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________________ सत्कर्म होता है । इसी प्रकार से चार दर्शनावरणीय आदि अन्य प्रकृतियों के उत्कृष्टस्थितिसत्कर्म के स्वामियों का विचार किया गया है। जघन्यस्थितिकर्म-जैसे पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय इनका जघन्य स्थितिसत्कर्म किसके होता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि उनका जघन्य स्थिति सत्कर्म अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ के होता है। निद्रा और प्रचला का जघन्य स्थितिसत्कर्म द्विचरमवर्ती छपस्थ के होता है । स्त्यानगृद्धि आदि तीन दर्शनावरण प्रकृतियों का जघन्य स्थितिसत्कर्म उस अनिवृत्तिकरण में वर्तमान जीव के होता है जो उन तीन का निक्षेप करके एक समय कम आवलीकाल को बिता चुका है। इसी क्रम से साता-असाता आदि अन्य प्रकृतियों के जघन्य स्थितिसत्कर्म के स्वामियों के विषय में भी विचार किया गया है। एक जीव की अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और संनिकर्ष के विषय में यह सूचना कर दी गयी है कि इनका कथन स्वामित्व से जान करके करना चाहिए (धवला, पु० १६, पृ० ३३१-३८)। भनुभागसत्कर्म के प्रसंग में प्रथमतः आदिस्पर्धकों की प्ररूपणा करते हुए 'घाती' और 'स्थान' संज्ञाओं को स्पष्ट किया गया है। पश्चात् उत्कृष्ट व जघन्य अनुभागसत्कर्म विषयक स्वामित्व का विचार करते हुए प्रथमत: उसका विचार ओघ से और तत्पश्चात् नरकादि गतियों के आश्रय से किया गया है (१०१६, पृ०५३८-४३)। तत्पश्चात् नरकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति, देवगति और एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियों में उत्कष्ट अनुभागसत्कर्म के अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण है (पृ० ५४४-४७) । जघन्य अनुभागसत्कर्म के प्रसंग में अल्पबहुत्व का विचार करते हुए प्रथमतः उसकी प्ररूपणा भोघ से की गयी है। तत्पश्चात् उसकी प्ररूपणा नरकादि चार गतियों और एकेन्द्रियों में की गयी है। इस प्रकार अनुभागउदीरणा समाप्त हुई है। प्रदेशउदीरणा के प्रसंग में मूलप्रकृतियों के आश्रय से कहा गया है कि उत्कर्ष से जो उत्कृष्ट प्रदेशाग्र उदीर्ण होता है वह आयु में स्तोक, वेदनीय में असंख्यातगुणा, मोहनीय में असंख्यातगुणा; ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन में समान होकर असंख्यातगुणा; तथा नाम व गोत्र में वह समान होकर असंख्यातगुणा होता है। आगे इन मूलप्रकृतियों में जघन्य प्रदेशाग्र विषयक अल्पबहुत्व को भी प्रकट किया गया है। आगे मनुष्यगति के आश्रय से उदीयमान प्रदेशाग्र के अल्पबहुत्व को प्रकट करते हुए उसके अनन्तर एकेन्द्रियों के आश्रय से इसी अल्पबहत्व की प्ररूपणा की गयी है (पृ० ५५३-५५)। तत्पश्चात् विपरिणामना उपक्रम से जो मार्गणा है वही मोक्ष अनुयोगद्वार में करने योग्य है, ऐसी सूचना करते हुए संक्रम के आश्रय से प्रकृत अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है।' ___ आगे लेश्या (पृ० ५७१), लेश्यापरिणाम (५७२), लेश्याकर्म (५७२-७४), सात-असात (५७४-७५), दीर्घ-ह्रस्व (५७५), भवधारण (५७५), पुद्गलात्त (५७५-७६), निधत्त-अनिधत्त १. धवला, पु० १६, पृ० ५५५.७१ (यह संक्रमविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा प्रकृतिसंक्रम (पृ० ५५५-५६), स्थितिसंक्रम (५५६-५७), अनुभागसंक्रम (५५७-५६) और प्रदेशसंक्रम (५५६-७१) के आश्रय से की गयी है।) षट्माण्डागम परडीकाएँ। ५५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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