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________________ में आत्मसात् किया हो । यह ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि अकलंकदेव ने पूज्यपाद-विरचित सर्वार्थसिद्धि के प्रचर वाक्यों को वार्तिक के रूप में अपने तत्त्वार्थवार्तिक में आत्मसात् किया है । अथवा यह भी सम्भव है कि धवलाकार ने 'पूज्यपाद' इस आदर-सूचक विशेषण के द्वारा आचार्य अकलंकदेव का ही उल्लेख किया हो । यह सब अभी अन्वेषणीय बना हुआ है। १३. प्रभाचन्द्र इनका उल्लेख धवला में पूर्वोक्त नयप्ररूपणा के प्रसंग में इस प्रकार किया गया है "तथा प्रभाचन्द्रभट्टारकरप्यभाणि -प्रमाणव्यपाश्रयपरिणामविकल्पवशीकृतार्थविशेषप्ररूपणप्रवणः प्रणिधिर्यः स नय इति ।"-धवला, पु०६, पृ० १६६ प्रभाचन्द्र नाम के अनेक आचार्य हुए हैं। उनमें से प्रस्तुत नय का लक्षण किस प्रभाचन्द्र के द्वारा और किस ग्रन्थ में निर्दिष्ट किया गया है, यह ज्ञात नहीं होता। इस लक्षण का निर्देश करनेवाले सुप्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् वे प्रभाचन्द्राचार्य तो सम्भव नहीं हैं, जिन्होंने परीक्षामुखसूत्रों पर विस्तृत 'प्रमेयकमल-मार्तण्ड' नाम की टीका और लघीयस्त्रय पर 'न्यायकुमुद-चन्द्र' नाम की विस्तृत टीका लिखी है। कारण यह कि वे प्रभाचन्द्र तो धवलाकार वीरसेनाचार्य के पश्चात् हुए हैं । स्व० पं० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य ने उनका समय ई० सन् ९६० से १०५५ निर्धारित किया है।' किन्तु धवला टीका इसके पूर्व शक संवत् ६३८ (ई० सन् ८१६) में रची जा चुकी थी। ___ महापुराण (आदिपुराण) की उत्थानिका में आ० जिनसेन ने अपने पूर्ववर्ती कुछ ग्रन्थकारों का स्मरण किया है । उनमें एक 'चन्द्रोदय' काव्य के कर्ता प्रभाचन्द्र भी हैं। सम्भव है, उपर्युक्त नय का लक्षण उन्हीं प्रभाचन्द्र के द्वारा निबद्ध किया गया हो । वह लक्षण धवला से अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुआ। १४. भूतबलि ये प्रस्तुत षट्खण्डागम के प्रथम जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत 'सत्प्ररूपणा' अनुयोगद्वार को छोड़कर उस जीवस्थान के द्रव्यप्रमाणानुगम को आदि लेकर आगे के समस्त ग्रन्थ के रचयिता हैं। वह सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार आचार्य पुष्पदन्त द्वारा रचा गया है। इनका साधारण परिचय पीछे आचार्य पुष्पदन्त के साथ कराया जा चुका है। इससे अधिक उनके विषय में और कुछ ज्ञात नहीं है। इनका उल्लेख धवला में अनेक बार किया गया है। जैसे--पु. १, पृ० ७१,७२ व २२६ । पु० ३, पृ० १०३,१३३ व २४३ । पु० १०, पृ० २०,४४,२४२ व २७४ । पु० १३, पृ० ३६ व ३८१ । पु० १४, पृ० १३४, ५४१ व ५६४ । पु० १५, पृ० १। १५. महावाचय, महावाचयखमासमण ये किसी आचार्य-विशेष के नाम तो नहीं रहे दिखते हैं । महावाचक या महावाचकक्षमाश्रमण के रूप में अतिशय प्रसिद्ध होने के कारण किसी ख्यातनामा आचार्य के नाम का उल्लेख न करके धवलाकार ने उनका इस रूप में उल्लेख किया है "महावाचया ट्ठिदिसंतकम्मं पयासंति ।"-धवला, पु० १६, पृ० ५७७ १. न्यायकुमुदचन्द्र २, प्रस्तावना, पृ० ४८-५८ द्रष्टव्य हैं। प्रत्यकारोल्लेख | ६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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