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________________ अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ते ओहिखेत्तवियप्पे उप्पाइय तदो जहण्णकालस्सुवरि एगो समा वड्ढावेदव्यो।"-पु. ६, पृ० ६० (पाठ कुछ स्खलित हुआ दिखता है) १८. आचार्य समन्तभद्र षट्खण्डागम के चतुर्थ खण्डभूत 'वेदना' के प्रारम्भ (कृति अनुयोगद्वार) में ग्रन्थावतार विषयक प्ररूपणा करते हुए धवलाकार ने नय-प्ररूपणा के प्रसंग में 'तथा समन्तभद्रस्वामिनाप्युक्तम्' इस सूचना के साथ आचार्य समन्तभद्र-विरचित आप्तमीमांसा की इस कारिका को उद्धृत किया है स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नयः॥ इसके पूर्व में वहाँ 'क्षुद्रकबन्ध' खण्ड के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों में से प्रथम 'स्वामित्वानुगम' में दर्शन के अस्तित्व को सिद्ध करते हुए धवलाकार ने उस प्रसंग से 'तहा समंतभह सामिणा वि उत्तं' ऐसा निर्देश करके स्वयम्भूस्तोत्र के "विधिविषक्तप्रतिषेधरूपः" इत्यादि पद्य को उद्धृत किया है। समन्तभद्र-परिचय ___ आचार्य समन्तभद्र एक महान् प्रतिभाशाली तार्किक विद्वान् रहे हैं। उन्होंने तर्कपूर्ण अनेक स्तुतिपरक ग्रन्थों को रचा है। ये ग्रन्थ शब्द-रचना में अतिशय संक्षिप्त होकर भी अपरिमित अर्थ से गर्भित, गम्भीर व दुरूह रहे हैं । इन ग्रन्थों में केवल ११४ श्लोकस्वरूप 'देवागमस्तोत्र' (आप्तमीमांसा) पर भट्टाकलंकदेव ने 'अष्टशती' नाम की टीका और आचार्य विद्यानन्द ने 'अष्टसहस्री' नाम की विस्तृत टीका को रचा है । इस प्रकार १६५ पद्यात्मक 'युक्त्यनुशासन' पर भी आ० विद्यानन्द ने टीका रची है । टीकाकार आचार्य अकलंकदेव और विद्यानन्द बहुमान्य विख्यात दार्शनिक विद्वान् रहे हैं। इन टीकाओं के बिना उन स्तुत्यात्मक ग्रन्थों के रहस्य को समझना भी कठिन रहा है। समन्तभद्र केवल तार्किक विद्वान् ही नहीं रहे हैं, अपितु कवियों के शिरोमणि भी वे रहे हैं। इसका ज्वलन्त उदाहरण उनके द्वारा विरचित 'स्तुतिविद्या' (जिनशतक) है। यह उनका चित्रबन्ध काव्य मुरजबन्ध आदि अनेक चित्रों से अलंकृत है, श्लेषालंकार व यमकालंकार आदि शब्दालंकारों का इसमें अधिक उपयोग हुआ है । अनेक एकाक्षरी पद्य भी इसमें समाविष्ट हैं। यह कवि की अनुपम काव्यकुशलता का परिचायक है। इस चित्रमय काव्य की रचना-शैली को देखते हुए यह भी निश्चित है कि उनकी व्याकरण में भी अस्खलित गति रही है । जैनेन्द्रव्यारण में 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' इस सूत्र (५,४,१६८) के द्वारा जो समन्तभद्र के मत को प्रकट किया गया है वह भी उनकी व्याकरणविषयक विद्वत्ता का अनुमापक है। जैनेन्द्रप्रक्रिया (सूत्र १,१-४३, पृ० १४) में 'आर्येभ्यः (आ आर्येभ्यः) यशोगतं १. धवला, पु० ६, पृ० १६७ २. पूरी कारिका इस प्रकार है सधर्मणव साध्यस्य साधादविरोधतः । स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नयः ।।-आ० मी० १०६ ३. देखिए धवला, पु० ७, पृ० ६६ व स्वयम्भस्तोत्र, ५२ ५८८ / षट्समागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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