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यस्य पुरस्ताद विगलितमाना न प्रतितीर्ध्या भुवि विवदन्ते ॥१०॥ त्वयि ज्ञानज्योतिर्विभवकिरण ति भगव
न्मभूवन् सद्योता इव शुचिरवावन्यमतयः ॥-स्वयम्भू०, ११७ गुण-कीर्तन
समन्तभद्र के पश्चाद्वर्ती अनेक ग्रन्थकारों ने उनके विविध गुणों की प्रशंसा की है। यथा
(१) आठवीं शती के प्रख्यात विद्वान् आ० अकलंकदेव ने आ० समन्तभद्र-विरचित देवागमस्तोत्र की वृत्ति (अष्टशती) को प्रारम्भ करते समय उन्हें नमस्कार करते हुए उसकी व्याख्या करने की प्रतिज्ञा की है व उनकी विशेषता को प्रकट करते हुए उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि आ० समन्तभद्र यति ने इस कलिकाल में भी भव्य जीवों की निष्कलंकता के लिएउनके कर्मकालुष्य को दूर करने के लिए समस्त पदार्थों को विषय करनेवाले स्यावादरूप पवित्र तीर्थ को प्रभावित किया है । वह पद्य इस प्रकार है
तीर्थ सर्वपदार्थतत्त्वविषयस्याद्वादपुण्योदधे*व्यानामकलंकभावकतये प्राभावि काले कलौ। येनाचार्यसमन्तभद्रयतिना तस्मै नमः सन्ततं
कृत्वा विवियते स्तवो भगवतां देवागमस्तत्कृतिः ।। (२) इसी 'देवागमस्तोत्र' पर उपर्युक्त 'अष्टशती' से गर्भित 'अष्टसहस्री' नाम की टीका के रचयिता आचार्य विद्यानन्द ने समन्तभद्र की वाणी को विशिष्ट विद्वानों के द्वारा पूज्य, सूर्यकिरणों को तिरस्कृत करनेवाली सप्तभंगी के विधान से प्रकाशमान, भाव-अभावादि विषयक एकान्तरूप मनोगत अन्धकार को नष्ट करनेवाली और निर्मल ज्ञान के प्रकाश को फैलानेवाली कहा है। साथ ही, उन्होंने आशीर्वाद के रूप में यह भी कहा है कि वह समन्तभद्र की वाणी आप सबके निर्मल गुणों के समूह से प्रादुर्भूत कीर्ति, समीचीन विद्या (केवलज्ञान) और सुख की वृद्धि एवं समस्त क्लेशों के विनाश के लिए हो। यथा--
प्रज्ञाधीशप्रपूज्योज्ज्वलगुगनिकरोद्भूतसत्कीतिसम्पन्विद्यानन्दोदयायानवरतमखिलक्लेशनिर्णाशनाय । स्ताद गौः सामन्तभद्री दिनकररुचिजित्सप्तभंगीविधीला
भावाब कान्तचेतस्तिमिरनिरसनी वोऽकलंकप्रकाशा ।। इसमें आ० विद्यानन्द ने श्लेषरूप में अपने नाम के साथ 'अष्टशती' के रचयिता भट्टाकलंकदेव के नाम को व्यक्त कर दिया है।
(३) हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेनाचार्य ने जीवसिद्धि के विधायक और असिद्धविरुद्धादि दोषों से रहित युक्तियुक्त समन्तभद्र के वचन को वीर जिन के वचन के समान प्रकाशमान बतलाया है । यथा
जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम् ।
वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते ॥१-२६।। यहाँ 'जीवसिद्धिविधायी' से ऐसा प्रतीत होता है कि समन्तभद्र के द्वारा जीव के अस्तित्व
६६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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