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________________ अनयोगद्वार में की गयी है, इसीलिए सम्भवतः पंजिकाकार को शेष ५६ प्रकृतियों को उसमें सम्मिलित करना आवश्यक दिखा है। इसी कारण उन्होंने अपनी कल्पना के आधार पर उनके भी अल्पबहुत्व को दिखला दिया है, ऐसा प्रतीत होता है। (३) आ० वीरसेन ने इसी प्रक्रम अनुयोगद्वार में उत्कृष्ट आदि वर्गणाओं में प्रक्रमित द्रव्य के व अनुभाग के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हुए यह कहा है कि यह निक्षेपाचार्य का उपदेश है (पु० १५, पृ० ४०)। पंजिकाकार निक्षेपाचार्य का उल्लेख इस प्रकार करते हैं स्थिति और अनुभाग में प्रक्रमित द्रव्यविषयक अल्पबहुत्व ग्रन्थसिद्ध सुगम है, इसलिए उसकी प्ररूपणा न करके स्थितिनिषेक आदि में प्रक्रमित अनुभाग की प्ररूपणा निक्षेपाचार्य ने इस प्रकार की है, यह कहते हुए उन्होंने उस अल्पबहुत्व का कुछ उल्लेख किया है व आगे 'एदस्स कारणं किंचि वत्तइस्सामो' ऐसी सूचना करते हुए उनके द्वारा जो स्पष्टीकरण किया गया है वह प्रसंग से असम्बद्ध ही दिखता है और उस के स्पष्टीकरण में सहायक नहीं है। __इसी प्रसंग में आगे संज्वलन-लोभ ग्रादि के अनुभागोदय सम्बन्धी अल्पबहुत्व को दिखलाते हए वे कहते हैं कि उनसे जघन्य प्रतिस्थापना मात्र नीचे उतरकर स्थित अनुभाग का उदय अपनी-अपनी प्रथम कषाय का उदय होता है, क्योंकि 'उदय के अनुसार उदीरणा होती है। ऐसा गुरु का उपदेश है।' यहाँ हेतु के रूप में गुरु के उपदेशानुसार उदीरणा को उदयानुसारी बतलाने का क्या प्रसंग रहा है तथा उसकी वह उदयान सारिता कहां कितनी है, यह विचारणीय है। ___ आगे और भी जो इस प्रसंग में स्पष्टीकरण किया गया है, जैसे-...'आरिसावो'. .... ति णिक्खेवाइरिय वयणं सिद्धं व सेसाइरियाणमभिप्पारण...', 'णदं पि, सत्तविरुद्धत्तादो'. 'सेसाइरियाणमभिप्पाएण'; इत्यादि वह सब विचारणीय है। (४) पंजिकाकार के द्वारा किए गये ये अन्य उल्लेख भी ध्यान देने के योग्य हैं। "एदस्स अत्थो तत्थ गंथे आइरियाणमभिप्पायंतरमिदिमुत्तकंठं भणिदो।"-4०१८ "एवं संते एवं जीवट्ठाणस्स कालाहियारेण तं पि कधं णव्वदे? एदेण कसावपाडसत्तण (गा० १५-१७) संजदाणं जहण्णद्धा अंतोमुहुत्तमिदि परूवयेण । तंजहा.''परूवयसुत्तादो, पाइरियाणं संखेज्जावलियमंतोमुहुत्तमिदि "इदि आइरिये हि परुदवित्तादो "सच्चं विरोहोचेव, कित अभिप्पायंतरेण परूविज्जमाणे विरोहो पत्थि। -प०१८-१९ ....ण, सिया ठिया सिया अट्ठिया सिया ट्ठियाट्ठिया त्ति आरिसादो" (ष०ख० का 'वेदनागतिविधान' द्रष्टव्य है-पु० १२, पृ० ३६४-६६ ।) पंजिका प० २१ . ___ "सादस्स उदीरणंतरं गदि पडुच्च भण्णमाणे दुविहमुवदेसं होदि । तत्थेक्कवदेसेण...... अण्णेक्कुबवेसेण एदेसि दोण्हमुक्देसेसु कधमवसिटुमिदि चे णेवं जाणिज्जदे, तं सुबकेवली १. पंजिका, पृ० १४-१५ २. वही, पृ० १५-१७ ३. ...त्ति वुत्ते सच्चं विरुज्झइ, किंतु एयंतग्गहो एत्थ ण कायव्वो इदमेव तं चैव सच्चमिदि, सुदकेवलीहि पच्चक्खणाणीहि वा विणा अवहारिज्जमाणे मिच्छत्तप्पसंगादो। -धवला पु० ८, पृ० ५६-५७ सत्कर्मपंजिका | ५९९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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