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________________ (पृ०७५-११४) में जो भी स्पष्टीकरण पंजिकाकार के द्वारा किया गया है वह प्राय: अल्पबहुत्व को लेकर ही किया गया है जो दुरूह व अस्पष्ट है । समीक्षा ___ इस सम्पूर्ण स्थिति पर विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि पंजिकाकार का भाषा पर कुछ अधिकार नहीं रहा है। उन्होंने अपने अभिप्राय को प्रकट करने के लिए जिन पदों व वाक्यों का प्रयोग किया है वे असम्बद्ध व अव्यवस्थित रहे हैं। साथ ही, वे सिद्धान्त के कितने मर्मज्ञ रहे हैं, यह भी कुछ कहा नहीं जा सकता। इसके अतिरिक्त उन्होंने वीरसेनाचार्य के मन्तव्यों व वाक्यों का प्रचुरता से उपयोग किया है, पर इससे वे वीरसेनाचार्य जैसे गम्भीर विद्वान् तो सिद्ध नहीं होते। इस सब का स्पष्टीकरण यहाँ कुछेक उदाहरणों द्वारा किया जाता हैभाषा (१) धर्मास्तिकाय के निमित्त से जीवों का परिणमन कैसा होता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है "संसारे भमंतजीवाणं आणुपुस्विकम्मोदय-विहायगदिकम्मोदयवसेण मुक्कमारणंतियवसेण च गदिपज्जायेण परिणदाणं गमणस्स संभवो पुणो कम्मविरहिदजीवाणं उड्ढगमणपरिणामसंभवो च धम्मत्थिकायस्स सहावसहायसरूवणिमित्तभेदेण होदि । तं कथं जाणिज्जदे ? पुह-पुह पज्जायपरिणद-संसारिजीवाणं पुह पुह खेत्तेसु णिबंधणातिविहसरूवगमणाणं हेदुत्तादो धम्मत्थियविरहिदखेत्तेसु पुव्वुत्तचउम्विहसरूवगमणाभावादो च ।" -पंजिका, पृ० १ (पु० १५ का परिशिष्ट)। वैसे तो उपर्युक्त सभी सन्दर्भ भाषा की दृष्टि से विचारणीय हैं, पर रेखांकित पद विशेष ध्यान देने योग्य हैं। (२) कालनिबन्धन के विषय में यह कहा गया है - "पुणो कालदव्वस्स सहावणिबंधणं जीव-पोग्गल-धम्माधम्मागासदव्वाणमत्थवंजणपज्जायेसु गच्छंताणं सहायसरूवेण णिबंधणं होदि जहा कुंभारहेट्ठिमसिलो व्व।”—पृ० ३ (३) एक सौ बीस बन्धप्रकृतियों की संख्या के विषय में "पुणो वण्ण-रस-गंध-फासाणं दव्वट्ठियणयेण सामण्णसरूवेण एत्थ गहणादी । तेसिं संखम्मि चत्तारि-एग-चत्तारि-सत्त चेव संखाणि अवणिदा ।".--१०६ (४) "एदेसि दोण्हमुवदेसेसु कधमविसिद्धमिदि चे णेवं जाणिज्जदे, तं सदकेवली जाणिज्जदि । किं तु पढमंतर-परूवणाए विदियंतरपरूवणं अत्थविवरणमिदि मम मइणा पडिभासदि ।" -पृ० २४ सैद्धान्तिक ज्ञान पंजिकाकार का सिद्धान्तविषयक ज्ञान कितना कैसा रहा है, यह समझना कठिन है, क्योंकि उन्होंने जिस किसी भी प्रसंग को स्पष्ट किया है वह कुछ समझ में नहीं आ रहा है। इसके लिए भी यहाँ एक-दो उदाहरण दिये जाते हैं, जिन्हें समझने का प्रयत्न किया जाना चाहिए सत्कर्मपंजिका / ५६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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