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तद्व्यतिरिक्त नोआगम-द्रव्यपुद्गल को यहाँ प्रकृत कहा गया है।
'पुद्गलात्त' में जो 'आत्त' शब्द है उसका अर्थ गृहीत या ग्रहण है । तदनुसार 'पुद्गलास' से ग्रहण किये गये अथवा आत्मसात् किये गये पुद्गल अभिप्रेत हैं । वे पुद्गल छह प्रकार से ग्रहण किये जाते हैं— ग्रहण से, परिणाम से, उपभोग से, आहार से, ममत्व से और परिग्रह से ।
हाथ-पाँव आदि से जो दण्ड आदि पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं वे ग्रहण से गृहीत पुद्गल हैं । मिथ्यात्व आदि परिणाम द्वारा जो पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं वे परिणाम से गृहीत पुद्गल हैं । गन्ध व ताम्बूल आदि उपभोग में आनेवाले पुद्गल उपभोग से गृहीत पुद्गल कहलाते हैं । भोजन-पान आदि रूप जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण किया जाता है, वे आहार से ग्रहण किये गये पुद्गल माने जाते हैं । अनुरागवश जिन पुद्गलों को ग्रहण किया जाता है, उन्हें ममत्व से आत्त पुद्गल कहा जाता है । जो पुद्गल परिग्रह के रूप में स्वाधीन होते हैं वे परिग्रह से आत्त पुद्गल कहलाते हैं ।
आगे विकल्प के रूप में 'आत्त' इस प्राकृत शब्द का अर्थ आत्मा या स्वरूप किया गया है । तदनुसार पुद्गलों का जो रूप-रसादि स्वरूप है उसे पुद्गलात्त समझना चाहिए। उनमें जो श्रनन्तभागादिरूप छह वृद्धियाँ होती हैं, उनकी प्ररूपणा जैसे भावविधान में की गयी है, वैसे ही यहाँ भी करनी चाहिए, ऐसी सूचना यहाँ कर दी गयी है (पु० १६, पृ० ५१४-१५)। २०. निधत्त अनिधत्त अनुयोगद्वार
निधत्त और अनिधत्त ये दोनों प्रकृति-स्थिति आदि के भेद से चार-चार प्रकार के हैं ।
जिस प्रदेशाग्र को न उदय में दिया जा सकता है और न अन्य प्रकृतियों में संक्रान्त भी किया जा सकता है, किन्तु जिसका अपकर्षण और उत्कर्षण किया जा सकता है, उसका नाम निधत्त है । अनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट हुए उपशामक व क्षपक के सब कर्म अनिधत्तस्वरूप में रहते हैं, क्योंकि उनमें निधत्त के सब लक्षणों का विनाश हो चुका होता है । अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना करनेवाले के अनिवृत्तिकरण में चार अनन्तानुबन्धी तो अनिधत्त हैं, किन्तु शेष कर्म निधत्त और अनिधत्त दोनों प्रकार के होते हैं । दर्शनमोहनीय के उपशामक और क्षपक के अनिवृत्तिकरण में दर्शनमोहनीय कर्म ही अनिधत्त होता है, शेष कर्म निधत्त भी होते हैं और अनिधत्त भी ।
आगे यहाँ यह सूचना कर दी गयी है कि इस अर्थपद के अनुसार मूल प्रकृतियों का आश्रय करके चौबीस अनुयोगद्वारों द्वारा इस निधत्त और अनिधत्त की प्ररूपणा करनी चाहिए । २१. निकाचित-अनिकाचित अनुयोगद्वार
यहाँ प्रकृतिनिकाचित आदि के भेद से चार प्रकार के निकाचित का अस्तित्व दिखाकर उसके स्वरूप का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि जिस प्रदेशाग्र का अपकर्षण, उत्कर्षण और अन्य प्रकृतिरूप संक्रम नहीं किया जा सकता है तथा जिसे उदय में भी नहीं दिया जा सकता है, उसका नाम निकाचित है । आगे यह स्पष्ट किया गया है कि अनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट हुए जीव के सब कर्म अनिकाचित और उसके नीचे निकाचित व अनिकाचित भी होते हैं। पूर्व अनुयोगद्वार के समान यहाँ भी यह सूचित किया गया है कि इस अर्थपद के अनुसार निकाचित और अनिकाचित की प्ररूपणा चौबीस अनुयोगद्वारों के आश्रय से करनी चाहिए ।
५५४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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