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________________ इसी क्रम में अनुभागउदय और प्रवेशउदय की भी प्ररूपणा की गयी है ( पु० १५, पृ० २६५(३३६) । इस प्रकार से यह उदयअनुयोगद्वार समाप्त हुआ है । ११. मोक्ष अनुयोगद्वार यहाँ सर्वप्रथम मोक्ष का निक्षेप करते हुए उसके इन चार भेदों का निर्देश है- नाममोक्ष, स्थापना मोक्ष, द्रव्यमोक्ष और भावमोक्ष । इनमें शेष को सुगम बतलाकर नोआगमद्रव्यमोक्ष के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं— कर्ममोक्ष और नोकर्ममोक्ष । कर्मद्रव्यमोक्ष प्रकृतिमोक्ष आदि के भेद से चार प्रकार का है। प्रकृतिमोक्ष भी मूलप्रकृतिमोक्ष और उत्तरप्रकृतिमोक्ष के भेद से दो प्रकार का है । वे भी देश मोक्ष और सर्वमोक्ष के भेद से दो-दो प्रकार के हैं । विवक्षित प्रकृति का निर्जरा को प्राप्त होना अथवा अन्य प्रकृति में संक्रान्त होना प्रकृतिमोक्ष है। इसे यहाँ प्रकृतिउदय और प्रकृतिसंक्रम के अन्तर्गत होने से सुगम कह दिया गया है । स्थितिमोक्ष जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से दो प्रकार का है । जो स्थिति अपकर्षण या उत्कर्षण को प्राप्त करायी गयी है अथवा अधः स्तनस्थितिगलना के द्वारा निर्जरा को प्राप्त हुई है, वह स्थितिमोक्ष है । आगे यह कह दिया है कि इस अर्थपद के अनुसार उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य मोक्ष की प्ररूपणा करनी चाहिए । इसी पद्धति से आगे अनुभागमोक्ष और प्रदेशमोक्ष की भी प्ररूपणा की गयी है । नोआगममोक्ष को प्रथम तो सुगम कहा गया है, पश्चात् वैकल्पिक रूप से यह भी कहा गया है— अथवा वह मोक्ष, मोक्षकारण और मुक्त के भेद से तीन प्रकार का है। इनमें जीव और कर्म 'पृथक् होने का नाम मोक्ष है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये मोक्ष के कारण हैं। समस्त कर्मों से रहित होकर अनन्त ज्ञान दर्शनादि गुणों से सम्पन्न होना, यह मुक्त का लक्षण है । ( पु० १६, पृ० ३३७-३८ ) इस प्रकार से यह मोक्ष अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है । १२. संक्रम अनुयोगद्वार इस अनुयोगद्वार में सर्वप्रथम संक्रम के नामसंक्रम आदि छह भेदों और उनके अवान्तर भेदों का उल्लेख है । उनमें से कर्मसंक्रम को यहाँ प्रकृत कहा गया है। वह प्रकृति- स्थिति आदि के भेद से चार प्रकार का है। जो प्रकृति अन्य प्रकृति को प्राप्त करायी जाती है, इसे प्रकृतिसंक्रम कहा जाता है । यह प्रकृतिसं क्रम स्वभावतः परस्पर मूलप्रकृतियों में सम्भव नहीं है । उत्तरप्रकृतिसंक्रम की प्ररूपणा पूर्व पद्धति के अनुसार स्वामित्व, एक जीव की अपेक्षा काल, एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवों की अपेक्षा काल और नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर और अल्पबहुत्व इन अधिकारों में प्रथमतः सामान्य से और तत्पश्चात् विशेष रूप से नरकगति आदि के आश्रय से की गयी है । जैसे— स्वामित्व के प्रसंग में प्रथमतः यह सूचना है कि बन्ध के होने पर ही संक्रम होता है, उसके अभाव में नहीं । वह भी विवक्षित मूलप्रकृति की उत्तरप्रकृतियों में ही परस्पर होता है । किन्तु दर्शन मोहनीय चारित्रमोहनीय में और चारित्रमोहनीय दर्शनमोहनीय में संक्रान्त नहीं होती । इसी प्रकार चार आयुओं का भी परस्पर में संक्रमण नहीं होता । ५४६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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