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________________ दो प्रकार रहे हैं-ओघ और आदेश । इन दोनों का अभिप्राय ऊपर 'सत्प्ररूपणा' के प्रसंग में प्रकट किया जा चुका है।' उनमें प्रथमतः ओघ की अपेक्षा द्रव्यप्रमाण की प्ररूपणा करते हुए क्रम से मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानवी जीवों के प्रमाण का विचार किया गया है। यथा--मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा कितने हैं ऐसा प्रश्न उठाते हुए उत्तर में कहा गया है कि वे अनन्त हैं । काल की अपेक्षा वे अनन्तानन्त अवसर्पिणी व उत्सपिणियों से अपहृत नहीं होते। क्षेत्र की अपेक्षा वे अनन्तानन्त लोक प्रमाण हैं । द्रव्य, काल और क्षेत्र इन तीनों प्रमाणों का जान लेना; यही भावप्रमाण है (सूत्र २-५)। ऊपर काल की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवों के प्रमाण की प्ररूपणा में जो यह कहा गया है कि वे अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सपिणियों से अपहृत नहीं होते, उसका अभिप्राय यह है कि एक ओर अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सपिणियों के समयों को रक्खे और दूसरी ओर मिथ्यादृष्टि जीवराशि को रक्खे, पश्चात् उस काल के समयों में से एक समय को और उस जीवराशि में से एक जीव को अपहृत करे, इस प्रकार से उत्तरोत्तर अपहृत करने पर सब समय तो समाप्त हो जाते हैं, पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि समाप्त नहीं होती। इसी प्रकार क्षेत्र की अपेक्षा जो उन्हें अनन्तानन्त लोक प्रमाण कहा गया है उसका भी अभिप्राय यह है कि लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक मिथ्यादष्टि जीव को रखने पर एक लोक होता है, ऐसी मन से कल्पना करे । इस प्रक्रिया के बार-बार करने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि अनन्तानन्त लोकप्रमाण होती है। ___ आगे सासादनसम्यग्दृष्टि आदि संयतासंयत पर्यन्त चार गुणस्थानवी जीवों के द्रव्यप्रमाण की प्ररूपणा में कहा गया है कि उनमें से प्रत्येक का द्रव्यप्रमाण पल्योपम के असंख्यातवें भाग है। इनमें से प्रत्येक के प्रमाण की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त से पल्योपम अपहृत होता है । इनके प्रमाण की प्ररूपणा यहाँ काल और क्षेत्र की अपेक्षा नहीं की गई है, क्योंकि प्रकृत में उनकी सम्भावना नहीं रही (सूत्र ६)।। इनके पृथक्-पृथक् प्रमाण का स्पष्टीकरण धवला में विस्तार से किया गया है।' आगे प्रमत्तसंयतों का द्रव्यप्रमाण कोटिपृथक्त्व और अप्रमत्तसंयतों का वह संख्यात निर्दिष्ट किया गया है (७-८)। चार उपशामकों के द्रव्यप्रमाण की प्ररूपणा करते हुए उन्हें प्रवेश की अपेक्षा एक, दो, तीन व उत्कर्ष से चौवन कहा गया है। काल की अपेक्षा उन्हें संख्यात कहा गया है। इसी प्रकार चार क्षपकों को प्रवेश की अपेक्षा एक, दो, तीन व उत्कर्ष से एक सौ आठ कहा गया है। काल की अपेक्षा उन्हें भी संख्यात कहा गया है (६-१२)। धवला के अनुसार संदृष्टि में स्थूल रूप से चौदह गुणस्थानवी जीवों का प्रमाण इस प्रकार है १. ध्यान रहे कि यहाँ इन अनुयोद्वारों में जो विषय का परिचय कराया जा रहा है वह मूल सूत्रों के आधार से संक्षेप में कराया जा रहा है, विशेष परिचय धवला के आधार से आगे कराया जायेगा। २. पु० ३, पृ० ६३-८८ मूलमन्यगत विषय का परिचय | ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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