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वीरसेनाचार्य के पद-वाक्यों का उपयोग
__ आ० वीरसेन ने मतभेदों के प्रसंग में कुछ विशेष पद-वाक्यों का उपयोग करते हुए धवला में अपने अभिप्राय को प्रकट किया है। पंजिकाकार ने प्रसंग की गम्भीरता को न समझते हुए भी उनके व्याख्यान की पद्धति को अपनाकर जहां-तहां वैसे पद-वाक्यों का उपयोग किया है जो यथार्थता से दूर रहा है। जैसे
(१) "केइं एवं भणंति-आवलियाए असंखेज्जदिभागे (?) ण होदि, किंतु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं खंडणभागहामिति भणंति । तदो उपदंसं लद्धण दोण्हमेनकदरणिण्णवो कायव्यो।"--पंजिका, पृ०४ ___ आ० वीरसेन कृतिसंचित और नोकृतिसंचित आदि के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में कहते हैं
"एदमप्पाबहुगं सोलसवदियअप्पाबहुएण सह विरुज्झदे, सिद्धकालादो सिद्धाणं संखेज्जगणतं फिट्टिदूण विसेसाहियत्तप्पसंगादो। तेणेत्य उवएस लहिय एगदर णिण्णओ कायन्वो।"
--धवला, पु० ६, पृ० ३१८ (२) प्रक्रम अनुयोगद्वार में उत्तरप्रकृतिप्रक्रम के प्रसंग में जो वीरसेनाचार्य के द्वारा अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है उसमें ६४ प्रकृतियों का ही उल्लेख हुआ है।' ___पंजिकाकार ने उनमें से पृथक्-पृथक् कुछ प्रकृतियों के संग में ‘एत्थ सूचिदपयडीणं अप्पाबहुगमुच्चदें' इत्यादि सूचना करते हुए शेष रही कुछ अन्य प्रकृतियों के अल्पबहुत्व को प्रकट किया है।
___ अन्त में उन्होंने यह कहा है-...'च उसट्ठिपयडीणं अप्पाबहुगं गंथयारेहि परूविदं । अम्हेहि पुणो सूचिदपयडीणमप्पाबहुगं गंथउत्तप्पाबहुगबलेण परविदं । कुदो? वीसुत्तरसयबंधयडीओ इदि विवक्खादो।"
यह वीरसेनाचार्य के निम्न वाक्यों का अनुसरण किया गया दिखता है"संपहि एदेण अप्पाबहुगसुत्तेण सूचिदाणं सत्थाणपरत्थाणअप्पाबहुआणं परूवणं कस्सामो।"
-धवला पु० ११, पृ० २७६-८० "संपहि सुत्तंतोणिलीणस्स एदस्स अप्पाबहुगस्स विसमपदाणं भंजणप्पिया पंजिया उच्चदे।"
-धवला पु० ११, पृ० ३०३ पंजिकाकार ने ग्रन्थोक्त अल्पबहुत्व के बल पर किस आधार से सूचित उन-उन प्रकृतियों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की है, यह विचारणीय है । तद्विषयक जो परम्परागत उपदेश वीरसेनाचार्य को प्राप्त रहा है उसमें यदि वे प्रकृतियां सम्मिलित रही होती तो उनका उल्लेख वे स्वयं कर सकते थे या वैसी सूचना सकते थे। यही उनकी पद्धति रही है।
बन्धप्रकृतियां चूंकि १२० हैं, जिनमें ६४ प्रकृतियों के ही अल्पबहुत्व की प्ररूपणा 'प्रक्रम'
१. धवला, पु० १५, पृ० ३६-३७ २. देखिए पंजिका पृ० ७.८ में तेजस शरीर, नरक गति, मनुष्य गति व तियंच गति का
प्रसंग। ३. पंजिका, पृ०६
५६८ / षखण्डागम-परिशीलन
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