SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 610
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ असंख्यात बहुभाग को तथा शेष अनुभाग के अनन्त बहुभाग को नष्ट करता है। तीसरे समय में मन्य को करता है। उसमें भी वह स्थिति और अनुभाग को उसी प्रकार से नष्ट करता है। तत्पश्चात् चौथे समय में लोक को पूर्ण करता है और उसमें भी स्थिति और अनुभाग को उसी प्रकार से नष्ट करता है। उस समय वह स्थितिसत्त्व को आयु से संख्यातगुणे अन्तर्मुहूर्तमात्र स्थापित करता है।' यह प्ररूपणा कषायप्राभत के चूर्णिसूत्रों पर अधारित है, जो प्रायः शब्दशः समान है।' स्थितिघात व अनुभागधात का क्रम स्पष्ट करते हुए योगनिरोध के प्रसंग में कहा गया है -फिर अन्तर्मुहूर्त जाकर वचन-योग का निरोध करता है, पश्चात् अन्तर्मुहर्त जाकर मनोयोग का निरोध करता है, पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर उच्छ्वास-निःश्वास का निरोध करता है, फिर अन्तर्महतं जाकर काययोग का निरोध करता है। इसके पूर्व धवला में इस योगनिरोध के क्रम की प्ररूपणा इस प्रकार की जा चुकी है xxx यहाँ से अन्तर्मुहूतं जाकर बादर काययोग से बादर मनयोग का निरोध करता है, पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर बादर काययोग से बादर वचनयोग का निरोध करता है, पश्चात् बादर काययोग से बादर उच्छ्वास-निःश्वास का निरोध करता है, पश्चात् बादरकाययोग से उसी बादर काययोग का निरोध करता है । पश्चात् सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म मनोयोग का निरोध करता है, पश्चात् सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म वचनयोग का निरोध करता है, पश्चात् सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म उच्छ्वास का निरोध करता है, पश्चात् सूक्ष्म काययोग से उसी सूक्ष्म काययोग का निरोध करता है। योगनिरोध की यह प्ररूपणा व इसके आगे-पीछे का प्रसंग भी प्रायः कषायप्राभत के चणिसूत्रों पर आधारित है, जो प्रायः शब्दशः समान हैं। सर्वार्थसिद्धि' और 'तत्त्वार्थवातिक' में इसका विचार करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि तीथंकर व इतर केवली की जब अन्तर्मुहूर्तमात्र आयु शेष रह जाती है तथा वेदनीय, नाम और गोत्र इन तीन अघाती कर्मों की स्थिति आयु के ही समान रहती है, तब वह सब वचनयोग, मनोयोग और बादर काययोग का निरोध करके सूक्ष्म काययोग का आलम्बन लेता हआ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान पर आरूढ़ होने के योग्य होता है । किन्तु जब आय अन्तर्महर्त शेष रह जाती है और उन तीन अघाती कर्मों की स्थिति उससे अधिक रहती है, तब सयोगी जिन दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात को विसर्पण की अपेक्षा चार समयों में करके तदनन्तर चार समयों में उनका संकोच करते हुए शेष रहे अघाती कर्मों की स्थिति को समान १. इसके पूर्व इस केवलिसमुद्घात की प्ररूपणा धवला में कितने ही प्रसंगों पर की जा चुकी है। देखिए पु० १, पृ० ३०१-४; पु० ४, पृ० २८-२९; पु० ६, पृ० ४१२-१४; पु० १०, पृ० ३२०-२१ (पु० ४ और १० में इन दण्डादि समुद्घातों में फैलने वाले जीवप्रदेशों के आयाम, विष्कम्भ, परिधि और बाहल्य आदि के प्रमाण को भी स्पष्ट किया गया है।) २. क० प्रा० चूणि १-१६ (क० पा० सुत्त पृ० ६००-३) ३. धवला, पु० ६, पृ० ४१४-१५ ४. क० प्रा० चूणि २०-२८; क. पा० सुत्त, पृ० ६०४ ('पश्चिमस्कन्ध' का यह अधिकांश भाग कषायप्राभूत चूणि से शब्दशः समान है)। ५५६ / पदसण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy