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________________ आसालिया का स्वरूपविषयक प्रश्न किया गया है और तत्पश्चात् वहीं श्रमण महावीर को 'भंते' इस रूप में सम्बोधित करते हुए आसालिया के विषय में यह पूछा गया है कि वह सम्मूर्च्छनजन्म से कहाँ उत्पन्न होती है। उत्तर 'गोयमा' इस प्रकार के सम्बोधन के साथ दिया गया है । इस प्रकार यहाँ प्रश्न के दो रूप हो गये हैं— एक किसी व्यक्ति विशेष को लक्ष्य न करके सामान्य रूप से और दूसरा महावीर को लक्ष्य करके विशेष रूप से । (३) पश्चात् सूत्र ८३ - १२ में पूर्ववत् सामान्य रूप में ही प्रश्नोत्तर की स्थिति रही है, पर आगे सूत्र ६३ में पुनः ८२ वें सूत्र के समान प्रश्न के दो रूप हो गये हैं "से किं तं सम्मुच्छिममणुस्सा ? कहिं णं भंते ! सम्मुच्छिममणुस्सा सम्मुच्छंति ? गोयमा ! • " से तं सम्मुच्छिम मणुस्सा ।" श्रागे प्रकृत प्रथम 'प्रज्ञापना' पद के अन्त (१४७) तक तथा दूसरे स्थान पद में भी पूर्ववत् सामान्यरूप में ही प्रश्नोत्तर की अवस्था रही है । (४) तीसरे 'बहुवक्तव्य' पद के अन्तर्गत २६ द्वारों से प्रथम 'दिशा' द्वार में (सूत्र २१३२४) में प्रश्नोत्तर की पद्धति नहीं रही है । वहाँ "दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा जीवा पच्चत्थिमेणं......" इत्यादि रूप से सामान्य जीवों, पृथिवीकायिकादिकों, नारक - देवादिकों और अन्त में सिद्धों के अल्पबहुत्व को दिशाविभाग के अनुसार दिखलाया गया है । यहाँ यह स्मरणीय है कि जिस प्रकार षट्खण्डागम में 'गवियाणुवादेण' ( सूत्र १,१,२४), 'इंदियाणुवादेण' (सूत्र १,१,३३ ) इत्यादि प्रकार से प्रकरण का निर्देश करते हुए तदनुसार वहाँ प्रतिपाद्य विषय का निरूपण किया गया है उसी प्रकार से प्रज्ञापना के इस द्वार में भी सर्वत्र (सूत्र २१३-२४) 'विसाणुवाएणं' या 'विसाणुवातेण' इस प्रकार से प्रकरण का स्मरण कराते हुए उपर्युक्त जीवों में उम अल्पवहुत्व का विचार किया गया है । (५) श्रागे इसी तीसरे पद में 'गति' द्वार से लेकर २३वें 'जीव' द्वार (सूत्र २२५-७५) तक गति आदि प्रकरणविशेष का प्रारम्भ में स्मरण न कराकर गौतम - महावीर कृत प्रश्नोत्तर के रूप में प्रकृत अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। (६) यहीं पर आगे २४वें 'क्षेत्र' द्वार में पुनः 'खेत्ताणुवाएणं' इस प्रकार से प्रकरण का स्मरण कराते हुए क्षेत्र के आश्रय से प्रकृत अल्पबहुत्व का विचार किया गया है व प्रश्नोत्तरपद्धति का अनुसरण नहीं किया गया है (सूत्र २७६-३२४) । (७) तत्पश्चात् २५ वें 'बन्ध' द्वार (सूत्र ३२५) में गौतम के प्रश्न और भगवान् महावीर के उत्तर के रूप में 'बन्ध' प्रकरण का स्मरण न कराकर बन्धक-अबन्धक के साथ पर्याप्तअपर्याप्त एवं सुप्त- जागृत आदि जीवों में अल्पबहुत्व का विचार किया गया है । (5) अनन्तर २६ वें 'पुद्गल' द्वार में 'खेत्ताणुवाएणं' व 'बिसाणुवाएणं' ऐसा निर्देश करते हुए पुद्गलों (सूत्र ३२६-२७ ) और द्रव्यों (सूत्र ३२८- २६ ) के अल्पबहुत्व को प्रकट किया गया है । (E) आगे सूत्र ३३०-३३ गौतमकृत प्रश्न और महावीर द्वारा दिये गए उत्तर के रूप में विविध पुद्गलों के अल्पबहुत्व को दिखलाया गया है। (१०) प्रकृत 'बहुवक्तव्य' द्वार के अन्तिम 'महादण्डक' द्वार को प्रारम्भ करते हुए यह सूचना की गई है- -"मह भंते ! सव्वजीवप्पबहुं महादंडयं वत्तइस्सामि ।" षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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