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________________ नोआगमभावकृति के इन दो भेदों का निर्देश किया है-श्रुतभाव ग्रन्थकृति और नोश्रुतभाव ग्रन्थकृति । इस प्रसंग में उन्होंने श्रुत को लौकिक, वैदिक और सामायिक के भेद से तीन प्रकार का कहा है। इनमें हाथी, अश्व, तंत्र, कौटिल्य और वात्स्यायन आदि के बोध को लौकिकभाव श्रुतग्रन्थ कहा गया है। द्वादशांगविषयक बोध का नाम वैदिकभाव श्रुतग्रन्थ है । नैयायिक, वैशेषिक, लोकायत, सांख्य, मीमांसक और बौद्ध आदि विविध प्रकार के दर्शनों के बोध को सामायिकभावश्रुतग्रन्थ कहा जाता है। इनकी जो प्रतिपाद्य अर्थ को विषय करने वाली शब्दप्रबन्धरूप ग्रन्थ रचना की जाती है उसका नाम श्रुतग्रन्थकृति है। नोश्रुतग्रन्थकति अभ्यन्तर व बाह्य के भेद से दो प्रकार की है। उनमें मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्य. रति, अरति, शोक, भय, जगप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ इन चौदह को अभ्यन्तर नोश्रुतग्रन्थकृति तथा क्षेत्र व वास्तु आदि दस को बाह्य नोश्रुतग्रन्थकृति कहा जाता है। ६. करणकृति मूलकरणकृति और उत्तरकरणकृति के भेद से दो प्रकार की है। इनमें मूलक रणकृति पाँच प्रकार की है-औदारिक शरीरमूलक रणकृति, वैक्रियिक शरीरमूलकरणकृति, आहारक शरीरमूलक रणकृति, तैजसशरीरमूलकरणकृति और कार्मणशरीरमूलकरणकृति । इनमें औदारिक, वैक्रियिक, आहारक इन तीन शरीरमूलकरणकृतियों में प्रत्येक संघातन, परिशातन और संघातन-परिशातन कृति के भेद से तीन-तीन प्रकार की है। तेजस और कार्मण शरीरमूलकरणकृति दो प्रकार की है—परिशातनकृति और संघातन-परिशातनकृति (६८-७०)। विवक्षित शरीर के परमाणुओं का निर्जरा के बिना जो केवल संचय होता है उसका नाम संघातनकृति है । उन्हीं विवक्षित शरीर के पुद्गल स्कन्धों के संचय के बिना जो निर्जरा होती है उसे परिशातनकृति कहा जाता है। विवक्षित शरीरगत पुद्गल स्कन्धों का जो आगमन और निर्जरा दोनों साथ होते हैं उसे संघातन-परिशातनकृति कहते हैं। ____ अगले सूत्र में यह सूचना की गई है कि इन सूत्रों (६९-७०) द्वारा तेरह (उक्त प्रकार से ३ औदारिकशरीरमूलकरणकृति, ३ वैक्रियिकशरीरमूलकरणकृति, ३ आहारकशरीरमूलकरणकृति, २ तेजसशरीरमूलक रणकृति और २ कार्मणशरीरमूलकरणकृति) कृतियों की सत्प्ररूपणा की गई है' (७१)। १. इसके शब्दविन्यास व रचनापद्धति को देखते हुए यह सूत्र नहीं प्रतीत होता है, किन्तु धवला का अंश दिखता है । सूत्रकार ने अन्यत्र कहीं अपने द्वारा विरचित सन्दर्भ का 'सूत्र' के रूप में उल्लेख करके यह नहीं कहा कि इस या इन सूत्रों के द्वारा अमुक विषय की प्ररूपणा की गई है। हाँ, उन्होंने आगे वर्णन किए जानेवाले विषय का उल्लेख कहीं-कहीं प्रतिज्ञा के रूप में अवश्य किया है । जैसे१. एत्तो ट्ठाणसमुक्कित्तणं वण्णइस्सामो ।--सूत्र १,६-२,१ २. इदाणि पढमसम्मत्ताभिमुहो जाओ पयडीओ बंधदि ताओ पयडीओ कित्तइस्सामो। -सूत्र १,६-३,१ ३. तत्थ इमो विदिओ महादंडओ कादवो भवदि । १,६-४,१ ४. तत्थ इमो तदिओ महादंडओ कादव्वो भवदि। १,६-५,१ ५. एत्तो सव्व जीवेस महादंडओ कादव्वो भवदि । २,११-२,१ (शेष पृष्ठ ७८ पर देखिए) मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | ७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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