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तथा उनकी विनय - पूजा आदि नहीं करनी चाहिए।
इसके उदाहरण भी स्वयं समन्तभद्र ही हैं । यह स्मरणीय है कि जिन-दीक्षा लेकर मुनि समन्तभद्र निरतिचार अट्ठाईस मूलगुणों का परिपालन करते हुए ज्ञान व संयम के आराधन में उद्यत रहते थे । इस बीच उन्हें अशुभकर्म के उदय से भस्मक रोग उत्पन्न हो गया था । यह एक ऐसा भयानक रोग है कि इससे पीड़ित प्राणी प्रचुर मात्रा में भी नीरस भोजन को लेता हुआ उसे शान्त नहीं कर सकता है । उसकी शान्ति के लिए प्रचुर मात्रा में कंफ को बढ़ानेवाला गरिष्ठ भोजन मिलना चाहिए । पर मुनि धर्म का पालन करते हुए समन्तभद्र के लिए वह शक्य नहीं था । इससे उन्होंने सल्लेखना ग्रहण करने का विचार किया । पर गुरु ने उसके लिए उन्हें आज्ञा नहीं दी । उन्हें उनकी अविचल तत्त्वश्रद्धा पर विश्वास था, तथा यह भी वे समझते थे कि भविष्य में इसके द्वारा जैन शासन को विशेष लाभ हो सकेगा । इसी से उन्होंने सल्लेखना न देकर यह कह दिया कि जिस किसी भी प्रकार से तुम इस रोग को शान्त कर लो और तब फिर से दीक्षा लेना । इस पर समन्तभद्र ने सोचा कि इस जिनलिंग में रहते हुए एषणासमिति विरुद्ध घृणित उपायों से गरिष्ठ भोजन को प्राप्त कर रोग को शान्त करना उचित न होगा । इसी सद्भावना से उन्होंने मुनि-वेष को छोड़कर तापस का वेष धारण कर लिया और उस वेष में 'कांची' जाकर 'भीमलिंग' नामक शिवालय में जा पहुँचे । इस शिवालय में प्रतिदिन विपुल भोजन का उपयोग होता था । यह भोजन शिव के लिए अर्पित किया जा सकता है, ऐसा भक्तजनों को आश्वासन देकर गर्भालय का द्वार बन्द करके समन्तभद्र उसे स्वयं ग्रहण करने लगे । इस प्रकार उत्तरोत्तर रोग के शान्त होने पर जब भोजन बचने लगा तब राजा शिवकोटि को सन्देह उत्पन्न हो गया । इससे उन्हें भयभीत किया गया । पर दृढ़ श्रद्धालु समन्तभद्र भयभीत होकर स्थिर श्रद्धा से विचलित नहीं हुए । उन्होंने तब स्वयम्भूस्तोत्र की रचना की । इस प्रकार धर्म के प्रभाव से शिवमूर्ति के स्थान में चन्द्रप्रभ जिन की मूर्ति प्रकट हुई। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, उन्हें 'स्तुति' का ऐसा ही व्यसन रहा है ।'
इस प्रकार से राजा और अन्य दर्शक उससे प्रभावित होकर यथार्थ धर्म की ओर आकृष्ट हुए । समन्तभद्र पुन: दीक्षा लेकर स्व-पर के कल्याणकारक मुनिधर्म का पूर्ववत् निर्दोष रीति से पालन करने लगे ।
परीक्षा प्रधानी—समन्तभद्राचार्य की कृतियों से यह भी स्पष्ट है कि उन्होंने जो भी यथार्थ धर्म का आचरण किया है व जिनेन्द्र की भक्ति की है वह प्रचलित विभिन्न दर्शनों के अध्ययनपूर्वक उनकी परीक्षा करके आश्वस्त होकर ही की है, अन्धविश्वास से नहीं ।
उनका 'देवागमस्तोत्र' (आप्तमीमांसा) इसी परीक्षाप्रधानता की दृष्टि से रचा गया है । इसमें उन्होंने भगवान् महावीर के महत्त्वविषयक देवागमादि रूप प्रश्नों को उठाकर उनसे प्राप्त होनेवाले महत्त्व का निराकरण किया है । अन्त में उन्होंने उनकी वीतरागता और सर्वज्ञता पर आश्वस्त होकर उन्हें निर्दोष व युक्ति एवं आगम से अविरुद्ध वक्ता स्वीकार करते हुए प्रचलित
१. विशेष जानकारी के लिए देखिए 'स्वामी समन्तभद्र' में 'मुनिजीवन और आपत्काल' शीर्षक, पु० ७३ ११४
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ग्रन्थकारोल्लेख / ६६१
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