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आगम से द्रव्यकति है । शब्दनय की अपेक्षा प्रवक्तव्य है। इस सब को आगम से द्रव्यकृति कहा गया है (५६-६०)।
नोआगम द्रव्यकृति ज्ञायकशरीर आदि के भेद से तीन प्रकार की है। इनमें ज्ञायकशरीर नोआगमद्रव्यकृति के प्रसंग में पुनः उन स्थित-जित आदि नौ अर्थाधिकारों का निर्देश किया गया है। च्युत, च्यावित और त्यक्त शरीरवाले कृतिप्राभूत के ज्ञायक का यह शरीर है, ऐसा मान करके आधेय में आधार के उपचार से उन शरीरों को ही ज्ञायकशरीर नोआगमद्रव्यकति कहा गया है । जो जीव भविष्य में इन कृतिअन योगद्वारों के उपादान कारण रूप से स्थित है उन्हें करता नहीं है; उन सबका नाम भावी नोपागमद्रव्यकृति है । ग्रन्थिम, वाइम, वेदिम, पूरिम,संघातिम, आहोदिम, निक्खोदिम, प्रोवेल्लिम, उद्वेल्लिम, वर्ण, चूर्ण, गन्ध और विलेपन अादि तथा अन्य भी जो इस प्रकार के सम्भव हैं उन सबको ज्ञायकशरीर-भावीव्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकृति कहा गया है (६१-६५)।
४. गणनाकृति अनेक प्रकार की है । जैसे—'एक' (१) संख्या नोकृति, 'दो' (२) संख्या कृति और नोकृति के रूप से प्रवक्तव्य, 'तीन' (३) संख्या को आदि लेकर आगे की संख्यात, असंख्यात व अनन्त संख्या कतिस्वरूप है (६६) ।
जिस संख्या का वर्ग करने पर वह वृद्धि को प्राप्त होती है तथा अपने वर्ग में से वर्गमूल को कम करके पुनः वर्ग करने पर वृद्धि को प्राप्त होती है उसे कृति कहा जाता है। '१' संख्या का वर्ग करने पर वह वृद्धि को नहीं प्राप्त होती तथा उसमें से वर्गमूल के कम कर देने पर वह निर्मूल नष्ट हो जाती है, इसलिए '१' संख्या को नोकृति कहा गया है । '२' संख्या का वर्ग करने पर वह वृद्धिंगत तो होती है (२x२ =४), पर उसके वर्ग में से वर्गमूल को कम करने पर वह वृद्धि को प्राप्त नहीं होती (२x२=४, ४–२ २), उतनी ही रहती है, इसलिए उसे न नोकृति कहा जा सकता है और न कृति भी। इसलिए उसे अवक्तव्य कहा गया है। '३' संख्या का वर्ग करने पर तथा वर्ग में से वर्गमूल कम करने पर भी वह वृद्धि को प्राप्त होती है (३X ३-६, ६-३-६), इसलिए '३' इसको आदि लेकर आगे की ४,५,६ आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त इन सब संख्याओं को कृति कहा गया है । ये गणनाकृति के तीन प्रकार हुए।
यहाँ धवलाकार ने इस सूत्र को देशामर्शक कहकर उसके प्राश्रय से धन, ऋण और धनऋण सब गणित को प्ररूपणीय कहा है। आगे उन्होंने कृति, नोकृति और अवक्तव्य इनकी सोदाहरण प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा करते हुए उसके विषय में इन चार अनुयोगद्वारों का निर्देश किया है--ओघानुयोग, प्रथमानुयोग, चरमानुयोग और संचयानुयोग । इनकी प्ररूपणा करते हुए संचयानुगम के प्रसंग में उन्होंने उसकी प्ररूपणा सत्यप्ररूपणा व द्रव्यप्रमाणानुगम ग्रादि पाठ अनुयोगद्वारों के प्राश्रय से विस्तारपूर्वक की है।'
५. पाँचवीं ग्रन्थकृति है। उसके स्वरूप का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि लोक, वेद और समयविषयक जो शब्द प्रबन्धरूप अक्षर-काव्यादिकों की ग्रन्थ-रचना की जाती है उस सबका नाम ग्रन्थकृति है (६७)।
यहाँ धवलाकार ने ग्रन्थकृति के विषय में चार प्रकार के निक्षेप की प्ररूपणा करते हुए
१. धवला पु० ६, पृ० २७६-३२१
७६ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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