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________________ में किया गया है। एक विशेषता यह भी है कि ष० ख० में 'कृति' अनुयोगद्वार के प्रसंग में आगमद्रव्यकृति का विचार करते हुए पूर्वोक्त 'वाचना' आदि के साथ 'अनुप्रेक्षा' को भी उपयोग के रूप में ग्रहण किया गया है। इसी प्रकार 'प्रकृति' अनुयोगद्वार के प्रसंग में आगमद्रव्यप्रकृति का विचार करते हुए भी 'अनुप्रेक्षा' को उपयोग के रूप में ही ग्रहण किया गया है। इतना विशेष है कि यहाँ 'अणुव जोगा दव्वेत्ति कटु' ऐसा निर्देश करते हुए सभी अनुपयुक्तों को आगम से द्रव्यप्रकृति कहा गया है ।' पर अनुयोग द्वार में णो अणुप्पेहाए । कम्हा? अणुव जोगो दव्वमिदि कटु' ऐसा निर्देश करते हुए उस अनुप्रेक्षा का उपयोग के रूप में निषेध किया गया है।' ___दोनों ग्रन्थों में 'अणुवजोगा दव्वे त्ति कटु' और 'अणुवजोगो दवमिदि कट्ट' वाक्यांश सर्वथा समान है । भेद केवल बहुवचन व एकवचन का है। ४. षट्खण्डागम में इसी प्रसंग में नैगम और व्यवहार इन दो नयों की अपेक्षा एक अनुपयुक्त को और अनेक अनुपयुक्तों को आगम से द्रव्यकृति कहा गया है, संग्रह नय की अपेक्षा भी एक अथवा अनेक अनुपयुक्तों को आगम से द्रव्यकृति कहा गया है । ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त को आगम से द्रव्यकृति, तथा शब्दनय की अपेक्षा अवक्तव्य कहा गया है। __अनुयोगद्वार में नैगम नय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त को आगम से एक द्रव्यावश्यक, दोतीन अनुपयुक्तों को आगम से दो-तीन द्रव्यावश्यक कहकर आगे यह सूचना कर दी गई है कि इसी प्रकार से जितने भी अनुपयुक्त हों उतने ही उनको आगम से द्रव्यावश्यक जानना चाहिए। आगे नैगमनय के समान ही व्यवहार नय से भी इसी प्रकार जान लेने की प्रेरणा कर दी गई है। संग्रह नय की अपेक्षा एक अथवा अनेक अनुपयुक्तों को आगम से एक द्रव्यावश्यक अथवा अनेक द्रव्यावश्यक कहते हुए एक द्रव्यावश्यक कह दिया गया है। ___ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त आगम से द्रव्यावश्यक है, क्योंकि वह पृथक्त्व को स्वीकार नहीं करता है। तीन शब्द नयों की अपेक्षा ज्ञायक अनुपयुक्त अवस्तु है, क्योंकि यदि ज्ञायक है तो अनुपयुक्त नहीं होता। यहाँ षट्खण्डागम की अपेक्षा अनुयोगद्वार में यह विशेषता रही है कि प० ख० में जहाँ नैगम और व्यवहार इन दोनों नयों की विषयता को एक साथ दिखला दिया गया है वहां भनुयोगद्वार में प्रथमतः नैगमनय की अपेक्षा निरूपण करके तत्पश्चात् 'एवमेव ववहारस्स वि' ऐसी सूचना करते हुए व्यवहारनय की नैगमनय से समानता प्रकट की गई है । (१५ [२]) ऋजुसूत्रनय के प्रसंग में ष० ख० की अपेक्षा अनुयोगद्वार में 'क्योंकि वह पृथक्त्व को १. १० ख० सूत्र ४,१, ५४-५५ (पु० ६) व ५,५, १२-१४ (पु० १३) २. अनु० सूत्र १४ व ४८२ ३. १० ख० सूत्र ५६-६० (पु०६) ४. अनु० सूत्र १५ [१-५] । षट्खण्डागम को अन्य ग्रन्थों से तुलना / २६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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