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हुए नोआगमकर्मद्रव्य उदय को प्रसंगप्राप्त कहा गया है। वह प्रकृतिउदय आदि के भेद से चार प्रकार का है । उनमें प्रकृतिउदय दो प्रकार का है-मूलप्रकृतिउदय और उत्तरप्रकृतिउदय । मूलप्रकृतिउदय का कथन विचारकर करना चाहिए, ऐसी यहां सूचना भी कर दी गयी है।
उत्तरप्रकृतिउदय के प्रसंग में स्वामित्व का विचार किया गया है। तदनुसार पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय के वेदक सब छद्मस्थ होते हैं।
निदा आदि पाँच दर्शनावरणीय प्रकतियों का वेटक शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त होने के दूसरे समय से लेकर आगे का कोई भी जीव होता है, जो उसके वेदन के योग्य हो। विशेष इतना है कि देव, नारक और अप्रमत्तसंयत ये स्त्यानगृद्धि आदि तीन दर्शनावरणीय प्रकृतियों के वेदक नहीं होते हैं। इनके अतिरिक्त जिन प्रमत्तसंयतों ने आहारकशरीर को उत्थापित किया है वे भी इन तीन दर्शनावरणीय प्रकृतियों के अवेदक होते हैं । अन्य आचार्यों के मतानुसार इन सबके अतिरिक्त असंख्यातवर्षायुष्क और उत्तरशरीर की विक्रिया करने वाले तियंच मनुष्य भी उनके अवेदक होते हैं। ___ साता व असाता में से किसी एक का वेदक कोई भी संसारी जीव, जो उसके वेदन के योग्य हो, होता है। ___इसी क्रम से आगे मिथ्यात्व आदि शेष सभी उत्तरप्रकृतियों का वेदन-विषयक विचार किया गया है (पु० १५, पृ० २८५-८८)।
इस प्रकार स्वामित्व के विषय में विचार करने के उपरान्त यह सूचना कर दी गयी है कि एक जीव की अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और संनिकर्ष अनुयोगद्वारों का कथन उपर्युक्त स्वामित्व से सिद्ध करके करना चाहिए। ___अल्पबहुत्व के संदर्भ में कहा गया है कि उसकी प्ररूपणा, जिस प्रकार उदीरणा के प्रसंग में की गयी है, उसी प्रकार यहाँ भी करना चाहिए। उससे जो कुछ कहीं विशेषता रही है उसे यह स्पष्ट कर दिया गया है । यथा
मनुष्यगतिनामकर्म के और मनुष्यायु के वेदक समान हैं। इसी प्रकार शेष गतियों और आयुओं के अल्पबहुत्व को जानना चाहिए, इत्यादि (पु० १५, पृ० ८८-८६)।
स्थितिउदय भी मूलप्रकृतिस्थितिउदय और उत्तरप्रकृतिस्थितिउदय के भेद से दो प्रकार का है। मूलप्रकृतिस्थितिउदय भी प्रयोग और स्थितिक्षय से दो प्रकार से होता है। इनमें स्थितिक्षय से होने वाले उदय को सुगम बतलाकर प्रयोग से होने वाले उदय को संपत्ति (संप्रति या संप्राप्ति) और सेचीय (निषेक) की अपेक्षा दो प्रकार का निर्दिष्ट किया है । संपत्ति की अपेक्षा एक स्थिति को उदीर्ण कहा गया है, क्योंकि इस समय जो परमाणु उदय को प्राप्त हैं, उनका अवस्थान एक समय को छोड़कर दो आदि अन्य समयों में नहीं पाया जाता है। सेचीय की अपेक्षा अनेक स्थितियों को उदीर्ण कहा गया है, क्योंकि वर्तमान में जो प्रदेशाग्र उदीर्ण है उसके द्रव्याथिकनय की अपेक्षा पूर्व के भाव के साथ उपचार सम्भव है।
आगे कहा है कि इस अर्थपद से स्थितिउदयप्रमाणानुगम चार प्रकार का है— उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य। इनका स्पष्टीकरण यहां प्रथमत: मूलप्रकृतियों के आश्रय से और तत्पश्चात् उत्तरप्रकृतियों के आश्रय से पूर्व पद्धति के अनुसार उन्हीं स्वामित्व व एक जीव की अपेक्षा कालानुगम आदि अधिकारों में किया गया है। इस प्रसंग में जहाँ-तहाँ यह भी कथन है कि इसकी प्ररूपणा स्थितिउदीरणा के समान करनी चाहिए (पु० १५, पृ० २६६-६५) ।
षट्खण्डागम पर टीकाएँ | ५४५
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