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करता है । वही अनन्तगुणा संवलेश हानि से परस्थानस्वरूप नीललेश्या में भी परिणत होता है। इस प्रकार कृष्णलेश्या में संक्लेश की वृद्धि में एक ही विकल्प है, किन्तु विशुद्धि की वृद्धि में दो विकल्प हैं-स्वस्थान में स्थित रहता है और परस्थानरूप नीललेश्या में भी परिणत होता है।
नीललेश्यावाला संक्लेश की छह स्थानपतित वृद्धि के द्वारा स्वस्थान में परिणत होता है और अनन्तगुणी संक्लेशवृद्धि के द्वारा कृष्णलेश्या में भी परिणत होता है। इस प्रकार यहां दो विकल्प हैं।
यदि वह विशुद्धि को प्राप्त होता है तो पूर्वोक्त क्रम से स्वस्थान में स्थित रहकर हानि को प्राप्त होता है तथा अनन्तगुणी विशुद्धि के द्वारा वृद्धिंगत होकर कापोत लेश्या में भी परिणत होता है । इस प्रकार इसमें भी दो विकल्प हैं।
परिणमन का यही कम अन्य लेश्याओं में भी है। विशेष इतना है कि शुक्ललेश्या में संक्लेश की अपेक्षा दो विकल्प हैं, किन्तु विशुद्धि की अपेक्षा उसमें एक ही विकल्प है, क्योंकि यह सर्वोत्कृष्ट विशुद्ध लेश्या है।
आगे कम से इन छहों लेश्याओं में तीव्रता और मन्दता के आश्रय से संकम और प्रतिग्रह से सम्बद्ध अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है (पु० १६, पृ० ४६३-६७) ।
१६. सात-असात अनुयोगद्वार
यहां समुत्कीर्तना, अर्थपद, पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन पाँच अधिकारों में साता-असाता विषयक विचार किया गया है। यथा
समुत्कीर्तना में एकान्तसात, अनेकान्तसात, एकान्तअसात और अनेकान्तमसात के अस्तित्व को प्रकट किया गया है।
अर्थपद के प्रसंग में यह दिखलाया गया है कि जो कर्म सात रूप से बाँधा गया है वह संक्षेप व प्रतिक्षेप से रहित होकर सात रूप से ही वेदा जाता है, यह एकान्तसात का लक्षण है। इसके विपरीत अनेकान्तसात है ।
जो कर्म असातस्वरूप से बांधा जाकर संक्षेप व प्रतिक्षेप से रहित होकर असातस्वरूप से ही वेदा जाता है उसे एकान्तअसात कहते हैं। इसके विपरीत अनेकान्त-असात है।
पदमीमांसा में उक्त एकान्त-अनेकान्त सात-असात के उत्कृष्ट, अनुस्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य पदों के अस्तित्व मात्र का वर्णन है।
स्वामित्व के प्रसंग में उत्कृष्ट एकान्तसात के स्वामी का निर्देश करते हुए कहा गया है कि अभव्यसिद्धिक प्रायोग्य सातवीं पृथिवी का नारक गुणितकर्माशिक वहाँ से निकलकर सर्वलघुकाल में इकतीस सागरोपमप्रमाण आयुस्थिति वाले देवलोक को प्राप्त होने वाला है, उस सातवीं पृथिवी के अन्तिम समयवर्ती नारक के उत्कृष्ट एकान्तसात होता है। कारण यह कि उसके सातवेदन के काल सबसे महान् और बहुत होंगे। इसी प्रकार आगे उत्कृष्ट अनेकान्तसात, उत्कृष्ट एकान्तअसात और उत्कृष्ट अनेकान्तअसात के स्वामियों का भी विचार किया गया है।
अल्पबहुत्व में उपर्युक्त एकान्तसात आदि के विषय में अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है।
५५२ / षट्लण्डागम-परिशीलन
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