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________________ उपशान्त, निधत्त और निकाचित के संनिकर्ष के प्रसंग में कहा गया है कि अप्रशस्त उपसामना से जो प्रदेशाग्र उपशान्त होता है, वह निधत्त और निकाचित नहीं होता। जो प्रदेशान निधत्त होता है वह उपशान्त और निकाचित नहीं होता है। जो प्रदेशाग्र निकाचित होता है वह उपशान्त और निधत्त नहीं होता। ___ अल्पबहुत्व के प्रसंग में बतलाया है कि जिस किसी भी एक प्रकृति का अधःप्रवृत्त संक्रम स्तोक, उससे उपशान्त प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा, निधत्त उससे असंख्यातगुणा और निकाचित उससे असंख्यातगुणा होता है।' २२. कमंस्थिति अनुयोगद्वार इस अनयोगद्वार में भिन्न दो उपदेशों का उल्लेख है। तदनुसार नागहस्ती क्षमाश्रमण जघन्य और उत्कृष्ट स्थितियों के प्रमाण की प्ररूपणा को कर्म स्थितिप्ररूपणा कहते हैं। किन्तु आर्यमा क्षमाश्रमण कर्मस्थिति में संचित सत्कर्म की प्ररूपणा को 'कर्मस्थितिप्ररूपणा कहते हैं। इस प्रकार दो उपदेशों से कर्मस्थिति की प्ररूपणा करनी चाहिए (पु० १६, पृ० ५१८)। इतना स्पष्ट करके इस कर्मस्थिति अनुयोगद्वार को यही समाप्त कर दिया गया है। २३. पश्चिमस्कन्ध अनुयोगद्वार इस अनुयोगद्वार में पूर्वप्ररूपित भवधारणीय (१८) अनुयोगद्वार के समान भव के ओघभव, आदेशभव और भवग्रहणभव इन तीन भेदों का निर्देश है। उनमें यहाँ भवग्रहणभव प्रसंगप्राप्त है। आगे कहा गया है कि जो अन्तिम भव है उसमें जीव की सब कर्मों की बन्धमार्गणा, उदयमार्गणा, उदीरणामार्गणा, संक्रममार्गणा और सत्कर्ममार्गणा ये पाँच मार्गणाएँ इस पश्चिमस्कन्ध अनुयोगद्वार में की जाती हैं। ___ आगे यह निर्देश किया गया है कि प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशाग्र इनका आश्रय लेकर इन पाँच प्ररूपणाओं के कर चुकने के बाद अन्तिम भवग्रहण में सिद्ध होनेवाले जीव की यह अन्य प्ररूपणा करनी चाहिए आयु के अन्तर्मुहुर्त शेष रह जाने पर जीव आवजितकरण' को करता है। आवजितकरण के कर चकने पर वह केवलिस मुवात को करता है। उसे करते हुए प्रथम समय में दण्ड को करता है। उसमें वह स्थिति के असंख्यात बहुभाग तथा अप्रशस्त कर्मों के अनुभाग के अनन्त बहुभाग को नष्ट करता है। द्वितीय समय में कपाट को करता है। उसमें वह शेष स्थिति के १. धवला, पु० १६, पृ० ५१७ २. केवलिसमुग्धादस्स अहिमुही भावो आवज्जिदकरणमिदि ।---धवला, पु० १०, पृ० ३२५ का टिप्पण ७। अपरे आवजितकरणमित्याहुः । तत्रायं शब्दार्थ:--- आवजितो नाम अभिमुखीकृतः । तथा च लोके वक्तारः आजितो मया, अभिमुखीकृतः इत्यर्थः । ततश्च तथा भव्यत्वेनाजितस्य मोक्षगमनं प्रत्यभिमुखीकृतस्य करणं क्रिया शुभोपयोगकारणं आवजितकरणम् ।-प्रज्ञाप० मलय० व० ३६, पृ० ६०४ व पंचसं०मलयवृत्ति १-१५, पृ० २८ (जैन लक्षणावली १, पृ० २१५) इसे 'आयोजिकाकरण' भी कहा गया है। षट्खण्डागम पर टीकाएं | ५५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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