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________________ करते हैं व पूर्व शरीर के प्रमाण हो जाते हैं, उस समय वे सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती ध्यान को ध्याते हैं।' धवला में आगे इस प्रसंग में उक्त प्रकार से काययोग का निरोध करता हुआ वह जिन अपूर्वस्पर्धक आदि करणों को करता है, उन्हें स्पष्ट किया गया है । आगे कहा गया है कि कृष्टिकरण के समाप्त होने पर अनन्तर समयों में अपूर्वस्पर्धकों और पूर्वस्पर्धकों को नष्ट करता है व अन्तर्मुहूर्त कृष्टिगतयोग होकर सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाती ध्यान को ध्याता है। कृष्टियों के अन्तिम समय में असंख्यात बहुभाग को नष्ट करता है । योग का निरोध हो जाने पर आयु के समान कर्मों को करता है । पश्चात् अन्तर्मुहूर्त शैलेश्य अवस्थान को प्राप्त होकर समुच्छिन्नक्रिया-अनिवृत्ति ध्यान को ध्याता है । शैलेश्य काल के क्षीण हो जाने पर वह समस्त कर्मों से रहित होकर एक समय में सिद्धि को प्राप्त करता है। यह सब प्ररूपणा भी प्रायः पूर्वोक्त कषायप्राभृतचूणि से शब्दशः समान है-चूणि २७५१ (क०पा० सुत्त, पृ० ६०४-६) । इस प्रकार यह पश्चिमस्कन्ध अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है। २४. अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार यहाँ सर्वप्रथम यह सूचना की गयी है कि नागहस्ती भट्टारक अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में सत्कर्म का मार्गण करते हैं और यही उपदेश परम्परागत है । तत्पश्चात् उस सत्कर्म के ये चार भेद निर्दिष्ट किए गए है-प्रकृतिसत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनुभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कम । इनमें प्रकृतिसत्कर्म मूल और उत्तरप्रकृतिसत्कर्म के भेद से दो प्रकार का है। मूल प्रकृतियों के साथ स्वामित्व को ले जाकर उत्तरप्रकृतियों के सत्कर्म-सम्बन्धी स्वामित्व की प्ररूपणा की १. स०सि० ६-४४ व त०वा० ६-४४; यह प्रसंग ज्ञानार्णव (३६, ३७-४६ या २१८४-६४) में भी द्रष्टव्य है। २. 'शीलानामीशः शंलेशः, तस्य भावः शैलेश्यम्' इस निरुक्ति के अनुसार शैलेश्य का अर्थ है समस्त (१८०००) शीलों का स्वामित्व । जयध० (पश्चिमस्कन्ध)। अन्यत्र सर्वसंवरस्वरूप चारित्र के स्वामी को शैलेश और उसकी अवस्था को शैलेषी कहा गया है । प्रकारान्तर से शैलेश का अर्थ मेरु करके उसके समान स्थिरता को शैलेषी कहा गया है। व्याख्याप्रज्ञप्ति अभय-वृत्ति १,८,७२ (जैन लक्षणावली ३, पृ० १०६६)। सेलेसो किर मेरु सेलेसी होई जा तहाऽचलया। होडं च असेलेसो सेलेसी होइ थिरयाए ।।७।। अहवा सेलुव्व इसी सेलेसी होइ सोउ थिरयाए। सेव अलेसी होई सेलेसी हो आलोवाओ ।।८।। सीलं व समाहाणं निच्छयओ सव्वसंघरो सो य । तस्सेसो सीलेसो सीलेसी होइ तयवत्थो । -ध्यानश गा० ७६, हरि० वृत्ति में उद्धृत ३. धवला पु० १६, पृ०५१६-२१ षट्भण्डागम पर टीकाएं । ५५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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