । इससे धरसेन भट्टारक ने उनका 'पुष्पदन्त' यह १. धवला, पु० १०, ४५६-६२ २. धवला, पु० १५, पृ० ४० ६७६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम प्रसिद्ध कर दिया था। इसके पूर्व उनका क्या नाम रहा था, यह ज्ञात नहीं होता। उनका प्रामाणिक जीवनवृत्त भी उपलब्ध नहीं है। विबुध श्रीधर-श्रुतावतार में भविष्यवाणी के रूप में उनके सम्बन्ध में एक कथानक उपलब्ध होता है, जो इस प्रकार है____ "इस भरत क्षेत्र के अन्तर्गत वांमि (?) देश में एक वसुन्धर नाम की नगरी होगी। वहां के राजा नरवाहन और रानी सुरूपा के पुत्र न होने से वे खेदखिन्न रहेंगे। तब सुबुद्धि नाम के एक सेठ उन्हें पद्मावती की पूजा करने का उपदेश देंगे। तदनुसार उसकी पूजा करने पर राजा को पुत्र की प्राप्ति होगी, उसका नाम वह 'पद्म' रक्खेगा। राजा तब सहस्रकूट चैत्यालय को निर्मापित कराएगा और प्रतिवर्ष यात्रा करेगा। वसन्त मास में सेठ भी राजप्र[प्रा]साद से पग-पग पर पृथिवी को जिनमन्दिरों से मण्डित करेगा । इस बीच मधु मास के प्राप्त होने पर समस्त संघ वहाँ आवेगा । राजा सेठ के साथ जिनस्तवन और जिन-पूजा करके नगरी में रथ को घुमाता हुआ जिनप्रांगण में स्थापित करेगा। नरवाहन राजा मगध के अधिपति अपने मित्र को मुनि हुआ देखकर वैराग्यभावना से भावित होता हुमा सुबुद्धि सेठ के साथ जिन-दीक्षा को स्वीकार करेगा। इस बीच एक लेखवाहक आवेगा । वह जिनों को प्रणाम व मुनियों की वन्दना करके धरसेन गुरु की वन्दना के प्रतिपादनपूर्वक लेख को समर्पित करेगा। वहाँ के मुनिराज उसे लेकर बाँचेंगे-गिरिनगर के समीप गुफा में रहनेवाले धरसेन मुनीश्वर अग्रायणीय पूर्व के, जो पांचवा वस्तु अधिकार है, चौथे प्राभृतशास्त्र का व्याख्यान करेंगे। धरसेन भट्टारक नरवाहन और सद्बुद्धि (सुबुद्धि) के पठन, श्रवण और चिन्तन क्रिया के करने पर आषाढ़ शुक्ला एकादशी के दिन शास्त्र को समाप्त करेंगे। तब भूत रात में एक की बलिविधि और दूसरे के चार दांतों को सुन्दर करेंगे। भूतों के द्वारा की गई बलि के प्रभाव से नरवाहन का नाम भूतबलि होगा और समान चार दांतों के प्रभाव से सद्बुद्धि पुष्पदन्त नाम से मुनि होगा। धरसेन अपने मरण को निकट जानकर दोनों को क्लेश न हो, इस विचार से उन दोनों मुनियों को वहां से विदा करेंगे। दोनों मुनि अंकुलेसुरपुर जाकर व षडंगरचना को करके शास्त्रों में लिखावेंगे। नरवाहन संघसहित उन शास्त्रों की पूजा करेगा व 'षडंग' नाम देकर निजपालित को पुस्तक के साथ पुष्पदन्त के समीप भेजेगा। पुष्पदन्त षडंग नामक पुस्तक को दिखलाने वाले निजपालित को देखकर मन में सन्तोष करेंगे।" इत्यादि ।' यह कथानक काल्पनिक दिखता है, प्रामाणिकता इसमें नहीं झलकती। ग्रन्थ के समाप्त होते ही वे (दोनों) गुरु का आदेश पाकर गिरिनगर से चले गये। उन्होंने अंकुलेश्वर पहुँचकर वर्षाकाल बिताया। वर्षाकाल को वहां समाप्त कर पुष्पदन्त अंकुलेश्वर से वनवास देश में पहुंचे। वहां उन्होंने जिनपालित को दीक्षा दी व बीस सूत्रों को करके-गुणस्थान व जीवसमासावि रूप बीस प्ररूपणाओं से सम्बद्ध एक सो सतत्तर सूत्रों को रचकरउन्हें जिनपालित को पढ़ाया और सूत्रों के साथ जिनपालित को भूतबलि भगवान के पास भेजा। भूतबलि ने जिनपालित के पास बीस प्ररूपणाविषयक उन सूत्रों को देखकर और जिनपालित से पुष्पदन्त को अल्पायु जानकर महाकर्मप्रकृतिप्राभूत का व्युच्छेद न हो जाय, इस अभिप्राय से द्रव्यप्रमाणानुगम को आदि लेकर समस्त षटखण्डागम की रचना की। इस प्रकार खण्डसिद्धान्त १. विबुध श्रीधर-विरचित श्रुतावतार (सिद्धान्त-सारादिसंग्रह, पृ० ३१६-१८)। प्रन्यकारोल्लेख / ६७७ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की अपेक्षा पुष्पदन्त और भूतबलि दोनों ग्रन्थकर्ता कहे जाते हैं । इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार के अनुसार घरसेनाचार्य ने अपनी मृत्यु को निकट जानकर 'इन दोनों को इससे संक्लेश न हो' यह सोचकर ग्रन्थ समाप्त होने के दूसरे दिन प्रिय व हितकर वचनों द्वारा आश्वस्त करते हुए उन्हें कुरीश्वर भेज दिया। वे दोनों ही नौ दिन में वहां पहुंच गये व वहां उन्होंने आषाढ़ मास की कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन योग को ग्रहण कर लिया। इस प्रकार वर्षाकाल को करके वे विहार करते हुए दक्षिण की ओर गये। उनमें पुष्पदन्त नामक मुनि जिनपालित नामक अपने भानजे को देखकर और उसे दीक्षा देकर उसके साथ 'वनवास' देश में पहुंच गये व वहाँ ठहर गये। उधर भूतबलि भी द्रविड़ देश में मथुरा पहुंचे व वहाँ ठहर गये। पुष्पदन्त मुनि ने उस भानजे को पढ़ाने के लिए कर्मप्रकृतिप्राभूत का छह खण्डों द्वारा उपसंहार करके (?) गुणस्थान व जीवसमास आदि बीस प्रकार की सूत्ररूप सत्प्ररूपणा से युक्त जीवस्थान के प्रथम अधिकार की रचना की। पश्चात् उन्होंने उन सो (?) सूत्रों को पढ़ाकर जिनपालित को भूतबलि गुरु के पास उनका अभिप्राय जानने के लिए भेजा। तदनुसार जिनपालित भी उनके पास जा पहुंचा। भूतबलि ने उसके द्वारा पठित सत्प्ररूपणा को सुनकर और पूष्पदन्त के षट्खण्डागम के रचनाविषयक अभिप्राय को व अल्पआयुष्य को जानकर मन्दबद्धियों की अपेक्षा से द्रव्यप्ररूपणादि अधिकारस्वरूप पांच खण्डों की, जिनका ग्रन्थप्रमाण छह हजार रहा है तथा छठे खण्ड महाबन्ध की जिसका ग्रन्थ-प्रमाण तीस हजार रहा है, रचना की। पुष्पदन्त भूतबलि से ज्येष्ठ थे : एक विचारणीय प्रश्न (१) यहां यह स्मरणीय है कि इसके पूर्व प्रकृत श्रुतावतार (श्लोक १२६) में यह स्पष्ट कहा जा चुका है कि धरसेनाचार्य ने ग्रन्थ की समाप्ति (आषाढ़ शुक्ला एकादशी) के दूसरे दिन उन दोनों को गिरिनगर से कुरीश्वर भेज दिया। ऐसी स्थिति में वहीं पर आगे (श्लोक १३१ में) यह कसे कहा गया है कि कुरीश्वर पहुँचकर उन्होंने आषाढ़ कृष्णा पंचमी के दिन वर्षायोग किया? यह पूर्वापर-विरोध है। वर्षायोग आषाढ़ कृष्णा पंचमी को स्थापित किया जाता है, इसके लिए क्या आधार रहा है? (२) 'कर्मप्रकृतिप्राभृत को छह खण्डों से उपसंहार करके ही' यह वाक्य अधूरा है (श्लोक १३४) । इससे इन्द्रनन्दि क्या कहना चाहते हैं, यह स्पष्ट नहीं होता। क्या पुष्पदन्त ने महाकर्मप्रकृतिप्राभूत का छह खण्डों में उपसंहार करके जिनपालित को पढ़ाया ? श्लोक १३४-३५ के अन्तर्गत पद असम्बद्ध से दिखते हैं, उनमें परस्पर क्या सम्बन्ध व अपेक्षा है, यह स्पष्ट नहीं होता है। (३) इसी प्रकार आगे श्लोक १३६ में 'सूत्राणि तानि शतमध्याप्य' यह जो कहा गया है उसका क्या यह अभिप्राय है कि सौ सूत्रों को पढ़ाया, जबकि 'सत्प्ररूपणा' में १७७ सूत्र हैं। (४) धवला और जयधवला में यह स्पष्ट कहा गया है कि कषायप्राभूत की वे सूत्रगाथाएं आ० आर्यमा और नागहस्ती को आचार्यपरम्परा से आती हुई प्राप्त हुई थीं। इस परिस्थिति में इन्द्रनन्दी ने यह किस आधार से कहा है कि गुणधर ने उन गाथासूत्रों को रचकर उनका १. इ० श्रुतावतार पृ० २६-४० ६७८ / बट्खण्डागम-परिशीलन Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यान आर्यमा और नागहस्ती को किया ? इससे तो वे गुणधर के समकालीन ठहरते हैं ? -श्लोक १५४ इन्द्रनन्दी के समक्ष धवला व जयधवला टीकाएँ रही हैं व उनका उन्होंने परिशीलन किया है, यह श्रुतावतार-विषयक उस चर्चा से स्पष्ट नहीं होता। सम्भव है उन्होंने परम्परागत श्रुति के अनुसार श्रुतावतार की प्ररूपणा की हो । आगे (श्लोक १५१) उन्होंने गुणधर और धरसेन के पूर्वापरवर्तित्व की अजानकारी के विषय में संकेत भी ऐसा ही किया है। आ० वीरसेन ने धवला के प्रारम्भ में जो मंगल किया है उसमें उन्होंने धरसेन के पश्चात् पुष्पदन्त की स्तुति करते हुए उन्हें पाप के विनाशक, मिथ्यानयरूप अन्धकार को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान, मोक्षमार्ग के कण्टकस्वरूप मिथ्यात्व आदि को दूर करने वाले, ऋषि समिति के अधिपति और इन्द्रियों का दमन करने वाले कहा है।' प्रकृत मंगलाचरण में धवलाकार ने प्रथमतः आ० पुष्पदन्त को और तत्पश्चात् भूतबलि भट्टारक को नमस्कार किया है। इससे पुष्पदन्त भूतबलि से ज्येष्ठ रहे हैं। उनके ज्येष्ठत्व का एक कारण यह भी हो सकता है कि षट्खण्डागम को उन्हीं ने प्रारम्भ किया है। इसके अतिरिक्त उपर्युक्त नन्दि-आम्नाय की प्राकृत पट्टावली में यह स्पष्ट कहा गया है कि अन्तिम जिन (महावीर) के मुक्त होने के पश्चात् ५६५ वर्ष बीतने पर ये पांच जन एक अंग के धारक उत्पन्न हुए----अर्हद्बली, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि । इनका काल वहाँ क्रम से २८, २१, १६, ३० और २० कहा गया है। इस पट्टावली के अनुसार पुष्पदन्त की भूतबलि से ज्येष्ठता स्पष्ट है व उनका समय वीर-निर्वाण के पश्चात् ६३४-६३ (३०) वर्ष ठहरता है। ___ इ० श्रुतावतार में लोहाचार्य के आगे अंग-पूर्वो के देशधर इन चार आरतीय आचार्यों का उल्लेख किया गया है-विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त और अहंद्दत्त । यथा विनयधरः श्रीदत्तः शिवदत्तोऽन्योऽर्हद्दत्तनामैते । आरातीया यतयस्ततोऽभवन्नंग-पूर्वधराः ॥४॥ यहाँ इनके समय का कुछ उल्लेख नहीं किया गया है। अर्हद्दत्त के आगे यहाँ पूर्वदेश के मध्यगत पुण्ड्रवर्धनपुर में होनेवाले अर्हबली नामक मुनि का उल्लेख किया गया है, जो सब अंग-पूर्वो के एकदेश के ज्ञाता रहे हैं। इनका उल्लेख पीछे संघप्रतिष्ठापक के रूप में किया जा चुका है। पट्टावली में भूल प्रस्तुत पट्टावली में कुछ भूलें दृष्टिगोचर होती हैं। वे मूल में ही रही हैं या उसकी प्रतिलिपि करते समय हुई हैं, कहा नहीं जा सकता। यथा (१) यहाँ गाथा ७ में कहा गया है कि वीर-निर्वाण से १६२ वर्षों के बीतने पर ग्यारह मुनीन्द्र दस पूर्वो के धारक उत्पन्न हुए। यहाँ 'दशपूर्वधरों' से ग्यारह अंगों और दस पूर्वो के १. धवला, पु० १, पृ० ७०-७१ तथा प्रारम्भ में मंगल, गाथा ५-६ २. ष०ख० पु. १ की प्रस्तावना पृ० २६, गाथा १५-१६ ३. ष०ख० पु०१ की प्रस्तावना, पृ० २६ पर गा० १५-१७ प्रन्थकारोल्लेख /६७९ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारकों का अभिप्राय समझना चाहिए । आगे (गा० -९) उन दशपूर्वधरों के नामों का उल्लेख करते हुए यथाक्रम से उनके समय का जो पृथक् निर्देश किया गया है उसका जोड़ एक सौ इक्यासी (१०+१+१७ +२१+१+१+१+१३+२०+१४+१४=१८१) आता है। पर सब का जोड़ वहाँ 'सद-तिरासि वासाणि' अर्थात् १८३ वर्ष कहा गया है (गा. ७)। इससे निश्चित ही किसी के समय में दो वर्ष की भूल हुई है। (२) इसी प्रकार गा० १२ में दस-नो-आठ अंगधरों का सम्मिलित काल ६७ (वासं सत्ताणवदीय) वर्ष कहा गया है, जबकि पृथक्-पृथक् किए गये उनके कालनिर्देश के अनुसार वह ६६ (६+१८-२३+५२=६६) वर्ष आता है । इस प्रकार यहां भी किसी के समय में दो वर्ष की भूल हुई है। इस पट्टावली की विशेषताएं (१) तिलोयपण्णत्ती तथा धवला-जयधवला व हरिवंशपुराण (१,५८-६५ तथा ६०,२२२४) आदि में यद्यपि इन केवली-श्रुतकेवलियों के सम्मिलित काल का निर्देश तो किया गया है पर वहां पृथक-पृथक् किसी श्रुतधर के काल का निर्देश नहीं किया गया, जब कि इस पट्टावनी में सम्मिलित काल के साथ उनके पृथक्-पृथक् काल का भी निर्देश किया गया है। (२) अन्यत्र धवला आदि में जहां सुभद्र आदि चार श्रुतधरों को आचारांग के धारक कहा गया है वहाँ इस पट्टावली में उन्हें दस-नो-आठ अंगों के धारक कहा गया है। पर यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि उन चार श्रुतधरों में १०, ६ और ८ अंगों के धारक कौन-कौन रहे हैं। (३) अन्यत्र यह श्रुतधरों की परम्परा लोहाचार्य तक ही सीमित रही है। किन्तु इस पावली में लोहाचार्य के पश्चात् अहंबली, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि इन पांच अन्य श्रुतधरों का उल्लेख एक अंग के धारकों में किया गया है। (४) इसी कारण अन्यत्र जो उन श्रुतधरों के काल का निर्देश किया गया है, उससे इस पट्रावली में निर्दिष्ट उनके काल में कुछ भिन्नता हुई है । फिर भी उनका समस्त काल दोनों में ६८३ वर्ष ही रहा है । यथाधवला, पृ० १, पृ० ६५-६७ व पु. १, पृ० १३०-३१ प्राकृत पट्टावली ३ केवली ६२ वर्ष ३ केवली ६२ वर्ष ५ श्रुतकेवली १००, ५ श्रुतकेवली १०० ॥ ११ एकादशांग व ११ एकादशांग व दशपूर्वधर १८३ ,, दशपूर्वधर ५ एकादशांगधर २२० । ५ एकादशांगधर ४ आचारांगधर ११८, ४ दस-नो-आठ अंगों के धारक Xxx ५ आचारांगधर ११८ , १८३ ॥ १२३ ॥ ___६७ समस्त काल ६८३ वर्ष ६९३ वर्ष ६८./पट्खण्डागम-परिशीलन Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पुष्पदन्त का उल्लेख धवला में इस प्रकार किया है-पु. १, पृ० ७१,७२,१३० १६२ व २२६ । १२. पूज्यपाद ये 'देवनन्दी' नाम से भी प्रसिद्ध रहे हैं। श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं. ४० (६४) के अनुसार उनका प्रथम नाम देवनन्दी रहा है । अनी महती बुद्धि के कारण वे 'जिनेन्द्रदेव'. नाम से भी प्रसिद्ध हए । देवताओं के द्वारा चरण-युगल के पूजे जाने से वे 'पूज्यपाद' हुए।' __ चन्द्रय्य नामक कवि के द्वारा कनड़ी भाषा में लिखे गये 'पूज्यपादचरित' के अनुसार उनका जन्म कर्नाटक देश के कोले नामक गांव में हुआ था। पिता का नाम माधव भट्ट और माता का नाम श्रीदेवी था। जन्मत: वे ब्राह्मण थे । ज्योतिषी ने उन्हें त्रिलोक-पूज्य बतलाया था, इसलिए उनका नाम पूज्यपाद रखा गया। ___ माधवभट्ट ने पत्नी के कहने से जैन धर्म को स्वीकार कर लिया था। उनके साले का नाम पाणिनी था। उससे भी उन्होंने जैन धर्म धारण करने के लिए कहा, किन्तु वह जंन न होकर मुडीगुंड गांव में वैष्णव संन्यासी हो गया था। पूज्यपाद ने बगीचे में सांप के मुंह में फंसे हुए मेंढक को देखकर विरक्त होते हुए जिनदीक्षा ले ली थी। उक्त 'पूज्यपादचरित' में पूज्यपाद की कुछ विशेषताओं को प्रकट किया गया है, जिनमें प्राय: प्रामाणिकता नहीं दिखती है । पूज्यपाद की विशेषता पूज्यपाद द्वारा-विरचित ग्रन्थों के परिशीलन से स्पष्ट है कि वे विख्यात वैयाकरण और सिद्धान्त के पारंगत रहे हैं। महापुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन ने उन्हें (देवनन्दी को) विद्वानों के शब्दगत दोषों को दूर करने वाले शब्दशास्त्ररूप तीर्थ के प्रवर्तक-जैनेन्द्र व्याकरण के प्रणेता-कहा है। यथा कवीनां तीर्थकृद् देवः किं तरां तत्र वर्ण्यते । विदुषां वाइ.मलध्वंसि तीर्थ यस्य वचोमयम् ॥१-५२॥ हरिवंशपुराण के रचयिता जिनसेनाचार्य ने इन्द्र-चन्द्रादि व्याकरणों का परिशीलन करने वाले व देवों से वन्दनीय देवनन्दी की वाणी की वन्दना की है । यथा इन्द्रचन्द्रार्क-जनेन्द्रव्यापिण्याकरणक्षिणः। देवस्य देवसंघस्य न वन्धन्ते गिरः कथम् ॥१-३१॥ ___ कवि धनंजय ने अकलंकदेव के प्रमाण, पूज्यपाद के लक्षण (व्याकरण) और अपने 'द्विसन्धान काव्य'-इन तीन को अनुपम रत्न कहा है १. जैन साहित्य और इतिहास (द्वि०सं०) पृ० २५ २. देखिए 'जैन साहित्य और इतिहास' पृ० ४६-५१ (द्वि० सं०) तथा 'तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा', भाग २, पृ० २१६-२१ ।। प्रन्थकारोल्लेख | ६८१ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । विसंधानकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ।। -धनंजय-नाममाला, २०३ 'ज्ञानार्णव' के कर्ता शुभचन्द्राचार्य ने उन देवनन्दी को नमस्कार करते हुए उनके लक्षणशास्त्र की प्रशंसा में कहा है कि उनके वचन प्राणियों के काय, वचन और मन के कलंक को दूर करने वाले हैं। यथा अपाकुर्वन्ति यद्वाचः काय-वाक्-चित्तसम्भवम् । कलंकमङ्गिना सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥१-१५।। जैनेन्द्रप्रक्रिया के प्रारम्भ में आचार्य गुणनन्दी ने 'जनेन्द्र व्याकरण' के प्रणेता उन पूज्यपाद को नमस्कार करते हुए कहा है कि जो उनके इस लक्षणशास्त्र में है वह अन्यत्र भी मिल सकता है, किन्तु जो इसमें नहीं है वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा। तात्पर्य यह कि उनका व्याकरण सर्वांगपूर्ण रहा है । वह श्लोक इस प्रकार है नमः श्रीपूज्यपादाय लक्षणं यवुपक्रमम् । यदेवात्र तदन्यत्र यन्नात्रास्ति न तत् क्वचित् ।। - आचार्य पूज्यपाद या देवनन्दी के स्तुतिविषयक ये कुछ ही उदाहरण दिये गये हैं। वैसे उनकी स्तुति कितने ही अन्य परवर्ती आचार्यों ने भी की है। जैसे पार्श्वनाथचरित (१-१८) में मुनि वादिराज आदि। इसके अतिरिक्त अनेक शिलालेखों में भी उनकी भरपूर प्रशंसा की गयी है। इससे स्पष्ट है कि आ० पूज्यपाद व्याकरण के गम्भीर विद्वान् रहे हैं। इसी से उनके द्वारा विरचित 'जैनेन्द्र व्याकरण' सर्वांगपूर्ण होने से विद्वज्जनों में अतिशय प्रतिष्ठित रहा है। व्याकरण के अतिरिक्त वे आगमग्रन्थों के भी तलस्पर्शी विद्वान् रहे हैं। इसे पीछे 'षट्खण्डागम व सर्वार्थसिद्धि' शीर्षक में विस्तार से स्पष्ट किया जा चुका है। पूज्यपाद का समय जैसा कि पीछे स्पष्ट किया जा चुका है, आ० पूज्यपाद ने अपनी सर्वार्थसिद्धि की रचना में यथाप्रसंग षट्खण्डागम का भरपूर उपयोग किया है। यही नहीं, उन्होंने 'सत्संख्या-क्षेत्रस्पर्शन-कालान्तर-भावाल्पबहुत्वैश्च' इस सूत्र (तसू० १-८) की व्याख्या में ष०ख० के 'जीवस्थान' खण्ड से सम्बद्ध अधिकांश प्राकृत सूत्रों का संस्कृत छाया के रूप में अनुवाद कर दिया है। इससे निश्चित है कि वे आ० पुष्पदन्त-भूतबलि के पश्चात् हुए हैं। इन श्रुतधरों का काल प्रायः विक्रम की प्रथम शताब्दी है। सर्वार्थसिद्धि में कुन्दकुन्दाचार्य-विरचित कुछ ग्रन्थों से प्रसंगानुसार कुछ गाथाओं को उद्धत किया गया है । यथास०सिडि गाथांश कुन्द० प्रन्य २-१० सक्वे वि पुग्गला खलु द्वादशानुप्रेक्षा २५ २-३३ णिच्चिदरधा दु सुत्तय' १. यह गाथा मूलाचार में भी ५-२६ और १६-६३ गाथा-संख्या में उपलब्ध होती है। ६८२ / बट्खण्डागम-परिशीलन Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स.सिद्धि गापांश कुन्द पन्थ ५-१४ ओगाढगाढणिचिओ पंचास्तिकाय ६४ ५-१६ अण्णोण्णं पविसंता ५-२५ अत्तादिअत्तमझं नियमसार २६ असिदिसदं किरियाणं भावप्राभूत १३६ मरदु व जियदु व प्रवचनसार ३-१७ उनके द्वारा विरचित समाधितंत्र और इष्टोपदेश पर भी आचार्य कुन्दकुन्द-विरचित अध्यात्मग्रन्थों का अत्यधिक प्रभाव रहा है। इन दोनों ग्रन्थों के अन्तर्गत बहुत से श्लोक तो कुन्दकुन्द-विरचित गाथाओं के छायानुवाद जैसे हैं । आ० कुन्दकुन्द का समय भी प्रथम शताब्दी माना जाता है। इसलिए पूज्यपाद आ० कुन्दकुन्द के भी परवर्ती हैं, यह निश्चित है। पूज्यपाद-विरचित 'जैनेन्द्रव्याकरण' के 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' इस सूत्र (५,४,१४०) में आ० समन्तभद्र का उल्लेख किया गया है । समन्तभद्र का समय प्रायः दूसरी-तीसरी शताब्दी माना जाता है। अतः पूज्यपाद इसके बाद हुए हैं। ___ इसी प्रकार उक्त जैनेन्द्रव्याकरण के 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' सूत्र (५,१,७) में आचार्य सिद्धसेन का उल्लेख किया गया है । इसके अतिरिक्त सर्वार्थसिद्धि (७-१३) में सिद्धसेन-विरचित तीसरी द्वात्रिंशिका के अन्तर्गत एक पद्य के प्रथम चरण को 'उक्तं च' कहकर इस प्रकार उद्धृत किया गया है-वियोजयति चासुभिर्न वधेन संयुज्यते .' इस द्वात्रिंशिका के कर्ता सिद्धसेन प्रायः ५वीं शताब्दी के ग्रन्थकार रहे हैं। इससे निश्चित है कि पूज्यपाद सिद्धसेन के बाद हुए हैं। __ उनसे कितने बाद वे हुए हैं, इसका निर्णय करने में देवसेनाचार्य (वि० सं० ६६०)-विरचित दर्शनसार से कुछ सहायता मिलती है । वहाँ कहा गया है कि पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दी ने विक्रम राजा की मृत्यु के पश्चात् ५२६ में दक्षिण मथुरा में द्राविड़ संघ को स्थापित किया। यथा सिरिपुज्जपादसोसो वाविष्टसंघस्स कारगो वुट्ठो। णामेण वज्जणंदी पाहुडवेदी महासत्तो॥२४॥ पंचसए छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्षिणमहुराजादो दाविडसंघो महामोहो ॥२८॥ इस प्रकार पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दी ने जब वि० सं० ५२६ में द्राविड संघ को स्थापित किया तब उन वज्रनन्दी के गुरु पूज्यपाद उनसे १५-२५ वर्ष पूर्व हो सकते हैं । १. पूरा पद्य इस प्रकार है वियोजयति चासुभिर्न वधेन संयुज्यते शिवं च न परोपमर्दपुरुषस्मृतेविद्यते । वधायतनमभ्युपैति च पराननिघ्नन्नपि त्वयाऽयमतिदुर्गमः प्रशमहेतुरुद्योतितः ।।-तृ० द्वात्रि०, १६ प्रन्थकारोल्लेख / ६३ Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके अतिरिक्त भट्टाकलंकदेव (८वीं शती) ने पूज्यपाद-विरचित सर्वार्थसिद्धि के बनेक वाक्यों को अपने तस्वार्थवार्तिक में उसी रूप में ग्रहण कर लिया है। जैसे "आत्मकर्मणोदम्योन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बन्धः।"-स० सि० १-४; त.वा. १,४,१७ "बास्रवनिरोधलक्षणः संवरः।"-स०सि० १-४, त०वा० १,४,१८ "एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा।"-स०सि० १-४; तवा० १,४,१६ "कृत्स्नकर्मविप्रयोगलक्षणो मोक्षः।"--स.सिं० १-४; त०वा०. १,४,२० "मयहितत्वात् प्रमाणस्य पूर्वनिपातः।"-स०सि० १-६; तवा० १,६,१; इत्यादि। इस स्थिति को देखते हुए यह भी सुनिश्चित है कि आ० पूज्यपाद, आ. अकलंकदेव के पूर्व हुए हैं, उनके पश्चावर्ती वे नहीं हो सकते। इससे सम्भावना यही है कि वे प्रायः छठी शताब्दी के विद्वान् रहे हैं। पूज्यपाद-विरचित ग्रन्थ आचार्य पूज्यपाद द्वारा रचे गये ये ग्रन्थ उपलब्ध है-१. जैनेन्द्रव्याकरण, २. सर्वार्थसिद्धि (तत्त्वार्थवृत्ति), ३. समाधितंत्र, ४. इष्टोपदेश और ५. सिद्धिप्रियस्तोत्र । 'दशभक्ति' को भी पूज्यपाद-विरचित माना जाता है। पं० पन्नालाल जी सोनी द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित 'क्रियाकलाप' में प्राकृत व संस्कृत में रची गयी सिद्धभक्ति व योगभक्ति आदि भक्तियां संगृहीत हैं, जिन पर प्रभाचन्द्राचार्य की टीका है। इस टीका में टीकाकार ने 'संस्कृताः सर्वा भक्तयः पादपूज्यस्वामिकृताः, प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृताः' ऐसा कहकर यह सचित किया है कि सभी संस्कृत-भक्तियाँ मा० पूज्यपाद के द्वारा और प्राकृत-भक्तियाँ कुन्दकुन्दाचार्य के द्वारा रची गयी हैं। - इनके अतिरिक्त शिलालेखों आदि से जिनाभिषेक, जैनेन्द्रन्यास, शब्दावतार, शान्त्यष्टक और किसी वैद्यकग्रन्थ के भी उनके द्वारा रचे जाने की सम्भावना की जाती है। ___ सारसंग्रह-जैसा कि पीछे (पृ०६०५ पर) 'ग्रन्थोल्लेख' के प्रसंग में कहा जा चकारी धवलाकार ने 'तथा सारसंग्रहेऽप्युक्तं पूज्यपादः' सूचना के साथ ग्रन्थ और ग्रन्थकार के नामनिर्देशपूर्वक नय के एक लक्षण को उद्धृत किया है।' इस नाम का कोई ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध नहीं है । धवलाकार के द्वारा किया गया यह 'पूज्यपाद' उल्लेख आचार्य देवनन्दी के लिए किया गया है या वैसे आदरसूचक विशेषण के रूप में वह अकलंकदेव आदि किसी अन्य आचार्य के लिए किया है, यह संदेहास्पद है। इसके पूर्व में भी धवला में "तथा पूज्यपावभट्टारकरप्यभाणि सामान्यनयलक्षणमिवमेव म निर्देश के साथ 'प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः' नय के इस लक्षण को उद्धत किया जा __ नय का यह लक्षण ठीक इन्हीं शब्दों में भट्टाकलंकदेव-विरचित तत्त्वार्थवार्तिक (१,३३,१। में उपलब्ध होता है। __ यदि 'सारसंग्रह' नाम का कोई ग्रन्थ है और वह भी आचार्य पूज्यपाद-विरचित, तो सम्भव है यह नय लक्षण भी उसी सारसंग्रह में रहा हो और वहीं से अकलंकदेव ने उसे तत्त्वार्थवार्तिक १. देखिए पु० ६, पृ० १६७ २. वही, पृ० १६५ ६६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में आत्मसात् किया हो । यह ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि अकलंकदेव ने पूज्यपाद-विरचित सर्वार्थसिद्धि के प्रचर वाक्यों को वार्तिक के रूप में अपने तत्त्वार्थवार्तिक में आत्मसात् किया है । अथवा यह भी सम्भव है कि धवलाकार ने 'पूज्यपाद' इस आदर-सूचक विशेषण के द्वारा आचार्य अकलंकदेव का ही उल्लेख किया हो । यह सब अभी अन्वेषणीय बना हुआ है। १३. प्रभाचन्द्र इनका उल्लेख धवला में पूर्वोक्त नयप्ररूपणा के प्रसंग में इस प्रकार किया गया है "तथा प्रभाचन्द्रभट्टारकरप्यभाणि -प्रमाणव्यपाश्रयपरिणामविकल्पवशीकृतार्थविशेषप्ररूपणप्रवणः प्रणिधिर्यः स नय इति ।"-धवला, पु०६, पृ० १६६ प्रभाचन्द्र नाम के अनेक आचार्य हुए हैं। उनमें से प्रस्तुत नय का लक्षण किस प्रभाचन्द्र के द्वारा और किस ग्रन्थ में निर्दिष्ट किया गया है, यह ज्ञात नहीं होता। इस लक्षण का निर्देश करनेवाले सुप्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् वे प्रभाचन्द्राचार्य तो सम्भव नहीं हैं, जिन्होंने परीक्षामुखसूत्रों पर विस्तृत 'प्रमेयकमल-मार्तण्ड' नाम की टीका और लघीयस्त्रय पर 'न्यायकुमुद-चन्द्र' नाम की विस्तृत टीका लिखी है। कारण यह कि वे प्रभाचन्द्र तो धवलाकार वीरसेनाचार्य के पश्चात् हुए हैं । स्व० पं० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य ने उनका समय ई० सन् ९६० से १०५५ निर्धारित किया है।' किन्तु धवला टीका इसके पूर्व शक संवत् ६३८ (ई० सन् ८१६) में रची जा चुकी थी। ___ महापुराण (आदिपुराण) की उत्थानिका में आ० जिनसेन ने अपने पूर्ववर्ती कुछ ग्रन्थकारों का स्मरण किया है । उनमें एक 'चन्द्रोदय' काव्य के कर्ता प्रभाचन्द्र भी हैं। सम्भव है, उपर्युक्त नय का लक्षण उन्हीं प्रभाचन्द्र के द्वारा निबद्ध किया गया हो । वह लक्षण धवला से अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुआ। १४. भूतबलि ये प्रस्तुत षट्खण्डागम के प्रथम जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत 'सत्प्ररूपणा' अनुयोगद्वार को छोड़कर उस जीवस्थान के द्रव्यप्रमाणानुगम को आदि लेकर आगे के समस्त ग्रन्थ के रचयिता हैं। वह सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार आचार्य पुष्पदन्त द्वारा रचा गया है। इनका साधारण परिचय पीछे आचार्य पुष्पदन्त के साथ कराया जा चुका है। इससे अधिक उनके विषय में और कुछ ज्ञात नहीं है। इनका उल्लेख धवला में अनेक बार किया गया है। जैसे--पु. १, पृ० ७१,७२ व २२६ । पु० ३, पृ० १०३,१३३ व २४३ । पु० १०, पृ० २०,४४,२४२ व २७४ । पु० १३, पृ० ३६ व ३८१ । पु० १४, पृ० १३४, ५४१ व ५६४ । पु० १५, पृ० १। १५. महावाचय, महावाचयखमासमण ये किसी आचार्य-विशेष के नाम तो नहीं रहे दिखते हैं । महावाचक या महावाचकक्षमाश्रमण के रूप में अतिशय प्रसिद्ध होने के कारण किसी ख्यातनामा आचार्य के नाम का उल्लेख न करके धवलाकार ने उनका इस रूप में उल्लेख किया है "महावाचया ट्ठिदिसंतकम्मं पयासंति ।"-धवला, पु० १६, पृ० ५७७ १. न्यायकुमुदचन्द्र २, प्रस्तावना, पृ० ४८-५८ द्रष्टव्य हैं। प्रत्यकारोल्लेख | ६५ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "महावाचयाणं खमासमणाणं उवदेसेण सव्वत्योवाणि कसाउदयट्ठाणाणि।" -धवला, पु० १६, पृ. ५७७ "महावाचयखमासमणा संतकम्ममग्गणं करेंति।"--धवला, पु० १६, पृ० ५७९ सम्भव है धवलाकार ने 'महावाचक' और 'महावाचक क्षमाश्रमण' के रूप में यहाँ आचार्य आर्यमंक्षु का उल्लेख लिया हो। १६. यतिवृषभ धवला में आचार्य यतिवृषभ का उल्लेख दो-तीन बार इस प्रकार किया गया है (१) केवलिसमुद्घात के प्रसंग में एक शंका का समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यतिवषभ के उपदेशानुसार क्षीणकषाय के अन्तिम समय में सभी अघातिया कर्मों की स्थिति समान नहीं रहती है, इसलिए सब केवली समुद्घात करके ही मुक्ति को प्राप्त करते हैं।' (२) जीवस्थान-चूलिका में प्रसंगप्राप्त एक शंका के समाधान में धवलाकार ने कहा है कि 'उपशामक' को मध्यदीपक मानकर शिष्यों के प्रतिबोधनार्थ 'यह (अन्तरकरण करने में प्रवृत्त अनिवृत्तिकरणसंयत) दर्शनमोहनीय का उपशामक है' ऐसा यतिवृषभ ने कहा है।' (३) वेदनाभावविधान में प्रसंगप्राप्त एक शंका के समाधान में 'कसायपाह' का उल्लेख करते हुए धवला में कहा गया है कि-'इस अर्थ को वर्धमान भट्टारक ने गौतम स्थविर को कहा। गौतम के पास वह अर्थ आचार्य-परम्परा से आकर गुणधर भट्टारक को प्राप्त हुआ। उनके पास से वही अर्थ आचार्यपरम्परा से आता हुआ आर्य मंक्षु और नागहस्ती के पास आया। इन दोनों ने उसका व्याख्यान यतिवृषभ भट्टारक को किया । यतिवृषभ ने उसे अनुभागसंक्रम के प्रसंग में चूर्णिसूत्र में लिखा' । यतिवृषभ का व्यक्तित्व ऊपर के इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि आचार्य यतिवृषभ कर्मसिद्धान्त के गम्भीर ज्ञाता रहे हैं । जयधवला टीका को प्रारम्भ करते हुए आ० वीरसेन ने उनकी स्तुति में उन्हें वृत्तिसूत्रों (चूर्णिसूत्रों) का कर्ता कहकर उनसे वर की याचना की है तथा यह भी स्पष्ट किया है कि वे थार्यमंक्षु के शिष्य और नागहस्ती के अन्तेवासी रहे हैं । यथा जो अज्जमखुसीसो अंतेवासी वि णागहत्थिस्स । सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो में वरं देऊ ।।-गाथा ८ वृत्तिसूत्र के लक्षण का निर्देश करते हुए जयधवला में कहा गया है कि सूत्र की जिस व्याख्या में शब्द-रचना तो संक्षिप्त हो, पर जो सूत्र में अन्तहित समस्त अर्थ की संग्राहक हो, उसका नाम वृत्तिसूत्र है। धवलाकार ने अनेक प्रसंगों पर यतिवृषभ-विरचित उन वृत्तिसूत्र या चूणिसूत्रों का उल्लेख १. धवला, पु० १, पृ० ३०२ २. धवला, पु० ६, पृ० २३३ ३. वही, पु० १२, पृ० २३०-३२ ४. सुत्तस्सेव विवरणाए संखित्तसद्दरयणाए संगहियसुत्तासेसत्याए वित्तिसुत्तववएसादो। -क०पा० सुत्त, प्रस्तावना, पृ० १५ '६८६/ षट्ण्डागम-परिशीलन Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहर, पाहुस्सुत्त आदि अनेक नामों से किया है-यह पीछे विस्तार से स्पष्ट किया जा चुका है। धवलाकार का आ० यतिवृषभ और उनके चूर्णिसूत्रों के प्रति अतिशय आदरभाव रहा है। उनके समक्ष जहाँ कहीं भी चूर्णिसूत्रों के साथ मतभेद या विरोध का प्रसंग उपस्थित हुआ है, धवलाकार ने उनके शंका-समाधानपूर्वक उनकी सूत्ररूपता को षट्खण्डागम सूत्रों के ही समान, अखण्डनीय सिद्ध किया है।' इस सबको 'ग्रन्थोल्लेख' में फसायपाहर के प्रसंग में देखा जा सकता है। कृतियों प्रस्तुत कषायप्राभूतचूर्णि के अतिरिक्त 'तिलोयपण्णत्ती' को भी आ० यतिवृषभ-विरचित माना जाता है। तिलोयपण्णत्ती में लोक के अन्तर्गत विविध विभागों की अतिशय व्यवस्थित प्ररूपणा के अतिरिक्त अन्य भी अनेक प्रासंगिक विषयों की प्ररूपणा की गयी है। जैसेपौराणिक व बीस प्ररूपणाओं आदि सैद्धान्तिक विषयों का विवेचन । इन विषयों का विवेचन वहाँ अतिशय प्रामाणिकता के साथ लोकविभाग व लोकविनिश्चय आदि कितने ही प्राचीनतम ग्रन्थों के आश्रय से किया गया है तथा व्याख्यात विषय की उनके द्वारा पुष्टि की गयी है। इससे ग्रन्थकार यतिवृषभ की बहुश्रुतशालिता का परिचय प्राप्त होता है। समय ___यतिवृषभाचार्य के समय के विषय में विद्वानों में एक मत नहीं है। कुछ तथ्यों के आधार पर यतिवृषभ के समय की कल्पना ४७३-६०६ ईस्वी के मध्य की गयी है।' १७. व्याख्यानाचार्य जो प्रसंगप्राप्त प्रतिपाद्य विषय का व्याख्यान अतिशय कुशलतापूर्वक किया करते थे उन व्याख्यानकुशल आचार्यों की प्रसिद्धि व्याख्यानाचार्य के रूप में रही है। धवला में व्याख्यानाचार्य का उल्लेख दो बार हुआ है । यथा (१) जीवस्थान-अन्तरानुगम में अवधिज्ञानियों के अन्तर की प्ररूपणा के प्रसंग में अन्य कुछ शंकाओं के साथ एक यह भी शंका उठायी गयी है कि जिन्होंने गर्भोपक्रान्तिक जीवों में अड़तालीस पूर्वकोटि वर्षों को बिंता दिया है उन जीवों में अवधिज्ञान को उत्पन्न कराकर अन्तर को क्यों महीं प्राप्त कराया । इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि उनमें अवधिज्ञान की सम्भावना के प्ररूपक व्याख्यानाचार्यों का अभाव है । (पु० ५ पृ० ११६) (२) एक अन्य उल्लेख धवला में देशावधि के द्रव्य-क्षेत्रादि-विषयक विकल्पों के प्रसंग में इस प्रकार किया गया है___ "सणिण सण्णिमव्वामोहो अणाउलो समचित्तो सोदारे संबोहेंतो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तदव्वभाववियप्पे उप्पाइय वक्खाणाइरिओ (?) खेत्तस्स चउत्थ-पंचम-छट्ठ-सत्तम-पहुडि जाव १. उदाहरण के रूप में कपा० सुत्त पृ० ७५१, चूणि १६५-६६ और धवला पु० १, पृ. २१७-२२, में आठ कषायों और स्त्यानगद्धित्रय आदि सोलह प्रकृतियों के क्षय के पूर्वा परक्रमविषयक प्रसंग को देखा जा सकता है। २. देखिए ति०प०, भाग २ की प्रस्तावना, पृ० १५-२० प्रन्थकारोल्लेख / ६८५ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ते ओहिखेत्तवियप्पे उप्पाइय तदो जहण्णकालस्सुवरि एगो समा वड्ढावेदव्यो।"-पु. ६, पृ० ६० (पाठ कुछ स्खलित हुआ दिखता है) १८. आचार्य समन्तभद्र षट्खण्डागम के चतुर्थ खण्डभूत 'वेदना' के प्रारम्भ (कृति अनुयोगद्वार) में ग्रन्थावतार विषयक प्ररूपणा करते हुए धवलाकार ने नय-प्ररूपणा के प्रसंग में 'तथा समन्तभद्रस्वामिनाप्युक्तम्' इस सूचना के साथ आचार्य समन्तभद्र-विरचित आप्तमीमांसा की इस कारिका को उद्धृत किया है स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नयः॥ इसके पूर्व में वहाँ 'क्षुद्रकबन्ध' खण्ड के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों में से प्रथम 'स्वामित्वानुगम' में दर्शन के अस्तित्व को सिद्ध करते हुए धवलाकार ने उस प्रसंग से 'तहा समंतभह सामिणा वि उत्तं' ऐसा निर्देश करके स्वयम्भूस्तोत्र के "विधिविषक्तप्रतिषेधरूपः" इत्यादि पद्य को उद्धृत किया है। समन्तभद्र-परिचय ___ आचार्य समन्तभद्र एक महान् प्रतिभाशाली तार्किक विद्वान् रहे हैं। उन्होंने तर्कपूर्ण अनेक स्तुतिपरक ग्रन्थों को रचा है। ये ग्रन्थ शब्द-रचना में अतिशय संक्षिप्त होकर भी अपरिमित अर्थ से गर्भित, गम्भीर व दुरूह रहे हैं । इन ग्रन्थों में केवल ११४ श्लोकस्वरूप 'देवागमस्तोत्र' (आप्तमीमांसा) पर भट्टाकलंकदेव ने 'अष्टशती' नाम की टीका और आचार्य विद्यानन्द ने 'अष्टसहस्री' नाम की विस्तृत टीका को रचा है । इस प्रकार १६५ पद्यात्मक 'युक्त्यनुशासन' पर भी आ० विद्यानन्द ने टीका रची है । टीकाकार आचार्य अकलंकदेव और विद्यानन्द बहुमान्य विख्यात दार्शनिक विद्वान् रहे हैं। इन टीकाओं के बिना उन स्तुत्यात्मक ग्रन्थों के रहस्य को समझना भी कठिन रहा है। समन्तभद्र केवल तार्किक विद्वान् ही नहीं रहे हैं, अपितु कवियों के शिरोमणि भी वे रहे हैं। इसका ज्वलन्त उदाहरण उनके द्वारा विरचित 'स्तुतिविद्या' (जिनशतक) है। यह उनका चित्रबन्ध काव्य मुरजबन्ध आदि अनेक चित्रों से अलंकृत है, श्लेषालंकार व यमकालंकार आदि शब्दालंकारों का इसमें अधिक उपयोग हुआ है । अनेक एकाक्षरी पद्य भी इसमें समाविष्ट हैं। यह कवि की अनुपम काव्यकुशलता का परिचायक है। इस चित्रमय काव्य की रचना-शैली को देखते हुए यह भी निश्चित है कि उनकी व्याकरण में भी अस्खलित गति रही है । जैनेन्द्रव्यारण में 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' इस सूत्र (५,४,१६८) के द्वारा जो समन्तभद्र के मत को प्रकट किया गया है वह भी उनकी व्याकरणविषयक विद्वत्ता का अनुमापक है। जैनेन्द्रप्रक्रिया (सूत्र १,१-४३, पृ० १४) में 'आर्येभ्यः (आ आर्येभ्यः) यशोगतं १. धवला, पु० ६, पृ० १६७ २. पूरी कारिका इस प्रकार है सधर्मणव साध्यस्य साधादविरोधतः । स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नयः ।।-आ० मी० १०६ ३. देखिए धवला, पु० ७, पृ० ६६ व स्वयम्भस्तोत्र, ५२ ५८८ / षट्समागम-परिशीलन Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रीयम्' यह जो उदाहरण दिया गया है वह भी यश के प्रसार की कारणभूत उनकी अनेक विषयोन्मुखी प्रतिभा का द्योतक है । जीवन-वृत्त आचार्य समन्तभद्र के जन्म स्थान, माता-पिता और शिक्षा-दीक्षा आदि के विषय में कुछ भी परिचय प्राप्त नहीं है । स्वयं समन्तभद्र ने अपनी किसी कृति में श्लेष रूप में नामनिर्देश' के सिवाय कुछ भी परिचय नहीं दिया । श्रवणबेलगोल. के दौर्बलि जिनदास शास्त्री के भण्डार में ताडपत्रों पर लिखित आप्तमीमांसा की एक प्रति पायी जाती है । उसके अन्त में यह सूचना दी गयी है - " इति फणिमण्डलालंकारस्योरगपुराधिपसूनोः श्रीस्वामिसमन्तभद्रमुनेः कृतौ आप्तमीमांसायाम् ।" इससे इतना मात्र परिचय मिलता है कि समन्तभद्र मुनि जन्म से क्षत्रिय थे, उनका जन्मस्थान फणिमण्डल के अन्तर्गत उरगपुर था तथा पिता इस नगर के अधिपति रहे । इससे यह भी ज्ञात होता है कि स्वामी समन्तभद्र राजपुत्र रहे हैं। पर उपर्युक्त पुष्पिका वाक्य में कितनी प्रामाणिकता है, यह कहा नहीं जा सकता । समन्तभद्र - विरचित 'स्तुतिविद्या' का ११६वीं पद्य चक्रवृत्तस्वरूप है। उसकी चक्राकृति में बाहर की ओर से चौथे वलय में 'जिनस्तुतिशतं स्तुति-विद्या का यह दूसरा नाम उपलब्ध होता है । इसी प्रकार उसके सातवें वलय में 'शान्तिवर्मकृतं' यह ग्रन्थकार का नाम उपलब्ध होता है । इससे ज्ञात होता है कि स्तुतिविद्या अपरनाम जिनस्तुतिशतक के रचयिता आ० समन्तभद्र का 'शान्तिवर्मा' नाम जिन-दीक्षा लेने से पूर्व प्रचलित रहा है । 'राजावलीकये' में उनका जन्म स्थान 'उत्कलिका' ग्राम कहा गया है।" आचार्य समन्तभद्र के जीवन से सम्बन्धित इससे कुछ अधिक प्रामाणिक परिचय प्राप्त नहीं है । गुणस्तुति आ० समन्तभद्र आस्थावान् जिनभक्त, परीक्षाप्रधानी, जैनदर्शन के अतिरिक्त बोद्ध व नैयायिक - वैशेषिक आदि अन्य दर्शनों के भी गम्भीर अध्येता, जैनशासन के महान् प्रभावक, वादविजेता और विशिष्ट संयमी रहे हैं; यह उनकी कृतियों से ही सिद्ध होता है । यथा - जिनभक्त — उनकी सभी कृतियाँ प्रायः (रत्नकरण्डक श्रावकाचार को छोड़कर) जिनभक्तिप्रधान हैं, जिनमें जिनस्तुति के रूप में नयविवक्षा के अनुसार जिन प्रणीत तत्त्वों का विचार करते हुए इतर दर्शनसम्मत तत्त्वों का सयुक्तिक निराकरण किया गया है। यही उनके जिनभक्त होने का प्रमाण है। उनकी जिन भक्ति का नमूना देखिए १. यथा - ( १ ) तव देवमतं समन्तभद्रं सकलम् ॥ स्वयम्भू स्तोत्र १४३ (२) त्वयि ध्रुवं खण्डितमानश्रृंगो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ।। २. देखिए 'स्वामी समन्तभद्र' पृ० ४-५ - युक्त्यनुशासन, ६३ प्रथकारोल्लेख / ६८९ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः स्तोतः साधोः कुशलपरिणामाय स सदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रेयसपथे स्तुयान्न त्वा विद्वान् सततमभिपूज्यं नमिजिनम् ।। -स्वयम्भू०, ११६ वे कहते हैं—हे नमि जिन ! स्तुति के योग्य (जिन-आदि) समक्ष हों, न भी हों; उनके रहते हुए फल भी प्राप्त हो, न भी हो; किन्तु स्तोता के द्वारा अन्तःकरण से की गयी स्तुति निर्मल परिणामों की कारणभूत होने से पुण्यवर्धक ही होती है । इस प्रकार कल्याणकर मार्ग के अनायास सुलभ होने पर कौन-सा ऐसा विद्वान् है जो सतत पूज्य आप नमिजिन की स्तुति न करे ? आत्महितषी विवेकी जन ऐसे वीतराग प्रभु की स्तुति किया ही करते हैं। __ इसके पूर्व भगवान् वासुपूज्य जिन की स्तुति (५७) में भी उन्होंने अपना यही अभिप्राय अभिव्यक्त किया है। आस्थावान्-उनके दृढ़ श्रद्धानी होने का भी प्रमाण द्रष्टव्य है सुश्रद्धा मम ते मते स्मतिरपि त्वय्यर्चनं चापि ते हस्तावञ्जलये कथाश्रुतिरतः कर्णोऽक्षि संप्रेक्षते। सुस्तुत्यां व्यसनं शिरो नतिपरं सेवेदशी येन ते तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृती तेनैव तेजःपते ॥ -स्तुतिविद्या, ११४ समन्तभद्र की वीतराग जिनदेव पर कितनी आस्था-दृढ़ श्रद्धा-थी, यह इस पद्य से सुस्पष्ट है । वे कहते हैं- हे भगवन् ! मेरी समीचीन या अतिशयित श्रद्धा आपके मत परआपके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वों पर है, स्मरण भी मैं सदा आपका करता हूँ, पूजा भी आपकी ही करता हूँ, मेरे दोनों हाथ आपको नमस्कार करने में व्यापृत रहते हैं, कान मेरे आपकी कथावार्ता में निरत रहते हैं, नेत्र आपके दर्शन के लिए उत्सुक रहते हैं, आपकी स्तुति के रचने की मेरी आदत बन गयी है, तथा मेरा सिर आपके लिए नमस्कार करने में तत्पर रहता है। इस प्रकार से चूंकि मैं आपकी सेवा (आराधना)कर रहा हूँ, इसलिए है केवलिज्ञान रूप तेज से सुशोभित देवाधिदेव ! मैं तेजस्वी, सुजन और पुण्यशाली हूँ। तात्पर्य यह है कि आचार्य समन्तभद्र ने जिनदेव पर निश्चल श्रद्धा व गुणानुराग होने से उनके आराधन में अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया था। यह यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य है कि स्वामी समन्तभद्र ने जिन भगवान् के प्रति अपनी सामान्य श्रद्धा को नहीं, अपितु 'सुश्रद्धा' को व्यक्त किया है। जिसका अभिप्राय शंका आदि पच्चीस दोषों से रहित निर्मल श्रद्धान है। इसी का नाम है दर्शन-विशुद्धि । इसी अभिप्राय को उन्होंने अपने रत्नकरण्डक में इस प्रकार से व्यक्त कर दिया है भयाशा-स्नेह-लोभाच्च कुवेवागम-लिगिनाम् । प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ।।-र०क० ३० थे दूसरों को भी इस ओर प्रेरित करते हुए कहते हैं कि जो निर्मल सम्यग्दृष्टि हैं उन्हें भय, धनादि की आशा, स्नेह और लोभ के वश होकर कभी भी कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु को प्रणाम ६९० / पट्खण्डागम-परिशीलन Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा उनकी विनय - पूजा आदि नहीं करनी चाहिए। इसके उदाहरण भी स्वयं समन्तभद्र ही हैं । यह स्मरणीय है कि जिन-दीक्षा लेकर मुनि समन्तभद्र निरतिचार अट्ठाईस मूलगुणों का परिपालन करते हुए ज्ञान व संयम के आराधन में उद्यत रहते थे । इस बीच उन्हें अशुभकर्म के उदय से भस्मक रोग उत्पन्न हो गया था । यह एक ऐसा भयानक रोग है कि इससे पीड़ित प्राणी प्रचुर मात्रा में भी नीरस भोजन को लेता हुआ उसे शान्त नहीं कर सकता है । उसकी शान्ति के लिए प्रचुर मात्रा में कंफ को बढ़ानेवाला गरिष्ठ भोजन मिलना चाहिए । पर मुनि धर्म का पालन करते हुए समन्तभद्र के लिए वह शक्य नहीं था । इससे उन्होंने सल्लेखना ग्रहण करने का विचार किया । पर गुरु ने उसके लिए उन्हें आज्ञा नहीं दी । उन्हें उनकी अविचल तत्त्वश्रद्धा पर विश्वास था, तथा यह भी वे समझते थे कि भविष्य में इसके द्वारा जैन शासन को विशेष लाभ हो सकेगा । इसी से उन्होंने सल्लेखना न देकर यह कह दिया कि जिस किसी भी प्रकार से तुम इस रोग को शान्त कर लो और तब फिर से दीक्षा लेना । इस पर समन्तभद्र ने सोचा कि इस जिनलिंग में रहते हुए एषणासमिति विरुद्ध घृणित उपायों से गरिष्ठ भोजन को प्राप्त कर रोग को शान्त करना उचित न होगा । इसी सद्भावना से उन्होंने मुनि-वेष को छोड़कर तापस का वेष धारण कर लिया और उस वेष में 'कांची' जाकर 'भीमलिंग' नामक शिवालय में जा पहुँचे । इस शिवालय में प्रतिदिन विपुल भोजन का उपयोग होता था । यह भोजन शिव के लिए अर्पित किया जा सकता है, ऐसा भक्तजनों को आश्वासन देकर गर्भालय का द्वार बन्द करके समन्तभद्र उसे स्वयं ग्रहण करने लगे । इस प्रकार उत्तरोत्तर रोग के शान्त होने पर जब भोजन बचने लगा तब राजा शिवकोटि को सन्देह उत्पन्न हो गया । इससे उन्हें भयभीत किया गया । पर दृढ़ श्रद्धालु समन्तभद्र भयभीत होकर स्थिर श्रद्धा से विचलित नहीं हुए । उन्होंने तब स्वयम्भूस्तोत्र की रचना की । इस प्रकार धर्म के प्रभाव से शिवमूर्ति के स्थान में चन्द्रप्रभ जिन की मूर्ति प्रकट हुई। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, उन्हें 'स्तुति' का ऐसा ही व्यसन रहा है ।' इस प्रकार से राजा और अन्य दर्शक उससे प्रभावित होकर यथार्थ धर्म की ओर आकृष्ट हुए । समन्तभद्र पुन: दीक्षा लेकर स्व-पर के कल्याणकारक मुनिधर्म का पूर्ववत् निर्दोष रीति से पालन करने लगे । परीक्षा प्रधानी—समन्तभद्राचार्य की कृतियों से यह भी स्पष्ट है कि उन्होंने जो भी यथार्थ धर्म का आचरण किया है व जिनेन्द्र की भक्ति की है वह प्रचलित विभिन्न दर्शनों के अध्ययनपूर्वक उनकी परीक्षा करके आश्वस्त होकर ही की है, अन्धविश्वास से नहीं । उनका 'देवागमस्तोत्र' (आप्तमीमांसा) इसी परीक्षाप्रधानता की दृष्टि से रचा गया है । इसमें उन्होंने भगवान् महावीर के महत्त्वविषयक देवागमादि रूप प्रश्नों को उठाकर उनसे प्राप्त होनेवाले महत्त्व का निराकरण किया है । अन्त में उन्होंने उनकी वीतरागता और सर्वज्ञता पर आश्वस्त होकर उन्हें निर्दोष व युक्ति एवं आगम से अविरुद्ध वक्ता स्वीकार करते हुए प्रचलित १. विशेष जानकारी के लिए देखिए 'स्वामी समन्तभद्र' में 'मुनिजीवन और आपत्काल' शीर्षक, पु० ७३ ११४ ग्रन्थकारोल्लेख / ६६१ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध एकान्तवादों की समीक्षा की है । ' अन्त में उन्होंने वहाँ यह स्पष्ट कर दिया है कि यह जो मैंने आप्त की परीक्षा की है वह आत्महितैषियों के लिए समीचीन और मिथ्या उपदेश के अर्थ (रहस्य) का विशेष रूप से बोध हो जाय, इसी अभिप्राय से की है । यथा इतीयमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छताम् । सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये ॥ ११४॥ इस प्रकार से समन्तभद्र जब वीर जिन (आप्त) की परीक्षा कर चुके, तब उन्होंने आप्त माने जानेवाले अन्यों में असम्भव वीर जिन की वीतरागता व सर्वज्ञता पर मुग्ध होकर 'युक्त्यनुशासन' के रूप में उनकी स्तुति को प्रारम्भ कर दिया। उसे प्रारम्भ करते हुए वे कहते हैंकी महत्या भुवि वर्धमानं त्वां वर्धमानं स्तुतिगोचरत्वम् । निनीषवः स्मो वयमद्य वीरं विशीर्णदोषाशय-पाशबन्धम् ॥ - युक्त्यनुशासन, १ इसमें वे भगवान् महावीर को लक्ष्य करके कहते हैं कि हे वीर जिन ! आपने अज्ञानादि दोषों ( भावकर्म) और उनके आधारभूत ज्ञानावरणादि रूप आशयों (द्रव्यकमं) स्वरूप पाश के बन्धन को तोड़ दिया है, इसीलिए आपका मान - केवलज्ञानरूप प्रमाण- - वृद्धिंगत हुआ है, उस केवलज्ञान के प्रभाव से आप समवसरणभूमि में महती कीर्ति से—युक्ति और आगम से अविरुद्ध दिव्य वाणी के द्वारा - समस्त प्राणियों के मन को व्याप्त करते हैं; इसीसे हम उत्कण्ठित होकर आपकी स्तुति में प्रवृत्त हुए हैं। अभिप्राय यह है कि आचार्य समन्तभद्र ने मुमुक्षु भव्यजनों के लिए प्रथमतः आप्त-अनाप्त की परीक्षा करके यथार्थ उपदेष्टा का बोध कराया है और तत्पश्चात् वे उसे ही स्तुत्य बताकर उसकी स्तुति में प्रवृत्त हुए हैं। इस प्रकार आप्त-अनाप्त के गुण-दोषों का विचार करते हुए आप्त की स्तुति में प्रवृत्त होकर भी स्वामी समन्तभद्र राग-द्वेष से कलुषित नहीं हुए, इसे भी उन्होंने स्तुति के अन्त में इस प्रकार अभिव्यक्त कर दिया है न रागान्नः स्तोत्र भवति भव- पाशच्छिदि मुनी न चान्येषु द्वेषादपगुणकथाभ्यासखलता । किमु न्यायान्यायप्रकृतगुणदोषज्ञमनसां हितान्वेषोपायस्तव गुणकथासंगगदितः ॥ युक्त्यनु०, ६४ वे अपने इस स्तुतिविषयक अभिप्राय को प्रकट करते हुए कहते हैं—आपने संसाररूप पाश को छेद दिया है, इसलिए हमने उसी संसाररूप पाश के छेदने की इच्छा से प्रेरित होकर यह आपका स्तवन किया है, न कि राग के वशीभूत होकर । इसी प्रकार आप्त के लक्षण से रहित अन्य आप्ताभासों के अपगुणों का जो विचार किया है वह भी द्वेष के वशीभूत होकर खलभाव से नहीं किया । किन्तु जो मुमुक्षु जन अन्तःकरण से न्याय-अन्याय और गुण-दोषों को १. देखिए आप्तमीमांसा ( देवागमस्तोत्र ) १-८ २. इसकी आ० विद्यानन्द - विरचित उत्थानिका द्रष्टव्य है— श्रीसमन्तस्वामिभिराप्तमीमांसायामन्ययोगव्यवच्छेदाद् व्यवस्थापितेन भगवता श्रीमदार्हताऽन्त्यतीर्थंकर - परमदेवेन मां परीक्ष्य किं चिकीर्षवो भवन्तः इति पृष्टा इव प्राहुः । - युक्त्यनु० ( सटीक ), पृ० १ १२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान लेना चाहते हैं उनके लिए आपके इस गुण-कीर्तन के आश्रय से हित के खोजने का उपाय बता दिया है। इतर दर्शनों के अध्येता-पूर्वनिर्दिष्ट आप्तमीमांसा में आगे आ० समन्तभद्र ने भाव-अभाव, भेद-अभेद, नित्य-अनित्य तथा कार्य-कारण आदि के भेद-अभेद-विषयक एकान्त का जिस बुद्धिमत्ता से निराकरण किया है व अनेकान्तरूपता को प्रस्थापित किया है, वह उन सर्वथकान्तवादों के गम्भीर अध्ययन के बिना सम्भव नहीं था। इससे सिद्ध है कि वे इतर दर्शनों के भी गम्भीर अध्येता रहे हैं। ___जनशासनप्रभावक-आ० समन्तभद्र ने अपने उत्कृष्ट ज्ञान, तप और संयम आदि के द्वारा जैनशासन की उल्लेखनीय प्रभावना की है। भस्मक रोग से आक्रान्त होने पर उन्होंने जिस साहस के साथ उसे सहन किया तथा जनशासन पर अडिग श्रद्धा रखते हुए उसे जिस कुशलता से शान्त किया और उपद्रव के निर्मित होने पर जिनभक्ति के बल से उसे दूर करते हुए अनेक कुमार्गगामियों के लिए सन्मार्ग की ओर आकर्षित किया; यह सब जैनशासन की प्रभावना का ही कारण हुआ है। इसके अतिरिक्त उनकी देवागमस्तोत्र आदि कृतियां भी जैनशासन की प्रभावक बनी हुई हैं । समन्तभद्र ने जनशासन की प्रभावना के लक्षण में स्वयं भी यह कहा है कि जैनशासन-विषयक अज्ञानरूप अन्धकार को हटाकर जिन-शासन की महिमा को प्रकाश में लाना, यह प्रभावना का लक्षण है। वाद-विजेता-जिन-शासन पर अकाट्य श्रद्धा रहने के कारण समन्तभद्राचार्य ने अपने गम्भीर ज्ञान के बल पर अनेक वादों में विजय प्राप्त की है। समीचीन मार्ग के प्रकाशन के हेतु वे वाद के लिए भी उद्यत रहते थे। इसके लिए वे अनेक नगरों में पहुंचे थे व वाद करके उसमें विजय प्राप्त की थी। इसके लिए यहाँ केवल एक उदाहरश दिया जाता है। श्रवणबेलगोल के एक शिलालेख (५४) के अनुसार करहाटक (करहाड) पहुंचने पर समन्तभद्र ने वहाँ के राजा को अपना परिचय इस प्रकार दिया है पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता पश्चान्मालव-सिन्धु-ठक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कटं संकटं वावार्थी विचराम्यहं मरपते शार्दूलविक्रीडितम् ।। तदनुसार वे वाद के लिए उत्सुक होकर पाटलिपुत्र (पटना), मालवा, सिन्धु, ठक्कदेश, कांचीपुर, वैदिश (विदिशा) और करहाटक में पहुंचे थे। उनके लिए वाद करना सिंह के खेल के समान रहा है । यथार्थ तत्त्व के वेत्ता होने से उन्हें वाद में कहीं संकट उपस्थित नहीं हुआ, सर्वत्र उन्होंने उसमें विजय ही प्राप्त की। उन्हें वाद में रुचि रही है, यह उनके इन स्तुतिवाक्यों से भी ध्वनित है पुनातु घेतो मम नाभिमन्दनो जिनो जितक्षुल्लकवादिशासनः ।।- स्वयम्भू०, ५ स्वपक्षसौस्थित्यमदावलिप्ता वाक्-सिंहनादेविमदा बभूवुः। प्रवादिनो यस्य मदागण्डा गजा यथा केशरिणो निनावैः ।।-स्वयम्भू० ३८ १. आप्तमीमांसा कारिका : आदि अन्त तक । २. रत्नकरण्डश्रावकाचार, १८ प्रन्थकारोल्लेख / ६६३ Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्य पुरस्ताद विगलितमाना न प्रतितीर्ध्या भुवि विवदन्ते ॥१०॥ त्वयि ज्ञानज्योतिर्विभवकिरण ति भगव न्मभूवन् सद्योता इव शुचिरवावन्यमतयः ॥-स्वयम्भू०, ११७ गुण-कीर्तन समन्तभद्र के पश्चाद्वर्ती अनेक ग्रन्थकारों ने उनके विविध गुणों की प्रशंसा की है। यथा (१) आठवीं शती के प्रख्यात विद्वान् आ० अकलंकदेव ने आ० समन्तभद्र-विरचित देवागमस्तोत्र की वृत्ति (अष्टशती) को प्रारम्भ करते समय उन्हें नमस्कार करते हुए उसकी व्याख्या करने की प्रतिज्ञा की है व उनकी विशेषता को प्रकट करते हुए उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि आ० समन्तभद्र यति ने इस कलिकाल में भी भव्य जीवों की निष्कलंकता के लिएउनके कर्मकालुष्य को दूर करने के लिए समस्त पदार्थों को विषय करनेवाले स्यावादरूप पवित्र तीर्थ को प्रभावित किया है । वह पद्य इस प्रकार है तीर्थ सर्वपदार्थतत्त्वविषयस्याद्वादपुण्योदधे*व्यानामकलंकभावकतये प्राभावि काले कलौ। येनाचार्यसमन्तभद्रयतिना तस्मै नमः सन्ततं कृत्वा विवियते स्तवो भगवतां देवागमस्तत्कृतिः ।। (२) इसी 'देवागमस्तोत्र' पर उपर्युक्त 'अष्टशती' से गर्भित 'अष्टसहस्री' नाम की टीका के रचयिता आचार्य विद्यानन्द ने समन्तभद्र की वाणी को विशिष्ट विद्वानों के द्वारा पूज्य, सूर्यकिरणों को तिरस्कृत करनेवाली सप्तभंगी के विधान से प्रकाशमान, भाव-अभावादि विषयक एकान्तरूप मनोगत अन्धकार को नष्ट करनेवाली और निर्मल ज्ञान के प्रकाश को फैलानेवाली कहा है। साथ ही, उन्होंने आशीर्वाद के रूप में यह भी कहा है कि वह समन्तभद्र की वाणी आप सबके निर्मल गुणों के समूह से प्रादुर्भूत कीर्ति, समीचीन विद्या (केवलज्ञान) और सुख की वृद्धि एवं समस्त क्लेशों के विनाश के लिए हो। यथा-- प्रज्ञाधीशप्रपूज्योज्ज्वलगुगनिकरोद्भूतसत्कीतिसम्पन्विद्यानन्दोदयायानवरतमखिलक्लेशनिर्णाशनाय । स्ताद गौः सामन्तभद्री दिनकररुचिजित्सप्तभंगीविधीला भावाब कान्तचेतस्तिमिरनिरसनी वोऽकलंकप्रकाशा ।। इसमें आ० विद्यानन्द ने श्लेषरूप में अपने नाम के साथ 'अष्टशती' के रचयिता भट्टाकलंकदेव के नाम को व्यक्त कर दिया है। (३) हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेनाचार्य ने जीवसिद्धि के विधायक और असिद्धविरुद्धादि दोषों से रहित युक्तियुक्त समन्तभद्र के वचन को वीर जिन के वचन के समान प्रकाशमान बतलाया है । यथा जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम् । वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते ॥१-२६।। यहाँ 'जीवसिद्धिविधायी' से ऐसा प्रतीत होता है कि समन्तभद्र के द्वारा जीव के अस्तित्व ६६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का साधक कोई ग्रन्थ रचा गया है जो वर्तमान में अनुपलब्ध है । दूसरे, 'युक्त्यनुशासनस्तोत्र' की भी सूचना की गयी जो वर्तमान में उपलब्ध है व जिसपर विद्यानन्दाचार्य के द्वारा टीका भी लिखी गयी है । इस टीका को प्रारम्भ करते हुए आ० विद्यानन्द ने मंगल के रूप में समन्तभद्र-विरचित उस युक्त्यनुशासनस्तोत्र को प्रमाण व नय के आश्रय से वस्तुस्वरूप का निर्णय करनेवाला होने से अबाधित कहा है व इस प्रकार से उसका जयकार भी किया है प्रमाण-नयनिर्णीतवस्तुतत्त्वमबाधितम् । जीयात् समन्तभद्रस्य स्तोत्रं युक्त्यनुशासनम् ।। (४) आदिपुराण के कर्ता आ० जिनसेन ने कहा है कि समन्तभद्राचार्य का यश कवि, गमक, वादी और वाग्मी जनों के सिर पर चूड़ामणि के समान सुशोभित होता था। अभिप्राय यह कि आचार्य समन्तभद्र के कवित्व, गमकत्व, वादित्व और वाग्मित्व ये चार गुण प्रकर्ष को प्राप्त थे। आगे उन जिनसेनाचार्य ने समन्तभद्र को 'कविवेधा'-कवियों का स्रष्टा-कहकर उन्हें नमस्कार करते हुए यह भी कहा है कि उनके वचनरूप वज्र के पड़ने से कुमतरूप पर्वत ढह जाते थे। इससे उनके कवित्व और वादित्व गुण प्रकट हैं।' (५) लगभग इसी अभिप्राय को प्रकट करते हुए कवि वादीभसिंह ने भी 'गद्यचिन्तामणि' में कहा है कि समन्तभद्र आदि मुनीश्वर सरस्वती के स्वच्छन्द विहार की भूमि रहे हैं। उनके ' वचनरूप वज्र के गिरने पर मिथ्यावादरूप पर्वत खण्ड-खण्ड हो जाते थे । (६) आचार्य वीरनन्दी ने अपने 'चन्द्रप्रभचरित' में आ० समन्तभद्र आदि की वाणी को मोतियों के हार के समान दुर्लभ बतलाया है। (७) वादिराज मुनि ने स्वामी समन्तभद्र का चरित सभी के लिए आश्चर्यजनक बतलाते हुए कहा है, कि उनके 'देवागमस्तोत्र' द्वारा आज भी सर्वज्ञ दृष्टिगोचर हो रहा है। (८) आचार्य वसुनन्दी सैद्धान्तिक ने 'देवागमस्तोत्र' की वृत्ति को प्रारम्भ करते हुए समन्तभद्र के मत की वन्दना की है और अनेक विशेषण विशिष्ट उसे कालदोष से भी रहित बतलाया है-इस कलिकाल में भी उन्होंने जनशासन को प्रभावशाली किया है, इस प्रकार की उनकी विशेषता को प्रकट किया है ।। (E) 'ज्ञानार्णव' के कर्ता शुभचन्द्राचार्य ने उन्हें कवीन्द्रों में सूर्य बतलाकर यह कहा है कि उनकी सूक्तिरूपी किरणों के प्रकाश में अन्य कवि जुगुनू के समान हँसी के पात्र बनते थे। इसी प्रकार से वादिराज सूरि ने 'यशोधरचरित' में, वर्धमानसूरि ने 'वरांगचरित' में और अजितसेन ने 'अलंकार-चिन्तामणि' में; तथा अन्य अनेक ग्रन्थकारों ने समन्तभद्र के महत्त्व को प्रकट किया है । अनेक शिलालेखों में भी उनके प्रशस्त गुणों की श्लाघा की गयी है। समन्तभद्र का समय आचार्य समन्तभद्र की कृतियों में कहीं भी उनके समय का संकेत नहीं किया गया है । १. आदिपुराण १,४३-४४ २. चन्दप्रभाचरित, १-६ ३. पार्श्वनाथचरित, १-१७ ४. ज्ञानार्णव, १-१४ प्रन्थकारोल्लेख /६९५ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिलालेख क्र० ४०(६४) से इतना ज्ञात होता है कि समन्तभद्र श्रुविली भद्रबाहु, उनके शिष्य चन्द्रगुप्त, उनके वंशज पद्यनन्दी (कुन्दकुन्द), उनके वंशज उमास्वाति (गद्धपिच्छाचार्य) और उनके शिष्य बलाकपिच्छ; इस आचार्यपरम्परा में हुए हैं। इनमें उमास्वाति का भी समय निर्णीत नहीं है, फिर भी,सम्भवतः वे दूसरी-तीसरी शताब्दी के विद्वान् रहे हैं । यदि यह ठीक है तो यह कहा जा सकता है कि समन्तभद्र इसके पूर्व नहीं हुए हैं। ___ इसके पश्चात् वे कब हुए हैं, इसका विचार करते हुए उस प्रसंग में 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' यह पूज्यपादाचार्य-विरचित जैनेन्द्र व्याकरण का सूत्र (५,४,१६८) प्राप्त होता है। इसमें इसके पूर्व के चार सूत्रों' का उल्लेख आचार्य समन्तभद्र के मतानुसार किया गया है। यथा "मयो हः इत्यादि सूत्रचतुष्टयं समन्तभद्राचार्यमतेन भवति, नान्येषामिति विकल्पः, तथा चोदाहृतम् ।"-वृत्तिसूत्र ५,४,१६८ पूज्यपाद आचार्य प्रायः छठी शताब्दी के विद्वान् रहे हैं, यह हम पीछे (पृ० ६८२-८३ पर) लिख आये हैं। इससे समन्तभद्राचार्य के सम्बन्ध में इतना ही कहा जा सकता है कि वे तीसरी से छठी शताब्दी के मध्य में किसी समय हुए हैं । विद्यावारिधि डॉ० ज्योतिप्रसाद के मतानुसार आचार्य समन्तभद्र का समय १२०-८५ ई० निश्चित है। १६. सूत्राचार्य जो विवक्षित विषय की प्ररूपणा संक्षेप से सूत्ररूप में करते रहे हैं उन्हें सम्भवतः सूत्राचार्य कहा जाता था। अथवा जो सूत्र में अन्तहित अर्थ के व्याख्यान में कुशल होते थे, उन्हें सूत्राचार्य समझना चाहिए। धवला में उनका एक उल्लेख जीवस्थान-कालानुगम के प्रसंग में किया गया है। वहाँ मिथ्यादृष्टियों के काल की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में यह एक शंका उठायी गयी है कि व्यय के होने पर भी जो राशि समाप्त नहीं होती है उसे यदि अनन्त माना जाता है तो वैसी स्थिति में अर्धपुद्गल परिवर्तन आदि रूप व्ययसहित राशियों की अनन्तता के नष्ट होने का प्रसंग प्राप्त होता है । इसके समाधान में वहाँ यह कहा गया है कि यदि उनकी अनन्तता समाप्त होती है तो हो जावे, इसमें कुछ दोष नहीं है। इस पर वहाँ शंकाकार ने कहा है कि उनमें सूत्राचार्य के व्याख्यान से अनन्तता तो प्रसिद्ध है, तब उसकी संगति कैसे होगी। इस पर धवला. कार ने कहा है कि सूत्राचार्य के द्वारा जो उनमें अनन्तता का व्यवहार किया गया है, उसका कारण उपचार है । जैसे प्रत्यक्ष प्रमाण से जाने गये स्तम्भ को लोक में उपचार से प्रत्यक्ष कहा जाता है वैसे ही अवधिज्ञान की विषयता को लांघकर स्थित राशियां चूंकि अनन्त केवलज्ञान १. यो हः । शश्छोऽटि । हलो यमा यमि खम् । झरो झरि स्वे ।-जनेद्र-सूत्र ५,४,१६४-६७ २. आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार ने समन्तभद्र के समय से सम्बन्धित विविध मतों पर विचार करते हुए उसके विषय में पर्याप्त ऊहापोह किया है। उससे सम्बन्धित चर्चा 'स्वामी समन्तभद्र' में 'समय-निर्णय' शीर्षक में द्रष्टव्य है (पृ० ११५-६६)। ३. देखिए 'तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा' भा० २, पृ० १८३-८४ ६६६ / षट्सण्डागम-परिशीलन Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की विषय हैं, इसलिए उपचार से उन्हें 'अनन्त' कहा जाता है। व्याख्यान से जो अनन्तता का व्यवहार प्रसिद्ध है, उससे इस नहीं है ।" दूसरा उल्लेख उनका वेदनापरिमाणविधान अनुयोगद्वार में किया गया है । वहाँ तीर्थंकर प्रकृति की साधिक तेतीस सागरोपम मात्र समयप्रबद्धार्थता के प्रसंग में कहा गया है कि तीर्थकर प्रकृति का बन्ध अपूर्वकरण के सातवें भाग के प्रथम समय से आगे नहीं होता है, क्योंकि अपूर्वकरण के अन्तिम सातवें भाग के प्रथम समय में उसके बन्ध का व्युच्छेद हो जाता है, ऐसा सूत्राचार्य का वचन उपलब्ध होता है। * २०. सेचीय व्याख्यानाचार्य वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में बादर निगोदवर्गणा के प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि हम अन्तिम समयवर्ती क्षीणकषाय क्षपक को छोड़कर व इस द्विचरम समयवर्ती क्षीणकषाय क्षपक को ग्रहण करके यहाँ रहने वाले सब जीवों के औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरों के छह पुंजों को पृथक्-पृथक् स्थापित करके सेचीय व्याख्यानाचार्य द्वारा प्ररूपित स्थानप्ररूपणा को कहते हैं । यहाँ व्याख्यानाचार्य के विशेषणभूत 'सेचीय” शब्द से क्या अभिप्रेत रहा है, यह ज्ञात नहीं होता । इस कारण उनमें सूत्राचार्य के व्याख्यान का कुछ भी विरोध कषायप्राभृत में 'चारित्र मोहक्षपणा' अधिकार के प्रसंग में यह एक चूर्णिसूत्र उपलब्ध होता है "णवरि सेचीयादो जदिबादरसांपराइयकिट्टीओ करेदि तत्थ पदेसग्गं विसेसहीणं होज्ज ।” - क०पा० सुत्त, पृ० ८६६-६७ जयधवलाकार ने 'सेचीय' का अर्थ सम्भवसत्य किया है । यथा – “सेचीयादो सेचीयं संभवमस्सियू णसंभवसच्च मस्सियूण ।" १. धवला, पु० ४, पृ० ३३८-३६ २. वही, पु० १२, पृ० ४६४ ३. वही, पु० १४, पृ० १०१ ४. यह शब्द इसके पूर्व पु० १५, पृ० २८६ पर भी उपलब्ध होता है । यथाउदओदुविहो पओअसा संचीयादो च । प्रन्थका रोल्लेख / ६६७ Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति आ० वीरसेन एक लब्धप्रतिष्ठ प्रामाणिक टीकाकार रहे हैं। वे प्रतिभाशाली बहुश्रुत विद्वान् थे। उनके सामने पूर्ववर्ती विशाल साहित्य रहा है, जिसका उन्होंने गम्भीर अध्ययन किया था व यथावसर उसका उपयोग अपनी इस धवला टीका की रचना में किया-यह पीछे 'ग्रन्थोल्लेख' और 'ग्रन्थकारोल्लेख' शीर्षकों से स्पष्ट हो चुका है। वीरसेनाचार्य की प्रामाणिकता (सूत्र को महत्त्व) प्रतिपाद्य विषय का स्पष्टीकरण व उसका विस्तार करते हुए भी धवलाकार ने अपनी ओर से कुछ नहीं लिखा; जो कुछ भी उन्होंने लिखा है वह परम्परागत श्रुत के आधार से ही लिखा है। इस प्रकार से उन्होंने अपनी प्रामाणिकता को सुरक्षित रक्खा है। मतभेद का प्रसंग उपस्थित होने पर उन्होंने सर्वप्रथम सूत्र को महत्त्व दिया है। यथा (१) जीवस्थान-चूलिका के अन्तर्गत 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' चूलिका में चारित्रप्राप्ति के विधान की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि जो मिथ्यादृष्टि जीव वेदकसम्यक्त्व और संयमासंयम दोनों को एक साथ प्राप्त कर रहा है उसके अनिवृत्तिकरण के बिना दो ही करण होते हैं। कारण यह है कि अपूर्वकरण के अन्तिम समय में वर्तमान इस मिथ्यादष्टि का स्थिसिसत्त्व प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादष्टि के स्थितिसत्त्व से संख्यातगुणा हीन होता है। इसे स्पष्ट करते हुए इसी प्रसंग में आगे धवला में कहा गया है कि अपूर्वकरण परिणाम सभी अनिवृत्तिकरण परिणामों से अनन्त गणे हीन होते हैं, यह कहना योग्य नहीं है, क्योंकि उसका प्रतिपादक कोई सूत्र नहीं है । इसके विपरीत उपर्युक्त संख्यातगुणे हीन स्थितिसत्त्व की सिद्धि इसी सूत्र (१,६-८,१४) से हो जाती है। इस प्रकार यहाँ उपर्युक्त सूत्र के बल पर धवला में यह सिद्ध किया है कि जो मिथ्यादृष्टि वेदकसम्यक्त्व और संयमासंयम दोनों को एक साथ प्राप्त करने के अभिमुख है उसका स्थितिसत्त्व प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा संख्यातगुणा हीन होता है, अनन्तगुणा हीन नहीं। (२) इसके पूर्व जीवस्थान-कालानुगम में एक जीव की अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट १. धवला, पु. ६, पृ० २६८-६९ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल अंगुल के असंख्यातवें भागमात्र असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी प्रमाण कहा गया है।' इसका स्पष्टीकरण करने पर धवला में यह शंका उठायी गयी है कि 'कर्म स्थिति को आवली के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर बादर की स्थिति होती है। इस परिकर्मवचन के साथ इस सूत्र के विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है, इसलिए यह सूत्र संगत नहीं है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि परिकर्म का कथन सूत्र का अनुसरण नहीं करता है, इसलिए वही असंगत है; न कि प्रकृत सूत्र ।' ___इस प्रकार वहीं उपर्युक्त कालानुगमसूत्र को महत्त्व देकर धवलाकार ने उसके विरुद्ध जाने. वाले परिकर्म के कथन को असंगत होने से अग्राह्य ठहराया है। (३) जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम में क्षेत्र की अपेक्षा पंचेन्द्रिय तियंच योनिमती मिथ्यादष्टियों के द्रव्यप्रमाण के प्रसंग में यह कहा गया है कि क्षेत्र की अपेक्षा उनके द्वारा देवों के अवहारकाल से संख्यातगुणे अवहारकाल से जगप्रतर अपहृत होता है। सूत्र १,२,३५ इस सत्र की व्याख्या के प्रसंग में धवलाकार ने भिन्न दो व्याख्यानों का उल्लेख किया है। उनकी सत्यता व असत्यता के विषय में शंका-समाधानपूर्वक धवलाकार ने प्रथम तो यह कहा है कि उनमें यह व्याख्यान सत्य है और दूसरा असत्य है, ऐसा हमारा कोई एकान्त मत नहीं है, किन्तु उन दोनों व्याख्यानों में एक असत्य होना चाहिए । तत्पश्चात् प्रकारान्तर से उन्होंने यह भी दृढ़तापूर्वक कहा है-अथवा वे दोनों ही व्याख्यान असत्य हैं, यह हमारी प्रतिज्ञा है । इस पर यह पूछे जाने पर कि यह कैसे जाना जाता है, उत्तर में उन्होंने कहा है कि वह पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों से वानव्यंतरदेव संख्यातगुणे हैं और वहीं पर देवियाँ उनसे संख्यातगणी हैं" इस खुद्दाबंधसूत्र' से जाना जाता है। और सूत्र को अप्रमाण करके व्याख्यान प्रमाण है, यह कहना शक्य नहीं है अथवा अव्यवस्था का प्रसंग प्राप्त होता है। इस प्रकार उपर्युक्त खुद्दाबंधसूत्र के विरुद्ध होने से धवलाकार ने उन दोनों ही व्याख्यानों को असत्य घोषित कर दिया है। (४) जीवस्थान-अन्तरानुगम में एक जीव की अपेक्षा संयतासंयतों के उत्कृष्टकाल के प्ररूपक सूत्र (१,६,२३५-३७) की व्याख्या के प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि इस प्रकार जो इस सूत्र का व्याख्यान किया जा रहा है वह ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें कम अन्तर प्ररूपित है, जबकि उससे उनका अधिक अन्तर सम्भव है। शंकाकार ने उस अधिक अन्तर को अपनी दृष्टि से वहां स्पष्ट भी किया है। ___ इस शंका को असंगत बतलाते हुए धवला में कहा गया है कि संज्ञी सम्मर्छन पर्याप्त जीवों में संयमासंयम के समान अवधिज्ञान और उपशम-सम्यक्त्व की सम्भावना नहीं है। अतएव १. उकस्सेण आलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जातंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ। -सूत्र १,५,११२ (पु० ४, पृ० ३८६) २. धवला, पु० ४, पृ० ३८६-६० ३. पंचिदियतिरिक्खजोणिणीओ असंखेज्जगुणाओ। वाणवेंतरदेवा संखेज्जगुणा । देवीओ संखे. ज्जगुणाओ।-सूत्र २,११-२,३६-४१ (पु० ७, पृ० ५८५) ४. धवला, पु० ३,२३०-३२ वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति / ६६५ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके आश्रय से जो अन्तर दिखलाया गया है वह घटित नहीं होता। इस पर यह पूछने पर कि उनमें अवधिज्ञान और उपशमसम्यक्त्व सम्भव नहीं है यह कहाँ से जाना जाता है, धवलाकार ने कहा है कि वह "पंचेन्द्रियों में उपशमाता हुआ गर्भोपक्रान्तिकों में उपशमाता है, सम्मूछेनों में नहीं" इस चूलिकासूत्र' से जाना जाता है। इस प्रकार यहां उपर्युक्त चूलिकासूत्र के आश्रय से धवलाकार ने यह अभिप्राय प्रकट किया है कि सम्मर्छन जीवों में उपशमसम्यक्त्व सम्भव नहीं है। (५) जीवस्थान-अल्पबहुत्वानुगम में ओघअल्पबहुत्व के प्रसंग में संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि सबसे स्तोक निर्दिष्ट किये गये हैं। -सूत्र १,८,१८ धवला में इसके कारण का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि अणुव्रत सहित क्षायिक सम्यग्दष्टि जीव अतिशय दुर्लभ हैं। इसका भी कारण यह है कि तिर्यचों में क्षायिकसम्यक्त्व के साथ संयमासंयम नहीं पाया जाता है, क्योकि उनमें दर्शनमोहनीय की क्षपणा सम्भव नहीं है, इस पर तिर्यंचों में दर्शनमोहनीय की क्षपणा सम्भव नहीं है, यह कहाँ से जाना जाता है, यह पूछने पर धवलाकार ने कहा है कि 'दर्शनमोहनीय की क्षपणा को नियम से मनुष्यगति में किया जाता है' इस सूत्र से जाना जाता है।" ___ इस प्रकार तिर्यंचों में दर्शनमोहनीय की क्षपणा को प्रारम्भ नहीं किया जा सकता है, यह अभिप्राय धवला में उपर्युक्त सूत्र (कषायप्राभूत) के आश्रय से प्रकट किया गया है। यहां सत्र के महत्त्व को प्रकट करने वाले ये पांच उदाहरण दिये गये हैं। वैसे समस्त धवला में ऐसे प्रचुर उदाहरण उपलब्ध होते हैं। सूत्र-प्रतिष्ठा (पुनरुक्ति दोष का निराकरण) मल सूत्रों में कहीं-कहीं पुनरुक्ति भी हुई है। इसके लिए शंकाकार द्वारा जहाँ-तहां पुनरुक्ति दोष को उद्भावित किया गया है। किन्तु धवलाकार वीरसेन स्वामी ने उसे दोषजनक न मानकर उस तरह के अनेक सूत्रों को सुव्यवस्थित व निर्दोष सिद्ध किया है। इसके लिए यहाँ कुछ उदाहरण दिये जाते हैं (१) 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' चूलिका (१) में सूत्र १३-१४ के द्वारा प्रश्नोत्तर रूप में ज्ञानावरणीय की पांच प्रकृतियों का उल्लेख किया जा चुका था। फिर भी आगे 'स्थानसमुत्कीर्तन' चूलिका (२) में उनका पुनः उल्लेख किया गया है। --सूत्र १,६-२,४ । इसकी व्याख्या करते हुए उस प्रसंग में यह आशंका प्रकट की गयी है कि पुनरुक्त होने से इस सत्र को नहीं कहना चाहिए। इसके समाधान में धवलाकार कहते हैं कि ऐसी आशंका करना उचित नहीं है, क्योंकि सब जीवों के धारणावरणीय (आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय १. उवसामेंतो कम्हि उवसामेदि ?xxxसण्णीसु उवसामेंतो गब्भोवक्कंतिएसु उवसामेदि, ___णो सम्मुच्छिमेसु ।Xxx--सूत्र १,६-८,८-६ (पु० ६, पृ० २३८) २. धवला, पु० ५, पृ० ११६-१६ ३. दंसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजादो य। णियमा मणुसगदीए गिट्ठवगो चावि सव्वत्थ ।।--क०पा०, गा० ११० (५७) ४. धवला, पु० ५, पृ० २५६-५७ (सूत्र १८ की धवला टीका द्रष्टव्य है।) ७०० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष) कर्म का क्षयोपशम समान नहीं होता । यदि सब जीवों के द्वारा ग्रहण किया गया अर्थ टाकी से उकेरे गये अक्षर के समान विनष्ट नहीं होता तो पुनरुक्त दोष हो सकता था, पर वैसा सम्भव नहीं है। क्योंकि किन्हीं जीवों में जल में लिखे गये अक्षर के समान उस गृहीत अर्थ का विनाश उपलब्ध होता है। इसलिए भ्रष्ट संस्कार वाले शिष्यों को स्मरण कराने के लिए इस सूत्र का कथन करना उचित ही है ।' ___ इस प्रकार प्रकृत सूत्र के पुनरुक्त होने पर भी धवलाकार ने उसकी विधिवत् संगति बैठा दी है। . (२) इसी 'स्थानसमुत्कीर्तन' चूलिका में सूत्र २४ के द्वारा पृथक्-पृथक् मोहनीय की २१ प्रकृतियों के नामों का निर्देश किया जा चुका है। पर ठीक इसके आगे सूत्र २६ में कहा गया है कि उपर्युक्त २१ प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियों को छोड़कर १७ प्रकृतियों का स्थान होता है-इस कथन से ही उन १७ प्रकृतियों का बोध हो जाता है। फिर भी आगे सूत्र २७ में उन १७ प्रकृतियों का भी नामोल्लेख किया गया है। ___ इस प्रसंग में धवलाकार ने सूत्र २६ की व्याख्या में कहा है कि-इक्कीस प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धि-चतुष्क के कम कर देने पर सत्तरह प्रकृतियाँ होती हैं' यह सूत्र व्यतिरेकनय की अपेक्षा रखने वालों के अनुग्रहार्थ रचा गया है तथा वे कौन-सी हैं, इस प्रकार पूछने वाले मन्दबुद्धि शिष्यों के अनुग्रहार्थ आगे का सूत्र कहा जाता है।' ___ इस प्रकार से धवलाकार ने यहाँ २७वें सूत्र की पुनरुक्ति का निराकरण स्वयं ही कर दिया है। (३) इसी जीवस्थान चूलिका में 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' चूलिका (८) के प्रसंग में यह एक सूत्र प्राप्त हुआ है "उवसा मेंतो कम्हि उवसामेदि ? चदुसु वि गदुसु उवसामेदि । चदुसुं वि गदीसु उवसामेंतो पंचिदिएसु उवसामेदि, णो एइंदिय-विलिदएस । पंचिदिएस उवसामेंतो सण्णीसु उवसामेदि, णो असण्णीसु । सण्णीसु उवसातो गम्भोवक्कंतिएसु उवसामेदि, णो सम्मुच्छिमेसु । गम्भोवक्कंतिएस उवसामेंतो पज्जत्तएसु उवसामेदि, णो अपज्जत्तएसु । पज्जत्तएसु उवसामेंतो संखेज्जवस्साउगेसु वि उवसामेदि असंखेज्जवस्साउगेसु वि ।"-सूत्र १,६-८,६ (पु० ६, पृ० २३८) इस सूत्र में विशेष सांकेतिक पदों की पुनरुक्ति हुई है। इस समस्त सूत्रगत अभिप्राय को संक्षेप में इस रूप में प्रकट किया जा सकता था "उवसामेंतो चदुस वि गदीसु, पंचिदिएसु, सण्णीसु, गब्भोवक्कंतिएसु, पज्जत्तएसु उवसामेदि । पज्जत्तएसु उवसामेंतो संखेज्जवस्साउगेसु वि' असंखेज्जवस्साउगेसु वि उवसामेदि।" ___लगभग इसी अभिप्राय का सूचक एक अन्य सूत्र पीछे इस प्रकार का ही आ भी चुका "सो पुण पंचिदिओ सण्णी मिच्छाइट्ठी पज्जत्तओ सव्वविसुद्धो।" --१,६-८,४ (पु० ६, पृ० २०६) १. धवला, पु० ६, पृ० ८१ २. वही, पृ० ६२ वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति / ७०१ Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस स्थिति को देखते हुए वह पूरा ही सूत्र पुनरुक्त है।' (४) 'गति-आगति' चूलिका (8) में ये दो सूत्र आये हैं "अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइया मिच्छाइट्ठी णि रयादो उन्वट्टिदसमाणा कदि गदीओ आगच्छति ॥६३॥ एक्कं तिरिक्खगदि चेव आगच्छति ।।६४॥"-पु. ६, पृ० ४५२ ये ही दो सूत्र आगे पुनः प्राय: उसी रूप में इस प्रकार प्राप्त होते हैं "अधो सत्तमाए पुढवीए रइया णिरयादो रइया उव्वट्टिदसमाणा कदि गदीओ आगच्छति ॥२०३।। एक्कं हि चेव तिरिक्खगदि आगच्छंति ति ॥२०४॥"-पु. ६, पृ० ४८४ विशेषता इतनी रही है कि पूर्व सूत्र (६३) में “मिच्छाइट्ठी' पद अधिक है तथा आगे के सत्र (२०३) में 'णेरइया' पद की पुनरावृत्ति की गयी है। अभिप्राय में कुछ भेद नहीं हुआ। 'मिथ्यादृष्टि' पद के रहने न रहने से अभिप्राय में कुछ भेद नहीं होता, क्योंकि सातवीं पृथिवी से जीव नियमतः मिथ्यात्व के साथ ही निकलता है। यहाँ सूत्र २०४ की धवला टीका में शंकाकार ने कहा है कि पुनरुक्त होने से इस सूत्र को नहीं कहना चाहिए। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उसे अतिशय जडबुद्धि शिष्यों के हेतु कहा गया है। इस प्रकार से प्रसंगप्राप्त पुनरुक्ति का निराकरण करके धवलाकार ने उन सूत्रों को निर्दोष बतलाया है। प्रकृत में यद्यपि धवलाकार ने 'णेरइया' पद की पुनरावृत्ति के विषय में कुछ स्पष्टीकरण नहीं किया है, पर आगे (सत्र २०६ में) छठी पृथिवी के आश्रय से भी ऐसा ही प्रसंग पुनः प्राप्त होने पर धवलाकार ने वहाँ प्रसंगप्राप्त शंका के उत्तर में इस प्रकार का स्पष्टीकरण करके पुनरुक्ति दोष को टाल दिया है-"णिरयादो णिरयपज्जायादो, उवट्टिदसमाणा विणट्ठा संता, रइया दवट्ठियणयावलंबणेण रइया होदण'......1"-पु० ६, पृ० ४८५-८६ इस परिस्थिति में यही समझा जा सकता है कि ग्रन्थ-रचना व व्याख्यान की आचार्यपरम्परागत पद्धति प्रायः ऐसी ही रही है, भले ही उसमें सूत्र का यह लक्षण घटित न हो अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारव गढनिर्णयम् । निर्दोषं हेतुमत्तथ्यं सूत्रमित्युच्यते बुधः ॥२-पु. ६, पृ० २५६ प्रकरण से सम्बन्धित पुनरुक्ति जीवस्थान-चूलिका के अन्तर्गत प्रथम प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका है तथा आगे वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत एक 'प्रकृति' अनुयोगद्वार भी है। इन दोनों प्रकरणों में बहुत से सूत्रों की पुनरावृत्ति हुई है । विशेषता यह रही है कि कहीं एक सूत्र के दो हो गये हैं, तो कहीं दो सूत्रों का एक हो गया है । दोनों प्रकरणगत सूत्रों का मिलान इस प्रकार किया जा सकता है १. धवलाकार ने सूत्र ८ (पु० ६, पृ० २३८) की व्याख्या में 'एदेण पुव्वुत्तपयारेण दंसणमोह णीय उवसामेदि त्ति पुवुत्तो चेव एदेण सुत्तेण संभालिदो' कहकर उस पुनरुक्ति को स्पष्ट भी कर दिया है। २. सूत्र का यह लक्षण कषायप्राभृत के गाथासूत्रों में घटित होता है। ७०२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ ३ ४ ६ ७ ८ विशेषता प्रकृतिभेद ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय वेदनीय मोहनीय आयु नाम (आनुपूर्वी तक ) नाम अगुरुलघु आदि गोत्र अन्तराय प्रकृति स० चूलिका ( सूत्र ) १३-१४ १५-१६ १७-१८ १६-२४ २५-२६ २७-४१ ४२-४४ ४५ ४६ प्रकृति अनु० ( सूत्र ) ज्ञानावरणीय से सम्बद्ध सूत्रसंख्या की विषमता का कारण यह रहा है कि 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय (सूत्र २२-४२), श्रुतज्ञानावरणीय (४३-५०), अवधिज्ञानावरणीय (५१ - ५६ ) और मन:पर्ययज्ञानावरणीय ( ६०-७८ ) के अवान्तरभेदों की भी प्ररूपणा की गयी है । केवलज्ञानावरणीय की एक ही प्रकृति का उल्लेख करके उस प्रसंग में केवलज्ञान के महत्त्व को विशेष रूप से प्रकट किया गया है (७०-८३) । इसी प्रकार 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी आदि चार आनुपूर्वी प्रकृतियों के अवान्तर भेदों की भी पृथक्-पृथक् प्ररूपणा की गयी है व उनके अल्पबहुत्व को भी दिखलाया गया है (११५-३२) । इस पुनरुक्ति के प्रसंग में धवला में कुछ स्पष्टीकरण नहीं किया गया है । २०-२१ ८४-८६ ८७-८८ ८६-६७ ६८-६६ १००-१४ १३३ १३४-३५ १३६-३७ सूत्रसूचित विषय की अप्ररूपणा इस प्रकार ऊपर सूत्रों से सम्बन्धित पुनरुक्ति की कुछ चर्चा की गयी है। अब आगे हम यह भी दिखलाना चाहते हैं कि मूल ग्रन्थ में कुछ ऐसे भी प्रसंग प्राप्त होते हैं जिनके प्रारम्भ में प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा का संकेत करके भी सूत्रकार द्वारा उनकी प्ररूपणा की नहीं गयी है । सूत्रकार द्वारा अप्ररूपित ऐसे विषयों की प्ररूपणा धवलाकार ने की है । उदाहरण के लिए (१) वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत 'स्पर्श' अनुयोगद्वार को प्रारम्भ करते हुए उसकी प्ररूपणा में सूत्रकार द्वारा स्पर्शनिक्षेप' व 'स्पर्शनयविभाषणता' आदि १६ अनुयोगद्वारों का निर्देश करके 'स्पर्शनिक्षेप' के प्रसंग में नामस्पर्शन आदि तेरह स्पर्शभेदों का नामनिर्देश किया गया है । १. अवधिज्ञानावरणीय के और मन:पर्ययज्ञानावरणीय के प्रसंग में उन ज्ञानों के भेद-प्रभेद व उनके विषयभेद की भी कुछ प्ररूपणा की गयी है । २. धवला, पु० १३, पृ० १ ३ सूत्र १-४ वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति / ७०३ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्पश्चात् सूत्रकार ने उन तेरह स्पर्शभेदों के स्वरूप और यथासम्भव उनके अवान्तरभेदों को भी स्पष्ट किया है ।' अन्त में सूत्रकार ने 'इन स्पर्शभेदों में यहाँ कौन-सा स्पर्श प्रसंगप्राप्त है, इस प्रश्न के साथ 'कर्मस्पर्श' को प्रकृत कहा है (सूत्र ५,३, ३३) । इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि यह खण्डग्रन्थ अध्यात्मविषयक है, इस अपेक्षा से यहाँ कर्मस्पर्श को प्रकृत कहा गया है । किन्तु महाकर्मप्रकृतिप्राभूत में द्रव्यस्पर्श, सर्वस्पर्श और कर्मस्पर्श ये तीन प्रकृत रहे हैं । इस पर वहां यह पूछे जाने पर कि महाकर्म प्रकृतिप्राभृत में ये तीन स्पर्श प्रकृत रहे हैं, यह कैसे जाना जाता है; धवलाकार ने कहा है कि दिगन्तरशुद्धि में द्रव्यस्पर्श की प्ररूपणा के बिना वहाँ स्पर्श अनुयोगद्वार का महत्त्व घटित नहीं होता, इसलिए उसे वहाँ प्रसंगप्राप्त कहा गया है । तत्पश्चात् यह दूसरी शंका उठायी गयी है कि यदि यहाँ कर्मस्पर्श प्रसंगप्राप्त है तो भूतबलि भगवान् ने यहाँ उस कर्मस्पर्श की प्ररूपणा शेष कर्मस्पर्शनय विभाषणता आदि पन्द्रह अनुयोगद्वारों के आश्रय से क्यों नहीं की। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि यह कुछ दोष नहीं है, क्योंकि 'स्पर्श' नाम वाले कर्मस्पर्श की उन शेष अनुयोगद्वारों के आश्रय से की जाने वाली प्ररूपणा में 'वेदना' अनुयोगद्वार में प्ररूपित अर्थ से कुछ विशेषता रहने वाली नहीं है, इसी अभिप्राय से भूतबलि भट्टारक ने यहाँ उन शेष पन्द्रह अनुयोगद्वारों के आश्रय से उसकी प्ररूपणा नहीं की है । " इस पर शंकाकार ने कहा है कि यदि ऐसा है तो अपुनरुक्त द्रव्यस्पर्श और सर्वस्पर्श की प्ररूपणा यहाँ क्यों नहीं की गयी है । इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि अध्यात्मविद्या के प्रकृत होने पर अनेक नयों की विषयभूत अनध्यात्मविद्या की प्ररूपणा घटित नहीं होती है । इस प्रकार से धवलाकार ने प्रसंगप्राप्त उन पन्द्रह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा न करने के विषय में उद्भावित दोष का निराकरण कर दिया है । (२) आगे इसी वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत 'कर्म' अनुयोगद्वार को प्रारम्भ करते हुए सूत्रकार ने उसकी प्ररूपणा में कर्मनिक्षेप व कर्मनयदिभाषणता आदि वैसे ही १६ अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा है । तत्पश्चात् अवसरप्राप्त कर्मनिक्षेप के प्रसंग में उसके इन दस भेदों का निर्देश किया है— नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, आधाकर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म, क्रियाकर्म और भावकर्म । आगे यथाक्रम से इन कर्मों के स्वरूप को प्रकट करते हुए अन्त में उनमें से समवदान कर्म को प्रसंगप्राप्त कहा गया है । १. धवला, पृ० ८ - ३५; सूत्र - ३२ २. पूर्वोक्त प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका और 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में जो अधिकांश सूत्रों की पुनरुक्ति हुई है, वह यदि न होती तो इसी प्रकार का समाधान वहाँ भी किया जा सकता था । ३. धवला, पु० १३, पृ० ३६ ४. सूत्र ५, ४, ३१ ( पु० १३, पृ० ९० ) ७०४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवदान कर्म यहाँ प्रकृत क्यों है, इसका कारण स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि कर्मानुयोगद्वार में उसी समवदान कर्म की विस्तार से प्ररूपणा की गयी है। प्रकारान्तर से आगे वहाँ यह भी कहा गया है-अथवा संग्रहनय की अपेक्षा यहाँ उस समवदानकर्म को प्रकृत कहा गया है। किन्तु मूलतन्त्र' में प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, आधाकर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्म इन छह कर्मों की प्रधानता रही है, क्योंकि वहाँ उनकी विस्तार से प्ररूपणा की गयी है। ___इतना स्पष्ट करते हुए आगे धवलाकार ने उक्त छह कर्मों को आधारभूत करके क्रम से सत्, द्रव्य, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की है। प्रसंग के अन्त में वहां धवला में यह शंका की गयी है कि सूत्र (५,४,२) में कर्म की प्ररूपणा के विषय में जिन कर्मनिक्षेप आदि सोलह अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा गया है, उनमें से यही कर्मनिक्षेप और कर्मनयविभाषणता इन दो ही अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की गयी है, शेष चौदह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा उपसंहारकर्ता (भूतबलि) ने क्यों नहीं की, उनकी प्ररूपणा करनी चाहिए थी। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि उन चौदह अनुयोगद्वारों के आश्रय से कर्म को प्ररूपणा करने पर पुनरुक्त दोष का प्रसंग प्राप्त होता था, इसलिए उनके आश्रय से कर्म को प्ररूपणा नहीं की गयी है। ___इस पर पुनः शंका हुई है कि यदि ऐसा है तो फिर महाकर्मप्रकृतिप्राभूत में उन अनुयोगद्वारों के आश्रय से उसकी प्ररूपणा किसलिए की गयी है। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि मन्दबुद्धि जनों के अनुग्रह के लिए प्रकृत प्ररूपणा करने में पुनरुक्त दोष नहीं होता। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि कहीं भी अपुनरुक्त अर्थ की प्ररूपणा नहीं है, सर्वत्र पुनरुक्त और अपुनरुक्त की ही प्ररूपणा उपलब्ध होती है। इस प्रकार धवलाकार ने इधर तो यह भी कह दिया है कि षट्खण्डागम में जो उन अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा नहीं की गयी है वह पुनरुक्त दोष की सम्भावना से नहीं की गयी है, और उधर महाकर्मप्रकृतिप्राभूत में जो उन्हीं अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की गयी है वहाँ उसके करने में उसी पुनरुक्त दोष की असम्भावना को भी उन्होंने व्यक्त कर दिया है। यदि मन्दबुद्धि जनों के अनग्रहार्थ महाकर्मप्रकृतिप्राभूत में उनकी प्ररूपणा की गयी है तो फिर उन्हीं मन्दबुद्धि जनों के अनग्रहार्थ उनकी प्ररूपणा इस षट्खण्डागम में भी की जा सकती थी। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, जीवस्थान के अन्तर्गत प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका और वर्गणाखण्डगत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में पुनरुक्त दोष को कुछ महत्त्व नहीं दिया गया है। (३) इसी वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान इन चार अधिकारों की प्ररूपणा करते हुए प्रसंगप्राप्त बन्धनीय (वर्गणा) अधिकार में वर्गणाओं के अनुगमनार्थ सूत्र में ये आठ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य रूप में निर्दिष्ट किये गये हैं १. 'मूलतन्त्र' से सम्भवतः महाकर्मप्रकृतिप्राभृत का अभिप्राय रहा है। २. देखिए धवला, पु० १३, पृ० ६१-१६५ ३. वही, पृ० १६६ वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति / ७०५ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गणा, वर्गणासमुदाहार, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, अवहार, यवमध्य, पदमीमांसा और अल्पबहुत्व (५,६,६६) । इनमें 'वर्गणा' अनुयोगद्वार में वर्गणानिक्षेप व वर्गणानय विभाषणता आदि जिन १६ अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है (सूत्र ५,६,७०) उनमें से मूलग्रन्थकार के द्वारा वर्गणानिक्षेप और वर्गणानयविभाषणता इन दो ही अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की गयी है। तत्पश्चात् पूर्वोक्त वर्गणा व वर्गणाद्रव्यसमुदाहार आदि आठ अनुयोगद्वारों में से वर्गणाद्रव्यसमुदाहार में वर्गणाप्ररूपणा व वर्गणानिरूपणा आदि जिन चौदह अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा गया है (५,६,७५) उनमें सूत्रकार ने यहां वर्गणाप्ररूपणा और वर्गणानिरूपणा इन दो ही अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की है, शेष वर्गणाध्र वाध्र वानुगम व वर्गणासान्त रनिरन्तरानुगम आदि बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा नहीं की है।' __ इस पर धवला में यह शंका उठायी गयी है कि उपर्युक्त चौदह अनुयोगद्वारों में मात्र दो अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करके सूत्रकार ने शेष बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा क्यों नहीं की है। उन्होंने उनसे अनभिज्ञ रहकर उनकी प्ररूपणा न की हो, यह तो सम्भव नहीं है, क्योंकि वे चौबीस अनुयोगद्वारस्वरूप महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के पारंगत रहे हैं। इससे यह तो नहीं कहा जा सकता है कि उन्हें उन अनुयोगद्वारों का ज्ञान न रहा हो । इसके अतिरिक्त यह भी सम्भव नहीं है कि विस्मरणशील होने से उन्होंने उनकी प्ररूपणा न की हो, क्योंकि वे प्रमाद से रहित थे, अतः उनका विस्मरणशील होना भी सम्भव नहीं है। ___ इसके समाधान में धवलाकार कहते हैं कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि पूर्वाचार्यों के व्याख्यानक्रम का परिज्ञान करने के लिए सूत्रकार ने उन बारह अनुयोगद्वारों को प्ररूपणा इस पर पुन: यह शंका उपस्थित हुई है कि अनुयोद्वार-अनुयोगद्वारों के मर्मज्ञ महर्षिउसी प्रसंग में वहाँ के समस्त अर्थ की प्ररूपणा संक्षिप्त वचनकलाप के द्वारा किसलिए करते हैं। इसके समाधान में वहां धवला में यह कहा गया है कि वचन योगस्वरूप आस्रव के द्वारा आनेवाले कर्मों के रोकने के लिए वे प्रसंगप्राप्त समस्त अर्थ की प्ररूपणा संक्षिप्त शब्दकलाप के द्वारा किया करते हैं ___इस प्रकार से धवलाकार ने सूत्रकार के प्रति आस्था रखते हुए सूत्रप्रतिष्ठा को महत्त्व देकर जो सूत्रगत पुनरुक्ति और सूत्र निर्दिष्ट विषय की अप्ररूपणा के विषय में प्रसंगप्राप्त शंकाओं का समाधान किया है, उसमें कुछ बल नहीं रहा है। प्रकृत में जो धवलाकार ने उपर्युक्त शंका के समाधान में यह कहा है कि पूर्वाचार्यों के व्याख्यानक्रम को दिखलाने के लिए और वचनयोगरूप आस्रव से आनेवाले कमों के निरोध के लिए उन बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा वहां नहीं की गयी है उसमें पूर्वाचार्यों के व्याख्यान की पद्धति वैसी रही है, यह कषायप्राभत के चूर्णिसूत्रों के देखने से भी स्पष्ट प्रतीत होता है। पर ऐसे अप्ररूपित विषयों की प्ररूपणा का भार प्रायः व्याख्यानाचार्यों आदि के ऊपर छोड़ा दिया जाता था। पर यहाँ ऐसा कछ संकेत नहीं किया गया है। १. ष०ख० सूत्र ५,६,७५-११६ (पु० १४, पृ० ५३-१३५) २. धवला, पु० १४, पृ० १३४-३५ ७०६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह भी यहाँ ध्यातव्य है कि धवलाकार ने उपर्युक्त शंका-समाधान में मूल ग्रन्थकार को तो वचनयोगासवजनित कर्मों के आगमन से बचाया है, पर वे स्वयं उस कर्मास्रव से नहीं बच सके हैं। कारण यह है कि मूल ग्रन्थकार के द्वारा अप्ररूपित उन बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा उन्होंने सूत्रकार द्वारा प्ररूपित दो अनुयोगद्वारों को देशामर्शक कहकर स्वयं ही बहुत विस्तार से की है।' इस प्रकार पुनरुक्ति और सूत्रसूचित विषय की प्ररूपणा के न करने से सम्बन्धित कुछ शंकाओं का धवलाकार द्वारा जो समाधान किया गया है, भले ही उसमें अधिक बल न रहा हो, पर उससे धवलाकार आचार्य वीरसेन का सूत्रकार के प्रति बहुमान व आगमनिष्ठा प्रकट है । आठ प्रकार के ज्ञानाचार में चौथा 'बहुमान' है। इसके लक्षण में मूलाचार में यह कहा गया है सुत्तत्थं जप्पंतो वाचतो चावि णिज्जराहे, । आसादणं कुज्जा तेण किवं होदि बहुमाणं ॥५-८६।। अर्थात् सूत्रार्थ का जो अध्ययन, अध्यापन और व्याख्यान आदि किया जाता है वह निर्जरा का कारण है। इसके लिए कभी सूत्र व आचार्य आदि की आसादना नहीं करनी चाहिए । सूत्रासादना से बचने के लिए धवलाकार ने अनेक प्रसंगों पर वज्रभीरु आचार्यों को सावधान भी किया है, यह पीछे अनेक उदाहरणों से स्पष्ट भी हो चुका है । जैसे-धवला, पु० १, पृ० २१७-२२ आदि के कितने ही प्रसंग। जैसा कि ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है, इसका निर्वाह धवलाकार ने पूर्ण रूप से किया है। इसके पूर्व के काल-विनयादिरूप ज्ञानाचार (मूलाचार ५,६६-६०) के अनुष्ठान में भी वे तत्पर रहे हैं। कालाचार में उनके उद्यत रहने का प्रमाण उनके द्वारा आगमद्रव्यकृति के प्रसंग में प्ररूपित कालशुद्धिकरणविधान है । देखिए धवला, पु. ६, पृ० २५३-५६ सूत्र-विरुख प्याख्यान का निषेध जीवस्थान-स्पर्शनानुगम में ज्योतिषी देव सासादनसम्यग्दृष्टियों के स्पर्शन की प्ररूपणा करते हुए उनके स्वस्थान क्षेत्र के प्रसंग में धवलाकार को ज्योतिषी देवों के भागहार के प्ररूपक सत्र (१,२,५५) के साथ संगति बैठाने के लिए स्वयम्भूरमणसमुद्र के आगे राज के अर्धच्छेद मानना पड़े हैं। इस पर शंकाकार ने कहा है कि ऐसा स्वीकार करने पर "जितने द्वीप-समुद्र हैं तथा जितने जम्बूद्वीप के अर्धच्छेद हैं, एक अधिक उतने ही राजु के अर्धच्छेद होते हैं। इस परिकर्म के साथ यह व्याख्यान क्यों न विरोध को प्राप्त होगा। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है-हाँ, यह व्याख्यान उस परिकर्म के साथ तो विरोध को प्राप्त होगा, किन्तु सूत्र' के साथ विरोध को नहीं प्राप्त होता है, इसलिए इस व्याख्या को ग्रहण करना चाहिए, न कि उस परिकम के कथन को; क्योंकि वह सूत्र के विरुद्ध है । और सूत्र के विरुद्ध व्याख्यान होता नहीं १. तम्हा दोण्णमणियोगद्दाराणं पुचिल्लाणं परूवणा देसामासिय त्ति काऊण सेसबारसण्ण मणियोगद्दाराणं [परूवणं] कस्सामो । धवला, पु० १४, पृ० १३५ (उनकी यह प्ररूपणा धवला में पृ० १३५-२२३ में की गयी है)। २. खेत्तेण पदरस्स वेछप्पण्णं गुलसयवग्गपडिभागेण ।-सूत्र १,२,५५ (पु० ६ ८) वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्ध .१७ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, क्योंकि वैसा होने पर अव्यवस्था का प्रसंग प्राप्त होता है।' __ इस प्रकार यहाँ धवलाकार ने सूत्र के विरुद्ध जाने से उपर्युक्त परिकर्म के कथन को अग्राह्य घोषित किया है। यहीं पर आगे धवला में उपपादगत सासादनसम्यग्दृष्टियों के स्पर्शन का प्रमाण कुछ कम ग्यारह बटे चौदह (११/१४) भाग कहा है। उसे स्पष्ट करते हुए आगे धवलाकार ने कहा है कि नीचे छठी पृथिवी तक पांच राजु और ऊपर आरण-अच्युत कल्प तक छह राजु तथा आयाम व विस्तार एक राजु-यह उनके उपपादक्षेत्र का.प्रमाण है। इसके आगे धवला में यह कहा गया है कि कुछ आचार्य कहते हैं कि देव नियम से मूल शरीर में प्रविष्ट होकर ही मरते हैं। उनके इस अभिप्राय के अनुसार प्रकृत उपपादक्षेत्र का प्रमाण कुछ कम दस बटे चौदह राजु होता है। उनका यह व्याख्यान यहीं पर आगे सूत्र में जो कार्मणकाययोगी सासासनसम्यग्दृष्टियों के स्पर्शनक्षेत्र का प्रमाण ग्यारह बटे चौदह भाग कहा गया है। उसके विरुद्ध जाता है, इसलिए उसे नहीं ग्रहण करना चाहिए। - इसी प्रसंग में आगे यह भी कहा है कि जो आचार्य देव सासादनसम्यग्दृष्टि एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, वे ऐसा कहते हैं । उनके अभिमतानुसार वह उपपादस्पर्शनक्षेत्र बारह बटे चौदह भाग प्रमाण होता है । यह व्याख्यान भी सत्प्ररूपणा' और द्रव्यप्रमाणानुगम सूत्र के विरुद्ध है, इसलिए उसे भी नहीं ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार धवलाकार ने सूत्रविरुद्ध होने से इन दोनों अभिमतों का निराकरण किया है। (४) वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी के प्रकृतिविकल्पों की प्ररूपणा के प्रसंग में कहा गया है कि कुछ आचार्य यह कहते हैं कि तिर्यक्प्रतर से गणित घनलोक प्रमाण तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी के विकल्प एक-एक अवगाहना के होते हैं। इस सम्बन्ध में धवलाकार ने कहा है कि उनका यह व्याख्यान घटित नहीं होता है, क्योंकि यह प्रकृत सूत्र के विरुद्ध है। कारण यह कि इस सूत्र में ‘राजुप्रतर से गुणित घनलोक' का निर्देश नहीं है, जिससे उनका उपर्युक्त व्याख्यान सत्य हो सके। १. धवला, पु० ४, पृ० १५५-५६; ऐसा ही प्रसंग जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम में भी प्राप्त हुआ है। पर वहाँ धवलाकारले 'रूवाहियाणि' में 'स्वेण अहियाणि रूवाहियाणि' ऐसा समास न करके 'रूवेहि अहियाणि रूवाहियाणि' ऐसा समास करते हुए उक्त परिकर्मसूत्र के साथ विरोध का परिहार भी कर दिया है । देखिए पु० ३, पृ० ३६ २. (कम्मइयकायजोगीसु) सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदि भागो । एक्कारह चोद्दसभागा देसूणा ।-सूत्र १,४,६७-६८ (पु. ४, पृ० २७०) ३. एइंदिया बीइंदिया तीइंदिया चरिंदिया असण्णि पंचिदिया एक्कम्मि चेव मिच्छाइट्रि ट्ठाणे ।-सूत्र १,१,३६ (पु० १, पृ० २६१) ४. सूत्र १,२,७४-७६ (पु० ३, पृ० ३०५-०७) ५. देखिए धवला, पु० ४, पृ० १६५ ६. तिरिक्खगइ पाओग्गाणुपुव्विणामाए पयडीओ लोओ सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदाओ। एवडियाओ पयडीओ। --सूत्र ५,५,११८; पु० १३, पृ० ३७५-७५ ७०८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार धवलाकार ने प्रकृत सूत्र के ही विरुद्ध होने से उपर्युक्त आचार्य के उस व्याख्यान को असंगत ठहराया है। (५) इसी वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में बादरनिगोद द्रव्यवर्गणा की प्ररूपणा के प्रसंग में वह किस क्रम से वृद्धिंगत होकर जघन्य से उत्कृष्ट होती है, इसे धवला में स्पष्ट किया गया है व उसे जघन्य से उत्कृष्ट असंख्यातगुणी कहा गया है । गुणकार का प्रमाण पूछने पर उसे जगश्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र निर्दिष्ट किया गया है। इसी प्रसंग में आगे धवला में कहा गया है कि कुछ आचार्य गुणकार के प्रमाण को आवली का असंख्याता भाग कहते हैं, पर वह घटित नहीं होता है। कारण यह है कि आगे यहीं पर चूलिकासूत्र' में उत्कृष्ट बादर निगोदवर्गणा में अवस्थित निगोदों का प्रमाण जगश्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र कहा गया है। इस प्रकार आचार्यों का वह कथन उस चूलिकासूत्र के विरुद्ध पड़ता है। और सूत्र के विरुद्ध आचार्यों का कथन प्रमाण नहीं होता है, अन्यथा अव्यवस्था का प्रसंग अनिवार्य होगा। इस प्रकार यहाँ धवलाकार ने चूलिकासूत्र के विरुद्ध होने से किन्हीं आचार्यों के द्वारा निर्दिष्ट आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण गुणकार सम्बन्धी अभिमत का निराकरण करते हुए जगश्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण ही गुणकार को मान्य किया है। इसी प्रकार के अन्य भी कितने ही प्रसंग धवला में पाये जाते हैं जिनका धवलाकार ने सूत्र के विरुद्ध होने से निराकरण किया है। परस्पर-विरुद्ध सूत्रों के सभाव में धवलाकार का दृष्टिकोण धवलाकार के समक्ष ऐसे भी अनेक प्रसंग उपस्थित हुए हैं जहां सूत्रों में परस्पर कुछ अभिप्रायभेद रहा है। ऐसे प्रसंगों पर धवलाकार ने कहीं दोनों ही सत्रों को प्रमाणभत मानने की प्रेरणा की है, तो कहीं पर उपदेश प्राप्त कर उनकी सत्यता-असत्यता के निर्णय करने की प्रेरणा की है । कहीं उनमें समन्वय करने का प्रयत्न किया है, तथा कहीं पर आगमानुसारिणी युक्ति के बल पर अपना स्वतंत्र अभिप्राय भी व्यक्त कर दिया है । यथा (१) जीवस्थान-सत्प्ररूपणा में मनुष्यगति के प्रसंग में क्षपण विधि की प्ररूपणा करते हुए धवला में कहा गया है कि अनिवृत्तिकरणकाल में संख्यातवें भाग के शेष रह जाने पर स्त्यानगृद्धि आदि सोलह प्रकृतियों का क्षय करता है। तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर प्रत्याख्यानावरणअप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि रूप आठ कषायों का क्षय करता है । यह सत्कर्मप्रकृतिप्राभूत का उपदेश है। किन्तु कषायप्राभूत के उपदेशानुसार आठ कषायों के क्षय को पूर्व में और तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर स्त्यानगुद्धि आदि सोलह प्रकृतियों का क्षय करता है। इस प्रसंग में धवलाकार ने अवसरप्राप्त जिन अनेक शंकाओं का समाधान किया है उनमें एक यह भी शंका रही है कि आचार्यकथित सत्कर्मप्रकृतिप्राभूत और कषायप्राभूत की सूत्ररूपता कैसे सम्भव है। १. बादरणिगोदवग्गणाए उक्कस्सियाए सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तो णिगोदाणं । -५,६,६३६ (पु० १४, पृ० ४६३-६४) २. देखिए, धवला, पु० १४, पृ० १११ वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति / ७०९ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है जिन बारह अंगों का कथन अर्थरूप से तीर्थंकरों ने किया है और जिनकी ग्रन्थरूप से रवना गणधरों ने की है वे बारह अंग अविच्छिन्न आचार्यपरम्परा से निरन्तर चले आये हैं। किन्तु काल के प्रभाव से बुद्धि के उत्तरोत्तर हीन होते जाने पर पात्र के अभाव में वे ही अंगहीन रूप में प्राप्त हुए। इस परिस्थिति में अतिशयित बुद्धि के धारकों की उत्तरोत्तर होती हुई कमी को देखकर जो गृहीतार्थ आचार्य-परम्परा से प्राप्त विशिष्ट श्रुत के धारक-वचभीरु आचार्य तीर्थव्युच्छेद के भय से अतिशय भयभीत रहे हैं, उन आचार्यों ने उन्हीं बारह अंगों को पोथियों में चढ़ा दिया है-पुस्तकों के रूप में निबद्ध कर दिया है। इसलिए उनके सूत्ररूप न होने का विरोध है। इस पर शंकाकार कहता है कि यदि ऐसा है तो इन वचनों के-सत्कर्मप्रकृतिप्राभूत और कषायप्राभूत के उपर्युक्त विरुद्ध कथनों के भी उक्त बारह अंगों के अवयवस्वरूप होने से सूत्ररूपता का प्रसंग प्राप्त होता है। इसके समाधान में धवलाकार ने स्पष्ट किया है कि उन दोनों कथनों में से एक के सूत्ररूपता हो सकती है, दोनों के नहीं; क्योंकि दोनों में परस्पर विरोध है। __ इसी प्रसंग में आगे शंकाकार पूछता है कि उत्सूत्र-सूत्र के विरुद्ध लिखने वाले वज्रभीरु आचार्य-पाप से अतिशय भयभीत-कैसे हो सकते हैं। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह कुछ दोष नहीं है, क्योंकि उन दोनों में से किसी एक का संग्रह करने पर वज्रभीरुता नष्ट होती है। कारण यह है कि उन दोनों वचनों में कौन-सा सत्य है, इसे केवली व श्रुतकेवली ही जानते हैं, अन्य कोई नहीं जानता है; क्योंकि अन्य को उसका निर्णय करना शक्य नहीं है । इसलिए वर्तमान में वज्रभीरु आचार्यों को उन दोनों का ही संग्रह करना चाहिए, अन्यथा उनकी वज्रभीरुता नष्ट होती है।' इस प्रकार उपर्युक्त दोनों प्रकार के कथनों में कौन सत्य है और कौन असत्य है, इसका निर्णय करना छद्मस्थ के लिए शक्य न होने से सूत्रासादना से भयभीत धवलाकार ने उन दोनों के ही संग्रह करने की प्रेरणा की है। (२) यहीं पर आगे दूसरा भी एक इसी प्रकार का प्रसंग धवलाकार के समक्ष उपस्थित हुआ है । वहाँ कार्मणकाययोग किनके होता है, इसे स्पष्ट करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि वह विग्रहगति को प्राप्त हुए जीवों के और समुद्घातगत केवलियों के होता है । --सूत्र १, १, ६० इस प्रसंग में धवला में शंकाकार ने केवलिसमुद्घात सहेतुक है या अहेतुक, इन दो विकल्पों को उठाकर उन दोनों ही विकल्पों में उसकी असम्भावना प्रकट की है। शंकाकार के इस अभिमत का निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है कि आचार्य यतिवृषभ के उपदेशानुसार क्षीणकषाय के अन्तिम समय में सब अघातिया कर्मों की स्थिति समान नहीं रहती है, इसलिए सभी केवली समुद्घात करते हुए ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं। किन्तु जिन आचार्यों के मतानुसार लोकपूरणसमुद्घातगत केवलियों की बीस संख्या का नियम है। उनके मतानुसार कितने ही १. देखिए धवला, पु० १, पृ० २१७-२२ २. सजोगिकेवली दव्वपमाणेण केवडिया? संखेज्जा ।----सूत्र १,२,१२३ (पु० ३, पृ० ४०४) इसकी टीका भी द्रष्टव्य है । ७१०/ पट्खण्डागम-परिशीलन Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्घात को करते हैं और कितने ही उसे नहीं भी करते हैं। इसी प्रसंग में आगे अवसरप्राप्त कुछ शंका-समाधान के पश्चात् शंकाकार कहता है कि अन्य आचार्यों के द्वारा जिस अर्थ का व्याख्यान नहीं किया गया है, उसका कथन करते हुए आपको सूत्र के प्रतिकूल चलने वाले क्यों न समझा जाय। इसका समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि जो आचार्य वर्षपृथक्त्व प्रमाण अन्तर के प्रतिपादक सूत्र के' वशवर्ती हैं उन्हीं के द्वारा उसका विरोध सम्भव है। आगे एक गाथासूत्र के आधार पर यह शंका की गयी है कि "छह मास आयु के शेष रह जाने पर जिन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, वे समुद्घातपूर्वक सिद्ध होते हैं, शेष के लिए उस समुद्घात के विषय में नियम नहीं है- उनमें कुछ उसे करते हैं और कुछ नहीं भी करते हैं" इस गाथा के उपदेश को क्यों नहीं ग्रहण किया जाता है। इसके समाधान में वहां कहा गया है कि विकल्परूपता में कोई कारण उपलब्ध नहीं होता। ____ यदि कहा जाय कि "जिनके नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म आयु के समान होते हैं, वे समुद्घात को न करते हुए मुक्ति को प्राप्त होते हैं, इसके विपरीत दूसरे समुद्घातपूर्वक मुक्त होते हैं" यह आगमवचन ही उस विकल्परूपता का कारण है तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सब जीवों में समान अनिवृत्तिकरण परिणामों के द्वारा घात को प्राप्त हुई स्थितियों के आयु के समान होने का विरोध है। इसके अतिरिक्त क्षीणकषाय के अन्तिम समय में तीन अघातिया कर्मों की जघन्य स्थिति भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण ही उपलब्ध होती है। इस पर शंकाकार के द्वारा यह कहने पर कि आगम तर्क का गोचर नहीं होता है, धवलाकार ने कहा है कि उक्त दोनों गाथाओं की आगमरूपता निर्णीत नहीं है। और यदि उनके आगमरूप होने का निर्णय हो सकता है तो उन गाथाओं को ही ग्रहण किया जाय । इस प्रकार धवल.कार ने यहाँ प्रथम तो यतिवृषभाचार्य के उपदेश को प्रधानता देकर यह कहा है कि सभी केवली समुद्धातपूर्वक मुक्ति को प्राप्त करते हैं । तत्पश्चात् शंकाकार के द्वारा प्रस्तुत की गयी उन दो गाथाओं को लक्ष्य में रखकर यह भी उन्होंने कह दिया है कि यदि उन दोनों गाथाओं की आगमरूपता निर्णीत है तो उनको ही ग्रहण किया जाय। __ ये दोनों गाथाएँ अभिप्राय में प्रायः 'भगवती आराधना' की २१०५-७ गाथाओं के समान हैं, शब्दसाम्य भी उनमें बहुत-कुछ है । विशेष चिन्तन कार यतिवृषभाचार्य के उपदेश को प्रस्तुत करते हुए धवला में कहा गया है कि क्षीणकषाय १. सजोगिकेवलीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । उक्कस्सेण वास पुधत्तं ।-सूत्र १,६,१६६-६७ व १७७ (पु० ५, पृ० ६१ व ६३) (यहाँ मूल में पाठ कुछ अव्यवस्थित सा दिखता है ।) २. छम्मासाउवसेसे उप्पण्णं जस्स केवलं णाणं । स-समुग्घाओ सिज्झइ सेसा भज्जा समुग्घाए ॥-पु० १, पृ० ३०३ . ३. जेसिं आउसमाइं णामा-गोदाणि वेयणीयं च । ___ ते अकयसमुग्धाया वच्चंतियरे समुग्घाए॥-पु० १, पृ० ३०४ ४. देखिए धवला पु० १, पृ० ३०१-०४ वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति । ७११ Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अन्तिम समय में अघातिया कर्मों की स्थिति समान नहीं रहती, इससे सभी केवली समुद्पात को करते हुए मुक्ति को प्राप्त होते हैं। इसे हमने कषायप्राभूत-चूणि में खोजने का प्रयत्न किया है, पर उनका वह भत उस प्रकार के स्पष्ट शब्दों में तो उपलब्ध नहीं हुआ, फिर भी प्रसंग के अनुसार जो कुछ वहाँ विवेचन किया गया है उससे यतिवृषभाचार्य का वह अभिप्राय प्रायः स्पष्ट हो जाता है। वहाँ चारित्रमोह की क्षपणा के प्रसंग में यह कहा गया है जब वह अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक होता है, तब उसके नाम व गोत्र कर्मों का स्थितिबन्ध आठ मुहूर्त और वेदनीय का बारह मुहूर्त प्रमाण होता है। नाम, गोत्र और वेदनीय का स्थितिसत्कर्म असंख्यातवर्ष रहता है । इस क्रम से चलकर वह अनन्तर समय में प्रथम समयवर्ती क्षीणकषाय हो जाता है। तब वह स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का अबन्धक हो जाता है।' ___आगे 'पश्चिमस्कन्ध' को प्रारम्भ करते हुए यह कहा गया है कि आयु के अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाने पर आवजितकरण को करता है और तत्पश्चात् केवलीसमुद्घात को करता है। इसी प्रसंग में वहां आगे कहा गया है कि लोकपूरणसमुद्घात के करने पर तीन अघातिया कर्मों की स्थिति को आयु से संख्यातगुणी स्थापित करता है। यहाँ 'पश्चिमस्कन्ध' में जो यह कहा गया है कि आयु के अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाने पर आवजितकरण के पश्चात् केवलीसमुद्धात को करता है, उसमें केवलिसमुद्घात के न करने का कोई विकल्प नहीं प्रकट किया गया है । इससे यही प्रतीत होता है कि सभी केवली अनिवार्य रूप से उस केवलिसमुद्घात को किया करते हैं। ___ आगे वहां यह भी स्पष्ट किया गया है कि चौथे समय में किये जानेवाले लोकपूरण समद्घात के सम्पन्न होने पर नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन अघातिया कर्मों की स्थिति को आयु से संख्यातगुणी स्थापित करता है। इन तीन अघातिया कर्मों की स्थिति योग का निरोध हो जाने पर आयु के समान होती है । तत्पश्चात् वह शैलेश्य अवस्था को प्राप्त कर अयोगिकेवली हो जाता है। यहां यह कहा गया है कि लोकपूरण समुद्घात के होने पर तीन अधातिया कर्मों की स्थिति को आयु से संख्यातगुणी स्थापित करता है, इससे स्पष्ट है कि पूर्व में उन अघातिया कर्मों की स्थिति समान नहीं होती है। इस विवेचन से यही निश्चित प्रतीत होता है कि यतिवृषभाचार्य को सभी केवलियों के १. ताधे चरिमसमयसुहुमसांपराइयो जादो ताधे णामा-गोदाणं द्विदिबंधो अट्ठमुहुत्ता । वेदणी यस्स ट्ठिदिबंधो वारस मुहुत्ता।xxxणामा-गोद-वेदणीयाणं ट्ठिदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्साणि ।-क० पा० सुत्त, पृ० ८६४, चूणि १५५७-५८ व १५६० २. पच्छिमक्खंधेत्ति अणियोगद्दारे इमा मग्गणा । अंतोमुहुत्ते आउगे सेसे तदो आवज्जिदकरणे कदे तदो केवलिसमुग्घादं करोदि Ixxx तदो चउत्थसमये लोग पूरेदि । लोगे पुण्ण एक्का वग्गणा जोगस्स त्ति समजोगो त्ति णायव्वो। लोगे पुण्णे अंतोमुहुत्तं द्विदि ठवेदि । संखेज्जगुणमाउआदो।-क०पा० सुत्त, पृ० ६००-०२, चूणि १-२ व ११-१४ ।। ३. जोगम्हि णिरुद्धम्हि आउअसमाणि कम्माणि होति । तदो अंतोमुहुत्तं सेले सिं य पडि. वज्जदि।--क०पा० सुत्त, पृ० ६०५, चूणि ४८-४६ ७१२/ षट्खण्डागम-परिशीलन Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा केवलिसमुद्घात का करना अभिप्रेत रहा है । वह केवलिसमुद्घातविषयक विकल्प 'भगवती आराधना' (२१०५-७) के समान सर्वार्थसिद्धि (E-४४) और तत्त्वार्थवार्तिक (E-४४) में भी उपलब्ध होता है। वहाँ भी कहा गया है कि जब केवली की आयु अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाती है तथा नाम, गोत्र और वेदनीय की स्थिति आयु के समान रहती है, तब वे समस्त वचनयोग और मनोयोग का तथा बादर काययोग का निरोध करके सूक्ष्म काययोग का आलम्बन लेते हुए सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपाती ध्यान पर आरूढ़ होने के योग्य होते हैं। किन्तु जब उनकी आयु तो अन्तर्मुहुर्त शेष रहती है, पर शेष तीन अघातिया कों की स्थिति उससे अधिक होती है तब सयोगि-जिन चार समयों में आत्मप्रदेशों के विसर्पण रूप में दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात करके आत्मप्रदेशों का संकोच करते हुए शेष रहे चार अघातिया कर्मों की स्थिति को समान कर लेते हैं और पूर्व शरीर के प्रमाण सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म-क्रियाप्रतिपाती ध्यान को ध्याते हैं । तत्पश्चात् समुच्छिन्न क्रियानिति ध्यान पर आरूढ़ होते हैं। समद्धात विषयक यह दूसरा मत सम्भवतः मूल में कर्मप्रकृतिप्राभूत या षट्खण्डागम के कर्ता का रहा है। कारण यह है कि धवलाकार ने इस मत का आधार लोकपूरण-समुद्घात में बीस संख्या का नियम बतलाया है। यथा____ "येषामाचार्याणां लोकव्यापिकेवलिषु विंशतिसंख्यानिभस्तेषां मतेन केचित् समुद्घातयन्ति, केचिन्न समुद्घातयन्ति ।"-पु० १, पृ० ३०२ यह बीस संख्या का नियम षट्खण्डागम में कार्मणकाययोगियों के प्रसंग में उपलब्ध होता है। वहाँ यह एक सूत्र देखा जाता है"सजोगिकेवली दव्वपमाणेण केवडिया? संखेज्जा ।" -सूत्र १,२,१२३ (पु० ३, पृ० ४०४) यद्यपि सूत्र में स्पष्टतया बीस संख्या का निर्देश नहीं किया गया है, पर उसकी व्याख्या में धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि पूर्व आचार्यों के उपदेशानुसार साठ जीव होते हैं—प्रतर में बीस, लोकपरण में बीस और फिर उतरते हुए प्रतर में बीस ही होते हैं। इस प्रकार यहाँ लोकपूरण में बीस संख्या का ही उल्लेख किया गया है।' इसके अतिरिक्त सर्वप्रथम प्रसंगप्राप्त शंका में द्वितीय विकल्प (निर्हेतुक) की असम्भावना को व्यक्त करते हुए शंकाकार ने यह कहा था कि यदि समुद्घात को निर्हेतुक माना जाता है तो उस परिस्थिति में सभी के समुद्घात को प्राप्त होते हुए मुक्ति का प्रसंग प्राप्त होता है । पर वैसा सम्भव नहीं है. क्योंकि उस स्थिति में लोकपूरणसमुद्घातगत केवलियों की बीस संख्या और वर्षपृथक्त्व प्रमाण अन्तर का नियम नहीं घटित होता है । यह वर्षपृथक्त्व प्रमाण अन्तर भी षट्खण्डागम में उपलब्ध होता है । वहाँ कार्मणकाययोग १. एत्थ पुन्वाइरियोवएसेण सट्ठी जीवा हवंति । कुदो? पदरे बीस, लोगपूरणे बीस, पुणरवि ओदरमाणा पदरे बीस चेव भवंति त्ति ।-पु० ३, पृ० ४०४ २. न द्वितीयविकल्पः, सर्वेषां समुद्घातगमनपूर्वकं मुक्तिप्रसंगात् । अस्तु चेन्न, लोकव्यापिनां केवलिनां विंशतिसंख्या-वर्षपृथक्त्वानन्तर (?) नियमानुपपत्तेः । -पु० १, पृ० ३०१ (पाठ कुछ अशुद्ध हुआ प्रतीत होता है ।) वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति / ७१३ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के प्रसंग में सयोगिकेवलियों के अन्तर को औदारिकमिश्र काययोगियों के अन्तर के समान कहा गया है (सूत्र १, ६, १७७) । औदारिक मिश्रकाययोगियों में संयोगिकेवलियों के अन्तर के प्ररूपक ये सूत्र उपलब्ध होते हैं "सजोगिकेवलीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । उक्कस्सेण वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, निरंतरं ।” -सूत्र १, ६, १६६-६८ (५०५, पृ० १ ) इस विवेचन से ऐसा प्रतीत होता है कि धवलाकार ने यतिवृषभाचार्य के मत को प्रधानता देकर दूसरे मत को प्रसंगप्राप्त उन दो गाथाओं के आधार पर सन्दिग्धावस्था में छोड़ दिया है । (३) क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत 'भागाभाग' अनुयोगद्वार में सामान्य, पर्याप्त व अपर्याप्त अवस्था-युक्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक और सूक्ष्मनिगोद जीवों के भागाभाग के प्ररूपक तीन सूत्र उपलब्ध होते हैं । "सुहुमवणफदिकाइया सुहुमणिगोदजीवा सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ।। २६ ।। " "सुहुमवणप्फदिकाइय-सुहुमणिगोदजीवपज्जत्ता सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ।। ३१ ।। " "सुहुमवणप्फादिकाइय-सुहु मणिगोदजीव अपज्जत्ता सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ||३३|| " इन तीन सूत्रों में सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों से सूक्ष्म निगोद जीवों का पृथक उल्लेख किया गया है । इस प्रसंग में धवलाकार ने सूत्र ३२ की व्याख्या करते हुए यह कहा है कि यहाँ सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों को कहकर आगे सूक्ष्म निगोद जीवों का उल्लेख पृथक से किया गया है । इससे जाना जाता है कि सब सूक्ष्म वनस्पतिकायिक ही सूक्ष्म निगोदजीव नहीं होते हैं । इस पर वहाँ यह शंका उत्पन्न हुई है कि यदि ऐसा है तो "सब सूक्ष्म वनस्पतिकायिक निगोद ही होते हैं" यह जो कहा गया है, उसके साथ विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है । इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि उसके साथ कुछ विरोध नहीं होगा, क्योंकि सूक्ष्म निगोद सूक्ष्म वनस्पतिकायिक ही होते हैं, ऐसा वहाँ अवधारण नहीं किया गया है । इसे धवला में आगे अन्यत्र भी शंका-समाधानपूर्वक स्पष्ट किया गया है ।" यह ध्यान रहे कि आगे 'बन्धन' अनुयोगद्वार में शरीरिशरीर- प्ररूपणा के प्रसंग में यह एक सूत्र उपलब्ध होता है “तत्थ जे ते साधारणसरीरा ते णियमा वणप्पदिकाइया [ चेवे त्ति ] | अवसेसा पत्तेयसरीरा ।" --सूत्र १२०, (पु०१४, पृ० २२५ ) जैसाकि ऊपर शंकाकार ने कहा है, इस सूत्र का भी यही अभिप्राय है कि साधारणशरीर ( निगोदजीव) सब वनस्पतिकायिक ही होते हैं, उनसे पृथक् नहीं होते । आगे सूत्र ३४ की व्याख्या के प्रसंग में पुनः शंका उठाते हुए यह कहा गया है कि 'निगोद सब वनस्पतिकायिक ही होते हैं, अन्य नहीं' इस अभिप्राय को व्यक्त करने वाले कुछ भागाभाग सूत्र स्थित हैं । सूक्ष्म वनस्पतिकायिक भागाभाग सम्बन्धी उन तीनों ही सूत्रों में निगोद जीवों का निर्देश नहीं किया गया है। इसलिए उन सूत्रों के साथ इन सूत्रों (२६, ३१ व ३३ ) का विरोध होने वाला है । इसके समाधान में धवलाकार कहते हैं कि यदि ऐसा है तो उपदेश को प्राप्त कर 'यह सूत्र १. देखिए धवला, पु० ७, पृ० ५०४-६ ७१४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है और यह असूत्र है' ऐसा, आगम में जो निपुण हैं वे कहें, किन्तु हम इस विषय में कुछ कहने के लिए समर्थ नहीं हैं, क्योंकि हमें इस प्रकार का उपदेश प्राप्त नहीं है।' ___इस प्रकार धवलाकार ने आगम पर निष्ठा रखते हुए यह अभिप्राय प्रकट कर दिया है कि जिन्हें परम्परागत श्रुत से यह ज्ञात है कि अमुक सूत्र है और इसके विपरीत सूत्र नहीं है, वे अधिकारपूर्वक वैसा कह सकते हैं; पर उपदेश के अभाव में हम वैसा निर्णय करके आगम की अवहेलना नहीं कर सकते। (४) यही प्रसंग यहीं पर आगे चलकर अल्पबहुत्वानुगम में पुनः प्राप्त हुआ है। वहाँ प्रसंग के अनुसार ये सूत्र प्राप्त होते हैं "सुहमवणप्फदिकाइया असंखेज्जगुणा । वणप्फदिकाइया विसेसाहिया। णिगोदजीवा विसेसाहिया।" --सूत्र २,११,७३-७५ यहाँ सूत्र ७५ की व्याख्या के प्रसंग में शंकाकार कहता है कि यह सूत्र निरर्थक है, क्योंकि वनस्पतिकायिकों से भिन्न निगोदजीव नहीं पाये जाते। दूसरे, वनस्पतिकायिकों से पृथग्भूत पृथिवीकायिक आदिकों में निगोद जीव हैं, ऐसा आचार्यों का उपदेश भी नहीं है; जिससे इस वचन की सूत्ररूपता का प्रसंग प्राप्त हो सके। इस शंका का निराकरण करते हुए धवलाकार कहते हैं कि तुम्हारा कहना सत्य हो सकता है. क्योंकि बहत से सूत्रों में वनस्पतिकायिकों के आगे 'निगोद' पद नहीं पाया जाता तथा बहुत से आचार्यों को वह अभीष्ट भी है। किन्तु यह सूत्र ही नहीं है, ऐसा अवधारण करना योग्य नहीं है। ऐसा तो वह कह सकता है जो चौदह पूर्वो का पारंगत हो अथवा केवलज्ञानी हो। परन्तु वर्तमान काल में वे नहीं हैं तथा उनके पास में सुनकर आने वाले भी इस समय नहीं प्राप्त होते। इसलिए सूत्र को आसादना से भयभीत आचार्यों को दोनों ही सूत्रों का व्याख्यान करना चाहिए। इसी प्रसंग में कुछ अन्य शंका-समाधानों के पश्चात् यह भी एक शंका की गयी है कि सत्र में वनस्पतिनामकर्म के उदय से युक्त सब जीवों के 'वनस्पति' संज्ञा दिखती है, तब फिर बादर निगोदजीवों से प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित जीवों के यहां 'वनस्पति' संज्ञा का निर्देश सत्र में क्यों नहीं किया गया। इस विषय में धवलाकार को यह कहना पड़ा हैं कि यह गौतम से पूछना चाहिए, गौतम को बादर निगोद जीवों से प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित जीवों की वनस्पति' संज्ञा अभीष्ट नहीं है, यह हमने उनका अभिप्राय कह दिया है।' यहाँ धवलाकार ने परस्पर भिन्न उपलब्ध दोनों प्रकार के सूत्रों में सूत्ररूपता का निर्णय करना शक्य न होने से सूत्रासादना से भीत आचार्यों को दोनों ही विभिन्न सूत्रों का व्याख्यान करने की प्रेरणा की है। (५) बन्धस्वामित्वविचय में संज्वलनमान और माया इन दो प्रकृतियों के बन्धक-अबन्धकों के प्रसंग में धवला में कहा गया है कि संज्वलन क्रोध के विनष्ट होने पर जो अनिवृत्तिकरण १. धवला, पु०७, पृ० ५०६-७ २. यहां पीछे इसी प्रकार के सूत्र २,११,५७-५६, आगे सूत्र २,११,१०२-६ तथा २,११-२, ७७-७६ भी द्रष्टव्य हैं। ३. धवला, पु० ७, पृ० ५३९-४१ वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति | ७१५ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल का संख्यातवां भाग शेष रहता है उसके संख्यात खण्ड करने पर उनमें से बहमाग को बिताकर एक खण्ड के शेष रहने पर संज्वलनमान के बन्ध का व्युच्छेद होता है। पश्चात् उस एक खण्ड के भी संख्यात खण्ड करने पर, उनमें से बहुत खण्ड जाकर एक खण्ड रहने पर, संज्वलनमाया के बन्ध का व्युच्छेद होता है। इस पर यह पूछने पर कि यह कैसे जाना जाता है, धवलाकार ने कहा है कि वह सूत्र में जो "सेसे सेसे संखेज्जे भागे गंतूण" इस प्रकार से 'सेसे' शब्द की पुनरावृत्ति की गयी है, उससे जाना जाता है। इस पर शंकाकार कहता है कि यह सूत्र कषायप्राभृतसूत्र के साथ विरोध को प्राप्त होता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यथार्थ में वह कषायप्राभूत के साथ विरोध को प्राप्त होता है, किन्तु 'यही सत्य है, वही सत्य है' इस प्रकार से एकान्ताग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि श्रतकेवलियों अथवा प्रत्यक्षज्ञानियों के बिना वैसा अवधारण करने पर मिथ्यात्व का प्रसंग प्राप्त होता है। आगे फिर यह शंका उठायी गयी है कि सूत्रों में परस्पर विरोध कैसे होता है । इसके उत्तर में कहा गया है कि सूत्रों के उपसंहार अल्पश्रुत के धारक आचार्यों के आधीन रहे हैं, इसलिए उनमें विरोध की सम्भावना देखी जाती है। फिर भी जिस प्रकार अमृतसमुद्र के जल को घड़े आदि में भरने पर भी उसमें अमृतपना बना रहता है, उसी प्रकार इन विरुद्ध प्रतिभासित होने वाले सूत्रों में भी सूत्ररूपता समझनी चाहिए।' इस प्रकार धवलाकार ने यह अभिप्राय प्रकट किया है कि जिस प्रकार अमतसमुद्र के जल को किसी छोटे घड़े आदि में भरने पर भी उसका अमृतपना नष्ट नहीं होता है, उसी प्रकार विशाल सत्रस्वरूप श्रुत का संक्षेप में उपसंहार करने पर भी, उसकी सूत्ररूपता नष्ट नहीं होती है। यह अवश्य है कि अल्पज्ञों के द्वारा किए गये उपसंहार में क्वचित् विरोध की सम्भावना सकती है। पर केवली व श्रुतकेवली के बिना चूंकि उसकी यथार्थता व अयथार्थता का निर्णय करना शक्य नहीं है, इसलिए उसके विषय में 'यह सत्य है और वह असत्य है' ऐसा कदाग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि वैसा करने पर मिथ्यात्व का प्रसंग प्राप्त होता है। (६) वेदनाखण्ड के अन्तर्गत 'कृति' अनुयोगद्वार में प्रसंग प्राप्त होने पर धवलाकार ने कृतिसंचित व नोकृतिसंचित आदिकों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की है। इस प्रसंग में सिद्धों में प्रकृत अल्पबहत्व की कुछ विशेषता को प्रकट करते हुए धवला में यह स्पष्ट किया गया है कि यह अल्पबहत्व सोलह पदवाले अल्पबहुत्व के साथ विरोध को प्राप्त होता है, क्योंकि इसमें सिद्धकाल से सिद्धों का संख्यातगुणत्व नष्ट होकर विशेष अधिकता का प्रसंग प्राप्त होता है। इस प्रकार इस विषय में उपदेश प्राप्त करके किसी एक का निर्णय करना चाहिए। इसी प्रसंग में आगे धधलाकार ने सत्कर्मप्रकृतिप्राभूत को छोड़कर सोलह पद वाले उस अल्पबहुत्वदण्डक को प्रधान करके उसकी प्ररूपणा की है। १. देखिए धवला, पु० ८, पृ० ५६-५७ २. सम्भवतः पूर्वोक्त अल्पबहुत्व सत्कर्मप्रकृतिप्राभूत के अनुसार रहा है। ३. देखिए धवला, पु० ६, पृ० ३१८-२१ (सोलह पद वाला अल्पबहुत्व धवला, पु० ३, पृ० ३०-३१ में देखा जा सकता है।) ७१६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी के विकल्पों के प्ररूपक सूत्र (५,५,१२० ) की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने उस प्रसंग में दो भिन्न मतों का उल्लेख किया है और आगे यह भी कह दिया है कि ये दोनों मत सूत्रसिद्ध हैं, क्योंकि आगे उन दोनों उपदेशों के अनुसार पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्व की वहाँ प्ररूपणा की गयी है । इस पर वहाँ धवला में यह शंका उठायी गयी है कि विरुद्ध दो अर्थों का प्ररूपक सूत्र कैसे हो सकता है । इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह सत्य है, जो सूत्र है वह अविरुद्ध अर्थ का ही प्ररूपक होता है । किन्तु यह सूत्र नहीं है, सूत्र के समान होने से उसे उपचार से सूत्र माना गया है । इस प्रसंग में आगे उन्होंने सूत्र के स्वरूप की प्ररूपक "सुत्तं गणधर कहियं " इत्यादि गाथा को उद्धृत करते हुए यह कहा है कि भूतबलि भट्टारक गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली अथवा अभिन्नदशपूर्वी नहीं हैं, जिससे यह सूत्र हो सके । इस पर उसके अप्रमाणत्व की आशंका को हृदयंगम करते हुए आगे धवलाकार ने कहा है कि राग, द्वेष और मोह से रहित होने के कारण चूंकि वह प्रमाणीभूत पुरुषों की परम्परा से प्राप्त है, इसलिए उसे अप्रमाण नहीं कहा जा सकता है । यहाँ यह विशेषता रही है कि धवलाकार ने इस विषय में अपने अभिप्राय को व्यक्त करते हुए अन्त में यह भी कहा है कि हमारा तो यह अभिप्राय है कि प्रकृत सूत्र का प्रथम प्ररूपित अर्थं ही समीचीन है, दूसरा समीचीन नहीं है । इसके कारण को भी उन्होंने स्पष्ट कर दिया है । इसकी पुष्टि में आगे उन्होंने यह भी कहा है कि कुछ सूत्रपोथियों में दूसरे अर्थ के आश्रय से प्ररूपित अल्पबहुत्व का अभाव भी है।' यहाँ धवलाकार ने प्रथम तो प्रकृत सूत्र के दोनों व्याख्यानों को सूत्रसिद्ध मान लिया है, क्योंकि उन दोनों व्याख्यानों के अनुसार प्रकृत आनुपूर्वीविकल्पों में मूल सूत्रों में ही दो प्रकार से अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है । — देखिए सूत्र १२३ २७ व १२८-३२ अन्त में उन्होंने अपने स्वतन्त्र अभिप्राय के अनुसार प्रथम व्याख्यान को यथार्थ और दूसरे व्याख्यान को अयथार्थ बतलाया है । उसका एक कारण यह भी रहा है कि कुछ सूत्रपोथियों में दूसरे प्रकार के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा नहीं उपलब्ध होती है । सूत्र के अभाव में आचार्य परम्परागत व गुरु के उपदेश को महत्त्व यह पूर्व में कहा जा चुका है कि धवलाकार के समक्ष जहाँ तकं विवक्षित विषय से सम्बन्धित सूत्र रहा है, उन्होंने उसे ही महत्त्व दिया है। किन्तु जब उनके समक्ष विवक्षित विषय से सम्बद्ध सूत्र नहीं रहा है तब उन्होंने आचार्य परम्परागत उपदेश या गुरूपदेश को भी महत्त्व दिया है। इसके लिए यहाँ कुछ उदाहरण दिए जाते हैं (१) जीवस्थान- द्रव्यप्रमाणानुगम में सूत्रकार द्वारा प्रमत्तसंयतों का प्रमाण कोटिपृथक्त्व निर्दिष्ट किया गया है । -सूत्र १,२,७ इसकी व्याख्या के प्रसंग में धवला में यह शंका की गयी है कि 'कोटिपृथक्त्व' से तीन करोड़ के नीचे की संख्या को ग्रहण करना चाहिए। पर उसके अनेक विकल्प होने से उनमें से प्रकृत में कौन सी संख्या अभिप्रेत रही है, यह नहीं जाना जाता । इसके स्पष्टीकरण धवलाकार १. धवला, पु० १३, पृ० ३७७-८२ वीरसेनाचार्य की व्याख्यान -पद्धति / ७१७ Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने कहा है कि वह परमगुरु के उपदेश से जानी जाती है । तदनुसार उन प्रमत्तसंयतों का प्रमाण पांच करोड़ तेरान लाख अट्ठानव हजार दो सौ छह (५६३९८२०६) है। इस पर पुनः यह पूछा गया है कि वह संख्या इतनी मात्र ही है, यह कैसे जाना जाता है । इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह आचार्यपरम्परागत जिनोपदेश से जाना जाता है। यही प्ररूपणा का क्रम अप्रमत्तसंयतों की संख्या के विषय में भी रहा है।' इस प्रकार सूत्र में प्रमत्तसंयतों और अप्रमत्तसंयतों की निश्चित संख्या का उल्लेख न होने पर भी धवलाकार ने उसका उल्लेख परमगुरु के उपदेश और आचार्य-परम्परागत जिनदेव के उपदेश के अनुसार किया है। (२) यहीं पर आगे नरकगति के आश्रय से द्वितीयादि छह पृथिवियों के मिथ्यादष्टि नारकियों की संख्या को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि जगश्रेणि के प्रथम वर्गमूल को आदि करके नीचे के बारह वर्गमूलों को परस्पर गणित करने से जो राशि प्राप्त हो, उतना दसरी पथिवी के मिथ्यादृष्टि नारकियों का द्रव्यप्रमाण है । इसी क्रम से आगे दस, आठ, छह, तीन और दो वर्गमूलों को परस्पर गुणित करने से क्रमशः तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी और सातवीं पृथिवी के मिथ्यादृष्टि नारकियों का द्रव्यप्रमाण प्राप्त होता है। ___इस पर वहाँ यह पूछा गया है कि इतने वर्गमूलों का परस्पर संवर्ग करने पर द्वितीयादि पृथिवियों के नारकियों का द्रव्यप्रमाण होता है, यह कैसे जाना जाता है। उत्तर में कहा गया है कि वह आचार्यपरम्परागत अविरुद्ध उपदेश से जाना जाता है। यहाँ सूत्र (१,२,२२) में सामान्य से द्वितीयादि पृथिवियों के मिथ्यादृष्टि नारकियों का प्रमाण क्षेत्र की अपेक्षा जगश्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र बतलाकर उसका आयाम प्रथमादि संख्यात वर्गमूलों के परस्पर गुणित करने से प्राप्त असंख्यात कोटि योजन प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है। इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने जो विशेष रूप से जगणि के बारह व दस आदि वर्गमूलों को ग्रहण किया है, उन्हें आचार्यपरम्परागत उपदेश के अनुसार ग्रहण किया है। (३) जीवस्थान-कालानुगम में सूत्रकार द्वारा बादर पृथिवीकायिकादिकों का उत्कृष्ट काल कर्मस्थिति प्रमाण कहा गया है ।-सूत्र १,५,१४४ यहां धवला में यह शंका उठायी गयी है कि सत्र में निर्दिष्ट 'कर्मस्थिति' से क्या सब को की स्थितियों को ग्रहण किया जाता है या एक ही कर्म की स्थिति को ग्रहण किया जाता है। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि सब कर्मों की स्थितियों को न ग्रहण करके एक ही कर्म की स्थिति को ग्रहण किया गया है, उसमें भी दर्शनमोहनीय की ही सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वही प्रधान है । इसका भी कारण यह है कि उसमें समस्त कर्मस्थितियां संग्रहीत हैं। इस प्रसंग में यह पूछे जाने पर कि यह कैसे जाना जाता है, धवलाकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह स्पष्टीकरण हमने गुरु के उपदेश के अनुसार किया है। १. धवला, पु० २३, पृ० ८८-८६ २. वही, पृ० ८६ ३. धवला, पु० ३, पृ० १६६.२०१ ४. धवला, पु० ४, पृ० ४०२-३ ७१८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) जीवस्थान-अन्तरानुगम में प्रसंगप्राप्त तियंचगति में तिर्यचमिथ्यादृष्टियों का अन्तर एक जीव की अपेक्षा कुछ कम तीन पल्योपम प्रमाण कहा गया है।-सूत्र १,६,३५-३७ इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि इस विषय में दो उपदेश हैं-एक उपदेश के अनुसार जीव तियंचों में दो मास और मुहूर्तपृथक्त्व के ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयम ग्रहण करता है । मनुष्यों में वह अन्तर्मुहूर्त से अधिक आठ वर्ष का होने पर सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम को ग्रहण करता है । यह दक्षिण प्रतिपत्ति है । दक्षिण, ऋजु और आचार्यपरम्परागत-ये समान अर्थ के वाचक हैं। यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि जो जीव (मनुष्य) आठ वर्ष व अन्तर्मुहूर्त का होकर सम्यक्त्व, संयम व संयमासंयम को ग्रहण करता है वह गर्भ से लेकर आठ वर्ष का होने पर उन्हें ग्रहण करता है। इसे दक्षिण प्रतिपत्ति कहा गया है । उत्तर प्रतिपत्ति के अनुसार वह आठ वर्षों के ऊपर उन्हें ग्रहण करता है। इसी प्रकार का एक प्रसंग प्रत्येक शरीरद्रव्यवर्गणा की प्ररूपणा करते समय भी प्राप्त हुआ है। वहां धवलाकार ने प्रथमतः गर्भनिष्क्रमण से लेकर आठ वर्ष कहा है और तत्पश्चात् वहीं पर आगे गर्भ से लेकर आठ वर्ष कहा है। इस प्रकार इन दोनों कथनों में भिन्नता हो गयी है। -पु० १४, पृ० ६६ व ७१ दूसरे उपदेश के अनुसार तियंचों में उत्पन्न हुआ जीव तीन पक्ष, तीन दिन और अन्तर्मुहूर्त के ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयम को प्राप्त करता है । मनुष्यों में उत्पन्न हुआ जीव आठ वर्षों के ऊपर सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम को प्राप्त करता है। यह उत्तरप्रतिपत्ति है। उत्तर, अनुजु और आचार्यपरम्परा से अनागत-इनका एक ही अर्थ है।' ___ इस प्रकार धवलाकार ने तिर्यंच मिथ्यादृटियों के सूत्रनिर्दिष्ट कुछ कम तीन पल्योपम प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर को स्पष्ट करते हुए सम्यक्त्व व संयमासंयम के ग्रहण का प्रसंग पाकर उससे सम्बन्धित उपर्युक्त दो उपदेशों का उल्लेख किया है। इसमें उन्होंने आचार्यपरम्परागत उपदेश को दक्षिणप्रतिपत्ति और आचार्यपरम्परा से अनागत उपदेश को उत्तरप्रतिपत्ति कहा है । प्रकृत में धवलाकार ने आचार्यपरम्परागत प्रथम उपदेश के अनुसार ही उपर्युक्त अन्तर की प्ररूपणा की है व दूसरे उपदेश की उपेक्षा की है। (५) वेदनाद्रव्यविधान में ज्ञानावरणीय की अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना के स्वामी की प्ररूपणा करते हुए प्रसंगवश धवला में कहा गया है कि विवक्षित अनुत्कृष्ट प्रदेशस्थानों का स्वामी गुणितकौशिक होता है। इस प्रसंग में वहाँ यह शंका उठायी गयी है कि गुणितकौशिक जीव के इनसे अधिक स्थान क्यों नहीं होते । इसके उत्तर में वहां कहा गया है कि गुणितकौशिक के उत्कर्ष से एक ही समयप्रबद्ध बँधता व हानि को प्राप्त होता है ऐसा आचार्यपरम्परागत उपदेश है। आगे वहाँ कहा गया है कि गुणितकौशिक के इस अनुत्कृष्ट जघन्य प्रदेशस्थान से गुणितघोलमान का उत्कृष्ट प्रदेशस्थान विशेष अधिक होता है । इसको छोड़ कर और गुणितकौशिक के जघन्य प्रदेशस्थान प्रमाण गुणितघोलमान के अनुत्कृष्ट प्रदेशस्थान को ग्रहण करके एक परमाणुहीन व दो परमाणुहीन आदि के क्रम से हीन करते हुए गुणितघोलमान के उत्कृष्ट १. धवला, पु० ५, पृ० ३१-३२ वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति / ७१६ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेशस्थान से असंख्यातगुणा होन उसी का जघन्य प्रदेशस्थान होता है । गुणिकौशिक के जघन्य प्रदेशस्थान के समान गुणितघोलमान के प्रदेशस्थान से अनन्तभागहीन, असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहीन और असंख्यातगुणहीन स्वरूप से हानि को प्राप्त होनेवाले अपने इन स्थानों का गुणितघोलमान स्वामी होता है। कारण यह कि गुणितघोलमान के स्थानों के पांच वृद्धियां और पांच हानियाँ होती हैं, ऐसा गुरु का उपदेश है।' ___ इस प्रकार से धवलाकार ने प्रसंगप्राप्त ज्ञानावरणीय के अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदनास्थानों के यथासम्भव स्वामियों का उल्लेख आचार्यपरम्परागत उपदेश और गुरु के उपदेश के आधार से किया है। (६) आगे इसी वेदनाद्रव्यविधान की चूलिका में सूत्रकार के द्वारा वर्गणाओं का प्रमाण श्रेणि के असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात निर्दिष्ट किया गया है। -सूत्र ४,२,४,१८१ ___इसकी व्याख्या करते हुए उस प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि सभी वर्गणाओं की दीर्घता समान नहीं है, क्योंकि वे आदिमवर्गणा से लेकर उत्तरोत्तर विशेष हीन स्वरूप से अवस्थित हैं । इस पर यह पूछने पर कि वह कैसे जाना जाता है, धवलाकार ने कहा है कि वह आचार्यपरम्परागत उपदेश से जाना जाता है। यहीं पर आगे धवलाकार ने गुरु के उपदेश के बल से प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व इन छह अनुयोगद्वारों में वर्गणा-सम्बन्धी जीवप्रदेशों की प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा करते हुए यथाक्रम से उनकी प्ररूपणा की है। (७) इसके पूर्व इस वेदनाद्रव्यविधान में ज्ञानावरणीय की अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना के स्वामी की प्ररूपणा के प्रसंग में "संजमं पडिवण्णो" सूत्र (४,२,४,६०) की व्याख्या में यह पूछा गया है कि यहां असंख्यातगुणित श्रेणि के रूप में कर्मनिर्जरा होती है, यह कैसे जाना जाता है । उत्तर में धवलाकार ने “सम्मत्तुप्पत्ती वि य" आदि दो गाथाओं को उद्धृत करते हुए यह कहा है कि वह इन गाथासूत्रों के द्वारा जाना जाता है। __इसी प्रसंग में आगे यह भी शंका उठी है कि यहां जो द्रव्य निर्जरा को प्राप्त हुआ है, वह बादर एकेन्द्रियादिकों में संचित द्रव्य से असंख्यातगुणा है, यह कैसे जाना जाता है । इसके उत्तर में प्रथम तो धवला में यह कहा गया है कि सूत्र में 'संजमं पडिवज्जिय' ऐसा न कहकर 'संजमं पडिवण्णो' यह जो कहा गया है उससे जाना जाता है कि यहां निर्जीर्ण द्रव्य त्रस व बादरकायिकों में संचित द्रव्य से असंख्यातगुणा है, क्योंकि आचार्य प्रयोजन के बिना क्रिया की समाप्ति को नहीं कहते हैं । इससे यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए कि स-स्थावरकायिकों में संचित द्रव्य से असंख्यातगुणे द्रव्य की निर्जरा करके संयम को प्राप्त हुआ है। इसी शंका के समाधान में प्रकारान्तर से वहाँ यह भी कहा गया है—अथवा 'गुणश्रेणि की जघन्य स्थिति में प्रथम बार निषिक्त द्रव्य असंख्यात आवलियों के समयप्रमाण समयप्रबद्धों से युक्त होता है' इस प्रकार का जो आचार्य-परम्परागत उपदेश है उससे जाना जाता है कि यहाँ निर्जराप्राप्त द्रव्य असंख्यातगुणा है ।। १. धवला, पु० १०, पृ० २१४-१५ २. धवला, पु० १०, पृ० ४४४ ३. वही, पृ० २४४-४६ ४. धवला, पु० १०, पृ० २७८.८३ ७२० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में व्यंजनावग्रहावरणीय के प्रसंग में तत-वितत आदि शब्दों और भाषा-कुभाषा के विषय में कुछ विचार किया गया है। इस प्रसंग में धवला में यह कहा गया है कि शब्दपुद्गल अपने उत्पत्ति-क्षेत्र से उछलकर दस दिशाओं में जाते हुए उत्कृष्ट रूप से लोक के अन्त तक जाते हैं । इस पर, यह कहाँ से जाना जाता है-ऐसा पूछने पर धवलाकार ने कहा है कि वह सूत्र से अविरुद्ध आचार्य-वचन से जाना जाता है।' (E) इसी 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में आगे अवधिज्ञानावरणीय के प्रसंग में अवधिज्ञान के भेद-प्रभेदों का विचार करते हुए उनमें एकक्षेत्र अवधिज्ञान के श्रीवत्स, कलश व शंख आदि कुछ विशिष्ट स्थानों को ज्ञातव्य कहा गया है। -सूत्र ५,५,५८ इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि ये संस्थान तिर्यच व मनुष्यों के नाभि के उपरिम भाग में होते हैं, नाभि के नीचे वे नहीं होते हैं; क्योंकि शुभ संस्थानों का शरीर के अधोभाग के साथ विरोध है । तियंच व मनुष्य विभंगज्ञानियों के नाभि के नीचे गिरगिट आदि अशुभ संस्थान होते हैं । आगे उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि इस विषय में कोई सूत्र उपलब्ध नहीं है, गुरु के उपरेशानुसार यह व्याख्यान किया गया है । विभंगज्ञानियों के सम्यक्त्व आदि के फलस्वरूप अवधिज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर, वे गिरगिट आदि रूप अशुभ संस्थान नष्ट होकर नाभि के ऊपर शंख आदि शुभ संस्थान हो जाते हैं। इसी प्रकार अवधिज्ञान से पीछे आये हुए विभंगज्ञानियों के भी शुभ संस्थान हटकर अशुभ संस्थान हो जाते हैं, यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए। (१०) यहीं पर उक्त अवधिज्ञान की प्ररूपणा के प्रसंग में "कालो चदुण्ण वुड्ढी" इत्यादि गाथासूत्र प्राप्त हुआ है । धवला में यहाँ इसके शब्दार्थ को स्पष्ट करते हुए आगे यह कहा गया है कि इस गाथा की प्ररूपणा जिस प्रकार वेदनाखण्ड में की गयी है (पु० ६, पृ० २८४०) उसी प्रकार उसकी प्ररूपणा पूर्ण रूप से यहां करनी चाहिए। आगे वहाँ यह सूचना की गयी है कि इस गाथा के अर्थ का सम्बन्ध देशावधि के साथ जोड़ना चाहिए, परमावधि के साथ नहीं। ___ इस पर यह पूछने पर कि वह कहाँ से जाना जाता है, धवलाकार ने कहा है कि वह आचार्यपरम्परागत सूत्र से अविरत व्याख्यान से जाना जाता है । आगे कहा गया है कि परमावधिज्ञान में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की वृद्धि एक साथ होती है, ऐसा कथन करना चाहिए, क्योंकि ऐसा अविरुद्ध आचार्यों का कथन है।' ___ यहीं पर आगे धवला में मनःपर्ययज्ञान के विषय की प्ररूपणा के प्रसंग में यह सूचना की गयी है कि इस प्रकार के ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान के विषयभूत जघन्य उत्कृष्ट द्रव्य के ये विकल्प सूत्र में नहीं हैं, फिर भी हमने उनकी प्ररूपणा पूर्वाचार्यों के उपदेशानुसार की है। १. वही, पु० १३, पृ० २२१-२२ २. धवला, पु० १३, पृ० २६७-६८ ३. , पृ० ३०६-१० ४. धवला, पु० १३, पृ० ३३७ वीरसेनाचार्य को व्याख्यान-पद्धति / ७२१ Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य परम्परागत उपदेश और गुरूपदेश के कुछ अन्य प्रसंग इस प्रकार देखे जा सकते १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ६. १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८. १६. २०. २१. २२. २३. २४. गुरूपदेश १. २. ३. ४. ५. पु० ३ #7 " ५ E ११ १२ "3 11 १३ " 17 11 १४ """ 11 17 27 "1 १४ ६६-१०० "" 31 13 "" ३ 37 ४ 37 ७ पृष्ठ ३३६ ४०२ ४०६ ३१ १०३ १५-१६ ४३ ६४ २२१ २२२ ३०२ ३२० ३८५ ५६ ६१ ८ १ ८३ १०७ १४८ १६८-६६ १७० २०५ ५१५ ८६ 33 १७५ ४०३ ३७१ ७२२ / षट्खण्डागम-परिशीलन प्रसंग ...त्ति घेत्तव्वं, आइरियपरंपरागओएसत्तादो । एत्थ आइरियपरंपरागदोवएसेण... सुत्तं वक्खाणं वा, किंतु आइरियवयणमेव केवलमत्थि । कधमेदं णव्वदे ? आइरियपरंपरागदुवदेसादो । ... नियमस्स आइरियपरंपरागयस्स पदुप्पायणट्ठ कदो । सुत्ते विणा कधमेदं णव्वदे ? आइरियपरंपरागयपवाइजंतुवदेसादो । कधमेदेसि तुल्लत्तं णव्वदे ? ण, आइरियोवदेसादो । कुदो ? आइरियोवदेसादो । कुदो णम्बदे ? आइरियोवदेसादो । कुदो एदं णव्वदे ? सुत्ताविरुद्धाइरियवयणादो । ...आइरियपरंपरागदअविरुद्धवदेसादो । ...त्ति कुदो णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो । ...त्ति कुदो णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो । कधमेदं णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो । ...त्ति कुदो णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो । "त्ति अविरुद्धाइरियवयणेण अवगदत्तादो । • "त्ति कथं णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो । कुदो एदं णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो । ...त्ति कुदो णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो । कुदो एदं णव्वदे ? आइरियपरंपराग दसुत्ताविरुद्धगुरूवदे सादो । कुदो दमवगम्म ? अविरुद्धाइरियवयणादो । कुदो एदं णव्वदे ? अविरुद्धा इरियवयणादो सुत्तसमाणादो । "त्ति कुदो णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो जुत्तीए च । कुदो णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो | .."त्ति ण जाणिज्जदे । ण, परमगुरूवदेसादो जाणिज्जदे । ...त्ति कधं णव्वदे ? आइरियपरंपरागदजिणोवदेसादो । ...आणुपुवीए विवागो होदित्ति गुरूवएसादो । कुदो ? गुरूवदेसादो । जोयल बाहल्लो तिरियलोगो त्ति गुरूवएसादो । Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पु० पृष्ठ प्रसंग ७४ १०६ २१५ ३०४ ३०६ ३८६-८७ ४५५ ४८२ २४२ इदमेव इंदियं घेप्पदि त्ति कधं णध्वदे? गुरूवदेसाक्षा। ..."वग्गणाओ होति त्ति गुरूवदेसादो । कुदो णव्वदे ? परमगुरूवदेसादो । ...होति त्ति परमगुरूवदेसादो। ... होति त्ति गुरूवएसादो। ..'समयपबद्धो वड्ढदि त्ति गुरूवएसादो । .. समयपबद्धो वड्ढदि त्ति गुरूवदेसादो । 'एइंदियसमयपबद्धा अत्थित्ति गुरूवदेसादो। .."दुगुणो चेव होदि त्ति गुरूवएसादो। ''होति त्ति गुरूवएसादो णव्वदे । होदि त्ति कुदो णव्वदे ? परमगुरूवदेसादो। कधमेदं णवदे ? परमगुरूवदेसादो । कथं तुल्लत्तं णव्वदे ? परमगुरूवएसादो। ... 'तो एगसमयपबद्धो चेव झिज्जदि त्ति गुरूवदेसादो। ''होति त्ति गुरूवदेसो, ण सुत्तमत्थि । ... 'पमाणंगुलादीणं गहणं कायव्वमिदि गुरूवदेसादो। .' कुदो णव्वदे ? गुरूवदेसादो। कुदो एदमवगम्मदे ? गुरूवदेसादो। एसो वि गुरूवएसो चेव, वट्टमाणकाले सुत्ताभावादो। कुदो एवं णव्वदे ? आइरियपरंपरागदसुत्ताविरुद्धगुरूवदेसादो। कुदो एवं णव्वदे ? गुरूवदेसादो। ''कुदो णव्वदे? गुरूवदेसादो। , ४४६-४७ २६८ ३०४-५ ३१४ ३१६ ३२०-२१ १४८ २६. १६४ २१२ २७. सुचाभाव १ - २१६ २२० Go * ४०६ २६६ ... तेसि णिरूवयसुत्ताभावादो। "तहा पडिवाययसुत्ताभावादो। 'तदत्थित्तविहाययसुत्ताणुवलंभादो। "तदणुग्गहकारिसुत्ताणुवलंभादो। पत्थि सुत्तं वक्खाणं वा, किंतु आइरियवयणमेव केवलमथि । .."त्ति लोत्तुं जुत्तं, तप्पदुप्पायणसुत्ताभावा । ... "परूवयसुत्त-वक्खाणाणमणुवलंभादो। एदं ण जाणिज्जदे । कुदो ? सुत्ताभावादो। ... 'समयपबद्धट्ठदा होति त्ति सुत्ताभावादो। असंबद्ध मिदमप्पाबहुअं, सुत्ताभावादो। ''त्ति गुरूवदेसो, ण सुत्तमस्थि । . वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति | ७२३ ३२८ ४६४ १६५ २६८ Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसंग पु० पृष्ठ १२. १३ ३२०-२१ एसो वि गुरूवएसो चेव, वट्टमाणकाले सुत्ताभावादो। १३. ३२२ सुत्तेण विणा कधमेदं णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो। १४. १४ ४६२ सुत्तेण विणा 'कुदो णव्वदे ? सुत्ताविरुद्धाइरियवयणादो। इस प्रकार धवलाकार ने सूत्र के अभाव में विवक्षित विषय की प्ररूपणा में आचार्यपरम्परागत उपदेश और गुरूपदेश का भी आश्रय लिया है । कुछ प्रसंगों पर उन्होंने विवक्षित विषय का व्याख्यान करते हुए उपदेश के अभाव में प्रायः उसकी प्ररूपणा नहीं की है। यथा (१) णत्थि संपहियकाले उवएसो।-पु० ३, पृ० २३६ (२) तधोवदेसाभावा ।-पु० ६, पृ० २३५ (३) विसिठ्ठवएसाभावादो। -पु० ७, पृ० ३६६ (४) अलद्धोवदेसत्तादो।-पु० ७, पृ० ५०७ (५) अलद्धोवदेसत्तादो।-पु० ६, १२६ (६) तत्थ अणंतरोवणिधा ण सक्कदे णेदुं,त्ति उवदेसाभावादो।-पु० १०, पृ० २२१ (७) तत्थ अणंतरोवणिधा ण सक्कदे णेदुं, "त्ति उवदेसाभावादो।-पु०१०प० २२३ (८) ण च एवं, तहाविहोवदेसाभावादो।-पु० १० १० ५०१ (8) ..'ण सक्कदे णेदुमुवदेसाभावादो ।-पु० ११, पृ० २७ (१०) णत्थि एत्थ उवदेसो।-पु० १३, पृ० ३०३ (११) . 'त्ति ण णव्वदे, उवएसाभावादो। दक्षिण-उत्तर प्रतिपत्ति व पबाइज्जंत-अपवाइज्जत उपदेश जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, धवलाकार के समक्ष आचार्यपरम्परा से चला आया उपदेश रहा है, जिसके बल पर उन्होंने विवक्षित विषय का स्पष्टीकरण किया है। धवला में ऐसे उपदेश का उल्लेख कहीं पर दक्षिणप्रतिपत्ति और कहीं पर पवाइज्जंत (प्रवाहमान) के नाम से भी किया गया है ।' यथा (१) जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम में सूत्रकार ने चार उपशामकों की संख्या का निर्देश प्रवेश की अपेक्षा एक, दो, तीन व अधिक-से-अधिक चौवन तक किया है। काल की अपेक्षा उन्हें संख्यात कहा गया है।-सूत्र १,२,६-१० इस प्रसंग में धवला में कहा गया है कि अपने उत्कृष्ट प्रमाणयुक्त जीवों से सहित सब समय एक साथ नहीं पाये जाते हैं, इसलिए कुछ आचार्य पूर्वोक्त (३०४) प्रमाण से पांच कम करते हैं। इस पांच कम के व्याख्यान को धवलाकार ने पवाइज्जमाण, दक्षिणप्रतिपत्ति व आचार्य-परम्परागत कहा है । इसके विपरीत पूर्वोक्त (३०४) व्याख्यान को उन्होंने अपवाइज्जमाण, वाम (उत्तरप्रतिपत्ति) व आचार्यपरम्परा से अनागत कहा है। १. इसका स्पष्टीकरण पीछे 'ग्रन्थकारोल्लेख' शीर्षक में 'आर्यभक्षु व नागहस्ती' के प्रसंग में भी किया जा चुका है। २. धवला, पु० ३, पृ० ६१-६२ ७२४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) चार क्षपकों व अयोगिकेवलियों की वह संख्या उपशामकों से दूनी (३०४४३= ६०८) है। यहां भी धवलाकार ने उक्त दोनों प्रकार के व्याख्यान का निर्देश करते हुए दस (५४२) कम के व्याख्यान को दक्षिणप्रतिपत्ति और सम्पूर्ण छह सौ आठ के व्याख्यान को उत्तरप्रतिपत्ति कहा है।' (३) यहीं पर आगे धवला में दक्षिणप्रतिपत्ति के अनुसार अप्रमत्तसंयतों का प्रमाण २६६६६१०३ और प्रमत्तसंयतों का ५६३९८२०६ कहा गया है। उत्तरप्रतिपत्ति के अनुसार इन दोनों का प्रमाण क्रम से २२७६६४६८ और ४६६६६६६४ कहा गया है।' (४) इसी प्रकार के एक अन्य प्रसंग के विषय में पीछे 'सूत्र के अभाव में आचार्यपरम्परागत उपदेश को महत्त्व' शीर्षक में विचार किया जा चुका है। (५) वेदनाद्रव्यविधान में जघन्य ज्ञानावरणीयद्रव्य वेदना के स्वामी की प्ररूपणा के प्रसंग में सूत्रकार द्वारा उसका स्वामी क्षपितकर्माशिकस्वरूप से युक्त अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ निर्दिष्ट किया गया है।-सूत्र ४२,४,४८-७५ यहाँ धवलाकार ने अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ के स्वरूप को प्रकट करते हुए 'एत्य उवसंहारो उच्चदें' इस प्रतिज्ञा के साथ उपसंहार के विषय में प्ररूपणा और प्रमाण इन अनुयोगद्वारों का उल्लेख किया है । आगे उन्होंने इन दो अनुयोगद्वारों में 'पवाइज्जत उपदेश के अनुसार प्ररूपणा अनुयोगद्वार का कथन करते हैं। इस सूचना के साथ उस 'प्ररूपणा' अनुयोगद्वार की प्ररूपणा की है। तत्पश्चात् उन्होंने अप्पवाइज्जंत उपदेश के अनुसार यह भी स्पष्ट किया है कि कमंस्थिति के आदिम समयप्रबद्ध सम्बन्धी निर्लेपनस्थान कर्मस्थिति के असंख्यातवें भाग मात्र होते हैं । इस प्रकार सभी समयप्रबद्धों के विषय में कहना चाहिए । शेष पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र समयप्रबद्धों के एक परमाणु को आदि करके उत्कर्ष से अनन्त तक परमाणु रहते हैं। - इस प्रसंग में वहाँ यह शंका की गयी है कि निर्लेपनस्थान पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र ही होते हैं, यह कैसे जाना जाता है । इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि कषायप्राभूतचूर्णिसूत्र से जाना जाता है। इसे आगे उन्होंने कषायप्राभूतचूणिसूत्रों के अनुसार स्पष्ट भी किया है । यथा कषायप्राभूत में सर्वप्रथम 'पूर्व में निर्लेपन-स्थानों के उपदेश की प्ररूपणा ज्ञातव्य है' यह सूचना करते हुए चूर्णिकर्ता ने स्पष्ट किया है कि यहाँ दो प्रकार का उपदेश है । एक उपदेश के अनुसार कर्मस्थिति के असंख्यात बहुभाग प्रमाण निर्लेपन-स्थान हैं । दूसरे उपदेश के अनुसार वे पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र हैं। उनमें जो उपदेश प्रवाहमान (पवाइज्जंत) है उसके अनुसार पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात वर्गमूल प्रमाण निर्लेपनस्थान हैं।" (६) इसी द्रव्यविधान की चूलिका में असंख्यातगुण वृद्धि और हानि कितने काल होती १. धवला, पु० ३, पृ० ६३-६४ २. वही, पृ. ६९-१०० ३. धवला पु० १०, पृ० २६७-६८; धवला पु० १२, पृ० २४०-४५ भी द्रष्टव्य हैं। ४. क०पा० सुत्त, पृ० ८३८, चूणि ६६४-६८; इसके पूर्व वहाँ पृ० ५६२-६३, चूणि २८७-६२ भी द्रष्टव्य हैं। वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति | ७२५ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, इसे स्पष्ट करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि वह जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त तक होती है। सूत्र ४,२,४,२०४-५ ।। इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि अधस्तन और उपरिम पंचसामयिक आदि योगस्थान यदि प्रथम गुणहानि मात्र हों तो ऊपर के चतुःसामयिक योगस्थानों के अन्तिम समय में दुगुणवद्धि उत्पन्न हो सकती है। पर ऐसा नहीं है, क्योंकि उस प्रकार का उपदेश नहीं है । तो फिर कैसा उपदेश है, यह पूछने पर धवलाकार ने कहा है कि ऊपर के चतुःसामयिक योगस्थानों के अन्तिम योगस्थान से नीचे असंख्यातवें भागमात्र उतरकर दुगुणवृद्धि होती है। इस कारण ऊपर के चार समययोग्य योगस्थानों में दो ही वृद्धियां होती हैं, यह पवाइज्जत उपदेश है। यह पवाइज्जत उपदेश है, यह कैसे जाना है; यह पूछे जाने पर धवलाकार ने कहा है कि पवाइज्जत उपदेश के अनुसार जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से ग्यारह समय हैं; अन्यतर (अपवाइज्जंत) उपदेश के अनुसार जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से पन्द्रह समय हैं। इस प्रदेशबन्ध सूत्र से जाना जाता है। इससे ज्ञात होता है कि ऊपर के चार समय योग्य योगस्थानों में दो ही वृद्धियाँ होती हैं, संख्यातगुणवृद्धि नहीं होती। ( वेदनाक्षेत्रविधान में ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट वेदना क्षेत्र की अपेक्षा किसके होती है, इसे स्पष्ट करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि वह हजार योजन की अवगाहमावाले उस मत्स्य के होती है जो स्वयम्भूरमणसमुद्र के बाह्य तट पर स्थित है। -सूत्र ४,२,५,७-८ इसकी व्याख्या के प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि महामत्स्य का आयाम तो हजार योजन है, पर उसका विष्कम्भ और उत्सेध कितना है। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि उसका विष्कम्भ पांच सौ योजन और उत्सेध दो सौ पचास योजन है । इस पर पुनः यह शंका की गयी है कि यह सूत्र के बिना कैसे जाना जाता है । इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह आचार्यपरम्परागत पवाइज्जंत उपदेश से जाना जाता है। प्रकारान्तर से उन्होंने यह भी कहा है कि महामत्स्य के विष्कम्भ और उत्सेधविषयक सूत्र है ही नहीं, ऐसा नियम नहीं है; क्योंकि सूत्र में 'जोयणसहस्सिओ' यह जो कहा गया है, वह देशामर्शक होकर उसके विष्कम्भ और उत्सेध का सूचक है।' इसी प्रसंग में आगे धवला में मतान्तर का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि कुछ आचार्यों के मतानुसार वह मत्स्य पश्चिम दिशा से मारणान्तिक समुद्रात को करके पूर्व दिशा में लोकनाली के अन्त तक आया, फिर विग्रह करके नीचे छह राजु प्रमाण गया, तत्पश्चात् पुनः विग्रह करके पश्चिम दिशा में आधे राजु प्रमाण माया और अवधिष्ठान नरक में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार ज्ञानावरणीय की क्षेत्रवेदना का उत्कृष्ट क्षेत्र साढ़े सात राजु होता है। उनके इस अभिमत का निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है कि वह घटित नहीं होता, क्योंकि उपपादस्थान को लांघकर गमन नहीं होता, यह पवाइज्जत उपदेश से सिद्ध है। १. धवला, पु० १०, पृ० ५०१-२ २. इस प्रसंग में आगे उक्त महामत्स्य की कुछ अन्य विशेषताएँ भी प्रकट की गयी हैं । --सूत्र ६-१२ ३. धवला, पु० ११, पृ० १४-१६ ४. वही, पृ० २२ ७२६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) यहीं पर आगे धवला में ज्ञानावरणीय की अनुत्कृष्ट क्षेत्र वेदना के स्वामी की प्ररूपणा के प्रसंग में एक शंका यह की गयी है कि अपने उत्पत्ति स्थान को न पाकर मारणान्तिकसमुद्घातगत जीव लौटकर मूल शरीर में प्रविष्ट होते हैं, यह कैसे जाना जाता है । इसके समाधान में वहाँ यह कहा गया है कि वह पवाइज्जंत उपदेश से जाना जाता है ।" (१०) कृति - वेदनादि चौबीस अनुयोगद्वारों में दसवाँ उदयानुयोगद्वार है। वहीं प्रसंगप्राप्त अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हुए धवला में कहा गया है कि पवाइज्जत उपवेश के अनुसार हास्य व रति प्रकृतियों के वेदकों से सातावेदनीय के वेदक संख्यात जीवमात्र से विशेष अधिक हैं । अन्य उपदेश के अनुसार सात वेदकों से हास्य- रति के वेदक असंख्यातवें भागमात्र से अधिक हैं । आगे यहीं पर अरति शोकवेदकों को स्तोक बतलाकर उनसे असातवेदकों को पवाइज्जंत उपदेश के अनुसार संख्यात जीवमात्र से और अन्य उपदेश के अनुसार उन्हें असंख्यातवें भागमात्र से विशेष अधिक कहा गया है। (११) इसी उदयानुयोगद्वार में अन्तर प्ररूपणा के प्रसंग में धवलाकार ने कहा कि पवाइज्जत उपदेश के अनुसार हम एक जीव की अपेक्षा अन्तर को कहते हैं। तदनुसार उन्होंने आगे ज्ञानावरणादि के भुजाकार वेदकों व अल्पतरवेदकों आदि के अन्तर का विचार किया है । 3 (१२) यहीं पर अल्पबहुत्व के प्रसंग में धवलाकार ने प्रथमतः मतिज्ञानावरणादिकों के अवस्थित वेदक आदि के अल्पबहुत्व को दिखलाकर तत्पश्चात्, स्थितियों के बन्ध, अपकर्षण और उत्कर्षण से चूँकि प्रदेशोदय की वृद्धि व हानि होती है इस हेतु, प्रदेशोदयभुजाकार के विषय में अन्य प्रकार का अल्पबहुत्व होता है; यह कहते हुए उन्होंने आगे उसे स्पष्ट किया है व अन्त में यह कह दिया कि यह हेतुसापेक्ष अल्पबहुत्व प्रवाहप्राप्त नहीं है - वह अप्पवाइज्जत है अर्थात् आचार्य परम्परागत नहीं है । (१३) उन्हीं चौबीस अनुयोगद्वारों में जो अन्तिम अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार है उसके प्रारम्भ में धवलाकार ने कहा है कि अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में नागहस्ति भट्टारक सत्कर्म का मार्गण करते हैं । यही उपदेश प्रवाहप्राप्त है। 2 स्वतन्त्र अभिप्राय जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है, धबलाकार आ० वीरसेन ने विवक्षित विषय के स्पष्टीकरण में सर्वप्रथम सूत्र को महत्त्व दिया है । पर जहाँ उन्हें सूत्र उपलब्ध नहीं हुआ वहाँ उन्होंने प्रसंगप्राप्त विषय का स्पष्टीकरण आचार्य परम्परागत उपदेश और गुरूपदेश के बल पर भी किया है । किन्तु जहाँ उन्हें ये दोनों भी उपलब्ध नहीं हुए वहीं, उन्होंने आगमानुसारिणी युक्ति के बल पर अपने स्वतन्त्र मत को प्रकट किया है । जैसे— १. धवला, पु० ११, पृ० २५ २. घवला, पु० १५, पृ० २८५-८६ ३. वही, पृ० ३२६ ४. धवला, पु० १५, पृ० ३३२ ५. धवला, पु० १६, पृ० ५२२ वीरसेनाचार्य की व्याख्यान पद्धति / ७२७ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) जीवस्थान- द्रव्यप्रमाणानुगम में सूत्रकार ने क्षेत्र की अपेक्षा मिध्यादृष्टि जोवराशि का प्रमाण अनन्तानन्त लोक निर्दिष्ट किया है । --सूत्र १,२,४ इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने प्रसंगप्राप्त लोक के स्वरूप में उसे जगश्रेणि के घनप्रमाण कहा है। उन्होंने जगश्रेणि को सात राजुओं के आयाम प्रमाण और राजु को तिर्यग्लोक के मध्यम विस्तार प्रमाण कहा है । तिर्यग्लोक के विस्तार को कैसे लाया जाता है, यह पूछे जाने पर उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि जितनी द्वीप समुद्रों की संख्या है और रूप (एक) से अधिक अथवा किन्हीं आचार्यो के उपदेशानुसार संख्यात रूपों से अधिक जितने जम्बूद्वीप के अर्धच्छेद हैं उनको विरलित करके व प्रत्येक एक (१) अंक को दो (२) अंक मानकर उन सब को परस्पर गुणित करें । इस प्रकार जो राशि प्राप्त हो उससे अर्धच्छेद करने पर शेष रही राशि को गुणित करने पर राजु का प्रमाण प्राप्त होता है । यह जगश्रेणि के सातवें भाग प्रमाण रहता है । आगे पुनः यह पूछा गया है कि तिर्यग्लोक की समाप्ति कहाँ पर हुई है । उत्तर में कहा गया है कि उसकी समाप्ति तीनों वातवलयों के बाह्य भागों में हुई है । अर्थात् स्वयम्भूरमणसमुद्र की बाह्य वेदिका के आगे कुछ क्षेत्र जाकर तिर्यग्लोक समाप्त हुआ है। इस पर यह पूछने पर कि कितना क्षेत्र आगे जाकर उसकी समाप्ति हुई है, वहाँ कहा गया है कि असंख्यात द्वीपसमुद्रों के द्वारा जितने योजन- प्रमाण क्षेत्र रोका गया है, उनसे संख्यातगुणे योजन जाकर तिर्यग्लोक समाप्त हुआ है । इस पर फिर यह पूछा गया है कि यह कहाँ से जाना जाता है, उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह दो सौ छप्पन अंगुलों के वर्ग प्रमाण ज्योतिषी देवों के भागहार के प्ररूपक सूत्र ( १, २, ५५ ) तथा 'दुगुणद्गुणो दुवग्गो णिरंतरो तिरियलोगो' इस त्रिलोकप्रज्ञप्ति सूत्र से जाना जाता है । आगे धवलाकार ने इस प्रसंग में अन्य आचार्यों के व्याख्यान को असंगत ठहराते हुए यह कहा है कि प्रथम तो उनका वह व्याख्यान सूत्र के विरुद्ध पड़ता है, दूसरे उसका आश्रय लेने पर तदनुसार जगश्रेणि के सातवें भाग में आठ शून्य दिखते हैं। पर जगश्रेणि के सातवें भाग में वे आठ शून्य हैं नहीं, तथा उनके अस्तित्व का विधायक कोई सूत्र भी नहीं उपलब्ध होता है । इसलिए उन आठ शून्यों के विनाशार्थं कितनी भी अधिक राशि होनी चाहिए। वह राशि असंख्यातवें भाग अथवा संख्यातवें भाग से अधिक तो हो नहीं सकती, क्योंकि उसका अनुवाहक कोई सूत्र उपलब्ध नहीं होता। इसका कारण द्वीप-समुद्रों से रोके गये क्षेत्र के आयाम से संख्यातगुणा क्षेत्र स्वयम्भूरमणसमुद्र के बाह्य भाग में होना चाहिए, अन्यथा पूर्वोक्त सूत्रों के साथ विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है । प्रसंग के अन्त में धवलाकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि यद्यपि यह अर्थ पूर्वाचाय के सम्प्रदाय के विरुद्ध है तो भी आगामाश्रित युक्ति के बल से हमने उसकी प्ररूपणा की है । इसलिए 'यह ऐसा नहीं है' इस प्रकार का कदाग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि अतीन्द्रिय पदार्थो के विषय में छद्मस्थों के द्वारा कल्पित युक्तियाँ निर्णय की हेतु नहीं बनतीं । इसलिए इस विषय में उपदेश को प्राप्त करके विशेष निर्णय करना योग्य है ।' १. धवला, पु० ३, पृ० ३२-३८ ७२८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार धवलाकार ने स्वयम्भूरमणसमुद्र के आगे भी राज के अर्धच्छेदों की जो कल्पनी की है वह त्रिलोकप्रज्ञप्ति के उपर्युक्त सूत्र और ज्योतिषी देवों के भागहार के प्ररूपक सूत्र' के आश्रित युक्ति के बल पर की है। इस प्रकार से उन्होंने इन सूत्रों के साथ संगति बैठाने के लिए अपना यह स्वतन्त्र मत व्यक्त किया है कि स्वयम्भूरमणसमुद्र के आगे भी कुछ क्षेत्र हैं, जहाँ राजु के अर्धच्छेद पड़ते हैं। (२) इसी द्रव्यप्रमाणानुगम में सासादनसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानवी जीवों का द्रव्यप्रमाण दिखलाते हुए सूत्र में कहा गया है कि उनका प्रमाण पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र है। इन जीवों द्वारा अन्तर्मुहूर्त से पल्योपम अपहृत होता है। सूत्र १,२,६ इसकी व्याख्या में धवलाकार ने सासादनसम्य दृष्टि आदि सूत्रोक्त उन चार गुणस्थानवर्ती जीवों के अवहारकाल को पृथक्-पृथक् स्पष्ट किया है । उन्होंने कहा है कि सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि और सयतासंयत, इनका अवहारकाल आवलि का असंख्यातवां भाग न होकर असंख्यात आवलियों प्रमाण है। इस पर वहाँ यह पूछने पर कि वह कहाँ से जाना जाता है, धवलाकार ने कहा है कि वह "उपशमसम्यग्दृष्टि स्तोक हैं, क्षायिक सम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं, और वेदगसम्यग्दृष्टि उनसे असंख्यातगणे हैं" इन अल्पबहत्व सूत्रों से जाना जाता है। इस पर प्रकृत सूत्र के साथ विरोध की आशंका की हृदयंगम करते हुए धवलाकार ने स्वयं यह स्पष्ट कर दिया है कि सूत्र में जो ‘ऐदेहि पलिदोमवहिरदि अंतोमुहुत्तकालेण' यह कहा गया है उसके साथ कुछ विरोध नहीं होगा, क्योंकि 'अन्तर्मुहूर्त' में प्रयुक्त 'अन्तर्' शब्द यहाँ समीपता का वाचक है । तदनुसार मुहूर्त के समीपवर्ती काल को भी अन्तर्मुहूर्त से ग्रहण किया जा सकता है। ___ इस प्रकार अन्तर्मुहुर्त यद्यपि संख्यात प्रावलियों प्रमाण ही माना जाता है, फिर भी धवलाकार ने उपर्युक्त अल्पबहुत्व के साथ संगति बैठाने के लिए 'अन्तर्मुहूर्त' से असंख्यात आवलियों को भी ग्रहण कर लिया है। यह उनका स्वयं का अभिमत रहा है, इसे उन्होंने आगे (पु. ४, पृ० १५७ पर) प्रसंग पाकर स्वयं स्पष्ट कर दिया है। (३) जीवस्थान-क्षेत्रानुगम में मिथ्यादृष्टि जीवों का क्षेत्र समस्त लोक है ।-सूत्र १,३,२ __इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है सूत्र में प्रयुक्त 'लोक' से सात राजुओं के घन को ग्रहण करना चाहिए । इस पर वहाँ शंका उपस्थित हुई है कि यदि सात राजुओं के घन-प्रमाण लोक को ग्रहण किया जाता है तो उससे पाँच द्रव्यों के आधारभूत आकाश का ग्रहण नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि उसमें सात राजुओं के घन-प्रमाण क्षेत्र सम्भव नहीं है। अन्यथा, "हेट्ठा मज्झे उरि" आदि गाथासूत्रों के अप्रमाण होने का प्रसंग प्राप्त होता है । इस पर शंका का समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि सूत्र में 'लोक' ऐसा १. खेत्तेण पदरस्स वेछप्पणंगुलसयवग्गपडिभागेण ।-सूत्र १,२,५५ (पु० ३, पृ० २६८) २. असंजदसम्मादिट्टिट्ठाणे सव्वत्थोवा उव समसम्मादिट्ठी । खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । ___ वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ।-सूत्र १,८,१५-१७ (पु० ५, पृ० २५३-५६) ३. धवला, पु० ३, पृ० ६३-७० ४. धवला, पु० ४, पृ० ११ पर उद्धृत गाथासूत्र ६-८ वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति | ७२६ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहने पर उससे पाँच द्रव्यों के आधारभूत आकाश का ही ग्रहण होता है, अन्य का नहीं; क्योंकि "लोकपूरणगत केवली लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं" ऐसा सूत्र में कहा गया है ।" यदि लोक सात राजुओं के घनप्रमाण न हो तो "लोकपूरणगत केवली लोक के संख्यातवें भाग में रहते हैं" ऐसा कहना पड़ेगा। इसका कारण यह है कि अन्य आचार्यों के द्वारा जिस मृदंगाकार लोक की कल्पना की गयी है उसके प्रमाण को देखते हुए उसका वह संख्यातवां भाग असिद्ध भी नहीं है । इस प्रकार कहते हुए धवलाकार ने आगे गणित प्रक्रिया के आधार से उसका ३२८ प्रमाण १६४- धनराजु निकालकर दिखला भी दिया है जो घनलोक का संख्यातर्वा भाग १३५६ ही होता है । इतना स्पष्ट करते हुए आगे उन्होंने कहा है कि उसको छोड़कर अन्य कोई सात राजुओं के घनप्रमाण लोक नाम का क्षेत्र नहीं है जो छह द्रव्यों के समुदायस्वरूप लोक से भिन्न प्रमाणलोक हो सके । इस प्रकार से धवलाकार ने अन्य आचार्यों के द्वारा प्ररूपित मृदंगाकार लोक को दूषित ठहराकर लोक को सात राजुओं के घन-प्रमाण ( ७७ × ७ = ३४३) सिद्ध किया है । आगे उन्होंने यह भी कहा है कि यदि इस प्रकार के लोक को नहीं ग्रहण किया जाता है तो प्रतरसमुद्घातगत केवली के क्षेत्र को सिद्ध करने के लिए जो दो गाथाएँ कही गयी हैं वे निरर्थक ठहरती हैं, क्योंकि उनमें जिस घनफलप्रमाण का उल्लेख किया गया है वह अन्य प्रकार से सम्भव नहीं है | अभिप्राय यह है कि लोक पूर्व-पश्चिम में नीचे सात राजु, मध्य में एक राजु, ऊपर ब्रह्मकल्प के पास पाँच राजु व अन्त में एक राजु विस्तृत; चौदह राजु ऊँचा और उत्तर-दक्षिण में सर्वत्र सात राजु मोटा है। इस प्रकार के आयतचतुरस्र लोक की पूर्व मान्यता धवलाकार के समक्ष नहीं रही है । फिर भी उन्होंने प्रतरसमुद्घातगत केवली के क्षेत्र को सिद्ध करने के लिए निर्दिष्ट उन दो गाथाओं के आधार पर लोक को उस प्रकार का सिद्ध किया है व उसे ही प्रकृत गाह्य माना है । इस प्रकार से धवलाकार ने प्रतरसमुद्घातगत केवली के क्षेत्र की आधारभूत उपर्युक्त दो गाथाओं की निरर्थकता को बचाने के लिए अन्य आचार्यों के द्वारा माने गये मृदंगाकार लोक का निराकरण करके उसे उक्त प्रकार से आयतचतुरस्र सिद्ध किया है (४) इसी प्रकार का एक प्रसंग आगे स्पर्शानुगम में भी प्राप्त होता है । वहाँ सासादनसम्यग्दृष्टि ज्योतिषी देवों के स्वस्थान क्षेत्र के लाने के प्रसंग में धवलाकार ने स्वयम्भूरमण १. सजोगिकेवली केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा । - सूत्र १, ३, ४ ( पु० ४, पृ० ४८ ) २. मुह-तलसमासअद्धं वुस्सेधगुणं च वेधेण । घणगणिदं जाणेज्जो वेत्तासणसंठिये खेत्तं ॥ मूलं मज्झेण गुणं मुहसहिदद्ध मुस्सेधकदिगुणिदं । घणगणिदं जाणेज्जो मुइंगसंठाणखेत्तम्हि || – पु० ४, पृ० २०-२१ (ये दोनों गाथाएँ जंबूदी० में ११-१०८ व ११-११० गायांकों में उपलब्ध होती हैं ।) ३. इसके लिए धवला, पु० ४, पृ० १० २२ द्रष्टव्य हैं । ७३० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्र के परभाग में राजु के अर्धच्छेदों के अस्तित्व का निर्देश किया है । इस पर वहां यह पूछा गया है कि स्वयम्भूरमण समुद्र के परभाग में राजु के अर्धच्छेद हैं, यह कहाँ से जाना जाता है। उत्तर में धवलाकार ने पूर्व के समान वही कहा है कि वह दो सौ छप्पन अंगुलों के वर्ग प्रमाण ज्योतिषी देवों के भागहार के प्ररूपक सूत्र (१,२,५५) से जाना जाता है। इस पर शंकाकार ने आपत्ति प्रकट की है कि यह व्याख्यान परिकर्म के विरुद्ध है, क्योंकि वहाँ यह कहा गया है कि जितनी द्वीप-सागरों की संख्या है तथा एक अधिक जितने जम्बद्वीप के अधंच्छेद हैं उतने राजु के अर्धच्छेद होते हैं।' इस आपत्ति का निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है-हाँ, वह व्याख्यान परिकर्म के विरुद्ध है, किन्तु सूत्र (१,२,५५) के विरुद्ध नहीं है, इसलिए इस व्याख्यान को ग्रहण करना चाहिए, न कि परिकर्म के उस व्याख्यान को; क्योंकि वह सूत्र के विरुद्ध है। और सूत्र के विरुद्ध व्याख्यान होता नहीं है, अन्यथा अव्यवस्था का प्रसंग प्राप्त होता है। अन्त में धवलाकार आ० वीरसेन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह तत्प्रायोग्य संख्यात रूपों से अधिक जम्बद्वीप के अर्धच्छेदों से सहित द्वीप-सागरों के रूपों मात्र राज के अर्धच्छेदों के प्रमाण की परीक्षाविधि अन्य आचार्यों के उपदेश को परम्परा का अनुसरण नहीं करती है, वह केवल तिलोयपण्णतिसुत्त का अनुसरण करती है। उसकी प्ररूपणा हमने ज्योतिषी देवों के भागहार के प्रतिपादक सूत्र का आश्रय लेनेवाली युक्ति के बल से प्रकृत गच्छ को सिद्ध करने के लिए की है । इसके प्रसंग में उन्होंने ये दो उदाहरण भी दिए हैं तथा एकान्तरूप कदाग्रह का निषेध भी किया है (क) जिस प्रकार हमने प्रतिनियत सूत्र के बल पर सासादनगुणस्थानवर्ती जीवों से सम्बद्ध असंख्यात आवली प्रमाण अवहारकाल का उपदेश किया है।-देखिए पु० ३, ५०६६ (ख) तथा जिस प्रकार प्रतिनियत के बल पर आयातचतुरस्र लोक के आकार का उपदेश किया है। -देखिए पु० ४, पृ० ११-२२ । (५) 'प्रकृति' अनुयोगद्वार मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म की उत्तरप्रकृतियों की संख्या से सम्बद्ध सूत्र (१२०) के व्याख्या-विषयक दो भिन्न मतों को राग-द्वेषादि से रहित पुरुषों की परम्परा से आने के कारण प्रमाणभूत मानकर भी धवलाकार ने अपने व्यक्तिगत अभिप्राय को इस प्रकार व्यक्त किया है "अम्हाणं पुण एसो अहिप्पाओ जहा पढमपरूविदअत्थो चेव भद्दओ, ण बिदिओ त्ति । कुदो ? ..!"--पु० १३, पृ० ३७७-८२ प्रसंगानुसार एक ही ग्रन्थ के विषय में भिन्न अभिप्राय धवलाकार के समक्ष कुछ ऐसे भी प्रसंग उपस्थित हुए हैं, जहां उन्होंने किसी एक ही १. जत्तियाणि दीवसागररूवाणि जंबूदीवछेदणाणि च रूवाहियाणि तत्तियाणि रज्जुच्छेद णाणि । -परिकर्म (पु० ४) २. देखिए धवला पु० ४, पृ० १५०-५८; यह समस्त सन्दर्भ (पृ० १५६-५६) कुछ ही प्रासंगिक शब्दपरिवर्तन के साथ जैसा-का-तैसा तिलोयपण्णत्ती में उपलब्ध होता है, जिसे वहाँ प्रक्षिप्त ही समझना चाहिए।-देखिए ति०५०, भाग २, पृ० ७६४-६६ । वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति / ७३१ Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ के विषय में भिन्न-भिन्न अभिप्राय प्रकट किये हैं । जैसे १. कषायप्राभूत-धवलाकार का अभिप्राय कषायप्राभत मे उस पर यतिवषभाचार्य द्वारा विरचित 'चणि' का रहा है, इसे पीछे 'ग्रन्थकारोल्लेख' के प्रसंग में स्पष्ट किया जा चुका है। धवलाकार ने कषायप्राभूत को, विशेषकर उसकी चूणि को, काफी महत्त्व दिया है। मतभेद की स्थिति में यदि धवलाकार ने कहीं प्रसंगानुसार कषायप्राभत और आचार्य भतबलि के पथक-पथक मतों का उल्लेख मात्र किया है तो कहीं पर उन्होंने कषायप्रा चणि की उपेक्षा भी कर दी है। कहीं पर कायप्राभूतचूणि के साथ विरोध का प्रसंग प्राप्त होने पर उन्होंने उसे तंत्रान्तरभ कह दिया है तथा आगे उन दोनों में प्रकारान्तर से समन्वय का दृष्टिकोण भी अपनाया है। २. परिकर्म-धवलाकार ने अनेक प्रसंगों पर परिकर्म के कथन को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है व उसे सर्वाचार्य-सम्मत भी कहा है। इसके अतिरिक्त यदि उन्होंने कहीं पर उसके साथ सम्भावित विरोध का समन्वय किया है तो कहीं पर उसे अग्राह्य भी ठहरा दिया है। इसका अधिक स्पष्टीकरण पीछे ‘ग्रन्थोल्लेख' में 'परिकर्म' शीर्षक में किया जा चुका है। दो-एक उदाहरण उसके यहाँ भी दिये जाते हैं. सर्वाचार्यसम्मत-जीवस्थान-स्पर्शनानुगम में प्रसंग प्राप्त तियंग्लोक के प्रमाण से सम्बन्धित किन्हीं आचार्यों के अभिमत का निराकरण करते हुए धवलाकार ने उसे तद्विषयक सर्वाचार्यसम्मत परिकर्मसूत्र के विरुद्ध भी ठहराया है। इस प्रकार धवलाकार ने 'लोक सात राजुओं के धन-प्रमाण है' अपने इस अभिमत की पुष्टि में परिकर्म के इस प्रसंग को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है व उसे सर्वाचार्य-सम्मत कहा है-- "रज्जू सत्तगुणिदा जगसेढी, सा वग्गिदा जगपदरं, से ढीए गणिदजगपदरं घणलोगो होदि।" विरोध का समन्वय-धवलाकार की मान्यता रही है कि स्वयम्भूरमणसमुद्र की वेदिका के आगे असंख्यात द्वीप-समुद्रों से रोके गये योजनों से सस्यातगणे योजन जाव र हिय लोक समाप्त हुआ है। अपनी इस मान्यता में उन्होंने परिषम के इस कथन से विरोध की सम्भावना का निराकरण किया है १. धवला, पु० ६, पृ० ३३१ पर उपशम श्रेणि से उतरते हुए जीव का सासादनगुणस्थान को प्राप्त होने व न होने का प्रसंग। २. धवला, पु० ७, पृ० २३३-३४ में उपर्युक्त प्रसंग के पुनः प्राप्त होने पर ष०ख० सू० (२, ३, १३६) को महत्त्व देकर उसकी उपेक्षा कर दी गयी है । ३. देखिए धवला, पु० ६ में आहारकशरीर, आहारक.शरीरांगोपांग और तीर्थक र प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धविषयक प्रसंग । जीवों से सहित निरन्तर अनुभागस्थान उत्कृष्ट रूप में आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं, या असंख्यातलोकप्रमाण हैं, इस प्रसंग में भी धवलाकार के समन्वय के दृष्टिकोण को देखा जा सकता है । -पु० १२, पृ० २४४-४५ ४. धवला, पु० ४, पृ० १८३-८४; यही प्रसंग प्रायः इसी रूप में पु० ७, पृ० ३७१-७२ में भी देखा जा सकता है। ७३२ / षटखण्डागम-परिशीलन Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जत्तियाणि दीव-सागररूवाणि जंबूदीवछेदणाणि च स्वाहियाणि तत्तियाणि रज्जुछेदणाणि ।" __उसका स्वयं निराकरण करते हुए उन्होंने कहा है कि हमारे इस व्याख्यान का उपर्युक्त परिकर्म-वचन के साथ भी कुछ विरोध नहीं होगा, क्योंकि उसके अन्तर्गत जो 'रूवाहियाणि' पद है उसमें 'रूवेण अहियाणि ऐसा समास न करके 'रूवेहि अहियाणि' समास अपेक्षित रहा है। तदनुसार 'बहुत रूपों से अधिक' ऐसा उसका अर्थ ग्रहण करने पर उसके साथ विरोध की सम्भावना नहीं रहती।' अग्राह्यता-- इस प्रकार से यहाँ तो धवलाकार ने उक्त परिकर्म-वचन के साथ सम्भावित विरोध का समन्वय करा दिया है, पर आगे चलकर स्पर्शनानुगम अनुयोगद्वार में ऐसे ही प्रसंग में उसी परिकर्मवचन को सूत्र-विरुद्ध कहकर उन्होंने उसे अग्राह्य भी घोषित कर दिया है।' सूत्ररूपता का निषेध-भावविधान-चूलिका (२) में षट्स्थानप्ररूपणा के प्रसंग में सूत्रकार ने संख्यातभागवद्धि किस वृद्धि से वृद्धिगत होती है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि वह एक कम जघन्य असंख्यात की वृद्धि से वृद्धिंगत होती है ।---सूत्र ४,२,७,२०७-८ इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि सूत्र में एक कम जघन्य असंख्यात' ऐसा कहने पर उससे उत्कृष्ट संख्यात को ग्रहण करना चाहिए। इस पर धवला में यह शंका ठायी गयी है कि सीधे से 'उत्कृष्ट संख्यात' न कहकर सुत्रगौरव करते हुए एक कम जघन्य असंख्यात' ऐसा किसलिए कहा है । उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि उत्कृष्ट संख्यात के प्रमाण-विषयक ज्ञापन के साथ संख्यातभागवृद्धि की प्ररूपणा करने के लिए सूत्र में वैसा कहा गया है । इस पर यदि यह कहा जाय कि उत्कृष्ट संख्यात का प्रमाण तो परिकर्म से ज्ञात हो जाता है, तो ऐसा समाधान करना भी ठीक नहीं है। क्योंकि उसके सूत्ररूपता नहीं हैं। इस प्रकार से यहाँ धवलाकार ने परिकर्म के सूत्र होने का निषेध कर दिया है। यह भी यहां विशेष ध्यातव्य है कि इसके पूर्व स्पर्शनानुगम में स्वयं धवलाकार उसे सर्वाचार्यसम्मत परिकर्मसूत्र भी कह चुके हैं। इस प्रकार से धवलाकार ने प्रकृत परिकर्म को यदि कहीं प्रमाणभूत सूत्र भी स्वीकार किया है तो कहीं पर उसे सूत्रविरुद्ध व अग्राह्म भी ठहरा दिया है। ३. व्याख्याप्रज्ञप्ति --जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम में मिथ्यादष्टि जीवों के द्रव्यप्रमाण की प्ररूपणा के प्रसंग में धवला में यह पूछा गया है कि तिर्यग्लोक का अन्त कहाँ होता है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि उसका अन्त तीन वातवलयों के बाह्य भागों में होता है। इस पर वह कैसे जाना जाता है', ऐसा पूछने पर उत्तर में कहा गया है कि वह "लोगो वादपदिट्रिदो" इस व्याख्याज्ञप्ति के वचन से जाना जाता है । १. धवला, पु० ३, पृ० ३५-३६ २. धवला, पु०४, पृ० १५५-५६ ३. धवला, पु० १२, पृ० १५४ ४. धवला, पु० ३, पृ० ३४-३५ वीरसेनाचाय की व्याख्यान-पद्धति । ७३३ Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार यहाँ धवलाकार ने वातवलयों के बाह्य भाग में तिर्यग्लोक की समाप्ति की पुष्टि में व्याख्याप्रज्ञप्ति के उपर्युक्त प्रसंग को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है। ___ आगे वेदनाद्रव्यविधान में आयुकर्म की उत्कृष्ट द्रव्यवेदना के स्वामी की प्ररूपणा के प्रसंग में सूत्र ३६ की व्याख्या करते हुए धवला में कहा गया है कि परभव-सम्बन्धी आयु के बंध जाने पर पीछे भुज्यमान आयु का कदलीघात नहीं होता है । इस पर वहाँ यह शंका उठी है कि परभविक आयु के बंध जाने पर भुज्यमान आयु का घात होने में क्या दोष है। इसके समाधान में वहां यह कहा गया है कि जिस जीव की भुज्यमान आयु निर्जीर्ण हो चुकी है और परभविक आयु उदय में नहीं प्राप्त हुई है, उसके चारों गतियों के बहिर्भूत हो जाने के कारण अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है । इस कारण परभविक आयु के बंध जाने पर भुज्यमान आयु का घात सम्भव नहीं है। ___ इस पर शंकाकार ने परभविक आयु के बन्ध से सम्बन्ध रखने वाले व्याख्याप्रज्ञप्ति के एक सन्दर्भ को प्रस्तुत करते हुए कहा है कि आपके उपर्युक्त कथन का इस व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के साथ विरोध कैसे न होगा। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि वह व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र इससे भिन्न व आचार्यभेद से भेद को प्राप्त है, इस प्रकार दोनों एक नहीं हो सकते।' इस प्रकार से धवलाकार ने द्रव्यप्रमाणानुगम में जहाँ एक प्रसंग पर उस व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है, वहीं दूसरे प्रसंग पर उन्होंने प्रकृत विधान के प्रतिकूल होने से आचार्यभेद से भिन्न बतलाकर उसकी उपेक्षा कर दी है । देशामर्शक सूत्र आदि यह पूर्व में भी स्पष्ट किया जा चुका है कि धवलाकार आचार्य वीरसेन ने प्रस्तुत षट्खण्डागम के अनेक सूत्रों की व्याख्या करते हुए उन सूत्रों को तथा किसी-किसी प्रकरणविशेष को भी देशामर्शक कहकर उनसे सूचित अर्थ का व्याख्यान कहीं संक्षेप में और कहीं अपने अगाध श्रतज्ञान के बल पर बहुत विस्तार से भी किया है। इसे स्पष्ट करने के लिए यहां कुछ थोड़े से उदाहरण दिए जाते हैं १. षट् खण्डागम के प्रारम्भ में आचार्य पुष्पदन्त ने पंचनमस्कारात्मक मंगल को निबद्ध किया है । उसकी उत्थानिका में धवलाकार "मंगल-णिमित्त-हेऊ" इत्यादि एक प्राचीन गाथा को उद्धत कर उसके आधार से कहते हैं कि विवक्षित शास्त्र के व्याख्यान के पूर्व मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ता इन छह का व्याख्यान किया जाता है; यह आगम के व्याख्यान की पद्धति है । इस आचार्यपरम्परागत न्याय को अवधारित कर पुष्पदन्ताचार्य 'पूर्वाचार्यों का अनुसरण रत्नत्रय का हेतु होता है ऐसा मानकर कारण-सहित उन मंगल-आदि छह की प्ररूपणा करने के लिए सूत्र कहते हैं । ___ यहाँ यह पंचनमस्कारात्मक सूत्र उन मंगलादि छह का प्ररूपक कैसे है, इस प्रसंगप्राप्त शंका के समाधान में धवलाकार ने कहा है कि वह तालप्रलम्बसूत्र के समान वेशामर्शक है। इतना स्पष्ट करके आगे उन्होंने उन मंगलादि छह की प्ररूपणा की है।' १. धवला, पु० १०, पृ० २३७-३८ २. धवला, पु० १, पृ. ८-७२ ७३४ / षट्खण्डागम-परिशीलन - Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसका विशेष स्पष्टीकरण पीछे 'धवलागत विषय-परिचय' शीर्षक में सत्प्ररूपणा के प्रसंग में किया जा चुका है। २. जीवस्थान-क्षेत्रानुगम में नरकगति के आश्रय से नारकियों में मिथ्यादृष्टि आदि असंयतसम्यग्दृष्टि पर्यन्त नारकियों के क्षेत्रप्रमाण के प्ररूपक सूत्र (१,३,५) की व्याख्या के प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि सूत्र में 'लोक का असंख्यातवाँ भाग' इतना मात्र कहा गया है, उससे शेष लोकों का ग्रहण कैसे होता है । इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि क्षेत्रानुगम और स्पर्शनानुगम इन वो अनुयोगद्वारों के सूत्र देशामर्शक हैं। इसलिए उनसे सूचित शेष लोकों का ग्रहण हो जाता है।' तदनुसार धवलाकार ने क्षेत्रानुगम और स्पर्शनानुगम इन दो अनुयोगद्वारों के सूत्रों की व्याख्या में सामान्यलोक, ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तिर्यग्लोक और अढाई द्वीप-को आधार बनाकर दो प्रकार के स्वस्थान, सात प्रकार के समुद्घात और एक उपपाद-इन दस पदों के आश्रय से चौदह जीवसमासों के क्षेत्र और स्पर्शन की प्ररूपणा की है। ३. जीवस्थान-चूलिका में सूत्रकार ने छठी और सातवीं चूलिकाओं में कम से कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति की प्ररूपणा करके आगे आठवीं समयक्त्वोत्पत्ति चूलिका को प्रारम्भ करते हुए यह कहा है कि जीव इतने काल की स्थिति से युक्त कर्मों के रहते सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त करता है । -- सूत्र १,६-८,१ इसके अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यह सूत्र देशामर्शक है । इससे उक्त कर्मों के जघन्य स्थितिबन्ध, उत्कृष्ट स्थितिबन्ध, जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व, जघन्य व उत्कृष्ट अनुभागसत्त्व तथा जघन्य व उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व के होने पर सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं करता है; यह सूत्र का अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए । सूत्र के अन्तर्गत इस अभिप्राय को सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में भी अभिव्यक्त किया गया है । ४. इसी चूलिका में आगे सूत्र में यह कहा गया है कि जीव जब सब कर्मों की स्थिति को संख्यात सागरोपमों से हीन अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थापित करता है, तब वह प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । —सूत्र १,६-८,५ इनकी व्याख्या करते हुए धवला में स्थितिबन्धापसरण के साथ स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के घात का भी विचार किया गया है। इस पर वहाँ यह कहा गया है कि सूत्र में तो केवल स्थितिबन्धापसरण की प्ररूपणा की गयी है, स्थितिघातादि की प्ररूपणा वहाँ नहीं की गयी है। इसलिए यहाँ उनकी प्ररूपणा करना योग्य नहीं है। इसका समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि सूत्र तालप्रलम्बसूत्र के समान देशामर्शक है, इसलिए यहाँ उनकी प्ररूपणा करना सगत व प्रसंग के अनुरूप ही है । १. धवला, पु० ४, पृ० ५६-५७ २. इन दस पदों का स्वरूप धवला, पु० ४, पृ० २६-३० में द्रष्टव्य है। ३. धवला, पु० ६, पृ० २०३ ४. स०सि० २-३ व त०वा० २,३,२ ५. धवला, पु० ६, पृ० २३० वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति । ७३५ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. यहीं पर प्रसंगप्राप्त एक सूत्र (१,६-८,१४) में यह निर्देश है कि चारित्र को प्राप्त करनेवाला जीव प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि की स्थिति की अपेक्षा सात कर्मों की स्थिति को अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थापित करता है। इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि यह देशामर्शक सूत्र है, क्योंकि वह एक देश अर्थ के प्रतिपादन द्वारा उसके अन्तर्गत समस्त अर्थ का सूचक है।' इसलिए उन्होंने यहाँ धवला में संयमासंयम तथा क्षायोपशमिक व औपशमिक चारित्र की प्राप्ति के विधान की विस्तार से प्ररूपणा की है। ६. इसी चूलिका में आगे सम्पूर्ण चारित्र की प्राप्ति के प्रतिपादक दो सूत्रों (१,६-८, १५१६) को देशामर्शक कहकर धवलाकार ने उनसे सूचित अर्थ की प्ररूपणा बहुत विस्तार से की है। ७. बन्धस्वामित्व-विचय में पांच ज्ञानावरणीय आदि प्रकृतियों के बन्धक-अबन्धकों के प्ररूपक सूत्र (३,६) की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने उसे देशामर्शक कहकर उससे सूचित, क्या बन्ध पूर्व में व्युच्छिन्न होता है ? क्या उदयपूर्व में व्युच्छिन्न होता है ? क्या दोनों साथ में व्युच्छिन्न होते हैं ? आदि २३ प्रश्नों को उठाते हुए उनका स्पष्टीकरण विस्तार से किया है। ८. वेदनाखण्ड को प्रारम्भ करते हुए सूत्रकार ने उसके प्रथम अनुयोगद्वार-स्वरूप 'कृति' अनुयोगद्वार में "णमो जिणाणं" आदि ४४ सूत्रों द्वारा विस्तार से मंगल किया है। उसके सम्बन्ध में धवलाकार ने कहा है कि यह सब ही मंगलदण्डक देशामर्शक है, क्योंकि वह निमित्त आदि का सूचक है। इसलिए यहां मंगल के समान निमित्त व हेतु आदि की प्ररूपणा की जाती है । यह कहते हुए उन्होंने वहां निमित्त, हेतु और परिमाण की संक्षेप में प्ररूपणा करके५ तत्पश्चात् कर्ता के विषय में विस्तार से प्ररूपणा की है।६ ६. इसी 'कृति' अनुयोगद्वार में अग्रायणीय पूर्व के अन्तर्गत महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के २४ अनुयोगद्वारों के निर्देशक सूत्र (४,१,४५) की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने 'सभी ग्रन्थों का अवतार उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय के भेद से चार प्रकार का है' इस सूचना के साथ वहाँ उन चारों की प्ररूपणा की है।" तत्पश्चात उन्होंने यह सूचना की है कि इस देशामर्शक सूत्र के द्वारा कर्मप्रकृति के इन चार अवतारों की प्ररूपणा की गयी है । यह कहते हुए उन्होंने आगे अग्रायणीयपूर्व के ज्ञान, श्रुत, १. धवला, पु० ६, पृ० २७० २. धवला, पु०६-संयमासंयम पृ० २७०-८०, क्षायोपशमिक चारित्र पृ० २८१-८८, औप शमिक चारित्र, पृ० २८८-३१७; इसी प्रसंग में आगे उपशमश्रेणि से प्रतिपात के क्रम का भी विवेचन किया गया है (पृ० ३१७-४२)। ३. धवला, पु० ६, पृ० ३४२-४१८ ४. धवला, पु० ८, पृ० १३-३० (यहाँ इसके पूर्व पृ० ७-१३ भी द्रष्टव्य हैं)। इसी पद्धति से यहाँ आगे सभी सूत्रों को देशामर्शक कहकर पूर्ववत् प्ररूपणा की गयी है। ५. धवला, पु० 9, पृ० १०६ ६. वही, पृ० १०७-३४ | ७. धवला, पु० ६, पृ० १३४-८३ • ७३६ / षदखण्डागम-परिशीलन Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग, दृष्टिवाद और पूर्वगत-इनके अन्तर्गत होने से क्रमशः उन छह के विषय में पृथक्-पृथक उस चार प्रकार के अवतार की प्ररूपणा की है। १०. यहीं पर आगे गणनाकृति के प्ररूपक सूत्र (२,१,६६) की व्याख्या के प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि यह सूत्र दशामर्शक है, इसलिए यहाँ धन, ऋण और धन ऋण इस सब गणित की प्ररूपणा करनी चाहिए। प्रकारान्तर से उन्होंने यह भी कहा है कि अथवा 'कृति' को उपलक्षण करके यहाँ गणना, संख्यात और कृति का भी लक्षण कहना चाहिए। तदनुसार उन्होंने इनके लक्षण को प्रकट करते हुए कहा है कि एक को आदि करके उत्कृष्ट अनन्त तक गणना कहलाती है। दो को आदि करके उत्कृष्ट अनन्त तक की गणना को संख्यात कहा जाता है। तीन को आदि करके उत्कृष्ट अनन्त तक की गणना का नाम कृति है। पश्चात् यहाँ कृति, नोकृति अवक्तव्य के उदाहरणार्थ यह प्ररूपणा की जाती है, ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए उसके विषय में ओधानुगम, प्रथमानुगम, चरिमानुगम और संचयानुगम इन चार अनुयोगद्वारों का उल्लेख किया गया है। इनमें प्रथम सीन की यहां संक्षेप में प्ररूपणा करके' तत्पश्चात् अन्तिम संचयानुगम की प्ररूपणा सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से विस्तारपूर्वक की गयी है ।' सूत्र-असूत्र-विचार __इस 'कृति' अनुयोगद्वार में आगे तीन सूत्रों (६८,६६ और ७०) द्वारा करणकृति के भेदप्रभेदों का निर्देश किया गया है। तत्पश्चात् "एवेहि सुत्तेहि तेरसण्हं मूलकरणकदीणंसंतपरूवणा कदा ॥७१॥" यह वाक्य सूत्र के रूप में उपलब्ध होता है । पर वास्तव में वह सूत्र नही प्रतीत होता, वह धवला टीका का अंश रहा दिखता है। ___कारण यह कि प्रथम तो इसकी रचना-पद्धति सूत्र-जैसी नहीं है । दूसरे इसमें जो यह कहा गया है कि इन सूत्रों द्वारा तेरह मूलक रण कृतियों की सत्प्ररूपणा मात्र की गयी है, यह पद्धति अन्यत्र सूत्रों में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। धवलाकार वैसा स्पष्टीकरण कर सकते हैं - यह एक विचारणीय प्रसंग है। ११. वे वहाँ यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि इन (६८-७०) सूत्रों द्वारा तरह मूलकरण कृतियों की सत्प्ररूपणा मात्र की गयी है। अब इस देशामर्शक सूत्र (७०) द्वारा सूचित अधिकारों की प्ररूपणा की जाती है-इस प्रतिज्ञा के साथ उन्होंने आगे उससे सूचित पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अधिकारों का निर्देश किया है तथा यह स्पष्ट कर दिया है कि इन अधिकारों के बिना उन सूत्रों (६८-७०) द्वारा प्ररूपित मूलकरण कृतियों की वह सत्प्ररूपणा बनती नहीं है। इस स्पष्टीकरण के साथ आगे धवलाकार ने क्रम से पदमीमांसादि १. यथा--ज्ञान, पृ० १८५-८६; श्रुतज्ञान, पृ० १८६-६१; अंगश्रुत, पृ० १६२-२०४; दृष्टि वाद, पृ० २०४-१०; पूर्वगत पृ० २१०-२४; अग्रायणीयपूर्व पृ० २२५-३६ २. धवला, पु० ६, पृ० २७४-८० ३. वही, , पृ० २८०.३२१ वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति / ७३७ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन अधिकारों की प्ररूपणा की है।' अनन्तर धवलाकार ने 'अब हम यहाँ देशामर्शक सूत्र से सूचित अनुयोगद्वारों को कहते हैं' इस प्रतिज्ञा के साथ उन तेरह मूलकरणकृतियों के विषय में यथाक्रम से सत्प्ररूपणा व द्रव्यप्रमाणानुगम आदि आठ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की है। * इस प्रकार उक्त देशामर्शक सूत्र के द्वारा सूचित उन पदमीमांसादि तीन अधिकारों और सत्प्ररूपणादि उन आठ अनुयोगद्वारों की विस्तार से प्ररूपणा करने के पश्चात् धवलाकार ने प्रसंग के अन्त में 'इदि मूलकरणकदीपरूवणा कदा इस वाक्य के द्वारा मूलकरणकृति की प्ररूपणा के समाप्त होने की सूचना की है । १२. वेदनाद्रव्यविधान के अन्तर्गत पदमीमांसा अनुयोगद्वार की प्ररूपणा के प्रसंग में "ज्ञानावरणीय की वेदना क्या द्रव्य से उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है और क्या अजघन्य है" यह पृच्छासूत्र प्राप्त हुआ है । अगले सूत्र में इन पृच्छाओं को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वह उत्कृष्ट भी है; अनुत्कृष्ट भी है, जघन्य भी है और अजघन्य भी है । सूत्र ४, २, ४, २-३ धवलाकार ने इन दोनों सूत्रों को देशामर्शक कहकर उनके अन्तर्गत क्या वह सादि है, क्या अनादि है, इत्यादि अन्य नौ पृच्छाओं को भी व्यक्त किया है । इस प्रकार सूत्रोक्त चार व उससे सूचित नौ ये तेरह पृच्छाएं सूत्रों के अन्तर्गत हैं, यह अभिप्राय धवलाकार का है । इन तेरह पृच्छाओं को स्पष्ट करते हुए वहाँ धवलाकार ने कहा है कि इस प्रकार इस सूत्र (२) में तेरह अन्य सूत्र प्रविष्ट हैं, ऐसा समझना चाहिए। इस प्रकार सामान्य से तेरह तथा विशेष रूप से उनमें प्रत्येक में भी तेरह-तेरह, तदनुसार सब पृच्छाएँ १६६ (१३ X १३) होती हैं । इस स्पष्टीकरण के साथ धवलाकार ने उन तेरह पृच्छाओं को उठाकर यथासम्भव उनको स्पष्ट किया है । 3 १३. इस वेदनाद्रव्यविधान की चूलिका में सूत्रकार द्वारा योगअल्पबहुत्व और प्रदेशअल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है । प्रसंग के अन्त में प्रत्येक जीव के योग गुणकार को पल्योपम के असंख्यातवें भाग-प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है । —सूत्र ४,२,४,१४४-७३ - अन्तिम सूत्र (१७३ ) की व्याख्या के प्रसंग में धवलाकार ने प्रकृत मूलवीणा के अल्पबहुत्वआलाप को शामर्शक कहकर उसे प्ररूपणा आदि अनुयोगद्वारों का सूचक कहा है व उससे सूचित प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों की यहाँ प्ररूपणा की है । * १४. वेदनाकालविधान की चूलिका में सूत्रकार ने स्थितिबन्धस्थानों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की है । — सूत्र ४, २, ६, ३७- ५० १. इस सब के लिए धवला, पु० ६, पृ० ३२४- ५४ (सूत्र ६८-७१) देखना चाहिए । २. धवला, पु० ६ -- सत्प्ररूपणा, पृ० ३५४-५६; द्रव्यप्रमाणानुगम, पृ० ३५६-६४; क्षेत्रानुगम, पृ० ३६४-७०; स्पर्शानुगम, पृ० ३७०-८० कालानुगम, पृ० ३८०-४०३; अन्तरानुगम, पृ० ४०३ - २८; भावानुगम, पृ० ४२८ व अल्पबहुत्वानुगम, पृ० ४२६-५० ३. धवला, पु० १०, पृ० २०-२८, धवलाकार ने आगे प्रसंग के अनुसार इसी पद्धति से वेदनाक्षेत्रविधान, वेदना कालविधान और वेदनाभावविधान में भी इन १३ १३ पृच्छाओं को स्पष्ट किया है। देखिए पु० ११, पृ० ४ ११ व ७८ से ५४ तथा पु० १२, पृ० ४ ११ ४. धवला, पु० १०, पृ० ४०३ ३१ ७३८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ अन्तिम सूत्र की व्याख्या के प्रसंग में धवलाकार ने अन्वोगाढअल्पबहुत्वदण्डक को देशामर्शक कहकर उसके अन्तर्गत चार प्रकार के अल्पबहुत्व के कहने की प्रतिज्ञा की है और तदनसार आगे स्वस्थान व परस्थान के भेद से दो प्रकार के अव्वोगाढअल्पबहत्व की तथा दो प्रकार के मूलप्रकृतिअल्पबहुत्व की प्ररूपणा की है।' १५. वेदनाभावविधान की दूसरी चूलिका में वृद्धिप्ररूपणा' अनुयोगद्वार के प्रसंग में अनन्तगुणवृद्धि किस से वृद्धि को प्राप्त होती है, इसे स्पष्ट करते हुए सूत्र में कहा गया है कि अनन्तगुणवृद्धि सब जीवों से वृद्धिंगत होती है।--सूत्र ४,२,७,२१४ । इसकी व्याख्या के प्रसंग में धवलाकार ने 'अब हम इस देशामर्शक सूत्र से सूचित परम्परोपनिधा को कहते हैं ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए उस परम्परोपनिधा की विस्तार से प्ररूपणा की है।' १६. वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत 'कर्ग' अनुयोगद्वार में सूत्रकार द्वारा नाम व स्थापना आदि के भेद से दस प्रकार के कर्म की प्ररूपणा की गयी है । अन्त में उन्होंने यहाँ उस दस प्रकार के कर्म में समवदान कर्म (६) को प्रकृत बतलाया है-सूत्र ५,४,३१ इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि मूलतन्त्र में प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, आधाकर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्म ये छह कर्म प्रधान रहे हैं, क्योंकि वहाँ इनकी विस्तार से प्ररूपणा की गयी है। इसीलिए हम यहाँ इन छह कर्मों को आधारभूत करके सत्प्ररूपणा व द्रव्यप्रमाणानुगम आदि आठ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करते हैं। ऐसी सूचना करते हुए उन्होंने आगे आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से उन छह कर्मों की विस्तार से प्ररूपणा की है। ____ इस पर आपत्ति उठाते हुए शंकाकार ने कहा है कि यह अल्पबहुत्व असम्बद्ध है, क्योंकि इसके लिए कोई सूत्र नहीं है । इस का निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उसकी सूचना पूर्वप्ररूपित देशामर्शक सूत्र (५,४,३१) से की गयी है। १७. कहीं शंका के रूप में भी देशामर्शक सूत्र का उल्लेख हुआ है । यथा श्रुतज्ञानावरणीय के प्रसंग में श्रुतज्ञान के स्वरूप आदि का विचार करते हुए धवला में उसके शब्दलिंगज और अशब्दलिंगज ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। शब्दलिंगज श्रुतज्ञान के प्रसंग में यह सूचना की है कि यहाँ शब्दलिंगज श्रुतज्ञान की प्ररूपणा की जाती है। यहां यह शंका उठायी गयी है कि इस देशामर्शक सूत (५,५,४३) द्वारा सूचित अशब्दलिंगज श्रुतज्ञान की प्ररूपणा क्यों नहीं की जा रही है। उत्तर में कहा गया है कि ग्रन्थ की अधिकता के भय से मन्दबुद्धि जनों के अनुग्रहार्थ भी यहाँ उसकी प्ररूपणा नहीं की जा रही है। १८. वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में बन्धनीय (वर्गणा) की चर्चा विस्तार से की गयी है। वहाँ 'वर्गणाद्रव्यसमुदाहार' की प्ररूपणा में वर्गणाप्ररूपणा, वर्गणानिरूपणा व वर्गणाध्र वाध्र वानुगम आदि चौदह अनुयोगद्वारों का निर्देश है ।---सूत्र ५, ६, ७५ __ उनमें मूलग्रन्थकर्ता ने वर्गणाप्ररूपणा और वर्गणानिरूपणा दो ही अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की है, शेष वर्गणाध वाध्र वानुगम आदि बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा उन्होंने नहीं की है। १. धवला, पु० ११, पृ० १४७-२०५ २. धवला, पु० १२, पृ० १५८-६३ ३. धवला, पु० १३, प्र०६०-१६५ ४. धवला, पु० १३, पृ० २४६-४७ वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति / ७३६ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रसंग में धवलाकार ने यह सूचना की है कि सूत्रकार ने चूंकि उन शेष बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा नहीं की है, इसलिए हम पूर्वोक्त दो (वर्गणाप्ररूपणा व वर्गणानिरूपणा) अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करते हैं । यह कहकर आगे उन्होंने यथाक्रम से उन बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की है।' देशामर्शक सूत्र आदि से सम्बन्धित ये कुछ ही उदाहरण दिये गये हैं। वैसे धवलाकार ने अन्य भी कितने ही प्रसंगों पर प्रचुरता से उन देशामर्शक सूत्र आदि का उल्लेख किया है और उनसे सूचित प्रसंगप्राप्त अर्थ का, जिसकी प्ररूपणा मूलग्रन्थकार द्वारा नहीं की गयी है, व्याख्यान धवला में कहीं संक्षेप में व कहीं अपने प्राप्त श्रुत के बल पर बहुत विस्तार से किया है। यह ऊपर के विवेचन से स्पष्ट हो चुका है। यह सब देखते हुए धवलाकार आ० वीरसेन की अगाध विद्वत्ता का पता लगता है। उपदेश के अभाव में प्रसंगप्राप्त विषय की अप्ररूपणा यह पीछे कहा ही जा चुका है कि धवलाकार ने प्रसंगप्राप्त विषय का विशदीकरण आचार्यपरम्परागत उपदेश के अनुसार अतिशय प्रामाणिकतापूर्वक किया है। जहाँ उन्हें परम्परागत उपदेश नहीं प्राप्त हुआ है, वहां उन्होंने उसे स्पष्ट कर दिया है व विवक्षित विषय की प्ररूपणा नहीं की है । यथा-- १. जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम में तिर्यंचगति के आश्रय से सासादनसम्यग्दष्टि आदि संयतासंयत पर्यन्त जीवों में द्रव्यप्रमाण के प्ररूपक सूत्र (१,२,३६) की ब्याख्या के प्रसंग में धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त तीन वेद वाले सम्यग्मिथ्यादष्टि जीवों की राशि से पंचेन्द्रिय तियंचयोनिमती असंयतसम्यग्दृष्टियों की राशि क्या समान है, क्या संख्यातगुणी है, क्या असंख्यातगणी है, क्या संख्यागगुणी हीन है, क्या असंख्यातगुणी हीन है, क्या विशेष अधिक अथवा विशेषहीन है; इसका वर्तमान काल में उपदेश नहीं है। २. क्षद्रक बन्ध के अन्तर्गत स्पर्शनानुगम में "चोद्दसभागा वा दसणा" इस सूत्र (२,७,५) की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यह सूत्र मारणान्तिक और उपपाद पदगत नारकियों के अतीत काल का आश्रय लेकर कहा गया है। मारणान्तिक के ये छह-बटे चौदह (६/१४) आग देशोन-संख्यात हजार योजनों से हीन हैं। प्रकारान्तर से यहाँ यह भी कहा गया है कि अथवा यहाँ ऊनता (हीनता) का प्रमाण इतना है, यह ज्ञात नहीं है। क्योंकि पार्श्वभागों में व मध्य में इतना क्षेत्र हीन है, इस सम्बन्ध में विशिष्ट उपदेश प्राप्त नहीं है। ३. वेदनाद्रव्यविधान में ज्ञानावरणीय की अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना की प्ररूपणा के प्रसंग में अवसरप्राप्त 'श्रेणि' अनुयोगद्वार की प्ररूपणा करते हुए धवलाकार ने कहा है कि अनन्तरोपनिधा और परम्पोपनिधा के भेद से श्रेणि दो प्रकार की है। उनमें अनन्तरोपनिधा का जानना १. वही, १४, पृ० १३४-२२३ २. धवला, पु० ३, पृ० २३८-३६ ३. धवला, पु० ७, पृ० ३६६ ७४० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्य नहीं है, क्योंकि जघन्य स्यानवी जीवों से द्वितीय स्थानवर्ती जीव क्या विशेष हीन हैं, क्या विशेष अधिक हैं, या क्या संख्यातगुणे हैं; इस विषय में उपदेश प्राप्त नहीं है। परम्परोपनिधा का जान लेना भी शक्य नहीं है, क्योंकि अनन्त रोपनिधा का ज्ञात करना सम्भव नहीं हुआ। ४. वेदनाक्षेत्र विधान में क्षेत्र की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की अनुत्कृष्ट वेदना की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में धवलाकार ने उत्कृष्ट , अनुत्कृष्ट और जघन्य अनुत्कृष्ट क्षेत्रवेदना के मध्यगत विकल्पों के स्वामियों की प्ररूपणा में इन छह अनुयोगद्वारों का उल्लेख किया हैप्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व । आगे यथाक्रम से इनकी प्ररूपणा करते हुए धवलाकार ने कहा है कि श्रेणि व अवहार इन दो अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करना शक्य नहीं है, क्योंकि उनके विषय में उपदेश प्राप्त नहीं है।' ५. 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में अवधिज्ञानावरणीय के प्रसंग में अवधिज्ञान के विषय की प्ररूपणा करते हुए धवलाकार कहते हैं कि जघन्य अवधिज्ञान से सम्बद्ध क्षेत्र का कितना विष्कम्भ, कितना उत्सेध और कितना आयाम है; इस विषय में कुछ उपदेश प्राप्त नहीं है। किन्तु प्रतर-धनाकार से स्थापित अवधिज्ञान के क्षेत्र का प्रमाण उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग है, इतना उपदेश है। ___ इस प्रकार परम्परागत उपदेश के प्राप्त न होने से धवलाकार ने प्रसंगप्राप्त विषय का स्पष्टीकरण नहीं किया है । उपदेश प्रा त कर जान लेने की प्रेरणा कहीं पर धवलाकार ने उपदेश के न प्राप्त होने पर विवक्षित विषय के सम्बन्ध में स्वयं किसी प्रकार के अभिप्राय को व्यक्त न करते हुए उपदेश प्राप्त करके प्रसंगप्राप्त विषय के जानने व उसके विषय में किसी एक प्रकार के निर्णय करने की प्रेरणा की है । यथा १. स्वयम्भूरमणसमुद्र की बाह्य वेदिका से आगे कुछ अध्वान जाकर तिर्यग्लोक समाप्त हुआ है, इसे पीछे पर्याप्त स्पष्ट किया जा चुका है। इस विषय में धवलाकार ने अपने उपर्युक्त मत को स्पष्ट करके भी अन्त में यह कह दिया है कि अतीन्द्रिय पदार्थों के विषय में छद्मस्थों की कल्पित युक्तियाँ निर्णय करने में सहायक नहीं हो सकती, इसलिए इस विषय में उपवेश प्राप्त करके निर्णय करना चाहिए। २. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी संयतासंयतों के अन्तर की प्ररूपणा में प्रसंगप्राप्त एक शंका के समाधान में धवलाकार ने कहा है कि संज्ञी सम्मूछिम पर्याप्त जीवों में संयमासंयम के समान अवधिज्ञान और उपशम-सम्यवत्व सम्भव नहीं है। आगे प्रासंगिक कुछ अन्य शंका-समाधानपूर्वक अन्त में धवलाकार ने यह भी कह दिया है- अथवा इस विषय में जान करके ही कुछ कहना चाहिए । १. वही, पृ० १०, पृ० २२१-२२ २. धवला, पु० ११, पृ० २७ ३. वही, १३, पृ० ३०३ ४. धवला, पु० ३, पृ० ३३-३८ ५. वही, पु० ५, पृ० ११६-१६ वीरसेनाचार्य को ध्याख्यान-पद्धति / ७४१ Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. कर्ता की प्ररूपणा करते हुए धवलाकार ने उस प्रसंग में वीर-निर्वाण के बाद कितने वर्ष बीतने पर शक राजा हुआ, इस विषय में तीन भिन्न मतों का उल्लेख किया है (१) वह वीर-निर्वाण के पश्चात् ६०५ वर्ष और पांच मास बीतने पर उत्पन्न हुआ। (२) वीर-निर्वाण के पश्चात् १४७६३ वर्ष बीतने पर शक राजा उत्पन्न हुआ। (३) वीर-निर्वाण के पश्चात् ७६६५ वर्ष और पांच मास व्यतीत होने पर शक राजा उत्पन्न नआ। इन तीन मतों के विषय में धवलाकार ने यह कहा है कि इन तीनों में कोई एक सस्य होना चाहिए, तीनों उपदेश सत्य नहीं हो सकते, क्योंकि उनमें परस्पर-विरोध है। इसलिए जानकर कुछ कहना चाहिए।' (४) 'कृति' अनुयोगद्वार में प्रसंगवश सिद्धों में कृतिसंचित, अवक्तव्यसंचित और नोकृतिसंचितों का अल्पबहुत्व दिखलाकर धवलाकार ने कहा है कि यह अल्पबहुत्व सोलह पदों वाले अल्पबहुत्व के विरुद्ध है । अतः उपवेश को प्राप्त कर किसी एक का निर्णय करना चाहिए।' (५) 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में अवधिज्ञान के विषय की प्ररूपणा के प्रसंग में "सव्वं च लोयणालि" आदि गाथासूत्र की व्याख्या में धवलाकार ने अविरुद्ध आचार्यवचन के अनुसार कहा है कि नो अनुदिश और चार अनुत्तरविमानवासी देव सातवीं पृथिवी के अधस्तन तल से नीचे नहीं देखते हैं । आगे इससे सम्बद्ध मतान्तर को प्रकट करते हुए यह भी कहा है कि कुछ आचार्य यह भी कहते हैं कि नो अनुदिश, चार अनुत्तरविमान और सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव अपने विमान-शिखर से नीचे अन्तिम वातवलय तक एक राजप्रतर विस्तार से सब लोक. नाली को देखते हैं। उसे जानकर कहना चाहिए। ऊपर ये पांच उदाहरण दिए गए हैं। ऐसे अन्य भी कितने ही प्रसंग धवला में उपलब्ध होते हैं। इस स्थिति को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन समय में विविध साधुसंघों में तत्त्वगोष्ठियां हुआ करती थीं, जिनमें अनेक सैद्धान्तिक विषयों का विचार चला करता था। इन गोष्ठियों में भाग लेनेवाले तत्त्वज्ञानियों को उनकी बुद्धि-कुशलता के अनुसार उच्चारणाचार्य, निक्षेपाचार्य, व्याख्यानाचार्य, सूत्राचार्य आदि कहा जाता था। ऐसे आगमनिष्ठ किन्हीं विशिष्ट शिष्यों को लक्ष्य करके यह कह दिया जाता था कि अमुक विषयों में उपदेश प्राप्त करके कोई निर्णय लेना चाहिए। १. धवला, पु० ६, पृ०१३१-३३ २. धवला, पु. ६, पृ० ३१८ ३. धवला, पु० १३, पृ० ३१६-२० ७४२ / षट्खण्डागम-परिशील. Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवतरण-वाक्य १७ यह पहले कहा जा चुका है कि धवलाकार के समक्ष विशाल साहित्य रहा है, जिसका उपयोग उन्होंने अध्ययन करके अपनी इस धवला टीका में किया है। उनके द्वारा इस टीका में कहीं ग्रन्थ के नामनिर्देशपूर्वक और कहीं ग्रन्थ का नामनिर्देश न करके 'उक्तं चं' आदि के रूप में भी यथाप्रसंग अनेक ग्रन्थों से प्रचुर गाथाएं व श्लोक आदि उद्धृत किये गये हैं। उपयोगी समझ यहाँ उनकी अनुक्रमणिका दी जा रही हैक०सं० अवतरणवाक्यांश पुस्तक पृष्ठ अन्यत्र कहाँ लपलब्ध होते हैं अकसायमवेदत्तं ७० भ०आ० २१५७ अगुरुअलहु-उवघादं अगुरुलघु-परूवधादा अग्नि-जल-रुधिरदीपे २५६ अच्छित्ता णवमासे १२२ अच्छेदनस्य राशेः १२४ अट्ठत्तीसद्धलवा गो० जी० ५०५ अट्टविहकम्मविजुदा (वियडा) १ २०० गो० जी०६८ पंचसं० १.३१ अट्ठासी अहियारे सु ११२ अठेव धणुसहस्सा १५८ २२६ अट्टेव सयसहस्साअट्ठा- ३ अट्ठव सयसहस्सा णव " ६७ २६० अडदाल सीदि बारस १३२ १३ अड्ढस्स अणलसस्स य गो० जी० ५७४ (टीका में उद्धृत) अणवज्जा कयकज्जा १५ अणियोगो च णियोगो १५४ आव०नि० १२५ * or 9 . " Yw | | १. ध्यान रहे कि इस अनुक्रमणिका में 'जाणह-जाणदि', 'अवगय-अवगद', एग-एक्क, आउव आउग, कथं-कधं, जैसे भाषागत भेद का महत्त्व नहीं है। Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र०सं० अन्यत्र कहाँ उपलब्ध होते हैं पृष्ठ २६० ३६४ ७१ १७ १२ ध्यानश० ४६ ११७ २० ३७३ अवतरणवाक्यांश अणियोगो य नियोगो अणुभागे हम्मते अणुवगयपराणुग्गहअणु संखा संखगुणा अणुसंखासंखेज्जा अणुलोभं वेदंतो अण्णाण-तिमिरहरणं अतितीव्रदु:खितायां अत्तामवुत्ति परिभोग अत्थाण वंजणाण य अत्थाण वंजणाण य अत्थादो अत्यंतर अस्थिअणंता जीवा गो०जी० ४७४; पंचसं० १-१३२ F २३ २४ २५८ ५७५ ७८ २५ ३५६ भ० आ. १८८२ भ. आ० १८८५ गो०जी० ३१५; पंचसं० १-१२२ ष०ख० सूत्र १२७ (पु० १४, पृ० २३३); मूला० १२, १६२; पंचसं० १-८५; गो० जी० १९७ २७१ ४७७ १५८ १८ له अत्थित्तं पुण संतं अत्थोपदेण गम्मइ अदिसयमादसमुत्थं अन्ययानुपपन्नत्वं سه لله १३ २४६ प्रव० सा० १-१३ न्यायदीपिका पृ० ६४-६५ पर टिप्पण ७ द्रष्टव्य है । r २ गो० जी० २८६ m १ mmm अपगयणिवारणटुं अप्प-परोभयबाधण अप्पप्पत्तिसंचिद अप्पं बादर मवुअं अप्पिदआदरभावो अप्रवृत्तस्य दोषेभ्यः अभयासंमोहविवेग अभावैकान्तपक्षेपि अभिमुह-णियमियबोहण- ३५१ १३६ ४८ १८६ ५५ ८२ ३८ ३६ १५ १ ३५६ ध्यानश० ८२ (अभया =अवहा) आ० मी० १२ गो०जी० ३०६; पंचसं० १-१२१, जं०दी०प०१३-५६ प्रमाणवा०४-१६० प्रव० सा०२-८०; पंचा० १३४ ३१७ ४४ अयोगमपरोग अरसमरूवमगंधं अर्थस्य सूचनात् सम्यक अवगयणिवारणट्ठ ३६६ ४५ १२६ ७४४ / षट्नण्डागम-परिशीलन Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋ०सं० अवतरणवाक्यांश पुस्तक अन्यत्र कहाँ उपलब्ध होते हैं अवगयणिवारण? ११ पंचसं० १.१२३; गो० जी० ३७० ३५६ १४७ x x x x IMGMc WWW.MG x x x x x x 1 अवगयणिवारणत्यं अवणयणरासिगुणिदो अवहारवढिरूवा अवहारविसेसेण य अवहारेणो अवहीयदि त्ति ओही अवायावयवोत्पत्तिः अविदक्कमवीचारं सु. १३ अविदक्करवीचारं अणि- " अष्टम्यामध्ययनं प्रष्टसहस्रमहीपतिअष्टादशसंख्यानां असदकरणदुपादानअसरीरा जीवघणा भ० आ०१८८६ ८७ २५७ १ १७ सांख्यका १ १६२. असहायणाण-दंसण असुराणमसंखेजा पंचसं० १-२६; गो० जी०६४ म० बं० १, पृ० २२; मूला. १२-११०; गो० जी० ४२७ अह खंति-मज्जवज्जव अहमिदा जहदेवा आउवभागो थोवो १३ ८० १३७ १० ३८७,५१२ १५ ३५ १ १०६ पंचसं० १-६५; गो० जी० १६४ पंचसं० ४-४६६; गो०क० १९२ wr Ved ध्यानश० ६७ प्रव० सा० ३-३४ २६४ D आक्षेपिणी तत्त्वविधान आगम-उवदेसाणा आगमचक्खू साहू आगमो ह्याप्तवचन आगासं सपदेसं आचार्यः पादमाचष्टे आणद-पाणदकप्पे आणद-पाणदवासी १२ . १७१ ३२० २६ ७२ ६ मूला० १२-२५ म० बं० १, पृ० २३; गो० जी० ४३१ प्रव० सा० १-२३ ति० ५० १-२६ (कुछ शब्दभेद) ३८६ आदा णाणपमाणं आदिम्हि भद्दवयणं आदि त्रिगुणं मूला ७४ ७५ ० अवतरण-वाक्य | ७४५ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋ०सं० पुस्तक पृष्ठ अन्यत्र कहाँ उपलब्ध होते हैं ওও ७८ ७६ अवतरणवाक्यांश आदी मंगलकरणं आदीवसाणमज्झे आदो मध्येऽवसाने आभीयमासुरक्खा आलंबणाणि वायण आलंबणेहि भरिओ ४१ ३५८ ६७ आप्तप० पृ० ५ पंचसं० १-११९; गो० जी० ३०४ ध्यानश० ४३ भ० आ०१८७६ ० ० UU PUUUU MK W w | ०० ० आलोयण-पडिकमणे आवलि असंखभागा आवलिय अणागारे आवलियपुधत्तं पुण ३६१ २५ x० मूला० ५-१६५ गो० जी० ५७४ क० पा० १५ म० बं० १, पृ० २१, गो० जी० ४०५ VV U पंचसं०१-६७; गो०जी० २३६ पंचसं० १-१७६; गो०जी० ६६५ गो० जी० २४० पंचसं० १.४४; गोजी-११६ w ३५५ ११७ २६४ १५२ २६४ ४१७ ५७५ १२३ १६२ १३१ w mn GKK W0MM GM w आवलियाए वग्गो आहार-तेज-भासा आहरदि अणेण मुणी १ आहरदि सरीराणं आहारयमुत्तत्थं आहार-सरीरिदिय आहारे परिभोयं आहिणिबोहियबुद्धो ६ इगिवीस अट्ठ तह णव ५ इगितीस सत्त चत्तारि ७ इच्छहिदायामेण य १० इच्छं विरलिय[दु]गुणिय १४ इच्छिदणिसेयभत्तो इट्ठसलागानुत्तो इत्थि-णउंसयवेदा इमिस्से वसप्पिणीए w w w w w १६६ w २०१ १८ १०० ६२ १२० २७३ १०२ इंगाल-जाल-अच्ची ति०५० १-६८ (अर्थसाम्य) मूला० ५-१४; पंचसं० १-७६ आचा०नि० ११८ गोक०४१८ ur १३ ४१० ३६ उगुदाल तीस सत्त य १०४ उच्चारिदम्मि दु पदे १०५ उच्चारियमत्थपदं उच्चुच्च उच्च तह १०७ उच्छवासानां सहस्राणि ७४६ / षट्खण्डागम-परिशीलन ० ४ ३१८ Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक क्र०सं० १०८ अन्यत्र कहां प्राप्त होते है १०६ अवतरणवाक्यांश उजुकूलणदीतीरे उज्जुसुदस्स दु वयणं उणतीस जोयणसया १२४ २६ १५८ उणसट्ठिजोयणसया ११२ ११३ ११४ ११५ उत्तरगुणिते तु धने उत्तरगुणिदं इच्छं उत्तरदलहयगच्छे उदए संकम-उदए २२६ १५८ २२६ ८७ ४७५ ६४ २६५ २६६ २७६ ३६२ १३ गोक० ४४० उदयो य अणंत उप्पज्जति वियंति य ० morxxx ram 9 सन्मतिसूत्र १-११ २४४ उप्पण्णम्मि अणंते ११६ ७३ ३२० २४ ३४२ ध्यानश०५५ मूला० १२-२७ गोक० ७८८पंचसं० ४-७९ ८ 9 ४ ३४१ ११६ १२० १२१ १२२ १२३ १२४ १२५ १२६ १२७ १२८ उवजोगलक्खणभणाइ उवरिमगेवज्जे सुअ उवरिल्लपंचए पुण उवसमसम्मत्तद्धा जइ उवसमसम्मत्तद्धा जत्तिय उवसंते खीणे वा उवसामगो य सम्वो उव्वेल्लण विज्झादो ऋषिगिरिरन्द्राशायां एइंदियस्स फुसणं .. ३७३ ६ २३६ ४०८ पंचसं०१-१३३; गो०जी०४७५ क०पा०६७ गोक० ४०६ . २५८ पंचसं० १-६७ (तृ० चरण भिन्न) गो०जी० १६७ २८६ س १२६ १३० १३१ एए छच्च समाणा १२ एकमात्रो भवेद्धस्वो १३ एकोत्तरपदवृद्धो रूपाद्य ५ २४८ जनेन्द्र पु० पृ० ५ (अर्थसाम्य) م س १६३ २५४ २०३ २५८ १० १३२ لله एकोत्तर पदवृद्धो रूपो- १३ एक्कम्मि कालसमरा १ م १३३ १८५ पंचसं०१.२०; गो०जी०५६ अवतरण-वाक्य/७४७ Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र० सं० १३४ १३५ १३६ १३७ १३८ १३६ १४० १४१ १४२ १४३ १४४ १४५ १४६ १४७ १४८ १४६ १५० १५१ १५२ १५३ अवतरण वाक्यांश एक्क य छक्केक्कारस एक्कं च द्विदिविसेसं एक्कं तिय सत्त एक्कारस छ सत्त य एक्कारसय तिसु गु एक्क्कहि यवत्थू एक्क्कं तिणि जणा एक्को चैव महप्पो 39 " गाणे गभवगयं दहिगुणा देसि गुणगारो एदेसि पुव्वाणं एयवखेत्तो गाढं 17 33 १ ६ एक्को ( एगो) मे सस्सदो अप्पा ६ 37 17 33 33 ور एयट्ठ च च य छ सत्तयं एयणिगोदसरीरे "" "" "" 19 एदवियम्मि जे "3 19 " एयं ठाणं तिण्णि वियप्पा एयादीया गणणा एवं क्रमप्रवृद्ध्या एवं सुत्तसिद्धं एस करेमि य पणमं १५४ १५५ १५६ १५७ १५८ १५६ १६० ७४८ / षट्खण्डागम-परिशीलन एसो पंचणमोक्कारो ओड्डदि जे असे ओगाहणा जहणा ओजम्मि फालिसंखे पुस्तक १५ ६ ४ ४ " ३ ह "" 67 १३ १ १४ ε ૪ १२ १४ १५ १३ १ ४ १ ३ ५ ह ६ ७ १ ह ६ ह १० पृष्ठ ८२ ३४७ ३६१ ४१५ २३६ ६५ २२६ २०८ १०० १६८ & ह ७२ १८३ ११८ २२७ ३२७ २७७ ४३६ ३५ २५४ २७० व ३६४ ४७८ ३८६ ६ १८३ १६२ २७६ २५८ १०३ १०५ ४ ३४७ १६ ६० अन्यत्र कहाँ प्राप्त होते हैं क०पा० १५५; ल०सा० ४०४ पंचा० ७१ "1 भावप्रा० ५६ नि०सा० १०२; मूला० २-१२ पंचसं ० १ १८; गो०जी० ५१ पंचसं० ४-४६४; गो०जी० १८५ 19 37 33 "7 "7 77 गो०जी० ३५३ ष०ख० सूत्रगाथा १२८ (५०१४); मूला० १२-१६३; गो० जी०१६६ सन्मतिसूत्र १-३३; गो०जी ५८२ "" 13 त्रि०सा० १६ मूला० ७-१३ क०पा० १५४; ल० सा० ४०३ म० बं० १, पृ० २१ Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यत्र कहाँ प्राप्त होते है पृष्ठ १८७ क०सं० अवतरणवाक्यांश परतक ओदइओ उवसमिओ ५ प्रोदइया बंधयरा १२ ओरालिय मुत्तत्थं ___ ओवट्टणा जहण्णा १६५ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणी ४ ओसा य हिमो धूमरि १ २७६ २६१ ३४६ ३३३ २७३ गो० जी०२३१ क० पा० १५२; ल० सा० ४०१ स०सि० २१० (उद्धृत) मूला० ५-१३ (पू०); पंचसं० १-७८; आचा०नि० १०८ (पू०), उत्तर ३६-८६; प्रज्ञाप० १-२० f १६७ १६८ औपश्लेषिकवैषयिका- १४ अंग सरो वंजण अंगुलमावलियाए ५०२ ७२ २४,४० म०बं० पृ० २१; विशेषा० ६११ नंदीगा० ५०; गो०जी० ४०४ १५ ७६ १७१ १७२ अंगोवंग-सरीरिदिय अंतोमुहुत्तपरदो अंतोमुहुत्तमेत्तं कथंचित्ते सदैवेष्टं कधं चरे कधं चिट्ठ ध्यानश० ४ ध्यानश०३ आ०मी० १४ मूला० १०-१२१; दशवै० ४-७ १५ EE १७४ क०पा० १०६ १७५ १६७ २४२ २६५ ७२ भ०आ० १७११ १७७ १७८ १७६ १८० कम्माणि जस्स तिण्णि कम्मेव व कम्मभवं कल्लाणपावए जे १३ के पि णरं दळूण य ७ काऊ काऊ कोऊ २ कारिस-तणिट्टि वागग्गि १ कार्यद्रव्यमनादि स्यात् १५ कालो चउण्ण वुड्ढी ६ कालो टिदिअवधरणं १ कालो तिहा विहत्तो कालो त्ति य ववएसो "oo or rxx ४५६ ३४२ २६ : MMK. KW Mc 06 0MM WWW G पंचसं० १-१८५; गो०जी० ५५६ पंचसं०१-१०८ गोजी १०८ अ०मी० १० म०बं पृ० २२; नंदी गा० ५४ १५६ २६ पंचा० १०१ कालो परिणामभवो ३१५ पंचा० १०० १८७ १८८ १८६ कालो वि सो च्चिय १३ किट्टी करेदि णियमा ६ किट्टी च ट्टिदिविसे सेसु , ३८२ ३८३ ध्यानश० ३८ क०पा० १६४ कपा० १६७ अवतरण-वाक्य / ७४६ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ । १६ क्र०सं० १६० १६१ १६२ १६३ १८४ १६५ १६६ १६७ १९८ १६६ २०० ५३३ ३५० ३४ अन्यत्र कहाँ प्राप्त होते हैं पंचसं० १-१८३ (किण्हा) पंचसं० १-१५३ पंचसं० १-१८३ गो०जी० २८७ मला० ८-१५, जीवस० ४ भ०आ० १७०६ ध्यानश०४६ अवतरणवाक्यांश पुस्तक किण्णं भमरसवण्णा किण्हादिलेस्सरहिदा १ किण्हा भमर सवण्णा २ किमिराय-चक्क-तणु कि कस्स केण कत्थ किंचि दिद्विमुपावत्त- १३ कि बहुसो सव्वं चिय १३ कुक्खिकिमि-सिप्पि-संखा १ कुंडपुरपुरवरिस्सर ६ कुंथु-पिपीलिक-मक्कुण १ कृतानि कर्माण्यतिदा- १३ कृष्णचतुर्दश्यां है केवलणाण-दिवायर १ केवलदंसण-णाणे कोटिकोट्यो दशैतेषां १३ कोटीशतं द्वादश क्षणिकान्तपक्षेऽपि १५ क्षायिकमेकमनन्तं क्षेत्र संशोध्य पुनः खय-उवसमो विसोही पंचसं० १-७३ ७३ २४१ १२२ २४३ ६० २५७ १६१ ३६१ ३०१ १६५ २०१ पंचसं० १-२७; गो०जी० ६३ क०पा०१६ २०३ २०४ २६ २०७ १४२ २५६ १३६ भ०आ० २०७६; ल.सा. ३; गो०जी० ६५० २०५ २१० खवए य खीणमोहे ष०ख० सुत्रगा० ८ (पु० १२, पृ० ७८); क०प्र० ६-६ १५ २८२ २६६ " , खंधं सयल समत्थं २११ पंचा० ७५; मूला० ५-३४; ति०प० १-६५; गो० जी० ६०३ ध्यानश० ५४ २१२ खिदि-वलय-दीव-सायर खीणे दंसणमोहे चरित्त १ ७३ ૬૪ ११६ ३६५ (कुछ शब्द-भेद) पंचसं० १-१६०; गो०जी० ६४६ २१४ २१५ खीणे दंसणमोहे जं खेत्तं खलु आगासं गइकम्मविणिवत्ता गच्छकदीमूलजुदा गणरायमच्चतलवर १३५ २१७ २१८ १३ २५६ १ ७५० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र०सं० २१६ २२० २२१ २२२ २२३ २२४ २२५ .२२६ २२७ २२८ २२६ २३० २३१. २३२ २३३ २३४ २३५ २३६ २३७ २३८ २३६ २४० - २४१ २४२ २४३ २४४ २४५ २४६ २४७ अवतरणवाक्यांश गादिजादी उस्सासो गदिलिंग कसाया वि गमइयछदुमत्थत्तं गय गवल सजलजल गयणट्ठ-णय कसाया समयहि जीवो गहिदमगहिदं च तहा गुण-जीवा-पज्जत्ती गुण- जोगपरावत्ती गुणसे अतगुणा अतगुणो असंखेज्जा गुणसे गुत्ति - पत्थ-भयाई वज्जावरिमया वज्जेय विगुणं गोत्र्तण गोदमो घट-मौलि सुवर्णार्थी चररुत्तरतिष्णिसयं चउसटु छच्च सया चक्खूण जं पयासदि 31 11 चत्तारि आणुपुब्वी चत्तारि धणुसाया इं 19 चित्तारि विछेत्ताइं "1 चदुपच्चइगो बंधो चंडो ण मुयदि वेरं " "" चंदाइच्च-गहि चागी भद्दो चोक्खो चारणवसो तह पंच 11 " चालिज्जइ वीहेह व पुस्तक १५ ५ & १ ३ ४ १३ २ ४ ६ 11 "" ह ४ ६ १ १५ ३ "" १ ७ १५ & १३ १ ८ १ १६ ४ १ "" ६ १३ पृष्ठ १३ १८६ १२४ . ७३ २५५ ३३२ ४८ ४१२ ४११ ३८२ ३६३ ३६० १३२ २३६ २६८ ६५ २७ ६४ ह ३८२ १०० १४ १५८ २२६ ३२६ २४ ३८८ ४६० १५१ ३६० ११३ २०६ ८३ अन्यत्र कहाँ प्राप्त होते हैं पंचसं ० १ २; गो० जी २ क०पा० १६५ क०पा० १४६ ल०सा० ४४२ आ०मी ५६; शा०वा० समु० ७-२ उद्धृत पंचसं० १-१३६; गो०जी० ४८४ मूला० १२-५१ (कुछ शब्द भेद) 11 " पंचसं० १ २०१; गो०जी० ६५३; गो०व० ३३४ पंचसं ४-७८ (चदु == चउ); गो०क० ७८७ पंचसं० १ - १४४; गो० जी० ५०६ 33 17 पंचसं० १ - १५१ ; गो० ५१५ ध्यानश० ६१ अवतरण - वाक्य / ७५१ Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र०सं० २४८ २४६ २५० २५१ २५२ २५३ २५४ २५५ २५६ २५७ २५= २५६ २६० २६१ २६२ २६३ २६४ २६५ २६६ २६७ २६८ २६६ २७० २७१ २७२ ८७३ २७४ २७५ अवतरणवाक्यांश चितियमचितियं व चोद्दसपुव्व-महोयहि चोट्स बादरजुम्मं छक्कादी छक्कंता छक्कापक्कमजुत्तो 21 37 छच्चेव सइस्साई छद्दव्व णवपयत्थे छष्पंच णव विहाणं 11 "" 13 छम्मासा उवसेसे 17 छट्ठमासु पुढवी छादि सयं दोसेण छाट्ठ च सहस्सा छेत्तूणय परियायं जगसेढीए वग्गो जच्चिय देहावस्था ज्ञानं प्रमाणमित्याहुः ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यात् जत्थ जहा जाणेज्जो जत्थ बहु जाणिज्जा "3 जत्थ बहू जाणेज्जो जत्थिच्छसि से साणं जत्थेक्कु मरइ जीवो 77 जत्थेव चरइ बालो जदं चरं जदं चिट्ठ 23 17 जम्हा सुदं विदवक " "" जयमंगलभूदाणं जल-जंघ तंतु-फल ७५२ / बटखण्डागम-परिशीलन पुस्तक १ ", १० ३ १ ह ४ १ 13 "1 १ "1 १ ४ १ ३ १.३ १ ६ ३ १ ह ३ १० १ १.४ १ ६ १३ 17 ७ ह पृष्ठ ३६० ५० २३ १०१ १०० १६८ २३६ ५५ १५२ ३६५ ३१५ ३०३ २०६ ३४१ १५२ ३७२ ३५६ ६६ १३ ११८ १२६ ३० ४१ १७ ४५८ २७० ६० ६६ १६७ ७८ ७६ १५ ७६ • अन्यत्र कहाँ उपलब्ध होते हैं पंचसं० १-१२५; गो०जी० ४३८ पंचा० ७२ " पंचसं० १ १५६; गो०जी ५६१ भ०आ० २१०५; पंचसं० १ २०० पू०वसु० श्रा० ५३० पंचसं० १ १०४ (छादेदि = छादयदि ) ; गो०जी० २७४ पंचसं० १ १३०; गो०जी० ४७१ ध्यानश० ३६ लघीय० ६-२ 31 ष० ख० सूत्र गा० १२५ (पु० १४ ); पंचसं ० १ - ५३; गो० १६३ मूला० ५ १३२ मूला० १०-१२२; दशवं ०४-८ J1 भ०आ० १८८१ १८८४ " こ Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र०सं० २७६ अवतरणवाक्यांश जवणालिया मसूरी - पुस्तक १ पृष्ठ २३६ २६७ अन्यत्र कहाँ उपलब्ध होते हैं मूला० १२-५० दशवै०६-१३ २७७ २७८ २७६ जस्संतिए धम्मवहं जस्सोदएण जीवो अणु जस्सोदएण जीवो सुहं ७ . १ पंचसं० १-८७; गो० जी० २०३ UUUUU ३६ १४ २६६ ३३४ ४५४ ८२ २८१ ४१७ १ ध्यानश० १०१ भ० आ० १०५ पंचसं० १-४३; गो० जी ११८ पंचसं० १-७६; गो० जी० २०२ ध्यानश० १०० १०२ १३६ जह कंचणमग्गिगयं जह गेण्हइ परियटें जहचियमोराण सिहा जह चिरसंचियमिंधण जह-जह सुदमोगाहिदि जह पुण्णापुण्णाई जह भारवहो पुरिसो जह रोगासयसमणं जह वा घणसंघाया जह सव्वसरीरगयं जं अण्णाणी कम्म जं च कामसुहं लोए जं थिरमज्झवसाणं जं सामण्णग्गहणं जं सामण्णंगहणं २८४ २८५ २८६ २८७ २८८ २८६ २६० २६१ २६२ २६३ ८२ ওও ८७ २८१ ५१ प्रव० सा० ३-३८; भ०आ० १०८ मूला० १२-१०३ ध्यानश०२ १०० १४६ पंचसं० १-१३८; गो०जी० ४८२ द्रव्यसं० ४३ पंचसं० १-६४; गो० जी० १५२ २६४ जाइ जरा-मरण-भया जाणइ कज्जमकज्जं २०४ २६५ २६६ २९७ २६८ जाणइ तिकालसहिए। जाणदि फस्सदि भुंजदि जातिरेव हि भावानां ३८६ ४६१ १४४ २३६ १७५ पंचसं० १-१५०; गो०जी० ५१५ पंचसं० १-११७; गो०जी० २६६ पंचसं०१-६६ मजा ६ २६६ ३०० ३०१ जादीसु होइ विज्जा जारिसओ परिणामो जावदिया वयणवहा ७७ १२ ८०,१६२ १८१ १३२ सन्मति १-४७; गो० क० ८६४ ३०२ ३०३ जाहि व जासु व जीवा १ जिणदेसयाइ लक्खण- १३ जिण-साहुगुणुक्कित्तण- पंचसं० १-५६; गो०जी० १४१ ध्यानश० ५२ ध्यानश०६८ ३०४ ७६ अवतरण-वाक्य | ७५३ Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र०सं० ३०५ ३०६ ३०७ ३०८ ३०६ ३१० ३११ ३१२ ३१३ ३१४ ३१५ ३१६ ३१७ ३१८ ३१६ ३२० ३२१ ३२२ ३२३ ३२४ ३२५ ३२६ ३२७ ३२८ ३२६ ३३० ३३१ ३३२ ३३३ अवतरणवाक्यांश जियदु मरदु व जीवो जियमोहिधणजलो ३३४ ३३५ जीवपरिणामहेऊ जीवस्तथा निर्व तिम जीवा चोट्सभेया जीवो कत्ता य भोत्ता जे अहिया अवहारे जे ऊणा अवहारे जे गमेवदव्वं जे बंधयरा भावा जेसि आउसमाई जेसि ण संति जोगा हिंदु लखिते जोगा पयडि-पदेसे 11 जो णेव सच्चमो सो जो तसवहाउ विरओ " ज्येष्ठामूलात् परतो झाएज्जो निरवज्जं झाणिस्स लक्खणं से झाणोवरमे विमुणी ठिदिघादे हम्मते `ण उ कुणइ पक्खवायं 31 ण कसायसमुत्थेहि वि सेस माओ "" णत्थि चिरं वा खिप्पं णत्थि येहि विहूणं णय कुणइ पखवायं णयदि त्ति गयो भणिओ णय पत्तियइ परं सो 37 ण य परिणमइ सयं णय महइ णेव सं ७५४ / षट्खण्डागम-परिशीलन " पुस्तक १४ १ ६ ६ १ 31 " १३ ७ १ 11 "; १२ 17 १ 21 € १३ " 13 १२ १ १६ १३ १ ४ १. १६ १ " १६ ४ ४ पृष्ठ εo . ५६ १२ ૪૨૭ ३७३ ११८ ४२ 17 ७६ ε ३०४ २५० १६१ ११७ २८६ २८६ १७५ २५८ ७१ ६५ ७३ ३६४ ३६० ४२ ८२ १७६ ३१७ ६१ ४६२ ११ ३८६ ४६१ ३१५ ३४६ अन्यत्र कहाँ उपलब्ध होते हैं प्रव०स० ३-१७ (मरदु व जियदु) समयप्रा० ८६ क०प्र० पृ० १३८ सौन्दरा० ६-२६ पंचसं० १ १३७; गो०जी० ४७८ भ०आ० १८-८३ भ०आ० २१०६ पंचसं० पंचसं० १-३; गो०जी० ८ पंचसं० ४ - ५१३; गो०जी० २५७ ० १ १००, गो०जी० 17 पंचसं० १-६२; गो०जी० २२१ पंचसं० १-१३ ( कुछ शब्द परिवर्तन); गो०जी० ३१ "1 ध्यानश० ४६ ध्यानश० ६५ "" पंचसं० १-१५२; गो०जी० ५१७ ० २४३ ध्यानश० १०३ पंचसं० १ १६; गो०जी० ४६ पंचा० २६ आव०नि० ६६१ पू० पंच०सं० १-१५२ गो०जी०५१६ "" पंचसं० १-१४८; गो०जी० ५१३ गो०जी० ५७० Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र०सं० पुस्तक १ अवतरणवाक्यांश ण य सच्चमोसजुत्तो ण रमति जदो णिच्चं णलया बाहू य तहा णवकम्माणादाणं णव चेव सयसहस्सा णवमो अइक्खुवाणं पृष्ठ २८२ २०२ ५४ ३३७ ३३८ ___ अन्यत्र कहां उपबन्ध होते हैं पंचसं० १६०; गो०जी० २१९ पंचसं० १-६०; गो०जी० १४७ गो०क० २८ ध्यानश०३३ ६ ३३६ ३ ३४० ३४१ ११२ २०६ ३४२ १ २४८ M NWGwrum 0 0 MM: ० १६१ ७३ o ध्यानश० ५८ १७ ण वि इंदिय-करणजुदा णाणण्णाणं च तहा णाणमयकण्णहारं णाणंतरायदसयं णाणंतरायदंसण णाणावरणपदुक्कं णाणे गिच्चम्भासो णामं ठवणा दविए " , दवियं ३४६ ३४७ ३४८ ३४६ १५ ६४ ६८ ध्यानश० ३१ सन्मति०१-६ १८५ __, २४२ I mr ३५२ ३५३ ३५४ ३५५ ३५६ णामं दृवणा दवियं ... मणंतं । णामं 8वणा दवियं... .."मसंखं । । ११,१२३ णामिणि धम्मुवयारो ५ १८६ णिक्खित्त विदियमेत्तं ७ ४५ णिच्चं चिय जुवइ-पसू १३ णिज्जरि दाणिज्जरिदं , ४८ णिद्दद्धमोह-तरुणो १ ४५ णिदावंचणबहुलो ३८६ ४५१ हिम्मूलखंध-साहुव ५३३ मूला ११-२२; गो०जी० ३८ ध्यानश० ३५ पंचसं० १-१४६; गो०जी० ५११ पंचसं० १-१६२; (उत्त० कुछ भिन्न) गो०जी० ५०८ स०सि० २१० (उद्धृत) ३५६ ३६१ णिरयाउआ जहण्णा णिरयगई संपत्तो णिस्सेसखीणमोहो णिहयविविहट्टकम्मा " णेरइय-देव-तित्थयरोहि १३ ३३३ २६ १६० ४८ २६५ पंचसं० १-१२५; गो०जी० ६२ ३६२ ३६३ नंदी०गा०६४ अवतरण-वाक्य / ७५५ Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र०सं० पुस्तक ३४२ अन्यत्र कहाँ उपलब्ध होते हैं गो०जी० २७५ पंचसं० १-११; गो०जी० २६ ३६५ १७३ ३०० ५६ ~ .३६७ अवतरणवाक्यांश णेवित्थी व पुमं णो इंदिएसु विरदो ततो वर्षशते पूर्ण तत्तो चेव सुहाई तत्थ मइदुब्बलेण य तद विददो घण सुसिरो तदियो य णिय इ. तपसि द्वादशसंखे तम्हा अहिगयसुत्तेण १३ १ १३ , १ ध्यानश०४७ ३६६ ३७० ३७१ ३७२ २२२ ११२ २५७ १ २५८ सन्मति० ३, ६४-६५ (पूर्वार्धउत्तरार्द्ध में व्यत्यय) गोजी १५८ ध्यानश० ५६ __, ७२ (शब्द-भेद) ८७ १६३ ३७३ ३७४ ३७५ ३७६ ३७७ ३७८ ३७६ ३८० ३८१ mr पचसं० १.१६; गो०जी० ५४ तललीनमधुगविमलं ७ तस्स य सकमांजणियं १३ तह बादरतणुविसयं , तं मिच्छत्तं जमसदहणं १ तारिसपरिणामट्ठिय , तावन्मात्रे स्थावर तिगहियसद णवणउदी ३ तिण्णं दलेण गणिदा तिण्णिसदा छत्तीसा तिण्णिसया छत्तीसा तिण्णिसहस्सासत्तं य - गो०जी० ६२५ . . ३६२ ३६० ३८२ गो०जी० १२२ गो०जी० १२३ الله ३०० (एसो==एगो) - १४ الله पंचसं० १-१८८; गो०जी० ५३४ الله ३६२ ५३४ ५८ १४ १२ ३८४ ३८५ ३८६ ३८७ ३८८ ३८६ س س सन्मति० १-३ سه له तिण्हं दोण्हं दोण्हं तित्थयर-गणहरत्तं तित्थयर-णिरय-देवाउअ तित्थयरवयणसंगह तिरयण-तिसूलधारिय तिरियंति कुंडिलभावं तिल-पलल-पृथुकतिविहं तु पदं भणिदं तिविहं पदमुद्दिट्ट तिविहा य आणुपुव्वी पंचसं० १-६१, गो०जी० १४८ س ३६० २०२ २५५ १६६ २६६ ३६१ ३६२ ३६३ १४० ३६४ ३६५ तिसदि वदंति केई तेऊ तेक तेज ५३४ गो०जी० ६२६ (वदंति भणंति) पंचसं० १-१८६ (च० चरण भिन्न); गो०जी० ५३४ ७५६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र०सं० ३६६ ३६७ ३६८ ३६६ ४०० ४०१ ४०२ ४०३ ४०४ ४०५ ४०६ ४०७ ४०८ ४०६ ४१० ४११ ४१२ ४१३ ४१४ ४१५ ४१६ ४१७ ४१८ ४१६ ४२० ४२१ ४२२ ४२३ ४२४ ४२५ ४२६ ४२७ ४२८ अवतरणवाक्यांश तेत्तीस वंजणाई तेया- कम्मसरीरं तेरस कोडी देसे वावण्णं तेरस पण णव पण णव तेरह कोडी देसे पण्णासं ती जत्थ समाहाणं तो देस-काल-चेट्ठा तोयमिव णालियाए थिरकयजोगाणं पुण दर्शनेन जिनेन्द्राणां दलियमयणप्पयावा दव्वगुणपज्जए afgar दव्वाइणेगाई दव्वादिवदिक्कमणं दस अट्ठारस दसयं दस चदुरिगिं सत्तारस दस चोद्दस अट्ठारस दसविह सच्चे वयणे दस सण्णीणं पाणा दहि- गुडमिव वामिस्सं दंसणमोहक्खवणादंसणमोहस्सुवसामओ दंसणमोहदयादो दंसणमोहुवसमदो दंसण वद सामाइय "" दाणंतराइयं दाणे दाणे लाभे भोगे दिव्वंति जदो णिच्चं " दुओदं जहा जाद देवाउ - देवचउक्काहार देस-कुल- जाइसुद्धो पुस्तक १३ ह ३ १० ३ १३ "" " "" દ १ ७ १ १३ ह ८ 37 ६ १ २ १ ६ ." १ 23 ε १५ १ "" पृष्ठ ८ २४८ ३८ २५४ २६ २५२ ६६ ६७ ८६ ६७ १ ४२८ ४५ १४ १२ ७८ ,,, १०२,३७३ २५६ २८ ११ २२७ २८६ ४१८ १७० २४५ २३६ ३६६ 33 दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो ६ ४६७ ६ १८६ ११ ૪૨. २०१ १४ ६४ २०३ अन्यत्र कहाँ उपलब्ध होते हैं गो०जी० ३५२ मं० बं० १, पृ० २२ गो०जी० ६४२ ध्यानश० ३७ ४१ 13 31 31 मूला० ४ १७१ गो०क० ७६२ २६३ ७५ ३६ 22 पंचसं० १ ६१; गो०जी० २२० गो० जी० १३३ पंचसं ० १ - १०; गो०जी० २२ क०पा० ११० ६५ 21 गो०जी० ३४६ गो०जी० ६५० चा० प्रा० २२; गो०जी० ४७७; पंचसं० १-१३६ वसु० श्रा० ४ वसु०वा० ५२७ पंचसं० १-६३ (दिव्वंति - कीडंति); गो०जी० १५१ सौन्दरा० म०का० १६-२८ मूला० ७-१०४; समवा० १२ अवतरण वाक्य / ७५७ Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र०सं० पृष्ठ अन्यत्र कहाँ उपलब्ध होते हैं १६४ اس ४२६ ४३० ४३१ ध्यानश०६२ ८२ ४६० و " ४७५ ५७ अवतरणवाक्यांश पुस्तक देसे खओवसमिए देहविचित्तं पेच्छा दो दोरूवक्खेवं दोद्दोय तिण्णि तेऊ द्रव्यतः क्षेत्रतश्चव द्विसहस्रराजनाथो धणमठ्ठत्तरगुणिदे धदगारवपडिबद्धो धनुराकारश्छिन्नो धम्माघम्मागासा धम्माधम्मा लोया धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थों धुवखंधसांतराणं नन्दा भद्रा जया रिक्ता नयोपनयकोन्तानां १५० 2" ४३३ ४३४ ४३५ ४३६ ४३७ ४३८ ४३६ ४४० ४४१ ४४२ ६२ १२६ : आ०मी० २२ ११८ ३१६ आ०मी० १०७ m २८ १८३ आ०मी० ५७ युक्त्यनु० ५० आ०मी०३७ १६ ४४६ ४४७ ४४८ ४४६ ४५० ४५१ ४५२ नवनागसहस्राणि न सामान्यात्मनोदेति नानात्मतामप्रजहत्तदेक नित्यत्वकान्तपक्षेऽपि १५ निमेषाणां सहस्राणि पक्खेवरासिगुणिदो ३ यच्चय-सामित्तविही पच्चाहरित्तु विसएहि १३ पच्छा पावाणयरे पढमक्खो अंतगओ ४६ भ०आ० १७०७ ४५३ मूला० ११-२३; गो०जी० ४० ४५४ ४५५ ४५६ पढमपुढवीए चदुरो पढमं पयडिपमाणं पढमो अरहंताणं १२५ ४८ ३१६ २६६ ४५ ११२ २०६ २०८ ३०० मूला० ११-२१ (पयडि= सील) ४५७ पढमो अबंधयाणं पणगादि दोहि जुदा ४५८ मूला० १२-७६ ७५८ / षदखण्डागम-परिशीसन Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र० सं० ४५६ ४६० ४६१ ४६२ ४६३ ४६४ ४६५ ४६६ ४६७ ४६८ ४६६ ४७० ४७१ ४७२ ४७३ ४७४ ४७५ ४७६ ४७७ ४७८ ४७६ ४८० ४८ १ ४८२ ४८३ ४८४ ४८५ ४८६ ४८७ ४८८ अवतरणवाक्यांश पणवण्णा इर वण्णा पणुवीस जोयणाणि असुराणं 39 "1 पणट्ठी च सहस्सा पण्णरस कसाया विणु पाणवणिज्जा भावा " 11 पण्णासं तु सहस्सा पत्थेण कोदवेण य पत्थो तिहा वित्तो पदमिच्छस लागगुणा पदमीमांसा संखा पभवच्चुदस्स भागा पम्मा पउमसवण्णा "" 31 पडट्टिदिप्पसा पयोव्रतो न दध्यत्ति परमाणु आदियाई "" परमोहि असंखेज्जाणि "" परिणिव्वुदे जिणिदे परियट्टिदाणि बहुसो पर्वसु नन्दीश्वरवर पल्ला संखेज्जदिमो पल्लो सायर-सूई पवयण - जलहिजलो पंच-ति चउविहि पंचस्थिकायम इयं पंचत्थिया य छज्जीव पंच य छ सि य छप्पं च पंच य मासा पंच य पंच रस पंच वण्णा पंच वि इंदिययाणा पुस्तक IS - € ४ ७ ३ ८ ह १२ ४ ३ 11 १० "> १३ २ w १६ १३ १५ १ 67 ह = x ४ ६ १४ ३ १ 13 १३ * १५ w १३ २ पृष्ठ २४ २५ ७६ ३१६ ८५ १२ ५७ १७१ २३५ ३२ २६ ४५७ १६ २२३ ५३३ ४८५ ७२ २७ ३८२ १०० ४२ १२५ ३३४ २५७ ११८ १३२ ४६ ३७३ ७३ ३१६ १३ १३२ ३५२ ४१७ अन्यत्र कहाँ उपलब्ध होते है पंचसं० ४-५० ( इर वण्णा - पण्णासा) मूला० १२-२१, त्रि०सा० २४६ विशेषा० १४१; गो०जी० ३३४ पंचसं० १९८४ ( पम्मा पम्हा ) 33 ध्यानश ० ५१ आ०मी० ६०; शा०वा० समु० ७-३ ( उद्धृत ) पंचसं० १-१४०, गो०जी० ४८५ " म० ० १, पृ० २२, आव० नि० ४५ (विशेषा० ६८८ ) मूला० १२-६५; ति०प० १-९३; त्रि० स० ६२ गो०जी० ४७६; पंचसं० १-१३५ ध्यानश० ५३ मूला० ५-२०१ पंचसं० १-४६; गो०जी० १३० अवतरण - वाक्य / ७५९ Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठं अन्यत्र कहाँ उपलब्ध होते हैं क्र०सं० ४८६ ४६० ४६१ ३७२ पंचसं० १-१३१; गो०जी० ४७२ ८८ ४६२ मूला० ५०२ अवतरणवाक्यांश पुस्तक . पंचशतनरपतीनां पंचसमिदो तिगुत्तो पंचसयबारसुत्तर पंचसेलपुरे रम्मे पंचाथिकाय-छज्जीव १३ पंचादि अट्टणिहणा १५ पंचासुहसंघडणा पंचेव अत्थिकाया पंचेव सयसहस्सा ....उणतीसा। पंचेव सयसहस्सा तेपापं मलमिति प्रोक्तं पासे रसे य गंधे ४६३ ४६४ ४६५ ४६६ ४६७ ८२ १२६ ४६८ ४६६ ५०० १०० १०१ ३४ १५८ २२६ १५६ १ ५०१ पुढे सुणे इ सद्द ५०२ स०सि० १-१६ (उद्धृत); नंदीगा ० ७८; आव० नि० ५ गो०जी० ६०१; वसु०श्रा० १६ मूला० ५-६ (पू०); जीव०स० २७ आ०मी० ४० س २७२ २० ५०४ ५०५ पुढवी जलं च छाया पुढवी य सक्करा वा- १ पुण्य-पापक्रिया न स्यात् १५ पुरिसेसु सदपुधत्तं पुरुगुणभोगे सेदे १ पुर-महमुदारुरालं पुवकयब्भासो पुव्वस्स दु परिमाणं ३०० ३४१ २६१ ५०७ ५०८ ५०६ पंचसं० १०६; गो०जी० २७३ पंचसं० १-६३; गो०जी० २३० ध्यानश० ३० जं०दी०प०१३-१२; प्रव०सारो० १३८७ पंचसं० १-२३ ३०० १८८ ५१० ५११ ५१२ पुवापुव्वयपद्दय पुव्वुत्तवसेसाओ पूर्वापरविरुद्धादे १२,१२३ २५१ ५१३ ५१४ पृतनाङ्गदण्डनायक प्रक्षेपकसंक्षेपेण ४८५ ~ २४१ ~ ५१५ प्रतिपद्य कः पादो प्रतिषेधयति समस्तं प्रमाण-नय-निक्षेपै २५८ ४४ १६ ५१७ ७६० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र०सं० अन्यत्र कहाँ प्राप्त होते हैं अवतरणवाक्यांश प्रमाण-नय-निक्षेपै- पुस्तक पृष्ठ ३ १७,१२६ २५६ भ०आ० मूला०टीका ५२६ उद्धृत Mov xxxwwx गो०जी० ६२८ भ०आ० २११ ५१८ ५१६ ५२० ५२१ ५२२ ५२३ ५२४ ५२५ ५२६ ५२७ ५२८ ५२६ ५३० ५३१ ५३२ ५३३ ५३४ ५३५ ५३६ पंचसं० १-१४१; गोजी० ४८६ गो०क० ४१६ प्रमितिर रनिशतं प्राणिनि च तीव्रदु:खा २५५ प्राय इत्युच्यते लोक फालिसलागब्भहिया बत्तीसमट्टदालं ३ बत्तीस सोलस चत्तारि बत्तीसं किर कवला बत्तीसं सोहम्मे २३५ बम्हे कप्पे बम्होत्तरे २३५ बम्हे य लांतवे वि य ७ ३२० बहिरर्थो बहुव्रीहिः बहुविह-बहुप्पयारा बहुव्रीह्यव्ययीभावो बंधे अधापवत्तो . १६ ४०६ बंधेण य संजोगो बंधेण होदि उदओ ३५६ वंधण होदि उदओ बंधोदएहि णियमा बंधोदय पुव्वं वा...... णियमेण बंधोदय पुव्वं वा..." ..'रोदये बंधो बंधविही पुण बारस णव छ त्तिण्णि ६ ३८१ बारस दस अट्ठेव य ३ १६७,२०१ २५० बारस पण दस पण दस १२ बारस य वेदणिज्जे ३४३ बारसविहं पुराणं ११२ २०६ बारससदकोडीओ बाहत्तरि वासाणि य १२२ बाहिरपाणेहि जहा १ २५६ बाहिरसूईवग्गो १६५ xr क.पा. १४४; ल०सा० ४४१ क०पा० १४३ क०पा० १४८ x m ५३७ . ५३८ . ५३६ ५४० - ५४१ ५४२ ५४३ ५४४ or Mare » २६६ ५४५ ५४६ ५४७ पंचसं० १-४५; गो०जी० १२६ अवतरण-वाक्य । ७६१ Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र०सं० ५४८ ५४६ अवतरणवाक्यांश पुस्तक बाह्य तपः परमदुश्चर १३ बिदियादिवग्गणा पुण १० बीजे जोगीभूदे पृष्ठ ५६ ४५६ ३४८ अन्यत्र कहाँ उपलब्ध होते हैं स्वयंभू० ८३ गो०जी० १६० - २५१ ६ २३२ १२८ ५८ ५५२ ५५३ ५५४ बुद्धि-तव-विडव्वणो सह बुद्धि तवो वि लद्धी बुद्धिविहीने श्रोतरि भरहम्मि अद्धमासो ४१४ २५ म०बं० पृ० २१; नन्दीगा० ५, आव०नि० ३४; गो०जी० ४०६ पंचसं० १-१५६; गो०जी० ५५७ ५५६ १२ ५५७ ५५८ ३१६ ५६ ४६ २८ ५५६ आ०मी०६ १५ १३ १ , २२४ १८३ पंचसं०१-१७ - भविया सिद्धी जेसि भंगायामपमाणं भावियसिद्धताणं भावस्तत्परिणामो भावैकान्ते पदार्थानां भासागदसमसेडिं भिण्णसमयट्ठिएहि दु मक्कडय-भमर-मयर मङ्गशब्दोऽयमुद्दिष्टः मणपज्जव परिहारा मणसा वाचा काए मणुवत्तणसुहम उलं मण्णंति जदो णिच्च मध्याह्न जिनरूपं मरणं पत्थेइ रणे ५६२ २४५ ३३ ८२४ १४० पंचसं० १.१६४; गो०जी० ७२९ स्थानांग, पृ० १०१ ५६६ ५६७ ५६८ पंचसं० १-६२; गो०जी० १४६ १२३ २०३ २५७ ३८६ ४६१ २६७ पंचसं० १-१४६; गोजी ५१४ ५७० मूला० १२.४८ मसुरिय-कुसग्गबिंदू महावीरेणत्थो कहिओ मंगल-णिमित्त हेऊ मंदो बुद्धिविहीणो ५७२ पचा०ज०स० वृत्ति में उद्धृत पंचसं० १-१४५; गो०जी० ५१० ४६० ५७४ ३६१ क.पा. १७ माणद्धा कोधद्धा माणुससठाणा वि हु मानुषशरीरलेशामिच्छत्त-कसायासंमिच्छत्तपच्चओ खलु ४८ २५६ ५७७ २४० क०पा० १०१ ७६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क०सं० पुस्तक __ अन्यत्र कहाँ प्राप्त होते हैं ८ पृष्ठ १२ २४० अवतरणवाक्यांश मिच्छत्त-भय-दुगुंछा मिच्छत्तवेदणीयं मिच्छत्तं वेयंतो मिच्छत्ता विरदी विय मिच्छत्ते दस भंगा मिच्छाइट्ठी णियमा ५७६ ५८० ५८१ ५८२ ५८३ १८४ क०पा०६१ पंचसं०१-६; गो०जी० १७ १६४ २४२ कपा०१०८; क०प्र० उप० २५, गो०जी०१८ आ०मी० १०८ १८२ ५८५ ५८६ ५८७ ५८८ मिथ्यासमूहो मिथ्या मिश्रधने अष्टगुणो मुखमधं शरीरस्य मुहतलममाममद्धं ८८ ३८३ २०,५१ ति० प. १-१६५; जं० दी०प०११-१०८ ५८६ ५७ ५६० ५६१ ५६२ मुह-भूमिविसेसम्हि दु मुह-भूमीण विसेसो मुहसहिदमूलमद्धं मूलग्ग-पोर-बीया १४६ २७३ मूला० ५-१६; पंचसं० १-८१; गो०जी० १८६ सन्मति०१-५ जंदी०प० ११-११० ५६५ ५६ ५६७ ५९८ स्वयंभू० ६१ , ६२ आ०मी० ३६ , ४२ ܪ ܘ & Wr - मूलणि मेणं पज्जव मूलं मझेण गुणं २१,५१ मेरुव्व णिप्पकंपं य एव नित्य क्षणिका- ६ यथै ककं कारकमर्थयदि सत् सर्वथा कार्य १५ यद्यसत् सर्वथा कार्य यम-पटहरवश्रवणे युक्त्या समधीयानो योजनमण्डलमात्रे योजनं विस्तृतं पल्यं रसाद् रक्तं ततो मांसं राग-द्दोस-कसाया १३ राग-द्वेषाद्य ष्मा १५ रागाद्वा द्वेषाद्वा रासिविमेणवहिद ३५२ रूपेष गुणमर्थेषु वर्गणं ४ । २०० म्योनमादिसंगुण १,१५६,१६६ व २०१ ६०३ ६०४ ६०५ WWW.KG ६०८ ६१० अवतरण-वाक्य । ७६३ Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र०सं० पुस्तक अन्यत्र कहाँ प्राप्त होते हैं ६११ ६१२ अवतरणवाक्यांश रूवूणिच्छागुणिदं रूसदि णिददि अण्णे ३८६ ४६१ ३१८ पंचसं० १-१४७; गो०जी० ५१२ , १६ ६१३ ६१४ ४७ ६१५ ६१६ ६१७ ६१८ ६१६ रोहणो बलनामा च रौद्रः श्वेतश्च मैत्रश्च लद्धविसेसच्छिण्णं लद्धंतरसंगुणिदं लद्धीओ सम्मत्तं लिंगत्तियं वयणसम लिपदि अप्पीकीरदि लोगागासपदेसे १६१ mm :xw am २६१ १५० पंचसं० १-१४२; गो०जी० ४८६ गो०जी० ५८८, द्रव्यसं० २२ ६२० ७६ MM mm ~ ११ ~ त्रि०सा० ४ जं०दी०प०११-१०७ गो०जी० ५८८, द्रव्यसं०२२ ६२१ ६२२ ६२३ ६२४ ६२५ ६२६ ६२७ ६२८ ६२६ लोगो अकट्टिमो खलु लोगो अकट्टिमो खलु लोयस्स य विक्खंभो लोयायासपदेसे वइसाहजोण्हपक्खे वत्तावत्तपमाए वयणंतु समभिरूढं वयणेहि वि हेऊहि वय-समिइ-कसायाणं यवहारस्स दु वयणं बाउब्भामो उक्कलि y no::wo ga पंचसं० १-१४, गो०जी० ३४ ३१५ १२४ १७८ २६ ३६५ १४५ २६ २७३ पंचसं० १-१६१ पंचसं०१-१२७ मूला० ५-१५ (पू०); पंचसं० १-८०; आचा०नि० १६६ ६३२ वाग्मिदग्भ्या... (?) वासस्स पढममासे १३ २०१ ६३४ वासाणूणत्तीसं० विकहा तहा कसाया विक्खंभवग्गदहगुण विगतार्थागमनं वा विग्गहग इमावण्णा mmu do aor ६३५ ६३६ १३० १२५ १७८ २०६ २५६ पंचसं०१-१५; गो०जी० ३४ त्रि० सा०६३ पंचसं० १-१७७; जीवस० ८२; श्रावकप्र०६८; गो० जी० ६६६ ६३६ ४१ विघ्नाः प्रणश्यन्ति भयं विणएण सुदमधीदं ७६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन ६८२,२५६ मूला०५-८६ Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र०सं० पृष्ठ ६६ अन्यत्र कहाँ उपलब्ध होते है स्वयंभू० ५२ स०सि० ७-१३ (उद्धृत) ४७५ १५ ३० आ०मी० १३ पंचसं० १-१२०; गो०जी० ३०५ पंचसं० १-६५; गो०जी० २३२ ६४२ ६४३ ६४४ ६४५ ६४६ ६४७ ६४८ ६४६ ६५० ६५१ ६५२ ६५३ ६५४ ६५५ ३५६ २६१ ३१७ ३५८ ४६२ पंचसं० १-११८; गो०जी० ३०३ ध्यानश० ४३ गो० क० ५७ १ अवतरणवाक्यांश पुस्तक विधिविषक्तप्रतिषेध. ७ वियोजयति चासुभिः १४ विरलिदइच्छं विगुणिय १० विरियोवभोगभोगे विरोधान्नोभयकात्म्यं विवरीयमोहिणाणं विविहगणइद्धिजुत्तं , विशेषण-विशेष्याभ्यां १? विस-जंत-कूड-पंजर १ विसमगुणादेगणं विसमं हि समारोहइ १३ विस-वेयण-रत्तक्खय विसहस्सं अडयालं विहि तिहि चउहि पंचहि १ वे उब्विय मुत्तत्थं वेकोडि सत्तवीसा वेदण-कसाय-वेउविय वेदस्सुदीरणाए वेलुवमूलोरब्भय ध्यन्तरभेरीताडण व्यासं तावत् कृत्वा व्यासं षोडशगुणितं व्यासार्धकृतित्रिक शब्दात् पदप्रसिद्धिः षट्खण्डभरतनाथ षष्ठ-सप्तम्यो: शीतं षोडशशतं चतुस्त्रिंशत् ६ सकयाहलं जलं वा सकलभुवनैकनाथ सक्कीसाणा पढम पंचसं० १-८६ गो०जी० २३४ : M* ६५७ ८८ २७४ २६२ १०० २६ १४१ ३५० २५६ ३५ ६५८ पंचसं० १-१६६; गो० जी ६६७ पंचसं० १-१०१ गो०जी० २८६ (वेलुव-वेणुव) : ६५६ ६६० ६६१ २२१ ६६३ : : ५८ : ४०५ ६६६ ६६७ ६६८ १६५ १८६ पचसं० १-२४; गो०जी०६१ : ६७० २६ म०बं०पृ० २२; मूला०१२-१०७ आव०नि० ४८ मूला० ११-२४; गो०जी० ४१ ६७२ ६७३ सगमाणेण विहते सज्झायं कुव्वंतो सत्त णव सुण्ण पंच 9mm »m ४६ २८१ २५६ १६४ २५६ ६७४ सत्तसहस्सडसीदेहि ३ अवतरण-वाक्य। ७६५ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०सं० पुस्तक पृष्ठ अन्यत्र कहाँ उपलब्ध होते हैं २२० अंगप० २-८७ ६७५ ६७६ ६७७ ६७८ ६७६ ६८० अवतरणवाक्यांश सत्तसहस्सा णवसद सत्ता जंतू य माई य सत्ता जंतू य माणी सत्तादि दसुक्कस्सं सत्तादी अट्ठता सत्तादी छर्कता सत्तावीसेदाओ सत्ता सव्वपयत्था orror MUWA गो०जी० ६६३ ६८२ १७६ पंचा०८ २३४ ६८३ सत्तेताल धुवाओ सत्तेतालसहस्सा ६८४ १५८ २२६ ६८५ २५५ ६८६ ६८७ ६८८ सद्दणयस्स दु वयणं सप्तदिनाध्ययन समावसहावाणं सब्भावो सच्चमणो ममओ णिमिसो कट्टा समयो रात्रि-दिनयोसम्मत्तपढमलंभसम्मत्तपढमलंभो पंचा० २३ पंचसं० १-८६, गो०जी० २१६ पंचा० २५ کي لن २८१ ३१७ ३१६ २४२ २४१ ६६२ क०पा० १०५ क० पा० १०४; क० प्र० उप० क० २३ पंचसं० १-६; गो०जी० २० ६६३ ६६४ सम्मत्त-रयण-पव्वय सम्मतं चारित्त सम्बत्तुप्पत्तीय वि १६० १८६ ष०ख० सूत्र गाथा ७ (पु० १२, पृ० ७८); क०प्र० ८ (उदयाधिकार), गो० जी० ६० सम्मत्तुप्पत्तीय वि य २८२ २६६ ४६२ ६६६ ६६७ सम्मत्ते सत्त दिणा सम्मा इट्ठी जीवो उब इट्ठ १ १७३ सम्माइट्ठी सद्दहदि सम्मामिच्छाइट्ठी सागारो , २४२ २४३ क०प्र० उप०क० २४; पंचसं० १-१२; गो० जी० २७ क०पा० १०७ क०पा० १०६; क० प्र० उप० क० २६ मला० ५-१३१ ६६६ सरवासे दु पदंते १४० ७६६ / षटखण्डागम-परिशीलन Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र०सं० ७०१ ७०२ अवतरणवाक्यांश पुस्तक सर्वथानियमत्यागी सर्वात्मकं तदेकं स्या- १५ सव्वणिरयमवणेसु सव्वम्हि ट्ठिदि विसेसेहि ६ २९. २६ २३६ २४० अन्यत्र कहाँ प्राप्त होते हैं स्वयंभू. १०२ आ०मी० ११ क०पा० ६६ क०पा० १००, (सव्वेहि ट्ठिदिविसेसेहि) स०सि० २-१० (उद्धृत) म०बं० १; पृ० २३; गो०जी० ४३२ क०पा० १६८ ७०४ ७०५ सव्वम्हि लोगखेत्ते सव्वंच लोयणालि WG 2K २६ ३८३ ७०७ ७०८ ७०६ सव्वाओ किट्टीओ सव्वावरणीयं पुण सव्वासिं पगडीणं सव्वासु वट्टमाणा सम्वुवरि वेयणीए ३३४ १३६६ १० ३८७,५१२ १५ ३६ स०सि० २.१० (उद्धृत) ध्यानश० ४० पंचसं० ४.४६७; शतक ६० मूला० ११-२०; गो०जी० ३६ स०सि० २-१० (उद्धृत) M ४ ३२६,३३३ २४६ २५६ ७११ ७१२ ७१३ ७१४ ७१५ ७१६ ७१७ ७१८ ३४६ o r ध्यानश० ३२ क०पा० १५३ मूला० ४-३७ (पू०) पंचसं० १-१२९; गो०जी० ४७० पंचसं० १-१२६; गो०जी० ४६६ गो०जी० ३५ : सव्वेवि पुव्वभंगा सव्वे वि पोग्गला सस्सेदिम-सम्मुच्छिम संकलणरासिमिच्छे संकाइसल्लरहियो संकामेदुक्कड्डदि संगह-णिग्गहकुसलो संगहियसयलसंजम संपुण्णं तु समग्गं संखा तह पत्थारो संखो पुण बारह जोसंछुहदि पुरिसवेदे संठाविदूण रूवं सते वए ण णिहादि सायारे पट्ठवओ सावण बहुल पडिवरे सावित्रो धुर्यसंज्ञश्च साहारणमाहारो ३७२ ३६० " ur ७२० ७२१ ७२२ ७२३ ७२४ ७२५ ३५६ ४६ ल०सा०४३८ मूला० ११-२५; गो०जी० ४२ - * २३६ क०पा० ६८ ति०प० १-७० (कुछ शब्दभेद) ७२६ ७२७ ४ १ ३१६ २७० ७२८ ष०ख० सूत्र गाथा १२२ (पृ० १४); पंचसं० १-८२, आचा० नि० १३६; गो०जी० १६१ ८ ७२६ ७३० सांतरणिरंतरेण य सांतरणिरंतरेदर १६ ११७ अवतरण-वाक्य | ७६७ Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क०सं. पृष्ठ अवतरणवाक्यांश सिक्खा-किरियुवदेसा पुस्तक १ १५२ अन्यत्र कहाँ प्राप्त होते है पंचसं० १-१७३; गो०जी०६६१ पंचसं० १५४; गो०जी० ५५५ ७३२ , १५० لم २७ ل २६ لا ७३५ لا لم اس ३१६ ३५० ८२ गो०जी० २८४ ध्यानश० १०४ १३ لري १३ ७३८ ७३६ ७४० ७४१ ७४२ ७१ ३८१ ध्यानश०४५ भ०आ० ३४; मला० ५.८० गो०जी० २६ १ २६२ १२२ सिद्धत्तणस्स जोग्गा सिद्धत्थपुण्णकुंभो सिद्धाणिगोदजीवा सिद्धार्थः सिद्धसेनश्च सिल-पुढविभेद-धूली सीयायवादिएहि मि सहि-गय-वसह-मिय सुनिउणमणाइणि हणं सुत्तं गणधरक हियं सुत्तादो तं सम्म सुरमहिदोच्चुदकप्पे सुविदियजयस्सहावो सुह दुक्ख-सुबहुसस्सं सुहुमट्ठिदिसंजुत्तं सुहुमणुभागादुरि सुहुमम्मि कायजोगे सुहुमं तु हवदि... जायदे दव्वं । सुहुमं तु हवदि... हवदिदव्वं । सहमो य हवदि कालो सूई मुद्दा पडिहो १३ ध्यानश० ३४ पंचसं०१-१०६ ७४४ ७४५ ७४६ ७४७ ७४८ १४२ ३३१ ४१८ ८३ भ० आ० १८८७ ३ سه ७४६ २८ ७५० ७५१ , २७, ३० १५४ २६० XNXX गो०जी० २८५ पंचसं० १-२३ ७५२ ७५३ ७५४ ७५५ ७५६ ७५७ ७५८ ७.१६ सेडिअसंखदिमो सेलघण-भग्गघड सेलट्टि-कट्ठ-वेत्तं सेलेसि संपत्तो सवापालकाले सोलस चउतीसं सोलसयं छप्पण्णं सोलससदचोत्तीसं सोलह सोलसहिं गुणे सं हम्मीसाणे सु य गो०जी० ६२७ ३५० १६६ २५८ ६१ १३२ २६६ १६६ ३१६ गो०जी० ३३५ ७६० ४ ७ ७६६ मूला० १२-२३ ७६८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क०सं० पुस्तक पृष्ठ अन्यत्र कहाँ उपलब्ध होते हैं ७६२ २६८ ७६३ ७६४ ७६५ अवतरणवाक्यांश सोहम्मे माहिंदे... ___ होदि अट्ठगुष्ठां सोहम्मे माहिंदे... __ होदि पंचगुणं सोहम्मे सत्तगुणं स्याद्वावमविभक्तार्थ स्वयं अहिंसा स्वयमेव हय-हत्थि-रहाणहिया हारान्तरहृतहारा हेट्टामज्झे उरि हेट्टिमगेवज्जेसु अ हेतावेवं प्रकारादौ आ०मी०५५ ७६७ १ २६५ ३०० १६७ ६० ५७ ४७ ११ ३२० १४ २३७ ७६६ ७७० ७७१ जं० दी० ५० ११-१०६ मूला० १२-२६ धन० अने० नाममाला ३६ १३ १८६ ७७२ ७७३ ७७४ ७७५ हेदूदाहरणासंभवे होति अणियट्टिणो ते होंति कमविसुद्धाओ होंति सुहा सव-संवर ध्यानश०४८ पंचसं० १-२१, गो०जी० ५७ ध्यानश० ६६ ७६ उपसंहार __जैसा कि उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो चुका है, प्रस्तुत षट्खण्डागम पर इस महत्त्वपूर्ण विशाल धवला टीका के रचयिता बहुश्रुतशाली आचार्य वीरसेन रहे हैं। उन्होंने मूल ग्रन्थ में निर्दिष्ट विषय का विशदीकरण ग्रन्थकार के मनोगत अभिप्राय की सीमा से सम्बद्ध रहकर ही किया है । प्रसंगप्राप्त विषय का विस्तार यदि कहीं अपेक्षित रहा है तो मूलग्रन्थकार के अभिप्राय का ध्यान रखते हुए ही उन्होंने उसे परम्परागत श्रुत के आधार से विस्तृत किया है। उनकी इस धवला टीका से निम्न तथ्य प्रसूत हुए हैं १. आठ प्रकार के ज्ञानाचार के चतुर्थ भेदभूत 'बहुमान' ज्ञानाचार का पूर्णतया निर्वाह करते हुए उन्होंने प्रसंगप्राप्त विषय के विवेचन में सूत्र और सूत्रकार की आसादना नहीं होने दी है, दोनों की प्रतिष्ठा को निर्बाध रक्खा है। २. सूत्रकार द्वारा निर्दिष्ट, पर स्वयं उनके द्वारा अप्ररूपित, प्रसंगप्राप्त विषय की प्ररूपणा उन्होंने आगमाविरोधपूर्वक प्राप्त श्रुतज्ञान के बल पर विस्तार से की है । ३. विरुद्ध मतों के प्रसंग में उन्होंने सूत्राश्रित व्याख्यान को प्रधानता दी है। ४. सूत्र के उपलब्ध न होने पर विवक्षित विषय के व्याख्यान में उन्होंने आचार्य-परम्परागत उपदेश को और गुरु के उपदेश को भी प्रधानता दी है। ५. कुछ प्रसंगों पर सूत्र के विरुद्ध जाने वाली अन्य आचार्यों की मान्यताओं को अप्रमाण घोषित कर सूत्रानुसारिणी युक्ति के बल पर उन्होंने उस प्रसंग में दृढ़तापूर्वक स्वयं के अभिमत को भी प्रस्थापित किया है । अवतरण-वाक्य | ७६९ Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. प्रसंगप्राप्त विषय का विशदीकरण करते हुए उन्होंने व्याख्यात तत्त्व की पुष्टि प्राचीन आगम-ग्रन्थों के अवतरणों द्वारा की है। यह ऊपर दी गई अवतरण-वाक्यों की अनुक्रमणिका से सुस्पष्ट है। ७. धवलाकार के ही समय में मूल सूत्रों में कुछ पाठ-भेद हो चुका था, जिसे उन्होंने प्रसंग के प्राप्त होने पर स्पष्ट भी कर दिया है। ८. कछ सूत्रों के विषय में शंकाकार द्वारा पुनरुक्ति व निरर्थकता प्रादि दोषों को उदभावित किया गया है। उनका प्रतिषेध करते हुए आगमनिष्ठ वीरसेनाचार्य ने उनकी निर्दोषिता व प्रामाणिकता को पुष्ट किया है। . ६. प्रस्तुत टीका दुरूह संस्कृत का आश्रय न लेकर सार्वजनिक हित की दृष्टि से सरल व सुबोध प्राकृत-संस्कृतमिश्रित भाषा में रची गई है। आद्योपान्त इस धवला टीका का परिशीलन करने से, जैसा कि उसकी प्रशस्ति में निर्देश किया गया है, आचार्य वीरसेन की सिद्धान्त-विषयक अगाध विद्वत्ता, व्याकरणवैदुष्य, गम्भीर गणितज्ञता, ज्योतिर्वित्त्व और तार्किकता प्रकट है। ७७० / षट्सण्डागम-परिशीलन Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ विषयपरिचायक तालिका (१) कर्मप्रकृतियाँ और उनकी उत्कृष्ट-जघन्य स्थिति आदि प्रकृतिसमत्कीर्तन (पु० ६, पृ० १-७८) बन्ध कहाँ से कहाँ तक उत्कृष्ट जघन्य ०६, पृ० १४५-७६] पु०६, पृ० १८.. २०२ मूल प्रकृति | उत्तर प्रकृतियां स्थिति आवाधा स्थिति | आबाधा १ ज्ञानावरण आभिनिबोधिक मिथ्या० से सूक्ष्म ३० कोड़ा-३ हजार | अन्तर्मुहूतं अन्तर्मुहूर्त ज्ञानावरणादि ५/ साम्पराय तक | कोड़ी । वर्ष १ निद्रानिद्रा ।' मिथ्यादष्टि पल्योपम के २ प्रचलाप्रचला] और असं० भाग ३ स्त्यानगृद्धि ] सासादन से कम ३/७ सागरोपम २ दर्शनावरण ४ निद्रा । मिथ्यादृष्टि से ५प्रचला। अपूर्वकरण के | ७वें भाग तक | ६ चक्षुदर्श०. ] मिथ्यादृष्टि से ७ अचक्षुदर्श० | सूक्ष्म साम्पराय | ८ अवधिदर्श तक अन्तर्मुहूर्त 6 केवलिदर्श डेढ हजार ३ वेदनीय १ सातावेदनीय मिथ्यात्व से १५ को० वर्ष १२ मुहूर्त सयो० के० तक को०साग०३ हजार २ असातावेदनीय मिथ्यात्व से ३० को० वर्ष पल्योपम के प्रमत्त तक को०साग० असं० भाग कम३/७ सा० ४ मोहनीय १ सम्यक्त्व ] अबन्धप्रकृति ७० को पल्यो० के (१ दर्शन- | २ मिथ्यात्व । को० सा० असं० भाग से मोहनीय) कम ७/७ सागरोपम , Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ सम्यग्मिथ्यात्व | मिथ्यादृष्टि ७० को० ७ हजार F बबन्धप्रकृति कोड़ी वर्ष । सागरोपमा (२ चारित्र- अनन्तानुबन्धो ४ मिथ्यादृष्टि और ४० को० ४ हजार पल्यो के अन्तर्महतं मोहनीय) सासादन को० । वर्ष असं० भाग, सागरोपम हीन ४/७ सागरोपम अप्रत्याख्याना- मिथ्यादृष्टि से वरण ४ असंयतसम्यग्दृष्टि । तक प्रत्याख्यानावरण | मिथ्यादृष्टि से संयतासंयत संज्वलन क्रोध | मिध्यादृष्टि से, २मास अनिवृत्तिक० । संज्वलन मान १मास संज्वलन माया १ पक्ष संज्वलन लोभ | सूक्ष्मसाम्पराय अन्तर्मुहूर्त तक तक नौ नोकषाय १ स्त्रीवेद मिथ्यादृष्टि व १५ को० डेढ हजार पल्योपम सासादन. कोड़ी वर्ष के भसं० सागरोपम भाग से हीम १/७ सागरोपम २ पुरुषवेद मिथ्यादृष्टि से १० को १ हजार ८ वर्ष | अनिवृत्तिकरण को०साग० वर्ष ३ नपुंसकवेद | मिथ्यादृष्टि २० को २ हजार पल्यो०के० कोसाग० वर्ष असं० भाग से हीन २/७साग० ४ हास्य अपूर्वकरण तक|१० को० १ हजार | कोसाग० वर्ष ५ रति ६ अरति २० को० २ ह० वर्ष, ७ शोक ८ भय ६ जुगुप्सा ५ आयु ४ १ नारकायु | मिथ्यादृष्टि ३३ साग० वर्ष २ तिर्यगायु मिथ्यादृष्टि व ३ पल्यो क्षुद्रभवसासादनसम्य०, ग्रहण ३ मनुष्यायु मिश्र को छोड़ असंयतसम्य० तक कोटि " ७७२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " । ४ देवायु अप्रमत्तसंयत तक|३३ साग०१/३ पूर्व-/१० ह० वर्ष अन्तर्मुहूर्त ६ नामकर्म (पिण्डप्रकृतियाँ) १ गतियां ४ १ नरक मिथ्यादष्टि २० को० २ हजार | पल्यो० के, को साग० वर्ष | सं० भाग से हीन २/७सा० सहस्र २तियंच मिथ्यादष्टि व , २ हजार पल्यो के । सासादन वर्ष असं०भाग से हीन २/७सा० ३ मनुष्य असं०सम्यग्दृ०तक १५ ,, डेढ ह०वर्ष ४देव अ प्रमत्तसंयत तक१० , २ ॥ पल्यो० के सं० | भाग से हीन २/७सा०सहस्र २ जाति ५/ १ एकेन्द्रिय | मिथ्यादृष्टि २०, २ ह० वर्ष पल्यो० के , असं० भाग से हीन २/७सा० २दीन्द्रिय १८ को० १.४/५ । को०साग० ह० वर्ष ३ त्रीन्द्रिय ४ चतुरिन्द्रिय ५ पंचेन्द्रिय अपूर्णकरण तक २०, २ ० वर्ष ३शरीर ५ १औदारिक अ०सम्यग्द.तक (४शरीरबंधन २ वैक्रियिक अपूर्वकरण तक पल्यो० के सं० और शरीर भाग से हीन सघात । ये |२/७सा०सहस्र औदारिकादि ३ आहारक अप्रमत्त और अन्त:को. मन्तःको०को ५ शरीरों के । अपूर्वकरणको०साग० सागरोपम समान हैं) | ४ तेजस | अपूर्वकरण तक |२० को २ ह० वर्ष पल्यो० के , को साग० असं० भाग से हीन २/७ सा० ५ कार्मण ६ शरीर- । १ समचतुरस्र | अपूर्वकरण तक १०, संस्थान ६ / २ न्यग्रोधपरि- मिथ्यादृष्टि और १२ ,, १.१/५ मण्डल सासादन ३ स्वातिसं० मि० और सासा०१४ ,, १.२/५ ४ कुब्जकसं० १६ , १.३/५ , ५ वामनसं० १.४/५, २ ह० वर्ष ७ शरीरांगो- १ औदारिक असंयतसम्यग्दृष्टि , पांग ३ । वर्ष or own ६ हुण्डसं० २० " परिशिष्ट १ |७७३ Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ वर्ण १० गन्ध २ वैक्रियिक ३ माहारक अप्रमत्त और अपूर्वकरण ८ शरीर- १ वज्रर्षभनाराच असंयतसम्यग्दृष्टि १० को० १ हजार संहनन ६ को० सा० तक वर्ष अपिण्डप्रकृतियाँ 1 ५ कीलित ६ असं प्राप्त सेवर्तं | १-५ कृष्णादि १ सुरभि, २ दुरभि १-५ तिक्तादि १ ८ कर्कश आदि १४ विहायो- १ प्रशस्तवि० गति २ अपूर्वकरण तक २ वज्रनाराच मि० और सासा० १२ ३ नाराच ४ अर्धनाराच ११ रस १२ स्पर्श १३ आनुपूर्वी १ नरकगति ४ प्रायो० २ तिर्यग्गतिप्रा" मि० व सासादन १ अगुरुलघु २ उपघात ३ परघात ४ उच्छ्वास ५ आताप ६ उद्योत ७ त्रस "" " ८ स्थावर ६ बादर १० सूक्ष्म ७७४ / षट्खण्डागम-परिशीलन "2 23 मिथ्यादृष्टि २० अपूर्वकरण तक "" मिथ्यादृष्टि | ३ 1 २० को ० | २ हजार (पल्यो० के सं० अन्तर्महूर्त को० सा० वर्ष भाग से हीन २/७सा० सहस्र अन्तःको ० को ० सागरोपम 11 37 31 11 १४,, १६,, १८,, #1 ३ मनुष्यगतिप्रा० असंय०सं० तक १५,, ४ देवगतिप्रा० अपूर्वकरण तक १०,, 37 11 "" 37 २ अप्रशस्तवि० मि० व सासादन २०,, अपूर्वकरण तक S 33 21 13 27 17 मिथ्यादृष्टि मि० और सासा० अपूर्वकरण तक मिथ्यादृष्टि पूर्वकरण तक २० मिथ्यादृष्टि | १८ "" "" "7 "1 १.१.५ १.२५ | १.३ / ५ | १. ४/५ २ ह० वर्ष १ 11 21 21 डेढ " | १ 11 २ 33 37 17 23 पल्योपम के असं० भाग से हीन २/७ सा० 17 " " २ ह० वर्ष 1.४ / ५,, 17 39 12 37 (पल्यो० के सं० भाग से हीन १२/७सा० सहस्र पल्योपम के असं ० भाग से हीन २ / ७सा० 39 पल्यो ० के सं ० भाग से हीन २/ ७सा० सहस्र पल्योपम के असं० भाग से हीन २/७ सा० ار "" 23 13 11 13 "1 " "1 " 11 ") "" 33 33 " "" 17 "" 33 " #T Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ११ पर्याप्त | अपूर्वकरण तक २० को २ हजार | पल्योपम के अन्तर्मुहूर्त | कोडी । वर्ष असं भाग से सागरोपम हीन २/७सा० १२ अपर्याप्त | मिथ्यादृष्टि |१८ ,, १३ प्रत्येक शरीर अपूर्वकरण तक २०,, २ ह वर्ष १४ साधारण श० मिथ्यादृष्टि १८,, १.४/५ , १५ स्थिर अपूर्वकरण तक १०, १६ अस्थिर प्रमत्तसंयत तक २० १७ शुभ अपूर्वकरण तक १० १८ अशुभ प्रमत्तसंयत तक |२० १६ सुभग अपूर्वकरण तक १० २० दुर्भग मिथ्यादृष्टि २० २१ सुस्वर | अपूर्वकरण तक १०, २२ दु:स्वर मि० व सासादन २० २३ आदेय अपूर्वकरण तक |१०, २४ अनादेय मि० व सासादन २०,, वर्षे २५ यशःकीति सूक्ष्मसाम्प० तक २०, ८ मुहूर्त २६ अयशःकीर्ति | प्रमत्तसंयत तक २०,, पल्योपम के असं० भाग से हीन २/७ सा. २७ निर्माण | अपूर्वकरण तक , २८ तीथंकर असंयतसम्य० से अन्त:को० अन्तर्मुहूर्त | अन्तःकोड़ाण तक को० सा० को० साग० ७ गोत्र । १ उच्चगोत्र सूक्ष्मसाम्प० तक १० को १० वर्ष ८ मुहूर्त को० सा० २ नीचगोत्र | मिथ्यादृष्टि व २० को०२ , | | पल्योपम के सासादनसम्य० को० सा० असं० भाग से हीन २/७ सा० अन्तराय १.५ दानान्तराय| सूक्ष्मसाम्पराय |३०, ३ ह० वर्ष अन्तर्मुहूर्त , आदि तक Marrrrrrror परिशिष्ट१ / ७७५ Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) नरकादि गतियों से सम्यक्त्वोपत्ति के बाह्य कारण (गति-आगति चूलिका सूत्र १-४३, पु० ६, पृ० ४१८-३७) गति जिनबिम्बदर्शन | धर्मश्रवण ... जाति वेदना| भिभव सम्यक्त्वोत्पत्ति के योग्य काल नरकगति प्रथम, द्वितीय व तृतीय पृथिवी । चौथी से सातवीं पर्याप्त होने के समय से अन्तर्मुहूर्त पश्चात् जिनबिम्बदर्शन धर्मश्रवण २. तियंचगति पंचेन्द्रिय, संशी, गर्भज व पर्याप्त जातिस्मरण दिवस-पृथक्त्व के पश्चात् ३. मनुष्यगति गर्भज-पर्याप्ति | जिनबिम्बदर्शन धर्मश्रवण । जाति आठ वर्ष के ऊपर स्मरण देवगति भवनवासी से 1 जिनमहिम देवद्धिदर्शन अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् शतार-सहस्रार || दर्शन कल्प पर्यन्त आरण-अच्युत नौ ग्रेवेयक अनुदिश से सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त नियम से सब सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। विशेष१. तियंच मिथ्यादष्टियों में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, असंशी, सम्मच्छिम व अपर्याप्त सम्यक्त्वोत्पादन के योग्य नहीं होते ।-सूत्र १३-१८ २. मनुष्यों में सम्मूच्छिम व अपर्याप्त सम्यक्त्वोत्पादन के योग्य नहीं होते।-सूत्र २३-२६ ३. देवों में अपर्याप्त सम्यक्त्वोत्पादन के योग्य नहीं होते । -सूत्र ३१-३३ ७७६/पटवण्डागम-परिशीलन Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) चारों गतियों में गुणस्थान विशेष से सम्बन्धित प्रवेश और निर्गमन (गति-आगति चूलिका सूत्र ४४-७५, पृ० ४३७-४६) गति प्रवेशकालीन गुणस्थान निर्गमनकालीन गुणस्थान १. नरकगति प्रथम पृथिवीस्थ १ मिथ्यात्व | १ मिथ्यात्व | २ सासादन ३ सम्यक्त्व। नारक २ सम्यक्त्व द्वितीय से छठी पृथिवीस्थ १ मिथ्यात्व | १ मिथ्यात्व २ , ३ , ४९-५१ सप्तम पृथिवीस्थ | १ मिथ्यात्व | १ मिथ्यात्व ५२ २. तियंचगति तियंचसामान्य | १ मिथ्यात्व पंचेन्द्रिय तिर्यंच ॥ २ सासादन पंचेन्द्रियपर्याप्त ति०] ३ सम्यक्त्व २सासादन ३ सम्यक्त्वा |५३-६० १ सम्यक्त्व पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती १ मिथ्यात्व २ सासादन १ मिथ्यात्व २सासादन ३ सम्यक्त्व १ ॥ DY ३. मनुष्यगति मनुष्य, व मनुष्यपर्याप्ति १ मिथ्यात्व २ सासादन ३ सम्यक्त्व १ मिथ्यात्व २ सासादन | ३ सम्यक्त्व] १ मिथ्यात्व २ , १ मिथ्यात्व २ , १ मिथ्यात्व २सासादन १मिथ्यात्व | ६६-७४ mm mm मनुष्यणी १ मिथ्यात्व २ सासादन ४. देवगति भवनवासी, व्यन्तर व ज्योतिषी देव- १ मिथ्यात्व देवियाँ तथा २ सासादन सौधर्म-ईशान कल्प की देवियाँ il १ मिथ्यात्व २ सासादन | ३ सम्यक्त्व। २ , अनुदिशों से सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त १ सम्यक्त्व १ सम्यक्त्व परिशिष्ट १/७७७ Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) कौन जीव किस गति से किस गति में जाता-आता है (गति-आगति चूलिका सूत्र ७६-२०२) - निर्गमन करने वाले | निर्गमन करने वाले जीवविशेष प्राप्त करने योग्य गतियाँ प्राप्त करने योग्य गतियां नरक तियंच मनुष्य । देव नारकी प्रथम पृथिवी से छठी पृथिवी तक के नारकी मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय, संज्ञी गर्भज, पर्याप्त, गर्भज, सं० संख्यातवर्षायु. वर्षायुष्क ७६-८५व २ सासादनसम्य० सम्यग्मिथ्यादृष्टि निर्गम सम्भव नहीं सम्यग्दृष्टि ८७-६१ गर्भज, पर्याप्त, संख्यातवर्षायु.. सप्तम पृथिवीस्थ नारक मिथ्यादृष्टि पंचे०, संज्ञी पर्याप्त, गर्भज संख्यातवर्षायू० ६३-६६ व १०० तियंच भवनवासी से पंचेन्द्रिय, संज्ञी, गर्भज, | सब सब तियंच सब मनुष्य शतार-सह- १०१-६ पर्या., सं.वर्षा., मि.दृ. नारक स्रार तक असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त प्रथम भवनवासी व पृथिवी (संख्यातवर्षायु०) (संख्यातवर्षायु०) वानव्यन्तर | १०७-११ पंचेन्द्रिय संज्ञी-असंज्ञी]|| अपर्याप्त, पृथिवीका. ] अप्कायिक, वनस्पति-11 असंख्यात वर्षा- असंख्यात वर्णका., निगोदजीव HI-- युष्कों को छोड़ युष्कों को छोड़ | ११२-१४ बादर-सूक्ष्म, बादर ।। सब तिर्यंच । सब मनुष्य वनस्पतिकायिक, प्रत्येकशरीर, पर्याप्तअप., दो-तीन-चतु. पर्याप्त-अप. तेजस्कायिक व वायु-]] असंख्यात वर्षाकायिक बादर-सूक्ष्म || - | युष्कों को छोड़ ___ - - । ११५-२७ ११५-२७ पर्याप्त-अपर्याप्त सब तिर्यंच ७७८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तियंच, सासादनसम्यग्न दृष्टि संख्यातवर्षायुष्क एकेन्द्रिय बादर] ११८-२६ पृथिवी, अप.व | (सम्यग्मिथ्यावनस्पतिकायिक || शतार-सह- दृष्टि का प्रत्येकशरीर || गर्भज, पर्याप्त वस्रार कल्पवा-मरण सम्भव | पर्याप्त तथा || संख्यातवर्षायुष्क सी देवों तक नहीं। सूत्र पंचेन्द्रिय संज्ञी १३०) गर्भज पर्याप्त संख्यातवर्षायु. सौधर्म-ईशान १३१-३३ से लेकर आरण-अच्युत कल्प तक तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि संख्यातवर्षायुष्क| - तिर्यंच मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातवर्षायुष्क भवनवासी,१३४-३६ व व्यन्तर और१३७(मिश्र में ज्योतिषी देव | मरण नहीं) तिर्यच असंयतसम्यगदृष्टि असंख्यातवर्षा सौधर्म-ईशान कल्पवासी १३८-४० युष्क मनुष्य मनुष्य पर्याप्त मिथ्या- सब दृष्टि संख्यातवर्षायुष्क | नारक सब तिर्यंच | सब मनुष्य भवनवासियों| १४१-४६ | से लेकर नौ ग्रेवेयकों तक मनुष्य अपर्याप्त १४७-४६ असंख्यातवर्षा- | असंख्यातवर्षा युष्कों को छोड़- युष्कों को छोड़। कर सब तिर्यंच | सब मनुष्य मनुष्य सासादनसम्यग-1 - | एकेन्द्रिय बादर गर्भज, पर्याप्त | भवनवासियों| १५०-६१ दृष्टि संख्यातवर्षायष्क पृथिवी, अप, वन- संख्यात व असं-[ से लेकर नौ| (मिश्र गुण स्पतिकाय, प्रत्येक ख्यातवर्षायुष्क | ग्रेवेयकों तक स्थान में मरण शरीर तथा संज्ञी, सम्भव नहीं) गर्भज पर्याप्त संख्यातवर्षायुष्क मनुष्य सम्यग्दृष्टि संख्यातवर्षायुष्क सौधर्म-ईशान । १६३-६५ से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक परिशिष्ट १ / ७७६ Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६-६८ मनुष्य मिथ्या दृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातवर्षायुष्क भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी देव मनुष्य सम्यग्दृष्टि असंख्यातवर्षायुष्क सौधर्म-ईशान | १७०-७२ कल्पवासी देव मिथ्यादष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि एकेन्द्रिय बादर गर्भज, पर्याप्त व पृथिवी अप्, संख्यातवर्षायुष्क वनस्पतिका प्रत्येक शरीर तथा पंचेन्द्रिय संजी, गर्भज, पर्याप्त संख्यातवर्षायुष्क १७३-८३, १८४ (मिश्र में मरण का अभाव) देव सामान्य सम्यग्दृष्टि १८५-८६ गर्भज, पर्याप्त व संख्यातवर्षायुष्क एकेन्द्रिय बादर पृथिवी, अप्, । वन० प्रत्येकशरीर तथा संज्ञी, गर्भज, पर्याप्त संख्यात० भवनत्रिक व सोधर्मईशान कल्पवासी मि० व सासादनसम्यग्दष्टि (सामान्य देवों के समान) १६० व १७३-८४ उपयुक्त देव सम्यग्दृष्टि - सनत्कुमार से शतार- | - पंचेन्द्रिय, संज्ञी, सहस्रार तक मि० व | पर्याप्त, गर्भज, सासादनसम्यग्. (प्रथम संख्यातवर्षायुष्क पृथिवी के समान) १६० व १८५-८६ १६१ व ७६-८६ उक्त देव सम्यदृष्टि १६१ व ८७-६२ १६२-६७ आनत से लेकर नौ ग्रेवेयक तक मि०, सासा० व असंयतसम्यग्दृष्टि अनुदिश से लेकर सर्वा० - तक असंयतसम्यदष्टि । १६८-२०२ ७८० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) ज्ञानादिगुणोत्पादन (गति-आगति चूलिका सूत्र २०३-४१, पु०६.१० ४८४-५०२) सम्यक्त्व संयम शलाकापुरुष किस गति में आकर अन्तकृत समस्त गति से मन:पर्यय मति सम्यग्मिध्यात्व सम्यक्त्व | संयमासंयम । संयम | बलदेव | वासुदेव |चक्रवर्ती तीर्थकर भरक सप्तम पृथिवी २०३-५ सम्यग्मिध्यात्व सम्यक्रव| संयमासंयम २०६-८ छठी पृथिवी तियंप होकर प्रतियंच मनुष्य [तियंच मनुष्य पंचम पृथिवी २०६-१२ मन:पर्यय तियंच चतुर्थ पृथिवी २१३-१६ मनुष्य मनःपर्यय केवल तृतीय, द्वितीय व प्रथम पृथिवी (तियंच मनुष्य । ।। ।।।। || ।। ।। ।। । २१७-२० तीर्थकरत्व अन्तकृत्व मनःपर्यय तियंच-मनुष्य संयमासंयम [नारक |तियंच मनुष्य [देव २२१-२५ मन:पयंय संयमासंयम भवनत्रिक देवदेवियां व सौ.इ० कल्प देवियाँ २३०-३३ अन्तकृत्त्व मनःपर्यय २३४ व २२६-२६ संयम | वलदेवत्व वासुदेवत्व चक्रवतित्व तीर्थक रत्व अन्तकृत्य मनःपर्यय सौधर्म-ईशान से (तिर्यंच शतार सहसार मनुष्य मानतादि नौवेयक ____ मनुष्य अनुदिश से मनुष्य अपराजित तक २३५-३७ २३५-४० नियम से रहता है | नियम से नियम से कदाचित् रहता है रहता है रहता है नियम से | नियम से नियम से रहता है रहता है । । सर्वार्थसिद्धि विमानवासी मनुष्य १४१.४३ | कदाचित् नियम से उत्पन्न करते है उत्पन्न करते है अन्तकृत्त्व नियम से होते हैं ७८.(म)/ बसण्डागम-परिशीलन Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) बन्धोदय-तालिका (बन्धस्वामित्वविचय, खण्ड ३, पुस्तक ८) कौन प्रकृति स्वोदय से, कौन परोदय से और कौन स्व-परोदय से बंधती है; तथा कौन प्रकृति सान्तरबन्धी, कोन निरन्तरबन्धी और कौन सान्तर-निरन्तरबन्धी है; इसकी प्ररूपणा 'बन्धस्वामित्वविचय' नामक तीसरे खण्ड में की गयी है। उसका स्पष्टीकरण संक्षेप में इस तालिका से हो जाता है प्रकृतिसं० प्रकृतिनाम स्वोदय, परोदय सान्तर, निरन्तर EE व स्व-परोदय व सान्तर बन्धी निरन्तरबन्धी बन्ध किस गुणस्थान | से किस गुणस्थान तक | उदय किस गुणस्थान से किस गुणस्थान तक . पु० ८ पृष्ठ स्वोदयबन्धी निरन्तरबन्धी १-१० १-५ ज्ञानावरण ५ ६-६ चक्षुदर्शना वरणादि ४ १०-११ निद्रा, प्रचला २ . स्व-परोदयबन्धी r १-८ १-२ १-१२ १-६ m १२-१४ निद्रानिद्रादि ३ १५ सातावेदनीय ३५ सान्त रनिरन्तर बन्धी सान्तरबन्धी स्वोदयबन्धी निरन्तरबन्धी स्वोदय-परो० १-१४ १-१४ ४० و १-१३ १-६ १ १-२ ن १-२ ३ ४६ १.४ १-५ असातावेदनीय मिथ्यात्व १८-२१ अनन्तानबन्धी ४ २२-२५ अप्रत्याख्या नावरण ४ २६-२६ प्रत्याख्याना० ४ ३०-३२ संज्वलनक्रोधादि ३ ३३ संज्वलनलोभ ३४-३५ हास्य, रति २ ३६-३७ अरति, शोक २ ३८-३६ भय, जुगुप्सा २ ४० नपुंसकवेद स्त्रीवेद पुरुषवेद नारकायु १४ १- ५ ५० १-१ ५२,५५ १-१० १-८ १-८ १-८ सान्तरनि० सान्तरबन्धी निरन्तरबन्धी १८ सान्तरबन्धी १-२ सान्तर-नि० निरन्तर० ४२ १-8 ५२ १-६ १-४ परोदयबन्धी ४२ परिशिष्ट १ / ७८१ Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.२ १.५ १-१४ ३० ६१ ४५ १,२,४ १-७ १-४ ४२ ४८ १-२ FEETTE KA / १-४ १-१४ १-४ १-८ १.८ १-४ १-१४ १-१३ ४६ १-८ १-४ १-८ १-१३ १-४ १-८ A तिर्यगायु स्वोदयपरो० मनुष्यायु ४६ देवायु परोदयबन्धी नरकगति सान्तरबन्धी तिर्यग्गति स्वोदय-परो० सा०नि०ब० ४६ मनुष्यगति देवगति परो०ब० ५१-५४ एकेन्द्रियादिजाति ४ स्वो०परो०ब० साम्ब० ५५ पंचेन्द्रियजाति सा०नि०ब० औदारिकशरीर ५७ वक्रियिकशरीर परोदयबन्धी आहारकशरीर निरन्तरबन्धी तैजसशरीर स्वोदयबन्धी ६० कार्मणशरीर औ०श०अंगोपांग स्वो०परो०ब सा०नि० ब० ६२ वैक्रियिकअंगोपांग परोदयबन्धी आहारकअंगोपांग निरन्तरब० निर्माण स्वोदयब० समचतुरस्रसंस्थान स्वो०परो०ब० सा०नि०ब० न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान सान्तरब० ६७ स्वातिसंस्थान कुब्जकसंस्थान ६६ वामनसंस्थान ७० हुण्डकसंस्थान वज्रवृषभनाराचसं० सा०नि०ब० ७२ वज्रनाराचसंहनन सान्तरब० नाराचसंहनन ७४ अर्धनाराचसंहनन कीलितसंहनन असंप्राप्तसृपाटिकासं० स्वो०परो०ब० सान्तरब० स्पर्श स्वोदयब० निरन्तब० ७८ रस गन्ध वर्ण १. मिश्र के बिना १-१३ १-१३ १-१३ १-११ १-७ . : MALE : : ० MIGMCKW १-१३ ७६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ८१ ८२ ८३ ८४ ८५ ८६ ८७ द ८६ ६० ६१ ६२ ६३ ६४ ६५ ६६ ६७ ६८ ६६ ܘܘܕ १०१ १०२ १०३ १०४ १०५ १०६ १०७ १०८ १०६ ११० १११ ११२ २ नरक गत्यानुपूर्वी तिर्यग्गत्यानुपूर्वी मनुष्यगत्यानुपूर्वी देवगत्यानुपूर्वी ११३ ११४ ११५ श्रगुरुलघु उपघात परघात आताप उद्योत उच्छ्वास प्रशस्त विहायोगति अप्रशस्तविहायोगति प्रत्येक शरीर साधारणशरीर त्रस स्थावर सुभग दुर्भग सुस्वर दु:स्वर शुभ अशुभ बादर सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त स्थिर अस्थिर आदेय अनादेय यशः कीर्ति अयशः कीर्ति तीर्थंकर उच्चगोत्र नीचगोत्र ११६-२० अन्तराय ५ ३ परोदयब० स्वो० परो०ब० 21 परोदयब० स्वोदयब० स्वो० परो०ब० 27 33 37 17 11 "2 29 33 17 " 23 "3 37 33 स्वोदयब० 13 " 13 23 स्वोदयबन्धी "" 37 ,, ४ सान्तर० सा०नि०ब० 31 "" स्वोदयबन्धी 12 निरन्तरब० " सा०नि०ब० सान्तरब० "" सा०नि०ब० सान्तरब० स्वो०परो०ब० सा०नि०ब० 23 सान्तरब० सा०नि०ब० सान्तरब० सा०नि०ब० सान्तरब० सा०नि०ब० सान्तरब० सा०नि०ब० सान्तरब० सा०नि०ब० १-८ १-६ १-८ १ १-८ १ १-८ सान्तरबन्धी १-६ स्वो०परो०ब० सा०नि०ब० १-८ 33 सान्तरबन्धी १-२ सा०नि०ब० १-१० सान्तरबन्धी १-६ ४-८ सान्तरब० सा०नि०ब० परोदयबन्धी निरन्तरबन्धी स्वो०परो०ब सा०नि०ब० 17 सान्तरब० सा०नि०ब० निरन्तरबन्धी ५ १ १-२ १-४ १-८ १-८ "7 " १ १-२ १-८ " १-२ १-८ १ १-८ १ १-८ १-२ १-८ १-२ ६ १,२,४ ४२ १,२,४ ३० १,२,४ ४६ १,२,४ ६६ १-१३ 37 १-१० १-२ १-१० 19 १ १-५ १-१३ १-१३ १-१३ १ १-१४ १ १-१४ १-४ १-१३ १-१३ १-१३ १-१३ १-१४ १ १-१४ १ १-१३ १-१३ १-१४ १-४ १-१४ १-४ ७ ६६ "" 31 ♡♡ w w ♡ w ♡ ४२ ३० ६६ 17 ३० ६६ ४२ ६६ ४२ ६६ ३० ६६ ३० ६६ ४० ६६ ४२ ६६ ४२ ६६ ४० ६६ ३० ७ Yo १३-१४ ३ १-१४ ७३ १-५ ३० ७ १-१२ परिशिष्ट १ / ७८३ Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृत 'बन्धस्वामित्वविचय' में सूत्र ( ५-६ ) की व्याख्या करते हुए उन्हें देशामर्शक बतलाकर उनके आश्रय से २३ प्रश्नों को उठाकर, 'कर्मबन्ध सप्रत्यय है या अप्रत्यय' इन दो (१०११) प्रश्नों के साथ धवला में उन प्रत्ययों की प्ररूपणा विस्तार से की गयी है, ( पृ० १६ ) जिसका स्पष्टीकरण इस तालिका के होता है गुणस्थान कषाय २५ १. मिथ्यात्व २. सासादन ३. मिश्र ४. असंयत ५. देशसंयत ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ८. अपूर्वकरण ६. अनिवृत्तिकरण भाग १ भाग २ भाग ३ भाग ४ भाग ५ भाग ६ भाग ७ (७) कर्मबन्धकप्रत्यय तालिका (बन्धस्वमित्वविचय, खण्ड ३, पु० ८, पृ० १६-२४) मिथ्यात्व अविरति ५ १२ १०. सूक्ष्मसाम्पराय ११. उपशान्तकषाय १२. क्षीणमोह १३. सयोगकेवली ५ १२ 17 १४. अयोगकेवली ७८४ / षट्खण्डागम-परिशीलन २५ " २१ (अनन्तानुबन्धी क्रोधादि ४ को छोड़कर) 37 ११ (त्रस- १७ ( अप्रत्याख्यान असंयम से चतुष्टय से रहित ) रहित) 13 १३ उपर्युक्त ७ मोकषाय ६ से रहित ६ नपुंसक वेद से रहित ५ स्त्रीवेद से रहित योग १५ समस्त ५७ १३ (आहारद्विक से रहित ) ५३ १३ ( प्रत्याख्यान चतुष्टय ११ ( आहारक से सहित से रहित ) पूर्वोक्त ६ ) E (आहारद्विक से रहित उपर्युक्त ) उपर्युक्त ४ पुरुषवेद से रहित ३ संज्वलन क्रोध से रहित २ संज्वलनमान से रहित १ संज्वलनमाया से रहित 77 ४३ १० (आहारद्विक, ओदारिकमिश्र, वैऋियिक मिश्र व कार्मण से रहित १३ (आहारद्विक से रहित ) ४६ ६ (आ० द्विक, औ० मिश्र, वैक्रियिकद्विक व कार्मण से रहित) ३७ " ६ (आ०द्विक, औ० मिश्र, वै० द्विक व कार्मण से रहित ) "" 33 "1 " "1 " ७ (सत्य, अनुभय मन तथा वचन, औ०द्विक व कार्मण ) "" २४ २२ २२ १६ १५ १४ १३ १२ ११ १० "" & "" ७ Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ मूल षट् खण्डागम के अन्तर्गत गाथा-सूत्र [गाथा के अन्त में संदर्भ के लिए प्रथम अंक पुस्तक का और दूसरा पृष्ठ का निर्दिष्ट है।] णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ।। १,८ सादं जसुच्च-दे-कं ते-आ-वे-मणु अणंतगुणहीणा। ओ-मिच्छ-के असादं वीरिय-अणंताणु-संजलणा ॥ १२,४० अट्ठाभिणि-परिभोगे चक्खू तिण्णि तिय पंचणोकसाया। णिद्दाणिद्दा पयलापयला णिहा य पयला य ॥ १२,४२ अजसो णीचागोद णिरय-तिरिक्खगइ इत्थि पुरिसो य । रदि हस्सं देवाऊ णिरयाऊ मणुय-तिरिक्खाऊ ॥ १२,४४ संज-मण-दाणमोही लाभं सुदचक्खु-भोग चक्खं च । आभिणिबोहिय परिभोग विरिय णव णोकसायाइं ॥ १२,६२ के-प-णि-अट्टत्तिय-अण-मिच्छा-ओ-वे-तिरिक्ख-मणुसाऊ । तेया-कम्मसरीरं तिरिक्ख-णिरय-मणुव-देवगई ।। १२,६३ णीचागोदं अजसो असादमुच्चं जसो तहा सादं । णिरयाऊ देवाऊ आहारसरीरणामं च ॥ १२,६४ सम्मत्तप्पत्ती वि य सावय-विरदे अणंतकम्मं से । दंसणमोहक्खवए कसाय-उवसामए य उवसंते ॥ १२,७८ खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेज्जा। तविवरीदो कालो संखेज्जगुणाए सेढीए ॥ १२,७८ सम्वे एदे फासा बोद्धव्वा होति णेगमणयस्स । णेच्छदि य बंध-भवियं ववहारो संगहणओ य ॥ १३,४ एयक्खेत्तमणंतरबंधं भवियं च णेच्छदुज्जुसुदो। गमं च फासफासं भावप्फासं च सद्दणओ ।। १३,६ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजोगावरणटु चउट्टि पावए दुवे रासि / अण्णोण्णसमब्भासो रूवूणं णिद्दिसे गणिदं // 13,248 पज्जय - अक्खर - पद-संघादय-पडिवत्ति-जोगदाराई / पाहुडपाहुड-वत्थू पुष्वं समासा य बोद्धव्वा // 13,260 योगाहणा जहण्णा णियमा दु सुहुमणिगोदजीवस्स / जद्देही तद्देही जहणिया खेत्तदो ओही // 13,301 अंगुलमावलियाए भागमसंखेज्ज दो वि संखेज्जा। अंगुलमावलियंतो आवलियं. चांगुलपुधत्तं // 13,304 मावलियपुधत्तं घणहत्थो तह गाउअं मुहत्तंतो। जोयणभिण्णमुहूत्तं दिवसंतो पण्णवीसं तु // 13,306 भरहम्मि अद्धमासं साहियमासं च जंबुदीवम्मि / वासं च मणुअलोए वासपुधत्तं च रुजगम्मि // 13,307 संखेज्जदिमे काले दीव-समुद्दा हवंति संखेज्जा / कालम्मि असंखेज्जे दीव-समुद्दा असंखेज्जा // 13,308 कालो चदुण्ण वुड्ढी कालो भजिदम्वो खेत्तवुड्ढीए / वुड्ढीए दव्व-पज्जय भजिदव्वा खेत्त-काला दु॥ 13,306 तेया-कम्मसरीरं तेयादव्वं च भासदव्वं च / बोद्धव्वमसंखेज्जा दीव-समुद्दा य वासा य // 13,310 पणुवीस जोयणाणं ओही वेंतर-कमारवग्गाणं / संखेज्ज जोयणाणं जोदिसियाणं जहण्णोही / / 13,314 असुराणमसंखेज्जा कोडीओ सेसजोदिसंताणं / संखातीदसहस्सा उक्कस्सं. ओहिविसओ दु॥ 13,315 सक्कीसाणा पढम दोच्चं तु सणक्कुमार-माहिंदा / तच्चं तु बम्ह-लंतय सुक्क-सहस्सारया चोत्थ // 13,316 आणद-पाणदवासी तह आरण-अच्चुदा य जे देवा / पस्संति पंचमखिदि छट्ठिम गेवज्जया देवा // 13,318 सव्वं च लोगणालि पस्संति अणुत्तरेसु जे देवा। सक्खेत्ते य सकम्मे रूवगदमणंतभागं च // 13,316 परमोहि असंखेज्जाणि लोगमेत्ताणि समयकालो दु।। रूवगद लहइ दव्वं खेत्तोवम अगणिजोवेहि / / 13,322 तेयासरीरलंबो उक्कस्सेण दु तिरिक्खजोणिणिसु / गाउअ जहण्णओही णिरएस अ जोयणुक्कस्स / / 13,325 786 / बटाडागम-परिशीलन Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्स माणुसेसु य माणुस - तेरिच्छए जहण्णोही । उक्कस्स लोगमेत्तं पडिवादी तेण परमपडिवादी ।। १३,३२७ पोग्गला । णिद्धणिद्धा ण बज्झति ल्हुक्ख-ल्हुक्खा य द्धि ल्हुक्खा य बज्झति रूवारूषी य पोग्गला ।। १४,३१ द्धिस्स गिद्धेण दुराहिएण ल्हुक्खस्स ल्हुक्खेण दुराहिएण । गिद्धस्स ल्हुक्खेण हवेदि बंधो जहण्णवज्जे विसमे समे वा ।। १४,३३ साहारणमाहारो साहा रणजीवाणं एयस्स अणुग्गहणं बहूण साहारणाणमेयस्स । एयस्स जं बहूणं समासदो तं पि होदि एयस्स ।। १४, २२८ सरीरणिप्पत्ती । समगं वक्कंताणं समगं तेसि समगं च अणुग्गहणं समगं उस्सासणिस्सासो ।। १४,२२६ जत्थेउ मरइ जीवो तत्थ दु मरणं भवे अणंताणं । वक्कमइ जत्थ एक्को वक्कमणं तत्थणंताणं ।। १४,२३० पुट्ठा य एयमेण । मूलय - थूहल्लयादीहि ॥ १४,२३१ साहारणमाणपाणगहणं च । साहारणलक्खणं भणिदं ।। १४,२२६ बादर-सुमणिगोदा बदा हु अनंता जीवा अत्थि अनंता जीवा जेहि ण पत्तो तसाण परिणामो । भावकलंक अपउरा णिगोदवासं ण मुंचति ।। १४,२३३ दव्वप्यमाणदो दिट्ठा । सव्वेण वि तीदकालेण ॥। १४,२३४ एगणिगोदसरीरे जीवा सिद्धेहि अनंतगुणा परिशिष्ट २ / ७८७ Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [विशेष सूत्र के लिए कहीं दो अंक, कहीं तीन अंक और कहीं चार अंक भी दिये गये हैं । उनमें जहां दो अंक दिये गये हैं उनमें प्रथम अंक खण्ड और द्वितीय अंक सूत्र का सूचक है । जैसे— ३, ४१ (अभिक्खणणोवजोगजुत्तदा ) में ३ का अंक तीसरे 'बन्धस्वामित्वविचय' खण्ड का और ४१ का अंक तदन्तर्गत ४१ वें सूत्र का सूचक है। तीन अंकों में प्रथम अंक खण्ड का, द्वितीय अंक तदन्तर्गत अनुयोगद्वार का और तृतीय अंक सूत्र का सूचक है । जहाँ चार अंक दिये गये हैं, वहाँ प्रथम अंक खण्ड का, द्वितीय अंक अनुयोगद्वार का, तृतीय अंक तदन्तर्गत अवान्तर अनुयोगद्वार का और चतुर्थ अक सूत्र का सूचक है । जैसे ४, २, ६, ८ में चौथे वेदना खण्ड के अन्तर्गत दूसरे 'वेदना' अनुयोगद्वार का, तीसरा तदन्तर्गत छठे 'वेदनकाल विधान' नामक अवान्तर अनुयोगद्वार का और चौथा तद्गत वें सूत्र का सूचक है । जैसे- 'अकम्मभूमिय' में । कहीं-कहीं चार अंक इस रूप में दिये गये हैं— १, ६-१, २३ (अनंताणुबंधी ) । इनमें प्रथम १ अंक पहले 'जीवस्थान' खण्ड का, ६-१ इस खण्ड से सम्बद्ध ६ चूलिकाओं में प्रथम 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' चूलिका का और २३ अंक तदन्तर्गत तेईसवें सूत्र का बोधक है । ] सूत्रांक पुस्तक शब्द अइवुट्ठि अकसाई कम्मभूमिय अकाइय अक्ख अक्खर श्रक्खरकव्व परिशिष्ट-३ षट्खण्डागम मूलगत पारिभाषिक शब्दानुक्रमणिका अक्खरसमासावरणीय अक्खरसंजोग अक्खरावरणीय raat महा अगणिजीव ५, ५, ६३ व ७२ १,१,११ ४,२,६,८ ( अ ) १,१,३६ व ४६,२,१,३० ४,१,५२,५,३,१०; ५,४,१२; ५, ५, १०, ५, ६, ६ ५,५,४५ ५, ५,४८ ५,५,४५ ५,५,४८ ४,१,४२ ५, ५, १५ (गाथा) १३ १ ११ १,७ ६,१३, १४ १३ १३ १३ १३ ε १३ पृष्ठ ३३२; ३४१ ३४८ 55 २६४; २७७,७३ २४८; ६, १२; २०१,५ २४७ २६१ २४७ २६१ १०१ ३२२-२३ Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ६;१३ ५६,६०,६२ आदि ५०,७६; ३६३,३८७ २८० ३६७,३६८,३६६ १३४ ३१३५३-५४ ३७८ ६१ १३ ३१८ ३१,३६३ २४६;६,४०,२०० २२:२३ आदि १६२ २८० ४२६ २५१ शब्द सूत्रांक पुस्तक अगहणदव्ववग्गणा ५,६,८०८२ व ८४ आदि अगुरुअलहुअणाम १,६-१,२८ व ४२९५,५, १०१ व १३३ अग्ग ५,५,५० अग्गट्टिदि ५,६,३२१,३२४,३२६ आदि। अग्गेणियपुव्व ४,१,४५ अचक्खुदंसणावरणीय १,६-१,१६,५,५,८५ अचक्खुदंसणी १,१,१३१ अच्चणिज्ज ३,४२ अच्चुद ५,५,१३ (गाथा) अजसकित्तिणाम १,६-१,२८,५,५,१०१ ६,१३ अजीव ४,१,५१,५,३,१०,५,४,१० ९१३ अजीवभावबंध ५,६,२० व २१ आदि । अजोगकेवली १,१,२२ अजोगी १,१४८ अट्ठवास १,६.६,२७ अट्ठाहियार ४,१,५४ अट्टिद ४,२,११,३ अट्ठगमहाणिमित्त-कुसल ४,१,१४ अड्ढाइज्जदीव-समुद्द १,१,१६३,१,६-८,११ अणणुगामी ५,५,५६ अणवट्ठिद अणंत १,२,२ अणंतकम्मंस ४,२,७,७ (गाथा) अणंतगणपरिवडढी ४,२,७,२१३ अणंतभागपरिवड्ढी ४,२,७,२०४ अणंतभागहाणी ४,२,७,२४६ अणंतरखेत्तफास ५,३,४ व १६ अणंतरबंध ४,२,१२,२ अणंताणंत १,२,३ अणंताणुबंधी १,६-१,२३,५,५,६५ ६१३ अणंतोहिजिण ४,१,५ अणागारपाओग्गट्ठाण ४,२,६,२०४ ११ अणादेज्जणाम १,६-१,२८,५,५,१०१ ६१३ अणावुट्ठी ५,५,६३ व ७२ अणाहार १,१,१७५ व १७७ WW. ७२ ४०३,२४३ २६२ २६२ mov ~ ~ WWWWW १५७ १३५ २०६ ३;१७ ३७१ ~ ~ ~ २७ ४१३६० ३३२ ५०३६३ ३३२,३४१ ४०६,४१० परिशिष्ट ३ / ७८९ Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द अणियट्टिबादरसांप रायपविट्ठसुद्धिसंजद अणियोगद्दारसमासावरणीय अणियोगद्दारावरणीय अणिदिय अणुकी अणुगामी अणुत्तर अणुदि अणुवजुत्त अणेयखेत्त १,१,१०० अणुपेक्खणा (अणुपेहणा ) ४,१, ५५, ५, ५, १३६ अणुभाग ५, ५,८२ अणुभाग बंधझवसाणट्ठाण ४,२,७,१६७ अणुभाग वेणा ४,२,८,१३ ४,१,५६ ५,५,५६ अधम्मस्थिय अधम्मत्थियदेस अधम्मत्थियपदेस अधिगम अपच्चक्खाणावरणीय सूत्रांक अत्यसम ४,१,५४;५,५,१२ अथिरणाम १, ६ १,२८,५, ५,१०१ अदत्तादाणपञ्चय ४,२,८,४ अद्धणारायणसरीरसंघडण १, ६ १,३६८, ५, ५, १०६ १,५,४:२,२,१३७ अद्धपोग्गल परियट्ट अधापवत्तसंजद अपज्जत अपज्जतणाम अपज्जत्तणिव्वत्ती १,१,१७ ५,५,४८ ५, ५,४८ १,१,३३ व ३५ ४,२,६,२४६ व २६६ ५, ५,५६ १,१,१००५, ५, ५० ४,२,७,१७७ ५,६,३० ५,६,३१ ५,६,३१ १,२,५ १, ६- १,२३,५, ५, ६५ १,१,३४ १, ६- १,२८,५, ५, १०१ ५, ६, ६४७ व ६४६ ४, २, ४, ६ ४, २, ४, ८ अपज्जत्तद्धा अपज्जतभव अपज्जती अपज्जवसिद अपडिवादी ७२० / षट्खण्डागम-परिशीलन १,१,७० व ७२,७४ १,५,३ ५,५,१७ (गाथा) पुस्तक १ १३ १३ १ ११ १३ १.१३ १ ६; १३ १३ १२ १२ ६ १३ ६,१३ ६:१३ १२ ६,१३ ४;७ १२ १४ १४ १४ ३ ६:१३ १ ६:१३ १४ १० १० १ ४ १३ पृष्ठ १५३ २६१ २६१ २३१;२६४ ३४६; ३६२ २६२ ३३६;२८० ३३६ २६२३६० ३४६ ८७ २५८ २६४ २६२ २५१:२०३ ५०:३६३ २८१ ७३;३६६ ३२५; १६२ ८१ २६ २६ २६ ३८ ४०:३६० २४६ २६७,५०,३६३ ५०४;५०५ ३७ ३५ ३११,३१३,३१४ ३२४ ३२७ Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शम्ब सूत्रांक १,१,१५ १७८ १७६ २४२ .२६२ २४२ ८१६ आदि ३४ २८५ ७६ १०१ २६८ २८५ अपमत्तसंजद अपुवकरणपविट्ठ सुद्धिसंजद १,१,१६ अपोहा ५,५,३८ अप्पडिवादी ५,५,५६ अप्पसत्यविहायगदी १,६-१,४३ अप्पाबहुआणुगम १,८,१ अबंध २,१,६-७;8-१० आदि अब्भ ५,६,३७ अब्भक्खाण ४,२,८,१० अभंतर तवोकम्म ५,४,२६ अभवसिद्धिय ११,१४१ अभिक्खणणाणोव जोगजुत्तदा ३,४१ अमडसवी ४,१,४१ अयण ५,५,५६ अरह ४,२,८,१० अरदि १,६-१,२४,५,५,६६ अरहकम्म ५,५,८२ अरहंतभत्ती ३,४१ अरंजण ५,५,१८ अलेस्सिय १,१,१३६ अल्लय ५,६,१२६ (गाथा) अल्लीवणबंध ५,६,४२ अवगदवेद १,१,१०१ अवट्ठिद ५,५,५६ अवत्तव्वकदी ४,१,६६ अवराजिद १,१,१०० अवलंबणा ५,५,३७ यवहारकाल १,२,२७ अवाय ५,५,३६ अवायावरणीय ५,५,२३ अवितथ ५,५,५० अविभागपडिच्छेद ४,२,४,१७६ व १७७ अविवागपच्चइय २४६ ७६ २०४ २३१ ३४० २६२ २७४ ३३६ २४२ २१६ २४३ २८० ४३८,४३६ परिशिष्ट ३ |७६१ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २२ २८० ५५१-५२ २८०,२८२ २८६-८७ ४०८-४०६ १५६ ६३ १५१ ४४६-५० ८८ शब्द सूत्रांक अविवगपच्चइय अजीव भावबंध ५,६,२० अविहद ५,५,५० असच्चमोसभासा ५,६,७४४ असच्चामोसमण ५,६,७५१ असच्चामोसमणजोग १,१,४६-५० असच्चमोसवचिजोग १,२,५२-५३ असण्णो १,१,१७२ व १७४ असंखेज्जगुणपरिवड्ढी ४,२,७,३११ असंखेज्जदिभाग १,२,६ असंखेज्जभागपरिवड्ढी ४,२,७,२०५ असंखेजावस्साउअ १,६-६,८२ व ८५ आदि असंखेज्जवासाउअ ४,२,६,८ असंखेज्जाभाग १,३,४ असंखेज्जासंखेज्ज १,२,१६ असंरे पद्धा ५,६,६४५-६४६ असंजद १,१,१२३ असंजदसम्माइट्ठी १,१,१२ असंजमद्ध ४,२,४,६३ असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणणाम १,६-१,३६ असादद्धा ४,२,४,१२० असादबंध ४,२,६,१६६ व १६५ असादावेदणीय १,६-१,१८,५,५,८८ ६१३ असि ४,१,७२ ५,५,१४० असुहणाम १,६-१,२८ ६,१३ अहोदिय ४,१,६५ अंगमल ५,६,३७,५,५,१०१ अंगुल १,२,१७,२,२,४४ अंतयड ५,६,१६,१,६-६,२१६,२२६ १४;६ अंतराइय कम्म १,६-१,४६,५,५,१३६ ६,१३ अंतराइयवेयणा ४,२,३,१४,२,४,७७ १० अंतरानुगम १,१,७;१,६,१ अंतराय १,६-१,१२ अंतोकोडाकोडी १,६-८,३,५ व १३,१४ » mm : 2 १२६ ५०३,५०४ ३६८ १७० ३१७ असुर ३३३ ३११,३१३ ३५,३५६ ४५० ३६१ ५० ५२८ ३४,३६३ १३१,१३६ १६४८६,४६५ ७८,३८६ १,५ १५५१ १३ २०३,२२२,२६६ २६७ ७६२/ पखण्डागम-परिशीलन Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सूत्रांक पुस्तक पृष्ठ १२४ अंतोमुहुत्त अंबणाम अंबिलणाम २,२,१८ १,६-१,३६ ५,५,११२ ७५ ३७० आ २६१,३६२ २६४ ३५३ ४६३,४६४ ४८ २२५ २२५२४३ २४३ ३४२,३४६ २५०;२५१ २६ आइरिय १,१,१ आउअ १,६-१,६ ६,१३ आउकाइय १,१,३६ आउकाइयणाम २,१,२१ आउक्काइय ५,६,५५७ व ५६३ आउग १,६-१,२५ आउवबंधगद्धा ४,२,४,३६ आउववेदणा ४,२,४,३५ व ४६ आउंडी ५.५,३६ आगदि ५,५,७५ व ८२ आगमदो दव्वकदी ४,१,५३ व ५४ आगासत्थिय ५,६,३० व ३१ आगासत्थियदेस आगासत्थियपदेस आणद ५,५,१३ (गाथा) आणापाण ५,६,६७२ आणुपुव्वीणाम ५,५,२८ व ४१, ५,५,११४ ६,१३ आदा आदावणाम १,६-१,२८ व ५,५,१०१ ६१३ आदाहीण ५,४,२८ १३ आदिकम्म ५,५,८२ प्रादेज्जणाम १,६-१,२८ व ५,५,१०१ आदेस १,१,८ व २४ आधाकम्म ५,४,४ व २१-२२ आबाधा १,६.६,५-६ व ८-६ आदि ६ आबाधकंदय, आबाहाकंदय ४,२,६,१२१-२२ व १२५ ११ आभिणिबोहियणाण १,६-६,२०६ व २०८ आदि ६ आभिणिबोहियणाणावरणीय १,६-१,१४; ५,५,२१ व २२ ६;१३ आभिणिबोहियणाणी १,१,११५ आमोसहिपत्त ४,१,३० १४ ३१८ ५२१ ५०,७६,३७१ २८० ५०,३६३ ८८ ३४६ ५०:३६३ १५६२०१ ३८,४६ १४८,१५०,१५६ २६६-६७,२७० ४८४,४८६ आदि १५,२०६२१६ ६५ परिशिष्ट ३ / ७६३ Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ १९६ ३१८ ३७-३८ ३१३ ३५०:२६८ शब्द सूत्रांक आयदण (सिद्धायदण) ४,१,४३ आयाम १,२,२२ आरण ५,५,१३ (गाथा) आरंभ (आरंभकदणिप्फण्ण) ५,४,२२ आलावणबंध ५,६,४०-४१ आवत्त ५,४,२८ आवलिय १,२,९१ व ५,५,५६ आवासएसु अपरिहीणदा ३,४१ आवासय ५,६,६४४ आहार १,१,४ व १७५-७६ आहारकायजोग १,१,५६ व ५६ आहारदव्ववग्गणा ५,६,७६-८० व ७२८-३० आहारमिस्सकायजोग १,१,५६ व ५६ आहारसरीर ५,६,२४६ व ४६६ आहारसरीरणाम १,६-१,३१ व ५,५,१०४ आहारसरीरदव्ववग्गणा ५,६,७१०-११ आहारसरीरबंधणणाम १,६.१,३२ व ५,५,१०४ आहारसरीरबंधफास ५,३,२८ आहारसरीरमूलकरणकदी ४,१,६८ व ६६ अहारसरीरसंघादणणाम १,६-१,३३ व ५,५,१०६ आहारिद ४,२,४,२२ आहोदिम (अहोदिम) ४,१,६५ ५०१ १३२,४०६ २८६,२९७ ५६५४६ २८६,२९७ ३६१,४३० ६८,३६७ ५४२ ७०,३६७ १४ ६:१३ १४ ३२४,३२६ ७०,३६७ ५२८ इड्ढि इढिपत्त इत्थिवेद इरियावहकम्म इंदय (विमाणिदय) इंदाउह इंदिय ५,५,८२ १,१,५६ १,१,१०१ व १०२ ५,३४व२३-२४ ५,६,६४१ ५,६,३७ ३४६ २६७ ३४०,३४२ ३८,४७ ४६४ ईरियावहकम्म ईसःणकप्प ५,३,२३-२४ १,१,६६ व ५,५,१२ (गाथा) १,१३ ४७ ३१६,३६५ ७१४/पदसण्डागम-परिशीलन Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सूत्रांक पुस्तक पृष्ठ ईसिमज्झिमपरिणाम ईहा ईहावरणीय ४,२,६,८ ५,५,३८ ५,५,२६ ८८ २४२ २३० १४५ ३४ ७७,३८८ ३२६३४० ६२ ३२५-२६३४० २४३,११ ५०,३६३ २६८३४ २४ ३२४,४५० ३५३ आदि व १३४ उक्कस्सटिदि १,६-६,२ उक्का ५,६,३७ उच्चागोद १,६-१,४५ व ५,५,१३५ ६:१३ उजुग, उज्जुग ५,५,६२,७० उजुमदि ४,१,१० उजुमदिमणपज्जवणाणा वरणीय ५,५,६१-६२ व ६६ उजुसुद ४,१,४६ व ४,२,२,३ . ९१० उज्जेवणाम १,६-१,२२ व ५,५,१०१ ६:१३ ५,५,५६ व ५,६,३७ १३:१४ उपहफास ५,५,२४ उत्तरकरणकदी ४,१,६८ व ७२ उदय २,१,११ और २१ आदि व ७९ ४,२१,४५ उदय (उदक) ४,१,७२ उदिण्णफलपत्तविवागा (वेयणा) ४,२,१०,५६ उदिण्णा वेयणा ४,२,१०,३१ व ३६ आदि उप्पइया (छेदणा) ५,६,५१४ उभय (अणंतर-परंपरा) बंध ४,२,१२,४ उलुंचण ५,५,१८ उवकरणदा ४,१,६४ उवक्कम (अनुयोगद्वार) ४,१,४५ उवधादणाम १,६-१,२८ व ५,५,१०१ ६:१३ उवज्झाय १,१,१ उरिमउवरिमगेवज्ज १,१६८ उववण्णल्लय १,६-६, २०५ व २०८ आदि ६ उववाद २,६,१ व ४ आदि ५,५,८२ उववादिम ५,६,३०० WW ३६२ ३४५ व ४८ आदि ४३५ ३७१ २०४ २७१ १३४ ५०,३६३ ३३७ ४८४,४८६ आदि २६६३०४ आदि ३४६ ३५६ १४ परिशिष्ट ३ / ७६५ Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सूत्रांक पुस्तक पृष्ठ १६६१७० १७६,१८३;१८७ ३६५,१८१ •ur m ur x 8. ३१३ १६९ 2 १,१४ ७८ १८८:१४ १४ : उवसम २,२,१५४ व ५६ उवसम (उपशमक) १,१,१६ व १७-१८ उवसमसम्माइ(दि)ट्ठी १,१,१४४ व २,२,१६७ उवसमणा १,६-१,१ उवसामग १,२,६ उवसामणा १,६-८,१० उवसमिअ (औपशमिक) १,७,५ उबसमियचारित्त ५,३,१७ उवसमियजीवभावबंध ५,६,१७ उवसमिय सम्मत्त उवसंत ४,२,७७ (गाथा) उवसंतकसायवीदरायछदुमत्थ १,१,१६ व ५,६,१७ उवसंतकोह ५,३,१७ उवसंतदोस उवसंतमाण उवसंतमाया उवसंतमोह उवसंतराग उवसंतलोभ उवसंता वेयणा ४,२,१०,५ उवसंपदसण्णिज्झ ४,१,७२ उवहि ४,२,८,१० उवट्ठिदचुदसमाण १,६-६,१७३ व १८५ उव्वट्टिदसमाण १,६-६, ८७ व २०३ उव्वेल्लिम ४,१,६५ उसुणणाम १,६-१,४० व ५,५,११३ उस्सप्पिणी १,२,३ व २,२,४४ उस्सासणाम १,१,२८ व ५,५,१०१ :: :: ३०६ ४५० or : २८५ ४७७,४८० ४५१४८५ २७२ ७५,३७० २७:१३६ ५०,३६३ ६,१३ ६१३ भ ऊहा ५,५,३८ १३ २४२ एइंदिय एइंदियजादिणाम १,१,३३ व ३४ १,६-१,३० व ५,५,१०३ २३१२४६ ६७,३६७ ७६१ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द एक्काणी खेत्त एयक्खेत्तफास एयपदेसि परमाणुपोग्गल दध्ववग्गणा एयंत सागारपाओग्गट्ठा ओगाहणा ओगाहणामहादंडअ ओग्गह ओग्गहावरणीय ओघ ओज ओजम्म ओदइयभाव "" ओद्दावण ओधिदंसणी ओरालिय ओरालियकायजोग ओरालियपदेस ओरालियमिस्सकायजोग सूत्रांक ३, १७४,२०६ ५,५,५६ ५, ३, ४ व १३-१४ ५, ६, ७६ व ६८ २,६,२१० ४,२,५,२० ४,२,५,३० ५,५,३७ ५,५,२३ व २४ १,१,५ व ६ ४,२,७,१६८ ४,२, ७, २०३ ओरालियसरीर ओरालि यसरीरदव्ववग्गणा ओरालि यसरीरणाम ओरालियस रीरबंधणणाम ओरालियसबंधफास ओरालिय सरीरमूलकरणकदी ओरालिय सरीरसंघादणाम ओवेल्लिम ओसप्पिणी ओहिजण १, ७,२ व ६ २,१,६१ व ८५ आदि ५,४,२२ १,१,१३१ व १३४ ५, ६,२३७ १,१,५६ व ५७ व ६१ आदि पुस्तक ५,६,५०३ १,१,५६ व ५७ व ६१ आदि ५,६,३३१ व ३३४,३३७ ५,६,७५६ व ७८५ आदि १, ६ १,३१ व ५, ५, १०४ १, ६-१, ३२ व ५, ५, १०५ ५,३, २७ व २८ ४,१, ६८ व ६६ १, ६-१, ३३ व ५, ५, १०६ ४,१,६५ १,२,३ व २,२,४४ ४,१,२ Is ८ १३ 17 १४ ११ ११ 17 १३ 13 १ १२ 29 ५ ७ १३ १ १४ १ १४ १ १४ 19 ६:१३ "1 १३ ह ६;१३ ३७ ६ पृष्ठ २४६;२८५ २६२ ३ व १६ ५४; १२० ३३५ ३३ ५६ २४२ २१६:२१६ १५६,१६१ ८८१३४ १३४ १६४; २०१ ३५७,३५६ आदि ४६ ३७८३८४ ३२२ २८६; २६५ एवं ३०५ आदि ४३१ २८६; २६५ एवं ३०५ आदि ३७०७१-७२ आदि ५५४;५६१;५६४ ६८; ३६७ ७०३६७ ३० ३२४;३२६ ७०:३६७ २७२ २७:१३६ १२ परिशिष्ट ३ / ७६७ Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सूत्रांक पुस्तक पष्ठ ओहिणाण ओहिणाणावरणीय ओहिदसणावरणीय ओहिणाणी ओही १,६-६,२०५ व २०८, २१२,२१६ आदि १,६-१,१४ व ५,५,२१ १,६-१,३१ व ५,५,८५ १,१,११५ व ११६-२० ५,५,१० व ११ (गाथा) ४८५,४८६,४८८, ४६६ आदि १५,२०६ ३१,३५४ ३५३,३६३-६४ ३१४:३१५ ७५३७० २४ ४१ २४८,४१ २०१५ ३६ ७५,३७० ३४६ १३४ कक्खडणाम १,६-१,४० व ५,५,११३ ६१३ कक्खडफास ५,३,२४ १३ कट्ठ १४ कट्टकम्म ४,१,५२ व ५,४,१२; ५,५,१० व ५,६,६ १३:१४ कडय ५,६,४२ कडुवणाम १,६-१,३६ व ५,५,११३ कणय ५,६,३७ १४ कद ५,५,८२ कदजुम्म ५,६,२०३ कदि ४,१,४५ कदिपाहडजाणय ४,१,६३ कम्म १,६-१,१३ व १५,१७, १६ आदि कम्मइय ५,६,२४१ कम्मइयकायजोग १,१,५६ व ६०,६४ कम्मइयदव्ववग्गणा ५,६,८७ व ७५७-५८ कम्मइयसरीर ५,६,४६३ व ५०१ कम्मइयसरीरणाम १,६-१,३१ व ५,५,१०४ कम्मइयसरीरदव्ववग्गणा ५,६,७७६ व ७८० कम्मइयसरीरबंधणणाम १,६-१,३२ व ५,५,१०५ ६,१३ कम्मइयसरीरबंधफास कम्मइयसरीरमलकरणकदी ४,१,६८ व ७० कम्मइयसरीरसंघादणाम १,६-१,३३ व ५,५,१०६ ६ १३ कम्मट्ठिदी १,६-६,६ व ६,१२,१५ आदि ६ २६६ १४,३१,३४, ३७ आदि ३२८ २८६,२६८,३६० ६३,५५३ ४२८,४३० ७०,३६७ ५५६५६२ ६८,३६७ ३२४,३२८ ७०३६७ १५०;१५६,१६१ १६२ आदि कम्मणिसे ७९८ / पदसण्डागम-परिशीलन Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रांक पुस्तक पृष्ठ १३४ २६ ३६-३७,४६ २४३ ८८ ३२४ २८६ २६७ २८५ ३३२,३४१ १३२३४८ ७८ '७५,३७० २८८ १२ कम्सपयडी ४,१,४५ कम्मफास ५,५,२५-२६ कम्मबंध ५,६,३८ व ३९,६४ कम्मभूमि १,६-८,११ कम्मभूमिपडिभाग ४,२,६,८ कम्मभूमिय कम्मसरीर ५,५,६ (गाथा) करणकदी ४,१,६८ कल (कला) ५,५,८२ कलस ५,५,५८ कलह ४,२,८,१० कव्वडविणास ५,५,६३ व ७२ कसाय १,१,४ व १११ कसायउवसामय ४,२,७,७ (गाथा) कसायणाम १,६-१,३६ व ५,५,११२ कसायपच्चय ४,२,८ व १३ कसायवेयणीय १,६-१,२२-२३ व ५,५,६४-६५ काउलेस्सिय १,१,१३६ व १३७ काउलेस्सिया (कागलेस्सिया) ४,२,१४,४५ व ४,२,१५,१४ काय १,१,४ व ३६ कायगद ५,५,६२ व ७० कायजोग १,१,५६ कायजोगी १,१,४७ कायट्ठिदी ४,२,७,२४४ कायपओअकम्म ५,४,१६ कायबली ४,१,३७ कायलेस्सिया ४,२,५,१० कालगदसमाण १,६-६,१०१ व १०७, ११२,१४७ आदि कालहाणि ५,६,५२३ व ५३४ कालानुगम १,५,१ व २,८,१ किण्णर ५,५,१४० किण्हलेस्सिय १,१,१३६ किण्ह (ण्ण) वण्णणाम १,६-१,३७ व ५,५,११० ६:१३ ६:१३ ४०३५६-६० ३८६३६० ४६७-६८3५०६ १३२,२६४ ३२९३४० २८६ २७८ २०८ ४४ १६ ४५४,४५५,४५७; ४६६ आदि ४४०४४७ ३१३;४६२ ३६१ ३८६ ७४,३७० परिशिष्ट ३ / ७६६ Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द पृष्ठ १३ ३८'८८ ४५० १४ किरियाकम्म कुडारि कुड्ड कमारवग्ग कड केवलणाण ३१४ ३४०,४६४-६५ ४८६,४९२,४६४, ४६६,४६६ व ५००,३१६ ३४५,३५३ १५,२०६३४५ केवलणाणावरणीय सूत्रांक पुस्तक ५,४,४ व २७-२८ ४,१,७२ ५,६,४२ ५,५,१० (गाथा) ५,३,३० व ५,६,६४१ १३:१४ १,६-६,२१६ व २२०, २२६,२३३,२४०,२४३ तथा ४,२,४,१०६ ५,५,८१ व ८३ १,६-१,१४ व ५,५,२१ तथा ७९-८० १,१,११५ व १२२ १,१,१३१ व ४,२,४,१० १:१० १,६-१,१६ व ५,५,८५ ६१३ १,१,१३१ ४,२,४,१०७ ४,२,५,१६ व ४,२,१४,५० १११२ ४,२,४,१०६ ४,१,६ ५,५,४० १,२,४५ व ४८ १,२,४५ व ४८ आदि १,६-६,४ व ७,१० आदि केवलणाणी केवलदंसण केवलदसणावरणीय केवलदसणी केवलिविहार केवलिसमुग्धाद केवली कोट्ठबुद्धि कोट्ठा कोडाकोडाकोडाकोडी कोडाकोडाकोडी कोडाकोडी ३५३,३६७ ३७८,३१६ ३१,३५३-५४ ३७८ ३१६ २६,४६६ ३१६ ५३ Maur m mur कोधकसाई कोहपच्चय कोहसंजलण कंदय कंदयघण कंदयवग्ग कंदयवग्गावग्ग २४३ २५३;२६० २५३,२६० १४६,१५८% १५६ आदि ३४८,३५१ २८३ ४१,२६० ८८,१२८,३४ १९८१९ आदि १,१,१११ व ११२ ४,२,८,८ १,६-१,२३ व ५,५,६५ ४,२,७,१६८व ५,३,२० ४,२,७,२४ व २५ आदि १२ ६१३ १२,१३ १२ ४,२,७,२२७ व २२८-२६ २००:२०१ ५,१४ १९६१५ खइय खइयचारित्त खइयसम्मत्त १,७,५ व ५,६,१८ ५,६,१८ १० ८०० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द ३६५-६६१७६ १५ १५ १६६,२०१ आदि १६ सूत्रांक पुस्तक खइयसम्माइट्ठी १,१.१४४ व ४५ तथा २,२,१६१ खइया दाणलद्धी ५,६,१८ खइया परिभोगलद्धी खइया भोगलद्धी खइया लाहलद्धी ५,६,१८ खइया वीरियलद्धी खओवसमिय १,७,५ व ७,१३,१७ आदि । खओवसमियअचक्खुदंसणी ५,६,१६ खओवसमियअणुत्तरोववा दियदसधर खओवसमियआभिणिबो हियणाणी खओवसमियआयारधर खओवसमियउवासयज्झेणधर खओवसमियएइंदियलद्धी खओवसमियओहिणाणी खओवसमियओहिदसणी खओवसमियअंतयडधर खओवसमियगणी खओवसमियचरिदियलद्धी खओवसमियचक्खुदंसणी खओवसमियचोद्दसपुष्वधर खओवसमियठाणधर खओवसमियणाहधम्मधर खओवसमियतीइंदियलद्धी खओवसमियदसपुव्वधर खओवसभियदाणलद्धी खओवसमियदि ट्ठिवादधर खओवसमियपंचिदियलद्धी खओवसमियपण्णवागरणधर खओवसमियपरिभोगलती खओवसमियभाव खओवसमियभोगलद्धी खओवसमियमणपज्जवणाणी पर्सि .ष्ट ३ / ८०१ Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक पृष्ठ शब्द सूत्रांक खओवसमियमदिअण्णणी ५,६,१६ खोवसमिय(या)लद्धी २,१,१५ खोवसमियलाहलद्धी ५,६,१६ खओवसमियवाचग खओयसमियवियाहपण्णत्तिधर ,, खओवसमियविवागसुत्तधर खओपसमियविटंगणाणी खओवसमियवीइंदियलद्धी । खओवसमियवीरियलद्धी खओवसमियसमवायधर खओवसमियसम्मत्तलद्धी खओसमियसम्मामिच्छत्तलद्धी ,, खओवसमियसुदणाणी खओवसमियसूदयडधर खओवसमियसंजमलद्धी खओवसमियसंजमासंजमलद्धी,, खगचर ५,५,१४० खण ५,५,५६ खणलवपडिबुज्झणदा ३,४१ खवग १,१,१६,१७ व १८ तथा १,२,११ खवणा १,६-१,१ व ४,२,४,७४ खवय ४,२,७,८ (गाथा) खीणकसायवीयरागछदमत्थ १,१,२० व ५,६१८ खीणकोह खीणदोस खीणमाण खीणमाय खीणमोह ४,२,७-८ (गाथा) तथा ५,६,१८ खीणराग खीणलोह खीरसवी ४,१,३८ खीलियसरीरसंघडणणाम १,६-१,३६ व ५,५,१०४ खज्जसरीरसंठाणणाम १,६-१,३४ व ५,५,१०७ २६८ १७६;१८३; १८७ तथा ६२ १,२६५ १२ १,१४ १८६१५ १२;१४ ७८,१५ १४ ७३,३६६ ७०,३६८ ८०२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द खुदाबंध खुद्दाभवग्गहण "" खेडविनाश खेत्त खेत्तपच्चास खेत्तहाणि खेत्ताणुगम खेमाखेम खेलो सहिपत्त खंध खंध खंधदेस खंधपदेस बंध समुद्दि गइ गच्छ गड्डी गणणकदि गणद गदि गदिणाम गन्भोवक्कंतिय गरुड गरुवणाम गरुवफास गवसणा गाउअ गिल्ली सूत्रांक ५, ६, ६६ १, ५, ६६ व २,२, १७ ५, ६,३०४ व ६३३, ५, ५, ६३ व ७२ १,२,४ ४,२,१४,४३ व ४६ तथा ४,२, १५२ व १३ ५, ६,५२३ व ५२६ १,३,१ ५, ५, ६३ व ७२ ४, १,३१ ५, ६,६८ ५, ६,२२ "" ६४६, ६४७ 77 ५, ६,६८ ग १, १, ४ ५, ६,६४१ ५, ६,४१ ४, १,६६ ५,५,४६ ( गाथा ) ५, ५, ७५ व ८२ १, ६ १,२८ व २६ तथा ५, ५, १०१-१०२ १,६ - ८, ९ व २६६, ५,५, १४० ५, ५, ११३ ५,३,२४ ३०७,३१५ ५, ५, ३८ ५, ५, ५ ( गाथा ) ४, ६,४१ पुस्तक १४ ४;७ १४ १३ ३ १२ १४ ४ १३ ε १४ १४ 39 " १४ १ १४ "" ६ १३ 33 ६;१३ ६; १४ १३ " " 11 23 १४ पृष्ठ ४७ ३७१;१२३ ३६१, ४६१; ५०४ ३३२३४१ ३२ ४६७-६८ तथा ५०१५०६ ४४०,४४४ १ ३३२,३४१ ६६ ४८ २५ 33 17 ४८ १३२ ४६४-६५ ३८ २७४ २४८ ३४२;३४६ ५०; ६७ तथा ३६३;३६७ २३८, ३५८, ३३४, ३३५ ३६१ ३७० १४ २४२ ३०६ ३८ परिशिष्ट ३ / ८०३ Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रांक पृष्ठ १४ ३८ गिह गिहकम्म ५,६,४१ ४,१,५२ तथा ५,३,१० व ५,४,१२ एवं ५,५,१० १३ २४८ तथा ९४१ व २०१ १४ ५७ ६६-७०,३६२ २६०,२६२ ८५ आदि ८० आदि ४६५ गुण गुणगार गुणपञ्च इय गुणसेडिकाल गुणसेडिगुण गम्म गुरुअणाम गेवज्जय गोद गोदकम्म गोदवेयणा गोधूम गोवरपीड गोवुर गंथकदी गंथरचणा गंथसम १,६,८३ ४,२,५,६५-६८ व ५,६,४०७ ११:१४ ५,५,५३ व ५५ ४,२,७ व १८६-८७ आदि १२ । ४,२,७ व १७५-७६ आदि ५,६,६४१ १,६-१,४० व ५,५ ६,१३ ५,५,१३ (गाथा) १,६-१,११ १,६-१,४५ व ५,५,१,३४ ६:१३ ४,२,३,१ व ३ ५,५,१८ ५,६,४२ ५,६,४१ ४,१,६७ ३१८ १३ ७७,३८७ १३,१५ २०५ ३२१ गंथिम गंध ४,१,५४ व ५,५,१२ तथा ५,६,१२ १३;१४ २५१२०३ व ७ ४,१,६५ २७२ ४,१,६५ व ५,६,७६२ व २७२,५५५,५५६ '७६७,७७२ १,६-१,२८ व ५,५,१०१ तथा १११ ६६ ५०,३६३,३७० १,६-१,३८ ५,५,१४० गंधणाम गंधणामकम्म धव्व ५,५,१८ घण १,२,६१ घणहत्य ५,५,५ (गाथा) घाणिबियअत्थोग्गहावरणीय ५,५,२८ ८०४ | बदलणारम-परिशीलन २०४;२०५ ३५० ३०६ २२७ Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक २३०,२३१ २३३ २३३ शब्द सूत्रांक घाणिदियईहावरणीय ५,५,३० घाणिदियधारणावरणीय ५,५,३४ घाणिदियवंजणोग्गहावरणीय ५,५,२६ घोरगुण ४,१,२८ घोरगुणबंभचारी ४,१,२६ घोरतव ४,१,२६ घोरपरक्कम ४,१,२७ घोससम ४,१,५ व ५,५,१२ तथा ५,६,१२व २४ mr mr morm १३ २५१;२०३,७,२७ २६६ १ ३१२-१६ आदि ३६१ ४५० ४८६,४६२,४६५९६,४६६ तथा ५०० २२७ चइदंदेह चउट्ठाणबंध ४,२,६,६७,१६७-६६ व ७४-७५ आदि चउप्पय ५,५,१४० चक्क ४,१,७२ चक्कवट्टित्त १,६-६,२१६ व २२०,२२६ २३३,२४० तथा २४३ चक्खिदियअत्थोग्गहावरणीय ५,५,२८ चक्खिदियअवायावरणीय ५,५,३२ चक्खिदियईहावरणीय ५,५,३० चक्खिदियधारणावरणीय . ५,५,३४ चक्खुदंसण १,१,१३१ चक्खुदंसणी १,१,१३१ व १३२ चक्खुदंसणावरणीय १,६-१,१६ व ५,५,८५ चत्तदेह चदुरिंदिय १,१,३३ ५,४,२८ चयण ५,५,८२ चरित्तलद्धी २,११,१६९-७४ चरिमसमयभवसिद्धिय ४,२,६,१६ चरिमसमयसकसाइय ४,२,६,२३ चारित्त १,६-१,१ व १४ चारित्तमोहणीय १,६-१,२२ व ५,५,६४ चित्तकम्म ४,१,२२ व ५,४,१२ तथा ५,५,१० एवं ५,६,६ २३२ २३० २३३ ३७८ ३७८,३८३ ३१,३५३.५४ २६६ mm २३१ चदुसिर ८८ ३४६ ५६५-६७ १३२ २५६३१४ ४०,३५६ ६:१३ ६१३,१४ २४८,५९,२०१५ परिशिष्ट ३ / ८०५ Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सूत्रांक पुस्तक ५,५,४१ व ६३,७२ ४,१,६५ चिता चुण्ण चुददेह चुदसमाण २४४,३३२,३४१ २७२ २६६ ४७७,४८०,४८२, ४८३ ४६६ १,६-१,१७३ व १८५, १६२,१६८ ५,६,५८१ 0 चुलिया चोद्दसपुब्विय 0 ८८ ३७६ २६६ छट्ठाण छट्ठाणपदिद छदृमत्थ छाववट्ठी छेदणा छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजद ४,२,७,१६८ ४,२,१३,१३ ४,२,४,७५ १,६,४ व २,२,१४३ ५,६,५१३ १,१,१२३ व १२५ ४३५ ३६८,३७४ ३६१ जक्ख जगपदर जट्टिदिबंध जणवयविणास ५,५,१४० १,२,१७ ४,२,६,२२१ व २२३ आदि । ५,५,६३ व ७२ ३३८,३३६ आदि ३३२,३४१ जदू जदथामे तधातवे जयंत जलचर ३३६ ३,४१ १,१,१०० ४,२,४,३६ व ३६ तथा ५,५,१४० ४,१,३२ १०१३ २२५,२३७,३६१ जल्लोसहिपत्त ६ जव १३ १२,१४ ८८,२६९,५३० ६:१४ जवमझ ४,२,७,१६८ व २६६ तथा ५,६,६८३-८८ जसकित्तिणाम १,६-१,२८ व ५,५,१० जहण्णोही ५,५,१० (गाथा) जहाक्खादविहारसुद्धिसंजद १,१,१२३ व १२८ जहाणुपुत्व जहाणुमग्ग जाइस्सर १,६-६,८ व १२,२२ आदि ५०,३६३ ३१४ ३६८,३७७ २८० ६ ४२२,४२४,४२७ ८०६ । षट्खण्डागम-परिशीलन Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द जागर सुदोवजोग जाण जागुगसरीरदव्वकदी जाणुगसरीर भवियवदिरित्तदव्वकदी जादिणाम जादिणामकम्म जिण जिणाबिंब जिणमहिम जिद जिभिदियअत्योग्गहा वरणीय जिभिदियआवायावरणीय जिब्भिदियई हावरणीय जिभिदियधारणावरणीय जिभिदियवंजणोग्गहावरणीय जीव जीवअप्पा बहुअ जीवणियद्वाण जीवभावबंध जीवमज्झपदेस जीवसमास जीवसमुदाहार जीविद जुग जुदि जुम्म जोइसिय जोग सूत्रांक ४, २, ६ व ८ ५,६,४१ ४,१,६३ व ६५ ४,१,६५ १, ६ १, २८ व ३० तथा ५, ५, १०१ व १०३ १, ६ १,३० १,६-८, ११ व ३,४२ १, ६-६, २२ व ३०, ३७ १, ६ - ६, ३७ व ४० ४, १, ५४ व ६२ तथा ५, ५, १२ एवं ५, ६, १२ व २५ ५,५, २८ ५, ५, ३२ ५,५, ३० ५, ५, ३४ ५,५,२६ ४, १, ५१ व ५, ३,१०,५, ४, १०,५, ५, ६ तथा ५, ६, ७ ५,६,५६८ ५, ६, ६० ५,६,१३-१६ ५,६,६३ १, १, २ व ५ तथा ३, ४ ४,२,६,१६५-६६ व ४,२,७, २६८ ५. ५,६३ व ७२ ५,५, ५० व ५, ६,४१ ५, ५,८२ ४,२,७ व १६८, २०३ १,१,६६ १,१,४ व ४७ पुस्तक ११ १४ ह 73 ६,१३ ६ ६; ८ ६; १३; १४ १३ " 77 33 21 १४ " १९८ ११:१२ १३ १३,१४ १३ १२ १ 33 पृष्ठ ८८ ३८ २६६, २०२ ६; १३;१४ २४६;६,४०,२००;४ १४ २७२ ५०,६७,३६३; ३६७ ६७ २४३ ; ६१ ४२७४२६४३२ ४३२४३४ २५१,२६८; २०३; ७;२७ २२७ २३२ २३०-३१ २३३ २२१ ४६५ ३५४ ६; १६ ४६ ६१; १५३; ५ ३०८३११:२४१ ३३२,३४१ २६८३८ ३४६ ८८; १३४ ३३५ १३२:२७८ परिशिष्ट ३ / ८०७ Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रांक पुस्तक पृष्ठ ५७,२३५ ५६;२७४ or ८५ शब्द जोगजवमज्झ जोगट्ठाण जोगणिरोधकेवलिसंजद जोगदार जोगपच्चय जोगप्पाबहुग जोणिणिक्खमणजम्मण जोयण जंबुदीव ५,२,४,२८ व ३७ ४,२,४,२६ व ५४ ४,२,७,१८५ व १८६ ५,५,१ (गाथा) ४,२,८,१२ ४,२,४,१४४ व १७४ ४,२,४,५६ व १०३ १,२,२२ व ५,५,५ (गाथा) ५,५,६ (गाथा) ०. २६. २८८ ३६५,४३१ २७८,३१६ १९६३०६ ३०७ ३,१३ १३ टंक ५,६,६४१ ४६४-६५ २४८ ३८,४१ १६८१६९,२०१ ३६ ठवणकदि ठवणकम्म ठवणपडि ठवणफास ठवणवेयणा ठवणा ठाणपरूवणा ठाणसमुविकत्तण ठिद १३;१४ २४३,४३५ ४३८,४६३ ४,१,५२ ५,४,४ व ७,११-१२ ५,५,४ व ७,१० ५,३,४ व १० ४,२,१,३ ५,५,४० व ५,६,५१४ ४,२,४,१७६ व १८६ १,६-२,१ ४,१,५४ व ६२ तथा ५,५ १२ एवं ५,६,१२ व २५ ४,२,११,३ व ७ ४,२,४,११ व ५,५,८२ ४,२,४ व १०१ १,६-६,४ व ७,१० आदि ७६ १३ व १४ १२ १०१३ ठिदाट्ठिद ठिदि ठिदिखंडयधाद ठिदिबंध २५१:२६८,२०३; ७ व २७ ३६६,३६८ ४०,३४६ ३१८ १४६;१५८; १५६ आदि ३०८ १४० आदि २८८ ३४६ ठिदिबंधज्झवसाण ठिदिबंधट्ठाण ठिदिवेयणा ठिदिसमुदाहार ४,२,६,१६५ ४,२,६,३६-५० ४,२,८,१३ ४,२,६२,४६ है१० णइगम ५,५,४८ व ५६ तथा ४,२,२,२ व ४,३,१ आदि २४०;२६४,१०, १३ आदि ८०८ / षटखण्डागम-परिशीलन . Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचक पुस्तक पृष्ठ ६१३ ७०,३६८ १,६-१,३४ व ५,५,१०७ ३,४२ ५,५,६३ व ७२ णग्गोहपरिमंडलसरीर संठाणणाम णमंसणिज्ज णयंतरविधी णयरविणास णयवाद णयविभासणदा णवंसयवेद णाग णाण णाणावरणीय णाणावरणीयवेयणा णाम णामकदि णामकम्म २८० ३३२,३४१ २८० २३८ वह आदि ३४०३४३ ३६१ १३२,३६३ ~ P ३१ व २६८,२६६ १३ व २०५-६ २४६ णामनिरुत्ति णामपयडि णामफास णामबंध णामवेयणा णामसम १३ ४,१,४७ व ४,२,२,१ आदि १,१,१०१ व १०३ ५,५,१४० १,१,४ व ११६ १,६-१,५ व ३ ४,२,४,६ व ४८,७५ १० १,६-१,१० व ५,५,१६ ६१३ ४,१,५१ १,६-१,२७ तथा ५,५,१६ व १०१ ६:१३ ५,६,२३६-३७ ५,५,६ ५,३,४ व ६ ५,६,२ व ७ १४ ४,२,१,३ व ४,२,३,१-२ १० ४,१,५४ व ६२ तथा ५,५, ६,१३,१४ १२ एवं ५,६,१२ व २५ ५,५,५० १,६-१,३६ व ५,५,१०६ ६,१३ ४,१,७२ ४,१,४५ ४,१,६५ ५,६,१२६-२७ (गाथा) व ५,६,५८२ १,३,२५ १,६-१,४५ व ५,५,१३५ ६;१३ १,६-८,१२ ४,२,८,९ !............ 22 23 25. . . . . . ४६२०५-६,३६३ ३२१-२२ २०० ३ व ८ २ व ४ ५,१३ व १५ २५१ व २६८ तथा २०३ एवं १ व २७ २८० ७३ व ३६६ ४५० १३४ २७२ णाय णारायणसरीरसंघडणणाम णालिया णिकाचिदमणिकाचिद णिक्खोदिम णिगोद १४ २३१,२३३,४६६ १०० णिगोदजीव णिच्चागोद (णीचागोद) णिट्ठव णिदाणपच्चय ७७ व ३८८ २४७ २८४ १२ परिशिष्ट ३ /०९ Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ णिद्दा ३१,३५३-५४ ७५ व ३७० ३० व ३२ 0 ro १३४ शब्द सूत्रांक पस्तक १,६-१,१६ व ५,५,८५६ ;१३ णिद्दाणिद्दा णिद्धणाम १,६-१,४० व ५,५,११३ णिद्धदा ५,६,३२ व ३३ तथा ३५ णिद्धफास ५,३,२४ णिधत्तमणिधत्त ४,१,४५ णिबंधण णिमिणणाम १,६-१,२८ व ४४ तथा ५,५,१०१ तथा १३३ ६:१३ णिमित्त ४,१,१४ णियदि ४,२,८,१० णिरइंदय १४ णिरय णिरयगदि १,१,२४ णिरयगदिणाम १,६-१,२६ व ५,५,१०२ ६१३ णिरयगदिपाओग्गाणुपुवी १,६-१,४१, व ५५,११४ व ११५,११६,१२४,१३० णिरयपत्थड ५,६,६४१ णिरयाऊ १,६-१,२६ ६,१३ णिल्लेवणट्ठाण ५,६,६५२ व ६५३ १४ णिल्लेविज्जयाण ५,६,६३२ णिव्वत्ति २,६,६६ व ५,६,२८८ व ७,१४ २६१,२६५,२६६ आदि णिव्वत्तिट्ठाण ५,६,२८६ व २६३,२६७,३०१ १४ ५०,७७,३६३,३८७ १०२ २८५ ४६४-६५ २०१ ६७ व ३६७ ७६,३७१,३८४; ३८६ ४६४-६५ ४८ व ३६२ ५०६ व ५०८-६ ४८७ ३५६,३५२,३५७ ३५८-५६ ३५३,३५७,३५६ व ३६० १५०,१५६ व १६१ आदि १४० व २३७ ३८६ व ३६० ७४ व ३७० २०४ व ३६१ १० व १३ ६१ २६७ २२७ २३०-३१ णिसेय १,६-६,६ व ६,१२ आदि ६१३ १,१२ ४,५,६,३६ व १०१ णील्लेस्सिय १,१,१३६ व १३७ णीलवण्णणाम १,६-१,३७ व ५,५,११० णेरइय १,१,२५ व ५,५,१४० णेगम ४,२,२,२ व ४,२,३,१ णेदा ३,४२ णोआगमदव्वकदी ४,१,६१ णोइंदियअत्थोग्गहावरणीय ५,५,२८ णोइंदियईहावरणीय ८१० | षट्झण्डागम-परिशीलन Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द ५, ५, ३२ गोइंदियआवायावरणीय गोइंदियधारणावरणीय ५, ५, ३४ ४, १,६६ ५, ६,४० १, ६ १, २३ व २४ तथा ५, ५, ६४ व ६६ णोकदि णोकम्मबंध णोकसायदणीय णोजीव णंदावत्त तक्क तच्च तण तत्ततव तदुभयपच्चइय तदुभयपच्चइयअजीव भावबंध तप्पण तप्पा ओग्गसंकिलेस तब्भवत्थ तयफास तवोकम्म तसकाइय तसकाइयणाम तसणाम तसपज्जत्त तिक्खुत्त तिट्ठाणबंध तित्तणाम तित्थयर तित्थय रणाम तित्थयं रणाम गोदकम्म तित्थयरत्त सूत्रांक ४, २, ६, ३ व ५-६ ५, ५, ५८ ५,५, ८२ ५, ५,५० ५, ६,६४१ त ४,१,२४ ५, ६, १४ व १६ ५,६,२३ ५, ५, १८ पुस्तक 10 m = x0 १३ १४ ६; १३ १२ १३ १३ " १४ & १४ 33 १३ १० ४,२,४,३६ ४,२,४,२२ ५, ३, ४ व १६ - २० ५,४,४ व २५-२६ १, १, ३ व ४२ तथा ५, ६,५६१ १,१४ २,१,२८ व २६ १, ६-१,२८ व ५, ५, १०१ ४, २, ४, १४ ५,४,२८ ४, २, ६, १६७ व १६८, १७०,१७३ आदि १, ६ १,३९ व ५, ५, ११२ १, ६-८, ११ १, ६ १,२८ व ५, ५, १०१ ३, ३६ व ४०-४२ १, ६ - ६, २१६ व २२०, २२६,२३३ 33 १३ " ७ ६;१३ १० १३ ११ ६;१३ ६ ६,१३ ८ ६ पृष्ठ २३२ २३३ २७४ ३७ ४०,४५; ३५६; ३६१ २६६-२६६ २६७ ३४६ २८० ४६४-६५ ६० १,१८-१६ २६ २०४-५ २२५ ५४ ३ व १६ ३८ व ५४ २६४;२७२;४६३ ७२ ५० व ३६३ ४६ ८८ ३१२,३१३,३१४, ३१५ आदि ७५ व ३७० २४३ ५० व ३६३ ७६,७८, ७६ व ६१ ४८६,४६२,४६५ ४६६ आदि परिशिष्ट ३ / ८११ Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द तियोगद तिरिक्ख " तिरिक्खर्गादि तिरिक्खर्गादिणाम तिरिक्खगदिपाओगाणुपुव्वीणाम तिरिक्खोणी तिरिक्खमिस्स सीइंदिय ती (ते) इंदियजादिणाम उकाइय १,१,८७ १,१,२६ तिरिक्खसुद्ध १,१,३० तिरिक्खाऊ (तिरिक्खाउअ ) १, ६:१,२६ व ५, ५, ६६ १,१, ३३ व ३५ ३६ ते उक्काइय उकाइयणाम तेउलेस्सिय तेजइय तेजासरीरमूलक रणकदि तेजादव्ववग्गणा तेजासरीर यादव्व यादव्ववग्गणा तेयासरीर या (तेजइय) सरीरणाम तेया (तेजा ) सरीरबंधणणाम तेयासरीरबंधफास तेयासरीरमूलक रणकदी तेया (तेजइय) सरीरसंघाद णाम सूत्रांक ५,४,२८ १,१,२६ व १५६, १५८-१५६ २, १,४ व ५, ५, १४० १,१,२४ १, ६ १,२६ व ५, ५, १०२ १, ६-१, ४१ व ५, ५, १४४, ११७-१८,१२७, १३२ १, ६ १,३० व ५, ५, १०३ १,१,३६ व ४० तथा ५, ६,५६४ ५, ६, ५६४ व ५७०, ५७६ २,१,२३ १,१,१३६ व १३८ ५, ६,२४० ४,१,७० ५, ६,७१२ व ७१३ ५, ६,४६१ ५, ५, ६ ( गाथा ) ५,६,८१-८२ व ७३५-३६ ५, ५, ६ ( गाथा) व ५, ६,५०० १, ६-१, ३१ व ५, ५, १०४ १, ६ १, ३२ व ५, ५, १०५ ५, ३,२८ ४,१,६८ १, ६-१, ३३ व ५, ५, १०६ ५,५,१७ (गाथा) ५,६,४१ तेंरिच्छ तोरण ८१२ / षट्खण्डागम - परिशीलन पुस्तक ६ १ १,७,१३ १ ६:१३ 17 27 " ६:१३ १ ६,१३ १:१४ १४ ७ १ १४ ह १४ 13 १३ १४ १३:१४ ६:१३ 11 १३ Ε ६:१३ १३ १४ पृष्ठ ८८ २०७,४०१;४०२; ७:३६१ २०१ ६७ व ३६७ ७६,३७१, ३७५ ७६,३८५, ३८७ ३२८ २२७ २२८ ४८ व ३६२ २३१२५८,२६१ ६७ व ३६७ २६४; २६७;४६' ४६४,४६५,४६६ ७१ ३८६ व ३६१ ३६७ ३२८ ५४२ ४२६ ३१० ६० व ५४५-४६ ३१० व ४३० ६८ व ३६७ ७० व ३६७ ३० ३२४ ७० व ३६७ ३३७ ३८ Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सूत्रांक पुस्तक पृष्ठ थय २६२ ५,५,१३ व १३६ तथा ४,२,६,८ व ५,५,१४० १,६-१,२८ व ५,५,१०१ ६,१३,१४ २०३,३९०७ १११३ ८८ व ३६१ ५० व ३६३ थलचर यावरणाम थिरणाम थीणगिद्धी थुदि १,६-१,१६ व ५,५,८५ ४,१,५५ व ५,५,१३ व १३६ ५,६,१२६ १३ ३१ व ३५३-५४ २६२२०३,३६० २३१ थहल्ल १४ दब्भ दविय (छेदणा) दव्व दव्वकदि दव्वकम्म दव्वपमाण दव्वपमाणानुगम ३०६ २३७,२५०,२५१ ३८,४३ १० ३ १५५१,८८,८६,९० १६८,२०३:२०४ ३ व ११ २ व २७-२८ दव्वपयति दव्वफास दवबंध दश्ववेयणा दव्वहाणि दसपुम्विय दाणंतराइय दित्ततव दिवस दिसादाह दीव -- .२३० : ... ५,६,५१४ ५,५,८ (गाथा) ४,१,४६ व ५३,५४ ५,४,४ व १३,१४ १.२.२ १,१,७ व १,२,१ तथा ७-६ आदि ५,५,४ व ११,१२,१५ ५,३,४ व ११-१२ ५,६,२ व २४,२५,२६ १४ ४,२,१,३ ५,६,५२३ ४,१,१२ १,६-१,४६ व ५,५,१३७ ४,१,२३ ५,५,५६ ५,६,३७ १,१,१५७ व ५,५,७ (गाथा) १,१३ ४,१,४५ ५,५,६३ व ७२ १,६-१,२४ व ५,५,६६ ६,१३ ४४० ૬૬ ७८ व ३८४ ६० २६८ ३४ ४०१ व ३०८ १३४ १४ दीह-रहस्स दुक्ख ३३२ व ३४१ ४५ व ३६१ दुगुंछा परिशिष्ट ३ / ८१३ Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सूत्रांक पुस्तक पृष्ठ १४ १३ दुवय दुपदेसियपरमाणुपोग्गल दव्ववग्गणा ५,६,७७ दुभिक्ख ५,५,६३ व ७२ दुभगणाम १,६-१,२८ व ५,५,१०१ दुरहिगंध १,६-१,३८ व ५,५,१११ ५,५,१४० दुविट्ठी ५,५,६३ व ७२ दुस्सरणाम १,६-१,२८ व ५,५,१०१ देव १,१,२८ व ९४,१६६ २,१,५ व ५,५,१४० ७:१३ देवगदी १,१,२४ देवगदिणाम १,६-१,२६ व ५,५,१०२ ६१३ देवगदिपाओग्गाणुपुवीणाम १,६-१,४१ व ११४,१२१, , १२५, तथा १३१ देवाऊ १,६-१,२६ व ५,५,६६ देविद्धी १,६-६,३७ देवी १,१,६६ व १६६ तथा १,६-६,२३० देसफास ५,३,१७-१८ देसविणास ५,५,६३ व ७२ देसोही दोणामुहविणास ५,५,६३ व ७२ दोसपच्चय ४,२,८,८ ४,१,७२ दंतकम्म ४,१,५२ तथा ५,३,१० एवं ५,४,१२ व ५,५,१० ११३ ३३२ व ३४१ ५० व ३६३ ७४ व ३७० ३६१ ३३२ व ३४१ ५० व ३६३ २२५२३४,४०५ ८ व ३६१ २०१ ६७ व ३६७ ७६,३७१,३८२, ३६४,३८६ ४८ व ३६२ ४३२ ३३५,४०६:४६५ १८ ३३२ व ३४१ २६२ ३३२ व ३४१ २८३ ४५० २४८,६,४१,२०१ दसण दसणमोहक्खवय दसणमोहणीय १३२ व ३७८ ७८ १,१,४ व १३१ ४,२,७,७ (गाथा) १,६-१,२०-२१ व ५,५,६१ व ६२ ६,१३ ३७-३८,३५७-५८ ७४ दसणविसुज्झदा दसणावरणीय दंसणावरणीयवेयणा १,६-१,१५ व ५,५,८४-८५ ६१३ ४,२,३,१ व ३ तथा ७७ १० १३,१५,३१३ ८१४ / षट्सण्डागम-परिशीलन Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सूत्रांक पुस्तक पष्ट धम्मकहा ४,१,५५ तथा ५,५,१३ व १३६६१३ ५,६,१२ व २५ ३,४२ २६२२०३,३६० ७ व २७-२८ ६१ २६ धम्मतित्थयर धम्मत्थिय धम्मत्थियदेस धम्मत्थियपदेस धरणी धाण धारणा धारणावरणीय धुवक्खंधदव्ववग्गणा धवसण्णदव्ववग्गणा धूमकेदू ५,५,४० ५,५,१८ ५,५,४० ५,५,३३ ५,६,८८ व ८६ ५,६,६० व ९१ ५,६,३७ २०५ २४३ २३२ ६३ व ६४ ६५ ३४ ५,४,४ व १५ तथा १८ ४,२,८,१० ५,६,२१ ३८ व ४३-४४ २८५ पओअकम्म पोअपच्चय पओगपरिणदओगाहणा पओगपरिणदखंध पओगपरिणदखधदेस पओगपरिणदखंधपदेस पओगपरिणदगदी पओगपरिणदगंध पओगपरिणदफास पओगपरिणदरस पओगपरिणदवण्ण पओगपरिणदसद्द पओगपरिणदसंजुत्तभाव पओगपरिणदसंठाण पकम्म पक्ख पक्खी ४,१,४५ ५,५,५६ ५,५,१४० ३६१ परिशिष्ट ३/८१५ Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सूत्रांक पुस्तक ११ ३४६ व ३५० १२ ६;१३ पगडिसमुक्कित्तण पगणणा पगदिअट्ठदा पच्चक्खाणावरणीय पच्चाउंडी पच्छिमक्खंध पज्जत्त पज्जत्तणाम पज्जत्तणिव्वत्ति पज्जत्तद्धा पज्जत्तभव पज्जत्ति पज्जय (सुदणाण) पज्जयसमासावरणीय पज्जयावरणीय पज्जवसाण पट्टणविणास पडिच्छणा १,६-१,३ ४,२,६,२४६ व २४७ ४,२,१४,२-३ १,६-१,२३ व ५,५,६५ ५,५,३६ ४,१,४५ १,१,३४ व ३५,६८-६९ १,६-१,२८ ५,६,२८८ व २६२ आदि ४,२,४,६ व ५१ ४,२,४,८ व ५० १,१,७० व ७२,७४ ५,५,१ (गाथा) ५,५,४८ ६:१३ १४. ४०-४१ व ३६० २४३ १३४ २४६,२५८,३१० ५० व ३६३ ३५२ व ३५७ आदि ३७ व २७२ ३५ व २७० ३११,३१३,३१४ २६० २६१ १३ ८८ व २१३ ३३२ व ३४१ ४,२,८,१६८ व २५४ ५,५,६३ व ७२ ४,१,५५ तथा ५,५, १३ व १३६ ५,६,१२ व २५ ५,५,१ (गाथा) ५,५,४ ६१३ २६२,२०३,३६० ७व २७-२८ २६. २६१ पडिवत्ति पडिवत्तिआवरणीय पडिवत्तिसमासावरणीय पडिवादी पडिसेविद ३२७ ५,५,१७ (गाथा) ५,५,८२ ४,२,४,२२ ३४६ पढमसमयआहारय पढमसमयतब्भवत्थ sx पढमसम्मत्त २०३,२२२,४१८ ४३५ पण्णभावछेदणा पत्तेयसरीर पत्तेयसरीरणाम पत्तेयसरीरदव्ववग्गणा पद १,६-८,३ व ५,६ तथा १,६-६,१ आदि ५,६,५१४ (गाथा) १,१,४१ १,६-१,२८ व ५,५,१०१ ५,६,६१ व ६२ ५,५,१ (गाथा) ६:१३ १४ २६८ ५० व ३६३ ६५ व ६३ २६० ८१६/पदवण्डागम-परिशीलन Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द पदमीमांसा पदसमासावरणीय पदानुसारी पदावरणीय दाहिण पदिट्ठा पदेसग्ग पदा पदेसबंध पदेसविर, पदेसविरइय पमत्तसंजद पम्मलेस्सिय पयडि पयडिअट्ठदा पर्याडणयविभासणदा पडबंधवोच्छेद पर्याडिसमुदाहार पयला पयलापयला परघादणाम परत्थाणवेयणसण्णियास परभविय परमाणुदव्व परमोहिजिण परमोही परवाद परसु परिग्गहपच्चय सूत्रांक ४, २, ४, १-२ व ४, २, ५, २-३ तथा ४, २, ६, २ - ३ एवं ४,२,७, २-३ ५,५,४८० ४, १,८ ५, ५,४८ ५,४,२८ ५,५,४० ४, २, ६, १०२-३ तथा ४,२,८,१२ आदि ५, ६,७५६ व ७६४ आदि ५, ६, ७६७ ५, ६,२८७ व ३२० १, १, १४ व १,२,७ १, १,१३६ व १३८ १, ६ १,१-३ व ४, २, ८, १२ तथा ५, ५, १३ ४,२, १४, २ व ३ तथा ५,५,५ ३,४ ४, १५, २ व ३ ४,२,६,१६५ व २३६ १, ६ १, १६ व ५,५, ८५ 12 ४,२,४,३६ ५, ३,२२ परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा ५, ६, ७६ व ७७-७६ १, ६ १,२८ व ५, ५, १०१ ४,२, १३,२ व २१७-१६ तथा २६२ पुस्तक १०,११; १२ १३ Ε १३ 31 33 ११:१२ १४ 71 27 १;३ १ ६, १२; १३ १२ १३ ८ ११ ६; १३ 27 १२ १० १३ १४ ह ५, १,३ ५,५,५६ व ५, ५, १५ ( गाथा) १३ ५,५,५० ४,१,७२ ४,२,८,६ 33 w १२ पृष्ठ १६-२० व ३ तथा ७७-७८ एवं ३-४ २६१ ५६ २६१ ८८ २४३ २३८; २४२ तथा २८८ आदि ५५४५५६ आदि ५६४ ३५२ व ३६६ १७५ व ८८ ३८६ व ३६१ १,४ व ५ तथा २८८ व १,४,५ ४७८ व ५०१ १६८ ५ ३०८ व ३४६ ३१ व ३५३-५४ "} ५० व ३६३ ३७५, ४४४-४५ व ४६० २२५ २१ ५४ - ५६ ४१ २६२ व ३२२ २८० ४५० २८२ परिशिष्ट ३ / ८१७ Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रांक पृष्ठ परिजिद ६१३ २५१:२६८ तथा २०३,३६० ७ व २७-२८ १३ परिणिव्वुद परिदावण परिभोगंतराइय परियट्टणा ४,१,५४ ५ ६२ तथा ५,५,१२ व १३६ ५,६,१२ व २५ ५,६,१८ ५,४,२२ १,६-१,४६ व ५,५,१३७ ४,१,५५ तथा ५,५,१३ व १३६ ५,६,१२ व २५ ४,१,६६ व ७० १,१,१२३ व १२६ ७८व ३८६ ९१३ १४ २६२,२०३,३६० ७६२७-२८ ३२६ व ३२८ ३६८ व ३७५ २८० १,२,६ तथा २,२,१५ व २१ ३७ ५,५,५० ५,५,५० ६३,१२२१२५ २८० ३,४१ . . ५,५,५० परिसादणकदी परिहारसुद्धिसंजद परंपरलद्धी पलिदोवम पवयण पवयणट्र पवयणद्धा पवयणप्पभावणदा पवयणभत्ति पवयणवच्छलदा पवयणसण्णियास पवयणी पवयणीय पवरवाद पव्व पसत्थविहायगदि पस पस्स पागार पाणद पाणादिवादपच्चय पारिणामिअ भाव . . . ur m ३६१ १३४ 4 Mr ५,५,५६ १,६-१,४३ ५,५,१४० ४,१,४५ ५,६,४२ ५,५,१३ (गाथा) ४,२,८,२ २,७,३ व ६३ तथा २,१,६५ व ७७ ५,५,५० १,६-१,२८ व ४० तथा ५,५,१०१ व ११३ २७५ १६६:२३०:१०६; १०६ २८० पावयण (फास) पासणामकम्म ६:१३ ५०७५,३६३,३७० ८१८ / षटखण्डागम-परिशीलन Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सूत्रांक पृष्ठ ५,६,४१ ४,१,४५ ४,१,७४ ३८ १३४ ४५१ २६१ पासाद पाहुड पाहुडजाणग पाहुडपाहुड पाहुडपाहुडसमासावरणीय पाहुडपाहुडावरणीय पाहुडसमासावरणीय पाहुडावरणीय पिढर प्रिंडपयडि पु(पो)ग्गलपरियट्ट पुच्छणा ६,१३ २०४-५ ४६ व ३६३ १२१:१३६ आदि ५,५,१८ १,६-१,२७ व ५,५,१०१ २,२,१२ व ४१ आदि। ४,१,५५ तथा ५,५,१३ व १३९ ५,६,१२ व २५ ५,५,५० २६२२०३:३६० ७ व २७-२८ १४ २८० पुच्छाविधि पुच्छाविधिविसेस पुढविकाइय १:१४ पुढविकाइयणाम पुढवी पुरिसवेद पुष्व पुवकोडी 92. ME १,१,३६ व ४०,४३ तथा ५,६,५५६ व ५६२,५७१ आदि २,१,१६ ५,६,६४१ १,९,१०१ व १०२ ५,५,५६ १,५,१८ व ३२ तथा २,२,१२७ व १४६,१४६ ५,५,४८ ५,५,५० ५,५,४८ ३,४२ ४,१,६५ ४,२,८,८ ४,२,८,१० ५,६,३४ (गाथा) व ७६,७७ आदि ४,१,४५ १,५,४६ व १०६,१५५ २६४,२६७,२७४; ४६३ व ४६५ ७० ४६४-६५ ३४० व ३४२ २६८ ३५०,३५६,१६०; १६६,१६७ आदि २६१ २८० २६१ पुव्वसमासावरणीय पुव्वादिपुव्व पुन्वावरणीय पूजणिज्जा पूरिम पेम्मपच्चय पेसुण्णपच्चय पोग्गल : : " २७२ २८३ २८५ ३१,५४,५५ आदि पोग्गलत्ता पोग्गलपरियट्ट " ३६४,३८८,४०६ परिशिष्ट ३/८१६ Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द पोतकम्म 39 पंचिदिय पंचिदियजादिणाम पंचिदियतिरिक्ख पंचिदियतिरिक्खजोणिणी पंचिदियतिरिक्खपज्जत्त पंजर फड्डय फद्दय फास फासिंदियअत्थोग्गहा वरणीय फासिंदियआवायावरणीय फासि दियईहावरणीय फासिंदियधारणावरणीय बज्झमाणिया वेणा बब्भ बम्ह बलदेवत्त बहुसुदभत्ति बादर ५,५,३० ५,५,३४ फासि दियपंजणोग्गहावरणीय ५,५, २६ फोसणाणुगम बादरकाइय बादरणाम सूत्रांक ४, १,५२ तथा ५,३, १० व ५, ४, १२ एवं ५, ५, १० ५,६,६ १,१,३३ व ३७ १,६-१,३० व ५, ५, १०३ १,१,८७ व १६० १,१,७६ व १६१ १,१,८६ व १६० ५,३,३० ५, ६,५०२ व ५०८ ४, २, ४, १७६ व १८२ ५,३, १ ५,५,२८ ५, ५,३२ फ १,१,७ व १,४,१ ४,२,१०, ३ व ६ आदि ५,६,४१ ५, ५, १२ ( गाथा ) १, ६ - ६, २१६ व २२०, बादरणिगोद ८२० / षट्खण्डागम-परिशीलन २२६,२३३,२४०, २४३ ३-४१ १,१,३४ व १,१, ४०-४१ १,१,४६ १, ६ १,२५ व ४४ तथा ५,५,१०१ व १३३ ५, ६, ६२६ व ६३१ पुस्तक ६; १३ १४ १ ६:१३ १ "1 १३ १४ " १३ 22 11 "" 29 31 १:४ १२ १४ १३ ६ १ ८ " ६,१३ १४ पृष्ठ २४८; ६, ४१; २०१ ५ २३१ व २६२ ६७ व ३६७ ३२७ व ४०३ ३२८ व ४०३ ३२७ व ४०३ ३४ ४३० व ४३३ ४३८ व ४५२ १ २२७ २३२ २३०-३१ २३३ २२१ १५५ व १ ३०४ व ३०७ आदि ३८ ३१६ ४८६, ४२, ४६५, ४६६ व ४६६ ७६ २४६, २६७,२६८ २७६ ५०,७७ तथा ३६३ व ३८७ ४८३ व ४८५ Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सत्रांक पुस्तक पृष्ठ " ८४व ११२ तथा १३० व १३१ ४५६-६० ४६ व ४६६ ३१७ १०१४ ३२ ८८ ३०८,३१२, ३१३ आदि २३१,२५८,२६१ ६७ व ३६७ बादरणिगोददव्ववग्गणा ५,६,६३ व १४ तथा १११ व ११३ बादरणिगोदवग्गणा ५,६,५५३ बादरतसपज्जत्त ४,२,४,१४ व ५,६,६४३ बादरपुढविजीवपज्जत ४,२,४,५७ बादरपुढवीजीव ४,२,४,७ बारसावत्त ५,४,२८ बाहिरतवोकम्म ५,४,२६ बिट्टाणबंध ४,२,६,१६५ व १६७,१७२ आदि बीइंदिय १,१,३३ व १३५,१३६ बी(बे)इंदियजादिणामकम्म १,६-१,३० व ५,५,१०३ बीजबुद्धि ४,१,७ बुद्ध ४,१,४४ बुद्धि ५,५,३६ बेढाणी ३,१७१ व १६०,१६६ २००,२४७ बंदणिज्ज बंध (बंधग) २,१,३-६ व ८ आदि ३,५ व ६ आदि बंधग २,१,१ तथा ५,६,१व ६५ बंधण ४,१,४५ व ५,६,१ बंधणिज्ज ५,६,१ व ६८ बंधफास ५,३,४ व २७ बंधय २,१,१ बंधविहाण ५,६,१ व ७६७ बंधसामित्तविचय OM २४३ २४५;२७२,२७६, २७७,३१७ ७:१४ ६१४ ७-८ व १५ आदि ७ व १३ आदि १ तथा १ व ४७ १३४ व १ १ व ४८ ३ व ३० २५ १ व ५६४ १४ १३ ३,१ ६१३ भय भरह भवग्गहण ४५ व ३६१ ३०७ १,६-१,२४ व ५,५,६६ ५,५,६ (गाथा) ४,२,४,७१ तथा ५,५, ६५-६६ व ७४ ४,२,४,२५ व ७४ तथा ५,६,४६७ १०:१३ २६४,३३८,३४२ भवट्ठिदि १०:१४ ५५,२६५४१६ परिशिष्ट ३ / ८२१ Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द भवण भवणवासी भवधारणीय भवपच्चइय भवसिद्धिय भविय भवियदव्वकदी भवियफास भागाभागाणुगम भावकदी भावकम्म भावपमाण भाजपयडि भावफास भाववेयणा भावाणि भावाणुगम भासदव्व भासद्धा भासा भासादव्व भासादव्व वग्गणा भिण्णमुहुत्त भित्तिकम्म भूद भेडकम्म 77 सूत्रांक ५, ६,६४१ १,१,६६ ४,१,४५ ५, ५, ५३ व ५४ १, १,१४१ व १४२ तथा ४,२,६,१९ व ५, ६,४६५ १, १, ४ व ५, ५, ५० ४, १,६१ ५, ३, ४ व २६ ३० २, १०, १ व ५, ६,३३० ४,१, ७४-७५ ५,४,४ व २६-३० १,२,५ ५,५,१३८-४० ५, ३, ४ व ३१-३२ ४,२, १, ३ व ५, २, ३, ४ ५, ६,५२३ व ५३६ १, १,७ व १, ७, १ ५,५,६ ( गाथा ) ५, ६,४२३ व ४३७ ५,६,७४३-४४ भोगंतराइय भंगविचयाणुगम भंगविधि भंगविधिविसेस ८२२ / षट्खण्डागम-परिशीलन १, ६- १,४६ व ५, ५, १३७ २, ४, १ ५, ५,५० पुस्तक १४ १ ε १३ १, ११; १४ "1 १,१३ ε १३ ७:१४ ह १३ ३ १३ 11 ५,६,७४० ५, ६, ८३-८४ व ७४१-४४ १४ १,६-८,१६ व ५,५,५ ( गाथा ) ६; १३ ४, १,५२ तथा ५, ३, १० व ५, ४, १२ एवं ५, ५, १० ५,६,६ ५,५,५० ४, १,५२ तथा ५, ३, १० व ५,४,१२ एवं ५, ५, १० ५, ६, ६ १० १४ १; ५ १३ १४ " 13 ६,१३ १४ १३ ६; १३ १४ ६:१३ ७ १३ "" पृष्ठ ४६४-६५ ३३४ १३४ २६० व २६२ ३६२;३६४; १३२; ४२८-२६ १३२ व २८० २६७ ३ व ३४ ४६५ व ३६६ ४५१-५२ ३५ व ६० ३८ ३६०-६१ ३ व ३५ ५ व ११ ४४० व ४५० १५५ व १८३ ३१० ४०१ व ४१२ ५५० ५४६ ६१-६२ व ५५० ३४३ व ३०६ २४८६,४१,२०१ ५ २८० २४८६,४१,२०१ ५ ७८ व ३८६ २३७ २८० 11 Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रांक पुस्तक पृष्ठ ६:१३ मउव(अ)णाम मउवफास ७५व ३७० २४ २८० मग्ग मग्गणदा मग्गणदा (गदी) मग्गणा मग्गवाद मच्छ २८० २४२ २८० १,६-१,४० व ५,५,११३ ५,३,२४ ५,५,५० १,१,२ ५,५,५० ५,५,३८ ५,५,५० ४,२,५,८ तथा ४,२,१४,४५ व ४,२,१५,१४ ४,१,७२ ५,५,६३ व ७२ १,१,४६ व ५० ५,६,४२३ १,१,४७ ५,६,७४७ ५,६,८५-८६ व ७४८-५० ११,१२ १५,४६७-६८५०६ ४५० ३३२,३४१ २८०,२८२ ४०१ २७८ मट्टिय मडंबविणास मणजोग मणजोगद्धा मणजोगी मणदव्व मणदव्ववग्गणा मणपओअकम्म मणपज्जवणाण मणपज्जवणाणावरणीय १४ ६२-६३५५१ १३ ४४ ४८६,४६२ आदि १,६-६,२१६ व २२० आदि ६ १,६-१,१४ तथा ५,५,२१ व ६०-६१ ६१३ १,१,११५ व १२१ ४,१,३५ ५,५,१४० ५,५,६ (गाथा) १,१,२४ १,६-१,२६ व ५,५,१०२ । ६:१३ १५,२०६३१८ ३५३,३६६ १८ ३६१ ३०७ २०१ ६७,३६७ मणपज्जवणाणी मणबली मणुअ (मनुज) मणुअलोअ मणुसगदि मणुसगदि(इ)णाम मणुसगदि(इ)पाओग्गाणु पुवीणाम मणुस्स पज्जत्त मणुस्समिस्स मणुस्साऊ मदि मदिअण्णाणी १,६-१,४१ व ५,५,११४ १,१,८६ व १०,६१ १,१,३१ १,६-१,२६ व ५,५,१६ ५,५,४१ १,१,११५ ७६,३७१ ३२९३३१ २३१ ४८,३६२ २४४ ३५३ परिशिष्ट ।। ८२३ Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सूत्रांक पुस्तक पृष्ठ १३ १४ मरण महाखंधट्ठाण महाखंधदव्ववग्गणा महातव महादंडअ ३३२,३४१ ४६४,४६६ ११७:१३३ ६१ १४०,१४२ ५७५,४४,६५ ५०१ ७५,३७० महुरणाम महुसवी महोरग माण (मण) माणकसाई माणपच्चय माणसिय माणसंजलण माणुस माणुसुत्तरसेल माय (मेय) मायकसाई मायापच्चय मायासंजलण मारणंतियसमुग्घाद मास मिच्छणाण मिच्छत्त मिच्छदंसण मिच्छाइट्ठी ५,५,६३ व ३७२ ५,६,६४० व ६४२-४३ ५,६,६७ व ११५ ४,१,२५ १,६-४,१ व ६,५१ २,११,२,१ तथा ४,२,७,६५ व ११८ ५,६,६४३ १६-१,३६ व ५,५,११२ ६,१३ ४,१,४० ५,५,१४० ५,५,८२ १,१,१११ व १२२ ४,२,८,८ ५,५,८२ १,६-१,२३ व ५,५,६५ ५,५,१७ (गाथा) ५,५,७७ ४,२,८,१० १,१,१११ व ११२ ४,२,८,८ १२ १,६-१,२३ व ५,५,६५ ४,३,१४,४५ व ४,२,१५,१४ १३ १३ ३६१ ३४६ ३४८,३५१ २८३ ३४६ ४०.४१,३६० ३२७ ३४३ २८५ ३४८,३५१ २८३ ४०-४१,३६० ४६७-६८,५०६ २६८ २८५ १,३८ २८५ १६१,३६५,३६६ व ४०१ ६० १३ १२ ४,२,८,१० १,६-१,१ व २१ ४,२,८,१० १,१,६ व १४४,१५१,१५६ * * * १,६-२,२२ ५,५,१४० ३६१ मिच्छादिट्ठी मिय मीमांसा मुसावादपच्चय मुहुत्त मूलकरणकदी ४,२,८,३ ५,५,५६ ४,१,६८ व ७१ * * * * 4 २४२ २७६ २६८ ३२४,३२६ ८२४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द मूलपयडिट्ठिदिबंध मूलय मूलोष मेह मेहा मेहुणपच्चय मोक्ख मोस मोस मोसमण मोसमणजोग मोसवचिजोग मोहणीय मोहणीयवेयणा मोहपच्चय मंदसं किलेसपरिणाम यथा थामे तथा तवे योदाणे (अवदानम्) रक्खस रज्जु रदि रसणामकम्म रह रागपच्चय रादिभोयणपच्चय रादिदिय रुजग सूत्रांक ४,२,६,३६ ५,६,१२६ ( गाथा ) १,२,११० ५, ६, ३७ ५, ५,३७ ४,२,८५ ४,१,४५ व ५,५, ८२ ४,२,८,१० ५,६,७४४ ५, ६, ७५१ १,१,४६ व ५१ १, १,५२ व ५५ १, ६ १,१६-२० व ४,२,३, १ व ३ तथा ३,४० ५,५, ८६ - ६१ ४,२,८,८ ४, २, ४, ५५ व ८६ ५,५, ३७ ५, ५, १४० ५, ६,४१ ४,२,४,७७ य ( श्रुतभंडार ग्रन्थ प्रकाशन, फलटण) १, ६ १,२४ व ५, ५, ६६ १, ६ १, २८ व ३६ तथा ५,५,१०१ व ११३ ५,६,४१ ४,२,८,८ ४,२,८,७ १,६,६५ ५, ५, ६ ( गाथा) पुस्तक ११ १४ ३ १४ १३ १२ ६,१३ १२ १४ " १ 13 ६:१३ १० १२ १० -1 १३ १३ १४ ६:१३ 11 ૪ १२ " ५ १३ पृष्ठ १४० २३१ ३६५ ३४ २४२ २८२ १३५;३४६ २८५ ५५० ५५१-५२ २८०; २८५ २८६२८६ ३७,३५७ १२; १५ तथा ३१३ २८३ २७५;३१७ ४७१ २४२ ३६१ ३८ ४५;३६१ ५०,७५;३६३ ३८ २८३ २८२ १६७ ३०७ व ३७० परिशिष्ट ३ / ८२५ Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द रुहिरवण्णणाम रुक्ख फास रूव रूवारुवी रोग लदा लद्धि " द्विसंवेग संपदा लव लहुअणाम लहुवफास लाहालाह लाहंतराइय लक्ख (ल्हुक्ख ) णाम ल्हुक्खदा लेणकम्म " लेस्सा लेस्सापरिणाम लोइयवाद लोग लोगणाली लोगुत्तरीयवाद लोभकसाई लोय (लौकिक ) लोह लोह पच्चय लोह (भ) संजलण लंतय सूत्रांक पुस्तक १, ६ १,३७ व ५, ५ ६:१३ ५,३, २४ १३ १,२,४२ व ५, ५, १४ ( गाथा ) ३:१३ ५, ६, ३४ (गाथा) १४ ५,५,६३ व ७२ १३ ५,६,१४१ २,१,१५ व १७, ३१ आदि २,६,६६ ३,४१ ५,५,५६ १, ६ १,४० व ५, ५, ११३ ५, ३,२४ ल ५,५,६३ व ७२ १, ६ १,४६ व १३७ १, ६ १,४० व ११३ ५, ६,३२-३३ व ३५ ४, १,५२ तथा ५, ३, १०; व ५, ४, १२ एवं ५, ५, १०; ५, ६, ६ १, १, ४ व ४, १,४५ ४, १,४५ ५, ५,५० वइजयंत ८२६ / षट्खण्डागम-परिशीलन १,२,४ ५, ५, १३ ( गाथा ) ५,५,५० १,१,१११ व ११३ ४,१,६७ ५, ६,४१ ४,२,८,८ १,६ - १,२३ व ५, ५, ६५ ५, ५, १२ ( गाथा ) १,१,१०० १४ ७ 13 ८ १३ ६,१३ १३ "3 ६:१३ "" १४ ६:१३ १४ १९६ ε १३ ३ १३ " १ E १४ १२ ६:१३ १३ १ पृष्ठ ७४ ३७० २४ २४५;३१६ ३१ ३३२;३४१ ४६४-६५ ६१,६८,७२ आदि ३५६ ७६ २६८ ७५;३७० २४ ३३२,३४१ ७८३८६ ७५;३७० ३०:३२ २४८ तथा ६,४१, व २०१ ५ १३२,१३४ १३४ २५० ३२ ३१८ २८० ३४८; ३५२ ३२० ३८ २८३ ४१,३६० ३१६ ३३६ Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक पृष्ठ वक्कमणकाल १४ ४७४-७५ ३५० वग्ग वग्गणा ४४२-४३ ४८,५०-५१, ४३०,४३२ ५,६,५८८-६० १,२,६१ ४,२,४,१८०-८१ ५,६,६८ व ६९-७०, ५०२,५०६ १,२,१७ ५,५,३० १,१,५२-५३ १,१,४७ ५,४,१६ ४,१,३६ ३४ २८६-८७ २७८ ४४ वग्गमूल वग्गुरा वचिजोग वचिजोगी वचिपओअकम्म वचिबली वज्जणारायणसरीर संघडणणाम वज्जरिसहवइरणारायण सरीरसंघडणणाम वड्ढमाणय वद्ध(ड्ढ)माणबुद्धरिसि वणप्फइ(दि)काइय १,६-१,३६ व ५,५,१०६६ १३ ७३,३६६ ४,१,४४ १,१,३६ व ४१ तथा २,१,२६ व ५,६,५६०,५६६ ७;१४ २,१,२७ ५,६,६४१ ४,१,६५ व ५,६,७६५ ६१४ ४,१,४५ व ५,५,१ (गाथा) १३ ५,५,४८ वणप्फइकाइयणाम वणप्फदि वण्ण वत्थ वत्थुआवरणीय वत्थुसमासावरणीय वराडम २६२ १०३ २६४,२६८ ७२,४६३,४६४, ७२ ४६४-६५ २७२,५५६ १३४,२६० २६१ १४ . ९१३ २४८६,४१२०१ ४,१,५२ तथा ५,३,१० व ५,४,१२ एवं ५,५,१० ३ वल्लरि(छेदणा) वल्ली ववसाय ववहार वाइम वाउकाइय वाउकाइयणाम ५,६,५१४ (गाथा) ५.६,६४१ ५,५,३६ ४,१,४८ व ४,२,२,२ ४,१,६५ २,१,२४ २,१,२५ ४३५ ४६६-६५ २४३ २४०१० २७२ ६१० परिशिष्ट ३ / ९२७ Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सूत्रांक पुस्तक पृष्ठ ४६३ ३३५ २६२,२०३,३६० १४ ७:२७-२८ २५१,२६८,२०३; ७ व २७-२८ ४५० ४८६४६२,४६५, ४९६,४९८-५०० ३४० वाउक्काइय ५,६,५५६ वाणवेंतर १,१,६६ वामणसरीरसंठाणणाम १,६-१,३४ व ५,५,१०७ ६:१३ वायणा ४,१,५५ तथा ५,५,१३ व १३६ ५,६,१२ व २५ वायणोवगद ४,१,५४ व ६२ तथा ५,५,१२ व १३६ ५,६,१२ व २५ वासि ४,१,७२ वासुदेवत्त १,६-६,२१६ व २२०, २२६,३३३,२४०,२४३ विउलमदि ४,१,११ विउलमदिमणपज्जवणाणा वरणीय ५,५,७० विउव्वणपत्त ४,१,१५ विउन्विद ५,६,४२५ विक्खंभसूची(ई) १,२,१७ व ५६ विगलिंदिय १,६-२,७५ व १,६-८,६ विग्गहकंद(ड)य ४,२,५,११ व ४,२,१५,१४ ११:१२ विग्गहगदिकंदय ४,२,१४,४५ विग्गहगइ १,१,६० व १७७ विजय १,१,१०० विज्जु ५,६,३७ विट्ठोसहिपत्त ४,१,३३ विणयसंपण्णदा ३,४१ विण्णाणी ५,५,३६ विद्दावण ५,५,२२ विभासा १,६-८,२ विभंगणाणी १,१,११५ विमाण १,१,९८ व ५,६,६४१ विमाणपत्थड ५,६,६४१ १४ विरद ४,२,७,७ (गाथा) १२ विलेवण ४,१,६५ विवागपच्चइयजीवभावबंध ५,६,२० २. ३ २६. . . . . . . . . . .३२ ४०१ १३१ व २७० १११ व २३८ २० व ५०६ ४६७-१८ २६८ व ४१० ३३६ १२ ३४ २४३ ४६ २०३ ११४ ३५३ ३३७ व ४६४-६५ ४६४-६५ २७२ २२ ८२८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द विस विस्ससापरिणदओगाहणा विस्ससापरिणदखंध विस्ससापरिणदखंध देस विस्सापरिणदखंधपदेस विस्ससापरिणदगदी विस्ससापरिणदगंध विस्ससापरिणदफास बिस्ससापरिणदरस विस्ससापरिणदवण्ण विस्ससापरिणदसद्द विस्ससापरिणदसंजुत्तभाव विस्ससापरिणदसं ठाण विस्ससाबंध विस्ससोवचय विहायगदिणाम विभासा वी (वि) रिपंतराइय वे उव्विय वेव्वियकायजोग वेव्वियमिस्स कायजोग वे उव्वियसरीर वेद 37 वेद सम्माट्ठी वेद सम्मादिट्ठी 13 सूत्रांक ५, ३,३० ५, ६,२२ 39 " "1 17 21 13 27 11 33 31 21 ५, ६,२६ व २८ ५,६,११८, ५२० व ५३१ १, ६ १,२५ व ४३ तथा ५, ५, १०१ व १३३ १, ६-८, २ १, ६- १,४६ उब्वियसरीरणाम वेव्वियसरी रबंधणणाम उब्विय सरीरबंधफास उब्वियसरीरमूलकरणकदी ४, १,६८-६६ वेव्वियसरीरसंघादणाम ५,६,२३८ १, १, ५६ व ५८, ६२ " ५, ६, ४०० व ४०६, ४०८ ४१२,४३१ आदि १, ६ १,३१ व ५, ५, १०४ १, ६ १,३२ व ५, ५, १०५ ५, ३,२८ १, ६-१, ३३ व ५, ५, १०६ १, १,४ व १०१ ४, १,६७ १, १,११४ व १४६ पुस्तक १,७,७४ तथा १, ८, ३४२ १, ८, ७१ व ७४,८७ आदि १३ १४ " 21 31 1) 17 "" 37 "" 71 33 "" "" 29 ६;१३ ६ ६:१३ १४ १ " १४ ६;१३ ६; १३ १३ ह ६,१३ १ ६ १ ५ 71 पृष्ठ ३४ २४-२५ " "" " "1 " 31 "1 "1 "7 "" 17 २८ १३० व ४३८-३६ ५० व ७६ तथा ३६३ व ३८७ २०३ ७८ व ३८६ ३२५ २८६; ३६६;३०५ " ३६०,३६१,३९२, ३६५,४११ आदि ६८ व ३६७ ७० व ३६७ ३० ३२४ व ३२६ ७० व ३६७ १३२ व ३४० ३२१ - ३६५ व ३९७ २३४ तथा ३४२ २७७,२७८, २८१ आदि परिशिष्ट ३ / ८२६ Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द वेदणप्पा पोग्गला वेदणा वेदणाहिभूद वेदणीय वेदणीयवेदणा वेम वेयणसमुग्धाद वेयणा वेयणीयवेयणा बेंतर वोच्छेद वंजणोग्गहावरणीय सकम्म सकसाई सक्क सगड सच्चभासा सच्चमण सच्चमणजोग सच्चमणजोगी समोसभासा सच्चमो समण सच्चमो समणजोग सच्चमोसवचिजोग सच्चवचिजोग सजोगकेवली सणक्कुमार सण्णा सण्णी सत्याण सत्रांक १,६,६८ ४, १,४५ व ४,२,११ १, ६-६,८ १, ६-१, ८ व १७ तथा ५, ५, १६ व ८८ ४, २, ४, ६६ व १०८ ४,१,७२ ४, २, ५, ६ तथा ४,२, १४, ४५ व ४,२, १५, १४ ५, ६,४६५ ४, २, ३, १ तथा ४,२,४,७६ व १०८ ५,५,१० ( गाथा ) ३,४ ५,५,२४ व २६ ८३. / षट्खण्डागम-परिशीलन स ५, ५, १४ ( गाथा ) ४,२,४,७७ व ४,२,६, २३ ५, ५, १२ ( गाथा ) ५,६,४१ ५, ६, ७४४ ५, ६,७५१ १,१,४६ व ५० १,१,५० ५, ६, ७४४ ५, ६, ७५१ १, १,४६ व ५१ १,१, ५२ व ५५ १, १,५२ व ५४ १,१,२१ ५, ५, १२ ५, ५, ६३ व ७२ १,१,४ व ३५ २,७,१, व ६ आदि पुस्तक १४ ६:१० ६ 33 १० ε ११:१२ १४ १० १३ ८ १३ १३ १०:११ १३ १४ "" "1 १ "1 १४ 11 १ " "1 17 १३ १ ७ पृष्ठ ४८ १३४; ५३३ ४२२ १०:३४;२०६; ३५६ ३१६:३२६ ४५० १८,४६७-६८; ५०६ ४२८-२६ १३;३१६;३२६ ३१४ ५ २१६;२२१ ३१६ ३१३,१३६ ३१६ ३८ ५५० ५५१-५२ २५०; २८२ २८२ ५५० ५५१-५२ २५० व २८५ २८५ व २८६ २८६ व २८८ १६० ३१६ ३३२ व ३४१ १३२ व ३५८ ३६७ व ३७० आदि Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रांक पुस्तक ४,२,१३,२ व ३,४,५ सत्याणवेयणसण्णियास सदि सद्द(णय) ३७५-७६ २४४ ४,१,५० व ५६ तथा २४५२६६११ ३२१ ३२४ २६२ ६७१३ सद्दयबंधणा (गंथरचणा) सपज्जवसिद सप्पडिवादी सप्पिसवी समचउरससरीरसंठाणणाम समणिददा समय समयपबदट्ठदा समल्हुक्खदा समास समिलामा समुक्कित्तणदा समुग्धाद L == $urzvXzbszezers १४ ७० व ३६८ ३० ६२१व २६८ ५०१ व ५०४ ५,५,५६ ४,१,३६ १,६.१,३४ व ५,५,१०७ ५,६,३३ ४,१,६७ व ५,५,५६ ४,२,१५,२ व ७ ५,६,३३ ५,५,१ (गाथा) ५,६,६४४ ५,६,२४५-४६ १,१,६० व १७७ २,६,१ व ४,१३ आदि १२ १४ २६० ५०१ ३३१ २६८व ४१० २६९;३०४, ३११ आदि ३८ व ४५ ४०१ व ३१० १८ तथा ४६७-६८ व ५०६ १३ समुदाणकम्म समुद्द समुहद समोद्दियार सम्मत्त १३२ व ३६५ तथा ३८ व २०३ एवं ५,४,४ व १६-२० १,१,१५७ व ५,५,६ (गाथा) १,१३ ४,२,५,६ तथा ४,२,१४, ११,१२ ४५ व ४,२,१५,१४ ५,३,३० १,२,४ व १४४ तथा १,६१२ १,९-१,२१ व १,६.८,१ एवं ४,२,७,७ (गाथा) ४,२,४,७१ १,१,१४४-४५ १,६-१,२१ व १,६-८,७ १,१,११ व १४४,१४६ १,६-८,६ व १,६-६,१७ ५,६,२६२ व १४ ३०६,३१२ आदि २६४ सम्मत्तकंडय सम्माइट्ठी सम्मामिच्छत्त सम्मामिच्छाइट्ठी सम्मुच्छिम ----v? ३६५-६६ ३८ व २३४ १६६,३६५,३६६ २३८ व ३१७ ३५७,३६३, ३६५ आदि परिशिष्ट ३/३१ Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सयंभु रमणसमुद्द सराव सरीरअंगोवंग सरीरणाम सरीरपरूवणदा सरीरबंध सरीरबंधणणाम सरीरविस्सा सुवचयपरूवणदा सरीरसंघडणणाम सरीरसंघादणाम सरीरसंठाणणाम सलागा सव्वसिद्धि सव्व फास सव्वविसुद्ध सव्वसिद्धायदण सव्वोसहिपत्त सव्वोहि सहस्सार सागरोवम सागराओगट्टाण सागारुवजोग साडिया साण सादद्धा सादबंध सूत्रांक ४, २, ५, ८ तथा ४, २, १४, ४५ व ४,२, १५, १४ ५, ५, १८ १, ६ १,२८ व ३५ तथा ५, ५, १०१ व १०८ १, ६ १,२८ व ३१ तथा ५, ५, १०१ व १०४ __५, ६,२३६ व ५१२ ५,६,४४ व ६० १, ६ १,२८ व ३२ तथा ५, ५, १०१ व १०५ ५,६,५०२ १, ६ १,२८ व ३६ तथा ५, ५, १०१ व १०६ १,६१,२८ व ३३ तथा ५,५,१०१ व १०६ १६- १,२ व ३४ तथा ५, ५, १०७ व १०७ ४,१,७२ १,१,१०० ५, ५, ४ व २१-२२ १, ६-८, ४ ४,१,४३ ४, १,३४ ५,५,५६ ५, ५, १२ ( गाथा ) १, ५, १५ व ५, ५, ५६ ४, २, ६, २०५ ४, २, ६, ८ व ४, २, ७ ५, ६, ४२ ५,५,३७ ४,२,४,४५ ४,२, ६, १६६-६७ सादमसाद सादावेदीय ८३२ / षट्खण्डागम-परिशीलन ४,१,४५ १, ६ १,१८ व ५,५,८८ पुस्तक ११,१२ १३ ६; १३ "" १४ 17 ६;१३ १४ ६:१३ "" ६ १ १३ ६ ह " १३ "" ४; १३ ११ ११:१२ १४ १३ १० ११ & ६,१३ पृष्ठ १५ तथा ४६७-६८ व ५०६ २०४-५ ५० व ७२ तथा ३६३ व ३६६ ५० व ६८ तथा ३६३ व ३६७ ३२१ व ४३४ ४१ व ४४ ५० व ७० तथा ३६३ व ३६७ ४३० ५० व ७३ तथा ३६३ व ३६६ ५० व ७० तथा ३६३ व ३६७ ५० व ७० तथा ३६३ व ३६८ ४५० ३३६ ३ व २१ २०६ १०२ ६७ २६२ ३१६ ३४७ व २६८ ३३३ ८८ व १३ ३६ २४२ २४३ ३११-१२ १३४ ३५ व ३५६ Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लह सादियविस्ससाबंध सादियसपज्जवसिद सादिय सरीरसंठाणणाम साधारणसरीर साधारणसरीरणाम सामाइयसुद्धिसंजद सामित्त सावय सास सम्माइट्ठी साहारण साहा रणजीव साहू साहूणं पासु अपरिचागदा साहूणं वेज्जावच्चजोगजुत्तदा साहूणं समाहिसंधारणा सिद्ध "" सिद्धगदी सिदिवच्छ सिविया सीदणाम सीदफास सीलव्य सुणिरदिचारदा सुक्क सुक्कलेस्सिय सुत्त सुत्तसम 13 सुअण्णाणी सुदणाण सुदणाणावरणीय सूत्रांक पुस्तक ५, ६,२८ तथा २८-२६ व ३२ १४ १,५,३ व २,२, १३५-३६ ४;७ ६;१३ १, ६ १,३४ व ५,५,१०७ १,१,४१ १ १, ६ १,२८ व ५, ५, १०१ व १३३ १,१,१२३ व १२५ २, १, १ व ३ तथा ४, २, ४, १ ४,२,७,७ ( गाथा ) १,१,१० व १४४, १४८ ५,६,१२१-२२ ५,६,५८२ १,१,१ व ३, ४ ३,४ " 31 व ५-६ १, १, १ व २३ तथा २,१,२४ ५,६,१८ व ५०७ १, १,२४ ५, ५,५८ ५,६,४१ १, ६ १,४० व ५, ५, ११३ ५, ३, २४ ३,४१ ५, ५, १२ ( गाथा ) १,१,१३६ ४,१,७२ ४, १, ५४ व ६२ तथा ५, ५, १२ व १३६ ५,६,१२ व २५ १,१,११५ १,१,१२० तथा १६ - ६, २०५ व २०८, २१२ आदि ५, ५, ४३-४४ व ४६ ६६१३ १ ७.१० १२ १ १४ 11 १८ ८ "1 "" १७ १४ १ १३ १४ ६;१३ १३ τη १३ १ € ६,१३ १४ १ १,६ १३ पृष्ठ २८ व ३० ३२४ व १६२ ७० व ३६८ २६८ ५०,३६३;३८७ ३६८,३७४ २५:२८, १८:३०-३१ ७५ १६३;३६५;३६८ २२६ ४६६ ८७६ ७६ "" "" ८,२००,२० १५:४३२ २०१ २६७ ३८ ७५;३७० २४ ७६ ३१६ ३८६ ४५० १५१,२६८२०३ : ३६० ७:२७-२८ ३५३ ३६४,४८४-८५ ४८६,४८८ आदि २४५,२४७,२७६ परिशिष्ट ३ / ८३३ Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदणाणी १,१,११५ ३५३ २८० सुदवाद सुद्ध ३४५ सुद्धणqसयवेद १,१,१०५-६ सुद्धतिरिक्ख (तिरिक्खा सुद्धा) १,१,२६ सुद्धमणुस्स १,१,३२ सुभगणाम १,९-१,२८ व ५,५,१०१ सुभिक्ख ५,५,६३ व ७२ सुर ५,५,१४० सुरहिगंध १,६-१,३८ व ५,५,११० ६;१३ सुवण्ण ५,५,१४० १३ सुवुट्टि ५,५,६३ व ७२ सुस्सरणाम १,६-१,२८ व५,५,१०१ । ६:१३ सुह ५,५,६३ व ७२ सुहणाम १,६.१,२८ व ५,५,१०१ ६;१३ सुहुम १,१,३४ सुहमणाम १,६-१,२८ व ५,५,१०१ ६;१३ सुहमणिगोदजीव ५,५,३ (गाथा) सुहमणिगोदवग्मणा ५,६,६५ व ६६,५५४,६३०, १४ ६३७-३८ आदि सुहुमसांपराइयपविट्ठसुद्धि संजद १,१,६८ व १२३,१२६ सेढि(सेडि) १,२,१ व ४,२,७,८ (गाथा) ३;१२ सेलकम्म ४,१,५२ तथ ५,३,१०६ १३ व ५,४,१२ एवं ५,५,१० सोग १,६-१,२४ व ५,५,१६ सोत्थिय ५,५,५८ सोदिदियअत्थोग्गहावरणीय ५,५,२८ सोदिदियआवायावरणीय ५,५,३२ सोदिदियईहावरणीय ५,५,३० सोदिदियधारणावरणीय ५,५,३४ सोदिदियवंजणोग्गहावरणीय ५,५,२६ सोधम्मकप्प १,१,६६ सोलसवदियदंडय ५,६,२८७ संकम ४,१,४५ २२७ २३१ ५०,३६३ ३३२,३४१ ३६१ ७४३७० ३६१ ३३२,३४१ ५०,३६३ ३३२,३४१ ५०;३६३ २४६ ५०,३६३ ३०१ ११३,११६,४६१, ४८४,४६३ आदि १३ १८७,३६८,३७६ १३१,७८ २४८ तथा ६,४१ व २०१ ४५,३६१ २९७ २२७ २३२ २३०-३१ २३३ २२१ ३३५ ३५२ १३४ ८३४ | षट्खण्डागम-परिशीलन Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रांक पुस्तक संकिलिट्ठदर संकिलेस संकिलेसपरिणाम संकिलेसविसोहिट्ठाण ४,२,६,१७० व १७३-७४ ४,२,६,८ ४,२,४,१३ व २०,२७ ४,२,८,५१-६४ ३१४ व ३१५ ८८ ४६,५१ व ५६ २०५,२१० व २२१-२४ २६७ ८४४०२,४०४ १५५ ४४३ ३८० संख संखेज्ज संखेजगणपरिवड्ढी संखेज्जगुणहाणी संखेज्जगुणहीन संखेज्जभागपरिवड्ढी संखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहीण संखेज्जवासाउअ १५४ ५,५,५८ १,२,८ व १२०,१२३ ४,२,७,२०६ ५,६,५२७ ४,२,१३,१४ ४,२,७,२०७ ५,६,५२७ ४,२,१३,१४ १,६-६,६१ व ६६,१५७ आदि ६ ४,२,६,८ ४,१,४८ तथा ५७ व ६१० ४,२,२,२ तथा ४,२,३,२ ४,१,६६ ४,१,६६ व ७० ५,५,१ (गाथा) ५,५,४८ ११ संग्रह(णय) ४४३ ३८० ४५२ व ४५३,४७२ ८८ २४० तथा २६५ व १० तथा १५ ३२६ ३२६,३२८ २६० २६१ ३ संघादणकदी संघादण-परिसादणकदी संघादय संघादसमासावरणीय संघादावरणीय संघादिम संजद संजदासंजद संजम १,१.५६ व १२३ तथा १, ६-२,३ व ६ एवं १३ आदि १,१,१३ व १२३ तथा , १,६-२,३ व ६ एवं आदि १,१,४ व १२३ तथा १,६-६ ,, २१२ व २१६, २२० आदि ४,२,४,७१ १,६-६,२०५ व २०८,२१६, ६ २२० आदि २७२ २६७,३६८,८०, ८१ एवं ८५ आदि १७३,३६८,८०, ८१ एवं ८५ आदि १३२,३६८,४८८, ४८६,४६२ आदि २६४ ४८४-८५,४८६, ४८८,४८६, ४९२ आदि २६४ २४८ संजमकंडय संजमासंजम संजमासंजमकंडय संजोगावरण ४,२,४,७१ ५,५,४६ (गाथा) परिशिष्ट ३ / ८३५ Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द संज्झा संतकम्म संद संभिण्णसोदा संवच्छर संसि सबंध सांतरणिरंतर दव्ववग्गणा सांत रसमय हदसमुप्पत्तिय हस्स हायमाण इंडस र संठाणणाम दुवाद शब्द काष्ठकर्म गृहकर्म चित्रकर्म सूत्रांक ५, ६,३७ १, ६ १,२१ तथा ४,२,७, ७ व ५, ५, ६३ ५, ६,४१ ४, १, ६ ५, ५,५६ ५, ६,४० व ४३ ५,६,८६-६० ५, ६,५८८ व ५६१, ५६४-६५,६०० आदि ह ४,२,४,७० व १०१ १, ६ १,२४ व ५, ५, ६६ ५,५,५६ १, ६- १,३४ व ५, ५, १०७ ५,५,५० " 17 दन्तकर्म पोत्तकर्म ८३६ / षट्खण्डागम-परिशीलन 33 "" पुस्तक कुछ विशिष्ट शब्द ( ष० ख० मूल) शब्द १४ ६, १२:१३ भित्तिकर्म १४ ε १३ १४ १४ "" ܐ ६:१३ १३ ६; १३ १३ शिल्पक्रिया से सम्बन्धित ( पु० ६, पृ० २४८, पु० १३, पृ० ६, ४१ व २०१; ५० १४, पृ० ५ ) सूत्रांक सूत्रांक ४, २, ५२, ५, ३, १०; ५, ४, १२५, ५, १०, ५, ६, ६ पृष्ठ भेंडकर्म लयन (लेपण) कर्म लेप्यकर्म शैलकर्म ३४ ३८ तथा १३;३५८ ३८ ६१ २६८ ३७,४१ ६४-६५ ४७४,४७५, ४७६ व ४७७ २६२,३१८ ४५; ३६१ २६२ १००:३६८ २८० ४,२,५२,५,३,१० ५,४,१२,५,४,१०,५,६,६ "" " 13 33 Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पु. ६, पृ० २७२) सूत्रांक शब्द शब्द सूत्रांक ४,१,६५ पूरिम अहोदिम उग्वेल्लिम ओम्वेल्लिम गंथिम वर्ण वाइम विलेपन चूर्ण वेदिम णिक्खोदिम संघादिम असि शस्त्रआदि (पु. ६, पृ० ४५०) ४,१,७२ वासि परशु ४,१,७२ कुदारी ५,६,३७ आकाश व विशा से सम्बन्धित अवस्थाविशेष (पु० १४, पृ० ३४) अभ्र ५,६,३७ धूमकेतु इन्द्रधनुष मेघ विद्युत् कनक (अशनि) सन्ध्या दिशादाह उल्का गड्डी काष्ठ, लोहे आदि से निर्मित सवारी के योग्य उपकरणविशेष (पु० १४, ३८) ५,६,४१ गिल्ली सगड जाण सिविया जुग संदण आगम विकल्प (पु० ६, पृ० २५१ व २६८; पु० १३, पृ० २०३; पु० १४, पृ० ७ व २७) सर्थसम ४,१,५४ व ६२,५,५,१२; परिजित ४,१,५४ व ६२;५,५,१२ ५,६,१२ व २५ ५,६,१२ व ५२ ग्रन्थसम वाचनोपगत घोषसम सूत्रसम जित स्थित नामसम परिशिष्ट ३/३७ Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्र्या ५,५,५० अनुत्तर अवितथ अविहत आत्मा गतिषु मार्गणता तत्त्व नयवाद नयविधि नयविधिविशेष न्याय्य परम्परालब्धि परवाद भुतज्ञान के पर्यायशब (पु० १३, पृ० २८०) ५,५,५० प्रवचनी प्रवचनीय प्रवरवाद प्रावचन भविष्यत् भव्य भंगविधि भंगविधिविशेष भूत मार्ग मार्गवाद यथानुपूर्व यथानुमार्ग लोकोत्तरीयवाद लौकिकवाद वेद पूर्व पूर्वातिपूर्व पृच्छाविधि पृच्छाविधिविशेष प्रवचन प्रवचनसन्निकर्ष प्रवचनाद्धा प्रवचनार्थ श्रुतवाद सम्यग्दष्टि हेतुवाद ५३८ / बसण्डागम-परिशीलन Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ ज्ञानावरणादि के बन्धक प्रत्यय (पु० १२, पृ० २७५-६३) नेगम, व्यवहार और संग्रह नय को विवक्षा से१. प्राणातिपात ४,२,८,२ १५. निदान ४,२,८,९ २. मृषावाद ४,२,८,३ १६. अभ्याख्यान ४,२,८,१० ३. अदत्तादान ४,२,८,४ १७. कलह ४. मथुन ४,२,८,५ १८. पैशून्य ५. परिग्रह ४,२,८,६ १६. रति ६. रात्रिभोजन ४,२,८,७ २०. अरति ७. क्रोध ४,२,४,८ २१. निकृति ८. मान २२. मान (प्रस्थादि) ६. माया २३. माय (मेय-गेहूँ आदि) १०. लोभ २४. मोष (स्तेय) ११. राग २५. मिथ्याज्ञान १२. द्वेष २६. मिथ्यादर्शन १३. मोह २७. प्रयोग १४. प्रेम (मन-वचन-काययोग) , धवलाकार ने तत्त्वार्थसूत्रप्ररूपित (८-१) पांच बन्ध हेतुओं में से उपर्युक्त १-६ प्रत्ययों का अविरति में, ७-२४ प्रत्ययों का कषाय में, २५-२६ का मिथ्यात्व में और (२७) का योग में अन्तर्भाव प्रगट क्रिया है। शंका-समाधान में उन्होंने उपर्युक्त प्रत्ययों से भिन्न प्रमाद का अभाव निर्दिष्ट किया है । -धवला पु० १२, पृ० २८६ (सूत्र१०) ऋजुसत्रनय की विपक्षा में प्रकृति और प्रदेशाग्न वेदना को योगनिमित्तक (सूत्र ४,२, ८,१२) और स्थिति व अनुभाग वेदना को कषायनिमित्तक (सूत्र ४,२,८,१३) निर्दिष्ट किया गया है। शब्दनय की अपेक्षा पदों में समास के सम्भव न होने से ज्ञानावरणादि वेदना को अवक्तव्य कहा गया है (सूत्र ४,२,८,१५) । Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ धवलान्तर्गत ऐतिहासिक नाम शब्द पुस्तक पष्ठ १वह ६६ व १३० १०४ व २०२ १०८ व २०३ १०७ व २०३ १०३ व १२६ १०४ ५७७ व ५७४ २३२ तथा ५१८ व ५७८ ६४ व ६५ तथा २०३ ४४-४५ १०८ व २०३ १२ व १६ १वह १० १ वह अपराजित अभय अयस्थूण अश्वलायन अष्टपुत्र आनन्द (नन्द) आर्यनन्दी आर्यमंक्षु इन्द्रभूति उच्चारणाचार्य उलूक ऋषिदास एलाचार्य एलापुत्र ऐतिकायन ऐन्द्रदत्त औपमन्यव कण्ण कपिल कंसाचार्य काणविद्धि काणेविद्धि कार्तिक १२६ १०८ १०८ व २०३ १ व8 ६६ व १३१ २०३ १०७ २०२ Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द पुस्तक १०४ २०१ १०३ १०८ व २०३ १०७ व २०३ ६६ व १३१ १०८ व २०३ कार्तिकेय किष्कविल किष्किविल कथमि १६ कौत्कल कौशिक क्षत्रिय गंगदेव गार्ग्य गद्धपिच्छाचार्य गुणधर भट्टारक गोवर्धन १६ गौतम (गात्रोय, देव, स्वामी) १ गौतम (भट्टारक, स्वामी) चिलातपुत्र १वह जतुकर्ण जम्बूस्वामी, भट्टारक जय जयपाल १६ जयाचार्य जिनपालित जैमिनि धन्य त्रिशला धरसेनाचार्य, भट्टारक, भगवान् १ धरसेन भट्टारक, धरसेनाचार्य धर्मसेन १ व धृतिषण ध्र वर्षण नक्षत्राचार्य नन्द नन्दन नन्दि-आचार्य नन्दिमित्र नमि ३३२ ६६ व १३० ६४,६५,६६ व ७२ १२,५३ व १०३ १०४ व २०२ १०८ व २०३ ६५,६६ व १३० १३१ ६६ व १३० १ ६० व ७१ १०८ व २०३ १०४ व २०२ १२१ ६,६७,६८,७० १३३,१०३ ६६ व १३१ १०४ व २०२ १३० ६६ १०३ व २०१ परिशिष्ट ५ / ८४१ Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द पुस्तक पृष्ठ १५ व १६ ३२७ व ५१८,५२२ १वह १०८ व २०३ ४५७ नाग नागहस्ती क्षमाश्रमण नागाचार्य नारायण निक्षेपाचार्य पाण्डुस्वामी, पाण्डु पारासर पालम्ब पिप्पलाद पुष्पदन्त १वह ६६ व १३१ १०८ व २०३ १०३ व २०१ २०३ ७,८,७१,७२,१३०,१६२,२२६ १३३ १६५,१६७ १०८ पूज्यपाद भट्टारक, पप्पलाद (पोट्टिल) प्रभाचन्द्र भट्टारक प्रोष्ठिल बल्कलि बादरायण बुद्धिल्ल १६ १व ६६ व १३१ २०३ १०८ व २०३ ६६ व १३१ ७,७१,७२,२२६ १०३,१३३,२४३ २०,४४,२४२,२७४ भूतबलि : : : : १व १३४,५४१,५६४ १०३ व २०१ १०७ व २०३ ५७७ ५७७,५७६ १ वह मतंग मरीचि, मरीचिकुमार महावाचक महावाचक क्षमाश्रण महावीर माठर माध्यंदिन मांद्धपिक, मांथपिक मुण्ड मोद मौद्गलायन ६१,६४ व १२० १०८ व २०३ १०७ व २०३ १०८ व २०३ ८४२ / पट्खण्डागम-परिशीलन Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाम्ब पृष्ठ यतिवृषभ १व६ ३०२ व २३३ २३२ १०३ व २०१ ६६ व १३१ यमलीक १६ यशोबाहु १०३ व २०१ १०७ व २०३ २०३ १०८ यशोभद्र रामपुत्र रोमश रोमहर्षणि रोमहर्षणी लोहार्य, लोहार्य आचार्य लोहार्य आचार्य, लोहार्य भट्टारक ६ वर्धमान, वर्धमान भट्टारक, वर्धमान तीर्थकर वर्धमान बुर्षि (मूल) वलीक १६ वल्कल वशिष्ठ १३० ६४,७२,१०३ १०३ १०३ व २०१ १०८ १०८ व २०३ वसु १०४ व २०२ १०८ व २०३ ६६ व १३१ वादलि वारिषेण वाल्मीकि विजयाचार्य, विजय विशाखाचार्य विष्णु, विष्णु आचार्य वृषभसेन व्याख्यानाचार्य व्याघ्रभूति व्यास शक नरेन्द्र शाकल्य शालिभद्र शिवामाता सत्यदत्त समन्तभद्र स्वामी सात्यमुनि ६६ व १३० ३,८३ ११६ व १०१ १०८ व २०३ ५ व १४ १वह १व ६ १३२,१३३ १०८ व २०३ १०४ व २०२ १व ७व १वह ulu १०८ व २०३ १६ व १६७ १७८ व २०३ परिशिष्ट ५ /८४३ Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द पुस्तक १व सिद्धार्थदेव,सिदार्थ सिद्धार्थ नरेन्द्र सुदर्शन पृष्ठ ६६ व १३१ १२१ १०३ व २०१ १०४ व २०२ ६६ व १३१ १६ सुनक्षत्र सुभद्र, सुभद्राचार्य सूत्राचार्य स्विष्टिकृत् स्वेष्टकृत् सोमिल हरिश्मश्रु हारिल २०३ १०८ १०३ व २०१ १०७ व २०३ १६ ४४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-६ भौगोलिक शब्द पुस्तक पृष्ठ ५८ २४३ ७७ ६७ ४ ७१ ३६८ ६,१०२ १२४ ६२ ८८ अकर्मभूमि (सूत्र) अढाई द्वीपसमुद्र (सूत्र) अन्ध्र आन्ध्रविषय (अंधविसय) अंकुलेश्वर उत्तरकुरू (सूत्र) ऊर्जयन्त ऋजुकला नदी ऋषिगिरि औदीच्य कर्मभूमि (सूत्र) कर्मभूमिप्रतिभाग (सूत्र) कुण्डलपुर नगर गंगा गिरिनगर गौड चन्द्रगुफा चम्पा, चम्पानगर छिन्न (पर्वत) जम्बूद्वीप (गाथा सूत्र) जं भिका ग्राम दक्षिणापथ दाक्षिणात्य देवकुरु (सूत्र) द्रमिल देश १२१ ६२ १६ ६७ व १३३ ७७ ६७ व १३३ ६,१०२ १६ ६२ ३०७ १२४ ६७ ७८ ३६८ ७१,७७ Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द पुस्तक १६ ६१ व ११३ ६२ ६,१०२ W पंचशैलपुर पांडुगिरि पावानगर भरत (गाथासूत्र) मनुष्य लोक (गाथासूत्र) महिमा माथुर मानुषोत्तर शैल (सूत्र) रुचक (गाथासूत्र) लोकनाली (गाथासूत्र) वनवास विषय वालभ विपुलगिरि वेण्यातट वैभार सौराष्ट्र स्वयम्भुरमण समुद्र ................ ३ ३४३ ३०७ ७८ ६१,६२ ६७ ६२ ६७ ११ व १२ १५ व ४६७,५०६ ८४६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - ७ षट्खण्डागम सूत्र व धवला टीका के सोलहों भागों को सम्मिलित पारिभाषिक शब्द सूची [सूचना -तिरछी रेखा ( / ) से पहले का अंक भाग का तथा बाद के अंक उसी भाग पृष्ठों के सूचक हैं ।] अ अकरणोपशामना अकर्मभाव कर्मभूमि अकषाय अकषायत्व अकषायी अकायिक अकृतयुग्मजगप्रतर अकृत्रिम अक्ष अक्षपकानुपशामक अक्षपरावर्त अक्षपाद अक्षयराशि अक्षर अक्षरगता अक्षरज्ञान अक्षरवृद्धि अक्षरश्रुत अक्षरश्रुतज्ञान अक्षरसमास अक्षरसमासश्रुतज्ञान अक्षरसमासावरणीय अक्षरसंयोग १५ / २७५ ४ / ३२७ ११ / ८६ १/३५१ ५/२२३ ७ / ८३ १ / ३६६ ४ / १८५ ४/११,४७६ अगुणप्रतिपन्न १३/६,१०,४१,१४/६ अगुणोपशामना अक्षरावरणीय अक्षित्र अक्षिप्र अवग्रह अक्षि प्रत्यय अक्षीण महानस अक्षीणावास ४/३३६ १३/२४७,२६०, २६२ १३/२२१ १३ / २६४ अक्षेम अक्षोहिणी अगति ६/६२ ७/६; ८/८ १६/१७४,२८८ १६ / २७५ ७/५ अगुरुलघु ६/५८; ८ / १०; १३/३६३, ३६४ ७ / ३६ अगूहीत ग्रहणद्धा १३ / २८८ अग्निकायिक _४/३२७,३२ε १२/२०८ १४ / ३६७ १० / ११६ १०/११३,१४२ १४ / ३६७ १४/५६,६०,६२,६३, अग्र अग्रस्थिति अग्र स्थितिप्राप्त अग्रस्थितिविशेष ६/२२ अग्रहणद्रव्यवर्गणा ६/२२ १३ / २६५ ६ / २३; १२ / ४७६ १३ / २६५ १३ / २६१ १३ / २४७, २४८ अग्रायणीपूर्व अग्रायणीय अग्र्य अघातायुष्क अघाति १३ / २६७ ६/१५२ ६/२० १३ / २३७ ६/१०१ ६/१०२ _१३/२३२,२३६,२४१ ૪૬ ६ / १३४, २१२ १ / ११५ १३ / २८०,२८८ 2/52 १६/१७१,३७४ Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अघातिकर्म ७/६२ अतिस्थापनावली ६/२५०,३०६; १०/२८१, अघोरगुणब्रह्मचारी ६/६४ ३२०,१२/८५ अचक्षुदर्शन १/३८२; ६/३३; ७/१०१, अतीतकाल विशेषित क्षेत्र ४/१४५ १०३, १३/३५५; १६/६ अतीतपर्याप्ति १/४१७ अचक्षुदर्शनस्थिति ५/१३७,१३८ अतीतप्रस्थ ३/२६ अचक्षुदर्शनावरणीय ६/३१,३३ अतीतप्राण १/४१६ अचक्षुदर्शनी ७/६८; ८/३१८; १३/३५४ अतीतावागत वर्तमानकाल अचित्तकाल १०/७६ विशिष्ट क्षेत्र ४/१४८ अचित्तगुणयोग १/४३३ अतीन्द्रिय ४/१५८ अचित्ततद्व्यतिरिक्तद्रव्यान्तर ५/३ अत्यन्ताभाव ६/४२६ अचित्तद्रव्यभाव १२/२ अत्यन्तायोग व्यवच्छेद ११/३१८ अचित्तद्रव्यवेदना १०/७ अत्यासना १०/४२ अचित्तद्रव्यस्पर्शन ४/१४३ अदत्तादान १२/२८१ अचित्तनोकर्मद्रव्यबन्धक ७/४ अद्धा ४/३१८ अचित्त प्रक्रम १६/१५ अद्धाकाल ११/७७ अचित्त मङ्गल १/२८ अद्धाक्षय १६/७० अच्युत १३/३१८ अद्धानिषेकस्थितिप्राप्त १०/११३ अच्युतकल्प ४/१६५,१७०,२०८,२३६, अद्धावास १०/५०,५५ २६२, १३/३१८ अद्वैत ६/१७० अजीव १३/८,४०,२०० अध्यात्म विद्या १३/३६ अजीवद्रव्य ३/२ अधस्तन राशि ५/२४६,३६२ अजीवभावसम्बन्ध १४/२२,२३,२५ अधस्तनविकल्प ३/५२,७४,४/१८५ अज्ञान १/३६३,३६४; ४/४७६; अधस्तन विरलन ३/१६५,१७६ १४/१२ अध्वान ८/८,३१ अज्ञान मिथ्यात्व ८/२० अधर्म द्रव्य ३/३; १३/४३; १६/३३ अज्ञानिक दृष्टि ६/२०३ अधर्मास्तिद्रव्य १०/४३६ अणिमा ६/७५ अधर्मास्तिकायानुभाव १३/३४६ अणुव्रत ४/३७८ अधिकार ७/२ अतिचार ८/८२ अधिकार गोपुच्छा १०/३४८,३५७,३६६ अतिदेश १०/२२८ अधिकार स्थिति १०/३४८ अतिप्रसंग ४/२३,२०८,५/२०६,२०६% अधिगम ३/३६ ६/६०; ७/६६,७५,७६; ६/६, अधिराज १/५७ ५६,६३; १२/१४२ अधोलोक ४/६,२५६ अतिवृष्टि __१३/३३२,३३६,३४१ अधोलोक प्रमाण ४/३२,४१,५० अतिस्थापना ६/२२५,२२६,२२८; १०/५३, अधोलोक क्षेत्रफल ४/१६ ११०; १६/३४७,३७५ अध:कर्म १३/३८,४६,४७ ८४८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध:प्रमत्त गुणश्रेणि अधःप्रवृत्त १६ / २६७ ७/१२ अधःप्रवृत्तकरण ४/३३५,३५७; ६/२१७, २२२,२४८,२५२; १० / २८०,२८८ अधःप्रवृत्तकरण विशुद्धि अधःप्रवृत्त भागहार अधःप्रवृत्त विशोधि अधःप्रवृत्त संक्रम अध: स्थितिगलन अध्यात्म विद्या अध्वान अध्रुव अध्रुव अवग्रह अध्र व प्रत्यय अनक्षरगता अनंगश्रुत अनध्यवसाय अध्यात्म विद्या अननुगामी अनन्त अनन्तकाल अनन्तगुण अनन्तगुणविहीन अनन्तगुणवृद्धि अनन्त जीवित अनन्त ज्ञान अनन्त प्रदेशिक अनन्तबल अनन्त भागवृद्धि अनन्तव्यपदेश अनन्तर अनन्तर क्षेत्र अनन्तरक्षेत्र स्पर्श ६ / २१४ अनन्तानुबन्धि विसंयोजना १६/४४८ ६ / १२६, १३०,२८६; १६/४०६ ६/१७०:१३/८०१६/२८३ ६ / ३३६ अनन्तानुबन्धी १३/३६ ८/८, ३१ ८/८; १३ / २३६ १ / ३५७; ६ / २१ ६/१५४ १३/२२१ ६/१८८ ७ / ८६ १३ / ३६ ६/४६६; १३/२६२, २६४ _३ / ११, १२, १५; ४ / ३३८ ४/३२८ ३/२२,२६ ३/२१,२२,६१ अनन्तानन्त अनन्तानुबन्ध अनन्तानुबन्धि विसंयोजन ६ / २२, १६६; १०/३५१ १६/२७४ अनन्तरबन्ध १२ / ३७० अनन्तरोपनिधा ६ / ३७०, ३७१,३८६,३६८ १० / ११५, ३५२; १२ / २१४; १४/४६ अनन्तावधि अनन्तावधि जिन अनन्तिम भाग अनर्पित अनवस्था अनवस्थान अनवस्थाप्य अनवस्थाप्रसंग अनवस्थित अनवस्थित भागहार अनस्तिकाय अनाकारोपयोग ४/३६३, ३६८ ४/४५; ८/६ ४ / ३२०; ६ / ३४,५७,६४, १४४, १६४,३०३; ७/६६; ६ / २६१; १०/६,४३,२२८,४०३; १२/२५७ ७/६० १३/६२ ४/१६३ अनागत (काल) अनागतप्रस्थ अनागमद्रव्य नारक अनात्मभावभूत अनात्मस्वरूप ६/८ ३/३ ६/११८ अनादि ६ / २२, १६६; १० / ३५१ अनादि अपर्यवसितबन्ध ४/४७८ अनादिक १३/६ अनादिक नामप्रकृति १३/७ अनादिकशरीरबन्ध १३/३,७,१६ अनादिक सिद्धान्तपद ६ / २८६; १६ / २७६ ४/३३६; ६/४१ ८ /६; १३/३६० ६/५१,५२ ६/५१ ३/६१,६२ ३/१८,१६ ६/४२ ७ /१४; १०/२८८ अनादि पारिणामिक अनादि मिध्यादृष्टि अनादि वादरसाम्परायिक १३/२६२,२६४ १० / १४८ ६/१६८ ४ / ३६१; ६ / २०७; १३/२०७ ३/२६ ३/२६ ७/३० ५/१८५ ५/२२५ ४/४३६ ७/५ 5/5 १६/४०४ १४ /४६ ६/१३८ ५/२२५ ४ / ३३५; ६/२३१ ७/५ परिशिष्ट ७ / ८४ Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनादि सत्कर्मनामकर्म १६/३७३ अनुत्तर विमानवासी अनादि सत्कमिक नामप्रकृति १६/३६६ अनुत्तरोपपादिकदशा १/१०३ अनादि सत्कर्मिक प्रकृति १६/४४१ अनुत्तरोपादिकदशांग ९/२०२ अनादि सपर्यवसित बन्ध ___७/५ अनुत्पादानुच्छेद ८/६; १२/४४८,४६४ अनादि सिद्धान्तपद १/७६ अनुदयोपशम ५/२०७ अनादेय ६/६५; ८/९ अनुदिशविमान ४/८१,१३६,२४०,३८६ अनादेय नाम १३/३६३,३६६ अनुदीर्णोपशामना १६/२७५ अनावजितक १६/१८६ अनुपयुक्त १३/२०४ अनावृष्टि १३/३३२,३३६ अनुपयोग १३/२०४ अनाहार १/१५३; ७/७,११३ अनुपशान्त १६/२७६ अनाहारक ४/४८७; ८/३६१ अनुप्रेक्षण १४/8 अनिकाचित १६/५७६ अनुप्रेक्षणा ६/२६३, १३/२०३ अनिधत्त १६/५७६ अनुभाग ७/६३; १२/११; २३/२४३,२४६ अनिन्द्रिय १/२६४; ७/६८,६६ अनुभागकाण्डक ६/२२२; १२/३२ अनिवृत्ति १/१८४ अनुभागकाण्डकघात ६/२०६ अनिवृत्तिकरण ४/३३५,३५७; ६/२२१, अनुभागकाण्डकोत्कीरणद्धा ६/२२८ २२२,२२६,२४८,२५२; ८/४; अनुभागघात ६/२३०,२३४ १०/२८० अनुभागदीर्घ १६/५०६ अनिवृत्तिकरण उपशामक ७/५ अनुभागबन्ध ६/१६८,२००, ८/२ अनिवृत्तिकरण क्षपक ७/५ अनुभागबन्धस्थान १२/२०४ अनिवृत्तिकरण विशुद्धि ६/२१४ अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान ६/२०० अनिवृत्ति क्षपक १२/२०४ अनिवृत्तिबादरसाम्पराय १/१८४ अनुभागमोक्ष १६/३३८ अनिःसरणात्मक १४/३२८ अनुभाग विपरिणामना १६/२८२ अनिःसृत ६/१५२ अनुभागवृद्धि ६/२१३ अनि:सत अवग्रह ६/२० अनुभागवेदक ६/२१३ अनिःसृत प्रत्यय १३/२३७ अनुभागसत्कर्म १६/५२८ अनुकम्पा ७/७ अनुभागसत्कर्मिक ६/२०६ अनुकृष्टि ४/३५५; ६/२१६; अनुभागसत्त्वस्थान १२/११२ ११/३४६ अनुभागसंक्रम १२/२३२; १६/३७५ अनुक्त अवग्रह ६/२० अनुभागह्नस्व १६/५११ अनूक्त प्रत्यय ६/१५४ अनुमान ६/१५१ अनुगम ३/८; ४/६,३२२; ६/१४२,१६२ अनुमानित गति १६/५३७ अनुगामी ६/४६६; १३/२६२,२६४ अनुयोग ६/२४; १२/४८० अनुग्रहण १४/२२८ अनुयोगद्वार १३/२,२३६,२६६ १४/४३६ अनुयोगद्वार श्रुतज्ञान १३/२६६ अनुत्तर १३/२८०,२८३,३१६ अनुयोगद्वार समास । १३/२७० अनुत्तर विमान ४/२३६,३८६ अनुयोगद्वार समासावरणीय १३/२६१ ८५० / षट्खण्डागम-परिशीलन अनुच्छेद Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/२६५ अनुयोगद्वारावरणीय १३/२६१ अन्योन्यगुणकारशलाका ३/३३४ अनुयोगसमास ६/२४; १२/४८० अन्योन्याभ्यस्त १४/५६,१६६,२०२ अनुलोमप्रदेशविन्यास १०/४४ अन्योन्याभ्यस्तराशि १०/७६,१२१ अनुसमयापवर्तना १२/३२ अन्योन्याभ्यास ३/२०,११५,१६६ अनुसमयापवर्तनाघात १२/३१ अन्वय ७/१५; १०/१० अनुसारी ६/५७,६० अन्वयमुख ६/६५; १२/६८ अनुसंचिताद्धा ४/३७६ अपकर्षण ४/३३२, ६/१४८,१७१, अनुजुक १३/३३० १०/५३,३३० अनेक क्षेत्र १३/२६२,२६५ अपकर्षणभागहार ६/२२४,२२७ अनेकस्थानसंस्थित १३/२६६ अपक्रमषट्कनियम ४/१७६ अनेकान्त ६/११५; ८/१४५; ६/१५६; अपक्रमोपक्रमण १६/२५ अपगतवेद १/३४२; ७/८०; ८/२६५, अनेकान्त असात १६/४६८ २६६ अनेकान्त सात १६/४९८ अपगतवेदना ५/२२२ अनेषण १३/५५ अपनयन (राशि) ३/४८; ४/२००; अनैकान्तिक ७/७३ १०/७८ अन्तर ४/३; ६/२३१,२३२,२६०; अपनयनध्र वराशि ४/२०१ ८/६३; १३/६१ १६/३७६ अपनेय अन्तरकरण ६/२३१,३०० ७/८१, ८/५३ अपर्याप्त १/२६७,४४४; अन्तरकाल ४/१७६ ३/३३ १,४/६१; अन्तरकृत प्रथम समय ६/३२५,३५८ ६/६२,४१६; ८/९ अन्तरकृष्टि ६/३६०,३६१ अपराजित अन्तरघात ६/२३४ अपर्याप्त नाम १३/३६३,३६५ अन्तरद्विचरमफालि .६/२६१ अपर्याप्त निर्वृति १६/१८५ अन्तरद्विसमयकृत ६/३३५,४१० अपर्याप्ति १/२५६,२५७ अन्तर प्रथम समयकृत ६/३०३,३०४ अपरिवर्तमान परिणाम १२/२७ अन्तरस्थिति ६/२३२,२३४ अपरोत संसार ४/३३५ अन्तरात्मा १/१२० अपवर्तना ४/३८,४१,४३,४७,१०३, अन्तरानुगम ५/१७; १३/१३२ २१६,३३० अन्तराय ६/१४; ८/१०; १३/२६,२०६, अपवर्तनाघात ४/४६३;७/२२६; ३८६ १०/२३८,३३२; १२/२१ अन्तराय कर्मप्रकृति १३/२०६ अपवर्तनोद्वर्तनकरण ६/३६४ अन्तरिक्ष ६/७२,७४ अपवादसूत्र १०/४० ३/६७,७०, ४/३२४,३८० अपश्चिम ५/४४,७४ ५/83; ७/२६७,२८७,२८६ अपहृत ३/४२ अन्धकाकलेश्या ११/१६ अपायविचया १३/७२ अन्यथानुपपत्ति ५/२२३ अपिण्डप्रकृति १३/३६६ अन्ययोगव्यवच्छेद ११/२४५,३१८ अपूर्वकृष्टि ६/३८५ परिशिष्ट ७/८५१ Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपूर्वकरण १/१८०,१८१,१८४; अप्रशस्तोपशामना ६/२५४; १६/२४६ ४/३३५,३५७; ६/२२०,२२१,२४८, अप्रशस्तोपशामनाकरण ६/२६५,३३६ २५२; ८/४; १०/२८०, अबद्धप्रलाप १/११७ अपूर्वकरण उपशामक ७/५ अबद्धायुष्क ६/२०८ अपूर्वकरणकाल ७/१२ अबंधक ७/८ अपूर्वकरणक्षपक ४/३३६, ७/५ अभव्य १/३६४; ७/२४२; १०/२२; अपूर्वकरणगुणस्थान ४/३५३ १४/१३ अपूर्वकरणविशुद्धि ६/२१४ अभव्य समान भव्य ७/१६२,१७१, अपूर्वस्पर्धक ६/३६५, ४१५; १०/३२२, १७६; १०/२२ ३२५; १३/८५; अभव्यसिद्धिक ७/१०६; ८/३५६ १६/५२०,५७८ अभाग ७/४६५ अपूर्वस्पर्धकशलाका ६/३६८ अभिजित ४'३१८ अपूर्वाद्धा ५/५४ अभिधान ५/१६४ अपोहा १३/२४२ अभिधान निबन्धन १६/२ अप्कायिक १/२७३; ७/७१; ८/१६२ अभिधेय ८/१ अप्रणतिवाक १/११७ अभिन्नदशपूर्वी अप्रतिपात अप्रतिपद्यमान स्थान ६/२७६, अभिनिबोध ६/१५ २७८ अभिमुख अर्थ १३/२०६ अप्रतिपाति १३/२६२,२६५ अभिव्यक्तिजनन ४/३२२ अप्रतिपाती /४१ अभीक्ष्ण अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगअप्रतिहत १४/३२७ युक्तता ८/७६,६१ अप्रत्याख्यान ६/४३; १३/३६० अभेद ४/१४४ अप्रत्याख्यारावरणदण्डक ८/२५१,२७४ अभ्याख्यान १/११६; १२/२८५ अप्रत्याख्यानावरणीय ६/४४ अभ्र १४/३५ अप्रत्यय ८/८ अमूर्त ४/१४४ अप्रदेश १४/५४ - अमूर्तत्त्व ६/४६० अप्रदेशिक ___३/३ अमूर्त द्रव्यभाव १२/२ अप्रदेशिकानन्त ३/१२४ अमृतस्रवी ६/१०१ अप्रदेशिकासंख्यात ३/१५,१६ अयन ४/३१७,३६५; १३/२६८,३००; अप्रधानकाल १४/३६ अप्रमत्त ७/१२ अयश:कीर्ति ८/8 अप्रमत्तसंयत १/१७८; ८/४ अयशःकीति नाम १३/३६३,३६६ अप्रमाद १४/८६ अयोग १/१६२; ७/१८ अप्रवद्यमानोपदेश १०/२६८ अयोगकेवली १/१६२ अप्रबीचार १/३३६ अयोगवाह १३/२४७ अप्रशस्त तैजसशरीर ४/२८; ७/३०० अयोगव्यवच्छेद ११/२४५,३१७ अप्रशस्त विहायोगति ६/७६ अयोगिकेवली ८५२ / षट्खण्डामम-परिशीलन Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ ६/१२७ अयोगी १/२८०; ४/३३६; ७/८,७८; अर्धपुद्गलपरिवर्तन ५/११, ६/३ १०/३२५ अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल ३/२६,२६७ अरति ६/४७; ८/१०, १३/३६१ अर्धमण्डलीक १/५७ अरतिवाक १/११७ अर्धमास १३/३०७ अरहःकर्म १३/३४६,३५० अर्पणासूत्र ८/१६२,१६६,२०० अरहन्तभक्ति ८/७६,८९ अर्पित ४/३६३,३६८; ५/६३; ८/५ अरिहन्त १/४२,४३ अर्यमन ४/३१० अरुण ४/३१६ अर्हत् १/४४ अरूपी १४/३२ अल्प १३/४८ अरूपी अजीव द्रव्य ३/२,३ अल्पतर उदय १६/३२५ अरंजन १३/२०४ अल्पतर उदीरणा १६/५०,१५७,२६० अर्चना ८/६२ अल्पतरकाल १०/२६१,२६२ अचि १३/११५,१४१ अल्पतरसंक्रम १६/३६८ अचिमालिनी १३/१४१ अल्पबहुत्व (अनुयोग) १/१५८ ४/२००५/१६४; १३/२,१४/८ अल्पबहुत्व ३/११४,२०८; ४/२५; अर्थका १०/१६; १३/६१,१७५, अर्थक्रिया ६/१४२ ३८४; १३/३२२ अर्थनय १/८६; ६/१८१ अल्पबहुत्वप्ररूपणा १४/५० अर्थनिबन्धन १६/२ अल्पान्तर ५/११७ अर्थपद ४/१८७; ६/१६६; १०/१८, अलाभ १३/३३२,३३४,३४१ ३७१, १२/३; १३/३६६ अलेश्य १/३६० अर्थपरिणाम ६/४६. अलेश्यिक ७/१०५,१०६ अर्थपर्याय ६/१४२,१७२ अलोक १०/२ अर्थसम ६/२५६,२६१,२६८; अलोकाकाश ४/६,२२ १३/२०३; १४/८ अवक्तव्य उदय १६/३२५ अर्थाधिकार ६/१४० अवक्तव्य उदीरणा १६/५१,१५७ अर्थापत्ति ६/६६,६७, ७/८; ८/२७४; अवक्तव्यकृति ६/२७४ ६/२४३, १२/१७ अवक्तव्यपरिहानि १०/२१२ अर्थावग्रह १/३५४; ६/१६; अवक्रमणकाल १४/४७६ ६/१५६; १३/२२० अवगाहनलक्षण ४/८ अर्थावग्रहावरणीय १३/३१६,२२० अवगाह्यमान ४/२३ अर्धच्छेद १३/२१; १०/८५ अवगाहना ४/२५,३०,४५, ६/१७; अर्धच्छेदशलाका ३/३३५ १३/३०१ अर्धतृतीयक्षेत्र ४/३७,१६६ अवगाहनागुणकार ४/४४,६८ अर्धतृतीयद्वीपसमुद्र ४/२१४ अवगाहनादंडक ११/५६ अर्धनाराचशरीरसंहनन ६/७४ अवगाहनाविकल्प ४/१७६; १३/३७१ अर्धनाराचसंहनन ८/१०:१३/३६६,३७० ३७६,३७७,३८३ परिशिष्ट ७ / ८५३ Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवग्रह अवग्रहजिन अवग्रहावरणीय अवदान अवधि १ / ३५४, ३७६; ६ / १६,१८; ६/१४४; १३/२१६, २४२; १६ / ५ ६/६२ १३/२१६,२१६ १३ / २४२ १ / ३५६; ८ / २६४; १३ / २१०, २६० ४/३८,७६ १२/४० १/६३,३५८; ६/२५,४८४, ४८६,४८८; ६ / १३ ६/२६; १३/२०६, अवधिक्षेत्र अवधिजिन अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरणीय अवधिज्ञानी अवधिदर्शन अवधिदर्शनावरणीय अवधिदर्शनी अवधिलम्भ अवधिविषय अवगमन अवबोध raमौदर्य अवयव अवयवपद अवजित करण २८६ ७ / ८४ ८ / २८६ १ / ३८२; ६/३३; ७ / १०२; १३ / ३५५ ६/३१, ३३; १३/३५४ ७ / १८, १०३ ८ / ३१६ १६/१७६,२३८ अवलम्बना अवस्थित अवस्थिक उदय अवस्थित उदीरणा अवस्थित गुणकार अवस्थित गुणश्रेणी अवस्थित गुणश्रेणी निक्षेप अवस्थित प्रक्षेप अवस्थित भागहार ८५४ / षट्खण्डागम-परिशीलन १५ / ३२५ १५/१,५,१५७ अवस्थित वेदक अवस्थित संक्रम अवस्थितोग्रतप अवसन्नासन्न अवसर्पिणी अवहरणीय अवहार अवहारकाल ६/३१७ १६ / ३६८ ६/८७,८६ ४/२३ ३ / १८ : ४ / ३८६; ६ / ११६ १०/८४ ३ / ४६,४७, ४८; १० / ८४; ३/१६४,१६७; ४/१५७, १८५ ५ / २४६; ६/३६६; १० / ८८ अवहारकालप्रक्षेपशलाका ३ / १६५, १६६,१७१ ३/१६५ ३/४६ 80/55 १०/६६; १२ / १०२ अवहारकालशलाका अवहारविशेष अवहारशलाका अवहारार्थं अवहित अवाड्. अवाण अवाय १३/३१५ १३ / ८६ ४ / ३२२ १३/५६ अविभागप्रतिच्छेदाग्र ६ / १३६ १/७७ अविरति १५ / २५६; १६/५१६, अविरदत्त अविवाग ५१७ १३/२६२ अविसंवाद १३ / २६२,२६४ अविहत अवायजिन अवितथ अविभाग प्रतिच्छेद अवेदककाल १ / ३५४; ६ / १७, १८; ६ / १४४; १३/२१८,२४३ १०/१४१; अव्यक्तमनस अव्ययीभाव समास अव्यवस्थापत्ति ६/४५ ६/२७३ ६/२७३ अग्वोगाढअल्पबहुत्व ६/२०० अशब्दलिंगज अशरीर ३/८७ ७/२४७ १३/२१० १४/२२६ ६/६२ १३ / २८०,२८६ ४/१५; ६/१६६; १२ / ६२; १४/४३१ ६/३६३ ७/६ १४/१२ १४/१० ४/१५८ १३ / २८०,२८६ १० / १४३ १३/३३७, ३४२ ३/७ ६/१०६ ११/१४७, १६३,१७७ १३/२४५ १४ / २३८,२३६ Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध ऋजुसूत्र ९/२४४ असुर १३/३१५,३६१ अशुद्धनय ७/११० असंक्षेपाद्धा ६/१६७,१७० अशुद्धपर्यायार्थिक १३/१६६ असंख्यात ३/१२१, १३/३०४,३०८ अशुभ ८/१०; १४/३२८ असंख्यातगुणवृद्धि ११/३५१ अशुभनाम १३/३६३,३६५ असंख्यातगुणश्रेणी ___६/३,६ अशुभनामकर्म ६/६४ असंख्यातभागवृद्धि ११/३५१ अशुभ प्रकृति १५/१७६ असंख्यातवर्षायुष्क ७/५५७; ८/११६; अश्वकरणद्धा ६/६७४ १०/२३७ अश्वकर्णकरण ६/२६४ असंख्यातासंख्यात ३/१२७ अष्ट महामंगल ६/१०६ असंख्येयगुण ३/२१,६८ अष्टरूपधारा (घनधारा) ३/५७ असंख्येयगुणवृद्धि ६/२२,१६६ अष्टस्थानिक ८/२०५ असंख्येय गुणश्रेणी अष्टम पृथिवी ४/६०,१६४ असंख्येयगुणहीन ३/२१ अष्टांक १२/१३०,१३१ असंख्येयप्रदेशिक ३/२,३८ अष्टांगमहानिमित्त ९/७२ असंख्येयभाग ३/६३,६८ अष्टाविंशतिसत्कमिक असंख्येयभागवृद्धि ६/२२,१६६ मिथ्यादृष्टि ४/३४६,३५६,३६२, असंख्येयराशि ४/३३८ ३६६,३७०,३७५,३७७, असंख्येयवर्षायुष्क ११/८६,६० ४३६,४४३,४६१ असंख्येयाद्धा (असंक्षेपाद्धा) १०/२२६,२३३ असत्यमन १/२८१ असंग्रहिक १३/४ असत्यमोषमनोयोग १/२८१ असंज्ञिस्थिति ५/१७२ असद्भावस्थापनबंध १४/५,६ असंज्ञी ७/७,१११; ८/३८७ असद्भावस्थापना १/२०; १३/१०,४२ असंप्राप्तसपाटिकाशरीरसंहनन ६/७४ असद्भावस्थापनाकाल ४/३१४ असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन ८/१० असद्भावस्थापनान्तर ५/२ असंप्राप्तासृपाटिकासंहनन १३/३६६, असद्भावस्थापनाभाव ५/१८४ ३७० असदभावस्थापनावेदना १०/७ असंयत १/३७३; ७/६५; ८/३१२; असद्भुतप्ररूपणा १०/१३१ १४/११ असद्वचन १२/२७६ असंयतस १/१७१, ४/३५८; असपत्न १३/३४५ ६/४६४,४६७; ८/४ असातबंधक ११/३१२ असंयम ४/४७७; ५/१८८; ७/८,१३; असातसमयप्रबद्ध १२/४८६ ८/२,१६; ६/११७ असातादण्डक ८/२४६,२७४ असंयमप्रत्यय ८/२५ असाताद्धा १०/२४३ असंयमबहुलता ४/२८; १४/३२६ असातावेदनीय ६/३५; १३/३५६,३५७ अस्तिकाय ६/१६८ असाम्परायिक ७/५ अस्तिनास्तिप्रवाद १/११५; ९/२१३ असिद्धता ५/१८८; १४/१३ अस्थिर ६/६३; ८/१० परिशिष्ट ७ / ८५५ Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्पृष्ट काल १३/५ आगमभावप्रकृति १३/३६० अहमिन्द्रत्व ६/४३६ आगमभावबंध ७/५; १४/७,६ अहोदिम ६/२७२ आगमभावभाव ५/१८४; १२/२ अहोरात्र ६/६३ आगमभावलेश्या १६/४८५ आगमभाववर्गणा १४/५२ आ आगमभावस्पर्शन ४/१४४ आगमभावानन्त ३/१२३ आकार १३/२०७ आगमभावान्तर आकाश ४/८,३१६ आगमभावाल्पबहत्व ५/२४२ आकाशगता १/११३; ६/२१० आगमभावासंख्यात ३/१२५ आकाशगामी ६/८०,८४ आगाल ६/२३३,३०८ आकाशचारण ६/८०,८४ आचारगृह १४/२२ आकाश द्रव्य ३/३; १३/४३; १५/३३ आचारांग १/६६; १/१६७ आकाशप्रदेश ४/१७६ आचार्य १/४८,४६; ८/७२,७३ आकाशास्तिकायानुभाग १३/३४६ आज्ञा १३/७०; १४/२२६,३२६ आकाशास्तिद्रव्य १०/४३६ आज्ञाकनिष्ठता ४/२५; १४/३२६ आक्षेपणी १/१७५; ६/२७२ आज्ञावान् १४/२२६ आगति १३/३३८,३४२,३४६ आज्ञाविचय १३/७१ आगम ३/१२,१२३, ६/१५१; १३/७ आतप ६/६० आगमद्रव्यकाल ४/३१४ आतपनाम १३/३६२,३६५ आगमद्रव्यक्षेत्र ४५ आताप ८/६,२०० आगमद्रव्यनारक ७/३० आत्मप्रवाद १/११८; 8/२१६ आगमद्रव्यकृति १३/२०३,२०४ प्रात्मन १३/२८०,२८२,३३६,४४२ आगमद्रव्यबन्ध १४/२८ आत्मा १/१४८ आगमद्रव्यबंधक ७/४ आत्माधीन १३/८८ आगमद्रव्यभाव ५/१८४२१२/२ आदानपद १-७५;६/१३५,१३६ आगमद्रव्यमंगल १/२१ आदि १०/१५०,१६०,४७५ आगमद्रव्यवर्गणा १४/५२ आदि (धन) ३/६१,६३;६४; १०/१६० आगमद्रव्यवेदना १०/७ आदिकर्म १३/३४६,३५० आगमद्रव्यस्पर्शन ३/१४२ आदित्य ४/१५०; १३/११५ आगमद्रव्यानन्त ३/१२ आदिवर्गणा ६/३६६; १६/५३२ आगमद्रव्यान्तर ५/२ आदिस्पर्द्धक १६/३७४,५३८ आगमद्रव्याल्पबहुत्व ५/२४२ आदेश ३/१,१०,४/१०,१४४,३२२; आगमद्रव्यसंख्यात ३/१२३ ५/१,२४३, ८/९३; १४/२३७ आगमभावकाल ४/३१६, ११/७६ आदेश उत्कृष्ट ११-१३ आगमभावक्षेत्र ४/७; ११/२ आदेश जघन्य ११-१२ आगमभावजघन्य ११/१२ आदेशकाल जघन्य ११-१२ आगमभाव नारक ७/३० आदेश निर्देश ४/१४५,३२२ ८५६ / षट्खण्डागम-परिशीलन ३/ Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ all sil tuti आदेश भव ११/५१२ आयत ४/११,१७२ आदेय ६/६५, ८/११ आयतचतुरस्र क्षेत्र आदेयनाम १३/३६३,३६६ आयतचतुरस्रलोक संस्थान ४/१५७ आदोलकरण ६/३६४ आयाम ३/१६६,२००,२४५, ४/१३, आधार ४/८; १४/५०२ १६५,१८१ आधेय ४/८ आयु ६/१२ आनत १३/२१८ आयु आवास १०/५१ आनप्राणपर्याप्ति ७/३४ आयुबंधप्रायोग्यकाल १०/४२२ आनपानपर्याप्ति १/२५५ आयुष्क १३/२६,२०६,३६२ आनुपूर्वी ६/५६; ८/83; 8/१३४; आयुष्कघातक १६/२८८ १३/३७१ आयुष्कर्मप्रकृति १३/२०६ आनुपूर्वी नाम १३/३६३ आरण ४/१६५,१७०,१३६ आनुपूर्वी नामकर्म ४/३० आरम्भ आनुपूर्वीप्रायोग्य क्षेत्र ४/१६१ आर्यनन्दी १६/५७७,५७८ पाकाप्रायोग्य क्षेत्र ४/१७७ आर्यमंक्ष १२/२३२; १६/५१८,५७८ आनुपूर्वीसंक्रम ६/३०२,३०७, आलापन बंध १४/३७,३८,३६,४० १६/४११ आलोचना १३/६० आप्त ३/११ आवन्ती १३/३३५ आबाधा ४/३२७, ६/१४६,१४७, आजित करण १०/३२५,३२८, १४८; १०/१६४; ११/६२, १५/२५६% १६/५१६,५७७ २०२,२६७ आवलिका ३/६५,६७,४/४३ आबाधा काण्डक ६/१४८,१४६; आवलिप्रथक्त्व १३/३०६ ११/६२,२६६ आवली ४/३१७,३५०,३६१% ५/७; आबाधास्थान ११/१६२,२७१ ६/२३३, ३०८; १३/२६८,३०४ आभिनिबोधिक १३/२०६,२१० आवश्यक ८/८४ आभिनिबोधिकज्ञान १/६३,२५६; आवश्यक परिहीनता ८/८६,९३ ६/१६,४८४,४८६,४८८ आवारक ६/६ आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय ६/१५,२१; आवास ४/७५१४/८६ १३/२०६,२१६,२४१,२४४ आवासक १५/३०३ आभिनिबोधिकज्ञानी ७/८४; ८/२८६; आवृतकरण उपशामक ६/३०३ १४/२० आवृतकरण संक्रामक ६/३५८ आभ्यन्तर तप ८/८६ आब्रियमान आभ्यन्तर निवृत्ति १/१३२ आशीविष ६/८५,८६ आमाँषधि प्राप्त १/९५ आशंकासूत्र १०/३२ आमुण्डा १३/२४३ आसादन 3/२४ आम्लनाम १३/३७० आसादना १०/४३ आम्लनामकर्म ६/७५ आस्तिक्य परिशिष्ट ७/८५७ Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्रव ७/६ इच्छा (राशि) ३/१८७,१६०,१६१ माहार १/१५२,२६२; ७/७,११२; इच्छाराशि ४/५७,७१,१६६,३४१ १४/२२६,३३६ इतरेतराश्रय ६/११५ आहारआहारशरीरबंध १४/४३ इन्द्र ४/३१६ आहारकार्मणशरीरबंध १४/४३ इन्द्रक ४/१७४,२३४ आहारतजसकार्मणशरीरबंध १४/४४ इन्द्रायुध १४/३५ आहारतजसशरीरबंध १४/४३ इन्द्रिय १/१३६,१३७,२३२, आहारद्रव्यवर्गणा १४/५४६,५४७, २६०, ७/६,६१ ५४६,५५१,५५२ इन्द्रियपर्याप्ति १/२५५१, ४/५२७ आहारपर्याप्ति १/२५४ इन्द्रियादिसंयम ८/२१ आहारमिश्रकाययोग १-२६३,२६४ इषुगति १/२६६ आहारवर्गणा ४/३२ आहारशरीर ६/६९; १४/७८,२२६ ईपिथकर्म १३/३८,४७ आहारशरीरांगोपांग ६/७३ ईर्यापथबंध ७/५ आहारशरीरबंधन ६/७० ईशान ४/२३५; १३/३१६ आहारशरीरसंघात ६/७० ईशित्त्व ६/७६ आहारसमुद्घात ७/३०० ईषत्प्राग्भार ७/३५१ आहारसंज्ञा १/४१४ ईषत्प्राग्भार पृथिवी ४/१६२ आहारक १/२६४; ८/३६०,१४/३२६, ईहा १/३५४; ६/१७; ६/१४४,१४६; ३२७ १३/२१७,२४२ आहारक ऋद्धि ५/२६८ ईहाजिन ६/६२ आहारककाययोग १/१६२ ईहावरणीय १३/२१६,२३१ आहारककाययोगी ८/२२६ आहारककाल ५/१७४ उक्त १३/२३६ आहारकमिश्रकाययोगी ८/२२६ उक्त अवग्रह ६/२० आहारकशरीर ४/४५ उक्तप्रत्यय ६/१५४ आहारकशरीरद्विक 45/8 उक्ता १४/३५ आहारकशरीरनाम १३/३६७ उक्तावग्रह १/३५७ आहारकशरीरबन्धस्पर्श १३/३० उग्रतप ६/८७ आहारकशरीरबन्धननाम १३/३६७ उग्रोग्रतप ६/८७ आहारकशरीरसंघातनाम १३/३८७ उच्चगोत्र ६/७७, ८/११ आहारकशरीरांगोपांग १३/३६६ उच्चारणा १०/४५ आहारकसमुद्घात ४/२८ उच्चारणाचार्य १०/४ आहारतः आत्तपुद्गल १६/५१५ उच्चर्गोत्र १३/३८८,३८६ उच्छेद ५/३ उच्छणी ४/८० इगिनीमरण १/२४ उच्छ्वास ३/६५,६६,६७; ६/६०; ८/१० ८५८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्छ्वासनाम १३/३६३,३६४ उत्सपिणी ३/१८४/३८६%8/११६ उत्कीरणकाल ५/१०; १०/३२१ उत्सेध ४/१३,२०,५७,१८१ उत्कीरणता १६/५२० उत्सेधकृति ४/२१ उत्कीरणादा १०/२६२ उत्सेधकृतिगुणित ४/५१ उत्कृष्ट दाह ११/३३६ उत्सेधगुणकार ४/२१० उस्कृष्ट निक्षेप ६/२२६ उत्सेधयोजन ४/३४ उत्कृष्ट पद १४/३६२ उत्सेधांगुल ४/२४,१६०,१८५; ६/१६ उत्कृष्टपद अल्पबहुत्व १०/३८५ उत्सेधांगुलप्रमाण ४/४० उत्कृष्टपदमीमांसा १४/३६७ उदय ६/२०१,२०२,२१३; ७/८२; उत्कृष्ट स्थिति संक्लेश ११/६१ १५/२८६ उत्कृष्टपद स्वामित्व १०/३१ उदय अनुयोगद्वार उ ६/२३४ उत्कृष्ट सान्तर वक्रमणकाल १४/४७६ उदयगोपुच्छ १५/२५३ उत्कर्षण ६/१६८,१७१; ६/२१३ उदयमार्गणा १६/५१६ १०/५२ उदयस्थान ७/३२ उत्तर १०/१५०,१६०,४७५ उदयस्थितिप्राप्त १०/११४ उत्तर (धन) ३/६१,९३,६४ उदयादिअवस्थितगुणश्रेणी ६/२५६ उत्तरकुरु ४/३६५ उदयादिगुणश्रेणी ६/३१८,३२०% उत्तरनिवत्तंना १०/३१६; १३/८० उत्तरप्रकृति ६/६ उदयादिनिषेक ४/३२७ उत्तरप्रकृतिबंध ८/२ उदयावलिप्रविशमानअनुभाग ६/२५६ उत्तरप्रकृतिविपरिणामना १५/२८३ उदयावलिबाहिर ६/२३३ उत्तरप्रतिपत्ति ३/६४,९९% ५/३२ उदयावलिबाहिर ६/२५६ उत्तर प्रत्यय ८/२० उदयावलिबाहिरसर्वह्रस्वस्थिति ६/२५६ उत्तराध्ययन १/६७ उदयावली ६/२२५,३०८; १०/२८० उत्तराभिमुख केवली ४/५० उदीर्ण .१२/३०३ उत्तरोत्तरतंत्रकर्ता ९/१३० उदीरणा ६/२०१,२०२,२१४,३०२, उत्तान शैय्या ४/३७८,५/४७ ३०३; १५/४३ उत्पत्तिक्षेत्र ४/१७६ उदीरणाउदय १५/३०४ उत्पत्तिक्षेत्र समान क्षेत्रान्तर ४/१७६ उदीरणामार्गणा १६/५१६ उत्पन्नज्ञानदी १३/३४६ उद्योत ६/६०; ८/९,२०० उत्पन्नलय ६/४८४,४८६,४८७,४८८ उद्योतनाम १३/३६३,३६५ उत्पाद ४/३३६; १५/१६ उद्वर्तन ४/३८३ उत्पादपूर्व १/११४; ९/२१२ उत्तितसमान ६/४४६,४५१,४५२, उत्पादस्थान ६/२८३ ४८४,४८५ उत्पादानुच्छेद (परिशिष्ट भाग १) १/२८; उद्वेध ४/१७ ८/५; १२/४५७ उद्वेलनकाण्डक १६/४७८ उत्सर्गसूत्र १०/४० उद्वेलनकाल ४/३४; ७/२३३ ग परिशिष्ट ७ / ८५९ Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्वेलन भागहर उद्वेलन संक्रम उद्वेलना उद्वेलनाकाण्डक उद्वेल्य मानप्रकृति उद्वेल्लिम उपकरण उपक्रम उपक्रमअनुयोगद्वार उपक्रमणकाल उपक्रमणकालगणकार उपघात उपघातनाम उपचार उपदेश उपद्रावण उपधि उपधिवाक् उपनय उपपाद १/२३६ १/७२; ६ / १३४; १५/४१,४२ ६/२३३ ४ /७१, १२६, ५ / २५०, २५१,२५५; १४/४७६ ४/८५ ६/५६; ८ / १० १३/३६३,३६४ ४ / २०४, ३३६, ७ /६७,६८ ५/३२ १३ /४६ १२ / २८५ १/११७ ६/१८२ उपपादकाल उपपादक्षेत्र उपपादक्षेत्र प्रमाण उपपादक्षेत्रायाम उपपादभवनसम्मुखवृत्तक्षेत्र उपपादयोग उपपादराशि उपपादस्पर्शन उपभोगत: आत्तपुद्गल उपभोगान्तराय उपमालोक उपयुक्त उपयोग १६ / ४४८ उपरिम राशि उपरिमवर्ग १६/४१६ उपरिम विकल्प ५ / ३३ ५/१०, १५ १६ / ३५३ ६/२७२,२७३ उपरिमउपरिमग्रैवेयक उपरिम निक्षेप ६६० / षट्खण्डागम-परिशीलन उपरिमविरलन उपरिस्थिति उपलक्षण उपवास उपशम उपशमश्रेणी ४ / २६,१६६,२०५; ७/३००; १३/३४६, ३४७ ४/३२२ ४ / ८५ ४ / १६५ ४/७६ ४/१७२ ४ / ३३२; १० / ४२० ४/३१ ४/१६५ १६/५१५ उपशान्तकाल १५/१४ उपशान्तक्रोध ४ / १८५ १३/३६० उपशान्तदोष उपशान्तमान १/२३६; २/४१३ उपशान्तमाया 8/50 उपशान्तराग ६ / २२६ उपशान्तलोभ उपशमसम्यक्त्व उपशमसम्यक्त्वगुण उपशमसम्यक्त्वगुणश्रेणि उपशमसम्यक्त्वाद्धा उपशमसम्यग्दर्शन उपशमसम्यग्दृष्टि ६/१८४ १३/५५ १/२११; ५/२००,२०२, २०३, २११, २२०; ७ /६, ८१ ४/३५१,४४७; ५ / ११, १५१; ६/२०६, ३०५ ७/५१ ७/१०७ ४/४४ १५/२६७ उपशमक उपशमिकचारित्र उपशमिकसम्यक्त्व ५/२४६,२६२ १३/२१,२२,५२ ३/५४,७७; ४/१८५ _३/१६५,१७ε ६/२२५,२३२ उपशान्त उपशान्तकषाय उपशमिकअविपाकप्रत्ययजीव ४/४४,३३६,३४१, ३४२,३७४,४८३; ५/१५,२५४ ४/३६५ १/१७१७ / १०८ ८/३७२; १० / ३१५ ८/२६५ भावबंध १४ / १४ १४/१५ १४ / १५ १२/३०३; १५/२७६ १/१८८, १८६ ; ७/५, १४; ८/४ १४/१५ ५/१६ _४/३५३ उपशान्तकषायवीतराग छद्मस्थ उपशान्तकषायाद्धा १४/१४ १४ / १४ १४/१४ १४/१४ १४/१४ १४/१४ Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशामक ४/३५२,४४६, ५/१२५, २६०, ६/२३३, ७/५ उपशामकअध्यवसान १६/५७७ ऋजुक १३/३३० उपशामकाद्धा ४/१५६,१६० ऋजुगति ४/२६,२६,८० उपशामनवार १०/२६४ ऋजुमति ४/२८;६/६२ उपशामना १०/४६; १५/२७५ ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानाउपशामनाकरण १०/१४४ वरणीय १३/३२८,३२६,३४० उपसंहार ८/५७; १०/१११, ऋजवलन ४/१८० २४४,३१० ऋजुसूत्र ६/१७२,२४४; १३/६,३६, उपादानकारण ७/६९; ६/११५; ४०,१६६ १०/७ ऋजुसूत्रनय ७/२६ उपादेय ७/६६ ऋण १०/१५२ उपादेयछेदना १४/४३६ ऋतु ४/३१७,३६५; १३/२६८,३०० उपाध्याय १/५० ऋद्धि १३/३४६,३४८; १४/३२५ उपार्धपुद्गलपरिवर्तन ४/३३६; ७/१७१,२११ उपासकाध्ययन १/१०२,६/२०० एक १३/२३६ उभय १३/६० एक-एकमूलप्रकृतिबंध ८/२ उभयसारी ६/६० एकक्षेत्र १३/६,२६२,२६५ उभयान्त ३/१६ एकक्षेत्रस्पर्श १३/३,६,१६ उभयासंख्यात ३/१२५ एकक्षेत्रावगाढ ४/३२७ उराल १४/३२२,३२३ एकत्वविचारअविचार १३/७६ उलुंचन १३/२०४ एकत्ववितर्कअविचारशुक्लध्यान ४/३६१ उश्वास ४/३६१ एकदण्ड उष्णनाम १३/३७० एकनारकावासविष्कम्भ ४/१८० उष्णनामकर्म ६/७५ एकप्रत्यय ६/१५१ उष्णस्पर्श १३/२४ एकप्रादेशिकपुद्गलद्रव्यवर्गणा १४/५४ एकप्रादेशिकवर्गणा १४/१२१,१२२ ऊर्वकपाट १३/३७६ एकबन्धन १४/४६१ कर्वकपाटच्छेदनकनिष्पन्न ४/१७६ एकविध ६/१५२; १३/२३७ ऊवलोक ४/8,२५६ एकविध अवग्रह ६/२० ऊर्वलोकक्षेत्रफल ४/१६ एकविंशतिप्रकृतिउदयस्थान ७/३२ ऊर्ध्वलोकप्रमाण ४/३२,४१,५१ एकस्थान ११/३१३ ऊर्ववृत्त ४/१७२ एकस्थानदण्डक ८/२७४ ऊवंक १२/१३०,१३१ एकस्थानिक ८/२४९ ऊहा १३/२४२ एकस्थानिका १५/१७४; १६.५३६ ४/२२६ परिशिष्ट ७ / ८६१ Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकस्थिति १५/१०१ औदयिक १/१६१७/६,३००; एकानन्त ६/४२८,१२/२७६ एकान्त असात १६/४६८ औदायिकभाव ५/१८५,१६४ एकान्तभवप्रत्ययिक १५/१७३ औदारिक १४/३२३ एकान्तसात १६/४६८ औदारिकऔदारिकशरीरबन्ध १४/४२ एकान्तमिथ्यात्व ८/२० औदारिककाययोग १/२८६,३१६ एकान्तानुवृद्धि ६/२७३,२७४ औदारिककाययोगी ८/२०३ एकान्तानुवृद्धियोग १०/५४,४२० औदारिककार्मणशरीरबन्ध १४/४२ एकावग्रह ६/१६ औदारिकतैजसकार्मणशरीरबंध १४/४३ एकासंख्यात ३/१२५ औदारिकतजशरीरबंध १४/४२ एकेन्द्रिय १/२४८,२६४; ७/६२; ८/९ औदारिकमिश्रकाययोगी १/२६०,३१६ एकेन्द्रियजाति ६/६७ औदारिकमिश्रकाययोग ८/२०५ एकेन्द्रियजातिनाम १३/३६७ औदारिकशरीर ४/२४; ६/६९%3 एकेन्द्रियलब्धि १४/२० ८/१०; १४/७८ एवंभूत १/६०; ७/२६ औदारिकशरीरअंगोपांग एवंभूतनय ६/१८० औदारिकशरीरकायत्व १४/२४२ एषण १३/५५ औदारिक शरीरनाम १३/३६७ औदारिकशरीरबंधन औदारिकशरीरबन्धननाम १३/३६७ ऐन्द्रध्वज ८/६२ औदारिकशरीरबन्धस्पर्श १३/३०,३१ ऐरावत ४/४५ औदारिकशरीरसंघात ६/७० औदारिकशरीरसंघातनाम १३/३६७ औदारिकशरीरस्थान १४/४३२,४३३ ओघ ४/६,१४४,३२२; ५/१,२४३; औदारिकशरीरांगोपांग ८/१०;१३/३६६ १४/२३७ औपचारिकनोकर्म द्रव्यक्षेत्र ४/७ ओघ उत्कृष्ट ११/१३ औपशामिक १/१६१,१७२; ओघजघन्य ११/१२ ७/३०; १३/२७६ ओघनिर्देश ३/१,5 ४/१४५,३२२ औपशमिकभाव ४/१८५,२०४ ओघप्ररूपणा ४/२५६ ओघभव १६/५१२ अंक १३/११५ ओज (राशि) ३/२४६ अंग ६/७२; १३/३३५ १०/१६ अंगमल १४/३६ ओम १०/१६ अंगुल ४/५७:१३/३०४,३७१ ओवेल्लिम ६/२७२,२७३ ___ अंगुलगणना ४/४० अंगुलपृथकत्व १३/३०४ औ अंडर १४/८६ औत्पत्तिकी १/८२ अंशांशिभाव ५/२०८ ओज ८६२ / पट्झण्डागम-परिशीलन Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटक कटुकनाम कटुकनामकर्म कणभक्ष कणय कदलीधात कदलीघातक्रम कथन कन्दक कपाट कपाटगत केवली कपाट पर्याय कपाटसमुद्घात कपिल करण करणकृति करणगाथा करणिगच्छ करणिगत करणिगत राशि करणिशुद्धवर्गमूल करणोपशामना करुणा कर्कशनाम कर्कशनामकर्म कर्कश स्पर्श कर्ण कर्णक्षेत्र कर्णाकार कर्त्ता कर्म कर्मअनन्तर विधान कर्मअनुयोगद्वार क १४/४० १३/३७० ६ / ७५ १३ / २८८ १४ / ३५ ६ / १७०; ७ / १२४; १०/२२८,२३७,२४० १३/३४ ६/२३६; १० / ३२१; १३/८४ ४/४६ ४ / ६० १०/२५० ४/१४४,३२२ १५ / २७५ १३ / ३६१ १३ / ३७० कर्म अल्पबहुत्व कर्म उपक्रम ६ / ७५ १३ / २४ कर्म उपाशमना कर्म-कर्मविधान कर्मकारक कर्मकाल विधान कर्मक्षेत्र उत्कृष्ट कर्मक्षेत्र जघन्य कर्मक्षेत्र विधान कर्मगतिविधान कर्मजा प्रज्ञा कर्मत्व ४/२८,४३६,६/४१३ ६/४६०;१३/२८८ ४/३३५,४/११ ६ / ३३४ ४ / २०३ १०/१५५ कर्मनारक १०/१५२ कर्मनिक्षेप १०/१५२ कर्मनिबन्धन १०/१५१ कर्मनिर्जरा कर्मपरिमाणविधान कर्मपुद्गल कर्मपुद्गल परिवर्तन कर्म प्रकृति कर्मप्रक्रम कर्मप्रत्यय विधान कर्मद्रव्य कर्मद्रव्यक्षेत्र कर्मद्रव्यभाव कर्मद्रव्यविधान कर्मधारय कर्मधारयसमास कर्मनयविभाषणता कर्मनामविधान ४/१४ ४/१५ कर्मप्रवाद ४/७५ कर्मबन्ध कर्मबन्धक १ / ११६; ६/१०७ ४/२३; १३/३७,३२८; कर्मभागाभागविधान कर्मभावविधान १४/४३३ १३/३८ कर्मभूमि ६/२३२ १३/३८ १४/४१,४२ १४/२७५ १३/३८ १३ / २७६ १३/३८ ११ / १३ ११ / १२ १३/३८ १३/३८ ६/८२ ६/१२ ७/८२ ४/६ १२/२ १३/३८ १०/२३६ ३/७ १३/३८ १३/३८ ७/३० १३/३८ १५/३ ७ /१४ १३/३८ _४/३२२,३२५ _४/३२२,३२५ १३/२०४,२०५,३६२ १४ / १५ १३/३८ १/१२१; ६/२२२ ४/४७६,१४/४६ ७/४, ५ १३/३८ १३/३८ ४/१४,१६६; ६/२४५ परिशिष्ट ७ / ८६३ Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिभाग ४/२१४; ११/८९; कषायनाम १३/३७० १४/१११ कषायनामकर्म ६/७५ कर्ममोक्ष १६/३३७ कषायप्रत्यय ८/२१,२५ कर्ममंगल १/२६ कषायवेदनीय १३/३५६,३६० कर्मवर्गणा १४/५२ कषायसमुद्घात ४/२६,१६६; ७/२६६ कर्मवेदना १०/७ कषायोपशामना १०/२६४ कर्मसन्निकर्षविधान १३/२८ काकजघन्य ११/८५ कर्मस्थिति ४/३६०,४०२,४०७; काकलेश्या ११/१६ ७/१४५ काण्डक ४/४३५ कर्मस्थितिअनुयोग १/२३६ काण्डकघात ६/२३५ कर्मस्थितिकाल ४/३२२ काण्डर्जुगति ४/७८,२१६ कर्मस्पर्श १३/३,४,५ कापिष्ठ ४/२३५ कर्मास्रव ४/४७७ कापोतलेश्या १/२८९%७/१०४; ८/३२०, कर्मसंक्रम १६/३३६ ३३२; १६/४८४,४८८,६४१ कर्मानुयोग १३/३७ कामरूपित्व ६/७६ कर्वट ७/६; १३/३३५ काय १/१३८,३०८; ७/६ कर्वटविनाश १३/३३२;३३५,३४१ कायक्लेश १३/५८ कल १३/३४६,३४६ कायप्रयोग १३/४४ कल्प ४/३२०; १२/२०६ कायबली ६/६६ कल्पकाल ३/१३१,३५६ काययोग १/२७६,३०८,४/३६१; कल्पवासिदेव ४/२३८ ७/७८; १०/४३८ कल्पवृक्ष ८/६२ कायस्थितिकाल ४/२३२ कल्प्यव्यवहार १/९८; ६/१६० कायोत्सर्ग ४/५०; १३/८८ कल्प्याकल्प्य १/६८;/१६० कारक ७/८ कल्याणनामधेय १/१२१,६/२२३ कारण ३/४३,७२, ७/२४७ कलश १३/२६७ कार्मण १/२६५; १४/३२२,३२६ कलह १२/२८५ कार्मणकाय १/२६६ कला ६/६३ कार्मणकाययोग १/२६५ कलासवर्ण ६/२७६ कार्मणकाययोगी ८/२३२ कलिओज १०/२३; १४/१४७ कार्मणकार्मणशरीरबन्ध १४/४४१ कलिओजराशि . ३/२४६ कार्मणवर्गणा ४/३३२ कलिंग १३/३३५ कार्मणशरीर ४/२४,१६५; ६/६९; कवल ८/१०; ६/३५; १३/३०; कषाय १/१४१; ४/३६१; ५/२२३; १४/७८,३२८,३२६ ६/४०; ७/७,८; ८/२,१६; कार्मणशरीरबन्धस्पर्श १३/३० १३/३५४ कार्मणशरीरबन्ध कषायउदयस्थान १६/५२७ कार्मणशरीरबन्धननाम १३/३६७ ८६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्मणशरीरसंघात ६/७० कोलकशरीरसंहनन कार्मणशरीरसंघातनाम १३/३६७ कीतिलसंहनन ८/१०; १३/३६६,३७० काल ४/३१८, ३२१, १३/६१,३०८ कुट्टिकार ६/२७६ ३०६; १४/३६; कुडव १३/५६ कालउपक्रम १५/४१ कुडु १४/४० कालगतसमान ६/४ कुण्डलपर्वत ४/१६३ कालगतउत्कृष्ट ११/१३ कुब्जकशरीसंस्थान ६/७१ कालद्रव्य ३/३; १०/४३६; १३/४३; कुब्जकशरीरसंस्थाननाम १३/३६८ १५/३३ कुभाषा १३/२२२ कालद्रव्यानुभाग १३/३४६ कुरु कालनिबन्धन १५/२ कुरुक १३/२२२ कालपरिवर्तन ४/३८५ कुल कालपरिवर्तनकाल ४/३३४ कुलविद्या ६/७७ कालपरिवर्तनवार ४/३३४ कुलशल ४/१६३,२१८ कालप्रभावप्रमाण ३/३६ कूट १३/५,३४; १४/४६५ कालप्रक्रम १५/१६ कूटस्थानादि ७/७३ कालमंगल १/२६ कृत १३/३४६,३५० कालयवमध्य १०/६८; १२/२१२ कृतकृत्य ६/२४७,२६२, १६/३३८ कालयुति १३/३४६ कृतकृत्यकाल ६/२६३,२६४ काललब्धि ६/२५०; 8/१२१ कृतकरणीय ५/१४,१५,१६,६६,१०५, कालवर्गणा १४/५२ १३६,२३३; ७/१८१ कालस्पर्शन ४/१४१ १०/३१५; १५/२५३ कालसंप्रयुक्त १३/३३२ कुतकरणीयवेदकसम्यग्दृष्टि ६/४३८,४४१ कालसंक्रम १६/३३६,३४० कृतयुग्म ४/१८४; ७/२५६; १०/२२; कालसंयोग ६/१३७ १४/१४७ कालसंसार ४/३३३ कृतयुग्मराशि ३/२४६ कालाणु ४/३१५; १३/११ , कृति ४/२३२, ८/२; ९/१३४, कालानुगम ४३/३१३,३२२; १३/१०७ २३२,२३७,२७४,३२६,३५६ कालानुयोग १/१५८ कृतिकर्म १ /६७; ६/६१,८६,१८६ कालोदकसमुद्र ४/१५०,१६४,१६५ कृतिकर्मसूत्र ९/५४ काशी १३/३३५ कृतिवेदनादिक काष्ठकम ९/२४६; १३/६, ४१,२०२ कृष्टि ६/३१३, १०/३२४,३२५; काष्ठपोतलेप्यकर्मादि १३/८५; १६/५२१,५७६ काष्ठा ४/३१७; ६/७५३ कृष्टि अन्तर ६/३७६ किनर १३/३६१ कृष्टिकरणद्धा ६/३७४,३८२ किंपुरुष १३/३६१ कृष्टिवेदकादा ६/३७४,३८४ कीर १३/२२३ कृष्टीकरण ४/३६१ परिशिष्ट ७ / १६५ Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवल कृष्ण ६/२४७ क्रोध १/३५०; ६/४१; १२/२८३ कृष्णनीलकापोततेजपद्मशुक्ललेश्या १४/११ क्रोधकषाय १/३४६% ७/८२ कृष्णलेश्या १/३८८; ७/१०४; ८/३२०; क्रोधकषायाद्धा ४/४४४ १६/४८४,४८८,४६० क्रोधमानमायालोभभाव १४/११ कृष्णवर्णनाम १३/३७० क्रोधसंज्वलन १३/३६० कृष्णवर्णनामकर्म क्रोधाद्धा ४/३६१ कृष्णादिमिथ्यात्वकाल ४/३२४ क्रोधोपशामनाद्धा ५/१६० ८/२६४ केवलकाल ६/१२० केवलज्ञान १/९५,१६१,३५६,३६०, ३८५४/३६१, ६/२६,३३, क्षण ४/३१७, १३/२६५,२६६ ४८६,४६२; १०/३१६; क्षणलवप्रतिबोधनता ८/७६,८५ १३/२१२,२४५; १४/१७ क्षणिकै कान्त ६/२४७ केवलज्ञानावरणीय १३/२०९,२१३ क्षपक ४/३५४,४४७; ५/१०५,१२४, केवलज्ञानी ७/८८; ८/२६६, ६/११८ . २६०; ७/५; ८/२६५; ६/१० केवलदर्शन १/३८१, ४/३६१, ६/३३ क्षपकश्रेणी ४/३३५,४४७; ५/१२, ३४; १०/३१६; १३/३५५; १०६; १०/२६५; १२/३० १४/१७ क्षपकश्रेणीप्रायोग्यविशुद्धि ४/३४७ केवलदर्शनी ७/६८,१०३, ८/३१६; क्षपकदश ५/१५६,१६० ९/११८ क्षपण १/२१६ केवललब्धि ६/११३ क्षपित केवलिसमुद्घात ४/२८, ६/४१२, क्षपितकांशिक ६/२५७; ६/३४२ ७/३०० ३४५; १०/२२,२१६; केवली ६/२४६, ७/५; १०/३१६ १२/११६,३८४,४२६ केशत्व ६/४८६,४९२,४६५,४६६ क्षपितघोलमान १०/३५,२१६; कोटाकोटी ३/२५५; ४/१५२ १२/४२६ कोटि १३/३१५ क्षय ५/१६८,२०२,२११,२२०; कोटी ४/१४ ७/83; ६/८७,६२ कोष्ठबुद्धि 8/५३,५४ क्षयोपशम ७/६२ कोष्ठा १३/२४३ क्षयोपशमलब्धि ६/२०४ क्रमवृद्धि १०/४५२ क्षायिक १/१६१,१७२; ७/३०; क्रमहानि १०/४५२ ६/४२० क्रिया १/१८; १३/८३ क्षायिकचारित्र १४/१६ क्रियाकर्म १३/३८,८८ क्षायिकपरिभोगलन्धि १४/१६ क्रियावाददृष्टि ६/२०३ क्षायिकभोगलब्धि १४/१७ क्रियाविशाल १/१२२; ६/२२४ क्षायिकलब्धि ७/६० ८६६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षायिकलाभलब्धि १४/१७ गच्छ ४/१५३; २०१; १०/५०; क्षायिकविपाकप्रत्ययिकजीव १३/६३ भावबंध १४/१५,१६ गच्छराशि ४/१५४ क्षायिकसम्यक्त्व १/३६५; ७/१०७; गच्छसमीकरण ४/१५३ १४/१६ गड्डी १४/३८ क्षायिकसम्यक्त्वाद्धा ५/२५४ गण क्षायिकसम्यग्दृष्टि १/१७१, ४/३५७; । गणधर ६/३,५८ ६/४३२,४४१ गणनकृति ६/२७४ क्षायिकसंज्ञा ५/२०० गणनानन्त ४/१५,१८ मायोपशमिक १/१६१,१७२; ५/४००, गणनासंख्यात ३/१२४,१२६ २११,२२०; ७/३०,६१ गणित ४/३५,२०६ क्षायोपशमिकभाव ५/१८५,१६८ गणी १४/२२ क्षिप्र ६/१५२ गति ६/५०; ७/६,१३/३३८, क्षिप्रप्रत्यय १३/२३७ ३४२,३४६ क्षीणक्रोध १४/१६ गति आगति ६/३ क्षीणदोष १४/१६ गतिनाम १३/३६३,३६७ क्षीणमाया १४/१६ गतिनिवृत्ति ६/२७६ क्षीणमोह १४/१६ गतिमार्गणता १३/२८०,२८२ क्षीणराग १४/१६ गतिसंयुक्त ८/८ क्षीणलोभ १४/१६ गन्ध ६/५५; ८/१० क्षेत्र १४/३६ गन्धनाम १३/३६३,३६४,३७० क्षेत्रवर्गणा १४/५२ गन्धर्व १३/३६१ १३/३६१ गर्भोपक्रान्त गर्भोपक्रान्तिक ६/४२८; ७/५५५,५५६ खगचर ११/६०,११५; १३/६० गलस्थ १३/६६ खण्ड ७/२४७ गलितशेषगुणश्रेणी ६/२४६,२५३, खण्डित ३/३६,४१ ३४५; १०/२८१ खातफल ४/१२,१८१,१८६ गवेषणा १३/२४२ खेट ७/६; १३/३३५ गव्यू ति १३/३२५ खेटविनाश १३/३३२,३५५,३४१ गव्यूतिप्रथक्त्व १३/३०६,३३८ खेलौषधि ६/६६ गान्धार १३/३३५ गारव गिल्ली १४/३८ १/१७४; ४/२००, ६/१३७; गगन ४/८ १५/१७४ गरुड गण परिशिष्ट ७/८६७ Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणयोग गणकाल ५/८६ गुणोपशामना १५/२७५ गुणकार ४/७६; ५/२४७,२५७, गुरुकनामकर्म ६/७५ २६२,२७४ गुरुनाम १३/३७० गणकारशलाका ४/१६६ गुरुस्पर्श १३/२४ गणका रशलाकासंकलना ४/२०१ गुह्यकाचरित गणगार १४/३२१ गृह १४/३६ गुणधरभट्टारक १२/२३२ गृहकर्म ६/१५०; ३/६,१०,४१, गुणनाम १/१८ २०२; १४/६ गुणपरावृत्ति १४/४०६,४७०,४७१ गृहछली ६/१०७,१०८ गुणप्रतिपन्न १५/१७४ गृहीत ३/५४,५७ गुणप्रत्यय १३/२६०,२६२ गृहीत अगृहीत १३/५१ गुणप्रत्ययअवधि ६/२६ गृहीतकरण १०/४४१ गुणप्रत्यासत्तिकृत १४/१७ गृहीतगुणाकार ३/५४,६१ १०/४३३ गृहीतगृहणाद्धा ४/३२८ गुणश्रेणि ६/२२२,२२४,२२७; गृहीतगृहणाद्धाशलाका ४/३२६ १२/८०; १५/२६६ गृहीतगृहीत ३/५४,५६; १०/२२२ गुणश्रेणिनिक्षेप ६/२२८,२३२ गृहीतगृहीतगणित ७/४६८ गुणश्रेणिनिक्षेपाग्राम ६/२३२ गोत्र ६/१३; १३/२६,२०६ गुणश्रेणिनिर्जरा १०/२६६; १५/२६६ गोत्रकर्म १३/३८८ गुणश्रेणिशीर्ष ६/२३२; १५/२६८,३३३ गोत्रकर्मप्रकृति १३/२०६ गुणश्रेणिशीर्षक १०/२८१,३२० १३/२०५ गुणसंक्रम ६/२२२,२३६,२४६; गोपुच्छद्रव्य ६/२६० १०/२८०; १६/४०६ गोपुच्छविशेष ६/१५३; १०/१२२ गुणस्थानपरिपाटी ____५/१३ गोपुच्छा १०/१०६ गुणस्थितिकाल ४/३२२ गोपुर १४/३९ गुणहानि ६/१५१,१६३,१६५ कगति ४/२६ गुणहानिध्वान १०/७६ गोमूत्रकागति १/३०० गुणाद्धा ५/१५१ गोम्हिक्षेत्र ४/३४ गुणान्तरसंक्रमण ४/३३५ गोवरपीठ १४/४० गणान्तरसंक्रान्ति ५/८६,१५४,१७१ गोड १३/२२२ गणित १/१५ गौणभाव ४/१४५ गुणितकांशिक ६/२५६,१५८; १०/२१, गोण्य ६/१३५,१३६ २१५; १२/११६,३८२,४२६ गौण्यपद १/७४; ६/१३८ १५/२६७ गौतम १०/२३७ गुणितक्षपितघोलमान ६/२५७ गौतम स्थविर १२/२३१ गणितघोलमान १०/३५,२१५; ग्रन्थ १२/४२६ प्रन्थकर्ता ९/१२७,१२८ ८६८ / बट्खण्डागम परिशीलन __ गोधूम Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रह ग्रन्थकृति ६/३२१ घातिसंज्ञा १५/१७११६/३७७,५३६ ग्रन्थसम ६/२६०,२६८; १३/२०३; घोरमान ६/२५७ १४/८ घोरगुण ६/६३ ग्रन्थिम ६/२७२ घोरतप ६/६२ ४/१५१ घोरपराक्रम ९/६३ ग्रहणतः आसपुद्गल १६/५१५ घोलमानजघन्ययोग १६/४३५ ग्रहणप्रायोग्य १४/५४३ घोष १३/२२१,३३६ ग्राम ७/६; १३/३३६ घोषसम ६/२६१,२६६; १३/२०३; ग्रेवेयक ४/२३६; १३३१८ १४/8 ग्लान १३/६३,२२१ घ्राणनिति १/२३५ घ्राणेन्द्रिय ४/३६१; ७/६५ घ्राणेन्द्रियअर्थावग्रह १३/२२८ घ्राणेन्द्रिय अवाय १३/२३२ घट १३/२०४ घ्राणेन्द्रिय ईहा १३/२३२ घटोत्पादानुभाग १३/२४६ घ्राणेन्द्रिय व्यंजनावग्रह १३/२२५ घन १३/२२१ घनपल्य ३/८०,८१ घनफल ४/२० पनरज्ज ४/१४६ चक्रवर्तित्व ६/४८६,४६२,४६५,४६६ घनलोक ४/१८,१८४,२५६, ७/३७२ ६/३३; ७/१०१,१५/१० घनलोक प्रमाण ४/५० चक्षुदर्शनस्थिति। ५/१३७,१३६ घनहस्त १३/३०६ चक्षुदर्शनावरणीय घनांगुल ३/१३२,१३६% ४/१०, चक्षुदर्शनी ७/६८; ८/३१८ ४३,४४,४५,१७८; ५/३१७,३३५ चक्षुरिन्द्रिय १/२६४; ४/३६१, ७/६५ धनांगुलगुणकार ४/३३ चक्षुरिन्द्रय अर्थावग्रह १३/२२७ घनांगुलप्रमाण ४/३३ चक्षुदर्श १/३७९,३८२, १३/३५५ धनांगुलभागहार ४/६८ चक्षुदर्शनावरणीय १३/३५४,३५५ घनाघनधारा ३/५३,५८ चतु:शरीर १४/२३८ घातक्षुद्रभवग्रहण ४/२६२, ७/१२६, चतुःशिरस् १३/८६ १३६; १४/३६२ चतुःपष्ठिपदिकदण्डक १२/४४ घातभुवभवग्रहणमात्र काल ७/१८३ चतुःसामयिकअनुभागस्थान ११/२०२ घातपरिणाम १२/२२०,२२५ चतुःसामयिकयोगस्थान १०/४६४ घातस्थान १२/१३०,२२१,२३१; चतुःस्थानबन्धक ११/३१३ १६/४०७ चतु:स्थानिक १५/१७४ घातायुक ६/८८ चतुःस्थानिकअनुभागबन्धक ६/२१० पातिकर्म ७/६२ चतुःस्थानअनुभागवेदक ६/२१३ परिशिष्ट ७/९६९ Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तु:स्थानिक अनुभागसत्कर्मिक चतुरम बुद्धि चतुरिन्द्रिय चतुरिन्द्रियजाति चतुरिन्द्रियजातिनाम चतुरिन्द्रियलब्धि चतुर्गतिनिगोद चतुर्थ पृथिवी चतुर्थ स्थान चतुर्थस्थान अनुभागबन्ध चतुर्थं समुद्रक्षेत्र चतुर्दशगुणस्थाननिबद्ध चतुर्थ पूर्वधर चतुर्दश पूर्वी चतुर्विंशतिस्तव चतुष्पद चन्द्र चन्द्रप्रज्ञप्ति चन्द्रबिम्बशलाका चयन चयनलब्धि च्यावित च्यावितदेह च्युत तदेह चरमफालि चरमवर्गणा चारण चारित्र चारित्रमोहक्षपणा चारित्र मोहनीय ६/२०१ ६/५८ १/२४४,२४८; ७/६५ ८/६ ६ / ६८ १३/३६७ १४/२० १४ / २३६ ४ / ८६ ११ / ३१३ ११ / ३१३ ४ / १६८ ४/१४८ १५ / २४४ ९/७०; १६/५४१ १ / ६६; ६ / १८८ १३/३६१ ४ / १५०, ३१६ १/१०६, ६/२०६ ४/१५६ १३/३४६, ३४७ १ / १२४; ६/२२७; १३ / २७० १/२२ ६/२६६ १/२२ चारित्र मोहोपशामक चारित्रविनय चार्वाक ८७० / षट्खण्डागम-परिशीलन ६ / ३७, ४०; १३/३५७,३५६ चालनासूत्र चित्रकर्म चित्रा चिन्ता चिरन्तन अनुभाग चुन्द चूर्ण चूर्णाचूर्णि चूर्णि चूर्णसूत्र चूलिका चैतन्य चैत्यवृक्ष छद्मस्थ छद्मस्थकाल छद्मस्थवीतराग ६/२६६ ६ / २६१ ६ / २०१ ६/७८ छेद ६/४० : १५/१२ छेदगुणकार ७ /१४ छेदना छेदभागहार छिन्न छिन्नस्वप्न छिन्नाछिन्न छिन्नायुष्ककाल १०/६ ६ / २४६; १३ / ६,४१,२०२; १४ / ५ ४/२१७ ७ /१४ छेद राशि ८/८०,८१ छेदोपस्थापक १३ / २८८ छवि छह द्रव्य प्रक्षिप्त राशि १३/२४४,३३२,३३३,३४१ ७ / ५७५; ६/२०६; १० / ३६५; ११ / १४०; १४ /४६६ १ / १४५ ६/११० छ १२ / ३६ १४ / ३८ ६/२७३ १२/१६२ १२/१६२ ८/६; १२/२३२ १/१८८, १६०; ७ / ५ ६/१२० १३/४७ छेदोपस्थानपनशुद्धि संयम १४ /४०१ _३/१६,२६, १२६ ६/७२,७३; १२/१६२ ६/७४ १२/१६२ ४/१६३ १३/६१, १४/४०१ ११/१२८ _१४/४३५, ४३६ १०/६६.७२,२१४; ११/१२५; १२ / १०२ १०/१५१ १/३७२ १/३७० Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०/३१ जिन जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति १/११०६/२०६ जम्बूद्वीपशलाका ४/१६६ जगप्रतर ३/१३२,१४२; ४/१८,५२, जयन्त ४/३८६ १५०,१५१,१५५,१६६,१८०, जया ४/३१६ १८४,१६६,२०२,२०६,२३३; जलगता ९/७६ ७/३७२ जलचर ११/६०,११५, १३/३६१ जगश्रेणी ३/१३५,१४२,१७७; ४/१०, जलचारण ६/७६ १८४; ७/३७२ जल्लोषधिप्राप्त ६/६६ जघन्य १३/३०१,३३८ जहत्स्वार्थवृत्ति ६/१६० जघन्यअनन्तानन्त ३/११ जाति १/१७; ३/२५०; ४/१६३; जघन्यउत्कृष्टपद १४/३६२ ६/५१ जघन्यकृष्टिअन्तर ६/३७६ जातिनाम १३/३६३,३६७ जघन्यद्रव्यवेदना १२/६८ जातिविद्या ६/७७ जघन्यपद १४/३६२ जातिस्मरण ३/१५७; ६/४३३ जघन्यपदअल्पबहुत्व १०/१८५ जित ६/२६२,२६८; जघन्यपदमीमांसा १४/३६७ १३/२०३; १४/८ जघन्यपदस्वामित्व ६/२४६; १/२,१० जघन्यपरीतानन्त ३/२१ जिनपूजा १०/१८६ जघन्यपरीतासंख्य १०/८५ जिनवृषभ १३/३७ जघन्य बन्ध ११/३३६ जिहन्द्रिय ४/३६१; ७/६४ जघन्य योगस्थान १०/४६३ जिह्वन्द्रिय अर्थावग्रह १३/२२८ जघन्य वर्गणा ६/१०१ जिह्वन्द्रिय ईहा १३/२३१ जघन्य स्थान १२/६८ जिह्वन्द्रिय व्यंजनावग्रह १३/२२५ जघन्य स्थिति ६/१८०; ११/३५० ज्योतिष्क १३/३१४ जघन्य स्थितिबंध ११/३३६ ज्योतिष्क जीवराशि ४/१५५ जघन्यस्पर्द्धक ६/२१३ ज्योतिष्कसासादनसम्यग्दृष्टिजघन्यावगाहना ४/२२,३३ स्वस्थानक्षेत्र जघन्यावधि १३/३२५.३२७ ज्योतिष्कस्वस्थानक्षेत्र ४/१६० जघन्यावधिक्षेत्र १३/३०३ ज्योतिषी ८/१४६ जनपद १३/३३५ जीव १/११६१३/८,४० जनपदविनाश १३/३३५,३४१ जीवगुणहानि १०/१०६ जनपदसत्य १/११८ जीवगुणहानिस्थानान्तर १०/६८; जन्तु १/१२० १५/३२८ जम्बूद्वीप ३/१; ४/१५०; १३/३०७ जीवत्व १४/१३ जम्बूद्वीपक्षेत्र ४/१६४ जीवद्रव्य ३/२; १३/४३; १५/३३ जम्बूद्वीपच्छदनक ४/१५५ जीवनिबद्ध १५/७,१४ ४/१५० परिशिष्ट ७ / ८७१ Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवपुद्गलबन्ध १३/३४७ ज्ञानोपयोग जीवपुद्गलमोश १३/३४८ ज्ञायकशरीर ७/४,३० जीवपुद्गलयति १३/३४८ जीवप्रदेशसंज्ञा १३/४३६ जीवभाव १४/१३ जीवभाववन्ध १४/8 झल्लरी संस्थान ४/११,२१ जीवमोक्ष १३/३४८ जीवयवमध्य १०/६०; १२/२१२ जीवयुति १३/३४० जीवविपाकित्व ६/३६ टंक १४/४६५ जीवविपाकी ५/२२२; ६/११४; १२/४६; १५/१३ जीवस्थान १/७६; ७/२,३; ८/५; १३/२६६ डहरकाल ५/४२,४४,४७,५६ जीवसमास १/१३१; ४/३१; ६/२; ८/४ जीवसमुदाहार १०/२२१,२२३ जीवानुभाग १३/३४६ तटच्छेद १४/४३६ जीवित १३/३३२,३३३,३४१ तत् १३/२२१ जुग १४/३८ तत्पुरुषसमास ३/७:१०/१४ जुगुप्सा ६/४८; ८/१०; १३/३६१ तत्त्व १३/२८०,२८५ जैमिनी १३/२८८ तत्त्वार्थसूत्र १३/१८७ जंघाचरण ९/७० तद्भवस्थ १४/३३२ तभावसामान्य ४/३; १०/१०,११ तदुभयप्रत्ययित अजीवज्ञातृधर्मकथा ६/२०० भावबन्ध १४/२३,२६,२७ ज्ञान १/३५३,३६३,३८४; ५/७,६, तदुभयप्रत्ययित जीव८४,१४२,१८६; १३/६६; १४/३८ भावबन्ध १४/१०,१८,१९ ज्ञानकार्य ५/२२४ तदुभयवक्तव्यता १/८२ ज्ञानप्रवाह १/१४२,१४३,१४६, १४७, तद्व्यतिरिक्त ७/४ ३६४; ६/२१६ तद्व्यतिरिक्त अल्पबहुत्व ५/२४२ ज्ञानविनय ८/८० तद्व्यतिरिक्तकर्मानन्त ज्ञानावरण ९/१०८ तद्व्यतिरिक्तकर्मासंख्यात ३/१२४ ज्ञानावरणीय ६/६,६; ८/१७; तद्व्यतिरिक्तद्रव्यलेश्या १६/४८४ १३/२६,२५६,२५७ तव्यतिरिक्तवर्गणा १४/५२ ज्ञानावरणीयकर्मप्रकृति १३/२६५ तव्यतिरिक्तद्रव्यानन्त ज्ञानावरणीयवेदना १०/१४ तव्यतिरिक्तद्रव्यासंख्यात ३/१२४ ८७२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तव्यतिरिक्तनोआगमद्रव्य ४/३१५ तियंच ४/२२०; ८/१९२; १४/२३६ तव्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यभाव ५/१८४ तिर्यंचभाव १४/११ तव्यतिरिक्तनोआगमद्रव्य तीर्थ ८/६२; ९/१०६,११६ __ स्पर्शन ४/१४२ तीर्थकरत्व ६/४८६,४६२,४६५,४६६ तदव्यतिरिक्तनोकर्मानन्त ३/१५ तीर्थकर १/५८; ५/१६४,३२३; सव्यतिरिक्तनोकर्मासंख्यात ३/१२४ ६/२४६; ७/५५;८/११,७२,७३, तव्यतिरिक्तस्थान ६/२८३ ६/५७,५८; १०/४३ तन्तुचारण ९/७६ तीर्थकरनाम १३/३६३,३६६ तपोविद्या ९/७७ तीर्थंकरनामकर्म ६/६७ तपःकर्म १३/३८,५४ तीर्थकरनामगोत्रकर्म ८/७६,७८ तपस् १३/५४,६१ तीर्थंकरसन्तर्मिक ८/३३२ तप्ततप 8/६१ तीव्रकषाय १०/४३ तर्क १३/३४६,३४६ तीव्रमन्दभाव ५/१८७ तर्पण १३/२०५ तृतीय पृथिवी ४/८६ तलबाहल्य ४/१३ तृतीय पृथिवी अधस्तनतल ४/२२५ तवली १०/२०,४४,२४२.२७४ तृतीय स्थान ११/३१३ तारा ४/१५१ तृतीय संग्रहकृष्टिअन्तर ६/३७७ ताकिक ६/४६०,४६१ तृतीयाक्ष ७/४५ तालप्रमाण ४/४० तेज ८/२०० तालप्रलम्बसूत्र ६/२३० तेजकायिक ८/१६२ तालवृक्षसंस्थान ४/११,२१ तेजसकायिक ७/७१ तिक्तनाम १३/३७० तेजोलेश्या १/३८६; १६/४८४, तिक्तनामकर्म ६/७५ ४८८,४६१ तिथि ४/३१६ तेजोज १०/२३, १४/१४७ तिर्यक १३/२६२,३२७,३६१ तेजोजमनुष्य राशि ७/२३६ तिर्यक्षेत्र ___४/३६ तेजोजराशि ३/२४६ तिर्यक्लोक ४/३७,१६६,१८३ तेजस १४/३२७ तिर्यक्लोकप्रमाण ४/४१,१५० तैजसकाय १/२७३ तिर्यग्गति १/२०२; ८/९ तैजसकामणशरीरबन्ध १४/४४ तिर्यग्गतिनाम १३/३६७ तैजसद्रव्यवर्गणा १४/६०,५४६ तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी .४/१७६; तैजसशरीर ४/२४; ६/६६; ७/३००; ६/७६; १३/३७१,३७५ ८/१०; १३/३१०; १४/३२८ तिर्यग्प्रतर ४/२११; १३/३७१,३७३ तेजसशरीरनाम १३/३६७ तिर्यग्योनि १३/३२५ तेजसशरीरबन्धस्पर्श १३/३० तिर्यग्स्वस्थानस्वथानक्षेत्र ४/१९४,२०४ तेजसशरीरबन्धन ६/७० तिर्यगायु ६/४६;८/९ तेजसशरीरबन्धननाम १३/३६७ तिर्यगायुष्क १३/३६२ तैजसशरीरलम्ब १३/३२५ परिशिष्ट ७ / ८७३ Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रस तेजसशरीरसमुद्घात ४/२७ तेजसशरीरसंघात तेजसशरीरसंघातनाम १३/३६७ दक्षिण प्रतिपत्ति ३/६४,१८, ५/३२ तोरण ४/१६५; १४/३६ दण्ड ४/३०; ६/२३६; त्यक्त १/२६ १०/३२०; १३/८४ त्यक्तदेह ६/२६९ दण्डक्षेत्र ४/४८ त्वकस्पर्श १३/३,१६ दण्डगत ७/५६ त्वगिन्द्रिय १३/२४ दण्डगतकेवली ४/४८ ६/६१; ८/११ दण्डसमुद्घात ___४/२८; ६/४१२ त्रसकाय १/२७४ दन्तकर्म ९/२५०; १३/६,१०,४१ त्रसकायिक ७/५०२ २०२; १४/६ त्रसनाम १३/३६३,३६५ दर्शन १/१४५,१४६,१४७,१४८,१४६, असपर्याप्तस्थिति ५/८४,८५ ३८३,३८४,३८५; ६/६,३२,३३, त्रसस्थिति ५/६५,८१ ३८; ७/७,१००; १३/२०७,२१६, त्रिकच्छेद ३/७८ ३५८; १५/५,६ त्रिकरण ६/२०४ दर्शनमोहक्षपण ७/१४ त्रि:कृत्वा १३/८६ दर्शनमोहक्षपणानिष्ठापक ६/२४५ त्रिकोटिपरिणाम ९/१६२,२२८,२४७; दर्शनमोहक्षपणाप्रस्थापक ६/२४५ १०/४३५ दर्शनमोहनीय ४/३३५; ६/३७, ३८; त्रिकोण क्षेत्र ४/१३ १०/२६४; १३/३५७,३५८ त्रिखण्ड धरणीश १/५८ दर्शनविनय ८/८० त्रिरत्न ६/११ दर्शनविशुद्धता ८/७६ त्रिशरीर १४/२३८ दर्शनावरण ६/१०८ त्रिशत्क ६/१८६; १०/१२१;१६/५३७ दर्शनावरणकर्म प्रकृति १३/२०६ त्रिसमयाधिकावली ४/३३२ दर्शनावरणीय ६/१०; ८/१०; १३/२६ त्रिस्थानबन्धक ११/३१३ २०८,३५३ त्रिस्थानिक १५/१७४ दर्शनोपयोग ११/३३३ त्रीन्द्रिय १/२४२,२४८,२६४; ७/६५, दलित १२/१६२ ८/९ दलितदलित १२/१६२ त्रीन्द्रियजाति ६/६८ दशपूर्वी ६/६६ त्रीन्द्रियलब्धि १४/२० दशवकालिक १/६७; ६/१६. त्रुटित १२/१६२ दान १३/३८६ श्रुटितात्रुटित १२/१६२ दानान्तराय ६/७८; १३/३८६,१५/१४ राशिक ३/६५,६६,१०/६३,१२० दान्ति ४/२१ राशिकक्रम ४/४८ दारुसमान १६/३७४,५३६ यंश ४/१७८ दारुसमानअनुभाग १२/११७ ८७४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दारुकसमान ७/६३ देव १/२०३; १३/२६१,२६२ दाह ११/३३६ देवकुरु ४/३६५ दाहस्थिति ११/३४१ देवगति १/२०३; ६/६७८६ दिवस ३/६७,४/३१७,३६५; देवगतिनाम १३/२६७ १३/२६८,३०० देवक्षेत्र ४/३६ दिवसपथक्त्व ५/६८,१०३; ६/४२६ देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी ६/७६; १३/३७१, दिवसान्त १३/३०६ ३८२ दिव्यध्वनि ५/१६४; 8/१२० देवता ४/३१६ दिशा ४/२२६ देवपथ ४/८ दिशादाह १४/३५ देवभाव १४/११ दीप्ततप ६/६० देवद्धिदर्शन ६/४३४ दीप्तशिखा १०/२६५; १२/४२८ देवद्धिदर्शननिबन्धन ६/४३३ दीर्घ १३/२४८ देवलोक ६/४६८/६ दीर्घह्रस्वअनुयोगद्वार ६/२३५ देवाय ६/४६; ८/8 दीर्घान्तर ५/११७ देवायुष्क १३/३६२ दुरभिगन्ध ६/७५ देश १३/११ दुरभिगन्धनाम १३/३७७ देशकरणोपशामना १५/२७५ दुर्नय ६/१८३ देशघातक दुर्भग ६/६५; ८/8 देशघाति १५/१७१, १६/३७४,५३६ दुर्भगनाम १३/३६३,३६६ देशघातिस्पर्द्धक ५/१६६; ७/६१ दुभिज्ञ १३/३३२,३३६,३४१ देशघाती ६/२६६% ७/६४; १२/५४ दुर्वृष्टि १३/३३२,३३६,३४१ देश जिन ६/२४६; ६/१० ६/६५; ८/१० देशप्रकृतिविपरिणामना १४/२८३ दुस्वरनाम १३/३६३,३६६ देशप्रत्यासत्तिकृत १४/२७ ६/३५; १३/३३२,३३४,३४१ देशमोक्ष .१६/३३७ १५/६ देशविनाश १३/३३२, ३३५, ३४१ दुःषमकाल ६/१२६ देशविपरिणामना १५/२८३ ६/११६ देशव्रत ५/२७७ दूरापकृष्टि ३/२५१,२५५ देशव्रती ८/२५५,३११ दृश्यमान द्रव्य ६/२६० देशसत्य १/११८ दृष्टमार्ग ५/२२,३८ देश सिद ६/१०२ दष्टांत ४/२२ देशसंयम ५/२०२,७/१४ दृष्टिअमृत ६/८६,६४ देशस्पर्श १३/३,५,१७ दष्टिप्रवाद ९/२०३ देशना .६/२०४ दृष्टिवाद १/१०६ देशामर्शक ४/५७ दृष्टिविष ६/८६,६४ देशावधि ६/२५; ९/१४ देय ३/२० देशावरण दुस्वर दुःषमसुषम परिशिष्ट ७ / ८७५ Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशोन लोक देशोपशम दैत्य दोष द्रव्य द्रव्य उत्कृष्ट द्रव्य उपक्रम १/८३,३८६; ३/२, ५, ६, ४/३३१, ३३७; १३/६१,२०४३२३; १५/३३ ११/१३ १५/४१ द्रव्य उपशामना द्रव्यकर्म द्रव्यकाल द्रव्यकृति द्रव्य क्रोध द्रव्यक्षेत्र द्रव्य छेदना द्रव्य जघन्य द्रव्यार्जन द्रव्यतः आदेश जघन्य द्रव्यत्व द्रव्यनिबन्धन द्रव्यपरिवर्तन द्रव्यप्रकृति द्रव्यप्र क्रम द्रव्यप्रमाण द्रव्यप्रमाणानुगम द्रव्यबन्ध द्रव्यबन्धक द्रव्यभावप्रमाण द्रव्यमन द्रव्यमल द्रव्यमोक्ष द्रव्य मंगल द्रव्ययुति द्रव्यलिंग द्रव्यलिंगी ४ / ५६ ६ / २४१ ४ / १८ १४ /११ द्रव्यलेश्या ८७६ / षट्खण्डागम-परिशीलन १५/२७५ १३ / ३८,४३ ४ / ३१३ ६/२५० द्रव्यान्तर ७/८२ द्रव्यानन्त ४/३ द्रव्यानुयोग द्रव्यार्थता १४ / ४३५ ११/१२,८५ द्रव्यार्थिक ६/६ ११/१२ ४/३३६ १५/२ ४/३२५ १३ / १६८,२०३ १५/१५ ३/१० ३/१,८, १३/६३ १४ / २७ द्रव्यवर्गणा द्रव्यविष्कम्भसूची द्रव्यवेदना द्रव्यश्रुत द्रव्यसूत्र द्रव्यस्पर्श द्रव्यस्पर्शन द्रव्य संक्रम द्रव्यसंयम द्रव्यसंयोग द्रव्यसंयोगपद १३/३४८ ४/२०८ द्रव्यार्थिकनय द्रव्यार्थिक प्ररूपणा द्रव्याल्पबहुत्व द्रव्यासंख्यात द्रव्येन्द्रिय द्वन्द्वसमास द्वादशांग ७/३ द्विगुणश्रेणीशीर्ष ३/३६ द्विगुणहानि १/२५६ द्विगुणादिकरण १ / ३२ १६/३३७ १/२०, ३२ द्विगुसमास द्विचरम समान वृद्धि द्वितीय दण्ड द्वितीयदण्डस्थित द्वितीय पृथिवी ४/४२७,४२८; द्वितीय संग्रहकृष्टिअन्तर ५/५८,६३,१४ε द्वितीय स्थान १६/४४८ द्वितीय स्थिति १४ / ५२ ५/२६३ १०/७ ८/६१ ६/३ १३/६३ १/८३; ४/१४१; ६/१६७, १७० ४/३, १४५, १७०, ३२२, ३३७,४४४; ७/३,१३, ८/३; १३/३,११,३६ ४/१४१ १६/३३६ ६/४६५,४७३, ७/६१ ६/१३७ ६/१३८ ५/३ ३/१३ १/१५८; ३/१ १०/२२,४५०; १६/४८५ ४/२५६ ५/२४१ ३/१२३ १/२३२ .३/७ ६/५६,५८ १५/२६७ ६/१५३ ३ / ७७,८१,११८ ३/७ ६/३४ ७/३१३,३१५ ४/७२ 8/58 ६/३७७ ११ / ११३ ६/२३२,२५३ Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयाक्ष ७/४५ धर्म ४/३१६; ८/९२ द्विपद १३/३६१ धर्मकथा ६/२६३; १३/२०३, १४/8 द्विप्रदेशीय परमाणु पुद्गल धर्मद्रव्य ३/३; १३/४३, १५/३३ द्रव्यवर्गणा १४/५५ धर्मास्तिद्रव्य १०/४३६ विप्रदेशीय वर्गणा १४/१२२ धर्मस्तिकायानुभाग १३/३४६ द्विमात्रा १४/३२ धर्म्यध्यान . १३/७०,७४,७७ द्विरूपधारा ३/५२ धर्म्यध्यानफल १३/८०,८१ द्विसमयाधिकावली ४/३३२ धातकीखण्ड ४/१५०,१६५ द्विस्कन्ध द्विबाहु क्षेत्र ४/१८७,२१८ धान १३/२०५ द्विस्थान दण्डक ८/२७४ धारणा १/३५४; ६/१८,६/१४४; द्विस्थान बन्धक ११/३१३ १३/२१६,२३३,२४३ द्विस्थानिक १५/१७४; १६/५३९ धारणाजिन ६/६२ द्विस्थानिक अनुभागबन्धक ६/२१० धारणावरणीय १३/२१६,२१६,२३३ द्विस्थानिक अनुभागवेदक ६/२१३ धुर्य ४/३२६ द्विस्थानिक अनुभाग सत्कर्मिक ६/२०६ धूमकेतु १४/३५ द्विस्थानी ८/२४५,२७२ ध्यात १३/६६ द्वीन्द्रिय १/२४१,२४८,२६४; ७/६४; ध्यान १३/६४,७४,७६,८६ ८/९१४/३२३ ध्यानसन्तान १३/७६ द्वीन्द्रियकार्मणशरीरबन्ध १४/४३ ध्येय १३/७० द्वीन्द्रियजाति ६/६८ ध्रव ८/८ द्वीन्द्रिय जातिनाम १३/३६७ ध्रवअवग्रह ६/२१ द्वीन्द्रियतैजसकामणशरीरबन्ध १४/४३ ध्र वउदयप्रकृति १५/११६ द्वीन्द्रियतजसशरीरबन्ध १४/४३ ध्र वउदीरक १५/१०८ द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रियशरीरबन्ध १४/४३ ध्रुवउदीरणाप्रकृति १५/१०६ द्वीन्द्रियशरीर १४/७८ ध्र वत्त ४/१४१ १३/३०८ ध्रवप्रत्यय ६/१५४ द्वीपसागरप्रज्ञप्ति १/११०; ६/२,६ ध्रुवबन्ध ८/११७ द्वीपायन १२/२१ ध्र वबन्धप्रकृति ८/१७; १५/१४५,३२८ १२/२८३ ध्रुवबन्धी ६/८६,११८; ४/१७ व्यर्धगुणहानि ६/१५२ ध्र वराशि ३/४१; १०!१६८, १७०,१७३ ध्र वशून्यद्रव्यवर्गणा १४/८३,११२,११६ ध्र वशून्यवर्गणा १४/६ ४/१५६; १०/१५० ध्र वस्कन्धद्रव्यवर्गणा धनुष ४/४५,५७ ध्रु वस्थिति १३/२४३ ध्र वावग्रह १/३५. धरणीतल ४/२३६ ध्र वोदय ६/१०३ द्वीप द्वेष धन धरणी परिशिष्ट ७/८७६ Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्रुवोदयप्रकृति नक्षत्र नगर नगरविनाश नन्दा नन्दावर्त नपुंसक नपुंसकवेद नपुंसक वेदभाव नपुंसक वेदोपशामनाद्धा नमंसन नय नयवाद नयविधि नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नयविभाषणता नयान्तरविधि नरक नरकगति नरकगतिमान नरकपृथिवी नरकप्रस्तर नाग नागहस्ती ८ /६२ १/८३ ३/१८; ७/६०; ६ / १६२, १६६; १३/३८, १६८,२८७ नरकायुष्क नवग्रैवेयक विमान नवविधि १५/१५६, १६२,२३३ न नाथधर्मकथा नानागुणहानिशलाका ४/१५१ ७/६; १३/३३४ १३/३३४ ४ / ३१६ १३/२६७ १/३४१, ३४२; ४/४६ ६/४७; ७/७६; ८ / १०; १३/३६१ १४ / ११ ५/१६० ४/१७५,१६१; १३ / २८०,२८७ १३ / २८०, २८४ १३/२ १३ / २८०,२८४ १३/३२५; १४ /४६५ १ / २०१,३०२, ६/६७ ८ /६ ६/७६; १३/३७१ ८७८ / षट्खण्डागम-परिशीलन १३/३६२ ४/३८५ ६/१०६,११० नानात्व नाना प्रदेश गुणहानिस्थानान्तर शलाका नानाश्रेणि नाम नाम उपक्रम नामउपशामना नामकर्म नामकर्म प्रकृति नामकारक नामकाल नामकृति नामक्षेत्र नामपद नामप्रकृति नामप्रक्रम नामबन्ध नामबन्धक नामभाव नाममोक्ष नाममंगल १३/३६७ नामलेश्या १४ /४६५ नामवर्गणा १४ / ४६५ नामवेदना नाम सत्य नामसम नामछेदना नामजिन नामनिबन्धन नामनिरुक्ति १३/३९१ नामसंक्रम १२/२३२; १५/३२७; नामस्पर्श १६/५१८, ५२२ नामस्पर्शन १/१०१ नामानन्त ६/१५१; १५२, नामान्तर १६३,१६५ नामाल्पबहुत्व ६/३३२,४०७ १०/११६ १४ / १३४ ६/१३; १३/२६, २०६ १५/४१ १५/२७५ १३/३८,४०,२६३ १३ / २०६ ७/२६ ४/३१३ ६/२४६ _४/३ १४ /४३६ ६/६ १५/२ १४/३२१ १/७७, ६/१३६ १३/१९८ १५/१५ १४/४ ७/३ _५/१८३; १२/१ १६ / ३३९ १/१७,१६ १६/४८४ १४/५२ १० / ५ १ / ११७ ६/२६०,२६६; १३/२०३; १४ / ८ १६/३३६ १३/३,८ ४/१४१ ३/११ ५/१ ५/२४१ Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामासंख्यात ३/१२३ निदर्शन ५/६; १५/३२ नामेय १३/३८८ निदान ६/५०१, १२/२८४ नामोपक्रम ९/१३५ निद्रा ६/३१,३२; ८/१०; १३/३५४ नारक ४/५७; १३/२६२,३६१,३६२ निद्रादण्डक ८/२७४ नारकगति १/२०१ निद्रानिद्रा ६/३१; ८/६; १३/३५३,३५४ नारकभाव १४/११ निधत्त ६/४२७; १६/५१६,५७६ नारकायु ६/४८, ८/६ निधत्त अध्यवसान १६/५७७ नारकसर्वावास ४/१७६ निधत्त-अनिधत्त ६/२३५ नारकावास ४/१७७ निधत्तिकरण ६/२६५,३४६ नाराचशरीरसंहनन ६/७४ निन्ह १४/३२७ नाराचसंहनन ८/१० निपुण १४/३२७ नालिका ३/६५ निबन्धन १५/१ नाली ३/६६; ४/३१८ निबन्धन अनुयोगद्वार १/२३३ निःसूचिक्षेत्र ४/१२ निमिष. ४/३१७ निःसृत ६/१५३ निरतगति १/१०१ नि:सृत अवग्रह ६/२० निरतिचारता ८/८२ निःसृत प्रत्यय १३/२३८ निरन्तर ५/५६,२५७; ८/८ निकाचन अध्यवसान १६/५७७ निरन्तरअवक्रमणकालनिःशेष १४/४७८ निकाचना १०/४६ निरन्तर बन्ध ८/१७ निकाचनाकरण ६/२६५,३४६ निरन्तरबन्धप्रकृति ८/१७ निकाचित ६/४२८; १२/३४; निरन्तरवेदककाल १०/१४२,१४३ १६/५१७,५७६ निरन्तरसमयअवक्रमणकाल १४/४७४, निकाचित-अनिकाचित ६/२३५ ४७५ निकृति १२/२८५ निराधार रूप १०/१७१ निकृतिवाक् १/१२७ निरिन्द्रिय १४/४२६ निक्खेदिम ६/२७३ निरुक्ति ३/५१, ७३; ७/२४७ निक्षेप १/१०; ३/१७; ४/२,४१; निरुपक्रमायु ६/८९ ६/२२५,२२७,२२८, ७/३,६०; निरुपक्रमायुष्क १०/२३४, २३८ ६/६, १४०; १३/३,३८,१९८; निर्ग्रन्थ ६/३२३,३२४ १४/५१, १६/३४७ निर्जरा ६/३; १३/३५२ निक्षेपाचार्य १५/४० निर्जराभाव ५/१८७ निगोद जीव ३/३५७; ४/४०६; निर्जरित-अनिर्जरित १३/५४ ७/५०६, ८/१६२ निर्देश ३/१,८,९; ४/६,१४४,३२२; निगोदशरीर ४/४७८; १४/८६ १३/६१ निचितकर्म ४/७६ निर्माण ८/१० नित्यनिगोद १०/२४; १४/२३६ निर्माणनाम १३/३६३,३६६ मित्यकान्त ६/२४७ निर्लेपन १४/५०० परिशिष्ट ७ / ८७९ Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५/२ निलेपनस्थान १०/२६७,२६८; १४/५२७ नोआगमद्रव्यकाल ४/३१४ निर्वर्गणा ६/३८५ नोआगमद्रव्यप्रकृति १३/२०४ निर्वर्गणाकाण्डक ६/२१५,२१६,२१८; नोआगमद्रव्यभाव ५/१८४ ११/३६३ नोआगमद्रव्यबन्ध १४/२८ निर्वाण ५/३५,१०/२६६ नोआगमद्रव्यबन्धक ७/४ निति ६/४६७,७/४३६; १४/३६३ नोआगमद्रव्यवर्गणा १४/५२ निर्वृतिस्थान १४/३५८ नोआगमद्रव्यवेदना १०/७ नित्यक्षर १३/२६५ नोआगमद्रव्यस्पर्शन ४/१४२ निवेदनी १/१०५;8/२०२ नोआगमद्रव्यान्तर निर्लेपन १४/५०० नोआगमद्रव्यानन्त निर्लेपनस्थान १०/२६७,२६८; १४/५२७ नोआगमद्रव्याल्पबहत्व ५/२४२ निषिद्धिका १/१८3; 8/१६१ नोआगमद्रव्यासंख्यात ३/१२३ निषेक ६/१४६,१४७,१५०; ११/२३७ नोआगमभव्यद्रव्यभाव ५/१८४ निषेकक्षुद्रभवग्रहण १४/३६२ नोआगमभाव उपशामना १५/२७५ निषेकगुणहानिस्थानान्तर १६/३२८ नोआगमभावकाल ४/३१६; ११/७७ निषेकप्ररूपणा १४/३२१ नोआगमभावक्षेत्र ४/७; ११/२ निषेक भागहार ६/१५३ नोआगमभावजघन्य ११/१३ निषेकरचना १०/४३ नोआगमभावनारक ७/३० निषेकस्थिति ६/१६६,१६७ नोआगमभावप्रकृति १३/३६०,३६१ निषेकस्थितिप्राप्त १०/११३ नोआगमभावबन्ध १४/8 निस्सरणात्मक तेजसशरीर ४/२७ नोआगमभावबन्धक ७/५ नीचगोत्र ६/७७, ८/8 नोआगमभावभाव ५/१८४ नीचर्गोत्र १३/३८८,३८६ नोआगमभावलेश्या १६/४८५ नीललेश्या १/३८६, ७/१०४; ८/३२०, नोआगमभाववर्गणा १४/५२ ३३१; १६/४८४,४८८,४६० नोआगमभावस्पर्शन ४/१४४ नीलवर्ण ६/७४ नोआगमभावान्तर ५/३ नीलवर्णनाम १३/३७० नोआगमभावानन्त ३/१६ नैऋत ४/३१८ नोआगमभावाल्पबहत्व ५/२४२ नेगम ७/२८% B8/१७१,१८१, १०/२२ नोआगमभावासंख्यात ३/१२५ १२/३०३:१३/१६४ १५/२४ नोआगममिश्रद्रव्यभाव ५/१८४ नंगमनय १/८४; ८/६; १३/४,११ नोआगमवर्गणा १४/५२ नैयायिक ६/४२०; ६/३२३ नोआगमसचित्तद्रव्यभाव ५/१८४ नैसर्गिकप्रथमसम्यक्त्व ६/४३० नोइन्द्रियअर्थावग्रह १३/२२८ नोअनुभागदीर्घ १६/५०६ नोइन्द्रियअर्थावग्रहावरणीय १३/२२६ नोअनुभागह्नस्व १६/५११ नोइन्द्रियअवायावरणीय १३/२३२ नोआगम ३/१३,१२३ नोइन्द्रिय ईहा १३/२३२ नोआगमअचितद्रव्यभाव ५/१८४ नोइन्द्रिय ईहावरणीय १३/२३२ ८८० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोइन्द्रियज्ञान ७/६६ न्याय १३/२८६ नोइन्द्रियधारणावरणीय १२/२३३ न्यास ३/१८ नोइन्द्रियावरण ५/२३७ नोकर्मउपक्रम १५/४१ नोकर्म उपशामना १५/२७५ नोकर्मक्षेत्र उत्कृष्ट ११/१३ पक्ष ४/३१७,३६५; १३/२६८,३०० नोकर्मक्षेत्रजघन्य ११/१२ पक्षधर्मत्व १३/२४५ नोकमंद्रव्य ४/६ पक्षिन् १३/३६१ नोकर्मद्रव्यनारक ७/३० पट्टन १३/३३५ नोकर्मपर्याय ४/३२७ पट्टनविनाश १३/३३२,३३५,३४१ नोकर्मपुद्गल ४/३३२ पद ६/२३, १०/२६% १२/३,४८०; नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन ४/३२५ १३/२६०,२६५ नोकर्मप्रकृति १३/२०५ पदनिक्षेप ६/१५२ नोकर्मप्रक्रम १५/१५ पद्मलेश्या १/१६०; ७/१०४; ८/३३३, नोकर्मबन्धक ७/४ ३४५, १६/४८४,४८८,४६२ नोकर्ममोक्ष १६/३३७ पदमीमांसा /१४१; १०/२६; १२/३; नोकर्मवेदना १०/७ १४/५०,३२२ नोकर्मसंक्रम १६/३३६ पदश्रुतज्ञान १३/२६५ नोकर्मस्पर्श १३/४,५ पदसमास ६/२३, १२/४८० १३/२६७ नोकषाय ६/४०,४१, १३/३५६ पदसमासावरणीय १३/२६१ नोकषायवेदनीय ६/४५; १३/३५६,३६१ पदानुसारी ६/५६,६० नोकृति ६/२७४ पदावरणीय १३/२६१ नोगोण्य ६/१३५ पदाहिन १३/८९ नोगोण्यपद १/७४ पन्नग ४/२३२ नोजीव १२/२६६,२६७ पयदकरण १५/२७६,२७७ नोत्वक १३/१६ परघात ६/५६, ८/१० नोप्रकृतिदीर्घ १६/५०७ परघातनाम १३/२६३ नोप्रकृतिह्नस्व १६/५०६ परप्रकृतिसंक्रमण ६/१७१ नोप्रदेशदीर्घ १६/५०६ परप्रत्यय ४/२३४ नोप्रदेशह्रस्व १६/५११ परभविक १६/३६३ नोमनोविशिष्ट १०/१६ परभविकनामकर्म ६/२६३,३३०,३४७ नोस्थितिदीर्घ १६/५०८ परभविकनामप्रकृति १६/३४२ नोस्थितिहस्व १६/५१० परभविकनामबन्धाध्यवसान १६/३८७ न्यग्रोधपरिमण्डलशरीर परमाणु ४/२३; १३/११,१८,२१५; १४/५४ संस्थाननाम १३/३६८ परमाणुपुद्गलद्र व्यवर्गणा १४/१२१ न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान ६/७१ परमार्थ न्याढ्य १३/२८६ परमार्थकाल ४/३२० परिशिष्ट ७/६८ Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६/२५; ६/१४,४१ परिवर्तना २६२,३२२ परिवर्तमान १० / ४२ १२ / ३७०, ३७२ १३ / २८०,२८३ ६/३७८; १०/२२५; ११/३५२; १२/२१४; १४ / ४६ १३/२००,२८८ १/८२ परसमयवक्तव्यता परस्थान (अल्पबहुत्व) ३ / २०८; ९ / ४२६, ४३८ १० / ४०६ ७ / ४३६; परमावधि परम्परापर्याप्ति परम्पराबन्ध परम्परा लब्धि परम्परोपनिधा परवाद परस्थानाल्पबहुत्व परस्परपरिहारलक्षणविरोध पराक्रम परिकर्म परिग्रह परिग्रहतः आत्तपुद्गल परिग्रह संज्ञा परिचित परिजित परिणाम परिणामतः आत्तपुद्गल परिणामप्रत्यय परिणामप्रत्ययिक परिणामयोग परित अपतिवर्गणा परित्तजीविय परितापन परिधि परिधिविष्कम्भ परिनिर्वृतिभाव परिपाटी परिभोग ५ / २८६; १३/३४५ ६ / ६३ १३ / १७,२६२, २६३, २६६ १२ / २-२ १६/५१५ १ / ४१५ ६ / २५२ ६ / २६८; १३ / २०३ १/८०; १५/१७२ १५/१७२,२४२,२६१ १० / ५५, ४२० १४ / ५८ / २७४ १३ / ४६ ४/१२,४३,४५,२०६,२२२ परिभोगान्तराय परिमण्डलाकार परिवर्तन ८८२ / षट्खण्डागम-परिशीलन परिवर्तमाननामप्रकृति परिवर्तमानपरिणाम परिवर्तमानमध्यपरिणाम परिशातनकृति परिहाणि (रूप ) परिहार परिहारशुद्धिसंयत ४/३४ १४ / १८ परिहारशुद्धिसंयम परीतानन्त परोक्ष १६/५१५ पर्याय ६/३१७ परोदय पर्यन्त पर्याप्त पर्याप्तनाम पर्याप्तनिवृत्ति पर्याप्ताद्धा पर्याप्ति ८/७ ४/८६,३६२ १/२५४,२६७, ३/३३१; ६ / ६२,४१६; ८ / ११; १० / २४० पर्यायज्ञान पर्यायनय पर्यायसमास पर्यायसमासज्ञान पर्यायसमासावरणीय पर्यायार्थिक पर्यायार्थिक जन पर्यायार्थिकनय ५/२० १३/३६० ६ / ७८; ६ / ७८; १३/३८६ पर्यायार्थिकप्ररूपणा ४/१७८ १४ / ६ पर्यायावरणीय ६/२६२; १३/२०३ १५/२३४ १५/१४६ १२/२७ १२/२७ ६/३२७ ३/१८७ १३/६२ १/२५७; ४ / ३६२; १०/२३६ १/८४, ४/३३७, ६/२२; ८ / ५, ६, १३/६० १३/३६३ _४/३३७ ६/२२ १३/२६३ १३/१६१ १ / ८४; ६/१७० ४/१४६ ४/३, १४५,१७०, ३२२, ४४४; ७ /१३; ८/३,७८; १०/४१; १६/४८५ १/३७०,३७१, ३७२; ७ / ९४, १६७, ८ / ३०३ ७ / १६७ ३/१८ ६/२६; ६/५५, १४३; १३/२१२,२१४ १३/२६३ १४/३५२; १५/१८० १०/३७ ४/१४६, १७२, १८६, २०७, २५६ १३/२६१ Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशु पर्युदास १५/२५ पुद्गलपरिवर्तनवार.. - ४/३३४ पर्युदासप्रतिषेध ७/४७६,४८० पुद्गलपरिवर्तनसंसार पर्व ४/३१७; १३/२६८,३०० पुद्गलबन्ध १३/३४७ पल्य ४/६,१८५,३८६ पुद्गलमोक्ष १३/३४८ पल्योपम ३/६३; ४/५,७,६,७७,१८५, पुद्गल विपाकित्व ५/२२२, ६/३६ ३१७,३४०,३७६; १३/२६८,३०० पुद्गलविपाकी ५/२२६; ६/११४; १२/४६ पल्योपमशतपृथक्त्व ४/४३७ पुद्गलयुति १३/३४८ पल्यंकासन ४/४६ पुद्गलात्त ९/२३५; १६/५१४ पश्चात्कृत मिथ्यात्व ४/३४६ पुद्गलात्मा १६/५१५ पश्चादानुपूर्वी १/७३; ६/१३५ पुद्गलानुभाग १३/३४६ १३/३६१ पुनरुक्तदोष १०/२६६;.१२/२०६ पश्यमान १४/१४३ पुरुष १/३४१, ६/४६ पाणिमुक्तागति १/३००; ४/२६ पुरुषवेद ६/४७; ७/७६; ८/१०; १३/३६१ पाप १३/३५२ पुरुषवेददण्डक ८/२७५ पायदकरण १५/२७८ पुरुष (पुरिस) वेदभाव १४/११ पारंचिक १३/६२ पुरुषवेदोपशमनाडा ५/१६० पारमार्थिक नोकर्मद्रव्यक्षेत्र __४/७ पुलविय १४/८६ पारसिक १३/२२३ पुष्करद्वीप ४/१६५ पारिणामिक १/१६१; ७/६,३०; १२/२७६ पुष्करद्वीपार्ध ४/१५० पारिणामिकभाव ५/१८५,१६६,२०७, पुष्करसमुद्र ४/१९५ २३०; ७/१४ पुष्पोत्तरविमान ६/१२० पारिणामिकी ९/१८२ पुंडरीक १/६८; ९/१६१ पाव १३/१ पुंवेद १/३४१ पिठर १/२७२,२७३ पिशुल १२/१५८ पूर्व ४/३१७; ६/२५; १२/४८०; पिशुलापिशुल १२/२६० १३/२८०,२८६,३०० ४/१४४, १३/३६६ पूर्वकृत ९/२०६ पिंडप्रकृति ६/४९%३/३६३,३६६; ४/३४७,३५०,३५६,३६६ १६/३४७ पूर्वकोटिपृथक्त्व ४/३६८,३७३,४००, १४/8 ४०८, ५/४२,५२,७२ १३/३५२ पूर्वगत १/११२ १/११६; १४/३६ पूर्वधर १५/२३८ पुदगलद्रव्य ३/३; १३/४३, १५/३३ ३/४६ पुद्गलनिबद्ध १५/७,१३ पूर्वश्रुतज्ञान पुद्गलपरिवर्तन ४/३६४,३८८,४०६; ६/२५; १२/४८० ५/५७ पूर्वसमासश्रुतज्ञान १३/२७१ मुदगलपरिवर्तनकाल ४/३२७,३३४ वरणीय १३/२६१ परिशिष्ट ७/८८३ ३/२०४ पूरिम पिंड पुच्छण पुण्य पुदगल Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८/५ पूर्वस्पर्द्धक १०/३२२,३२५; १३/८५; प्रकीर्णक ४/१७४,२३४ १६/५२०,५७८ प्रकीर्णकाध्याय १३/२७६ पूर्वातिपूर्व १३/२८० प्रकृति १२/३०३; १३/१६७,२०५ पूर्वानुपूर्वी १/७३; ९/१३५; १२/२२१ प्रकृतिअनुयोगद्वार ६/२३२ पूर्वाभिमुखकेवली ४/५० प्रकृतिअल्पबहुत्व १३/१६७ पूर्वावरणीय १३/२६१ प्रकृतिगोपुच्छा १०/२४१ पृच्छना ६/२६२; १३/२०३ । प्रकृतिदीर्घ १६/५०७ पृच्छाविधि १३/२८०,२८५ प्रकृतिद्रव्यविधान १३/१६७ पृच्छाविधिविशेष १३/२८० प्रकृतिनयविभाषणता १३/१६७ पृच्छासूत्र १०/९ प्रकृतिनामविधान १३/१६७ पृथिवी ४/४६० प्रकृतिनिक्षेप १३/१६७,१६८ पृथिवीकायिक ३/३३०; ७/७०; ८/१९२ प्रकृतिबंध ८/२,७; ६/१६८,२०० पृथिवीकायिकनामकर्म ७/७० प्रकृतिबंधव्युच्छेद पैशुन्य १/१७ प्रकृतिमोक्ष १६/३३७ पोतकर्म ९/२४६; १३/६,४१,२०२; १४/५ प्रकृतिविकल्प ४/१७६ पंकबहुलपृथिवी ४/२३२ प्रकृतिविशेष १०/५१०,५११ पंचच्छेद ३/७८ प्रकृतिशब्द १३/२०० पंचद्रव्याधारलोक ४/१८५ प्रकृतिस्थानउपशामना १५/२८० पंचमक्षिति १३/३१८ प्रकृतिस्थानबन्ध ८/२ पंचमपृथिवी ४/८६ प्रकृतिसत्कर्म १६/५२२ पंचमुष्टि ६/१२६ प्रकृतिसमुत्कीर्तना ८/७ पंचविधलब्धि ७/१५ प्रकृतिसंक्रम १६/३४० पंचलोकपाल १३/२०२ प्रकृतिस्वरूपगलित १०/२४६ पंचसामायिकयोगस्थान १०/४६५ प्रकृतिह्रस्व १६/५०६ पंचांश ४/१७८ प्रकृत्यर्थता १२/४७८ पंचेन्द्रिय १/२४६,२४८,२६४; ७/६६ प्रक्षेप ३/४८,४६,१८७; ६/१५२; पंचेन्द्रियजाति १/२६४, ६/६८, ८/११ १०/३३७ पंचेन्द्रियजातिमाम १३/३६७ प्रक्षेपप्रमाण १०/८८ पंचेन्द्रियतियंग्गतिप्रायोग्यानपूर्वी ४/१९१ प्रक्षेपभागहार १६/७६,१०१ पंचेन्द्रियतियंच ८/११२ प्रक्षेपराशि ३/४६ पंचेन्द्रियतियंचअपर्याप्त ८/१२७ प्रक्षेपशलाका ३/१५६ पंचेन्द्रिय तियंचपर्याप्त ८/११२ प्रक्षेपसंक्षेप ५/२६४ पंचेद्रियतियंचयोनिमती ८/११२ प्रक्षेपोत्तरक्रम ६/१८२ पंचेन्द्रियलब्धि १४/२० प्रचय ३/६४ पंजर १३/५,३४ प्रचला ___६/३१,३२, ८/१०; १३/३५४ पंजिका ११/३०३ १३/३५४ प्रकाशन ४/३२२. प्रचलाप्रचला ६/३१; ८/8%; १३/३५४ ५८४ | बदमागम-परिशीलन Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिग्रह प्रज्ञा ६/८२,८३,८४ प्रतीतसत्य १/११८ प्रज्ञाभावछेदना १४/४३६ प्रत्यक्ष १/१३५; ४/३३६, ६/२६; प्रज्ञाश्रवण ९/८१,८३ ६/५५,१४२; १३/२१२,२१४ प्रतर ६/२३६; १०/३२०; १३/८४ प्रत्यक्षज्ञानी ८/५७ प्रतरगत ७/५५ प्रत्यभिज्ञान ६/१४२ प्रतरगतकेवलिक्षेत्र ४/५६ प्रत्यय ५/१६५ प्रतरगतकेवली ४/११ प्रत्यय निबन्धन १५/२ प्रतरपल्य ३/७८ प्रत्ययप्ररूपणा ७/१३ प्रतरसमुद्घात ४/२६,४३६ प्रत्ययविधि प्रतराकार ४/२०४ प्रत्याख्यान १/१२१; ६/४३,४४; प्रतरावली ४/३८६ ८/८३,८५; १३/३६० प्रतरांगुल ३/७८,७६,८०४/१०,४३,४४, प्रत्याख्यानदण्डक ८/२७४; ६/२२२ १५१,१६०,१७२; ५/३१७,३३५; प्रत्याख्यानपूर्व ७/१६७ ६/२१ प्रत्याख्यानावरण ८/8 प्रतरांगुलभागहार ४/६८ प्रत्याख्यानावरणीय ६/४४ प्रतिक्रमण १/६७, ८/८३,८४; ६/१८८ प्रत्यागाल ६/२३३,३०८ प्रतिगुणकार १/४५ प्रत्यामुण्डा १३/२४३ १६/४११,४१४,४६५ प्रत्यावली ६/२३३,२३४,३०८ प्रतिपक्षपद १/७६; ९/१३६ प्रत्यासत्ति ४/३७७, ८/६ प्रतिपद्यमानस्थान ६/२७६,२७८ प्रत्यासन्नविपाकानुपूर्वीफल ४/१७५ प्रतिपत्ति ६/२४; १२/४८०; १३/२६२ प्रत्येक अनन्तकाय । १/२७४ प्रतिपत्तिआवरणीय १३/२६१ प्रत्येकनाम १३/३६३ प्रतिपत्तिसमास ६/२४; १२/४८० प्रत्येकबुद्ध ५/३२३ प्रतिपत्तिसमासश्रुतज्ञान १३/२६६ प्रत्येकशरीर १/२६८; ३/३३१,३३३; प्रतिपत्तिसमासावरणीय १३/२६१ ६/६२, ८/१०; १३/३८७; १४/२२५ प्रतिपातस्थान ६/२८३,७/५६४ प्रत्येक शरीरद्रव्यवर्गणा १४/६५ प्रतिपाती १३/८३ प्रथम विभाग १४/५०१,५०२ प्रतिपातीअवधि ६/५०१ प्रथक्त्व ३/८६; १३/१३,७७ प्रतिभाग ४/८२, ५/२७०,२६० प्रथक्त्ववितर्कवीचार १३/७७,८० प्रतिराशि १०/६७ प्रथक्त्ववितर्कवीचारशुक्लध्यान ४/३६१ प्रतिष्ठा १३/२४३ प्रथम दण्ड ७/३१३ प्रतिसारी ६/५७, ६० प्रथम निषेक ६/१७३ प्रतिसारी बुद्धि १३/२७१,२७३ प्रथम पृथिवी ४/८८ प्रतिसेवित १३/३४६ प्रथम पृथिवीस्वस्थानक्षेत्र ४/१८२ प्रतिक्षण १४/६ प्रथम सम्यक्त्व ६/३,२०४,२०६,२२३, प्रतीच्छा १३/२०३ ४१८; १०/२८५ । प्रतीच्छना ६/२६२ प्रथम समय उपशमसम्यग्दृष्टि ६/२३५ शानक्षेत्र परिशिष्ट ७ ८८५ Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम समय तद्भवस्थ १४/३३२ प्रमाणकाल ११/७७ प्रथम संग्रहकृष्टिअन्तर ६/२७७ प्रमाणघनांगुल ४/३५ प्रथम स्थिति ६/२३२,२३३,३०८ प्रमाणपद १/७७; ६/६०,१३६,१९६; प्रथमाक्ष ७/४५ १३/२६६ प्रथमानुयोग १/११२; ६/२०८ प्रमाणराशि ४/७१,३४१ प्रदेश १३/११ प्रमाणलोक ४/१८ प्रदेश उदीरकअध्यवसानस्थान १६/५७७ प्रमाणवाक्य ४/१४५ प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर १६/३७६ प्रमाणांगुल ४/४८,१६०,१८५ प्रदेशघात ६/२३०,२३४ प्रमाद प्रदेशछेदना १४/३३६ प्रमेय प्रदेशदीर्घ १६/५०६ प्रमेयत्व ४/१४४ प्रदेशप्रमाणानुगम १४/३२१ प्रमोक्ष ८/३ प्रदेशबन्ध ६/१९८,२००; ८२ प्रयोग १२/२८६; १३/४४ प्रदेश बन्धस्थान १०/५०५,५११ प्रयोगकर्म १३/३८,४३,४४ प्रदेशमोक्ष १६/३३८ प्रयोगपरिणत १४/२३,२४ प्रदेशविन्यासावास १०/५१ प्रयोगबन्ध १४/३७ प्रदेश विपरिणामना १५/२८३ प्रयोगश: उदय १५/२८६ प्रदेशविरच १४/३५२ प्रयोजन ८/१ प्रदेश विरचित अल्पबहुत्व १०/१२०,१३६ प्ररूपणा १/४११ प्रदेशसंक्रम ६ /२५६,२५८; १६/४०८ प्ररोहण १४/३२८ प्रदेशसंक्रमणाध्यवसानस्थान १६/५७७ प्रवचन ८/७२,७३,६०; १३/२८०,२८२ प्रदेशह्नस्व १६/५११ प्रवचनप्रभावना ८/७६,६१ प्रदेशाग्र ६/२२४,२२५ प्रवचनभक्ति ८/७६,९० प्रदेशार्थता १३/६३ प्रवचनवत्सलता ८/७६,९० प्रधान द्रव्यकाल ११/७५ प्रवचनसन्निकर्ष १३/२८०,२८४ प्रधानभाव ४/१४५ प्रवचनसंन्यास १३/२८४ प्रपद्यमान उपदेश ३/१२ प्रवचनाद्धा १३/२८०,२८४ प्रबन्धन १४/४८०,४८५ प्रवचनार्थ १३/२८०,२८२ प्रबन्धकालन १४/१४,४८५ प्रवचनी १३/२८०,२८३ प्रभा १४/३२७ प्रवचनीय १३/२८०,२८१ प्रभापटल ४/८० प्रवरवाद १३/२८०,२८७ प्रमत्तसंयत्त १/१७६; ८/४ प्रवाहानादि ७/७३ प्रमत्ताप्रमत्तपरावर्तसहस्र ४/३४७ प्रवेध प्रमाण ३/४,१८; ४/३६६; ७/२४७; प्रवेशन ४/५७ ९/१३८,१६३ प्रश्नव्याकरण १/१०४; ६/२०२ प्रमाण (परिणाम) ३/४०,४२,७२ प्रशम ७/७ प्रमाण (राशि) ३/१८७,१६४ प्रशस्ततैजसशरीर ४/२८, ७/४०० ४/१६१ ८८६ / पट्खण्डागम-परिशीलन Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/३८३ प्रशस्तविहायोगति ६/७६ प्रेयस ६/१३३ प्रशस्तोपशाममा १५/२७५ प्लुत १३/२४८ प्रसज्य १५/२५ प्रसज्यप्रतिषेध ७/८५,४७६ प्रस्तार ४/५७ प्राकाम्य ६/७६,७६ फल (राशि) ३/१८७,१६० प्राकार १४/४० फलराशि ४/५७,७१,३४७ प्राण १/२५६,२/४१२; ३/६६; १२/२७६ फलाच रण ९/७९ प्राणत १३/३१८ प्राणातिपात १२/२७५,२७६ प्राणावाय १/१२२; ६/२२४ प्राणी १/११९ बद्ध-अबद्ध १३/५२ प्राण्यसंयम ८/२१ बद्धायुष्क ६/२०८ प्राधान्यपद १/७६; ९/१३६ बद्धायुष्कघात प्राप्तार्थग्रहण ९/१५७,१५६ बद्धायुष्कमनुष्य सम्यग्दृष्टि ४/६६ प्राप्ति ६/७५ बध्यमान १२/३०३ प्राभूत ६/२५; ६/१३४; १२/४८० बल ४/३१८ प्राभूतज्ञायक १३/३ बलदेव १३/२६१ प्राभूतप्राभूत ६/२४;१२/४८०; १३/२६० बलदेवत्व ६/४८६,४६२,४६५,४६६ प्राभृतप्राभृतश्रुतज्ञान १३/२७० बहु ६/१४६; १३/५०,२३५ प्राभृतप्राभृतसमास ६/२४; १२/४८०, बहु-अवग्रह ६/१६ १३/२७० बहुब्रीहिसमास ३/७ प्राभृतप्राभृतसमासावरणीय १३/२६१ बहुविध १/१५१, १३/२३७ प्राभृतप्राभृतावरणीय १३/२६१ बहुविध-अवग्रह ६/२० प्राभृतश्रुतज्ञान १३/२७० बहुश्रुत ८/७२,७३,८६ प्राभूतसमास ६/२५; १२/४८० बहुश्रुतभक्ति ८/७६,८६ प्राभृतसमासश्रुतज्ञान १३/२७० बादर १/२४६,२६७; २/३३०,३३१; प्राभूतसमासावरणीय १३/२६१ ६/६१; ८/११; १३/४६,५० प्राभूतावरण १३/२६१ बादरकर्म १/१५३ प्रामाण्य ६/१४२ बादरकृष्टि १२/६६ प्रायश्चित १३/५६ बादरनिगोदद्रव्यवाणा १४/८४ प्रायोग्यलन्धि ६/२०४ बादरनिगोदप्रतिष्ठित ३/३४८, ४/२५१ प्रायोपगमन १/२३ बादरयुग्म १०/२३; १४/१४७ प्रावचन १३/२८० बादरयुग्म राशि ३/२४६ प्राशुकपरित्यानता ८/८७,८६ बादरसाम्परायिक ७/५ प्रासाद १४/३६ बादरस्थिति ४/३६०,४०३ १२/२८४ बाहल्य ४/१२,३५,१७२ प्रेम परिशिष्ट ७ / ८८७ Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्यतप ८/८६ भगवत् १३/३४६ बाह्यनिवृत्ति १/२३४ भजितव्य १३/३०६ बाह्यपंक्ति ४/१५१ भज्यमानराशि ३/४७ बाह्य-वर्गणा १४/२२३,२२४ भद्रा ४/३१६ बाह्य न्द्रिय ७/६८ भय ६/४७; ७/३४,३५,३६,८/१०; बीज १४/३२८ १३/३३२,३३६,३४१,३६१ बीजचारण ६/७६ भरत ४/४५; १३/३०७ बीजपद ६/५६,५७,५६,६०,१२७ भव १०/३५; १४/४२५; १५/७; बीजबुद्धि ६/५५,५६ १६/५१२,५१६ बुद्धभाव १४/१८ भवग्रहण १३/३३८,३४२, बुद्धि १३/२४३ १४/३६२ बोधितबुद्ध ५/३२३ भवग्रहणभव १६/५१२ बौद्ध ६/४६७; ६/३२३ भवधारणीय ६/२३५ बंध ६/८३,८५,४६०; ७/१,८२, ८/२, भवन १४/४६५ ३,८; १३/७,३४७; १४/१,२,३० भवनवासिउपपादक्षेत्र ४/८० बंधक ७/१; ८/२; १४/२ भवनवासिक्षेत्र । ४/७८ बंधकसत्वाधिकार ७/२४ भवनवासिजगप्रणधि ४/७५ बंधकारण ७/६ भवनवासिजगमूल ४/१६४ बंधन ७/१; ८/२; १४/१ भवनवासिप्रायोग्यानुपूर्वी ४/२३० बंधन उपक्रम १५/४२ भवनवासी ४/१६२; ८/१४६ बंधनगुण १४/४३५ भवनविमान ४/१६२ बंधनीय ७/२; ८.२; १४/१,२,४८,६६ भवपरिवर्तन ४/३२५ बंधप्रकृति १२/४६५ भवपरिवर्तनकाल ४/३३४ बंधमार्गणा १६/५१६ भवपरिवर्तनवार ४/३३४ बंधविधान ७/२; ८/२; १४/२ भवस्थिति ४/३३३,३६८ बंधविधि ८/८ भवस्थितिकाल ४/३२२, ३६६ बंधव्युच्छेद ८/५ भवाननुगामी १३/२६४ बंधसमुत्पत्तिकस्थान १२/२२४ भवानुगामी १३/२६४ बंधस्थान १३/१११,११२ भवप्रत्यय १३/२६०,२६२ बंधस्पर्श १३/३,४,७ भवप्रत्ययअवधि ६/२६ बंधाध्वान ८/८ भवप्रत्ययिक १५/१७२,२६१ बंधानुयोगद्वार ६/२३३ भविष्यत १३/२८०,२८६ बंधावली ४/३३२, ६/१६८,२०२; भवोपगृहीत १५/१७२,१७५ १०/१११,१६७ १६/३८० ब्रह्म ४/२३५; १३/३१६ भव्य १/१५०, ७/४,७; १३/४,५, ब्रह्मोत्तर ४/२३५ २८०,२८६ भव्यजीव १४/१३ भक्तप्रत्याख्यान १/२४ भव्यत्व ४/४८० ५/१८८ ८८८ / बट्समागम-परिशीलन Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव्यद्रव्यस्पर्शन ४/१४२ भावप्रमाण भव्यनोआगमद्रव्य १/२६ भावबंधक भव्यनोआगमद्रव्यकाल ४/३१४ भावमन भव्यराशि ४/३३६ भावमल भव्यसिद्ध १/३६२,३६४ भावमोक्ष भव्यसिद्धिक ७/१०६, ८/३५८ भावमंगल भव्यस्पर्श १३/४,३४ भावयुति भव्यानन्त ३/१४ भावलेश्या भव्यासंख्यात ३/१२४ भाववर्गणा भाग ७/४६५ भाववेद भागलब्ध ३/३८,३६ भाववेदना । भागहार ३/३६,४८, ४/७१ भावश्रुत भागहारप्रमाणानुगम १०/११३ भावसत्य | भागाभाग ३/१०१,२०७ भावसंक्रम भाजित ३/३६,४१, ७/२४७ भावसंयम भाज्यशेष ३/४७ भावसंयोग भानु ४/३१६ भावसंसार भार्य ४/३१८ भावस्थितिकाल भामा १३/२६१ भावस्पर्श भाव १/२६; ५/१८६; ६/१३७, भावस्पर्शन १३८; १३/६१ भावानन्त भावउपक्रम १५/४१ भावानुयोग भावकर्म १३/३६,४०,६० भावानुवाद भावकलंक १४/२३४ भाषा भावकलंकल १४/२३४ भाषागाथा भावकाल ४/३१३ भाषाद्रव्य भावक्षेत्र ४/३ भाषाद्रव्यवर्गणा भावक्षेत्रागम ४/६ भाषापर्याप्ति भावजघन्य ११/८५ भावेन्द्रिय भावजिन ६/७ भित्तिकर्म भावनिक्षेप १३/३६ भावनिबन्धन १५/३ भिन्नदशपूर्वी भावप्रकृति १३/१६८,३६० भिन्नमुहूर्त भावप्रक्रम १५/१६ भीमसेन भावपरिवर्तन ४/३२५ भुक्त भावपरिवर्तनकाल ४/३३४ भुज भावपरिवर्तनवार ४/३३४ भुजगारबन्ध ३/३२,३६ ७/३,५ १/२५६ १/३२ १५/२३७ १/२६,३३ १३/३४६ १/४३१, १६/४८५,४८८ १४/५२ ५/२२२ १०/८ ८/६१ १/११८ १६/३३६,३४० ६/४६५, ७/९१ ९/१३७,१३८ ४/३३४ ४/३२२ १३/३,६,३४ ४/१४१ १/१५८ १३/१७२ १३/२२१,२२२ १०/१४३ १३/२१०,२१२ १४/६१,५५० १/२५५; ७/३४ १/२३६ ६/२५०; १४/६,१०,४१ २०२; १४/६ ६/६६ ३/६६,६७; १३/३०६ १३/२६१ १३/३४६,३५० ४/१४ ८/२ परिशिष्ट ७ / ८८६ Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूतबलि भुजाकार (भूयस्कार) १०/२६१; १५/५० मतिज्ञान १/३५४; ७/६६ भुजाकारउदय १४/३२५ मत्यज्ञान १/३५४; ७/६६ भुजाकारउदीरणा १५/१५७,२६० मधुरनाम १३/३७० भुजाकारउपशामक १६/३७७ मधुरनामकर्म ६/७५ भुजाकारबन्ध ६/१८१ मधुस्रवी ६/१०० भुजाकारसंक्रम १६/३६८ मध्यदीपक ९/४४; १०/४८,४९६, १२/१४ भुज्यमानायु ६/१६३; १०/२३७,२४० मध्यमगुणकार ४/४१ भुवन ५/६३ मध्यमधन १६/१६० भूत ४/२३२; १३/२८०,२८६ मध्यमत्रिभाग १४/५०२ भूतपूर्वनय ६/१२६ मध्यमप्रतिपत्ति ४/३४० १३/३६,३८१ मध्यमपद ६/६०,१९५;१३/२६६ भूतबलिभट्टारक १५/१ मध्यलोक ४/8 भूमि ४/८ मनुज १३/३६१ भेंडकर्म ९/२५०; १३/६,१०,४१,२०२; मनुष्य १/२०३; १३/२६२,३२७ १४/६ मनुष्य अपर्याप्त ८/१३० भेद ४/१४४; १४/३०,१२१,१२६ मनुष्यगति १/२०२; ६/६७; ८/११ भेदजनित १४/१३४ मनुष्यगतिनाम १३/३६७ भेदप्ररूपणा ४/२५६ मनुष्यपर्याप्त ८/१३० भेदपद १०/१६ मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी ४/१७६; ६/७६; भेदसंघात १४/१२१ १३/३७७ भोक्ता १/११६ मनुष्यभाव १४/११ भोग ६/७८; १३/३८६ मनुष्यलोक १३/३०७ भोगभूमि ४/२०६;६/२४५ मनुष्यलोकप्रमाण ४/४२ भोगभूमिप्रतिभाग ४/१६८ मनुष्यायु ५/४६% ८/११ भोगभूमिप्रतिभागद्वीप ४/२११ मनुष्यायुष्क १३/३६२ भोगभूमिसंस्थानसंस्थित ४/१८६ ८/१३० भोगान्तराय ६/७८; १३/३८६; १५/१४ मनोज्ञवैयावृत्य १३/६३ भंग ३/२०२,२०३; ४/३३६, ४११; मनोद्रव्यवर्गणा ९/२८,६७ ८/१७१; १०/२२५; १५/२३ मनोबली ६/९८ भंगप्ररूपण ४/४७५ मनोयोग १/२७६,३०८; ४/३६१ भंगविधि १३/२८०,२८५ ७/७७; १०/४३७ भंगविधिविशेष १३/२८०,२८५ मनोद्रव्यवर्गणा १४/६२,५५१,५५२ मन:प्रयोग १३/४४ मनःप्रवीचार १/३३६ मडंबविनाश १३/३३२,३३५,३४१ मन:पर्यय १/१६४,३५८,३६०; १३/२१२ मति १३/२४४,३३२,३३३,३४१ मन:पर्ययज्ञान ६/२८,४८८,४६२,४६५; मतिअज्ञानी ७/८४, ८/२७६; १४/२० १३/२१२,३२८ ८९० / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन:पर्यज्ञानावरणीय ६/२६; १३/२१३ मानसंज्वलन १३/३६० मनःपर्ययज्ञानी ७/८४; ८/२६५ मानाद्धा ४/३६१ मनःपर्याप्ति १/२५५ मानी १/१२० ममत्तीतः आत्तपुद्गल १६/५१५ मानुष १३/३६१ मरण ४/४०६,४७०,४७१; १३/३३२, मानुषक्षेत्र ३/२५५,२५६,४/१७० ३३३,३४१ मानुषक्षेत्रव्यपदेशान्यथानुपपत्ति ४/१७१ मस्कारी १३/२८८ मानुषोत्तरपर्वत ४/१६३ महाकर्मप्रकृतिप्राभूत ७/१,२; ८/९; मानुषोत्तरशैल ४/१५०,२१६; १३/३४३ १०/२०; १६/३६,१९६ मानोपशामनाद्धा ५/१६० महाकल्प १/१८, ६/१६१ माया १/३५०; ६/४१; १२/२८३ महातप ६/६१ मायाकषाय १/३४६ महाबन्ध ६/१०५ मायाकषायी ७/८३ महापुण्डरीक १/१८६/१६१ मायागता १/११३, ६/२१० महामण्डलीक १/५८ मायाद्धा ४/३६१ महामत्स्यक्षेत्र ४/३६ मायासंज्वलन १३/३६० महामत्स्यक्षेत्रस्थान ४/६६ मायी १/१२० महामह ८/६२ मायोपशामनाद्धा ५/१६० महावाचकक्षमाश्रमण १६/५७७ मारणान्तिककाल महाराज १/५७ मारणान्तिकक्षेत्रायाम ४/६६ महाराष्ट्र १३/२२२ मारणान्तिक राशि ४/८५ महाव्यय १३/५१ मारणान्तिकसमुद्घात ४/२६,१६६; महाव्रत ५/२७७,६/४१ ७/३०० महाव्रती ८/२२५,२५६ मार्ग १३/२८०,२८८ महाशुक्र ४/२३५ मार्गण १/१३१ महास्कन्धस्थान १४/४६५ मार्गगा ७/७; १३/२४२; १६/५१० महास्कन्धद्रव्यवर्गणा १४/११७ मार्गणास्थान ८/८ महिमा ६/७५ मालव १३/२२२ महोरग १३/३६१ मालास्वप्न ६/७४ मागध १३/२२२ मास ४/३१७,३६५; १३/२६८,३०० मागधप्रस्थ ४/३२० मासपृथक्त्व ५/३२,६३ मादा १४/३०,३२ मासपृथक्त्वान्तर ५/१७६ मान १/३५०; ६/४१, १२/२८३; १३/३४६ माहेन्द्र ४/२३५; १३/३१६ मानकषाय १/३४६ मिथ्याज्ञान १२/२८६ मानकषायी ७/८२ मिथ्यात्व ४/३३६,३५८,४७७; ५/६; मानदण्डक ८/२७५ ६/३६; ७/८; ८/२,६,१६; ६/११७; मानस १३/३३२.३४० १०/४३;१३/३५८; १४/१२ मानसिक १३/३४६,३५० मिथ्यात्वादिकारण ४/२४ परिशिष्ट ७ / ८६१ Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्वादिप्रत्यय मिथ्यादर्शन मिथ्यादर्शनवाक् मिथ्यादृष्टि १ / १६२, २६२, २७४; ६/४४६, ४५२,४५४; ७/१११ ८ / ४, ३८६, ९ / १८२ मिश्र मिश्रक मिश्रग्रहणाद्धा मिश्रद्रव्यस्पर्शन मिश्रनो कर्मद्रव्यबन्धक मिश्रप्रक्रम मिश्रमंगल मिश्रवेदना मीमांसक मीमांसा मुक्त मुक्त जीवसमवेत मुक्तमारणान्तिक मुक्तमारणान्तिक राशि मुख मुख रांगुल मुखविस्तार मुनिसुव्रत मुहूर्तान्त मूर्तद्रव्यभाव मूल मूलनिर्वर्तना मूलतंत्र मूलप्रकृति मूलप्रकृतिबन्ध ७/२ १२/२८६ १/११७ मृग १३/२२३, २२४ ४ / २२६, ३२८ ४ / १४३ ७/४ मूलप्रत्यय मूलप्रायश्चित मूलवीणा ८६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन ७/६ मृदुनाम मृदुस्पर्श मृदंगक्षेत्र १० / ७ ६/४६०; ६ / ३२३ १३/२४२ १६ / ३३८ मृदंगमुखरुंदप्रमाण मृदंगसंस्थान १५/१५ मृदंगाकार १ / २८ १०/५ ४/१४६; १३/३७१,३८३ मुहूर्त ३/६६,४/३१७, ३६०; १३ / २६८,२६६ मुहूर्त पृथक्त्व ४/४८ मूलाग्रसमास ४/१७५,२३०; ७/३०७, ३१२ _४/७६,३०७,३१२ मैथुन ५ / ३२,४५ १३ / ३०६ १२ / २ ४ / १४६; १०/१५० मृतिका मृदुक मृदुकनामकर्म ६/५ ८ / २ मृषावाद मेधा मेरु ८/२० १६ / ६२ १०/४०३ मेरुतल मेरुपर्वत मेरुमूल मेह मंत्र ४/१३ १३/३७ मोक्षअनुयोगद्वार मैथुनसंज्ञा मोक्ष मोह मोहनीय १६/४८६ मोहनीयकर्म प्रकृति १३/६० मोक्षकारण मोक्षप्रत्यय मोषमनोयोग १२/२८२ १/४१५ ६ / ४६०; ६ / ६; १३/३४६, ३४८; १६ / ३३७,३३८ ६/२३४ ७/६ ७/२४ १ / २८०, २८१ १२/२८३; १४/११ १३ / २६,२०८, ३५७ १३/२०६ मंग मंगल मंगलदण्डक मंडलीक मंथ मंथसमुद्घात ४/३३; १०/१२३, १३४, २४६ १३/३९१ १३/२०५ १३/५० ६/७५ ६ / ११; १३/३७० १३/२४ ४/५१ ४ / ५१ ४/२२ ४/११;१२ १२/२७६ १३/२४२ ४/१६३ ४/२०४ ४/२१८ ४/२०५ १४/३५ ४/१८ १/३३ १/३२,३३,३४; ६/२,१०३ ६/१०६ १/५७ १०/३२१,३२८ ६/४१३ Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगी मंद १३/५० योगवर्गणा १०/४३,४४६ मंदरमूल ४८३ योगपरावृत्ति ४/४०६ योगयवमध्य १०/५७,५९,२४२; १६/४७३ योगस्थान ६/२०१; १०/७६,४३६,४४२ योगान्तरसंक्रान्ति ५/८६ यक्ष १३/३६१ योगावलम्बनाकरण १०/२६२ यतिवृषभभट्टारक १२/२३२ योगावास -१०/५१ यथाख्यातसंयत १/३७३; ८/३०६ योगाविभागप्रतिच्छेद १०/४४० यथाख्यातसंयम १२/५१ १/१२० यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत १/३७१; ७/२४ योग्य ४/३१६ यथातथानुपूर्वी १/७३; ६/१३५ योजन १३/३०६,३१४,३२५ यथानुपूर्व १३/२८० योजनपृथक्त्व १३/३३८,३३६ यथानुमार्ग १३/२८०,२८६ योजनायोग (जुजण) १०/४३३,४३४ यथाशक्तितप ८/७६,८६ योनिप्राभृत १३/३४६ यथास्वरूप १०/१७७,१८६,१६६,२३७,४७६ यन्त्र १३/५,५४ यम ४/३१६ यव १३/२०५ रज्जु ३/३३; ४/११,१३,१५६,१६७ यवमध्य १०/५६,२३६; १२/२३१, रज्जुच्छेदनक १४/५०,४०२,५०० रज्जप्रतर ' ४/१५०,१६४ यवमध्यजीव ६/४७; ८/१०; १३/३६१ यवमध्यप्रमाण १०/८८ रतिवाक् १/११७ यश:कीत्ति ४/४५ यश:कीत्तिनाम १३/३६३,३६६ रस ६/५५;८/१०; ३/५७ यादृच्छिक प्रसंग ४/१८ रसनिति १/२३५ युक्तानन्त ३/१८ रसनाम १३/३६३,३६४,३७० युग ४/३१७; १३/२६८,३०० रसपरित्याग १३/५७ युग्म (राशि) ३/२४६ रह १४/३८ युग्म १०/१६,२२ राक्षस ४/२३२; १३/३६१ युति १३/३४६,३४८ राग १२/२८३; १४/११ योग १/१४०,२६६; ४/४७७; ५/२२६; रागद्वेष ६/१३३ ७/६,८; ८/२,२०; १०/४३६,४३७; राजा १२/३६७ राजु ७/३७२ योगकृष्टि १०/३२३ रात्रिभोजन १२/२८३ योगद्वार १३/२६०,२६१ राशि ३/२४६ योगनिरोध ४/३५६;१३/८४ राशिविशेष ३/३४२ योगप्रत्यय ८/२१ रिक्ता ४/३१६ १०/६२ रति ८/११ रलि परिशिष्ट ७ / ८६३ Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूक्षनामकर्म रुचक १३/३०७ लब्धान्तर ३/४७ रुचकपर्वत ४/११९ लब्धि १/२३६, ७/४३६, ८/८६ रुधिरनामकर्म ६/७४ लब्धिसंपन्नमुनिवर ४/११७ रुधिरवर्णनाम १३/३७० __ लब्धिसंवेगसम्पन्नता ५/७६,८६ रूक्षनाम १३/३७० लयनकर्म ६/२४६; १३/९,४१,२०२; १४/५ रूक्षस्पर्श १३/२४ लयसत्तम ४/३५३ रूप ४/२०० लव ३/६५; ४/१५०,१९४; १३/२६८,२६६ रूपगत १३/३१६,३२१,३२३ लवणसमुद्र ४/१५०,१६४ रूपगतराशि १०/१५१ लवणसमुद्रक्षेत्रफल ४/१६५,१६८ रूपगता १/११३,६/२१० लाढ १३/२२२, ३४१,३८६ रूपप्रक्षेप ४/१५० लाभ १३/३३२,३३४,३४१,३८६ रूपप्रवीचार १/३३६ लाभान्तराय ६/७५; १३/३३६; १५/१४ रूपसत्य १/११७ लेपकर्म १३/९,१०,४१,२०२ रूपाधिकभागहार १०/६६,७० लेप्यकर्म ६/२४६; १४/५ रूपी १४/३२ लेश्या १/१४६,१५०,३८६; २/४३१; रूपीअजीवद्रव्य ३/२ ८/३५६; १६/४८४ रूपोनभागहार १०/६६,७१, १२/१०२ लेश्याअनुयोगद्वार ६/२३४ रूपोनापलिका ४/४३ लेश्याकर्म १६/४६० १३/३३२,३३६,३४१ लेश्याकर्मअनुयोगद्वार ६/२३४ रोहण ४/३१८ लेश्याद्धा ५/१५१ रोहिणी ९/६६ लेश्यान्तरसंक्रान्ति ५/१५३ ४/३१८ लेश्यापरावृत्ति ४/३७०,४७१ ४/१६ लेश्यापरिणाम ९/२३४ लोक ३/३३,१३२; ४/९,१०; ११/२: १३/२८८,३४६,३४७ लोकनाडी १३/३१६ लक्षण ७/६६;६/७२,७३ लोकनाली ४/२०,८३,१४८,१६४, लघिमा ६/७५ १७०,१६१ लघुनाम १३/३७० लोकप्रतर ३/१३३; ४/१० लघुनामकर्म ६/७५ लोकप्रदेशपरिणाम ३/३ लघुस्पर्श १३/२४ लोकपाल १३/२०२ लतासमानअनुभाग १२/११७ लोकपूरण ७/५५; ६/२३६; १०/३२१, लब्धअवहार ३/४६ १३/८४ लब्धमत्स्य ११/१५,५१ लोकपूरणसमुद्घात ४/२६, ४३६; ६/४१३ लब्ध्यक्षर १३/२६२,२६३,२६५ लोकप्रमाण ४/१४६,१४७ लब्धविशेष ३/४६ लोकबिन्दुसार १/१२२; ६/२५; ६/२२४ ८६४ | षट्खण्णागम-परिशीलन रोग रुंद Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकमात्र लोकाकाश लोकायत लोकालोकविभाग लोकोत्तरसमाचारकाल लोकोत्तरीयवाद लोभकषायी लोभदण्डक लोभसंज्वलन लोभावा लोभोपशामनादा लोहाग्नि लौकिक भावश्रुत लौकिकवाद लौकिकसमाचारकाल लांगलिकगति लांगलिका १३ / २८०, २८८ लोभ १/३५०; ६/४१; १२ / २८३, २८४ ७/८३ ८/२७५ लांतव लिंग वक्तव्यता वक्ता वचनबली वचनयोग वचः प्रयोग वचस् १३/३२२,३२७ ४ / ९ वराटक वज्र ६/३२३ वज्रवृषभवज्जनाराचशरीरसंहनन ४ / १२ ११/७६ ६ / १४० १ / ११६ ६ / ६८ ४/३६१; ७/७८; १० / ४३७ १४/४४ १ / ३०५ वनस्पतिकायिक ३/३५७; ७/७२; = / १६२ वन्दना १३/५ ९ / ३२२ १३ / २८०,२८८ ११/७६ ४ / २६ १/२०० _४/२३५; १३/३१६ १३ / २४५ वर्षभनाराचशरीरसंहनन वज्रवृषभनाराचसंहनन १३/३६० वर्गणादेश ४ / ३६१ वर्गणान्यसमुदाहार ५/१६० वर्गणामयविभाषणता १३/११५ बर्ग वज्रनाराचसंहनन वज्रनाराचशरीरसंहनन ६ / ७३; १३/३६९ वज्रर्षभनाराचसंहनन ६/१०७ वर्गण वर्गणा ६ / २०१,३७० ; ८ / २; १०/४४२,४५०, ४५७; वर्गणानिक्षेप वर्गणाप्ररूपणा वर्गमूल ४/२०, १४६; १० /१०३,१५०, वर्गशलाका वर्गस्थान वर्गसंवर्गित वर्गितसंगितराशि वर्ण वर्णनाम वर्तमान वर्तमानप्रस्थ १/१७; ८/८३, ८४, ६२; ६/१८८; १० / २८ १३/६,१०,४१; १४/६ वर्ष पृथक्त्व वर्धमानभट्टारक वधित राशि वर्षर वर्ष वर्तमान विशिष्टक्षेत्र वर्धनकुमार वर्धनकुमार मिथ्यात्वकाल वर्धमान ८/१० वर्षपृथक्त्वान्तर वर्ष पृथक्त्वायु वर्षसहस्र १३/३६९ ८/१० ६/७३ ४५०, १२/६३ ४/२०० / १०५; १२ / ९३; १४/५१ १४ / १३६ ६ १४/४९; १४ / ५२ १४ / ५१ १४/४६ _३/१३३,१३४; ४ / २०२; ५/२६७; १० / १३१ _३/२१,३३५ ३/२६ ४/१४५ ६/२४७ __४/३२४ १ / ११९, १२६; १३ / २६२,३९३ ३/१६ ३/३३५ ३/१६ ६ / ५५; ८ / १०; ६/२७३ १३/३६३, ३६४,३७० १३/३३६,३४२ १२/२३१ ४/१५४ १३/२२२ ४/३२०; १३/३०७ ४ / ३४८ ५ / १८, ५३, ५५, २६४; १३/३०७ ५/१८ ५/३६ ४/४१८ परिशिष्ट ७ / ८१५ Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्लरिच्छेद १४/४३६ विग्रह ४/६४,१७५; ५/१७३; ११/२० वशित्व ६/७६ विग्रहगति १/२६६; ४/२६; ३/४३,८०; वस्तु १/१७४; ३/६; ६/२५, ६/१३४; ५/३००; ८/१६० १२/४८०; १३/२६० विग्रहगतिनामकर्म ४/४३४ वस्तुआवरणीय १३/२६० विगूर्वणादिऋद्धिप्राप्त ४/१७० वस्तुश्रुतज्ञान १३/२७० विगूर्वमानएकेन्द्रियराशि ४/८२ वस्तुसमान ६/२५; १२/४८० विजय ४/३१८,२८६ वस्तुसमासश्रुतज्ञान १२/२७० विज्जू १४/३५ वस्तुसमासावरणीय १३/२६० विज्ञप्ति १३/२४३ वाइम ६/२७२ वितत १३/२२१ वाक्प्रयोग ९/२१७ वितर्क १३/७७ वाग्गुप्ति १/११६8/२१६ विद्याधर ६/७७,७८ वागुरा १३/३४ विद्यानुवाद १/१२१; ६/७१,२२३ वाग्योग १/२७६,३०८ विद्यावादी ६/१०८,११३ वाचक १४/२२ विद्रावण वाचना ६/२५२,२६२; १३/२०३; १४/८ विदिशा ४/२२६ वाचनोपगत ६/२६८; १३/२०३; १४/८ विदेह वाच्यवाचकशक्ति ४/२ विदेहसंयतराशि ४/४५ वातवलय ४/५१ विधिनय वादाल ३/२५५ विध्यातभागहार १६/४४८ वानव्यन्तर . ८/१४६; १३/३१४ विध्यातसंक्रम ६/२३६,२८६१६/४०६ वामनशरीरसंस्थान १/७२ विनय । ८/८०; १३/६३ वामनशरीरसंस्थाननाम १३/३६८ विनयसम्पन्नता ६/७६,८० वायु ४/३१६ विनाश ४/३३६; १५/१६ वायुकायिक १/२७३; ७/७१; ८/१९२ विन्यासक्रम ४/७६ वारुण ४/३१८ विपक्षसत्व १३/२४५ वासुदेवत्व ६/४८६,४६२,४६५,४६६ विपच्चिद् १६/५०३ विकल्प ३/५२,७४; ५/१८६; विपरिणामता १५/२८३ ७/२४७ विपरिणामोपक्रम १५/२८२; १६/५५५ विकलप्रक्षेप १०/२३७,२४३,२५६ विपरीतमिथ्यात्व ८/२० विकलप्रत्यक्ष ६/१४३ विपाक १४/१० विकलादेश ६/१६५ विपाकविचय १३/७२ विकृतिगोपुच्छा १०/२४१,२५० विपाकविचयअजीवभावबन्ध १४/२३ विकृतिस्वरूपगलित १०/२४६ बिपाकविचयजीवभावबन्ध विक्रिया १४/१०,११ १/२६१ विपुलगिरि विक्रियाप्राप्त १२/२३१ ६/७५ विपुलमति ६/२८; 8/६६ विक्षेपणी १/१०५; ६/२०२ विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानाविक्षोभ ४/३१६ वरणीय १३/३३८,३४० ८६६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरच विभंगज्ञान १/३५८; १३/२९१ विष्णु १/११६ विभंगज्ञानी ७/८४; ८/२७६; १४/२० विषम १४/३३ विमाता १४/३० विषय १३/२१६ तिमान ४/१७०; १४/४६५ विषयिन् १३/२१६ विमानतल ४/१६५ विस्तार ४/१६५ विमानप्रस्तर १४/४६५ विस्तारानन्त ३/१६ विमानशिखर ४/२२७ विस्तारासंख्यात ३/१२५ विमानेन्द्रिय १४/४६५ विस्रसापरिणतअवगाहना १४/२५ १४/३५२ विस्रसापरिणतगति १४/२५ विरति ८/८२; १४/१२ विस्रसापरिणतगन्ध १४/२५ विरलन ३/१९; ४/२०१, १०/६६,८२ विस्रसापरिणतरस १४/२५ विरलित ३/४०,४२; ७/२४७ विस्रसापरिणतवर्ण १४/२५ विरह ४/३६०; ५/३ विस्रसापरिणतस्कन्ध १४/२६ विलेपन ६/२७३ विस्रसापरिणतस्कन्धदेश १४/२६ विविक्त १३/५८ विस्रसापरिणतशब्द १४/२५ विविक्तशय्यासन १३/५८ विस्रसापरिणतस्पर्श १४/२५ विविधभाजनविशेष १३/२०४ विस्रसापरिणतसंस्थान १४/२६ विवेक १३/६० विस्रसाबन्ध १४/२६ विलोमप्रदेशविन्यास १०/४४ विस्रसासुवचय १४/४३० विशरीर १४/२३७ विस्रसासुवचयप्ररूपणता १४/२२४ विशिष्ट १०/१६ विस्रसोपचय ४/२५; ६/१४,६७; विशुद्धता ११/३१४ १०/४८; १३/३७१ विशुद्धि ६/१८०,२०४; ११/२०९ विसंयोजन ४/३३६, १२/५० विशुद्धिस्थान ११/२०८,२०६ विहायोगति ६/६१; ८/१० विशद्धिलब्धि ६/२०४ विहायोगतिनाम १३/३६३,३६५ विशेष ४/१४५; १३/२३४ विहायोगतिनामकर्म ४/३२ विशेषमनुष्य ७/५२; १५/६३ विहारवत्स्वस्थान ४/२६,३२,१६६; विशेषविशेषमनुष्य ७/५२; १५/६३ ७/३०० विष १३/५,३४ वीचार १३/७७ विष्कम्भ ४/११,४५,१४७ वीचारस्थान ६/१८५,१८७,१६७; विष्कम्भचतुर्भाग ४/२०६ ११/१११ विष्कम्भवर्गगुणितरज्जु ४/८५ वीचारस्थानत्व ६/१५० विष्कम्भवर्गदशगुणकरणी ४/२०६ वीणा १०/४०३ विष्कम्भसूची ३/१३१,१३३,१३८; १०/६४ वीतराग ६/११८ विष्कम्भसूचीगुणितश्रेणी ४/८० वीतरागछद्मस्थ १५/१८२ विष्कम्भाध ४/१२ वीर्यप्रवाद ६/२१३ विष्ठौषधिप्राप्त ६/६७ वीर्यान्तराय ६/७८; १३/३८६; १५/१४ परिशिष्ट ७/८९७ Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदक वीर्यानुप्रवाद १/११५ वक्रियिकशरीरनाम १३/३६७ वृत्त ४/२०६ वैक्रियिकशरीरबन्धन ६/७० वृत्ति २/१३७,१४८; १३/५७ वक्रियिकशरीरबन्धननाम १३/३६७ वृत्तिपरिसंख्यान १३/५७ वैक्रियिकशरीरबन्धस्पर्श १३/३० वृद्धि ४/१६,२८ वैक्रियिकशरीरसंधात ६/७० वृद्धि (रूप) ३/४६; १८७; १३/३०६ वैक्रियिकशरीरसंघातनाम १३/३६७ वेत्रासन ४/११,२१ वैक्रियिकशरीरांगोपांग वेत्रासनसंस्थित ४/२० वैक्रियिकषटक १५/२७६ वेद १/११६,१४०,१४१;७/७; १३/२८० वैक्रियिकसमुद्घात ४/२६,१६६; ७/२६६ १/३६८ वैजयन्त ४/३१६,३८६ वेदकसम्यक्त्व १/३६५, ७/१०७; ८/१०; वैदिकभावश्रुतग्रन्थ ६/३२२ १०/२८८ वैनयिक ६/१८६ वेदकसम्यदृष्टि १/१७१; ७/१०८; ८/३६४ वैनयिकदृष्टि ६/२०६ वेदना ८/२; ६/२३२; १०/१६,१७; वैनयिकमिथ्यात्व ८/२० ११/२; १२/३०२; १३/३६, वैनयिकी ६/८२ २०३,२१२,२६८,२६०,२६३ वैयावृत्य ८/८८; १३-६३ ३१०,३२५,३२७ वैयावृत्ययोगयुक्तता ८/७६,८८ वेदनाकृत्स्नत्राभूत १/१२५ वैरोचन ४/३१८; १३/११५ वेदनाक्षेत्रविधान ११/२ वैशेषिक ६/४६०, ६/३२३ वेदनाखण्ड ६/१०४ वैश्यदेव ४/३१८ वेदनावेदना १२/३०२ वंग १३/३३५ वेदनासमुद्घात ४/२६,७६,८७,१८६; व्यंजन ६/७२; ७३; १३/२४७,१६/५१२ ७/२६६,११/१८ वेदनीय ६/१०,८/११,१३/२६,२०८,३५६ व्यंजनपर्याय ४/३३७; ३/१७८; ६/१७२ वेदनीयकर्मप्रकृति १३/२०६ २४३; १०/११,१५ वेदान्तरसंक्रान्ति ४/३६६,३७३ व्यंजनपरिणाम ६/४६० वेदित-अवेदित १३/५३ व्यंजनावग्रह १/३५५; ६/१६; ६/१५६ वेदिम ६/२७२,२७३ १३/२२० ४/२० व्यंजनावग्रहावरणीय १३/२२१ वेलन्धर ४/२३२ व्यतिकर ६/२४० वैक्रियिक १/२६१ व्यतिरेक ७/१५; १२/६८ वैक्रियिककाययोग १/२६१ व्यतिरेकनय ६/६२ वैक्रियिककाययोगी ८/२१५,२२२ व्यतिरेकपर्यायाथिकनय वैक्रियिकमिश्रकाययोग १/२६१,२६२ व्यतिरेकमुख ६/६५ वैक्रियिक शरीर ६/६६ व्यधिकरण १२/३१३ वैक्रियिकशरीरआंगोपांग ६/७३; ८/९ व्यन्त रकुमारवर्ग १३/३१४ १३/३६६ व्यन्तरदेव ४/१६१ वेध ८६८ / षटखण्डागम-परिशीलन Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६/५२ व्यन्तरदेवराशि ४/१६१ शरीर १४/४३४,४३५ न्यन्तरदेवसासादनसम्यग्दृटि शरीरआंगोपांग ६/५४; १३/३६३,३६४ स्वस्थानक्षेत्र ४/१६१ शरीरनाम १३/३६३,३६७ व्यन्तरावास ४/१६१,२३१ शरीरनामकर्म व्यभिचार ४/४६,३२०; ५/१८६,२०८; शरीरनिवृत्तिस्थान १४/५१६ ६/४६३,४६५; ८/३०८; ६/१०७; शरीरपर्याप्ति १/२५५; ७/३४; १४/५२७ १०/५१०; १२/२१; १३/७ शरीरबन्ध १४/३७,४१,४४ व्यवस्थापद १०/१८; १२/३ शरीरबन्धन व्यवसाय १३/२४३ शरीरबन्धनगुणछेदना १४/४३६ व्यवहार १/८४; ७/२६; १३/४,३६,१६६ शरीरबन्धननाम १३/३६३,३६४ व्यवहारकाल ४/३१७ शरीरविनसोपचयप्ररूपणा १४/२२४ व्यवहारनय __७/१३,६७; ६/१७१ शरीरसंघात ६/५३ व्यवहारपल्य १३/३०० शरीरसंघातनाम १३/३६३,३६४ व्याख्यान ४/७६,११४,१६५,३४१ शरीरसंस्थान ६/५३ व्याख्याप्रज्ञप्ति १/१०१,११०; शरीरसंस्थाननाम १३/३६३,३६४ ९/२२०,२०७ शरीरसंहनननाम १३/३६३,३६४ व्याघात ४/४०९ शरीरी १/१२०; १४/४५,२२४ व्यापक ४/८ शरीरीशरीरप्ररूपणा १४/२२४ व्यास ४/२२१ शलाका ३/३१, ४/४३५,४८४; व्युत्सर्ग ८/८३,८५; १३/६१ ६/१५२ व्रज १३/३३६ शलाकाराशि ३/३३५,३३६ ८/८३ शलाकासंकलना ४/२०० शशिपरिवार ४/१५२ शटिका (साडिया) १४/४१ शालभंजिका ४/१६५ शककाल ६/१३२ शाश्वतानन्त ३/१५ शकट १४/३८ शाश्वतासंख्यात ३/१२४ शक्तिस्थिति १०/१०६,११० शिविका १४/३६ সুন্ধ १३/१३,१६ शीत ६/७५ शत ४/२३५ शीतनाम १३/३७० शतपृथक्त्व ७/१५७ शीतस्पर्श १३/२४ शतसहस्र ४/२३५ शील ८/८२ शतार ४/२३६ शीलवतेषु निरतिचारता ८/७६,८२ शब्दनय १/८७; ७/२६; ६/१७६,१८१, शुक्र ४/२६५; १३/३१६ १३/६,७,४०,२०० ६/७४; १३/५० शब्दप्रविचार १/२३६ शुक्लत्व १३/७७ शब्दलिङ्गज १३/२४५ शुक्लध्यान १३/७५,७७ व्रत परिशिष्ट ७/८६६ Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धनय शुभ ما را با शुभप्रकृति शुक्ललेश्या १/३६०; ७/१०४; ८/३४६; श्रोत १/२४७ १६/४८४,४८८,४६२ श्रोत्रेन्द्रिय ४/३९१ ७/६६; १३/२२१ शुक्लवर्णनाम १३/३७० श्रोत्रेन्द्रियअर्थावग्रह १३/२२७ १३/२८०,२८६ श्रोत्रेन्द्रियईहा १३/२३१ शुद्धऋजुसूत्र ९/२४४ ७/६७ ६/६४; ८/१० शुभनाम १३/२६२,३६५ षट्कापक्रमनियम ४/२१८,२२६ १५/१७६ षट्खण्ड ९/१३३ शून्य १४/१३६ षट्षष्ठिपद १५/२८२ शेलकर्म ९/२४६; १३/९,१०,४१ षट्स्थान ६/२००; १२/१२०,१२१, २०२; १४/५ १४/४३४ शैलेश्य ६/४१७; ६/३४५; १०/३२६; षट्स्थानपतितत्व १६/४६३ १६/४७६,५२१ षड्वृद्धि ६/२२,१६६ शोक ६/४७; ८/१०; १३/३६१ षडंश ४/१७८ शंख १३/२६७ षण्मास ५/२१ शंखक्षेत्र ४/३५ षण्णोकषायोपशामनादा ५/१६० श्यामा १४/५०३ षष्ठवृद्धि ४/१६० श्यामामध्य १४/५०३ षष्ठोपवास ९/१२४ श्लक्षण १३/५०२ श्वेत ४/३१८ श्रद्धान १३/६३ श्रीवत्स १३/२६७ सकल १३/३४५ ६/३२२; १६/२८५ सकलजिन श्रुतअज्ञानी ७/८४; ८/२७६; १४/२० सकलप्रक्षेप १०/२५६ श्रुतकेवली ८/५७; 8/१३० सकलप्रक्षेपभागहार १०/२५५ श्रुतज्ञान १/६३,३५७,३५८,३५६; ६/१८, सकलप्रत्यक्ष ६/१४२ ४८४,४८६; १/१६०, सकलश्रुतज्ञान १२/२६७ १३/२१०,२४५ सकलश्रुतधारक ६/१३० श्रुतज्ञानावरणीय ६/२१,२५, सकलादेश ६/१६५ १३/२०६ २४५ सचित्तकाल ११/७६ श्रुतज्ञानी ७/८४; ८/२८६ सचित्तगुणयोग १०/४३३ श्रेणिचारण ९/८० सचित्तद्रव्यस्पर्शन ४/१४३ श्रेणिभागाहार १०/६६ सचित्तद्रव्यभाव १२/२ ३/३३,१४२; ४/७६,८०; सचित्तद्रव्यवेदना १०/७ ५/१६६; १३/३७१,३७५,३७७ सचित्तनोकर्मद्रव्यबन्धक ७/४ श्रेणीबद्ध ४/१७४,२३४ सचित्तप्रक्रम १५/१५ से hul श्रेणी १००/ पट्खण्डागम-परिशीलन Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्कर्म सचित्तमंगल १/२८ सप्रतिपक्ष १३/२६२,२६५ सचित्तान्तर ५/३ सम १४/३३ सत् १३/६१ समकरण ३/१०७; १०/७७,१३५ १३/३५८ समचतुरस्र ४/८३ सत्कर्ममार्गणा १६/५१६ समचतुरस्रसंस्थान ६/७१ ९/१०७ सत्कर्मस्थान १२/२२०,२२५,२३१; समचतुरस्रशरीरसंस्थाननाम १३/३६८ १६/४०८ समता ८/८३,८४ सकर्मिक १५/२७७ समपरिमण्डलसंस्थित ४/१७२ सत्ता १/१२०; १३/१६ समभागहार १०/२१४,११/१२७ सत्प्ररूपणा १३/६१ समभिरूढ १/८६; ७/२६ सत्यप्रवाद १/११६, ६/२१६ समभिरूढनय ६/१७६ सत्यभामा १३/२६१ समय ४/३१७,३१८, १३/२६८ सत्यमन १/२८१ समयकाल १३/३२२ सत्यमनोयोग १/२८०,२८१ समयप्रबद्ध ६/१४६,१४८,२५६; सत्यमोषमनोयोग १/२८०,२८१ १०/१६४,२०१ सत्त्व ४/१४४; ६/२०१७/८२ समयप्रबद्धार्थता १२/४७८ सत्त्वप्रकृति १२/४६५ समयसत्य १/११८ सत्त्वस्थान १२/२१६ समयोग १०/४५१ सदनुयोग १/१५८ समवदानकर्म १३/३८,४५ सदुपशम ५/२०७; ७/६१ समवशरण ६/११३,१२८ सदेवासुरमानुष १३/३४६ समवाय १/१०१; १५/२४ सद्भावक्रियानिष्पन्न १३/४३ समवायद्रव्य १/१८ सद्भावस्थानबन्ध १४/५,६ समवायाङ्ग १/१९६ सद्भावस्थापना १/२०; १३/१०,४२, समाचारकाल ११/७६ ४/३१४; १४/५ समाधि ८/८८ सद्भावस्थापनाकाल ४/३१४ समानजातीय ४/१३३ सद्भावस्थापनान्तर ५/२ समानवृद्धि ६/३४ सद्भावस्थापनाभाव ५/१८३ समास ३/६; १३/२६०,२६२ सद्भावस्थापनावेदना १०/७ समास (जोड़) ३/२०३ सनत्कुमार १३/३१६ समीकरण ४/१७८; १०/७७ सन्निकर्ष १३/२८४ समीकृत ४/५१ सन्निपातफल १३/२५४ समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति १६/५२१ सपक्षसत्त्व १३/२४५ समुच्छिन्नक्रियानिवृत्तिध्यान १०/३२६ सप्तभङ्गी ६/२१६ समुच्छिन्नक्रियानिवृत्तिशुल्कसप्तम पृथिवी ४/६० ध्यान ६/४१७ सप्तम पृथिवीनारक ४/१६३ समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति १३/८७ सप्तविधपरिवर्तन ६/३ १६/५७६ मिति परिशिष्ट ७/१०१ Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुदाहार ११/३०८ सर्वधाति ५/१६६,२०२; १२/५३; समुद्घात ४/२६ १५/१७१,३२४ समुद्घातकेवलिजीवप्रदेश ४/४५ सर्वघातित्व ५/१५८ समुद्र १३/३०८ सर्वघातिस्पर्द्धक ५/१६६,२३७; समुद्राभ्यन्तरप्रथमपंक्ति ४/१५१ ७/६१,११० समोद्दियार १३/३४ सर्वजीव १३/३४६,३५१ सम्पूर्ण १३/३४५ सर्वज्ञ सम्प्रदायविरोधाशंका ४/१५८ सर्वतोभद्र ८/९२ सम्बन्ध ८/१,२ सर्वदुःखअन्तकृतभाव १४/१८ सम्भवयोग १०/४३३,४३४ सर्वपरस्थान ३/११४,२०८ सम्मूच्छिम ५/४१, ६/४२८ सर्वपरस्थानाल्पबहुत्व ५/२८९ सम्यक्त्व १/५१,३९५, ४/३५८; ५/६; सर्वभाव १३/३४६ ६/३६,४८४,४८६,४८८; ७/७; सर्वमोक्ष १६/३३७ ६/६,११७; १३/३५८ सर्वलोक १३/३४६ सम्यक्त्वकाण्डक १०/२६९,२६४ सर्वलोकप्रमाण ४/४२ सम्यक्त्वलब्धि १४/२१ सर्व विपरिणामना १५/२८३ सम्यग्दर्शन १/१५१; ७/७; १५/१२ सर्वविशुद्धि ६/२१४ सम्यग्दर्शनवाक् १/११७ सर्वशुद्धिमिथ्यादृष्टि ६/३७ सम्यग्दृष्टि ६/४५१, ७/१०७; ८/३६३; सर्वसिद्ध ६/१०२ ६/६,१८२; १३/२८०,२८७ सर्वसंक्रम ६/१३०,२४६% १६/४०६ सम्यग्मिथ्यात्व ४/३५८; ५/७; सर्वस्पर्श १३/३,५,७,२१ ६/३६,४८५,४८६ सर्वह्रस्वस्थिति ६/२५६ सम्यग्मिथ्यात्वलब्धि १४/२१ सर्वाकाश ४/१८ सम्यग्मिथ्यादृष्टि १/१६६; ४/३५८; सर्वाद्धा ४/३६३ ६/४५०, ४६३,४६७; ७/११०; सर्वानन्त ३/१६ ८/४,३८३ सर्वार्थसिद्धि ४/२४०,३८७,६/३६ सयोग १/१९१,१६२ सर्वार्थसिद्धिविमान ४/८१ सयोगकेवली १/१९१७/१४;८/४ सर्वावधि ६/२५; 8/१४,४७; १३/२६२ सयोगिकाल ४/३५७ सर्वावधिजिन ६/१०२ सयोगिकेवलिन् १३/४४,४७ सर्वावयव सयोगी ४/३३६ सर्वावरण ७/६३ सरागसंयम १२/५१ सर्वासंख्यात ३/१२५ सराव १३/२०४ सर्वोपशम ६/२४१ १३/३१६ सर्वोषधिप्राप्त ६/६७ सर्वकरणोपशामना १५/२७५ सहकारिकारण सर्वघातक ७/६६ सहस्र ४/२३५ सर्व १०२ / षट्समागम-परिशीलन Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहस्रार सहानवस्थान सहानवस्थानलक्षणविरोध साकारउपयोग साकारोपयुक्त साकारक्षय सागर सागरोपम सात सातबन्धक साताद्धा साताभ्यधिक सातावेदनीय सातासात सागरोपमपृथक्त्व सागरोपमशतपृथक्त्व सातासातबन्धपरावृत्ति सादिक सादिकवि साबन्ध सादिशरीरबन्ध सादिसान्तनामकर्म सादृश्यसामान्य साधन साधारण साधारणजीव साधारणनाम साधारणभाव साधारणलक्षण साधारणशरीर १२/३००; १३/२१३,३४५ ४ / २५६, ४१२; ७/४३६ साधिकमास साधु साधुसमाधि ४/२३६; १३/३१६ साध्य सान १३ / २०७ ६ / २०७ १५ / २३८,२६४ _३/१३२; ४/१०,१८५ _४/१०,१८५,३१७, ३६०, ३८०, ३८७ ५ / ६; १३ / २६८, ३०१ ५/१० ४/४००, ४४१, ४८५; ५ / ७२ १३/३५७ ११ / ३१२ १० / २४३ १३/५१ सानत्कुमार सान्तर. सान्तरक्षेत्र सान्तरनिरन्तर सान्तरनिरन्तरद्रव्यवर्गणा सान्तरबन्धप्रकृति सान्तरवक्रमणकाल सान्तरवक्रमणकालविशेष सान्तरसमयोपक्रमणकाल सान्त र समयोपक्रमणजघन्य कालविशेष १४ / २२७, ४८७ _१३/३६३, ३१५ ५/१६६ १४ / २२६ १/२६६; ३/३३३; ६ / ६३; १३/३८७; १४ / २२५ सान्त रोवक्रमणजघन्यकाल सान्तरोपक्रमणवार सान्निपातिकभाव सामान्य सामान्य मनुष्य सामायिक १ / ५१ ८/८७, ३६४ ८ /७६,८८ १३/३५६,३५७ ६ / २३५ ५ / १३०,१४२ सामायिकछेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत सामायिकछेदोपस्थानशुद्धिसंयत ८/८ सामायिकभावश्रुत सामायिक१४ / ३४ १४/४५ सामायिकशुद्धिसंयम १६/४०४ साम्परायिक ४/३; १०/१०,११ ; साम्परायिकबन्धन सारभट १३/१६६ ४ / ३६६ सावित्र 5/8 सासादन सासादनगुण सासादनकाल ४/३६६ १३/२४२ ४/२३५ ५/२५७; ८/७ १३/७ 5/5 १४/६४ ८/१७ १४/४४७ १४/४७७ १४/४७४ १४/४७५ १४/४७६ ४/३४० ५/१६३ १३/१६६,२३४ ७/५२; १५/६३. १ / ६६; ६ / १८८ ८/२६८ ७/१ सासादनसम्यक्त्व सासादनसम्यक्त्व पृष्ठायत १३/३०६_सासादनसम्यग्दृष्टि शुद्धिसंयत १/३७३ १/३६६,३७० सासादनपश्चादागत मिथ्यादृष्टि सासादनमारणान्तिक क्षेत्रायाम ४/३६१ ७/५ ४ / ३१८ ४/३१६ १ / ३६३ ५/७; ६/४८५ ४/३५१ ५/१० ४/१६२ ६/४८७ ४/३२५ १/१६६; ६/४४६. ४५८,४५९,४६६,४७१; ७ / १०६; ८ / ४,३८० परिशिष्ट ७ / १०३ Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहल सासंयमससम्यक्त्व ५/१६ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति १३/८३, १६/५२१, सांख्य ६/४६०; ६/३२३ ५७९ सांशयिकमिथ्यात्व ८/२० सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यान ६/४१६७ सिद्ध १/४६; ४/३३६,४७७; ६/१०२; १०/३२५ १४/१३ सूक्ष्मकर्म १/२५३ सिद्धगति ७/६ सूक्ष्मत्व १०/४३ सिद्धभाव १४/१७ सूक्ष्मनाम सिद्धसेन ४/३१६ सूक्ष्मनिगोदजीव १३/३०१ सिक्थ्यमत्स्य ११/५२; १२/३६० सूक्ष्म निगोदवर्गणा १४/११३ सिद्धयत्वकाल ५/१०४ सूक्ष्मप्ररूपणा १२/१७४ सिद्धयमानभव्य ७/१७३ सूक्ष्मसाम्पराय १/३७३ सिद्धायतन ६/१०२ सूक्ष्मसाम्परायकृष्टि ६/३६६ सिद्धार्थ ४/३१६ सूक्ष्मसाम्परायकादिक सिद्धिगति १/२०३ सूक्ष्मसाम्परायसंयत ८/३०८ सिद्धिविनिश्चय १३/३५६ सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत १/१८६,३७१, १३/२२२ ७/६४ ६/३५; १३/२०८,३३२,३३४, सूक्ष्मसाम्परायिक ७/५; ८/४ ३४१; १४/३२८; १५/६ सूक्ष्माद्धा ५/११६ सुखदुखपंचक १५/१६४ सूचीक्षेत्रफल ४/१६ सुगन्धर्व ४/३१६ सूत्र १/११०; ८/५७; ६/२०७,२५६; सुचक्रधर १/५८ १४/८ सूच्यंगुल ३/१३२,१३५, ४/१०,२०३, सूत्रकृत १/६६ २१२; ६/२१ सूत्रकृतांग ६/१६७ सुनयवाक्य ६/१८३ सूत्रकंठग्रन्थ १३/२८६ सुपर्ण १३/३६१ सूत्रपुस्तक १३/३८२ सुभग ६/६५; ८/११ सूत्रसम ६/२५६,२६१,२६८; सुभगनाम १३/३६३,३६६ १३/२०३; १४/८ सुभिक्ष १३/३३२,३३६ १३/३३५ १३/३६१ सूर्पक्षेत्र ४/१३ सुरभिगन्ध ४/१५०,३१६ सुरभिगन्धनाम १३/३७० सूर्यप्रज्ञप्ति १/११०; ६/२०६ सुषमसुषमा ६/११६ सेचिकस्वरूप ५/२६७ सुषिर १३/२२१ सेचीयादो उदय १५/२८६ सुस्वर ६/६५८/१० सेन १३/२६१ सुस्वरनाम १३/३६३,३६६ सोपक्रमायु ६/८६ सूक्ष्म १/२५०,२६७; ३/३३१; सोपक्रमायुष्क १०/२३३,२३८ ६/६२, ८/8 सोम १३/११५,१४१ सुर १०४/षदखण्डागम-परिशीलन Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमरुचि १३/११५,१४१ संघात ६/२३; १२/४८०; १३/२६०; सौद्धोदनि १३/२८८ १४/१२१ सौधर्म ४/२३५ संघातज १४/१३४ सौधर्मइन्द्र ६/११३,१२६ संघातनकृति ६/३२६ सौधर्मविमान ४/२२६,२३५ संघातनपरिशातन १/३२७ सौधर्मादि ४/१६२ संघातसमास ६/२३, १२/४८० संक्रम १६/४६५ संघातसमासश्रुताज्ञान १३/२६६ संक्रमण ५/१७१; ६/१६८ संघातसमासावरणीय १३/२६१ संक्रममार्गणा १६/५१६ संघातावरणीय १३/२६१ संक्रमस्थान १२/२३१; १६/४०८ संघातिम ६/२७२,२७३ संकर ६/२४० संचय ५/२४४,२७३ संकरअनुयोगद्वार ६/२३४ संचयकाल ५/२७७ संकलन ४/१४४, १६६; १०/१२३ संचयकालप्रतिभाग ५/२८४ संकलनसूत्र ३/६१,९३. संचयकालमाहात्म्य ५/२५३ संकलनसंकलना १०/२०० संचयराशि ५/३०७ संकलना ४/१५६१३/२५६ संचयानुगम १०/१११ संकुट १/१२० संज्वलन ६/४४; ८/१०; १३/३६० संक्लेश ६/१८०; ११/२०९,३०६ संज्ञ १/१५२ संक्लेशक्षय १३/२४४,३३२,३३३,३४१ संक्लेशस्थान ११/२०८ संज्ञी १/१५२; २५६, ७/७,१११, संक्लेशावास १०/५१ ८/३८६ संख्या ३/७ संदन १४/३६, संख्यात ३/२६७; १३/३०४;३०८ संदृष्टि ३/८७,१६७ संख्यातगुणवृद्धि ११/३५१ संनिकर्ष १२/३७५ संख्यातभागवृद्धि ११/३५१ संनिवेश १३/३३६ संख्यातयोजन १३/३१४ संपातफल १३/२५४ संख्यातवर्षायुष्क ८/११६; १०/२३७' संप्राप्तित: उदय १४/२८६ संख्यातीतसहस्र १३/३१५ सम्बन्ध १४/२७ संख्येयगुणवृद्धि ६/२२,१६६ संभव १४/६७ संख्येयभागवृद्धि ६/२२,१६६ संभिन्नश्रोता ५/५६,६१,६२ संख्येयराशि ४/३३८ संयत ७/६१; ८/२६८ संख्येयवर्षायुष्क ११/८६ संयतराशि ४/४६ संग्रह १/८४ संयतासंयत १/१७३; ७/६४; संग्रहकृष्टि ६/३७५ ८/४,३१० संग्रहनय ६/६६,१०१,१०४; ६/१७०; संयतासंयतउत्सेध ४/१६६ १३/४,५,३६,१६६ संयतासंयतगुणश्रेणि १५/२६७ संघवयावृत्य १३/६३ संयतासंयतस्वस्थानक्षेत्र ४/१६६ १६/३७० संज्ञा परिशिष्ट ७ / ६०५ Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम १/१४४,१७६,३७४; ४/३४३; स्तूपतल ४/१६२ ५/६, ६/४८८,४६२,४६५; स्तोक ३/६५ ७/७,१४,६१; ६/११७; १४/१२ स्त्यानगद्धि ६/३१,३२, ८/8; १३/३५४ संयमकांडक .१०/२६४ स्त्री १/३४०; ६/४६ संयमगुणश्रेणि १०/२७८ स्त्रीवेद १/३४०,३४१; ६/४७; ७/७६; संयमभवग्रहण १५/३०५ ८/१०; १३/३६१ संयमासंयम ४/३४३,३५०; ५/६; स्त्रीवेदभाव ११/११ ६/४८५,४८६,४८८; स्त्रीवेदस्थिति ५/६६,६८ संयमासंयमकांडक १०/२६४ स्त्रीवेदोपशामनाद्धा ५/१६० संयोग ४/१४४; ६/१३७; १३/२५० स्थलगता १/११३; 8/२०६ १४/२७; १५/२४; स्थलचर ११/६०, ११५; १३/३६१ संयोगद्रव्य १/१८ स्थान ५/१०६; ६/२१७; १०/४३४; संयोगाक्षर १३/२५४,२५६ १२/१११; १३/३३६ संयोजनासत्य १/११८ स्थानांग १/१०० ६/१६८ संवत्वर ४/३१७,३६५; १३/२६८,३०० स्थानांतर १२/११४ संवर ७/६; १३/२५२ स्थापनबंध १४/४ संवर्ग ४/१७; १०/१५३,१५५ स्थापनवर्गणा १४/५२ संवाह १३/३३६ स्थापना ४/३, ३१४; ७/३; १३/२०१; संवेग ७/७; ८/८६ १४/४३५ संवेदनी १/१०५; 8/२०२ स्थापनाउपक्रम १५/४१ संवृतिसत्य १/११८ स्थापनाउपशामना १५/२७५ संश्लेषबन्ध १४/३७,४१ स्थापनाकर्म १३/४१,२०१,२४३ संसार १३/४४ स्थापनाकाल ४/३१३ संसारस्थ १३/४४ स्थापनाकृति ६/२४८ संस्थान ८/१० स्थापनाक्षर १३/२६५ संस्थानअक्षर १३/२६५ स्थापनाक्षेत्र संस्थाननामकर्म ४/१७६ स्थापनाजिन ६/६ संस्थानविचय १३/७२ स्थापनानन्त ३/११ संस्थानविपाकी ४/१७६ स्थापनानारक ७/२६ संहनन ६/५४ स्थापनानिबन्धन १५/२ स्कन्ध १३/११; १४/८६ स्थापनाप्रकृति १३/२०१ स्तव ८/८३,८४;६/२६३,१३/२०३; स्थापनाप्रक्रम १५/१५ १४/६ स्थापनाबन्ध १४/६ स्तिवकसंक्रम १३/५३ स्थापनाबन्धक ७/३ स्तिवुकसंक्रमण ५/२१०; ६/३११,३१२ स्थापनाभाव ५/१८३; १२/१ ३१६; १०/३८६ स्थापनामोक्ष १६/३३७ स्तुति ६/२६३; १३/२०३; १४/६ स्थापनामंगल १०६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापनालेश्या स्थापनाल्पबहुत्व स्थापना वेदना स्थापनाशब्द स्थापनासत्य स्थापनासंक्रम स्थापनासंख्यात स्थापना स्पर्श स्थापना स्पर्शन स्थावर स्थावर स्थिति ५/८५ स्थित ६/२५२,२६८; १३ /२०३; १४/७ स्थितश्रुतज्ञान १४ / ६ स्थिति ४ / ३३६; ६/१४६; १३/३४६,३४८ स्थितिकांडक ६/२२२,२२४; १३/८० स्थितिकांडकघात ६ / २०६; १० / २६२,३१८ स्थितिकांडकचरमफालि ६ / २२८, २२६. स्थितिक्षयजनितउदय स्थितिघात स्थितिदीर्घ स्थितिबन्ध स्थितिबन्धस्थान स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान स्थितिबन्धाध्यवसान स्थितिबन्धापसरण स्थितिमोक्ष स्थितिविपरिणामना स्थितिसत्कर्म स्थितिसंक्रम स्थितिह्रस्व स्थिर स्थिरनाम स्थूलप्ररूपणा स्निग्धनाम स्निग्धनामकर्म स्निग्धस्पर्श १६/४८४ स्पर्द्धक ७ /६१; १०/४६२; १२ / ६५ ५/२४१ स्पर्द्धकान्तर १२ / ११८ १०/७ स्पर्श ६/५५ ८ / १०; १३ / १, ४, ५, ७, ८,३५ १४/६ स्पर्शअनुयोगद्वार ६/२३३; १३/२ स्पर्श अन्तर विधान १३/२ १ / ११८ १६/३३९ स्पर्शअल्पबहुत्व ३/१२३ स्पर्शकालविधान १३ / ९ स्पर्श क्षेत्रविधान ४/१४१ सर्शगतिविधान ६ / ६१; ८ / ९ स्पर्श द्रव्य विधान स्पर्शन १५ / २८६ ६/२३०,२३४ १६/५०४ ६/१६६, २६० ; ८ / २ ६/१६६; ११/१४२ १६२,२०५,२२५ ६ / ११६ ११/३१०; १६/५७७ ६/२३०; २३४ १६ / ३३७, ३३८ १५ / २८३ १६/५२८ ६/२५६,२५८; १६/३४७ १६/५१० ६/६३; ८/१०; १३/२३६ १३ / २६३,२६५ १२/१७४ १३/३७० स्पर्शनयविभाषणता स्पर्शनानुगम स्पर्शनाम स्पर्शनामविधान स्पर्शनिक्षेप स्पर्शनेन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय अर्थावग्रह स्पर्शनेन्द्रियईहा स्पर्शनेन्द्रियव्यंजनावग्रह स्पर्श परिणाम विधान स्पर्शप्रत्यय विधान स्पर्शप्रवीचार स्पर्श भागाभाग विधान स्वर्णभावविधान स्पर्शसन्निकर्ष विधान स्पर्शस्पर्श स्पर्शस्पर्श विधान स्पर्शस्वामित्व विधान स्पर्शानुगम स्पर्शानुयोग स्पृष्टअस्पृष्ट स्फटिक स्मृति ६/७५ स्याद्वाद स्वकर्म १३ / २४ १३/२ १३/२ ४/३६१ १३/२२८ १३/२३१,२३२ १३/२२५ १३/२ १३/२ १/३३८ १३/२ १३/२ १३/२ १३/३,६,८,२४ १३/२ १३/२ १ / १५८; ४ / १४४ १३/१,१६ १३/५२ १३/३१५ ६/१४२; १३ / २४४,३३२,३३३, १३/२ १३/२ १३/२ १३/२ १३/२ १/२३७ १३/२,३ १३/१०० १३/३६३, ३६४,३७० ३४१, ६/२६७ १३/३१६ परिशिष्ट ७ / ६०७ Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वकप्रत्यय ४/२३४ स्वक्षेत्र १३/३१६ हतसमुत्पत्तिक १०/२६२,३१८; १५/११८ स्वप्न ९/७२,७४ १६/५४२ स्वप्रत्यय ८/८ हतसमुत्पत्तिकक्रम १६/४०२,४०३ स्वयंप्रभपर्वत ४/२२१ हतसमुत्पत्तिकर्म १२/२८,२६; १५/१११ स्वयंप्रभपर्वतपरभाग ४/२१४ हतसमुत्पत्तिकस्थान १२/२१६,२२० स्वयंप्रभपर्वतपरभागक्षेत्र ४/१६८ हतहतसमुत्पत्तिक १२/१०,६१ स्वयंप्रभपर्वतोपरिभाग ४/२०६ हर - १३/२८६ स्वयंभू १/१२० हरि १३/२८६ स्वयंभूरमणक्षेत्रफल ४/१९८ हरिद्रवर्णनाम १३/३७० स्वयंभूरमणसमुद्र ४/१५१,१६४ हस्त ४/१६ स्वयंभूरमणसमुद्रविष्कम्भ ४/१६८ हानि ४/१६ स्वर ९/७२; १३/२४७ हायमान १३/२६२,२६३ स्वसमयवक्तव्यता १/८२ हायमानअवधि ६/५०१ स्वसंवेदन ६/११४ हार ३/४७ स्वस्तिक १३/२६७ हारान्तर ३/४७ स्वस्थान ४/२६,६२,१२१ हारिद्रवर्णनामकर्म ६/७४ स्वस्थानअल्पबहुत्व ३/११४, २०८; हास्य ६/४७; ८/१०; १३/३६१ ५/२८९; 8/४२६ हिरण्यगर्भ १३/२८६ स्वस्थानक्षेत्रमेलापनविधान ४/१६७ हिंसा १४/८,६,६० स्वस्थानजघन्य स्थिति ११/३१६ हण्डकशरीरसंस्थान ६/७२ स्वस्थानस्वस्थान ४/२६,१६६; ७/३०० हुण्डकशरीरसंस्थाननाम १३/३६८ स्वस्थानस्वस्थानराशि ४/३१ हुताशन ४/३१६ स्वातिशरीरसंस्थान ६/७१ हेतु १३/२८७ स्वाध्याय १३/६४ हेतुवाद ४/१५८; १३/२८०,२८७ स्वामित्व ८/८; १०/१६ हेतुहेतुमद्भाव ५/३२२ स्वास्थ्य ६/४६१ हेमपाषाण ४/४७८ स्वोदय ८/७ ह्रस्व १३/२४८ १०८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खण्डागम-परिशीलन में प्रयुक्त ग्रन्थों की अनुक्रमणिका प्रकाशनकाल वि०सं० १९७६ ई० सन् १९७८ ,, १९८० वि०सं० १९१४ वि०सं० १९७६ संकेत ग्रन्थनाम प्रकाशक अंगप० अंगपण्णत्ती मा० दि० जैन ग्रन्थमाला, बम्बई (जैनसिद्धान्तसारादिसंग्रह) आचा० नि० आचारांग नियुक्ति श्री हर्षपुष्पामृत ग्रन्थमाला प्र० श्रुतस्कन्ध लाखावावल, शान्तिपुरी (सौराष्ट्र) द्वि० श्रुतस्कन्ध आप्तमी० . आप्तमीमांसा जैन सि० प्रकाशिनी संस्था, काशी आव०नि० आवश्यक सूत्र नियुक्ति जैव पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत कर्मप्र० कर्मप्रकृति मंगलदास मनसुखराय शाह, अहमदाबाद क०पासुत कसायपाहुडसुत्त वीरशासन संघ, कलकत्ता कुन्द०भा० कुन्दकुन्दभारती श्रुतभण्डार ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण गणितसा० गणितसारसंग्रह जैन संस्कृति सं०संघ, सोलापुर गोक० गोम्मटसार कर्मकाण्ड परमश्रुत प्र० मण्डल, बम्बई शिवसागर दि० जैन ग्रन्थमाला श्री महावीरजी गो० जी० गोम्मटसार जीवकाण्ड रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला चा० प्रा० चारित्र प्राभत (कुन्दकुन्द भारती) जम्बू०प्र० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, बम्बई ज०दी०प० जंबूदीवपण्णत्तिसंगहो जैन संस्कृति सं० संघ, सोलापुर जीवस० जीवसमास ऋषभदेव केशरीमल श्वे० संस्था. रतलाम ई० सन् १९३४ , १९५५ " १९७० " १९२८ नवम्बर १९८० ई० सन् १९१६ " १९२० वि०सं० २०१४ ई. सन् १६२८ Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत ग्रन्थताम प्रकाशक प्रकाशनकाल ई० सन् १९७२, ७३,७६ , १६४२ जैन ल० जैन लक्षणावली वीरसेवामन्दिर, दिल्ली भाग १,२,३ जैन सा० जैन साहित्य और हिन्दी ग्रन्थरत्नाकर, बम्बई इतिहास जैनेन्द्रप्र० जैनेन्द्रप्रक्रिया जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था ज्योतिष्क ज्योतिष्क रण्डक ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्थान, रतलाम तत्त्वार्थवा० तत्त्वार्थराजवार्तिक जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था त०भाष्य तत्त्वार्थाधिगम भाष्य परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई ति० प० तिलोयपण्णत्ती भाग १ जैन संस्कृति सं० सं०, सोलापुर ई०सन् १६२८ १६१५ १९३२ " १६४३ मा० दि० जैन ग्रन्थमाला " १९५१ वीरनि० २४४४ त्रि०सा० द० प्रा० त्रिलोकसार दर्शनप्राभृत (कु०कु० भारती) दर्शनसार द०सार 'जैन हितैषी' भा० १३, अंक ५-६ ई० सन् १९१७ मनसुखलाल हीरालाल, बम्बई वीरनि० २४६६ दशव० दशवकालिक पूर्वार्ध (१-३) उत्तरार्ध (४-१०) द्वात्रि० द्वात्रिंशिका ध्या०श. ध्यानशतक नन्दी० अव० नंदि० नंदिसुत्तं अणुयोग दाराई ना०मा० नाममाला जैन प्रसारक समा० भावनगर वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली (मुख्य पृष्ठ नहीं रहा) वि०स० १६६५ ई० सन् १९७६ " १९५५ " १६४४ निसा० नियमसार महावीर विद्यालय, बम्बई पं० मोहनलाल काव्यतीर्थ __ प्रज्ञा पुस्तकमाला ला० फूलचन्द जैन कागजी, धर्मपुरा, दिल्ली मा० दि० जैन ग्रन्थमाला, बम्बई वीरनि० २४६८ न्या०कु० न्यायकुमुदचन्द्र न्या०दी० प्रज्ञाप० पंचसं० भाग १,२ न्यायदीपिका वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली पण्णवणा सुत्त भाग १,२ महावीर विद्यालय, बम्बई पंचसंग्रह भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली ई० सन् १९३८, , १९४१ " १६४५ ई० सन् १९६६,७१ , १९६० ९१० / षट्लागम-परिशीलन Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत प्रकाशक प्रकाशनकाल पं०का० ग्रन्थनाम पंचास्तिकाय (कुन्दकुन्द भारती) पात्रकेसरिस्तोत्र पात्रके० वि० सं० १९७५ मा० जन ग्रन्थमाला, बम्बई (तत्त्वानुशासनादि संग्रह) (न्यायकुमुदचन्द्र के अनुसार) निर्णयसागर मंत्रालय, बम्बई ई० सन् १९१२ प्रमाणवा० प्रमाणवातिक प्रमेयक प्रमेयकमलमार्तण्ड प्रव०सा. प्रवचनसार (कुन्दकुन्द भारती) प्रा०शशा० प्राकृतशब्दानुशासन बृहद्र० बृहद्रव्यसंग्रह वीरनि० २४८१ वीरनि० २४५१ बृहत्स्व० भ० आ० बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र भगवती आराधना जैन संस्कृति सं०सं०, सोलापुर ब्र० रतनचन्द्र जी मुख्तार द्वारा सम्पादित पन्नालाल चौधरी, बनारस बलात्कार पब्लिकेशन सोसाइटी, कारंजा (कुन्दकुन्द भारती से) भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली मा० दि० जैन ग्रन्थमाला ई० सन्० १६३५ भा० प्रा० म०ब० मूला० भावप्राभृत महाबन्ध मूलाचार भाग १ वि० सं० १९७७ , १९८० युक्त्यनु० युक्त्यनुशासन पन्नालाल चौधरी, बनारस वीर० नि० २४८१ रत्नक० रत्नकरण्डश्रावकाचार मा० दि० जैन ग्रन्थमाला, बम्बई वि० सं० १९८२ लघीय० लघीयस्त्रय , १९७२ लोकवि० लोकविभाग जैन सं० सं०, सोलापुर वसु०श्रा० वसुनन्दिश्रावकाचार भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली ई० सन् १९५२ विबुध ०श्रु० विबुधश्रीधरश्रुतावतार मा० दि० जैन ग्रन्थमाला, बम्बई वि० सं० १९७६ (जैन सिद्धान्तसारा दिसंग्रह) व्याख्याप्र० व्याख्याप्रज्ञप्ति गुजरात विद्यापीठ (गुजरात (भगवती सूत्र) पुरातत्त्वमन्दिर ग्र०), अहमदाबाद शास्त्रवा० शास्त्रवार्तासमुच्चय जनधर्मप्रसारक सभा, भावनगर वि० सं० १९६४ श्रा०प्र० श्रावक प्रज्ञप्ति भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली श्रुताव श्रुतावतार (इन्द्रनन्दी) मा० दि० जैन ग्रन्थमाला, (तत्त्वानुशासनादिसंग्रह) बम्बई वि० सं० १९७५ सन्मतित० सन्मतितके प्रकरण जैन धर्मप्रसारक सभा, भावनगर , १९६४ समवा० समवायांगसूत्र झवेरचन्द ठे० भट्टिनीवारी, अहमदाबाद ई० सन् १९३८ षट्खण्डागम में प्रयुक्त ग्रन्थों की अनुक्रमणिका / ६११ Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत स०सि० सर्वार्थसिद्धि सा०ध० सांख्यका० सौन्दरा० स्थाना० स्वामीस ० ह०पु० 13 ग्रन्थनाम सागारधर्मामृत सांख्यकारिका सौन्दरानन्द महाकाव्य स्थानांग स्वामीसमन्तभद्र ( रत्नक ०श्रा ० से ) हरिवंशपुराण पूर्वार्ध उत्तरार्ध " २१२ / षट्खण्डागम-परिशीलन प्रकाशक कल्लापा भरमप्पा निटवे, कोल्हापुर कल्लाप्पा भरमप्पा निटवे, कोल्हापुर ( मुख्य पृष्ठ आदि नहीं रहे ) ( न्या० कुमुदचन्द्र भा० २, पृ० ८२६, टिप्पण ४ से) ( जनलक्षणावली के अनुसार ) मा० दि० जैन ग्रन्थमाला, बम्बई "1 "1 "1 प्रकाशनकाल शकाब्द १८३६ ई० सन् १९१५ वि० सं० १९८२ I Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र पृष्ठ पंक्ति शुद्ध परागम द्वारा समस्त २७-२८ गाथा में बन्धक के ३० सत्यप्ररूपणा ३५ वेदना में संक्लेश-शुद्धि उसकी जघन्य जिस ज्ञानावरणीय mr 99Uwww VW MU ८३ अशुद्ध परमागम द्वारा समर्पित समस्त गाथाएँ बन्ध के सत्प्ररूपणा वेदनाएँ संक्लेश-विशुद्धि उसकी अजधन्य जिस प्रकार ज्ञानावरणीय पु० १३ यहाँ कर्मप्रकृति For mrU MU0 m x or पु०१० यहाँ भावप्रकृति ४ ० mode ___ ३७ xxx १३२ १४० १७१ १७२ १७७ १८१ २११ २२१ २३६ २४६ अनन्तरप्ररूपणा १५ अनुभागविषय व स्थान २६ जो आहारक ''वह अनाहारक स्वलाक्षण्य त० सूत्र ४ उत्तरोत्तर असंख्यात १२.१३ कायवर्गणा आकार उववाणं संगहणिगाओ २७ गणप्रत्ययिक अनगार पंचग्रहण देखकर के आदि एक समान प्रबद्ध अनेकार्थत्वात् धातूनां लपिः आकर्षणक्रियो ज्ञेयः । त० वा०५, २४,१३ अन्तरप्ररूपणा अनुभामविषयक स्थान जो अनाहारक । वह अनाहारक स्वालक्षण्य त० सार उत्तरोत्तर संख्यात कायमार्गणा अकार उववाएण संगहणिगाहाओ गणप्रतिपन्न अनगार पंचसंग्रह देकर के सादि एक समयप्रबद्ध rror r m Wom २४ ३३३ ३३४ Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंक्ति पृष्ठ ३३५ ३५० ३६७ शुद्ध समाचरणीय प्रश्रवण उनसे क्रमशः ३७४ ३८३ ३८३ ३६५ ४०१ २४ २६ १४ WWW XXXप्रसंग में तथा शेष एक आवली से आठ प्रथम प्रसंग प्राप्त यदि आचार्यों अगृहीतकाल में नहीं है पृ० १३७-३६ स्थितिबन्धक समान पीछे पर व्याख्या को पर वृष्टिकरण भावबन्ध के महादण्डक को क्षुद्रकबन्ध ४३७ ३५ ४४० २४ २४ ४४५ ४४६ ४५२ अशुद्ध सातावेदनीय प्रज्ञाश्रवण उनसे तत्त्वार्थसूत्र (१.७) के समान क्रमशः अर्थाधिकार के प्रसंग में तथा अनुदयप्राप्त शेष एक समय कम आवली से प्रथम प्रसंग नहीं प्राप्त यदि अन्य आचार्यों अगृहीतग्रहणकाल में बाधा सम्भव नहीं है पृ० १३७-३६ स्थितिबन्ध समान पीछे पृ० ३६५ पर व्याख्यान को पर कृष्टिकरण भाव बन्ध के महादण्डक को किसलिए प्रारम्भ किया गया है । उत्तर में धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि उस महादण्डक को क्षुद्रकबन्ध बन्ध के बन्ध का प्रारम्भ होता है और चिन्ता से और चिन्ता सम्यक्त्व उसका कथन जानकर करना चाहिए दिन पूर्वाद में उसने अनुसार उसका अर्थ कार्य यहाँ उत्कृष्ट-अनुकृष्ट आदिरूप भेदपदों का अधिकार है ऐसे वे पद तेरह हैं। विशेष की अपेक्षा न कर ज्ञानावरणीय और सम ये समानार्थक १४ ४५७ ४५६ ४५६ ४६४ १ १८-१६ बन्धक के बन्ध होता है और चिन्तन से और चिन्तन सम्यक्त्व उसका कथन जानकर ही निर्णय कर लेना चाहिए दिन उसने अनुसार कार्य यहाँ अधिकार विवक्षा से भेदपद तेरह हैं। ४६६ २८ ४७८ ४७६ ११ विशेष के अभाव से ज्ञानावरणीय ४८० २ और समय समानार्थक ६१४ / षटखण्डागम-परिशीलन Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ४८६ ४६० ४६१ ५०६ : WW८० पंक्ति शुद्ध २९-३० अभिप्राय था २१ २४०-२३१ २८-२६ यह उनकी पृ०४०८ २६ हैं जबकि तत्त्वार्थसूत्र वह पराधीन होने प्राप्त वायें है । तदनुसार अपने XXXआनुषंगिक निरूपण प्रक्रमस्वरूप प्रथमतः उत्तरप्रकृति भेदों नोआगमद्रव्य कर्मोपक्रम YU Y movY ५३७ २८ १६ xxxx MANG अवस्थान को अर्थविषयक पदों णिबंधणातिविह भागहामिति के संग में टिप्पण १ भी तीन सूत्रों ४,२,१८० भावप्रमाण अइया अशुद्ध अभिप्राय निकलता था २४०-३१ यह क्रम उनकी ४.८ हैं वहाँ तत्त्वार्थसूत्र वह स्वाधीन होने प्राप्त संयत के वायें है कि अपने इस प्रकार आनुषंगिक निरूपण करते हुए प्रकृतिप्रक्रमस्वरूप प्रथमतः उत्कृष्ट प्रकृति भेदों को स्पष्ट करते हुए उनमें नोआगमद्रव्यकर्मोपक्रम अवस्था को अर्थविषम पदों णिबंधणतिविह भागहारमिदि के प्रसंग में टिप्पण ३ भी तीन गाथासूत्रों ४,२,४,१८० भागप्रमाण अहवा पु० १०, का पूर्वार्ध (पृ० ५८३) ८-६ भाग २ ध्यान संसार एकत्ववितर्क के होने पर पु० १२, ५७४ ५७७ १८६ ५६२ ५९७ ६१४ .. w का उत्तरार्ध (पृ० १००७-२३) ८-६६ भाग ३ ध्यान भी संसार एक वितर्क के न होने पर पु०१३, w १२ २६ : 0 m U २ r : २० २८ x महावाचमाणं उसमें धवलाकार महावाचयाणं उसमें जयधवलाकार ६५३ शुद्धि-पत्र । ९१५ Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ २१ ३२ गिद्धि-पिछाइरिय प्पयासि सितिच्चत्थसुत्ते मुण्डपार पदार्थावबोधक के हासपणा गिद्धपिछाइरिय प्पयासित-तच्चत्थसुत्ते मुण्डपाद पदार्थावबोध के हासपइण्णा ६६१ पुनश्च निम्नलिखित प्रसंगों में अपेक्षित अभिप्राय के लिए उन्हें शुद्ध रूप में इस प्रकार पढ़े(१) मुद्रित पृ० ६३ पर २३-२५ पक्तियों में मुद्रित सन्दर्भ के स्थान में शुद्ध सन्दर्भ सातावेदनीय सबसे तीव्र अनुभाग वाला है । यशःकीति और उच्चगोत्र दोनों समान होकर उससे अनन्तगुणे हीन हैं। उनसे देवगति अनन्तगणी हीन है । उससे कार्मणशरीर अनन्तगुणा हीन है। उससे तेजसशरीर अनन्तगुणा हीन है । उससे आहारक शरीर अनन्तगुणा हीन है । इत्यादि सूत्र ४,२,७.६६-११७ (पु० १२) । (२) मुद्रित पृ० १०१, पंक्ति १-४ में मुद्रित सन्दर्भ के स्थान में शुद्ध सन्दर्भ-- तत्पश्चात् जिस जघन्य स्वस्थानवेदनासंनिवर्ष को पूर्व (सूत्र ४) में स्थगित किया गया था उसकी प्ररूपणा को प्रारम्भ करते हुए उसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है (सूत्र ५) । पश्चात् ज्ञानावरणादि आठ वेदनाओं में किसी एक को विवक्षित करके जिस जीव के वह द्रव्य-क्षेत्रादि में किसी एक की अपेक्षा जघन्य या अजघन्य होती है उसके वही क्षेत्र आदि अन्य की अपेक्षा जघन्य या अजघन्य किस प्रकार की होती है, इसका तुलनात्मक रूपं में विचार किया गया है । सूत्र ६५-२१६ (पु० १२)। उदाहरणार्थ-जिस जीव के ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्य से जघन्य होती है उसके वह क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य होती है या अजधन्य, इसे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि उसके क्षेत्र की अपेक्षा नियम से अजघन्य व उससे असंख्यातगणी अधिक होती है (सूत्र ६६-६७), इत्यादि । (३) पृ० ३३६ के आरम्भ में ये पंक्तियाँ मुद्रित होने से रह गयी हैं १. मंगल-उन छह में प्रथमतः मंगल की प्ररूपणा धवलाकार ने क्रम से इन छह अधिकारों में की है-(१) धातु, (२) निक्षेग, (३) नय, (४) एकार्थ, (५) निरुक्ति और अनुयोगद्वार। (४) पृ० ४७६, पंक्ति ११-१४ में मुद्रित प्रसंग के स्थान पर शुद्ध इस प्रकार पढ़िए ___ इतना स्पष्ट करते हुए आगे धवला में कहा गया है कि इस प्रकार विशेष की अपेक्षा न करके सामान्य रूप ज्ञानावरणीयवेदना विषयक इन तेरह पृच्छाओं की प्ररूपणा की गई है । वह सामान्य चूंकि विशेष का अविनाभावी है, इसलिए हम यहाँ इस सूत्र से सूचित उन तेरह पदविषयक इन तेरह पृच्छानों की प्ररूपणा करते हैं। (५) पृ० ४८० में १४वीं पंक्ति के स्थान में शुद्ध सन्दर्भ ---... __इसी पद्धति से आगे धवला में कम से उत्कृष्ट, अनुकृष्ट, जघन्य, अजघन्य, सादि, अनादि, ध्र व, अध्र व, ओज, युग्म, ओम, विशिष्ट और नोमनोविशिष्ट इन तेरह पदों में से एक-एक को प्रधान करके शेष बारह पदों का यथासम्भव विचार किया गया है । इस प्रकार से धवला में प्रकृत सूत्र के साथ उसके अन्तर्गत तेरह सूत्रों को लेकर चौदह सूत्रों का अर्थ किया गया है। Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. बालचन्द्र शास्त्री जन्म : ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या, वि. सं. १६६२ (ई. सन् १६०५, ग्राम सोंरई, जिला ललितपुर (उ. प्र.) । शिक्षा : स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी से जैन न्यायतीर्थ और सिद्धान्तशास्त्री । अध्यापन : पन्नालाल जैन विद्यालय, जारखी (आगरा) एवं ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम मथुरा आदि में (सन् १६२६-४०)। साहित्यिक कार्य : सम्पादन एवं अनुवाद - सेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द जैन साहित्योद्धार फण्ड, अमरावती से - षट्खण्डागम (धवला सहित) भाग ६ से १६ तक । जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर से -तिलोयपण्णत्ती, भाग-१, २; जम्बूदीवपण्णत्ती, आत्मानुशासन, पद्मनन्दिपंचविंशति, लोकविभाग, पुण्याश्रवकथाकोश, ज्ञानार्णव, धर्मपरीक्षा आदि । वीरसेवा मन्दिर, दिल्ली से -जैन लक्षणावली (जैन पारिभाषिक शब्दकोश भाग १,२,३), ध्यानशतक और ध्यानस्तव । भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली से - श्रावक - प्रज्ञप्ति और यह 'षट्खण्डागमपरिशीलन' । सम्मान एवं उपाधि : १६६८ में 'लोकविभाग' के सम्पादन के लिए सागर में विद्वत् परिषद् के तत्त्वावधान में, भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा विशेष पुरस्कार से; १६७४ में वीरनिर्वाण भारती, मेरठ द्वारा स्वर्णपदक तथा मानद उपाधि 'धर्मदिवाकर' से; १६८० में जैन समाज सागर द्वारा रजत प्रशस्तिपत्र से; १६८३ में पद्मश्री सुमतिबाई विद्यापीठ, सोलापुर द्वारा 'सिद्धान्तभूषण' मानद उपाधि से तथा १६८५ में फिरोजाबाद में दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् एवं दिगम्बर जैन महासमिति द्वारा प्रशस्तिपत्र । हैदराबाद में देहावसान । Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ स्थापना : सन् 1944 उद्देश्य ज्ञान की विलुप्त, अनुपलब्ध और अप्रकाशित सामग्री का अनसन्धान और प्रकाशन तथा लोकहितकारी मौलिक साहित्य का निर्माण संस्थापक स्व. साहू शान्तिप्रसाद जैन स्व. श्रीमती रमा जैन अध्यक्ष श्रीमती इन्दु जैन कार्यालय : 18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-110 003 MORE sonarse Ony Jain Education international