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________________ इस प्रसंग में धवलाकार ते कहा है कि यह सूत्र देशामर्शक है, अत: इससे सूचित अधिकारों की प्ररूपणा की जाती है, क्योंकि उनके बिना सत्त्व घटित नहीं होता। ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए उन्होंने आगे पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अधिकारों का निर्देश किया है और तदनुसार क्रम से उन मूलकरण कृतियों की प्ररूपणा की है।' तत्पश्चात् उन्होंने 'अब यहाँ देशामर्शक सूत्र से सूचित अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करते हैं' ऐसा निर्देश करते हुए आगे क्रमशः सत्प्ररूपणा व द्रव्यप्रमाणानुगम आदि आठ अनुयोद्वारों के आश्रय से उन मूलकरणकृतियों की प्ररूपणा की है। उत्तरकरणकृति अनेक प्रकार की है। जैसे-असि, वासि,परशु, कुदारी, चक्र, दण्ड, वेम, नालिका, शलाका, मिट्टी, सूत्र और पानी आदि कार्यों की समीपता से वह उत्तरकरणकृति अनेक प्रकार की है। इसी प्रकार के जो और भी हैं उन सबको उत्तरकरणकृति समझना चाहिए (७२-७३)। ७. कृति का सातवाँ भेद भावकृति है। उसके लक्षण में कहा गया है कि जो जीव कृतिप्राभृत का ज्ञाता होकर उसमें उपयुक्त होता है उसका नाम भावकृति है (७४-७५)। ___ इस प्रकार उपर्युक्त सातों कृतियों के स्वरूप को दिखलाकर अन्त में 'इन कृतियों में कौन कृति यहाँ प्रकृत है' इसे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि इनमें यहाँ गणनाकृति प्रकृत (प्रसंग प्राप्त) है (७६)। यहाँ सूत्रकार ने गणनाकृति को प्रकृत बतलाकर स्वयं उसकी कुछ प्ररूपणा नहीं की है। जैसाकि पूर्व में कहा जा चुका है, धवलाकार ने उस गणनाकृति के स्वरूप के निर्देशक सूत्र (६६) की व्याख्या करते हुए उसके विषय में विशेष प्रकाश डाला है (पु० ६, पृ० २७४-३२१) । यह कृति अनुयोगद्वार हवीं जिल्द में प्रकाशित हुआ है । २. वेदना अनुयोगद्वार चतुर्थ 'वेदना' खण्ड का यह दूसरा अनुयोगद्वार है। विविध अधिकारों में विभक्त उसके अतिशय विस्तृत होने से धवलाकार ने उसे वेदनामहाधिकार कहा है। प्रकृत में तो ऐसा प्रतीत होता है कि धवलाकार यह कह रहे हैं कि सूत्रकार ने इन सूत्रों के द्वारा तेरह मूलकरणकृतियों के सत्त्व की प्ररूपणा की है । यह सत्त्व की प्ररूपणा पदमीमांसा आदि तीन अधिकारों के बिना बनती नहीं है, अतएव हम यहाँ देशामर्शक सूत्र के द्वारा सूचित अधिकारों की प्ररूपणा करते हैं। यदि वह सूत्र होता तो धवलाकार उसके आगे 'पुणो एदेण देसामासियसुत्तेण' में 'पुणो' यह नहीं कहते ।। इसी प्रकार आगे (पु० १४, पृ० ४६६) "एत्तो उवरिमगंथो चूलियाणाम" यह भी सूत्र (५, ६, ५८१) के रूप में सन्देहास्पद है। सूत्रकार ने ग्रन्थगत किसी सन्दर्भ को 'चूलिका' नहीं कहा। १. धवला पु० ६, पृ० ३२६-५४ २. वही, पृ० ३५४-४५० ३. कम्मट्ठजणियवेयणउवट्टिसमुत्तिण्णए जिणे णमिउं । __वेयणमहाहियारं विविहहियारं परूवेमो ।। पु० १०, पृ० १ ५८/पखण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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