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से भाजित कर एक खण्ड से रहित बहुत खण्डों के चार भाग करके शेष क्रिया को पूर्व के समान करने पर उसमें सबसे स्तोक वैक्रियिकशरीर का, आहारकशरीर का विशेष अधिक, तेजसशरीर का विशेष अधिक और कार्मणशरीर का प्रक्रमद्रव्य विशेष अधिक होता है। फिर यहां का आहारकशरीर उत्कृष्ट होता है। इस प्रकार आगे भी जानकर विभाजन के विभाग को करना चाहिए।
इस सब विवरण का प्रकृत के विवरण से क्या सम्बन्ध है व उसकी क्या वासना रही है, यह एक विचारणीय तत्त्व है । प्रकृत में तो केवलज्ञानावरण के प्रक्रमद्रव्य से आहारकशरीर का प्रक्रमद्रव्य अनन्तगुणा है, इसे स्पष्ट करना था, जो उक्त विवरण से तो स्पष्ट नहीं हुआ है। यही नहीं, उक्त विवरण प्रकत से असम्बद्ध भी दिखता है।
(२) दूसरा एक उदाहरण लीजिए -आचार्य वीरसेन के द्वारा सातावेदनीय की उदीरणा का काल उत्कर्ष से छह मास कहा गया है (पु० १५, पृ० ६२) ।
इसे स्पष्ट करते हुए पंजिकाकार कहते हैं कि इन्द्रिय-सुख की अपेक्षा संसारी जीवों में सुखी देव ही हैं। उनमें भी शतार-सहस्रार स्वर्ग के देव ही अतिशय सुखी हैं, क्योंकि उससे ऊपर के कल्पों में स्थित देव शुक्ललेश्या वाले हैं, इसलिए वीतरागसुख में अनुरक्त रहने से उनके साता के उदय से उत्पन्न हुए दिव्य सुख का अभाव है। और नीचे के देवों के वैसा पुण्य सम्भव नहीं है। इसलिए शतार-सहस्रार कल्प के इन्द्र ही सुखी हैं। इस प्रकार उनके माहात्म्य को प्रकट करते हुए इसी प्रसंग में आगे पंजिका में कहा गया है कि सचित्त और अचित्त के भेद से द्रव्य दो प्रकार का है। इनमें सचित्त सम्पादित द्रव्य कैसे अवस्थित है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया कि प्रतीन्द्र, सामानिक, तेतीस (३३) संख्या वाले त्रायस्त्रिश, लोकपाल, पारिषद, अंगरक्ष, सात (७) अनीक, किल्विष, पदाति, आठ (८) महादेवियाँ और शेष सब देवियों व देवों का समूह । तीर्थकर प्रकृतिसत्त्व से संयुक्त होने के कारण अपने कल्प से, इनके अतिरिक्त नीचेऊपर के देव पूजा के निमित्त आगत । अचेतनों का एक और विक्रिया आदि पर्यायों का एक, इस प्रकार सब साठ होते हैं। आगे इनके द्वारा सन्दोषदान आदि प्रकट करते हुए कहा गया
६० को पाँच प्रकार के क्षयोपशम से गणित करने पर ३०० होते हैं। इनको छह इन्द्रियों से गुणित करने पर १८०० होते हैं। इन्हें मन-वचन-काय तीन से गुणित करने पर वे ५४०० होते हैं। इनमें ६०० का भाग देने पर छह मास प्राप्त होते हैं, इस प्रकार नियम किया गया है।
आगे इससे ऊपर के देवों के संधाण नहीं पाया जाता है, यह कहाँ से जाना जाता है, इस शंका के उत्तर में कहा गया है कि वह इसी आर्ष वचन (?) से जाना जाता है ।
आगे पंजिकाकार और भी अपना मन्तव्य प्रकट करते हैं कि यह जो छह मास के साधन के लिए प्ररूपणा की गयी है, यह उदाहरण मात्र है । इसलिए इसी प्रकार ही है, ऐसा आग्रह नहीं करना चाहिए।
इसी प्रसंग में आगे प्रकारान्तर से भी साठ (६०) संख्या को अन्तर्मुहूर्त के रूप में स्पष्ट किया गया है (पृ० २४-२५) ।
यहाँ यह विचारणीय है कि धवलाकार आ० वीरसेन के उपर्युक्त कथन का क्या ऐसा __ अभिप्राय रह सकता है।
सत्कर्मपंजिका | ५६७
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