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स.सिद्धि गापांश
कुन्द पन्थ ५-१४ ओगाढगाढणिचिओ
पंचास्तिकाय ६४ ५-१६
अण्णोण्णं पविसंता ५-२५ अत्तादिअत्तमझं
नियमसार २६ असिदिसदं किरियाणं
भावप्राभूत १३६ मरदु व जियदु व
प्रवचनसार ३-१७ उनके द्वारा विरचित समाधितंत्र और इष्टोपदेश पर भी आचार्य कुन्दकुन्द-विरचित अध्यात्मग्रन्थों का अत्यधिक प्रभाव रहा है। इन दोनों ग्रन्थों के अन्तर्गत बहुत से श्लोक तो कुन्दकुन्द-विरचित गाथाओं के छायानुवाद जैसे हैं ।
आ० कुन्दकुन्द का समय भी प्रथम शताब्दी माना जाता है। इसलिए पूज्यपाद आ० कुन्दकुन्द के भी परवर्ती हैं, यह निश्चित है।
पूज्यपाद-विरचित 'जैनेन्द्रव्याकरण' के 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' इस सूत्र (५,४,१४०) में आ० समन्तभद्र का उल्लेख किया गया है । समन्तभद्र का समय प्रायः दूसरी-तीसरी शताब्दी माना जाता है। अतः पूज्यपाद इसके बाद हुए हैं। ___ इसी प्रकार उक्त जैनेन्द्रव्याकरण के 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' सूत्र (५,१,७) में आचार्य सिद्धसेन का उल्लेख किया गया है । इसके अतिरिक्त सर्वार्थसिद्धि (७-१३) में सिद्धसेन-विरचित तीसरी द्वात्रिंशिका के अन्तर्गत एक पद्य के प्रथम चरण को 'उक्तं च' कहकर इस प्रकार उद्धृत किया गया है-वियोजयति चासुभिर्न वधेन संयुज्यते .' इस द्वात्रिंशिका के कर्ता सिद्धसेन प्रायः ५वीं शताब्दी के ग्रन्थकार रहे हैं। इससे निश्चित है कि पूज्यपाद सिद्धसेन के बाद हुए हैं। __ उनसे कितने बाद वे हुए हैं, इसका निर्णय करने में देवसेनाचार्य (वि० सं० ६६०)-विरचित दर्शनसार से कुछ सहायता मिलती है । वहाँ कहा गया है कि पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दी ने विक्रम राजा की मृत्यु के पश्चात् ५२६ में दक्षिण मथुरा में द्राविड़ संघ को स्थापित किया। यथा
सिरिपुज्जपादसोसो वाविष्टसंघस्स कारगो वुट्ठो। णामेण वज्जणंदी पाहुडवेदी महासत्तो॥२४॥ पंचसए छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स ।
दक्षिणमहुराजादो दाविडसंघो महामोहो ॥२८॥ इस प्रकार पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दी ने जब वि० सं० ५२६ में द्राविड संघ को स्थापित किया तब उन वज्रनन्दी के गुरु पूज्यपाद उनसे १५-२५ वर्ष पूर्व हो सकते हैं ।
१. पूरा पद्य इस प्रकार है
वियोजयति चासुभिर्न वधेन संयुज्यते शिवं च न परोपमर्दपुरुषस्मृतेविद्यते । वधायतनमभ्युपैति च पराननिघ्नन्नपि त्वयाऽयमतिदुर्गमः प्रशमहेतुरुद्योतितः ।।-तृ० द्वात्रि०, १६
प्रन्थकारोल्लेख / ६३
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