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________________ प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । विसंधानकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ।। -धनंजय-नाममाला, २०३ 'ज्ञानार्णव' के कर्ता शुभचन्द्राचार्य ने उन देवनन्दी को नमस्कार करते हुए उनके लक्षणशास्त्र की प्रशंसा में कहा है कि उनके वचन प्राणियों के काय, वचन और मन के कलंक को दूर करने वाले हैं। यथा अपाकुर्वन्ति यद्वाचः काय-वाक्-चित्तसम्भवम् । कलंकमङ्गिना सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥१-१५।। जैनेन्द्रप्रक्रिया के प्रारम्भ में आचार्य गुणनन्दी ने 'जनेन्द्र व्याकरण' के प्रणेता उन पूज्यपाद को नमस्कार करते हुए कहा है कि जो उनके इस लक्षणशास्त्र में है वह अन्यत्र भी मिल सकता है, किन्तु जो इसमें नहीं है वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा। तात्पर्य यह कि उनका व्याकरण सर्वांगपूर्ण रहा है । वह श्लोक इस प्रकार है नमः श्रीपूज्यपादाय लक्षणं यवुपक्रमम् । यदेवात्र तदन्यत्र यन्नात्रास्ति न तत् क्वचित् ।। - आचार्य पूज्यपाद या देवनन्दी के स्तुतिविषयक ये कुछ ही उदाहरण दिये गये हैं। वैसे उनकी स्तुति कितने ही अन्य परवर्ती आचार्यों ने भी की है। जैसे पार्श्वनाथचरित (१-१८) में मुनि वादिराज आदि। इसके अतिरिक्त अनेक शिलालेखों में भी उनकी भरपूर प्रशंसा की गयी है। इससे स्पष्ट है कि आ० पूज्यपाद व्याकरण के गम्भीर विद्वान् रहे हैं। इसी से उनके द्वारा विरचित 'जैनेन्द्र व्याकरण' सर्वांगपूर्ण होने से विद्वज्जनों में अतिशय प्रतिष्ठित रहा है। व्याकरण के अतिरिक्त वे आगमग्रन्थों के भी तलस्पर्शी विद्वान् रहे हैं। इसे पीछे 'षट्खण्डागम व सर्वार्थसिद्धि' शीर्षक में विस्तार से स्पष्ट किया जा चुका है। पूज्यपाद का समय जैसा कि पीछे स्पष्ट किया जा चुका है, आ० पूज्यपाद ने अपनी सर्वार्थसिद्धि की रचना में यथाप्रसंग षट्खण्डागम का भरपूर उपयोग किया है। यही नहीं, उन्होंने 'सत्संख्या-क्षेत्रस्पर्शन-कालान्तर-भावाल्पबहुत्वैश्च' इस सूत्र (तसू० १-८) की व्याख्या में ष०ख० के 'जीवस्थान' खण्ड से सम्बद्ध अधिकांश प्राकृत सूत्रों का संस्कृत छाया के रूप में अनुवाद कर दिया है। इससे निश्चित है कि वे आ० पुष्पदन्त-भूतबलि के पश्चात् हुए हैं। इन श्रुतधरों का काल प्रायः विक्रम की प्रथम शताब्दी है। सर्वार्थसिद्धि में कुन्दकुन्दाचार्य-विरचित कुछ ग्रन्थों से प्रसंगानुसार कुछ गाथाओं को उद्धत किया गया है । यथास०सिडि गाथांश कुन्द० प्रन्य २-१० सक्वे वि पुग्गला खलु द्वादशानुप्रेक्षा २५ २-३३ णिच्चिदरधा दु सुत्तय' १. यह गाथा मूलाचार में भी ५-२६ और १६-६३ गाथा-संख्या में उपलब्ध होती है। ६८२ / बट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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