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________________ (१) 'प्रक्रम' अनुयोगद्वार में उत्तरप्रकृतियों में उत्कृष्ट रूप से प्रक्रम को प्राप्त होनेवाले प्रदेशाग्रविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में वीरसेनाचार्य ने केवलज्ञानावरण के प्रक्रमद्रव्य से आहारशरीर नामकर्म के प्रक्रमद्रव्य को अनन्तगुणा कहा है।' इसका स्पष्टीकरण पंजिकाकार ने इस प्रकार किया है "आहारसरोरपक्कमवण्वमणंतगुणं । कुदो ? सत्तविहबंधगुक्कस्तदव्वस्स छन्वीसदिमभागस्स चउन्भागत्तादो । तं पि कुदो ? अप्पमतापुव्यकरणसंजदाणं तीसबंधएण बद्धक्कस्सणामकम्मसमयपबद्धं विभंजमाणे तहोवलं - भादो । कथं विजिज्जदि ? उच्चदे - सव्वुक्कस्ससमयपबद्ध मावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडेदुणेगखंडरहिदबहुखंडाणि बज्झमाणती सपयडीसु चत्तारि सरीराणि एगभागं दोण्णि अंगोवंगाणि एग भागं लहंति त्ति छप्पयडीओ अवणिय सेसचउवीसपयडीसु दोपयडिसंखे पक्खित्ते छब्बीसामो होंति । तेहि खंडिय छब्वीसट्टाणेसु ठविय सेमेयखंडं पुव्वविहाणेण (?) पक्खियव्वं जाव चरिमखंडा पड[ढ] मखंडे ति । तत्थ पढमखंडो गदिभागो होदि विदियखंडं जादिभागो विसेसाहिओ होदि, एवं विसेसाहियकमेण णेदव्वं जाव णिमिणो त्ति । पुणो एत्थ विसेसाहियं होि कथं वदे ? तिरिक्खगदीदो उवरि अजसकित्ती विसेसाहिया त्ति उत्तप्पा बहुगादो (?) । पुणो तत्थ सरीरभागे घेत्तूण आवलि० असं० भागेण खंडेदुणेग खंड रहिदबहुखंडाणि चत्तारि खंडाणि काढूण सेसकिरियं पुव्वं कदे तत्थ सम्वत्थोवं वेगुव्विय० । आहारसरीर० विसे० । तेउ० विसे० । कम्म० विसे० । पुणो एत्थतण आहारसरीरं उक्कस्सं होदि । एवमुवरि वि विभंजविहाणं जाणिय वत्तव्वं ।" पंजिका, पृ० ७ इसका अभिप्राय यह दिखता है कि आहारकशरीर का प्रक्रमद्रव्य केवलज्ञानावरण के प्रक्रमद्रव्य की अपेक्षा अनन्तगुणा है, क्योंकि वह सात प्रकृतियों के बन्धक जीव के छब्बीसवें भाग का चौथा भाग है | हेतु यह दिया गया है कि अप्रमत्त और अपूर्वकरण संयतों के (?) तीस प्रकृतियों (अपूर्वकरण के छठे भाग से सम्बद्ध) के बन्धक के द्वारा बाँधे गये उत्कृष्ट नामकर्म के समयप्रबद्ध का विभाग करने पर वैसा ही पाया जाता है। कैसे विभाग किया जाता है, इसे स्पष्ट करतें हुए आगे कहा गया है कि सर्वोत्कृष्ट समयप्रबद्ध को आवली के असंख्यातवें भाग से भाजित करके जो लब्ध हो, उसमें एक भाग से रहित बहुभाग को बँधनेवाली तीस प्रकृतियों में चार शरीर (आहारक को छोड़कर) एक भाग को और दो अंगोपांग (आहारक अंगोपांग को छोड़कर) एक भाग को प्राप्त करते हैं। इसलिए छह (चार शरीर व दो अंगोपांग) प्रकृतियों को कम करके शेष चौबीस प्रकृतियों में दो प्रकृतियों की संख्या के मिलाने पर छब्बीस होती हैं। उनसे (?) भाजित करके छब्बीस स्थानों में रखकर शेष एक खण्ड को पूर्वोक्त विधान से अन्तिम खण्ड से लेकर प्रथम खण्ड तक प्रक्षिप्त करना चाहिए। उसमें प्रथम खण्ड गति का भाग होता है; द्वितीय खण्ड जाति का भाग विशेष अधिक होता है, इस प्रकार विशेष अधिक के क्रम से निर्माण तक ले जाना चाहिए। फिर यहाँ विशेष अधिक है, यह कैसे जाना जाता है; इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वह 'तियंचगति के आगे अयशकीर्ति विशेष अधिक है' इस उक्त अल्पबहुत्व से जाना जाता है (?)। फिर उसमें शरीरभाग को लेकर आवलि के असंख्यातवें भाग १. धवला, पु० १५, पृ० ३६ ५६६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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