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शिलालेख क्र० ४०(६४) से इतना ज्ञात होता है कि समन्तभद्र श्रुविली भद्रबाहु, उनके शिष्य चन्द्रगुप्त, उनके वंशज पद्यनन्दी (कुन्दकुन्द), उनके वंशज उमास्वाति (गद्धपिच्छाचार्य) और उनके शिष्य बलाकपिच्छ; इस आचार्यपरम्परा में हुए हैं। इनमें उमास्वाति का भी समय निर्णीत नहीं है, फिर भी,सम्भवतः वे दूसरी-तीसरी शताब्दी के विद्वान् रहे हैं । यदि यह ठीक है तो यह कहा जा सकता है कि समन्तभद्र इसके पूर्व नहीं हुए हैं। ___ इसके पश्चात् वे कब हुए हैं, इसका विचार करते हुए उस प्रसंग में 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' यह पूज्यपादाचार्य-विरचित जैनेन्द्र व्याकरण का सूत्र (५,४,१६८) प्राप्त होता है। इसमें इसके पूर्व के चार सूत्रों' का उल्लेख आचार्य समन्तभद्र के मतानुसार किया गया है। यथा
"मयो हः इत्यादि सूत्रचतुष्टयं समन्तभद्राचार्यमतेन भवति, नान्येषामिति विकल्पः, तथा चोदाहृतम् ।"-वृत्तिसूत्र ५,४,१६८
पूज्यपाद आचार्य प्रायः छठी शताब्दी के विद्वान् रहे हैं, यह हम पीछे (पृ० ६८२-८३ पर) लिख आये हैं।
इससे समन्तभद्राचार्य के सम्बन्ध में इतना ही कहा जा सकता है कि वे तीसरी से छठी शताब्दी के मध्य में किसी समय हुए हैं ।
विद्यावारिधि डॉ० ज्योतिप्रसाद के मतानुसार आचार्य समन्तभद्र का समय १२०-८५ ई० निश्चित है। १६. सूत्राचार्य
जो विवक्षित विषय की प्ररूपणा संक्षेप से सूत्ररूप में करते रहे हैं उन्हें सम्भवतः सूत्राचार्य कहा जाता था। अथवा जो सूत्र में अन्तहित अर्थ के व्याख्यान में कुशल होते थे, उन्हें सूत्राचार्य समझना चाहिए।
धवला में उनका एक उल्लेख जीवस्थान-कालानुगम के प्रसंग में किया गया है। वहाँ मिथ्यादृष्टियों के काल की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में यह एक शंका उठायी गयी है कि व्यय के होने पर भी जो राशि समाप्त नहीं होती है उसे यदि अनन्त माना जाता है तो वैसी स्थिति में अर्धपुद्गल परिवर्तन आदि रूप व्ययसहित राशियों की अनन्तता के नष्ट होने का प्रसंग प्राप्त होता है । इसके समाधान में वहाँ यह कहा गया है कि यदि उनकी अनन्तता समाप्त होती है तो हो जावे, इसमें कुछ दोष नहीं है। इस पर वहाँ शंकाकार ने कहा है कि उनमें सूत्राचार्य के व्याख्यान से अनन्तता तो प्रसिद्ध है, तब उसकी संगति कैसे होगी। इस पर धवला. कार ने कहा है कि सूत्राचार्य के द्वारा जो उनमें अनन्तता का व्यवहार किया गया है, उसका कारण उपचार है । जैसे प्रत्यक्ष प्रमाण से जाने गये स्तम्भ को लोक में उपचार से प्रत्यक्ष कहा जाता है वैसे ही अवधिज्ञान की विषयता को लांघकर स्थित राशियां चूंकि अनन्त केवलज्ञान
१. यो हः । शश्छोऽटि । हलो यमा यमि खम् । झरो झरि स्वे ।-जनेद्र-सूत्र ५,४,१६४-६७ २. आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार ने समन्तभद्र के समय से सम्बन्धित विविध मतों पर
विचार करते हुए उसके विषय में पर्याप्त ऊहापोह किया है। उससे सम्बन्धित चर्चा
'स्वामी समन्तभद्र' में 'समय-निर्णय' शीर्षक में द्रष्टव्य है (पृ० ११५-६६)। ३. देखिए 'तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा' भा० २, पृ० १८३-८४
६६६ / षट्सण्डागम-परिशीलन
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