________________
हाँ यह शंका उठी है कि अनन्तज्ञान-दर्शन आदि एवं क्षायिकसम्यक्त्व आदि गुणों से परिगत जिन को भले ही नमस्कार किया जाय, क्योंकि उसमें देव का स्वरूप पाया जाता है, किन्तु गुण से रहित स्थापनाजिन को नमस्कार करना उचित नहीं है, क्योंकि उसमें विघ्नोत्पादक कर्मों के विनाश करने की शक्ति नहीं है । इसके समाधान में कहा गया है कि जिन भगवान् अपनी वन्दना में परिणत जीवों के पाप के विनाशक तो हैं नही, क्योंकि वैसा होने पर उनकी वीतरागता के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। वे किसी भी जीव के पाप को नष्ट नहीं करते हैं, क्योंकि उस परिस्थिति में जिन को किया जानेवाला नमस्कार निरर्थक ठहरता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जिनपरिणतभाव और जिनगुणपरिणाम ही पाप का विनाशक है, अन्य प्रकार से कर्म का क्षय घटित नहीं होता है । वह जिनपरिणतभाव अनन्त ज्ञान-दर्शनादि गुणों के अध्यारोप के बल से जिनेन्द्र के समान स्थापनाजिन में भी सम्भव है । कारण यह है कि उन गुणों के अध्यारोप से स्थापनाजिन तत्परिणतभावजिन से एकता को प्राप्त है-- उन गुणों का अध्यारोप करने से स्थापनाजिन तत्परिणतजिन से भिन्न नहीं है, इसलिए जिनेन्द्रनमस्कार भी पाप का विनाशक है ( पु० ६, पृ० ६-७ ) ।
आगे के सूत्र में अवधिजिनों को नमस्कार किया गया है। इसकी व्याख्या में धवलाकार ने बतलाया है कि यहाँ 'अवधि' से देशावधि की विवक्षा रही है, क्योंकि आगे ( सूत्र ३ - ४) परमाधजनों व सर्वावधिजिनों को पृथक् से नमस्कार किया गया है । यह देशावधि जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्य - अनुत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार की है। प्रसंग पाकर धवला में देशावधि के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा विषय की प्ररूपणा है ( पु० ६, पृ० १२-४० ) ।
इसी प्रकार से परमावधिजिनों के प्रसंग में परमावधि का और सर्वावधिजिनों का प्रसंग में सर्वावधि विषय का भी धवला में विवेचन है ( पु० ६, पृ०४१-५३) ।
आगे इन मंगलसूत्रों में कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारी, संभिन्नश्रोतृ एवं अष्टांगमहानिमित्त आदि जिन अनेक ऋद्धिविशेषों का उल्लेख है उन सभी के स्वरूप का धवला में प्रसंगानुसार प्रतिपादन हुआ है ।
अन्तिम मंगलसूत्र (४४) में वर्धमान बुद्ध ऋषि को नरस्कार किया गया है ।
निबद्ध-अनिबद्ध मंगल
उक्त सूत्र की व्याख्या करते हुए धवला में यह शंका की गयी है कि मंगल जो निबद्ध और अनिबद्ध के भेद से दो प्रकार माने गये हैं उनमें से यह निबद्ध मंगल है या अनिबद्ध । उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह निबद्ध मंगल नहीं है । कारण यह है कि उसकी प्ररूपणा गौतम स्वामी ने कृति - वेदनादि चौबीस अनुयोगद्वारोंस्वरूप महाकर्म प्रकृतिप्राभृत के प्रारम्भ में की है । वहाँ से लाकर उसे भूतबलि भट्टारक ने वेदनाखण्ड के आदि में स्थापित किया है । और वेदनाखण्ड महाकर्मप्रकृतिप्राभृत तो है नहीं, क्योंकि अवयव के अवयवी होने का विरोध है । इसके अतिरिक्त भूतबलि गौतम भी नहीं हैं, क्योंकि वे विकल श्रुत के धारक होते हुए धरसेन आचार्य के शिष्य रहे हैं; जबकि गौतम सकलश्रुत के धारक होकर वर्धमान जिनेन्द्र के अन्तेवासी रहे हैं | इसके अतिरिक्त उक्त मंगल के निबद्ध होने का अन्य कोई कारण सम्भव नहीं है । इसलिए यह अनिबद्ध मंगल है |
आगे धवलाकार ने प्रकारान्तर से प्रसंगप्राप्त अन्य शंकाओं का समाधान करते हुए
४६० / षट्खण्डागम-पशिीलन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org