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पाँच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय और पाँच अन्तराय प्रकृतियों का संक्रामक कोई भी कषाय सहित जीव होता है। जो असाता का बन्धक है वह साता का और जो साता का बन्धक है वह असाता का संक्रामक होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि दर्शन मोहनीय के संक्रामक नहीं होते । सम्यक्त्व प्रकृति का संक्रामक नियम से वह मिथ्यादृष्टि होता है जिसके उसका सत्त्व आवली से बाहर होता है । मिथ्यात्व का संक्रामक वह सम्यग्दृष्टि होता है जिसके उस मिथ्यात्व का सत्त्व आवली से बाहर होता है । सम्यग्मिथ्यात्व का संक्रामक वह सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि होता है जिसके उस सम्यग्मिथ्यात्व का सत्त्व आवली से बाहर होता है । इसी क्रम से आगे बारह कषाय आदि अन्य उत्तरप्रकृतियों के संक्रमविषयक प्ररूपणा हुई है ।
अनन्तर प्रकृतिस्थान संक्रम को भी संक्षेप में बतलाकर प्रकृतिसंक्रम को समाप्त किया गया है ( पु० १६, पृ० ३३६-४७)।
स्थितिसंक्रम के प्रसंग में भी प्रकृतिसंक्रम के समान उसके ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं - मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रम और उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रम । जो स्थिति अपकर्षण को प्राप्त करायी गई है, उत्कर्षण को प्राप्त करायी गयी है अथवा अन्य प्रकृति को प्राप्त करायी गयी है उसे स्थितिसंक्रम कहा जाता है ।
अपकर्षण और उत्कर्षण का कुछ स्वरूप निरूपण करके प्रकृतस्थितिसंक्रम की प्ररूपणा इन अधिकारों में की गयी है— प्रमाणानुगम, स्वामित्व, एक जीव की अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवों की अपेक्षा काल, अन्तर और अल्पबहुत्व ।
( पु०१६, पृ० ३४९-७४) अनुभाग संक्रम के प्रसंग प्रथमतः सब कर्मों के आदि स्पर्धक को गमनीय बतलाकर जो कर्म देशघाती, अघाती और सर्वघाती हैं, उनके नामों का पृथक्-पृथक् उल्लेख किया है। उन में किनके आदि स्पर्धक समान हैं और वे किस प्रकार प्राप्त होते हैं, इसकी चर्चा है ।
अनुभागविषयक अर्थपद को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि अपकर्षण को प्राप्त अनुभाग अनुभागसंक्रम है, उत्कर्षण को प्राप्त अनुभाग अनुभागसंक्रम है, और अन्य प्रकृति को प्राप्त कराया गया भी अनुभाग अनुभागसंक्रम है । आदि स्पर्धक का अपकर्षण नहीं होता । आदि स्पर्धक से जितना जघन्य निक्षेप है इतने मात्र स्पर्धक अपकर्षण को प्राप्त नहीं होते। उनसे ऊपर के स्पर्धक का भी अपकर्षण नहीं होता, क्योंकि अतिस्थापना का अभाव है । जितने जघन्य निक्षेप स्पर्धक हैं और जितने जघन्य अतिस्थापना स्पर्धक हैं, प्रथम स्पर्धक से लेकर, इतने मात्र स्पर्धक ऊपर चढ़कर जो स्पर्धक स्थित है उसका अपकर्षण किया जा सकता है, क्योंकि उसके अतिस्थापना स्पर्धक और निक्षेपस्पर्धक सम्भव हैं ( पु० १६, पृ० ३७४-७६)।
इस क्रम से आगे प्रमाणानुगम ( पृ० ३७७), स्वामित्व, ( पृ० ३७७-८२), एक जीव की अपेक्षा काल, ( पृ० ३८२-८७), एक जीव की अपेक्षा अन्तर ( पृ० ३८७-८८), नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय ( पृ० ३८८-८९), नाना जीवों की अपेक्षा काल ( पृ० ३८६ - ६१), नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर ( पृ० ३६१-६२) और संनिकर्ष ( पृ० ३६२ ) इन अधिकारों में प्रस्तुत संक्रम की प्ररूपणा की गयी है ।
पश्चात् अल्पबहुत्व के प्रसंग में स्वस्थान- परस्थान के भेद से उसकी दो प्रकार से प्ररूपणा करते हुए प्रथमतः ओघ की अपेक्षा और तत्पश्चात् क्रम से नरकादि गतियों में की गयी है (धवला, पु० १६, पृ० ३९३-९७ ) ।
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षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ५४७
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