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________________ जानिज्जदि । किंतु हम तररूगाए विदियंत रपरूवणं प्रत्यविवरणमिदि मम मइणा पडिभासदि ।" - पंजिका पृ० २४ "कुदो जव्व दे ? एवम्हादो (?) चेव आरिसवयणादो । एदं परुवणमुदाहरणमेत्तं छम्माससाहg परूविदं । तदो एवं चेव होदि त्ति णाग्गहो कायव्वो । एवमण्णेहि वि पयारेहि जाणिय वत्तव्वं ।" - पृ० २५ "एदमंगाभिप्पायं श्रपणे काभिप्पायेण णिरय-तिरिक्ख मणुस्सगदीए।" - पृ० २६ "ण केवलमेदं वयणमेत्तं चेव, किंतु सुहुमदिट्ठीए जोइज्जमाणे जहा देवाणं तित्थयरकुमाराणं च सुरभिगंधो मेरइएस दुरभिगंधो आगमभेदेण दिस्सदि । – पृ० २८ "एदं पि सुगमं, आइरियाणमुवदेसत्तादो । जुत्तीए वा ण केवलं उवदेसेण विसेसाहियत्तं, fig जुत्ती विसेसाहियतं प्रसंखेज्जभागाहियत्तं गव्वदे जाणाविज्जदे । - पृ० ७४-७५ उपसंहार पंजिकाकार ने वीरसेनाचार्य द्वारा विरचित निबन्धनादि १८ अनुयोगद्वारों को सत्कर्म कहा है व प्रारम्भ में उसके विवरण करने की प्रतिज्ञा की है । पर उन्होंने पंजिका में कहीं वीरसेन के नाम का उल्लेख नहीं किया है, ग्रन्थकार के रूप में ही जहाँ-तहाँ उनका निर्देश देखा जाता है । उधर धवलाकार आचार्य वीरसेन ने प्रारम्भ में तथा आगे भी कहीं-कहीं आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि का बहुत आदर के साथ स्मरण किया है । यह पंजिका निबन्धन, प्रक्रम, उपक्रम और उदय इन प्रारम्भ के चार अनुयोगद्वारों पर रची गयी है । प्रन्थगत विषम स्थलों को जो पदच्छेदपूर्वक स्पष्ट किया जाता है उसका नाम पंजिका है।" तदनुसार इस पंजिका के द्वारा इन अनुयोगद्वारों में निहित दुर्बोध प्रसंगों को स्पष्ट किया जाना चाहिए था; पर जैसा कि उसके अनुशीलन से हम समझ सके हैं, उसके द्वारा प्रसंगप्राप्त विषय का स्पष्टीकरण हुआ नहीं है। पंजिका में प्रसंगप्राप्त अनेक प्रकरणों को 'सुगम' कहकर छोड़ दिया गया है, जबकि यथार्थ में वे सुगम नहीं प्रतीत होते। इसके अतिरिक्त प्रसंगप्राप्त विषय के स्पष्टीकरण में जिनका विवक्षित विषय के साथ सम्बन्ध नहीं रहा है, उनका विवेचन वहाँ अधिक किया गया है, यह ऊपर दिये गये उदाहरण से स्पष्ट है । १. दोन्हं वयणाणं मज्झे कं वयणं सच्चमिदि चे सुदकेवली केवली वा जाणदि, ण ण्णो, तहा णिण्णयाभावादो | धवला पु० १, पृ० २२२ सो एवं भणदि जो चोट्स पुव्वधरो केवलणाणी वा । - धवला पु० ७, पृ० ५४० २. श्रम्हाणं पुण एसो ग्रहिप्पाम्रो जहा पढमपरूविदग्रत्थो चेव भद्दश्रो ण बिदियो त्ति । -- धवला पु० १३, पृ० ३८२ ३. ...तदो इदमित्थं चेवेत्ति हासग्गाहो कायव्वो । धवला पु० ३, पृ० ३८ ( पिछले पृष्ठ का टिप्पण १ भी द्रष्टव्य है । एसो उप्पत्तिकमो उप्पण्णउप्पायण उत्तो । परमत्थदो पुण जेण केण वि पयारेण छावट्टी पूरेदव्वा । - धवला पु० ५, पृ० ७ ४. विसमपदाणं भंजणप्पिया पंजिया उच्चदे । ५७० / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International -- धवला पु० ११, पृ० ३०३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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