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________________ दर्शनी जीवों के अस्तित्व को प्रकट करके उनमें सम्भव गुणस्थानों का उल्लेख है (१३१-३५) । १० लेश्या-इस मार्गणा की प्ररूपणा करते हुए कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, पीतलेश्या, पालेश्या और शुक्ललेश्या इन लेश्यावाले जीवों के साथ उस लेश्या से रहित हुए अलेश्य (सिद्ध) जीवों के भी अस्तित्व को व्यक्त करके उनमें किसके कितने गुणस्थान सम्भव हैं; इसका विचार किया गया है (१३६-४०)। ११. भव्य–यहाँ भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक जीवों के अस्तित्व को दिखाकर आगे उनका गुणस्थानविषयक विचार करते हुए कहा गया है कि भव्यसिद्धिक जीव एकेन्द्रिय से लेकर अयोगिकेवली तक और अभव्यसिद्धिक एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी मिथ्यादष्टि तक होते हैं (१४१-४३)। १२. सम्यक्त्व-इस मार्गणा के प्रसंग में सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग् दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि इनके अस्तित्व को दिखाकर उनमें कौन किस गुणस्थान तक सम्भव हैं; इसे स्पष्ट किया गया है (१४४-५०)। आगे क्रम से चारों गतियों के जीवों में कौन किस-किस सम्यग्दर्शन से रहित होते हुए किस गुणस्थान तक सम्भव हैं, इसका विशेष विचार किया गया है। जैसे-नारकियों में मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थान वाले होते हैं । उनमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती क्षायिक सम्यग्दृष्टि प्रथम पृथिवी में ही सम्भव हैं, द्वितीयादि शेष पृथिवियों में वे संभव नहीं हैं । शेष पृथिवियों में वे वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि ही होते हैं (१५१-५५)। इसी प्रकार से आगे तिर्यंचों, मनुष्यों और देवों में सम्यग्दर्शन भेदों के साथ यथासम्भव गुणस्थानों के सद्भाव को प्रकट किया गया है (१५६-७१)। १३. संज्ञी--इस मार्गणा में संज्ञी और असंज्ञी जीवों के अस्तित्व को दिखाकर आगे यह स्पष्ट कर दिया है कि उनमें संज्ञी जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक होते हैं । असंज्ञी जीव एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक होते हैं (१७२-७४) । १४. आहार--इस मर्गणा के प्रसंग में आहारक-अनाहारक जीवों के अस्तित्व को प्रकट करते हुए आहारक जीवों का सद्भाव एकेन्द्रिय से लेकर सयोगिकेवली तक बतलाया गया है। अनाहारक जीव विग्रहगति में वर्तमान जीव, समुद्घातकेवली, अयोगिकेवली और सिद्ध इन चार स्थानों में सम्भव हैं (१७५-७७)। इस प्रकार आचार्य पुष्पदन्त विरचित यह सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार १७७ सूत्रों में समाप्त हुआ है। वह धवला टीका के साथ षट्खण्डागम की १६ जिल्दों में से प्रथम व द्वितीय इन दो जिल्दों में प्रकाशित हुआ है । दूसरी जिल्द में सूत्र कोई नहीं है, वहाँ धवलाकार द्वारा उपर्युक्त १७७ सूत्रों से सूचित गुणस्थान व जीवसमास आदि रूप बीस प्ररूपणाओं को विशद किया गया है। २. द्रव्यप्रमाणानुगम 'द्रव्य' से यहाँ छह द्रव्यों में जीवद्रत्य विवक्षित है। उसके प्रमाण (संख्या) का अनुगम (बोध) कराना, यह इस अनुयोद्वार का प्रयोजन रहा है । इस द्रव्य प्रमाण की प्ररूपणा के यहाँ ४८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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