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________________ समन्तभद्रीयम्' यह जो उदाहरण दिया गया है वह भी यश के प्रसार की कारणभूत उनकी अनेक विषयोन्मुखी प्रतिभा का द्योतक है । जीवन-वृत्त आचार्य समन्तभद्र के जन्म स्थान, माता-पिता और शिक्षा-दीक्षा आदि के विषय में कुछ भी परिचय प्राप्त नहीं है । स्वयं समन्तभद्र ने अपनी किसी कृति में श्लेष रूप में नामनिर्देश' के सिवाय कुछ भी परिचय नहीं दिया । श्रवणबेलगोल. के दौर्बलि जिनदास शास्त्री के भण्डार में ताडपत्रों पर लिखित आप्तमीमांसा की एक प्रति पायी जाती है । उसके अन्त में यह सूचना दी गयी है - " इति फणिमण्डलालंकारस्योरगपुराधिपसूनोः श्रीस्वामिसमन्तभद्रमुनेः कृतौ आप्तमीमांसायाम् ।" इससे इतना मात्र परिचय मिलता है कि समन्तभद्र मुनि जन्म से क्षत्रिय थे, उनका जन्मस्थान फणिमण्डल के अन्तर्गत उरगपुर था तथा पिता इस नगर के अधिपति रहे । इससे यह भी ज्ञात होता है कि स्वामी समन्तभद्र राजपुत्र रहे हैं। पर उपर्युक्त पुष्पिका वाक्य में कितनी प्रामाणिकता है, यह कहा नहीं जा सकता । समन्तभद्र - विरचित 'स्तुतिविद्या' का ११६वीं पद्य चक्रवृत्तस्वरूप है। उसकी चक्राकृति में बाहर की ओर से चौथे वलय में 'जिनस्तुतिशतं स्तुति-विद्या का यह दूसरा नाम उपलब्ध होता है । इसी प्रकार उसके सातवें वलय में 'शान्तिवर्मकृतं' यह ग्रन्थकार का नाम उपलब्ध होता है । इससे ज्ञात होता है कि स्तुतिविद्या अपरनाम जिनस्तुतिशतक के रचयिता आ० समन्तभद्र का 'शान्तिवर्मा' नाम जिन-दीक्षा लेने से पूर्व प्रचलित रहा है । 'राजावलीकये' में उनका जन्म स्थान 'उत्कलिका' ग्राम कहा गया है।" आचार्य समन्तभद्र के जीवन से सम्बन्धित इससे कुछ अधिक प्रामाणिक परिचय प्राप्त नहीं है । गुणस्तुति आ० समन्तभद्र आस्थावान् जिनभक्त, परीक्षाप्रधानी, जैनदर्शन के अतिरिक्त बोद्ध व नैयायिक - वैशेषिक आदि अन्य दर्शनों के भी गम्भीर अध्येता, जैनशासन के महान् प्रभावक, वादविजेता और विशिष्ट संयमी रहे हैं; यह उनकी कृतियों से ही सिद्ध होता है । यथा - जिनभक्त — उनकी सभी कृतियाँ प्रायः (रत्नकरण्डक श्रावकाचार को छोड़कर) जिनभक्तिप्रधान हैं, जिनमें जिनस्तुति के रूप में नयविवक्षा के अनुसार जिन प्रणीत तत्त्वों का विचार करते हुए इतर दर्शनसम्मत तत्त्वों का सयुक्तिक निराकरण किया गया है। यही उनके जिनभक्त होने का प्रमाण है। उनकी जिन भक्ति का नमूना देखिए १. यथा - ( १ ) तव देवमतं समन्तभद्रं सकलम् ॥ स्वयम्भू स्तोत्र १४३ (२) त्वयि ध्रुवं खण्डितमानश्रृंगो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ।। २. देखिए 'स्वामी समन्तभद्र' पृ० ४-५ Jain Education International For Private & Personal Use Only - युक्त्यनुशासन, ६३ प्रथकारोल्लेख / ६८९ www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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