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________________ स्तुतिः स्तोतः साधोः कुशलपरिणामाय स सदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रेयसपथे स्तुयान्न त्वा विद्वान् सततमभिपूज्यं नमिजिनम् ।। -स्वयम्भू०, ११६ वे कहते हैं—हे नमि जिन ! स्तुति के योग्य (जिन-आदि) समक्ष हों, न भी हों; उनके रहते हुए फल भी प्राप्त हो, न भी हो; किन्तु स्तोता के द्वारा अन्तःकरण से की गयी स्तुति निर्मल परिणामों की कारणभूत होने से पुण्यवर्धक ही होती है । इस प्रकार कल्याणकर मार्ग के अनायास सुलभ होने पर कौन-सा ऐसा विद्वान् है जो सतत पूज्य आप नमिजिन की स्तुति न करे ? आत्महितषी विवेकी जन ऐसे वीतराग प्रभु की स्तुति किया ही करते हैं। __ इसके पूर्व भगवान् वासुपूज्य जिन की स्तुति (५७) में भी उन्होंने अपना यही अभिप्राय अभिव्यक्त किया है। आस्थावान्-उनके दृढ़ श्रद्धानी होने का भी प्रमाण द्रष्टव्य है सुश्रद्धा मम ते मते स्मतिरपि त्वय्यर्चनं चापि ते हस्तावञ्जलये कथाश्रुतिरतः कर्णोऽक्षि संप्रेक्षते। सुस्तुत्यां व्यसनं शिरो नतिपरं सेवेदशी येन ते तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृती तेनैव तेजःपते ॥ -स्तुतिविद्या, ११४ समन्तभद्र की वीतराग जिनदेव पर कितनी आस्था-दृढ़ श्रद्धा-थी, यह इस पद्य से सुस्पष्ट है । वे कहते हैं- हे भगवन् ! मेरी समीचीन या अतिशयित श्रद्धा आपके मत परआपके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वों पर है, स्मरण भी मैं सदा आपका करता हूँ, पूजा भी आपकी ही करता हूँ, मेरे दोनों हाथ आपको नमस्कार करने में व्यापृत रहते हैं, कान मेरे आपकी कथावार्ता में निरत रहते हैं, नेत्र आपके दर्शन के लिए उत्सुक रहते हैं, आपकी स्तुति के रचने की मेरी आदत बन गयी है, तथा मेरा सिर आपके लिए नमस्कार करने में तत्पर रहता है। इस प्रकार से चूंकि मैं आपकी सेवा (आराधना)कर रहा हूँ, इसलिए है केवलिज्ञान रूप तेज से सुशोभित देवाधिदेव ! मैं तेजस्वी, सुजन और पुण्यशाली हूँ। तात्पर्य यह है कि आचार्य समन्तभद्र ने जिनदेव पर निश्चल श्रद्धा व गुणानुराग होने से उनके आराधन में अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया था। यह यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य है कि स्वामी समन्तभद्र ने जिन भगवान् के प्रति अपनी सामान्य श्रद्धा को नहीं, अपितु 'सुश्रद्धा' को व्यक्त किया है। जिसका अभिप्राय शंका आदि पच्चीस दोषों से रहित निर्मल श्रद्धान है। इसी का नाम है दर्शन-विशुद्धि । इसी अभिप्राय को उन्होंने अपने रत्नकरण्डक में इस प्रकार से व्यक्त कर दिया है भयाशा-स्नेह-लोभाच्च कुवेवागम-लिगिनाम् । प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ।।-र०क० ३० थे दूसरों को भी इस ओर प्रेरित करते हुए कहते हैं कि जो निर्मल सम्यग्दृष्टि हैं उन्हें भय, धनादि की आशा, स्नेह और लोभ के वश होकर कभी भी कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु को प्रणाम ६९० / पट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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