SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 749
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का साधक कोई ग्रन्थ रचा गया है जो वर्तमान में अनुपलब्ध है । दूसरे, 'युक्त्यनुशासनस्तोत्र' की भी सूचना की गयी जो वर्तमान में उपलब्ध है व जिसपर विद्यानन्दाचार्य के द्वारा टीका भी लिखी गयी है । इस टीका को प्रारम्भ करते हुए आ० विद्यानन्द ने मंगल के रूप में समन्तभद्र-विरचित उस युक्त्यनुशासनस्तोत्र को प्रमाण व नय के आश्रय से वस्तुस्वरूप का निर्णय करनेवाला होने से अबाधित कहा है व इस प्रकार से उसका जयकार भी किया है प्रमाण-नयनिर्णीतवस्तुतत्त्वमबाधितम् । जीयात् समन्तभद्रस्य स्तोत्रं युक्त्यनुशासनम् ।। (४) आदिपुराण के कर्ता आ० जिनसेन ने कहा है कि समन्तभद्राचार्य का यश कवि, गमक, वादी और वाग्मी जनों के सिर पर चूड़ामणि के समान सुशोभित होता था। अभिप्राय यह कि आचार्य समन्तभद्र के कवित्व, गमकत्व, वादित्व और वाग्मित्व ये चार गुण प्रकर्ष को प्राप्त थे। आगे उन जिनसेनाचार्य ने समन्तभद्र को 'कविवेधा'-कवियों का स्रष्टा-कहकर उन्हें नमस्कार करते हुए यह भी कहा है कि उनके वचनरूप वज्र के पड़ने से कुमतरूप पर्वत ढह जाते थे। इससे उनके कवित्व और वादित्व गुण प्रकट हैं।' (५) लगभग इसी अभिप्राय को प्रकट करते हुए कवि वादीभसिंह ने भी 'गद्यचिन्तामणि' में कहा है कि समन्तभद्र आदि मुनीश्वर सरस्वती के स्वच्छन्द विहार की भूमि रहे हैं। उनके ' वचनरूप वज्र के गिरने पर मिथ्यावादरूप पर्वत खण्ड-खण्ड हो जाते थे । (६) आचार्य वीरनन्दी ने अपने 'चन्द्रप्रभचरित' में आ० समन्तभद्र आदि की वाणी को मोतियों के हार के समान दुर्लभ बतलाया है। (७) वादिराज मुनि ने स्वामी समन्तभद्र का चरित सभी के लिए आश्चर्यजनक बतलाते हुए कहा है, कि उनके 'देवागमस्तोत्र' द्वारा आज भी सर्वज्ञ दृष्टिगोचर हो रहा है। (८) आचार्य वसुनन्दी सैद्धान्तिक ने 'देवागमस्तोत्र' की वृत्ति को प्रारम्भ करते हुए समन्तभद्र के मत की वन्दना की है और अनेक विशेषण विशिष्ट उसे कालदोष से भी रहित बतलाया है-इस कलिकाल में भी उन्होंने जनशासन को प्रभावशाली किया है, इस प्रकार की उनकी विशेषता को प्रकट किया है ।। (E) 'ज्ञानार्णव' के कर्ता शुभचन्द्राचार्य ने उन्हें कवीन्द्रों में सूर्य बतलाकर यह कहा है कि उनकी सूक्तिरूपी किरणों के प्रकाश में अन्य कवि जुगुनू के समान हँसी के पात्र बनते थे। इसी प्रकार से वादिराज सूरि ने 'यशोधरचरित' में, वर्धमानसूरि ने 'वरांगचरित' में और अजितसेन ने 'अलंकार-चिन्तामणि' में; तथा अन्य अनेक ग्रन्थकारों ने समन्तभद्र के महत्त्व को प्रकट किया है । अनेक शिलालेखों में भी उनके प्रशस्त गुणों की श्लाघा की गयी है। समन्तभद्र का समय आचार्य समन्तभद्र की कृतियों में कहीं भी उनके समय का संकेत नहीं किया गया है । १. आदिपुराण १,४३-४४ २. चन्दप्रभाचरित, १-६ ३. पार्श्वनाथचरित, १-१७ ४. ज्ञानार्णव, १-१४ प्रन्थकारोल्लेख /६९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy