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________________ हियारो वेदणा णाम । तस्स सोलसअणियोगद्दारेसु चउत्थ-छट्ठम-सत्तमाणि योगद्दाराणि दव्वकाल-भावविहाणणामधेयाणि। पुणो तहा महाकम्मपयडिपाहुडस्स पंचमो पयडीणामहियारो। तत्थ चत्तारि अणियोगद्दाराणि अट्ठकम्माणं पयडि-टिदि-अणुभागप्पदेससत्ताणि परूविय सचिदुत्तरपयडि-ट्ठिदि-अणुभाग-प्पदेससत्तादो (?) एदाणि सत्त (संत ?) कम्मपाहुडं णाम । मोहणीयं पडुच्च कसायपाहुडं पि होदि ।" -संतकम्मपंजिया, पृ० १८ (पु० १५, परिशिष्ट)। यहाँ 'तत्थ चत्तारि अणियोगद्दाराणि' से पंजिकाकार को क्या अभीष्ट है, यह ज्ञात नहीं होता । क्या वे इससे उपर्युक्त 'वेदना' के अन्तर्गत चौथे, छठे और सातवें इन तीन अनुयोगद्वारों में 'महाकर्मप्रकृतिप्राभृत' के पांचवें प्रकृतिअनुयोगद्वार को सम्मिलित कर चार अनुयोगद्वारों को ग्रहण करना चाहते हैं या 'तत्थ' से प्रकृति अनुयोगद्वार को लेकर उसमें चार अनुयोगद्वारों को दिखलाना चाहते हैं ? ऐसा कुछ भी स्पष्ट नहीं होता। ऊपर-निर्दिष्ट 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में कोई चार अनुयोगद्वार नहीं हैं। वहाँ मूल व उनकी उत्तर प्रकृतियों का उल्लेख मात्र है। वहाँ स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के सत्त्व का भी विचार नहीं किया गया है।' ___ 'वेदना' के अन्तर्गत चौथे वेदना द्रव्यविधान, छठे वेदनाकाल विधान और सातवें वेदन भावविधान में यथाक्रम से द्रव्य, काल और भाव की अपेक्षा आठों की वेदना का विचार किया गया है। स्थिति आदि पर कुछ भी विचार नहीं किया गया ; जैसा कि पंजिकाकार ने निर्देश किया है। निष्कर्ष यह है कि आचार्य वीरसेन ने जिस 'सत्कर्मप्रकृतिप्राभृत' का उल्लेख किया है, वस्तुतः पंजिकाकार उससे परिचित नहीं रहे। उन्होंने जो उसका परिचय कराया है वह अस्पष्ट व काल्पनिक है। ___ 'संतकम्मपाहुड' और 'संतकम्मपयडिपाहुड' इन ग्रन्थनामों का उल्लेख धवला में चार बार हआ है । ये दो नाम पृथक्-पृथक् दो ग्रन्थों के रहे हैं या एक ही किसी ग्रन्थ के रहे हैं, यह अभी. अन्वेषणीय ही बना हुआ है। ___यदि आचार्य भूतबलि के द्वारा 'सत्कर्मप्राभृत' या 'सत्कर्मप्रकृतिप्राभृत' जैसे किसी खण्डग्रन्थ की भी रचना की गयी हो तो यह असम्भव नहीं दिखता। अथवा महाकर्मप्रकृतिप्राभूत में ही कोई ऐसा प्रकरण रहा हो, जिसका उल्लेख सत्कर्मप्राभूत के नाम से किया गया हो। कारण यह कि धवलाकार ने 'सत्कर्मप्राभृत' और 'कषायप्राभृत' के मध्य में जिन मतभेदों का उल्लेख किया उनका सम्बन्ध 'महाकर्मप्रकृतिप्राभृत' और आ० भूतबलि के साथ अधिक रहा है। आगे, इसी प्रकार से प्रकृत उपक्रम अनुयोगद्वार में उदीरणा (पृ० १८-७३), उपशामना (पृ० ७३-७४) व विपरिणामणा (पृ० ७४) के प्रसंग में तथा उदयानुयोगद्वारगत उदय के प्रसंग १. यह प्रकृति अनुयोगद्वार ष०ख० पु० १३ में द्रष्टव्य है। २. वेदनाद्रव्यविधान (पु० १०) में वेदनाकालविधान (पु० ११) में और वेदनाभावविधान (पु० १२) में समाविष्ट हैं। ३. धवला, पु० १, पृ० २१७ (संतकम्मपाहुड), पु० ६, पृ० ३१८ (संतकम्मपयडिपाहुड), पु० ११, पृ० २१ (संतकम्मपाहुड) और पु० १५, पृ० ४३ (संतकम्मपडिपाहुड)। ५६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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