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________________ यहाँ 'भंते' यह संबोधन किसके लिए व किसके द्वारा किया गया है तथा 'वत्तइस्सामि क्रिया का कर्ता कौन है, यह विचारणीय है । क्या गौतम गणधर भगवान् महावीर को सम्बोधित कर उस महादण्डक के कहने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं अथवा प्रज्ञापनाकार ही अपने बहुमान्य गुरु आदि को सम्बोधित कर उक्त महादण्डक के कहने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं ? वाक्य विन्यास कुछ असंगत-सा दिखता है। (११) शेष पदों में प्रायः प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा गौतम के प्रश्न और भगवान् महावीर के उत्तर के रूप में ही की गई है है । अपवाद के रूप में एक सूत्र और (१०८६वां) भी देखा जाता है। वहाँ सामान्य से प्रश्न इस प्रकार किया गया है "से किं तं पओग गती ? पओग गती पण्णरसविहा पण्णत्ता । तं जहा।" इस विवेचन से स्पष्ट है कि प्रशापना में प्रश्नोत्तर की पद्धति समान रूप में नहीं रही है । षट्खण्डागम और प्रज्ञापना में प्राचीन कौन ? महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित प्रज्ञापना के संस्करण की प्रस्तावना में प्रज्ञापना को षट्खण्डागम की अपेक्षा प्राचीन ठहराया गया है। इसके लिए वहाँ जो कारण दिए गए हैं उनके विषय में यद्यपि स्व० डॉ० हीरालाल जी जैन और डॉ० प्रा० ने० उपाध्ये के द्वारा षट्खण्डागम पु० १ की प्रस्तावना मे विचार किया जा चुका है, फिर भी प्रसंग पाकर यहां भी उसके विषय में कुछ विचार कर लिया जाए--- १. उक्त प्रशापना की प्रस्तावना में यह कहा गया है कि षट्खण्डागम में अनुयोगद्वार और नियुक्ति की पद्धति से प्रतिपाद्य विषय को अनुयोगद्वारों में विभाजित कर निक्षेप आदि के आश्रय से उसकी व्याख्या की गई है। वहीं अनुगम, संतपरूवणा, णिद्देस और विहासा जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। किन्तु प्रज्ञापना में ऐसा नहीं किया गया, वह मौलिक सूत्र के रूप में देखा जाता है । इससे सिद्ध है कि षट्खण्डागम प्रशापना से पीछे रचा गया या संकलित किया गया है। यहाँ हम यह देखना चाहेंगे कि भगवान महावीर के द्वारा अर्थरूप से उपदिष्ट और गौतम गणधर के द्वारा ग्रन्थ रूप से प्रथित जिस मौलिक श्रुत की परम्परा पर ये दोनों ग्रन्थ आधारित हैं उस मौलिक श्रुत का क्या स्वरूप रहा है । यहाँ हम आचारादि प्रत्येक अंगग्रन्थ को न लेकर उस चौथे समवायांग के स्वरूप पर विचार करेंगे जिसका उपांग उस प्रज्ञापनासूत्र को माना जाता है । नन्दिसूत्र में समवायांग का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है समवायांग में जीव, अजीव, जीव-अजीव; लोक, अलोक, लोकालोक; स्वसमय, परसमय और स्वसमय-परसमय; इनका संक्षेप किया जाता है। उसमें एक को आदि लेकर उत्तरोत्तर एक-एक अधिक के क्रम से वृद्धिंगत सौ भावों की प्ररूपणा की जाती है। द्वादशांगरूप गणिपिटक के पल्लवानों को संक्षिप्त किया जाता है। उसमें परीत वाचनाएँ, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढा, संख्यातश्लोक, संख्यात नियुक्तियां, संख्यात प्रतिपत्तियां और संख्यात संग्रहणियाँ १. गुजराती प्रस्तावना में 'प्रज्ञापना और षटखण्डागम' शीर्षक । पृ० १६-२२ २. १० ख० पु० १ (द्वि० आवृत्ति) के 'सम्पावकीय' में 'षट्खण्डागम और प्रज्ञापनासूत्र' शीर्षक । पृ० ६-१३ २४८ / बट्लण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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