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स्वरूप है, यह पूर्व में कहा जा चुका है। इसका उल्लेख धवला में कई प्रसंगों पर किया गयां है। जैसे
(१) आचार्य भूतबलि ने प्रस्तुत षट्खण्डागम के चतुर्थ खण्डस्वरूप 'वेदना' के प्रारम्भ में विस्तृत मंगल किया है। सर्वप्रथम उन्होंने 'गमो जिणाणं' इस प्रथम सूत्र के द्वारा सामान्य से 'जिनों' को नमस्कार किया है। तत्पश्चात् विशेष रूप से उन्होंने 'अवधिजिनों' आदि को नमस्कार किया है। ___ इसी प्रसंग में आगे 'णमो ओहिजिणाणं' इस सूत्र (२) की उत्थानिका में धवलाकार कहते हैं कि इस प्रकार गौतम भट्टारक महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के आदि में द्रव्याथिक जनों के अनुग्रहार्थ नमस्कार करके पर्यायाथिकनय का आश्रय लेनेवाले जनों के अनुग्रहार्थ आगे के सूत्रों को कहते हैं।'
(२) ऊपर 'पेज्जवोस' के प्रसंग में 'महाकम्मपडिपाहुड' का भी उल्लेख हुआ है ।
(३) वेदनाद्रव्यविधान में पदमीमांसा के प्रसंग में "ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्य की अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है, क्या अनुत्कृष्ट होती है, क्या जघन्य होती है और क्या अजघन्य होती है" इस पृच्छा सूत्र (४, २, ४, २) की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने उसे देशामर्शक सूत्र बतलाकर यह कहा है कि यहाँ अन्य नौ पृच्छाएं करनी चाहिए, क्योंकि इनके बिना सूत्र के असम्पूर्णता का प्रसंग आता है । पर भूतबलि, भट्टारक जो महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के पारंगत रहे हैं, असम्पूर्ण सूत्र की रचना नहीं कर सकते हैं।'
(४) इसी वेदनाद्रव्यविधान में ज्ञानावरणीय की जघन्य द्रव्यवेदना के स्वामी की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में सूत्र में कहा गया है कि वह बहुत-बहुत बार जघन्य योग स्थानों को प्राप्त होता है। सूत्र ४,२,४,५४ ___ इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने कहा है कि सूक्ष्म निगोद जीवों में जघन्य योगस्थान भी होते हैं और उत्कृष्ट भी होते हैं। उनमें वह प्राय: जघन्य योगस्थानों में परिणत होकर ही उसे बांधता है । पर उनके असम्भव होने पर वह उत्कृष्ट योगस्थान को भी प्राप्त होता है। ___इस प्रसंग में वहाँ यह पूछा गया है कि वह जघन्य योग से ही उसे क्यों बाँधता है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि स्तोक कर्मों के आगमन के लिए वह जघन्य योग से बांधता है।
आगे इस प्रसंग में यह पूछने पर कि स्तोक योग से कर्म स्तोक आते हैं, यह कैसे जाना जाता है; उत्तर में कहा गया है कि द्रव्यविधान में जघन्य योगस्थानों की जो प्ररूपणा की गयी है वह चूंकि इसके बिना घटित नहीं होती है, इसी से जाना जाता है कि स्तोक योग से कर्म स्तोक आते हैं । कारण यह कि महाकर्मप्रकृतिप्राभूत रूप अमृत के पान से जिनका समस्त राग, द्वेष और मोह नष्ट हो चुका है वे भूतबलि भट्टारक असम्बद्ध प्ररूपणा नहीं कर सकते हैं।
(५) स्पर्श अनुयोग द्वार से तेरह स्पर्शभेदों की प्ररूपणा के पश्चात् सूत्रकार ने वहाँ कर्म
१. धवला, पु. ६, पृ० १२ २. धवला, पु० १०, पृ०२० ३. धवला, पु० १३, पृ० २७४-७५
ग्रन्थोल्लेख / ५९७
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