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"महावाचयाणं खमासमणाणं उवदेसेण सव्वत्योवाणि कसाउदयट्ठाणाणि।"
-धवला, पु० १६, पृ. ५७७ "महावाचयखमासमणा संतकम्ममग्गणं करेंति।"--धवला, पु० १६, पृ० ५७९
सम्भव है धवलाकार ने 'महावाचक' और 'महावाचक क्षमाश्रमण' के रूप में यहाँ आचार्य आर्यमंक्षु का उल्लेख लिया हो। १६. यतिवृषभ
धवला में आचार्य यतिवृषभ का उल्लेख दो-तीन बार इस प्रकार किया गया है
(१) केवलिसमुद्घात के प्रसंग में एक शंका का समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यतिवषभ के उपदेशानुसार क्षीणकषाय के अन्तिम समय में सभी अघातिया कर्मों की स्थिति समान नहीं रहती है, इसलिए सब केवली समुद्घात करके ही मुक्ति को प्राप्त करते हैं।'
(२) जीवस्थान-चूलिका में प्रसंगप्राप्त एक शंका के समाधान में धवलाकार ने कहा है कि 'उपशामक' को मध्यदीपक मानकर शिष्यों के प्रतिबोधनार्थ 'यह (अन्तरकरण करने में प्रवृत्त अनिवृत्तिकरणसंयत) दर्शनमोहनीय का उपशामक है' ऐसा यतिवृषभ ने कहा है।'
(३) वेदनाभावविधान में प्रसंगप्राप्त एक शंका के समाधान में 'कसायपाह' का उल्लेख करते हुए धवला में कहा गया है कि-'इस अर्थ को वर्धमान भट्टारक ने गौतम स्थविर को कहा। गौतम के पास वह अर्थ आचार्य-परम्परा से आकर गुणधर भट्टारक को प्राप्त हुआ। उनके पास से वही अर्थ आचार्यपरम्परा से आता हुआ आर्य मंक्षु और नागहस्ती के पास आया। इन दोनों ने उसका व्याख्यान यतिवृषभ भट्टारक को किया । यतिवृषभ ने उसे अनुभागसंक्रम के प्रसंग में चूर्णिसूत्र में लिखा' । यतिवृषभ का व्यक्तित्व
ऊपर के इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि आचार्य यतिवृषभ कर्मसिद्धान्त के गम्भीर ज्ञाता रहे हैं । जयधवला टीका को प्रारम्भ करते हुए आ० वीरसेन ने उनकी स्तुति में उन्हें वृत्तिसूत्रों (चूर्णिसूत्रों) का कर्ता कहकर उनसे वर की याचना की है तथा यह भी स्पष्ट किया है कि वे थार्यमंक्षु के शिष्य और नागहस्ती के अन्तेवासी रहे हैं । यथा
जो अज्जमखुसीसो अंतेवासी वि णागहत्थिस्स ।
सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो में वरं देऊ ।।-गाथा ८ वृत्तिसूत्र के लक्षण का निर्देश करते हुए जयधवला में कहा गया है कि सूत्र की जिस व्याख्या में शब्द-रचना तो संक्षिप्त हो, पर जो सूत्र में अन्तहित समस्त अर्थ की संग्राहक हो, उसका नाम वृत्तिसूत्र है।
धवलाकार ने अनेक प्रसंगों पर यतिवृषभ-विरचित उन वृत्तिसूत्र या चूणिसूत्रों का उल्लेख १. धवला, पु० १, पृ० ३०२ २. धवला, पु० ६, पृ० २३३ ३. वही, पु० १२, पृ० २३०-३२ ४. सुत्तस्सेव विवरणाए संखित्तसद्दरयणाए संगहियसुत्तासेसत्याए वित्तिसुत्तववएसादो।
-क०पा० सुत्त, प्रस्तावना, पृ० १५
'६८६/ षट्ण्डागम-परिशीलन
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