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________________ कसायपाहर, पाहुस्सुत्त आदि अनेक नामों से किया है-यह पीछे विस्तार से स्पष्ट किया जा चुका है। धवलाकार का आ० यतिवृषभ और उनके चूर्णिसूत्रों के प्रति अतिशय आदरभाव रहा है। उनके समक्ष जहाँ कहीं भी चूर्णिसूत्रों के साथ मतभेद या विरोध का प्रसंग उपस्थित हुआ है, धवलाकार ने उनके शंका-समाधानपूर्वक उनकी सूत्ररूपता को षट्खण्डागम सूत्रों के ही समान, अखण्डनीय सिद्ध किया है।' इस सबको 'ग्रन्थोल्लेख' में फसायपाहर के प्रसंग में देखा जा सकता है। कृतियों प्रस्तुत कषायप्राभूतचूर्णि के अतिरिक्त 'तिलोयपण्णत्ती' को भी आ० यतिवृषभ-विरचित माना जाता है। तिलोयपण्णत्ती में लोक के अन्तर्गत विविध विभागों की अतिशय व्यवस्थित प्ररूपणा के अतिरिक्त अन्य भी अनेक प्रासंगिक विषयों की प्ररूपणा की गयी है। जैसेपौराणिक व बीस प्ररूपणाओं आदि सैद्धान्तिक विषयों का विवेचन । इन विषयों का विवेचन वहाँ अतिशय प्रामाणिकता के साथ लोकविभाग व लोकविनिश्चय आदि कितने ही प्राचीनतम ग्रन्थों के आश्रय से किया गया है तथा व्याख्यात विषय की उनके द्वारा पुष्टि की गयी है। इससे ग्रन्थकार यतिवृषभ की बहुश्रुतशालिता का परिचय प्राप्त होता है। समय ___यतिवृषभाचार्य के समय के विषय में विद्वानों में एक मत नहीं है। कुछ तथ्यों के आधार पर यतिवृषभ के समय की कल्पना ४७३-६०६ ईस्वी के मध्य की गयी है।' १७. व्याख्यानाचार्य जो प्रसंगप्राप्त प्रतिपाद्य विषय का व्याख्यान अतिशय कुशलतापूर्वक किया करते थे उन व्याख्यानकुशल आचार्यों की प्रसिद्धि व्याख्यानाचार्य के रूप में रही है। धवला में व्याख्यानाचार्य का उल्लेख दो बार हुआ है । यथा (१) जीवस्थान-अन्तरानुगम में अवधिज्ञानियों के अन्तर की प्ररूपणा के प्रसंग में अन्य कुछ शंकाओं के साथ एक यह भी शंका उठायी गयी है कि जिन्होंने गर्भोपक्रान्तिक जीवों में अड़तालीस पूर्वकोटि वर्षों को बिंता दिया है उन जीवों में अवधिज्ञान को उत्पन्न कराकर अन्तर को क्यों महीं प्राप्त कराया । इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि उनमें अवधिज्ञान की सम्भावना के प्ररूपक व्याख्यानाचार्यों का अभाव है । (पु० ५ पृ० ११६) (२) एक अन्य उल्लेख धवला में देशावधि के द्रव्य-क्षेत्रादि-विषयक विकल्पों के प्रसंग में इस प्रकार किया गया है___ "सणिण सण्णिमव्वामोहो अणाउलो समचित्तो सोदारे संबोहेंतो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तदव्वभाववियप्पे उप्पाइय वक्खाणाइरिओ (?) खेत्तस्स चउत्थ-पंचम-छट्ठ-सत्तम-पहुडि जाव १. उदाहरण के रूप में कपा० सुत्त पृ० ७५१, चूणि १६५-६६ और धवला पु० १, पृ. २१७-२२, में आठ कषायों और स्त्यानगद्धित्रय आदि सोलह प्रकृतियों के क्षय के पूर्वा परक्रमविषयक प्रसंग को देखा जा सकता है। २. देखिए ति०प०, भाग २ की प्रस्तावना, पृ० १५-२० प्रन्थकारोल्लेख / ६८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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