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इसके अतिरिक्त भट्टाकलंकदेव (८वीं शती) ने पूज्यपाद-विरचित सर्वार्थसिद्धि के बनेक वाक्यों को अपने तस्वार्थवार्तिक में उसी रूप में ग्रहण कर लिया है। जैसे
"आत्मकर्मणोदम्योन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बन्धः।"-स० सि० १-४; त.वा. १,४,१७ "बास्रवनिरोधलक्षणः संवरः।"-स०सि० १-४, त०वा० १,४,१८ "एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा।"-स०सि० १-४; तवा० १,४,१६ "कृत्स्नकर्मविप्रयोगलक्षणो मोक्षः।"--स.सिं० १-४; त०वा०. १,४,२० "मयहितत्वात् प्रमाणस्य पूर्वनिपातः।"-स०सि० १-६; तवा० १,६,१; इत्यादि।
इस स्थिति को देखते हुए यह भी सुनिश्चित है कि आ० पूज्यपाद, आ. अकलंकदेव के पूर्व हुए हैं, उनके पश्चावर्ती वे नहीं हो सकते।
इससे सम्भावना यही है कि वे प्रायः छठी शताब्दी के विद्वान् रहे हैं। पूज्यपाद-विरचित ग्रन्थ
आचार्य पूज्यपाद द्वारा रचे गये ये ग्रन्थ उपलब्ध है-१. जैनेन्द्रव्याकरण, २. सर्वार्थसिद्धि (तत्त्वार्थवृत्ति), ३. समाधितंत्र, ४. इष्टोपदेश और ५. सिद्धिप्रियस्तोत्र ।
'दशभक्ति' को भी पूज्यपाद-विरचित माना जाता है। पं० पन्नालाल जी सोनी द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित 'क्रियाकलाप' में प्राकृत व संस्कृत में रची गयी सिद्धभक्ति व योगभक्ति आदि भक्तियां संगृहीत हैं, जिन पर प्रभाचन्द्राचार्य की टीका है। इस टीका में टीकाकार ने 'संस्कृताः सर्वा भक्तयः पादपूज्यस्वामिकृताः, प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृताः' ऐसा कहकर यह सचित किया है कि सभी संस्कृत-भक्तियाँ मा० पूज्यपाद के द्वारा और प्राकृत-भक्तियाँ कुन्दकुन्दाचार्य के द्वारा रची गयी हैं। - इनके अतिरिक्त शिलालेखों आदि से जिनाभिषेक, जैनेन्द्रन्यास, शब्दावतार, शान्त्यष्टक और किसी वैद्यकग्रन्थ के भी उनके द्वारा रचे जाने की सम्भावना की जाती है। ___ सारसंग्रह-जैसा कि पीछे (पृ०६०५ पर) 'ग्रन्थोल्लेख' के प्रसंग में कहा जा चकारी धवलाकार ने 'तथा सारसंग्रहेऽप्युक्तं पूज्यपादः' सूचना के साथ ग्रन्थ और ग्रन्थकार के नामनिर्देशपूर्वक नय के एक लक्षण को उद्धृत किया है।' इस नाम का कोई ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध नहीं है । धवलाकार के द्वारा किया गया यह 'पूज्यपाद' उल्लेख आचार्य देवनन्दी के लिए किया गया है या वैसे आदरसूचक विशेषण के रूप में वह अकलंकदेव आदि किसी अन्य आचार्य के लिए किया है, यह संदेहास्पद है।
इसके पूर्व में भी धवला में "तथा पूज्यपावभट्टारकरप्यभाणि सामान्यनयलक्षणमिवमेव म निर्देश के साथ 'प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः' नय के इस लक्षण को उद्धत किया जा
__ नय का यह लक्षण ठीक इन्हीं शब्दों में भट्टाकलंकदेव-विरचित तत्त्वार्थवार्तिक (१,३३,१। में उपलब्ध होता है।
__ यदि 'सारसंग्रह' नाम का कोई ग्रन्थ है और वह भी आचार्य पूज्यपाद-विरचित, तो सम्भव है यह नय लक्षण भी उसी सारसंग्रह में रहा हो और वहीं से अकलंकदेव ने उसे तत्त्वार्थवार्तिक १. देखिए पु० ६, पृ० १६७ २. वही, पृ० १६५
६६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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