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________________ १७. दीर्घ-ह्रस्व अनुयोगद्वार ____ इस अनुयोगद्वार में दीर्घ के ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-प्रकृतिदीर्घ, स्थितिदीर्घ, अनुभागदीर्घ और प्रदेशदीर्घ । इनमें प्रकृतिदीर्घ मूल और उत्तरप्रकृतिदीर्घ के भेद से दो प्रकार का है । मूल प्रकृतिदीर्घ भी दो प्रकार का है-प्रकृतिस्थानदीर्घ और एक-एक प्रकृतिस्थानदीर्घ । इन्हें स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि आठों प्रकृतियों के बंधने पर प्रकृतिदीर्घ और उनसे कम के बंधने पर नोप्रकृतिदीर्घ होता है। यही अभिप्राय सत्त्व और उदय के विषय में भी व्यक्त किया गया है। ___उत्तरप्रकृतिदीर्घ-पांच ज्ञानावरणीय और पांच अन्तराय में प्रकृतिदीर्घ का प्रतिषेध करते हुए नो दर्शनावरणीय प्रकृतियों के बाँधनेवाले के प्रकृतिदीर्घ कहा गया है और उनसे कम बांधने वाले के उसका निषेध किया गया है। यही प्रक्रिया उनके सत्त्व और उदय के विषय में भी व्यक्त की गयी है। _ वेदनीय के बन्ध और उदय का आश्रय करके प्रकृतिदीर्घ सम्भव नहीं है, किन्तु सत्त्व की अपेक्षा वह सम्भव है क्योंकि अयोगिकेवली के अन्तिम समय में एक प्रकृति के सत्त्व की अपेक्षा द्विचरम आदि समयों में दो प्रकृतियों के सत्त्व की दीर्घता उपलब्ध होती है। इसी प्रकार से आगे यथासम्भव मोहनीय, आयु, नामकर्म और गोत्रकर्म के आश्रय से बन्ध, उदय और सत्त्व की अपेक्षा उस प्रकृतिदीर्घता को स्पष्ट किया गया है। इसी पद्धति से स्थितिदीर्घता और अनुभागदीर्घता के विषय में भी विचार किया गया है। साथ ही, चार प्रकार की प्रकृतिह्रस्वता के विषय में भी चर्चा की गयी है। १८. भवधारणीय अनुयोगद्वार इस अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में भव के ये तीन भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-ओघभव, आदेशभव और भवग्रहणभव । इनमें आठ कर्मों अथवा उनसे उत्पन्न जीव के परिणाम का नाम ओघभव है। चार गतिनामकर्मों अथवा उनसे उत्पन्न जीव के परिणाम को आदेशभव कहा जाता है । यह आदेशभव नारकभव आदि के भेद से चार प्रकार का है। जिसका भुज्यमान आयुकर्म गल चुका है तथा अपूर्व आयुकर्म उदय को प्राप्त हो चुका है उसके प्रथम समय में जो 'व्यंजन' संज्ञावाला जीवपरिणाम होता है उसे अथवा पूर्व शरीर के परित्यागपूर्वक उत्तर शरीर के ग्रहण को भवग्रहणभव कहते हैं। यही यहाँ प्रसंगप्राप्त है। भव के इन भेदों और उनके स्वरूप का निर्देश करके, वह किसके द्वारा धारण किया जाता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि वह मात्र आयुकर्म के द्वारा धारण किया जाता है, शेष सात कर्मों के द्वारा नहीं; क्योंकि उनका व्यापार अन्यत्र उपलब्ध होता है। वह भव इस भव-सम्बन्धी आयु के द्वारा धारण किया जाता है, न कि परभव-सम्बन्धी आयु के। ___अन्त में यहाँ यह सूचित कर दिया गया है कि जिस प्रदेशाग्र से भव को धारण करता है उसको प्ररूपणा जिस प्रकार पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व के आश्रय से वेदना अनुयोग. द्वार में की गयी है, उसी प्रकार यहाँ भी करनी चाहिए (पु० १६, पृ० ५१२-१३)। १६. पुद्गलात्त अनुयोगद्वार इस अनुयोगद्वार में प्रथमतः पुद्गल के नाम-स्थापनादिरूप चार भेदों का निर्देश करते हुए षट्खणागम पर टीकाएं / ५५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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