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विविध एकान्तवादों की समीक्षा की है । '
अन्त में उन्होंने वहाँ यह स्पष्ट कर दिया है कि यह जो मैंने आप्त की परीक्षा की है वह आत्महितैषियों के लिए समीचीन और मिथ्या उपदेश के अर्थ (रहस्य) का विशेष रूप से बोध हो जाय, इसी अभिप्राय से की है । यथा
इतीयमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छताम् । सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये ॥ ११४॥
इस प्रकार से समन्तभद्र जब वीर जिन (आप्त) की परीक्षा कर चुके, तब उन्होंने आप्त माने जानेवाले अन्यों में असम्भव वीर जिन की वीतरागता व सर्वज्ञता पर मुग्ध होकर 'युक्त्यनुशासन' के रूप में उनकी स्तुति को प्रारम्भ कर दिया। उसे प्रारम्भ करते हुए वे कहते हैंकी महत्या भुवि वर्धमानं त्वां वर्धमानं स्तुतिगोचरत्वम् । निनीषवः स्मो वयमद्य वीरं विशीर्णदोषाशय-पाशबन्धम् ॥
- युक्त्यनुशासन, १
इसमें वे भगवान् महावीर को लक्ष्य करके कहते हैं कि हे वीर जिन ! आपने अज्ञानादि दोषों ( भावकर्म) और उनके आधारभूत ज्ञानावरणादि रूप आशयों (द्रव्यकमं) स्वरूप पाश के बन्धन को तोड़ दिया है, इसीलिए आपका मान - केवलज्ञानरूप प्रमाण- - वृद्धिंगत हुआ है, उस केवलज्ञान के प्रभाव से आप समवसरणभूमि में महती कीर्ति से—युक्ति और आगम से अविरुद्ध दिव्य वाणी के द्वारा - समस्त प्राणियों के मन को व्याप्त करते हैं; इसीसे हम उत्कण्ठित होकर आपकी स्तुति में प्रवृत्त हुए हैं।
अभिप्राय यह है कि आचार्य समन्तभद्र ने मुमुक्षु भव्यजनों के लिए प्रथमतः आप्त-अनाप्त की परीक्षा करके यथार्थ उपदेष्टा का बोध कराया है और तत्पश्चात् वे उसे ही स्तुत्य बताकर उसकी स्तुति में प्रवृत्त हुए हैं। इस प्रकार आप्त-अनाप्त के गुण-दोषों का विचार करते हुए आप्त की स्तुति में प्रवृत्त होकर भी स्वामी समन्तभद्र राग-द्वेष से कलुषित नहीं हुए, इसे भी उन्होंने स्तुति के अन्त में इस प्रकार अभिव्यक्त कर दिया है
न रागान्नः स्तोत्र भवति भव- पाशच्छिदि मुनी न चान्येषु द्वेषादपगुणकथाभ्यासखलता । किमु न्यायान्यायप्रकृतगुणदोषज्ञमनसां
हितान्वेषोपायस्तव गुणकथासंगगदितः ॥
युक्त्यनु०, ६४
वे अपने इस स्तुतिविषयक अभिप्राय को प्रकट करते हुए कहते हैं—आपने संसाररूप पाश को छेद दिया है, इसलिए हमने उसी संसाररूप पाश के छेदने की इच्छा से प्रेरित होकर यह आपका स्तवन किया है, न कि राग के वशीभूत होकर । इसी प्रकार आप्त के लक्षण से रहित अन्य आप्ताभासों के अपगुणों का जो विचार किया है वह भी द्वेष के वशीभूत होकर खलभाव से नहीं किया । किन्तु जो मुमुक्षु जन अन्तःकरण से न्याय-अन्याय और गुण-दोषों को
१. देखिए आप्तमीमांसा ( देवागमस्तोत्र ) १-८
२. इसकी आ० विद्यानन्द - विरचित उत्थानिका द्रष्टव्य है— श्रीसमन्तस्वामिभिराप्तमीमांसायामन्ययोगव्यवच्छेदाद् व्यवस्थापितेन भगवता श्रीमदार्हताऽन्त्यतीर्थंकर - परमदेवेन मां परीक्ष्य किं चिकीर्षवो भवन्तः इति पृष्टा इव प्राहुः । - युक्त्यनु० ( सटीक ), पृ० १
१२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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