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जाती है, ऐसी सूचना कर आगे कहा है कि पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय इन प्रकृतियों से सम्बन्धित सत्कर्म के स्वामी सभी छद्मस्थ हैं । निद्रा और प्रचला के सत्कर्म के भी ये ही स्वामी हैं। विशेष इतना है कि अन्तिम समयवर्ती छमस्थ के इनका सत्कर्म नहीं रहता। स्स्यानगृद्धि आदि तीन दर्शनावरण प्रकृतियों के सत्कर्म के भी स्वामी सभी छवमस्थ हैं। विशेष इतना है कि अनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट होने पर अन्तर्मुहूर्त में उनका सत्कर्म व्युच्छिन्न हो जाता है। इस कारण आगे के छद्मस्थों के उनका सत्कर्म नहीं रहता है।
साता-असाता के सत्कर्म के स्वामी सभी संसारी जीव निर्दिष्ट किये गये हैं। विशेषता यह प्रकट की गयी है कि अन्तिमसमयवर्ती भव्य सिद्धि के जिसका उदय नहीं रहता, उसका सत्त्व नहीं रहता।
मोहनीय के सत्कर्म के विषय में यह सूचना कर दी गयी है कि उसके स्वामी की प्ररूपणा जिस प्रकार कषायप्राभूत' में की गयी है, उसी प्रकार से यहाँ करनी चाहिए।
नारकायु का सत्कर्म नारकी, मनुष्य और तिर्यंच के तथा मनुष्यायु और तिर्यंच आयु का सत्कर्म देव, नारकी, तिथंच और मनुष्य इनमें से किसी के भी रहता है । देवायु का सत्कर्म देव, मनुष्य और तिर्यच के रहता है।।
इसी प्रकार से आगे गति-जाति आदि शेष सभी प्रकृतियों के सत्कर्म के स्वामियों का विचार किया गया है ।
तत्पश्चात् एक जीव की अपेक्षा काल, अन्त र, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और संनिकर्ष के विषय में यह सूचना कर दी गयी है कि इनका कथन स्वामित्व से सिद्ध करके करना चाहिए (पु० १६, पृ० ५२२-२४) ।
आगे स्वस्थान और परस्थान के भेद से दो प्रकार के अल्पबहुत्व का निर्देश करते हुए यहाँ परस्थान अल्पबहुत्व की प्ररूपणा प्रथमत: ओघ से और तत्पश्चात् नरकादि गतियों के आश्रय से की गयी है।
भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि की असम्भावना प्रकट कर दी गयी है।
मोहनीय के प्रकृतिस्थानसत्कर्म के विषय में यह सूचना कर दी गयी है कि जिस प्रकार 'कषायप्राभूत' में मोहनीय के प्रकृरिथान सत्कर्म की प्ररूपणा की गयी है, उसी प्रकार से उसकी प्ररूपणा यहां करनी चाहिए।
शेष कर्मों के प्रकृतिस्थान की मार्गणा को सुगम बतलाकर प्रकृतिसत्कर्म की मार्गणा को समाप्त किया गया है।
स्थितिसत्कर्म के प्रसंग में उसके मूलप्रकृतिस्थितिसत्कर्म और उत्तरप्रकृतिस्थितिसत्कर्म इन दो भेदों का निर्देश है । उनमें मूलप्रकृतिस्थितिसत्कर्म को सुगम कहकर आगे उत्तरप्रकृतिसत्कर्म के प्रसंग में प्रथमतः उत्कृष्टस्थितिसत्कर्म की और तत्पश्चात् जघन्यस्थितिसत्कर्म की प्ररूपणा की गयी है । इस प्रकार स्थितिसत्कर्म के प्रमाणानुगम को समाप्त किया गया है।
(पु० १६, पृ० ५२८-३१) आगे क्रम से उत्कृष्टस्थितिसत्कर्म और जघन्यस्थितिसत्कर्म के स्वामियों का विचार किया गया है। जैसे
पांच ज्ञानावरणीय प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म किसके होता है, इसे स्पष्ट करते हए कहा है कि जो नियम से उनकी उत्कृष्ट स्थिति बाँधने वाला है उसके उनका उत्कट स्थिति५५८ / षट्सण्डागम-परिशीलन
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